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72००८ (०1९५, -2/८7८॥, 1880,
॥ अथ राब्दानुरासनम् ॥
अथेस्ययं शाब्दो ऽधिकारायेः प्रयुज्यते । शब्दानुशासनं शालमधिकृतं वेदि -
तघ्यम् || केषां शाम्दानाम् । रीकिकानां वैदिकानां च | तत्र लौकिकास्तावत् |
गोरश्वः पुरुषो हस्ती शाकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति | तैदिकाः खल्वपि । शं नो देवी-
रभिष्टये | इषे त्वोजं त्वा | अभिमीके पुरोहितम् | अम्र आयाहि वीतय इति || 5
अथ गौरित्यत्र कः दाब्दः । किं यत्तत्साकलालाङ्गूलकज्ुदखुरविषाण्यथेरूपं स
शाब्दः | नेत्याह । द्रव्यं नाम तत् || यत्तर्हि वदिद्धितं चेष्टितं निमिषितं स शाब्दः |
नेस्याह । क्रिया नाम सा || यत्तर्हि तच्छुङ्को नीलः कृष्णः कपिलः कपोत इति ख
शाब्दः | नेत्याह । गुणो नाम सः ॥ यतर्हि तद्धिन्ेष्वभिन्नं 0िननेष्वच्छित्नं सामा-
न्यमृतं स शब्दः | नेर्याह । आकृतिनौम सा || कस्तर्हि शाब्दः । येनोच्चारितेन 10
साज्ालाङ्कलककुदखुरविषाणिनां संमरत्ययो भवति स शाब्दः || अथवा प्रतीतपदा-
येकः | लोके ध्वनिः शाब्द इत्युष्यते | त्था | शाब्दं कुर । मा शाब्दं कार्षीः |
दाब्दकाययेयं माणवक इति । ध्वनिं कुवेन्नेवमुच्यते । तस्मादूनिः शब्दः ||
कानि पुनः शब्दानुशाखनस्य प्रयोजनानि । रक्षोहागमरष्वसंदेहाः प्रयोजनम् ॥
रक्षां बेदामामध्येयं घ्याकरणं लोपागमवणेविकारज्ञो हि सम्यग्वेदान्परिपालयि- 15
ष्यति || रदः खल्वपि । न सर्धीरिद्केन च सवोमिर्थिभक्तिभिर्वेदे मन्त्रा निगरिताः ।
ते चाबहयं यज्गंतेन यथायथं विपरिणमयितव्याः | तात्नावैयाकरणः शाक्तोति य-
चायं विपरिणमयितुम् । तस्मादध्येयं व्याकरणम् || आगमः खल्वपि | ब्राह्मणेन
निष्कारणो धेः षडङ्खो वेदो ऽध्येयो ज्ञेयं इति । प्रधानं च षटुङ्गषु व्याकरणं प्रधाने
च कृतो यज्ञः कलवान्भवति | लष्वरं चाध्येयं व्याकरणम् । तब्राह्मणनावइयं 20
हाष्दा जेया इति | न चान्तरेण व्याकरणं रषघुनोपायेन शब्दाः राक्या ज्ञातुम् ॥
असंदेहाथ ध्येयं व्वाकरणम् । याज्ञिक: पठन्ति । स्थुलए़षतीमाभ्निवारुणीमन-
द्ाहीमालमेतेति । तस्यां संदेहः स्थला चासो एृषती च स्युलष्षती स्थानि
१ भा
२ 5: ध्यकछायहाभाष्यम॥ { म० ९.१.९१.
` पृषन्ति यस्याः सा स्थुलपुषतीति | तां नावैयाकरणः स्वरतो ऽप्यवस्यति | यदि
पुवैपदप्रकृतिस्वरत्वं ततो बहू व्रीहिः” । भथान्तोदात्तस्वं ततस्तत्पुरुष! इति ॥
इमानि च भुयः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि । ते ऽद्राः । वुष्टः शब्दः ।
यदषीतम् । यस्तु प्रय । अविह्ंसः । विभक्ति कुर्वन्ति | योवा इमाम् ।
5 चत्वारि | उत त्वः । सक्तुमिव | सरस्वतीम् । दशम्यां पुत्रस्य । देवो असि
बरुणेति ||
ते ऽतः | ते द्राः हेलयो हेलय इति कुरवैन्तः पराबभूवुः । तस्माद्भाद्मणेन
च म्टेच्छितत्रै नापमाषितवै । म्लेच्छो ह वा एष यदपराब्दः | म्लेष्ा मा भूमेत्य-
ध्येयं व्याकरणम् ॥ ते ऽङराः ॥
10 ` इष्टः शब्दः |
दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमथेमाह |
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्ररात्ुः स्वरतो ऽपराधादिति ॥
दुष्टाञ्दाब्दान्मा प्रयुश्महीत्यध्येवं व्याकरणम् ॥ दुष्टः शब्दः |
यदधीतम् 1
15 यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव राग््ते |
अनपभाविव श्ुष्कैषो न तज्ज्वरति कर्िचित् ॥
. तस्मादनथेकं माधिगीष्मदीत्यध्येयं व्याकरणम् || यदधीतम् ॥
यस्तु प्रयु ।
यस्तु प्रयुङध करालो ` विशेषे शाब्दान्यथावव्यवहार काले ।
८ सो ऽनन्तमाभोति जयं प्रत्र वाग्योगविद्कष्यति चापदाग्देः ॥
कः | वाग्योगषिदेव | कुत एतत् । यो हि शब्दाञ्ञानात्यपशाब्दानप्यसी जा-
नाति । यथैव हि शब्दज्ञाने धमे एवमपदाब्दश्ञाने स्यषमेः | भथवा भुवानधमेः
भरामोति । मुयांसो पराब्दा अल्पीयांसः शब्दाः | एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽप-
भाः । तद्यथा । गौरित्यस्य शाब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतकिकेस्येवमादयो ऽप -
25 भाः । अथ यो ऽवाग्योगवित् । अज्ञानं तस्य शरणम् | नात्यन्तायाज्ञानं शरण
भवितुमहैति । यो ह्यजानन्तर ब्रामण हन्यात्छरां वा पिवेस्सो पि मन्ये पतितः स्यात् |
एवं तार्हे सो ऽनन्तमामोति जयं परत्र वाग्योगयिहृष्यति चापरब्दै : | कः | अवा-
ग्योगविदेव | अथ यो वाग्योगवित् | विज्ञानं तस्य शरणम् || क्र पुनरिदं पठितम् |
* ६.२.१२, | † ६.९. २२३,
म० ९.९.१९] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ र
श्राजा नाम शोकाः | किं च भोः धोका अपि प्रमाणम् | किं चातः | कदि प्रमा.
गमयमपि शोकः प्रमाणं मवितुमहैति । ` `
यदुदुम्बरधणानां षटीनां मण्डलं महत् |
पीतं न गमयेस्स्वगे कं तरक्रतुगतं नयेदिति ॥
` भ्रमल्तगीत एष तत्रभवतो यस्त्वप्रमत्तगीतस्तसमाणम् ।। यस्तु प्रयुङ्के || =.
अविहांसः | -
अविद्वांसः प्रत्यभिवादे नाप्नो ये न श्रुतिं विदुः }
कम॑ तेषु तु विप्रोष्य लरीष्विवायमशं वदेत् ॥
अभिवादे खीवन्मा मूमेत्यध्येयं व्याकरणम् ॥ अविहांसः ॥
विभर्ति कुवन्ति | याक्जिकाः पठन्ति | प्रयाजाः सविभक्तिकाः कायौ इति } न 2)
चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजाः सकिमिक्रिक्ाः राक्याः कतैम् || विमक्ि कुवन्ति |
योवा इमाम् | यो वाः इमां पदशः स्वरश्लो अक्षरो बाच विदधाकि स
भास्विजीनः | अस्विंजीनाः स्वामेत्यध्येवं व्याकरणम् || यो बा हमाम् ॥
चत्वारि ।
चत्वारि शुङ्गा जयो जस्य पादाः हे दर्षे सप्त हस्तासो अस्य | 75
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो म्यं भआवियिदोति |
चत्थारि शृङ्गाणि चल्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसगेनिपाता्च | रयो अस्व
पादालयः काला भूतभविष्यहृतेमानाः । दे रीष हौ शाब्दात्मानी नित्यः कार्य |
सपर हस्तासो भस्य सप्र धिभक्तयः | निधा बद्धलिषु स्थानेषु बद्ध उरसि कण्ठे शिर-
सीवि । वृषभो वषैष्मत् । रोरवीति शाब्दं करोति । कुत एतत् ! रौतिः शाब्दकमो । 29
महो देवो मत्यां आविवेशेति । महान्देवः शाब्दः । मत्यौ मरणधमौणो मनुष्याः }
लानाविवेशच | महता देवेन नः साम्यं कथा स्यादिव्यध्येयं व्याकरणम् ||
अपर आह ।
चत्वारि याक्परिमित पदानि वानि विदुब्रीह्मणा ये मनीषिणः }
गुहा णि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति | 25
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसगेनिपाक शच | तानि
विदुब्रोह्मणा ये मनीबिणः| मनस हैबिणो मनीषिणः } मुहा त्रीणि निदिता नेङ्गयन्ति |
गृहणायां त्रीणि निहितानि नेङ्गयन्ति | न चेष्टन्ते | न निमिषन्तीत्यथेः | तरीयं वाची
मनुष्या वदन्ति | तुरीयं ह वा एतद्वाचो यन्मनुष्येषु वतेते | चतुथेमिस्यथेः।| चत्वारे ॥
ह ॥ -कोकन्नणकरामा्य ॥ [ ब० ९.९.९१.
श्त लः |
डत स्वरः इटक्व उदङ ऋअचमुत स्वः अण्व सृणोत्येन्म् |
खन स्वस नर्म्वं त्रिसखखे जायेव इत्य उद्यती वासाः |
आवि अन्तेकः कदयज्चपि न फटवनि वाचम् | मपि लल्वेकः अष्यग्रवि ज
¢ शुतेर्विनम् । मतिद्राखमाहार्धम् | उनो त्वस्मै न्वं तरिसञ्े | तनुं बिवणते |
जयेत परस्व डक्चनी इत्रासाः | व्यथा जवा परत्वे कामवमान् वाखा स्वग्परस्मानं
विवृत्त एवं वाग्वाग्विदे स्वात्मानं विवृणुते । वाङ्धो चिवृणुकादात्मानमित्वध्येवं
व्काकरत्म् || उव स्वः ॥
खमिव |
# स्ृभितर विवडना पृनन्तो वत्र धीरा मनसा वाचमक्रत |
अत्रा सजायः सख्यानि जनते मद्वैषां ठरेमीरमिहिताधि वाचि ||
शशः सयतेुधीवो मवति | कसतेर्वा विपरीतादिकसितो भवति | तित
परिपवनं मवति ततवा तुतदा | धीरा ध्वानवन्तो मनसा प्ङ्ञानेन वाच-
मक्रत वाचमकृषत | भत्रा सखायः उद््यानि जानते | अत्र सखायः सन्तः
1; सस्यानि भामते । खायुज्यानि जानते | क | य एष दुर्गो मागे एकमम्ो वाग्वि-
षयः | के पुनस्ते | वैयाकरणाः | कुत एतत् । भद्रैषां तकेमीर्निहिताधि वाचि ।
एवां बाचि मद्रा रदेमीर्मिहिता मवति । लक्मीले्षणाद्ासनात्परि वृढा मवति ।।
सक्ृमिव ||
सारस्वतीम् | या्िकाः पठन्ति | आहिताभनिरपरशाम्दं॑ प्रयुज्य प्रायथित्तीयां
90 सारस्वतीमि्टिं निवेपेदिति । प्रायभितीया मा भूमेत्यध्येयं व्याकरणम् ॥
सारस्वतीम् ॥
वाम्यां पुरस्य । याज्जिकाः पठन्ति । दशम्युलरकालं पुत्रस्य जातस्य नाम
विदध्या डोषवदाद्यन्तरन्तःस्थमवृद्धं त्रेपुरषानुकमनरिरतिष्ठिनं तडि प्रतिष्ठिततमं
भवति ग्यक्षैरं चतुरक्षरं वा नाम कृतं कुयौच् तदधितमिति | न चन्तरेण व्याकरणं
90 हतस्तदङिता षा दाक्या विज्ञातुम् || दह्चम्यां पुत्रस्य ॥
छदेषो भति ।
वदेवो भसि षरण यस्य ते सप्र तिन्धवरः।
भगु्षरन्ति काकुदं सूम्ये दपिरामिव ॥
ठरेषो भसि बर्ण सस्यदेबो ऽसि यस्य ते सप्त सिम्धवः सप्र विभ्यो
म ९.९.९. | ॥ .व्याकर्यवहाभाष्यय ।। ५
अनुक्षरन्ति काकुदम् । काकुदं तालु । काङकुर्जिष्ा सास्मिन्तुणत इति काकुदम् ।
सुस्थे खषिरामिव । तद्यथा दोभनामूर्मि इनिरामभ्िरन्तः भरषिरय . दहत्येवं तव
सप्र सिन्धवः सप्र विभक्यस्ताल्वनुक्षरन्ति | तेनासि सत्यदेवः | सत्यदेत्राः स्वा-
मेत्यध्येयं ध्याकरणम् ॥ देषो भसि ॥|
क पुनरिदं व्याकरणमेव्राधिजिगांसमानेभ्यः प्रयोजनमन्वाख्यायते न पुनरन्यदपि
किंचित् । भभित्यु क्का वृत्तान्ताः शभिस्येवमादी उशष्दान्पठन्ति || प्राकल्प एत-
दात् | संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते | तेभ्यस्तत्र स्थानकरणा-
नुप्रदानज्ञेभ्यो वैदिकाः शाष्दा उपदिदयन्ते | तदव्यत्वे न तथा | वेदमधीत्य
त्वरिता वक्तारो भवन्ति | वेदान्तो वैदिकाः सिद्धा लोकाच लौकिकाः | अनर्थकं
व्याकरणमिति । तेभ्य एवं विप्रतिपच्चवदिभ्यो ऽध्येतृभ्य भाचा्य इदं शाखमन्वा- 10
चष्टे | इमानि प्रयोजनान्यध्येयं व्याकरणमिति || ` `
, उक्तः शम्दः | स्वरूपमप्युक्तम् | प्रयोजनान्यप्युक्तानि | शब्दानु शासनमिदानीं
कर्ैव्यम् | तत्कथं कमैष्यम् | किं शुष्दोपदेशाः करैव्य आहोस्विदपशब्रोपदेशा
आहोस्विदुभयोपदेश इति | अन्यतरो पदेशेन कृतं स्यात् | तद्यथा | भश्यनियमे-
नाभद्यपरतिषेधो गम्यते | पञ्च पञ्चनखा मद्या इत्युक्ते गम्यत एतदतोऽन्ये 15
भक्ष्या इति | अभल््यप्रतिषेधेन वा भश्यनियमः | तद्यथा | भमश्यी बाम्यकुह्षुटो
भक्ष्यो ्राम्यश्ुकर इत्युक्ते गम्यत एतदारण्यो भस्य इति । एवमिहापि यदि
तावच्छब्दो पदेदाः (करियते गौरिव्येतस्मिन्नुपदिषटे गम्यत एतद्गाव्यादयो ऽपश्म्दा इति |
अथापदाम्दोपदेदाः क्रियते गाम्यादिषुपदिषटेषु गम्यत एतङ्गीरित्येष शाब्द इति || किं
पुनरत्र ज्यायः | रघुस्वाच्छब्दोपदेशः । ठषीयाञ्दाग्दोपदेशो गरीयानपशब्दोप- 20
देशः । एकैकस्य राब्दस्य बहवो ऽपभरशचाः । तद्यथा । गीरित्यस्य शब्दस्य गावी -
गोणीगोतागोपोतलिकादयो ऽप्॑शाः । इष्टान्वाख्यानं खल्वपि भवति |
` अभेतस्मिञ्याम्दोपदेदो. सति किं दाब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः करैव्यः |
गौरः पुरुषो इस्ती शकुनि्मेगो ब्राह्मण इत्येवमादयः शम्दाः पठितव्याः । नेघ्याइ |
भनभ्युपाय एष राब्दानां प्रतिपन्तौ प्रतिपदपाठः । एवं हि भवते । बृहस्पतिरिन्त्राय %
दिष्यं वषेखदस्तं पतिपदोन्तानां शब्दानां शाम्दपारायणं मोवाच नान्तं जगाम । बृह-
स्पतिथ प्रवक्तेन्द्रथाध्येता दिव्यं वषेसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम | कि
पुनरद्यस्वे यः सवधा चिरं जीवति स वपेदातं जीवति चतुर्भिश्च प्रकारिर्थियो पयुक्ता
& ` || व्याकरणमहाभाष्य ॥, [म०९.९.९..
भवत्यागमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकाठतेन व्यवहार कारेनेति । तत्र चागमका-
लेनैवायुः प्रवपयुक्तं स्यात् । तस्मादनभ्युपायः राम्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः ॥
कथं तर्हमि शब्दाः प्रतिपन्तष्याः | किंचित्सामाम्यविशेषवषक्षणं प्रवस्यै येनास्पेन
यनेन महतो महतः राब्दौघान्प्रतिपद्ेरन् । किं पुनस्तत् | उत्सर्गापवादौ | कथि-
¢ दुत्छगेः कतैव्यः कथिदपयादः | कथंजातीयकः पुनरुत्सगशः कतैव्यः कथंजातीयको
ऽपधादः | सामान्येनोत्सर्गः कतैव्यः | तद्यथा । कर्मण्यण् [३.१.९ || तस्य विशे-
बेणापवादः । तद्यथा | आतो अनुपसर्गे कः [३,५.३ | ॥
किं पुनराकृतिः पदाथ भआहोस्विहरव्यम् | उभयमित्याह | कथं ज्ञायते । उभ-
यथा श्याचार्येण सूत्राणि पठितानि | आकृतिं प्रदायै मत्वा जाव्याख्यायामेक-
10 स्मिन्बहवचनमन्यतरस्याम् [९. २. ९८] इत्युच्यते । द्रव्यं पदार्थं मत्वा सरू-
पाणाम् [९. २. ६४ | इत्येकदोष आरभ्यते ॥
किं पुनर्मित्यः शम्द आहोस्वित्कायैः । संह एतत्पाधान्येन परीतं नित्यो
वा स्यात्कार्यो घेति | तन्रोक्ता दोषाः प्रयोजनान्यप्युक्तानि | तश्र स्वेष निर्णयो
यथेव नित्यो अथापि कायै उभयथापि लक्षणं प्रवत्येमिति | कथं पुनरिदं भगवतः
15 पाणिनेराचार्यस्य ठक्षणं प्रवृत्तम् ।
` सिदे शान्दार्थसंबन्पे
सिदे शब्दे ऽय संबन्धे चेति | भथ सिद शाब्दस्य कः पदाथः | नित्यपयोयवाची
सिद्धशब्दः । कथं ज्ञायते | यत्कुटस्थेष्वविचालिषु भावेषु वतेते । तव्यथा | सिद्धा
शोः सिद्धा पृथिवी सिदमाकादामिति । ननु च भोः कार्येष्वपि वतेते | तद्यथा |
20 सिद्ध ओदनः सिद्धः सूपः सिद्धा यव्रागुरिति | यावता कार्येष्वपि वतेते तत्र॒ कृत
एतन्निस्यपयोयवाचिनो ब्रहणं न पुनः कार्ये यः सिदधश्चम्द इति | संमरहे तावत्काय-
परतिदन्डिभावान्मन्यामहे नित्यपयौयवाचिनो अहणमिति । इहापि तदेव || अथवा
सन्स्येकपदान्यप्यवधारणानि । तद्यथाम्भक्नो वायुभक्ष इत्यप एव भक्षयति वायुमेव
95 भक्षयतीति शस्यत एवमिहापि सिदध एव न साध्य इति ॥ अथवा पूर्वपदलोपो ऽ
दरटव्यः । अस्यन्तसिदधः सिद्ध इति । तद्यथा । देवदत्तो दलः सत्यभामा भामेति |
अथवा व्याख्यानतो विोषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति नित्यपयोयवाचिनो
प्रहरणमिति व्याख्यास्यामः ॥ किं पुनरनेन वर्ण्येन किं म॒ महता कण्ठेन नित्यशब्दः
एवोपात्तो यस्मिसुपादीयमाने संदेहः स्यात् । मङ्गलाथेम् । माङ्गलिक आचार्यो
म० ९.९.१९. | ^॥ व्वाकरणमहाभाष्यम् ॥ ॐ
महतः शालीघस्य मङ्गलाथं सिद्धशब्दमादितः प्रयुङ्के मङ्गलादीनि हि शालाणि प्रथन्ते
वीरपुरुषकाणि च भवन्त्यायुष्मत्पुरुषकाणि चाध्येतारथ सिद्धाथौ यथा स्युरिति ।
भयं खल्वपि नित्यशब्दो नावरवं कटस्थेष्वविचारिषु भावेषु वतेते | किं तर्हि |
आभीष्ण्ये ऽपि वतेते | तद्यथा । नित्यप्रहसितो नित्यप्रजल्पित हति | यावताभी-
ण्ये ऽपि वतेते तत्राप्यनेनैवाथेः स्याव्याख्यानतो विदोषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षण- 5
मिति | परयति स्वाचारयौ मङ्गलार्थभैव सिद्धशाम्द आदितः प्रयुक्तो भविष्यति शषेयामि
चैनं निव्यपयीयवाचिनं वणैयितुमिति । अतः सिदधहाभ्द एवोपान्तो न नित्यदाब्दः ||
अथय कं पुनः पदां मत्वैष विग्रहः क्रियते सिद्धे शब्दे ये संबन्पे वेति | आक
तिमित्याह | कुत एतत् | आकृति नित्यां दम्यमनिस्यम् ॥ अथ व्रव्ये पदार्थ कथं
विग्रहः कर्तव्यः | सिद्धे शब्दे ऽथैसंबन्धे चेति | नित्यो ह्ययैवतामर्थरमिसं बन्धः || 10
अथवा द्रव्य एव पदाथ एष विग्रहो न्याय्यः सिद्धे शाब्दे ऽथे संबन्धे चेति | द्यं
हि नित्यमाकृतिरनित्या । कथं ज्ञायते | एवं हि इरयते रोके | मृत्कयाचिदाकृत्या
युक्ता पिण्डो भवति । विण्डाकृतिमुपमृद्य षटिकाः क्रियन्ते | षटिकाकृतिमुपमृव्य
कुण्डिकाः क्रियन्ते | तथा वणे कयाचिराकृत्या युक्तं पिण्डो भवति | पिण्डा
कृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते | रुचकाङृतिमुपमृ्य कटकाः क्रियन्ते | कटकाक- 15
तिमुषमृद्य स्वस्तिका; क्रियन्ते | पुनरावृत्तः इवणेषिण्डः पुनरपरयाकृत्या युक्तः
खदिराङ्गार सवर्ण कुण्डले भवतः | आकृतिरन्या चान्या च भवति द्रभ्यं पुनस्तदेव |
भाक टयुपमर्देन द्रव्यमेवावश्िभ्यते || आकृतावपि पदाथ एष विग्रहो न्याय्यः किद्ध
शब्दे अथ संबन्धे चेति । ननु चोक्तमाकृतिरानिव्येति | नैतदस्ति | नित्याकृतिः |
कथम् । न कचिदुपरतेति कृत्वा सव्रोपरता भवति द्रव्यान्तरस्था तुपरभ्यते || 20
भथवा नेदमेव नित्यलक्षणं धरुवं॑कूटस्थमविचाल्यनपायोपजनविकायेनुत्पच्यवृद्य-
व्यययोगि यत्तन्नित्यमिति | तदापि नित्यं यरिमस्तत््वं न॒ विहन्यते | किं पुनस्त-
त्वम् । तद्भावस्त्वम् । आाकृतावपि ततत्वं न विहन्यते || भथवा किं न ॒एतेनेद्
नित्यमिदमनित्यमिति । यन्नित्यं तं परार्थं मस्यैष विरहः क्रियते सिदे शब्दे थ
संबन्धे चेति || , 28
कथं पुनज्जौयते सिद्धः शब्दो ऽथः संबन्धथेति । लोकतः । यष्ठोके ऽथेमयेमुपा-
-दाय शब्दान्प्युश्ते तरैषां निर्वत्तौ यलं कुवन्ति | ये पुनः कायो भावा निवत्त
तावत्तेषां यः क्रियते | तद्यथा | घटेन काये करिष्यन्कुम्भकारकुलं गत्वाह कुड
षटं कार्यमनेन करिष्यामीति | न तद च्छब्दान्प्योक्यमाणो चैयाकरणकुलं मत्वाद
८ ॥ व्याकरगमहीभष्यिय् ॥ [म० ९.९.९१.
कुरू शब्दान्प्रयोश्व इति | तावत्वेवाथेमर्थमुपौदाय शाष्दान्पयुश्जते ॥ यदि तर्हि
सोक एषु प्रमाणं किं शाखेण क्रियते |
लोकतो अयप्रयुक्तं शब्दप्रयोगे शाल्रेण धमेनियमो
लोकतो अर्थप्रयक्ते शब्दपयेगे श्ालण षर्मनियमः क्रियते | किमिदं धर्मनियम
5 इति | पमौय नियमो धमेनियमः | धमोर्थो वा नियमो धमेनियमः | धर्मेप्रयो-
जनो वा वियमो धमनियमः |
यथा लीकिकतरीदिकेषु ॥ ९ ॥
प्रियतद्धिता दाक्षिणास्या यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा रौकिकवैदिके-
ध्विति प्रयुश्ते | अथवा युक्त एव तद्धितार्थः ¡ यथा लोकिकेषु वैदिकेषु च कृता-
19 न्तेषु ॥ लोके तावदभश््यो माम्यकुकटो मद्यो माम्यश्चकर इत्युच्यते | भ्यं च
नाम कषुत्पतीषाताथमुपादीयते । शक्यं चानेन श्र्मासादिभिरपि क्षुततिहन्तुम् | तत्र
नियमः (क्रियत इदं भ््यमिदमभ्यमिति । तभा सेदास्वीषु भवत्तिमेषति समानश
खेदविगमो गम्यायां चागम्यायां च । तत्र नियमः क्रियत इर्य गम्येयमगम्येति ॥
वेदे खल्वपि पयोत्रतो ब्राह्मणो यवागृव्रतो राजन्य आमिन्षात्रतो वैदय इत्युच्यते |
15 तरतं च नामाभ्यवहाराथेमुपादीयते | शक्यं चानेन शालिमांसादीन्यपि व्रतयितुम् |
तश्र नियमः क्रियते | तथा वैल्वः खादिरो वा यूपः स्यारिर्युच्यते | युप्च नाम
पश्चनुबन्धायेमुपारीयते. | शक्यं चानेन किंचिदेष काष्ठमुच्छ्ित्यानुच्छित्य वा प्युरनु-
बन्दुम् | तन्न नियमः क्रियते | तथानौ कपालान्यधिभ्रित्याभिमन््रयते मृगुणाम-
द्भिरसां घभैस्य तपसा तप्यध्वमिति | अन्तरेणापि मन्त्रममिर्दहनकमौ कपालानि
20 संतापयति | तज्र नियमः क्रियत एवं क्रियमाणमभ्युदयकारि भवतीति || एवमिहापि
समानायामर्थगतौ राब्देन चापदाब्देन च धर्मनियमः क्रियते शब्देतरैवार्थो अभिधेयो
नापहाब्देनेव्येवं क्रियमाणमभ्युदथकारि भवतीति ॥
अस्त्यप्रयुक्तः | सन्ति वै राब्दा अप्रयुक्ताः | तव्यथा | ऊष तेर चक्र पेचेति |
किमतो यत्सन््यप्रयुक्ताः | भ्रयोगादधि भवाञ्शाब्दानां साधुत्वमध्यवस्यति य इदा-
2 नीमपरयुक्ता नामी साधवः स्युः ॥ इदं विप्रतिषिद्धं यदुच्यते सन्ति वै श्राब्दा अपर
युता इति । यदि सन्ति नाप्रवुक्ता भथाप्रयुक्ता न सन्ति सन्ति चाप्रयुक्ताधेति
विप्रतिषिद्धम् । प्रयुञ्जान एव र्बलु भवानाह सन्ति शाब्दा अप्युक्ता इति | क-
ेदानीमन्ये भवज्जातीयकः पुरूषः राब्दानां प्रयोगे साधुः स्यात् ॥ वैतदिभ-
म १.९.९. | ॥ व्थाकरनयहाभाष्यम् ॥ ९.
तिषिदम् । सन्तीति तावद्भूमो यदेताञ्ाखविदः शालेणानुविदधते । अप्युक्ता
इति ब्रूमो यल्लोके परयुक्ता इति । बदप्युच्यते. कथेदानीमन्यो. भवल्नाततीयकः
परुषः शब्दानां प्रयोगे साधुः स्यादिति न श्रूमो ऽस्माभिर प्रयुक्ता इति । किं ताईं |
तोके ऽअयुक्ता इति । ननु च भवानप्वभ्यन्तरो लोके | अभ्यन्तरो ऽहं लोके न
त्वहं लोकः ॥ |
अस्स्यपरयुक्त इति चेन्ना्थं शब्दप्रयोगात् ॥ २॥
अस्स्यप्रयु क्त इति चेत्तन्न | कि कारणम् | अर्थ शब्दप्रयोगात् । भर्थे शाब्दाः
प्रयुज्यन्ते सन्ति तैषां शम्दानामथो येष्वर्थेषु प्रयुज्यन्ते ॥
अप्रयोगः प्रयोगान्यत्वात् ॥ ३ ॥
अप्रयोगः खल्वेषां शब्दानां न्याय्यः | कुतः | प्रयोगान्यत्वात् । यदेतेषां शभ्दा- 10
नामर्थे ऽन्याञराब्दान्प्युञ्जते । तद्यथा । ऊपेत्यस्य शब्दस्यार्थे क युयमुषिताः |
तेेत्वस्वार्थे किं वुयं तीणाः | चक्रेस्यस्यार्थै किं युयं कृतवन्तः | पेचेत्यस्ार्थे (कं
वूयं पकृवन्त इति ||
अप्रयुक्ते दीषैसन्वत् ॥ ४॥
यद्यप्यप्रयुक्ता अवदयं दीषैसन्ञवष्क्षणेनानुविधेयाः | तद्यथा । दीर्षसन्नाणि 15
वाषेशतिकानि वाषैसहलिकाणि च न चाद्यत्वे कथिदपि व्यवहरति केवल मुषिसंप्रदा -
यो धमे इति कृत्वा याश्ञिकाः शाजेणानुविदधते ||
9
सर्वे देशान्तरे ।। ९॥
सर्वे खल्त्रप्येते शब्दा देशान्तरे प्रयुज्यन्ते | न वैत उपलभ्यन्ते. | उपलब्धौ
वबः क्रियतां महान्हि शब्दस्य प्रयोगाविषयः | सपद्ीपा वमती रयो लोका- ‰
अलागो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहधा विभिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहलवत्मौ `
सामवेद एकर्विडातिभा बाहच्यं नवधाथवेणो वेदो वाकोवाक्यमितिहासः प्राणं
्रैयकामित्येता वाञ्शाब्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शाब्दस्य प्रयोगविषयमननुनि-
शाम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमात्रम् ।| एतस्मित्तषिमहति शाब्दस्य
भ्योगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृरयन्ते | त्या | शावतिभतिकमौ 2;
कम्बोजेष्त्रेव भाषितो भवति विक्रार एनमायोौ भाषन्ते शाव इति | हम्मतिः खर ष्टेषु
रहतिः प्राच्वमध्येषु गमिमेव स्वायाः प्रगुज्जते | दातिलतनाथे प्राच्येषु रात्रमुदी-
4 नद
१० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ` ` [म० ९.९.९.
ध्येषु || ये चाप्येते भवतो परयुक्ता अभिमताः शाब्दा एतेषामपि प्रयोगो दुदयते.।
क्र | वेदे | यद्वो रेवती रेवत्य तदुष | यन्मे नरः भुत्यं ब्रह्म चक्र । यत्रा नक्र
जरसं तनूनामिति ||
किं पुनः शाब्दस्य क्ञानै धम आद्ोस्विसयोगे | कथात्र विदोषः |
४ क्षाने धमे इति चेचथाधमेः | ६ ॥
ज्ञाने धमै. इति चेत्तथाधर्मैः प्रामोति | यो ` हि शाब्दाश््ानास्यपराब्दानप्यसौ
जानाति | यथेव शाम्दज्ञाने धमे एवमपहा्दज्ञाने ऽप्यधमैः | अथवा भूयानधमेः
प्राभोति । भूयांसो ऽपराब्दा अल्पीयांसः शब्दाः | एकैकस्य शब्दस्य बहवो ऽपथंडाः ।
तद्यथा | गौरिस्यस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्येवमादयो ऽपभ्र॑शाः ॥
10 | आचरि नियमः ॥ ७ ||
, आचारे पुनकषिर्नियमं वेदयते | ते ऽ्रा हेलयो हेलय इति कुवेन्तः पराव
भूवुरिति ॥ अस्तु तर्हि प्रयोगे |
प्रयोगे सवैरोकस्य । ८ ॥
यदि प्रयोगे धर्मः सर्वो लोको ऽभ्युदयेन युज्येत । कथेदा्नीं भवतो मत्सरो
15 यदि सर्वो लोको ऽ^युदयेन युज्येत । नखलु कथिन्मत्सरः प्रयलानथेक्यं तु
भवति | फलवता च नाम यलेन भवितव्यं न च प्रयलः फकलाद्यतिरेच्यः | नमु
च ये कृतप्रयलास्ते साधीयः शब्दान्प्रयोक्ष्यन्ते त एव साधीयो ऽभ्युदयेन योष्यन्ते |
व्यतिरेको अपि वै टस्यते | दृदयन्ते हि कृतप्रयलाश्ाप्रवीणा अकृतप्रयनाश्च प्रवीणाः |
तत्र फलब्यतिरेको ऽपि स्यात् || एवं तर्द नापि रान एव धर्मो नापि प्रयोग एव |
99 क ताह | |
दाखपुवंके भयोगे अभयुदयस्तत्तुल्यं केदराब्देन ॥ ९ ॥
शाखपवेकं यः राब्दान्युदधै सो ऽभ्युदयेन युज्यते | त्तुल्यं वेद ब्देन । वेद शाब्दा
अप्येवमभिवदान्ते | यो अप्रष्टोमेन यजते य उ चैनमेवं घेद | यो रभि नाचिकेतं
चिनुते य उ चैनमेवं वेद ॥ अपर आह | तुल्यं वेदशाब्देनेति । यथा वेदशष्दा
# नियमपूवैमधीताः -करवन्तो भवन्त्येवं यः शाखपूवेकं राब्दान्प्युद्धुः सो ऽभयुदयेन
युञ्यत इति || अथवा पुनरस्तु ज्ञान एव धमे इति | ननु चोक्तं शाने धमे इति
म०९.१.९. | ॥ व्याकरणमराभष्यम् ॥ ` ९९
चे्थाधमे इति । नैष दोषः ¡ शष्दप्रमाणका वयम् | यच्छब्द गह तदस्माकं
प्रमाणम् । शब्दश्च शब्दज्ञाने पर्ममाह नापशष्दज्ञाने ऽधमेम् | यश्च पनरशिप्प्र-
तिषिद्धं नैव तहोषाय भवति नाभ्वुदयाय । तद्यथा | हिङ्षितहसितकण्डूयितानि नैव.
रोषाय भव्न्ति नाप्यभ्युदयाय || भथवाभ्युपाय एवापश्चब्दज्ञानं शाब्दज्ञाने | यो
भशब्दा््ञानाति राब्दानप्यस्ौ जानाति । तदेवं श्ञाने धमे इति ब्रुवतो ऽथादापचचं 5
मवत्यपरब्दज्ञनप्वैके शाब्दज्ञाने धमे इति ।| अथवा कूपलानक वदेतद्धविष्यति |
त्था कूपलवानकः कूपं खनन्ययपि मृदा पांभिश्वावकीर्णो भवति सो प्छ संजा-
ताव तत एव तं गुणमासादयति येन स च दोषो निरहेण्यते भूयसा चाभ्युदयेन
वोगो भवत्येवमिहापि यश्चप्यपशब्दज्ञाने ऽधमेस्तथापि यस्त्वसौ शाब्दज्ञाने धर्मस्तेन
स च दोषो निषानिष्यते भूयसा चशभ्वुदयेन योगो भविष्यति || यदप्युच्यत भाचारे 10
नियमं इति याज्ञे कमेणि स नियमः | एवं हि श्रुयते | यवौणस्तवोणो नामषेयो
बभूवुः परत्यक्षधमौणः परापरज्ञा विदितवरेदितव्या अधिगतयाथातभ्याः | ते तत्रभ-
वन्तो यद्वानस्तद्भान इति प्रयोक्तव्ये यवौणस्तवौण इति प्रयुञ्जते याज्ञे पुनः
कर्मेणि नापभाषन्ते | तैः पुनर यौज्ञे करमैण्यपभाषितं ततस्ते परामृताः |
अथ व्याकरणमित्यस्य राब्दस्य कः पदाथः | सत्रम् | 15
सत्रे व्याकरणे षष्टचर्थो अनुपपन्नः ॥ ९० ॥
दरे व्याकरणे बषर्थो मोपपश्यते व्याकरणस्य | सुत्रमिति | किं हि तदन्यत्सु-
द्याकरणं यस्यादः सूत्रं स्यात् ||
राब्दाप्रतिपत्तिः ॥ ९९ ॥
राभ्यां प्रतिपत्तिः प्रामोति व्याकरणाच्छब्दान्परतिपद्यामह इति । न हि सूत्र- 20
त एव शब्दान्प्रतिपद्न्ते | किं ति | व्याख्यानतथ | ननु च तदेव सूत्रं विगृहीतं
ष्याख्यानं भवति | न केवलानि चचौपदानि व्याख्यानं वृद्धिः आत् रेजिति । किं
तहि । उदाहरणं प्रत्युदाहरणं वाक्याध्याहार इत्येतत्समुदितं व्याख्यानं भवति ||
एवं तर्हि शब्दः |
राब्दे ल्युडयंः ॥ ९२ ॥ 96
यदि शब्दो व्याकरणं ल्यु डर्थो नोपपद्यते | व्याक्रियते नेति व्याकरणम् | न
हि शाब्देन किंचिव्याक्गियते | केन तरिं । सूत्रेण |
९२ ॥ व्याक्षरणक्हाभव्यय् ॥ - ` [म० ९.९.९;
भवे
भवे च तद्धितो नेपपश्यते | व्याकरणे.भवो योगो वैयाकरण इति | न हि शब्दे
भवो योगः |. क तर्दिं | सप्रे |
भरोक्तादयश्च तद्धिताः । १३ ॥
$ प्रोक्तादयशथच तद्धिता नोपपद्यन्ते | पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् | आपिशलम् |
काराकृर्क्मिति | न हि पाणिनिना शाब्दाः प्रोक्ताः | किं तर्दि। सत्रम् || किमथेमि-
दमुभयमुच्यते भवे प्रोक्तादयश्च ताडिता इति न प्रोक्तादयथ्च तद्धिता इत्येव भवे ऽपि
तद्धितश्ोरितः स्यात् | पुरस्तादिदमा चार्येण दृष्टं भवे तदित इति तत्पठितम् । तत
उ्तश्कालमिदं दृष्टं परोक्तादयशथच तद्धिता इति तदपि पठितम् | न चेदानीमाचायौः
10 सूत्राणि कृत्वा निवतेयन्ति || अवं तावददोशो यदुच्यते शब्दे ल्युडथं हति | नावदयं
करणाधिकरणयोरेव ल्युडिधीयते | किं ताह । अन्येष्वपि कारकेषु कृत्यल्युटो बह-
लम् [३.३.१९३ | इति । तद्यथा | प्रस्कन्दनम् प्रपतनमिति || अथवा शब्दैरपि राभ्दा
व्याक्रियन्ते | त्था | गौरिस्युक्ते सर्वँ संदेहा निवतैन्ते नाशो न गभ इति | भवं
तर्हि दोषो भवे प्रोक्तादयश्च तद्धिता इति । एवं तर्हि
15 लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम् ॥ ९४ ॥
लश्यं च लक्षणे ैतत्स मुदितं व्याकरणं भवति । किं पुनर्तह्यं लक्षणं च |
दाम्दो लश्यः खतं लक्षणम् | एवमप्ययं समुदाये व्याकरणदाब्दः प्रवृत्तो ऽवयवे
ने पपद्यते । सत्राणि चाप्यधीयान इष्यते वैयाकरण इति । नैष दोषः | समुदायेषु
हि शब्दाः प्रत्ता अवयवेष्वपि वतेन्ते ] तद्यथा । पर्वे पचालाः । उत्तरे पश्चाठाः |
20 तैलं मुक्तम् । घृतं भुक्तम् । शयक्ृः नीलः कष्ण हति । एवमयं समुदाये व्याक-
रणदाब्दः प्रवृत्तो ऽवयवे अपि वतेते || अथवा पुनरस्तु खत्रम् | नन् चोक्तं सजे
म्याकरणे षष्ठ्यर्थौ ऽनु पपन्न इति । नेष दोषः | व्यपदेशिवद्भावेन भविष्यति ||
यदप्युच्यते शब्दाप्रतिपत्तिरिति न हि छत्रत एव शाब्दान्द्रतिप्न्ते किं तर्हि व्याख्या -
नतथेति परिहतमेतत्तदेव सुज विगृहीतं व्याख्यानं भवतीति } ननु चोक्तं न केवलानि
25 चर्चपदानि व्याख्यानं बुद्धिः आत् एेजिति किं तर्हि उदाहरणं प्रस्युदाहरणं वाक्या-
ध्याहार इस्येतत्समुदितं व्याख्यानं भवतीति | अविजानतं एतदेवं भवति | सूत्रत एव
हि शाब्दान्परतिपयन्ते | आतश्च सुज्रत एव यो दयुरसूत्रं कथयेत्तादो ` गृ्ेत |
जक
# ४.२.५३ † ४.२.९०९
म० १.९.९. | ॥ व्याकस्ममहत्याध्यय.1.. ९४
भथ किमर्थो वणौनामुपदेशः ।
" वृत्तिसमवायाथे उपदेशः । ९९ ॥
वृत्तिसमवायार्थो वणोनामुपदेशाः कर्तव्यः || किमिदं वृत्तिसमवायाथे इति |
वृतये समवायो वृत्तिसमवायः; | वृष्यर्थो ` वा समवायो ` वृत्तिसमवायः | वृत्ति-
प्रयोजनो वा समवायो वुसिसमवायः | का पुनवेत्तिः । रालपरवृत्तिः | अथ कः ४
समधायः | वणोनामानुपूर्व्यण संनिवेशः ¡ भ क उपदेदाः | उच्चारणम् | कृत
एतत् | दिशिरु्ारणकरियः | उश्चायै हि य्णीनाहोप्दिष्टा -इमे वणी इति ||
अनुबन्धकरणार्थश्च ॥ ९६ ॥
अनु बन्धकरणा्थश वणीनामुपदेद्ाः कर्तव्यः } अनुबन्धानासङ्क्यामीति । न
नुपदिदय वणननुबन्धाः शक्या आसङ्कुम् 1] सं एष वणोनामुपदेशो वृत्तिसमया 16
याथेधानुबन्धकरणाये श्च | वृत्तिसिमवायचानुबन्धकरणं च परत्याहाराथम् । प्रत्याहारो
बृ््यथेः |
इ्वुख्ययेथ । इष्टवबुदर्थथ वणीनामुपदेशः । इ्टान्वणौन्भोतस्य इति | न
नुपदिदय वणोनिष्टा वणः शाक्या विज्ञातुम् ।
इ्टवुययर्थश्चेति वेदुदाचानुदात्तस्वरितानुनासिकदीरधैशुतानामप्युपदेदाः 15
॥ ९७ ॥
इष्ट बुद्थथेति चेदुदा्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्षशरुतानामष्युपदेशः कतेव्यः |
एवंगुणा अपि हि 'वणो इष्यन्ते |
आकृत्युषदेरास्सिडधम् । अकृस्युपदेशास्षिद्धमेतत् | अवणीङ्ृतिरूषदिश सर्व-
मव णकुलं ्रहीष्यति | तथेवणकृतिः | तथोवर्णाङृतिः । 20
आशृत्युपदेशास्सिद्धमिति चेत्संवृतादीनां प्रतिषेधः ॥ ९८ ॥
आकृद्थुपदेशास्सिद्धमिति चेत्संवृतादीनां प्रतिषेधो वक्तव्यः | के पुनः संवृता-
दयः । संवृतः कलो ध्मात एणीकृतो सम्बूकृतो ऽधेको भस्त निरस्तः प्रगीत उ-
पगीतः हिवण्णो रोमश इति || अपर आह |
अस्तं निरस्तमविराम्नितं निदैतमेम्बुकृतं ध्मातमथो विकम्पितम् | 5
संदषटमेणीकृतमेकं द्रुते विकी्णैमेताः स्वरदोषभावमा इति ||
भतो ञन्ये व्यश्ञनदोषाः ॥ नैष दोषः । गगोदिविदादिपाठत्संवृतारीनां निवु-
९४ ॥ व्याकरणय्रहाभोष्यम्॥. _ ` [म०९.१.९,
न्तिभेविष्यति । भस्त्यन्यद्गोदिविदादिपाठे भरयोननम् | किम् । समुदायानां साधु-
स्वं यथा स्यादिति ॥ एवं तद्येश्टादश्धा भिन्नां निवु्कलादिकामवणेस्य प्रत्यापर्ि
वक्ष्यामि । सा तरह वक्तव्या ।
किङ्काथौ तु प्रत्यापत्तिः।
$ लिङ्गाथौ सा तहिं भविष्यति } तत्तर्हि वक्तव्यम् | यद्यप्येतदुच्यते अथत्रैतदयै -
नेकमन्बन्धरशतं नोचायमित्संज्ञा च न वक्तव्या लोपश्च न वनक्तव्यः | थदनबन
क्रियते तस्कलादिभिः करिष्यते | -सिभ्यव्येवमपणिनीयं तु भवति || यथान्यासमे-
वास्तु | ननु चोक्तमाकृत्युपदेश्या स्ति भिति चेत्तंवृतादीनां प्रतिषेष इति | परिह-
तमेत गोदिविदादिपाडास्संव॒तादीनां निवृत्तिभेविष्यति | ननु चान्वहगोदििदा-
16 दिप प्रयोजनमुक्तम् 1 किम् |` समुदायानां साधुत्वं यथा स्यादिति । एवं
तद्यभवमनेन क्रियते पाठशचैव विरोष्यते कलादयश्च निवर्त्यन्ते | कथं पुनरेकेन य-
नेनोभयं लभ्यम् | ठभ्यमित्याह | कथम् । द्विगता अपि हेतवो भवन्ति | तथथा ।
` - : आन्न सिक्ताः. पितर प्रीणिता इति ।
तथा वाक्यान्यपि शिष्ठानि भवन्ति | श्वेतो धावति | भकलम्बुसानां यातेति ॥
15 अथेदं ` तावदयं प्रष्टव्यः | कमे संवृतादयः भ्रुयेर्चिति । भागमेषु । आगमाः
शुद्धाः पड्यन्ते | विकारेषु तर्हि । विकाराः शदः पठ्यन्ते । प्रत्ययेषु तरि । प्-
स्ययाः शुडाः पठचन्ते । धातुषु तर्हि } धातवो पि दद्धाः पठ्यन्ते । प्रातिपदिकेषु
ति । प्रातिपदि कान्यपि श्युडानि पठ्यन्ते । यानि तद्येयहणानि प्रातिपदिकानि ।
एतेषामपि स्वरवणीनुपूर्वीञानाथं उपदेशः कतैव्यः । शशः | षष इति मा भूत् |
20 प्रलाश्चः । परलाष इति मा भृत् । मज्वकः । मस्जकं इति मा भूत् ॥
आगमा विकाराथ प्रत्ययाः सह धातुभिः ।
उश्चायन्ते ततस्तेषु नेमे प्राप्ताः कलादयः |
इति ज्रीभगवत्पतश्ञङिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याभ्यायस्य प्रथमे
पादे प्रथममाद्धिकम् ||
शिबसु° ९. | ॥ .व्याकरणयहाभाष्यम् ॥¦. १५
अड उण् ॥ १. ॥
अकारस्य विवृतोपदेदा आकारम्रहणाथैः ॥ ९॥
अकारस्य विवृतोपदेश्चः कतैव्यः | किं प्रयोजनम् । आकारम्रहणायेः | अकारः
सवणन्रहणेनाकारमपि यथा गृह्णीयात् | किंच कारणं न गृह्णीयात् | विवारमे-
दात् । किमुच्यते विवारभेदादिति न पुनः कालभेदादपि । यथैव छययं बिवारमिन्न 6
एवं कालमभिन्नो अपे | सत्यमेतत् | वक्ष्यति तुल्यास्यप्रयलं सवणेम् [९. ९. ९|
इत्यतरास्यम्रहणस्य प्रयोजनमास्ये येषां तुल्यो रेशः प्रयलंथ ते सवगसंज्ञका भव-
न्तीति । बाह्य पुनरास्यात्कालः | तेन स्यादेव कालाभिन्नस्य महणं न पुनर्विवा-
रमिन्नस्य || किं पुनरिदं विवृतस्योपदिदयमानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायत आशेस्वि-
त्स॑वतस्यो पदिदयमानस्य वि व्रतो पदेराथोद्यते | विवृतस्योपदिरयमानस्य प्रयोजनम - 10
न्वाख्यायते | कथं ज्ञायते | यदयम् अभ भ [८. ४. ६८ | इत्यकार स्य विवृतस्य
संवृतताप्रत्यापर्ति शास्ति | नैतदस्ति ज्ञापकम् | अस्ति छन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् |
किम् | अतिखद्रुः अतिमाल हत्यत्रान्तयेतो विवृतस्य विवृतः प्राभोति संवृतः स्यादि-
त्येवमरथौ प्रत्यापत्तिः | नैतदस्ति | तैव लोके न च वेदे ऽकारो विवृतो ऽस्ति | कस्ता्।
संवृतः | यो अस्ति स भविष्यति | तदेतत्मत्यापान्तिवचनं ज्ञापकमेव भविष्यति विवू- 15
तस्यो पदिरय मानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायत इति || कः पुनरत्र विदोषो विवृतस्योप -
दिदयमानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायेत संवृतस्यो पदिदयमानस्य वा विवृतोपदेदाथोे-
तेति । न खलु कथिद्िशेषः | आहोपुरुषिकामात्रं तु भवानाह संवृतस्योपदि श्यमा-
नस्य ॒विवृतोपदेशशोव्यत इति | वयं तु ब्रुमो विवृतस्योपरिदयमानस्य प्रयोजमम-
न्वाख्यायत इति || | 20
तस्य विवृतोपदेरादन्यत्रापि . विवृतोपदेशः सवर्णग्रहणा्थः ॥ २ ॥।
तस्थैतस्या्षरसमाघ्रायिकस्य विवृतोपदे शादन्यत्रापि विवृतोपदेशः क्ष्यः |
कान्यत्र । धातुप्रातिपरिकप्रत्ययनिपातस्थस्य | किं प्रयोजनम् | सव्णम्रहणार्थः |
भक्षरसमाघ्चायिकेनास्य प्रहणं यथा स्यात् | करं च कारणं न स्यात् | विवार-
भेदादेव ॥ आचायेप्रवृ्तिज्ञोपयति मवत्याक्षरसमा्नायिकेन धात्वादिष्थस्य म्रहण- ४
मिति यदयमकः सवर्णे दीषेः [६, ९. १५०१] इति प्रस्याहारे ऽको महणं करोति |
कथं कृत्वा श्ञापकम् | न हि इयोराक्षरल्तमाप्नायिकयो युग पत्समवस्थानमस्ति |
बैतदसि श्वापकम् | भर्ति क्षन्यदेतस्य बजने प्रयोजनम् | [किम् | यस्याक्षरस्तमा-
९६ ॥' ग्याकरणमहोभाच्यम् ॥. [मण ९.९.२.
च्राचिकेन सरहणमस्ि तद थेमेत्स्वात् । खद्ुाकम् मालाडकमिति | सति प्रयोजने न
श्षापकं भवति | तस्मादिवुतो पदेशः कतेष्यः || क एष॒ यलथोधते विवृतोपदेशो
नाम | विवृतो वोपदिरयेत संवृतो वा को न्वज्र व्रिरोषः | स एष सवे एवमर्थो यलो
यान्येतानि प्रातिपदिकान्यम्रहणानि तेषामेतेनाभ्युपायेनो पदेङ्राधोद्यते | तहर भवति ।
5 तस्मादवक्तव्यं धात्वादिस्थथ विवृत इति ||
दीर्षुतवचने च संवृतनिनव्॒स्यर्थः | ३ ॥
दीषष्ुत्रचने च संवृतनिवृस्यर्थो विवुतोपदेहाः कतैव्यः । दीरषश्ुतौ संवृतो मा
भूतामिति । वृक्षाभ्याम्” देवद्तारि इति ॥| नैव लोके न च येदे दीतौ संवृतौ
स्तः | कै तर्हि । विवृतौ | यौ स्तस्मै भविष्यतः ||
10 स्थानी प्रकल्पयेदेतावनुस्वारो यथा यणम् ।
संवृतः स्थानी संवृतौ दीषैशुतौ प्रकल्पयेत् । अनुस्वारो यथा यणम् । त्यया ।
सय्वन्ता सर्ैवत्सरः यक्षोकम् लोकमिति | अनुस्वारः स्थानी यणमनुनासिकं प्र-
कल्पयति; || विषम उपन्यासः । युक्तं यत्सतस्तन्र प्रकुभिभेवति सन्ति हि यणः
सानुनासिका निरनुनासिकाथ । दीश्ुतौ पुर्व लोके न च वेदे संवृतौ स्तः | कौ
15 तर्हि | विवृतौ | यौ स्तस्तौ भविष्वतः || एवमपि कुत एतत्तुल्यस्थानी प्रयलमिन्नौ
भविष्यतो न पुनस्तुटयप्रयलो स्थानभिक्रौ स्यातामीकार ऊकार वेति | वह्यति स्था-
ने ऽन्तरतमः [१.९.९५ ० | इस्यत्र स्थान इति वतेमाने पुनः स्थानम्रहणस्य प्रयोजनं
यत्रानेकविधमान्तये तत्र स्थानत एवान्तये बलीयो यथा स्यात् ॥
तश्रानुवृ्निनिदेदो सवणांग्रहणमनण्त्वात् ॥ ४ ॥
20 तत्रानुवृत्तिनिरेशे सवणौनां महणं न प्राप्रोति | भस्य स्वौ [७.४.३२ यस्येति
च [६.४.९४८] | किं कारणम् । अनण्त्वात् | न हते णो ये शनुवृत्तौ । के तर्द ।
ये ऽक्षरसमान्नाय उपदिदयन्ते ||
एकत्वादकारस्य सिम् ॥ ९ ॥
एको ऽयमकारो य्ाक्षरसमात्नाये यथानुवृ्तौ वथ धात्वादिस्थः ||
%5 अनुब्रन्धसंकरस्तु ।। & ॥
अनुबन्धसेकरस्तु प्रामोति । कमेण्यण् [२,२.२९ | आतो अनुपसर्गे कः [३.१.द |
इति के ऽपि णिर्कृतं भामोति ॥।
# ७.३.१०२. † ८.२.८२. | ८,४.५९.
शिवसू° ९. | ॥ व्याकरलमहाभाष्यम् ॥ ` १७
एकाजनेकाञग्रहणेषुः खानुपपन्तिः ॥ ७ 1}
एकाजनेकाञ््रहणेषु चानुपपत्तिमेविष्यति । तत्रं को दोषः | किरिभा ` गिंरिणे-
वयेकाज्लक्षणमन्तोदात्तस्वरं प्रामोति* | इह च घटेन त॑रति घटिक इति ग्यज्लक्षणक्चच्न
प्राोति ॥ | | `
द्रव्यवच्चोपचाराः ॥ ८ ॥ ्
दरव्यवचोपचाराः प्रापुवन्ति | तद्यथा | द्रव्येषु नैकेन घटेनानेको युगपत्काये
करोति । एवमिममकारं नानेको युगपदु्ारयेत् || ` ^
विषयेण तु नानालिङ्करणास्सिद्धम् ।। ९ ॥।
यदयं विषये विषये नानालिङ्मकारे करोति कमेण्यण् आतो अनुपसर्गे क इति
तेन ज्ञायते नानुबन्धसंकरो ऽस्तीति | यदि हि स्यान्नानालिङ्ककरणमन्थकं स्यात् । 10
एकमेवायं सवंगुणमुचयारयेत् | तरैतदस्ति शापकम् । इत्संजञापरकुप्त्यथमेतत्स्यात् ।
न द्ययमनुबन्ैः श॒ल्यक वच्छक्य उपचेतुम् । इत्संज्ञायां हि दोषः स्यात् । भायम्ब
दि इयोरिस्संजञा स्यात् 1 कयोः | आद्यन्तयोः || एवं ताह विषयेण तु पुतनार्हिङ़-
करणास्सि्धम् | यदयं विषये विषये पुरनरशिङ्गमकारं करोति प्राग्दीव्यतो ऽन् [४. ९.
८३ | शिवादिभ्य। ऽण् [९९२ | इति तेन ज्ञायते नानु बन्धसंकरो ऽस्तीति | यदि 1:
हि स्यास्पुनर्छिङ्गकरणमनथेकं स्यात् || अथवा पुनरस्तु विषयेण तु नानालिङ्गक-
रणास्सिडधमिव्येव । ननु चोक्तमिस्संज्ञाप्रकुष्त्यथमेतस्स्यादिति । तेष दोषः } लोकत
एतत्सिद्धम् । तद्यथा । लोके कथिहेवद तमाह । इह मुण्डो भव । इह जटी भव |
हह शिखी भवेति | यद्िद्धो यत्रोच्यते तचिद्धस्तत्रोपातिष्ठते । एवमयमकारो
वाके यत्रोच्यते तदि द्गस्तत्रोपस्थास्यते || यदप्युच्यत एकाजनेकाज्महणेषु चानुप- 20
प्र्तिरिति | |
एकाजनेकज्ग्रहणेषु चावृत्तिसंख्यानात् ॥ ९० ॥
एकाजनेकाज्पहणेषु चावृत्तेः संख्यानादने का च्स्वं भविष्यति | तथथा | सप्रदशा
सामिधेन्यो भवन्तीति ज्रः प्रथमामन्वाह वरिरुत्तमाभिस्या वृत्तितः सप्रदशात्वं भवति |
एवमिहाप्यावृक्तितो ऽेकाच्त्वं भविष्यति । भवेदावृत्तितः काये परेतम् | इह तु 5
खलु किरिणा गिरिणेव्थेकाज्लक्षणमन्तोदास्त्वं प्रामोत्येव । एतदपि सिम् |
कथम् | लोकतः | तद्यथा | लोक कषिसहसमेकां कपिलामेकेकशः सहस्कृत्वो
# ६, १, ९५८. † ४.४. 9,
3 ॐ
९८ ॥ व्याकत्णयहामव्यिम्॥ | [ म० ९.९.२.
दत्त्वा तया सर्षे ते सहदक्षिणाः संपन्नाः | एवमिहाप्यनेकाच्त्वं भविष्यति ||
यदप्युच्यते द्रन्यबञ्योप्रचाराः परामुवन्तीति भवेद्यदसंभवि काये तच्नानेको युगपत्कु-
यव्यत्तु खलु संभवि काथेमनेको अपि तद्युगपर्करोति । तद्यथा | घटस्य दशनं
स्पशैनं वा | संभवि चेदं कायेमकारस्योचारणं नामनिको ऽपि तद्युगपत्करिष्यति |
5 आन्यभान्य तु कालशाब्दग्यवायात् ॥ ९९ ॥
आन्यभाव्यं त्वकारस्य । कतः |- काल्यष्दन्यवायात् । कारव्यवायाच्छब्द्-
भ्यवायाच्च | कारव्यवायात् | दण्ड अग्रम् । शब्दव्यवायात् | दण्डः | न चेकस्या-
मनो व्यवायेन भवितव्यम् | भवति चेद्धवत्यान्यभाव्यमकारस्व ||
युगप देदापृथक्छदर्शानात् ॥ ९२ ॥
10 युगपञ्च देशाए्थच्छददोनान्मन्यामह आन्यमाव्यमकारस्येति | यदयं युगपहेश-
पथ च्रेषुपलभ्यते | अश्वः अकंः अथे इति | न येको देवदत्तो युगपत्छुघरे च भवति
मथुरायां च | यदि पुनरिमि वणोः दाकुनिवस्स्युः | तद्यथा । शकुनय आद्युश-
भित्वास्पुरस्तादुत्पतिताः पश्चाहृदयन्ते ¡ एवमयमकारो द . इत्यत्र दृष्टो ण्ड इत्यत्र
कृरयते | वैवं राक्यम् । भनिस्यत्वमेवं स्यात् | नित्याश्च शाब्दाः | निव्येषु च राब्देषु
1: कूटस्थैरविचालिमिवैर्ैभेषितव्यमनपायोपजनविकारिभिः |. यदि चायं. द इत्यत्र
वृष्टो ण्ड हत्यत्र दृद्येत नायं कूटस्थः स्यात् || `यदि पुनरिमे वणो भआदित्यव-
स्स्युः । तद्यथा | एक आदित्यो अकाधिकरणस्यो युगपेदाष्थक्केष पलमभ्यते । वि-
षम उपन्यासः | नैको ब्र्टादित्यमनेकाधिकरणस्यं युगपदेशाए्थल्केषु पलभते ऽकारं
पुनरूपलभते । अकारमवपि नोपरभते । किं कारणम् | भरोत्रोपलन्िबदधिनिमरोद्यः
20 प्रयोगेणाभिज्वकछित भाकाशदेराः शब्द एकं च पुनराकाशम् | भआकाददेशा
अपि बहवः | यावता बहवस्तस्मादान्यभाव्यमकारस्य ॥
आशतिग्रहणात्सिम् ॥ ९३ ॥
अवर्णीकृतिदपदिष्टा सवैमकणेकुलं मरहीष्यति | तथेवणोकृतिः | तथोवणकृविः ||
तदच तपरकरणम् ॥ ९९ ॥
28 . एवं च कृत्वा तपराः करियन्ते | आकङृतिव्रहणेनातिप्रसक्मिति । ननु च . स्वै
णमहणेनातित्र सक्तमिति ` कृत्वा तपराः क्रियेरन् 1 प्रत्याख्यायते तत्खवर्ण अ्च-
इणमपरिभाष्यमाकृतिप्रहणादनन्यत्वाचचेति ||
४ द, द, ४६९,
शिकत २. | ॥ व्याकरनमहाभाष्वमः १९
हल्ग्रहणेथु च ।॥ ९९ ॥
किम् | आङृतिप्रहणास्सिदधमित्येव । श्लो क्षि [ ८.२.२१ ६ ] । भवात्ताम्
भवालम् अवात | ` यत्रैतन्नास्त्यण्सवणोन्गृहातीति ||
सूपसामान्याद्ा । ९६ ॥
` सूपसामान्याहा सिद्धमेतत् | तथंया | तानेव शाटकानाच्छादयामो ये मथुरा- $
वाम् । तानेव रालीन्मुमहे ये मगधेषु । वदेवेदं भवतः कार्षौपणं यन्मथुरायां
गृहीतम् | अन्यरसमिभान्यस्मिथ सूपसामान्यात्तदेवेदमिति भवति | एवमिहापि सूप-
खामान्यास्विडम् ॥
अ लक् ॥ ९२ ॥ |
ककारस्योपदेशः किमर्थः । क विरोषेण लकारोपदेशाथो्ते न पुनरन्ये -
वामपि वणोनामुपदेदाथद्येत | यदि किंचिदन्येषामपि वणानामुपदेश प्रयोजनस्य
कारोपदेशस्यापि तद्वितुमर्ति । को वा विशेषः । अयमस्ति विरोषः । अस्य
ककारस्याल्पीथांधैव प्रयोगविषयो यथापि प्रयोगविषयः सो अपि कुपिस्थस्य
कुषे ठत्वमिद्धम्* । तस्यासिद्धत्वावृकारस्थैवाच्कायोणि भविष्यन्ति नार्थं लका -
रोपदेदोन || अत्त उत्तरे पठति | 15
रटकारोपदेरी यदृच्छाराक्तिजानुकरणष्ुस्यादयर्थः ॥ ९॥ `
ककारोपदेदाः क्रियते यदृच्छाशब्दा्यो दाक्तिजानुकरणाथेः इत्याययेभ |
यदृष्डाशष्दा्स्तावत् | यदृच्छया कथिदुतको नाम तस्मिच्चच्कायोणि यथा स्वुः |
रधयुतकाय देहि ! मध्वुतकाय देहि । उदङ्तको ऽगमत् । प्रत्यङ्तको गमत् ।
चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः । जातिशब्दा गुणराब्दाः क्रियाशब्दा य दृच्छास्षष्दाथ-
जुयोः || मदछक्तिजानकरण्पथैः } अर्या कयाचिद्रादण्या . ऋतक इति प्रबोक्त-
व्व तक इति प्रयुक्तम् । तस्यानुकरणं ब्राह्मण्युतकं इत्याह कुमायुतक इत्या- `
हेति ॥ शरुत्फाशचथेश्च र कारोषदेशः करैव्यः | के पुनः श्रुत्यादयः । श्ुतिदिवेचन-
स्वरिताः । कुरशशिख। । कुप्रः‡ । प्रक्रुतः$ । श्ुल्कादिषु कार्येषु कुपेलस्वं सिदध
* ८.२.१८, † ८.२, ८६. { <. ४. ४.७. $ ६.२.४९; ६.१. १५८; ८.४.६६. `
२० 1) व्याकरणयहामष्यम ॥ | [म ०९.९.३२.
तस्य सिदत्वादव्का्यौणि न - सिध्यन्ति | तस्मादुकारोपदेशः क्रियते || नैतानि
सन्ति प्रयोजनानि
न्याय्यभावात्कल्यनं संज्ञादिषु ॥ २॥
न्याय्यस्य ऋतकशष्दस्य भावात्कल्पनं संज्ञारिषु साधु मन्यन्ते | ऋतक एवासौ
5 न कतक इति || अपर आह । न्याय्य ऋतकराष्दः शालरान्वितो अस्ति स कल्पयितव्यः
साधुः सं्ादिषु | ऋतक एवासौ न लतकः || अयं ति यदृच्डाश्ष्दो ऽपरिहाभिः |
लफिडः लफिडः ] एषो ऽप्युफिडः ऋफिडथ | कथम् । भर्िप्रवुत्तिैव हि लोके
लक्ष्यते किडकिड्ावीणादिकौ प्रत्ययौ | यी च शब्दानां प्रवृत्तिः | जातिश्राब्दा
गुणदाष्दाः क्रियाश्ष्दा इति | न सन्ति यदृच्छाशब्दाः || अन्यथा कत्वा प्रयोजन
10 मुक्तमन्यथा कृत्वा परिहारः | सन्ति यदुच्छादाम्दा इति कृत्वा प्रयोजनमुक्तं न
सन्तीति परिहारः । समाने चार्थे शालान्वितो ऽदालान्वितस्य निवतेको भवति |
तद्यथा } देवदन्तशयम्दो देवरिण्णद्यब्दं निवतैयति न गाव्यादीन् | च्रैष दोषः | पक्षा-
न्तैरैरापि परिहारा भवन्ति || |
अनुकरणं शिष्टाशिष्टाप्रतिषिदेषु यथा लोकिकवैदिकेषु ॥ ३ ॥
15 अनुकरणं हि शिष्टस्य साधु भवति | अश्िष्टाप्रतिषिद्धस्य वा नैव तहषाय
व्रति नाभ्युदयाय | यथा -लौकफिकवैदिकेषु | यथा रीकरिकेषु वैदिकेषु च कृता-
न्तेषु | रोके तावत् | य एवमसौ ददाति य एवमसौ यजते य एवमसावधीत
इति तस्यानुकुवेन्दद्याच्च यजेत चाधीयीत च सो ऽप्यभ्युदयेन युज्यते | वेदे ऽपि ।
य एवं विश्वसृजः स्राण्यध्यासत इति तेषामनुकुवैस्तदत्सक्नाण्यभ्यासीत सो ऽप्यभ्यु-
20 दयेन युज्यते || भशिष्टापरतिषिम्धम्| य एवमसौ हिति य एवमसौ हसति य एवमसौ
कण्डूयतीति तस्यानुकुवेन्दिक्षेच हसे्च कण्डुयेच नैव तहोषाय स्याच्नाभ्युदयाय ||
यस्तु खस्वेवमसौ ब्राह्मणे हन्त्येवमसी खरां पिवतीति तस्यानुक्वेन्तराद्मणं दन्या-
त्रां वा पिबेतसो अपि मन्ये पतितः स्यात् । विषम उपन्यासः | यथैवं हन्ति
यथानुहन्त्युमौ तौ हतः ¡ यश्च पिबति यथानुपिबल्युमैौ तौ पिवतः | यस्तु खल्वेव-
25 मसौ ब्राह्मणं हन्त्येवमसौ इरां व। पिबतीति तस्यानुकुवैन्कातानुरिपनो माल्वगुण-
कण्ठः कदलीस्तम्भं छिन्द्यात्पयो वा पिबेन्न स मन्ये पतितः स्यात् | एवमिहापि य
एवमसावपशाग्दं परयुङ्ुः इति तस्यानुकुबेन्नपशब्दं प्रयुञ्जीत सो ऽप्यपहाब्दभाक्स्यात् }
भयं रन्यो ऽपदाष्यपदाथकः शाब्दो यदथ उपदेशः कतेव्यः | न चापहाम्दपदार्थकः
दिवसूः २.] + व्याकरणमहाभाष्यय ॥ ९९
शब्दो ऽपशाबम्दो भवति| अवहयं वैतदेवं धिद्केयम् [यो हि मन्यते ऽपशब्दपदाथेकः
शब्दो ऽपाभ्टो भवतीस्यपशब्द इस्येव तस्यापराष्दः स्यात् | न धचैषो ऽपदाष्दः ||
अयं खल्वपि भूयो नुकरणशब्दो ऽपरिहायी यदथे उपदेशः कतैव्यः। साध्वु कारम ीते।
मध्वु कारमधीत इति 1 स्थस्य पुनरेतदनुकरणम् । कुपिस्थस्य | यदि कुपिस्थस्य
कुपेथ लत्वमसिदधं तस्यासिद्धस्वारकार एवाच्कायोणि भविष्यन्ति | भवे्दर्थेन नाथः $
स्यात् | अयं त्वन्यः कुपिस्यपदाथेकः शब्दो यदथे उपदेशः कतैषव्यः| न कर्तव्यः | .
इदमवद्यं वक्तव्यं प्रकृतिवदनुकरणं भवतीति | किं प्रयोजनम् | हिः पचन्त्वि-
त्याह } तिडतिडः [८.*१. ९८ ]इति निघातो यथा स्यात् | अगरी इत्याह | शैदृरेदि-
वचनं प्रगद्यम् | ९. ९. ९९ | इति प्रगृह्यसंज्ञा यथा स्यात् | यदि प्रकृतिवदनुकरणं
भवतीत्युच्यते ऽपशब्द एवासौ भवति कूुमायूतक इत्याह ब्राद्मण्युतक इत्याह | 10
अपररब्दो हस्य प्रकृतिः | न चापरशाब्दः प्रकृतिः । न धपदाम्दा उपदिदयन्ते न
चानुपदिष्टा प्रकृतिरस्ति ||
एकदे दाविकृ तस्यानन्यत्वा्छुस्यादयः 1 ४ ॥
एकदेराविकृतमनन्यवद्भवतीति भरुत्यादयो ऽपि भविष्यन्ति | यद्येक शविक्ृतं-
मनन्यवद्भवतीरयुच्यते राज्ञः कं च |४. ए. १४० | राजकीयम् भक्ठोषो ऽनः 15
[६. ४. १३४] इति लोपः प्रामोति । एकदे शधिंकृतमनन्यवत्वष्ठीनिर्दिष्टस्येति वश्या-
भि | यदि ष्ीरनिर्दिटस्येद्युच्यते कु रप्रशिख इति श्रुतो न प्रामोति | न चत्र ऋकारः
षष्ठीनिर्दिष्टः | कस्तर्हि | रेफः | ऋकारो ऽप्यत्र षष्ठीनिर्शि्टः | कथम् | भविभक्तिको
निर्देशः | कृप डः रः लः कृषो रो लः [८. २. १८| इति । अथवा पुनरस्त्ववि-
शोषेण । ननु चोक्ष राञ्चः क च राजकीयम् भष्ठोपो ऽन इति लोपः प्राभोतीति | 20
तरैष दोषः | वषेचत्येतत् । शवादीनां प्रसारणे नकारान्तमहणमनकारान्तप्रतिषेधाथे-
भिति" | तत्पकृतमु्षरत्रानुवर्तिष्यते । अष्ठोपो ऽनो नकारान्तस्येति || इह रत
कु देप्रशिख इत्यनृत इति प्रतिषेधः प्रमिति | |
रबस्मतिषेधा || ९ ॥
रवल्मतिषेधाजैतस्सिध्यति | गुरोररवत इति वदेयामि | यद्यरवत ह्युच्यते हेत् ‰5
ऋकार होतृकार अत्र न प्रामोति । गुरोररवतो हूस्वस्येति वश्यामि || स एष
सृज्रभेदेन र कारोपदे शः शुत्या्थः सन्परत्याख्यायते सैषा महतो वंशस्तम्बाह्-
टरानुकूष्यते ॥ |
> ६. ४.९२३* † ८. २, ८६. `
३१् 1 व्याकरणमहाभाष्य ॥ ्ि० ९.९२.
९ ओड. ॥ २ ॥.एे ओच् ॥ ७ ॥
इदं विचायते | इमानि सं्यक्षराणि तपराणि वोपदिष्येरन् । ९् ओत्ङ् |
एत् ओत्च् इति । अतपराणि वा यथान्याखमिति । कथात्र विद्येषः |
संध्यक्षरेषु तपरोपदेराेलपरोचारणम् ।। ९ ॥
$ -संप्वक्षरेषु तपरोपदेशाशेन्तपरोश्ारणं कतेष्यम् ॥
| रस्यादिष्वज्विधिः ॥ ॥
` अस्यादिष्वजाअयो विधिर्म सिध्यति । गोरश्रात नौरेन्रात इत्यशाकवि च [८. ४.
४७] इत्यच उत्तरस्य यरो हे भवत इति द्विवैचनं न प्रामोति । इह च प्रत्यद ्ति-
कायन उदङ्कौरषगव हइत्यचि [८.३.३२] इति ङमुण्न प्रामोति ॥।
10 . शतसंज्ञाच॥द३॥ ` .
्ुवसंश्ञा च म विध्यति । दे रेतिकायन ओ रपगब | ऊकाल ऽज्छ्यस्यदीर्षश्चवः
[१. २.२७] इति श्ुतसंज्ञा न प्रामोति । सन्तु तद्येतपराणि ।
अतपर एव इग्धस्वादेशे ॥ ४ ॥
` यद्तपराण्येव इ्प्रस्वादेशे [१.१.४८] इति वक्तव्यम् } किं प्रयोजनम्
15 एषो हस्वादेशशासनेष्वभे एकारो ऽध ओकारो वा मा भूदिति | ननु च यस्यापि
तपराणि तेनाप्वेतहक्तव्यम् । इमावैचौ समाहारवर्णौ माऋवर्णेत्य मान्रेवर्णो-
वणैयोस्तयोहैस्वादेशाशासनेषु कदाचिदवणेः स्वात्कदाचिदिवर्णोवर्णौ मा कदाचि-
दवण भूरिति । परस्याख्यायत एतत् । रेचोधो्षरभुयस्त्वादिति | दि प्रत्याख्यानपक्ष
इदमपि प्रत्याख्यायते । सि्धमेडः सस्थानस्यादिति | ननु चैडः सस्थानतरावर्धं
20 एकारो पै भओकारथ | न तौ स्तः | यदि हि वौ स्यातां षेवायमुपदिशेत् ॥
ननु च भोदृन्दोगानां सात्यमुभिराणायमीया अपेमेकारमधमोकारं चाषीयते [
खजाति ए अथसनृते | अध्वर्यो ओ अद्रिभिः चतम् । शुक्रं ते ए अन्ययजतंते पए
न्यदिति । पाधैदकृतिरेषा तत्रभवतां तैव हि लोके नान्यस्मिन्वेदे ऽ एकारो ऽषे
ओकारो वासि |
25 एकाद दीषेग्रहणम् ॥ ५ ॥ |
एकादेशे दीषेमहणं कतेष्यम् । भादुणो [६.१.८७] दीषैः । वृद्धिरेचि [८८]
भिवेसू* २.४.] ॥ व्थाकरणयहाभाष्यम् ॥ ` २३
दीषै इति । किं प्रयोजनम् । आन्तयैतखिमात्र चतुमौत्राणां स्थानिनां भरिमात्रचतुमोज्ा
भदेज्ञा मा भूवन्निति । खद्भू इन्रः खदवन्द्रः । खटा उदकं खट्वोदकम् । खटा हषा
खटवा । खटा रुढा खदोढा । खटा एढका खद्रैलका | खटा भोदनः खट्रौदनः। खटा
रेतिकायनः खदरतिकायनः । खटा ओौपगवः खडी पणवः ॥ तन्ति दीपद
कतेभ्यम् | न कतेव्यम् } उपरिष्टादयोगविभागः करिष्यते | अकः सवण एको भवति |. 5
ततो दीषेः | दी स मवति यः स एकः पुवंपरयोरित्येवं निर्िष्च इति* | इहापि
तर्हि पराति | पम्मुम् विद्धम् पचन्तोति | मैष दोषः | इह तावत्पभुमित्यम्येक
इतीयता सिद्धम् । सो अयमेवं सिद्धे सति यत्पूवैयहणं करोति† तस्थैततप्रयोजनं
यथाजातीयकः पूत्रैस्तथाजातीयक उभयो यथा स्यादिति । विद्धमिति पूर्व इस्ये-
ानुवतेते‡ | अथवा चायैभरवृत्तिज्ञौपवाति नानेन संप्रसारणस्य दीर्बो भवतीति 10
यदं हठ उत्तरस्य संप्रसारणस्य दीषेत्वं शास्ति$ | पचन्तीत्यतो गुणे पर॒ इती- `
यता सिद्धम् । सो ऽथमेवं सिद्धे सति यद्रुप्रहणं करोति। तस्थैततत्मयोजनं
जथाजातीयकै परस्य रूपं तथाजातीथकमुभयोयेथा स्यादिति ॥ इह तर्हि खटरदयैः
मालदइयै इति दीधैवचनादकारो नानान्तयोदेकारौकारौ भ | तत्र को देषः | विगृही-
तस्य श्रवणं प्रसज्येत | न ब्रूमो यत्र क्रियमाणे दोषस्तत्र कतेव्यमिति | किं तर्दि | 15
यत्र क्रियमाणे न दोषस्तत्र कतैव्यामिति | क च क्रियमाणे न रोषः | संज्ञाविधौ |
वृद्धिरिज् [१.९.१] दीधः । अदेङ्कुणो [२] दीषे इति ॥ तर्त. दीषैचहणं
कतैव्यम् । न कतेब्यम् | कस्मादेवान्तयेतजिमात्रचतुमोत्राणां स्थानिनां त्रिमान्रच-
तुमौत्रा आदेशा न भवन्ति | तपरे गुणवृद्धी । ननु च तः परो यस्मात्सो ऽयं तपरः |
नेत्याह | तादपि परस्तपर इति | यदि तादपि परस्तपर . ऋदोरप् [३.३.९५७] 20
इदेहेव स्यात् | यवः स्ववः | कवः पव इत्यत्र नं स्यात् | नैष तकारः | कस्त-
हह | रकारः | कि दकारे प्रयोजनम् | अथ किं तकारे | यथ्स्दिशाथैस्वकारो
दकार अपि | अथ मुखद्कलार्थस्तकारो दकारो भपि।॥।
इदं विचार्यते | य एते वर्णेषु कौकरेशा वणोन्तरसमानाकृय एतेषामवयय-
अहणेन ब्रहणै स्याद्वा न वेति | कुतः पुनरियं विचारणा । इह समुदाया अप्युपदि-.%
इयन्ते ऽवयवा आपि | अभ्यन्तर समुदाये ऽषयवः । तद्यथा | वृक्षः प्रचलन्सहा-
अयतरीः प्रचतति | नत्र समुदायस्थस्यावयवस्यावयवमरहणेन महणं स्याद्वा न वेति
जायते विचारणा | कथात्र विशेषः | `
। नकन ` द [९९८५ ` इ | ९९९१५९५.
[पीस
।
. १४ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ `{म०९.९.२.
` वणैकदेरा वणेग्रहणेन . चेत्संध्यक्षरे समानाक्षशविधिप्रतिषेधः ॥ ६ ॥
वर्शीकरेशा वणेप्रहणेन चेत्स॑भ्यक्षरे समानाक्षराश्रयो विधिः प्रामोति स प्रति-
बध्यः | अग्ने इन्द्रम् | वायो उदकम् । भकः स्वर्णे दीपैः [ ६.१.९०९ | इति
रीधेस्वं प्रामोति ॥
5 दीधे हस्वविधिपतिषेधः॥।७।॥
दीष हस्वाक्तरभ्नयो विभिः प्राभोति सं प्रतिषेभ्यः | मामणीः | भालूय | प्रलय |
हस्वस्य पिति कृति तुगभवतीति तुक्परामोति* | नैष दोषः | आवा येप्वृत्तिज्ञो पयति
न दीर्ध हस्वान्नयो विधिभेवतीति यदयं रीषौच्छे तुकं शासि | वैतदंस्ति ज्ञापकम् |
अस्ति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् | किम् । पदान्ताद्वा [ ६.१.७६ | इति
10 विभाषां वक्ष्यामीति । यस्त योगविभागं करोति | इतरथा हि दीषौर्पदान्ता-
देसे ब्रूयात् || इह ताह खटामिः मालाभिः अतो भिख देस् [ ७. ९. ९ | इल्यै-
स्मावः प्रामोति | तपरकरणसामथ्वौन्न भविष्यति || इह ताह याता बाता अतो
लोप आधधातुके [६.४.४८] इत्यकारलोपः प्रामोति । ननु चात्रापि तपरकरण-
सामभ्योदेव न भविष्यति | अस्ति ह्यन्यत्तपरकरणे प्रयोजनम् | किम् | सवस्य लो-
15 पो मा भूरिति | अथ क्रियमाणे अपि तपरे परस्य लोपे कते पूर्वस्य कस्मान्न भवति |
परलोपस्य स्थानिवद्धावादसिद्धस्वाञ्च | एवं तद्यो चाथपवुत्तिजञोपयति नाकारस्थस्या-
कारस्य लोपो भवतीति यदयमातो अनुपसर्गे कः [ ३.२.२ | इति ककारमनुबन्धं
करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | कित्करण एतसयोजन कितीत्याकारलोषो यथा
स्यादिति; । यदि चाकारस्थस्याकारस्य लोपः. स्यास्कित्करणमनथेकं स्वात् |
20 प्ररस्याकारस्य लोपे कृते इयोरकारयोः परसूपे हि सिद्धं रूपं स्यात् गोदः क-
म्बलद हति | परयति त्वाचार्यो नाकोरस्थस्याकारस्य कोपो भवतीत्यतः ककार-
मनुबन्धं करोति । बैतदस्ति ्षापकम् | उत्तरार्थमेतत्स्यात् । तुन्दशोकयोः परिमू-
जापनुदोः [ ३.२.९ | हति | यत्तर्हि गापोष्टक् [ ३.२.८ | इत्यनन्याथै ककारमनु-
बन्धं करोति ॥ |
9 | एकव्णवश्च | ८ |
एकवणेवद्च दीघो भवतीति वक्तव्यम् | कं प्रयोजनम् । आचा तरतीति
व्यज्लक्षणष्ठन्मा भूदिति ¡ इहं च वाचो निमिं तस्य निमित्तं संयोगोत्पातौ
न ६.१.७१, { ६.९.७५. { ६.४.५४. $ ४.४..
शिवसू” ३.४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ २५
[९.९.३८] इति ञ्लक्षणो यन्मा भूदिति* । अन्रापि गोनौमहणो। ज्ञापकं दी-
षोरव्यज्लक्षगो विधिमे भवतीति | भयं तु सर्वेषामेव परिहारः |
नाव्यपवृक्तस्यावयवे तद्िधि्यथा द्रव्येषु ॥ ९ ॥
नाव्यपवुक्तस्यावयवस्यावयवाश्रयो विपिभवति यथा द्रव्येषु | तथथा दरष्वेषु |
सपददा सामिपेन्यो भवन्तीति न सप्रदशारलिमारं काष्टमप्रावभ्याधीयते | 5
विषम उपन्यासः | प्रस्य चैव हि तत्कमे चोद्यते ऽसंभवथातौ वेधां च |
यथा तर्हि सप्रदश प्रादेशमात्रीराश्त्थीः समिधो ऽभ्याद धीतेति न सप्रदष्यपरादेशमाशर
काष्ठमभ्वा धी यते | अत्रापि प्रतिप्रणवं वैतत्कम चोदते तुल्यथासंमवो ऽभौ वेदां
च|| यथा तर्द श्तैलं न विक्रेतव्थं मांवं न विक्रेतव्यमिति व्यपवृक्तं च न विक्री-
यते ऽव्यपवृक्तं च गावश्च सपा विक्रीयन्ते | तथा लोमनखं स्पृष्ट शौचं कतै- 10
व्यमिति व्यपवृक्तं स्पृष्टा नियोगतः कतेव्यमव्यपवृक्ते कामचारः || यजत्र वर्हि
व्यपवर्ग अस्ति | क च व्यपवर्ग ऽस्ति । संध्यक्षरेषु |
संध्यक्षरेषु विवृतत्वात् ॥ ९० ॥।
यदज्राव्णे विवृततर तदन्यस्मादवणाय्ये अीवर्णोवर्णे विवृततरे ते भभ्याभ्या-
मिवर्णोवणेभ्याम् || 15
अथवा पुनन गृ्न्ते | | |
अग्रहणं चेशुद्धषिलदिशविनाभेष्वृकारग्रहणम् ॥ ९९ ॥
जमरहणं चेचुद्धधिलादेराविनामेष्वकारस्य भहणं कतेष्यम् । तस्माच ददिदलः
[9.४.७९] ऋकारे चेति वक्तव्यम् । इहापि यथा स्यात् । आनृधतुः आनृधुरिति ।
यस्य पृनगृद्यन्ते दविहल हव्येव तस्य सिद्धम् । यस्यापि न गृ्यन्ते तस्याप्येष न 2
रोषः | दिहल्प्रहणं न करिष्यते | तस्मान्रुदभवतीत्येव | यदि न क्रियत आटतुः
आटुरिस्यत्रापि प्राभोति । अश्नोतिग्रहणं ; नियमाय भविष्यति | अभ्नोतेरेवावर्णोप-
धस्य नान्यस्यावर्णोपभस्येति || लादेशे च ऋकारमहणं कतेष्यम् । कृपो रो लः
[८.२.९८ | ऋकारस्य चेति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । करुप्रः कुप्रवा-
निति | यस्य पुनगृदयन्ते र इस्येव तस्य सिद्धम् । यस्यापि न गृद्यन्ते तस्याप्येष न 2
दोषः | ऋकारो ऽप्यत्र निरदिदयते | कथम् । अविभक्तिको निर्देशः | कृप उः रः
# ५.१.६९, ¶ ९.९.१९; ४,४.७५, यु 9-४.७२,
4
२६ ॥ व्याकरणमहामाष्यम् ॥ ` [म०९.९.२.
लः कृपो रो र इति | अथवोभयतः स्फोटमात्र॑निर्दिदयते । रभुतेरंभ्रुतिभव-
तीति || विनाम कऋकारपहणं कतेव्यम् | रषाभ्यां नो णः समानपदे [८.४.१९
ऋकाराचेति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् | मातृणाम् पितृणामिति ] यस्य पुनग-
द्यन्ते रषाभ्यामित्येव तस्य सिद्धम् | न सिध्यति | यत्तद्रेफारपरं भक्तेस्तेन व्यव-
६ हितत्वान्न प्रामोति | मा भूदेवम् | भडव्यवाय' इस्येव द्धम् । न सिध्यति | वर्भ-
.कदेराः के वणेब्रहणेन गृह्यन्ते | ये व्यपवृक्ता अपि वणौ भवन्ति | यचापि
रेफात्परं भक्तेन तत्क्राचिदापि व्यपवृक्तं दृदयते | एवं तर्द योगविभागः करिष्यते |
रषाभ्यां नो णः समानपदे | ततो व्यवाये | व्यवाये च रषभ्यां नो णो भवतीति|
ततो द्कुप्वाङुम्भिरिति । इदमिदानीं किमथेम् । नियमायैम् । एतैरेवाक्षर-
10 समाञ्नायिकेव्यैवाये नान्थेरिति || यस्यापि न गृह्यन्ते तस्याप्येष न दोषः | आ-
= वार्यप्यृ्तज्ञोपयति भव्यृकारान्नो णस्वामिति यदयं सु्ादिषु नृनमनशब्दं पठति |
नैतदस्ति ज्ञापकम् | वृ्यथैमेतर्स्यात् | नानैमनिः । यत्तार्हे तुमोतिराष्दं पठति |
यद्यापि नुनमनराब्दं पठति । ननु चोक्तं वृद्यथमेतस्स्यादिति [ बहिरङ्गा वृदिर-
न्तर ङ्ग णत्वम् | असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे || अथवोपरिष्टाद्योगविभागः करि
15 ष्यते; | ऋतो. नो णो भवति | ततम्रडन्दस्यवम्रहात् | ऋत इत्येव ||
ुतावैच इदुतोऽ || ९२॥।
एतच वक्तव्यम् | यस्य पुनगृद्यन्ते गुरोष्टेरिव्येव श्रुत्या तस्य सिद्धम्| | यस्यापि
न गृह्यन्ते तस्याप्येष न दोषः | क्रियत एतन््यास एव ॥
१.०
तुल्यरूपे संयोगे द्िव्य्ननविधिः ॥ ९३ ।।
20 तुल्यरूपे संयोगे हिव्यश्जनाश्रयो विधिने सिध्यति | कुङ्कुटः पिप्पलः पित्त-
भिति | यस्य पुनग्न्ते तस्य है ककारौ हौ पकारौ हौ तकारौ | यस्यापि न
गृह्यन्ते तस्यापि हौ ककारौ हौ पकारौ डौ तकारौ । कथम् मात्राकालो ऽर गम्यते
न च मात्रिकं व्यञ््नमस्ति । अनुपदिष्टं सत्कथं शक्यं विज्ञातुम् | यद्यपि तावद-
्ैतच्छक्यते वक्तु यत्रैत्नास्त्यण्सवणौन्गृह्णातीतीह तु कथं सथ्यन्ता सव्वत्सरः य्ो-
2६ कम् त्ठोकमिति यत्रैतदस्त्यण्सवणोन्गृह्णातीति | अत्रापि मात्राकालो गृह्यते न च
मात्रिकं व्यव्जञनमस्ति | अनुपदिष्टं सत्कथं शक्यं विक्ञातुमसञ्च कथं शाक्य प्रति-
प्तम् ॥
मै ८,४.२. † ८.४.३९. { ८.४.२६. § ८.२.६०६. || ८.२.८६.
शिक ५. | ॥ व्याकट्णपहाभाष्यम् ॥ २
हयवरट् ॥५॥
स्वै वर्णः सक्दुपदिष्टाः | भयं हकारो द्िरुपदिदयते पुवेधैव पर | यदि
एनः पुव एवोपदिदयेत पर एव वा । कथात्र विदोषः |
हकारस्य परोपेदेरो ऽडहणेषु हम्रहणम् ॥ ९ ॥
हक(रश्य परोपदेशे ऽङुदणेषु हरणं कतेष्यम् | आतो अटे नित्यम् [८.३.२३ |
ण्डो अटि [ ८.४.६३ | दीषौदटि समानपदे | ८.३.९ | हकारे चेति वक्तव्यम् ।
हृहपि यथा स्यात् | महाह सः ||
उस्वे च| >॥
उत्तवे च हकारम्रहणं कतेव्यम् | अतो रोरश्ुतादज्रुते [६.१.१९३] हरि च
[१९९४ | हकारे चेति वक्तव्यम् । हापि यथा स्यात् । पुरषो हसति । ब्राह्मणो 1
हसतीति || अस्तु तहि पर्वोपदेश्यः।
ूर्वोपदेदो किच्वक्सेडधिधयो द्यल्म्रहणानि च ॥ ३ ॥।
यदि पूर्वोपदेशः कित्वं विधेयम् | ज्लिित्वा केटित्वा । तिज्ञिहिषति सिक्ते-
हिषति | रलो व्युपधादलददेः [९.२.२६] इति किच्वं न प्रामोति | क्विषिः |
क्सश्च विधेयः | अधुक्षत् अलिक्षत् । शल इगुपधादनिटः क्सः [ ३.९.४९ | 1
इति क्सो न प्रपरोति || इङ्िधिः । इट् च विधेयः | सदिहि स्वपिहि | वलादिल-
षण इण्न प्रामोति* || इ्ल्प्रहणानि च । किम् | अहकाराणि स्युः | तत्र को
दोषः । इलो दलि [ ८.२.१६ ] इतीह न स्यात् । अदाग्धाम् भदाग्धम् ॥।
तस्मात्पुवैचैवोपदेष्टव्यः परथ | यादि च किचिदन्यत्राप्युपदेशे प्रयोजनेमस्ति तत्रा-
प्युपदेशः कतेष्यः || | | 20
इदं वित्रायते | अयं रेफो यकारवकाराभ्यां पूवे एवोपदि दयेत ह र य वाडिति
प्र एव्र वा यथान्यासामिति । कथात्र विशेषः |
रेफस्य परोपदेशे ऽनुनासिकद्विवं चनपरसवर्णपरतिषेधः ॥ 9. ॥
रेफस्य परोपदेशे ऽनुनासिक दवे चनपर सवणौनां प्रतिषेधो वक्तव्यः | अनुनासिक- `
स्य | स्वनेयति प्रातर्नयतीति यरो ऽनुनासिके अनुनासिको वा [८.४.४९ | इत्यनुना- २६
# ७, २. ७६,
} ५3 ॥ भ्याक्षरणमहधिष्यय् ॥ [म०९.९.३.
सिकः प्राभोति ॥ हिबेचनस्य } भद्रहूदः मद्रहद इति यर इति शिवैचनं प्रामोति" ॥
परसवणेस्य | कुण्डे रथेन | वनं रथेन | अनुस्वारस्य ययि [ ८. ४. ९८ | इति
परसवणीः प्रामोति || अस्तु तर्हिं पूर्वोपदेशः |
ूर्वोपदेरो किच्वभतिषेधो व्यलापवचनं च ॥ ९॥
5 यदि पुर्वोपदेदाः क्वं प्रतिषेध्यम् | देवित्वा दिदेविषति । रलो व्युपधात्
[९. १. २६] इतिं किरं प्रभोति । नेष दोषः । वैवं विज्ञायते रलः व्युपधादिति |
(कं सर्हि | रलः अष्व्युपधादिति | किमिद मञ्व्युपधादिति । भवकारान्ताद्युपधा-
दव्वयुपधादिति ]] व्यलोपयचनं च | व्यो लोपो वक्तव्यः | गौधेरः | पचेरन्
यजेरन् | जीवे रदानुक् जीरदानुः । षलीति रोपो।न प्राभोति | नैष दोषः | रेफो ऽप्यत्र
10 निर्दिश्यते | ऊप व्योवैलीति रेफे च वलि चेति || अथवा पुनरस्तु परोप-
देशः | ननु चोक्तं रेफस्थ परोपदेशे शनुनासिकदिवेचनपरसवणेप्रतिषेष इति |
धनुनासिकपरसवर्णयोस्तावस्रतिषेधो न वक्तव्यः | रेफोष्मणां सवणो न सन्ति |
शिवैचने अपि नेमौ रहौ कार्थिणौ द्िषैचनस्य | किं तर्दि | निभित्तमिमी रहौ
दिवैचनस्य । तद्यथा । ब्राह्मणा भोज्यन्तां माठरकौण्डिन्यौ परिवेिश्टामिति नेदानीं
15 ती भुश्ाते || । |
` : इदं विचायते | इमे ऽयोगवाहा न कविदुपदिदयन्ते भ्रूयन्ते च तेषां कायाय
उपदेशाः कतैष्यः.| के पुनरयोगवाहाः | विस्जेनीयजिहामुलीयोपध्मानी यानुस्वा-
रानुनासिक्ययमाः । कथं पुनरयोगवाहाः । यदयुक्ता वहन्त्यनुपदिष्टा्च भयन्ते ॥
क ॒पुनरेषामुपदेशः कतेव्यः |
20 अयोगवाहानामदर णत्वम् ॥ & |
भयोगवाहानामद्ुषदेशः कतैव्यः | किं प्रयोजनम् | णस्वम् । उरःकेण
उरःपेण | अद्धव्यवाय इति ग्वं क्षिं भवतिः ॥
दाष जदभावषत्वे ॥ ७ ||
दाषैपदेशः कतैष्यः | किं प्रयोजनम् | जरभावषत्वे | अयमुन्निरुपप्मा-
४ नीयोपधः पद्यते तस्य जर्वे कृत॒ उभ्निता उभ्जितुमित्येतद्रुपं यथा स्यात्ऽ ॥
कजिवतु" ९.] . ॥ व्याकरनब्रहाभाव्यय ॥ ५
दकारोपधे पुनम न्द्राः संयोगादयः [६.९.२ | इति प्रतिषेधः लिद्ध भवति | यरि
रकारोपधः पद्यते का रूपसिद्धिः उभ्जिता उभ्जितुमिति ¡ असिडे भ उद्जेः ।
इदमस्ति स्तोः शुना शुः [८.४.४० | इति | ततो वद्यामि | भ उद्जेः | उद्जेश्ुना
संनिपाते भो भवतीति | ततर्ह वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् । निपावनदेव सिदम् |
फ निपातनम् । भुजन्युब्जौ पाण्युपतापयोः [७.३.६९] हति । इशापि तर्हि 5
प्रमति | अभ्युद्गः समुद इति | अकुत्वविषये तन्निपातनम् | अथवा तैत-
दुभने रूपं गमेरेतद द्य पसग विधीयते | अभ्युद्गतो ऽभ्युहः । समुद्रतः समुद इति ॥|
पतव च प्रयोजनम् | सर्िःषु धनुःषु | दाण्येवाय इति षत्वं सिद्धं भवति |
नुभ्विसजनीयदाव्येवाये ऽपि [८.३.९८] इति विसजेनीयपहणं न क्त्यं भवति |
नुमभापि तर्हि म्रहणं शक्यमकरतुम् । कथं सर्पीषि धनूंषि | अनुस्वारे कृते शा््यै- 10
वाय इत्येव सिम् । अवरयं नमो प्रहणं कतेव्यम् | अन्स्वारविदोषणं नस्महणं
नुमो यो ऽनुस्वारस्तत्र यथा स्यादिह मा भूत् । पुंस्विति || अथवाविेोषेणोपदेश
कतेव्यः | किं प्रयोजनम् |
अविरेषेण संयोगोपधासंज्ञालोऽन्त्यद्विवंचनस्थानिवद्धावपरतिषेषाः ॥ ८ ॥
अविशेषेण संयोगसंज्ञा प्रयोजनम् | ऊरष्जक | हलो ऽनन्तराः संयोगः [१.९.७] 15
इति संयोगसंश्चा संयोगे गरु [१.४.११] इति गुरुसंज्ञा गुरोरिति शरुतो भवतिः ॥|
उप्रथासंज्ञा च प्रयोजनम् 1† | दुष्कृतम् निष्कृतम् | निष्पीतम् दृष्पीतम् | इदुदुपधस्य
चाप्रत्ययस्य [८.३.४१ | इति षतं सिद्धं भवति । नैतदस्ति प्रयोजनम् । नेदुदुपधमह-
णेन विसजेनीयो विहोष्यते | किं तहि | सक्रारो विशेष्यते | इदुदुपधस्य सका-
रस्य यो विसज॑नीय इति । भथवोपधाग्रहणं न करिष्यत इदुद्धां तु परं विसजेनीयं 80
विहेषायिष्यामः। इदुश्यामु तरस्य विसजेनीयस्येति || अले ञन्त्यविधिः प्रयोजनम् +|
वृक्षस्तरति | अक्षस्तरति | अलोऽन्त्यस्य त्रिषयो भ्रन्तीत्यलोऽन्त्यस्य सव्वं क्षिं भ-
वति$ | एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | निर्दिरयमानस्यादेहा भवन्पीति विसजमीयस्यैव
विष्यति |] द्ववन प्रयोजनम् | उरःकः उरःपः | अनवि च [८.४.४७
अच उन्तरस्य यरो हे भवतं इति दिवेचनं किध भवति || स्थानिवङ्धावप्रतिषेधथ 2;
भरयोजनम् । ययेह भवस्युरःकेण उरःपेणेत्यड्व्यवाय॥ इति णत्वमेवभिशापि स्थानि-
वद्धावादाभोति व्यूढोरस्केन महोरस्केनेति । तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधः¶ सिद्धो
भवति ॥ , ., |
कियाय
> ८२, ८९. 1 ९.१.५५ {९.१.५९ ऽ ८३.३४. | ८४९. बृ ९.९.५६
३० ॥ ्राकरणमहाभष्यम् ॥ [मण ९.९.२..
किं पुनरिमे वणौ अर्थवन्त आहोस्विदनथकाः ।
अर्थवन्तो वणौ धातुप्रातिपदिकमत्ययनिपातानामेकवणौनामथेदरौनात्।।९॥
धातव एकवणौ अथेवन्तो इृदयन्ते | एति अभ्येति अधीत इति | प्रातिपदिका-
न्येक वणौन्य्थैवन्ति | भ्याम् एमिः एषु । प्रत्यया एकवण अथेवन्तः | ओीप-
5 गवः कापटवः | निपाता एकवणो अथेवन्तः | अ अपेहि | इ इन्द्र परय | उ उत्ति |
धातुपरातिपदिकप्रस्ययनिपातानामेकवणोनामथं द दनान्मन्यामहे ऽथेवन्तो व्ण इति ||
वर्णव्यस्यये चार्थान्तरगमनात् ॥ ९० ॥
वणेत्यत्यये चाथौन्तरगमनान्मन्यामंहे ऽथेवन्तो वणौ इति | कुपः सुपः युप
इति । कुप इति सककारेण कथिदर्थो गम्यते । सुपर इति ककारापाये सकारोप-
10 जने चाश्रौन्तरं गम्यते | युप इति ककारसकारापाये यकारोपजने चार्थान्तरं ग-
म्यते | ते मन्यामहे यः कूपे कूपाथः स ककारस्य यः सुपे सूपार्थः स सका-
रस्य यो युपे युषाथेः स यकारस्येति ॥
वगीनुपकुन्धो चानर्थगतेः ।। ९९ ॥
वणनुपकभ्यौ चानथैगते्मैन्यामंहे ऽथैवन्तो वणौ इति | वृक्षः ङ्क्तः | काण्डीरः
75 आण्डीरः | वृक्ष इति सवकारेण कथिदर्थो गम्यत कक्ष इति वकारापाये सो ऽथो
न गम्यते | काण्डीर इति सककारेण कथिदर्थो गम्यत आणण्डीर इति ककारापाये
सो ऽर्थो न गस्यते | किं तद्यु्यते ऽनर्थगतेरिति | न साधीयो ह्यत्रा्थैस्य गतिर्मवति |
एवं तर्हीदं पठितव्यं स्यात् | वणोनुपलन्थौ चातदथगतेरेति | किमिदमतदर्थेगतेरिति |
तस्याथस्तदर्थः | तदथस्य गतिस्तद्थगतिः | न तदथगतिरतदथगतिः | अतद्थग-
20 तेरिति | अथवा सो ऽ्थ॑स्तदथः | तदर्थस्य गतिस्तद्थगत्तिः | न तदर्थगतिरतद थगतिः|
अतदथेगतेरिति | स रताई तथा निर्देशः कतेव्यः | न कर्तव्यः | उत्तरपदलोपो जत्र
द्रष्टव्यः | तद्यथा । उष्टूमुखमिव मुखमस्य | उष्टूमुखः | खर मुखमिव मुखमस्य | खर-
मुखः | एवमतदर्थगतेरनर्थगतेरिति ॥
संघाताथवच्वा् | १२ ||
25 संघाताथेवस््राच्च मन्यामहे ऽथेवन्तो षणा इति | येषां संघाता अथैवन्तो ऽवयवा
अपि तेषाम्थेषन्तः । येषां पुनरवयवा अनथकाः समुदाया अपि तेषामनथकाः ]
शिवभू" ९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ | ३९
तद्यथा | एकथभ्षुष्मान्द शने समथस्तर्छमुदायश्च शतमपि समयम् । एकच तिल-
सतैलदाने समर्थस्तत्समुदायश्च खार्य॑पि समथो | येषां पुनरवयवा अनथकाः समु-
राया अपि तेषामनथकाः | तद्यथा । एको ऽन्धो दरीने ऽसम्थस्ततसमुदायश्च शातम-
प्वसमथेम् | एका च सिकता तैलदाने ऽसमथौ तत्समुदायश्च खारीशयतमप्यसम्थम्।।
यदि तर्हीमि वणौ अथेवन्तो ऽथेवत्कृतानि प्रामुवन्ति | कानि | अथेवत्पातिपदिकम् 5
| १, २. ४९ | इति प्रातिपदिकसंज्ञा प्रातिपदिकात् | ४. ९. ९. | इति स्वादयुत्पात्ः
छबन्तं पदम् [९. ४. ९४] इति पदसंज्ञा | तत्र को दोषः | पदस्येति नलोपादीनि
रापुवन्ति* | धनम् वनमिति |
संधातस्थेका्यात्सुबभावो वर्णात् ॥ ९३ ॥
संयतस्थैकत्वमर्थस्तेन व्णातडबुत्पत्तिनै भविष्यति || 10
अनर्थकास्तु प्रतिवणेमयनुपलग्येः ॥ ९४ ॥
अनर्थकास्तु वणोः | कुतः | प्रतिवणंमथौनुपकभ्येः | न हि प्रतिवणैमथौ उप-
लभ्यन्ते | किमिदं प्रतिवणेमिति | बणे वणे प्रति प्रतिवणेम् ॥
वणव्यत्ययापायोपजनविकरिष्व्थददांनात् ॥ ९९ ॥
वर्णव्यत्ययापायोपजनविकारेष्वर्थद दौनान्मन्यामहे ऽन्थ॑का वणौ इति | वणैव्य- 1
त्यये | कृतेस्तकुः | कसेः तिकताः । हिंसेः सिंहः । वणेव्यत्ययो नाथेव्यत्ययः ||
अपायो लोपः | घ्रन्ति घ्नन्तु अघ्नन् | वणोपायो नाथोपायः || उपजन . आगमः |
विता रवितुम् | वर्णोपजने नार्थोपननः || विकार आदेः | घातयति धातकः |
वणोविकारो नायेविकारः || यथैव हि वर्णेब्यस्ययापायोपजनविकारा भवन्ति तदद-
यव्यत्ययांपायोपजनविक रभवितव्यम् | न चेह तदत् | भतो मन्यामहे नथैका 20
बौ इति || उभयमिदं वर्णेषक्तम् | अर्थवन्तो ऽनर्थेका हति च | किमत्र न्याय्यम् |
उभयमित्याह. | कुतः | स्वभावतः । तद्यथा ¡ समनमीहमानानामधीयानानां च
केविदथयुज्यन्ते ऽपरे न । न चेदानीं कथिदथैवानिति कृता सर्वैर्थवदिः शक्यं `
भवितुं कशिद्वानथेक हति कृत्वा सर्वैरनथकैः । तत्र किमस्माभिः शक्यं कतुम् ।
यद्धातुप्रस्ययप्रातिपदिकनिपाता एकवणो भथेवन्तो ऽतो ऽन्ये नथेका इति स्वाभाविक- 25
मेतत् ॥ कथं य एष भवता वणीनाम्थवत्तायां हेतुरुपदिष्टो अ्थैवन्तो वर्णा
# ८. २, ७,
६२ ॥ ग्याकरणहाभाष्य व् ॥ ` [म०९.१.२्.
` धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानामेकबणोना मथेदहोनाङणेव्यस्यये चाधौन्तरगमनादणौ-
नपलमभ्शै चानथगतेः सं घातयेवस्षाचेति । संघातान्तरण्येतैतान्येवं जातीयकान्य्थौ-
न्तरेषु शतेन्ते | कुपः सुपः यूप इति | यदि हि वणेव्यत्ययकृतमथौ न्तर गमनं
स्याद्ूयिष्ठः कुपथः खपे स्यात्व पाये कूपे कुपथ युपे युपाथैध कूपे उपाथथ
£ युपे यूपाथ खपे । यतस्तु खलु न कथित्कूपस्य वा द्पे खपस्य. बा कूपे कूपस्य
वा युपे युषस्य वा कुषे पस्य वा युपे यपस्य वा सूपे ऽतो मन्यामहे संघातारेत-
साण्येवैतान्येव॑जातीयकान्यथौन्तेरेषु वतेन्त इति । हदं खल्वपि भवता वणौना-
मथेवत्तां ब्ुवता साधीयो ऽनथेकत्वं द्योतितम् | यो हि मन्यते यः कूपे कूपाथः स
ककारस्य यः सपे खपायेः स सकारस्य यो युपे यूपाथः स यकारस्येत्युपदाम्द-
0 स्तस्यानथैकः स्यात् || तत्रेदमपरिहतं संघाताथेवस््वा्ेति | एतस्यापि प्रातिपदि-
कसंज्ञायां परिहारं वश्यति* ||
अइउण् ऋ लक् ए ओडः रे ओौव् |
प्रत्याहारे ऽनुबन्धानां कथमनञ्पहणेष न ।
य एते ऽक्ु प्रत्याहाराथौ अनुबन्धाः क्रियन्ते एतेषामज्यहणेषु चहणं कस्माच
.15 मवति | किं च स्यात् | दि णकारीयति मधु णकारीयतीतीको यणचि [६.१.७५]
इति यणादेशः प्रसज्येत ||
आचारात्
किभिदमाचारादिति । आचायोणामुपचारात् | ततेष्वाचायौ अष्कायौणि
कृतवन्तः ॥ ,
20 अप्रधानत्वात्
अप्रधानस्वाञ्च | न खल्वष्येतेषा मक्षु प्राधान्येनो पदेशः क्रियते | क तार्हि | हल्य ।
कुत एतत् एषा ्याचार्थस्व शैली लक्ष्यते यततुल्यजातीयांस्तुल्यजातीयेषुपदि शाति |
अचो सु हलो इल्वु ॥ |
| लोपश्च बलवत्तरः ॥
25 लोपः खल्वपि तावद्वति ॥ |
रकारोऽलिति वा योगस्तत्काखानां यथा भवेत् ।
अचां प्रहणमच्कायै तेनेषां न भविष्यति ॥
अथवा योगविभागः करिष्यते† । ऊकालो ऽच् } उ ङ ऊ३ इत्येवंकालोऽज्भ-
क ९.२. ४९. † ९.२. २७.
कषिबसु° ५९. ] ॥ ष्वाकरनयपहाभाष्थय् ।। डे
बति | ततो हृस्वदीरषंभुतः । दस्वदीरषशुतसं्ञ थ भवस्यूकालो ऽच् | एवमपि कुक्कुट
इस्यश्रापि परामोति । वस्मौ्युर्वोक्त एंव परिकरः ॥| एष॒ एवायेः |. अपर आह. |
स्वादीनां वंचनास्माग्यावन्तावदेव योगो सस्तु |
भष्कायौणि यथा स्थुस्तंत्काकेष्वक्षु कायोगि |
अय किम्थमंन्तःस्थानामण्लपदेशः क्रियते | इह सथ्यन्ता सध्वित्सरः योकम् $
तक्षोकमिति परसवणस्यासिरस्वादनुस्वारस्मैव शिवैलमम्* | तत्र परस्य परल-
वर्णे कृते तस्व बय्यद्णेन बहणास्पूर्वैस्जाषि परसवर्णो वथाः स्वात् । वैतदस्ति रयो -
जनम् | वश््यत्वेतत् | हिवचने परसवर्णत्वं सिदे वक्तव्यमिति† | यावता न्ि-
दत्वंमुष्थते परसवण एव तीधद्धवति | परसवर्णे तर्हि कते तस्य यमेहणेने ` महं-
णाहिर्वै चनं यथा स्वात् | भा भृहिवैचनम् । ननु च भेदो भवति | सति हवै चने 10
त्रियकारमसति हिवैचने दियंकारम् | नास्ति मेदः । सत्यपि द्विवैचने हदियकार-
मेव | कथम् | हलो यमां यमि लोपः [८.४.६४] इस्येवभेकस्य लोपेन भंवित-
व्यम् | एवमपि मेदं! | सतिं दिवैने कदाचिहियंकारं कदाचिल्ियकारम् | अ
सति हियकारमेव | सं एषं कथं मेरो नं स्यात् | यदि नित्यो लोषः स्यात् । विभाषा
` च स लोपः | यंथाभेदस्तथास्तु | 1४
अनुकतैते विभीषौ शरौ ऽचिं यद्वौरयेत्यैय हितम ।
यदयं शरो ऽचि [८.४.४९] इति हिवैचनपरतिषेधं शास्ति तज्ज्ञपयेस्वाचार्यो
ऽनुवतेते विभाषेति | कथं कृत्वा शपकम् |
नित्ये हि तस्यं लोपे प्रतिषेधार्थो न कथित्स्यात् ॥
यदि नित्यो लीपः स्यास्मतिषेधव चनमन येकं स्यात्| भस्स्वत्र द्विवचनम् | स्रो 20
श्रि सवर्गे [८.४.६९] इति लोपो भविष्यति | परयति त्वाचायौ चिमाषा स लोप इति
ततो द्िमैचनप्रतिषेधं दस्ति | तरैतदत्ति क्ापकम् | नित्ये ऽपि तस्य लोपे स प्रतिषेधो
वद्यं वक्तव्यं : | यदेतदचो रहाभ्याम् [८.४.४६] इति दिर्वचनं लोपापवादः स
विज्ञायते | कथम् | यर हइत्युश्यत एतावन्तथ यशो यदुत छषरो वा यमो वां | यदि
चार नित्यो लोपः स्याह्िर्वचनमनर्थकं स्यात् | किं तहि तयेोर्योगयोरदाहरणम् । 25
यदकृते हडिवे चने त्रिंष्यञ्नः संयोगः | प्रत्तम् भत्रस्तम् आदित्य्यः | इहेदानीं कन्त
हतेति दिवे नसोमथ्यौहयोपो न भ॑वति | एवमिह।पि लेपो न स्यास्कर्षति वर्पतीति |
+ ८, ४, ५९; ४५१, {+ ८. २. ६.५
99
` ३४ ॥ व्याकरणमहभिाष्यव् ॥ = ` [म०१,१.२.
तस्माक्निस्ये ऽपि कोषे वद्यं स प्रतिषेधो" वक्तव्यः || तरेतदत्यन्तं संदिग्धं वतेत
शाच्रार्यणां विभाषानुवतेते न वेति || |
रण् ॥ & ॥
अयं णकारो ्िरनुबभ्यते पुवै्च परथ | तत्राण्महणेष्विण््रहणेषु च संदेहो भवति
&पूरवैण वा स्युः परेण वेति | कतर स्मिस्तावदण्महणे संदेहः | दलोपे पूवस्य दीर्घो ऽणः
[६.३.९१९] हति | असंदिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत् | पराभावात् | न हि इलोपे
परे ऽणः सन्ति | ननु चायमस्ति | आतृढम् आवृढमिति | एवं तई सामध्यास्पूरवैण
न परेण | यदि हि परेण स्यादण्ब्रह्णमनर्थकं स्यात् | दोपे पूवस्य दीर्घो ऽच इस्येव
ब्रूयात् | अथैतदपि न ब्रूयात् । अचो हयेतदवति हूस्वो दीर्धः श्रुत इति | भर्सिमस्तदय-
10 ण््हणे संदेहः के ऽणः [७.४.१९ र | इति | असंदिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत् ।
पराभावात् | न हि के परे ऽणः सन्ति| ननु चायमस्ति । गोका नौकेति | एवं तर्द
सामध्योौत्पूर्धण न परेण | यदि हि परेण स्यादण्महणमनयेकं स्यात् | के ऽच
इत्येव चरुयात् | अथवेतदपि न ब्रुयात् | अचो शचेतद्धवति हृस्वो दीधेः शुत इति ॥
भरिंमस्तशचण््रहणे संदेहः । भणो रगृद्यस्यानुनासिकः [८.४.९७] इति । भसं
15 दिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत् | पराभावात् । न हि प्शान्ताः परर ऽणः सन्ति |
ननु चायमस्ति । कतृ हत इति । एवं तर्हिं सामध्योपपर्वेण न परेण | .यदि हि
परेण स्यादण््रहणमनथकं स्यात् | भचो ऽमगृ्यस्यानुनासिक इत्येव ब्रुयात् ।
अथैतदपि न त्रूयात् । अच एव्र हि प्रगृद्या भवन्ति || अस्मस्तदयण्रहणे संदेहः ।
उरण्रपरः [ १.९.५९१ | इति | भसंदिग्धं पूर्वेण न परेण । कुत एतत् । परा-
20 भावान् | न द्युः स्थाने परे ऽणः सन्ति | ननु चायमस्ति | कत्रंयम् हन्रेथेमिति |
रि च स्यात् | यद्यत्र रपरत्वं स्याद्यो रेफयोः अरवणं प्रसज्येत । हलो यमां
यमि लोपः [८.४.६४ | हत्येवमेकस्यात्र लोपो भवति | विभाषा स लोपः |
विभाषा श्रवणं प्रसज्येत | अयं ताहे नित्यो लोपो रो रि [८.३.१४] इति । पदा-
न्तस्येत्येवं सः | न शाक्यः स पदान्तस्य विज्ञातुम् | इह हि लोपो न स्यात् ।
25 जगूधेलंङः अजघोः । पास्पर्भरपास्पा इति ॥ हह तर्हि मातृणाम् पितृणामिति रपरत्वं
भसज्येत । आचायमवृत्तिज्ञौपयति नान्न रपरत्वं भवतीति यदयमृत इद्धातोः
[७.९.१० ० | इति धातुम्रहणं करोति । कथं कृत्वा ज्ञापकम् | धातुमहणस्यैत-
स्मये ननम् । इह मा भूत् | मातृणाम् पितृणामिति | यदि चात्र रपरत्वं स्याडा-
क्षिवसमु° ६.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ३५
तुमरहणमनयेकं स्यात् | रपरत्वे कृते ऽनन्त्यखादिन्वं न भविष्यति | परयति त्वा-
चार्यो नात्र रपरसं भवतीति ततो भातुमहणं करोति । इहापि तर्द स्वं न प्रामोति |
विकीषेति जिहीषेतीति । मा भूदेवम् ¡ उपधायाश्च [७.९.९०९] हत्येवं भवि-
स्यति । इहापि तर्हि प्रामोति | मातृणाम् पितृणामिति । तस्मात्तत्र धातुबरहणं कतै-
ष्यम् | एवं तद्येण्महणसामध्योपपूर्वेण न परेण । यदि परेण स्यादण्मदणमनथर्वा 5
स्यात् | उर ञ्चपर इत्येव ब्रूयात् ॥ अर्हिमस्तद्ण्यहणे संदेहः । अणुरिस्सव्भस्य
चप्रत्ययः [९.९.६९ | इति | असंदिग्धं परेण न पूर्वेण | कुत एतत् |
सवर्गेऽण् तपर युत् ।
यदयमुक्रत् [७.४.७]| इत्यृकरारं तपरं करोति तञ्ज्ञापयत्याचायेः परेण न
पूर्वेणेति || हइण्महणेषु तर्हि संदेहः | असंदिग्धं परेण च पूर्वेणेति । कुत एतत् | ` 10
य्योरन्यत्रं परेणेण् स्यात् ।
यत्रेच्छति पूर्वेण संमृ प्रहणं तत्र करोति य्वोरिति | तच गुरु भवति | कथं
कृत्वा ज्ञापकम् | तत्र विभक्तिनिर्देशो संमृश्य महणे ऽप वतसरो मात्राः | प्रस्वाहार-
प्रहणे पुनस्तिसरो माज्राः । सो अयमेवं लषीयसा न्यासेन सिद्धे सति यदहरीयांसं
यल्नमारभते तजज्ञापयत्याचायेः परेण न पूर्वेणेति || किं पुनर्वर्णोत्सत्ताविष णकारो 1;
दिरनुबध्यते | एतज्ज्ञापयत्या चार्यो भवत्येषा परिभाषा व्याख्यानतो विशेषप्रतिष-
तिने हि संदेद।(दलक्षणमिति । अणुदित्सवणे परिहाय पूर्वेणण््रहणं परेणेण्महण-
मिति व्याख्यास्यामः||
जमङ्णनम्॥`अ। स्न भञ्॥ ८॥
किमर्थमिमौ मुखनासिकावचनौ वणौवुभावप्यनुबध्येते न अकार एवानुबभ्येत | 20
कथं यानि मकारेण महणानि इलो यमां यमि लोपः [८.४.६४] इति । सन्तु
अक्रारेण हले यञां यञि लोप हति | नेवं दाक्यम् | अकारभकारपर-
योरपि हि कारभकारयोर्जोपः प्रसज्येत | न इ्कारभकारौ सकारभकारयोः
स्तः ॥ कथं पुमः खय्यम्परे [८.२३.६| इति । एतदसप्यस्तु अकारेण पुमः
लय्यञ्पर इति | शरेवं दशाक्यम् । ्कारभकारपरे हि खयि रः प्रसज्येत | 28
न ज्यकारभकारपरः खयस्ति || कथं ऊमो हूस्वादचि उमुण्नित्यम् [ ८.३.२२]
इति । एतदप्यस्तु मकारेण उओ हृस्वादचि ङसुण्नित्यमिति । च्रेवं शक्यम् |
1 ॥ व्थाकरगकहाभाष्यय ॥ [मि०१.९.२.
द्कारभकारयोरपि टि पदान्तयेोद्धैकारभकारावागनौ स्याताम् | न ब्लकारभकारौ
पदान्तौ स्तः | एवमपि पञ्चाममाल्रय भागमिनेो वैषम्यास्सं ख्यातानदेश्चो* न भ्रामोति ।
सन्तु तावद्येषामागमानामागमिनः सन्ति | ब्वकारभकारौ पदान्तौ त स्तइति
कंत्वागमावपि न भविष्यतः ॥
५ भथ किंमिदमक्षरमिति |
अक्षरं न क्षरं विद्यात्
न क्षीयते न क्षरतीति वा्षरम् ॥
अश्नोमेवौ सरो ऽक्षरय् |
भश्नोतेवो पुनरयमौणादिकः सरन्प्रत्वयः | अश्रुत इस्मक्षरम् ॥
10 ` वर्णं वाहः पूरवैसृत्र
अथवा पूतरेसूत्रे वणेस्याक्षरमिति संज्ञा क्रियते |
| ` किमथमृपदिङयते ॥
कथ क्िमर्थमपरिरयते ॥
, कंणेज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वतैते ।
15 वदर्थपिष्टवद्यथै रुच्वर्थं चोपदिश्यते ॥
सो ऽयमक्षरसमास्नायो वाक्समाक्तायः पभ्पितः कङितथन्द्रतारकवतपतिमण्डितो
वेदितव्यो ब्रह्मराशिः | सवेवेदपुण्यफलावाप्निशास्य ज्ञाने भवति । मातापितरौ चास्व
स्वग लोके महीयेते || |
इति ज्रीभगवत्पतच््रकिविरकचिति व्याकसर्णमकामाष्वे प्रथमस्वाध्यायस्य प्र
० थमे पादे हितीयमाङ्किकम् ॥
# १. द, ९०,
पा०९.९.९..| ॥ .व्याकरणमहभिष्यय ॥ ३.ॐ
वृहि रादैच् ॥ ५।९। ९. ॥
कुस्वं कस्मान्न भवति चोः कुः. पदस्य. | ८.९.३० ] इति । भस्वात् । कथं
भता । अयस्मयादीनि च्छन्दसि |९.४. २० | इति | न्दसीत्युच्यते न चेदं छन्दः |
इन्दो वस्सूत्राणि भवन्ति | यदि भसंज्ञा वृद्धिरादै जदेङ्कण इति जष्त्वमपि* न प्रा
प्ोति । उभयसंज्ञान्यपि च्छन्दांसि ढूदयन्ते | तद्यथा | सद्धष्टभा स कक्रता गणेन | 5
पदत्वास्कस्वं भत्वाज्जभ्त्वं न भवति | एवमिक्टपि पदत्वाज्नर्त्वं भत्वात्कृत्वं न
भविष्यति ॥
किं पुनरिदं वद्ाधितस्णं वृडिरिस्येषं य आकरिकारौकारा भाव्यन्ते तेषां
प्ररणमादोसिददिञ्मात्रस्य । किं चातः | यदि तद्भाविवग्रहणं शालीयः मालीय इति
वुदधलक्षणम्ॐो न प्रामोति। । आन्नमयम् शालमयम् वृद्धलक्षणो मयण्न प्रामोति{ । 10
भाखगुपरायनिः श्ालगुप्रायनिः वृद्धलक्षणः किञ्च प्रामोति$ || भथारैञ्मात्रस्य हणं
सवो भाषः सर्वभाव इत्यु तर पदवुद्धौ सवे च [६.२.१०९] इत्येष विधिः प्रामोति ।
इह च तावती. भार्यास्य सावद्धार्यः यावङ्वा्यैः वृद्धिनिमिश्तस्य | ६.३.३९ |
इति पुंवद्धावप्रतिषेभः भरामोति ॥ भस्तु तद्योरेज्मात्रस्य ्रहणम् । ननु चोक्तं सर्वो
भासः सर्वभास इत्युलरपदवृदौ स्थे चेत्येष विधिः परामोतीति | त्ष दोषः | 15
मैवं विश्ायत उस्र पदस्य वृद्धिरुत्तर पदवृद्धिरलरपदवुदधाविति । कथं तर्हि |
उत्तरपदस्य [७.३.१०] हइस्येवं प्रकृत्य या वृदिस्तदत्यु तरपद इस्येवमेवहि-
यते | अवदयं तैतदेवे विज्ञेयम् । वद्धावितपहणे सस्यपीह प्रसज्येत स्वैः
कारकः सवैकारक इति । यदयप्युख्यत इह तावती भायोस्य तवद्धार्यैः यावदा
इति च वृद्धिनिमिसस्येति पुवद्धावप्रतिषेधः प्रामोतीति तरैष दोषः | तैवं विश्ञायते 20
वुधनिमित्तं वृदिनिमिततं युडधिनिमिन्तस्येति । कथं तर्हि | वृडधर्मिमिन्तं यस्मिन्सो अयं
बृद्धिनिभित्तो वृदिनिभिन्तस्येति । किं च वुदोनिमिन्तम् | यो ऽसौ ककारो गकारो
जकारो वा | भयव। यः कस्काया वृद्धर्मिमित्तम् । कथ कृत्जाया वृद्भिमिनल्म् |
वखयाणामाकरिकारौकाराणाम् ||
संज्ञाधिकारः संज्ञासंत्ययाथेः ॥ ९ ॥ 28
अथ सहेति प्रकृत्य वृद्धादयः शब्दाः पठितव्याः | किं प्रयोजनम् । संज्ञासं-
स्वकार्यैः | बुद्धादीनां शब्दानां संजञत्येष संप्रत्ययो यथा स्यात् ||
00 वा का 1 पी णीणििभििीरणाणणीीीषषणणगणणणथणिणीषीषणपषिणौ
+ ८. १, ३९, 4 ४.२.९१४. ‡ ४.३.९४४. ` § ४. ९. ९५९७,
३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य | ` [म०१.९.३.
इतरथा ह्यसंप्रव्ययो यथा लोके ।। २॥
, क्रियमाणे हि संज्ञाधिकारे वृद्धादीनां सं्ञत्येष संप्रत्ययो न स्यात् | हदमिदानीं
बहसत्रमनथकं स्यात् | अनथेकमित्याह | कथम् । यथा लोके | कोके ह्यथेषन्ति चान-
कानि च वाक्यानि बृदयन्ते | अथेवन्ति तावत् | देवदत्त गामभ्याज भुङ्कां दण्डेन
५ देवदत्त गामभ्याज कृष्णाभिति । अनथेकानि | दद्य दाडिमानि षडपूपाः कृण्ड-
मजाजिने पललपिण्डः अधरोरुकमेततकु मायाः स्फैयक्ृतस्य पिता प्रतिशीन इति ॥
संज्ञासंस्यसंदेहश्य ॥ ३ ॥
क्रियमाणे ऽपि संज्ञाधिकारे संज्ञासंश्षिनोर संदेहो वक्तव्यः । कुतो धेतहदिरशब्दः
संशञदिचः संक्ञिन इति न पुनरदिवः संशा वुदिशब्दः संशीति || यज्ताथदुख्यते
1० संज्ञाभिकारः करतेव्यः संज्ञासंप्रस्ययाथे इति न करेव्यः |
आचायोचारास्षंज्ञासिदिः |
भावायो चारास्संज्सिदिभेविभ्यति । किमिदमाचायौचारादिति । आचायांणामु-
पारात् |
यथा लोकिकवैदिकेषु ॥ ४ ॥
18 . त्था लौकिकेषु वैदिकेषु च कृतान्तेषु | जाके तावन्मातापितरौ पुत्रस्य जातस्य
संवृते ऽवकादो नाम कुवते देवदन्तो यश्षदत्त इति | तयोरूपचारादन्थे अपि जानन्ती-
यमस्य संज्ञेति | वेदे मर्ञिकाः संज्ञां कुवेन्ति स्प्यो यूपथषाल इति | तच्रभवता-
मुपचारादन्ये ऽपि जानन्तीयमस्य संञ्ेति | एवमिहापि । इहैव तावत्केचिव्याचक्षाणा
आहः । वृद्धिशब्दः संश्ञादे चः संज्ञिन इति । अपरे पुनः सिचि वृद्धिः [७.२.९]
20 हइस्यु क कारेकारौकारानुदाहरन्ति । ते मन्यामहे यया प्रत्याय्यन्ते सा संज्ञा ये प्रती-
यन्ते ते संज्ञिन इति ॥ यदप्युच्यते क्रियमाणे अपि संज्ञाधिकारे संश्ासंिनोरसंदेहो
अक्तष्य इति
संज्ञासंत्यसंदेह श्च । ५ ॥
संङ्गासं्चिनोथासंदेहः सिद्धः | कृतः । आवचार्याचारादेव । उक शावा्यावारः ||
४४ अनाङूतिः ॥ & ॥
अथवानाकृविः संज्ञा | आकरतिभन्तः संज्ञिनः | लोके अपि शाङृतिमतो मांसपि-
ण्डस्य देवद्त इति संज्ञा क्रियते |
१०१.१.९. ] ॥ व्याकरगमहाभाष्यम ॥ ` ३९
लिङ्गेन वा ॥ ७॥
अथवा किंचिधिङ्गमासनज्य वबश््यामीस्य॑लिङ्ग। संज्ञेति | वृदिराब्दे च षिद्ध
करिष्यते नारैच्छभ्दे || इदं तावदयुक्तं यदुच्यत भ चायौचारादिति | किमत्रायुक्तम् ।
तमेवोपारभ्यागमकं ते सूत्रमिति तस्यैव पुनः प्रमाणीकरणमिस्येतदयुक्तम् | अप-
रितुष्यन्खल्वपि भवाननेन परिहारेणानाकृतिर्िङ्घेन वेत्याह | तच्चापि वक्तव्यम् । 5
वद्प्येतदुच्यते ऽथतैतरहीत्संज्ञा न वक्तव्या लोपथच न वक्तव्यः* | सं्ञालिङ्गमनुब-
ज्ेषु करिष्यते | न च संज्ञाया निवृत्तिरुच्यते | स्वभावतः संज्ञाः संज्ञिनः प्रत्याय्य
निवतेन्ते । तेनानुबन्धानामपि निवृत्तिभेविष्यति | सिध्यत्येवमपाणिनीयं तु भवति ॥
यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं संज्ञाधिकारः संज्ञासंप्रत्ययथे इतरथा द्यसंप्रत्ययो
यथा लोक हति | न यथा लोर तथा व्याकरणे | प्रमाणभूत आचार्यो दभेपवित्र- 10
पाणिः शुचाववकाशे प्राङ्ख उपविदय महता यलेन सत्रं प्रणयति स्म सत्राशक्यं
वर्भेनाप्यनथेकेन भवितुं किं पुनरियता त्रेण | किमतो यदशक्यम् । अतः संज्ञा-
संज्ञिनावेव ||
कुतो नु खल्वेतरसंज्ञासंक्ञिनवेवेति न पुनः साध्वनुशासने ऽस्मिञ्शाजे साधुत्व-
मनेन क्रियते | कृतमनयोः साधुत्वम् | कथम् | वृधिरस्मा अविशेषेणो परिष्टः प्रकृति- 15
पाठे तस्मात् क्तिन्प्रत्ययः | आदैचो ऽप्यक्षरसम।घ्राय उपदिष्टाः ॥ प्रयोगनियमाथे
तर्हीदं स्यात् । वृदधिशब्दात्पर आद चः प्रयोक्तव्या इति | नेह प्रयोगनियम आर-
भ्यते । किं तर्हि | संस्कृत्य संस्कृत्य पदान्युस्सृज्यन्ते तेषां यथेष्टमभिसंबन्धो भवति |
तद्यथा | आहर पात्रम् पात्रमाहरेति || अदेश्चास्तर्षमे स्युः । वृाडराब्दस्यादि वः |
षष्ठीनिररिष्टस्यदेशा उच्यन्ते न नात्र बष्ठीं परयामः || आगमास्तर्शीमे स्युः । वृदि- 20
शाभ्दस्यादैच आगमाः । आगमा अपि षशीनिर्दिटस्यैवोच्यन्ते लिङ्धेन च न चात्र
ष्ठा न खल्वप्यागमलिङ्खं पदयामः | इदं खल्वपि भूयः सामानाधिकरण्यमेक-
` विभक्तेस्वं च इयोभैतद्धवति | कयोः । विशेषणविदोष्ययोवौ सज्ञासंश्गिनोवा |
तत्रैतस्स्यादिशेषणविशेष्ये इति । तश्च न | हयी प्रतीतपदाथेकयो्लोके विशेषण-
विशेष्यभावो भवति न चादेच्छब्दः प्रतीतपदार्थकः | तस्मात्संश्ासक्ञिनावेष || ४४
तत्र स्वेतावान्सदेहः कः संकी का संज्ञेति | स चापि क संदेहः | यज्रोमे समाना-
, क्रे | यत्र त्वन्यतर्घु यछठषु सा संज्ञा । कुत एतत् | लष्वथे हि संज्ञाकरणम् |
तत्राप्ययं नावरयं गुशूलघुतामेवोपरक्षयितुमति । कि तर्दि । अनाकृतितामपि । `
# १, ३. २-९.
कि , -॥ व्वाकर्णबह्यभाष्यम् || _ [मम १.९.३.
भनाकृतिः सेज्ञ | आओङतिमन्तः संज्तिनः. [- लेके खक तिमता भां सपिण्डस्य देवदन्त
.हति संज्ञा क्रियते | मथवावर्मिन्यः संज्ञा भवन्ति । वृदधिराष्दभ्रावतेते नदिष्डब्दः |
तथथा । इतरत्रापि देवदत्तंशब्दं आवतेते नं मासविण्डः || अथवा पूर्व्चारितः
संज्ञी परोच्चारिता संता | कुत एतत् | संतो हि कार्यिणः कार्येण भवितव्यम् |
5 तद्यथा | इतरत्रापि सतो मांसपिण्डस्य देवदत्तं हति संका क्रियते | कथं वृद्धि-
रादेजिति । रएतदेकमचायेस्य म॑ङ्गलाथै मृष्यताम् । माङ्गलिक भाचार्यो म॑हतं
शाखीषस्य मङ्गलायै वृदिशम्दमादितः प्रयुङ्के मङ्गलादीनि हि शाखाणि
प्रथन्ते बीरपुद्षकाणि च भवन्त्यायुष्मंस्पुरुषकोणि चाध्येतारश्च वृद्धियुक्ता यथा
स्युरिति | सवैत्रैव हि व्याकरणे पूर्वोचारितः सशी परोच्चारिता संज्ञा | अदेङ्गुणः
१०[९.९.२] इति यथा || रोषवान्खत्वपि संज्ञोधिकोरः | अष्टमे अपि हि संज्ञा
क्रियते तस्य परमाभेदितम् [८.१. २] हति । ततरापीदमनुवस्यै स्यात् ||. अथवा-
स्याने ऽयं यलः क्रियते न शीदं लोकाद्धिष्यते | यदीदं लोकाद्धियेत सतो यलारै
स्यात् | तयथा | अगोज्ञाय कथिद्वा सक्थनि कर्वे वा गृहीत्वोपदिशस्ययं गैरिति।
न चास्मा आचष्ट इयमस्य संज्ञेति मधति चास्य संप्रत्ययः | तन्ैतस्स्यार्कृतः पूर्वैरभि-
15 सेवन्ध इति । इहापि कृतः पुरवैरमिसंबन्धः । कैः | आ(नार्थैः । तत्रैतत्स्यात् । यस्मै
तर्हि संप्रसयुपदिहाति तस्थाकृत इति | लोकेऽपि हि यस्म सं्रस्युपदिद्ति वस्याङ्गतः |
अथं तत्र कृत इहापि कृतो द्रष्टव्यः ||
सतो वृद्धयादिषु संज्ञाभावात्तदाभ्रय इतरेतराश्रयत्वादम्रसिदिः ॥ ८ ॥
सतः संज्िनः संज्ञाभावात्तदान्रये संज्ञाभरवे संक्जिनि ब्र खादिष्वितरेतरान्नयस्वा -
` 20 कत्रसिद्धिः । केतरेतराश्रयतत | सतामदिचां संज्ञया भवितभ्यं संज्ञया घादैचो भा-
व्यन्ते तदितरेतराश्रयं भवति । हतरेतराभ्रयाणि च कायोणि न प्रकल्पस्ते | तद्यथा |
` नौनोति बद्धा नेतरेतरत्राणाय भवति | ननु चमो इषरेतरान्नरयाण्यमि कार्याणि
वूरयन्ते । तव्था । नोः शक्टं वहति हाकटं च नावं वहति | अन्यदपि तेत्र
किचिद्धवति जलं स्थलं या | स्थे शकटं नावं ` वहति जले नौः शकटं बहतिः।
, 25"यथा राई. जिविष्टन्धकम् 1 तज्नाप्यन्ततः सूजत्रकं भवति | इदं पुनरिषरेतराग्रयमेत्र ॥
सिद्धं तु नि्यराब्दतस्वातं || ९॥
सिङडमेतत्। कथम् । निव्यङाम्दस्वात् | नित्याः दाब्दाः। नव्येषु शब्देषु संतामदि चां
संज्ञा क्षियते न संञ्ञयदिचो भाव्यन्ते । यदि तर्हि नित्याः शब्दाः किमर्थँ शाखम् ।
० १.१.९. | ` ॥ व्याकिरम्हामाष्वन् ।॥ ४९
किमर्थं शाखरमिति चेनिवतैकत्वास्सिङम् ॥ ९० ॥
निवतैकं शाखम् | कर्थ॑म् | मुजिरस्मा भविशेषेणोपदिष्टः | तस्यं सवत्र म॒भि-
बुदिः प्रसक्ता | तत्रानेन निवृत्तिः क्रियते | मृजरङ्गिस्ड परस्ययेषु मृजिप्रसङ्गे माजि
साधूभेवतीति |
प्रत्येकं वृद्धिगुंग्े भवत इति वक्तयम् | किं प्रयोजनम् | समुदाये मा?
भूतामिति |
` अन्यत्र सहव वनात्समुदयि संज्ञापरतङ्ुः ।॥ ९९ ॥
भन्यत्र सहव चनत्तमुद् वे वृदिगुणतंशयोरपतङ्गः । यत्रेच्छति सहभूतानां कार्यं
केरोति तत्र सहप्रह्णम् । तथथा | सश पा [२.९.४| | उभे अभ्यस्तं सहेति! ॥
परस्यवयवें च वाक्यपरिसमपिः ॥ ९२ ॥ 10
परत्बवयर्वं व वाक्यपरिसमापनिदुंरयते | तथ्चथा | देत्रदर्तयज्ञदत्तविष्णुमित्रा
मौज्यन्तामिति | न चोच्यते प्रत्येकमिति प्रत्येकं च भुजिः परिसमाप्यते | नन् चा-
यमप्यस्ति इृष्टाम्तः समुदाये वाक्यपरिसमभिरिति | तद्यथा | गगा: शतं दण्डघन्ता-
मिति | अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | स्येत-
स्मिन्दृष्टान्ते यरि तत्र सहमहणं क्रियत इवि प्रत्ये कमिति वक्तव्यम् | भय 1;
तत्रान्तरेण सहग्रहणं सहभूतनिां कये भव तीहयपि नाये: प्रस्येकमिति वचनेन ॥
गथ किमथमाकारस्तपरः क्रियते |
` भाक।रस्य तपरकरणं सवगार्थम् `
आकारस्य तपरकरणं क्रियते । क्रि प्रयाजनम् । सवगौर्थम् | तपरस्तत्कालस्य
[९.९.७०] इति तस्कालानां सवणौनां ब्रहणं य॑था स्यात् | केषाम् । उक क्तानुदा--20
स्वरितानाम् । किं च कारणंन स्यात् |
भेदर्कत्वास्स्वरस्य ॥ ९२३ ॥
भेदका उद।सादथः । कयं पुनश्ष।यते भेदका उडासादय इति | एवं हि करयते
लोके । य उशते कतेश्ये ऽनुदा्तं करोति खण्डिक पाध्यायस्तस्मै चपेटां ददात्य-
न्यं करोषीति | अस्ति प्रयोजनमेतत् | किं तदीति | मेदकस््राहुणस्येति
वछव्यम् | रकि प्रयोजनम् | आनुनासिक्यं नाम गुणः | तद्धिन्नस्यापि
यथास्वात् | किंच कारणं न स्यात् | मेदकरत्बाद्ुगतस्य | मेदा गुणाः |
कथं पुनहोयते मेदका गुणा इति । एवं हि वृदक्ते लेके | एको अयमारमोककं
[व
# ७,२. १९६४ ॥ 7 ८.२, ५
6 ॐ
~ ४२ ॥ उ्याकरणप्रहाभाष्यम ॥ ॑ |म ० ९.९.३.
नाम तस्य गुणभेदादन्यल्वं भवति | अन्यदिदं शीतमन्यदिदमुष्णमिति | ननु
च भो अभेदका अपि गुणा दृश्यन्ते | तद्यथा | देवदत्तो मुण्डयपि जटयपि
शिख्यपि स्वामाख्यां न जहाति | तथा बालो युवा वृद्धः वत्सो दम्यो बलीवदै
इति ॥ उभयभिदं गुणेषुक्तं भेदका अभेदका इति | किं पुनरत्र न्याय्यम् |
5 अभेदका गुणा हत्येत्रं न्याय्यम् | कुत एतत् | यद यमस्थिदाधिसक्थ्यल्णामनङ्दान्तः
[७.९.७९ | इदयुदात्त्रहणं करोति | यदि भेदका गुणाः स्युरुदात्तमेवोचारयेत् |
यदि तर्भेदका गुणा अनुदात्तादेरन्तोदात्ता्च यदुच्यते तत्स्वरितादेः स्वरितान्ता्च
प्रामनोति | नेष दोषः | आश्रीयमाणो गुणो भेदको भवति । तद्यथा | मुक मालभेत |
कृष्णमालमेत | तत्र यः शङ्क आलब्धव्ये कृष्णमालभते न हि तेन यथोक्तं कृतं
10 भवति || असंदेहाथस्तर्हि तकारः । देजिस्युच्यमाने संदेहः स्याक्किमिमावैचावे-
वाहोखिदाकारो ऽप्यत्र नि्दिरयत इति । संदेहमात्रमेतद् वति सर्वसंदेहेषु वचेदमु-
पतिते व्याख्यानतो विश्चेषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति | चयाणां सहणमिति
व्याख्यास्यामः । अन्यत्रापि ह्ययमेवंजाती यकेषु संदेहेषु न कंचिद्यलं करोति ।
तद्यथा | ओतो ऽम्शासोः [६. ९. ९३] इति || इदं तर्हि प्रयोजनम् । आन्तथति-
15 मात्रचतुमात्राणां स्थानिनां ज्रिमाजचतुमेत्रा भादेशा मा भुवक्निति । खदा इन्द्रः
खदधन्द्रः । खद्रूा उदकं खद्धोदकम् । खष्रा हेषा खद्रेषा । खद्धा ऊढा खट्रोढा |
खटा एलका ख्दरैलका | खटा भोदनः खदरौदनः । खद्रा रेतिकायनः खद्तिका-
यनः । खद्रूा ओपगवः. खद्टौपगव इति । भथ क्रियमाणे अपि तकारे कस्मादेव
-चिमात्रचतुमीज्राणां स्थानिनां त्रिमात्रचतुर्मात्रा आदेशा न भवन्ति | तपरस्तत्का-
20 रस्येति नियमात् । ननु तः परो यस्मात्सो ऽयं तपरः | नेत्याह । तादपि पर-
स्तपरः | यदि तादपि परस्तपर ऋदोरप् [२. ३. ५७ | इतीहैव स्यात् यवः
स्तवः | ठवः परव इत्यञ्च न स्यात् | त्रैष तकारः । कस्तर्हि | दकारः | किं दकारे
प्रयोजनम् । अथ (करं तकारे | य्यसंदेहाथंस्तकारो दकारो अपि | भथ मुखद्ला्थ-
स्तकारो दकारो भपि॥
६ इकां गुणवृद्धी ॥ १. ।१६।३.॥
इन्यहणं किमधम् ।
इग्ग्रहणमास्संध्यक्षरव्यज्नननिवृत््य्थम् । ९॥
हग््रहणं क्रियत आकारनिवृच्यथं संध्यक्षरनिवृ्यये व्यञ्जननिवुत्यथे च|
पा० ९.९.२३ .| ॥ वयाकरणयहाभाष्यय् ॥ ४३.
भकरनिवुत्यथे तावत् | याता वात | आक्यरस्य गुणः प्रामोति" | इम्महणा्
भवति | संभ्यक्षरनिवृत्त्ययम् | ग्लायति म्लायति | संभ्यक्षरस्य गुणः प्रमरोति |
इन््रहणाञ्च भवति || व्यज्जननिवृत्यथम् | उम्भिता उम्भितुम् उम्मितव्यम् ! व्य-
श्जनस्य गुणः प्ररोति | इम्म्रहणात्न भत्रति || आकारनिवृच्यर्थन तात्रक्नाथेः |
आचर्यप्रवु्िज्ञ।पयति नाकारस्य गुणो भव्रतीक्ति यदयमातो ऽनुपसर्गे कः [३.२.२३] 5
इति ककारमनुबन्धं करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | कित्करण एतस्रयोजनं
क्रितीव्याकारलोपे यथा स्परात्। । यदि चाकारस्य गृणः स्याक्किह्करणमनथैकरं
. स्यात् | गृणे कृते इयोरकारयेः पररूपेण सिद्धं सूपं स्यात् गोदः कम्बलद इति |
परयति त्वाचार्यो नाकारस्य गृणे भवतीति ततः कक्रारमनबन्पं करोति || संध्य
क्षरिवृ्यर्थनापि नाथः | उपदेशसामभ्योस्संभ्यक्षरस्य गणो न भविष्यति || व्य- 10
स्नननिवृ्यर्थेनापि नाथेः । आचायपरवृततिज्ञो पयति न व्यस्ननस्य गुणो भवतीति
यदयं जनेड श स्ति‡ । कथं कृत्वा ज्ञापकम् | डित्करण एतलयोजनं. तीति
टिलोपो यथा स्यात्» | यदि व्यञ्जनस्य गुणः स्याहित्करणमनथेकं स्यात् | गुणे
कृते जणामकाराणां पररूपेण तिंदधं रूपं स्यत् उपस्तरजः मन्दुरज इति |
परयति त्वाचार्यो न व्यश्नस्य गुणो भवतीति ततो जनेड शास्ति ॥ नैतानि सन्ति 15
हापक्रानि । वत्तावदुच्यते कित्करण ज्ञापकमाकारस्य गुणो न भवतीत्युत्तरा-
येभेतस्स्यात् । तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः [३.२.५९] इति । यत्ति गापोशटक्
[८ | इत्यनन्याथे ककारमनुबन्धं करोति || यदप्युच्यत उपदेश सामश्योतसंध्यक्चरस्य
गुणो न॒ भवतीति यादि यद्यरसंध्यक्षरस्य प्रामोति तत्तदुषदेरासामभ्योदाध्यत
आयादयो अपि तर्हिं न प्रामुवन्ति | नैष दोषः | यं विधि भ्रत्युपदेशो ऽनथेकः स 20
विधिवोध्यते यस्य ॒तु विपेर्निमित्तमेव नाकौ वाध्यते | गुणं च प्रत्युपदेशो ऽनथक
आयादीनां पुनर्निमित्तमेव || यदप्युच्यते जनेडकचनं ज्ञापकं न व्यञ्जनस्य गृणो भव-
तीति सिदे विधिरारभ्यमाणो ज्ञापकार्थो भवति न च जनेगुगेन सिध्यति | कुतो
हेतज्जनेर्गुण उच्यमानो ऽकारो भवति न पुनरेकारो वा स्यादोकारो वेति । आन्त-
येतो ऽपमातिकरस्य व्यच्ञनस्य माज्निको ऽकारो भविष्यति | एवमप्यनुनासिकः प्राभो- ९
ति | पररूपेण गुद्धो भविष्यति । एवं तर्हि गमेरप्ययं डा वक्तव्यः | गमेथ गुण
उच्यमान अन्तयैत ओकारः प्रामोति | तस्मादिग्भहणं कतेव्यम् |
यरीग्पहणं क्रियते दयौः पन्थाः सः इमाभिव्येते ऽषीकः प्राप्रवन्ति|| |
* ७.३.८४ † ६.५.६५ ६.२.९५ § ९.५.१४२ || ७. १. ८४; ८९.७. २. ५०
¦ , 1 ॥ ध्थाकरनणकवहाभिारच्यंम् ॥ { म ९.९१.
संज्ञया विधाने नियमः ॥ 2॥।. `
संक्षया ये विधीयन्त तेषु नियमः | किं वक्कभ्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं
गंस्यते | गृणवृद्धि्रदणसामभ्यात् | कशं पुनरन्तेरेण गुणवृद्धिमहणभिको गुणवृद्धी
स्याताम् । प्रकृतं गुणवुद्धग्रहणमनुवतेते | क प्रकृतम् | वृद्धिरदिजदेङ्कुण इति |
5 मदि तदनुवतेते डदद्कुणो वृद्धिभेस्यदेडां वुदधिसंजञापि भामति । संबन्धमनुवर्षिष्यते ।
वृद्धिरदिच् । अदेङ्गणो वृद्धरदिच् । तत इका गुणवृद्धी इति | गुणव॒द्धिमदणमनु-
वतेते | आदे जदे ङदणं निवृत्तम् | थवा मण्डुकगतयोऽधिकाराः | यथा मण्डूका
दरछ्ुत्योसुत्य गच्छन्ति तद्वदधिकाराः || भथतैकयोगः करिष्यते | वृद्धिरदि जद ङ्कुणः।
तत इको गुणवृद्धी इति | न चैकयोगे अनुवृत्तिर्भवति ॥ अथवान्यवचनाधकारा-
10 करणास्पकृतापवादो विज्ञायते यथोत्सर्गण प्रसक्तस्यापवारो बाधको भवति | अ.
न्यस्याः संक्ञाया -वचनाञ्चकरस्य चानुकर्षणारथस्याकरणासकृताया वृद्धिसंश्ञाया गुण-
संज्ञा बाधिका भविष्यति यथोत्सर्भेण प्रसक्तस्यापवादो वाधको भवति || जथवा
वक्ष्यत्येतत् | अनुवतैन्ते च नाम धिधयो न चानुवतेनादेव भवन्ति | किं तर्हि |
यलाद्धवन्तीति* | भथवोभयं निवृ सं तदपेक्षिष्यामहे ||
: रिं पुनरयमलो ज््यरदेष आाहोस्विद्रल) ऽन्त्यापवादः। | कथं चार्यं तच्छेषः स्या-
त्कथं वा तदपवादः | यद्येकं वाकम तच्चेदं घ न्नलो न्त्रस्य विधयो भवन्ति इको
गुणवृद्धी अलो ऽन्स्य्येति ततो अयं तच्छेषः | अथ नाना वाक्रचम् अलो <न्त्वस्व
त्रिधयो भवन्ति इको गुणवृद्धी अन्त्यस्य चानन्त्यस्य चेति ततो अयं तदपवादः |
क्रथात्र विदोषः | |
बृद्धि गुणावलो जन्त्यस्येति चेन्मिदिपुगन्तल पूपधच्छिदृर्िक्लिप्रलयुदेष्विग्भ्रह-
णम् ॥ २॥
बुद्धिगुगावलो न्त्यस्येति चेन्मिरिषुगन्तलधूपधर््डिदृहिल्िप्रुदेष्विग्यक्णं कते-
ध्यम् | भिविर्गुणः [७.३.८२] इक इति वक्तव्यम् | भनन्स्यत्वादि न प्रामोति ॥
वुगन्तलघूपधस्य गुण हक इति वच्कव्यम् । शनन्त्यखाडधि न प्राभोति । ऋष्डे-
98 रिटि गुण इक इति वन्कम्यम् | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति || ऋदृरो अडः गुणः
[७.४.१६ | इक हति वक्तव्यम् | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रारोति ॥ क्िपषद्रयो गण॥ इक
इति वक्तव्यम् | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति ॥
तरै ९, २, ५.* † २. २. ५२. ‡+ ७, २. ८६. § ७, ४,९९, || ६. ४. ९५६.
पा०९.९.३. ] ॥ व्वाकश्णयमहाभाष्यन्ः | + १
सर्वादि शपसङ्श्चानिमन्तस्य ॥ ४.॥
सवोदेशशथच गणो अनिगन्तस्य प्राप्रोति । याता वाता | किं कारणम् | अलो न्त्य-
स्येति षष्टी चैव यन्स्यभिकमुपसंक्रान्ता | अङ्गस्येति च स्थानषष्ठी । तथ्यदिदानी-
मनिगन्तमङ्गँ तप्य गुणः सवौदे शः प्राति | नैष दोषः | यथैव यलो ऽन्त्यस्येति षष्टध-
न्त्वमिकम्पसंक्रान्तेवमङ्कस्येत्यपि स्थानषष्ठी | तद्यदि दानीमनिगन्तमङ्गं तजर षष्ठचेव 5
नास्ति कुतो गुणः कुतः सर्वदिशः || एवं तर्हि नायं दोषसमुश्चयः । किं वर्हि |
पृरवापि्षो अयं दोषः | र्थे चायं चः पठितः | मिदि पुगन्तलषुपधर््छिदृिकिप्रश-
दरेष्विग्महणं सर्वारेशप्रसंद्गो धनिगन्तस्येति । मिदेगुण इक इति वचनादन्त्यस्य न |
अन्त्व्येति वचनादिकी न | उच्यते च गुणः } स सवादेशः प्रामोति | एव सवैत्र ॥
धस्तु तर्हिं तदपवादः | 10
इग्मात्रस्थेति चेज्जिसिसावेधातुकाधधातुकट्रस्वायोर्गुणेष्वनन्स्यपरतिषेधः
॥ ९ ॥
` इग्मात्रस्येति चेज्जुसिंसविधातुका्पधातुकटस्वा्ोगुणेष्वनन्त्यस्य प्रतिषेधो व-
ष्यः | जुसि गुणः* । स यथेह भवति अजुहवुः भविभयुरिति एवमनेनिजुः
पर्यवेविषुः अत्रापि प्रामोति || सार्वधातुका्पषातुकयोैणः† । स यथेह भवति कतौ 15
हतो नयति तरति भवति एवमीहिता हहितुभिस्यत्रापि प्रामोति || हृस्वस्य गुणः
| ७. ३, १०८ || स यथेह भव्रति हे ने हे वायो इति एवं हे भिचित् हे सोम-
इदिस्यज्रापि परामोति ।| जति गुणः; | स यथेह भवति अप्रयः वायव इति एव-
मभिचितः सोमञ्त इत्यत्रापि प्रामोति | ऋतो 'ङखवैनामस्थानयो गणः$ । स
यथेह भवति कर्वेरि कतीरौ कतीर इति एवं छकृति छक्तौ कृत इत्यत्रापि %
भ्राप्रोति || बेडिति [७. ३. ११९] गुणः| स यथेह भवति अम्रये वायवे एवमभिषिते
सोमङत इत्यत्रापि प्राप्रोति ॥| ओगणः [६. ४. १४६] | स यथेह भवति बाभव्यः
माण्डव्य इति एवं भत् सौभ्ुत इत्यत्रापि भ्राभोति ॥ तरैष दाषः |
पुगन्तरुपूपधग्रहणमनन्त्यानियमार्यम् ॥ ६ ॥
पृगन्तलघु पप्रहणमनन्स्वनियमाये भविष्यति| .| पुगन्तलषुपभस्यैवानन्स्यस्य
नान्वस्यानन्स्यस्येति || प्रकृतस्यैष नियमः स्यात् | किं च प्रकृतम् । सार्वधातुक
~ = न क --- -=--
= ७. २. ८३. † ७, २. ८४. { 9. २, १०९. 6 ७9. ३. १९०, || ७. ३, ८४.
४६ ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम् ॥ | [म० ९,९१.३.
धातुक्रयोरिति | तेन भवेदिह नियमान्न स्यात् हहिता हेहितुम् हेहितव्यमिति | हस्वा-
चोगुगस्त्वनियतः सो ऽनन्त्यस्यापि प्रामोति | अथाप्येवं नियमः स्यात् । पुगन्तलषू-
पथस्य सवैधातुकापधातुकयेोरेवेति | एवमपि सावेधातुकाषषातुकयोयुंणो अनियतः
सो ऽनन्त्यस्यापि प्रापोति | हेहिता हैहितुम् ईहितभ्यमिति | अथाप्युभयतो नियमः
5 स्यात् | पुगन्तककपधस्थैव सावैधातुकापेधातुकयोः सावेधातुकापेधातुकयोरेव पग-
न्तठघुपधस्येति |. एवमप्ययं जुसि गणो अनियतः सो ऽनन्त्यस्यापि प्रामोति ।
अनेनिजुः पयषेविषुरिति || एवं तर्हि नायं तच्छेषो नापि तदपवादः | अन्यदेवेदं परि-
भाषान्तरमसं बद्धमनया परिभाषया । प्रिभाषान्तरमिति च मत्वा क्रोष्रयाः पठन्ति|
नियमादिको गुणवृद्धी भवतो विप्रतिषेभेनेति | यदि चायं तच्छेषः स्यात्तेनैव तस्यायुक्तो
10 विप्रतिषेधः | अथापि तदपवाद् उत्तगौपवादयोरभ्ययुक्तो विप्रतिषेधः | तत्र नियम-
स्यावकाशः । रात्तः क च [४.२.१४०] राजकीयम् । हको गुणवृद्धी इत्यस्याव-
काराः | चयनम् चायकः कवनम् ावक इति | इहोभयं प्राप्रोति । मेद्यति मार्टीति |
इको गुणवृद्धी हत्येतद्वति विप्रतिषेधेन | नैष युक्तो विप्रतिषेधः | विप्रतिषेभे हि
परमित्युच्यते पूर्थभायं योगः परो नियमः । हृष्टवाची परशब्दः । धिप्रतिषेे परर
15 यदिष्टं तद्भवतीति | एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेधः | हि का्ययोगो हि विप्रतिषेधो न चात्र -
को हिकायेयुक्तः । नावश्यं हिकायैयोग एष विप्रतिषेधः | किं तर | भसंभषो ऽपि |
स चास्त्यत्रासभवः | को ऽसावसंभवः | इह तावदृक्िभ्यः अरक्तेभ्य हत्येकः स्थानी
हवावदेश्चौ† | न चास्ति संभवो यदेकस्य स्थानिनो दवावादेदौ स्याताम् ¦ इहेदानीं
मेद्यति मेद्यतः मेद्यन्तीति दवौ स्थानिनातेक आदेः । न चास्ति संभवो यद्योः स्थानि-
20 नेरेक आदेयः स्यादित्येषो ऽतंभवः । सत्येतस्मि्संभवे युक्ता विप्रतिषेधः |
एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेधः | हयो सावकादायोः समवस्थितयोर्िप्रतिषेधो मवत्य-
नवकाडचायं योगः | ननु चेदानीमेवरास्यावक। दः प्रकुमरः | चयनम् चायकः लवनम्
लावक इति | अत्रापि नियमः प्रापोति । यावता नाप्रात्ने नियमे अयं योग आरभ्यते
ऽतस्तदपवादो ऽये योगो भवति । उत्सगोपव।दयोधायुक्तो विप्रतिषेधः | अथापि
25 कथंचिदिको गुणवृद्धी इत्यस्यावकाडाः स्यादेवमपि यथेह विप्रतिषेधादिको गुण्य
भवति मेश्चति मेद्यतः मेद्यन्ति एवमिहापि स्यात् अनेनिजुः पयवेविषुरिति ॥ एवं
तर्हि वृद्धिभवति गृणो भवतीति यत्र च्रूयादिक इस्येतत्ततरे पास्थितं द्रष्टव्यम् | कि कृतं
भवति | द्वितीया षष्ठी प्रादुभोव्यते | तत्र कामचारो गृह्यमाणेन वेकं विशेषवि-
१,५४.२. 7 ०. ३.२९०२; ५०२.
प०९.१.३. | ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ; +
तृमिका वा गृह्यमाणम् | यावता कामचार हह तावन्मिदिपुगन्तलवुपधाच्छदृराक्ति-
पुदरेषु गृ्यमाणेनेकं विशेषयिष्यामः | एतेषां य इगिति । इहेदानीं जु्सिसवेधा-
तुकार्भधातुकटस्वाद्योरगुणेष्विका गृद्यमाणं विशेषयिष्यामः | एतेषां गुणो भवतीकः |
इगन्तानामिति | अथवा स्वैत्रैवात्र स्थानी निर्दिरयते | हह तावन्मिरैरित्यविभ-
क्तिको निर्देशः | भिद एः भिदेः मिदेरिति । अथवा षठीसमासो भविष्यति | 3
मिद इः मिरिः भिदेरिति || पगन्तठघपधस्येति नैवं विक्ञायते पृगन्तस्याङ्कस्य
षुपधस्य चेति | कथं ताह | पुक्यन्तः पुगन्तः | रुष््युपधा लघुपधा | पुगन्तश्च रषु-
पधा च पुगन्तलधूपधं पुगन्तलघुपधस्येति । अवद्यं चेतेदेवे विज्ञेयम् । अङ्कविदोषणे
हि सतीह प्रसज्येत भिनत्ति छिनत्तीति || कच्डेरपि प्रशिष्टनिरदंशो ऽयम् । ऋच्छति
क ऋ ऋताम् ऋच्छस्यृतामिति | दृदोरपि योगत्रिभागः करिष्यते | उराङे गुणः | 10
उरङिः गुणो भवति | ततो दुदोः | दृदोधाडः गुणो भवति । उरिव्येव | क्षिग्रकषुद्र-
योरपि यणादिपरे गुण इतीयता ्िद्धम् | सो ऽयमेवं सिद्धे सति यत्पूवैरहणं करोति
तस्थैतत्पयोजनमिको यथा स्यादनिको मा भूदिति ॥
भथ वृद्धिग्रहणं कि मथेम् | कै विरेषेण वृद्धिम्रहणं चोद्यते न पुनथणय्हणमपि |
यदि किचिद्कणग्रहणस्य प्रयोजनमस्ति वृद्धिम्रहणस्यापि तद्कवितुमरेति | को वा 15
विशेषः | अयमस्ति विरोषः | गुणविधौ न कनिर्स्थानी निर्दिरयते । तत्रावदयं स्था-
निनि शाथे गृणमहणं करैव्यम् । वृद्धिविषी पुनः सर्वत्व स्थानी निर्दिरयते || भचो
ञ्णिति [ ७.२.११९ | । अत उपधायाः | १९१६ | । तद्धितेष्वचामादेः [१९७]
इति ॥| अत उत्तरं पठति |
वृद्धिग्रहणमुत्तरायेम् ॥ ७।। 20
वृद्धिग्रहणं क्रियत उन्तराथंम् | किति [ १.१.९ | इति प्रतिषेधं वक्ष्यति स
वृद्धेरपि यथा स्यात् | कथेदानीं क्रसत्ययेषु वृद्धः प्रसङ्गो यावता ज्णितील्युच्यते |
तञ्च मृज्यथेम् । मृजेवृंद्धिरविदहोषेणोच्यते सा बति मा मृत् । मृष्टः मृष्टवानिति |
` इहाथ चापि मृज्यथे वृद्धिप्रहणं कतेष्यम् । मृजेवैद्धिरविरशेषेणोच्यते सेको यथा
स्यादनिको मा भूदिति । 9
मृञ्ययथमिति चेद्योगविभागास्िद्धम् ॥ ८ ॥
मुज्यथेमिति चेश्योगविभागः करिष्यते | मृजेवद्धिर चः | ततो ज्णिति | भिति
# ७, २, ९१४,
(~, 1 ॥ इषाकरन पहटाभाष्यय् ॥ | [मण०९.९.३.
मिति च वृद्धिभेवति । भच इत्येव । वद्यचो वृद्धिरुच्यते म्यमादे भटो ऽपि वृद्धिः
धरामोति ।
अटि चोक्तम् ॥ ९ ॥
किमुक्तम् | अनन्त्यविकारे उन्त्यसदेशस्य कायै भवतीति ||
४ वृद्धिप्रतिषेधानुपपत्तिस्त्वक्भरकरणात् ॥ ९० ॥
वृदेस्तु प्रतिषेधो नोपप्यते | किं कारणम् । इक्परकरणात् । इग्लक्षणयोर्गुण-
वृद्योः प्रतिषेधो न चैवं सति मृजरिग्लक्षेणा वृद्धिर्भवति | वस्मान्मृजेरिग्लक्षणा
वुद्धिरोषितव्या ॥
एवं तर्हीहान्ये ्ैयाकरणा मृजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्ते | परि मृजन्ति
10 परिमाजैन्ति । परिमृजन्तु परिमाजैन्तु | परिममृजतुः परिममाजेतुरिव्या्थेम् | तदि-
हापि साध्यम्| तस्मिन्साध्ये योगविभागः करिष्यते | मृजेवैडिरचो भवति | ततो अवि
करिति | अजादौ च कति मृजेवडधिभेवति | परिमार्जन्ति परिमाजैन्तु | किमथेमिदम् |
नियमार्थम् । अजादावेव कति नान्यत्र । क्वान्यत्र मा मुत् । मृष्टः मृष्टवानिति |
ततो वा | वाचि (क्ति मृजेवद्धिभेवति । परिमृजन्ति परिमाजेन्ति | परिममृजतुः
15 परिममार्जतुरिति ॥ इकार्थमेव तर्हि सिजथे वुदधियहणं कतेष्यम् । सिचि वृदिरवि-
हेभेणोभ्यते† सेको यथा स्यादानिको मा भूरिति । कस्य पुनरनिकः प्रामोति । अका-
रस्य । भविकीर्षीत् भजिदीर्षीत् । नैतदस्ति | लोपो त्र वाधको भविष्यति; ||
आकारस्य तर्हि प्रभोति | भयासीत् अवासीत् | नास्त्यत्र विशेषः सत्यां वृ डावसस्वां
वा| संभ्यक्षरस्य तर्हि प्रामोति | श्रव संध्यक्षरमन्त्यमासति । ननु चेदमस्ति हलोपे कृत
20 उदबोडाम् उदवोढम् उदवेडेति? । नैतदस्ति । भिद्धो डरो पस्तस्यासिदस्वाैत-
दन्स्यं भवति || व्यञ्जनस्य तरिं प्रभोति | अतरैस्वीत् अच्छैत्सीत् | शलन्वलक्षण।
वृद्धिवोपधिका भविष्यति| || यत्र ताह सा प्रतिषिध्यते¶ | भकोषीत् भमोषीत् । सिचि
वद्धेरप्येष प्रतिषेधः | कथम् । लक्षणं हि नाम ध्वनति भमति मुहतैमपि नावतिष्ठते ।
अथवा सिचि वृद्धिः परस्तैपदेष्विति सिधि वृद्धिः परामरोति | तस्या हलन्तलक्षणा वृदधि-
25 बवैधिका । तस्या अपि नेटीति प्रतिषेधः | अस्ति पुनः कचिदन्यत्राप्वपवादे प्रतिषिद्ध
उस्सभा अपि न मवति | भस्तीत्याह । जति अश्क्नृते | अध्वर्यो अद्रिभिः छतम् ।
शक्तं ते अन्यदिति । पुवैरूपत्वे प्रतिषिद्धे ऽयादयो ऽपि न भवन्ति“ ॥
# ६, ९, ९४ पि † ७,२.२९. { ६.४.४८. .$ ८. ३. ९३; ६. १. ९९.२०
|| ७.२. ३ ¶ु १.२.५४. ^* ६. ६. ७८; ९०९; ६६५.
फ०,९..१. ३.| ॥'व्वाङूरणप्रभाष्वय् ॥ । +:
उन्तरार्थमे% तर्हि सिजथै वृदधिप्रहणं कतेव्यम् | सिचि वृद्धिरविशेषेणोच्यते स
क्किति मा भत् | न्वनुवीत् न्य पुवीत्* । नैतदस्ति प्रयोजनम् । अन्तरे क्रत्वादत्रोव-
उदेशे कृते ऽनन्त्यत्वा्रदधिन भविष्यति || यदि तर्हि सिच्यन्तरङ्गं भवति अकार्षीन्
हार्षीत् गुणे कृते रपरत्वे चानन्त्यत्वाहृदिने प्राोति | मा भूदेवम् | .दलन्तस्ये-
येवं भविष्यति || इह तहं न्यस्तारीत् व्यदारीत् गुणे रपरत्वे . चानन्त्यत्वाहू- |
डने प्रापनोति हलन्तलक्षणायाश्च नेटीति प्रतिषेधः | मा भृदेवम् | लोन्तस्व `
[७.१.२ | इत्येवं भविष्यति || इह तर्हि अलावीत् अपावीत् गुणे कृते अवादेशे चा-
नन्त्यत्वाहूद्धिने प्रा परोति हंठन्तलक्षणायाओ नेदीति प्रतिषेधः | मा भूदेवम् । कीन्त-
स्येत्येवं भविष्यति | लोन्तस्येत्य॒च्यते न चेदं ठोन्तम् । लोन्तस्येस्यत्र वकारो
अपि निर्दिरयते | क्क वकारो न ्रुयते | लुपरनिर्दि्टो वकारः || ययेवं मा भवा- 10
नवीत् मा भवांन्मवीत् अत्रापि प्रामोति | अविमव्यो्नेतिः वद्यामि । तहक्तव्यम् ।
| गिभ्विभ्यां तै निमातव्यो । |
यद्यप्येतदुच्यते ऽथेति णिष्टव्योः प्रतिषेधो म वक्तःग्रो.भव्रति | गुणे कृते
ऽ्यादेशे. च यान्तानां नेत्येव प्रतिषेधो भविष्यति1 | . एवं तद्यो चायेपरवृत्तिज्ञा-
प्यति न स्ििच्यन्तर ङ्गं मवतीति यदयमतो हलादेषोः | ७.१.७ | इत्यकारम्र- 15
हणं करोति । कथं कत्वा शापकम् । . भकार परहणस्थैतलयो जनमि मा . भूत्
भकोषीत् अमोषीत् | यदि सिच्यन्तर ङ्ग स्यादकार प्रहणमनथेकं स्यात् | गुणे कृते ऽल~ `
ुत्वाहृदिने भविष्यति [परयति स्वाचार्यो न सिच्यन्तरङ्गं भवतीति ततो ऽकारम्रहणं
करोति | तैतदत्ति ज्ञापकम् | अस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम् | यत्र गुणः
प्रतिषिध्यते तदथेमेतस्स्यात् न्यकुटीत् न्यपुटीदिति | यत्ति गिग्व्योः प्रतिषेधं शास्ति 20
तेन नेशान्तरङ्कमस्तीति रैश्येयति | यचच करोत्यकारम्रहणं रषोरिति कृते ऽपि ||
तस्मादिग्लक्षणा वृद्धिः ॥ ९९ ॥
तस्मादिग्लक्षणा वृद्धिरास्थेया ॥
षष्ठयाः स्थनियोगत्वादिधिवृिः ॥ ९२ ॥
बटयाः स्थानेयोगस्वातस्सर्वेषामिकां निवृत्तिः प्रामोति । अस्यापि प्रामोति | दपि
मधु । पुनर्व चनमिदानीं किमथे स्वात् |
# ९,२.१५. † ० २.५.
= 1
7 9
५4० ॥ व्याकरणमहाभाष्यमः ॥ [म० ९. ९.३
| अन्यतरार्थं पुनवंचनम् ॥ ९३ ॥
` भन्यतराथंमेतत्स्यात् | सावेधातुकाधधातुकयोगुण एवेति ॥|
| प्रसारणे च ॥ ९४॥ |
. प्रसारणे च सर्वेषां यणां निवृत्तिः प्रामोति" | भस्यापि प्रापमरोति | याता वाता |
£ पुनबेचनमिदानीं किमथे स्यात् |
विषयार्थं पुनवचनम् ॥ ९५ ॥
विषयाथमेतसस्यात् | वचिस्वपियजादीनां किव्येवेति। |
उर्रपरे च ॥ ९६॥ |
उरथ्रपरे च सवेकोराणां निवृत्तिः प्राभोति; । अस्यापि प्रामोति | कते हते ॥ ।
। सिद तु षष्ठ्यधिकारे वचनात् ॥ ९४७॥ |
सिद्धमेतत् । कथम् | धष्ठ्यधिकार इमे योगाः कर्वव्याः । एकस्तावस्कियते
तत्रैव | इमावपि योगौ षक्यधिकार मनुवरषिष्येते || अथवा बष्टयधिकार इमौ
योगावपेक्षिष्यामहे | अथवेदं तावदयं प्रष्टव्यः | सावेधातुकाषधातुकयोगणो भ-
वतीतीह कस्माच्च भवति | याता वाता | हदं तत्रापेक्िप्यत इको गुणवृद्धी इति ।
16 यथैव तर्हीदं तच्रापेक्िष्यत एबमिहापि तदपेक्षिष्यामहे । सावैषातुकाषेधातुकयोरि-
को गुणवृदी इति ॥
इति श्रीमगवस्पतच्ञरलिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य. प्रथमे
पादे तती यमाह्किकम् ॥।
# १, १, ४९. † ६. \. ५. { ६. ९.५९.
10
१०९.९.४. ॥ व्याकल्णमहाभावष्यम् ॥ `` ५९
न धातुलोप आधधातुके ॥ १. । १ 1 ४॥
धातुमह्णं किमथम् । इह मा भूत् । टूञ् रविता लवितुम् । पूञ् पविता
पवितुम् ।। भषेधातुक इति किमयम् । त्रेधा बद्धो वृषभो रोरवीति ।| किं पुन-
रिरमाषेषातुकमरहणं लोपविदेषणम् | आधेधातुकनिमित्ते लोपे सति ये गुणवृदी
राुतस्से न भवत इति । आोस्विद्धगवृद्िविदोषणमाधभातुकमहणम् । धातुलोपे $
सत्याधधातुकनिमित्ते ये गुणवृद्धी ्रा्ुतस्ते न भवत इति | किं चातः | यदि लोष-
विरशेषणमुपेद्धः प्ेडधः अत्रापि प्रामोति | अथ गुणवुद्धिविरोष्णं क्रोपमतीत्यज्ापि
्रमोति | यथेच्छसि तथास्तु | अस्तु लोपविद्रोषणम् | कथमुपेद्धः प्रेद इति ।
बहिरङ्गो गणो ऽन्तरङ्गः प्रतिषेधः | असि बहिरङ्गमन्तरङ्गे | यथेवं नार्था धा-
तुमहणेन । इह कस्मान्न भवति । लूञ् रुषिता लवितुम् । आ्धातुकनिमित्ते लोपे 10
प्रतिषेधो न चैष आर्धधातुकनिमित्तो लोपः || भथवा पुनरस्त॒ गुणवद्धिविदोषणम् |
नन् चोक्तं क्रोपयतीस्यत्रापि प्रामोतीति | नैष दोषः | भिपातनास्सिद्धम् ! किः निष
तनम् । चेले क्रपेः [२.४.३२ | इति ||
परिगणनं कतेव्यम् |
यङ्यक्क्यवलोपे प्रतिषेधः ॥ ९॥ ` 15
यडनयक्क्यवलोपे प्रतिषेषो नक्व्यः | यङ् | बेभिदिता मरीमृजः! | यक् |
कु षुमिता मगधकः | क्य | समिधिता दृषदकः‡ । वरोषपे | जीर दानुः$ | किं
प्रयोजनम् |
जुम्लोपलिव्यनुबन्धलोपे ऽप्रतिचेधायेम् ॥ २
नुम्लोपे क्िव्यनुबन्धलोपे च प्रतिषेधो मा भूदिति | नुम्लोपे । भभाजि। रागः4 20
उपवदेणम्** | कवेः भलेमाणम् । भनुबन्धलोपे | लूञ् लविता लवितुम् ॥
यदि परिगणनं क्रियते स्यदः प्रञ्रथः हिमभ्रथ इत्यत्रापि प्राभोति | वश्यत्मेतत् ।
निपातनास्स्यदादिभ्विति ॥ तत्तर्हि परिगणनं कतैव्यम् | न॒ कतैष्यम् | नुम्लोपे
कस्मान्न भवति | |
इक्प्रकरणान्चुम्लोपे वृद्धिः ॥ ३ ॥ 25
इ्लक्षणयोगगुणवृद्ोः प्रतिषेधो न चैषेग्लक्षणा वृद्धिः || यदीग्लक्षणयोरगैण-
*६. ४, ३९, † २,४.०४. [ ६.४.५०. { ६.१.६९. | ६.२.२३. गु ६.४.२५.
॥ ^ ६..४.२४.४
५२ ॥ व्याकरणमहापाच्यप - म० ९.९.४,
द्योः प्रतिषेधः स्यदः प्रन्रथः हिमश्रथ इत्यन्न म प्रभोति | इह च प्राभोति |
भवोदः एधः ओश्र इति | |
| ` ` निपातनात्स्यदादिषु ॥ ४ ।|
` निालनार्दादिु प्रतिवेषो भविष्यति न च भविष्यति || यदीग्लकषणयोण-
.5 बृद्धोः प्रतिषेषः क्िग्यनुबन्धलोषे कथम् | जिवेः आज्ञेमाणम् । ट् लविता ।
प्रतयय।श्रयत्वादन्यत्र सिडम || ^4॥.
| आधातुकनिमितत लोपे प्रतिषेधो न त्रैष आर्धधातुकनिमिन्तो लोपः || यद्ार्प-
धातुकनिभित्ते लोपे प्रतिषेष्मे जीरदानुः अन्न न प्रपोति। | |
| रकि ज्यः प्रसारणम् ।|.६ ।।.
10 तरैतञ्जीवे रूपम् | रक्येतच््यः प्रसारणम् | यावता चेदानीं रकि . जीवेरपि
सिद्धं भवति || कथमुपवहेणम् | वहिः प्रकृत्यम्तरम् । कथं श्षायेते वृहिः भ्रङ्त्य-
न्तरभिति | भचीति हि लोप उच्यते | भनजादावपि दृयते | .निवृद्यते । अनि-
रीति चोच्यते । इृडादावपि दृदयते । निवर्हिता निवर्हितुमिति .1 अजादावपि
न दृयते । वृंहयति धृंहकंः || तस्मान्नाथेः परिगणनेन || यदि परिगणनं न क्रियते
15 मेद्यते डेष्यते अत्रापि प्रामरोति । नैष दोषः | धातुलोप इति तरैवं विज्ञायते धातोर्लोपो
धातुलोपो धातुोष इति । कथं ताह । धातोर्लोपो ऽरिमस्तदिदं धातुलोपं धातुलोप
इति ॥ तस्मादिग्लक्षणयोगुणवृद्धोः भरतिषेधः || यदि तर्हीग्लक्षणयोगुुणवुद्धोः प्रतिः
बेधः पापचकः. पापठकः मगधकः दृषदकः अन्न न प्रामोति |
अद्धोपस्य स्थानिव्वात्
20 ककारलोपे कृते तस्य स्थानिवतत्वाहुणवृदधी न भविष्यतः ॥ .
. अनारम्भो वा ॥ ७ ॥ |
अनारम्भो वा पुनरस्य योगस्य न्याय्यः । कथं बेभिदिता मरीमृजकः
कुषुभिता समिधितेति । .भच्राप््रकारलोपे कृते तस्य स्थानिवद्धावाहुणवृद्धौ न भ-
-विष्यतः || यत्र तर्हि स्थानिवद्भावो नास्ति तदभमयं योगो वक्तव्यः | क च स्था-
25 निवद्धावो नास्ति | यत्र हलचोरादेशः । लोलुवः पोपुवः मरीमृजः सरीसृप हति |
~ याणका क [कि मोर शि मे प णण ग
[द 4 ] रिरि
# ६, ४. ८८, २९. † ६.४. ४८.
ध्र ९.९.५. | ` 1 व्याकरनमहाभाष्वत्र ॥ ५५
मत्राष्यक्ारलोपि कृते तस्य ` स्थानिवद्धावाद्ुणवृदधी न भविष्वतः | लुकि कृतेः ब
शआाभोति | इदमिह संप्रधार्यैम् । टुद्धियवामष्ठोप इति किमत्र कतेव्यम् | परस्वाद-
दोषः । निस्यो लुक् | कृते ऽप्यह्ोषे.प्रामोत्यकृतेऽप्नि प्राप्रोति । लुगप्यनिस्यः | कथम् |
भन्यस्व कृते शोषे परागोस्यन्यस्याकृते शब्दान्तरस्य च प्रापुवन्षिधिरनित्यो भवति ।
भनवकारास्तर्िं लुक् । षावकाश लुक् । को अवक्राशः | अवशिष्टः | अथापि ४
कयविदनवकाशो लुक्स्यादेवमपि न दोषः । अल्लोपे योगविभागः करिष्यते |
भतो लोपः | ततो यस्य | यस्य च लोपो भवति | अत इत्येव | किमथमिदम् |
ठकं वक्ष्यति तद्वाधनार्थम् | ततो हलः.। हल उन्तरस्य च यस्य रोपो भवतीति ।
इहापि तई परत्वाद्योगविभागाहा लोपो लुकं वधेत | कृष्णो नोनाव वृषमो . यदी-
दम् | नोनूयतेनोनाव | समानाभ्रयो लुग्लोपेन वाध्यते । कथ समानाभयः | यः 10
प्रत्ययाश्रयः | अत्र च प्रागेव प्रत्ययोरत्तेगभवति || कथं स्यदः प्रश्रयः हिमन्नथः
जीरदानुः निकुचित इति ।
उक्तं शोषे ॥ ८ ॥|
किमुक्तम् | निपातनास्स्यदादिषु | प्रस्ययाभ्रय्वारन्यत्र सिद्धम् । रकं ज्यः
भसारणामिति । निकुचिते प्युक्तं संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तङिषातस्येति†|| 18
किति च ॥ १।१।५ ॥
किति प्रतिषेधे तन्निमित्तग्रहणम् ।॥ ९॥
क्ति प्रसतिषेषे तत्निमित्तम्रहणं करतेष्यम् | कत्तिमित्ते ये गुणवृद्धी प्राभुतस्ते न
भवत इति वक्तव्यम् ॥| किं भरयोजनम् | |
उपधारोरवीव्य्थेम् ॥ २॥ . 20
उपरभथे रोरवीत्यथे च | उपधाथे तावत् | भिक्तः भवानिति | किं पनः
कारणं न स्तिभ्यति | कती्युच्यते । तेन यत्र कत्यनन्तरो गुणम्भाव्यस्ति तत्रैव .
स्यात् | चितम् स्तुतम् । इह तु न स्वात् | मित्तः भिन्नवानिति || ननु च यस्यं शृण
रच्यते तत्कित्पंरत्वेन विशेषयिष्यामः । पुगन्तलघुपधस्य च गुण उच्यते ' तश्मत्र
करिखरम् । पुगम्तकघुपधस्थेति नैवं विज्ञायते पुगन्तस्वाङ्गस्य लघुपधस्य चेति | कथं 5
* २.४. ४. ` ¶†\. ९. ३९, । { *. ३, ८६.
५४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [म०९.९. ४
तर्हि | पुक्यन्तः पुगन्तः । रष्व्युपधा ठषुपधा | पुगन्तथ लघुपधा च पुगन्तलघुपधं पुग-
म्तकघुपधस्येति। भवद्यं वैतदेवं विज्ञेयम् । अङ्गविहोषणे हि सतीह प्रसज्येत ] भिनत्ति
शिनन्ीति |} रोरवीत्यथे च | ्रिधा बद्धो वृषभो रोर वीति || यदि तत्चिमित्त्रहणं क्रि-
मते शचडन्ते दोषः | रियति पियति धियति | प्रादुदरुवत् प्राखसुवत् । अत्र प्रामोति।
ॐ वावङन्तस्यान्तरङ्गलक्षणत्वात् ॥ ३ ॥
अन्तर द्ःलक्षणत्वावत्रेयङ्वडोः कृतयोरनुपात्वाहुणो न॒ भविष्यति | शवं
क्रियते चेदं तन्निमित्तप्रहणे न च कथिहोषो भवति || इमानि च भूयस्तच्चिमित्तम्रहण-
स्य प्रयोजनानि | हतः हथः उपोयते ओौयत लोयमानिः - वैयमानिः नेनिक्त इति |
त्रैतानि सन्ति प्रयोजनानि । इह तावत् हवः हथ इति प्रसक्तस्यानमिनिर्व-
10 स्य प्रतिषेधेन निवृत्तिः हाक्या कतुमन्र च धातुपदेशावस्थायामेवाकारः ॥
इह चोपोयते ओयत लौयमानिः पीयमानिरिति बहिरङ्गे गुणवदधी अन्तरङ्गः
प्रतिषेधः | असिद्धं बहिरद्गमन्तर द्ग || नेनिक्त हति परेण रूपेण व्यवहितत्वाच्र
भविष्यति || उपधार्थन तावन्नार्थः | धातोरिति वतेते | धातुं कत्परत्वेन विशेषयि- `
भ्वामः | यदि धातुर्धिशेष्यते विकरणस्य न प्रामोति । चिनुतः छनुतः लुनीतः पु-
१5 नीत इति । पैष दोषः | विहितविशेषणं धातुग्रहणम् | धातोर्यो विहित इति । धातो-
रेव तरि न प्रामोति | वैवं विज्ञायते धातो्विितस्य कितीति । कथं ताहि | धातोरिति
ङ्केतीति || भथवा कार्यकालं हि संज्ञापरिभाषं यत्र कायै तत्र द्रष्टव्यम्] पुगन्तलघूप-
धस्य गुणो भवतीद्युपस्थितमिदं भवति क्ति नेति || अथवा धदेतस्मिन्योगे कद्हणं
तदनवकाशं तस्यानवकारास्वादुणवृद्धी न भविष्यतः || अथवाचायेपरवृत्तिज्ञोपयति भ-
20 वत्युपधालक्षणस्य गुणस्य प्रतिषेध इति यदयं ्रसिगधिधुषिक्िपिः क्रुः | ३.२.१९४ ०|
इको ्ल्दलन्ता्च [ १. २. ९; ९०] इति क्रुसनौ कित करोति । कथं
कृत्वा ज्ञापकम् | कित्करण एतत्पयोजनं गुणः कथं न स्यादिति | यदि चान्न
गुणप्रतिषेधो न ॒स्यात्कित्करणमनर्थकं स्यात् | परयति त्वाचार्यो भवस्युष-
धालक्षणस्य प्रतिषेध इति ततः क्तु सनौ कितौ करोति || रोरवीस्यर्थनापि नार्थः |
5 कितीस्युच्यते न चात्र कतं पररयामः | प्रत्ययलक्षणेन प्रामोति† | न लुमता तस्मि-
शिति प्रत्यवरक्षणपरतिषेधः | अथापि न लुमताङ्गस्येस्युच्यते । एवमपि न रोषः ]
कथम् | न लुमता लुपरऽङ्गाभिकारः प्रतिर्निदिरयते | किं तई | यो ऽसौ लुमता लुप्यते
तस्मिन्यद्गे तस्य यत्कार्यं तच्च भवतीति | भयाप्यङ्काधभिकारः परतिनिर्दिरयते 1 एव-
# ७, ४, ७५, † ९.९. ६३; -६३.
पाज ९, ९. ६. । ॥ ष्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ५५
मपि न दोषः | कथम् | कार्यकारं हि संज्ञापरिभाषं यत्र कयि तत्र ब्रटव्यम् |
स्रर्वधातुका्षातुकयो गुणो भवतीस्युपस्थितमिदं भवति कति नेति || अथवा
शन्दसमेतदृष्टानुविधिथ च्छन्दसि भवति || अथवा बहिरङ्ग गुणो ऽन्तर ङ्गः प्रतिषेषः।
भसिद्धे बहिरङ्गमन्तरङ्गे || अथवा पूवैस्मिन्योगे यदाषधातुकम्रहणं तदनवकाङं `
तस्यानवकाश्चस्वाद्ुणो भविष्यति ॥ °
इह कस्मान्न भवति | ऊेगवायनः* कामयते |
तद्धितकाम्योरिक्परकरणात् ।। ४ ॥
इग्लक्षणयोर्गुणवृद्योः प्रतिषेधो नं चैते इग्लक्षणे |
लकारस्य डन्वादादेशेषु स्थानिवद्धावप्रसङ्कः | लकारस्य डिन्वादादेशेषु स्था-
निवद्धावः प्राभोति | अचिनवम् अदनवम् अकरवम् । 10
लक्रारस्य डिच््वादादेशेषु स्थानिवद्धावभसङ इति वेद्यासुटो डिद्रवना-
| स्सिद्म् । ९॥
यदयं याटो उिहचनं शास्ति तजक्ञापयरयाचार्यो न डिदादेशा ङितो भवन्ती-
ति } यद्येतञज्ञाप्यते कथं नित्यं डतः [३.४.९९] इतथ [१००] इति | डि
तो यत्काय तद्वति डिति यत्कायै तन्न ` भवतीति| किं वक्तव्यमेतत् | न हि | 15
कथमनुच्यमानं गंस्यते | याट एव डिह चनात् | भपर्याप्रथैव हि याट् समु-
दायस्य छिव छितं वैनं करोति । तस्थैतस्मयोजनं रितो यत्काय तद्यथा स्यात् |
डिति यत्काय तन्मा भूदिति.॥ |
दीधीवेवीटाम् ॥ १.।१।६ ॥ `
कि मथेमिदमुस्यते । गुणवृद्धी मा भूतामिति | भादीभ्यनम् भादीध्यकः | 9
.भावेन्यनम् भआवेव्यक इति ।| भवं योगः शाक्यो ऽकरम् । कथम् |
दीधीवेव्योगछन्दोविषयस्वादष्टानुविधित्वा्च च्छन्दसो ऽदीधेददीधयुरिति
च गुणदरानादपतिषेधः ॥ ९ ॥
रीधीवेव्योरढन्दोविषयत्वात् | दीधीवेष्यौ छन्दोविषयैौ | शृ्टानुविधिखाच च्छ-
ण्रसः | दृष्टानुविधिश्च च्छन्दसि भवति । भदीषेददीधयुरिति च गुणस्य ददोनादम-.2ः
# , 8१ ९, ९९३ । इ ४. १,४६.५ १ २. ९,० २० > छ» ४९ ९९६० * ` 4 (4 ढै. ६,०२०
4. ॥ व्याकरभ पहामाच्यय ॥ ` [म०९.९१.४.
तिषेधः | अनेकः प्रतिषेपो प्रतिषेधः । प्रजापतिर्वै यत्किचन मनसादीषेत् । होत्राय
:वतः कृपयच्रदीधेत् ] अदीधयुदौश्राज्ञे वृतासः ॥ . भवेदिदं युक्तमुदाहरणम्
अदीधेदिति | हदं त्वयुक्तम् अदीधयुरिति । भयं जुसि गुणः* प्रतिषेधविषय
आरभ्यते | स यथैव कति नेव्येतं प्रतिषेधं वाधत एवमिममपि वाधते । नैष दोषः ।
` 5 जुसि गुणः प्रतिषेधविषय आरभ्यमाणस्तुल्यजातीयं प्रतिषेधं वाधते । कथ तुल्यः
जातीयः प्रतिषेधः । यः प्रत्ययान्नयः । प्रकृस्याश्रयभ्रायम् |. अथवा येन नापर
तस्य वाधनं भवति | न चाप्रापरे कति नेव्येतस्मिन्प्रतिषेषे- जुति गुण आरभ्यते ।
अस्मिन्पुनः प्राप्रे चाप्राप्रे च || यदि तद्येयं योगो नारभ्यते कथं दीध्यदिति |.
दीध्यदिति रयन्व्यतव्ययेन ॥ २॥
10 दीध्यदिति इयन्नेष व्यत्यग्रेन भविष्यति ॥
हृटसापि महणं शक्यमकर्तुम् । कथमकणिषम् अरणिषम् कणिता च; रणिता
श्च इति । आर्पधातुकस्येडुलादेः [७.२.३९] इस्यत्डिति वैमानि पुनरि इहणस्व
प्रयोननमिंडेव यथा स्याश्दन्यत्राभोति तन्मा. भूदिति । किं चान्यतमा्रोतिः । गुणः ।
यारि नियमः क्रियते पिपरिष्तेरभत्ययः. पिपदीः दीर्षव्वं‡ न प्राणोति । तष
15 दोषः | आङ्गं यत्काय तन्नियम्यते न चैतदाङ्गम् । भथवासिदधं दीर्घत्वं वस्याधिड-
त्वा्ियमो न भवति ॥
हरो ऽनन्तराः संयोगः ॥ १५ । १ । अ ॥
भनन्तरा इति कथमिदं . विज्ञाते | अविश्यमानमन्तरमेषामिति । भाहोस्विर-
विद्यमाना भन्तरैषाभिति । किं चातः । यदि विज्ञायते अविद्यमानमन्तरमेषाभित्य-
-20.वम्रहे संयोगसंज्ञा न प्राभोवि | अप् स्वित्यस्स्विति | विते हयक्रान्तरम् | अथ विज्ञा-
यते अविद्यमाना अन्करेषामिति न दोषो भवति । यथा न दोषस्तथास्तु ¡ अथक
पुत्तरस्त्वविद्यमानमन्तरमेषाभिति |. नन् चोक्तमवमरहे संयोगसंज्ञा न प्राप्रोति. जप्
स्वित्यस्स्विति विद्यते छत्रान्लरमिति | नैव दोषो न प्रयोननम् |
संयोगसंज्ञायां सह क्वनं यथान्यत्र ॥ ९ ॥
25 संयोगसंश्चायां सहग्रहणं कतेव्वम् | दलो ऽनन्तराः संयोगः सहेति वक्तव्यम् |
५ क ५ ढे, <दे. * “ + 4 4 | ५, २.०.८११ = 4 ८०, ॐ ६, 9 +
म ° ९२.९...] ॥ व्याकरणप्हाभाष्यय् ॥ ५७
किं प्रयोजनम् | .सह भूतानां संयोगसंज्ञा यथा स्यादेकैकस्य मा भूदिति । यथान्यत्र |
तयथान्यज्रापि यत्रेच्छति सभूतानां कथि करोति तत्र सहम्रहणम् । त्या | सद
छपा [२.१.४] | उमे भभ्यस्तं सहेति" । किं च स्वाद्यथेकैकस्य हलः संयोगसंज्ञा
स्रात् | इह निर्यायात् निवौयात् वान्यस्य संयेगादेः [६.४.६८] हत्येस्वं प्रस-
ञ्धेत | इह च संहषीरेव्य॒तथ संयोगादेः [७. २.४३] इतीट् प्रसज्येत । हह च स॑हि- &
यत इति गुणे ऽर्विघंयोगा्योः [७.४.२९ | इति गुणः प्रसज्येत | इह च दृषत्करोति
सभित्करोतीति संयोगान्तस्य लोपः प्रसज्येत | इह च शक्ता वस्तेति स्कोः संयो-
गादोः [८.२.२९] इति लोपः प्रसज्येत | इह च नि्यौतः नि्वतः संयोगदि -
रातो धातोर्यण्वतः [८.२.४३] हति निष्ठानत्वं प्रतज्येत || वैष दोषः | यलावदु-
स्यत इह तावन्नियौयात् नि्वीयात् घ्रान्यस्य संयोभादेरिव्येत्वं प्रसज्येतेति नैवं वि- 10
श्ञायते संयोग आदिर्यस्य सो ऽयं संयोगादिः संयोगादेरिति | कथं ताह | संयोगा-
वादी यस्य सो अयं संयोगादिः संयोगादेरिति । एवं तावत्सवमाङ्ग परितम् ॥
चरप्युच्यत इह॒ च दृषत्करोति समित्करो तीति संयोगान्तस्य लोपः प्रसज्येतेति
नैतं विज्ञाते संयोगो ऽन्तो यस्य तदिदं संयोगान्तं संयोगान्तस्येति } कथं- तर्हि |
संयोगावन्तावस्व तदिदं संयोगान्तं संयोगान्तस्येति | यदप्युच्यत हह च शक्ता 15
वस्तेति स्कोः संयोगाथोरन्ते चेनि लोपः प्रसज्येतेति नैवं विक्च।यते संयोगावादी
संयरोगादी संयोगाद्योरिति | कथं तई | संयोगयोरादी संयोगादी संयेगद्ोरिति |
यद्युच्यत इह च नियतः निवोत इति संयोगदेरातो भातोर्यण्वत इति निष्ठानत्वं
प्रतज्येतेति नैवं विज्ञायते संयोग अगियेष्य सो ऽय॑ संयोगादिः संयोगारेरिवि |
कथं ताईं । संप्रोगःवादी यस्यः से ऽयं संयोगादिः संयेगदेरिति || कथं कृत्वैफै- 20
कस्य संये।गसंज्ञा प्रामोति । प्रत्येकं वाक्यपरिसमापिदृष्टेति । तथ्थथा । वृद्धिनुणसंत
पव्येकं भवतः | ननु चायमप्यस्ति दृष्टान्तः समुदाये वाक्य परिखमाप्रिरिति | तथथा |
गगौः दातं दण्डच्न्तामिति । अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं
दण्डयन्ति । सत्येतस्मिन्दृष्टान्ते यदि तत्र प्रत्येकमित्युच्यत इहापि सहम्रह्ण॑कर्व-
अयम् | अथ तत्रान्तरेण प्रत्येकमिति वचने प्रस्येकं वृद्धिगुणसंन्ने भवत इहापि नार्थः ‰
सहमदणेन ॥
अथ यत्र बहूनामानन्तये क तत्र इयोदयोः संयेगसे स्ता भवस्याह्येस्विदविशेषेण |
कथात विक्रोषः |
8 शि
भवः "1. व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ । ` मि००९.९.४.
समुदये संयोगादिखोपो मस्जेः ।। ५॥
समुदाये संयोगादिलोपो मस्जेने सिध्यति । मङ्गा मङ्म्* | इह च निर्ग्ेयात्
नती "चतौ
= ।
निग्लोयात् निर्यात् निम्लोयात् वान्यस्य संयोगादेरिस्येत्वं न प्रभोति | इह च
संस्वरिषीष्ेत्यतथ संयोगादेरितीण्न प्राभोति । इह च संस्वयेत इति गुणो अर्विसंयो-
&गाद्योरिति गुणो न प्रामोति | इह च गोमान्करोति यवमान्करोतीति संयोगान्तस्य
लोप इति लोपो न प्राप्रोति । इश च निग्कोनः निम्लोन इति संयोगादेरातो धातो-
यैण्वत इति निष्ठानत्वे न प्राभोति ॥ अस्तु तर्हि हयोदेयोः संयोगः |
| दयोर्हलोः संग्रोग इति चेद्धर्वचनम् || ३ |
हयोरेलोः संयोग इति चेद्धिवैचनं न सिध्यति | इन्द्रमिच्छति इन्द्रीयति ।
10 इन्द्रीयतेः सन् इन्दिद्रीयिषति | न न्द्राः संयोगादयः [६.९.३२] इति दकारस्य
दिव॑चनं न प्रामोति ||
न वाज्विधेः ॥ ४॥
न वैष दोषः | कि कारणम् | अज्विभेः | न्द्राः संयोगादयो न द्िरुच्यन्ते |
अजादेरिति वतेते† ॥ अथ यद्येव बहूनां संयोगसंज्ञाथापि इयेदैयोः किं गतमेत-
15 दियता ` दुतरेणाह्यंस्विदन्यतरस्मिन्प्षे भूयः खत्रं कतेव्यम् | गतमित्याह | कथम् |
यदा तावद्वहूनां संयोगसंज्ञा तदैवं विमरहः करिष्यते । अविद्यमानमन्तरमेषा-
भिति । यदा इयोद्वयोस्तेेवं विमदः करिष्यते | अविद्यमाना अन्तरैषामिति |
हयोैवान्तरा कथिदिद्यते वा न वा| एवमपि बहूनामेव प्रामोति | यान्हि भवानत्र
पश्या प्रतिनिर्देशाव्येतेषामन्येन व्यवाये न भवितव्यम् | अस्तु तर्हिं समुदाये संज्ञा |
20 ननु चोक्तं समुदाये संयोगादिलोपो मस्जेरिति | त्रैष देषः । वश्यव्येतत् । अन्त्या-
सपव मस्जेर्भिदनपषदङ्गसंयोगादिलोपायेमिति; || अथवाविरेषेण संयोगसंज्ञा विज्ञास्यते
हयोरपि बहुनामपि । तत्र योयो संयोगसंज्ञा तदाश्रयो रोपो भविष्यति || यदप्यु-
च्यत इह च निर्ग्लेयात् निग्लौयात् निरम्तेयात् निम्लौयात् वान्यस्य संयोगादेरिव्येस्वं
न प्रापरोतीत्यद्भेन संयोगादिं विशेषयिष्यामः । अङ्गस्य संयोगदेरिति | एवं
25 तावत्सर्वमाद्खं परिहतम् | यद्युच्यत इह च गोमान्करोति यवमान्करोतीति
संगोगान्तस्य लोप इति लोपो न प्रातीति पदेन संयोगान्तं विशेषयिष्यामः |
पदस्य संयोगान्तस्येति || यदप्युच्यत इह च निर्लानः निर्न इति संयोगादेरातो
# ७. 2. ६०; ८, २. ८९, † ६.१. २,
‡ १.९. ४७९.४
पा०१.९.८. | ॥ व्वाकरणमहभिाष्यम् ॥ ५/९
धातोयेण्वत इति निष्ठानत्वं न॒ भ्रामोतीति धातुना संयोगादिं विदरोषयिष्यामः |
धातोः संयोगादेरिति ॥
स्वरानन्ताहितवचनम् ॥ ९ ॥
स्वहैरनन्तर्दिता दलः संयोगसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम् | किं प्रयोजनम् | व्यव-
हितानां मा भूत् | पचति पनसम् | ननु चानन्तरा इत्युच्यते तेन व्यवहितानां न ॐ
भविष्यति |
दृष्टमानन्तयै व्यवहिते अपि । & ॥
व्यवहिते ऽप्यनन्तर शब्दो दृदयते । तद्यथा । अनन्तराविमौ प्रामावित्युच्यते
तयोभैवान्तरा नद्य पवेताश्च भवन्ति | यदि त व्यवहिते ऽप्यनन्तर ब्दो भव-
त्यानन्त्यैवचनमिदानीं किमर्थं स्यात् | 19
आनन्तर्यवचनं किमर्थमिति चेदेक प्रतिषेधार्थम् ॥ ७ ॥
एकस्य दलः संयोगसंज्ञा मा भूदिति | किं. च स्याद्यश्चेकस्य हलः संयोगसंश्चा
स्यात् | इयेष उवोष | इजादे गुङमतो अनृच्छः [३.१.३६ | इव्याम्परसज्येत ||
न वातज्जातीयनव्यवायात् | ८ ॥
न तरैष दोषः | किं कारणम् | अतज्नातींयस्य व्यवायात् | अतज्नातीयर्कै हिं 15
तोके व्यवधायकं भवति | कथं पुनज्ञीयते ऽतज्नातीयकं लोके व्यव धायकं भवतीति।
एवं हि कंचित्कित्पृच्छति | अनन्तरे एते ब्राह्मणकुले इति । स आह | नानन्तरे
वृषलकु लमनयोरन्तरेति | किं पुनः कारणं कचिदतज्जातीयकं व्यवधायकं भवति
कचिच्न | सवैत्रैव ह्यतञ्जातीयकं व्यवधायकं भवति । कथमनन्तराविमी भामाविति |
ग्रामशब्दो ऽयं बहर्थः | अस्त्येव शालासमुदाये वतेते. । तद्यथा | भामो दग्ध हति | 20
भस्ति वाटपरिसेषे वतैते | तद्यथा । सामं प्रविष्ट इति | अस्ति मनुष्येषु वतेते | तद्यथा |
यामो गंतो माम आगत इति | असि सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके वतेते | तद्यथा |
ग्रामो रब्ध इति | तद्यः सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके वतैते तमभिसमीकष्थैतस-
युज्यते ऽनन्तरा विभी मामाविति | सर्वत्रैव ्यतज्जाीयकं व्यवधायकं भवति ||
मुखनासिकावचनो ऽनुनासिकः ॥ ९.।१। ८॥ ९
किमिदं मुखनासिकावचन इति । मुखं च नासिका च मुखनासिकम् | मुख-
४ ॥ व्याकरगमहबाच्यम् | | । म ० ९.९.४.
नासिकं वचनमस्य सो ऽय॑ मुखनासिकावचनः | यद्येवं मुखनासिकवचन इति
भामति | निपातनाहीर्ैत्वं भविष्यति || अथवा मुखनासिकमाव चनमस्य सो ऽवं मुख-
नाक्िकावचनः | भथ किमिदमावचनभमेति | हषहचनमावचनं किचिन्मुखवचनं
किंचिन्नासिकावचनम् || मुखदहितीय। वा नासिका वचनमस्य सो ऽयं मुखनासिका-
5 वचनः | मुखोपसंहिता वा नासिका वचनमस्य सोऽयं मुखनासिकावचनः || अय
मुखग्रहणं किमथेम् । नासिकावचनो अनुनासिकं इतीयत्युच्यमाने यमानुस्वाराणाभेव
प्रसज्येत | मुखग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || अथ नासिक(भ्रहणं किमयेम्।
मुखवचनो अनुनासिक इतीयरयुच्यमाने कनचटतपानामेव प्रसज्येत | नासिकाभ्रहणे
पुनः क्रियमणे न दोषो भवति || मुखम्रदणं शक्यमकतुम् | केनेदानीमुभयवचनानां
10 भाविष्यति । प्रासादवासिन्यायेन | तद्यथा । केचिसासाद वासिनः केचिदध[मिवासिनः
केचिदुभयवासिनः | ये प्रासादवासिनो गृद्यन्ते ते प्रासादवासिम्रहणेन । ये भूमि-
यासिनो गृद्यन्ते ते भूमिवासिब्रहणेन | य उभयवासिनो गृद्यन्ते ते प्रासादवासिग्रहणेन
भूमिवासिम्रहणेन च | एवमिहापि के चिन्मुखवचनाः केचिन्नातिकवचनाः केचिदुभ-
यवचनाः | तत्र ये मुखवचना शृयन्ते ते मुखम्रहणेन । ये नाक्षिकावचना-गृ्यन्ते ते
15 नासिकाम्रहणेन | च॒ उभववचना गृद्यन्त एव ते मुखमरहणेन नासिकाग्रहणेन च |
भवेदुभयवचनानां तिद्धं यमानुस्वाराणामपि प्राभोति । नैव दोषो न. प्रयोजनम् ||
इतरेतराश्रयं तु भवति । केतरेषराभ्रयता | सतो अनुनासिकस्य संज्ञया भधितव्यं संज्ञया
च नामानुनासिको भाव्यते तदितरेतराश्रयं भवाति | इतरेतरान्रयाणि च कायोागि
न प्रकल्पन्ते । `
20 अनुनासिकसंज्ञायाभितरेतराभ्रय उक्तम् ॥ ९॥
किमुक्तम् | सिद्धं तु निस्यशम्दत्वादिति' । नित्याः शम्दा निस्येषु च शब्देषु
सतो अनुनासिकस्य संज्ञा क्रियते न संज्ञयानुनासिको भाव्यते | यदि तार्हि निष्यः
राब्दाः किमथे. राखम् | किमथे शाखमिति वेन्निवतेकत्षास्सिडधम् | निवतैकं
राखम् । कथम् । आङस्मा अविषेषेणोपदिष्टो ऽननुनासिकः । तस्य सवैत्राननुना-
९ तिकबुद्धिः प्रसक्ता | तत्रानेन निवृत्तिः (क्रियते | छन्दस्यचि परत आडो ऽननुना-
सिकस्य प्रसङ्गे अनुनासिकः साधुभवतीति। |
॥
०९.९.११ † ९. ९. १२६.
पाण ९.९.९. | ॥ व्याकरणहाभाष्यम् ॥ ६९
तुस्यास्यप्रयलं सवर्णम् ॥१६।१।९.॥
तुल्या संमितं तुल्यम् । आस्यं च परयलथास्यप्रयलम् । तुल्यास्यं तुल्यप्रयलं
घ सवणे भवति || (कै पुनरास्यम् | रीकिकमास्यमीष्ठाखभृति पराङ्काकलकात् |
कथं पुनरास्यम् | अस्यन्त्यनेन वणोनित्यास्यम्। मत्तमेतदास्यन्दत इति वास्यम् ॥
अथ कः प्रयलः | प्रयतनं प्रयलः | प्रपवौद्यततेभोवसाधनो नउप्रत्ययः || यदि 5
ककिकमास्वं किमास्योपादाने प्रयोजनं सर्वेषां हि तत्तुल्यं भवति | वक्ष्यत्येतत् |
प्रयत्रविरोषणमास्योपादानमिति ॥
सवणेसंज्ञायां भिन्नदेदोष्वतिप्रसङ्गः प्रयलसामान्यात् ॥ ९ ॥
सवणेसंज्ञायां भित्रदे शेष्वतिप्रसद्धो भवति | ज बग ड दशाम्। किं कारणम्|
प्रयल्रसामान्यात् | एतेषां हि समानः प्रयलः ॥ 19
सिद्धं त्वास्ये तुल्यदेद्राप्रयलं सवणेम् ॥ २॥
सिद्धमेतत् । कथम् । शस्ये येषां तुल्यो देशः प्रयल्लशं ते सत्रणसंज्ञा भव-
नीति वक्तव्यम् | एवमपि किमास्योपादाने प्रयोजनं सर्वेषां हि तत्तुल्यम् | प्रय-
लविदोषणमास्योपादानम् । सन्ति ्यास्याद्वाद्याः प्रयलाः । ते हापिता भवन्ति |
तेषु सत्स्वसस्स्वपि सवणेसंज्ञा सिध्यति | के पुनस्ते | धिवारसंवारौ | श्वासनादौ | 1
षोषवदघोषता । अल्पप्राणता महाप्राणतेति । तश्र वगोणां प्रथमदितीया विवृत-
कण्ठाः श्वासानुप्रदाना अघोषाः | एके ऽल्पप्राणा अपरे महाप्राणाः | तृतीयचतुथौः
संवृतकण्डा नादानुप्रदाना घोषवन्तः । एके ऽल्पप्राणा अपरे महाप्राणाः | यथा तृती-
यास्तथा पत्चमा भआनुनासिक्यवजम् । आनुनासिक्ये तेषामधिको गुणः ॥ एवम - .
प्यवणैस्य सवणेसंज्ञा न प्रामोति । किं कारणम् | बाद्यं॑द्यास्यास्स्थानमवणैस्य | 20
सवैमुखस्थानमवणेमेक इच्छन्ति | एवमपि भ्यपदेश्ो न प्रकल्पत आस्ये येषां
तुल्यो देश इति । व्यपदेशिवद्भावेन व्यपदेशो भविष्यति । िभ्यति | खतं ताह
भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं सवणेसंज्ञायां भित्तदेरोष्वतिप्रसङ्धः प्रय-
सामान्यादिति । नैष दोषः | न हि रीकिकमास्यम् | किं तरि | तडधितान्त- »
मास्यम् | आस्ये भवमास्यम् । शरीरावयवाद्यत् [ ९.१.६ | | किं पुमरास्ये
भवम् । स्थानं करणं च | एवमपि प्रयतो अविषेषितो भवति | प्रयलश्च विशे-
पितः | कथम् | न हि प्रयतनं प्रयलः | किं तर्हिं | प्रारम्भो यलस्य प्रयः |
६२ ॥ व्याकरणय्हाभाष्यम् | [म ९.९.५४.
यदि प्रारम्भो यलस्य प्रयत्न एवमप्यवणेस्य एडोश्च सवणेसंज्ञा प्रामोति । प्रधिश-
व्णीवेती । भव्णस्य तर्धैचो् सवणेसंज्ञा प्रामोति । विवृततरावणौवितौ | एतये।रेव
तई मिथः सवणैसंज्ञा परामोति । नेती तुल्यस्थानी | उदात्तादीनां ताहे सवणेसंज्ञा न
प्राप्रोति । अभेदका उदात्तादयः || अथवा किंन एतेन प्रारम्भो यलस्य प्रय इति।
5 प्रयतनमेव प्रयलस्तदेव च तद्धितान्तमास्यम् | यत्समानं तदाश्रयिष्यामः | ई
सति भेदे. । सतीत्याह । सत्येव हि भेदे सवणेसंश्ञया भवितव्यम् । कुत॒ एतत् ।
मेदाधिष्टाना हि सवणेसंज्ञा | यदि हि यत्र सवे समानं तत्र स्यात्स वणेसंज्ञावचन-
मनथकं स्यात् | यदि तर्हि सति भेदे किचिस्समानमिति कृत्वा सवणेसंज्ञा भवि-
ष्यति हाकारछकारयोः षकारठकारयोः सकारथकारयोः सवणेसंज्ञा प्राभाति |
10 एतेषां हि सर्वेमन्यत्समानं करणवजैम् || एवं ताहि प्रयतनमेव प्रयलस्तदेषव च त-
दितान्तमास्यं न स्वयं इन्द्र भास्यं, च प्रयलशचास्यप्रयलमिति । किं तई । त्रिपदो
ऽयं बहृत्रीहिः । तुल्य आस्थे . प्रयल एषामिति || भथवा पूवैस्तस्पुरुषस्ततो बह -
व्रीहिः । तुल्य आस्ये तुल्यास्यः | तुल्यास्यः भ्रयल एषामिति 1 अथवा परस्त-
सपुहषस्ततो बहू्रीहिः | आस्ये प्रयल आस्यप्रयललः | तुल्य आस्यप्रयल एषामिति ॥
15 ` . वस्य | तस्येति. तु वक्तध्यम् | किं प्रयोजनम् | यो यस्य ॒तुल्यास्यप्रयलः स
तस्य सवणेसंश्ञो. यथा स्यात् | अन्यस्य तुल्यास्यप्रयल्लो ऽन्यस्य सवणसंज्ञो मा भूत् |
तस्यावचनं वचनप्रामाण्यात् ॥ ३ ||
तस्येति न वक्तव्यम् } अन्यस्य तुल्यास्यप्रयलो ऽन्यस्य सवणेसंज्ञः कस्मान्न
भवति | वचनभामाण्यात् ¡ सबणैसंज्ञावचनसामथ्यात् । यरि ह्यन्यस्य तुल्यास्यप्र-
0 यलो ऽन्यस्य सव्णेसंज्ञः स्यात्सवणेसंज्ञावचनमनयकं स्यात् ॥
संबन्धि रद्वा तुल्यम् ।। ४ ॥
सं बन्धिशब्दैवौ पुनस्तुल्यमेतत् । तद्यथा सं बन्धिराब्दाः । मातरि वर्तितव्यं पि-
तरि भुभरूषितव्यमिति । न चोच्यते स्वस्यां मातरि स्वास्मिन्वा वितरीति संबन्धा-
देतहस्यते या यस्य माता यश्च॒ यस्य पितेति | एवमिहापि तुल्यास्यप्रयलं सवणै-
25 मित्यत्र संबन्धिहाम्दायेती । तत्र संबन्धादेतहन्तव्यं यत्ति यन्तुल्यास्यप्रयलं तस-
ति तत्सवणेसंज्ञं भवतीति ।|
ककारलकारयोः सवणविधिः ॥ ९ ॥
ककारक्कारयोः सवणेसंज्ञा विपेया । होतृ लकारः होतृकारः | किं भरयो-
पा० १,१.९०. | ।। व्याकरणम्रहाभाष्यपर ॥| ` ६३
ननम् | अकः सवर्णे दीः [६. ९. १०९] इति दीधेष्वं यथा स्यात् । नैतदस्ति
प्रयोजनम् | वक््यत्येतत्* | सवणैदीधेत्व ऋति क्रवावचनमुति क्षुवावचनमिति | तस्स-
वै यथा स्यात् | हह मा भूत् दध्य॒कारः मध्व कार इति | यदेतस्सवणेदीधत्व ऋ-
तीव्येतदरत इतिं वक्ष्यामि | तत कति | चकारे च वा छु भवति| करत इत्येव | तत्न वक्त-
व्यं भवति । अवरयं तद्क्तव्यम् | ऊकालो ऽज्यस्वदीषेश्ुतसं ज्ञो भवती त्युच्यते† न ॐ
च ऋकार हृकारो वाजस्ति | ऋकारस्य ष्व कारस्य चाच्त्वं वक्ष्यामि । तच्ावरयं व क्त-
व्यं श्रुतो यथा स्यत् | होतृ ऋकारः होतृक्रारः होतृकारः होत लकारः होतुकारः
हो त॒रेकारः | किं पुनरत्र ज्यायः | सवणैसंज्ञावचनमेव ज्यायः | दीधस्वं चैव हि
सिद्धं भवति | अपि च ऋकारम्रहण ठकारम्रहणे संनिहितं भवति | यथेह मवति |
ऋत्यकः [६. ९. ९२८ | खट ऋदयः माल ऋदयः | इदमपि संगृहीतं भवति | 10
खदु ककारः माल ककार इति | वा खप्यापिहारेः [६. ९. ९२] उपकोरीयति `
उपाकरीयति । इदमपि सिद्धं भवति | उपल्कारीयति उपाल्कारीयति | यदि
त्धुकार्हण लकारयहणं संनिहितं भवल्युरप्रपरः [१. ९. ५१] लकारस्यापि
रपरत्वं प्रामोति | छकारस्य ऊपर त्वं वक्ष्यामि | तच्चावदयै वक्तध्यमसल्यां सव-
णैसंज्ञायां विधभ्यथेम् । तदेव सरयां रेफवाधना्थे भविष्यति ॥| इह तरं रषाभ्यां 15
नो णः समानपदे |८. ४. ९ | इत्यृकार ग्रहणं चोदितं मातृणाम् वितृणामित्येवम-
थेम् | तदिहापि प्रामोति । कुप्यमानं पर्येति । अथासत्यामपि सवणेसंज्ञायामिह
कस्मान्न भवति | प्रकुप्यमानं परयेति । चुदुतुलव्यैवाये नेति वक्ष्यामि । अपर
आह | | |
त्रिभिश्च मध्यनेवैर्गैंशतैशच व्यवायेन ` २७
इति वदेयामीति । वर्णकदेशाथ्च वणग्रहणेन गृद्यन्त इति यो ऽसावृकारे ठका-
रस्तदाभ्रयः प्रतिषेधो भविष्यति । यदेवं नार्थो रषाभ्यां णत्व कऋकारमहणेन ।
वर्श कदे शाश्च वणेमहणेन गृह्यन्त इति यो ऽसावृकारे रेफस्तदाभ्रयं णत्वं भविष्यति ||
नाज्यटी ॥२।१।१०॥।।
अञ्चछरोः प्रतिषेधे शाकारपतिषेपो उद्मल्त्वात् ॥ १॥ ` %
भज्छलोः प्रतिषेषे दकारस्य शकारेण सव्णसंज्ञायाः प्रतिषेधः प्राप्रोति | कि
# ६, १, ९०३१. †+ १,,२. २७. | { ८, ५.२९,
६४ ॥ व्याकरणपहाभाष्यम् 7 : [म०९.१.४.
कारणम् | भज्छल्स्वात् | अश्चैव हि हकारो हल्व | कथं तावद्स्त्वम् | इकार
स वणेमहणेन हाकारमपि गृह्णातीत्यच्त्वम् | हल्षु पदे दा डल्त्वम् || तत्र को दोषः |
तत्र सवणखोपे दोषः ॥ ।।
तत्र लवणैतोपे दोषो भवति | परदशातानि* कायौणि | चरो चरि स्वर्ण
ऽ [८.४.६९ | इति लोपो न प्रामोति |
सिङ्मनच्छ्वात् | ३ ॥
सिद्धमेतत् | कथम् । अनच्त्वात् | कथमनश्त्वम् । स्पष्टं स्पश्चोनां करणम् |
हेष ससप्टमन्तः स्थानाम् । विवृमृष्मणाम् हैषदित्येवानुषतेते । स्वराणां विवृतम्
हेषदिति निवृत्तम् |
10 वा क्यापरिसमाधिर्वां | ४ ।।
वाक्यापरिसमापेवौ पुनः सिद्धमेतत् । किमिदं व(क्यापरिसमापतेरिति | बणोनामु
पदेदास्तावत् | उपदे शो्तरकालेत्संज्ञा | इत्संज्ञोत्तरकाल भादिरन्स्येन सहेता
[१. १.७९] इति प्रत्याहारः । प्रस्याहारो्तर काका सवणैसंज्ञा | सवणेसं्ोन्तरकाल-
मणुदित्सवणैस्य वाप्रत्ययः [१.९.६९] इति सवर्ण्रहणम् | एतेन सर्वेण समु-
15 दितेन वाक्येनान्यत्र सवणोनां ब्रहणं भवति | न चात्रेकारः शकारं गृह्णाति || यथैव
तर्हीकारः शकारं न गृह्णास्येवमीकारमपि म गृह्णीयात् | तत्र को दोषः | कुमारी
हदते कमारीहते | अकः सवणेदीषत्वं न प्राप्रोति । नैष दोषः | यदेतदकः स-
वर्णे दीधे इति प्रस्याहार पहणं तत्रैकार हकारं गृह्णाति दाकारं न गृह्णाति ॥
अपर आह" भज्छलोः प्रतिषेष दाकार प्रतिषेधो ऽज्छल्त्वात् | अज्जछलोः प्रतिषेधे
20 शकारस्य शकारेण सवर्ण॑संज्ञायाः प्रतिषेधः प्रापोति | किं कारणम् । भञ्ज
ल्स्वात् । अदैव हि शकारो हल्च | कथं तावदच्त्वम् | इकारः सवणै्रहणेन
दाकारमपि गृह्णातीस्येवमस्त्वम् । शत्पूपदेशादल्लम् [| तत्र को दोषः | तत्र सव-
गलोपे दोषः || तत्र सवणैलोपे दोषो भवति । पररशतानि कायौणि | रो द्रि
सवणे इति लोपे न प्रामोति || सिद्धमनच्त्वात् || तिडधमेतत् । कथम् | अन-
25 "त्वात् ॥ कथमनच्त्वम् । वाक्यापरिसमाप्रेषौ || उक्ता वाक्यापरिसमापनिः ॥
अस्मिन्पक्षे वेत्येतदसमर्थितं भवति । एतश्च समर्थितम् । कथम् । अस्तु वा शच
## ८, ४, ४, † ६. १. १०९,
९ १.९.१०. ॥ व्वाकरणग्हाधाष्यय् ॥ ९५
कारस्व शकारेण सवणंसंक्ञा मावा मृत् | ननु चोक्तं परदशातानि कायौणि चरो
हरि सवणे इति लोपो नृ प्रामोतीति | मा भृह्धोपः । ननु च मेदो भवति । सति
रोपे हिशकारमसति रेपे त्रिशाकारम् | नास्ति भेदः । असत्यपि लोपे हिशका-
रमेष । कथम् । विभाषा हिषैवनम्* । एवमपि भेदः । भसति लेपे कदाचिद्धि-
छकारं कदाचिन्लिराकारं सति लोपे शिक्षंकारमेव । स एष कथं मेरो न स्यात् | ऽ
यदि नित्यो लोपः स्यात् । विभाषा तु स लोपः | यथाभेदस्तथास्तु ॥ `
इति श्रीमगवत्पतक्नलिकिरिचिते व्याकरणमशामाष्मे प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे
पदे चतुयेमाह्धिकम् ।॥ .
#८. ४, ४७,
जे
- ६६ ॥ व्याकरणमटामाष्यप् ॥.* ` ` पःमम१.१.५.
,. ` . -. द्दूदेद्धिव्चनं प्रगृह्यम् ॥ १ ।१ 1११. .॥ ...
किमथमी दादीनां तपराणां प्रगृद्यसं्ञोस्यते | तप्रस्तरकालस्य | ९. ९. ७० |
~ ` इति तत्कालानां सवणोनां अरहणं यथा स्यात् | केषाम् | उदात्तानुरा्तस्वरितनाम् ।
भसति प्रयोजनमेतत् । किं तर्हीति । भुतानां तु प्रगृद्यसंज्ता न प्राप्नोति | कि कार-
४भम् । जतरकालत्वात् । न॒हि श्रुतास्तस्कालाः | भसिडः हइुतस्तघ्यासिडसरात्त-
स्काला एव भवन्ति | सिद्धः श्रुतः स्वरसंधिष् । कथं क्षावते सिः हुतः स्वरसत
धभिस्विति । यदयं श्ुतभगृद्या भवि [६. १. ९२९] इति हुतस्य प्रकृतिभावं शास्ति |
कथं कृत्वा क्ञापकम् | सतो हि कार्यिणः कार्येण भवितव्यम् | किमेतस्य शापन
प्रयोजनम् | अश्जुतादश्ुत इत्येतत वक्तव्यं भवति" | किमतो यस्सिदधः भुतः स्वर-
10 संपिषु | संज्ञाविधावसि दस्तस्यासिडत्वान्तत्फाला एव भवन्ति | संज्ञाविपौ च
सिः | कथम् | कायकालं हि संहापरिभाषम् । यत्र काये तज्रोपर्थितं द्रव्यम् |
पगृद्यः प्रकृत्येत्युपस्थितामिदं भवति इहदुदेद्धिवचनं परगृद्यमिति || किं पुनः भुतस्व
भरगृधसं श्षावचने प्रयोजनम् | परगृदयाश्नयः प्रकृतिभावो यथा स्यात् | मा भूदेवम्. |
गुलः प्रकृस्येत्येवं भविष्यति । यैवं शक्यम् । उपस्थिते हि दोषः स्यात् | अश्घतवदु-
15 पस्थिते [६. ९. ९२९] इत्यत्र परिष्यति द्याघार्यः । वडचनं श्ुतकार्यप्रतिषेधाथे
ुतपरतिषेषे हि प्रगृ्यज्चतप्रतिषेधभसङ्गो ऽन्येन विहितस्ादिति | तस्माल्ुतस्य भरगृद्य-
संजञेषितव्या प्रगृह्याश्रयः प्रकृतिभावो यथा स्यात् ॥
यदि पुनर्दीोणामतपराणां प्रगृ्यसंञोच्येत | एवमप्येकार एषैकः सवणोन्गृहणीवा-
दीकारोकारौ न गृह्णीयाताम्। किं कारणम् | अनण्त्वात् || यदि पुनहैस्वानामतपराणां
20 प्रगृह्यसं जञेच्येत | वैवं शक्यम् । इहापि प्रसज्येत | भकुवेहि त्र भकुवद्यत्रेति ||
तस्मारीषीणामेव तपराणां प्रगृद्यसंज्ञा वक्तव्या । दीषोणां चोध्यमाना शुकानां न
भाति || एषं तर्द कि न एतेन यलेन यस्सिडधः श्रुतः स्वरसंभिष्विति | भसिद्धः
भुषस्तस्यासिद्धस्वात्तत्काला एव भवन्तीति | कथं यत्तञ्जापकमुक्तं शुतप्गृद्या भवीलि।
ुवभावी प्रकृत्येस्येवमेतदिक्ञायते | कथं थल्तलयोजनमुक्तम् | क्रेयते तञ्याख एवाज्जू-
25 तादञ्जत इति || एवमपि यास्सिदध प्रगृद्यकाये तर्ुवस्य न प्राभोति | भणो अगु
स्यामुभासिकः [८. ४. ५७] इति । एवं ति किं म एतेन कायकालं संज्ञापरिभा-
# ६.९. ५१३. † ९. ९. ५९.
प०१.१.९९.| ॥ .व्वाकरणमरहाभाष्यम् ॥.. ` 89
मिति 1 ययोहेशमेव संज्ञापरिभाषम् | वत्र ` चास्ावसिदड्स्तस्यासिदत्वालत्कालाः
कव भषन्ति || : | - ।
कथं पुनरिदं विज्ञायते } हेरादयो वद्िवचनमिति भारोस्विरीदाद्न्तं यद्िवि-'
धनमिति | कथान्र विदोषः | .
दंदादयो द्विवचनं प्रगृह्या इति चेदन्त्यस्य विधिः ॥ ९॥ | ४
हेदादयो हि वचनं प्रगृद्या इति चेदन्त्यस्व प्रगृद्यसंश। विधेया | पचेते इति | प्रचेथे
इति | वचनाद्भविष्यति | अस्ति वचने प्रयोजनम् । किम् । खट इति | माले इति ॥
भस्तु तरहीदादयन्तं ध्िवचनमिति |. ।
ईंदा्यन्तमिति चेदेकस्य विधिः ॥ २॥)
$दाद्यन्तमिति चेदेकस्य परगृ्यसंज्ञा विधेया । खट इति | मति इति ॥ 10
न वाद्यन्तवत्वात् ॥ ३ ॥ _
ने चैष दोषः | किं कारणम् । अग्यन्तवस्वात् | अश्यन्तवदेकस्मिन्काये मंब-
तील्येकस्यापि भविष्यति” || भथवैवं वद्यामि ।. ईदाद्यन्तं यद्धिवचनान्तमितिं ।
. ईदाद्यन्तं द्विवचनान्तमिति चेष्टुकि प्रतिषेधः || ४ ॥
, शदाग्यन्तं दिवचनान्वमिति चे्घुकि प्रतिपेपो . वक्तव्यः. | कुमार्योरगारं कुमा- 1४
यैगारम् । वध्योरगारं वभ्वगारम् | एतडीदाशन्तं च नूयते हिवचनान्तं च भवति
प्रत्ययलक्षणेन ॥ |
स्रम्यामथग्रहण ` ज्ञापकं परत्ययलक्षणप्रतिषेधस्य ॥ ५ ॥
` यदयमीदुतौ च सप्तम्य् [९.१.९९ | इत्ययेभहणं करोति तज्जापयत्याज्रार्यो
न श्रमृद्छसंज्ञायां प्रत्ययलक्षणं भवतीति ॥ तर्हि शापकाये मर्थग्रहणे कनेष्यम् | न 20
कर्तेव्वम् | हैदारिमिर्िवचनं विशेषविष्याम हेदारिविरिषटेन च हिव चनेन तदन्त-
चिधिमविम्यति । हेदाद्यन्तं यद्धिवचनं तदन्तमीदाद्यन्तमिति || एवमप्यभङ्गे वले
शङ्के खमपञ्चेतां भुङ्कधास्तां बले हृत्यत्र प्रामोति | अत्र हीदारि श्रिवचनं तदन्तं -च
मवति प्रत्ययलक्षणेन । अत्राप्यकृते शीभावे. लुग्भविष्यति | इदमिह संप्रधायै
हुक्ियकां दीव इति किमत्र कतेव्यम् | परत्वाच्छीमावः | निस्यो लुक् | कृते ऽपि £
| ९.९.२९. 1१.९६९. १.९.९९ | {+म् §२१५म्
ट ॥ घ्याकरणहाभाष्यम् ॥ ` [म०९.९.५
कीभावे प्राभोत्यज्घते अपि भोति | धनिस्यो लुक् } भन्यस्य कते क्षीभावे-प्रामोरवम्ब-
स्याकृते शब्दान्तरस्य च प्रा्ुवन्विधिरनिस्यो भवति । शीभावो ऽप्यानिस्यो न -हि
कृते लुकि भावति | उभयोरनित्वयोः परस्वाष्छीमावः हीभाषे कृते टुक् | अथापि
कथंचिच्तित्यो लुक्स्यदेवमपि दोषः । वदेयस्येतत् । षदसंशायामन्तवचनभन्यक
5 संज्ञाविभौ प्रत्यययहणे वदम्तविधिप्रतिषेधाथेमिति' | इदं चापि प्रत्ययत्रहणमयं चावि
संश्ञाविधिः | भवरयं खल्वस्मिच्चपि पक्ष भाद्न्तवद्धाव एदितव्यः | तस्मादस्त॒ स
एव मध्यमः पकः |
अदसो मात् ॥ १।१. ।१२॥
मात्मगष्यसंज्ञायां तस्यासिडदस्वादयविकदे हशप्रतिषधः ॥ ९ ॥
10 मासगृद्यसंश्ञायां तस्य हैर्वस्य ऊर्वस्य चासिदधत्वादयावेकदिशयाः प्राप्ुवन्ति।
, तेषां प्रतिषेधो वच्छष्यः | अमी अत्र | भमी भासते । अमू अत्र | भमु आसते ॥|
ननु च प्रगृद्यसंज्ञावनचसरामभ्योदयादयो न भविष्यन्ति |
। वथनार्थाहि सिद्धे॥९॥ |
नेदं वचनाह्ठभ्यम् | अस्ति ्न्यदेलस्य वचने प्रयोजनम् | किम् | यस्सिद्धे
15 प्रगृद्यसंज्ञाकाथै तदर्थमेतस्स्यात् | अणो अपगृदयस्यानुनासिकः [८.४.९७] इति ।
रैकं पयोजनं योगारम्भं प्रयोजयति | यद्येतावस्योजनं स्यानत्रैवायं ब्रूयादगो ऽ-
गृ्यस्वानुनासिको ऽदसो नेति ॥ . ,
विप्रतिषेध ॥ ३ ॥
अथवा प्रगृदयसेजञा क्रियतामयादयो वा प्रगृषयसं्ञा मविभ्याति विप्रतिषेधेन | तष
0 युको विप्रतिषेधः [ विप्रतिषेधे परमिस्युख्यते पवौ च प्रगृ्सं्ञा परे वादयः ]
परा प्गृद्यसंश्ञा करिष्यते | खश्रविपयोखः कतो भवति | एवं तर्हि परैव प्रगृदयसंजञा |
कथम् । कायैकारुं हि संज्ञापरिभाषम् | यत्र कायै तत्रोपस्थितं ब्र्टव्यम् | पगृ
्रकृव्येस्युपस्थितमिदं भवति अदक्षो मादिति || एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेभः । कथम् ।
हिकायैयोगो हि विप्रतिषेधो न चाश्रैको दिकायेयुक्तः | एचामयादयः । हेवृतेेः
25 ्रगृद्यसंज्ञा † नावश्यं िकायंयोग एव विप्रतिषेभः । किं तर्हि | असंभगो ऽपि |
॥॥ ह. द, ९४. ॥। ८, २, ८०, ८१.००६, १.१ ७८ १ ०२. १५ ६, १ द्. $ ६, १. ९२५९.
पा ९.९.१२] ॥ व्वकिरनयहामाव्वम ॥ ६द
स चास्स्वत्रासंमवः | को-ऽतावसंभवः | भरगृ्यसंजाभिनिषेतेमानायारीम्बाधते | अया-
दयो अभिनि्ैर्तमानाः प्रगृष्यसंञ्ञानिमिन्तं॑विघ्रन्तीस्वेषो संभवः । सस्यसंभवे
युक्तो विप्रतिषेधः || एवमप्ययुक्को विप्रतिेषः | सतो विपतिषेषो भवति म्र चक्रे
स्वोस्वे स्तोः नापि मकारः । उभयमसिदधम् ।
आश्रयास्सिद्धस्वं च यथा रीरुत्वे ॥ ४ ॥ ४
भभ्रियास्सि्धत्वं भविष्यति त्था सद्व आभ्रयास्सिद्धो भवति" | किं पुनः
कारणं रुसुस्व आभ्रयास्सिद्धो भवति न पुनयत्रैव सः तिडधस्तश्रैवोश्वमप्युख्यते ।
नैवं शक्यम् । | |
असिद्धे युच्च आ हूणापरसिदिः || ९ ॥
भवषिद्धे शस्व आह्ुणस्याप्रसिडिः स्यात्। । वृक्षो ऽत्र । रक्षौ ऽत । वस्मात्त- 10
्राभ्रयास्सिद स्वमेभितव्यम् । तत्र यथान्रयास्सिदधस्वं भवत्येवमिहापि भविष्यति ॥
अथवा प्रगृद्यसंज्ावचनसामथ्योदयादयो न भविष्यन्ति || भथवा योगविभागः
करिष्यते | अदसः | अदर ईदादयः प्रगृद्यसंश्ञा भवन्ति } ततो मात् | माञ्च प्र
हेदादयः प्रगृद्यसंश्ञा भवन्ति | अदस इत्येव | किमर्थो योगविभागः । एको य्त-
स्वदे प्रगृषकायै तदथः । भपरो यदसिद्धे । हापि ताहि प्रामोति । भमुया भ- 15
मुयोरिति । कि च स्याद्यदि प्रगृद्यर्सज्ञा स्यात् । प्रगृद्यान्नयः प्रकृतिभावः प्रस-
ज्येत । नैष दोषः | पदान्तप्रकरणे भरङृतिमावो न चैष पदान्तः | एवंमप्यमुके अ
अत्रापि प्राप्रोति | वचनमिति वतेते | यदि हविवचनमिति वतेते अमी अत्रेति न प्रा- `
भोति | एर्व तर्चदन्तमिति निवृत्तम् || अथवाकशयमदसो मादिति । न चेश्वोस्वे
स्तो नापि मकारः | त एवं विश्ास्यामः । माथोदीदादयर्थानामिति ॥ 2
उक्तवा ||. & ॥
किमुक्तम् | भदस हैरवोस्वे स्वरे बदिष्यदलक्षणे प्रगृचचसंश्ञायां च सिदे ब्त `
ये इति! | | .
| . ` शत्र सकि दोपः ॥ ७ ॥ `
` सत्र सककारे दोषो भवति । अमुके च | . ` - ~,
जियाये माणिका ययिना णण),
ॐ ॥ श्प्राकस्नव्रहयभाष्व ब्. 1 - -. ` -[मर१९ ५
म वा ब्रह्णविरीषणस्वात् ॥| & ॥ ` ˆ `
` जैव दोषः. | किं कारणम् | परह्णविरशेषणस्वात् | न. माद्हणेनेदाथन्सं
-विक्तिष्यते | किं तर्द | दादयो विशेष्यन्ते | भार्परे ब हैदादय इतिं ||
शे ॥ १।१।१२ ॥
$ इह कस्माच्च भवति काशे कुशे वंशे इति । `
| रो ऽरवद्हणात् ॥ ९।।
भयैवतः शेशम्दस्य प्रहणं न चायमथवान् । एवमपि हरिरो बेभुशे हस्यश्र
प्रामोति* | एवं तर्हि लक्षणप्रतिपदोक्छयोः प्रतिषदोक्तस्यैवेत्येषं न॒ भविष्वति ।
अथवा पूनरस्स्वथेवदूहणे नानथेकस्येति | कथं हरिरे बभुरो हति | एको ऽ
10 विमक्चर्थेनायेवानपर स्तदितार्थेन समुदायो ऽनयेकः ॥
निपात एकाजनाङ् ॥ १. । १. । १४ ॥ ..
निपात इति किमर्थम् । चकारात्र } जहारात्र | एकाजिति किमथेम् | प्रेदं ब्रहम |
रेदं क्त्रम् | एकाजिस्यप्युष्यमाने त्रापि प्रामोति । एषो अपि धेकाच् । . एकाजिति
जराय बहूव्रीहिः | एको ऽमस्मिन्तो ऽयमेकाजिति । किं तर्हि । तस्पुरषो ऽयं समा-
1; माधिकरणः । एको ऽष् एकाजिति । वदि तदयुहषः खमानाभिकरग्रो नाये एकब्-
हनेनः | इह कर्माच्च भवतिः | प्रेदं बरह्म | प्रदं क्षत्रम् । अजेव यो निपात इत्येवं
विश्ञास्यते | कि वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुष्यमानं गंस्यते | भज्प्रहणसामभ्वोत् |
यदि हि यत्रा्ान्यश्च तत्र स्यादज्महणमनर्थकं स्यात् | भस्त्यन्यदज्पहणस्य प्रयो-
जनम् । किम् । भजन्तस्य यथा स्याडतन्तस्य मा भूत् । त्रैव दोषो न प्रयोजनम् ॥
20 एवमपि बुव एतद्यो प्ररिभाषथोः सावकाशयोः समवस्थितयोराद्न्तवदेकस्मिन्
[१९.९.९९] इति च येन विधिस्तदन्तस्य [९.१.७१] इति वेयमिह परिभाषा
भविष्यस्यादयन्तवदे कस्मिचितीयं न भक्ष्यति येन विधिस्तदन्तस्येति । आचायेपरवु-
िज्गीपयतीयमिह परिभाषां भवस्थायम्तबदेकस्मिन्नितीयं न भवति येन विधिस्तद-
न्तस्थेति यदयमनाडिति प्रतिषेधं चास्ति. || एवं तर्हि सिरे सति यदज्यषछो क्िय-
एयावावयायककककक ण "ग्ण षर र षद
~~ = ` = णायन ज,
9. ५१ द् ड १ ०9,
[व करः
क १,१.१३-१८.] = ॥ ध्याकरनमराभाष्वम् ॥ .. 44
माण एकमदणं करोति `तञ्जञाप्त्यात्रायो ऽन्यत्र बर्णभहणे जातिश्णं भव्ति ।
किमेतस्य. क्ापने प्रयोजनम् | दम्मेहैस्पदणस्य जातिकाचकत्यास्ि डमिति - यदन्त +
सदुपपत्नं भवति ॥ अनारिति किमर्थम् | भा उदकान्तात् ओदकान्तात् | इद क~
स्मात्र भवति | भा एवं नु मन्यसे .| आ एर्व किल तदिति । सानुवन्धकस्वेदमा-
(करस्य यहणमननुबन्धकथात्राकारः | कर पुनरयं सानुबन्धकः क निरनुबन्धकः | -5
ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादामिविषौ च यः |
एतमातं कित विद्ाहाक्यस्मरणयोररिन् ॥
ओत् ॥ १. ।१. । १५ ॥
किमुदाहरणम् | आहो .इति । उताहो इति | नेतदस्ि प्रयोजनम् | निपातसमा-
हरो ऽयम् | भाह ड आहो इति | उत आह उ उताहो इति । त्र निपात ए- 10
काजनाङ् [१.१.९४] इत्येव सिद्धम् 1 एवं तद्धकनिपाता इमे ॥ अथवा प्रति-
बिद्धा्था ऽयमारम्भः । ओ षु यातं मरतः | भ षु यातं बृहती शरी च | भ
चित्सखाथं सद्या ववृत्याम् ॥| ।
~ ओतश्िवपरतिषेधः ॥. ९.॥ .. -
ओदन्तो निपात हत्यत्र च््यन्तस्व1 प्रतिषेधो वक्ष्य: | भर्नदः` अदः अभमवत्-15
अदोऽभवत् । तिरोऽभवत् || न वक्तव्यः । लक्षणप्रतिपदोक्तवोः प्रतिपदोक्तस्यैव
स्येव न भाविष्यति ॥ एवमप्यनौर्गीः समपद्यत गोऽभवत् भ्र प्रामोति । एवं
ताह ओणमुख्यकवो मुख्ये कायंसंपरस्यय इति | तद्यथा | गौर नुबन्ध्यो अजो ऽभीषो+
जीय इति न. बादीको ऽनुबभ्यते | कथं तर्हि कदीके वुद्यास्वे भवतः! । गौसि
हति । गामानयेति । अथां श्रय एतदेवं भवति । वदि दाष्दाभयं शब्दमात्रे तद्ध- 20
वति | छम्डान्रवे ब्र बृष्याश्वे |
उञ ॐ॥१॥।१।१५.-१.८ ॥
„ इह कस्माच्च भवति | आदो इति | उताशे इति । म इस्वुष्यते न -चात्रों
परथामः ] उंमी ऽयमन्नेन ` संदेकादेश रञ्पदणेन गृद्यते | भवचार्यपवृत्ति्ौपवति `
+ ६, ६,६०.४ †९. ४.६९ {‡ ०.९.९०; ६.९.९द्
) ॥ ॥ व्याकरनकहागव्वय् | [भर९.१.५
मो जकारे च उञ्गरङणेन गज्लन इति कंदथमोत् [ १,१.१९ |-इस्योदन्तस्व निपवस्व
भगृ्छसंजञां शास्ति । वैतदस्ति ज्ञापकम् । ख्छमेतत् । परतिभ्रिडार्थो ऽवमारम्म इति ।
रोषः खल्वपि स्वायथुनेकारेख उञ्महणेन न बुबधेत | जानु ड अस्व दंजति
जन भस्व इजति जान्वस्व रजति | मव उमोबो वा [८. ३.२२] इति षत्वं
ऽन स्वकात् | एव वर कनिपाता इमे || थवा हावुकाराबिमौ । एको ननुबन्धकः |
अपरः सानुबन्धकः | तयो ऽननुबन्धकस्तत्वैष एकादेशः ॥
उअ इति योगविभागः ॥ ९ ॥
उम इति योगुविमागः करतेव्यः | उनः शाकल्यस्याचार्वैस्य मतेन प्रगृद्यसंश्ा
भवति | उ इति विति || तत ॐ | उख ॐ इत्ययमादेशो भवति शाकल्वस्वा-
10 चायस्य मतेन दीर्घो अनुनासिकः प्रगृ्संहकथ ॐ इति || किमर्थो योगविभागः ।
ॐ वा शाकल्यस्य । २॥
` श्चाकल्यस्याचाथस्य मतेन डँ विभाषा यथा स्यात् | ड हति उ इति | भन्ये-
वाममचायौणां मतेन विति |
ईेदूती च सपतम्यं ॥ १.।९.।१९.॥
15 ईदुतो सप्तमीत्येव
हती सप्रमीत्येव सिद नार्थो ऽयैमहणेन |
लुते र्थ॑ग्रहणा्वेत् ।
लुपायां सपम्या प्रगृह्यसंज्ञा न प्रामोति | क | सोमे गौरी भि भ्रितः| इष्यते
चआत्रापि- स्यादिति तथान्वरेण यलं न सिध्यतीस्येवमर्थमथरहणम् || नात्र॒स्रमी
20 लुष्यते | कं तर्हि । पुवैसवर्णो ऽत्र भवति" |
पूवस्य चेत्सवर्नो ऽसावाडाम्भावः प्रसस्यते ॥ ९ ॥
यरि पूषैखवणं आद् भाम्भाव्च भामोति† || एवं तद्यादायमीदूतौ सप्रमीति न
चास्ति सप्रमीदुी; तत्र. वचनाद्रविष्यति.।., ˆ. . `
, कयना दीर्ष॑त्वम् |
28 . वदं वचनाहभ्यम् | भस्ति चयन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम् | यत्र सप्स्भा
* ०, १.२९ , +° १. ९२ १९.
पा ९,९१.१९ २०.| ॥ व्याकरनवहाभाष्यय् ॥ . ७डे
` शष्सवमुख्वते* | दर्तिं न शयुष्कं सरसी शयानमिति । सति प्रयोजन इह न प्राभोति ।
लोमे गौरी अषि भरित इति ॥
लत्रापि सरसीं यरि । | ।
तज्रापि सिद्धम् | कथम् । यदि सरसीशब्दस्य प्रवृत्तिरस्ति | अस्ति च लोके
सरसीशम्दस्य प्रवृत्तिः | कथम् । दक्षिणापथे हि महान्ति सरां ति सरस्व हत्युश्यम्ते || $
ज्ञापकं स्यात्तदन्तत्वे
एवं तर्हि श्ापयत्याचार्यो न प्रगृद्धसंज्ञायां प्रत्ययलक्षणं भवतीति | किमेतस्य
ञापने प्रयोजनम् | कुमार्योरगारं कुमायगारम् वध्वोरगारं वध्वगारम् प्रस्ययल-
शणेन प्रगृह्यसंज्ञा न भवति |
मावा पूर्वपदस्य भूत् ॥२॥ 10
अथवा प्ैपदस्य मा भूदित्येवमर्थं मर्थ्रहणम् । वाप्यामशो वाप्यश्वः नया-
मातिनेथातिः | अथ क्रियमाणे ऽप्यथे्रहणे कस्मादेवात्र न भवति । जहस्स्वा्था
वृत्तिरिति । अथाजदत्स्वायीयां वृकी दोष एव । अजहस्स्वाथोयां च न शोषः |
घमुदायार्थो ऽभिधीयते |
ई्दूतो सप्तमीत्येव लुततेऽथंग्रहणास्नवेन् । 15
पूवस्य चेत्सवणौ ऽसावाडाम्भावः प्रसज्यते ॥ ९ ॥
वचनादज दीर्धत्व व्नापि सरसी यदि ।
ज्ञापक स्या्तदन्तले मा वा पुवैपदस्य भत् ॥ २ ॥
दाधा घ्वदाप् ॥१।९१९ ।२९०॥
घसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिदर्थम् ॥ ९ ॥ 0
घसंज्ञायां परकृतिमर्टणं कतेष्यम् | दाधाप्रकृतथो धुसंश्ञा भवन्तीति वच्कथ्यम् |
किं प्रयोजनम् । आस्वभृतानाभियं संज्ञा क्रियते | सास्वभूतानामेव स्मादनास्वभूतानां
न स्वात् | ननु च भूविष्ठानि षुसंङ्ञाकायोण्या षभातुके तत्र वेत भास्वभूृता .शृरय-
न्ते | श्चिदथेम् । शिद्थे प्रकृतिमरहणं कतेष्यम् । शिस्यास्वं प्रतिषिध्यते तदथेम् |
प्रणिदयते प्रणिधयतीतिः || ४
मारद्ाजीयाः पठन्ति | धुसंशञायां भरकृतिमहंणं िदिकृतार्थम् । बुसंशायां
@ ७,९.९१. † ६. ९. ४५. ` ‡ <, ४.९७,
209
अध ॥ व्याकरणमहाभाव्यब ॥ ` , (म० १,९५.५.
भकृतिग्रहणं. क्रियते | (क प्रयोजनम् । शिदथ विकृताथै च । शिस्युदाहर्तम् | धिकः
ताथे खल्वपि | प्रणिदाता प्रणिधाता | किं पुनः कारणं न सिध्यति | लक्षणप्रति-
पदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति प्रतिपदं य आच्वभूतास्तेषामेव स्याह्वक्षणेन य भस्व-
भूतास्तेषां न स्थात् ||
$ नथ क्रियमाणे ऽपि प्रकृतिमरहणे कथमिदं विज्ञायते | दाधाः प्रकृतय -इति | आहो-
स्विह्यधां प्रकृतय इति | किं चातः | यदि विज्ञायते दाधाः प्रकृतय इति स एव
दोषः | भाच्वभुतानामेव स्यादनात्वभूतानां न स्यात् | अथ विज्ञायते दापां. प्रक्-
तय इत्यनात्वभृतानामेव स्यादान््वभुतानां न स्यात् | `एवं तरदं नैवं विक्ञायते
दाधाः प्रकृतय इति नपि दारां प्रकृतय इति | कथं तहिं | दापा घुसंज्ञा भवन्ति
10 प्रकृतयशचेषामिति ॥
तत्तहि प्रकृतिग्रहणं कर्तव्यम् | न कतेव्यम् | इदं प्रकृतमर्थं महणमनुवतेते | क
प्रकृतम् | दूतौ च सप्नम्यर्थे [१.१.१९] इति | ततो वक्ष्यामि । दाधा ष्वदाप् अथे
इति | तेवं राक्यम् | ददातिना समानाथौन्रातिरासतिदाङतिमंहतिप्रीणातिपरभृती नाहः ।
एतेषामपि घुसंज्ञा प्रामोति | तस्मान्नैवं शक्यम् | न चेदेवं प्रकृतिग्रहणं कतैव्यमेव ||
15 हिदर्थेन तावन्नार्थः प्रकृतिग्रहणेन । अवद्यं तत्र" माथे प्रकृतिम्रहणं करतैष्यं प्रणि-
मयते प्ण्यमयतेत्येवमथेम् । तस्पुरस्तादपक्रकष्यते । घुप्रकृती माप्रकृती चेति | यदि
भरकृतिग्रहणं क्रियते प्रनिमिनोति प्रनिमीनाति। अन्रापि प्रामोति | अथाक्रियमणे अपि
प्रकृतिमदहण इह कस्मान्न भवति प्रनिमाता प्रनिमातुम् प्रनिमातव्यामेति | आकारान्तस्य
डतो ग्रहणं विज्ञास्यते | यथैव तद्यक्रेयमाणे प्रकृतिन्रहण आकारान्तस्य डतो महण
20 विज्ञायत एवं क्रियमाणे ऽपि प्रकृति्रहम भ।कारान्तस्य डतो म्रहणं विज्ञास्यते ||
विकृतार्थन चापि नार्थः | दोष एवैतस्याः परिभाषाया लक्षणप्रतिपदोक्त योः प्रतिपदो-
्तस्थेवेति गामादाम्रहणेष्ववि शेष इति |
| ` समानराब्दप्रतिषेधः ॥ २ ॥
समानङाष्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | परनिदारयति प्रनिधारयति.| दाधा षु-
25 संज्ञा भवन्तीति घुसंज्ञा पामोति ॥
समानराब्दाप्रतिषेधो अ्थवदहणात् ॥ ३ ।।
समानशब्दानामपरतिषेधः | अनथकः प्रतिषेषो ऽपरतिषेषः | घुसंज्ञा कस्मो त्र भ
वति | भथेवदुहणात् । अथवतोदाधोमरेहणं न चैतावर्थेवन्तौ ||
#* ८, ४. ९७, † ६ ९, ५०.
फ्र° १.९.२०. ] । ष्याकत्णपंहामाष्यय ॥ "ज
अनुपसर्गाद्वा ।॥ ४ ॥।
भथव। यकि यायुक्ताः प्रादयस्तं प्रति म्युपसेसंञे भवतः | न चैतौ -दापौ
प्रति क्रियायोगः || यद्येवमिहापि तर्द न प्रामोति | प्रणिदापयति प्रणिघापयति।
अवापि नैतौ दाधावयैवन्ती नाप्येतौ दाषौ प्रति क्रियायोगः ||
न वार्थवतो हयागमस्तहुणीभूतस्तदुहणेन गृह्यते यथान्यत्र || < ॥ 5
न वैष रोषः | किं कारणम् । अथवत आगमस्तदुणीमृतो -ऽथेवद्रहणेन गृद्यते |
वथान्यन्न | तद्यथा । अन्यत्राप्यर्थवत आगमो अऽथेवदुह्णेन गृद्यते | कान्यत्र |
रविता चिकीर्षितेति ॥ युक्तं पुनय॑क्चिस्येषु नाम दखष्देष्वागमहासनं स्यान्न नव्येषु
नाम राब्देषु कुटस्थेरविचारिभिवेर्णेभवितघ्यमनपायो पजनविकारिभिः } आगमश्च
त्रामापृत्रैः शब्दोपजनः | अय युक्तं यत्निव्येषु राब्देष्वादे शाः स्युः | वाढं युक्तम् | 10
शब्दान्तररेह भवितव्येम् । तत्र शब्दान्तराच्छम्दान्तर स्य प्रतिपत्तियुक्ता । अआदे-
शास्तर्टेमे भविष्यन्त्यनागमकानां सागमकाः | तत्कथम् । `
स्वे सर्वैपदादेशा दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः । `
पकदेकाविकारे हि नित्यत्वं नोपपद्यते ॥
दीङः प्रतिषेधः स्थाध्वोरिचे ॥ ६ ॥ 15
दीङः प्रतिषेषः स्थाष्वोरिस्वे वक्तव्यः | उपादास्तास्य स्वरः शिक्षकष्येति |
मीनातिमिनोति [६,९.९०] इत्या कृते स्थाप्वोरिच [१.२.९७] इतीत्वं पराभोति |
कृतः पुनर यं दोषो जायते किं भरकृतिम्रहणा दाहोस्विद्रूपम्रहणात् | रूपग्रहणादित्याह |
हहे खलु प्रकृतिहणाहेषो जायते | उपदिदीषते ] सनि मीमाघुरभरम [७.४.९४ |
हति । नैष दोषः | दाप्रकृतिरित्युच्यते न चेयं -दाप्रकृतिः | जाकारान्तानामेजन्ताः %
प्रकृतय एजन्तानामषीकारान्ता न च प्कृतिप्रकृतिः प्रकृति्रहणेन गृद्यते || स तर्हि
प्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः| वुसंज्ञा कस्माच्च मवति | संनिपतिलक्षणये |.
विधिरनिमित्तं तदिषातस्येत्येवं न भविष्यति || `
दाप्परतिषेधे न दैष्यनेजन्तत्वात् ॥ ७ ॥
दाप्प्तिषेपे दपि प्रतिषेधो न परामोति | अवदातं मुखम् ] ननु चावे कृते भवि- 25
ध्वति | वद्यच्तवं न प्रामोति | किं कारणम् | अनेजन्तत्वत् ॥
धि ॥ व्याक र्नणयहाभाष्यत | : 1[ ० ९.९.५६
सिदमनुबन्धस्यनिकान्तस्वात् ॥ ८
सिडमेवत् । कथम् | भनुवन्धस्यानेकान्तत्वरात् । अनेकान्ता अनुबन्धाः. ||
| पिस्पतिषेधाद्वा ॥ ९ ॥
अथवा दाधा श्रपिदिति वश्यामि | तथावदयं षक्तव्यम् | अदाबिति श्ुख्य-
, 5 मान इहापि प्रसज्येत । प्रणिदापयतीति । शक्यं तावदनेनादाभिति ब्रुवता बान्तस्य
प्रतिषेधो विश्षातुम् । सत्रं तर्हि भिद्यते | बथान्यासमेवास्तु । ननु ` चोक्षं दाप्पसि-
वेषे न दैपीति | परिहतमेतस्सिडमनुबन्धस्यानेकान्तस्वादिति । अथैकान्तेषु रोषं
एव । एकान्तेषु च न दोषः | आसवे कृते भविभ्वति । ननु चोन्तं तद्याक्व न
भ्राप्रोति किं कारणम् अनेजन्तस्रादिति । पकारलोपे कते भविष्यति | न श्यं तदा
10 काम्भवति । भूतपवेगस्या भविष्यति । एकाज्र युक्तं यस्सर्वेष्येव सानुबन्धकम्रह-
गेषु भृतपु्वेगतिरविज्ञायते | अतैभित्तिको द्यनुबन्धलोपस्तावस्येव भवति ॥ अथवा-
चार्यप्रवृलिज्ञो पयति नानुबन्धकृलमनेजन्तस्वमिति यदयमुदीषां माङो व्यतीहारे
| ३.४.१९] इति मेङः सानुबन्धकस्यास्वमूतस्य ब्रहणं करोति ॥ अथवा दावे-
वाय॑ न हेवस्ति | कथमबडायतीति । इयन्विकरणो भविष्यति ||
15. आद्यन्तवदेकस्मिन् ॥ ९. । १. । २९१. ॥
किमथेमिदमुच्यते |
सस्यन्यस्मिन्नाद्यन्तवद्रावदेकस्मिन्नायन्तवदयनम् | ९ ॥
सस्यन्यस्मिम्स्मास्पू्ै नास्ति परमस्ति स आदिरित्युस्यते | सस्यन्यस्मिन्य-
स्मास्पर' नास्ति पृवमस्ति सो ऽन्व ह्युच्यते । सस्यम्यस्मिच्चान्तवद्धावादेवस्मा -
90 स्कारणादेकास्मिन्नायन्तापदिष्टानि कार्याणि न सिध्यन्ति } इष्यन्ते च स्युरिति |
तान्यन्तरेण यलं न सिध्यन्तीस्येकस्मिचादयम्तवडचनम् । एवमर्थमिदमुष्वते ॥
अस्ति प्रयोजनमेतत् | किं तर्श॑ति |
तकर व्यपदोरेवग्रयमम् || ९ ॥
त्र व्यपदेशिषड्धावो -वकष्यः | व्य पदोशिवदे कस्मिन्कायेः मवतीनि वक्षस्वम् |
2४ किं प्रयोजनम् |
फौ० १,१.२९. | ॥ व्वाङरनयहाभाष्वम् 1 ॐॐ
श्काचो दे. प्रथमार्थम् ॥ & ॥ -
वेभस्वेकाचो हे प्रथमस्मेति बहत्ीदिनिरदेश इति* | तस्मिन्क्रियमाण देहेव
त्वात् पपाच पपाठ | इयाय आरेस्यत्र न स्यात् | श्यपदेशिषरेकस्मिन्कायै
भवतीष्यत्रापि सिडधं भवति ॥
, षत्वे चदेशासंभरस्ययार्थम् ॥.४॥ . . . ४
वदेयत्यारेशप्रत्यययोरित्यवयवषश्थेवेति। | एतस्मिन्क्रियमाण हंहेष स्यात् क-
रिष्यति हरिष्यति | इह न स्थात्. | इन्द्रो मा वक्षत् | ख रेबान्यक्षत् | ष्यपदेशि-
वदेकरस्मिन्का्मै भवतीस्यश्रापि विद्धं भवति || स तर्हिं व्यपदेरिवद्धा वो वक्तव्यः
न वक्म्यः |
अवचनाह्कोकविज्ञानास्सिदम् ॥ ५ ॥ 10
अन्तरेशेव वचनं लोकविश्चानास्सि्धमेतत् । तद्यथा | लोके शालासमुदायो चाम
इत्युच्यते । मवति वैतदेकलस्मिन्नप्येक शालो भाम इति । विषम उपन्यासः | म्ाम-
शब्दो ऽयं बहथेः | भस्त्येव शालासमुदाये वतेते । तद्यथा । मामो दग्ध इति ।
अस्ति वाटपरिक्षेपे वतैते | तयथा । भामं प्रथिष्ट इति | अस्ति मनुष्येषु वतेते ।
तयथा । सामो गतो माम भगत इति | असि सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके 1४
वतैते | तद्यथा । मामो लम्ध इति | तथः सारण्यके. ससीमके सस्थण्डिलके वतैते
तमामिखमीषथैतस्मयुञ्यत एकशालो भ्राम इति ॥ यथा वर्हि वर्णसमुदायः पदं पद-
खमुदाय ऋगृक्मुदा यः द क्तभिद्युश्यते । भवति बैतदेकस्मि्तप्येकवण पदमे-
कपदर्गेकयवै दक्तमितिं | अत्राप्यर्थन युक्तो व्यपदेशः | पदं नामार्थं ऋडः नामार्थः
दकं नामाथः || यथा तर्हि बहूषु पुररष्येतदुपपच्रं भवस्वयं मे ज्येष्ठो अयं मे मध्व 20
मो अयं मे कनीयानिति | भवति वैतदेकस्मिनच्नप्ययमेव मे ज्येष्ठो ऽयमेव मे मध्य
मो ऽवमेव मे कनीयानिति । तथाखतायामसोष्यमाणायां च भवति प्रथमगर्भेण
इतेति । तथानेस्यानाभजिगभिषुराहेदं मे पभथममायमनमिति ॥
आद्यन्तवद्धावश शक्यो वक्तुम् । कथम् |
अपूर्वानुचररप्षणस्वादाशन्तयोः सिङमेकस्मिन् ॥ & ॥ ४
अपुरवैलस्षण आदिरनु्तरलक्षणो ऽन्तः | एतजचैकस्मिचपि भवति| अपूर्वालु्तरल-
# ६, ९.९, # .¶ ८, ३. ५९.
“अट ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ` . [१०.९.९.५
क्षणत्वादेतस्मात्कारणादेकस्मिचप्या्न्तापदि शानि कायौणि भविष्यन्ति नाथे आ्य-
न्तव दावेन || गोनदींयस्त्वाह । सत्यमेतत्सति त्वन्यस्मि्तिति |
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि |
आदिवच्वे प्रयोजनं प्रत्ययस्निदाद्युदात्तत्वे ॥ ५७॥
5 प्रत्ययस्यादिसदान्नो भवतीतीहिव स्यात् कतेव्यम् तैत्तिरीयः | ओपगवः काप-
टव इत्यत्र न स्यात् || छनत्यादिर्मित्यम् |६.९.९९७] इतीहैव स्यात् अहिचुम्ब- `
कायनिः आभ्िवेदयः । गाग्येः कृतिरित्यत्र न स्यात्||
वलदिराधेधातुकस्येट् ।॥ ८ ॥
वलादेरार्धधातुकस्येद् प्रयोजनम् | भाधेधातुकस्येडरदिः [७.२.३५९] हैवं
10 स्वात् करिष्यति हरिष्यति | जोषिषत् मन्दिषदिस्यत्र न स्यात् ॥
यस्मिन्विधिस्तदादित्वे ।। ९ ॥
यस्मिन्विधिस्तदादित्वे प्रयोजनम् | व्यति यस्मिन्विधिस्तदादावल्परहण इति! |
तस्मिन्क्रियमणि अचि भरुषातुभरुवां य्वोरियङ्वङौ [६.४.७७] इहैव स्यात् न्निः
भ्रुवः | भ्रियौ भुवौ इत्यत्र न स्यात् ॥
15 अजादयादस्वे | ९० ॥
अजाश्चादृत्वे प्रयोजनम् । आडजादीनाम् [६.४.७२] इहैव स्वात् देरिष्ट
देक्षिष्ट । फेत् अध्यैष्टेत्यत्र न स्यात् ॥
अथान्तवच्वे कानि प्रयोजनानि |
| अन्तवद्िवचनान्तप्रगृह्यत्वे ।। ९९ ॥
20 अन्तवह्भिष चनान्तप्रगृद्यत्वे प्रयोजनम् | हेदुदेद्धिवचनं प्रगृषम् [९.९.९९] इहेव
स्यात् पचेते इति पचेथे इति | खट इति मारे इतीस्यत्र न स्यात् ॥
[ मिदचो ञन्त्यास्यरः ।| ९. ॥ |
भिदो ज=्त्यात्परः [९.९.४७] प्रयोजनम् । इहैव स्यात् कुण्डानि वनानि ।
तानि यानीस्यत्र न स्यात्+ |
३.६.२३. न ६* ६. ७२.४१ ‡०.९. द्
ए०९.१.२२। | ॥ व्वाकरणम्रहाभाष्वप् ॥ ७९.
अचो =न्त्यादि टि ॥ ९६ ॥
भवो जन्त्यारि रि [९. ९.६४] प्रयोजनम् | टित आत्मनेपदानां टेरे [३.४.७९]
इतीहैव स्यात् कुवौति कुवाय । कुरूते कर्वे इत्यत्र न स्यात् ||
अले =्त्थस्य ॥ ९४ ॥
भतो न्त्यस्य [१.९.९२] प्रयोजनम् } अतो दीर्घो यञि [७. ६३.१०१] 5
सुपि च [९.०२] इहैव स्यात् घटाभ्याम् पटाभ्याम् । आभ्याभित्यत्र न स्यात् ॥ ,
| येन विधिस्तदन्ततवे ॥ १९ ॥
येन विधिस्तदन्तस्वे* प्रयोजनम् । अचो यत् [३.९.९७] इहेव स्यात् चेयम्
जेयम् | एयम् अध्येयमित्यत्र न स्यात् ||
आद्यन्तवदेकस्मिन्काथ भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति ॥ 10
तरप्तमपौ षः ॥ ९ ।१ ।२२॥
घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेषो वक्तव्यः | नव्यास्तरो† नदीतर इति ॥
घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेधः ॥ २ ॥
अनर्थकः प्रतिषेधो अप्रतिषेधः | षसंज्ञा कस्मान्न भवति | 15
तरग्प्रहणै ह्योपेदेरिकम् ॥ ३ ॥
ओौपदेशिकस्य तरपो महणं न चैष उपदेशे तरप्वाब्दः | कि वक्तभ्यमेतत् |
न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | इह हि व्याकरणे सर्वेष्वेव सानुबन्धकयमहणेषु
रुपमाभ्रीयते यत्रास्थैतद्रूपमिति । रूपनिर्यहथच राष्दस्य नान्तरेण लौकिकं प्रयो-
गम् | तस्मिंश लौकिके प्रयोगे सानुषन्धकानां प्रयोगो नास्तीति कृत्वा हितीयः भ्- 20
योग उपास्यते | को ऽसौ | उपदेशो नाम | न चैष उपदेदो तरण्डाब्दः || अथवा-
स्त्वस्य घसंज्या को दोषः | घादिषु नद्या हूस्वो भवतीति इस्वत्वं प्रसज्येत | स-
मानाधिकरणेषु घादिष्वित्थेवं तत् । यदा तरि तव नदी स एव तरस्तदा परामोति ।
# ९, ९,, ७२. ‡ ६. ३, ५७, { ६. ३. ४३.
ही ॥ व्वाकरममहाभाष्यक् ॥' | [बर १.९१.
ीलिङ्केषु धादिष्िस्वेवं ` तत् | अवदय वैतदेवं विज्ञेजम् । समानाधिकरणेषु धारि.
ध्वित्मुष्यमान इह प्रसज्येत | महिषी ङूपमिव ब्राह्मणी रूपमिवेति ॥
नहूुगणवतुडति संख्या ॥ ९. । २. । रद. ॥
संल्यासज्ञायां संख्याग्रहणम् । ९ ॥
४ ` संख्यासंज्ञायां संख्या्हणै कतेव्यम् । बहूगणवतुडतयः संख्यासंज्ञा भवन्ति 1
संख्या च संख्यासंज्ञा भवीति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् |
संख्यासंपरस्यथा्थंम् ॥ २॥ ,
एकादिकायाः संख्यायाः संख्यापदेशेषु संख्येत्येष संप्रत्ययो यथा स्यात् |
नमु चैकादिका संख्या लोके संख्येति प्रतीता तेनास्याः संख्यापदेशेषु संख्यासंप्र-
10 ह्ययो भविष्यति । एवमपि कव्यम् ।
इतरया यसपरस्ययो अहृविमस्वाद्यथा शोके ॥ ३ ॥
अक्रिथमाणे हि संख्याग्रहण एकारिकभाः संख्यायाः संख्येव्येष संमस्ययो म
स्यात् | किं कारणम्. | अङ्त्रिमत्वात् | बहवादीनां कृजिमा संज्ञा | कृतरिमाङ्जि-
मयोः कृत्रिमे कायैसंपत्ययो भवति यथां रोके । तद्यथा | रोफे गोपालकमानय
15 कटजकमानयेति यस्थैषा संज्ञा भवति सं आनीयते नयो गाः पाठयतियो बा
कटे जातः | थदि तरि कृत्चिमाकत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवति नदीपीर्णमास्या-
महायणीभ्यः [९.४.१९ ०] अत्रापि प्रसज्येत । षीणमास्याम्रहाथणी महण सामभ्योच्
भविष्यति | तदिशोषेभ्यस्तरि प्रामोति गङ्गा यमुनेति । एवै तद्योचार्यभरवृ्तज्ञोपयति
न सदिहोषेभ्यो भवतीति यदं विपाट्शष्दं शारत्मभृतिषु पठति" || इह तरिं परामो-
20 ति नदीभिथ [२.१.२०] इति । बहूव चननिर्देशात्च भविष्यति | स्वरूपविधिस्तररिं
पराभोति | बहवचननिर्देशादेव न भविष्यति || एवं न चेदमकृतं भवति कृनिमा-
कृभरिमयोः कृत्रिमे संपरत्यव इति न च कथिहोषो भवति ||
उन्तरा्थं च | ४
उन्तराथै च सेख्याय्रहणं कर्तव्यम् । ष्णान्ता षट् [१.१.२४] पकारनकारा-
25 न्तायाः संख्यायाः षद्संश्ा यथा स्यात् । हह मा भूत् । पामानः विभुष इति ॥
## ५. ४. ९.०७, †+ ५, ९, २३.
पर ९.९.२२ | ॥ न्याकरनसहाभार्यम् ` 1
` 'इहाथेन ताचैक्नाथः- संस्वापरह्णेन |-मनु चोक्तमितरथा हसंप्रस्ययो ऽक्रत्रिमस्का-
शथा लोक इतिः । नैष दोषः | अथोखकर णाह लोके कृत्निमाङृत्रिमयोः कृजिमे
सैप्रस्ययो मवति । अर्थो वास्यथेवंसंज्ञकेन भवति प्रकृतं वा तत्र भववीदमेवंसं्षक्रेन
कतैष्यभिति | आतथा्थासकरणादा | अङ्गः हि भवान्व्राम्यं पांखुरपादमप्रकरणन्न-
मागतं ब्रवीतु गोपालकमानय कटजकमानयेति | उभयगतिस्तस्य भवति साधीयो 5
वा यष्िस्तं गमिष्यति || यथैव तद्यैथौसकरणाद्। लोकते फृतिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे
संपरस्यये भवत्येवमिहापि प्रमोति | जानाति ह्यसौ बहमारीनामियं संज्ञा कृतेति | न
यथा ठेके तथा व्याकश्णे | उभयगतिः पुनरिह भवति | अन्यत्रापि नावरयमिहैक |
तथथ। | कतुरीप्सितवमं कमे [१. ४. ४९| इति कृत्रिमा कमेसंज्ता | करमेप्रदेदोषु
चोभवगतिभेवति | कमणि द्वितीया [२.२३.२] इति कृत्रिमस्य महणं कतरि 10
कर्मव्यतिहारे [१.३.१४] इत्यङृतिमस्य | तथा साधकतमं करणम् |१.४.४२
इति कृजिमा करणसंज्ञा | करणप्रदेशेषु चोभयगतिभेवति | कर्तृकरणयोस्तृतीया
[२.३.९८ | इति कृत्रिमस्य महणं शब्दतैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे [३.१.१७]
इत्मक्राङ्ृ जरिमस्य | बथाधारो अधिकरणम् |१.४.४९५ | इति कृति माधिकरु्णसंज्ञा |
अभिकरण्परदेदोषु चोभयगतिभेवति । सप्नम्यधिकरणे च [२.३.३६ | हति कृि- 15
मस्य ग्ण विप्रतिबिद्धं चानधिकरणवाचि २.४.९३] इस्यकृत्रिमस्य | अथवा
मेदं संकष(कररणं तदढतिदेशो ऽयम् | बह गणवतुडतयः संख्यावद्ध वन्तीति |. स तर्हि
वतिनिर्देशाः कतेष्यो न ह्यन्तरेण वतिमतिदेशो गम्यते | अन्तरेणापि वतिमतिदेशो
गम्यते | त्यथा | एष ब्रह्मदत्तः | अब्रह्मदत्तं ब्रह्मत इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्म-
दत्ततव्रदयं भवतीति | एवमिषशप्यसंख्यां संख्येर्याह संख्यावदिति गम्यते || अथव।- 20
चार्यभरवृ्तिजञोपयति भवत्येकादिकायाः संख्यायाः संख्याप्रदेदषु संख्यासंप्रत्यय इति
कदयं संख्प्राया अतिरादन्तायाः कन् [९.९.२२] इति तिरादन्तायाः प्रतिषेधं
शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञपरकम् | नहि कृज्िमा स्यन्ता शदन्ता वा संख्यासि ।
नन चेयमस्ति डतिः । यत्तं शदन्तायाः प्रतिषेधं शास्ति | यच्चापि त्यन्ता्याः प्र
तिबेषं शास्ति । ननु चोक्तं डत्यथमेतत्स्यादिति | अये वदुहणे नानथेकस्येस्य्थेथ 25
तस्ति्ब्दस्य ग्रहणं न च उतेस्तिश्ष्दो अथेवान् ॥ अथवा महतीयै संज्ञा क्रियते
संशा च नाम यतो न रषीयः | कुत एतत् । रष्वं हि संज्ञाकरणम् । तत्र म-
इत्याः संज्ञायाः करण एतस्पयोजनमन्वर्थ संज्ञ यथा तरिज्ञयेत । संख्यायते ऽनया
संख्येति । एकारिकया चापि संख्यायते || |
11 ५
८२ ॥ व्याकरणपहाभाष्यम ॥ [०९.९.५८
उत्तरार्थेन चापि नार्थः संख्यामहणेन | इदं प्रकृसमुत्तरत्रानुवर्तिष्यते || इदं व्र
संक्षा्थमुत्तरत्र च संज्ञिविदोषणेनार्थं: | न चान्यायै प्रकृतमन्याै भवति | न खल्व-
प्यन्थत्पकरतमनुवतेनादन्यद्भवति न हि गोधा सपेन्ती सपैणादहिभेवति ॥| य्ताबतु-
च्यते न चान्यार्थं प्रकृतमन्याथै भवतीत्यन्याथेमपि प्रकृवमन्या्थै भवति | तद्यथा |
& शाल्यथे कुल्याः प्रणीयन्ते ताभ्यश्च पानीयं पीयत उपस्पृदयते च शारयथ भाव्बन्ते |
यदप्युच्यते न खल्वप्यन्यत्पमङृतमनुवतेनादन्यद्धवति न हि गोधा सपेन्ती सपेणादहि-
भवतीति भवेदव्येष्वेतदेवं स्यात् । शाब्दस्तु खलु येन येन विहोषेणाभिसं बध्यते तस्य
तस्य विशेषको भवति || अथवा सापेक्षो ऽयं निर्देशः क्रियते न चान्र्हिकिचिदषे-
श्यमस्ति ते संख्यामेवापेक्षिष्यामहे ॥
10 अध्यर्धग्रहणं च समासकन्विध्य्थम् ।॥ ९॥
अध्यरषव्रहणं च क्ष्यम् | कै प्रयोजनम् | समासकन्विभ्य्थेम् | समास-
विभ्वे कन्विध्यथै च | समासविध्यये तावत् | भध्य्षद्युपेम्* | कन्विभ्य्म् ।
भध्यधेकम्। ||
लुकि चाग्रहणम् ॥ £ ॥
इति | हिगोरिष्येव सिद्धम् ॥ | |
अरपपृत्ैपदश्च पूरणपस्ययान्तः ॥ ७॥
अरधपृवेपदश्च पुरणप्रत्ययान्तः संख्यासंज्ञो भवतीति वक्तष्यम् | क प्रयोजनम् ।
समासकन्विध्यथेमेव | समाघ्विभ्यये कन्विभ्यये च |. समासविभ्यथै. तावत् |
2० अर्धपञ्चमद्यूपेम् | कन्विध्यर्थम् । भर्षपञ्चमकम् ॥
अधिकग्रहणं चालुकि समासोनरपदव्र खयम् ॥ ८ ॥ `
अपिकयक्णं चालुकि कवैभ्यम् । किं प्रयोजनम् +. समासोत्तरपदवृद्र्थम् ।
समासविभ्यर्थमु ततर पदवुखय्थं च । समासविधष्यथः तावत् । अधिकषाष्टिकः अधे
कसाप्रतिकः ‡ । उलरपदवृ यथम् | भधिकषाष्टिकः अधिकसाप्रविकःऽ | . अनु-
25 कीति किमर्थम् | अधिकषाष्टिकः अधिकसाप्रतिकः 4 ॥
= २.९.५९५.९.२८२८. 1 ५.९.९२, {२९५१९९९८ इ 5.३.१९५. गं ९.९.२८
षुण १.१.२४. , ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ८३
बहुव्रीहो वाग्रहणम् || ९।।
बहूब्रीहै चाधिकशभ्दस्य महणं न कतैव्यं भवति | संख्ययाव्ययासन्नादुराध-
कसंख्याः संख्येये [२.२.२५९] इति । संख्येदयेव लिदम् ॥
बदादीनामग्रहणम् | ९० ॥ |
बह्वादीनां महणं शास्थमकतुम् । केनेदानीं संख्याप्रदेशषु संख्यासंप्रत्ययो भवि- 5
प्यति | ज्ञपकस्षिदडधम् | किं ज्ञापकम् | यदयं वतोरिडु |९.९.२३] इति
संख्याया विहितस्य कनो वत्वन्तादिटं शास्ति | वतोरेव तज्ज्ञापकं स्यात् |
नेत्याह | योगापेक्षं ज्ञापकम् ॥
ष्णान्ता .षट् ॥ १. ।९१ । ९४ ॥.
षट् संज्ञायामुपदेरावचनम् ॥ ५ ॥ 10
शट्संज्ायामुपदेकामहणं कतेव्यम् । उपदेशे षकारनक्रारान्ता संख्या षट्संश्षा
भवतीति वक्तव्यम् | किं प्रयोजनम् |
दताद्य्टनेर्नुषुडर्थम् ।॥ २९॥
तानि सहल्लाणि । नमि कृते ष्णान्ता षडिति षट्का प्रामेति* । उपदेश-
अहणाज्न भवति | अष्टानामिर्यत्रास्वे कृते षट्ेज्ञ। न प्रामोति† | उपदेग्राभरहणा- 15
वति ||
उक्तं वा| २॥
` किमुक्तम् । इह तसावच्छतानि सहस्र णीति संनिपातलन्षगो विधिरनिमित्तं तहि-
धातस्येति‡ | अशटनोऽ्प्युक्तम् । किमुक्तम् । अशनो दीर्षपहणं षट्संज्ाज्ञापकमा-
कारान्तस्व नुडथंमितिऽ ॥ ४0
अथवाकारो ऽप्यत्र .निरदिदयते । षकागान्ता नकारान्ताकारान्ता च संख्या षद्-
संञा भवतीति | इहापि तर्हि प्रामोति | सधमादो दुर एकास्ता एका इति4 | वेष
कोषः | एकशब्दो अयं बहथः । भस्स्येव संख्यापदम् 1 तद्यथा | एको हौ बहवं
कवि । अस्स्यसहायवाची | तद्यथ | एकाम्रयः एकहलानि एकाकिमिः क्षु द्रकभि
हमिति । मतदावैरिस्यथः | अंस्स्यन्या्थै वतेते † तथा | प्रजामेका रकषस्ु्जमे- 25
[कक "रीगागमः
# ७.९. णद्; देर्, 1 भन्, ८४; ७१.८५. द ९.१.३९१ $ ६.१.१०१ नु ७.१२
१4. ॥ व्याकरणयहाभाष्यय् ॥ , [मण ६.६५
केक्रि| अन्येत्यथेः । सधमादो द्यत्र एकास्ताः | अन्या हृस्य्थः । तद्यो ऽन्यार्थे व -
मैते. तस्थेष भरयोगः || इह तर्हि प्रामोति । हाभ्यानिष्टये विशस्य चेति" || एवं ता
सप्रमे योगविभागः करिष्यते | अष्टाभ्य ओश् | ततः षड्भ्यः | षडभ्यथ यदुन्क -
मष्टाभ्योऽपि तद्भवति । ततो लुक् । लुक् च भवति षड्भ्य इति }| अथवोपरि्टाशो-
¢ गविभागः करिष्यते‡ | अष्टन आ विभक्तौ | ततो रायः | रायश्च विभक्तावा-
` कारादेशो भवति | हरील्युभयोः देषः || ` ययेवं प्रियाष्टी प्रियाष्टा- इति न सिध्यति
पियाष्टानौ प्रियाष्टान इति च प्राप्रोति | यथालक्षणमप्रयुक्ते |
इति च| १९ ।१ । २५ ॥
इदं डतिगव्रहणं दिः क्रियते संख्यासंश्षायां षट्संज्ञायां म | एकं शक्यमक्ुम् |
10 कथम् | यदि तावत्संख्यासंज्ञायां क्रियते षट्संज्ञायां न करिष्यते | कथम् । ष्णान्ता
कडित्यत्र उतीत्यनुवार्तिभ्यते | अथ षट्संज्ञायां (क्रियते संख्यासंज्ञायां न करिभ्यते|
डति चेस्यत्र संख्या संज्ञप्यनुवर्षिष्यते ॥
क्तवत् निष्ठा ॥ १ । १. । २६ ॥
निष्ठासंज्ञायां समान गब्दपरतिषेधः ॥ ९॥
15 निष्ठासंज्ञायां समानश्ञष्दानां प्रतिषेधो बक्तव्यः | ठोतः गतै इति |
निष्टासंज्ञायां समानराब्दाप्रतिषेधः ॥ २ ॥
निश्ठासंशायां समानरदाभ्दानामप्रतिषेधः | अनथकः प्रतिषेपो प्रतिषेधः | नि-
क्संक्ष। कस्मान्न भवति | अनुबन्धो ऽन्यत्वकरः | भनुबन्धः क्रियते सो ऽन्यस्वं
करिष्यति ॥
20 अनूचन्धो ऽन्यत्वकर हति चेन्न लोपातं | ३॥
अनुबन्धो ऽन्यत्वकर हति चेत्तन्न | किं कारणम् । लोपात् । लुप्यते अत्रानुबन्धः|
लुप ऽत्रानुबन्धे नाम्यत्वं भविष्यति | तद्यथा | कतरषेवदन्तस्य गृहम् । भदो यद्चा-
सौ काक इति | उत्पतिते काके नष्टं तद्ुहं भवति | एवमिहापि लुम ऽनुबन्षे . नष्टः
# ६, १. १७०. ‡ ७.९. २२. ` ‡ 9, २.८५.
वऽ १.१.२५-२६. ] ॥ वकाकरणमहाभाष्वयं ॥ | ८५५
्रस्यवो भवति || यष्यपि कुप्यते जानाति त्वसौ सानुबन्धकस्येयं संज्ञा कृतेति |
तेथथा | इतरत्रापि ` कतरहेवद सस्य गृहम् । अदो यत्रासौ काक इति | उत्पतिते
काके यद्यपि नष्टं तद्गृहं भवस्यन्ततस्तमुहेदां जानाति ॥
सिद्धविपयासश्च ॥ ४॥।
सिडथ विपयोसः | वद्यपि जानाति संदे्स्तस्य भवत्ययं स तशब्दो लोतैः 5
मतं इत्ययं स ताष्यो लूनः गीणै इति | तद्यथा | इतरञ्पि कतरहेवदतस्य
गृहम् । अदो यत्रासौ काक इति | उत्पतिते काके यद्यपि तमुहेशं जानाति संदेहस्तु
तस्य भवतीदं तद्ृहमिदं तदृहमिति || एवं तर्हि
कारककालविरोषास्सिद्धम् || ९ ॥ `
कारककारविदोषावुपादेयौ । भूते यस्तराब्दः कर्तरि कमेगि भावे चेति |. तथ~ 10
था | इतरत्रापि य एष मनुष्यः प्क्षापुरवैकारी भवति सो ऽ्ुवेण निमित्तेन धुवं
निमित्तमुपादते वेदिकां पुण्डरीकं वा || एवमपि पाकी स्यत्र प्राप्रोति |
लुडि सिजादिददोनात् ।। ६ ॥।
लुङि सिजादिददहौनाच्न भविष्यति | यत्र तार्ह सिजादयो न शृदयन्ते प्राभि-
तेति । बृदयन्ते ऽ त्रापि सिजादयः | किं वक्तव्यमेतत् | न हि । कथमनुष्यमानं 15
ग॑स्वते | यथेवायमनुगदिष्टान्कारककाठविरोषानवगच्छत्येवमेतदप्यवगन्तुमहीति यञ्ज
सजादयो नेति |
इति श्रीभगवत्पतश्चकलिनिरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे
पारे पञ्चममाद्धिकम ॥
८६ ॥ भ्याकरणमहामाष्यम् ॥ = - [म०६.१.६.
` :सवोदीनि सवेनामानि ॥ १. । १. । २७ ॥
` सवौदीनीति कोऽयं समासः | बहुव्रीहिरिस्याह 1 कोऽस्य विग्रहः ` | स्व शाग्द
आदिर्येषां तानीमानीति । यथेवं सवेकशष्दस्य सवेनामसंज्ञा न भरामोति | (क कार-
णम् | अन्यपदा्थस्वाद्भहुव्रीहे | बहुव्रीहि रयमन्यपदार्थे वर्तते | तेन . यदन्यत्स-
2 वैराभ्दा्तस्य सवैनामसंज्ा - प्रामोति | तद्यथा | चिच्रगुरानीयतामिस्युक्ते यस्य ता
गावो भवन्ति स आनीयते न गाबः | नैष दोषः | भवति बहूव्रीहौ तहुणसंधिज्ञाः
नमपि । तदथा | चि्रवाससमानय | लोहितीष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्ति | तहुण
भानीयते तहुणा भचरन्ति | ` |
इह सर्वेनामानीति पूवैषदास्संश्ञायामणः [ ८. ४. १. ] इति णत्वं प्ाभोति तस्व
10 प्रतिषेधो वक्तव्यः | |
. सवंनामसंज्ञायां निपातनाण्णस्वाभावः ॥ ९ ॥ `
सवैभामसं्ञा्यां निपातनाण्णत्वं न भविष्यति | किमेतत्निपातनं नाम | अथ कः
प्रतिषेधो नाम | अविरोषेण किंचिदुंक्का विरोषेण नेस्युर्थते | तत्र व्यक्तमाचार्यं-
स्याभिपरायो मस्यत् इदं न॒ भवतीति | निपातेनमप्येवंजाती्ंकमेव । अविषोषेण
15 मस्वमुकका विरोषेभ निपातनं (करियते | तत्र व्यक्तमाचार्यस्याभिप्रायो गम्यत इदं म
भवतीति | ननु च निषतनाश्चाणस्वं स्याद्यथाप्रापते च णत्वम् | किमन्येऽप्येषं विधयो
भगन्ति | रेको बणचि [दे .९.७७ | इति वचनाच यण्स्याशथामरापरेकम्रयेत | तेष
दोषः अस्त्यत्र विदोषः | षष्ठद्ात्र निर्दराः क्रियते षष्टी च पुनः स्थानिनं निवतैयति ||
हष तार्हि कतरि शप् [३.९.६८ | दि वारिभ्यः रयन् [६९ | इति षचनाश्च इयन्स्या-
20 अथापरा राप्भरुयेत | नैषः दोषः | हाबारेराः दर्मन्नादयः करिष्यन्ते | ततर्द
शपो प्रहणे कतेव्यम् । न फतैव्यम् | प्रकृतभनुवतेते | कृ प्रकृतम् । कमैरि
शानिति | तहे प्रथमानिर्दिष्टं षर्निर्दि्टेन चेशायेः । दिवादिभ्य इत्येषा पञ्चमी
शाबिति प्रथमायाः परध प्रकल्पयिष्यति तस्मादित्युत्तरस्य [९.१.६७ इति| प्रत्य -
यविधिरयं न च प्रत्थयविपौ पञ्चम्यः प्रकल्पिका भवन्ति | नाथं प्रस्ययविधिः |
25 विहितः प्रत्ययः प्रकृतथानुवतेते ॥ इह तद्यवष्ययसवेनाप्नामकच्पराक्टेः [९.३.७९]
इति वचनाशाकश्स्याद्यथाप्राप्रथ कः ूयेत | वैष दोषः | नाप्राप्ते हि के ऽकजार-
जै ब. ब, >.४. ~
प° २.१.२०. ॥ व्या ङरगमहामाप्यम् ॥ ८
भ्यते स वाधको भविष्यत | निपातनमप्येवंजातीयकमेव | नापरा णस्वे निपाव-
मारभ्यते तद्वाधकं भविश्यति || यदि तर्हिं निपातनोन्यप्येवंजातीयकानि भवन्ति
समस्तते दोषो भवति । इहान्ये त्रैयाकरणाः समस्तते विभाषा रलोपमारभन्ते -समो
हितक्ततयोर्वेति ` |` सततम् संततम् सहितम् संहितमिति । इह पुनभेवा्तिपातनाशच
मलोपमिच्छत्य परस्परा क्रियासातव्ये [६.१.१४४] इति यथापराप्रं चालोपं संतत- 5
भित्वेतच्च सिध्यति | कतैष्को त्र यल: । वाधकान्येव हि निपातनानि भवन्ति
संज्ञोपसजनप्रतिषेधः || २॥
सं्ञोपसओनीमूतानां सवादीनां परापिषेधो वक्तष्यः | सर्वौ नाम कथित्त्त
सवाव देहि | अतिसबौय देहि ॥ स कथं कतेव्यः | |
पाठाप्प्युदासः पठितानां संज्ञाकरणम् ॥ ६ ॥ . 210
पाठादेव पर्ुदासः कतेत्यः | शुद्धानां पठितानां संज्ञा कतैव्या | सर्वादीनि
सवेनामसंज्ञानि भवन्ति | संज्ञोपसजेनीमुतानि न सवौरीनि । किमविशेषेण |
नेत्याह | विदोषेण च | किं प्रयोजनम् |
सर्वाद्यानन्तर्यकायोीर्थम् || ४ ॥
सवौदीनामानन्तर्येण यदुच्यते कारे तदपि संशोपसजनीभूतानां मा भूदिति | 15
किं प्रयोजनम् | [र
प्रयोजनं डतरादीनामद्धाषे ॥ ५९॥ , |
डतरादीनामङ्धाषे प्रयोजनम् * | अतिक्रान्तमिद॑ ब्राह्मणकुलं - कतरत् अतिकतरं `
ब्राह्मणकुलमिति | ` ` ~.
स्यदादिषिधौ च ॥ ६ ॥ | | #
त्यदादिविपौ च प्रयोजनम् । अतिक्राम्तोऽयं ब्राक्मणस्तम् अतितद्भाक्मण इति |
संङ्ाप्रतिषेषस्तावच्चः वक्तव्यः | उपरिशब्योगविभागः करिष्यते; | पूवेषरा-
बरदस्िणो्रापराधराणि व्यवस्थायाम् । वतोऽसंज्ञायामिति । सर्बादीनी्येर्व
-बान्वनुक्रान्तान्यसंज्ञावां तानि द्रष्टव्यानि | उपसर्जनप्रतिषेधथ्च न कतेध्यः
अनुपरसजैनात् [४.९.९४] ह्येष योगः प्रत्याख्यायते तमेवममिसंमन्टस्वामः । 25
अनुपसर्जन अ अदिति | किमिदम भरिति । भकारास्कारौ शिष्वमाणावनुप्रसजैनस्य
+ ७,१,. २५. ¶ ७.२, ९०२. 4 ९.९.१३४.
द ॥ उयाकरणमहाथष्यम् ॥ = [म० ९.१.६९.
द्रष्टव्यौ । यद्येव मतियुष्मत् अस्यस्मदिति न सिभ्यति* | भरचिष्टनिरेरो अयम् |
भनुपसजेन भ अ भिति | भकारान्तादकारात्कारौ (शेष्यमाणाषनुपसजैनस्व द्रष्टः
न्यौ || अथवाङ्गाभिकारे यदुच्यते गृष्यमाणविभक्तेस्तद्भबति | यथेव परमपश्च
परमसप्र षड्भ्यो लुक् (७.९. २२] इति लुम प्रामोति । वैष दोषः | षटप्रधान एष
5 समासः || इह तर्हि प्रियसक्थ्ना ब्राहमणेनानङ्.न प्रामोति। | सप्रमीनिर्दिषटे यदुच्यते
्रकृतविभक्तौ तङ्बति | यद्येवमतितत् अतितदौ अवितद हत्यत्वं ्रामोतिः |
तश्चापि वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् । इह तावदद्डतरादिभ्यः पर्चभ्यः ७.९.२९] इति
पश्छस्यङ्क स्येति ष्ठी तव्राश्चक्षयं विविभक्तित्वाडतरादिभ्य इति पन्चम्याङ्ख विशे-
पयितुम् । तत्र किमन्यच्छकयं विशेषयितुमन्यदतो विहितास्रस्ययात् | डतरादिभ्यो
10 यो त्रिहित इति । इहे दानी मस्थिदधिसक्थ्यदेणामनङ्दात्त इति स्यदादीनामो भवती-
- व्वस्थ्वादीनामिव्येषा षश्च ङ्कस्येत्यपि स्यदादीनामित्यपि ष्ठश्चद्धस्येस्यपि | तश्र काम-
चारो गृद्यमाणेन वा विभक्ति विरोषयितुमद्धेन वा | यात्ता कामचार इह तावद-
स्थिदपिसक्थ्यश्ेणामनङ्दात्त हत्यद्गेन विभक्ति विशोषयिष्यामो ऽस्थ्यादिमिरनङम् ।
अङ्गस्व विभक्तायनङ् भवस्यस्थ्यादीनामिति | इहेदानीं स्यदादीनामो . भवतीति
15 गृह्यमाणेन विभक्छि विशेश्रयिभ्यामो ङ्गेनाकारम् । त्यदादीनां विभक्तावो भवस्य-
ङ्गस्येति । यथेवमतिक्तः अत्वं न प्रामोति | तरैष दोषः | व्यदादिप्रधान एष समासः ॥
अथवा नेदं स्॑ञाकरणं पाठविशेषणमिदम् । सर्वेषां यानि नामानि तानि खवोदीनि।
संशोपसर्जने च विशेषे ऽवतिषठेते | वेवं संज्ञाभ्रयं यस्कायै त्च सिध्यति | सवेनास्नः
स्मै [७.९.९४] आमि सर्वेनाघ्रः खट् [५२] इति । अन्वथैमहणं तत्र विज्ञास्यते |
20 सर्वेषां यज्ञाम तस्सवैनाम सवेनान्न उत्तरस्य ङेः स्मै भवति सवैनाघ् उन्तरस्वामः
चङ्भवति । यथेव सकं कृत्कं जगदिव्यत्रापि प्रामोति । एतेषां चापि राग्दाना-
मेकैकस्य स स जिषयस्तस्मिस्तस्मिन्विषये यो यः शाब्दो वतेते तस्य तस्य तस्मि-
स्तस्मिन्वर्तमानस्य स्वैनामकाये प्रामोति ।| एवं तद्युभयमनेन क्रियते पाठेव विश्य
ष्यते संज्ञा च | कथं पुनरेकेन यन्ेनोभयं लभ्यम् | ठभ्यमित्वाह | कथम् |
2६ एकदोषनिर्देशात् । एकशेषनिर्देशो भयम् । सवौदीनि च सधौरीनि च सर्वादीनि |
सथैनामानि च सर्वनामानि च सयैनामानि | सर्वादीति स्थनामतंज्ञानिः भवन्ति
सर्वेषां यानि च नामानि तानि सर्वादीनि | संज्ञोपसजने च विशेषे ऽवरतिषठेते || अथवा
मतीयं संशा क्रियते संज्ञाच नाम यतो न लघीयः | कुत. एतत् | कष्य हि
०.६, ३९. † ०.९. ०९. ०२. २०्र
१०८१. १.२५. | ॥ ्याकस्नमहाभाच्यय् ॥ (नै
संज्ञाकरणम् | तत्र महस्याः संज्ञायाः करण एतलयोजनमन्वथसंज्ञा यथा विज्ञा- `
येत | सवीरीनि सर्वनामसंज्ञानि भवन्ति सर्वेषां नामानीति चातः" सर्वनामानि |
संश्ञोपसजेने च विदोषे ऽवतिठिते ॥
भथोभस्य सर्वनामन्वे को ऽथः |
उभस्य सर्वनामत्वे ऽकजर्थः ॥ ७ ॥ $
उभ्य स्वनामस्े ऽक जयेः * पाठः क्रियते | उभकौ | किमच्यते ऽकज्थ इति
नै पुनरन्यान्यपि स्मैनामकायौगि | `
अन्याभावो द्विव चनटान्विषयत्वात् ॥ ८ ॥
अन्येषां सत्रैनामक्ायोणामभावः | किं कारणम् | हिवचनटाभ्विषयत्वात् |
उभशब्दो ऽयं हिव वनराभ्थिपरयो ऽन्यानि च सर्वनामकायौण्येकवचनबहुव चनेषू- 10
ष्यन्ते || यंदा पुनरयमुमशब्दो हिवचनटाभ्विषयः क इदानीमस्यान्यत्र भवति ।
उभयो ऽन्यत्र ॥ ९ || |
उभय शश्दो ऽस्यान्यत्र भवति | उभये देवमनुष्याः | उभयो मणिरिति.।। किं च.
स्याथथ्त्रा्रज्न स्यात् | कः प्रसज्येत । कशेदानीं काकचोर्विशेषः ।. उभशब्दो अवं
हविवचनटान्तरिषय इत्युक्तम् । तजाकत्रि सत्यक चस्वन्मध्यपतितस्वाच्छक्यत एत-.15
दक्तु हिवचनपरो ऽयमिति | के पुनः सति नायं हिव चनपरः स्यात् | तत्र दवचन -
प्ता वक्तव्या | यवैत्र ता के सति नायं हिवचनपर एव्रमाप्यपि सति नायं
दित्रचनपरः स्यात् | तज्रापि शिव्रचनपरता वक्तव्या | अत्रचनादापि तत्परविज्ञानम् |
अन्तरेणापि वचनमापि हिव चनपरो ऽयं भविष्यति | किं वक्तव्यमेतत् | न हि ।
कथमनुच्यमानं गंस्यते | एकादेशे कृते हित्रचनपरो अयमन्तादिवद्धावेन | .20
अवचनादापि तत्परविज्ञानमिति चेस्वे अपि तुल्यम् ॥ ९० ॥।
अवचनीदापि तत्परविज्ञानमिति चेत्के ऽप्यन्तरेण वचनं हिवचनपरो भविष्यति|
कथम् । स्यार्थिकाः प्रत्ययाः पकृतितो अविशिष्टा भवन्तीति प्रकृतिग्रहणेन स्वार्थिका-
नामपि ब्रहणं भवति || - ~
अथ भवतः सवेनामत्वे कानि प्रयोजनानि | 28
भवतो ऽ च्छेषास्वानि ॥ ९९ ॥
भवतो ऽकच्ेषात्त्रानि प्रयोजनानि | भकच्* | भवकान् | दोषः† | सच
*#* ५.२३. ७१. ` ¶† ९.२. ७२.
14 तव
९.० ॥ भ्याकरणमहाभाष्यय् । ` ` [ म०९.१.६.
भवां भवन्ती | भाखम्* | भवादुगिति || किं पुनरिदं परिगणनमाहोखिदु-
दाहरणमात्रम् | उदाहरणमाश्रमित्याह |वृतीयादयो ऽपि हष्यन्ते | सवेनाप्नस्ततीया
च [ १.२.२१७ | | भवता हेतुना | भवतो हेतोरिति ॥
विभाषा दिक्समासे बहुत्रीहौ ॥ ९. ।१.।२८ ॥
5 दिग्रहणं किमथेम् | न बहूव्रीही [९.१.२९] इति प्रतिषेधं वक्ष्यति | तत्र
न ज्ञायते क्र विभ्वा क्र -प्रतिषेध इति | दिग्ग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति|
दिगुपदिष्टे विभाषान्यत्र प्रतिषेधः || कथ समासम्रहणं किमयम् | समास एव
„यो बडूत्रीहिस्तत्र यथा स्याद्रहृनीहिषद्धवेन यो बहृत्रीदिस्तत्र मा भूदिति । दक्ष-
णदक्षिणस्मै देहीति ॥ अथ बहृव्रीहिग्रहणं किमथेम् । हन्दरे मा भूत् | दक्षिणोत्तर -
10 पूवौणामिति । तैतदस्ति प्रयोजनम् । इन्दे च [ ९.१.३९ ] इति प्रतिषेधो भति-
ष्यति | नाप्रापरे प्रतिषेध इयं विभाषारभ्यते सा यथैव न बहूव्रीहाविस्येतं प्रतिषेधं
वाधत एवं इन्दे चेत्येतमपि वाधेत | न वाधते | किं कारणम् } येन नाप्राप्ने तस्व
वाधनं भवति | न चाप्राप्ते न बहूव्रीहाविव्येतस्मिन्प्रतिषेध इयं विभाषारभ्यते इन्द
` चेव्येतस्मिन्पुनः प्राप्रे चाप्रापे च || अथवा पुरस्तादपवादा अनन्तरान्विधीन्वाधन्त
15 इव्येवमियं विभाषा न बहूव्रीहावित्येतं प्रतिषेधं वाधिष्यते इन्द्रे चेव्येतं प्रतिषेधं न
वापिष्यते || अथवेदं तावदयं प्रष्टव्यः | इह कस्मान्न भवति | या पुवो सोत्तरा
स्योन्मुगधस्य सोऽयं पूर्वोत्तर उन्मुग्धः । तस्मे पूर्वोत्तराय देहीति | लक्षणप्रतिपदो-
क्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति । यद्येवं नार्थो बहृत्रीहिमहणेन | इन्द्रे कस्माच्च भवति|
लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति ॥ उत्तराये तर्द बहत्रीिमरहणं कव्यम् ।
20 न कमैव्यम् | क्रियते त्रैव न बहुत्रीहाविति | हितीयं कतेत्यम् | बहूव्रीहिरेव यो
बहृव्रीदिस्तत्र यथा स्याद्र त्रीहिवद्भावेन यो बहृत्रीदिस्त्र मा भृत् | एकैकस्मि
देहि§ । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | समास इति वतेते तेन बहुब्रीहि विशेषयिष्या-
मः | समासो यो बद्व्रीिरिति ॥ इदं ताद प्रयोजनम् । अवयवभुतस्यापि बह-
` ब्रीहिः प्रतिषेधो यथा स्यात् | इह मा मृत् | वखमन्तरमेषां त इमे वखरान्तराः ।
2; वसनमन्तरमेषां त इमे वसनान्तराः | वलरान्तरा्च वसनान्तराश्च वलान्तर वसना-
न्तराः ॥
~~ ----~-~ ० = न
# ६. ३. ९१. + २. २. २६. ‡ ८,२.१०. § ८.१. ९.
पर १,१.२८-२९. | ॥ उवकरन प्रहामोष्य क् ॥ . श
न बहुत्रीहौ ॥ ९. । १. । २९. ॥
कमुदाहरणम् | प्रियविश्वाय | नैतदस्ति प्रयोजनम् | सर्वाधन्तस्य बहुब्रीहिः
प्रतिपेषेन भवितव्यम् | बरकष्यति चैतत्" । बह्व्रीहौ स्वैनामसंख्ययोरुपसंख्यान -
मिति | तत्र विच्वप्ियायेति भवितव्यम् || इदं तर्हि | द्यन्याय श्यन्याय | ननु चात्रापि
सर्वनाप्न एव पूर्वनिपातेन भवितव्यम् । त्ष रोषः | वक्ष्यत्येतत् * | संख्यासवै -
नाघ्नोर्यो बहुव्रीहिः परत्वा्तत्र संख्यायाः पुवेनिपातो भवतीति || इदं बाप्युदाहर
णम् | प्रियविश्वाय । ननु चोक्तं विश्चभ्रिवायेति भवितव्यमिति | वक्ष्यव्येतत्* | वा
भिवस्येति || न खल्वप्यवदयं स वोयन्तस्येव बहुतरी हेः प्रतिषेधेन भावितव्यम् | किं
तर्हि | भसवाद्यन्तस्यापि भवितव्यम् । किं प्रयोजनम् | अकज्मा भिति | कि च स्या-
यदत्राकच्स्यात् | को न स्यात् | कथेदार्नीं काकचोर्षिोषः | व्यश्नान्तेष विदोषः| 10
भहकं पितास्य मकत्पितृकः स्वकं पितास्य त्वकतिपितुक इति प्रामोति | मत्कपि -
तकः स्वत्कपित॒क इति चेष्यते | कर्थं पुनारेच्छतापि भवता बहिरद्भैःण प्रतिषेषेना-
न्तरङ्गो विभिः शक्यो बाधितुम् | अन्तरङ्गानपि विधीन्बहिरङ्गो विधिवौधते गोम-
सिय इति यथा | क्रियते तत्र यलः प्रत्ययोत्तरपदयो्च [७.१.९८ | इति | ननु
चेहापि क्रियते न बतुत्रीहाविति । भस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् | किम् | प्रिय- 1४
विश्वाय | उपसरजैनप्रतिषेभेनाप्येतस्सिद्धम् ॥ अयं खल्वपि बहुव्रीहिरस्त्येव प्राथ-
मकल्पिको यस्मि्ैकपद्यतरैकस्वयेमेकविभक्तिकत्वं च | अस्ति तादथ्यौन्ताच्छब्ड्यं
बह्रीह्यथानि पदानि बहु तरीहिरिति । तद्यत्तादथ्यां्ाच्छग्थं तस्येदं हणम् || मोन-
रयि आद |
; भकच्स्रौं तु कतेव्वौ प्रत्यद्गं मुक्तसंरायौ |
स््रकसिपितुकः मकद्पितृक हत्येव॒ भवितव्यमिति ॥
प्रतिषेधे भूतपूवेस्योपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
प्रतिषेधे भुतपुवैस्यो पसंख्यानं कंतेव्यम् । आद्यो भूतपुवै आदयपुर्वः | आ-
बयपुवोाय देहीति ॥
# २. २, २५. #
20
९२ ॥ व्याक रणमराभाष्यम् ॥ ` [म० ९.९.६.
परतिघेपे भूतपूवैस्योपसंख्यानानर्थक्यं पकादीनां व्यवस्थायामिति
वचनात् ॥ > ॥
भरतिषेषे मुतपूर्वस्यो पसंख्यानमनयकम् । कै कारणम् । पूवौदीनां व्यवस्थाया-
भिति वचनात्* | पूवादीनां व्यवस्थायां सथैनामसंज्ञोच्यते न चात्र व्यवस्था ग-
5 म्यते ॥
तृतीयासमासे ॥ १. । १. ।२.० ॥
समास इति यतमाने पनः सम।समहणं किमर्थम् | भयं तृतीयासमासो ऽस्त्येव
प्राथमकल्यिको यस्मित्तेकपद्यप्रैकस्वयैमेकविमक्तिकत्वं च | अस्ति तादर््यात्ताच्छ-
न्धं तुतीयासमासाथनि पदानि तृतीयासमास इति । तद्न्तादथ्या्ताच्छन्ं तस्येदं
10 चहणम् || अथवा समास इति वतैमाने पुनः समासम्रहणस्थैतस्रयोजनं योगाङ्ग
यथोपजायेत | सति योगाङ्ग योगविभागः करिष्यते | तृतीया | तृतीयासमासे
सर्वादीनि सर्वनामसं्ञानि न भवन्ति | मासपूर्वाय देहि | संवत्सरपूर्वाय देहि ।
ततो ऽसमासे | भसमभासे चं तृतीयायाः सवौदीनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति | मा-
सेन पुर्वाय देहि ॥। |
13 विभाषा जसि ॥ ९, ।९। ३२ ॥
` जसः कायै भ्रति विमाषाकज्न्ि न भवति |
परावर दक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्
॥ १. ।१.।२.० ॥
अवरादीनां च पुनः सूत्रपाठे ्रहणान्थक्यं गणे पठितत्वात् ॥ ९ ॥।
20 अवरादीनां च पुनः सूत्रपाठे भरहणमनथेकम् । किं कारणम् । गणे पठितत्यात्।
गणे ह्येतानि पद्यन्ते । कथं पुनश्षयते स पूर्वः पाठो ऽयं पुनःपाठ इति | तानि हि पूवौ-
शैनीमान्यवरादीनि । इमान्यपि पवौदीनि । एवं तद्याचार्यमवृ्तिशीपयति ख पूरवः
पाठो ऽयं पुनःपाढ इति यदयं पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा [७.१.१६ | इति नवम्रहणं
* ६.९. ३४.
प” १,१.२०-३६. | ॥ व्याकरग्हामाष्यव् ॥ ९.४
केरोति । नवैव हि पुतादीमि || इदं तहिं प्रयोजने व्यवस्थावासतंज्ञावामिति
वक्यामीति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । एवंविशिष्टान्येवैतानि गणे पद्यन्ते || इदं
ताह प्रयोजनं व्यादिपर्युदासेन* पयुदासो मा मुदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् ।
भाचायपरवृत्तिज्ञापयति तैषां व्यादिपयदासेन परवदासो भवतीति यदयं पुवेत्रासिडम्
[८.३.१९] इति निपातनं करोति | वार्सिककारथ पठति जदभावारिति वचेदुत्तर- 5
्राभावादपवादम्रकषद्गः इति† || हदं तर्हिं प्रयेजनं जसि विभाषां कशष्यामीति ॥
स्वमज्ञातिधनाख्यायाम् ॥ १.।२१ ।२५ ॥
आख्यामहणं किमर्थम् । शातिधनपयौीयवाची यः स्वश्मब्दस्तस्य यथा स्यादिह
मा भृत् | स्वे पत्राः स्वाः पुत्राः | स्वे गावः स्वा गावः ||
अन्तरं बहि्येगिपसंन्पानयोः ॥ १. ।१.। ३.६ ॥ ` "
उपसंव्यानग्रहणमनयंकः बहिर्योगेण हइतस्वात् ॥ ९॥।
उपसंव्यानम्रकणमनयेकम् । किं कारणम् | भहिर्योगेण कृतत्वात् | बहिर्योग
इत्येव सिद्धम् ||
न वा शाटकयुगाय्थम् || २॥
न वान्थैकम् | किं. कारणम् । शाटकयुगाद्ययेम् ।. शाटकयुगाश्थे तर्हीदं व- 15
तव्यं यत्रैतच्च ज्ञायते किमन्तरीयं (केमुल्तरीयमिति | अत्रापि य एष मनुष्यः
रक्लापूतैकारौ भवति निज्गातं तस्व मव्रषीदमन्तरीयमिदमुत्तरीयमिति ॥ .
अपुरीति वक्तव्यम् |] इ मा भूत् । अन्तरायां पुरि वसतीति ॥
वाप्रकरणे तीयस्य डिन्सूपसंख्यानम् ॥ ३॥
वाप्रकरणे तीयस्य डिल्दपसंख्यानं कर्तव्यम् । तीया दितीयस्यै | तृती- %0.
यातरै तृतीयस्यै | विभाषा द्ितीयातृतीयान्याम् [७.३.९१९] इत्येतत वक्तव्य
मृवति | किं प्नरत्र ज्यायः । उपसंख्यानमेवात्र ज्यायः । हदमपि सिदध भवति।
हितीयाय हितीयस्मै | तृतीयाय तुतीयस्मै. ॥|
* ५.२. २. † <. ३. १२.
९४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ , [मम ९.९.६
सखरादिनिपातमन्ययम् ॥ १ । १. । २.७ ॥
किमथे पथग्परहणं स्वरादीनां क्रियते न चादिष्वेव प्येरन्* | चादीनां वा
असन्त्ववचनानां निपातसंन्ा स्वरादीनां पनः स्वव चनानामसच्ववचनानां च ॥
अथ किमर्थमुमे संज्ञे क्रियेते न निषातसंशैव स्यात् | त्वं शक्यम् | निपात एका-
5 जनाङ् [९.९.९४ | इति प्रगृ्यसंज्ञोक्ता सा स्वरादीनामप्येकाचां पसज्येत ॥ एवं त-
ह्ेव्ययसंजञैवास्तु । तचा शक्यम् । वक्ष्यत्येतत् । अव्यये नञ्कुनिपातानामिति † ।
तद्ररीयसा न्यासेन परि णणनं कतैव्यं स्यात् || तस्मार्थग्बहणं कतेव्यम् | उभे
च सज्ञे कर्तव्ये || ` |
तदवितश्वासवविभक्तिः ॥ १।१९।२८ ॥
10 असवेविभक्तावतिभक्तिनिमितस्योपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
भसवेविभक्तावविभकतिंनिमि त्तस्योपतलंख्यानं कतेभ्यम् । नाना विना | किं पुनः
कारणं न सिध्यति. |
सवेविभक्तेर्यविरोषात् ॥. २॥
सर्वविभक्तेर्धैष भवति | कि कारणम् । अविरोषेण विहितत्वात् |
1 ` त्रलादीनां चोपसख्यानम् ॥ ६ ॥
रलादीनां . चोपसंख्यानं कतेव्यम् | तच्र यत्र | ततः यतः | ननु च विंशषेषणेते
विधीयन्ते | प्रश्चम्यास्तसिल् [ ९.३.७ | समप्रम्याखल् [९०] इति । वक्ष्यत्येतत् |
इतराभ्यो अपिं इृदयन्ते [९४] इति || यदि. पुनरविभक्तिः शाब्दो ऽष्ययसंञ्ञो भव-
तीव्युख्येत | | |
20 | अविभक्तावितरेतराभयस्वादपरसिदिः ॥ *॥
अविभक्तावितरेतराश्रयत्वादप्रसिदिः संज्ञायाः | केतरेतरा्रयता |. सत्य्ि-
भक्तित्वे संज्ञया. भाषितव्वं संज्ञया चाविभक्तिस्वं भाव्यते तदितरेतराश्रयं भवति |
इतरेतराश्रयाणि च कार्याणि न प्रकल्पन्ते | |
## ९,४.५७. † ६.२.२.१ | { ९.२.२३७.
पा० ९.१.३.०-२८.| ॥ व्याकरणकहाभाच्यम् ॥ ९५
अलिद्गमसंख्यभिति वा ॥ ५1.
भथवानिङ्गमसंख्यमव्ययसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम् | एवमपीतरेतराश्चयमेव
भवति | केतरेतराञ्नयता | सत्यलिद्धासंख्यत्वे संज्ञया भवितव्यं संज्ञया चालि-
द संख्यत्वं . भाव्यते तदितरेतराभयं भवति | इतरेतराञ्रयाणि च कार्याणि न प्र- .
कल्पन्ते || नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंख्यता च । कं ताहे | स्वाभाविकमेतत् | 5
त्था | समानमीहमानानां चाधीयानानां च केचिदधैयज्यन्ते ऽपरे न | तत्र
क्ेमस्माभिः कु शक्यम् | स्वाभाविकमेतत् || तत्तर्हि वक्तव्यमालिङ्गमसंख्यमिति |
ने वक्तव्यम् |
सिद्धं त॒ पाठात् ।। £ ॥
पाठाङ्का सिद्धमेतत् } कथं पाठः कतेव्यः | तसिलादयः प्राक्पाश्चपः | कास्पर- 10
भृतयः प्राक्समासान्तेभ्यः | मान्तः | कृत्वोऽथेः | तसिवती | नानाञाविति ॥
अथवा वपुनरस्त्वविभक्तिः शब्दो ऽव्ययसंज्ञो भवतीत्येव | ननु चोक्तमवि-
भक्तावितरेतराञ्यत्वाद प्रसिद्धिरिति । नैष दोषः | इदं तावदयं प्रष्टव्यः | यद्यपि
तावदेयाकरणा विभक्तेलोपमारभमाणा अविभक्तेकाञ्डशाब्दान्पयुश्रते ये त्वेते ध
याकरणेभ्यो ऽन्ये मनुष्याः कथं ते ऽवेभक्तिकाञ्शब्दान्प्रयुष्त इति । अभिज्ञा 15
पुनर्लीकिका एकत्वादीनामथौनाम् | आतथाभिज्ञा अन्येन हि षङ्ञनेकं गां क्रीण-
न्त्यन्येन हावन्येन त्रीन् | अभिज्ञा न च प्रयुञ्जते | तदेतदेवं संकृदयतामथरू-
पमेत्रैतदेव॑जार्तःयकं येनात्र विभाक्तिने भवतीति | तथाप्येतदेवमनुगग्यमानं दृदय-
ताम् | किंनिरव्ययै विभक्तयथप्रधानं किचिच्करियाप्रधानम् | उच्चैनीचैरेति विभ-
त््यथ॑प्रधानं हिरक्पथगिति |क्रियाप्रधानम् | तद्धितश्चापि कथिदिभक्तयथप्रभानः 20
कञथिक्करियाप्रधानः | तन्न यत्रेति विभक्तययेप्रधानो नाना विनेति क्रियाप्रधानः | न
बैतयोरथयोर्सिङ्गसंख्याभ्यां योगो अक्ति |
अथाप्यसवविभक्तिरि स्युच्यत एवमपि न दोषः | कथम् | इदं चाप्यद्यत्वे
अतिबहु क्रियत एकस्मिन्नकवचनं इयोर्िव चनं बहूषु बहुवचनमिति | कथं तर्हि |
एकव चनमुत्सशः करिष्यते तस्य दवेबहेोरथयोर्दिव चनबहूवचने वाधके भविष्यतः || ४
न चाप्येवं विमदः करिष्यते | न सवौ भसवोः | भसवो विभक्तयो स्मादिति |
कर्थं तार्हि | न सवासर्वा | असवा विभक्तिरस्मादिति | त्रिकं पुनर्विभक्तिसंजञम् ||
# ४. ई, २१. ११.
९६ ॥ भ्याकरणमहाभष्यम् ॥ [भ०१.९.६.
` एवं गते कृत्यपि तुव्यमेतन्मान्तस्य कय ग्रहण न तत्र ।
ततः परे चामिमता न का्यौस्त्रयः कृरथा ग्रहणेन योभाः ॥
कृत्तदितानां ग्रहणं तु कायै संख्याविशेष ध्यभिनिश्िता ये ।
तेषां प्रतिषेधो भवतीति वक्तव्यम् | इह मा भृत् | एको द बहव इति ।
नस्मासस्वरादिग्रहणं च कायै कृत्तद्धितानां ग्रहणं च पदि ॥
पाठेनेयमव्ययसंज्ञा कियते सेह न प्रापमोति | परमोचैः परमनीत्रैरिति | तदन्त-
विधिना भविष्यति* | इहापि तर्हि प्राप्रोति | भव्युचचैः अत्यु्चैसौ अस्युञ्चेस इति |
ङपसजैनस्य नेति प्रतिगेपो भविष्यति | स तर्हि प्रतिषेषो वक्तव्यः | न बक्तव्यः. |
सपैनामसंज्ञायां प्रकृतः प्रतिषेध† इहानुवर्षिष्यते | स वै तत्र प्रत्याख्यायते | यथा
10 स त्न प्रत्याख्यायत इहापि तथा श्यः प्रत्याख्यातुम् | कथं स तत्र प्रत्याख्या -
यते | महतीयं संज्ञा क्रियत इति | इयमपि ` च महती संज्ञा क्रियते संज्ञा च
नाम यतो न ठषघीयः | कुत एतत् । रष्वं हि संज्ञाकरणम् | तत्र॒ महत्या
संज्ञायाः करण. एतत्यो जनमन्वरथसंज्ञा यथा विज्ञायेत | न व्येतीत्यभ्ययमिति|
कर पुनने व्येति | जीपुंनपुंसकानि सस्वरगुणा एकस्वदिस्व बहुत्वानि च | एतानयो ˆ
15 न्केचिद्धि यन्ति केचिच्च वियन्ति | ये न वियन्ति तदव्ययम् ||
सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सवो च विभक्तेषु |
वचनेषु च सर्वेषु यत्र भ्येति तदव्ययम् ॥|
कृन्मेजन्तः ॥ १. । १. । २९ ॥
कथमिदं तिज्ञायते | कथो मान्त इति । आहोस्वित्कृ दन्तं यन्मान्तमिति | कि
20 चातः | यदि विज्ञायते कृद्यो मान्त इति कारयांचकार हार यांचकारेत्यत्र न प्रामोति।
अथ विज्ञायते कृदन्तं यन्मान्तमिति प्रतामौ प्रतामः अत्रापि प्रामोति | यथेच्छसि तथा-
स्त || भस्त ताव्रत्कृथो मान्त हति | कथं कारयां चकार हारयां चकारेति | किं पनर
्राव्ययसंज्ञया प्राध्येते | अव्ययात् [२.४.८२] इति लुग्यथा स्यात् | मा मदेवम् ।
भामः [२.४.८१ | इत्येतं भविष्यति | न सिध्यति | लिम्रहणं ‡ तत्रानुषतेते । किय-
25 हणं निवर्तिष्यते | यदि निवतेते प्रत्ययमात्रस्य दुक्पाभोति | इष्यते च प्रत्ययमा-
रस्य | आतेष्यत एवं द्याह कृभ्चानु प्रयुज्यते रिटि [३.१.४०] इति | यदि
च प्रत्ययमात्रस्य लुग्भवति तत॒ एतदुपपन्लं भ्रति || अभयवा पुनरस्तु कृदन्तं
# ९, १. ७. ¶ ९.९. २९. # { २. ४,८१०.
०९.१.३९. | ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यय् ॥ ९9
बम्मान्तमिति । कथं प्रतामौ प्रताम इति । भआवचार्यपरवृ्िज्ञोपवति न प्रस्ययलक्ष-
गेनाग्वबसंज्ञा मवतीति यदयं प्रश्ान्दाब्दं स्वरादिषु पठति ॥
हन्मेजन्तश्चानिकारोकारपकतिः ॥ ९ ॥
कृन्मेजन्तथानिकारोकारपरृतिरिति वक्तव्यम् । इद मा भूत् | भाषये भाषैः |
विङीषेवे निकीर्षोरिति ॥ 5
अनन्यप्रकृतिरिति वा ॥ २ ॥ |
अभवानन्वप्रकृतिः कृदव्ययसंश्जो भवतीति वक्तव्यम् || किं पनरब्र ज्यायः ॥
अनन्यप्रकृतिव चनमेव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भव्रति | कुस्भकारेभ्वः कारक्परेभ्व
हति ॥ तनह वक्तव्यम् |
न वा संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिपातस्य | ६ ॥ 10
न वा वक्तव्यम् | किं कारणम् । संनिपातलक्षणो विधिरनिमितं तदिषावस्ये-
येषा परिभाषा कतेव्या || कः पुनरत्र विशेष एषा वा परिभाषा क्रियेतानन्वप्रक्ृ-
तिरिति बोध्येत | अवइयमेषा परिभाषा कतैव्या | बहुन्येतस्याः परिभाषायाः
प्रयोजनानि | कानि पुनस्तानि | |
प्रयोजनं हस्वतवं तुग्विधेग्रमणिक्लम्॥ ४ ॥ 15
प्ामणिङ्ुलम् सेनानिकुलमिस्यत्र हस्वस््े कृते ° हृस्वस्य पिति कति तुग्भव-
तीति। तुक्पामोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिषातस्येति न दोषो भवति |
त्ैतदस्ति प्रयोजनम् । बहिरङ्ग हस्त्रतलमन्तरङ्गस्तुक् । असि बहिरङ्गमन्तरङ्गे ||
नलोपो वृत्रहभिः ॥ ९॥
वृत्रहभिः भ्रुणहमिरित्यत्र नठोषे कृते‡ हृस्वस्य पिति कृति तुगभवतीति. तुक् 20
प्राप्नोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तरिघातस्येति न. दोषो भवति || एतदपि
नास्ति प्रयोजनम् | असिद्धो नङोपः$ । तस्यासिदडत्वाच्र भविष्यति ॥|
डदुपधत्वमक्षि स्वस्य निकुचिते ॥ & ॥
उदु पथत्वमकिस्वस्यानिभित्तम् | क्र | निकुचिते | निङ्ुनित इत्यत्र नलोपे
कृत¶ उदुपधाद्ावारिकर्मणोरन्यतरस्याम् [९.२.२९] हइत्यकिश्वं प्रामोति | ४६
= ६.६. ६९. † ६.९. ७१. = { ८.२७. 9 ८.२.२० ¶ ९.१.२४.
13
९८ ॥ व्याकरणगहाभाष्यम् । . [म०१.९.६.
संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्येति न दोषो भवति || एतदपि नालति
प्रयोजनम् । अस्त्वक्रकिर्वम् | न धातुलोप आर्षधातुके [९.९.४ ] इति प्रतिषेष
भविभ्यति ॥ |
नाभावो यञि दीर्षस्वस्यामुना । ७ ॥
$ नाभावो यनि. दीर्षत्वस्यानिमित्तम् । क | अमुना [ नाभाषै कृते*ऽतो ` दीं
यथि इषि च [७.३.१०९;१०२]| इति दीषेस्वं प्रामोति । संनिपातलक्षणो निधि-
रनिमिन्तं त्िषातस्येति न दोषो भवति ॥ एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । वक्ष्यस्ये-
तत् | न मु टादेश इति† |
| | आच्वं किच्स्योपादास्त ।। € ॥
10 आस्व कितत्वस्यानिमित्तम् । क । उपादास्तास्य स्वरः शिक्षकस्येति | आच्ते
कृते स्थाध्वोरिच्च [९.२.१७] इती च्वं प्रामोति । संनिपातलक्षणो विधिर निमितं
तद्िषातस्येति नं दोषो भवति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । उक्तमेतत् । रीड
प्रतिषेधः स्थाष्वोरि स्व इति, ||
तिसृचतसृत्वं डीव्विधेः | ९॥
15 तिसृचतसृत्वं ॐोभ्विभेरनिमित्तम् | क | तिस्लस्तष्ठन्ति | चतसरस्तिष्ठन्ति | तिसृ-
चतसृभावे कृत्॥ ऋन्नेभ्यो डीप् |४.९.९| इति ङीप्मापरोति । संनिपातलक्षणो
-विभिरनिमिततं तद्विषातस्येति न दोषो भवति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | आचा-
यपरवृ्ति्ञोपयति न तिसूचतसुभावे कृते डीभ्भवतीति यदयं न तिसृचतसृ [६.४.४|
इति .नामि दीर्षस्वप्रतिषेधं शास्ति ॥
20 इमानि ` तर प्रयोजनानि । शतानि सहस्राणि । नुमि कृते¶ृ ष्णान्ता षट्
[१.१.२४] इति षट्संज्ञा प्राभोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्येति
न दोषो भ॑वति || शकटौ पद्धतौ । भवे कृते** ऽतः [४.९.४ | इति टापरामोति |
संनिगतलक्षणो विधिरनिमित्तं तादिषातस्येति न दोषो भवति [| इयेष उवोष | गुणे
कृत।† इजादे गुरुमतोऽनृच्छः [३.१.३६ | श्याम्भामोति | संनिपातलक्षणो विभि-
25 रनिमित्तं तदिषातस्येति न दोषो भवति ॥
# ७.३. ९२० | ८.२ ३.४ { ६.९.५०. , § १.९.२०.
. . ॥ *.२.९९.
ष्] 9,१.७२. #* ७,३.९६.९.. +† ५,३.८६.
०९.१.३९] ! ॥ व्याकरनहाभाष्यम्.॥ ८९९
तस्य दोषो वणौश्रयः भरस्ययो व्णविचालस्य.॥ ९० ॥ , .
तस्यैतस्य लक्षणस्व रोषो वणौन्रयः प्रत्ययो वर्णविचालस्यानिमित्तं. स्थात् |
क | अत इञ् [ ४.९.९९ ]* | दाक्षिः आकिः | न प्रत्ययः संनिप्रातरक्षगः | भङ्ग-
घज्ञा तद्यनिमित्तं स्यात् ॥ )
अच पुण्विधेः क्रापयति ॥ ९९ ॥ £
आच्ं पुण्विधेरनिमित्तं स्यात्{ | क | क्रपियतीति ॥ ` `
पुग्धरस्वत्वस्यादीदपत् ।। ९२ ॥
पुरप्रस्वत्वस्थानिमिनत्तं स्यात् | क | अदीदपदिति ॥
व्यदाद्यकारष्टाल्विधेः ।। ९६ ॥
त्यदाद्यकार्टभ्विधेरनिमितचं स्यात्॥ | क । यासा. ` - 10
इड्पिराकारलोपस्य पपिवान् ॥.९४॥
, इद्िधिराकारलोपस्यानिमितं स्यात्4 । क्र | पपिवान् तस्थिवानिति ||
मतुन्विभक्तयुदात्तत्वं पूर्वनिषातस्य ॥ ९५
भतुष्विभक्तयुदा त्तत्वं पूवनिषातस्यानिमित्तं स्यात् । क | अभिमान् वावु-
मान् । परमवाचा परमवाचे || , , .. . , 15
नदीहस्वत्वं -संबुदिलोपस्य ॥ ९६ ।|
नदीहस्वत्वं संबुद्धिलोपस्यानिमित्त स्यात्।† | क | नदि कुमारि. किशोरि
ब्राह्मणि ब्रह्मबन्धु | हस्वत्वे कृत ॒एड्हस्वास्सं बुद्धेरिति लोपो न. परामोति ।-- मा
मृदेवम् | म्यन्तादिल्येवं ‡‡ भविष्यति | न सिध्यति । दीरषौदित्युच्यते हस्वान्ता्च
न प्रामोति | इदमिह संप्रधार्य । हस्वस्वं॒॑क्रियतां संबुद्धिलोप इति किमत्र कतै- 20
म्बम् | परत्वाद्धस्वस्वम् । नित्यः संबदधिलोपः । कृतेऽपि हस्वत्वे प्रामोत्यंकृते
अपि । अनित्यः संबुद्धिलोपः 1 न हि कृते. हस्वस्वे प्रामोति । किं. कारणम् |
सैनिपातलद्षषणो विधिरनिमित्तं तद्िषातस्येति ॥ ।
एते . दोषाः समा भूयांसो वा -तस्माच्चार्थो -ऽनया परिभाषया | न हि . रोषा
सन्तीति -परिभाषा न कतैव्या लक्षणं वा .न प्रणेयम् |-न हि भिकषुक्राः. सन्तीति 25
ॐ ६.०४. ९४८. 2 ९.४.९३. { ५,९.४८; ०.२.२६. $ ७.३.३६; ०.४.९. || ७.२.९०२; ४.९.४.
ष .०म.५० ५.४.६४. . >+ ५.६.१०६; १६९१ ५८. 11 ०.२.९००; ६.१.६२. {{-६.१.६८.
१.८० ॥ व्याकरणकहाभोष्यपःः ॥ [मण ९.९.
स्थाल्यो नाचिश्रीयन्ते न च मृगाः सन्तीति यवा-गोप्यन्ते | दोषाः खल्वपि साकल्येन
परिगणिताः प्रयोजनानामुदाहरणमात्रम् | कुत एतत् | न हि दीकषणां र्षणेमस्ि 1
तस्माान्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि तदथेमेषा परिभाषा कंतेष्या प्रतिविभेवं
दोषेषु |
६ अव्ययीभावश्च ॥ १ । १। ४१ ॥
अभ्ययीभावस्याव्ययतवे प्रयोजनं लुग्मुखस्वरोपवाराः ॥ ९ ॥
भव्ययीमावस्याव्ययत्वे प्रयोजनं किम् | लुमुखस्वरोपचाराः ॥ लुक् | उपरि
प्रत्याभि । अव्ययात् [२.४.८२] इति ठुकसिद्धो भवति | मुखस्वरः | उपाभिमुखः
प्रस्यक्निमुखः । नाव्ययदिक्डाब्दगो महस्स्थुलमुषटिष्रथुषस्तेभ्यः [ ६.२.१६८ ] इति
10 प्रतिबेधः सिद्धो भवति || उपचारः | उपपयःकारः उपपयःकम इति | अवतः
कृकमिकंसकुम्भपात्रकु शाकर्णीष्वनव्ययस्य [ ८.३.४६ | इति प्रतिषेधः सिद्धो
भवति || किं पुनरिदं परिगणनमाहोख्िदुदाहरणमात्रम् । परिगणनमित्याद ॥
भपि खल्वप्याहूः | धरन्यदव्ययीभोवस्याव्ययकृतं प्राप्रोति तस्य प्रतिषेधो वन्त्य
इति । किं पुनस्तत् † पराङ्गवद्भावः | परा ङ्गवद्भवि ्ययप्रतिषेधथोदित - उश्चैरधीयान
15 नीैरषीयानेस्येवमर्थेम् | स॒ इहापि परामोति | उपाम्पधीयान प्रस्यभ्यषीयान ॥
भकध्यव्ययप्रहणं क्रियत उच्चकैः नी वकैरिस्येवमथेम् । तदिष्ापि प्रामोति ।
उपाभिकम् प्रस्यभ्रिकमिति || मुस्वव्ययप्रतिषेध उच्यते{ रोषामन्यमहः दिवामन्या
रात्रिरित्येवमथम् । स इहापि प्रामोति | उपकुम्भंमन्यः उपमणिकंमन्यः || भस्य
स्यावव्ययप्रतिषेध उच्यतेऽ रोषामुतमहः दिवाभूता राभरिरिव्येवमयेम् । स इहापि
90 प्रामोति । खपकुम्भीभूतम्. उपमणिकीभूतम् ॥
अदि. परिगणनं क्रियते नार्थो ऽव्ययीभाषस्यास्ययसंशया | कथं यान्यम्यकी-
भावस्याध्ययस्वे श्रयोजनानि | वैतानि सन्ति | यत्तावदुच्यते लुभिव्याचाययैमव्-
िज्ञौपयति भवस्यव्ययीभावाह्लुभिति यदयं नाव्ययीभावादतः [२.४.८३] इति
प्रतिषेधं शास्ति | खपषारः | अमु्तरपदस्थस्येति वतैते। | तन्न मुखस्वर एक
25 भ्रयोजवति न अकं प्रयोजनं योगारम्भं प्रयोजयति । ययेतावल्मयोजमं स्याने वायं
जरुयाच्चाव्ययादव्ययीभावाचेति ॥
*२.६.९१ † ९.२.७१ { ९.२.६६-६५, $ ०,४.३२. || ८.३.४५९.
नके ०
पाज ९,१.४१-४४.] ॥ व्याकरनबहामाध्यम् ॥..; ~ :.. ::-:::-: शै
शि सवेनामस्यानम् ॥१।१।४२॥ सुडनपंसकस्य ।॥१.।१।४२॥
शि सवैनामस्यानं सुडनपुंसकस्येति चेज्जसि दिप्रतिषेधः ॥ ९ ॥
शि सवैनामस्थानं छडनपंसकंस्येति चेज्जसि दोः प्रतिषेधः प्राभोति } कुण्डानि
तिष्ठन्ति | वनानि तिष्ठन्ति ॥
भसमर्थसमसथायं श्रष्टभ्यो ऽन्सकस्येति | न हि नञो नपुंसकेन साम्यम् | 5
ढेन तर्हि | मवतिना | न भवति नपुंसकस्येति ॥।
यत्तावदुच्यते शि सथैनामस्थानं छडनपुंसकस्थेति चेज्जसि शिप्रतिषेध इति ।
नाप्रतिषेधात् || नाय॑ प्रसज्यप्रतिषेधो नपुंसकस्य मेति । किं तरदं | पयुदासो ऽवं
यदन्यश्नपुंसकादिति | न॑ सके व्यापारः | यदि केनचितपामोति तेन भविष्यति |
पर्वेण च प्राभोति ॥ 10
अप्राप्रेवा | भथवानन्तरा या प्रात्निः सा भरतिषिध्यते | कते एतत् | अनन्तरस्य
विधिश्रौ भवति प्रतिषेधो वेति । पूर्वा प्राप्निरभरतिषिद्धा तया भविष्यति । ननु चैयं `
परापनिः पूर्वा पानि वाधते । नोस्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम् |
यदप्युच्यते ऽखमर्थसमासथावं द्रष्य इति यद्यपि वक्तव्यो अथकरैतर्दि बहनि
परयो जनानि । कानि | भदर्यैपदयानि मुखानि । अपुनर्गेयाः शोकाः | अभ्नाङडभोजी 15
ब्राह्मण इति ||
। न वेति विभाषा ॥ ९. ।.९. । ४४ ॥
न वेति विभाषायामथेसंज्ञाकरणम् ॥ ९ ॥
न वेति विभाषायामथेस्य संज्ञा कतैव्या | नवाश्ब्दस्य यो अथस्तस्य ` संज्ञा
भवतीति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् ) |
शब्दसंज्ञायां श्यथोसंभरत्ययो यथान्यत्र ॥ २ ॥ |
छम्दसंश्चायं &ि सत्यामथेस्यालपरत्ययः स्याद्मथान्मन्र | अन्यत्रापि शब्दसं्ञावां
शष्दस्य संप्रस्ययो भवति नाथस्य । कान्यत्र | दापा ष्वम् [९.९..०]- तर-
* ७,९.७द्
१०९६: :::27:7:;; : ~ ॥ पककरनमहाभष्वम् ॥ . ` ~र म० १.१.६.
परमौ घः [२२९] इति धुमहणेषु षम्रहणेषु च शाब्दस्य संप्रत्ययो भवति नाथस्य ॥
तृत म्रक्रष्यम् | न वक्तव्यम् | |
इतिकरणो अयैनिर्देशार्थः ॥ ३ ॥ `
„ इतिकरणः. क्रियते सो. ऽथविर्दशार्थो भविष्यति | किं गतमेतदितिनाहोसि्विच्छब्दा-
5 धिक्यादर्थपिक्यम् । गतमित्याह । कुतः | लोकतः | तथा | लोके गौरित्यय-
' मादेति गोशब्दादितिकरणः प्रः प्रयुज्यमानो गी शब्दं स्वस्मात्पदायोत्मच्यावयति |
सो ऽसौ स्वस्मात्पदाथौलध्युतो यासाव्थेषदाथेकता तस्याः शष्दपदाथेकः संपद्यते |
एवमिहापि नवाश्चब्दादितिकरणः परः प्रयुज्यमानो नवाशब्द स्वस्मासराथोखच्या-
वयति । सोऽसौ स्वस्मात्पदाथौलच्युतो यासौ शब्दपदाथैकता तस्या रीकिकमर्थं
10 संप्रत्याययति | न वेति यद्कम्यते न वेति. यलतीयत इति ॥
समानरान्दप्रतिषेधः | ४॥
` समानाम्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | नवा कुण्डिका | नवा षटिकेति । किं च
स्या्ययेतेषामपि विभाषासंज्ा. स्यात् | विभाषा दिक्समासे बहव्रीहौ [१.१.२८] ।
दक्षिणपुतैस्यां शालायाम् । अविरकृतायां संप्रत्ययः स्यात् ॥
1४ न वा विधिपूर्वकत्वास्मतिषेधसंप्रस्ययो यथा लोके ॥ ५ ॥
न वैष दोषः | किं कारणम् | विधिपूवैकल्यात् | विधाय किंचिन्च वेद्युच्यते |
तेन प्रतिषेधवाचिनः संप्रत्ययो भवति. । तद्यथा रेके । भामो भवता गन्तव्यो न
वा | नेति गस्यते || अस्ति कारणं येन लोके प्रतिषेधवाचिनः संप्रत्ययो भवति |
किं कारणम् । विरद हि भवाङ्षीके निर्देशं करोति । अङुः हि समानलिङ्को निर्देशः
20 क्रियतां प्रत्यमरधाचिबः संप्रत्ययो भविष्यति । तद्यथा | भामो भवता गन्तव्यो नवः |
प्रस्यम्र इति गम्यते || एतथैव न जामीमः क्रचिग्याकरणे समानलिङो निर्देशः क्रियत
हति | अपि च कामचारः प्रयोक्तुः शब्दानाममिसेबन्धे | तद्यथा | यवागूमैवता
भोक्तव्या नवा । `यदा यवामुराष्दो भुजिनाभिसंबध्यते भुजिनैवादाब्देन तदा प्रति-
देषवाचिनः संभरस्ययो मवति | यवागुभेवता . मोक्तव्या नवा {. नेति गम्यते |
25 वंदा यवागृशम्दो नवाशम्देनामिसंबभ्यते न भुजिना . तदा -परत्यमवाचिनः . संप्रत्ययो
भवति | यवागुनैवा भवता भोक्तव्या .। प्र्वग्रेति गम्यते | न वेह वयं विभाषा-
पा०.९.१.४४. 1 व्याकरनप्रदापावष्येय् १०३६
प्रहणेन सवौदीन्यभिसंबधमः | दिक्समासे बहूवीरौ सकौदीनि विभाषा भवन्तीति।
किं तरि | भवतिरमिसं बध्यते | दिक्समासे बहूव्रीशै सवादीनि भवन्ति विभाषेति |
विध्यनित्यत्वमनुपपन्नं प्रतिषेधसंज्ञाकरणात् ।। & ॥
विधेरनित्यत्वं नोपपद्यते । शुशाव द्ुशुवतुः शुशुवुः । शिश्वाय शिधियतुः
शिधियुः° | किं कारणम् । प्रतिषेषसंज्ञाकरणात् । प्रतिषेधस्येयं संज्ञा क्रियते | 5
.तेन .विभाषपप्रदेहेषु प्रतिषे धत्यैव संप्रत्ययः स्यात् ||
सिद्धं तु प्रसज्यप्रतिषेधात् ॥ ७॥
सिद्धमेतत् । कथम् | प्रसज्यप्रतिषेधात् | प्रसज्य किचित्च वेर्युच्यते | तेनोभयं
भविष्यति | |
१०
विप्रतिषिद्धं तु ।॥ ८॥
विप्रतिषिद्धं तु भवति | अज्र न ज्ञायते केनाभिप्रायेण प्रसजति केन निवृत्ति
करोतीति ||
न वा प्रसद्गसामय्यौदन्यत्र प्रतिषेधविषयात् | ९॥
न व्रैष दोषः | किं कारणम् । प्रसङ्गखामभ्यौत् | प्रसङ्गसाम््याश्च विधि्म-
विष्यव्यन्यत्र प्रतिषेधविषयात् । प्रतिषेधसा मथ्य प्रतिषेधो भविष्यत्यन्यन्र विधि- 15
विषयात् |] तदेतत्क सिद्धं भवति | यापरापरे विभाषा | या हि प्राप्रे कृतसामथ्यैस्तत्र
प्रेण विधिरेति कृस्त्रा प्रतिषेधस्यैव संप्रस्ययः स्थात् | एतदपि सिद्धम् । कथम् |
विभाषेति महती संज्ञा क्रियते । संज्ञा च नाम यतो न रुषीयः | कत एतत् |
रष्वर्थं॑हि संज्ञाकरणम् | तत्र महत्याः संज्ञायाः करण एतत्प्रयोजनमुभयो
संज्ञा यथा विज्ञायेत नेति-च वेति च | तत्र या तावदप्रातरे विभाषा त्र प्रतिषध्य 20
नास्तीति कृत्वा वेत्यनेन विकल्पो भविध्यति | या हि प्राते विभाषा तत्रोभयमप-
` स्थितं भवति नेति च वेति च | तत्र नेत्यनेन प्रतिषिद्धे वेत्यनेन विकल्पो भविष्य
ति || एवमपि
विधिप्रतिंषेधयोर्युगपद चनानुपपत्तिः | ९० ॥
` -विधिप्रतिषेधयोयुंगपदचनं नोपपद्यते । शुशाव शुशुवतुः. शुशुवुः । दिशाय 5
शिश्वियतुः क्षिशिवुः । किं कारणम् ।
* ६.९.१०
१८५४ ॥ व्याकरगद्हाभाषयय ॥ [भम ९.१.६.
भवतीति चेन्न प्रतिषेधः ॥ ९९ ॥
भवतीति चेततिषेषो न प्रामोति ॥
भेतिचेन्न विधिः ॥ ९२॥
नेति चेदहिधिने सिध्यति ॥
5 | सिद तु पूर्वस्योग्षरेण वाधितत्वात् ॥ ९६ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । पूषैविभिमु सरो विधिव धते | हतिकरणो ऽथेनिद जाथ
इत्युक्तम् ।।
साष्वनुदासने ऽस्मिन्यस्य विभाषा तस्य साधुस्वम् ॥ १४ ॥
साध्वनुशासने अस्मि उशाखे यस्य विभाषा क्रियते स विभाषा साधुः स्यात् ।
. १० समासश्चैव हि विभाषा तेन समासस्यैव विभाषा साधुत्वं स्यात् । अस्तु | यः साधुः
स प्रयोश्यते ऽसाधुन प्रयोक्ष्यते | न चैव हि कदाचिद्राजपुरुष हइत्यस्यामषस्वावा-
मसा धुस्वमिष्यते | अपि च
देधाप्रतिपत्तिः ॥ ९५ ॥
हषं दामब्दानामप्रतिपत्तिः | इष्छामथ पुनर्विभाषाप्रदेशेषु हेधं शाब्दानां प्रतिपत्तिः
15 स्यादिति तश्च न सिभ्यति || यस्य पुनः कायोः शाब्दा विभाषासौ समासं निवे-
तयति | यस्यापि नित्याः शष्दास्स्याप्येष न दोषः | कथम् | न विभाषाग्रहणेन
साधुस्वमभिसंबध्यते | किं तर्द । समाससंज्ञाभिसंबध्यते | समास इत्येषा संश
विभाषा भवतीति । व्यथा । मेध्यः पद्युर्विभाषितः | मेध्यो अनदान्विभावित इति ।
तैति नायैते ऽनङ्ा्चानङ्कानिति | किं ताईं । आलम्धव्यो नाकन्धव्य इति |
90 कायै युगपदन्वाचययीगपद्यम् ॥ ९६ ॥
कार्येषु शब्देषु युगपदन्वाचयेन च यदुच्यते तस्य युगपद्चनता प्राभोति | तव्य-
सथ्यानीयरः [२.१.९६] इक् च मण्डूकात् [४.९.९९९] इति || यस्व पुरनार्निस्याः
शाम्दाः भरयुक्तानामसौ सापुरषमन्वाचष्टे | ननु च यस्वापि कायोस्तस्वाप्येष न
दोषः । कथम् । प्रत्ययः परो भवतीत्युच्यते” न चैकस्याः परकृतेरनेकस्य॒पत्यय-
2, स्य युगपत्परस्वेन संभवो अस्ति । नापि ब्रूमः परस्ययमाला प्रामोतीति | कि ताह | |
[वकण कषप
#३,९.३,
पां०१.१.४४. ] ॥ व्यकरणमहाभाष्यय् ॥ १९०५
क्यमिति प्रयोक्तव्ये युगपद्धितीयस्य तृतीयस्य च प्रयोगः प्रामोतीति | नैष दोषः |
अषेगत्यर्धः शब्दप्रयोगः । अथे संप्रस्याययिष्याभीति शब्दः प्रयुज्यते | तत्रैकेन.
क्तत्वात्स्यार्थस्य द्वितीयस्य प्रयोगेण न भवित्व्यमुक्ताथोनामप्रयोग इति ॥
आचार्यदेशशीलने च तद्विषयता ॥ ९७॥
आत्राचैरेशरीःलनेन यदुस्यते तस्य तदिषयता प्राप्रोति | इको हृस्वो ऽउन्यो ऽ
गारवस्य [६.३.६९] प्राचामवृद्धकिफिन्बहलम् [४.९.१६०] इति गालवा एव
ह्वान्यु स्नीरन्प्राकषु तैव हि भिन्स्यात् । तथथा | जमदभिषो एतत्पश्चममव-
रानमव्राधत्तस्मान्नाजामदम्यः प्चावत्तं जुहोति ॥ यस्य पुननिस्थाः रभ्वा गाल-
वम्रहणं तस्य पजा देशयकणं च कीत्वैयेम् ! ननु च यस्यापि कौस्तस्यापि पजा
गारवम्रहणं स्यहेशापरहणं च कीत्यर्थम् || ` ` - 10
तत्कीर्तने च देधाप्रतिपत्तिः ॥ ९८ ॥
तस्कीने च हषं शाब्दानामप्रतिपत्तिः स्यात् | इष्डामथ पुनराचार्यमहणेषु देशाम-
हणेषु च दषं शम्दानां प्रतिपत्तिः स्यादिति तञ्च न सिध्यति ॥ -
अशिष्यो वा विदितत्वात् ॥ ९९ ॥ .
अशिष्यो वा पुनरयं. योगः | फ कारणम् | विदितत्वात् । यदनेन योगेन प्रा- 15
ध्यते तस्यार्थ स्य त्रिदितस्वात् | वे ऽपि येतां संज्ञां नारभन्ते ते ऽपि विभाष्य क्ते भनि-
त्यखमत्र गच्छन्ति | याज्ञिकाः खल्वरापि संज्ञमनारभमाणा विभाषेत्युक्ते ऽतिव्यस्र-
मवगच्छन्ति | तद्यथा । मेध्यः पश््विभाषितः । मेभ्यो ऽनङ्धान्विमाषित इति । भाल-
ग्पष्यो नालब्धव्य इति गम्यते || आचायः खल्वपि संज्ञामारभमाणो भूविष्ठमन्यैरपि
श्यैरेतमथे संप्रत्याययति । बहूलम् अन्यतरस्याम् उभयथा वा एकेषामिति || 2
अपरमि त्रिस्त॑शायाः ॥ २० ॥
हत उत्तरं या विभाषा अनुक्रमिष्यामो ऽपरा वां द्रष्टव्याः | त्रिसंशयास्तु भवन्ति
प्राप्ते पराप्र उभयत्र वेति ॥
इन्द्रे च विभाषा जसि [९.९.२१६] ॥।
प्रापे पाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापि कथं त्रप्राप्रे कथं वोभयत्र | 2;
उभयदम्दः सवौदिषु पद्यते तयपशायजादेराः क्रियते" तेन वा निव्ये प्राप्रे भ्न्यत्र
- नना
-----=--------~- ~~~
॥॥ ५.७ र 87)
14 +
९०६ ॥ ्याकरणपहाभाष्यसम् ॥ ` म० ९.९.६.
वाप्राप्त उभयत्र वेति । प्रापने | अयश्प्रत्ययान्तरम् । यदि प्रत्ययान्तर मुभयीती-
कारो नप्रामोति | मा भुदेवम् | मात्रच इत्येवं भविष्यति* | कथम् । मा्रजिति
नेदं प्रस्यययहणम् । किं तार । प्रत्याहार ग्रहणम् । क संनिविष्टानां - प्रस्याहारः ।
मा्रदाम्दात्ममत्यायचधकारात्† । यदि प्रतव्याहारमहणं कति तिष्ठन्ति भश्रापि
5 भरामोति | भत इति वतेते‡ । एवमपि तैलमात्रा घृतमाज्ा अत्रापि प्रभोति । सद् -
शास्याप्यसंनिविषटस्य न भविष्यति प्रत्याहारेण बहणम् ॥
ऊर्णोर्विभाषा [५.२.३६]
प्राने ऽप्राप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रप्त कथं वाप्राप्ति कथं वोभयन्न |
असंयोगाद्धिट कित् |१.२.९ | इति वा नित्ये प्राप्ते ऽन्यत्र वाप्राप्न उभवनत्र वेति ।
10 अप्राते || अन्यद्धि किन्वमन्यन्डिस्वम् |
एकं चेन्डित्कितो ॥
यद्येकं डिर्कितौ ततो ऽस्ति संदेहः | अथ हि नाना नास्ति संदेहः । यद्यपि
नानैवमपि संदेहः । कथम् । प्रौणवीति । स्वैधातुकमपित् [१.२.४] इति वा
नित्ये प्रति ऽन्यजर वाप्राप्र उभयन्न वेति । अप्राते ॥
15 विभाषोपयमने [५.२.९६] ॥
प्राप्ते ऽप्राप्न उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वापा कथं वोमयत्र |
गन्धने [९.२.९९] इति वा निस्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र ढेति | अप्राते |
गन्धन इति निवृसम् |
अनुपसगोद्रा [९.३.४३]
2 प्रापे आप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्रापे कथं वोभयच्र ।
वृत्तिसगेतायनेषु क्रमः [९.३.३८] इति वा नित्ये प्राम ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र
वेति | अप्राते | वृ ्यादिष्विति निवृत्तम् ॥|
विभाषा वृक्षमृगादीनाम् [२.४.९२] ॥
प्राप्रे ऽपराप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रपि कथं वाप्राप्रे कथं वोभयत्र |
25 जातिरप्राणिनाम् |२.४.६| इति या नित्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयज्र वेति |
भप्राप्ने | जातिर प्राणिनामिति निवृत्तम् ||
#* ४.१.१९५. † ५.२.३७-४३. { ४.९.४,
पा० १.९.४४. | ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम् ॥। ९०७
उषविद जागृभ्यो ऽन्यतरस्याम् [६.१.३८] ॥
प्राने ऽप्राप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्राप्रे कथं वोभयन्र |
्रत्ययान्तादिति' वा नित्ये प्रपि ञन्यज्र वाभराप्र उभयन्न वेति | अप्रप्ि | प्रस्ययान्तां
धात्वन्तराणि |
दीपादीनां विभाषा [३.९.६१९ ॥ 5
प्रते ऽपराप्र उभयत्र वेदि संदेष्ः | कथं च प्राप्रे कथं वाप्रत्नि कथं वोभयत्र |
भावकमेणोः [३.१.६६] इति वा निस्ये प्रापने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयज्न वेति |
प्राप्रे | कतैरीति हि वतेते | एवमपि संदेहो न्याय्ये वा कर्तरि कर्मक्मरि
वेति | नास्ति सदेहः । सकर्मकस्य कतौ क्मवद्वत्यक्मैकाथ दीपादयः |
अकर्मका अपि वै सोपसगौः सकर्मका भवन्ति | कमीपदिष्टा विधयः कर्मस्थभा- 10
वकानां कममेस्थक्रियाणां वा भवन्ति कतृस्थभाव्रकाश्च दीपादयः ॥
विभाषाग्रेप्रथमपूर्वेषु [३.४.२४] ॥
प्रापे ऽराप्र उभयन्र वेति संदेहः । कथं च प्रप्र कथं षाप्राप्रि कथं वोभयन्र |
भाभीश्ण्ये [३.४.२२] हति वा नित्ये प्राप्ने ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयनत्र वेति | अप्रा ॥
भाभीषण्य इति निवृत्तम् || 15
तृनादीनां विभाषा [६.२.१६९ | ॥
प्राप्रे ऽपाप्र उभयन्र वेति संदेहः | कथं च प्राते कथं वाप्राप्रे कथं वोभयन्र |
भाक्रोश्े [६.२.१५८] हति वा नित्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयन्र वेति | भप्रापे |
भा क्रोशा इति निवृत्तम् ॥
एकहलादौ पूरयितव्ये अ्यतरस्याम् [६.६.५९] ॥ 0
रत्नि प्राप्न उभयत्र वेति संदेहः ¡ कथं च प्राप्रे कथं वाप्राप्े कथं वोभयन्र |
उदकस्योदः संज्ञायाम् [६.३.९७] इति वा नित्ये पर्ति <न्यन्र षापराप्त उभयत्र
वेति । अप्राते | संज्ञायामिति निवृत्तम् |
ग्धादेरिजि पदान्तस्यान्यतरस्याम् [७.३.८,९] ॥
परकि ऽपाप्न डभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्राप्ते कथं योभयन्र | 25
इसीति या निस्ये प्रापने ऽन्य वापराप्र उभयत्र वेति | अप्रा । इति निवृ म् |
न ३.९.३५. . † ३.१.४८.
९०८ ॥ व्वाकरणमरभष्यय् ॥ ` "[म०९.१.६.
सपूवोयाः परथमाया विभाषा [ ८.९.१६] ॥
प्राते ऽप्राप्र उभयत्र घेति संदेहः | कथं च प्रापने कथं वाप्रप्ति कथं .वोभयनत्र |
चादिभिर्योय" इति वा नित्ये प्रपि ऽन्यन्न वाप्राप्र उभयत्र वेति | अप्राप्ते | चादि-
भिर्योग इति निवृत्तम् |
& ग्रो यङ्धघचि विभाषा [८.२.२०,५९१| ॥
प्राप्रे ऽपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्रे कथं वाप्रात्नि कथं बवोभयत्र |
यङीति वा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | अप्राप्ते | यङीति निवृत्तम् |
प्राम च ॥ ०९.
` इत उन्तरं या विभाषा अनुक्रमिष्यामः प्रपते ता द्रष्टव्याः | न्रिसेक्चयास्तु
10 भवन्ति प्राप्रे ऽपर. उभयत्र घेति ॥
विभाषा विभरलपि [९.६.५०] ॥
प्रपि ऽपाप्न उभयज्र वेति सदेहः | कथं च प्राप्ने कथं वाप्राते कथं बवोभयत्र ।
यन्तवाचाम् [९.३. ४८] .हति वा नित्ये प्राप्न ऽन्यन्न वाप्राप्न उभयत्र वेति । प्रपर |
्यक्तवाचाभिति हि वतेते |
15 विभाषोपपदेन प्रतीयमाने [५.३.७७] ॥ |
प्राते ऽपाप्र उभयन्न वेति संदेहः । कथं च प्राते कथं वप्रा कथं वोभयत्र |
स्वरितञितः [९.३.७२] इति वा निस्ये प्राने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | प्रपर ।
स्वरितानित इति हि वतेते ||
तिरो =न्तर्धौ विभाषा कामि [९.४.७१,७२] ॥
20 प्राप्रे पराप्त उभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्राते कथं वापरापने कथं वोभय ।
अन्तधौविति वा निस्ये प्राते ऽन्यत्र वाप्राप् उभयत्र वेति | प्राते | अन्तर्पाकिति हि वते।।
अधिरीश्वरे विभाषा इनि [१.४.९५७,९८] ॥
प्राति अपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राते कथं वापरापे कथं योभयज्र ।
हैश्र हति वा नित्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्त उभयत्र वेति | प्रापने | शर इति हि वसते ॥
यच्ििििहयाियोिििििेभयायययणयोदयाेिियिियायोकदोययाणयियनिकिधिय
¶* ९.१.४४. ॥ ध्वाकरमयहाभाष्यङ् | १९०९
दिवस्तदर्थस्य विभाषोपसर्गे [२.६.५८,५९]॥
प्रापे अप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्ते कथं वाप्रप्ति कथं वोभयन्र|
तदथस्येति वा निव्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | प्रापे | तदर्थस्येति हि वतेते |
उभयत्र च ॥ २ ॥
हत उत्तरं या विभाषा भनुक्रमिष्याम उभयत्र ता इष्ट्याः | तरिसंरायास्तु 5
भवन्ति प्राप्रे ऽपराप्र उभयत्र वेति || -
हकर रन्यतरस्याम् [९.४.५६३ | ॥
प्राप्ने आप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्ने कथं वाप्रात्रे कर्थं वोभयत्र |
गतिबुद्धिमत्यवसानायं शम्दकमोकमेकाणाम् [१.४.९२ | इति वा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र
वाप्राप्र उभयत्र वेति । उमयनत्र | प्राप्ने तावत् | भभ्यवहारयति स्ेन्धवान् अभ्यव- 10
हारयति सैन्धवैः | विकारयति वन्धवान् विकारयति तैन्धतैः | अप्राते | इरति
भारं देवदत्तः हारयति भारं देवदत्तम् हारयति भारं देवदत्तेन | करोति कट
देवदत्तः कारयति कटं देवदत्तम् कारयति कटं देवदत्तेन ||
न यदि विभाषा साकद्धं [३.२.९१३,११४]॥
प्रापे मापन उभयश्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्रामे कथं वोभयत्र | 15
यदीति वा नित्ये भाप ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | उभयत्र | भामे तावत् | अभि-
जानासि देवदत्त यत्कदमीरेषु वत्स्यामः । यत्करमीरेष्ववसाम । यनत्त्ीदनान्भो-
कष्यामहे । यत्त्रीदनानमुञ्ज्महि । अप्राते | अभिजानाति देवदत्त करमीरान्गमि-
प्यामः । करमीरानगच्छाम | तजरौदनान्मोशष्यामहे । तत्रौदनानभुञज्महि ||
विभाषा श्वेः [६.१.३०] ॥ 20
पाने ऽपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्रापे कथं वोभयनत्र |
कितीति" वा नित्ये भाप ऽन्यत्र वामप उभयत्र वेति | उमयत्र | परते तावत् ।
सुश्रुवतुः भुभुवः । शिश्वियतुः शिश्ियुः । अप्राप्ते । भुशाव भुशधिथ | शे्ाय
शिश्वयिथ ||
~~~ ~~~ ~ ~ _
॥॥ ६ # १ [| 8 ५९ *
१९१० ॥ व्याकरगमहाभाष्वम् ॥ ` [म०९.१.६.
विभाषा संघषास्वनाम् [७.२.२८] ॥
संपुवोहुषेः प्राते ऽपर उभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्रप्नि कथं
बोभयत्र | घुषिरविशब्दने |७. २.२३ | इति वा नस्ये प्रापने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र
वेति | उभयत्र । प्रापे तावत् । संबुष्टा रज्जुः संघुबिता रज्जुः । अप्राते । संपुषटं
५ वाक्यम् संधुषितं वाक्यम् || भाङ्पुवोत्स्वनेः प्राने प्राप्न उभयत्र वेति संदेहः ।
कथं च प्रापे कथं वापरापने कथं कोभयज्र | मनसीति त्रा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्
उभयत्र वेति । उभयत्र | प्राप्रे तावत् । आस्वान्तं मनः आस्वनितं मनः । भप्राप्ने |
भआस्वन्तो देवदतः आस्वनितो देवदत्त इति |
इति शओरीमगवत्पतश्जकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे
10 पादे षष्टमाद्धिकम् ॥
8 7)
# ७,२.९८,
१।०९.१.४५. ] ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम् ९९१
इग्यणः संप्रसारणम् ॥ १ । १. । ४५९ ॥
किमियं वाक्यस्य संप्रसारणसंज्ञा क्रियते | इग्यण इत्येतदाक्यं संप्रसारणसंजं
भवतीति | भहोस्विहणेस्य | इग्यो यणः स्थने वर्णः स संप्रसारणसंञ्नो भवतीति|
कथात्र विदोषः |
संप्रसारणसंज्ञायां वाक्यसंज्ञा चेहणेविभिः ॥ ९॥ 5
संप्रसारणसंज्ञायां वास्यसंज्ञा चेदणेविधिने सिध्यति | संप्रसारणास्परः पूर्वो भवति"
संप्रसारणस्य दीर्घो भवतीति | न हि वाक्यस्य संरसारणसं्ञायां सत्वामेष निर्देहय
उपपद्यते नाप्येतयोः कार्वयोः संभवोऽस्ति ॥ भस्तु तर्हि वणेस्य |
वर्णसंज्ञा चेन्निवृत्तिः || २॥
वणैसंज्ञा चेचधिर्वृत्तिन सिध्यति ध्वङः संप्रसारणम् [६.९.१२] इति । स॒ एष 10
हि तावदिग्दुलंभो यस्य संज्ञा क्रियते | अथापि कथंचिह्ठभ्येत केनासौ यणः स्थाने
स्यात् | अनेत्ैव द्यसौ व्यवस्थाप्यते | तदेतदितरेतरान्नयं भवति । इतरेतरान्रयाणि
च कायोणि न प्रकल्पन्ते ||
विभक्तिविदोषनिरदरास्तु ज्ञापक उभयसंज्ञात्वस्य ॥ ३ ॥
यदयं विभक्तिविदेषर्भिरदां करोति संप्रसारणास्परः पूर्वो भवति संप्रसारणस्य 15
दीर्घो भवति ष्यडः संप्रसारणमिति तेन ज्ञायत उभयोः संज्ञा भवतीति | यत्ता
वदाह संप्रसारणात्परः पूर्वौ भवति सप्रसारणस्य दीषो भवरपीति तेन ज्ञायते वर्णस्य
भवतीति | यदप्यह ष्यङः संप्रसौरणमिति तेन ज्ञायते वाक्यस्यापि संभ्षा भवतीति|
अथवा पुनरस्तु वाक्यस्यैव । ननु चोक्तं संप्रसारणसंज्ञायां वाक्यसंज्ञा चेहणैवि-
भिरिति । नैष दोषः | यथा काकाञ्नातः काकः इयेनाज्नातः इयेन एवं सप्रसा- 20
रणाज्नातं संप्रसारणम् । यत्तत्संमसारणाज्जातं संप्रसारणं तस्मात्परः पुर््ो भवति
तस्य दीर्घो भवतीति ॥ अथवा दृदयन्ते हि वाक्येषु वाक्यैकदेरान्पयु्तनानाः पदेषु
च पिकदेदान् | वाक्येषु तावद्वाक्यैकदेशान्। प्रविहा पिण्डीम् प्रविहा तपेणम् | पदेषु
पदेकदे शान् । देवदत्तो दत्तः सत्यभामा भामेति | एवमिहापि संप्रसारणनिवैत्तात्सं-
परसारणनिरवृन्तस्येस्येतस्य वाक्यस्यार्थे सं्रसारणास्संप्रसारणस्येत्येष वाक्नैकदे शः 25
# ६.१.९०८. ` ‡ ६.३. १३९.
१९२ ॥ व्याकरणपहाभोष्यश्ं ॥ [मण ९.९...
प्रयुज्यते | तेन निवृत्तस्य विधिं विज्ञास्यामः | संभरसारणनिर्वृ सात्संभरसारणनिवै्तस्ये- `
ति || अथवाहाय॑ संप्रसारणात्परः "पूर्वो भवति संप्रसारणस्य दीर्घां भवतीति न
च वाक्यस्य संप्रसारणंज्ञायां सत्यामेष निर्देश उपपन्नो नाप्येतयोः कार्ययोः संभ-
बो अस्ति तत्न वचनाद विष्यति ||
$ अथवा पुनरस्तु वणस्य | ननु वोक्तं वणैसंज्ञा चेच्निवत्तिरिति | नेष दोष
इतरेतराभ्रयमाश्रमेतद्योदितम् । सवोणि वचेतरेतराभ्रयाण्येकस्वेन परिहतानि सिद्धं
तु निस्यदाम्दत्वादिति' । नेदं बुल्यमन्धैरितरेतराभ्रयैः | न हि तन्न किंचिदुच्यते
ऽस्य स्थाने य आकरिकारौकारा भाव्यन्ते ते वृद्धिसंज्ञा भवन्तीति | इह पुनरध्यत
इग्यो यणः स्थाने वणैः स संप्रसारणसंजञो भवतीति || एवं तर्हिं भाविनीयं संज्ञा
10 विज्ञास्यते | तद्यथा । कशित्कीचित्तन्तुवायमाह | भस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति । स
परयति यदि शाटको न वातव्यो ऽथ यातव्यो न शाटकः शाटको वातष्यथेति
विप्रतिषिद्धम् | भाविनी खल्वस्य संज्ञाभिप्रेता स मन्थे वातव्यो यस्मिन्ुते शाटक
इर्येतद्धवतीति | एवमिहापि सं यणः स्थाने भवति यस्याभिनिवृत्तस्य संपरसारण-
भिस्येषा संज्ञा भविष्यति ॥ अथवेजादियजादिप्रवृिशरैव हि रोके ठ्यते यजा-
15 श्युपदे शास्विजादिनिवात्तिः प्रसक्ता | प्रयुश्जते च पुनर्लाका इष्टम् उप्तमिति ] ते
मन्यामहे ऽस्य यणः स्थान इममिकं प्रयु्ेत इति | तत्र तस्यासाप्वभिमतस्य
शाजेण साधुत्व मवस्थाप्यते किति साधुभैवति डिति साधुभेषतीति। ||
आद्यन्ती टकिती ॥ ९. । १. । ४६ ॥
समासनिर्देशलो यं तश्र न ज्ञायते क भादिः को ऽन्त इति | वश्था | भजा-
20 विधन देवदत्तयज्ञदल्तावित्युक्ते तत्र न ज्ञायते कस्याजा धनं कस्यावय इति ।
यद्यपि ताव्रह्योक एष्र दृष्टान्तो दृष्टान्तस्यापि पुरुषारम्भो निवतैको भवति | अस्ति
चेह कशचित्पुरुष्रारम्भः । अस्तीत्याह | कः । संख्यातानुदेशो नामः ||
को पुन्टकितावाद्यन्तौ भवतः | भआगमावित्याह | युक्तं पुनयेक्षिस्येषु नाम शाब्दे -
ष्वागमशासनं स्यान्न नित्येषु नाम शब्देषु कूटस्थैरतरिचारिमिर्ेर्भैभेवितव्यमनपायो-
25 पजनविकारिभिः । आगम नामापूवः शब्दोपजनः | अथ गुक्तं यत्निव्येषु शब्दे
ष्वादेशाः स्युः । वाढं युक्तम् | शब्दान्तरेरिह भवितभ्यम् | तन्न राब्दान्तराच्छ-
ब्दान्तरस्य प्रतिपत्तिर्युक्ता | आरे शास्तर्हीमे भविष्यन्ययनागमकानां सागमकाः |
` ५९.१९.१९. † ६.१.९५. = ‡ १,३.९०
फण ९.९.४६.] ॥ ष्याकरभयरहाभाष्यम् ॥ १९३ `
तत्कथम् | संज्ञाधिकारोऽयम् | आद्यन्तौ बे संकीर्त्यते टकारककाराचितावुदाहियेते|
तश्राशन्तयोष्टकारककारावितौ संज्ञे भविष्यतः | तत्राषिधातुकस्येडरदेः [७.२.२९
इस्युपस्थितभिदं भवस्यादिरिति । तेनेकारादिरादेशो भविष्यति | एतावदिह सृत्रमि-
डिति । कथं पुनरियता सृत्रेणेकारादिरादेशो ठभ्यः | ठभ्य इत्याह ।. कथम्
बहतरीहिनिर्देशात् | बहृव्रीरिनिरशो ऽयम् । इकार आदिरस्येति | यथपि तावदश्रैत -ऽ
च्डक्यते वन्तुमिह कथं लुङ्लङःलडह्वडुदा्ः [ ६.४.७९] इति यत्राशक्यमुद्रा-
तग्रहणेनाकारो विशेषयितुम् । त्र को दोषः | भङ्गस्योदा्तस्वं प्रसज्येत | नैष
दोषः | रिपदोऽयं बहूधीहिः । तश्र वाक्व एवोदास्षग्रहणेनाकारो विशेष्यते |
अकार उदात भादिरस्येति | यत्र तदयनुवृ च्थैवदवत्याडजादीनाम् [ ६.४.७२ | `
इति | बदेयव्येतत् | अजादीन(मटा सिद्धमिति” | अथमा यत्ावदयं सामान्येन 10
शकरोत्युपदेषटं तावदु पदिदाति प्रकृतिं ततो वलाद्याधेधातुकं ततः पथादिकारम् |
तेनायं त्रिरोषेण शब्दान्तरं समुदायं प्रतिपद्यते । तद्यथा । खदिरबुवुरयोः। खदिरवुर्षुरौ
गौरकाण्डौ खकमपर्णी | ततः पथादाह कण्टक वान्खदिर हति | तेनासौ ` िश्षेषेण
्रष्यान्तरं खमुदायं॑ प्रतिपद्यते || भथवैतयानुपुष्योयं शाष्दाम्तरमुपदिदहाति प्रकृतिं
ततो बलाद्याषेधातुकं ततः पथादिकारं यरिमस्तस्यागमबुद्धिमंक्रति || ` 15
टकितोराद्यन्तविधाने प्रत्ययप्रतिषेधः॥ ९॥
टकिलोरा्यन्तविधाने प्रस्ययस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | प्रस्यय आदिरन्तो वा मा
भृत् | चरेष्टः [ ३.२.१६ | आतो सुपस कः | द | इति || परव चनास्सिडम् |
पररवचनास्पस्यय आदिरन्तो घा न भविष्यति। | `
परव चनास्सिदधमिति चेन्नापवादस्वात् ॥ २ ॥ 20
परषचनास्सिद्धमिति चेतत | किं कारणम्| अपवारस्वात् | अपवादो ऽयं योगः
तद्यथा | भिद चो ऽन्स्यास्परः [९.१.४५७ इस्येष योगः स्थानेयोगत्वस्य! प्रत्ययपरस्व-
स्थ चापवादः । विषम उपन्यासः | युक्तं तत्र यदनवकाशं मित्करणं स्थानेयोगस्वं
्रस्यवपरस्वं च वाधत इह पुनरुभयं सावकाशम् | को ऽवकाश्चः | टिस्करणस्या -
वकादाः | टित इतीकारो यथा स्यात्$ | कित्करणस्यावकाडाः | कितीस्या- %
कारकोपो यथा स्यात्| | प्रयोजनं नाम तहक्तव्यं यन्नियोगतः स्यात् | यदि चायं
नियोगतः परः स्यालत एतत्योजनं स्यात् । कुतो नु खल्वेतिित्करणादयं परो
# ६.४.७४. † २.९.२९. ‡ ९.९.४९. § ४,१.९५. || ६.४.६४.
15 त
१९४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ` म०१९.९..
भविष्यति न पुनरादिरिति किर्करणाच्च परो भविष्यति न पुनरन्त इति । टितः
खल्बय्येष परिषह्टारो यत्र नास्ति संभव्रो यत्परथ स्यादादिञ्च ¡ कितस्स्व्रपरिहारः।
अस्ति हि संभवो यत्परश्च स्यादन्तथ | तत्र को रोषः | उपमर्गे धोः किः
[३.३.९२ | । आध्योः प्रध्योः | नोङ्धात्वोः [६.१.९७९ | इति प्रतिषेधः
४ प्रसज्येत | टितशाप्यपरिहारः । स्यादेव द्यं €टित्करणादादिने पुनः परः | क
तर्हीदानीमिदं ॒स्याह्ित हकारो भवीति । य उभयवान् । गापोष्टक् | २.२.८|
इति ॥
सिद्धं तु षष्ठ्यधिकारे वचनात् ।| ३ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | प्ठचधिकरारे अयं योगः कतेव्यः | आयन्त टकितौ
10 प्ठीनिर्दिषटप्येति |
आद्यन्तयोर्वा षष्टयर्थत्वात्तदभावे ऽसंपत्ययः | ४ ॥
आब्यन्तयोबौ षष्ठद्य भेस्वासदभावे ष्ट्या अभावे ऽसंप्रत्ययः स्यात् । आदिर-
न्तो वा न भविष्यति || युक्तं पुनयैच्छब्दनिमिचको नामार्थः स्यान्नार्थनिभिन्तकेन
भाम शाब्देन भवितव्यम् । अर्थनिमित्तक एव शाब्दः । तत्कथम् । आब्यन्तौ षष्ठ.
16 थी | न चात्र वर्षी पदयामः | ते मन्यामह भद्यन्तावेवात्र न स्तस्तयोरभावे ष-
क्यपि न भवतीति ॥
मिदचो ऽन्वयायरः ॥ १ । १ । 9७७ ॥
किमथेमिदमुच्यते ।
॥ि मिदचो ऽन्त्यात्परं इति स्थानपरप्रत्ययापवादः ॥ ९ ॥
20- मिदचो न्त्यात्पर इत्युच्यते स्थानेयोगत्वस्य प्रत्ययपरत्वस्य चापवादः* | स्था-
नेयोगत्वस्य तावत् । कुण्डानि वनानि । पयांसि यशांसि | प्रत्ययपरत्वस्य } भि-
नत्ति गिनत्ति‡ | मवेदिदं युक्तमुदाहरणं कुण्डानि धनानि यत्न नासि संभवो यदव
मचो -ञन्त्यात्पर थ स्यात्स्थाने चेति | इदं त्वयुक्तं पयांसि यशांसीति | अस्ति हि
संभवोः यदचो ऽन्त्याखर ञ्च स्या्स्थाने च | एतदापि युक्तम् । कथम् | तेवेधर आाज्ञा-
+ ९,९.४९;३.९.२, † ७,२.०२. ‡ ३.९.७४,
प° १.१.४०. ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥ ९९५
पयति नापि धर्महत्रक्राराः पडन्त्यपवादैरुत्सगा वाध्यन्तामिति | किं ताह | लोकि-
को अयं दृष्टान्तः | लोके हि सत्यपि संभवे वाधनं भवति | तद्यथा | दधि ` ब्राह्म-
नेभ्यो दीयतां तक्रं कौण्डिन्यायेति सत्यपि संभवे दधिदानस्य तक्रदानं निवर्तकं भ-
वति | एवमिहापि सत्यपि संभवे ऽवामन्त्यात्परत्वं वष्टीस्थानेयोगत्वं बाधिष्यते ||
अन्स्यापपूर्वो मस्जेरनुषङ्कसंयोगादिकोपाथम् ॥ २॥ $
भन्त्वालपूवौ मस्जेर्भ्क्तत्यः | किं प्रयोजनम् । अनुषङ्गसंयोगादिलोपा्थम् ।
अनुषङ्कलोपा्थ संयोगादिलोपे च | अनृषद्कलोप्ये तावत् । ममः मवान् | संयो-
गादिलोपारथम् । मङ्गा मङ्म् मङ्कष्यम् ।|
भजिमर्च्योश्च ॥ ३ ॥
मिमर्व्योधान्त्यात्पर्वो मिहक्तव्यः | भरूजा मरीचय इति || स तर्हि वक्तष्यः | 10
न वक्तव्यः । निपातनात्सिद्धम् । कं निपातनम् । भरूजाश्चभ्दो ऽङ्ल्यादिषु पद्यते
मरोचिशष्दो बाहादिषु |
किं पुनरयं पूवोन्त आहोस्वित्परादिराहोस्विदभक्तः । कर्थं चार्यं पवन्त
स्यात्कथं वा परादिः कथं वाभक्तः | यद्यन्त इति वतेते ततः पूवोन्तः | भथादिरिति
वतैते ततः परादिः | अथोभयं निवृत्तं ततो भक्तः | कथात्र विद्येषः | 15
अभक्ते दीषैनरोपस्वरणस्वानुस्वाररीभावाः ।। ४ ॥
यद्यमक्तो दीषैत्वं न प्रामोति । कुण्डानि वनानि | नोपधायाः [६.४.७] सर्थ-
नामस्थाने चासंबृडौ [८] इति दी्त्वं न प्रामोति । शेषै || नलोप | नलोप न
तिष्यति | अभर त्री ते वाजिना श्री षधस्था | ताता पिण्डानाम्। | नलोपः प्राति-
पदिकान्तस्य [८.२.७] इति नलोपो न प्रामोति । नलोप | स्वर | स्वरथ न 20
विध्यति । सर्वाणि ज्योतीषि | सतेस्य उपि [६.९.१९९] हइन्याश्युदासस्वं॑न
्राभोति | स्वर || णत्व | णत्वं च न सिध्यति | माषवापाणि व्रीहिवापाणि।
पृवोन्ते प्रातिपदि कान्तनकारस्येति सिद्धम् | परादौ विभक्तिनकरारस्येति | अभक्ते नुमो
हणं कतेव्यम् | न कतेव्यम् | क्रियते न्यास एव | प्रतिपरिकान्तनुम्विभक्तिषु च
[८.४.९९] हति । णत्व || अनुस्वार । अनुस्वार न सिध्यति | दिषंतपः परंतपः | ४४
मो अनुस्वारो हठीस्यनुस्वारो भन प्रामोति।मा भूदेवम् | न्ापदान्तस्व ्षलि [८.३.२४
# ७.९.६०-६.४.२४८.२.२९. ¶ ६.९.७०, ‡ ६.३.६७. § ८.३.२१.
१९६ ॥ व्याकरणयप्हाभाष्यत् ॥ | | भ०९.९.५.
इस्येव भाधिष्यति । यस्तर्हि न शअल्परः । वहंलिहो गौः । अश्रंलिहो वायुः । भनु-
स्वार | शीभाव । हीभावश्च न सिध्यति | त्रपुणी जतुनी तुम्बुरुणीः | नपुंखका-
दलरस्यौडःः दीभावो भवतीति" शीभावो न प्रामोति || एवं ताह परादिः करिष्यते |
परादौ गुणवृ्यौत्वदीषंनलोपानुस्वारक्तीभावेनकारमतिषेधः ॥ ९॥
& यदि परादिगुणः प्रतिषेध्यः | ब्रपुणे जतुने तुग्बुरुणे । बेडिति [७.३.१११]
इति गुणः प्राभोति । गुण ॥ वृद्धि । वृद्धिः प्रतिषेध्या | अतिसलखीनि ब्राह्मणकुलानि |
सख्युरसंबुदौ [७.१.९१] इति णगिस््वे ऽचो न्णिति [७.२.९१५] ¦ इति वृद्धिः
भामोति । वृदि ॥ ओव । जैस्वं च प्रतिषेध्यम् । श्रपुणि जतुनि तुम्बुदणि |
इदुख्यामोदश्च वेः [७.६.९९७-९१९] इत्यौरवं प्ाभोति । भौस्व || दीव ।
10 दीषैस्वं च न सिध्यति । कुण्डानि वनानि | नोपधायाः सर्वनामस्थान इति दीर्घत्वं
न प्रामोति | मा मुदेवम् । अतो शर्वो यञि पि च [७.३.९०९-१०२] इत्येष
भविष्यति | इह तरि । अस्थीनि दधीनि भ्रियसखीनि ब्राह्मणकुलानि । दीष ॥
नलोप | नलोपश्च न सिध्यति । अमे श्री ते वाजिना त्री षधत्या | ताता पिण्डा
नाम् । नलोपः प्रातिपदिकान्तस्येति नलोपो न प्राति । नलोप | अनुस्वार ।
15 अनुस्वार न सिध्यति | हिषंवपः परेतपः | मो अनुस्वारो दलीत्वनुस्वारो न
भामति । मा भूदेवम् । नश्चापदान्तस्य श्चरीस्येवं भविष्यति । यस्तर्दि न ज्ल्परः|
हलि गीः । अभ्र॑लिहो वायुः | अनुस्वार || शीभवेनकार प्रतिषेषः | शीभावे
नकारस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्रपुणी जतुनी तुम्बुदणी । सनुम्कस्य हीमावः प्रा
भति | वैष दोषः | निरदिरयमानस्यादे शा मवन्तीस्येवं न मविभ्यति | यस्ता निर्दिदयते
20 तस्य न प्राभोति | कस्मात् | नुमा व्वव्रहितत्वात् || एवं तर्हि पृ वन्तः करिष्यते |
पूवान्ते नपुंसकोपसजन स्वत्वं दिगुस्वरश्च ॥। ६ ॥
यदि पृवौन्तः करियते नपुंघठकोपसजेनहस्वत्वं ्िगुस्वर थ न सिध्यति । नपुंसको-
पलजैनहस्वत्वम् । भारारालिणी धानाशष्कुलिनी | निष्कौशाम्बिनी निवोराणसिनी1।
दिगुस्वरः। पञ्चारलिनी दशारलिनीः । नुमि कृतेऽनन्स्यत्वादेते विधयो न प्ापुवन्ति |
% | न वा बहिरङ्गलक्षणस्वात् ॥ ७॥
न चैष दोषः | किं कारणम् | बहिरङ्गलस्षणस्वात्। बहिरङ्गो नुमन्तरद्भन एते
# ७.१५, १९; ७. ¶† ०.९. ह; ९,,२.४७-४८. | ‡ ७,९. ७३; ६,२.२९.
क०९.९.४८. ] ॥ व्थोकरभममहायोव्यय् | ९१९७
विषयः । असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥ हिगुस्षरे मुयान्परिहारः । संषातभक्तो
घौ नोत्सहते ऽवयवस्येगन्ततां विहम्तुमिति कत्वा हिगुस्वरो भविष्यति ||
एच दग्सखदेो ।॥ १. । २. । ७८ ॥
किमयोभिदमुच्यते |
एव इक्सवणोकारनिवत््यथम् | ९ ॥ ९
एच इग्भवतीर्युध्यते संवणैनिवुस्यर्थमकारनिवृस्यथे च । सवणैनिवृस्यथै ता -
षत् | एडो हस्व शासनेष्वषे एकारो ऽषे ओकारो वा मा भूदिति | भकारनिवृ-
स्ये च | इमात्रैचौ समाहारवर्णौ | मात्रावणेस्य मात्रेवर्णोवणयोः | वयोहैस्व-
शासनेषु कदाचिदवणैः स्यात्कदाविदिवर्णोवर्णी | मा कदाचिदषणे भूदिष्येवम्थमिद-
मृश्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् । किं वर्हीति । रीषेपरसङ्गः | रीषास्स्िविकः प्राभु- 10
बन्ति | किं कारणम् | स्थानेऽन्तरतमो भवतीति" | ननु च हस्वारेश इस्युच्यते
तेन दीषौ न भविष्यन्ति | विषया्थमेतत्स्यात् । एचो हस्वपरसङ्ग इग्भवतीति |
दीषोपसङ्गस्तु निवर्तकत्वात् ॥ २ ॥ |
दीषोणां स्विकामप्रसङ्गः । किं कारणम् । निवतैकल्वात् | नानेनेके नि्स्यन्ते |
कि तर्हि | भनिको निवस्येन्ते | सिद्धा शत्र स्वा हकर्थानिकथ तत्रनिनानिको 1
निवर्त्यन्ते || ` | |
सवणेनिवु्यर्थेन तावन्नायेः |
सिदमेढः सस्थानत्वात् ॥ ३ ॥ |
सिद्धमेतत् | कथम् | एङः सस्थानव्वादिकारोकारौ मविष्यतो ऽप एकारो ऽप
ओकारो षा न भविष्यति | ननु बैड सस्थानतरावर्धैकारार्षीकारौ | न तौ स्वः | 20
यदि हि तौ स्यातां ताभेवायमुपरिशेत् । ननु च भोग्न्दोगानां सास्यमुभ्रराणायनीगा
भवेमेकारमभमोकारं चाधीयते | जाते ए अश्नृते । अध्वर्यो ओ अद्धिभिः
छतम् । शुक्रं ते ए अन्यथजतं ते ए अन्यदिति । पा्षदकृतिरेषा तत्रभवतां त्रैव
लेके नान्यस्मिन्येदे ऽध एकारो ऽध ओकारो वास्ति || भकोरनियस्वर्थैनापि नाथः
मै १६० ६. ५०.
९१८ ॥ व्वोकरणमहाभष्ययप ॥ (मण ९.९.अ.
टेखोश्वोत्तरभुयस्त्वात् ॥ ४ ॥
रेचोधोत्तरभूयस्स्वादवर्णो न भविष्यति । भूयसी मात्रेवर्णोवणयोरल्पीयस्य-
बणेस्य | भूयस एव म्रहणानि भविष्यन्ति | तद्यथा | ब्रा्मण्राम आनी यता-
मित्युच्यते तत्र घावरतः प॑श्चकारूकी भवति ॥
६ षष्ठ स्थानेयोगा ॥ ९ । १ । ७९. ॥
किमिदं स्थानेयोगेति | स्थाने योगो ऽस्याः सेयं स्थानेयोगा | सप्म्यलोगे निपा-
तनात् ॥| तृतीयाया धैस्वम् । स्थानेन योगो ऽस्याः सेयं स्थानेयोगा ॥|
किमथे पुनरिदमुच्यते ।
षष्ठाः स्थानेयोगवचनं नियमाथम् ॥ ९ ॥
10 नियमार्थो ऽयमारम्भः | एकदातं षषटयथ यावन्तो षा ते सर्वै षष्ठयामुश्चारि-
तायां प्रा्ुवन्ति | इष्यते च व्याकरणे या षष्ठी सा स्थानेयोधैव स्यादिति तथा-
न्तरेण यलं न सिध्यतीति षष्ठयाः स्थानेयोगवचनं नियमथेम् | एवमथेभिरमु-
ष्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् । किं तर्हीति |
अवयवषष्टथादिष्वतिभसङ्गः गासो गोह इति ॥ २ ॥
15 अभवयवभष्यादयस्तु न सिध्यन्ति । त्र कों दोषः | शास इदङ्हलोः [३.४.३४]
इति रासेान्त्यस्य स्यादुपधामात्रस्य च । रदुपधाया गोहः [६.४.८९] इति
गोहेशान्त्यस्य स्यादुपधामात्रस्य च ||
अवयवभष्टयादीनां चामाभियौगस्यासंदिग्धस्वात् ॥ ३ ॥
अवयवषषयादीनां च नियमस्याप्राप्निः । किं कारणम् | योगस्यासंदिग्भत्वात्।
90 संदेहे नियमो न चावयवषष्ठयादिषु संदेहः । किं वक्तव्यमेतत् | न हि | कथम-
नुष्यमान गंस्यते | लौकिको ऽयं॑दृष्टान्तः ¡ तद्यथा. । लोके कंचित्कधिस्छख्छति
म्रामान्तरं गमिष्यामि पन्थानं मे भवानुपदिश्लिति । स तस्मा भाचष्टे | अमुष्मि
वकाश हस्तदक्षिणो प्रहीतव्यो अमुष्मिन्नवकाशे हस्तवाम इति | यस्तत्र तियैक्पथो
भवति न तस्मिन्संदे् इति कृत्वा नासावुपदिदयते | एवमिहापि संदेहे नियमो न
25 चावयवषष्चयादिषु संदेहः ॥
फण १.१.४९. | ॥ व्याकरगग्रहमिष्यय ॥ १९९.
अथवा स्थाने ऽयोगा स्थानेयोगा । किमिदमयोगेति । अष्यक्तयो गायोगा ॥
भथवा योगवती योगा । को वुनर्योगवती | यस्या बहवो योगाः | कुत एतत् ।
भृति हि मतुम्भवति ॥
विशिष्टा वा षष्ठी स्थानेयोगा ॥ ४॥
भथवा किंचििङ्गमासज्य वश्यामी्त्थलिङ्गा षष्ठी स्थानेयोगा भवतीति | न 5
च तदि ङ्गमवयवषश्ठच्यादिषु करिष्यते || यद्येवं रास हदङ्हलोः शा है [६.४.२३९]
दासिन्रहणं कतेव्यं स्थानेयोगा लिङ्ग मासङ्क्यामीति | न कतैव्यम् | यदेवादः
पुरस्तादवयवषश्ययं प्रकृतमेतदु त्तर त्रानुवृत्तं सत्स्थानेयोगाये भविष्यति । कथम् ।
अधिकारो नाम त्रिप्रकारः कथिदेकदेशास्थः सवै शाखमभिज्वलयति यथा प्रदीपः
इवपरज्वरितः सर्वं वेरयाभिज्वलयति | अपरो अधिकारो यथा रज्ज्यायसा वा बर 0
काष्ठ मनुकृष्यते तद्द नुकृष्यते चकारेण । अपरो ऽधिकारः प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ
इति योगे योग उपतिशते | तद्यरैष पक्षो अधिकारः प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ इति
तदा हि यदेवादः पुरस्तादइवयवषष्यथेमेतदु सरघ्रानुवृ्ं सस्स्थानेयोगार्थ भवि-
प्यति | संपरस्ययमत्रमेतद्भवति । न धनुधाये शब्दं लि ङ्ग दाक्यमासङ््म् । एवं तद्या -
देशे तलिङ्खः करिष्यते तत्पमकृतिमास्कन्त्स्यति || 18
यदि नियमः क्रियते यत्रैका षषटयनेकं च विभ्वं तत्र न सिध्यति | अङ्गस्य
हलः भणः संप्रसारणस्येति। | हलपि विशेष्यो ऽणपि विक्ष्य संप्रसारणमपि
विरोभ्यम् । भखति पुनरिमे कामचार एकया ष्टयानेकं विशेषयितुम् ।
तद्यथा । देवदत्तस्य पुत्रः पाणिः कम्बल इति | तस्मात्रार्थो नियमेन | ननु चोक्तमे-
कशतं ष्ठ्यथौ यावन्तो वा ते स्वे षष्ठ्ामुश्वारितायां प्रामुवन्तीति | शरैष दोषः | 0
यथपि लोके बहवो अभिसंबन्धा आथां यौना मौखाः लौवाश्च शाब्दस्य तु राष्देन
को ऽन्यो भिसंबन्धो भवितु महैत्यन्यदतः स्थानात् | शब्दस्यापि राब्देनानन्तरा-
रयो अभिसं बन्धाः । भस्तेभूमेवतीतिः संदेहः स्थाने ऽनन्तरे समीप इति | सदेह-
मातरमेतद्भवति सवेस्दिहेषु चेदमुपतिष्ठते व्याख्यानतो धिदोषप्रतिपत्तिम हि सरेहा-
रक्षणमिति । स्थान इति व्याख्यास्यामः || न तर्शदानीमयं योगो वक्तव्यः | 8
वष्कव्य्च | किं भयोजनम् । वषठयन्तं स्थानेन यथा युज्येत यतः षष्ुखा-
रिता । किं कृतं भवति | निर्रिदयमानस्यादेशा भवन्पीस्येषा परिभाषा न कतैष्यां
भवति ॥
# ९.२.९४१, † ६.४.६२; ६.२.१९१; ९३९. २.४.५३.
६२१० ॥ व्याकर्णयहभिष्यम ॥ | [म० ९.९.५,
स्थानेऽन्तरतमः ॥ १ ।१।५०॥
किमुदाहरणम् | इको यणचि [ ६.९.७७ || दध्यज्न | मध्वत्र | ताठुस्थानस्य
तालुस्थान ओ्टस्थानस्वौषठस्यानो यथा स्यात् । तरैतदस्ति | संखू्यातानुदे शेनाव्येत-
स्सिडम्* | इदं तरिं | तस्थस्थमिपां ताम्तम्तामः [ ३.४.९०९ ] इत्येकाथेस्थैकाथी
व्यवस्य व्यर्थो बहथस्य बह््था यथ स्यात् | ननु तरैतदपि संख्यातानुदे ेतैव सिद्धम्|
हदं तरि । अकः सवर्णे दीषैः [६.१.१०९] इति दण्डाम् क्षपाम् दधीन्द्रः मधृषट
इति कण्ठस्थानयोः कण्ठस्थानस्तालुस्थानयोस्तालुस्थान गोष्ठस्थानयोरोष्ठस्थानो य्था
स्थादिति || अथ स्थान इति वतेमाने पुनः स्थानग्रहणं कमथम् | यत्रानेकविध-
मान्तमै तञ्च स्थानत एवान्तयै बलीयो यथा स्यात् | किं पुनस्तत् | चेता स्तोता |
10 प्रमाणतो ऽकारो गुणः प्राभोति स्थानत एकारौकारौ | पुनः स्थानब्रहणादेकारौका-
रौ मवतः || अथ तमन्द्रह्णं किमथेम् | यो हो ऽन्यतरस्याम् [ ८.४.६२ | इस्वत्र
सोष्मणः सोष्माण इति द्वितीयाः प्रसक्ता नादवतो नादवन्त इति तृतीयाः | तम-
भ्रहणाथे सोष्माणो मादवन्त्च ते भवन्ति चतुथौः | वाग्घसति श्रष्टुम्मसतीति |
किमथे पुनरिदमुष्यते | |
25 स्थानिन एकस्वनिर्देशादनेकादेदानिर्देशाच्च सवेपरसङ्गस्तस्मास्स्थाने
ऽन्तरतमवचनम् ।। ९ ॥
स्थान्येकस्मेन निर्दिरयते | अक इति । अनेकश्च पुनरादेशः प्रतिनिर्दिरयते । दीषै
हति । स्थानिन एकत्वनिर्देशाश्नेकादेशनिर्देशचाञ्च सवैप्रसङ्गः । सर्वे सर्वत्र प्रापु
वन्ति | इष्ते चान्तरतमा एव स्युरिति तच्चान्तरेण यलं न सिध्यति तस्मास्स्था-
20 नेऽन्तरल्षम इति वचनं नियमाथेम् | एवमथेमिदमुष्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् ।
किं तर्हीति |
यथा पुनरियमन्तरतमनियततिः सा किं प्रकृतितो भवति | स्थानिन्यन्तरतमे षी-
लि | आहोस्विदादेशतः | स्याने प्राप्यमाणानामन्तरतम अदेद्यो भवतीति | कुतः
पुनरियं विचारणा । उभयथापि तुल्या संहिता | स्थाने ऽन्तरतम उर्रषर इति ॥
2६ किं चातः | यदि प्रकृतित इको यणचि [ ६.९.७७ | वणां ये ऽम्तरतमा इक-
सश्र ष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात् । दध्यज्र मध्वत्र । कुमाभच्
अहयवन्ध्व्थामित्यत्र म स्यात् | आदेशहातः पुनरन्तरतमनिवौ सस्वां सचैश्र षी
€
# १.३.९०.
१६० ९.१.५०. | ॥ व्याकरणमहाभाव्यम् ॥ १२९
वत्र पष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र सिद्धं भवति || तथेकी गुणवृद्धी [१.१.३]
गुणवृ्योर्ये ऽन्तरतमा हकस्तश्र ष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात् |
नेवा रविता नायकः लावकः | चेता स्तोता चायकः स्ताव क इत्यत्र न स्यात् | आदे-
दातः पुनरन्तरतमनिर्युत्तौ स्यां सर्वत्र षष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र
सिद्ध भवति || तथा कऋवणेस्य गुणवृदिप्रसङ्गे गणय द्धो यैदन्तर तममुवणै तत्र
पष्ठी यत्र षी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात् | कतौ इतौ आस्तारकः निपारकः।
भस्तरितः निपरिता कारकः दार्क ह्यत्र न स्यात् | अदिक्तः पुनरन्तरतम-
न्तो खत्यां सर्वेत्र ष्ठी यत्र पष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र सिद्धं भवति ॥
अथादेदातो ऽन्तरतमनिवै त्त सत्यामय॑ दोषः | वान्तो वि प्रत्यये [६.९.७९] |
स्थानिनिर्दे्ाः कतेव्यः | ओकारौक्रारयोरिति वक्तभ्यम् | एकारैक(र योमौ भूदिति । 10
कृतितः पुनरन्तरतमनिरवत्तैः सत्यां षान्तददे शस्थेश्ु यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र षष्ठी
वत्र पष्ठी वत्रदेश्ा भवन्ती व्यन्तरेण स्थानिनिर्ददं सिद्धं भवति । आदेशतो ऽप्य-
म्तरतमनित तौ सत्यां न दोषः । कथम् | ान्तप्रह्णं न करिष्यते | यि प्रत्यय
एचो ऽयादयौ भव्रन्तीष्येव | यादि न क्रियते चेयम् जेयमिस्यत्रापि प्रामोति |
शषय्यजय्वौ शश्व [६.१.८९] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । सिज्येरे पच इति | 15
तयोस्तर्हि शाक्याथीदम्यत्रापिं परामोति | क्षिय पापंम् जेयो वृषल ` इति' | उभयतो
निवमो विश्वस्यते | क्षिज्योरेतरैचः | अनयो शक्यार्थ एवैति | इहापि तरि
नियमान्न प्राप्रोति }। कव्यम् पव्यम् | भवदयलाव्यम् अवरेयपाव्यभिति |
तुल्यजातीयस्य नियमः | कथ तुल्यजातीयः } यथाजातीयकः क्षिज्योरेच् | कथं-
जातीयकः किज्योरेच् । एकारः | एवमपि रायमिच्छति हेयति अत्रापि भरुपोति | 0
रायिदछान्दसो दृष्टानुविधिरश्न्दसि भवति || उ्दुपभाया गोदः [६.४.८९] |
आदेकतो ऽन्तरतमनि् सौ सस्यामुपधाग्रहणं कर्तभ्यम् | प्रकृतितः पुनरन्तरतमनिर्ै्तौ
सत्यामुकारस्य गोदो यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र धी. यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्ती -
त्वन्तरेणोपधाम्रहणं सिद्धं भवति | भदेदातो ऽप्यन्तरतमनिवृ्तौ सत्यां न. दोषः |
क्रियत एतञ्यास एव || रदाभ्यां निष्ठातो नः पू्वैस्य च दः [८.२.४२ ] | आदे- 5
शतो -ऽन्तरतमनिर्व्तौ सस्यां तकार पणं कर्तष्यम् | प्रकृतितः पुनरन्तरतमनिर्बु चौ
सत्यां नकारस्य निष्ठायां यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र पक्षी यत्र षष्ठी तश्रादेश्रा भवन्ती -
व्यन्तरेण तकार ब्रहणं द्धं भवति | आदेहातो ऽप्यन्तैरतमनिर्वृततौ सस्यां न दोषः |
क्रियत एतन्यास एव |
16
५ | ।
१२२ ॥ ध्याकरणपहाभाष्यय् ॥ - [म०९.९.५,
किं पनरिदं निर्वतैकम् | अन्तरतमा अनेन निवैस्ैन्ते | आहोस्वित्पमतिषाद कम् |
अन्येन निवृ्तानामनेन प्रतिपत्तिः | कथात्र विरोषः |
स्थनेऽन्तरतमनि्व॑त॑के स्थानिनिवृत्तिः ॥ २॥
स्थानेऽम्तरतमनिवतंके सवेस्थानिनां निवृत्तिः प्रामोति | भस्यापि प्रामोति |
5 दाधि मधु | अस्तु | न कथिदन्य आदेशः प्रतिमिर्दिहयते तश्रान्तयेतो दधिशब्दस्य
दधिशाब्द एव मधुशब्दस्य मधु शाब्द एवादेशो भविष्यति | यदि चैवं कचिदैरूप्यं
तत्र दोषः स्यात् | बिसं बिलम् मुसलं मुसरमिति । इण्कोरिति षत्वं प्रामोति* ||
अपि चेष्टा व्यवस्था न प्रकल्येत | तद्यथा ते ्रष्टे तिलाः क्षिप्रा मुहूतेमपि नाव~
तिष्ठन्त एवमिमे वणौ मुहतैमपि नावतिष्ठेरन् || अस्तु ताईं प्रतिपादकम् | अन्येन
10 निव्तानामनेन प्रसिप्तिः |
निवत्तपरतिपन्ती निवृतिः || ३ ॥
निर्वृ लप्रतिपलतौ नि्वैत्तिने सिभ्यति | सर्वे सर्वत्र ्ामुवन्ति | किं तदयुच्यते नि ~
वत्ति सिध्यतीति | न साधीयो निवृत्तिः सिद्धा भवति | न ब्रूमो निवृत्ति िध्य-
तीति | किं तर्हि | इष्टा व्यवस्था न प्रकल्पेत | न सर्वे सवत्रेष्यन्ते || इदमिदानीं
15 किमथे स्यात् |
अनर्थकं च ॥ ४ ॥
अन्थैकमेतस्स्यात् । यो हि भुष्कवन्तं त्ुयान्मा भुक्था इति किं तेन कृतं स्यात् ॥
१
उक्तं वा|| ९॥
किम्॒म् | सिद्धं तु षक्ष्यधिकारे वचनादिति † | षछ्थधिकरि ऽयं योगः
20 कतैष्वः | स्थाने ऽन्तरतमः षष्ठीरनिरिषटस्येति ॥
प्रव्यात्मवयनं ख || ६.॥
प्रस्यास्माभिति च वक्तव्यम् | किं प्रयोजनम् । यो यस्यान्तरतमः स तस्व
स्थाने यश्य स्यादन्यस्यान्तरतमो ऽन्यस्य स्थाने मा भूरिति ॥ |
* ८३.५७, ५९, † \..१ ^
॥
प° १.१.५०. | ॥ व्थौकरणम्हामाष्यय ॥ ९२१
परस्यात्मवचनमरिष्यं स्वभावसिद्त्वात् । ७ ॥
परस्यारमवचनमशिष्यम् । कं कारणम् | स्वभाव्रसिडधस्वात् | स्वभावत पएत-
स्सिद्धम् । तद्यथा । समाजेषु समाशेषु समवायेषु चास्य ताभित्युक्ते न चोच्यते प्र-
त्यारममिति प्रत्यात्मं चासते ||
अन्तरतमववनं च ॥ ८ ॥ | $
कन्तरतमवचनं चाशेष्यम् | योगथाप्थयमाशिष्यः `| कुतः | स्वषभावसिदत्था-
देव । तद्यथा । समाजेषु समाशेषु समवायेषु चास्यतामिस्युकते तैव कृदाः कृशैः
सहासते न पाण्डवः पाण्डुभिः | येषामेव किंचिदयैकृत माम्बयै तेरेव सशंसते || तथ
गावो दिवसं चरितवस्यो यो यस्याः प्रसवो भवति तेन सह शेरते `] तथा यान्ये-
तानि गोयुक्तकानि संघुष्टकानि भवन्ति तान्यन्योन्यं परयन्ति शाथ्दं कूुषैन्ति || एषं 10
तावैेतनावत्छ | अवरेतनेष्यपि | तथथा | जोष्टः ल्िपो बाहवेगं गस्वा तैव तियै-
ग्ग्छति नो्षमरोहति पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्डत्यान्तयैतः | तथा या एता
आन्तरिक्यः खश्मा आपस्तासां तिकारो धूमः स आकाङ्रादेदो निवाते तैव तिये-
ग्मच्छति नावागवरोहत्यभ्विकारो ऽप एव गच्छत्यान्तयेतः | तथा ज्योतिषो
विकारो अर्विराकारदेशे निवाते छमज्वकितो त्रैव तियैग्गच्डति नावागव्ररोहति 15; `
ज्योतिषो धिकारो ज्योतिरेव गच्छत्थान्तयेतः ॥
व्यञ्जनस्वरष्यतिक्रमे च तत्कालप्रसङ्ः || ९ ।|
व्यञ्ज्जनव्वविक्रमे स्वररत्यतिक्रमे च तत्कालता प्रामोति । व्यस्जनव्यतिक्रमे |
इष्टम् उपरम् । आन्तर्यतो ऽधैमात्रिकस्य व्यस््रनस्यार्धमातिक हक्पामोति | नैक
लोकेन च वेदे ऽप्रमात्रिक इगस्ति | कस्तर्हि | माज्निकः | यो ऽस्ति स भविष्यति || 20
स्वरव्यतिक्रमे | दध्यत्र मध्वत्र कुमायेत्र बरह्मबन्ध्वथेमिति | अन्ततो मान्ैकस्य
हिमाजिकस्येको मत्रिको ह्िमान्निको वाः यण्प्रापरोति || नैव रोके न च वेदे मात्रिको
हिमाज्निको वा यणस्ति । कस्त । अषमान्िकः | यो ऽस्ति स भविष्यति ||
अक्षु चानेकवणोदेोषु ।। ९० ॥ ,
अक्षु चानेकवणौरेरोषु तस्कारता प्राप्रोति । इदम हश [५.३.२३] । आन्तमैतो 2४
ऽर्षतृतीयसाभ्रस्येदमः स्थाने ऽधैतृतीयमात्रमिकणे प्राप्रोति } नैष दोषः | भाव्यमानेन
खवणोनां प्रहणं नेव्यवं न भविष्यति |
१२४ ॥ व्याकरष्यहाभाष्यप् ॥ ` [मण १.१.५.
गुणवृदेज्णावेषु च ॥ ९९ ॥। `
गुणवृ ज्मविषु च तत्कालता प्रामोति । खटा इन्द्रः खद्नद्रः । द्रा उदकं खद
दकम् | खदु हेषा खद्रेषा | खटा ऊढा खद्रोढा | खदा एलका खदटटैलका ।
खट्रा ओदनः खङ्लौदनः | खटा रेतिकायनः खदटतिकायनः | खदा ओपगवः
$ खदटटौपयव इति । आन्तयेतल्िमाज्रेचतुमोत्राणां स्थानिनां त्रिमात्रचतुमाज्रा आदेशाः
्रामुवन्ति ॥ वरेष रोषः | तपरे गुणवृद्धी । ननु च तः परो यस्मास्सो ऽवं तपरः ।
नेत्याह } तादपि परस्तपरः | वदि तादपि परस्तपर शटदोरप् [ ३.३.५७ ] इहैव
स्यात् | यथः स्तवः | ठवः पत्र इत्यत्र न स्यात् । नैष तकारः | कस्तर्हि |
दकारः | किं दकारे प्रयोजनम् | अथ कि तकारे | यदथसदेहाथेस्तकारो दकारो
10 ऽवि | अथ मुख लाथेस्सकारो दकारो ऽपि || एञ्भावे* |. कुवोते कुवोये । ान्तयेतो
ऽधेतृ तीयमांत्रस्य टिसं्ञकस्यार्धलृतीयमात्र एः प्राभोति || नैव रोके न च वेदे ऽप-
त तीयमान एरस्ि ||
ऋवर्णस्य गाणवृद्धिमसङ्गे सवंभसङ्गो ऽविदोषात् ॥। ९२ ॥
ऋवणैस्य गुणवृदधिप्सङ्गे सर्वप्रसङ्गः । सर्वै गुणवृद्धिसंश्ञका कऋवणेस्य स्थाने
15 भ्राप्ुवन्ति | किं कारणम् | भविश्षोषात् | न हि कथिद्विश्ोष उपादीयत एवंजाती -
यको गृणवृदिसंज्ञक वणेस्य स्थाने भवतीति | अनुपादीयमाने विरोषे सवेभसङ्गः|।
न व ऋव्णंस्य स्थाने रपरप्रसङ्गदवणस्यान्तर्यम् ।। ९६ ॥
न वैष दोषः | किं कारणम् | ऋवणैस्य स्थाने रपरप्रसङ्गात् । उः स्थाने ऽण्
प्रसज्यमान एव रपरो भवतीस्युच्यते† तक्र श्वणैस्यान्तयेतो रेफवतो रेफवानकार
20 एवान्तरतमो भवति ॥
सर्वादेशापरसङ्गस्त्वनेकाल्स्वात् ।। ९४ ॥
सवौदेरास्तु गुणवृदधिसंशषकं ऋवणैस्य प्रामोति । किं कारणम् । भनेकास्स्वात् |
अनेकाल्दरन्सषेस्य [९.१.५९९] इति ॥
न वानेकाल्स्वस्य तदाश्रयव्वादृवणदेरास्याविषातः ॥ १५ ॥
पा १.१.५१. ] ॥ ध्याकरणयहाभाष्यय्ः॥ १२५
तदानेकाल् | अनेकाल्त्वस्य तदाश्च वस्वादृवणोदेहास्य विषातो न भविष्यति | अयवा-
नान्तवमेतैतयोरान्स्यम् । एकस्याप्यन्तरतमा प्रकृतिनौस्त्यपर स्याच्यन्तरतम आदेशो
नासि | एतदेवैतयोरन्तयेम् ॥ ` |
संप्रयोगो वा न्टाशदग्धरथवत् ॥ ९६ ॥।.
भथवा नष्टाश्वदग्धरथवस्संभरयोगो भवति | तदथथा | तवाश्चो नष्टो ममापि $
रथो दग्ध उमो संमबुञ्यावक्ा इति | एवमिहापि तवाप्यन्तरतमा प्रकृतिनोस्ति
ममाप्यन्तरतम आदेशो नास्स्यस्तु नौ संप्रयोग इति | विषम उपन्यासः | तेतना-
वस्स्वथासकरणाहया ठीके संप्रयोगो भवति वणौश्च पुनरचेतनास्तत्र किंङृषः
संप्रयोगः । यद्यपि वर्णो अचेतना यस्त्वसौ प्रयुङ्के स चेतनावान् ॥
एजवणेयोरादेदो व्ण स्थानिनो ऽवणेमधानत्वात् ॥ ९७ ॥ 10
एजवणेयोरादेशे अवर्ण प्रभोति । ख्टैलका मालौपगवः | किं कारणम् | स्थानिनो
भमर धानत्वात् | स्थानी धत्राधणैत्रधानः | |
सिद्धं तूमयान्तयांत् ॥ ९८ ॥
तिद्धमेतत् । कथम् | उभवोर्यो ऽन्तरतमस्तेन भावितन्बं न॒ चाबणमुभयोर-
न्तरतमम् ॥ - - .,, -“ 18
उरष्पपरः ॥ १ ।२ ।५१ ॥
` किमिदमुर प्रपर वचनमन्यनिधृषहययेम् | उ, स्थाने ऽणेव भवति रपरथेति | आहो-
स्विद्र परस्वमनेन विधीयते । डः स्थाने ऽण्चनण्व अण्तु रपर इति । कथात
विशेषः |
उरणपरवचनमन्यनिवृच्यथं चेदुदाचादिषुं दोषः ॥ ९॥ 20
उर प्रपरवचनमन्यनिवृस्यथं चेदुदालादिषु दोषो भवति । के पुमरुदात्तादयः।
उदान्तानुदान्तस्वरि तौनुनासिकाः | कृतिः हतिः" | कतम् हतम्। | प्रकृतम् प्रह-
तम । तः पाहि९ । भसु तयः स्थाने ऽण्चानण्ब भण्तु रपर इति ।
# ६.२.६९४, + १.१.३; ६.१.९५८. ‡ ६.२.४९; ६.९.९५८; ८.४.६६. $ ८,४.९०; २.
१९६ ॥ भ्याकरणकहामाष्यय् ॥ ` [म०९.९.५
य उः स्थाने स रपर इति चेदुणवृद्योरवनो तिपः ॥ २ ॥
य रः स्थाने स रपर इति चेद्कुणवुग्योरवर्णस्याप्रतिपत्तिः | कतां हतौ वा-
मन्यः | किं हि साधीय ऋवणैस्वासवणे यदवणे स्याच्च पुनरेडवौ | पूर्यैस्मिच्तपि
पक्ष एष दोषः । किं हि साधीयस्तत्राप्यवणेस्यासव्णे यदवे स्याच्च यपुनरिवर्ण
$ वर्णी । अथ मतमेतदुः स्थाने ऽणथानणथ्च प्रसङ्धे गेव भवति रपरथेति तिरा
पुवैस्मिन्पक्षे ऽवर्णस्य प्रतिपत्तिः । यन्तु तदुक्तमुदालादिषु दोषो भवतीतीह स रोषो
जायते | न जायते ¡ जायते स दोषः | कथम् । उदात्त इत्यनेनाणो पि
परतिनिर्दिश्यन्ते ऽनणो अपि | यद्यपि प्रतिनिर्दिदयन्ते न तु प्रापुवन्ति । किं कारणम्|
स्थाने ऽम्तरतमो भवतीति । कुतो नु खल्वेतह्योः परिभाषयोः साबकाञ्चयोः
10 समवस्थितयोः स्थाने अन्तरतम हइत्युर पर इति च स्थने ऽन्तरतम इत्वनबा
परिभाषया व्यवस्था भविष्यति न पुनरुरभरपर इति । अतः किम् । अत एष दोषो
जयत ददान्तादिषु दोष हति || ये चाप्येत श्रवणस्य स्थाने प्रतिपदमादेशा उच्यन्ते
तेषु रपरस्वं न प्रामोति । ऋत इद्धातोः [७.९.९० ०] उदोष्ठश्चपवैस्य [१०२] इति ॥
सिद्धं तु प्रसङ्गे रपरस्वात् ॥ ३ ।।
15 सिद्धमेतत् । कथम् । प्रसङ्गे रपरत्वात् । उः स्थाने ऽष्पसज्यमान एव रपरो
भवतीति । किं वक्कव्वमेतत् | न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते | स्थान इति बतेते
स्थानशब्दथ प्रसज्जगवाची | यथेवमादेडो विरोधिता भवति | आदेश्च विदशेषितः
कथम् | हितीयं स्थानम्रहणं प्रकृतमनुवतैते तत्ैश्रममिसंबन्धः करिष्यते | उः स्थाने
स्थान इति । डः प्रसङ्गे प्रसज्यमान एव रपरो भवति ||
20 अथाण््रहण किमर्थे न ऊ रपर हस्येवोष्येव | ऊ रपर इतीयत्युच्यमाने क
इदानीं रपरः स्यात् | य उः स्थाने भवति | फथोः स्थाने भवति । भादेशुः |
आदेशो रपर इति येद्रीरिविधिषु रपरमतिषेधः ॥ ४ ॥
अआदेश्यो रपर इति चेदरीरिविधिषु रपरस्वस्य प्रतिषेधो वव्यः | के पूना
रीरिविधयः | अकङलोपानडनडरीररिड देशाः अकडः | सौधातकिः1 } लोपः
४४ वैषृष्वतेयः‡ | भानर् । होकपोतारौ$ । भन् | कतौ इता ¶ । रीर. | मात्रीवति
पिश्रीबलि** | शिः | क्रियते हियते†1 ॥ ।
| । ~ #
# ।
पा०. ६.९.५१. | ॥ व्याकरनग्रहामाष्यम् ॥ १२ॐ
., उदान्तादिषु च ॥ ९ ॥
किम् | रपरत्थस्व प्रतिषेधो वक्तव्वः | कृतिः इतिः | कृतम् इतम् | प्रकृतम्
प्रहतम् | नः पाहि | तस्मादण्प्रदणं कतेम्वम् ॥।
` एकादेशास्योपसंस्यानम् । ६ ॥
एकादेश स्योपसं स्वान कतेव्यम् । खदटूरयेः माठदयेः" | किं पुनः कारणं न 5
विध्यति | उः स्थाने ्पसज्यमान एव रपरो भवतीस्युष्वते म॒ चायमुरेव स्थाने
ऽण्डिष्यते | किं तरि । उधाम्यस्य च | अषयवप्रहनास्सिदडधम् | वद्र ऋवण तदा-
श्रयं रपरत्वं भविष्यति | तद्यथा | माषा न भोक्तव्या हस्युक्ते मिश्रा अपिन भुज्यन्ते |
अवयवग्रहणास्सिडमिति चेदादेदो रान्तप्रातिषेधः ॥ ७ ॥
अवयवग्रहणास्सिडमिति चेदादेशे रान्तस्य प्रतिषेधो वक्ष्यः | होतापोतासै। | 10
यथेवोथान्यस्य च स्थाने ऽपरो भवस्वेवं य ङः स्याने ऽ्वानण्व सो अपि
रपरः स्वात् ॥ यदि पुनर्वणोन्तस्व स्थानिनो रपरस्वमुध्येत । खट्द्यः माल्यैः |
तरैवं शक्वम् [ इड हि दोषः स्यात् । कतौ हतौ | किरति गिरति‡ । ऋवणान्तस्मे-
ववुस्यते न वैतदृवणान्तम् । ननु चैतदपि व्यपदेशिषङ्गावेन ऋषणौन्तम् | अर्थैवता
व्यपदेशिवद्भावो न चेषो ऽथेवान् । तस्मान्नैवं शाक्यम् || न वेदेवमुपसंख्यानं कते - 15
व्वम् | इह च रपरल्वस्य प्रतिषेधो वक्तष्यः । मातुः पितुरिति$ || उभय॑ न
वक्कव्यम् । कथम् | इह यो इयोः षष्ठीनिर्दिष्टयोः प्रसङ्गे भवति लमतते ऽसावम्ब-
तरतो व्यपदेशम् | तथथा । देवदत्तस्य पुत्रः देवदत्तायाः पुत्र इति || कथं मातुः
पितुरिति | भस्स्वत्र रपरस्वम् | का शूपसिदिः | रात्सस्य [ ८.२.२४ | इति
सकारस्य लोपो रेफस्य विसर्जनीय ः¶ | नैवं शाक्यम् | इह हि मातुः करोति 20
पितुः करोतीत्यपस्ययाविसजेनीयस्येति षस्वं॑प्रसज्येत**| अमरत्ययविसनीवस्ये-
स्वुख्वते प्रस्ययविसजैनीयथायम् | लुप्यते त्र प्रस्ययो रात्सस्येति | एवं वर्हि
भरातुष्पुत्र्हणं ज्ञापकमेकादेशानिमितास्पस्वप्रतिषिधस्य1 | यदयं कस्कादिषु श्रातु-
्यत्रहाष्दं पठति तज्जापयस्याचार्वो तैकादेदानिमिन्तास्यत्वं भवतीति ॥
कि पुनरव॑ पृत्रान्त आहोस्वित्परादिराहोस्विदभक्तः | कथं चायं पूत्रौन्तः 25
= ६.९.८७. ¶ ९.३.२५. { ०३.८४; ०.९.९००. § ९.९. ९१ ८२. ९९ ८३. ९५; ६.१.९९९.
¶ ८.१.९५. ** ८.३.४९. 1 ८.३.४६५.
९९८ ॥ व्याकरनमराभाष्यम् ॥ (अण९.९..
स्यात्कथं वा परादिः कथं वाभक्तः । यद्यन्त इति वतेते" ततः पुवान्तः । भया-
दिरिति वतेते ततः प्रादिः | अथोभयं निवृत्तं ततो ऽमक्तः | कथात्र विशेषः |
अभक्ते दीषरस्वयगमयस्तस्वरह रादिरोषविसजजंनीय प्रतिषेधः प्रत्यया-
ध्यवस्था च || ८ ॥
5 यद्थभक्तो दी्ैत्थं म प्रामोति | गीः पूः† | रेफवकारान्तस्य धातोरिति दीषैत्वं
न प्रामोति। किं पुनः कारणं रेफवकाराभ्यां धातुर्थिरोभ्यते न पुनः पदं विशेष्यते
रेफवकारान्तस्य पदस्येति । वैवं शक्यम् | इहापि प्रसज्येत । अमि्वीयुरिति | एवं
तर्हि रेफथकाराभ्यां पदं विशोषयिष्यामो धातुनेकम् रेफवकारान्तस्य पदस्येको
धातोरिति | एवमपि प्रियं भामणि क्ुलमेस्य भ्रियमरामणिः प्रियसेनानिः अत्रापि
10 प्राति । तस्मादधातुरेव विशेष्यते धातौ च धिशेभ्यमाण इह दीधेत्वं न प्रभोति |
गीः पुः | दीधे || रत्व | कत्व च न सिध्यति | निजेगिल्यते | भो याड [८.२.२० |
इति लत्वं नं प्राप्रीति || तेष दोषः | प इस्यनन्तरयोभेषा षष्टी | ९एषमवपि स्वर्ज-
गिल्यत इत्यज्रापि प्रामोति | एवं सरि यडानन्तथै विदोषयिष्यामः † अथवा भ इति
पथ्चमी | रत्व || यक्स्वर । यक्स्वर न ध्यति | गीथेते स्व्यमेव | पूथेते
15 स्वयमेव | भवः करतैयकि [६.१.१९९] इत्येष स्वरो न प्रभोति रेफेण
व्यवहितत्वात् ॥ वैष दोषः । स्वरवि पौ व्य्ञनमविथमानवदिति नालि व्यवधानम् [*. |
यक्स्वर || अभ्यस्तस्वर .|.भभ्यस्तस्वरश्च न तिध्यति | माहि स्म ते पिपसः ।
माहिस्मते बिभरः$ | भभ्यस्तानामादिश्दात्ती भवत्यजादौ लेसापैधातुक्¶
इत्येष स्वरो न प्रामोति रेफेण प्यवदितत्वात् ॥ तरैष दोषः । स्वरविपौ व्वश्ञेनम-
20 विष्यमानवदिति नासि व्यवधानम् | भभ्यस्तस्वरं ॥ दलादिरेष । `दलादे-
रोषं न सिध्यति! ववृते ववृधे" | भभ्यासस्येति हलादिशोषो न प्रामोति†1। हलादि-'
शेष ॥ विसंजेनीय | विसजनी यस्य च प्रतिषेषो वक्तव्यः | नाकुटः नार्पत्यः }
+ खरबसानयोर्धिसजनीयः [८.३.९९] इति विंसजैनीयः प्राप्रोति । बिसजनीय ||
प्रत्ययाव्यवस्था च | प्रस्यये भ्यवस्था न प्रकल्पते [| किरतः गिरतः | रेफो ऽप्यम्तः
परस्ययोऽपि तत्र व्यवस्था न प्रकल्पते || एवं तरह पृवौन्तः करिष्यते |
पूर्वान्त वैवधारणं विसजनी यपतिभेभो यक्स्वरश्च ॥ ९ ।।
यदि पूवौन्तो रोरवधारणं कतेष्यम् । रोः छेपि [८.३.९६] | रोरेव ऋषि
*९.९.४६. †७,९.९००;.९०द्, ‡{८.२.७६.. §७.३.८३. ¶६.१.९८९. **०.४.६६. †1१७.४.२०.
पर ९.१.५९. ॥ ्याकरणपहाभाष्वप । ` १२९
नान्यस्य रेफस्य । सर्पिष्षु धनुष्पु । इह मा मृत् । गीषु पुष || परादपि सस्य
वधारणं कतैव्यं चतुर्षविव्येव मथेम् || विसजैनीयप्रतिषेधः | विसजेनीयस्य च प्रति-
षैषो वक्तव्यः | नाकटः नापेत्यः | खरवसानयोर्विंसजेनीयः [८.३.१९] इति
विसजजनीयः प्रामोति || परादावपि विसजनीयस्य प्रतिषेधो वक्तव्यो नार्कल्मपिरि-
त्येवम्थम् | कल्पिपदसंघातभक्तो ऽसौ नोत्सहते ऽवयवस्य पदान्ततां विहन्तुमिति $
कृत्वा विसजेनीयः प्रापोति || थक्स्वरः | यक्स्वरथ न सिध्यति | गीयते स्वयमेव |.
पूयने स्वयमेव । अचः कर्तृयकि [६.९.१९९] इत्येष स्वरो न प्रभोति || नैष
दोषः | उपदेशा इति यतेते" || अथवा पुनरस्तु परादिः ।
परादावकारलोपीत्वपुक्पतिषेधश्ङ्युपधाहूस्वत्वभिटो व्व्यवस्याभ्याश्षलोपो
ऽभ्यस्ततादिस्वरो दीर्घत्वं च ॥ ९० ॥ .. , 10
यदि परादिरकारलोपः प्रतिषेध्यः ¡ कतौ हतौ | अतो लोप आधधासुकर1 इत्य-
कारलोपः प्राप्रोति || नैष दोषः | उपरेदा इति वतते | वद्युपदेशा इतिं . वतैते
धिनुंतः कृणुतः§ अत्र लोपो न प्राभोति । नोपदे शाभहणेन प्रकृतिरभिसर॑ बध्यते । कि
तर्हि । आधधातुकमभिसंबध्यते । भआधधातुकोपदेशे यदकारान्तमिति । अकार-
रोप || ओत्व | ओत्वं च प्रतिषेध्यम् | चकार जहार | आत भौ णलः [७.९.३४] 15
इस्वौत्वं परामोति | तेष दोषः | निर्दिरयमानस्यादेशा भवन्तीत्येवं न॒ भविष्यति ।
यस्ता निर्दिरयते तस्य कस्मान्न भवति | रेफेण व्यवहितत्वात् | ओर्व | पृक
तिषेधः | पुक् च प्रतिषेध्यः | कारयति हारयति | आतां पुगिति¶ पुक्पाभोति |
पुक्परतिषेधः || चडन्युपधाहृस्वत्वम् | चडन्युपधाृस्वत्वं च न सिध्यति | अचीक-
रत् अजीहरत् | णौ चडुपधाया हस्वः [७.४.१९] इति हस्वस्वं न ॒प्रामोति | 20
चडनयुपधाहृस्वत्वम् || इटो ऽयवस्था | इटश्च व्यवस्था न प्रकल्पते | आस्तरिता
निपरिता । इडपि परादी रेफोऽपि । तंत्र व्यवस्था नं प्रकल्पते | इटो ऽव्यवस्था ||
अभ्यासलोपः | अभ्यासलोपश्च ब्कव्यः | ववृते ववृधे [ अभ्यासस्येति हलादि- ..
शोषो न प्रामोति** | अभ्यासलोपः | अभ्यस्तस्वर | अभ्यस्तस्वर न सिध्यति ।
मारहिस्मते पिषर्ः | माहि स्म ते बिभरः | अभ्यस्तानामादिरुदान्तो भवस्य 25
जादौ लसार्वधातुक11† इल्येष स्वरो न प्रामोति । अभ्यस्तस्वर ।| तारिस्वरः |
तादिस्वर न सिध्यति | प्रकतौ प्रकरतूम् | प्रहतौ प्रहतुंम् { तादौ च निति कृस्यतौ
[६.२.९०] इत्येष स्वरो न प्राभोति || नैष दोषः | उक्तमेतत् । कृदुपदेशे
+ ६.१.९८६. † ६.४.४८. { ६.४.३०, § ३.९.८०. भू ०.२.१६. +^ ०.४.६०. 11 ६.९.९८९.
17 ४
९३० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥।. 1[ मन ९.१९.
छम ताश्थयमिडवेमिति* | तादिस्वरः ॥ दीषैत्वम् । दीघत्वं च च सिध्यति | गीः
पुः | रेफवकारान्तस्य धातोरिति! दीषेस्वं न प्राभोति ॥।
लो ऽन्यस्य ॥ १ । १५ । ५२ ॥
किमिदमल्पहणमन्त्यविहेषणमाहोस्विदादेदाविदेषणम् | क चात :| यद्यन्ल-
६ विश्चेषणमारेश्षो ऽवि दोषितो भवति | तत्र को दोषः | अनेकारुप्यदि सो ऽन्त्यस्य प्रष-
ज्येव || यदि पुनरलन्त्यस्येत्युच्येत । तत्रायमप्यथी ेकाल्शिस्सवेस्य [१.१.९९
हव्येतश्न वक्तव्यं भवति | इदः नियमार्थं भविष्यति | अले वान्स्यस्य भवति नान्य
` इति | एवमप्यन्त्यो विशेषितो भवति | तत्र को दोषः | बाक्यघ्यापि पदस्याप्य-
न्त्यस्य प्रसज्येत |] यदि खत्वप्येषो ऽभिप्रयस्तश्च क्रियेतेत्यन्स्यविदोषणे अपि सति
10 वच करिष्यते | कथम् | डङचालो <न्त्यस्येव्येतन्नियमाथै भविष्यति! | डिदेवाने
कारुन्व्यस्य भवति नान्य इति || `
किमर्थं पूनरिदमच्यते |
अरो =्त्यस्येति स्याने विज्ञातस्यानुसंहारः ॥ ९ ॥
भलो =न्त्यस्यरत्यु च्यते स्थाने विज्ञातस्यानुसंहारः क्रियते स्याने प्रसक्तस्य ॥
15 इतरथा क्यनिष्टप्रसङ्गः | २॥
इतरथा द्यनिष्टं प्रसज्येत । टिक्किन्मितो ऽप्यन्त्यस्य स्युः || यदि पुनरषं
` योगरेषो विज्ञायेत | `
योगरेषे च || ३
किम् । अनिष्टं प्रसज्येत | टिष्किन्मितो ऽप्यन्त्यस्य स्युः | तस्मास्ष्ुस्यते
20 ऽलो ऽन्त्यस्येति स्थनिं विज्ञातस्यानुसंहार इतरथा श्याने्टप्रसद्गः इति ॥
डिश्च ॥ १ । १. । ५२ ॥
तातङन्त्यंस्य स्थाने कस्मान्न भषति | नसिश्चालो जन्त्यस्येति प्रामरोति ।
६.२.५०५. { ८.२.७५. , +१,१.५६. , § *-१.३.९.
फ" १,९१.९ -५५. ] ॥ व्याकट्णमहाभाष्यम् ॥ १३१
तातङि .डिस्करणस्य सावकारात्वाद्विपतिषेधात्सवंदिशः ॥ १ ॥ . `
तातङि डित्करणं सावकडाम् | कोऽत्रकाशः | गुणवृद्धिभतिषे धार्थो ङकारः * |
तातङि डिस्करणस्य सावकाशात्वाद्विमतिषेधास्त्वादेरो भविष्यति || प्रयोजनं नेम
तदक्त्यं यक्नियोगतः स्यात् । यदि चायं नियोगतः सवादेशः स्यात्तत एतत्मयो-
जनं स्यात् | कुतो नु खल्ेतन्डित्करणादयं सव्रौदेशो भविष्यति न पुनरन्त्यस्य स्या -
दिति || एवं तर््तदेव ज्ञापयति न तातडनन्त्यस्य स्थाने भवतीति यदेतं @डितं क-
रोति | इतरथा हि लोट एरप्रकरण; एव त्रुयत्तिधोस्तादाशिभ्यन्यतरस्यामिति ॥
अदेः परस्य ॥ १. । १. । ५४ ॥
अलोऽन््यस्यदिः परस्यानेकाल्ास्सर्वस्येत्यपवादविपतिपेधात्सवदेदाः॥९॥
अलोऽन्त्यस्येस्युरतगेः | तस्यदिः परस्यानेकाल्शित्सवैस्येस्यपवादौ | भपवा - 19
दविप्रतिषेधात्तु सवोदेशो भविष्यति । आदेः प्ररस्येत्यस्यावकाश्चः | व्यन्तरुपसर्गे-
भ्यो ऽप हत् [ ६.३.९७ | दीपम् अन्तरीपम् | अनेकाल्दिस्सवैस्येत्यस्याव -
काराः | अस्तेभुः [ २.४.९२ ] भविता भवितुम् | इहोभयं प्रामोति | अतो भिस
एस् [ ७.१.९ || अनेकाटिशस्सवस्येस्येतद्धवति विप्रतिषेधेन || शिस्सर्वस्येत्यस्या-
वकाः | इदम हश् | ९.३.२३ | इतः इह । आदेः परस्वेत्यस्यावकषिः | स 15
एव | इहोभयं प्रामोति । अष्टाभ्य ओग [ ७.१.२९ | । हित्सवेस्येत्येतद् वति वि -
परतिषेपेन ॥
अनेकाटिशिस्सवेस्य ॥ १. । १. । ५५ ॥
शित्सर्वस्येति किमुदाहरणम् | हदम हश [९.३.२३] हतः इह | वैतदति प्रयोज.
नम् | शिस्करणदेवान्र सवोदेश्ो भविष्यति | इदं तरि | अष्टाभ्य ओक [७.१.२९ || 20
ननु चाश्रापि शित्करणादेव सवीदेशो भविष्यति | इदं वार्ह | जसः शी
[७.९.९७] | जदशासोः शोः [२०|| ननु चत्रापि शित्करणादेव सवदे शो भवि-
ष्यति | अस्त्यन्यद्शत्करणे प्रयोजनम् | किम् । विदोषणथः | क्र विशेषणार्थं -
नार्थः} हि सर्वनामस्थानम् [ १.९.४२ | विभाषा डिदयोः | ६.४.१३६ | इति|
क १,,१..५., ॥॥ ३ 1 क ८ ६,
९३२ ॥ व्याकरणप्हाभाष्यम ॥ [मण १.९.
श्चित्सवेस्येति शक्यमकनम्। कथम् | अन्त्यस्यायं स्थाने भवन्न प्रत्ययः स्यात् ।
असत्यां प्रत्ययसंज्ञायामिस्संश्ञा न स्यात् ¡ असत्यामित्संज्नायां लोपो न स्यात् | असति
लोपे जेकाल् | यदानेकाल्तदा सवादेशः | यदा स वौदेश्चस्तदा प्रत्ययः | यदा
प्रत्ययस्तदेत्संज्ञा* | यदेत्संत्ञा तद। लोपः || एवं तरिं सिद्धे सति यच्दात्सर्वस्येत्याह
5 तज्ज्ञापयत्याचार्यो ऽस्त्येषा परिभाषा नानुबन्धकृतमनेकाल्त्वं भवतीति | किमेतस्य
ज्ञापने प्रयोजनम् । तत्रासरूपसवादे शादाप्परतिषेषेषु पथच्क निर्देशो ऽनाकारान्तत्वा-
दित्थुक्तं* तच्च वक्तव्यं भवतीति |
इति शभगवत्पतश्ङिविरनिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमत्याध्यायस्य प्रथमे
पदे सप्रममादहिकम् ॥
~~ ~ -~-
# १.३.८. † ९.३.९. { ९.३.९.*
१५ ९.१.५६. | ॥ उ्यव्छरषद्छटाभस्यम ॥ १ददे
, स्थानिवदादेशो ऽबव्विधो .॥। १. । १ । ५६ ॥
वत्करणं किमर्थम् | स्थान्यादेशो ऽनल्विधावितीयद्युच्यमाने संज्ञाभिकारो अयं
ततर स्थान्यादेशस्य संज्ञा स्यात् । तत्र को दोषः | आङो यमहन आत्मनेपदं मव-
तीति* वपेरेव स्यादन्ते्म स्यात् | वत्करणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | स्था- |
निकाय मादेशो ऽतिदिदयते गुरुवहुरुपुत्र इति यथा | भथादे शम्रहणं किमर्थम् | स्थामि-
बदनल्विधावितीयस्युच्यमाने क इदानीं स्थानिवत्स्यात् | यः स्थाने भवति | कथ
स्थाने मवति | अदेशः | इदं तर्हिं प्रयोजनमदेदामात्रं स्थानिवद्यथा स्यात् । एकदे -
राविकृतस्योपसंख्यानं चोदयिभ्यति† तन्न वक्तव्यं भवति ॥ भथ विधि्रहणं किम-
थेम् | सवैविभक्तयन्तः समासो यथा विज्ञायेत । अलः प्रस्य विधिरल्विधिः | अलो
विधिरल्विधिः । अलि विधिरल्विधिः | अला धिधिरल्विधिरिति | तरैतदस्ति प्रयो- 10
जनम् । प्रातिपदिकनिर्देशो ऽयम् । प्रातिपरिकनिरे शाथार्थतन्ता भवन्ति न कांचि-
ल्ाधान्येन विभक्तिमाभ्रयन्ति | तत्र प्रातिपदिकार्थे निरि यां यां विमक्तिमान्नथितुं
बुद्धिरुपजायते खा साश्रयितश्या || इदं ताहि प्रयोजनमुत्तरपदलोपो यथा विश्ञायेत |
अरमाभ्रयते ऽलाश्रयः | अकान्रयो विधिरल्विधिरिति | यत्र प्राधान्येनालाभ्रीयते
तन्नैव प्रतिरथः स्यात् । यत्र बिदोषणस्वेनालाश्रीयते तन्न प्रतिषेषो न स्यात् | कि 15
प्रयोजनम् | प्रदीव्य प्रसीव्येति वलादिलक्षण इषमा मूदितिः |
किमर्थे पुनरिदमुष्यते |
॥ = +
स्थान्यादेशप्रथक्तादादेो स्थानिवदनुदेशो गुरुवदुरुपुत्र इति यथा ॥ ९ ॥
अन्यः स्थान्यन्य आदे शः | स्थान्यादेशाए्रथच्कादेतस्मात्कारणात्स्थानिकार्यमादेश्षे `
न प्रामोति |तत्र को दोषः | भजो यमहन आत्मनेपदं मवतीति, हन्तेरेव स्याक्पे्म ‰।
स्वात् । इष्यते च वभेरपि स्यादिति तश्चान्तरेण यलं न सिध्यति | तस्मास्स्थानिवदनु-
देशः | एवमथमिद मुच्यते । गुखुवद्ुरपुत्र इति यथा । तद्यथा | गुरुवदस्मिन्गुरपुत
बर्मितव्यमिति मुरौ वत्काये त्ुरपुत्रे ऽतिदिश्यते । एवमिहापि स्थानिकार्यमादेश्े `
अतिदिदयते ॥ तैतदास्ति प्रयोजनम् । लोकत एतस्षिद्धम् । तथथा | लोके यो यस्व `
भङ्गे भवति लभते ऽतौ तत्कायोणि | तद्यथा | उपाध्यायस्य शिष्यो याज्यकुलानि 9
गत्वापराखनादीनि लभते | यदपि तावल्लोक एष दृष्टान्तो दृष्टान्तस्यापि तु पुरुषारम्भो
| (म्रद ~ नैस्९८८८ पर्स्स्र
१३४ ॥ व्याकरनयशाोद्रव्यप् ५. ` , मि०९.९.८
निवतेको भवति | अस्ति चेह कथित्परुषारम्भः । भस्तीस्याह | कः | स्वरूपवि-
भिर्नाम* | इंन्तरास्ममैपंमुख्यंमानं हन्तेरेव स्याहपेने स्यात् ॥ एवं तरया चार्यपरवृसिः
जञा पयति स्थानिवदादेशो भवतीति यदयं युष्मदस्मदोरनादेशे [७. १.८६ | हत्यादे श-
भ्रतिषेषं शासि | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | युष्मदस्मरोर्पिभक्तौ कायमुच्यमानं कः प्र-
5 सङ्गो यदादेशे स्यात् | परवति स्वाचांर्यः स्थानिवदादेशो भवतीत्यत आदेशो प्रति-
पेषं शास्ति || इदं ताई प्रयोजनम् | अनल्विधाविति प्रतिषेधं वदेमामीति | इह मा
भृत् । यीः पन्थाः सं इति। | एतदपि नासि प्रयोजनम् । आचार्यपरवृत्तिज्गौपरयत्य-
ल्वि धौ" स्थानिवद्धावो न भवतीति यदयमदो जग्धिल्येति किति [२.४.३६ | इतिति
कितीत्येव सिद्धे ल्यम्प्रहणे करोति || तस्माच्रार््रो जेन योगेन ॥ `
10 आरभ्यमाणे ऽप्येतस्मिन्योगे ` |
अल्विधौ प्रतिषेधे अविदरोषणे ऽपराभिस्तस्यादरानात् । २।।
अल्विधौ प्रतिषेधे ऽसस्वपि विरोषणे समाज्रींयमाणे ऽतति तस्मिन्किशोषणे ऽप्रा-
पिर्विषेः. । प्रदीव्य प्रसीष्य | (क कारणम् | तस्याददनात् | त्रारेरित्यु च्यते न चात्र
वलादि पयायः || ननु चैवमथे एवायं . बलेः प्रियते अन्यस्य कार्यमुच्यमानम-
15 न्यस्य यथा स्यादिति | सस्यमेवमर्थो न .तु प्राप्रोति |. विर कारणम् ।
सामान्यासिदेरो विंेषानतिदेशः ॥ ३.॥
सामान्ये ्तिदि श्यमाने विशेषो नातिदिष्टो भवति | तद्यथा । ब्राह्मणवदस्मि-
न्षज्रिये वर्तितव्यमिति सामान्यं यद्ाद्ममकायं तत्सत्रिये ऽतिदिदयते यदिष्टं माठरे
कौण्डिन्ये वा न तदतिदिश्यते | एवमिहापि सामान्यं यसखत्ययकायै तदतिदिदयते
20 यद्विदिष्टं वलादेरिति न तदतिदिदयते |} यद्येवमम्रहीत्$ इट हैटि [८.२.२९८ | इति
सिचो लोग न प्राभोति | अनल्विधाविति पुनरुच्यमान इहापि प्रतिषेधो भविष्यति |
~ प्रदीव्य भरसीग्येति । विशिष्टं देषो ऽउलमाभ्रंयते वलं नाम| इह च प्रतिषेधो न भवि-
ष्यति | भयदहीरिति । विशिष्टं देषो ऽनरठमाभ्रयंत इटं नाम || यरि तर्हि सामान्य-
मप्यतिरिरयते विद्रोषथ |
8 ` सस्याश्रये विधिरे्टः ॥ ४ |
, सति च वलादित्व हटा भवितव्यम् | अरुदिताम् अरूदितम् भरुदित ¶ | किमत्र
` यत्सति भावितव्यम् |
# ६.९. ६८. † ०.९, ८५४; ८८ ०.२.१०२; ९.१.६८. [०.२.३५ § १.२.३२५. ¶ ०.२.५६.
पाण ९,९.५६. | ॥। व्याकरणमहाभाष्यम्.। १.३५;
प्रतिषेघस्तु प्रभेत्यल्विधित्वात् ॥ ९ ॥
प्रतिषेधस्तु परामोति । किं कारणम् | आल्विधिस्वात् | अल्विधिरयं भवति
तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधः प्राति |
न वानुदेशिकस्य प्रतिषेधादितरेण भावः ॥ ६ ॥
न तष दोषः | किं कारणम् | आनुदेशिकस्य प्रतिषेधात् | अस्त्वश्रानुदेशिकस्य `
वलादित्वस्य प्रतिषेधः स्वाञ्रयमत्र वलादित्वं भविष्यति || तैतदिवदामहे धलादिरम
वकारदिरिति | विं तर्हि स्थानिवद्धावात्सावैधातुकल्वमेषितव्यं तत्रानस्विधाविति
प्रतिषेधः प्रामोति | |
किं पुनरादेशिन्यल्याभ्रीयमाणे प्रतिषेधो मभवव्याहोस्िदविरेषेणादेश आरेदानि
ख | कथात्र विदेषः| । ` 10
अदेदयल्विधिप्रतिषेधे रुवधपिबां गुणवृद्धिभतिषेधः ॥ ७ ॥ `
अदिश्यन्विधिप्रतिषेधे कुरुवधपिबां गुणवृद्योः प्रतिषेष वक्तव्यः | कुर्विस्यत्र
स्थानिवद्भा वादङ्गसंज्ञा स्वाभ्रयं च लघृपधत्वं तत्र रुधुपधगुणः प्रामोति* | वधक-
मित्यत्र स्थानिवद्धावादङ्गतंज्ञा स्वाभ्रयं चादुपधत्वं तत्र वद्धिः प्रामोति† | विवेस्यत
स्थानिवद्धावादङ्गसंश्ना स्वात्रयं च कषुपधस्वं ' तत्रं गुणः प्रामोति{ || अस्त तद्यैवि- 15
दोषेणारेरा जदोश्ञिनि च |
` अदेरैयदेरा इति चेत्पुषिङ्दतिदिशेषुपसंख्यानम् ॥ ८ ॥
क क, क,
भआदेशयादेश इति चेत्सुपिङ्दा। तेदिषटेषुपसख्यानं कतेभ्यम् | छप् । वृक्षाय
अक्षाय | स्थानिवद्धावाल्डम्संन्ञा स्वाप्नरयं च यञादितवं त्र प्रतिषेषः प्रामोति$ | इष् ॥
तिडः | भररिताम् भसदितम् अर्दित | स्थानिव द्गावास्सावेषातुकसंज्ञा स्वाभ्रग्रं च
वादित्वं तन्न प्रतिषेधः प्रभोति | तिडः || कृदतिदिष्टम् । भुवनम् खवनम्
धुवनम् । त्ानिवङ्गवासत्ययसंज्ञा स्वाश्रयं चाजादिस्वं तज प्रतिषेधः. भ्रामोति!"|
किं पुनरत्र ज्यायः | भंदेशिन्यल्याश्री वमाणे प्रतिषेध इत्येतदेव ज्यायः | कुत एतत्।
तथा ह्ययं विशिष्टं स्यानिकायेमादेशो ऽतिदि राति गुरुवद्ररपुत्र इति यथा | तद्यथा ]
गुरुवदस्मिन्गुरुपुते वर्तितव्यमन्यत्रोच्छिष्टभोजनास्पारोपसंम्रहणाचचेति | यदि च गुर-
+ ६४.९१० ; ०.३.८६. † २.४ ५४५; ०.२. ९१९६. { ०.३.०८; ८६. $ ०.९.२१; ०.३.९०२.
थ् २.४. ९०९. ; ७.२. ७६, ## ७.१.१९ ; ६.४. ७७, ।
१३६ ॥-व्वाकरस्ममहाभच्विम् ॥ ` ` मि०९.६.८.
पुरोऽपि गुरु्भवति तदपि कर्तेव्वं भक्ति || अस्तु तद्योदेशिन्यर्यश्रीयमाणे प्रवि-
बेधः | ननु चोक्त मादेश्यल्विधिभ्रतिषेषे कुरव धपिवां गुणवृदधि्रतिभेध इति । तेष
रोषः । करोतौ तपरकरणनिर्द शात्सि्धम् | पिभिरदन्तः | बधकमिति नायं ण्वुल्
भन्यो ऽयमकराष्दः किदौणारिको रुचक इति यथा ||
& रकदेदानिकृतस्योपसंख्यानम् ॥ ९॥.
एकदे दीविकृतस्योपसं ख्यानं कतेव्यम् । किं भरयोजनम् । पचतु पचन्तु" | तिङ्-
हणेन ब्रहणं यथा स्यात् |
एकदेराविकृतस्यानन्यत्वास्सिद्म् ॥ ९० ॥
एकदे शाविक्ृतमनन्यवद्भवतीति तिङ्हणेन अहर्णं भविष्यति | तद्यथा | श्चा कणे
10 वा यच्छे वा छिन्ने श्चैव भवति नाञ्रो न गदभ इति ||
अनित्यविज्ञानं त॒ तस्मादुपसंख्यानम् ॥ ९९ ॥
अनित्यविज्ञानं तु भवति । नित्याः शब्दाः | नित्येषु नाम शब्देषु कूटस्थैरविचालि
मिवेर्शैभवितव्यमनपायोपजनविकारिभिः | तत्र स एवायं विक्रृतथेत्येतन्निव्येषु नो-
षपर्ते | तस्मादुपसंख्यानं कतन्यम् || ¦
1 भारद्वाजीयाः पठन्ति || एकरेशाविकृतेषुपसंख्यानम् | एकर दाविकृतेषुपसं-
ख्यानं कतेव्यम् | किं प्रयोजनम् | पचतु पचन्तु | तिङ्हणेन ग्रहणं यथा स्यात् | किं
च कारणं न स्यात् || अनादेशत्वात् | आदेः स्थानिवदित्युच्यते न चेम आ-
देशाः |} रूपान्यस्वाञच || अन्यरखल्धपि रूपं पचतीत्यन्यत्प चध्विति | इमे ऽव्यादे शाः |
कथम् | आरिदयते यः स आदेश इमे चाप्यादिरदयन्ते || भदेशाः स्थानिवदिति
20 चेन्नानाभितस्वात् || आदेशः स्थानिवदिति चेत्तत । किं कारणम् | अनाभितत्वात् |
बोऽतरदेदो नासावाभ्रीयते यथाश्रीयते नासावादेहाः | तरषन्मन्तव्यं समुदाय
आश्रीयमाणे ऽवयवो नाश्रीयत इति | अभ्यन्तरो हि समुदायस्यावयवः | तद्यथा |
वृक्षः प्रचलन्सहावयवैः प्रचरति || आश्रय इति चेदस्विधिप्रसङ्गः || आश्रय इति
चेदल्विधिरयं भवति तश्रानल्विधाबिति प्रतिषेधः प्रामोति । प्रैष दोषः | तरैवं सति
४ कथिदप्यनल्विधिः स्यात् | रच्यते चेदमनल्विधाविति तत्र प्रकगतिज्ञास्यते
साधीयो योऽल्विधिरिति । कञ्च साधीयः | यत्र प्राधान्येनालाभ्रीयते | वत्र नान्त-
# ३.४, ८६,
फण १..१. ५६. ` ॥ व्थाकरगमहामव्यम् ॥ १.३४
रीयको ऽलाभ्रीयतेः नास्ताअस्विधिरिति | बथवोक्तमादेदापहणस्व प्रयोजनमादे-
दामानं स्यानिवथयो स्यादिति ।|
अनुपपन्नं स्थान्यादेदास्वं नित्यलात् ॥ ९२ ॥!
स्थान्यादेश इव्येतच्िस्येषु राग्देषु नोपपद्यते । किं कारणम् | निस्यस्वात् |
स्थानी हि नाम यो भुत्वा न भवति | आदेशो हि नाम यो भूत्वा मवति | एतश्च ; `
नित्येषु दाब्देषु नो पपद्यते यत्खतो नाम विनाश्यः स्यादसतो वा प्रादुभोव इति ॥
सिद्धं तु यथा लोकिकवैदिकेष्वभृतपूरवेऽपि स्थानशब्द भयोगात् ॥ ९३ ॥
तिद्धमेतत् । कथम् । यथां लौकिकेषु वैदिकेषु च क तान्तेष्वभुतपूर्वेऽपि स्थान-
चाष्दो वतेते | लोके तावदुपाध्यायस्य स्याने ्िष्य इस्युच्थते न चः तज्रोषाध्यायो
मृवपूर्वो भवति | वेदेऽपि सोमस्य स्थनि पतीकतृणान्यभिषुणुयादित्युष्यते म. चः तश्र 10
लोमे भूतपूर्वो भवति ॥
कार्यविपरिणामादया सिम् ॥ ९४॥
भवा कायैविपरिणामास्सिद्धमेतत् । किमिदं कायैविपरिणामादिति | कायौ
बुदिः सा विपरिणम्यते | ननु च का्याविपरिणामादिति भवितव्यम् | सन्ति
चैव ह्ीत्तरपदिकानि हस्वस्वानि | अपि च बुद्धिः संप्रत्यय इत्यनथान्तरम् । कायां 15
बुद्धिः कार्यः संमत्ययः कार्यस्य संप्रत्ययस्य विपरिणामः कायैविपरिणामः का्यैवि-
परिणामादिति || परिहारान्तरमेवेदं मत्वा पठितं कथं चेदं परिहारान्तरं स्वात् ।
यदि भूतपूर्वे स्थानशब्दो वतेते 1 भूतपूर्वे चापि स्यानराष्दो वतेते । कथम् | बुग्या |
तद्यथा । कथित्कस्तीौचिदुपदि शति प्राचीनं मामादाश्ना इति । तस्य सवेत्रा्नवुदडधिः
प्रसक्ता । ततः परथादाह ये. क्षीरिणो ऽवरोहवन्तः एथुपणास्ते न्यग्रोधा ईति । स 20
तत्रानबुदखया न्यमो धबु प्रतिपद्यते । स ततः पदयति बुद्याज्ांथापकृष्यमाणान्वमो-
धांधाधीयमानान् | नित्या एव च स्वस्मिन्विषय भान्ना नित्याश्च न्यमोधा बुदिस्स्व
स्य विपरिणम्यते । एवमिहाप्यस्तिरस्मा अविशेषेणोपदिष्टः । तस्य स्ैग्रास्तिबुदिः
पस्ा | सोऽस्तेभू्मवतीत्यस्तिबुख्ा भवतिबुद्धि परतिपते, । स ततः परयति बुद्या-
स्ति चापकृष्यमाणं भवतिं चाधीयमानम् । नित्य . एव च स्वस्मिन्विषये ऽस्तिर्गित्यो ‰
भवतिबुद्धिस्त्वस्य विपरिणम्यते ||
--- = -क----~--> ~ = ~~~ ० = क = =-भ-
† भै ब्, (१ ५२,
18
१.३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ` [म०२९.९.८
.. अपवादग्रसङ्गस्तु. स्थानिवस्वात् ॥ ९९.॥ `
अपवाद उत्सगेकृतं च प्रामोति । कर्मण्यण् [२.२.९१] आतोऽनुपसर्गे कः [६]
इति के ऽप्यणि कृतं प्रामोति । किं कारणम् | स्थानिषस्वात् ||
. उक्तवा ॥ ९१९॥
किमुक्तम् | विषयेण तु नानालिङ्गकरणास्सिद्धमिति || अथर्वा
सिद्धं तु षष्ठीनिर्दिष्टस्य स्थानिवदचनात् 1 ९७॥
सिद्धमेतत् | कथम्} षष्ठीनिर्दिष्टस्यादेश्चः स्थानिवदिति वक्तव्यम् । तत्ता ष्टी-
निर्दि्टमहणं कतेव्यम् | न कतेव्यम् | प्रकृतमनुवदेते । क प्रकृतम् । षष्ठी स्थानेयोगा
[९.९.४९] इति |} अथवाचययेप्रवृत्ति्वो पयति - नापवाद उत्सगेकृतं भवतीति
10 यद्यं दयनादीनां कयशिच्डितः करोति । दयन् न्नम् भा दाः श्रुरिति ॥.
तस्य दोषस्तयादेष्रा उभयप्रतिषेधः ॥ १८ ॥
तस्यैतस्य लक्षणस्य दोषः | तयादेश्च उभयप्रतिषेषो वक्तव्यः† | उभये देव-
मनुष्याः | तयपे च्रहणेन म्रहणाज्जसि विभाषा प्रामोति‡ || नैष रोषः | अयचख-
त्ययान्तरम् । यदि प्रत्ययान्वरमुभयीतीकारो न प्रापोति | मा भूदेवम् | मात्र
15 जिस्येवं भविष्यतिऽ | कथम् | मात्रजिति नेदं प्रत्ययग्रहणम् । कि तर्हि | प्रत्या-
हारम्रहणम् | क संनिविष्टानां प्रत्याहारः | मत्र शाब्दास्भृत्यायचथकारात्4 |
` यदि प्रत्याहारमरहणं कति तिष्ठन्ति अत्रापि प्रामोतति | अत इति. वतैते** | एवमपि
तैरमाजा. घतमत्रा अत्रापि पभरामोति | सदृ श्यस्याप्यसंनिविष्टस्य न भवति प्रत्याह्मरम-
हेन प्रहणम् |
2 जस्याष्यायां बचबातिदेदर स्थानिवद्विप्रसिषेधः । ९९ ॥
जात्याख्यायां वच्रनातिदेशे1† स्थानिवद्भावस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्रीदिभ्य
भागतं हत्यत्र षेति [७.३.११९] इति मुणः परामोति || नैष दोषः | उक्तमेतस् |
भथौतिरेशास्तिडधमितिःः ||
्याञ्प्रहणि ऽदीषेः || २० ॥
25 उन्ान्परहणे ऽदीषे आदेशो न स्थानिवदिति वक्तव्यम् | कं प्रयोजनम् |
* शिवस् ९.* † ५.२.४४. {र.९.३२. § ४.१.९५. नु ९.२.३०२. ++ ४.१.४.
11 १,,२. ५८. 44 १,०२.५ ५८,
फ० १,१.५६ .] ॥ शांकर गयहाभाष्यम | ९३९
निष्कौशाम्बिः भतिखदटुः । उन्यान्प्रहमेन बहणास्छ॒लोषो ` मा भूदिति+ । ननु चं
रीषादिस्युच्यते | तच्च वक्तव्यं भवति | किं पुनर्न ज्यायः | स्थानिवत्पतिषेध
एव ज्यायान् । इदमपि सिद्धं भवति । अतिखदट्राय भतिमालाय | खडापः | 9.
३.१९३ | इति याण्न भवति | भयेदानीमसत्यपि स्थानिवद्भावे दीधत्वे ृते।
पिदचासौ भूतपूव इति कृत्वा याडाप इति याट् कस्माच्च भवति | रक्षणप्रतिपदोक्तयोः 5
प्रतिपदोक्तस्थैवेति | ननु चेदानीं सत्यपि स्थानिवद्भाव एतया परिभाषया शक्य
मिहोपस्थातुम् । नेत्याह | न हीदानीं क्रचिदपि स्थानिवद्भावः स्यात् | तत्रि
बक्तव्यम् | न वक्तव्यम् । प्रधिष्टनिरदेरास्सिडम् । प्रशचिषटनिर्देशोऽयम्. | डी ट
हैकारान्तात् आ आप् आक्रारान्तादिति ॥
आहिभुवोरीद प्रतिषेधः ।। २९ ॥। ४
भआहिभुवोरीटः प्रतिषेधो वक्तव्यः | भात्थ भभूत्; | अल्िब्रूभहणेन ्रहणा- `
दीट् प्रामोति9 || आहेस्तावन्र वव्यः। आचायेभवृत्तिज्ञो पयति नाहेरीड भवतीति
यदयमाहस्थः | ८.२.३९ | इति कलादिप्रकरणे स्वं शास्ति | नैतदस्ति ज्ञापकम् ।
भसति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम् } भूतपुवेगतियेथा विज्ञायेत । इला-
दिर््रो भूतपूवै हति | ययेवं थव चनमनथंकं स्यात् । आथिमेवायमु्चारयेत् | 15
ब्रुवः पत्चानामादित जाथो न्रुव इति | भवतेथापि न वक्तव्यः| भस्तिसिचो
ऽधृक्ते | ७.३.९६ | इति हिसकारको निर्देशः | भस्तेः सकारान्तारिति ॥
वध्यादेशे वृद्धितस्वम्रतिषेषः ॥ २२ ॥।
वध्यादेशे वृद्धितस्वयोः प्रतिषेषो वक्तव्यः | वधकं पुष्करमिति॥ | स्थानिवद्धए-
बाहृडधितत्वे प्रमुतः*“ || तैष दोषः । उक्तमेतत्, | नायं णबुल् अन्यो ऽयमक- 20
शब्दः किदौणादिको ङचक इति यथा |. ॑
इद्धिश्च ॥ २३ ॥
इद्िपियः। आवधिषीषट 11 | एकाच उपदेशे ऽनुदा्तात् [ ७.२.९० | इति प्रति - |
बेधः प्राभोति ॥ नैष दोषः | आद्युदात्तनिपातन करिष्यते । स निपातनस्वरः
प्रकृतिस्वरस्य वाधको भविष्यति | एवमप्युपदेशिवद्धावो बक्तव्यः | यथैव हि 25
निपावनस्वरः प्रकृतिष्वर वाधत एवं प्रत्ययस्वरमपि वधत | आवधिषीषटेति | तैष
_ __-------- -
१.२. ४८; ९.९. ६८. ¶ 9द. ०२ ३.४.८४ र.४द्र्ः 9 ७.२.०९ सद. १ २.५. ५.
** ७.९. ११६ ७.२. २२. 11 २.८. द्
४० ॥ व्याकवयहामाष्यय् 4 . {० ९,९. 4
दोषः ] आर्धधातुकियाः सामान्येन भवन्स्यनबस्थितेषु प्रत्ययेषु । त्रार्पधातुकसा-
प्मान्ये. वधिभ्मने कृते सति शिष्टत्वालसत्ययस्वरो भविष्यति ॥
| ` आकारन्ताल्खक्क्प्रतिषेधः ॥ २४ |
, . आकारान्ताचुल्षुकः प्रतिषेधो वक्तव्यः .| विकापरयति भापयते" । ठीभी्हणेन्
5 ब्रहणाजुसुकौ प्ाप्रुतः† . || लीभियोः प्रशिष्टनिर्देशास्सिडधम् । ीमियोः प्रशिष्टनिरं
शओऽयम् | ठी है हेकारान्तस्य । भी ई हैकारान्तस्य चेति ॥।
लोडादेरोः राभावजभावधित्वहिलोपैच्वपतिषेधः ।| २५ ॥ : `
लोडदेशहा एषां प्रतिषेधो वक्तव्यः | शिष्टात् हतात् भिन्लात् कुरुतात् स्तात् ॥
,` लोडादेशे कृते शाभावोः जभावो धित्वं हिलोप एत्वभिव्येते विधयः प्राप्मुवन्तिऽ ||
10 त्ैष दोषः । इदमिह संप्रधायम् । लोडादेदाः क्रिवतामेते विधय इति किमत्र क
कैव्वम् । परस्वाछ्ठोडादेशः । अथेदानीं लोडादेशे कृते पुनःप्रसङ्गविश्चानात्कस्मादेते
विभयो न भवन्ति । सकृढतौ विप्रतिषेधे यद्वाधितं तद्वाधितमेवेति कृत्वा |
अयादेशे लन्तप्रतिषेधः ॥ २६ ॥
अयादेदो जन्तस्थ प्रतिषेधो वक्तव्यः । ति्धणाम् । तिखभावे कृते ब्ेलयः
15 [७.९.९३] इति ्रयादेशः प्रामोति || नैष दोषः} इदमिह संप्रधायैम् । तिखभावः
क्रियतां चयादेश इति किमत्र कतेष्यम् | परस्वात्तिख्भावः । अथेदानीं तिखभावे
कृते पुनःप्रसङ्गयिह्णानाशल्लयादेशाः कस्माच्च भवति | सकृहतौ विपरतिषेपे यद्वाधितं
तद्वाधितमेवेति ||
आम्विधौ च | २७॥
20 भग्विधौ च लन्तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | चतस्रस्तिश्न्ति । चतखमावे कते
चतुरनड्होरामुदा्तः [७.१.९८] इस्याम्भामोति | नैष रोषः | इदमिह संरधा-
यम् । चतद्भावंः क्रियतां चतुरनडुहोरामुदास्त हत्यामिति केमन्र कर्तव्यम् ।
परत्वा्चतखभावः । .भयेदानीं चतद्भावे कृते पुनःप्रसङ्गविक्ञानादाम्कस्माच
भवति | सकृङतौ विप्रतिषेधे यद्वाधितं तद्धाभितमेषेति ॥
ज
५ ६. ९. ५९; ५६. † ७.१.३९; ४०, { ०० २.३५. { ६, ४.१२५.१२६. १०९६; ९०६; ९२९९. `
भं ७,२.९९,
पा» १.१.५०. | ॥ म्याकरनेयहायाष्यय +. . ६४१.
स्वरे वस्वादेदौ ।॥ २८ ॥
स्वरे वस्वादेशे प्रतिषेधो वक्कष्यः | विदुषः पद्य । शुरनुमो नथजादी
अन्तोदात्तारिव्येष स्वरः† प्रामोति || वैष दोषः | अनुम इति प्रतिषेभो भविष्यति |
अनुम इत्युच्यते न चात्र नुम पयामः । भनुम इति नेदमागममहणम् | किं वार्ह ।
भरत्वादारयदणम् । क संनिविष्टानां प्रत्याहारः । उकाराख्भृ्या नुमो मकारात्‡ | 5
वदि परत्याहारप्रहणं लुनता पुनता अत्रापि प्रामोत्तिऽ | अनुम्प्र्णेन न रात्रन्तं विहो-
प्यते | किं तर्दि । शतैव विरे्यते श॒ता यो अनुम्क इति । भवरयं वैतदेवं
चिज्धेयम् | आगमगहणे. हि सतीङ -पसंज्येत । मुष्बता मुभ्वव इति¶ }+.
गोः पूर्वणिच्वात्वस्वरेषु ॥ २९ ॥
मोः पूरमैणित्वास्वस्वरेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । तित्रग्वयम् रावलग्वमम्** ! 10
सर्वत्र विभाषा गे: [६.१.९२२] हति विभाष्रा पूर्थस्वं प्रामोति ॥ ्रैष दोषः |
दडः इति कतेते1† तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधो भविष्यति | एवमपि हे विच्रगो भगम्
भवर प्रामोति ॥ णित्वम् । चित्रगुः चित्रगु चित्रगवः | गोतो णित् [७.९.९०]
इति णित्त्वं प्राति || आत्वम्] चि्रगुं परय । शावलगुं परय । आ ओत इत्यात्वं
्ामोति‡ || नेष दोषः | तपरकरणास्सिद्धम् । तपरकरणसामभ्यौण्णि्टवास्वे न 1४
भविष्यतः ॥ स्वर । बहुगुमान् । न गोदवन्साववणे [६.१.९८२] इति प्रतिषेषः
प्राप्रोति ॥
रोतिपिन्योः प्रतिषेधः ॥ ३० ॥
करोतिपिभ्योः प्रतिषेधो वक्तव्यः | कुङ पिबेति । स्थानिवद्भावाहछषुपधगुण
प्रामोति$5 ॥ 20
उक्तवा | ३९ ॥
. किमुक्तम् । करोतौ तप्रकरणनिर्देशास्सिदधं पिविरदन्तं इति¶¶ ।।
अचः प्रस्मन्पू्ैविधी ॥ १. । १. । ५७ ॥
अच इति किमर्थम् | प्रः | शूस्वा | आक्राष्टाम् | आगत्य ॥ रभः विश्न ह्यत्र
छकारस्य शकारः*** परनिमित्तकः । तस्व स्यानिवद्धावाच्छे च [६.१.७३ | इसि 9
० ७.९.१६. † ६.६.९५१. [ १.१९.०९-०.१. ५८. $ १.९. ८९. ¶ ०,९.५९. **९.२, ४८
1 ६.९. ९०९. {‡ ६.९. ९९ $¢ ६.४. ६९०; ७.१. ०८; ८६ भुर ९.६. ५६.*
कक्षै ।। ९
९४२ ॥ व्याकरणमहभाष्यम्। । ` मि०९.९.६
लृक्पामोति । भव इति वचनाच भवति । तैतदस्ि प्रयोजनम् । क्रि यमाणे अपि वा
अज्ग्रहणे ऽवदयमत्र तुगभावे यलः करतैष्यः | अन्तरङ्स्वाद्धि तुक्पापोति |] इदं
तर्हि | शूत्वा स्यूत्वा | वकारस्य ऊद् परनिमिसकः | तस्य स्यानिवद्धावादचीतिं
यणादेशो न प्रामोति | भच हति क्चनाद्वति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् |
- स्वाश्रयमत्राच्त्वं भविष्यति | अथवा यो ऽक्रदेशो नासावाश्रीयते यथाश्रीयतें
नासावादे राः. ॥ इदं तर्हि प्रयोजनम् । भाक्राष्ठाम् । सिचो लोपः† पर निमिसकः |
तस्य स्थानिवद्ावात्षढोः कः सि [८.२.४९ इति कत्वं परामोति | अच इति
वचनाच्च भवति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | वस्यत्येतत् । पुयै्रासिडे न स्यानि-
यदिति || इदं तर्हि प्रयोजनम् | आगत्य अभिगव्य } अनुनाक्तिकलोपः परनिमित्तकः |
10 तस्य स्थानिवद्भावाद्भस्वस्येति तुम्र प्रामोति$ | अच इति वचनाद्वति |
भथ परस्मिन्निति किमर्थम् | युवनानिः। दिपदिका | वैयाप्रपथः | आदीभ्वे ||
युवजानिः वधुजानिरिति जायाया निर् | ९.४.१२४ | न परनिमित्तकः | तस्य
स्थानिवद्भावादरीति यलोपो4 न प्रामरोति | परस्मिश्चिति वश्चनाङ्वति | नैतदस्ि
प्रयोजनम् । स्वान्रयमत्र॒वल्त्वं भविष्यति | भथवा योज्त्रादेदो नासावाश्रीयते
15 यथाभ्रीयते नासावादेशः | हदं तहि प्रयोजनम् | ह्िपदिका जििपदिका | पादस्य
लोपो न परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्धावात्पद्धावो न पराभोति** | परस्मिन्निति
ष चनाद्भवति | एतदपि नासि प्रयोजनम् } पुनर्लोपवचनसामथ्यौस्स्थानिवद्भावो नं
भविष्यति † || इदं ताहि प्रयोजनम् | वेयान्नपद्यः‡‡ । ननु चात्रापि पुनव्रेचनसाम-
थ्यदेव न भविष्यति | अस्ति हन्यस्पुनर्लो पव चने प्रयोजनम् । किम्. | यत्र .भसेश्षा
४0 न | व्याघ्रपात् इयेनपादिति | इदं चाप्युदाहरणम् | आदीध्ये भवेष्ये | इकारस्थै-
कारोऽ न .पश्निमित्तकः | तस्य स्थानिवद्रावाश्थीवणयोर्दीधीवेव्योः [७.४.९३ |
इति लोपः प्रामोति | परस्मिन्निति वचनान्न भवति ||
अथ पृवैविधाविति किमथंम् । हे गैः | बाभ्रवीयाः | नैपेयः || हे गौरित्यौ-
कारः¶¶ परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्भावादेङ्हस्वात्संबुदेः [ ६.९.६९ | इति
8 लोपः परामोति । पूर्वविधाविति वचनान्त भक्ति | तेतदस्ति प्रयोजनम् । आचार्य
पवृत्तिर्शा पयति न संबुदधिलोपे स्थानिवद्धावो . भवतीति यदयमेङःस्वास्संवुद्दस्स्थि-
कणं करोति । श्रैतदस्ति श्षापकम् । गोऽयमेतस्स्यात् | यत्ति प्रत्याहारयहणं
क ६.४. १९; ६.९. ०4. † ८.२.२६. { ९. ६ ५८१. $ ६.४. २८; ६.९. ७५. ¶ ६.९. ६६.
9 *.५,४.९; ६.०.१६०. 11 ६.४. ९४८ ९.४.६९. {{ ९.४.१३८ .४.९. १०५९; ६.४. ९२०; ७.३.
§§ ३.४.५९ - भृथ १.६. ९०
[ फर १.१.५५. | ॥ व्याकरमयहाभाष्वम् ॥ १४३
करोति | इतरथा द्योहस्वारिस्येष ब्रूयात् || इदं तर्हिं परमेजनम् | बाधवीयाः माधवी-
याः*| वान्तादेशः परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्भावाद़लस्तङधितस्य [ ६.४.१५० |
इति यलोपो न प्रामोति । पुवंविभाविति वचनाङ्वति | एतदपि नास्ति प्रयोजमम् ।
स्वाग्रयमत्र हर्स्वं भविष्यति । अथना यो उरंदेशो नासावाभ्रीयते याभ्रीयते
नाब्नावादेशः || इदं तर प्रयोजनम् | नेषेयः† । आकारलोपः परनिमित्तकः । तस्य 5
स्थानिवद्भा वादव्यञ्लक्षणो ढम्न प्रामोति | पृवेविधाविति वचनादवति |
अथ विधि्रहणं किमथम् । सर्वंत्रिभक्त्यन्तः समासो यथा विज्ञायेत | पुत्रस्य
विधिः पुवेविधिः | पुवेस्माद्विधिः प्वेविधिरिति । कानि पुनः पूव॑स्मादिषी स्थानिवै-
दावस्य प्रयोजनानि | बेभिदिता | माथितिकः | अपी पचन् || बेमिदिता चेच्छिदिते-
स्यकारलोपे कृत एकाज्लक्षण हट्प्रतिषेधः प्रातिः | स्थानिवद्धावाच्च भवति || 19
माथितिक इत्यकारलेपि कृतेऽ तान्तात्क¶। इति कदि शः प्रापोति । स्थानिवद्गावाच्र
भति .॥ अपीपघन्नस्येकादेशे कृते ऽभ्यस्ताञ्ेजुस्भवतीति जुस्भावः प्रामरोति** |
प्यानिवद्धा वात्न मवति || नैतानि सन्ति प्रयोजनानि | कुतः | प्रातिपदिकनिदेशो
ऽं प्रातिपदिकनिर्द शाधाप्थतन्त्रा भवन्ति न कांचिस्पाधान्येन विभक्तिमाभ्रयन्ति |
ततर प्रातिपदिकार्थ निर्दिष्टे यां यां विभक्तिमाश्रयितुं बुद्धिरुपजायते सा साज्रयितव्या || 15
इदं तर्द प्रयोजनं विधिमात्रे स्थानिवद्यथा स्यादनाश्रीयमाणायामपि प्रकृतौ |
वाय्वोः भध्वर्य्थोः†1 लोपो व्वोवीकि [६.९.६६ | इति यलोपो मा भूदिति || मस्ति
प्रयोजनमेतत् | कँ तर्हीति |
भपरविधाविति तु वक्तव्यम्| किं प्रयो जनम् । स्वविधावपि स्थानिवद्धावो यथा
स्यात् | कानि पुनः स्वविधौ स्थानिवद्गावस्य प्रयोजनानि | भयन् आसन् | धिन्वन्ति 29
कृण्वन्ति | दध्यत्र मध्वत्र | चक्रतुः चक्रुः || इह तावदायन् आस्धितीणस्त्योयै-
ण्लोपयोःः‡ कृतयोरनजादिन्वादाडजादीनाम् ६.४.७२ | हत्याण्नं प्रामोति । स्था-
निवद्धावाद्धवति || धिन्वन्ति कण्वन्तीति यणादेरो कृते वलादिलक्षण इट् प्रामोतिऽ |
प्यानिवद्धावान्न भवति || दध्यत्र मध्व्रतरेति यणादेशो कृते संयोगान्तलोपः प्रामोति¶¶ |
स्थानिवद्भावान्न मवति || चक्रतुः चक्रुरित्यत्र यणादेशो कृते ऽनच्त्वाहिवेचनं न 9&
भराभोति*” | स्थानिवद्भावाद्भ वति || ` यादे तरि स्ववि धावपि स्थानिवद्भावो भवति
` † ३.३. ९२; ५.४. ६४; २.२.९८; ४.१.९२२. {4 ६.४. ४८; ७.२.९०,
§ ४.४.५१; ५.२. ५०; ६.४. ९४८. - ¶ ७.३. ५१. कक ६.९. ९७; २.४. ९०९. †¶† ६.९.००७.
{4 ९.४. ८१; ५१९. $ ६.१. ००; ०.२.२९. वृष् ६.९. ० दद्. + ६६.०१ ६.
९७४ ॥ ध्याकरणप्हाभाष्येन ॥ [मम०-११.८
दाभ्भाम् देयम् लवनम् अत्रायि प्रणिति । हभ्यामिंस्यत्रास्वस्य स्थानिषद्धावारीरषस्वं नं
प्रामोति ˆ | देयमितीश्वस्य स्थानिंवद्धाबाद्ुणो न पराभोति। | ऊबनमिति गुणस्य स्था.
निवद्धावारवादेदो न परामोति || वैष शोषः | स्थाश्नया अत्रैते विभयो मावेध्यन्ति |
त्वं वक्तव्यमपरजिषाजिति | न वक्तभ्यम् | पूवैषिधावित्येव सिद्धम् । कथम् |
5 न पूवैम्रहभेनारेशो अभिसंबध्यते | भजारेशः परनिमित्तकः पूवस्य विधिं परति स्था-
निवडूवति । कुतः पूवस्य । आङेशादिति। किं तर्हि | निमित्तममिसं बध्यते । अजादेशः
परनिमित्तकः पूरवैस्य बिपि परति स्थानिवद्भवति । कुतः पुत्रस्य । निमित्तादिति [ अ
निमित्ते अभिसेबध्यमाने यत्तदस्व योगस्य मूषोभिषिक्तमुदाहरणं तदपि संगृहीते
भवति | किं पुनस्तत् । पटूया मृब्येतिरे | वाढं संगृहीतम् ननु वेकारयणा ध्यव-
10 हितत्वात्नासौ निमिचासपूर्वो भवति । व्यवहिते ऽपि पूर्वशब्दो वतते । तशथथा | पूर
मथुरायाः पाटकिपुत्रभिति || भथवा पुनरस्त्वादेश एवाभि बध्यते । कथं यानि
स्वविधौ स्थानिवद्भावस्य प्रयोजनानि | त्रैतानि सन्ति | हष तावदायन् भासन् भिन्व-
न्ति कष्वन्तीति | अयं विधिशब्दो ऽस्त्येव कमेसाधनो विधीयते विधिरिति | अस्ति
मावसाधनो विधानं विधिरिति | तत्र कमेसाधनस्य विधिश्चभ्दस्यो पादाने न सवेमिषठ
॥5 सै गहीतमिति कृत्वा भावसाधनस्य विधिद्यम्दस्यो पादानं विन्नास्यते | पुवेस्य विधानं
प्रति पुवेस्य भावं प्रति पुवः स्यादिति स्थानिवद्वतीस्येवमाड् भविष्यतीट् च न
भविष्यति || दध्यज्न मध्वत्र चक्रतुः चक्रुरिति परिहारं वक्यति¶ृ ॥
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि ।
स्तोष्याम्यहं पादिक मोदवाहि ततः श्वोभूते शातनीं पालनीं च ।
20 नेतारावागच्छतं धारणि रावि ख ततः पश्वात्लंस्यते ध्वंस्यते च ॥
इह तावत्पादिकम् ओदवाहिम् शातनीम् पातनीम् भारणिम् रावणिमिस्यकार-
लोपे कृते"* पडाव ॐडह्टोपरिलोप इत्येते विधयः11 प्रामुषन्ति । स्थानिवद्भावान्न
भवन्ति | सस्ये ध्वंस्यते | णिलोपे कृते ‡ { अनिदितां हल उपधायाः करति [६.४.२५]
इति नलोपः प्रामोति | स्थानिवद्भावान्न भवति || त्ैतानि सन्ति प्रयोजनानि । असिः
25 इबदनश्रा भात् [६.४.२२| इस्यनेनाप्येतानि सिद्धानि | इदं तर्हि प्रयोजनम् ।
याज्यते वाप्यते । णिलोपे कृते‡‡ यजादीनां किति [६.१.९९] हति संप्रसारणं प्रः
पोति । स्थानिवद्भावान्न भवति । एतदपि नासि प्रयोजनम् | यजादिभिरत्र किवं ि-
# ७,द. ६०२; ०.२.६०२. † ६.४.६५; ०.३. ८४. { °.३. <; ६.९.०८. ¶¢ ६.९. ७,
न «द्. रेद्; १.१. ५९. ++ ६.५.९४८. 1 ९.४.९१० ररर ३४.६४४. { इ४.९९.
पा०१.१.५.. |] ॥ व्याकर लजहाभाष्यम् ॥ १४५
सेषयिष्यामो यजादीनां यः .किडिति |,कथ यजादीन्प्ं कित् | यजादिभ्यो यो विदित.
इति | न चायं यजादिभ्यो विहितः || इदं तरि प्रयोजनम् | प्रया मृद्येति | परस्व
बृणादेशेः कृते* पूवस्य न भरामोतीकार व्रणा व्ववहितस्वात् । स्थानिवद्धावाडवति | किः
पुनः कारणं परस्य तावङ्कवति न पुनः. पुवेस्य | निध्यल्वात् 1 नित्यः परयणादेशः
हृते ऽपि प्रवैयणादेशे प्रामोत्यक्ृते ऽपि प्राभोति | -निस्वस्वात्पर यणादेशे कृते पूषैस्य ४
न.परपरोति | स्थानिवद्भावाद् व्रति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । भसिद्धं बदिरङ्ग-
ठक्षणमन्तर द्भःलक्षण हत्यसिद्धत्वाद्रहिर ङ्गलक्षणस्य परयणादेसस्यान्तरङ्गलकषणः पूवे
वणारेशो भाविष्यति `|. अवद्यं चेष! परिमापा्रयितव्या स्मरार्थम् | कष्या हर््य-
सुदात्तयणो हल्पूर्वात् [ ६.९. १.७४ ] इत्येष स्वरो यथा स्यात् | अनेनापि सिद्धः
स्वरः | कथम् | | | , ~" ~" ` 10
| आरभ्यमाणे नित्यो ज्सो ` ~ `
आरभ्यमाणे त्व्मिन्येगि नित्यः पुत्रयणदेशः- | कृते ऽपि परयणादेशे प्रामो-
यकृते ऽपि +|. परयणादे श्लो अपि नित्यः । कृते ऽपि पूर्वयणादेशे भ्रामोच्यज्तेऽपि |
परश्वासो व्यवस्थया ।
व्ववस्थयः चासौ परः || । ~ 1
युगपत्संभवो नास्ति
न चाति वौगपेन संभवः | | कथं च सिध्यति |
। वहिरङकण सिध्यति ॥
, असिद्ध बहिर ङ्लन्षणमन्तरङ्कलक्षण इत्यनेन क्िष्यति || एवं तर्हि यो ज्रोरा-
यण्तदान्यः स्वरो भविष्यति | हेकारयणा व्यवहितत्वाच् ,प्रामोति | स्वरविधौ 20
व्वञ्जनमविद्यमान्त्रद्वतीति नास्ति व्यवधानम् । सा तर्षा ` परिभाषा कतैम्या |
ननु चेयमपि कतेव्याकषिद्धं बहिर ङ्गःलक्षणमन्तरङ्गरुक्षण इति| बह प्रयोजनेषा परि-
माषा | अवरयमेषा कर्तव्याः | सा चाप्येषा लोकतः सिद्धा| कथम् | प्रत्यङ्गवर्ती
शको. ठक्ष्यते | तदथथा | परुषो ऽयं प्रातस्त्थाय यान्यस्य प्रति शरीरं का्वौणि
तानि तावत्करोति ततः उहदां ततः संबन्धिनाम् । प्रातिपदिकं चप्युपदिष्टं सामा- 2
न्रभूते अय वतेते । सामान्ये वतैमानस्य व्यक्तिरपनायते | व्यक्तस्य सनो -रिङ्ग-
संख्याभ्यामन्वितस्य वद्येनार्थेन योगो. मवति. | ययैव चानुपूञ्यौथौनां प्राहुभौवस्त-
केयं ऋब्दानामपि तहत्कर्यिरपि भवितव्यम्. || इमानि तई प्रयोजनानि | पटयति
--~ ~ - --~----- ~~~ ~~ --- ---+- -----~ ~~~ ~~ - --
# ६.१, ५.
19 भ
९७६ ॥ ध्वकरणमेहाभिष्यम् ॥ ` (मर ९.९४
अवधीत् बहलदरूकः || पटयति रषयतीति विपे कृते* ऽत ठपधायाः [७.२.९९६
इति वृद्धिः प्रामोति | स्थानिवद्भावान्न भवति | अवधीदित्यकारलोपे कृते! भतो
हलादेलेषोः [७.२.७] इति विभाषा वृद्धिः प्रापोति | स्थानित्रद्ावान्न भवति ॥
बहुखटरुक इत्यापो ऽन्यतरस्याम् [७.४.९५९] इति हस्वस्वे कृते हूस्वान्ते उन्र्या-
¢. स्पर्वम् [६.२.९७४] इत्येष स्वरः प्रामोतिं | स्थानिवङ्कावान्न भवति ॥
हह वैयाकरणः सौवश्व हति य्वोः$ स्थानिवद्धावादायावौ¶ृ प्राप्तस्तयो
प्रतिषेषो वक्तव्यः |
अचः पूर्वविक्ञानादैचीः सिद्धम् ॥ ९॥
यो अनादिष्टादचः पूर्वस्तस्य विधि प्रति स्थानिवद्भाव आदिष्टाचैषो ऽचः पूवैः कि
10 वक्तव्यमेतत् । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | अचर इति पश्चमी | अचः पवेस्य |
युश्चेवमदेशो अविदेषितो भवति । आदेश विरोषितः । कथम् | न ब्रूमो यत्पष्ठी-
निर्दष्टमज्परहणं तत्पभ्चमीनिर्दिष्टं कतैव्यमिति | किं त्यन्यत्कतेन्यम् | अम्यश्च न
कतैव्यम् | यदेवादः. षष्ठीनिर्दिष्टमज्यदणं तस्य दिकदाष्दैयगे ** पञ्चमी भवति ।
भजादेदाः परनिमित्तकः पुैस्य विधिं प्रति स्थानिवद्कवति । कुतः पथैस्य | अच
15 हति । तद्यथा । अदेशः प्रथमानिर्ि्टः | तस्य दिक्दाग्दैर्योगि पत्चमी भवति ] अजा-
देशः परनिमित्तकः पूवस्य विधि प्रति स्थानिवद्भवति | कुतः पवस्य | आदेरादिति ॥
तत्रदिशरक्षणप्रतिषेधः | २॥
` ` तक्रदेशालक्षणं काय प्रामोति तस्य ` प्रतिषेधो वक्तव्यः| वाय्बोः अधभ्वर्य्वोःऽ|
लोपो भ्योवैकि [६.९.६६] हति यलोपः प्रामोति || भसिद्धवचन्नत्सिदडधम्। अना-
20 देशः परनिभे्कः पुधैस्य विधिं प्रत्यसिद्धो भवतीति वक्तव्यम् | `
असिद्धवचनास्सिद्धमिति चेदुत्सर्गलक्षणानामनुदेराः ॥ ३ ॥
असिद्धव चनात्सिधमिति चेदुत्सभलक्षणानामनुदे शः कैष्यः । पटू्ा मुब्येति ॥
नन चैवदंप्यसिद्धवचनास्सि म् । .
असिद्धववनास्सिडमिति चेन्नान्यस्यासिङडवचनादन्यस्य भावः 1} # |
१ अतिदवचनास्सिद्धमिति चेत्तत | किं कारणम् | नान्यस्यासिडवचनादन्यस्व
# ६.४. १५५ † ६.४. ४८. { ७,२३.३. ९ ६.९. ७७ नभ ६.९. ७८.
## २.३. २९. |
प्र०९. १. ५५. | ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् ॥ ९४७
भावः | भ न्यस्य लिद्धस्वादन्यस्य प्रादुभोवो भवति | नृ हि देवदत्तस्य हन्तरि
शते देवदत्तस्य प्रादुभौवो भवति ॥
तस्मास्स्थानिवदचनमसिद्धवं च । ५॥
तस्मास्स्यानिवद्धावो वक्तव्यो ऽसिद्धस्वं च । पटरूया मच्येत्यत्र स्थानिवद्भावः |
वाय्वोः भध्व्वोरित्यसिडत्वम् | | 5
उक्तवा | ६ ॥
किमुक्तम् । स्थानिवद्भचनानर्थक्यं शाख्रासि दस्वादिति' ` | विषम उपन्यासः ।
युक्तं तत्र ये कादेशशालं तुक्राखे ऽसि स्यात् | अन्यदन्यस्मिन् । इह पुनर-
युक्तम् । कथं हि तदेव नाम तस्मिन्नसिद्धं स्यात् | तदेव चापि तस्मिन्नसिद्धं
भवति | बश्यति श्रचा्यैः | चिणो हुकि तम्रहणानथ्यं संघातस्यापरव्ययत्वात्तलो- 10
शस्व चासि इस्वारिवि† । चिणो लुक् चिणो लुक्येवासिद्धो भवति ॥. .
कायपतिरिदयतां वा सखासखापि नेह भारो ऽस्ति ।
कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाकयं वक्तर्यधीनं हि ॥
अथवा वतिनिर्दशो ऽयं कामचार वतिनिर्देशे धाक्यरोषं समथवितुम् । तद्यथा |
उशीनरवन्मद्रेषु ववाः | सन्ति न सन्तीति | मातृषदस्याः कलाः | सन्ति न स~ 15
न्तीति | एवमिहापि स्थानिवडवति स्थानिवन्न भवतीति वाक्यशेषं समर्थविष्यामहे |
इड तावत्पटूचा मृश्येति यथा स्थानिनि यणादेशो भवस्येवमारेश्ेऽपि भवति । इहेदानीं
वास्वोः अध्वर्वोरिलि यथा स्थानिनि यलोपो न मवत्येवमादेश्े ऽपि न भवति ॥|
किं पुनरनन्तरस्यं विधिं प्रति स्थानिवद्भाव आहोसित्पूवेमाभ्रस्य | कथात्र विदोषः।
अनन्तरस्य चेदेकाननुदासदिगुस्वरगतिनिषातिषूपसंख्यानम् ॥ ७ ॥ %
अनन्तरस्येति चेदेकाननु दासहिगुस्वरमतिनिषातेषुपसंख्यानं करतैव्यम् ॥ एकान-
गृदात्त | लुनीद्यत्र पुनीद्यत्र {| अनुदात्तं पदमेकवजैम् [ ६.९.१९८ | इत्येष स्वरो
ने प्रभोति || डिगुस्वर | पश्चारणल्यः दशारल्यः | इगन्तकाल | ६.२.२९ ] इस्येष
स्वरो न प्रामोति || सतिनिषात | यललुनीद्यत्र यल्यपुनीद्यत्र | तिडः चोदात्तवति
[८.९.७९] इस्येष स्वरो न प्रामोति | अस्तु तर्हि पूवैमत्रस्य । ` 25
== ~~ -०-- न -ध => ~> क-म,
* ६. १, ८६५. † ६. ४. १०४५, ‡ ३.१. ४; ६, ९. ७,
२७८ ॥ व्याकरणक्हाभोष्यब ॥ - [म०९.९.८
` पूर्वमात्रस्येति चेदुपधाहूस्वस्वम् ।| ८ ॥
पृवेमा्रस्येति चेदु पधादूस्वत्वं वक्तव्यम् । वादितन्रन्तं प्रथोजितवान् भवषीवद्-
हीणा परिवादकेन | कि पचः कारणं न सिध्यति यो ऽतौ. णौ णिर्प्यते* तस्य
स्थानिवद्धावाद्भप्वस्वं† न प्राप्रोति ॥
5 । गुरुसंज्ञा च ॥ ९ ॥
गृरुसंज्ञा च न सिध्यति । सेष्माश्च वित्तश्च दाश््यश्च माश्ध्वश्वः | हलोज-
-न्तराः संयोगः [१.९.७] इति संयोगसंज्ञा संयोगे गुरु [९.४.१९ | इति गुरुसंशा
गुरोरिति. श्रुतो न प्रामोतिऽ | ननु च यस्याप्यनन्तरस्य विधिं प्रति स्थानिकद्ाव-
स्तस्याप्यनन्तरलक्षणो विधिः संयोगसंज्ञा विधेया ॥
10 न वा संयोगस्थापूर्वंविपिष्वात् ॥ १० ॥
न वैष तोषः | किं कारणम् । संयोगस्याप्वैविपित्वात | न पर्मविषिः संयोगः |
किं तरि | पूवैपरविधिः संयोगः ॥
एकदेशास्योपसंख्यानम् ॥ ९९ ॥
` एकादेशस्योपसंख्यानं कतेव्यम् } श्रायसौ गौमतौ चातुरौ भानडहौ पादे उद-
15वाहे. | एकादेशे कृते¶ नुमामौ पद्भाव ऊडिस्येते विधयः प्रामुवन्तिः* || किं पुन
कारणं न सिध्यति |
उभयनिमित्तत्वात् ॥ ९२ ॥
अजादेशः परनिमित्तक इत्युच्यत उभयनिमित्तथायम् ||
“ . . उभयादेदावाद्च ।। ९३ ॥
20. अच आदेश हत्युच्यते ऽचोधायमादेशाः || नैष दोषः । यत्तावद्च्यतं उमय-
निमित्तत्वादिति । इह यस्य भामे नगरे वानेकं काये भवति शक्रोत्यसौ ततो ऽन्व
तर द्यपदेषटुम् । तद्यथा | गुसानिमित्तं वसामः | अध्ययननिमित्तं वसाम इति ॥
यद्प्युच्यत उभयादेशत्वाचेति | इद यो इयोः षष्ठीनिर्दि्टयोः भरसद्खे भवति लम
ऽसाषन्यतरतो भ्यपदे शम् । तद्यथा । देवर्तस्य पुत्रः | देवदत्तायाः पुत्र इति |
9 ६.४. ९१, † ७.४.१. { ६,१.९८; ६.१.७७. § <.२,८५. म ६.१, ८८; ८५,
+* ०.१.८५०; ९८; ६.४. ९३०; ९३ । |
पण १.९.५७. ॥ व्याकस्नमरहमाष्यम् ¶ "` ४९
अथ शलचोरदेशः स्थानिवद्भवस्युताहो न । कात्र विरोषः |
हसरूखोरादेदाः स्थानिवदिति वचेदिदातेस्तिलोप एकादेशः । ९४ ॥
हलचोरादेदाः स्थानिवदिति चेर्िशतेस्तिलोप' एकादेशो† वक्तव्यः | विंशकः
विशं कतम् विहः ॥ |
स्थूलादीनां यणादिलोपे अवादेशः । ९९ ॥ ४
स्थुलादीनां यणादिलोपे कृते‡ ऽवादेशोऽ वक्तव्यः | स्थवीयान् दवीयान् ॥
केकयमित्रय्वोरियादेदा एत्वम् ॥ ९६॥
केकयमिन्नय्वोरियाेश्च% एत्वं न सिध्यति | केकेयः तनत्रेयः | अचीव्येत्वं**
न सिध्यति ॥ | |
| उतसरपदकोपे च ॥ ९७ ॥ 10
उन्तर पदलोपे च दोषो भवति | दध्यु पसिक्ताः सक्तवो दधिसक्तवः††|अचीति
यणादेशः प्रामोति‡‡ ॥ |
यङ्लोपे यणियङ्वङः ॥ ९८ ||
यङ्लोपे 9 यणियङकवडो न सिध्यन्ति । चेच्यः नेन्यः चेक्षियः चेक्रियः लोलुवः
पोपुवः | अचीति यणियङ्कुवडो1¶ न सिध्यन्ति ॥ भस्तु तर्हिं न स्थानिवत् ॥|
अस्थानिवंच्वे यङ्लोपे गृणवृदिमरतिषेधः ॥ ९९॥
अस्थानिच्वे यङ्लोपे गुणवुग्योः" “° प्रतिषेधो वक्तव्यः | लोलुवः पोपुवः स-
रीखपः मरीमूृज इति ॥ तेष दोषः । न धातुलोप आार्षषासुके [ ९.९.४ | इति
प्रतिषेधो भविष्यति ॥
किं पुनराभ्रीयमाणायां प्रकृतौ स्थानिषद्वत्याहोस्विदविशेषेण | कथात्र विदोषः] 20
अविशेषेण स्थानिवदिति चेष्ोपयणादेदो गुरुविधिः | २० ॥
अविशेषेण स्थानिवदिति बेष्ठोपयणारे शयोगु रविधिने सिध्यति। बष्मादघ्र पिन्ता३-
. घ दाश्ष्यश्च मारश्ष्वश्च111 | हलो न्तराः संयोगः [ १.१.७ | इति संयोगसंज्ञा
संयोगे गुर [ ९.४.९९ | इतिं गुरुसंश्चा गुरोरिति श्रुतो न प्रामोतिः‡ ||
= ९.९. २४ ९.२. ४६९ ४८; ९.४.९४२. 1 ६.९. ७. { ६४. १५६९. § ९.९.७८ कर्य
@9 ६.१. ८७, +1† २.१.३४१, {{ ६.९.७७, §§ २.४.४४. णृ ६.४. ८२; ७९,
#+## ७.३. ८४ ; ८६; ७.२. ९९४. 111 ६.४. ९८ ; ६.९. ७७, ‡{‡‡{ <.२. ८६.
१९५० ॥ व्ाढरनग्रहाम्राष्यन्ः॥ . (०९.९१. ८
दिकंचनादयश्च -प्रतिचेषे ॥ २९.॥
` शिवैचनादधश्च प्रतिषेधे वक्तव्याः | हिर्वचनवरेयलोपेतिः 1
क्सलोपे लुग्वचनम् ॥ २२ ॥
क्सलोपे लुग्वक्तव्यः | अदुग्ध अदुग्धाः | दुग्वा दुहदिहलिहगुहामात्मनेपदे
४ दन्त्ये [७.३.७३] इति ॥
हन्तेर्घत्वम् ॥ ९३ ॥
हन्ते घत्वं क्क्तभ्यम् । परन्ति न्तु अघ्रन्ः | अस्तु तद्यौभ्रीयमाणायां प्रकृ
ताविति | |
ग्रहणेषु स्यानिवादिति चेज्जश्ध्यादिष्वादेराप्रतिषेधः ॥ २४ ॥
10 बहणेषु स्थानिवरिति चेज्जग्ध्यादिष्वादेश्चस्य प्रतिषेधो ष॑क्तव्यः| निराद्य स-
म्य$ | अदो जग्धिल्येप्नि किति [९.४.२६९] इति जग्धिमावः भरामोति ॥
यणे युलेपित्वानुनासिकाच्परतिषेधः ॥। २५ ॥
यणादेशे¶ युलेोपेत्वानुनासिकाष्ट्वानां प्रतिषेधो वक्तव्यः || यलोप | वाय्वोः
अध्वय्क्रीः | रोपो व्योवैकि [६.१.६६] इति यलोपः प्रामोति || उलोप | अकुर्वि
15 आद्राम् अकुव्यौशाम् । निर्यं करोतेर्ये च [६.४.१९०८,१०९] इत्युकारलोर्षः
प्ामोति | हस्व । अल्नि आशाम् अलुन्यादाम् । & हल्यघोः [६.४.१९३]
इतीत्वं प्रामोति || अनुनासिका्व । अजङ्गि भाशाम् अजत्याशाम् । ये विभ्प्रषा
[६.४.४२] इत्यनु न।सिकास्वं प्रामोति ||
| | रायात्वम्रतिषेधश्च ।। २६ ॥
20 . राय आ्विस्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः | रावि भाश्याम् राय्याश्चाम् । रायो शि
[७.९.८९] इत्यात्वं पामोति ॥
दीधे यरोपपरतिषेषः ॥ २७ ॥
दै यलोपस्य प्रतिषेपो बक्तभ्यः । यैर्वै नाम हिमवतः शृङ्गे तहान्तीर्यो हिम-
धानिति साविनाश्रये दीर्घस्ते कृत°* हेति यलोपः प्राभोति1+ || |
+ १.१९. ५८. † ०.२.७२; ८.२. ८५. { ६.४. ९८; ०.३.५४, § ६.४. ५१. ¶ु ६.९.७०.
** ६,४.१९. +1† ६.४. १४९. |
पो० ९.१.५८. ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम ॥ १.५९
अचोः दीव यलोपवचनम् ॥..२८ ॥ `
भतो दीं यलोपो वध्यः ] गागौभ्याम् वास्साभ्याम् । दीष कृत" आपत्यस्य
च तद्धिते ऽनाति [ ६.४.१९९ ] इति प्रतिषेधः प्रामोति ॥ वैष दोषः | भाश्रीयते तत्र
प्रकृतिस्तद्धित इति || सर्वेषामेष परिहारः । उक्तं विधि्रहणस्य प्रयोजनं विधि-
मातरे स्थानिवद्यथा स्यादनाश्रीयमाणायामपि प्रकृताविति || अथवा पुनरस्त्वविशे-
वेण स्थानिवदिति । ननु चोक्तमविशेषेण स्थानिवदिति चेहछोपयणदेशे गुरुविधि-
िवैचनादयथ क्सलोपे लुग्वचनं हन्तेधैत्वमिति । नैष दोषः | यत्तावदुच्यते
उत्रिरोषेण स्थानिवदिति चेष्ठो पयणादेशे गृरुविधिरिति । उक्तमेतत् } न बा संयोग -
स्यापुरवीविधिस्वादिति | यदप्युच्यते दिवेचनादय्च प्रतिषेष वक्तव्या इति | उच्यन्ते
न्यास एव ॥} क्सलोपे दुग्वचनमिति | क्रियते न्यास एव || हन्तेषैस्वमिति } सप्तमे 10
परिहारं वदेयति! ||
॥- 1
न पदान्तद्विवेचनवेरेयलोषस्वरसवणोनुस्वारदीषैजश्च- `
विधिषु ॥ १ ।१ ।५८ ॥
, पदान्तविधिं प्रति न स्थानिवदि्युच्यते तत्र वेतस्वानिति दः प्रामोति{ | तरैष
रोषः | भसंज्ञात्र बाधिका भविष्याति तसौ मत्वर्थे [ १.४.१९ | इति] भकारान्तमे- 15
तद्ग सज्ञां प्रति | पदसं प्रति सकारान्तम् । ननु चैवं विज्ञायते यः संप्रतिपदान्त इति।
कमेसाधनस्व विधिरम्दस्योपादान एतदेवं स्यात् । अयं च विधिद्ाब्दो सत्येव कमे-
साधनो विधीयते विधिरेति | अत्ति भावसाधनो विधानं विधिरिति | तत्र भावसा-
धनस्य विधिशचब्दस्योपादान एष दोषो भवति । इद च ब्रह्मबन्ध्ा बरह्मबन्ध्रे धकारस्य
जत्वं प्रामोति$ || भसति पुनः किंचिद्धावसाधनस्य विधिराब्दस्योपादाने सतीष्टं ‰0
खंगृहीनमाहोसिङेषान्तमेव । अस्तीत्याह । इह कानि सन्ति यानि सन्ति कौ स्तः वौ
स्त इति यो ऽसौ पदान्तो यकारो वकारो वा भ्रयेत¶ सन श्रूयते | षडिकथापि
सिद्धो भवति ^} वातिकस्तु न सिध्यति†† | अस्तु तार्दि कर्मसाधनः ] यदि कर्मसाधनः
वडिको म सिध्यति | अस्तु तर्हि भावसाधनः | वाचिको न सिध्यति | वाचिक-
दधिकं न संवदेते | कतैव्य्रो ऽत्र यलः{‡ || कथं ब्रह्मबन्ध्वा ब्रह्मबन्धव | .उभयत 5
- > ८. ३. १०२. ¶† ७.३. ५४५४, ‡ ४.२. ८७; ६.५. ९४३ ; ९.४. ९७; ८.२, ६६,
$ ४.९ ६६; ६.१. ६.०१ ; १.४. १०.८२. ३९. ¶ृ ६.४. ११९ ; ६.९. ७७; ७८,
+# ९.३. ०८; ९; ६.५. १४८ ; ९.४. १७; ८.२.२९. 11 ८२. ३०. {| ९.३. <५.*
१९५९ . 1 व्करकच्रटत्कष्वत ([म०.९.८
अत्रये नान्तादिकदेति || कथं वेतस्वान् 1. वैवेः त्रिञ्ञायते प्दस्यान्तः पदान्तः,
पदान्त्िधिं प्रवीसि । कथं तर्हि |. परे ऽन्व; पसन्तः पदान्तविधिं प्रतीति +|-भथवा,
यथेवान्यान्यपि पदकायोण्युपशचवन्ते दत्वं जदु्वं चेवमिदमपि पदकायैमुप्चोष्वते ।.
किम् । भसंज्ञा नाम ||
४ वरे यलोपविधिं प्रति न स्थानिवद्ूवतीत्युच्यते तत्र ते प्छ यायावंरः* प्रवपेत
विण्डान् अवणलोपनिरधि प्रति। स्थानिवस्स्यात् | नैष दोषः | वैवं विज्ञायते षरे
यलोपविपि प्रति न स्थानिवद्वतीति | कथं तर्द । वरे यलोपविधिं प्रीति ।
किभिदमयलो पावि धिं प्रतीति । अवणेलो पविपिं प्रति यलोपविषिं च प्रतीति | भथकवा
योयविभागः करिष्यते । वरे लुपं न स्थानिवत्। ततो यलोपभिधिं च प्रवि न
10 स्थानिबदिति || यलोपे किमुदादरणम् । कण्डूयतेरमत्ययः कण्डूरिति‡ । नैतद-
स्ति | कौ लुपं न स्थानिवत् || हदं तर्हि । सौरी 9 बलाका | नैतदस्ति | उपधात्व-
विधिं प्रति न स्थानिवत् || इदं तर्हि प्रयोजनम् । आदित्यः¶ । नैतदस्ति । पुरम
चासिदधे न स्थामिवत् || इं तर्द । कण्डूतिः वल्गृतिः” । तरैतदस्ति प्रयोजनम् |
कण्डूया वल्गूयेति भवितव्यम् ।| इदं तर्हिं । कण्डूयतेः क्तेन् । ब्राहमणकण्डूतिः
15 क्षत्रियकण्डुतिः || ` ॥ि
पतिषघेषे स्वरदीषेयकोपेषु रोपाजादेशो न स्थानिवत् ॥ ९॥ `
प्रतिषेधे स्वरदीधयलोपविधिषु लोपाजदेशो न स्थानिव वतीति वक्तव्यम् |
स्वर | आकर्पिकः चिकीर्षकः जिदीर्षकः11 | यो ह्यन्य आदेशः स्थानिवदेवासौ
भवति | पत्चारल्यः दशारल्यः+‡ । स्वर || दीषे | प्रतिरीतरा प्रतिदीत्रे$$ | यो ह्यन्य
20 आदेशः स्थानिवदेवासौ भवति | किर्योः गियेः¶ृर्¶ं | दीवै || यरोष | ब्राह्मणक
ण्डूतिः क्षज्रियकण्डूतिः । यो ह्यन्य अदेशः स्थानिवदेवासौ भवति | वाय्वोः अध्व-
सरवोरिति ]| ततर्द वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | इह हि ठोपो अपि प्रकृत आदेशो
अपि विपिम्रहणमपि प्रकृतमनुत्रपैते दीषौदयो ऽपि निर्श्दियन्ते | केवलं तत्राभिसं-
बन्धमानरै कर्ैष्यम् | स्वरदीषेयलोपविधिषु रोपाजादेश्चो न स्थानिवदिति । आनु-
५, पर्ववैेण संनिविष्टानां यये्टमभिसंबन्धः राक्येते कँ न॒चैतान्यानुपू्व्येण सनिवि
` छाति | अनानपर्व्यैेणापि संनिविष्टानां ययेष्टमभिसंबन्धो भवति | तद्यथा | अन-
३.२. १५; ६.४. ४८; ६.६. ६६ † ६.४. ६४ { ६४. ४८; ६.२. ६६
§ ५.४. ९४८९५४९ 4 ४.२. २४; ४.३. ५३; ८.४. ६४ + ६.४. ४८; ६.९. ६६.
11 ४.४. ९; ३.९. १२; ६.४. १४८; ४८; ६.९. ६९२ {4 ५.९. *९; ६.२. २९.
§§ ५.४. ९२४; ८.२. ७७ 44 ६.१. ७५,
फेण ९.२.५८. न व्याकरणक ॥ १.५३
हैमुदेहारि भा स्थं हरति शिरसः क्म गिनि साषीनममिषाषन्तमद्राभ्ीरिवि।
तस्य धयेष्टमभिद्धवन्धो मवति | उदाद्यरि मगरिनि वाः सरं.कम्भं हरसि शिरसानतः
कषे साधीनमभिधावम्तमद्राक्षीरिति-॥ |
किटुगुपधास्वचङ्परनिद्रासकुस्वेधूपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
क्िलुगुपधास्वचङ्परनिहीसकुस्वेषुपसं ख्यानं कतेव्यम्. [| कौ किमुदाहरणम् । 5
कण्डूयतेर प्रत्ययः कण्डूरिति । तैतदस्ति । यलोपविधिं प्रति न स्थानिवत् || इदं
ताह | पिपठिषतेरप्रत्ययः पिषटीः^ नैवदस्ि | दीधैविर्पि. पति न स्थानिवत् ॥ इदं `
तर्हि | लावयतेर्ती, पात्रयतेः .पौः† | तरेतदस्ति |. भक्त्वा वृद्धा वादे ती णिलोपः ।
भरत्ववरक्षणेन वृदिर्भविष्यति || इदं त्रि ¡ जवमाच्टे रवयति | कवयतेरप्रत्थयो लीः
पौः | स्थानिवद्ावाण्णेरूण्न पाति । को लुपं न स्थानिवदिति भवति || एवमपि न 10
सिध्यति | कथम् | हौ गिलो णावकारलोपरदतस्यु स्थानिवदधावादुण्न प्रामोति | `
पेष दोषः | त्रैवं विक्षामेते ज्ञौ ठुप न स्थानिवदिति । क्रम ताह | कौ विपि प्रहि ब:
स्ानिवरिति || लकि.किमुदाहरणम् । बिम्बम् बदरम्; | नैतदस्ति | पुंवद्धावेनाप्येत-
स्सिदधम्9 || इदं तरदि। भामलकम्र् | एतदपि नास्ति | वद््यस्येतत् | फले लुग्वचनान-
चैक्यं प्रकृत्यन्तरस्वादित्रि** || इदं तर्द । पश्चभिः पटीभिः क्रीः फपटः द शपट- 15
शिति1 | ननु तेतदपि पुंवद्धावेत्रैव सिडम् । कथं पुंबद्धावः. | भस्वाढे तरिके पुंव-
वतीति | भस्येस्युच्यते -यजादौ च भं भवति‡‡ न चात्र यजादि परयामः । प्रस्य-
यलक्षणेन यजारिः | वर्णाश्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणम् | एवं तर्द उक्डसोधेत्येवं
भविष्यति$5§ | ठक्डसोभेत्युच्यते न चात्र उक्कसौं परयामः | प्रत्ययलक्षणेन | न
दुम वस्मिचितिर्ृ¶ृ प्रत्य यलक्षणस्य प्रतिषेधः || न खल्वप्यवदयं उव क्ीवपरस्ययेः 20
्ीताथर्थ एव-वा तद्धिताः |. किं ताईं | अन्येऽपि ताडिता येः लके मरयोजयन्ति |
पन्चन्त्राण्योः देवता भस्येति परेन्द्रः दशेन्दः पश्चोभिः ददापिः+** || उपधास्वे
किमुदाहरणम् । पिपठिषतेरप्रस्ययः पिष्ठीरिति | वैबदस्ति | दीषैविर्पिःप्रति न स्था
निवत् || इदः तर्हि । सौरी. बलाका | तरैतदत्ति ] यलोपविधिं प्रति न स्थानिवत् ||
इदं ताहि | पारिखीय:111 ।| चङ्परनिष्से चोपसंख्यांनं कर्तव्यम् | वादितवन्तं प्रयो - 25
क ६.४० ४८; ८.२. ६६; ® ६.४. ५९ ; ९९ ; ६.९. ८९
‡ ४.३. ९४० ; ९६३ ; ९.२. ४९; ( ६.४. ९४८) § ६. ३.१५ ष ४२.२४४.
+° ४.३.९६३. †† ५.९.९९; २८ ९.२. ४९; (६.९. ००). { ९.५.१९८. §§ ६.६. २.१
¶¶९.९. ६द.४* ++ ५.२.२४; ४.९. ८८; १.२.४९; (४.१.४५; २७; ६ ४,१४८)
111 ४.२.२५; ८.५ १४८; ४.२.१४. `
५0 ॐ
" १.५४ ह व्याकरणपहापाष्यय + [०९.९४
जितवान् भवीषददीणां परिवादकेड* } जि पुनः कारणं न सिप्यति | यो ऽसौभै
` गिरलप्बते तस्य स्थानिवङ्धावाद्स्वत्वं च प्रामोति । लनु चैषदप्युपघात्यविंपि अति न
स्थानिवदिव्येय सिद्धम् । विशेष एतदक्तष्यंम् | क 1 प्रत्ययतिधाविति |. इह भा
भूत् | पटयति ठषय॒तीति† ॥ कर्वे चो पसत॑ख्यानं कर्वव्यम् | अर्चैयतेर कः मचेव-
तेमैकः‡ | वैतडयन्तम् । मणारिक एष कराष्दस्तरिमिचाष्टमिकं कुत्वम्ऽ । एत-
‡ दपि गिच। ध्यवहितस्वाघ प्रभोति ॥ |
पूवंवाकिदे च 12 ॥
पुवत्रासिदधे च न स्थानिवदिति वक्षयम् | किं प्रयोजनम् ।
पयोजनं कसरोपः सलोपे 1 ४ ॥
10: क्सलोपः सलोपे प्रयोगनम्५ | .अहुध ब्ुग्धाः 1. लुरवः दुढरि दतिदगुहामा-
स्मनेपदे दन्त्ये [७.२.७३] इति लुग्रहणं न कैष्यं भवति ॥
| | दध आकारलोप आदिषतुर्थत्वे 1 ९ ॥
दध आकारलोष “ भारिवतुर्थतवे भ्रयोजनम् । धस्ते धद धड्ुमिति । दधस्तबोष
[८.२.३८] इति चकारो न कतेष्यो भक्ति ॥
1. ` हली यमां यमि लोपि 1 ६ ॥
हलो मां दमि लोपे प्रयोजनम् | आदित्यः | हलो यमां यमि लोपः. सिरो
भवति ॥ |
अद्धोपणिरोषी संयोगान्तलोपप्रभूतिषु }। ७ | । . -
भकछलोपणिलोपौ संयोगान्तलेएपरभृतिषु प्रयोजनम् । पपय्यतेः पापक्तिः | याव-
ज्वतेखोवहिः | पाचयतेः पाकः । याजयतेर्या्टिः‡‡ ॥
20
दिवखनादीनि च ॥ ८ ॥
दिवे चनादीनि च न पठितव्यानि भवन्ति | पर्वैत्रासिद्धेमैव सिद्धनि भवन्ति ॥
किमबिशेषेण । नेत्याह ।
* ७,४५.६... † ६.४ ९५५; (०.२. ६९६) †‡ ३.३.९९; ६.४. ५१; ९, ३.-५३. §. <.२. ३०.
4 ८.२. २६. >> ६.४. ९१२. 11 ८.४. ५४. 1.९. ४. ४८; ५९; ८.२.२०; ३६.
¶़०,१.१.५९..] „# व्वाकरणह्याच्ययं. | ६५५
| बरेयलोपस्वरवजंम् ॥ ९ 4
, ` बरेयलोयं स्वरं क कर्मयिस्वा ।
तस्य दोषः संयोगादिरोपलस्वणव्वेषु ॥ ९० ॥
तस्यैतस्य लक्षण॑स्य दोषः संयोगादिलोपलस्वणव्वेषु ॥| संयोगादिलोप | काक्यर्थम्
वास्यम्” । स्कोः संयोगायोारन्ते च [ ८. २.२९ ] इति लोषः -प्ामोति || लस्वम् | ४,
नियते निगाल्यते। | भवि विभाष [ <. २. २९ | हति लस्वं न प्रामोति || गस्वम्- |
माषवपनी व्रीहिवफनी; | प्रातिपदिकान्तस्येति$ गत्वं भाकरोति. |
दविषचने ऽचि ॥१।१.।.५९.॥.
अदिरौ स्थानिवदनुरेरालदतो द्विवचनम् || ९॥
| श्रारेखे स्थानिवदनदेश्चालदतः | किंवतः | भादेशथतो हवे चनं परापोति ॥ त्र 10
को रोः | ।
.. , तेत्राभ्यासरूपम्ः। २ ॥
बत्राभ्यासङ्पं न तिध्यतिः | चक्रतुः चक्ुरिति॥ ॥
अञ्प्रह्णं तु ज्ञापकं रूपस्थानिवद्धावस्य ॥ ६॥
. यदयमज्महणं करोति तज्जापयत्याचायो रूपं स्थानिवङ्वतीति | कथं कृत्वा 15.
ज्ञापकम् । ज्पहणस्यैतसयोजनमिह मा भूत् | जेत्रीयते दे^्वीयत इति"” । यदि रूपं |
स्थानिव वति ततो ऽञ्प्रहणमयेवदवति ! भय € कायु नार्थो ऽज्पहणेन | भव-
व्येवात्र द्विवचनम् || ` |
| तत्र गाङ्प्रतिषेधः ॥ ४ ॥
तज गाडः प्रतिषेषो वक्तव्यः | अधिजगे | हवणोभ्यासता प्रापोति | न व्क-
व्यः | शड् लिटि [२.४.४९ | इतिः हिलकारको निर्दश्चः |` लिरि लकाराकाविति ॥
कृत्येजन्तदिवादिनांमधातुष्वभ्यासरूषम् ॥ ९ ॥ ` `
कृस्येजन्तरिवारिनामधातष्वभ्याससरूपं न सिध्यति [केति | अनिकीर्तेत्11|कति॥
४ ६.९, ७९ { ६.४. ५९ { ९.४. ९४८ €$ ८.४.९९ ¶| ६.९. ७९, ९
। + ७.५, ३९ 1|..१. ९५०१.
ण ॥
1.५६ ॥ ववाकर्णयहाभाव्यच # {[क०-९.२.८६
९एजन्व । जग्डे मम्ले* | एजन्न ॥| द्विकारि । दुशूषति खस्युषति। | दिवादि | नाम-
धातु | भवनमिच्छति ` भबनीयति भवनीयतेः . सत् : बित्रतंनीविषतिः. |}; एवं वरद
भरस्यय इति वह््यामिः |
परस्यय इति चेस्कृष्येजन्तनामधातुष्वभ्यासरूषपम्. 11 & +;
्र्यय ` हेति चेस्कृत्येजन्तनार्मपातुप्वभ्यासरूथं न सिध्यति | दिवादय एके परि:
ताः |] एषं ताहि दिर्वचननिभिन्त् ऽच्यजदिरः स्थातिवंदिति . वक्ष्यमि | स तः
. निभित्तरदाब्द उपादेयो न न्तरेण निभिश्लशञष्दं विभित्तर्थौः ` मम्यते | अन्तरेणापि.
निमित्तशब्दं निमित्तार्थो गम्बते | तद्यथा | दधित्रपुसं भत्यक्षो ज्वरः | ज्वरनि-
मि्तमिति गम्यते | नङुलोदे लोदकं कदरोमः । पादरोगनिभित्तमिति यम्यते । भायुष
10 तम् | आयुषो निमित्तमिति गम्बतं | १ अथवांकांरो मत्वर्थीयः `| दिवैचनम-
स्मिच्स्ति सो ऽवं हिव चनो हिवैचन इति ॥ एवमपि न ज्ञायते. कियन्तमसौ कालं
स्थानिवङ्कवतीति } यः पुनराह हिवेचने कतेष्य इति कृते तस्यं (देवे खने स्थानिवज्च
* ` भविष्यति 1] एवं ताह प्रतिकेधः प्रकृतः सो शनुषर्विष्यते । क प्रकृतः. | नै पदान्न-
हिवेचन [१.१.५८] इति | हिवैचननिभिन्ते ऽख्वजादेश्यो न भवतीति | एवमपि न
15 कयते केयन्तमसौ कालमदिश्लौ म भवतीति | यः बुनराह शहिवैचने कतैन्य इति
कृते तस्य दिवे चने ऽजादे शो सविष्वति || एवं तक्ठैभग्रमनेम क्रि यते प्रसयथ. किरे-
प्यते शिवेचनं च । कथं पुनरेकेन यलेनोभयं . लभ्यम् । रभ्यमित्याह } कथम् ।
एकशेषनिर्देशात् । एकशेषनिर्देशो ऽबम् । हियैयनं च श्िवैचनं च -हिमै चनम् 1
दिवेषने च कतेव्ये हिव चने अचि प्रस्यय हति हिव च॑ननिमित्ते अनि स्यानिवेदवति ॥
20 द्धिव॑चन्निमिकते ऽचि स्थानिवदिति चेण्णो स्थानिकव्दवनम् ॥ ७ ॥
द्िवैचनमिमित्ते अचे स्थानिचदिति चेण्णौ स्थानिवद्ावो वक्तव्यः .| अचनुन्पव्-
विषति अव चुक्षावथिषति ॥ न वक्तव्यः | ,
.-.. .ओः पुयण्जिषु वचनं शपकं णौ स्थानिवद्भावस्य ॥ ८ ॥
चद कमेः -पुवण्म्यपरे [७.४.८०] स्वाह तञउङ्ञापथस्थाचार्थो मवति. ण्डे. स्था
2 निवदिति । यद्येतज्कषाभ्यते अव्रिकीसेत् भक्रापि प्रामोति | तुल्यजातीयस्य ज्ञापकम् ]
कथ तुल्यजातीयः | यथाजातीयकाः पुयण्जयः | कथयंजातीय काते । अवणेषरः ॥
कथं जग्ले मम्ते | अनैनितिकमारवं दिति तु प्रतिबेधः 1. `` कथं जण्ते मम्ते | अनैनित्तिकमारवं शिति शु प्रतिषेधः ।| . ,_ _, . ..
* ६.९. ४५. ‡ ६.४.१९; ४.६. 49 -` ०.६. ८४; ६.६. ०८,
पर २.२.५९. ॥ धवाकरनप्टान्वपषीः ६५9
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि | पपतुः पपुः तस्थतुः तस्थुः | जंग्मतु
जग्मुः | आटिटत् शज्चिक्रात् । जेक्रवुः-चक्षीरिति .। -भालोपोचलोपणिलोपयणा-
देशेषु कृतेष्वनचस्कत्वाद्धिवैवनं न प्रामोति† | स्थानिवङ्धावाङधति || तैषाधभि सन्ति
प्रयोजनानि .। पृर्वजिभरतिकेेनपयकाति सिद्धानि । कथम् 1 व्रदेजंति द्या्ायैः [ दिवै-
चनं .कणयवायावदे गोपी पधाढोषर्णिकोपक्िकिगोरच्वेम्त्र .इतिः 1 स -पूतैविप्रकिःः 5
पेणो न पडितस्यो भवति || किं पनरष अ्याथः स्थाभिवङ्रा् एवःज्जामराव् | पवेविध्र~
तिषेे हि सतीदं वक्तष्यं स्यात् । ओरैद्मदेश्षस्योडधति वचुदुतुशारादेरभ्यासस्थेति ।
ननु च स्वयापीस्वं वक्रव्वरम्१ | पराथ मम् भविष्यति सन्यत इद्धवतीति¶ृ । ममापि
तद्य पराये भविष्यस्वुत्परस्यातस्ति खं [७ ८८,८९] इति । इन्टमयि स्वर्या
वत्तर््यं यत्स॑मानाभयं तदर्थम् | .उप्पिपंविषते संवियविषंतीस्येवमर्थम् ]| तैस्मास्स्था. 10
निवदिर्येष एत्र पक्षो ज्यायान् ॥ `
, इति िभगवस्पतश््रङिविरनिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्वायस्य प्रथमे
पदे ्टममाह्िकम् ॥. ` ' ` `` ~“ 1.
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( २,९.१.-५४१.९८५६ ९.९.०० 1 ५.९.९२ य ९९, ११ ०१.८०, १०.०९.
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॥॥ ॐ
६4८ ॥ ध्याकरनबहाभाव्यम् ॥ [मर १.१.९.
` अदनं कोपः ॥ १. । १. 1 ६० ॥
| र्यस्य संज्ञा कष्या शृष्दस्य भा भूदिति ] इतरे्राभ्रयं च भवति | केनरे-
` वराभरयता | सतो दीनस्य संश्ञवा भवितव्यं संज्चेया चाद द्ौनं भाष्यते तदेतदि-
तरेतराश्रयं भवति | इतरेकराभ्रयाणि च न प्रकल्पन्ते
& ` रोपसंज्ञायामर्थसतीरक्तम् ॥ ९ ॥
किग॒क्तम् । . अथस्य तावदुक्तम् |. इतिकरणो अथेनिर्दे शाय इति* |. सतो
स्युक्कम् । किदं तु नित्यदाम्दस्वादिति। । नित्याः शाब्दाः । निस्येषु च शब्देषु
खतो उददोनस्व संज्ञा क्रियते न -संशषवारर्शानं भाष्यते |॥ - `
सर्व्रसङ्गस्तु सरव॑स्यान्यत्रादृष्टस्वात् ॥ २ ॥
10 सवेभरसङ्गस्तुः भवति । सर्वस्वादर्हौनस्य खोपसंश्ा प्रामोति ॥ किं कारणम् [ सथै-
स्यान्यत्रादृष्टस्वात् । सर्वो हि. छष्दो यो यस्व प्रयोगविषयः स ततो ञन्य॒त्र न दृश्यते |
रपु जल्वित्वन्राणों ऽदद्योनं तश्राददीम लोप इति लोपसंज्ञा प्ामोति । वत्र को दोषः;।
तत्र प्रस्ययलस्षणप्रतिषेधः | ३ ॥
तश्र प्रत्ययलक्षणं कार्यं प्राति तस्य प्रतिषेषो व्कव्यः | भवो णिति
15 [७. ९. ९१९ ] इति वृद्धः प्रामोति ॥ तेष दोषः | उणवस्यङ्गस्याचो वृद्धिरुच्यते |
यस्मास्पत्ययविधिस्तदारि प्रत्यये ऽङ्गं भवतिः । यस्माशाज प्रस्यत्रधिभिने तसत्यये
परतः | यख प्रस्यये परतो न तस्मास्पस्ययविधिः || किपस्तद्येददोनं वज्रा चेनं खोए
इति लोपसंज्ञा फपोति | तजर को दोषः | तञ्च प्रत्ययलक्षणप्रतिषेधः | बब प्रस्यय-
लक्षणं काव प्रामोति तस्य परतिषेषो . बक्छध्वः । दस्वस्व पिति हृति सुग्भवतीवि
20 तुक्मामोति$ || |
सिदे तु परसक्तादशनस्थ रोपसंिस्वात् । ४ ॥
सिडमेतन् | कथम् । प्रसक्कादहोनं लोपसंश्ं . भवतीति वक्तव्यम् | यदि अरल-
कादरोनं लोपसंञ्ं भवतीष्वुष्वते प्रामनीः सेनानीः अत्र वृद्धिः प्रामोतिषू | प्रल-
ताद दनं लोपसंज्ञं भवति षष्ठर्निर्ि्स्य .। यदि वीनिर्दि्टस्येव्युष्वते ऋशलोभ्र
# ९.९. ४४.४ 1 ६.९.२.४ { ९.४. ९8३. इ ५.१.७१. . ¶ ३.१. ९; ७,२३.१९९.
० ९.९.६१.६९.] ;41 श्याकरणयहामाच्यम् ॥ ९५९
एवेत्यवधारणे [ ८.९.६२ ] चाद्विके भाषा [६३ | इत्यत्र लोपसंज्ञा न प्रामोति।
अश्र प्रसक्ताद शनं लोपसेज्ञं भवतीर्युस्यमाने कथमिवैतस्सिभ्यति } को हि दाष्दस्य
प्रसङ्गः | यत्र गम्यते चार्थो नर च प्रयुज्यते | अस्तु तर्हिं प्रसक्तादशेनं लोपसं
भवतीस्येव | कथं मामणीः तेनानीः | योऽत्राणः प्रसङ्गः किपासौ वाप्यते* ||
प्रत्ययस्य टुकशुटुषः 1 १.१.1६९. ॥ ४
. . प्रस्यवमहणं किम्रथम् ]. ...
मति :पस्ययग्रंहणमप्रस्ययसं्तापतिकेधभिम् । ९॥)
लुमति प्र॑त्ययमह णे (करेयते मत्ययस्थैताः स्म. मा भूवनिति || किं प्रयोजनम् ।
प्रयोजनं तद्धितलुकि कंसीयपरवाष्ययोककि ख् भोपकृततिनिवृच्यरथंम् ॥ ९॥
` तद्धितलुकि गोनिवृ्वथे कंसीय द्वयो लुकि -पकृदिनिवृस्य्ेम् । लु्छ- 10
द्दितलुकि [ १.२.४९ ] इति गोरपि† लुक्मामोति | प्रस्ययमहणाच्च भवति } कंसी-
यपर शाव्ययोयेगगौ लुक्च [ ४.३.९६८ | हति प्रकृतेरपि `'लुक्मामोति । प्रत्वयम्रह-
णाच भवति || गोनिवृस्यर्थन तावतार्थैः] ` |
' - , योगविभागाष्छिदम्.॥ ३) .
` बोगविभागः करिष्यते । गोरपस्जैनस्य । भोऽन्तस्य॒प्रातिपदिकस्योपसजनस्य 18
हृस्वो भवति | ततः जयाः | खीप्रस्ययाम्तस्य प्रातिपदिकस्वोयस जनस्य ,द्रस्वों
भवति ] ततो टुक्तदधितलुकीति श्चैया इति वतेते गोरिति निवृत्तम् |
के सीयपादाव्ययोर्विशिष्टनिदैरास्सिदम् ॥ ४ ॥
कंसीयपरशाव्ययोरपि विशिषटनिर्देशाः कर्तव्यः |` कंसी्यपरशव्ययोर्यमथो
-आअवतन्छयतोख लुग्भवतीति | सं चावदयं विशिष्टनिर्दशाः कनैब्यः क्रियम्णे ऽपि तै 20
प्रत्थयग्रहण उकारसंशम्दयोम भूदिति | कमेः सः कंसः | पराञ्शृणातीति परदु-
शिति । त्रैष दोषः | उणादयो उव्युत्पञ्चानि प्रानिपदिक्रानि | स एषो नन्यार्थो
िशि्टनिरेदाः ` कतैव्यः प्रत्ययमरहणं वा कतेव्यम् || |
` + ३२.६९. _ .- 1 ९.२.४८
.९६० १ -स्व्रणनदाभिष्विम् ॥। [.; ` १ ९.९.
{7 रक्तैः वा।).९॥
किमुक्तम् } उन्धा आातिपदिकमहणमरङ्गमपवसंश्ञाये भष्डयोधं रुगर्थमितिः
2 ५, , ` | वष्टीनिरैार्थं त ॥ ६ || ˆ“ ॥ि 1 ॥ ; ~
धछठीनिरेशायै ता प्रस्ययमहणे करैष्वम् | पषीनिरदेहो यथा प्रकल्पेत ॥
5 अनिर्देदो हि षष्टयथापरसिद्धः ॥ ७ ॥
भाक्षियमाणै रि म्यम वयर्स्याभविदधिः स्यात् | कस्थ | स्थानेयोगस्वस्य ||
क पुनरिह वष्ठीनैरेशा्थैना्ेः प्रस्यययरह्णेन यावता सवत्व षष्टद्यु्ायते अणिमोस्त
जस्य यञः शाप इति। । इह न कािस्वधी जनषे लुप् [४.२.८९] इति ।
अत्रापि प्रकतं पर्तथयपहणमनंवतेते ।:. क शरकरृतम् । पर्वकः प्रथः [३.९.९,१)
10.हति | तहे प्रथमानिर्दिष्टं षीनिर्दि्टेन चेहाभेः | उन्धाप्मातिपदिकात् [४.१.१ ] इत्येषा
पश्चमी प्रत्यय इति प्रथमायाः बरी प्रकल्पयिष्यति तस्मादिस्वु तरस्य [१.१.६७]
हति ॥ भ्रत्थयविपिररयं ' न च प्रस्थयधिषौ पतचम्यः प्रकल्पिका ` भवन्ति | नायं प्रत्य-
( -अपिधभिः | विहितः प्रस्वः प्रहृतभानुवतेते |
। स्वदेशार्थं वा वचनभामाण्यात् ॥ ८ ॥
सवौदेदा्थे ताहि प्स्ययम्रहणं कतेव्यम् | लुकटलुदुपः सवोदेरा. यथा स्युः|
अथ क्रियमाणे अपि प्रस्ययमहणे कथमिव लुक्भ्लुटुपः सर्वादेशा ठभ्याः | वचन-
प्रामाण्यात् । भरस्ययमहणसामथ्यौत्-. || एतदपि नास्ति- प्रयोजनम् | भाचार्येपरवृत्ति
` -्मैषयति ` लुर्भ्लुतुपः. सवोदेशा भवन्तीति यदयं सुगा. इहदिहरिहगुहाभातमनेपरे
सन्ये ७,३.७३] इति लोपे प्रकृते तुकं शास्नि ॥ .
‰0 - ` . ` ` - उत्तराथ-दु॥९॥
उत्तरायै वा प्रष्यवप्रश्णं कव्यम् | न कव्यम् । क्रियते ' तत्रैव प्रत्ययलोपि
भरत्य्थलक्तिणम् [१.१.६२] इति | हितीयं कतैम्बम् । कृतङ्मप्रत्ययलोपे पर्त्वयकलक्षिणं
` यथा स्यात् | एकदेदालोपे मा भूदिति । आक्नीत । सँ शय्पोषेण ग्मीयेति‡ ॥
परतययलोपे प्रत्ययरक्षणम् ॥ २.। ९. । ६२ ॥ . .
28 भरत्यवमरणं किमर्थम् । कपे प्रत्ययलक्षेणमिती यस्युच्यमाने सौरथी वैदतीतिऽ
# ४.९. ९.१ 1 २.४. ५८; ५२; ६४; ७२, { ७.२. ८९; (६.४. ३९), § ६.४.३२५.
पार ९.५.५२1 । ` ॥व्याक्ररणपहमिष्यप् ॥ १६९
गस्मो्तमलक्षणः ष्यञ् प्रसज्येत* । तेष दोषः । मेवे विज्ञायते कोपे प्रत्ययलक्षण
मवति प्रत्वमस्यः प्रादुभोत्र. हति | कथं तुहि | प्रत्ययो क्षणं यस्य. क्रायैस्य तहुमेऽपि
मर्वरहीति || इदं . तर्हि प्रयोजनम् |: सति प्रस्थये यल्पापोति तस्पस्ययलक्णेन श्च
स्यात् | लोपोत्तरकालं यत्मापरोति तसत्ययलक्षणेन म। भूदिति । किं प्रयोजनम् |
मामणिकृलम् सेनानिकुलम् 1 ओत्तरपादिके स्वस्ते कृते† हृस्वस्य पिति कृति तुक् 5
[ ६. १.७९ ] इति तक्मारोति स मा मुदिति । यदि तर्हि यस्सति प्रत्यये प्राति
तलत्वयरुक्षणेन भवति लोचोतैरकोरं -यस्ामोति क्च -मव्रक्ति जगत् जनगरित्यत्रः
तुर प्ामोति ।लोपोचरकालो न्न तुयागमः. | नस्माच्चाथं -इवमर्थेष - पल्ययग्रहणेन |,
कस्माच्च मवति मामणिकुलम् सेनानिकुलम् | बदिर द्ग हस्त्रतम् भस्तर ङ्कस्तुक् 4
अविद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे ||. इदं तर्हिं प्रयोजनम् । $^ ज्ञपम्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षण 1,
यख स्कदेकृदेरालेये मा भूरिति । आप्रीव । सं रायस्पोषेण ग्मीय |. पुतस्मि्षपि
योगि सवबङ्रणसतरैतत्यवो जन मुक्तम् | भन्यतरस्छक्यमकर्तम् || अंय हितीयं प्रत्य `
चम्रहणं सभियम् | प्रत्ययलक्षणं यथा स्याहणैलक्षणे मा भृदिति | गत्रे हितं गोदहि-
तम् | रायः कुलं रैकलमितिऽ ||
किमथ पुनरिदमुच्यते । ` 15
प्रत्ययषछोपे प्रत्ययरख्स्षणव्रचनं सदन्वाल्यानाच्छाखरस्यं || ९॥
परत्यत्रलोपे प्रत्ययलक्षणमिन्यु ज्यते सदन्त्राख्यानाच्जलस्य | सच्छासरेणान्वाख्या-
यते सतो वा. श्ालमन्वाख्यायर्क भवति सदन्वाख्यानाच्छालस्प्र. | उगिदचां सवै-
नामस्थान ऽधातोः [ ७. ९.७० | इतीहैव स्यात् । गोमन्तौ यवमन्त | गोमान् यवमा-
नित्यत्र न स्यात्॥ | इष्यते च स्यादिति तच्चान्तरेण यल न सिध्यति | अतः प्रत्य- 20
गलोपे प्रत्ययलन्षेणव चनम् | एव्रमथेमिद मुच्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् | किं तर्हीति |
| लुक्युपसंल्यानम्।। ९ ॥।
लु स्युपसंख्यानं क्त्यम् | पञ्च सप्त" ॥ किं पुनः कारणं भ सिध्यति |
रोपे हि विधानम् ॥२३॥ | |
तषे दि प्रत्ययलक्षणं विधीयते तेन लुकि न प्राप्रोति || . `. | नि
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१ ॥ १4
१६९ - ~प व्याकरणगहामाष्यतच् ॥ " [म०९.९९
` न वादर्शनस्य लोपसंजचिस्वात् ॥ ४ ॥
नवा कव्यम् । कि कारणम् } भदश्चनस्य लोपसं्गित्वात् | भद दौनं लोपश
भवतीर्युच्यते लुमत्संज्ञा्ाप्यददौनस्य क्रियन्ते | तेन लुक्यपि भाविष्यति ॥ ययेवं
| ' प्रत्येयादर्दानं तु लुमत्संज्ञम्.11 ५ ॥। |
४ अ्रत्ययादशीनं सु लुमत्संक्ञमपि प्रामोति | सत्र को दोषः ।
| तत्र लुकि श्ुविधिप्रतिषेधः ॥ & ॥
तत्र ठुकि श्ुविधिरपि प्रामोति स प्रतिषेभ्यः आत्ति हन्ति" । च [६.१.१०]
इति द्विर्वचनं प्राप्रोति }|
न वा प्रथक्संज्ञाकरणात् ।॥ ७॥
10 नरै दोषः | किं कारणम् | प्रथक्संशाकरणात् | शरथक्संज्ञाकरणसामध्वौ-
हुक दुविधिनै भविष्यति || तस्माददद्ेनसामान्याह्योपसंज्ञा लुमत्संज्ञा अवगाहते |
यथैव तद्दरनसामान्याद्योपसंज्ञा लुमत्संज्ञा अवगाहत एवं लु मस्संज्ञा अपि लोपसंज्ञा
; भवगाहेरन् । तत्र को दोषः | अगोमती गोमती संपच्चा गोमतीभुता। | लुक्तद्धितलुकि
[१.९.४९] हति ङीपो लुक्पखज्येत । ननु चात्रापि न वा एथक्संजञाकरणादित्येव
15 सिद्धम् | यथैव तार्हि एषक्संक्ञाकरणसामथ्यांलु मत्संज्ञा लोपसंज्ञं नावगाहन्त एवं
लोपसंज्ञापि लुमस्वंश्चा नावगाहेत । त्र स एव दोषो लुक्युपसंख्यानमिति | भस्त्व-
न्यष्ठोपसंज्ञायाः एथक्संक्ञाकरणे प्रयोजनम् । किम् । लु मस्संज्ञा यदुच्यते तह्लो- -
पमात्रे मा भूदिति ॥
` हुमति प्रतिषेधाद्वा ।। ८ ॥
20 ` अथक यदयं न लुमताङ्गस्य | ९.९.६६ | हति प्रतिषेधं श स्ति तज्ज्ञापयत्या-
चायो भवति लुकि प्रस्वयलक्षनमिति "||
सतो मिमिलाभावात्यदसंज्ञाभावः ॥ ९॥
सन्प्रत्ययो येषां का्याणामनिमित्तं; राज्ञः पुरुष हति स मोर ऽप्यनिमितं
स्यात् राजपुरूष हति } अस्तु तस्या निमिं या- स्वादौ पदमिति¶ पदसंक्ञा आ
28 तु श्बन्तै पदमिति" पदसंज्ञा सा भविष्यति | सस्येतसरस्यय भसीदनया भविष्यत्य;
* २,४.०२. † ९.४, ५० ; ६.९. ६०. { २.७, § २०४. 5). ¶ ९,४.९७, #१ ९.४.९५४.
प२९.१.६२. | #श्य्करणयहाभिाष्यवः॥ ९६३
नक न भविष्यतीति । ठुप्र हरनी व्यये यवत एवावधेः स्कादो पदमिति पदसंज्ञा
तावत एवावधेः शबन्तं पदमिति । अस्ति च प्रत्ययलक्षणेन यजादिपरतेति कृतवा
भसा प्मरोति ॥
तुग्दीरषस्वयोश्च विप्रतिषधानुपपत्तिरिकयोगलश्षणत्वास्परिवीरिति ॥ १० ॥
तुग्दीषेत्वयोश्च विप्रतिषेधो नोपपद्यते | क । परिवीरिति । किं कारणम्|
एकयोगलक्षेणत्वात् | एकयोगलक्षणे तुग्दीरषत्वे | इह लु प्रत्यये सर्वाणि भ्रत्यया-
भ्रकणि कायोणि पयेवपत्नानि भवन्ति । तान्येतेन प्ररयुरथाप्यन्ते | अनेनैव तुगने-
परैव च दीैत्बमिति | तदेकयोगरलक्षणं भवति | एकयोगलन्षणानि च न प्रकल्पन्ते |
।- + 1
सिद्धं तु स्थानिसंज्ञानुदे शादान्यभध्यस्य ॥ ९९ ॥
सिद्धमेतत् | कथम् | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्य भवतीति वन्तस्यम् | किं कतं भवति | 10
सन्तामात्रमनेन क्रियते | यथाप्रापने तुम्दीषेस्वे भविष्यतः || तद्क्त्यं भवति | यद्य-
प्येतदुच्यते ऽधवेता्हि स्थानिवद्भावो नारभ्यते | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्यानल्वि धाविति
वश्यामि | यद्चैवमाङो यमहन भात्मनेपदं भवतीति हन्तेरेव स्याधेने स्यात् | न
हि काचिदन्तेः स॑ज्ञास्ति या वधेरतिदिदयेत । दन्तेरपि संज्ञस्ि | का | हन्तिरिव ।
कथम् { स्वं रूपं दराब्दस्यराष्दसंज्ञा [९.९.६८ | हति व वनास्स्वं कूपं शभ्डस्य संञा 1
भवतीति हन्तेरपि हन्तिः संक भविभ्यवीति ॥
भसंज्ाङीष्डफ गोरास्वेषु च सिम् ॥ ९९
मंज्ञाङीपष्फगोरात्वेषु च सिद्धं भकति || भसंक्ञा | राज्ञः पुदषो राजपुरुषः |
प्स्ययलकषषणेन यचि भम् [१.४.१८] इति भसंज्ञा प्रामोति । स्थानिसंन्नान्यमुत-
स्वानल्विष्छतिति वचनाच्च भवति | डीप् | चित्रायां जाता वित्रा | प्रत्यवलक्षणे- ९७
नागन्तादिनीकारः प्रामोति । स्थानिसेज्ञन्यभुक्स्यानस्वि धाविति कचना भवि-
प्वति || प्फ | वतण्डी“ | प्रस्यक्लक्षणेन यमन्तादिति प्फः प्रामोति1†1† | स्थानि-
संञान्यनुतस्यानल्विधाविति वचन््रन्च भवति || गोरात्कम् | गामिच्छति गव्यतिः† |
प्रष्वयलक्षणेनाम्यौतोऽम्शसोः [६.१.९३] हइत्यास्वं प्रपोति ! स्थानिसश्ान्यमत-
स्भानल्विधाविति क्चनोश्च भवति || 95
= ६.४. ६.८. { ६.१.६५; ५९ ;५.४.२. { ९.१. २८. § ५.३.१९६; 8४ +; १.२.४९.
भू ०.९. ९५९ , +* ४.९. ६०८; ६०९, 11 ३.९. ९७. {{ २. ४.०६.
६४. , ॥ त्पाक्ररपर भतम् ॥ :\भ ५३.
नस्य देषो डोनकाररोपेभ्विधयः ॥ ५३ ॥
तस्थेतस्य लक्षणस्य दोषो ॐ नकारलोपः | भादर चर्मन् रोहिते चर्मन्" | प्रलय-
यलक्षणेन याचि मम् [ १.४.१९८ | इति भसंज्ञा सिद्धा भवति । स्थानिसंश्ञान्यमुत-
ङंयाबस्विधितिति वचनाच प्रापरोति | इन्वम् | भारीः? | प्रत्यथलक्षणेन दही-
¢ तीतत्वै सिद्धं भव्ति । स्थानिसंज्ञान्यभुतप्यानल्विधाक्रिति वचनान्न प्रामोतिः || इम् |
अतृणेट् ९ | प्रत्ययलक्षणेन हरीतीम्सिद्धो- भवति | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्यानल्विधाविति
वचनाच्च भरामोति || सूत्रं च भिद्यते || यथान्यासमेास्तु | ननु नोक्तं सतो निभित्ता-
भावात्पंदसं ज्ञाभावस्तुग्दीर्ैत्वयो ध विप्रतिषेधानुपपत्तिरेकयोयलक्षणस्वात्परि वीरिति ।
बैपदौषः | बक्ष्यत्थत्र परिहारम् | इहापि परिवीरिति शाखपरविप्रतिषेभेन पर-
0 न्वाहीधैश्वं भविष्ति |
, : . कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि
्योजनमपृक्तशिोपि नुमभामो गुणवृदिदीर्धतवेमडाटखम्विधयः ॥ ९४ ॥
.भष्टक्तलोपे शिरीषे च कते” नुममामौ गुणवृधी दीषैत्वभिमडाटी भग्वि-
भिरिति प्रयोजनानि ॥ मम् । अभ्रे जरी ते वाजिना त्री षधस्था | ताता पिण्डा
5 नाम्।1 | नुम् ॥ भमामौ | हे ऽनङ्खुन् भनङान्; || गणः | अधोक् भलेद्ऽ |
बुद्धिः | न्यमादै¶¶् || दीर्घत्वम् । प्न च्री ते वाजिना ब्री षधस्था | ता ता पिण्डा
नाम्***|| इम् । भतृणेय् || भडाटौ | भपोक् भरेट् | पेयः ओनः111 |[अस्विधिः |
अभिनोऽक्रं अच्छिर्मोऽक्र{ || भष्रकशिलोपयोः कृतयेसति विधयो न प्रामुवन्ति |
पृत्ययलक्षणेन भवन्ति॥। नैतानि. सन्ति प्रयोजनानि | स्थानिवद्ध वेनाव्येताति सिद्धानि।
20 न. सिप्यन्ति | आदेशः स्थानिवदित्युच्यते न च. रोष भादेशः । लोपो . ऽप्वादेशाः |
कथम् | भाविदयते यः स आदेश्षः। लोपो .ऽप्याहिरयते । दोषः स्ल्यपि स्यादि
, ओषो : नादेशः स्यात् । हहाचः पर स्मिन्पूवेविषी [९.९.९७] ह्येतस्य भूयिक्षानि
तेप उदाहरणानि तानि न स्युः || यन् तर्हि स्थानिवद्ातो नास्ति तद श्ैवयं ` श्रेगो
बक्तव्यः | क्र च स्थानिवद्भावो नास्वि| यो अल्विधिः | किं प्रयोजनम् | प्रयोजनं
98 ऊनकारलोपेच्छेम्नधयः |
४ “६ ^
ाणयमनननायन क कनम ___ र
# ८१.३५. † ६५९, ४५ ‡ ६.४.३४. ई ५.१.९८. नू ५,२.८९. “^+ ६.१ १६८६८
{† ५.९ ५२. ††‡ ७.१. ५९ ९& ७३.८६. बकः < २.२५.
नैक ६.१ ८. ` ५ {11 द) ५२, ७२... `` {५.३ ^ ५८,
| | ¢ 8 ४ ॥ त “
५
पाठ ९.१.६३.| . ॥ व्याकरणअहाफाप्यम ॥ 1)
| भसक्ञाडीप्हफमोराव्वेत्रु च देषः ॥ ५९ ॥
भसेक्ञाङीपूर्फगोरास्त्रेषु दोषो भवति ॥ भसंज्ञायां .ताव्न्न दोषः | आचायैष-
वृत्तिङ्गोपयति न प्रत्ययलक्ञेणेनः भसंज्ञा भवतीति यदय न उिसंबुद्धः [ ८.१.८ |
ति ङ प्रतिषेधं हास्ति || डीप्यपि तवं विज्ञायते ऽणन्तादकारान्तादिति | कथं
तर्द । अण्या ऽकार इति ॥ भफे अपि नैवं विज्ञायते यञन्तादकारान्तादिति | कथं 5
ताईं | यञ्यो ऽकार इति ॥ गोरास्वे अपि बयं चिज्ञायते ऽम्यचीति | कथं तर्हि | `
भच्यमीति || प्रयोजनान्यपि तार्दि तानि म सान्ति | यत्तावदुच्यते ॐ नकारलोप इति
क्रियत एतश्यास एव न डिनसेवुद्धोरिंति ॥। हइस्वमपि | षरेयस्येतत् । चास इं्वं
भाशाखः काविति || हस्विभिरपि । हलीति नियु लम् | .येदि हलीति निवृत्तं तृणहानिः
त्रापि प्रामोति | एवं व्यचि मेस्वव्यनुवर्षिष्यते† || न तर्हीदानीमयं योगो वक्तव्यः] 10
, वक्तव्यश्च | किं प्रयोजनम् । प्रत्ययं गृहीस्वा यदुच्यते बसमत्ययलक्षणेन यथा स्यात्|
दुष्दं गृहीत्वा यदुच्यते तत्यत्ययलक्षणेन मा भूदिति | क प्रयोजनम् | शोभना शृषदो
स्य छदषद्भाणः.‡ । सोमेनसी अलोममषरसी [६.२.५१७] इत्येष स्वरो मा भूदिति।।
न लुमताङ्गस्य ॥ १.।१।६२३ ॥
लमति. प्रतिषेध एकपदस्वरस्योपसंख्यांनम् | ९॥ - 1४
छुमति प्रतिषेष ` एकपदस्वरस्योपसंख्यान -कतेष्यम् | एकपदस्वरे च लुमता
टुपरे प्रत्ययलस्षणं न भवतीति वक्तव्यम् || -किमविरेषेण । नेत्याह ।
सवामन्डितसिंज्लुक्स्वरवर्जम् 11९ ॥
, सर्वैस्वरमा मन्तिलिस्वरं सिज्जुकस्वरः च वजेित्वा ॥ सवैस्वर | सवैस्तोमः
सर्वशः $. ।. सवस्य .सपि [६.१. १९९] इव्याश्युरास्व॑ यथा स्यात् || भामन्ति- 20
तस्वर | सार्पिरागच्छ । सप्रागच्छत | भामन्तरितस्य च [ ६.९. १९८ | हर्याद्युदात्तत्व॑
षरा स्यात् ॥ शिर्छुक्स्वर | मा' हि दाताम् | मा हि धाताम् | आदिः सिचो
ज््रवरस्याम् [ ६.१.१८७ | हस्येषर स्वरो अथा. स्यात् | किं प्रयोजनम् |. `
प्रयीजनं भिनिकिद्ुकि स्वरः ॥ ३ ॥
अिनिकिस्स्वरा लुक्रि प्रयोजयन्ति | गगः वत्साः | विदाः उवौःृ | उ्मीवाः 25
~~~“ क
£ ‰ % = भम , † ५३. ८ #॥ ९.४ १. । $ २-४. ७९१ ६.२. १ 4 २.४. ६४
१६१ ॥ द्याकरनयहाभ्वं् ॥ [म० १.९१.९.
वामरज्जुः' | भ्नितीत्वग्यु दालत्वं मा भुदिति। | इद च भत्व: कितः[.६९.९६९
इत्यन्तोदात्तखं मा भृरिति ॥
पथिमथोः सर्वनामस्थाने' +
पथिभथोः स्वैनमस्थाने लुकि प्रयोजनम् | पथिभ्रियः मथिप्रियः९ | पथिमयो
5 सवेनामस्थाने [६.९.१६९ ९| इत्येष स्वरो मा भूदिति ॥
न. . अहो रविधी॥५॥ |
! अङ्को रविधाने लुमत्रा हे प्रस्वयलक्षणं न भवतीति वक्तन्दम्-। अहरेदावि ।
भदरुद्े¶ । रोषि [८,२.६९] इति परस्वबरुक्चनेन भतिवेषो मा भूदिति ॥
- उशरष॑दत्वे चापदादिविधौ ॥ ६ ॥ `
10 ` ्षरपदत्े चापदारिविषौ लुमता लुम प्रत्ययलक्षणं न भवतीति वक्तव्वम् | `
परमवाचा परमवाचे । परमगोदुहा पर मगोदुे । परमंरिदा परमश्वलिरे | पदस्य
[८.९.९६] इति प्रत्ययलक्षणेन कूत्वादीनि** मा भूवन्निति | अपदादिकिषावि-
ति किमर्थम् | दधिसेची दधिसेचः | सात्पदाद्योः [८.३.९९.९] इति प्रतिषेधो यथा
स्यात् || यश्यपदादिविधाविस्युच्यत उत्तरपदाधिकारो न प्रकल्पेत ! तत्र को रोषः |
15 कर्णो वणेलक्षणात् [६.२.९१२] इत्येवमादिविभिनै सिध्यति ।| यदि पननैलोपा-
` दिविषौ रुस्यन्ते।† लुमता लुत प्रत्ययलक्षणं न भवतीवुच्येत । तेवं शाक्यम् । इह
हि राजकुमा्यौ राजकुमायै इति शाकलं ‡ ‡ प्रसज्येत । तैव दोषः | यदेतस्सिति
शाकलं नेस्थेतत्पस्यये शाकलं मेति वद्यामि$§ | यदि प्रत्यये शाकले नेत्युच्यते
दपि पुना मधु अपुना्¶् अश्रापि न प्रसज्येत | पस्केवे शाकलं न मवति | कस्मिन् |
20 यस्माद्यः प्रत्ययो विहित इति || इह ताह परमदिवा परमदिये दिव उल् [६.१.९३ ९|
इत्युस्वं प्रा्ोतीति ॥ भस्तु तद्विशेषेण । ननु षोक्त मुत्तर पदाधभिकारो न प्रकल्पेतेति।
वखनादुन्तरपदाधिकारो भविष्यते |
तन्ति बन्कव्वम् । न वक्तव्यम् । अनुवृत्तिः करिष्यते | इदमस्ति यस्माव्मत्यव~
विभिस्दादि प्रत्यये अङ्गम् |१.४.१२ | दपिङन्तं पदम् [१४] | यस्मात्दपिङधिषि+
25 स्वदारि छबन्तं च | नः क्ये [९९] | नान्तं क्ये पदसंज्ञं भवति यस्मात्क्यविधिस्तदादि
छबन्तं च । सिति च [९६] | सिति च पूवे पदसंश्ं भवति यस्माल्सिदिधिस्तदादि
९.६.००. ¶ ६.९. ९९.७५, { २.४. ६५. § २.४. १; ६.२. ९, 4 ०.९.२२.
*न ८.२.३०, - 14 ८२.०८२, ‡{ ६.९.९२५. 5 ६.९. ९२७५. ` बुष ९.३१. १७.
९६७
कण १,९.६२. |
हबन्तं च । स्यादिष्वसषैभाभस्थातर [१७] । स्वादिष्वसर्वनामस्थाने पतै षदसंशं मवति
वस्मासस्वादिविधिस्तदादि छबन्तं च | यचि भम् [९८] । यजादिपरस्यये पूव भ॑ मव-
ति यस्मा्यजादिविधिस्तदादि छवन्तं च +` इह॒ ताह परमवाक् भसवेनामस्यान
इति शरतिषेधः परामोति | अस्तु तस्याः प्रतिषेधो या स्वादौ पदमिति पदसंज्ञाया तु
वन्तं पदमिति पदसंज्ञा सा भविष्यति | सत्येवसत्यय भासीदनया भविष्यत्यनया 5
न भविष्यतीति । नुप्र इदानीं भत्यये यावत एवाषभेः स्वादौ पदमिति पदसंश्ञा तावत
एवावधेः छबन्तं पदमिति । भेस्ति च परस्वयलक्षणेन सर्वनामस्थानपरतेति कृत्या
धतिषेपाथ बलीयांसो भवन्तीति प्रतिषेधः प्राभोति || नाप्रतिषेधात् | नायं प्रसंज्यप्र-
तिषेषः सर्वनामस्थाने नेति । किं ताहि । पर्युासो ऽयं यदन्यस्सवैनामस्थानादिति ।
सर्वनामस्थाने ऽव्यापारः | यदि केनचित्पामोति तेन भविष्यति | पूर्वेण च प्रामोति | 10
सप्रापरवौ | अथवानन्तरा या प्रापनिः सा प्रतिषिध्यते । कुत एतत् | अनन्तरस्य विधिव
भवति प्रतिषेधो वेति । पूवा प्ाप्निरप्रतिषिद्धा तया भविष्यति | भनु. चेयं प्ात्निः पूव
पिं वाधते | नोस्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम् || यद्येवं परमकाचौ परमवाच
इति प्रिडन्तं पदमिति पदसंज्ञा प्रामोति | एवं तर्हि योगविभागः करिष्यते | स्वादिषु
पव पदसंज्ञं भवति| ततः सर्वनामस्थाने ऽयचि | पूर पदलूक्ं भवति | ततो भम् | मसं +;
भवति यजादावसवैनामस्थान इति || यरि तार्हि सावपि पदं भवस्येचः श्रुतविकारे
पदान्तम्रहणं चोदयिष्यति" हह मा भूत् भद्रं करोषि गीरिति तस्मिन्क्रियमाणे अपि
भामति । वाक्यपदथोरन्त्यस्येव्येवं तत् || इह तर्हि दंषिसेचौ दधिषेचः सास्पदा-
ोरिति पदारिरुक्षणः षस्वपरतिषेभो न प्रामोति । मा भूदेवं पदस्यादिः पदादिः
पदादेनैति । कथं ता | पदादादिः पदादि : पदादेननस्येवं भविष्यति | तरैवं शक्यम्. | 29
इहापि प्रसज्येत ¡ ऋक्षु वाक्षु स्वक्ष कुमारीषु कि शोरीष्विति | सालतिषेधो श्ापकः
स्वादिषु पदस्वेन येषां पदसंज्ञा न तेभ्यः प्रतिषेपो भवसीति || इह तर्द बट्से्ै
वहसेचः । बहूजयं प्रस्ययः । अत्र पदादाष्किः पदादिः पदादिनेस्युष्यमाने अपि न
सिध्यति | एवं तश्यु्रपदत्वे च पदादिविषी लुमता लुम प्रत्ययलक्षणं भवतीति
वक्ष्यामि | ततियमाथ भविष्यति पदादिविधावेव न पदान्तविधाविति | कथं 2;
महुसेचौ बहूसेचः | बहष्पुकस्य ख पदादिविधावेव न परदान्तविधाविति ॥
| इन्दे ऽ्स्यस्य ॥ 9 ॥
इन्दे जन्स्यस्य लुमता लुप प्रस्थयलक्तिणं न भवतीति वक्तव्यम् } वाक्लनकजम् ||
८.२, ९०७
१६६ ' प व्यकररणभरभव्यिम्॥ . मि०१.१.९
हदं अभवलिति" प्रत्ययलक्षणेम जस्भावः. प्रामोति। |
सिच उसी भप्रसंङ् आकांरपभकरणात् ॥ ८ ॥ ,
सिच उसो ऽपरसङ्ः. | किं कारणम् | आकारप्रकरणात् | आत्तः [३.४.१९०]
हर्येतद्धियमाथे भविभ्यति | आत् एव च सिज्छुमन्ताच्चाम्यस्मास्सिञ्लुमन्तादिति ॥
६.इह इति युष्मल्पुत्रो ददाति इत्यस्मत्पुत्रो ददातीत्यत्र परत्ययलन्षिगेन वुष्मदस्मदो;
प्ीचतुर्थीद्ितीयास्थयोवौ नावौ ` [८.१.२० | हति वाप्नावादयः प्रापुवन्ति |
| युष्मदस्मदोः स्थग्रहणात् ॥ ९ ॥ |
` स्थम्रहणं तजर क्रियते त्छूयमाणविमक्तिविशेषणं विज्ञास्यते ¡ अस्त्यन्यर्स्थय-
णस्य. प्रयोजनम् | किम् | सविभक्तिकस्य वास्नावादयो यथा स्युरिति । नैतदसि
10 प्रयोजनम् | पदस्य [१६] इति वतेते विभक्यम्तं च पदं तत्रान्तरेणापि. स्थग्रहणं
सविभाक्तेकस्थैव भविष्यति । प्रवेस्सिद्धं यश्र धविभतयन्तं पर्दे यत्र तु.खलु विभक्तौ
पदं तत्र. न सिध्यति | यामो वों दीयते | मामो नौ दीयते | जनपदो वां दीयते।
जनपदो नी दीयते। सथैमहणमपि परकृतमनुवतेतेः तेन सविभकतिकस्थैव भविष्यति |
इह च्षुष्कामं याजयांचकारेति$ तिङ्तिडः [८,१.२८ | इति तस्य च निषातस्त-
1; स्माच्यानिघातः प्रामोति ।
आमि छिलोपात्तस्यं वानिधोतस्वस्माच निघातः || ९० ॥
जामि किलोपा्तस्य चानिघातस्तंस्माथ निघातः सिद्धो भविष्यति |
अङ्गाधिकार इटो विधिप्रतिषधी ॥ ९९ ॥
५ अङ्गाभिकार हठो विभिप्रतिषेषौ न सिध्यतः | जिगमिष संविवृत्स¶ | भङ्
“० स्येवीटोः विधिप्रतिषेषौ न प्राप्तः“ ॥
्रमेर्दधित्ं च | ९२ ।।
किं.च.| इट विधिप्रतिषेषौ 1 नेव्याह | धरेश भ्यं चः पाठितः | क्रमे शीर्ष
स्वम् | उक्क्राम संक्रामेति11 |
इह किंचिदडापिकारे लमता लप्र प्रस्ययलक्षेनं भव्ति किचिचान्यत्र न भवति,
6 भा ~
२.४. 9 ¶ ३.४.१८९ { ८.१.२८ . & २.४. ८२ वु ६.४. १५९
++ ७,२.५८ ; ९९. ` ` 1† 9 ६. ७६,
पा ९.१.६५. | ॥ व्याकरगयहभिष्यम ॥ ९९९
यदि पुनने लुमता तस्मिन्निव्युच्येत | भथ न लुमता वस्मिन्निव्युख्यमाने किः सिद-
मेवदवतीटो विधिप्रतिषेषौ क्रमेर्दधित्वं च | वाड निदम् | नेटो विधिप्रतिषेषी
पर्मैपदेध्वित्युच्यते | कथं ताहि | सकारादाविति तद्िशेषणं परस्मैपदग्रहणम् | न
लल्वपि क्रमर्दधित्वं परस्मैपदोष्विस्यु्यते | कथं तार्हि | शितीति तद्िशेणं परस्मै-
पमदणम् ॥ ४
न समता तस्मिन्निति. चेडनिणिढदेदास्तलषि ॥ ९२ ॥
न लुमता तस्मिनिति चेदनिणिडदेशास्तलोपे न सिध्यन्ति | भवि भवता
दस्युः । अगाचि मवता भामः | अध्वगायि भववानुषाकः | तरोपे कृते* लुङीति
श्निणिङदेश्चा न प्रामुन्ति। | तैष रोषः | न लृडीति हनिणिङादेशा उभ्यन्ते |
किं तिं | आर्पधातुक इति वद्धिरोषणं लृङ्हणम् || इह च सवेस्तोमः सर्वपृष्ठः 10
सर्व॑स्य दषीस्याद्युदालस्वं न प्रामोति । तापि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् | न लुम-
तद्गस्येस्येव सिद्धम् । कथम् | न लुमता ठुपरे ऽङ्गापिकारः प्रति्िंश्दयते | कि
ति | यो ऽतौ कुमा ठुप्यते तस्मिन्यदङ्गं तस्य यत्काय तच्च भवति | एवमपि
सर्वस्वरो नं सिध्यति | कतैव्यो ऽ यलः | `
अरो =न्त्यातपूवै उपधा ॥ ९. । ९. ।६५॥ ` ४
किमिदमस्प्रहणमन्स्यनिदोषणम्- | एवं मवितुमहैति ।
उपधासंज्ञायामल्ग्रहणमन्स्यनिरदेदाश्वेस्संवातभतिषेधः । ९ ॥
उपषासंश्चाय।मल्महणमन्स्यनिर्द शा भेस्तषातस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | संबातस्यो-
पपासा प्राम्ोति । तत्र को दोषः । रास हद डहलोः [६.४.३४] शिष्टा शिष्टः ।
संणतस्येश्वं॑प्रामोति | यदि पुनरलन्स्यादिव्युच्येत । एवमप्यन्स्यो ऽविदोषितो 20
शति | त्र को दोषः | संवातादपि पूत्रैस्योपधासंज्ञा प्रसज्येत | तत्र को दोषः |
शास इदङ्हलोः शिष्टः शिष्टवान् । शकारस्येस्वं भसज्येव | खत्रं॑ च भिश्षते ||
बथान्यासमेनास्तु । ननु चोक्तमुपधासंश्ायामल्यहणमन्त्यनिर्े शभेस्संवातप्रतिषेष
हति | वैष रोषः. | अन्त्यविज्ञानास्िदधम् । तिद्धभमेतत् । कथम् । अलोऽन्त्यस्य
बिषयो भवन्तीत्यन्स्मस्य भविष्यतिः | ४६
# ६.४. १,०४. ¶ २.४, ४२; ४९; ५०. | ‡ ९.९. ५२.
२
->ॐ० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ { म०१.९६.९.
अन्त्यविज्ञानात्सिदधिमति चेन्नानयके ऽछोऽन्स्यविधिरनभ्यासविकोरे ॥ २॥
अन्त्यविज्ञानास्सिद्धमिति चेन्न | किं कारणम् | नानर्थके ऽलेऽन्त्यविधिरनम्क-
साविकारे | अनथेके ऽलोऽन्त्यविधिर्नेव्येषा परिभाषा कवेव्या | किमधिरोषेण | नेत्याह |
अनभ्यासाविकारे | अभ्यासविकारान्वजेधिस्वा | भृखामित् | ७.४.७६ | अर्विपि-
४ पर््योश्च [ ७७ ] इति |} कान्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि । -
प्रयोजनमव्यक्तानुकरणस्यात इतो” ॥ ३ ॥
अन्त्यस्य प्राभोति | अनथकेऽलोऽन्त्यविधिने भवतीति न .दोषो भवति ॥ त्रेतद-
स्ति प्रयोजनम् । आचायेपयृत्तिज्नौपयति नान्त्यस्य पररूपं भक्तीति यदयं नानेरि-
तस्यान्स्यस्य तृ वा [६.९.९९ | इत्याह ॥
10 ष्वसोरेदावभ्यासलोपश्च ॥ ४ ॥
ष्वसोरेदाबभ्यासलोपथ [६.४.१९९] इत्यन्त्यस्य प्रामोति । अनर्थके ऽलो ऽन्स्य-
विधिरनेति न दोषो भवति |] एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । पुनर्तो पवचनसामथ्यौस्सयैस्य
भविष्यति ॥ अथवा शिद्लोपः कारेभ्यते ख शित्सर्वस्येति सवौदेशो भविष्यति |
स तर्हि राकारः कतैव्यः| न कतैवष्यः | क्रियते न्यास एव | दिशाकारको निर्दशः |
15 ष्वसोरेद्धावभ्यासलोपट्थेति | |
आपि लोपो ऽको नवि | ९॥
तिष्ठति सुत्रम् ‡ | अन्यथा व्याश्यायते | भाषि हंलि लोप इत्यन्त्यस्य प्रभोति ।
भनथके ऽलो ऽन्त्यविधिर्नेति न दोषो भवति ॥ एवदपि नास्ति प्रयोजनम् | अन
एव लोपं वक्ष्यामि । तदनो प्रहणं कर्तव्यम् | न कतेष्यम् | प्रकृतमनु वसते । क
20 प्रकृतम् | अनाप्यकः [७.२.१९२] इति । तैः प्रथमानिर्श्टं षष्ठीनिरश्टिन ` वेशाः |
हलीव्येषा सप्नम्यन्निति प्रथमायाः षर्षीं प्रकल्पयिभ्यति तस्मिलिति निर्दिरे वर्षस्व
[९.१.६६ | हति ॥
अत्र रोपो ऽभ्यासस्य ॥ ६ ॥
अत्र रोपो ऽभ्यासस्य [७.४.५ ८ | इत्यन्त्यस्य प्रामोति | नान्थेके ऽतेऽन्त्ववि-
६ धिरिति न दोषो भवति ॥ एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | आत्रम्रहणसामभ्यास्सर्वस्व
. ,न ६.९. ९८. ¶ १,,९, ९९. + ७.२, १९२,
पाठ ९.९.६६ -६५.| ॥ व्वाकरणपहाभष्यद् ॥ १५७२
भविष्यति ||. अस्स्यन्यदज्रधशणस्व प्रयोजनम् । किम् । सच्तधिकासो पेश्यते | इह
मा मुत् | दकौ दरौ |. अन्तरेणाप्यत्रबरहणं सचपिकारमपेक्िष्यामहे || संस्तर्हि
सकभरादिरपेश्ष्यते सनि सकारादाविति | हह मा भूत् । जिक्ञापयिषति ¦ अन्तरेणा-
ध्वैक्रयहणं सनं सकारादिम॑पेकषिष्यामहे || प्रकृतयस्तद्येपेश्यन्ते | एतासां प्रकृतीनां
लोपो यथा स्यात् | इह मा भूत् } पिपक्षति यियक्षति । अन्तरेणाप्यत्रमहणमेताः $
्रकृतीरपेक्षिष्यामहे || विषयस्तद्येपेश्यते | मुचोऽकर्मकस्य गुणो वा [७.४.९५७]
हति । हह मा भूत् । मुमुक्षति गामिति । अन्तरेणाप्यक्रसहणमेत विषयमपेिष्या-
महे । कथम् | अकर्मैकस्येत्युच्यते तेन यत्रैवायं मुचिरकमेकस्तकेवः भविष्यति ||
तस्माचार्थो ऽनया परिभाषया नानथैके ऽलो ञन्त्यधिधिरिति ॥
अलो ज्त्याद्पूवो ऽलुपधेति. वा ॥ *७ ॥ | 10
अथया व्यक्तमेव पटठितव्यमलो न्स्यातपूर्वो उलुपधासं्ञो भवतीति ॥ वर्हि
बन्कव्यम् | नः कक्छव्यम् |
अववनाष्ठोकविक्ञानास्सिम् ॥ < ॥}
भम्तरेणापि वचनं लोक्रचिश्ानास्सिद्धमेतत् | क्यथा । लोके ऽमीषां ब्राह्मणा-
नामन्स्यास्पूवे भानीयता मित्युक्ते यथाजातीवकोः रन््यस्तथाजातीयको न्त्यास्पूव 1:
भानीयते ||
तस्मिनिति निर्दिष्टे पूवस्य ॥ १ ।९। ६६ ॥
तस्मादिव्युत्तरस्य ॥ १. ।१.।६.७॥ `
किमुदाहरणम् | इह तावस्तस्मिन्निति निरि पवैस्येति | हको यणचि [६.१.७७]
रभ्व् मध्वत्र | इह तस्मादित्युशरस्येति । व्यन्तरुपसरभैभ्यो ऽप हैत् [६.३.९७] 20
हीपम् अन्तरीपम् समीपम् || अन्यथाजातीयकेन शब्देन निर्देशः क्रियते ऽन्यथा
जातीयथक उदाह्यते । किं वष्यीदादरणम् | इह तायन्तस्मिन्निति निरि पूर्वस्येति
तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ [४.६.२] इति । तस्मादिस्यु सरस्वेति क्स्माष्डसो
भृः वसि [६.९.९०३] इति ।| हदं चाप्वुदाहरणमिको यणचि व्यन्तरपसर्गेभ्वौ ऽप
ईैरिति । कथम् । सर्वेनान्नायं निर्देशः क्रियते सर्वनाम च सामान्ययाचि | तज्र 2
सामान्े निर्रिष्टे विशेषा अध्युदाहरणानि भवन्ति | कि पुनः साभान्यं कोवा
९७२् ॥ व्याकरगमहामाष्यम् ॥ ` [म०र.९.९.
विशेषः | गौः सामान्यं कृष्णो विशेषः | न वर्शदानीं कृष्णः सामान्थ भवति
गैौर्विरषो भबति | भवति च | यदि तर्हिं सामान्यमपि विष्ोषो विदोषो अपि
सामान्यं सामान्यविशेषौ न प्रकल्पेते | प्रकल्येते च | कथम् । विवन्षातः | यदास्व गौः
सामान्येन विवक्षितो भवति कृष्णो विदोषत्वेन तदा गीः सामान्यं कृष्णो विशेषः |
५ यदा कृष्णः सामान्येन विवक्षितो भवति गर्विशेषत्वेन विवक्षितस्तदा कृष्णः
सामान्यं गोर्विहोषः | अपर आह | प्रकल्पेते च | कथम् | वितापु्रषत् |
तद्यथा । स एव कंचित्प्रति पिता भवति कंचिसखति पुत्रो भवति । एवमिष्टापि स एब
कंचित्मति सामान्यं कंचित्मति विषः || एते खल्वपि नेर्देशिकानां बात्तेतरका
भवन्ति ये सवेनान्ना निर्देशाः क्रियन्ते | एति बहूतरके व्याप्यते || अथ किमथे-
10 मुपसर्गेण निर्देशः क्रियते । शब्दे सपम्या निर्दिष्टे पूर्वस्य काय यथा स्यादर्थे मा
भूत् । जनपदे अतिद्रायन इति* । किं गतमेतदुपसर्गेणाहोखिच्छम्दाधिश्यादथा-
पिक्यम् | गतमित्याह | कथम् | निर्यं बहिभीवे वतेते | तद्यथ | निष्क्रान्तो
देशानिर्देशः । बहिरदेश इति गम्यते | शाष्दथ राब्दाद्रहिभूतो ऽयो ऽबहिभूतः ॥
भथ निर्दि्टमहणं किमर्थम् ।
15 निर्दिष्ट प्रहणमानन्तयायम् | ९ ॥
निर्दिष्टं क्रियत आनन्तयोर्थम् | आनन्तर्येमान्ने कायै यथा स्वात् | इको
यणचि । दध्यत्र मध्वत्र | इह मा भूत् | समिधौ समिधः । दृषदौ दृषदः ॥|
किमथे पुनरिदमुध्यते |
तस्मिस्तस्मादिति पूर्वोत्तरयोर्योगयोरविरशषान्नियमार्थं वचनं दध्युदकं
20 पचत्योदनम् ॥ २ ॥
तरिमस्तस्मादिति पूर्वो सर योर्योगयोरिहोभान्नियमा्ी ऽयमारम्भः । मामे देव-
दत्तः । पूर्वैः पर इति संदेहः । भामादेवदन्तः । पूथैः पर इति संदेदः । एवमिहापीको
यणचि । दध्युदकं प्रचत्योदनम् । उभाविकावुभावचो । भवि पूवेस्याचि परस्येति
संदिहः । तिङतिडः [८.१.२८] इत्यतिङः पुैस्यातिङः परस्येति संदे! । इष्यते
४ धाज्राचि पूर्वस्य स्यादतिडः परस्येति तश्चान्तरेण यलं न सिष्यीति नियमाथे वच-
नम् । एवमथमिदमुष्यते |. भत्ति प्रयोजनमेतत् । ङि तर्शति | भथ - थजोभवं
निर्दिरयते किं तन्न पतरस्यं काये भवत्याहोस्वित्पर स्येति ॥।
षय क । स
कैः ४.८. ८९; ९.३ , ५९५,
वा०१.१.६९-६.] ॥ द्याकरगय्हाभाच्यद् ।। | {१८७द
उभयमिर्देशे विभ्रतिषेधास्पम्जमीनिर्देराः ॥ ३ ॥
डमवनिदं्े निप्रतिबेधाखन्चमीनिर्देशो भविभ्वति || किं प्रयोजनम् | --
भयोजनमती लसावंधातुकानुदा्षत्वे ॥ * ॥
वश्वति तास्यादिभ्बो अनुदा स्वे सप्रमीिरदेरो ऽवस्तसिज्थं इति । तस्मिन्
क्रियमाणे तास्यादिभ्यः परस्य लसार्वधातुकस्य लसार्वधातुके परतस्तास्यादीमामिति 5
सदेहः । तास्यादिभ्यः परस्य रुसर्वधातुकस्य ॥
` बहोरिष्ठादीनमिदिरोपे ॥ ९ ॥
बहोर तरोषामिष्ठेमेयसामिष्ठेमेयःसु परतो बहोरिति देहः । बहोरत्तरषा-
जिष्ठेमेयसाम् ॥ |
मोतो णित्; ॥ & ॥ 10
गोतः परस्य सर्वमामस्थानस्य सर्वनामस्थाने परतो गोत इति संदेहः । -गोतः
परस्य सवेनामस्थानस्य ॥
रुदादिभ्यः सार्वधातुके ॥ ७ ॥ |
रुदादिभ्यः परस्य सार्वधालुकस्य सार्वधातुके परतो कदादीनाभिति संदेहः
रदादिभ्यः परस्य सार्वधातुकस्य ॥ 15
अनि भुगीदासः¶ ॥ ८ |
आख उन्तरस्यानस्थाने परत भास इति संदेहः । आसं उत्तरस्यानस्य ॥
आमे सर्व॑नाघः सुद्** || ९ ॥
सर्वनान्न उत्तरस्याम भामि परतः संवेनान्न इति संदेहः | सवैनाच्न उलरस्वामः।।
षेित्याण्नद्याः†† ॥ ९० ॥ ` %
नव्या उ्तरेषां ङितां डल्छ परतो नश्या इति सदेः | नथ्या उत्तरेषां सिताम् ॥
याडापः ॥ ९९. ॥ |
आप उलरस्य ङितो डिति प्रतं भष इति संदेहः । भाप उत्तरस्य ङितः ॥
न्प्र 1१९८ ११९९० {र - बृ र्२२,९
* ०.९. ५३. 11 ०.६. ९९९; ९९२. {1 ७.६. ९९९६.
६५४ | ॥ व्याकरभमहाभोष्वचः | [ब०९.९९.
कमो दस्वादचि मुण्निस्यम' |[ ९२ || `
` डम उलतरस्वाचो अचि परतो उम इति संदेहः | ङम उलरस्वाचः ॥
विभक्तिविशेषनिर्देशावनकारास्वादविभरतिषेभः ।}. ९३ ॥
विभक्तिविरोषनिर्देशस्यामवकाशस्वादयुक्तो ऽयं विप्रतिषेषः ¦ सर्वत्रैवात्र कत-
5 सामभ्यो सप्स्वङ्तसामथ्या . पच्चमीति कुस्वा पञ्चमीनिर्देशो मविष्वति || `
यथार्थे वा षष्ठीनिर्देदाः ।॥ १४ ॥ `
यथाथ वा षष्ठीनिर्देशः कतेष्यः | यत्र पुर्वस्य कार्यमिष्यते तत्र पर्वस्व षष्ठी
कतेव्या | यत्र परस्य कार्यमिष्यते तत्र॒ परस्य शठी कतेष्यां ॥ खर्वा तथ
निर्देशः कर्तष्वः | न कर्तष्यः | अनेनैव प्रकुप्िर्मविष्यति । तस्मिधिति निरि
19 पूर्वस्य षक्षी | तस्मादि्युत्तरस्य षष्ठी ॥ तन्तर्टि बषठीमहणं कर्तेष्वम् । न कर्त्वम् |
प्रकृतमनुवर्तते | क प्रकृतम् । षी स्थानेवोगा [ ९,१.४९ ] इति |
प्रकल्पकमिति चेन्नियमाभावः ॥ ९९ ॥
प्रकल्पकमिति चेक्िथमस्वाभावः | उक्तं धैतन्नियमार्थो ऽवमारम्भ इति || प्रस्य-
वविषौ खल्वपि पन्डम्यः प्रकल्पिकाः स्युः | वत्र को दोषः | गुपिभ्कि्यः सन्
15 [ ३.१.९ ] | गुपिभ्किश्य इस्येषा पश्चमी सिति प्रथमायाः षष्ठीं परकस्यये्तस्मादि-
स्युलरस्येति । अस्तु । न कथिदन्य आदेशः मतिनिर्दिशयते तजरान्त यैतः सनः सजे
भविष्यति | तरैवं हाक्यम् । इस्संज्ञा न प्रकल्पेत | उपदेशा इतीस्संजोष्यते† ||
प्ररृतिविकाराव्यवस्था च ॥ ९६ ॥
प्रकृविविकारयोथ व्यवस्था. न प्रकल्पते । इको यणचि | भचीस्येषा सप्रमी अणिति
90 प्रथमायाः वरटी प्रकल्पये्तस्मिकनिति निर्दिष्टे पूर्वस्येति ॥
स्षमीपश्चम्योश्च भावादुभयत्र षष्ठीपरकृभिस्तत्रोभयकार्यपरसङ्गः | ९७ ॥
सप्रमीपश्बम्यो भावादुभवन्रेव वष्ठी प्रामोति | तास्यादिभ्य इत्येषा पञ्चमी
लसावेभातुक इत्यस्याः सप्तम्याः षष्ठी पकल्पवेलस्मादिस्युत्तरस्येति | तथा लसार्व-
धातुक इस्येभ्ा-सप्तमी तास्यादिभ्य इति पञ्चम्याः ष्ठी अकल्पयेनस्मिश्निति निर्दि
2 पर्वस्वेति। तत्र को दोषः | तग्रोमयकार्येमखङ्गः । खभवोः कायै स्च आगति + तव
# ८.६.३३, ` . , । † ९.३. २
0० ९.९.६८. | ॥ व्याकरनपरायाष्यम । ९.७५
रोषः| वत्तावदुख्वते प्रकल्यकमिति चेचियमाभाव इति मा भुचिवमः | सप्रमीनिर्िटे
पर्वस्व पष्ठी भरकस्प्मते पञ्चमीनिर्दिष्टे परस्य । जायता सप्रमीनिर्दि्े पवस्व वी
भकल्प्यव एवं ए्चमीनिर्दिष्टे प्रस्य गोत्सहते सप्रमीनिर्िष्े परस्य कायै भवितुं नापि
प्चमीनिरिषटे पूवस्य || यदप्युच्यते प्रत्ययविषौ खल्वपि पश्चम्यः प्रकल्पिकाः स्युरिति
वन्तु प्रकल्पिकाः 1 ननु चोक्तं गुपरिज्किश्यः स्धित्येषा पश्चमी सच्धिति प्रथमायाः $
षष्ठी प्रकल्पयेन्लस्मादिस्यु चरस्थेति । परिहवमेतच्च कथिदन्य आदे शाः प्रतिनिर्दिंदयते
तत्रान्तयैतः सनः सन्नेव भविष्यतीति | ननु चोक्तं वैवं शाक्यभिस्संज्ञा न प्रकस्ये-
तोपदेहा हती स्संश्ञोष्यत इति । स्यादेष दोषो यदीस्संश्चादेदं प्रतीक्षेत | तत्र॒ खलु
कृतावामिस्वज्ञायां लोपे च कत आदेशो भविष्वति | उपदेश इति दीस्तंश्ञोष्यते |
भथवा नानुस्पत्रे सनि प्रकुभ्या मवितस्यं यदा चोत्पच्चः संस्तदा कृतसामथ्यो पर्च- 10
मीति कृत्वा प्रकुत्निने मविष्यति ॥ यदय्युध्यते परकृतिविकाराग्यवस्था चेति तन्नापि
कृता प्रकृतौ षष्ठीक इति निकृतौ प्रथमा यणिति जत्र च नाम सौग्री ब्ठी नासि
वत्र प्रक्ष्स्या मवितस्वम् । भषवास्तु तावदिको वणथीति यत्र नाम सौत्री षष्ठी |
वरि बेशनीमवीस्वेषा सप्रजी गिति प्रथमायाः ष्टी प्रकल्पवेन्स्मिचिति तिर्दिे
पर्वस्वेस्वस्तु | न कथिदन्य भादेहाः प्रतिनिररिदयते तज्ान्तर्येतो यणो यणेष भवि- 15
प्वति | यदप्युच्यते सप्रमीपश्चस्बो् भावादुभयत्र षष्ठीप्रकुतनिस्तत्रोभवका्मप्रसङ्ग
इस्वाचथार्यपरवु्तिश्चीपवनि नोभे युगपस्मकल्पिके मवत इति यदयमेकः वेष
दबोः [६.९.८४] इति पृ्वपरमरहणं करोति ||
स्वं स्पं चाब्दस्याश्ब्दसंज्ञा ॥ १. । १. । ६८ ॥
रूपग्रहणं किमे न स्वं दाग्दस्याराग्दसंश्चा भवतीस्मेव रूपं शाम्दस्य संश्ञा भषि- 20
प्वति | न न्वस्स्वं दाग्द स्वास्स्यन्य दतो सूपात् । एब तरि सिदे खति यद्रुषम्रहणं करोति
वञ्ज्ञापयस्या चार्यो ऽस्स्वन्यड्ूपास्स्वे दाष्दस्वेति | किं पुनस्तत्। भर्थः | किमेतस्य
ज्ञापने भयोजनम् | अयेवद्हणे मानर्थकस्येस्येषा परिभाषा न कर्तव्वा भषति |
किम पुनरिदमुच्यते |
कग्देनार्थगतेर्यस्यासंभकासद्वाचिगः संशापरतिधेधार्थं स्व॑रूपक्यनम् ॥ ९॥ 8
` श्देभोरितेमार्थो गस्मते | गामामय र्यंशानिस्यथे भानीगते ऽष मुख्यत ।
अ्ेस्वासंभवात् । इह व्याकरणे अब कावस्वासंभवः | भपरेडेक् [४.१.१द] इति
१७६. ॥ व्याकरगयहाभाष्यम ॥| [० ९.९.९;
न॒ शक्यते ऽद्गपरेभ्यः परो डहतुम् । शाब्देनार्थगतेर थस्यासंभवा शत्िन्तस्तद्याचिनः
दाष्डास्तावश्यः सर्वेभ्य उस्पक्िः प्रामोति | हृष्यते अ तस्मादेव स्यादिति तथान्तरेग
यल न सिध्यतीति तदाचिनः. संज्ञाप्रतिषे धार्ये स्वंरूपवचनम् । एवमथमिशमुच्वते |
| न वा शब्दपूर्वको ह्यथ संमरत्ययस्तस्मादर्थनिवृत्तिः ॥ २ ॥
5 न वैतत्पयोजनमल्ति | किं कारणम् । शम्दपुवैको धरथे संमस्ययः । श्दपर्वको
दस्य संपरस्ययः | आत शब्दपुवैको यो अपि छ्सावाहूयते नात्वा नाम॒ यदानेन
नोपकम्धं भवति तदा पृच्छति किं भवानाहेति । शाम्दपृूवैकथायेस्य सैप्रस्यय इह च
याकरणे शाब्दे कायस्य संभवो अये ऽतभवस्तस्मादथेनिवृत्तिः | तस्मादथनियुक्ति-
भविष्यति || हदे तर्हि प्रयोजनमशम्दसंजञेति वद्यामीति । हह मा भूत् | शधा ण-
10 दाप् [९.१.२०] तरप्रमषी घः [२९] इति ।
संज्ञाप्रतिषेधानर्थक्यं वखनपामाण्यात् ॥ ३ ॥
संज्ञाप्रतिषेषधानथकः | शाब्दसं्ञायां ` स्वरूपबिधिः कस्मान भवति | वघन-
भामाग्यात् । .शब्दसंज्ञावचनसामथ्योत् || ननु च वचनप्रामाण्यास्संक्ञिनां संप्रत्ययः
. स्वास्स्वक्पग्रहणा्च संज्ञायाः | एतदपि नासि भयोजनम् -। भावार्येभवृ्तिज्ञपयति
15 शम्दतंज्ञायां न स्वरूपविधिभेवतीति यदयं ष्णान्ता षद् [९.१.२४] इति पकारा-
म्तायाः संख्यायाः बटसंज्ञां सास्ति | इतरथा हि वचनप्रामाग्योञ्च नकारान्तायाः
संख्यायाः संप्रत्ययः स्यत्स्व्ररूपयहणा्च षकारान्तयाः | चैतदस्ति श्चापकं .न हि
षकारान्ता संज्ञा । का तरिं | डकारान्ता | असिद्धं जश्त्वं तस्यासिदस्वास्वका-
रान्ता | मन्ना तर्हीदं व्छव्यम् | मन्त्र ऋचि यजुषीति यदुध्यते तन्मन्सरदाब्द
20 ऋक्दाम्दे च यजुरदाम्दे च मा भूत् |
` मन्लाद्य्थीमिति येच्छासखरसामर्ध्यादर्थगतेः सिम् ॥ ४ ॥
` मन्त्राथर्थामिति चेत्न । किं कारणम्| शलस्य सामभ्यंदर्थस्य गति्मकिभ्यति |
मन्त ऋचि यजुषीति यदुष्यते मन्तरदाग्द ऋक्दाभ्दे च यजुःदाब्दे च तस्य कावस्य
संभवो नास्तीति कृत्वा मन्तारिसङ्चरितो यो अ्थस्तस्य गतिमविष्यति साह वयात् ॥
9 ` सिशद्िरोषाणां वृ्ताथर्थम् ॥ ५ ॥
लिजिर्देदः कतव्य | वसे त्रक्रम्यं तदिद्धेषाणां पदणं भवतीति . | किं ब्रगो-
+ ६ “ 9 ०२. ३५,
पा १.१.६९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ १७७
जनम् | वृक्षाद्यथंम् | विभाषा वृक्तमृग | २.४.९२ | इति । शक्षन्यमोधम् शक्ष-
न्यम्रोधाः |
पित्पयायवचनस्य च स्वाद्यर्थम् ॥ & ॥
पििर्देशः कर्तव्यः | ततो वक्तव्यं पयायव चनस्य तदिशेषाणां च प्रहणं भवति
स्वस्य च रूपस्येति | किं प्रयोजनम् । स्वाद्यथेम् । स्वे पुषः [ ३.४.४० || स्व- ४
पोष पुष्यति | रैपोषम् विद्यापोषम् गोपोषम् अश्वपोषम् |
जित्पयायवचनस्थेव राजादर्थम् ॥ ५७ ॥
जि्चिर्देदाः कर्दः । ततो वक्तष्यं पयौयवचनस्थैव प्रहणं भवति | किं प्रयो- `
जनम् | राजाद्यर्थम् | सभा राजामनुभ्यपवौ [२.४.२३ | । इनसभम् ईश्वरसभम् ।
तस्यैव न भवति | राजसमा | विशेषाणां च न भवति | पुष्यमित्रसभा चन्द्रगु- 10
प्रसभा ||
द्चित्तस्य च तद्टिरोषागां च मस्स्यादयर्थम् । ८ ॥
सिचिर्देशः कनैव्यः | ततो वक्तव्यं तस्य च प्रहणं भ्रति तदिशोषाणां चेति |
किं प्रयोजनम् । मस्स्या्यथेम् । पक्षिमस्स्यमुगान्हन्ति [४.४.३९ | | मास्स्यिकः |
तदि शेषाणाम् । शाफरिकः शाकुलिकः | पयोयवचनानां न भवति | भनिद्मा- 1;
न्हन्तीति || अस्थैकस्य पयौयव चनस्येभ्यते | मीनान्हन्ति मेनिकः ||
अणुदित्सवणैस्य चाप्रत्ययः ॥ ९. । १ । ६९, ॥
अप्रत्यय इति किमर्थम् | सनाशंसभिक्ष उः [ ३.२.९६८ | | अ सांप्रतिके
| ४.३.९ | || अव्यल्पमिद मुच्यते प्रत्यय इति | अप्रत्ययादे शरिस्किन्मित इति
वक्तव्यम् | प्रत्यय उदाहृतम् | आदे | इदम इद्य् | ९.३.२३ || इतः इह | टिति| 20
लविता लवितुम्* | किति । बभुव | मिति । हे नदन् || ठितः परिहारः ।
भाचार्यप्रवृत्तिज्ञौपयति न टिता सव गानां महणं भवतीति यदयं रहो ऽङिरि दीर्ध
शास्ति | तरैतदस्ति श्षापकम् | नियमार्थमेतत्स्यात् | यहो ऽङिटि दीष एवेति |
यत्तर्हि वृतो वा | ७.२.३८ | इति विभाषां शास्ति ॥ सर्वेषामेव परिहारः | भाव्यमा -
नेन सवणोनां प्रहणं नेत्येवं न भविष्यति || प्रत्यये भूयान्परिहारः | अनभिधाना- 25
# ७.२, ३५. ¶ ६.४. ८८. ‡ ७,१., ९.९., § ५.२. ६७.
23 क्ष
९७८ ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् ॥ [म०९.९.९.
सत्ययः सवर्णान्न भरहीष्यति । यान्हि प्रत्ययः सवणै्रहणेन गृह्णीयान्न तैरथेस्यामि-
धानं स्यात् | अनभिधानान्न भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम् | इह केचित्पवीयन्ते
केचित्पत्याय्यन्ते | हस्याः प्रतीयन्ते दीषोः प्रत्याय्यन्ते | याबद्भूयासत्याय्यमानेन सव-
णीनां ब्रहणं नेति तावदपरस्यय इति | कं पुनर्द्षिः सवर्णमहणेन गृह्णीयात् | हस्वम्।
5 यलापिक्यान्न ब्रहीप्यति | श्रुतं तर्द गृह्णीयात् । भनण्त्यान्न अहीभ्यति । एवं तरह
सिद्धे सति यदप्रत्यय इति प्रतिषेधं शास्ति तजञ्ज्ञापयस्याचार्यो भवस्येषा परिभाष
भाव्यमानेन सवणोनां महणं नेति |
किमथे पुनरिदमुच्यते ।
अण्सवणेस्थेति स्वरानुनासिक्यकारभेदात् ॥ ९ ॥
10 अण्सवर्णस्येव्युच्यते | स्वरभेदादानुनासिक्यमेदार्कालमेदा घाण्सवर्णा च गृह्णीयात् |
इष्यते च सवणेप्रहणं स्यादिति तच्चान्तरेण यलं न सिभ्यतीत्येवमयेमिदमुच्यते |
अस्ति प्रयोजनमेतत् | किं वर्शीति।
तत्र प्रस्याहारग्रहणे सवर्णाग्रहणमनुपदेरात् | २ ॥
तन्न प्रत्याहार परहणे सवणोनां म्रहणं न प्राप्रोति | अकः सवर्ण दीधः [६.९.९०१
15 इति । किं कारणम् । अनुपदेशात् | यथाजातीयकानां संज्ञा कृता तथाजातीयकाना
संप्रत्यायिका स्यात् | हस्वानां च क्रियते हस्वानामेषव संप्रत्यायिका स्याहमीषोशां न
स्यात् || ननु च स्वाः प्रतीयमाना दीधोन्संपरत्याययिष्यन्ति |
दरस्वसंभस्ययादिति चेद् चायमाणसंप्रस्यायकत्वाच्छब्दस्यावचनम् ॥ ३॥
हस्वसंप्रस्ययादिति चेदञ्चयैमाणः शब्दः संप्रस्यायको भवति न संप्रतीयमनः।|
20 तद्यथा | ऋगिस्युक्ते संपाठमात्रं गम्यते नास्या अर्थो गम्यते || एवं तर्द वर्ण॑पा
एवोपदेशः करिष्यते |
वर्णपाठ उपदेश इति चेदवरकालत्वात्परिभाषाया अनुपदेशः ॥ * ॥
वणेपाठ उपदेशा इति चेदवरकालत्वास्परिभाषाया अनुपदेशः | किं परा खतरा
त्करियत इत्यतो ऽवरकाला | नेत्याह | सर्वथावरकाडैव | वणौना मुपदेश्ास्तावत् |
८ उपदेशो लर काठेत्संश्ञा | इत्संक्ञोलरकाल आदिरन्त्येन सहेता [९.१.७९] हति
्रस्याहारः । प्रत्याहारोच्रकाला सवर्णसंज्ञा | सवणैसंज्ञोत्तरकालमणुदित्सवर्णस्व
पा ° १.१.६९. | ॥ व्याकरगम्रहामोष्यय् ॥ १९७९
चाप्रत्यय इति | चैषोपदेशोत्तरकालावरकाला सती वणौनामुर्पतौ निमित्तत्वाय
कल्पयिष्यत हस्येतच्च ||
तस्मादुपदेराः ॥ ९ ॥
तस्मादुपदेशः कतेव्यः ||
तत्रानुवृत्तिनिदेरो सवर्णाग्रहणमनण्त्वात् || ६ ॥ ६
तत्रानुवृत्तिनिरेशे सवणीनां महणं न प्रामोति } भस्य च्वौ [७.४.२३२] यस्येति
च [६.४.१४८] | किं कारणम् । अनण्त्वात् | न देते ऽणो ये ऽनुवृत्तिनिदेे ।
के तर्हि । ये क्षरसमान्नाय उपदिरयन्ते ॥ एवं तर्धनण्त्वादनुवृन्तौ नानुपदेशाच
प्रत्याहारे न । उच्यते चेदमण्सवगोन्गृह्णातीति | तत्र वचनाद्विष्यति ॥
कचनाग॒ज तनास्ति । 10
नेदं वचनाद्वभ्यम् | अस्ति छयन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् | किम् | य एते
्रत्याहाराण्यमादितो वणौस्तैः सवणोनां महणं यथा स्यात् || एवं ताद
सवर्णे ऽण्य्रहणमपरिभाष्यमाकृैग्रहणात् ।
सवर्णे अग्रहणमपरिभाष्यम् | कुतः | भाकृतिमरहणात् | अवणीकृतिरपदिष्टा सा
सवेमव्णकुं प्रहीष्यति | तथेवणोकृतिः | तथोवणीकृतिः ॥| ननु चान्याकृतिरका- 15
रस्याकारस्य च |
अनन्यत्वाच ॥ € |
भनन्याकृतिरकारस्याकारस्य च |
अनेकान्तो श्यनन्यस्वकरः ॥
यो नेकान्तेन भेदो नासवन्यस्वं करोति । तद्यथा । न यो गोध गो भेदः 20
सो जन्यस्य करोति । यस्तु खलु गोथाश्वस्य च भेदः सो ऽन्यस्वं करोति |
अपर आहं | संवर्णेऽभ््रहणमपरिभाष्यमाकृतिमरहंणादनन्यस्वम् | सवर्गेऽण््रह-
गमपरिमाष्यम् | आकृ तिग्रहणादनन्यस्वं भविष्यति | अनन्याकृतिरकारस्वाकारस्य
च | अनेक्रान्तो ्नन्यत्वकर' | यो द्यने कान्तेन भेदो नासायन्यत्वं करोति | त्था |
नयो गो गो मेदः सो ऽन्यं करोति| यस्तु खलु गोाश्चस्यचमेदः सो
न्यस्वं करोति | |
९८० ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम् ॥ [म०९.९.९.
तदच हल्ग्रहणेषु । ९०.॥
एवं च कृत्वा हल्महणेषु सिद्धं भवति | ज्षलो दलि | ८.२.२६ | अवात्ताम्
अवात्तम् अवात्त | यत्रैतन्नास्त्यण्सवणोन्गृक्णातीति | अनेकान्तो ह्यनन्यत्वकर इत्यु -
्तायेम् |
४ हुतविलम्बितयोश्वानुपदेशात् ॥ ९९ ॥
द्र तविलम्बितयोथानुपदेश्ञान्मन्यामह आकृतिब्रहणास्सिद्धमिति । यदयं कस्यां -
चितौ वणोनुपदिरय सवत्र कृती भवति ।| अस्ति प्रयोजनमेतत् | किं तर्हीति |
वृत्तिपृथक्कं तु नोपपद्यते ॥ ९२ ॥ |
वृत्तेस्तु एथक्छं नोपपद्यते ॥
10 तस्मात्त तपर्निर्देरास्सिदम् ॥ ९३ ॥
तस्मात्तत्र तपरमनिर्देहाः कतेव्यः | न कतैव्यः | क्रियत ९तन्यास एव | अतो
भिस रेत् (७.१.९ | इति ||
तपरस्तव्कारस्य ॥ ९ ।९ । ७9० ॥
अयुक्तो अयं निर्देशः | तादिस्यनेन कालः प्रतिनिर्दिरयते तदिस्ययं च वणः |
15 तत्रायुक्तं वणेस्य काठेन सह सामानाधिकरण्यम् || कथं तर्हि निर्दश्चः कतेव्यः |
तत्कालकालस्येति | किमिदं तत्काठककाठष्येति | तस्य कालस्तत्कालः | तत्कालः
कालो यस्य सो अवं तत्कालकालः | तत्काठकालस्येति | स तर्हि तथा निर्ददाः
कतेव्यः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो तर द्रष्टव्यः | तद्यथा | उष्ूमुखभिव मुख-
मस्य सो अयमुष्ूमुखः | खर मुखः | एवं तत्कालकालस्तत्कालः | तत्कालस्येति ॥
20 अथवा साहचया ्ताच्छष्डयं भविष्यति | कालसहचरितो वर्णो अपि काठ एव ॥
किं पुनरिदं नियमा्थमाहोस्विसखरापकम् | कथं च नियमार्थं स्यात्कथं वा
प्रापकम् । यद्यत्राण्महणमनुवसेते ततो नियमार्थम् | अथ निवृत्ते ततः प्रापकम् ॥
कथात्र विदोषः | `
तपरस्तत्कालस्येति नियमार्थमिति चेहीर्षग्रहणे स्वराभिन्नाग्रहणम् ॥ ९ ॥
25 तपर स्तत्कालस्येति नियमार्थमिति चेदीर्षयहणे स्वरभिन्नानां महणं न प्रामोति ।
केष(म् । उदातानु दात्तस्वरितानाम् | अस्तु ताहि प्रापकम् ॥।
पा० १,१.७०. | ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम् ॥ ९८१
पापकमिति चेद्धस्व प्रहणे दीर्षशतपरतिषेधः ॥ > ॥
प्रापकमिति वेद्ध स्वग्रहणे दीरधश्चतयोस्तु प्रतिषेधो वक्तव्यः ॥
विप्रतिषेधास्सिद्धम् 11 ३ ॥
अण्सवर्णान्गृह्णातीस्येतदस्तु तपरस्तत्कालस्येति वा तपर स्तत्कालस्येत्येतद्भवति
विप्रतिषेधेन । भण्सवणोन्गृह्णातीत्यस्यावकाडाः । हृस्वा अतपरा अणः | तपरस्त- 5
व्कालस्येत्यस्यावकाशचः | दीषास्तपराः । हृस्वेषु तपरेषूभयं प्राभोति | तपर स्तत्का-
लस्येत्येतद्भवति विप्रतिषेधेन ॥ यद्येवं
दुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरूपसंख्यानं कालभेदात् ॥ ४ ॥
द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरपसंख्यानं कतेव्यं तथा मध्यमायां
दुतविलसम्बितयोस्तथा विलम्बितायां दुतमध्यमयोः | किं पुनः कारणं न सिध्यति | 10
कालभेदात् । ये हि द्रुतायां वृत्तौ वणोज्ञिभागाधिकास्ते मध्यमायां ये मध्यमायां
वणाजिभागाषिकास्ते विरम्बितायाम् |
सिद्धं त्ववस्थिता वणां वक्तश्िराचिरवचनादृत्यो विशिष्यन्ते ॥ ५॥
सिद्धमेतत् । कथम् । अवस्थिता वणो द्ुतमध्यमविलस्बिताद्ध | किंकृतस्तर्ि
वृत्तिविरोषः | वक्तुधिराचिरवचनादूतयो विशेष्यन्ते | वक्ता कथिदाशमिधायी 15
भवति । आद्य वणानभिधन्ते | कथिचिरेण कथिधिरतरेण | तद्यथा | तमेवाध्वानं
कथिदाश्चु गच्छति कथिधिरेण गच्छति कथिचिरतरेण गच्छति | रथिक भाद्यु
गच्छल्याधिकथिरेण पदातिधिरतरेण || विषम उपन्यासः । अधिकरणमक्राभ्वा
व्रजतिक्रियायाः । तत्रायुक्तं यदधिकरणस्य वृद्धिहासौ स्याताम् || एवं तार्हि स्फोटः
शाब्दो ध्वनिः शब्दगुणः | कथम् । भेयोषातवत् । तद्यथा भेयोघातः | भेरीम।इत्य 2
कथिर्हिश्ाति पदानि गच्छति कथिक्निरहात्कथिचत्वारिंशत् । स्फोटशथ्च तावानेव
भवति ध्वनिकृता वृद्धिः ॥ | |
ध्वनिः स्फोट शब्दानां ध्वनिस्तु खलु रक्ष्यते ।
भल्पो महां केर्षाचिवुभयं तस्स्वभावतः ||
१८२९ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ [०९.९९
आदिरन्येन सहेता ।॥ १. । ९ । 9९ ॥
आदिरन्त्येन संहेतेत्यसेभव्ययः संज्ञिनो अनिर्देशात् ॥ ९ ॥
आदिरन्त्येन सहेतेत्यसंप्रस्ययः | किं कारणम् । संश्जिनो ऽनिर्देशात् | न हि
संज्ञिनो निंिदयन्ते ||
९ सिद्धं त्वादिरिता सह तन्मध्यस्थेति वचनात् ॥ २॥
सिद्धमेतत् । कथम् । भादिरन्त्येन सकेता गृद्यमाणः स्वस्य च रूपस्य माह-
कस्तन्मध्यानां चेति वक्तव्यम् ॥
संबन्धिदराब्देरवा तुल्यम् ।। ३ ॥
संबन्धिशन्दैवा तुल्यमेतत् । तद्यथा संबन्धिराब्दाः | मातरि वर्तितव्यं पितरि
10 शयुभ्रूषितव्यमिति. | न चोच्यते स्वस्यां मातरि स्वस्मिन्पितरीति संबन्धाश्च गम्यते
या यस्य माता यथ यस्य पितेति । एवमिहाप्यादिरन्त्य इति संबन्धिदाब्दावेती ।
तत्र संबन्धादेतद्नन्त््यं यं प्रत्यादिरन्त्य इति च भवति तस्य महणं भवति स्वस्व
येन विधिस्तदन्तस्य ॥ १. । १ । ७२ ॥
15 इह कस्मान्न भवति | इको यणचि [६.१.७७] दध्यत्र मध्वत्र | भस्तु | अलो
ऽन्त्यस्य विधयो भवन्तीस्यन्त्यस्य भविष्यति" | तवं शक्यम् | ये जकार अदे-
शास्तेषु दोषः स्यात् । एचो ऽयषायावः [६.१.७८] इति । नैष दोषः । यथैव
प्रकृतितस्तदन्तविधिभेबत्येवमादेश्तो ऽपि भविष्यति | तत्रैजन्तस्यायाद्यन्ता आ-
देश्शा भविष्यन्ति ॥ यदि चैवं कचिदैरूप्यं तत्र दोषः स्यात् | अपि चान्तर डुबहि-
0 रङे न प्रकल्येयाताम् । तत्र को दोषः | स्योनः स्वोना | अन्तरङ्रक्षणस्य यणा-
देशस्य बहिरङ्लक्षणो गुणो‡ वाधकः प्रसज्येत | ऊनशब्दं ध्याभ्रित्य यणादेशो
नशब्दमाभनिस्य गुणः ॥ अल्विधि न प्रकल्पेत | शोः पन्थाः स ` इतिश ॥
तस्मात्मरकृते तदन्तविधिरिति वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | येनेति करण एषा तृतीया ।
भन्येन चान्यस्य विधिभेवति | तद्यथा । देवदत्तस्य खमा शारावैरोदनेन च यञ्च-
# ९.९. ५२. ¶† ६.९. ७७. { ७.३. ८६. ९,६.५३. ¶ ०.९. ८४; ८५; ०.२० ९०द्
प° ९.१.०९-५२.] ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् ॥ १८६
दत्तः प्रतिविधत्ते | तथा संपामं हस्स्यश्चरथपदातिभिः । एवमिहाप्यचा धातोयतं
विधत्ते* | अकारेण प्रातिपदिकस्येञं विधत्ते |
येन विधिस्तदन्तस्येति चेदुहणोपाधीनां तदन्तोपाधिपरसङ्गः ॥ ९॥
येन विधिस्तदन्तस्येति चेद्रहणोपाधीनां तदन्तोपाधिताप्रसङ्गः | ये म्रहणोपाधयस्ते
पि तदन्तोपाधयः स्युः | तत्र को दोषः | उतश्च भरत्ययादसंयोगपुवौत् [६.४.१०६] 5
इत्यसं योगपूवैमरहण मुकारान्तविदोषणं स्यात् । तत्र को दोषः। असं योगपुवैम्रहणेनेह त्र
पयुदासः स्यात् | भक्ष्णुहि तश्ष्णुहीति | इह न स्यात् | आमहि श्नुहीति । तथोदो-
पूवस्य [७.९.९०१] इत्यो्टधपूवेम्रहणमृकारान्तविदोषणं स्यात् | तन्न को दोषः।
ओश्यपूवैमहणेनेह च प्रसज्येत । संकीणेमिति | इह च नस्यात् | निपतीः
बिण्डा इति ॥ | । 10
सिद्धं तु विदोषणविरोष्ययोर्ययेष्टत्वात् ॥ ‰ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | यथेष्टं धिरोषणविशेष्ययोर्योगो भवति | यावता यथेष्ट
भिह तावदुतश्च प्रस्ययादसंयोगपुवं दिति नासंयोगपवे्हणेनोकारान्तं विशोष्यते ।
ररि तरि | उकार एव विशेष्यते | उकारो यो ऽसंयोगपवैस्तदन्तासख्स्ययादिति ।|
तथोदोष्ठघपूर्वस्येति नौषठचपूर्वमहणेन ऋएकरान्तं विशोष्यते | किं तर्द । ऋकार 15
एव विद्येष्यते | ऋकारो य ओष्ट्पुवेस्तदन्तस्य धातोरिति ॥
समासप्रस्ययविधो प्रतिषेधः ॥ ३ ॥
समासविधौ प्रत्ययविधौ च प्रतिषेधो वक्तव्यः || समासविधौ तावत् | हितीया
भ्रितादिभिः समस्यते{ । कष्ट्नितः नरकभ्नितः | कष्टं परमश्रित इत्यत्र मा भूत् ॥
प्रत्ययविग्ौ | नडस्यापत्यं नाडायनः९ | इष्ट न भवति | सखूजरनडस्यापत्यं तौज्रना- 20
डिः || केमविशोषेण । नेत्याह । |
उगिदर्णंग्रहणवजम् ॥ ४ ॥
उगिद्भहणे वणग्रहणं च वजेविस्वा | उगिद्रहणम् । भवती अति्मवती महती
अतिमहती | वणम्रहणम् ¡ अत इञ् [४.१.९९ | दाक्षिः आकिः || अस्ति चेदानीं
कशित्केवलो ऽकारः प्रातिपदिकं यदर्थो विधेः स्यात् । अस्तीत्याह । अततेडः 2
अः तस्यापत्यम् अत इञ् इः ॥
#* ३.९. ९५. † ४.९. ९५. ‡ २.९. २४. $ ४.६९. ९९. व ४.९६. ९.
८ । घ्याकरगमहाभाष्यम् ॥ [ म०९.९.९.
अकच््मम्बतः सवैनामाग्ययधातुविधावुपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
अकज्वतः सवैनामाव्ययविपौ श्रम्बतो धातुविधावुपसंख्यानं कतेव्यम् । भक-
ज्वतः | सर्वके विश्वके" । अव्ययविषौ । उद्यकैः नीचकैः† | शम्बतः | मिनि
छिनन्ति{ || किं पुनः कारणं न सिध्यति | इह तस्य वा ब्रहणं भवति तदन्तस्य
४वा न चेदं तच्चापि तदन्तम् ॥
सिद्धं तु तदन्तान्तवचनात् |} & ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । तदन्तान्तवचनात् । तदन्तान्तस्येति वक्तव्यम् । किमिदं
तदन्तान्तस्येति । तस्यान्तस्तदन्तः | तदन्तो ऽन्तो यस्य तदिईं तदन्तान्तम् | तदन्ता-
न्त्येति | स तर्हिं तथा निर्देशः कतैव्यः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो जत्र द्रशटव्यः।
10 तद्यथा | उष्ूमुखमिव मुखमस्योष्रमुखः | खरमुखः | एवमिहापि तदन्तो न्तो
यस्य. तदन्तस्येति ||
तदेकदेशाविज्ञानाद्रा सिद्धम् ।। ७ ॥
तदेकदेशविज्ञानाद्वा पुनः सिद्धमेतत् | तदेकदे शभुतस्तद्रहणेन गृह्यते । तद्थधा |
गङ्गा यमुना देवदत्तेति । भनेका नदी गङां यमुनां च प्रविष्टा गङ्गायमुनाग्रहणेन
15 गृह्यते । तथा देवदन्तास्थो गर्भो देवदत्ता्रहणेन गृ्यते || विषम उपन्यासः | इह
केचिच्छब्दा अक्तपरिमाणानामथोनां वाचका भवन्ति य एते संख्याशब्दाः परि-
माणक्रब्दाथ | पञ्च सप्ते्येकेनाप्यपाये न भवन्ति | द्रोणः खायौढकमिति नैवा-
धिके मवन्ति न न्युने | केचिद्या वदेव तद्भवति तावदेवाहु्यं एते जातिराब्दा गुण-
शाब्दा | तैलं घृतमिति खायौमपि भवन्ति द्रोणे ऽपि | शङ्को नीरः कृष्ण इति
20 हिम्रवत्यपि भवति वटकणिकामात्रे अपि द्रव्ये | इमाथापि संज्ञा अक्तपारिमाणाना-
मथौनां क्रियन्ते ताः केनाधिकस्य स्युः || एवं तद्यौचाथप्रवृत्तिज्गौपयति तदेकदे श-
भूतं तद्रहणेन गुद्यत इति यदयं नेदमदसोरकोः [७.९.११] इति सककारयोरि-
दमदसोः प्रतिषेधं शासि | कथं कृत्वा ज्ञापकम् । इदमदसोः कायैमुच्यमानं कः
प्रसङ्गो यस्सककारयोः स्यात् । परयति स्वाचार्यस्तदे कदे शभूतं तद्रहणेन गृद्यत इति
‰ ततः सककारयोः प्रतिषेधं शास्ति ||
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि |
भै ७.९, १.७१ † २.४० ८२१ १ ६.९. १६२.
पा* १.९.७२. ] ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम् ॥ १८५ .
प्रयो जनं स्बनामाव्ययसंज्ञायाम् | ८ ॥
स्वनामाव्ययसंज्ञायां प्रयोजनम्* | सर्वे परमसर्वे विशे परमविश्वे | उचैः पर-
मोचैः नीशचैः परमनीचैरिति ॥
उपपदविधौ भयादचादिग्रहणम् ॥ ९ ॥।
उपपदविधौ मयाद्यादिग्रहणं प्रयोजनम्† | भयंकरः . जमयंकरः | भाद्यं- $
करणम् स्वाद्यकरणम् ॥
डीव्विधावुगिद्रहणम् ॥ ९० ॥
डीम्विधावुगिद्रहणं प्रयोजनम् । भवती अतिभवती । महती अतिमहती ॥
प्रतिषेधे स्व्लादि ग्रहणम् ॥ ९९ ॥
प्रतिषेभे स्वल्लादि महणं प्रयोजनम्९ | स्वसौ परमस्वसा | दुहिता परमदुहिता |} 10
अपरिमाणविस्तादिग्रहणं च प्रतिषेधे ॥ ९२ ॥
अपरिमाणविस्तादिमरहणं च प्रतिषेधे प्रयोजनम् | भपरिमाणविस्ताचितकम्बल्ये -
भ्यो न तदितलुकि [४.१.२२] । हिविस्ता हिपरमविस्तां । त्रिविस्ता त्रिपरम-
विस्ता । द्याचिता ईिषपरमाचिता ॥ |
दिति ॥.९३॥ 15
दितिग्रहर्णं च प्रयोजनम् | दितेरपद्यं दैत्यः | अदितेरपत्यमादिव्यः | दित्य-
हित्यादित्य [४,१.८९ | इत्यदितिमहणं न करतष्यं भवति ॥
रोण्या अण् ॥ ९४ ॥
रोण्या अण्पहणं च प्रयोजनम्¶ । आजकरोणः सँहकरोणः ॥
तस्य च ॥ ९९ ॥ %0
तस्य चेति वक्तव्यम् | रौणः || किं पुनः कारणं न सिध्यति | तदन्ताच्च तदन्द-
विधिना स्सिद्धं केवलाच्च व्यपदेशिवद्भावेन | व्यपदेशिवद्भावो प्रातिपदिकेन | किं
पुनः कार्णं व्यपदेशिवद्भावो पातिपदिकेन ।. इह दुत्रान्ताइग्भवति दशान्ताङ़ो
* २.९. २७; १७, † २.३, ४२; ५९. ‡ ४.९. ६. $ ५,२९.१२० ¶ृ ५.२.०८.
24 4
१८६. ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ [म०९.९.९.
भवतीति केवलादुल्पत्तिमौ भूदिति । नैतदस्ति प्रयोजनम् । सिद्धमध्र तदन्ताच
तदन्तविधिना केवलाच्च व्यपदेशिवद्भावेन | सो अयमेवं सिद्धे सति यदन्तम्रहणं
करोति तज्ज्ञापयत्याचायैः खान्तादेव द शान्तादेवेति | नात्र तदन्तादुत्पत्तिः प्रामोति ।
इदानीमेव युक्तं समासपरस्ययविषौ प्रतिषेष इति ॥ सा तर्चेषा परिभाषा कतेव्या |
5 न कतैव्या । आ चार्यभरवृत्तिज्ञापयति व्यपदेशिवद्धावो अ्ातिपदिकेनेति यदयं पुवो-
दिनिः सपूर्वाच्च -[९.२.८ ६१८७] इत्याह । नैतदस्ति ज्ञापकम् । भस्ति घ्यन्यदे-
तस्य वचने प्रयोजनम् । किम् । स्पूवौत्पुवोदिनिं वक्ष्यामीति । . यत्ति योगवि-
भागं करोति । इतरथा हि पृबौत्सपुवोदिनिरित्येव त्यात् ॥ किं पुनर यमस्यैव शोष -
स्तस्य चेति | नेत्याह । यचानुक्रान्तं यचानुत्र स्यते सरवैस्थैव शेषस्तस्य चेति ॥
10 रथसीताहखेभ्यो यद्विधो ॥ ९६ ॥
, रथसीताहलेभ्यो यद्विधौ प्रयोजनम्। | रथ्यः पंरमरथ्यः | सीत्यम् परमसीत्यम् |
हल्या परमहल्या ॥
सुसर्वाधदिक्राब्देभ्यो जनपदस्य ॥ ९७ ॥
डसवो्दिकदाब्देभ्यो जनपदस्य प्रयोजनम्‡ | उपात्चालकः खमागधकः | इ ||
15 सवे | सवेपात्चाठकः सवैमागधकः | स्वं | अधे | अपपात्चालकः अधमागषकः।
अधं ॥ दिकदाब्द । पुर्वैपाञ्चालकः पूर्वमागधकः ||
ऋतोवृदधिमदिधाववयवानाम् । ९८ ॥
ऋतो वृदधिमद्विधाववयवानां प्रयोजनम् । पूवेशारदम् भपर शारदम् । पुवेनैदाषम्
जपरनेदाषम् ॥
20 , . ठञ्विधो संख्यायाः ॥ ९९ ॥
ठञ्विपौ संख्याया; प्रयोजनम्¶ । दिषाष्टिकम् पतचषािकम् ॥
धमान्नजः || २० ॥
धमीन्नञः प्रयोजनम्" | धमै चरति धार्मिकः | अधर्म चरत्यापर्मिकः | अष-
मोचेति1† न वक्तव्यं भवति |
# ४. २. ६०; ९.२.४५. † ४.३. २१ ४.४. ७६; ९१; ९०. ` ‡ ४.२. ९२५; ७,२३.२२; ९३.
†+ ४.२. ९६; ९.३. १२२. व्] ९.९, ५७; ५८; ९८; १९. #**# ४.४. ४९१, 11 ४.४. ४९४,
पा० ९.९.७२. | ॥. व्याकरणमहाभाष्य प्र ॥ - १८७
पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुत्तरपदस्य च ॥ २९॥
पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुत्तरपदस्य चेति वक्तव्यम् || पदाधिकारे किं
प्रयोजनम् |
प्रयोजनमिष्टके षीकामालानां विततुल्भारिष्* ॥ ९२ ॥
इष्टकचितं चिन्वीत पक्र्टकचितं चिन्वीत | इषीकतूलेन मुक््ेषीकतृेन | $
माठमारिणी कन्या उत्पलमाठभारिणी कन्या || अद्धाधिकारे कि प्रयोजनम् ।
महदप्स्वसूनपरृणां दीर्घविधौ ॥ ९३ ॥
महदप्स्वल्नघ्रणां दीषविधौ† प्रयोजनम् || महान् परममहान् । महत् | भप् |
आपस्तिष्ठन्ति स्वापसिष्ठन्ति । अप् || स्वसृ | स्वसा स्वसारौ स्वसारः परमस्वसा
प्रमस्वसारौ परमस्वसारः | स्वसृ || नप्र | नपा नारौ नघरारः | एवं पर मनप्रः10
परमनपारौ परमनपरारः ॥
१दुष्मदस्मदस्थ्याद्यनङ्हो नुम् ॥ ५४ ॥
पद्भावः प्रयोजनम्+ | हिपदः पद्य | अस्ति चेदानीं कथित्के वलः पाच्छष्दो यदर्थो
त्रिधिः स्यात् | नास्तीव्याश् | एवं तद्यङ्काधिकारे प्रयो जनं नास्तीति कृत्वा पदयधि-
कारस्थेदं प्रयोजनमुक्तम् | हिमकाषिहतिषु च [ ६.३.९४ | | यथा पत्काषिणौ 15
पत्काषिण एवं परमपत्काषिणी परमपत्काषिणः | यदि तर्द पद्यापिक्टे पादस्य
तदन्तविधिभेवति पादस्य पदाज्यातिगो पडतेषु [६.३.९५ १] यथेह भति । पादेनोपहतं
पदोपहतम् | अत्रापि स्यात्| दिग्धपादेनो पहतं दिग्ध्रदोपहतमिति ] एवं तद्यद्गधिकार
एव प्रयोजनम् | ननु चोक्तं नास्ति केवलः पाच्छब्दः इति | अयमस्ति. पादयतेरप-
त्ययः पात् | प्रदा पदे | पद् || युष्मद् भस्मद् । युयम् वयम् अतियूयम् 2
अतिवयम् | अस्थ्यादि॥ | भस्थ्ना दका सक्थ्ना परमास्थ्ना प्रमदधा परमस-
क्थ्ना || अनडुहो नुम् ˆ । अनान् परमानद्धान् ॥
दयुपथिमयिपुंगोसखिवतुरनडननिग्रहणम् ॥ ५९ ॥
श पथिमथिपुंगोसविचतुरनडुन्निमहणं प्रयोजनम् 11 । थीः खशः | पन्थाः खप-
न्थाः | मन्थाः मन्थाः परममन्थाः | पुमान् परमपुमान् । गौ: खगः | सखा सखायौ 25
~ # ६.३.६५. + ६.४.९०; १९. { ६.४.९२०, § 9.२. ८६;९द. 4 ७,९.७५,
.' ## ७.१.८द्. ¶1† ७.६. ८४ ; ८५ ; ८९ ; ९० ; ९२३९८ ; ५३.
९८८ ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् ॥ [०९.१९
सखायः सखा सखायौ सखायः परमसखा परमसखायौ परमसखायः ।
चत्वारः पर मचत्वारः । अनद्धाहः परमानङ्ाहः । त्रयाणाम् परमच्रयाणाम् ॥
त्यदादिविधिभस्त्ादिस्त्ीग्रहणं च || २६ ॥
त्यदारिविधिभरखादिखी महण च प्रयोजनम् | सः भतिसः° | मलका भलिका
£ निभेखका निभजिका बहभलका बहुभलिका† | लीपहणं च प्रयोजनम् | लिवौ
जियः राजजियौ राजलियः ||
बणेग्रहणं च सषैत्र ॥ २७ |
` र्णग्रहणं च सवत्र प्रयोजनम् | क सयैत्र | अङ्गाधिकारे चान्यत्र च | भन्य-
श्रोदाहतम् । अङ्गाधिकारे | भतो दीर्घो याञ पि च [७,३.९०९.-१०२| इहेव
10 स्यात् भाग्याम् | षटान्यामित्यत्र न स्यात् |
प्रत्ययग्रहणं चापश्चम्याः ॥ २८ |.
प्रत्ययम्रहणं चापश्चम्याः प्रयोजनम् | यिनः फकग्मवतिऽ | गाग्योयणः वा-
सस्यायनः प्ररमगाग्योयणः प्रमवास्स्यायनः | भपभ्चम्या इति किमथम् | दृष -
सीणौ परिषन्तीणो ||
15 अङैवानथैकेन नान्थेनानर्थकेनेति वच्कव्यम् | ककि प्रयोजमम् | हन्प्रहणे ्ी-
इन्पहणं मा भूत् | उद्हणे11 गमुद्हणम् | खीभदणेः‡ शालीम्रहणम् | संमरहणे$
पायसं करोतीति भा भूत् ॥ किमथेमिदमुच्यते न पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुरषर-
पदस्य चेत्येव सिद्धं न. चेदं तच्ापि तदुत्तर पदम् । तत्त वक्छव्यं भवति | किं पुनरब्र
्यायः | तदन्तविधिरेव ज्यायान् | इदमपि सिदध भवति । परमातिमहान् | एतडधि
90 त्रैव तन्नापि तदुन्तरपदम् || अनिनस्मन्प्रहणानि चाथेवता चानथेकेन च तदन्तविधि
प्रयोजयन्ति | अन् । राक्तेत्यथेवता सापनेत्यन्थकेन ¶¶ | भन् ॥ इन् । दण्डीस्यथे-
वता वाग्मीत्यनथेकेन+** | हन् || अत् | पया इत्यथेवता छसरोता इत्यनये-
केन††† | अस् | मन् । छरशामैत्यथैवता इभ्रधिमेत्यनर्थकेन{‡ {| भन् ॥
यस्मिभ्विधिस्तदादावल्प्रहणे ॥ २९ ॥
2 अल्पहणेषुं यस्मिन्विधिस्तदादाविति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् | भवि श्चुषातु-
म का मा तमा
+# ६.४. ९१. †† ८.४. ६१ युं ६.४. ०९. §8§ ६.९.९३७. ` बून ६.४.९१४.
+*# ६.४. ६२; १३. 4111 ६,४.९४. {{{ ४.९. ९६.
प्रा०९.१.५२. ] ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम् ॥ १८२.
भुवां य्वोरियदुवडौ [ ६.५,७७ ] इतीहैव स्यात् भ्रियौ भुवौ | प्रियः भुव
इत्यत्र न स्यात् ॥
वृदियस्याचामादिस्तदरधम् ॥ १. । १.1 9३. ॥
बृद्धि्रहणं किमयेम् । यस्याचामादिस्तद्ृडमितीयस्युच्यमाने दात्ताः राक्षिताः
भव्रापि प्रसज्येत । वृद्धिमहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || भथ यस्यम्रहणं &
किमर्थम् | यस्येति ब्यपदेशाय ॥ अथाज्पहणं किमयेम् | वृद्धियैस्यादिस्त-
हृदमितीय्युच्यमान इहैव स्यात् । ेतिकायनीयाः ओपगवीयाः । इह न स्यात् |
गार्गीयाः वास्सीया इति | अञ्ग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || अथादिय-
हणं किमर्थम् | वृद्धियस्याचां तदृडमितीयस्युच्यमाने सभासंनयने भवः साभासंनयन
इत्यत्र प्रसज्येत | आदिग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति ||
वृदरसज्ञायामजसंनिवेशादनादिस्वम् ॥ ९ ॥
वृद्धसंश्ञायामजसंनिवेशादादिरिष्येतच्रोपपद्यते | न चां संनिवेदो ऽस्ति || ननु
वैवं विज्ञायते ऽजेवादिरजादेरिति । त्रैवं शक्यम् | इरैव प्रसज्येत -। ओपगवीयाः |
इह न स्यात् | गार्गीया इति || एकान्तादित्वं तर्हि विज्ञायते |
ए्कान्तादितवे ब सवपरसङ्गः॥ ९॥ . 18
इहापि प्रसज्येत | सभासंनयने भवः साभासंनयन इति ||
सिद्धमजाकृतिनिर्देात ॥ ३।।
सिद्धमेतत् | कथम् । भजाङृतिर्मिर्दिरयते || एवमपि व्यश्जतरर्यैवहितस्वान्न
प्रामोति |
10
व्यश्जनस्यावि मानत्वं यथान्यव ॥ ४ ॥ 20
वयश्च्रनस्याविश्यमानवद्धावो वक्तव्यो यथान्यत्रापि व्यस्ञनस्याविशमानवद्धावो
भवति | कान्यत्र | स्वरे ॥ -
वा नामधेयस्य ।। ५ ॥
या नामधेयस्य वृद्धसंज्ञा वक्तव्या । देवदन्तीयाः* दैवदत्ताः | यक्ञरत्तीयाः
. याञ्चदसाः ॥ . 25
। क ४.२. ९९४.
१९० ॥ व्याकरणमहाभाष्य य्॥ ` [मण ९.१९
गोत्रोत्तरपदस्य च ॥ ६ ॥
गोत्रोत्तरपदस्य च वृद्धसंज्ञा वक्तव्या | कम्बलचारायणीयाः ओदनपाणिनीयाः
घृतरौढीयाः ॥
गोचान्तादासमस्तवत् ॥ ७ ॥
$ गोजान्ताद्वासमस्तवतत्ययो भवतीति वक्तव्यम् | एतान्येवोदाहरणानि || किम-
विज्लोषेण । नेत्याह । |
जिद्ाकास्यहरितिकात्यवजंम् ॥ ८ ॥
जिहाकात्यं हरितकात्यं च वजेवित्वा । जेहयाकाताः हारितकाताः ॥ किं पुनर
ज्यायः | गोत्रान्ताद्वासमस्तवदित्येव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भवति | पिङ्गलका-
10 ण्वस्य च्छान्लाः वैद्धलकाण्वाः" ||
त्यदादीनि च ॥ ९ । १ । 99 ॥
यस्याचामादिग्रहणमनुवतैत उताहो न [किं चातः | यद्यनुवतेत इह च प्रस-
ज्येत तस्वद्पुत्रस्य च्छन्नास्स्वात्पुत्राः मात्पुज्राः | इह च न स्यात् त्वदीयः मदीय इति|
अथ निवृत्तमेड प्राचां देर [ ९.९.७९ ] यस्याचामादिम्रहगं कतेष्यम् | एवं तद्चै-
15 नुवतैते | कथं स्वास्पुत्राः मास्पुत्रा इति । संबन्धमनुवर्तिष्यते । वृद्िर्यस्याचामादि-
स्ह दम् । त्यदादीनि च वृद्धसंज्ञानि भवन्ति । वृद्धियैस्याचामादिस्तह्द्धम् | एङ्
भ्राचां देशे | यस्याचामादिग्रहण मनु वतेते वृडिब्रहणं निवृत्तम् | तद्यथा | कित्का-
न्तारे समुपस्थिते सा्थमुपादत्ते। स यदा निष्कान्तारीभूतो भवति तदा साथै जहाति॥
एङ् प्राचां देशे ॥ १ ।१ । -9^ ॥
20 एङ् प्राचां देशे दैषिकेध्विति वक्तव्यम् । तपुरिकी चेपुरिका | स्कौनगरिकी
स्वौनगरिकेति। ॥
इति श्रीभगवत्पतच्जञालिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याभ्यायस्य प्रथमे पारे
नवममाद्धिकम् || पादथ समाप्तः ॥
` -*५,२९९९. † ४.२.९९५.
गाङ्कखादिभ्यो ऽञ्णिन्ङित् ॥ १. । २।९.॥
कित्किदहचने तयोरभावादप्रसिद्धिः ॥ ९ ॥
डिच्किङ्क चने तयोरभावान्डगकारककारयोरभा वान्डित्त्वङि च्व योरपरसिद्धिः | सता
दयभिसंबन्धः शाक्यते कर न चात्र ङकारककाराविती पयामः । तद्यथा | चित्-
गद वदत्त इति यस्य ता गावो भवन्ति स एव ताभ्यां शब्दाभ्यां शाक्यते ऽभिसं-
बन्दुम् ॥ भाव्येते तद्येनेन । गाङटादिभ्यो अञ्णिन्डिद्भवतीति । भसंयोगािद्
किङ्धवतीति ।
भवतीति चेदादेगप्रतिषेधः ॥ ५ ॥
भवतीति ेदादेशस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः| ङकारककारावितावदिकौ प्रामुतः |
कथं पुनरित्संज्ञो नामादेदाः स्यात् । किं हि वचनान्न भवति || एवं तर्हि षीनि- 10
िष्टस्यादेशा उच्यन्ते न चात्र षष्ठीं प्रयामः । गाङ्टादिभ्य इत्येषा पञ्चम्यञ्णि-
दिति प्रथमायाः बरी प्रकल्पयिष्यति तस्मादिस्युत्तरस्य [९.१.६७] इति ॥ संज्ञा-
करणं तर्हीदम् । गाङ्टादिभ्यो ऽञ्णिन्ङित्संज्ञो भवतीति | असंयोगाधिटित्संज्ञ
मवतीति ।
संज्ञाकरणे कि द्रहणे असंम्त्ययः गाब्दभदात् ॥ ३ | ` 15
संज्ञाकरणे क्द्रहणे ऽखंप्रत्ययः स्यात् । किं कारणम् । शब्दभेदात् । नन्यो
हि शब्दः क्तीत्यन्यः कितीति डिम्तीति च | तथा किद्रदणेषु डिदद्रहणेषु चानयो-
रेव संप्रत्ययः स्यात् ॥ तद्दतिदेरास्तह्येयम् । गाङ्कटादिभ्यो अञ्णिन्डिङद वतीति ।
संयोगादि दृद्धवतीति । स तार्है वतिनिर्देशः कतैव्यो न ह्यन्तरेण वतिमति-
देशो गम्यते । भन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते | तद्यथा | एष ब्रह्मदत्तः | 20
अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति | एवमिषशष्य-
रितं डिरित्याह _डिङदिति गम्यते | भकितं किदित्याह कि्कदिति गम्यते ।
॥ "शिषे पम
^ * ६० २, ९
१९२ ॥ ध्याकर्णमहभाष्यभ् ॥ [म०९.२.९.
तद्दतिदेो ऽकिद्विधिपमरसङ्गः । ४ ॥
तृदतिदेरे अकिदिषिरपि भरामोति । खजिदृशोकषैल्यमकिति [६.९.५८] । ति-
सृ्षति दिदृक्षते | भकिलक्षणो ऽमागमः प्रामोति ॥
सिद्धं तु प्रसज्यपरतिषेधात् ॥ ५ ॥
$ सिद्धमेतत् | कथम् । प्रसञ्यायं प्रतिषेधः क्रियते किति नेति ॥
सरव॑त्र सनन्तादात्मनेपदप्रतिषेधः ॥ ६ ॥
सर्वेषु पक्षेषु सनन्तादात्मनेपदं प्रामोति । उशुकुटिषति निचुकुटिषति | डितं
इत्यात्मनेपदं प्राभोति† तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः ||
सिद्धं तु पूर्वस्य का्यातिदेरात् ॥ ७॥
10 कसिदधमेतत् । कथम् । पूवस्य यत्काय तदतिदिदयते । किं वक्तव्यमेतत् | न €ि |
कथमनुच्यमाने गस्यते । सम्नम्यर्थेऽपि वतिभेवति | तद्यथा । मथुरायामिव मथुरा.
वत् | पाटलिपुञ्र इव .पाटलिपुत्रवत् । एवं छतीव डित् ||
अथ किमथे ृथङ्धित्किती क्रियेते न स्वै किदेव वा स्यान्डिदेव धा ।
पृथगनुबन्धत्वे प्रयोजनं वधिस्वपियजादीनामसंप्रसारणं सार्वधातु-
15 कषडादिषु || ८ ॥
पथगनुबन्धस्वे प्रयोजनं वचिस्वपियजादीनामसंप्रसारणं सार्वधातुके चादिषु
च{ | सार्वधातुके प्रयोजनम् । यथेह भवति छपरः उपरवानिस्येवं स्वपितः स्वपिथः
भतरापि प्रामोति || चडादिषु प्रयोजनम् । के पुनडदयः | चङ्ड्जिङ्ङनिवथ-
उनडः| चङ् | यथेह भवति श्यनः द्यूनवानित्येवमिश्ियत् अत्रापि प्राभोति । अङ् |
20 यथेह भवति द्यून: उक्त इत्येवमश्वत् अवोचत् अत्रापि प्राभोति | भजिञ् | यथेह
भवति छपर इत्येवं स्वमक् अत्रापि प्रामोति ङनिप् । यथेह भवतीष्ट इत्येवं यज्वा
अत्रापि प्राभोति | अथडः | यथेह भवस्युषित इत्येवमावसथः त्रापि प्रामरोति |
भङः | यथेह भवतीष्टमिव्येवं यज्ञः अक्रापि प्रामोति ॥
| जाग्रो गुणविधिः ॥ ९॥
25 जागर्तेर गुणविधिः प्रयोजनम् । यथेह भवति जागृतः जागृथ इस्यञितीति प-
यदास एवं जागरितः जागरितवानित्यत्रापि प्रामोति ॥|
* ९.२.९०. ९.२.९२. † ९.९.९९ , §१२.८९
¶०. ६.२.४.| ॥ भ्याकरणमहामाध्यम् ॥ १९१४
अपर भह | जामो गुणविधिः | जागर्तेगणविंधिः प्रयोजनम् | ययेह भवतिं
जागरितः जागरितवानिव्येवं नागतः जागृथ इत्यत्रापि प्रामोति ॥
कुटादीनामिट्भतिषेधः || ९० ॥
कुटादीमामिट् प्रतिषेधः प्रयोजनम् । यथे भवति ठुत्वा पुस्वा ब्युकः किति
[७.२.११] इतीट् भतिषेथ एवं मुषिता धूषिता अत्रापि प्रामोति ॥
च्ायां कित्मरतिषेधश्च ॥ ९९ ॥
रायां कित्परतिषेधशच प्रयोजनम् | किं च | हट प्रतिषेध | नेत्याह | भदेदोऽवं चः
पठितः | ऋायां च किततिषेध इति | यथेह भवाति देवित्वा सेवित्वा न ्का सेट्
| १,२.९८ | इति प्रतिषेध एवं कुटित्वा पुटित्वा अत्रापि प्राभरोति ॥ अथवा देद्य
एवायं चः पठितः | रायां किलतिमेधशेटुप्रतिषे धश्च | कित्मतिषेध उदाहतम् | इद्प्र-10
तिषेषः | यथेह भवति लत्वा पुत्वा भयुकः कितीतीयूप्रतिषेध एवं नुवित्वा धुवित्वा
मत्रापि प्राति | स्यदेतलसयोजनं मद्यस्य नियोगत आतिदेशिकेन रिम्तेनीपदे शिक
किरं बाध्येत | सत्यपि तु डिन्वे किदेधैष, । तस्मान्ूत्वा धूस्वेतस्येव भवितष्यम् |
सार्वधातुकमपित् ॥ ९.।२। ४ ॥
खावेधातुकमहणं किमथेम् । अपिदितीयस्युष्यमान भापेधातुकस्याप्यनेनापितो 1
डस प्रसज्येत । कतौ हतौ | वैष दोषः । आचायेप्रृत्तिज्ञोपयति नानेनापेधातु-
कस्यापितो छिव भत्रतीति यदयमाधेधातुकीयान्कां्िन्डितः करोति चङ्ङ्जि
ङ् डनिबथ ड नडः | सावेधातुके ऽप्येतज्ज्ञापकं स्यात्. | नेत्याह । तुल्यजातीयस्य
इपकम् । कथ तुल्यजातीयः | यथाजातीयकाशथङङुजिर्डःनिबथडःनडः | कथ॑ना-
तीयका्ेते । भधेभधातुकाः || यद्येतदस्ति तुल्यजातीयस्य श्ञापकमिति चङ्डौ 20
दुग्विकरणानां श्ञापकौ स्यातां नजिङ्तैमानकालानां इुनिम्भूत कालानामथङःशब्द
भोणादिकानां नरःशब्दो घञथौनाम् । तस्मात्सार्यधातुकम्णै कतैव्यम् ॥|
कि पुनरयं पयुदासो यदन्यत्पित इति । भाहोस्वितससज्यायं प्रतिषेधः पित्तेति |
कात्र विदोषः |
अपपिन्ङिदिति वेच्छबेकादे दाभातिषेध आदिवच्वात् ॥ ९ ॥ 2६
भपिन्डिगदिति चेच्छवेकादेशे प्रतिषेधो वरकव्यः | च्यवन्ते वन्ते | किं कारणम्|
१5
९९७ ॥ ग्याकरणमरहाभाष्यय् ॥ [भ०९.२.९
कादिवस्वात् | पिदपितोरेकारेशो ऽपित आदिषस्स्यात् । अस्त्यन्यत्पित इति कृत्वा
डिस्वं प्रामोति ॥ अस्तु तर्हि प्रसज्यप्रतिषेधः पिच्नेति |
न पिन्डिदिति चेदुत्तमेकादे रापतिषेधः ॥ २॥
` पित्तेति वेदुन्तत्रैकादेदो प्रतिषेधः प्रामोति । तुदानि लिखानि" । किं कारणम् ।
5 आदिवस्स्वादेव । पिदपितोरेकादेशः पित भदिवस्स्यान्त्र पित्तेति प्रतिषेधः प्राभरोति ॥
यथेच्छसि तथास्तु | ननु चो्तमुभवयापि दोष इति । उभयथापि न दोषः | एक।-
देशः पृवैविषौ स्थानिवदिति स्थानिवद्धावाव्यब धानम् ॥
असंयोगाल्लिट् कित् ॥ १ ।२।५॥
ऋदुपधेभ्यो लिटः कित्वं गुणादिप्रातिषेधेन ॥ ९ ॥
10 कदुपपेभ्यो लिटः किञ्वं गुणादवति विप्रतिषेधेन । ववृते ववृधे ॥
| उक्तवा ।२॥
किमुक्तम् | न वा क्सस्यानवकारात्वादपवादो गुणस्येतिः || विषम उपन्यासः|
युन्तं तत्र यदनवकादां कित्करणं गुणं वाधत इह पुनरुभयं सावकाशम् । कित्कर-
गस्यावकाहाः | हैजतुः हेजुः | गुणस्यावकाहाः | वर्वित्वा वर्धित्वा ¶ | इहोभयं प्रा
15 रोति । ववृते ववृ | परस्वाहुणः प्रामोति ॥ हदं तदयक्तमिष्टवाची परराभ्दो विपर-
तिषेषे परः यदिष्टं तद्वतीति ° ||
इन्धिभवतिभ्यां च ॥१।२।६॥
कि मथेमिदमुच्यते | इन्धेः संयोगाथै वचनं भवतेः पिद्थम् || अर्य योगः
शक्यो ऽवन्तम् | कथम् ।
20 इन्धेग्छन्दोविषयस्वाड्कुवो युको निस्यस्वालाभ्यां किद्वनानर्थक्यम् ॥ ९॥
इन्धेन्छन्दोविषयो लिद् | न ह्यन्तरेण च्छन्द इन्धेरनन्तरो किड् भ्यः } आमा
भाषायां भवितव्यम्1† | भुतो वुको नित्यत्वात् | भवतेरपि नित्यो वुक् | हते
९५. § ६.१९. ९५. बु ९.२.६८
६०
9 ६,४.९२, † ०.३. ८६. ‡ ३.
9१ † {{ ६.४, ८८,
९.४. २१, नै
प १.२.५-९.| ॥ व्याकरणयहामाष्यम् ॥ ६९५
ऽ पि प्रामोस्वङ्वेऽपि । वाभ्यां किडवनानयेक्यम् { ताभ्वामिन्षिमवतिन्यां किदचन-
अनयेकम् ॥
मृडमृदगुधकुषङ्किशवदवसः क्ता ॥ १. । २। `9 ॥
किमथे मृडादिभ्यः परस्य त्कः किश्वमुष्यते किदेव हिक्का | नक्रा सेद् `
[१.२.१८] इति प्रतिषेधः प्राति तद्वाधनाथेम् || यदि तर्दि मृडादिभ्यः परस्य $
कः रिस्वमुच्यते नार्थो न रका सेडित्यनेन कि स्तप्रतिषेषेन । हदं नियमाय भवि-
प्यति | मृडादिभ्य एव प्रस्य हकः कि रवं भवति. नान्येभ्य इति | यदि नियमः
क्रियत इहापि तरि नियमाच्न भरामोतिः | दत्वा पृत्वा । भत्राप्यकिश्वं प्रायेति |
नुल्यजातीयस्य नियमः । कथ वुल्यजातीयः | यथाजातीयको मृडादिभ्यः परः
च्छा | कथंजातीयकथ मृडादिभ्यः परः चछा | सेट् || एवमध्यस्स्यश्र कथिहिभावि- 10
वेद् सोऽनिटं नियामकः स्यात् | अस्तु ताके सेटस्तेवां महणं नियमाथे य
इदानी विभावितेद् तस्य महणं विध्यथे भविष्यति ।|
रूदविदभुषग्रहिखपिप्रच्छः संश्च ॥ १ ।२.। ८ ॥
स्वपिप्रष्छ्ोः सन्थ महणं किदेव हि चका||
इको इट् ॥९६।२।९, ॥ 18
किमथमिकः परस्य सनः किश्वमुच्यते |
शकः कित्वं गुणो मा भरत
इकः किस्वमुच्यते गुणो† मा भूदिति । चिचीषति तुष्टषति ॥ तरैवदस्ति परयो-
भनम् ] ` ` ` | | । ..
दीर्फीरम्भात् | 2
दीषेस्वमन्र वाधकं भविष्यति; ॥
कते भवेत् ।
कृते खलु दीषैत्वे गुणः प्रापरोति ||
* ७.२.९०. ` ¶ ७.३. ८४. प ६.४. १६.
१९९ ॥ भ्वाकरणबहाभाच्घ ॥ ` {मम १.१५
भनर्थकः त्
शअनथैकमेवं सति दीधैस्वं स्यात् || नानयथेकम् |
` शस्वा्थेम्
स्वानां दीर्षवचनसामथ्यादुणो न भविष्यति | भवेदुस्वानां दीर्घवघनसाम-
5 श्यद्कुणो न स्वात्
दीघोणां तु प्रसज्यते ॥ ९॥
दीषौणां तु खलु गुणः प्राति । ननु च रीषौणामपि दी्ैवचनसामथ्यौहुौ
म भविष्यति । न दी्ौणां दीघोः परामुवन्ति | किं कारणम् । न हि मुक्तवास्पुन-
` र्मुङधे न च कतरमभ्रुः पुनः रमश्रूणि कारयति | ननु च पुन्रवृत्तिरपि इष्टा |
10 मृक्छवांथ पुनद कृतरमश्रु थ पुनः रमश्रूणि कारयति |
सामथ्यादि पुनभोष्यम्
सामथ्यं। सत्रं पुनः परवृत्तिभेवति भोजनविशोषाच्छिल्मिविरेषाहा । दीषोणां पुम-
रधत्वव्रचने न किचित्मयोजनमसि | अङृतकारि खल्वपि शाखमभिवत् | तयथा ।
अमिर्यददर्धै तृहति | दीर्षौणामपि दीधेवचन एनसयोजनं बुणो मा भूदिति ।
15 कृतकारि खस्वपि शाखं पजन्यवत् | तद्यथा । पञजैम्यो यावदूनं पूणं च ` सवैमभि-
वर्षति | यथैव तं दीधैवचनसामभ्यो हणो . न भवस्येवमृदिस्वमपि" न पराषोति ।
चिकीति जिहीर्षतीति |
| कटदित्वं दीस श्रयम् ।
नाकृते दीषै ऋरदिच्वं प्राभोति । किं कारणम् | ऋत इरयुष्यते || भवेद्भस्वानां
20 नाङ्कते दीर्घं ऋरदिर्वं स्यारीधाणां तु खल्वेते ऽपि दीर्घत्व ऋटादित्त्वं भ्रामोति ।
दीघाणां नाकृते दीर्घे
दीबौणामपि नाकृते दीष ऋदित्वं प्रामोति । यदा दीैत्वेन गुणो वाधितस्ततं
उत्तरकालमृदिच्वं भवति ॥
णिलोपस्तु प्रयोलनम् ॥ २॥
2६ इदं तर प्रयोजनं गिठोपो यथा स्प्रादिति!। ज्ञीन्सति || क्रास्ताः क्र निपतिताः।
क्त किरवं क्र णिलोपः | को वाभिसंबन्धो यत्सति किन णिलोपः स्यादखवि न
~~~
भर १.२.१०.९९. ॥ व्याकरणयहाभाष्परम् ॥ ११९७
स्यात् | एषो अभिसंबन्धो यत्सति किस्वे साधका दीरषत्वं परस्याण्णिरोपो बाधते
स्ति पुनः किर ऽनवकारां दीैस्वं यथेव गुणं वाधत एवं गिरोपमपि बाधेत |
धर णिठोपस्यावका्चः । कारणा हारणा | दीषेव्वस्यावकाराः | चिचीषति तुष्टूषति ।
हहयेभयं प्रामोति । श्षीप्सति । प्रस्वाण्णिलोपः ॥ असत्यपि किच्वे साबकाद्यं दीष
त्वम् ! कोऽवकाशः | हस्भावः | निमित्सति परमिस्सति । मीनातिमिनोत्योर्दषिस्वे कृते ऽ
मीचङ्गेन ब्रहणं यथा स्यात्* || यथैव तद्यैतति किचे पावकाद दीर्षत्वं परस्वा-
ण्गिजोषे धाधत एवं गुणोऽपि वापेत | तस्माक्किस्वं वक्तव्यम् ॥
शकः किन्त गुणो मा मुहीघोरम्भात्कृते भवेत् ।
अनथकं तु हस्ताय दीर्घाणां त् प्रसज्यते ॥ ९॥
सायथ्यादि पुनभाव्यमृदिस्वं दीघसश्रयम् । 19
दीर्घाणां नाकृते दीर्घे णिलोपस्तु प्रयोलनम् ॥ २॥
हटन्ताञ्च ॥ १. ।२९।२.०॥
भयु कोऽयं निदंशः | कथं हीको नाम हलन्तः स्यादन्यस्यान्यः | कथं ताह
निर्देशाः कतेव्यः | हग्वतो हर इति | यदेवं यियक्षति अत्रापि प्राभोवि† । एवं `
तगु पधाडलन्तादिति बह््यामि । एवमपि वम्मेनै प्रामोति । सूत्रं व भिद्यते | 15
बथान्यासंमेवास्तु । ननु चोक्तमयुक्तोऽयं निर्दे श इति | नायुक्तः । अन्तशष्दोऽयम-
सतयेवावयववाची | तद्यथा । वखान्तः वसनान्तः | षल्रावयवो वसनावयव इति
गस्यते | अस्ति सामीप्ये घतते } तद्या | उदकान्तं गत इति । उदकसंमीपं गत
इति गम्यते | तदथः सामीप्ये वतेते तस्येदं हणम् || एवमपि दम्भेम सिध्यति; |
योजक मीपे हल्न तस्मादु्तरः सन् । यस्मादुत्तरः सन्नासाविक्समीपे हल् । एवं तरद 0
दम्भेहंल्ग्रहणस्य जातिवाचकत्वास्सिद्धम् ॥ ९ ॥
हस्जातिर्भिर्ददयते । इक उत्तरा या हल्जातिरिति ॥
लिङ्चावात्मनेपदेषु ॥ ९. । २।१९ ॥
कथमिदं ॑विक्ञायते | आत्मनेपदं यौ रिदिचाविति । भाहोस्िदास्मेषदेषु `
ॐ ४, ४, ५४, । क ६, ९.९९, | ‡ 9.४. ५६; ६.४.९४.
९९८ ` ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ - [मण्र्र्र्.
परतो यौ लिङ््िवाविति | किं चातः | यदि धिज्ञायत भत्मनेपदं यौ रिङ्किवा
चिति लिङदोषितः सिजविदोपितः । भथ विज्ञायत भात्मनेपदेषु परतो वौ
लिङिबाविति सिन्विदोषितो ऊिङविशोबितः || यथेच्छसि तथास्तु । अस
तावदास्मनेपदं यौ लिङ्धिचाविति । ननु चोक्तं लिङकिङोषितः तिजविशोषित इति |
.४ पिच विशेषितः | कथम् | आरमनेपदं सिज्नास्तीति कृत्वात्मनेपदपरे सिचि काये
विज्ञास्यते | थवा पुनरस्सवात्मनेपदेषु परतो यौ लिङ्धिचाधिति । ननु चोक्तं सिञ्वि-
शेषितो किडवि शोषित इति । लिङः विरोषितः | कथम् | भास्मनेपदेषु परतो तिङ्क
स्तीति कृत्वात्मनेपदे लिङि कायै विज्ञास्यते || नैव वा पुनरथा लिङ्दिषणेनासम-
नेपदपह्णेन | कि. कारणम् । किति वतेते“ | आत्मनेपदेषु चैव किङ् श्षलादिने
10 परस्मैपदेषु । तदेतस्सिभ्विशोषणमारमनेपदम्रहणम् || अथ सिज्विदोषण. आत्मनेष-
दम्रहणे सति किं प्रयोजनम् । इह मा भूत् | अयाक्षीत् अवात्तीत्1† । नैवदल्ति ।
इक इति वतैते* ||. एवमप्यतरैषीत् अचैषीत् अत्रापि प्रभोति । एतदपि नस्ति परयो-
जनम् | हलन्तादिति वतेते 1| एवमप्यकोषीत् अमोषीत् अत्रापि प्रामोति । तैतदसि |
श्षलिति वतेते || एवमप्यतरत्सीत् अच्छैत्सीत् अत्रापि प्रापनोति । परैतदस्ति । इग्लक्षण-
15 योर्गुणवुद्धोः परतिषेधो‡ न चेषेग्लक्षणा वद्धिः | इदं ताहि प्रयोजनम् । इह मा भूत्!
. भद्राक्षीत् भल्लाीत् | कं च स्यात् | अकिष्ठक्षणो मागमो न स्यात् -॥
स्थाध्वोरिश्च ।। १. । २. । १७ ॥
इं कस्य तकारेरवम्
कस्य हेतोरिकारस्तपरः क्रियते |
20 दीर्घो माभुत्
दीर्घो मा भूदिति |
ऋतेऽपि क्तः
भन्तरेणाप्यारम्भं सिदधोऽत्र दीपो धुमीस्थागापाजहाति [६.४.६६] इति ॥
भमन्तरे चुतो मा भूत्
28 इदं तर्हि प्रयोजनमनन्तरे शतो मा भूदिति । कुतो नु खल्वेतदनन्तरार्थं आरम्भे
हस्वो भविष्यति न पुनः शुत इति ॥
@ ९, २, ९. ¶ ६. ९. ९५. { ९. ९. ५, § ७, २. ३.. | ॥। ६९. ५९८०
फर १.२.९१५-९८. ] ॥ व्याकरणग्रहाभाष्यय् ॥ १९९,
शुनश्च विषये स्मृतः ॥ ९ ॥
विषये श्चुत उच्यते+ यदा च स विषयो भवितव्यमेव तदा श्रुतेन ॥
श्चं कस्य तकारेत्वं दीघो मा भृदते अपि सः ।
अनन्तरे श्रुतो मा भुल्छुतश्च विषये स्मृतः ॥ ९ ॥
नक्लासेट् ॥१।२।२१८॥ ४
| न सेडिति कृते ऽकित्वे
न सेडिस्येव सिद्धं नार्थः चामरहणेन || निष्ठायामपि तर्हि परामोति | गृषित
गुधितवानिति ।
निद्ठायामवधारणात् ।
निष्टायामवधारणाच भविष्यति | किमवधारणम् । निष्ठा शीङ्स्विदिभिदिर्वि- 10
रिधुषः [ १.२.९९ | इति ॥ परोक्षायां तर्हि प्राभोति । किं च स्यात् । पपिव पपिम |
्ितीत्याकारलोषो न स्यात् | मा भूदेवम् । इटीव्येवं मविष्यति। ॥ इदं तर्हि |
जग्मिव जध्निव | कतील्युपधालोषो न स्यात् |
ज्ञापकान्न परोक्षायाम्
ज्ञापकात्परोक्षायां न भविष्यति | किं ज्ञापकम् | 1४
सनि सस्प्रहणं विदुः ॥ ९॥
यदयमिको श्यल् [ १.२.९ | इति सल्यहणं करोति तज्ज्ञापयत्याचायै ओपदे-
शिकस्य किसू्वस्य प्रतिदेधो नातिदेशिकस्येति | कथं कत्वा ज्ञापकम् | सल्प्रहण-
स्थैतत्पयोजनमिह मा भूत् | शिदायिषत इति | यदि चात्रातिदेशिकस्यापि किस्व-
स्य प्रतिषेधः स्याज्छल्यहणमनथेकं स्यात् | भस्स्वत्र किरस्वं न सेडिति प्रतिषेधो 90
भविष्यति | परयति स्त्राचार्यं ओ परेशिकस्य किर्वस्य प्रतिषेपो नातिदेशिकस्येति
ततो इ्ल्महणं करोति | तैतदस्ति श्ञापकम् | उत्तरार्थमेतत्स्यात् । स्याष्थोरि्
[ १.२.९७ ] कषलादौ यथा स्यादिह मा भूत् | उपास्थायिषाताम् उपास्थायिषतः
द्वं कित्संनियोगेन
- किश््वसंनियोभेनेच्वमुच्यते । तेनासति किस्व इचस्वं न भविष्यति | 25
@ ८.२, १०५. † ६.४. ६४ ‡{ ६.४.९८. .. 3 ६.४, ५२; ७. ३.३१.
०७ ॥ व्याकरणमहामा्यंय ॥ [भ०९.२.९, `
रेण तस्यं सुधीवनि ।
तद्यथा | धीवा पीवेति । डीप्तंनियोगेन र उच्यमानो ऽसति डीपि न मवति*॥।
अयवास्त्यत्रेरवम् | का कूपसिद्धिः । वृद्धो कृतायामायादेशो भविष्यति ॥
वस्वर्थं य्
$ वस्वथे तरि श्छाम्रह्णं कतेव्यम् । वसौ ज्लौपदेशिकं किस्यम् । कं च स्वात् |
पपिवान् तत्थिवान् । कितीत्याकारलोपो न स्वात् | मा मृदेवम् । इरि चेत्येवं
भविष्यति || इदं तर्ईि जग्मिवान् जधधिवान् । किती्युपधारोपो न स्यात्|
किदतीदेशात्
शस्त्वक्रौपदेशिकस्व क्षि स्वस्य प्रतिषेषः | भातिरेशिकमनत्र किच्त्व भधिष्यतिऽ॥
19 यञ्र तर्हिं तस्मतिषिध्यते । भश्ेराजिवानिति | एवं तर्हि च्छान्दसः कषः | किद्
च श्छन्दसि सार्वैधातुकमपि भववि | तन्न सावेधातुकमविन्डिद्वतीति¶ जिन्युप -
धारोपो भविष्यति ॥
| निगृहीतिः .
निगृहीतिः प्रयोजनम् । इदं तर्हि भरयोजनम् । इह भा भूत् । निगृहीतिः उप.
१६ जिदितिः निकुचितिः” | तत्तां छऋायदणै कतैव्यम् | न कमैव्यम् |
| चा च विग्रहात् ॥ २॥
उपरिं्टाद्योगविमागः करिष्यते11| न सेट् । निष्ठा शीङ्स्विरिमिदिरिविरिधृषः
[९९] । मृषस्तितिक्षायाम् [२०] । उदुपधाद्गावादिकर्मेणोरन्यतरस्याम् [२९१]
ततः पृडः । पृडकचं निष्ठा सेण्न किद्धवति | ततः च्राच। का च सेण्न किड़-
20 वतिं । पूडः इति निवृत्तम् ॥
न सेटिति कृते ऽ किते निष्ठायामवधारणात् ।
त्ापकान्न परोक्षायां सानि शम्प्रहणं विषुः ॥ ९॥
श्वं कित्सैनियोगेन रेण तुभ्यं सुधीवनि ।
वस्वथै किदतीरेशानिगहीतिः छो चं विग्रहात् ॥ ९॥
= ४.६.०६९. 4 ६.४. ६४, ६.४, ९८, § ९.२. ५. कु १.२. ४;
ॐ ७. द, ९१. †† ९.२. २द,
पा०.१.२.२९१२२५.] ॥ व्याकरणरहाभाष्यय ॥ २०९
उदुषधादुवादिकमेणोरन्यतर स्याम् ॥ ९.1 २ । २९. ॥
इह कस्मान्न भवति | गुधितः गृधितवानिति ।
उदुपधाच्छेपः ॥ ९ ॥
दाभ्विकरणेभ्य इष्यते ॥
पूडः क्ला च ॥१.।२।२२॥ |
पूडः च्ानिष्टयोरिटि वा प्रसङ्गः सेटप्रकरणात् ॥ ९ ॥
पुडः कानिष्टयोरिटि विभाषा प्रप्रीति | किं कारणम् । सेटूप्रकरणाते । सेडिति
वतेते* ||
न वा सेट्त्वस्याकिदाश्रयत्वादनिटि वा कित्वम् ॥ २॥
न त्ष दोषः | कै कारणम् । सेट्त्व्याङ्िराश्रयस्वात् । अकिदाभ्रयं सेट्- 10
त्वम् | यदाकित्वं तदेटा भवितव्यम् । सेटस्वस्याकि दाश्रयत्वादनिरयेव विभाषा
किवं भविष्यति || इद्धिषौ पडो भरहणं क्रियते! तेन वचनादिट् सेदप्रकरणादे-
र्येव विभाषा किच्वं प्रभोति ।
दड्धौ ्यग्रहणम् ।। र ॥
हड़्िपो हि पडो ्रहणं न करव्यं भवति ॥
भार दाजीयाः पठन्ति || नित्यमकित््वमिडाद्योः ्करामरहणमुत्तराथम् || निस्यम-
किन््वमिडाथोः सिद्धम्! कथम् | विभाषामध्ये ऽयं योगः क्रियते विभाषामध्ये चये
विधयस्ते नित्या भवन्ति | किमथे तर्हि च्कर्रहणम् | ्रामरहणमुत्तराथेम् | उत्तरा
त्कामरहणं क्रियते | नोपधात्थफान्ताहा [२३] वभ्चिलुश्च्यतथ [२४] इति ॥
15
तृषिमृषिकृरोः कारयपस्य ॥ ९. । २ । २५ ॥ 20
काश्यपग्रहणं किमर्थम् । कारयपग्रहणं पूजाथैम् । वेत्येव हि वरते! ॥।
^ ९.१. ९८. † 9, २. ९९. { ९.१. २३.
6 व
२०द् ॥ व्याकरगमहाभाष्थम् ॥ ` {मण०१.२.१.
रचे ग्युपधादखदेः संश्च ॥ ९. ।२। २६ ॥
किमिदं रलः सनः किवं विधीयत भाहोस्विखतिषिध्यते | किं चतः |
यदि विधीयते चकाय्रहणमनथंकम् । किदेव हि त्का | भथ प्रतिषिध्यते सन्महण-
मनर्थकम् | किदेव हि सन् ॥ भत उत्तरं पठति |
४ ररः च्कासनोः कित्वम् ॥ ९॥
रलः ऋासनोः किर्वं- विधीयते । ननु चोक्तं चऋाव्रहणमन्थेकं किदेव हि छ्छेति |
नानर्थकम् | न क्का सेट् [९.२.९८] हति प्रतिषेधः प्रामोति तदाधना्थम् ||
ऊकाठो ऽज्छ्मस्वदीषेपुतः ॥ १. । २ 1 २.७ ॥
भयुक्तो ऽयं निर्देशाः |. ऊ इत्यनेन कालः प्रतिनिर्दिरयत ऊ इत्ययं च वणेैः|
10 तत्रायुक्तं वर्णस्य कालेन सह सामानाधिकरण्यम् || कथं ताह निर्देशः कतैव्यः |
ऊकालकाल इति | किभिदमृकालकाठ इति । ऊ इत्येतस्य काल ऊकारः |
ऊकालः कालो ऽस्य ऊकालकाल हति || स ताहि तथा निर्देशः कतेव्यः | न
कतैव्यः } उत्तरपदलोपो अर द्रष्टव्यः | तद्यथा | उष्रूमुखमिव मुखमस्यो््मुखः।
खरमुखः | एवमुकालकाल ऊकाल इति || अथवा -साहचयोत्ताच्छब्दयं भविष्यति |
15 कालसहचरितो वणेः । वर्णो ऽपि काल एव |
हस्वादिषु समसंख्यापरसिंडिर्भरदेरावेषम्यात् ॥- ९ ॥
स्वादिषु समसंख्यस्वस्यामसिद्धिः । कं कारणम् | निरदशतरैषम्यात् । तिजः
संज्ञा एकः संज्ञी घ्रैषम्यात्संख्यातानुदे शो" न प्रामोति ॥
सिं तु समसंख्यत्वात् ॥ -२ ॥
20 सिद्धमेतत् । कथम् । समसंख्यस्वात् | कथं समसंख्यत्वम् । `
. त्रयाणां हि विकारनिरददाः ॥ ३ ॥
बयाणामयं प्रशिषटनिर्देराः | कथं ॒पुनज्ञोयते. अरय्याणामयं प्रधिषटनिर्देश इति |
तिखणां संज्ञानां करणसामथ्योत् || यच्यपि तावात्ति णां संज्ञानां करणसामभ्यीज्छा-
@ ९.२. १०.
-पा+. ९.२.२६-२७.| ॥ व्या्करममहमोष्यम् २०३
यते ्रयाणामयं प्रिष्टनिदेशा इति कृतस्स्वेतदेतेनानुपूर्व्येण संनिविष्टानां संज्ञा भवि-
प्यन्तीति । आदौ मानत्निकस्ततो द्विमात्रस्ततलिमात्र इति । न पुनमोज्िको मध्ये
वान्ते वा स्यात्तथा द्विमात्र आदौ वान्ते धा स्यात्तथा त्रिमात्र आदौ वा मध्ये वा
स्वात् || अयं तावन्ञिमात्रो ऽद्य आदौ वा मध्ये वा करम् | कुतः | ताभ्रयो
हि प्रकृतिभावः प्रसज्येत | माश्रिकष्टिमात्रिकयोरपि ध्यन्तं पुव निपततीति। मातरि- $
कस्व पूर्थनिपातो भविष्यति || यत्तावदुच्यते ऽयं ताव्निमात्रो ऽदाक्य आदौ बा मध्ये
वा कँ रुताञ्रयो हि प्रकृतिभावः प्रसज्येतेति ताञ्रयः प्रकृतिभावः अतसा
चानेनैव | यदि च त्रिमात्र आदौ वा मध्ये वा स्याख्छुतसंज्ैवास्य न स्यात्कुतः
्कृतिभावः || यदप्युच्यते मात्रिकद्विमात्रिकयोरपि ध्यन्तं पूवे निपततीति माि-
कस्य पवानिपातो भाविष्यतीति हस्वा्नया हि पिस हृस्वसंजञा चानेनैव । यदि च 10
मात्रिको मध्ये वान्ते वा स्याद्भ स्वसंज्ञैवास्य न स्यात्कुतो पिसंज्ञा कुतः पूवेनिपातः ]|
एवमेषा व्यवस्था न प्रकल्पते || एवं त्यो चार्यपरवृत्तिज्ञोपयति न मात्रिकोऽन्ते भव-
तीति यदयं विभाषा पृष्टप्रतिवचने हेः |८.२.९ ३] इति मात्रिकस्य शरुतं शास्ति ।
कर्थं कृत्वा ज्ञापकम् | योऽन्ते स श्ुतसंज्ञकः | यदि च माति कोऽन्ते स्याल्छुतसंज्ञास्व
स्यात् । तत्र मात्राकालस्य मात्राकालवचनमनयेकं स्यात् || मध्ये तांहं स्यादिति ] 1:
भव्राप्याचायप्रवृत्तिज्गोपयति न मान्निको मध्ये भवतीति यदयभतो दीर्घो यञि षि
च [७.३.९१९०१-९०२] इति दीधत्वं शास्ति । कथं कृत्वा ज्ञापकम् | यो मध्ये
स दीधेसंज्ञकः | यदि च मात्रिको मध्ये स्यादीधेसंज्ञास्य स्यात् | तत्र मात्राकाठस्य
मात्राक्रालवचनमन्थकं स्यात् || हिमात्रस्तदयन्ते स्यादिति । अत्राप्याचायेप्रवृत्ति>
कञौपयति न हिमात्रो ऽन्ते भवतीति यदयमोमभ्यादाने [८.२.८७] इति हिमात्रि- 2
कस्य शतं शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | योऽन्ते स शरुतरसं्नकः | यदि च दहिमा-
्रोऽन्ते स्यास्छतसंज्ञास्य स्यात् | तत्र हिमात्राकालस्य हिभात्राकालवचनमनयेकं
स्यात् |] मात्रिकेण चास्य पुवेनिपातो वाधित इति कृत्तरा क्रान्यत्रोत्सहते भवितु-
मन्यदतो मध्यात् ॥ एवमेषा व्यवस्था प्रकरुप्रा | भवेद्यवस्या प्रकरुप्रा
दीर्ष्ुतयेोस्तु पूर्वसंज्ञाप्रसङ्कः ।। ४ ॥ 25
दीधेश्ुतयोरपि पूवेसंज्ञा प्रामोति । का | स्वसंज्ञा । किं कारणम् । भण्त-
वणौन्ग्ञातीतिऽ ||
* ५. ९. १२९. † २.२.३२. ग ९.४.५. $ ९. \, ६९.
2५४ ५ व्वाकर्णजहामात्यम् ॥ ` , ([१,.१.२५६.
=. ~ सिद्धं तु सपरनिदैदात् ॥ ५॥
सिद्धमेतत् । कथम् । तपर निर्देशः कतव्यः । उदुकाल इति | यद्येवं द्रुताया
तपरकरणे मध्यावेलम्बितयो रपसं ख्यानं कालभेदात् ||
ुतादिषु चोक्तम् ॥ ६॥
5. किमुक्तम् | सिदध त्ववस्थिता वणौ वक्तु धिराचिरवचनाहशयो विशिष्यन्त इति|
ख तरदं तपरनिर्दशः कतेव्यः | न कतैव्यः | इह काठमहणं क्रियते यावच्च तपर-
करणं तावल्तालम्रहणम् । प्रत्येकं च कालद्यब्दः परिसमाप्यते | उकाठ . ऊकाठ
ऊश्काल इति | अथवैक संज्ञाधिकारेऽयं योगः करतैव्यः। | तत्रैका संज्ञा भवति या
परानवकाद्या चेप्येव्रं हि दीषेष्ुतयोः पूपरैसंज्ञा न भविष्यति || अथवा स्वं रूपं ब्द
10 स्याश्ब्दसंज्ञा [९.१.६८] इत्ययं योगः भत्याख्यायते । तत्र यदेतद दाग्दसं्ेत्येतदया
विभक्त्या निर्दिदयमानम्थेवद्वति तया निर्दिष्टमुत्तर्रानुवर्षिष्यते | भणुदित्सव्णस्य
चाप्रत्ययः [१.१. ६९] अशष्दसंत्ञायामिति || अथवा हस्वसंज्ञावचनसा मथ्यौरीषै-
तयोः पुवसंज्ञा न भविष्यति | ननु चेदं प्रयोजनं स्यार्घंज्ञयां विधाने नियमं व्या
मीति; हस्वसंज्ञया यदुच्यते तदचः स्थाने यथा स्यादिति | स्यादेतस्मयोजनं यदि
15 किंचित्कराणि हृस्पशासनानि स्युः । यतस्तु खदु यावदज्महणं तावद््स्वमरहणम-
तो ऽरकिचित्कराणि हृस्व शासनानि | इदं ताह प्रयो जनमेच इग््रस्वारेशे |९.९.४८]
ति वद्यामीति । अनुच्यमाने दयेतस्मिखिहस्वपरदे शेष्वे च इग्भवतीति वक्तव्यं स्यात्|
हस्यो नपुंखके प्रातिपदिकस्य [९.२.४७] एच हइग्भवतीति | णौ चङ्युपधाया हस्वः
{७.४.९] एच इग्भवतीति | हस्वः हलादिः शेषः [७. ४.९९,६ ० | एच इग्भवतीति ॥
` 20 संज्ञा च नाम यतो न लघीयः | कुत एतत् | लष्वथे हि संज्ञाकरणम् | कषीयभ
जिहैस्वप्रदेशेष्वेच इग्भवतीति न पुनः संज्ञाकरणम् । चिहस्वपरदेोष्वेच इग्भवतीति
षडुढणानि । संज्ञाकरणे पुनरष्टौ । दस्वसंज्ञा वक्तव्या | चिहैस्वप्रदेशेषु दस्वम्रहणं
कंतैव्यं दस्वो हस्वो दस्व हति | एच इगप्रस्वादे श इति । सोऽयमेवं कषीयसा न्यासेन
सिद्धे यद्वरीयांसं यलमारभते तस्थैतसयोजनं दीषश्चुतयोस्तु पुवैसंज्ञा मा भदिति ॥
४ अचश्च ॥१।२।२८॥
किमयमसखेऽन्त्यदोष आशोस्विदलोऽन्त्यापवादः° | कथं चायं तच्छेषः स्वा-
# २,६.७०. † ९. ४.१. † ९.२. २८५. § १. ९. ५२.
धा» ९.२..२८.] ` ` च्यकल्णमहामाच्वम | १०५
त्कथं धा तदपवादः | ग्रचेकं वाक्यं तचेदं च अलो ऽन्त्यस्य विधयो भवन्ति भको
इस्वरीषैश्चुता भन्त्यस्येति ततोऽयं तच्छेषः | अथ नाना वाक्यम् अलोऽन्त्यस्य वि-
धयो भवन्ति अचो दूस्वदीधेश्चुता भन्त्यस्यानन्त्यस्य चेति ततोऽयं तदपबादः. | क-
अत्र विद्रोषः |
हस्वादिविधिरलोऽ्न्यस्येति चेदचिभ्रच्छिदामादिपभृतिहनिगमिदयवै- :5
ष्वञग्रहणम् ॥ ९ ॥ त
हस्वादिविधिरलोऽन्त्यस्येति चेद्रविप्रस्डिदामादिपरभृतिहनिगमिदीर्पैष्वज्यहणं क-
तैव्यम् । वचिपरच्छ्योदीर्घो ऽच इति वक्तव्यम् । अनन्त्यत्वाद्धि न ॒प्रामोति ॥
शमारीनां दीर्घौ! ऽच इति वक्तव्यम् | अनन्स्यत्वाद्धि न प्रामोति | दनिगम्योर्दीर्षो
ऽच इति वक्तव्यम् । अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति ।| अस्तु तर्हिं तदपवादः | ` 19
अचथ्येन्नपुंसकहस्वाकृत्सावधातुकनामिदीर्धष्वनन्त्यप्रतिषेधः || २ ॥
भचधेन्नपंसकटस्वाकृत्सावेधातुकनाभिदीर्धष्वनन्त्यस्य प्रतिषेधो बक्तव्यः | हृस्वो
नपुंसके भाविपदिकस्य [१.२.४७] यथेह भवति । रे अतिरि । नौ भतिनु । वं
ंवाग्त्राद्यणकुठमित्यतरांपि परामोति ॥ भङ्ृत्सार्वधातुंकयोर्दषिः [७.४.२९] यथेह
भवति | चीयते स्तृयते | एवं भिद्यते अत्रापि भरामोति || नामि [६.४.३| दीर्घो यथेह 15
भवति| अभ्रीनाम् वायुमाम् । एवमत्रापि पराभोति | षण्णाम् ॥ नैष दोषः | नोपधाया
[६.४.७] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । प्रकृतस्थैष नियमः स्यात् | किं च प्रकृतम् |
नामीति । वेन भवेदिह नियमान्न स्यात्| षण्णाम् । अन्यते तन्यते अत्रापि श्राभोति |
अथाप्येवं निवमः स्याक्चोपधाया नाम्येवेति | एवमपि भवेदिह नियमान्न स्यात् । भ-
न्यते तन्यत इति | षण्णामित्यत्र प्रामोति | अथाप्युभयतो नियमः स्यान्नोपधाया एव 0
नामि नाम्येव नोपधाया इति । एवमपि भिद्यते इवाग््राह्मणकुलमित्यज्रापि प्रभोति || ..
एवं ताईं हृस्वो दीधः श्त इति यत्र ॒ब्रूयादच इत्येतत्तत्रोपस्थितं द्रष्टव्यम् | किं
कृतं भवति । हितीया षष्ठी प्रादुभौव्यते } तत्र कामचारो गृह्यमाणेन वाचं विक्ञे-
षयितुमचा वा गरद्यमाणम् । यावता कामचार इह तावद्वचिप्रच्छिकरामादिप्रमभतिहनि-
यमिदीर्षेषु गृद्यमाणेनाचं विरोषयिष्यामः | एतेषामचो दीर्घो भवतीति । इहेदानीं नपु 2
सकटस्वाकृत्सावेधातुकनामिरीर्घप्वचा गृह्यमाणं विद्दोषविष्यामः | नपुंखकस्य हस्वो ..
+ (३.२. ९०७८५, ` †०३ ७४, । ‡ ८५.१९६.
१०६ | ष्याक्ररणपरहाभाष्वम्। [ [मर्९.२.९.
भवत्यचः |. अजन्तस्येति .| अक्स्सार्रातुकयोरदीर्षो ऽः -। : अजन्तस्येति | नामि
शर्षो भवत्यचः | भजन्तस्येति ॥ .
इह कस्माच्च भवति शचः प्रन्थाः स. इति* |.
संज्ञया विधाने नियमः | ३ ॥
.‡ संज्ञया ये विधीयन्ते तेषु नियमः | कि वक्तव्यमेतत् | भ हि | कथमनुच्यमानं
गंस्यते | अनजिति† हि वतैते | तत्रै वमभिसंबन्धः करिष्यते | अचो ऽज्भवति हृस्वो
दीषेः शुत इल्येवं भाव्यमान इति | अथ पूवस्मिन्योगे ऽज्महणे सति किः प्रयोजनम्
, . अञ्ग्रहणं संयोगाच्समुदायनिवृच्यर्थम् ॥ ४ ॥
भञ्यदणं क्रियते संयोगनिवृष्त्यर्थमच्समुदायनिवृश्यथे च | संयोगनिवृस्यै
10 तावत् + प्रतश्य भ्रश्य | हृस्वस्य पिति कृति तुक् [६.९.७९] हति तुग्मा भू-
दिति । भच्समुदायनिवृच्यथेम् । तितउच्छन्नम् । तितडष्छाया । दीषौ त्पदान्तादया
[६.९.७९,७६| इति विभाषा मा भूदिति ॥
उचचरुदात्तः ॥ ९।२।२९.॥ नीचैरनुदात्तः ॥ १। २।३०॥
किं षशीनिर्दि्टमञ्यहणममुवषैत उताहो नः | किं चातः | यदनुवतैते दल्स्व-
15 रपरात्री व्यद्ञनमविद्यमानवदिस्येषा परिभाषा न प्रकल्पते | कथं हलो नाम स्वर
प्राप्न स्यात् | एवं तर्हि निवृत्तम् । बहुन्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि || भथ
प्रथमानिर्दिष्टमज्चहणमनुवतेत उताहो ना । किं चार्थोञ्नुवृस्या | वाढमर्थो यद्येते
व्यश्चनस्यापि गुणा रक्यन्ते | ननु च `रस्यक्षमुपरलभ्यन्ते । इषे खोज स्वा । नैते
व्यञ्जनस्य गुणाः । भच एते गुणास्तत्सामीप्यात्तु व्यञ्जञनमयपि तह गमुपलभ्यते ।
20 तद्यथा | इयो रक्तयोवैलयोमेष्ये शङ्कं वख तद्कुणमु पररभ्यते | बदरपिटके रक्तको
लोष्टकं सस्तद्कुण उपलभ्यते ।| कुतो नु खल्वेतद च एते गुणास्तस्सामीप्यात्तु व्यश्चन-
मपि तद्ुणमुपलमभ्यत इति न पुनव्यश्जञनस्थैते गुणाः स्युस्तत्सामीप्याच्वजपि तहुण
उपलभ्यत इति | अन्तरेणापि व्यश्जनमच एवैते गुणा रष्यन्ते न पुनरन्तरेणाचं
` ष्यघ्ञनस्योद्यारणमपि भवति | अन्वथे खल्वपि निवैचनम् | स्वयं राजन्ते स्वरा
25 अन्वग्भवति व्यश््रनमितिः |
+ ०,९.८४ ८५०. १०्द् ` ` 1९२२९ ‡ ९२. २८.
पा० ९.२.२९-२९. | 1; ॥ व्याकरणमहाभाष्वप् ॥ २.०9
` ` ` उखनीचस्यानवस्थितत्वास्सन्ञाप्रसिदिः ॥ .१॥ ` _.
इदमु खनीचमनवस्थितपदाथेकम् | तदेव हि कंचिसमस्युशर्भवति कंचित्मति नीचैः |
एवं कंचिस्कभिदधीयानमाह किमु रोरूग्रसे ऽय नीैवै्ततामिति | तमेव तथाषी-
यानमपर आह किमन्तरैन्तकेना धीष -उचैवैततामितिः | एवमु चनीचमनवरस्थितपदा-
येकं तस्यानवस्थानास्स॑ज्ञाया अपरसिद्धिः || एवं तर्दि लक्षणं करिष्यते | आयामो $
दारुण्यमणुता खस्थेस्युश्चैःकराणि -राब्दस्य | भायामो गात्राणां निम्रहः | दारुण्यं
स्वरस्य दारुणता रूक्षता | अणुता खस्य कण्ठस्य संवृतता | उच्चैःकराणि शब्दस्य ॥
भय नीतैःकरांणि शम्दस्य | अन्ववसर्गो मादेवमुरुता खस्येति नीवैःकराणि शब्द-
स्य | अन्ववसर्गो. गात्राणां शिथिलता । मादेवं स्वरस्य मृदुता. ज्षिगधतां |. उरुता
लस्य महत्ता कण्ठस्य । ति नीचैःकराणि शष्दस्य || एतदप्यतैकान्तिकम् | यदल्प- 10
पराणस्य सर्वोचचिस्तन्महाप्राणस्य सर्वीचैः ||
सिद्धं तु समानप्रक्रमवचनात् ॥ २॥
सिद्धमेतत् | कथम् । समाने प्रक्रम इति वक्तव्यम् | कः पनः प्रक्रमः | उर
कण्ठः शिर इति ॥|
समाहारः सखरितः ॥ १ ।२।३९.॥
समाहारः स्वरित इत्युच्यते | कस्य समाहारः स्वरितसंज्ञो भवति | अ-
चोरिव्याह । । |
समाहारोऽचोश्ेन्नाभावात् | ९ ॥
समाहारोऽचोे्तन्च | किं कारणम् । अभावात् । न चोः . समाहारोभसि ]
न्वयमस्ति गाद्खेऽनू प इति । नैषोऽचोः समाहारः | अन्योऽयमुदात्तानुदात्तयोः 20
स्थान एक आदिश्यते || एवं ताह गुणयोः ।
| गुणयोश्चेन्नाच्पकंरणात् ॥ ‰ ॥
, गुणयोः समाहार इति चेत्तच | किं कारणम् | अच्पकरणात् | भजिति वतते ||
सिद्धं स्वच्समुदायस्याभावात्तदुणे संप्रत्ययः ।} ३ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | अच्समुदाथो नास्तीति कत्वा तहुणस्याचः समाहारगु- 2४
२५ .॥.व्याकरनयपरमाष्यम् ॥ -ि° ९.२.५१.
गस्य संप्रत्ययो विभ्यति || कथं पुनः समाहार हइत्यनेनाच्शक्यः प्रतिनिर्दष्टुम् ।
भतुन्कीपोऽत द्रष्टव्यः | तद्यथा | पुष्पका एषां ते पुष्पकाः | कालका एषां ते का-
लका इति | एवं समाहारवान्समाहारः || भथवाकारो मत्वर्थीयः | तद्या । तुन्दः
शाट इति || यंथेवं त्रैस्वथं न प्रकल्पते | तत्र को दोषः | त्रैष्वर्येणाधीमह इत्ये-
ॐ तन्नोपपद्यते | तैतह्ुणापेक्षम् । किं तरिं । अजपेक्षम् | वरैस्वर्येणाधीमहे तरिप्रकारै-
रज्भिर धीमहे केधिदुदात्तगुणैः कैधिदनुदात्तगुणैः केथिदुभयगुणेः । तद्यथा | भुङ-
गुणः शुङ्कः | कृष्णगुणः कृष्णः | य इदानीमुभवगुणः स ' तृतीयामाख्यां लभते क-
ल्माष इति वा सारङ्ग इति वा | एवमिहाप्युदालगुण उदात्तः । अनुदात्तगृणो
ऽनुदात्तः 1 य हदानीमुभयवान्स त॒तीयामाख्यां ठभते स्वरित इति ॥
10 तस्यादित उदात्तमपेहुस्वम् ॥ ९ ।२।२२॥ `
अषेहस्वमिव्युच्यते तत्र दीधेश्ुतयोने प्रामोति । कन्या | शक्तिके शक्तिके*
नैष दोषः | मात्रचोऽत्र रोपो द्रष्टव्यः | अधेहस्वमात्रमधेहस्वमिति | किमर्थमि-
द्मच्यते । आमिश्रीमूतमिवेदं भवति । तद्यथा । क्षीरोदके संप्रक्त आनिन्रीभूत-
त्वान्न ज्ञायते कियल्शीरं कियदुदकं कस्मिन्नवकादो क्षीरं कस्मिन्नवकाद् उदक-
15 भिति | एवमिहाप्याममिभ्रीभृतत्वान्न क्षयते किंयदुदात्तं कियदनदात्तं कस्मिन्नवकाश
उदात्तं कस्मित्नवकारोऽनुदात्तमिति । तदाचायेः उहद्ुत्वान्वाचष्ट इयदुदात्तमिय-
दनुदा्तमस्मिन्नवकाद्य उदात्तमस्मित्तवकादोऽनुदा मिति 1| यद्ययभेवं छहक्किम-
न्यान्यप्येवंजाती यकानि नोपदिकाति । कानि पुनस्तानि । स्थानकरणानुप्रदानानि ।
व्याकरणं नामेयमुत्तरा वि्ा | सोऽसौ छन्दः दाजेष्वभिविनीत उपलब्ध्यावगन्तु-
20 मुत्छहते | यद्येवं नार्थोऽनेन ` | इदमप्युपलब्ध्या गमिष्यति || संश्ञाकरणं तर्धेदम् |
तस्य स्वरितस्यादितोऽषेहस्वमुदाच्संश्ञमिति । किं कृतं भवति । रिरुराप्रदेशेषु
स्वरितप्रहणं न कतेव्यं भवति | उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः [१.२.४०] उदा"
तस्वरितयो्येणः स्वरितो .नुदान्नस्य [८. २. ४ | नोदात्तस्वरितोदयम् [८.४.६७]
इति || संज्ञाकरणं हि नाम यतो न रधीयः । कुत एतत् | रष्वे हि संज्ञाकर-
25 णम् | लघीयथ तिरुरात्तप्रदेरषु स्वरितमहणं न पुनः संज्ञाकरणम् । तिरुदात्तप-
देशेषु स्वरितम्रहणे नवाक्षराणि संज्ञाकरणे पुनरेकादरा ॥ एवं तद्युभयमनेन क्रियते
# ८, २. ९८१
१० १.२.३३. | ॥ व्यारकरणयहाभाष्यय् ॥ २०९
जन्वाख्यानं च संज्ञा च | कथं पुनरेकेन यलेनोभयं ` रभ्यम् । ठभ्यमित्याह |
कथम् | अन्वर्थग्रहणं विज्ञास्यते | तस्य स्वरितस्यादितोऽ्षहस्वमुरा्तसंश्ञे भव-
तीति | उर्वमान्तमिति चात उदात्तम् ।| यदि तर्हि संज्ञाकरणमुदात्तादेयेदुच्यते
तत्स्वरितादेरपि प्राति } अन्वाख्यानमेव तर्हीदं मन्दबुद्धेः ||
स्वरितस्या्धहस्वोदात्तदोदान्तस्वरितपरस्य सन्नतरादृष्वैमुदाच्दनुदाचस्य
स्वरितात्कार्यं स्वरितादिति सिद्धयर्थम् ।॥ ९ ॥
स्वरितस्यार्धहस्वोदात्तारा उदा ्तस्वरितपरस्य सन्नतरः ९. २.४ ० | इत्येतस्मा-
त्व्रादिदं उतकाण्डमुर्वमुदात्तादनुदा्स्य स्वरितः [८.४.६६ | इत्यतः कतैव्यम् |
किं प्रयोजनम् | स्वरितादिति सिद्यथेम् | स्वरितादिति सिदियेथा स्यात् | स्वरिता -
त्संहितायामनुदा्तानाम् [१.२.३९] इति । इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति द्ुतुद्रि | 10
क तरि स्यात् | यः सिद्धः स्वरितः । कायै" देवदत्तयज्षदत्ती || -
स्वरितोदासा्थे च || २॥
स्वरितोदा्लाथे च तत्रैव कतैव्यम् । न उन्रहमण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः
१.२.२३७] |. इन्द्र आगच्छ | क्र तर्हि स्यात् | यः सिद्धः स्वरितः । ब्रह्मण्यो *-
मिन्द्र आगच्छ ||
॥ ¬ / |
19
स्वरितोदात्ता्ास्वरितार्थम् ॥ ३ ।।
स्वरितोदात्ता्ास्वरिताथ तत्रैव कनैव्यम् | इन्द्र आगच्छ | हरिश्र भागच्छ ||
स्वरितपरसन्नतराथे च ॥ ४ ||
स्वरितपरसन्नतराथै च तत्रैव कमैव्यम् | उदाच्तस्वरितपरस्य सक्चतरः [१.२.
४०|| माणवक जटिककाध्यापक न्यड्† | क्र तर्हि स्यात् | यः सिद्धः स्वरितः 20
माणवक जटिलकाभिरूपकं क्र ‡ || तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् |
देवब्रह्मणोारनुदात्तवचनं ज्ञापकं स्वरितादिति सिडदत्वस्य | ५॥
देवनब्रक्मणोरनुदात्तवचनं क्ञापकं सिद्ध हह स्वरित इति || यद्येतञ्ज्ञाप्यते
स्वरिवोदान्तात्परस्यानुदात्तस्य स्वरितत्वं प्रामोति । न ब्रूमो देवत्रह्मणोरनुरान्तव चनं
्नापकं सिद्ध इह स्वरित इति | किं तर्हि | परमेतत्काण्डमिति ॥
‡ ९.३. १२; ६.१. १८५. $ २.२. ३८.
29
= ६.९. ९६,८५., † ६.२, ५३; ८.२. ४.
2५.
, २९० ॥.व्याकरणमहामाष्यम् ॥ ` पि१६९९
एकश्चुति दरात्संबुद्ौ ॥ १. । २। २.२. ॥
किमिदं पारिभाषिक्याः संबुदधभरहणमेकवचनं संबुदधिः [२.३.४९] । भे.
स्विदन्वथेग्रहणं संबोधनं संबुद्धिरिति । किं चातः | अदि पारिभाषिक्या देव
ब्रह्माणः * अत्र न प्रापनोति | अथान्वर्थम्रहणं न दोषः | यथा न दोषस्तसतु॥
किं पुनरियमेकभ्चुतिरुदान्ताहोस्िदनुदाच्ता । नोदान्ता | कथं त्ञायते | यदय-
मुचचैस्तरां वा वषद्भारः [१.९.३९ | इत्याह । कथं कृत्वा ज्ञापकम् | भतन्तं तः
निर्देशः । यावदुचचैस्ताबदुचैस्तरामिति | यदि तर्हि नोदात्तानुरात्ता । अनुदात्ता
न | कथं ज्ञायते | यदयमुदात्तस्वरितपरस्य सच्चतरः [९.२.४०] हत्याह | क्य
कृत्वा ज्ञापकम् } अतन्त्रं तरनिर्देशः । यावस्सन्नस्तावरसत्ततर हति | सैषा शप
10 काभ्यामुदात्तानुदात्तयोमेध्यभेकभ्रुतिरन्तरालं हियते ॥
| भपर आह | किमियमेकभ्ुतिरुदात्तोतानुदात्ता | उदात्ता । कथं क्ञायते | यदव-
मुबस्तरां वा वषट्वार इत्याह | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | तन्तं तर निदेशः । चेश
चस्तरामिस्थेतद्भवति | यदि तद्यीदात्ता . नानुरात्ता । अनुदात्ता च | कथं शयत |
यदयमुरात्तस्वरितपरस्य सन्नतर इत्याह | कथं कृत्वा ज्ञापकम् । तन्त्रं तरनिरदशः।
15 सन्नं दृष्टवा सन्नतर इत्येतद्भवति || त एते तन्त्रे तरनिर्दैशे सप्र . स्वरा भवनि ।
उदासः । उदात्ततरः | अनुदात्तः । अनुदात्ततरः । स्वरितः | स्वरिते य उदात्त
सोऽन्येन विशिष्टः | एकम्युतिः सप्तमः ॥
५
न सुब्रह्मण्यायां खरितस्य तूदात्तः ॥ ९. । २।२.७॥
सुब्रह्मण्यायामोकार उदन्तः || ९ ॥
0 शब्रह्मण्यायामोकार उदात्तो भवति | सुब्रह्मण्योम् |
आकार आष्याते परादिश् ॥ २॥
आकार आख्याते परादिश्चोदात्तो भवति । इन्द्र आगच्छ | हरिव आगच्छ ॥
| वाक्यादौ चद्ेदे॥३॥
वाक्यादौ च हे हे उदात्ते भवतः | इन्द्र आगच्छ | हरिव आगच्छ ||
# ९ * ब् ॥, द् ८*
पा १.२.३२-३९.] ॥ व्या्करणमहामाष्यम्॥ ` २१९.
मषवन्वर्जम् ॥ ४ ॥ `
आगच्छ मधवन् |
सुत्यापराणामन्तः ॥ ९ ॥ |
त्यापराण्णमन्त उदात्तो भवति । ब्य त्याम् | तये इत्याम् ॥ ‡
असाविस्यन्तः ॥ ६ ॥ | ४
भसावित्यन्त उदात्तो भवति | गार्ग्यो यजते | वात्स्यो यजते ||
अमुष्येस्यन्तः ॥ ४७ ॥
अमुष्येत्यन्त उदात्तो भवति । दाक्षिः पिता यजते ॥
स्यान्तस्योपीत्तमं च ॥ ८ ||
स्यान्तस्योपोत्तममुदयान्तं मवत्यन्तश् । गाग्येस्य पिता यजते | वास्स्यस्य 10
पिता यजते ॥
वा नामधेयस्य | ९
वा नामधेयस्य स्यान्तस्योपोत्तममदाततं भवति | देवदत्तस्य पिता यजत | देव-
दत्तस्य पिता यजते ||
देवन्रह्यणोरनुदात्तः ॥ १।२।२३८॥ ` 18
देवब्रह्मणोरनुदात्तत्वमेके ।. ९ ॥
देवत्रह्मणोरनुदात्तत्वमेक इच्छन्ति | देवा ब्रह्मणः | देवा ब्रह्माणः ||
सखरितास्संहितायामनुदात्तानाम् ।! १. । २।२९॥
स्वरितात्संहितायामनुदाच्तानामिति चेद्रयेकयेोरेकश्रुस्यव चनेम् ॥ ९ ॥
` स्वरितास्संहितायामनुरात्तानामिति वेद्वयेकयोरैकभरुत्यं वक्तव्यम् | आभिवे- 20
रयः । पचति. | किं पनः कार्णं न सिध्यति | बहवचनेन निर्देशः क्रियते तेन
बहूनातरैकभ्ुस्यं स्याद्चेकयोन स्यात् ॥ तरैष दोषः । नात्र निर्देशस्तन््रम् | कथं `
१२ ॥ स्याकरणमरहाभाव्यम् ॥ ` “ [म० ६.१९.
पुनस्तेनैव नाम निर्देशाः क्रियते तच्चातन्तरं स्यात् । तत्कारी च भवांस्तदकेवी च|
नान्तरीयकस्वादत्र बहुवचनेन निर्देहः क्रियते ऽवदयं कयाचिद्िभन्त्या केनचिह-
चनेन निर्देशः कतेव्य इति | तथथथा । कथिदशार्थी शारिककापं सपलालं सतुष-
माहरति नान्तरीयकत्वात् | स यावदादेयं तावदादाय तुषपलालान्युत्डजति | तथा
¢ कथिन्मां सार्थ मह्स्यान्सकण्टकान्सशकलानाहरति नान्तरीयकत्वात् | स॒ याव-
दादेयं तावदादाय हाकरलकण्टकानुत्छजति | एवमिहापि नान्तरी यक त्वाद्रहूवचनेन
निर्देशाः क्रियते अषिरेषेणेक ग्चत्यम् ॥
अवि रोषेभक श्युत्यामिति चेद्यवहितानामप्रसिदिः ॥ २ ॥
अविशेषेण कश्चुत्यमिति चेव्यवहितानातरैकञ्ुस्यं न प्राभोति । इमं मे गङ्गे यमुने
10 सरस्वति भुतुद्रि ॥
अंनेकमपीति तु वचनास्सिद्धम् ॥ ३ ॥
अनेकमप्येकमपि स्वरितास्परं संहितायामेकञ्चुति भवतीति वक्तव्यम् | सिध्यति।
सूत्रं तर्हि भिद्यते ॥ यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं ॑स्वरितात्संहितायामनुदात्ताना-
मिति चेद्येकयेरेकञचुत्यवचनमविहोषेण ` ध्यवहितानामप्रसिडिरिति । त्रैष दोषः |
1 कथम् | एकरेषनिरदँशोऽयम् । अनुदात्तस्य चानुदान्तयोधानुदात्तानां चानुदात्ताना-
मिति | एवमपि षटुप्रभृतीनामेव प्राभोति । षटभभृतिष्येकेषः परिसमाप्यते ।
्रस्येकं वाक्यपरिसमापिदृष्टेति व्येकयोरपि भविष्यति ॥
अपृक्तं एकाद्प्रययः ॥ १. । २४१ ॥
अपृक्त संज्ञायां हल्ग्रहणं स्वादिकेपे इलो अग्रहणार्थम् ॥ ९॥
20 अभृक्तसंज्ञयां हल्व्रहणे कतेव्यम् । एकहत्प्रत्ययो पृक्तसं शो भवतीति वक्त-
व्यम् | किं प्रयोजनम् | स्वादिकोपे हलो अग्रहणाथेम् | स्वादिकोपे हलो ब्रहणं न
कतेव्यं भवति । हट्उन्याम्भ्यो रीषोत्छतिस्यपृरक्तं दल् [६.१.६८] इत्यपृक्त स्येत्येव
सिद्धम् ।। अगिओटुगथेमल्पहणम् | अणिञोर्लग्थमल्महणं कतेव्यम् । किं प्रयोज
नम् । अणिञोलकि बहणे न कतेव्यं भवति | ण्यक्षन्निया्षीनितो युनि लुगणिमो
25 [२.४.५८] इत्यग्क्तस्येत्येव सिद्धम् ।
. जरं° ९.२.४१. ॥ भ्यव्करननरानाच्यम् ॥ ` २९३
अणिजोरलुग्थमिति चेण्णेऽतिप्रसङ्गः ॥ ० ॥। ,
अणिटैगर्थमिति वचेण्णेऽतिप्रसङ्गो भवति | इहापि प्राभोति । फाण्टाहतेरपत्यं
माणवकः फाण्टाहइत इति* || णवचनसामथ्योच्च भविष्यति |
वखनप्रामाण्यादिति शेत्फग्रिवृत्ययं वचनम् ॥ ३ ॥
वचनप्रामाण्यादिति चेर्फभिवृत्त्य्थमेतस्यात् | फगतो मा भूदिति। | ४
वेलादिषु वचनास्सिद्धम् । ४।।
यद्येतावत्मयोजनं स्याखैलादिष्वेवः पाठं कुर्वति | तत्र पाठादन्येषामपि एको
निवृत्तिभेवति । एवं सिद्धे सति यदयं. गं शास्ति तज्ज्ञापयत्याचार्यो नास्य लुग्भ- `
वतीति ||
तान्येतानि श्रीणि म्रहणानि भवन्ति | अपृक्त संज्ञायां हल्महणं कतेव्यम् | स्वा- 10
दिलीपे इलो महणं न कतेव्यम् | भणिओङकि हणं कतैव्यम् | अनल्पहणेऽपि
रै क्रियमाणे तान्येव त्रीणि चहणानि भवन्ति | अप्रकसंश्ायामल्मदणं कर्तव्यम् |
स्वादिकोपे हठो महणं कतेव्वम् | भणिओलुकि भ्रहणं न कतैव्वं भवत्यप्क्त्रहणं
कतेव्यम् । तत्र नास्ति लाषवकृतो विशेषः || भयमस्ति विशेषः | अल्महणे
क्रियमाण एकग्रहणं न करिष्यते } कस्माच्च भवति | दर्विः जागृचिः$ | अकेव 15
यः प्रत्ययः | किं वच्तध्यमेतत् | न हि | कथमनुस्यमानं गंस्यते | अल्यहणसा-
मथ्यौत् | यदि यो ऽल् चान्यथ तत्र स्यादल्यहणमनथेकं स्यात् || शल्महणेऽपि प्रिय
माण एकमहणं न करिष्यते । कस्माच्च भवति । दर्विः जागुविः | हलेव यः
्रस्ययः । किं वक्तव्यमेतत् । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | हल्प्ररणसामथ्यीत्।
यदि यो शल् चान्य तश्र स्याद्धल्प्रहणमनथेकं स्यात् | अस्त्यन्यडल्पहणस्य प्रयो - 20
जनम् | किम् | हलन्तस्य यथा स्यादजन्तस्य मा भूदिति | एवं तर्हि सिदे सति
यदल्त्रहणे क्रियमाण एकग्रहणं करोति वज्ज्ञापयत्या चार्यो ऽन्यत्र वणैमहणे जाति-
महणं भवतीति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् । दम्मेदैल्प्रहणस्य जातिवाचकत्का-
ल्खिदडधमिस्युक्तं 4 तदपपत्तं भवति ॥
+ ४. ९०९५०, ¶ ४.९.९०९, {२.०.८८८ ३६.१.६७ भृ ९.२.१०५.
१९४ ॥ धफकरषकहाभाष्यम् ॥ ` ¦ [म०६.२.६
तदयुरुषः समानषिकरणः कमेधारयः ॥ १।२। ४२ ॥
ततयुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारय इति चेत्समामिकार्थत्वादभसिदिः।।९॥
तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयं इति चेत्समासंस्थैकार्थत्वास्संजञाया जप्-
सिद्धिः | एको ऽयमथेस्तत्पुरुषो नामानेकाथोश्नयं च सामानाधिकरण्यम् ॥
ॐ .. सिद्धं तु पदसामानाधिकरण्यात् ॥>॥ |
| सिद्धमेतत् | कथम् । तत्पुरुषः समानाधिकरणपदः कर्मधारयसेश्ञो भवतीति
वक्तव्यम् | सिध्यति | खश तर्हि भिदते || यथान्यासमेवास्तु | ननु चोक्त तस्पु-
रुषः समानाधिकरणः कर्मधारय इति चेत्समाचचैका्थत्वादप्रसिद्धिरिति । नैष दोषः।
अर्यं. तत्पुरुषो स्स्स्येव प्राथमकल्पिको ` यस्मि्चैकप्यमेकस्व्यमेकविभक्तित्वं च|
10 भसि तादभ्योत्ताच्छम्यं त्पुरुषा यौनि पदानि ` तत्पुरुष इति । ` तद्यस्तादथ्यौत्ताच्छम्दं
तस्येदं ब्रहणम् ॥
प्रथमानि समास उपसजैनम्॥ १।२।४२ ॥
अयमानिरदिष्टं समास उपसर्जनमिति चेदनिरईदात्मथमायाः समासे
| संज्ञाभसिदधि : ॥ ९ ॥
15 प्रथमानिर्रिष्ठं समास उपसजैनमिति वेदनिर्देशासथमायाः समास उपसर्जनसं
ज्ञाया अप्रसिद्धिः | न हि कष्टादीनां समासे" प्रथमां परयामः |
सिद्ध तु संमासविधाने वचनात् || २॥।
सिद्धमेतत् । कथम् । समासविधाने प्रथमानिर्दिष्टभुपसर्जनसंन्ञं भवतीति वक्त-
व्यम् ॥| तत्ता वक्तव्यम् |
20 ` नवां तादध्यौचाच्छन्यम् ॥३॥
न धा वन्कव्यम् । किं कारणम् । तादथ्या्ताख्डग्धं भवति | समासार्थं शालं
समास इति ॥| "* ` ` ` ` ^
# द.९. २४,
प° ६.२.४२-४४.] {. , ॥ व्वाकरनमहाप्रषष्वम् ॥ २१०
य॑स्य विपी प्रथमारनिरददास्ततोऽन्यलाप्धुपसर्जनसंज्ञाभसङ्ः ॥४ ॥ `
यस्य विषौ प्रथमानिरदेदाः क्रियते ततोऽन्यत्रापि तस्योपसओनसंज्ञा प्रामोति |
राज्ञः कुमारीं राजकुमारीं श्रितः । भ्रिवादिसमासे हितीयान्तं प्रथमानिर्दिष्टं तस्व
षष्टी समासे ऽप्युपसजनसंश्ञा प्राभोति |
सिद्धं तु यस्य विधो तं भतीति वचनात् ॥ ९ ॥ $
सिद्धमेतत् | कथम् । यस्थ विषौ यस्थमानिर्दि्टं तं प्रति तदुपसजैनसंज्ं भव-
तीति वक्तष्यम् || तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् | उपसर्जनेमिति महती संज्ञा
क्रियते | संज्ञा च नाम यतो न लघीयः | कुत एतत् । रष्वथे हिं संज्ञाकरणम् |
तत्र महत्याः संज्ायाः करण एतस््योजनमन्वरथं संज्ञा यथा विज्ञायेत | अप्रधानमु-
पसर्जनमिति | प्रपान मुपसजैनमिति च सं बन्धिहाम्दाभेती | तन्न संबन्धादेतद्न्त्यं 10
य प्रति यदप्रधानं तं प्रति तदुपसजेनसंज्ञं भवतीति ॥
अथ यत्र हे षष्ठ्यन्ते कस्मान्तत्र प्रधानस्योपसजैनसंज्ञा न. भवति ] राज्ञः
पुरुषस्य राजपुरषस्येति
-षष्ठयन्तयोश्चोपस्जनत्व उक्तम् ॥ ६ ॥
किमुच्छम् । षचन्तयोः समासे ऽयोमेदात्मधानस्यापूवेनिपात इति | एव॑ न 15
चेदमकरृतं भवेदुपस्जनं पु्वैमित्यर्थशाभिन्च इतिं कृत्वा प्रधानस्य पृवनिपातो न. भवि-
प्यति ॥ यद्यपि तावदेतदुपसजैनकायै परिहतमिदमपरं प्रापोति | राज्ञः कुमायौः
राजकेमायौः । गोज्ञियोरपसजेनस्य [९.२.४८] हति स्वत्वं प्राप्रोति ।
उक्त वा ॥ ७ ॥
किमुक्तम् | पर वलि ङ्गमिति शम्दशब्दायौविति§ । तत्नौपदेश्िकस्य हस्वत्वमा- 20
तिदेशचिकस्व अवणं भविष्यति ॥
एकविभक्ति चापुवेनिपाते ॥ १ । २ । ४४ ॥
कितीयादीनामप्यनेनोपसजेमसंज्ञा ब्राभोति | ततर कौ रोषः | तत्रापूवैनिषात
इति प्रतिषेधः प्रसज्येत || नाप्रतिषेधात् } नायं प्रसज्यप्रतिषेधः पू्ैनिपाते नेति ।
# ९,२.४८; २.२.३०. † २.२.८. ` ‡ २.२.२०५. { २.४. २३६१.
२६६ ॥ व्यच्करनगलभर्व्वम्-॥. ` म०९.२.६.
किं तर्हिं । पर्युदासोऽयं यदन्यत्पुवेनिपातादिति । पूरैनिपाते ्यापारः | यदि
केनचित्पामोति तेन भविष्यति । पूर्वेण च प्रापरोति तेन भविप्यति || अप्रपरेवौ |
अथवानन्तरा या प्राप्तिः सा प्रतिषिध्यते | कुत एतत् । अनन्तरस्य विधिव भवति
प्रतिषेधो वेति | पवी प्राप्निरप्रतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं भरातः पवौ
$ प्रा्धिं वाधते | नोत्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम् ||
एकविभक्तावषष्टयन्तवचनम् ॥ ९ ॥
एकविभक्तावषष्टध्न्तानामिति वक्तव्यम् । इह मा भूत्“ । अपै पिप्पल्या
भर्पिप्पली इति 1. | |
उक्तवा | >॥
10 किमुक्तम् । परवलिङ्कमिति शब्दशब्दाथोवितिः । तज्रौपदेशिकस्ये हस्वस्व-
मातिदेद्कस्य श्रवणं भविष्यति ॥
कानि पुनरस्वं योगस्य प्रयोजनानि । `
प्रयोजनं द्विगुपरासापन्नारूपूरवोपसगौः क्ते | | | द ॥
दिगुःऽ । पञ्चभिर्गोभिः क्रीतः पञ्चगुः || प्राप्रापश्च¶ | प्राप्तो जीविकां पराप्रजी-
15 विकः | आपन्नो जीविकामापच्तजीविकः | भकंपुवं “| अलं कुमायौ भरुकुमारिः।
उपसगीः क्तार्थ** | निष्वौङाम्बिः ] निर्वाराणसिः ॥
इति शआ्भगवत्पवश््रलिषिरचिते व्याकरणमहाभष्ये प्रथमस्याध्यायस्य हितीये
पादे प्रथममाद्धिकम् ॥
* १.२.४८, 1२.९.९२. {२.५.२९५ ऽ २९.५९. ¶ृ २.२.१४. ++ २.२.६८५.
पा९१.२.४५. | । व्याकरण मङाफष्यय ॥ २९७;
अथवदधातुरप्रत्पयः प्रातिपदिकम् ॥ १. । २ । ४८५ ॥
अथेवदिति व्यपदेशाय वणीनां च मा भूदिति | किं च स्यात् | वनम् धनमिति
नल।पः प्रातिपदिकान्तस्य [८.२,७| इति नलोपः प्रसज्येत || अधातुरिति किम-
यम् । अहन्वृ्रमिति || भधतुरिति शक्यमकर्तुम् | कस्मान्न भवति अहन्वृत्र-
मिति | आचायेप्रवृत्तिज्ञापयःते न धातोः प्रातिपदिकसंज्ञा भवतीति यदयं पो
धातुप्रातिपदिकयोः [२.४.७९ | इति धातुम्रहणं करोति } वैतदस्ति ज्ञापकम् |
प्रतिषिद्धाथमेतस्स्यात् | अपि काकः दयेनायत* इति || अप्रत्यय इति किमर्थम् ।
काण्डे कु्ये† || अप्रत्यय हति हाक्यमकर्तुम् । कस्मान्न भवति काण्डे कुदे इति ।
कृ तद्धितयहणं { नियमार्थे भविष्यति | कृ त्द्धितान्तस्यैव प्रत्ययान्तस्य प्रातिपदिकसंज्ञा
भवति नान्यस्येति | 0
अथवत्यनेकपदप्रसद्भः ॥ ९ ॥
अथवति प्रातिपदिकसंज्ञायामनेकस्यापि पदस्य प्रातिपदिकसंज्ञा प्राप्रोति | दा
दाडिमानि षडपपाः कुण्डमजाजिनं पलकपिण्डः भधरोरुकमेतत्कमायौः स्मैयकृ-
तस्यं पिता प्रतिङीन इति || समुदायोऽत्रानथेकः |
समुदायोऽनर्थक डति चेदवयवार्थवच्वास्समुदायाथेवच्वं यया लोके । २॥ 18
समुदायोऽन्थक इति चेदवयतरैरथेवङ्धिः समुदाया . अप्यथेवन्तो भवन्ति यथा
लोके | तद्यथा | लोक अद्यमिदं नगरं गोमदिदं नगरमिव्युच्यते न च तत्र सव
आद्या भवन्ति सर्वे वा गोमन्तः || यथा रोक इत्युच्यते लोके चावयवा एवाथ-
वन्तः न समुदायाः । आतश्चावयवा एवाथेवन्तो न समुदाया यस्य॒ हि तद्व्वं
भवति स तेन काये करोति यस्य चता गावः सन्तिसरतासां क्षीरं धृतं चोपभुडः 20
अनत्रैरेतदृषटुमप्य राक्यम् | का तर्दीयं वाचोयुक्तेराद्यमिदं नगरं गोमदिदाभेति |
एवैषा व्राचोयुक्तिः | इह तावदाद्यमिदं नगरमित्यकारो मव्वर्थीवः । अद्या अ-
स्मिन्सन्ति तदिदमाद्यमिति | गोमदिदमिति म्वन्तान्मत्वर्थीयो ठुप्यते | एवमपि
बाक्यप्रतिबेधोऽ्थवचात् । ३.॥
वाक्यस्य प्रातिपदिकसंज्ञायाः प्रतिषेधो वक्तव्यः | देवदसल गामभ्याज भुज्ञाम् ‰&
* ३, ९. १६. † १.२. ४०, { २. २. ४६.
+ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ | िग-र्र्क
देवदत्त मामभ्याज कृष्णामिति | किं कारणम् । अर्थवन्वात् | अे्षद्ये तलक
भवति || न तै प्रदाथादन्यस्यार्थस्योपलग्धि्मैवति वाक्वे |
पदाथोदन्यस्यानुपरन्धिरिति चेत्पदायथीभिखबन्धस्योपरून्धिः ॥ ४ ॥ .
पदाथोदन्यस्यानुषभ्धिरिति चेदेवमुच्यते | पदाथीभिसंबन्धस्योपलग्धिर्भकति
5 वाक्ये | हह देवदत्त इत्युक्ते कतौ निर्दिष्टः कमं क्रियागुणौ चानि । गामिस्युक्ते
कमेः निर्दिष्टं कतौ क्रियागुणौ चानि्दिष्टौ । अभ्याजेस्युक्ते क्रिया निर्दिष्टा कतै"
क्मेणी गृणधानि्दिष्टः | भुङ्काभिस्युक्ते गुणो निर्श््टिः कर्ैकर्मैणी (क्रिया चानिर्दिष्ा |
इहेदानीं देवदत्त गामभ्याज शुक्तामिस्युक्ते सभ निरिं भवति | -देवदनत्त एवः कर्ता
नान्यः | गौरेव कमे नान्यत् । भभ्याजिरेव क्रिया नान्या | मुद्ञमेव न कृष्फ-
10 भिति | एतेषां पदानां सामान्ये वतेमानानां यदिशेषेऽवस्थानं स वाक्यार्थः |
तस्मात्मतिषेधः || ५ ॥
तस्मायतिषेषो वक्तव्यः || न वक्तव्यः.
अयथवत्समुदायानां समासग्रहणं नियम्थम् ।[ ६ ॥
अर्थेवत्समुदायानां समासग्रहणं नियमाथे भविष्यति | समास एवायैवतां
समदायानां प्रातिपदिकसंज्ञो भवति नान्य इति || यदि नियमः क्रियते प्रकृतिप्रस्य-
यसमुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञा न प्राति | बहुपटवः" उच्चक्ररेति† | किं पुनरत्र
प्रातिपदिकसज्ञया प्रा्यते | प्रातिपदिकादिति स्वाद्युत्पत्तियथ। स्यात्+ ] नेष दोषः |
यथैवात्राप्रातिपदिकत्वार्स्वरादय्पत्तिने भवत्येवं लुगपि§$ न भविष्यति | तत्र॒ वैवा-
सावन्तवैर्पिनी तविभक्तिस्तस्या एव श्रवणं भविष्यति | नैवं शक्यम् । स्वरे हिं दोषः
0 स्यात् | बहुपटव इत्येवं स्वरः प्रसञ्येत बहृपटव इति चेष्यते | परिष्यति द्या-
चार्यः | चितः सप्रकृतेबह कजथंमिति4 | तस्यां पुनदुप्रायां यान्या विभक्तिरुत्प-
द्यते तस्याः प्रकृत्यनेकदेरास्वादन्तोदात्तत्वं न भविष्यति || एवं तद्यो चायप्रवृचिः
ज्चोपयति. भवति प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञेति यदयमपरत्यय इति
प्रतिषेधं शास्ति । स च तदन्तप्रतिषेधः | स ताह ज्ञापकार्थः प्रत्ययप्रतिषेधौ
2 वक्तव्यः | ननु चायं प्राप्य्यौ ऽपि वक्तव्यः | नार्थः प्राप्यर्थेन | कृलदधितग्रहणं
नियमाय भविष्यति | कन दितान्तस्थैव प्रत्ययान्तस्य प्रातिपदिकसंशा मविभ्यति
# ५. ३. ६८. † ५. ३. ५९. { ४.९.९२३. § २.४. ७६, थु ६.९. १६१५.
फं५ १.२.४५. | ५ म्पाकतस्मवहापाष्यम्॥. रर्थः
कल्कस्य - पत्ययान्तस्येति । - स एषोऽनन्याथः प्रस्ययप्रतिषेणो वक्तव्यः प्रकृतिप्रत्ययः
समदायस्व वा प्रातिपदिकसंज्ञा वक्तव्या || उभयं न. वक्तष्यम् | तुल्यजातीयस्यः
निवमः | कथ तुल्यजातीयः । यथाजातीयकानां समासः | कथंजातीयकानां
समासः । खबन्तानाम् {1 पि मुदायस्य तर्हि प्रातिपदिकसंज्ञा प्रामोति । खभिङ्-
मुदायस्व प्रातिपदिकसंक्ञारमभ्यते । जहि कमणा बहुरुमामीर्ण्ये कतारं चाभिद- 5
धातीति* | तश्भियमा्थे भविष्यति । रुतस्यैव खप्निङमुदायस्य `भाविपदिकसंज्ञा
भषति नान्यस्येति || तिङ्मुदायस्व तर्हिं प्रातिपदिकसंज्ञा प्राभि | तिङ्मुदाय-
स्यापि भातिपदिकसंज्ञारभ्यते | आख्यातमाख्यतिन क्गियासातस्य इषि" | तक्षियमायैः
भविष्यति । एतस्येत्र तिङमदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञा भवति नान्यस्येति ॥
अथव्रत्ता नोपपद्यते केवलेनावचनात् | ७ || 10
अर्थवत्ता नोपपश्यते वृक्षराब्दस्य । किं कारणम् | केव्रलेनत्रिचनात् | न केव-
तेन वृक्षशब्दे नाथे गस्यते | केन तर्हिं | सम्रध्ययकेन ||
न वरा प्रत्ययेन निव्यसंबन्धात्केवरस्याप्रयोमः ॥ ८ ॥
न वैष दोषः | क्ंकारणम् । प्रत्ययेन नित्यतंबन्धात् । नित्य॒ संबन्धाबेवावर्थे
परकृतिः प्रत्यय इति | प्रत्ययेन निव्यसंबन्धस्किवलस्य प्रयोगो न भविष्यति || 15
भन्यद्भवन्पुष्टो ऽन्यदाचष्टे | आज्रान्प्रष्टः कोविदारानाचष्टे | भथवन्ता नोपपद्यते
केवठेना वचनादिति भवानस्माभिशचोदितः केवलस्याप्रयोगे हेतुमाह । एवं च किल
नाम कृत्वा चोद्यते समृदायस्यार्थे प्रयोगादवयवानामप्रसिदधिरिति ॥
सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम् || २ ॥
ज्िद्धभमेतत् | कथम् | भन्वयाद्यतिरेकाच्च | कोऽसावन्वयो व्यतिरेको भा | इह 20
वृक्छ इत्युक्ते कथिच्छब्दः भयते वृक्षशब्दो. ऽकारान्तः सकार प्रत्ययः । अर्थों
ऽपि कथिद्गम्यते मूलस्कन्धफलपलादावानेकत्वं च | वृक्षाविव्युक्ते कथिच्छम्दो हीयते
काथिदुपजायते कथिदन्वयी | सकारो हीग्रत ओकार उपजायते वृक्षदाष्दो ऽकारा-
न्तेऽन्वयी | अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते कथिद पजायते कथिदन्वयी | एकत्वं हीयते हिस्व-
म॒पजायते मुलस्कन्धफलपलादावानन्वयी | ते मन्यामहे यः शाब्दो हीयते तस्यासा- 2
वर्यो योऽर्थो कयते ग्रः , शाब्द उपजायते . तस्यासावर्थो . योऽथ उपजायते यः हाम्त्
अन्वय तस्यसपवर्थो योऽयेऽन्वयी || विषम उपन्यासः | वहवो हि राश्दा प्रकार्य
~~~ ~~ ---ङस्का =
* २.२, ७२, ग.
` ९९० ॥ व्याकरणपहाभाष्य॑व् ॥ . ˆ [ ममर-रदः
` भवन्ति | तद्यथा | इन्द्रः शाक्रः पुरुहूतः पुरंदरः । कन्दुः कोठः कुशुलः इति ।
एकञथ शाब्दो बहयेः | तद्यथा । अक्षाः पादाः माषा इति | अतः कि न साषीयो
्थवत्ता सिद्धा भवति ] भ च्रूमोऽयेवन्ता म सिध्यतीति | वार्गिताथेव तान्व यत्यतिरे-
काभ्यामेव | तत्न कुत एतदयं भरकृत्य्थो ऽयं प्रत्ययाय हति न पुनः प्रकृतिरोवोभाव्ौ
$ ब्रूयासत्यय एव वा | सामान्यराम्दा एत एवं स्युः । सामान्यशम्दाथ नान्तरेण
विरोषं प्रकरणं वा वि्ोषेभ्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगनो वृक्षि इत्युक्ते स्वभावतः
करिमिधिदर्थे भरतीति रुपजायते ऽतो मन्या महे नेमे सामन्यद्ब्दा इति । न चेत्सामा-
न्यदाब्दाः प्रकृतिः प्रकृत्यर्थ धेत प्रस्ययः प्रत्ययार्थ |
किं पुनरिमे वणौ भ्थेवन्त आहोस्विदनर्थकाः |
1 वर्ण॑स्यार्थवदनर्थकत्व उक्तम् | ९० ॥
किम॒क्तम् | अर्थवन्तो वणो धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानामेकवणानामर्थदरौ-
नाद्रणेव्यत्यये चार्थान्तर गमनादणानुपलम्पौ चानथगतेः संघाताथैवत्वाञ्च | संघात-
स्थैकाथ्यात्दबमावो वणौत् | अनर्थकास्तु प्रतिवणैमर्थानुपरम्पेवैर्णव्यत्ययापायोपजन-
विकारेष्वथददौनादिति* ॥ तत्रैदमपरिहतं संधाताथवत््वाशचेति | तस्य परिहारः |
15 संघातार्थवत््वाश्वेति चेदृष्टो ह्यतदर्थेन गुणेन गुणिनोऽ्थभावः ॥ ९५ ॥
संघाताथव चेति चेदृदयते हि पुनरतदर्थेन गुणेन गुणिनोऽथैमावः । तद्यथा ।
एकस्तन्तुस्स्वक्तराणे ऽखमथेस्तत्समुदायथ कम्बलः समथः | एकच तण्डुलः ्षुल-
तिषाते ऽपमथेस्तत्समुदायश्च वर्थितकंः समथेम् | एकश्च यल्वजो ` बन्धने ऽसमं-
स्तस्वमुदायश्च रज्जुः समथा भवति | विषम उपन्यासः । भवति हितत्र याच
90 यावती चाथेमाज्रा | भवति हि किंचित्मत्येकस्तन्तुस्त्वक्त्राणे समये एकश्च तण्डुलः
षुखतिषाते समथ एकथ वल्वजो बन्धने समथः | इमे पुनरवैणा अत्यन्ताैवा-
नैकाः || यथा तर्हि रथाङ्गानि विहतानि प्रव्येकं व्रजिक्रियां परतयसमर्थानि भवन्ति
तस्समुदाय्च रथः समथ एवमेषां वणोनां समुदाया अर्थवन्तो ऽवयवा अनर्थका
इति ॥
25 निपातस्यानर्थकस्य प्रातिपदिकस्वम् ॥ ९२॥
` निपातस्यानथेकस्य प्रातिपदिकसंज्ञा षक्त्या | खश्त्रति निखञ्चति | रम्बते
# हवत् ९*.
¶१ १.२.४५. | ॥ स्वाकर्नक्रहाभाच्वम् ॥ ररर
प्रतम्बते || किं पुनरत्र प्रातिषदिकसंञ्ञया प्राध्येते | प्रातिपदिकादिति स्वग्युत्पत्तिः*
षन्तं पदमिति षपदसंज्ञा† पदस्य पदात् [८.१.९६ ~९.७| इति . निघातो ` यथा
स्वरात्{ || त्रैतदस्ति प्रयोजनम् | सत्यामपि प्रातिपदिक संज्ञायां स्व्राद्युस्पत्तिने प्राोति।
किं कारणम् | न हि प्रातिपदिकसं्ञायामेब स्वाद्युखस्िः प्रतिबद्धा | किं वर्हि ।
एकत्वादिष्वर्थेवु स्वादयो विधीयन्तेऽ न चेषमिकत्षादयः सन्ति || नैष दोषः. 5
भविरेषेणोत्पद्यन्त उस्पन्नानां नियमः क्रियते || अथवा प्रकृतानयोनपेल्व नियमः ।
के च प्रकृताः | एकत्वादयः | एकस्मिच्ेवाथं एकवचनं न इयोने वहुषु | इयोरे-
वायोरिव चनं नेकल्मिच्च बहुषु | बहुष्वेवार्थेषु बहुवचनं त्रैकस्मिन्न इयोरिति ॥
भयवाचा्यपरवृसिर्गापयत्यनथकानामप्येतेषां भवत्यथेवत्कृतमिति यदयमधिपरी भ-
नयको [९.४.९३ | हत्यनथेकयोगेत्युपसतगसंज्ञावाधिकां कर्मेप्वचनीयसंज्ञां शालि ॥ 10
किं पुनरयं पयुदासो यदन्यसत्वयादिति | आहोस्विससज्यायं प्रतिषेधः प्रत्ययो
नेति | कथात्र विरोषः |
अप्रत्यय इति चेत्तिेकादेदो भरतिषेधोऽन्तवच्वात् ॥ १३ ॥
भप्ररयय इति वेत्तिवेकादेदो प्रतिषेधो वक्तव्यः | काण्डे कुशे | किं कारणम् |
भन्तवस्वात् | तिबतिपोरेक देशोऽतिपोऽन्तवस्स्यात् | अस्त्यग्यसिप इति कृत्वा 15
प्रातिपरिकसंज्ञा प्रामोति¶ ॥ अस्तु तरि परसञयप्रतिषेधः प्रत्ययो नेति |
न प्रस्यय इति चेदुङेकादेदो प्रतिषेध भादिवस्सात् ॥ १४॥
न प्रत्यय हति चेदृडकादेशे प्रतिषेषः प्रामोति । ब्रह्मबन्धूः“ | किं कारणम्|
आदिवच्वात् | प्रस्ययाप्रस्यययोरेक देशः प्रत्ययस्यादिवस्स्यात् । वत्र प्रत्ययो नेति
प्रतिषेधः प्रामोति | नैष दोषः | भावचार्यप्रवृत्तिज्गपयव्युत्पद्यन्त ऊडनन्तास्स्तरादय इति 20
यदयं नोङ्धात्वोः [६.९.१७९ | इति विभक्तिस्वरस्य प्रतिषेधं शास्ति || अथवा दै
त्र भ्रातिपदिकसंज्ञे भवयवस्यापि समुदायस्यापि । शत्रावयवस्य या प्रातिपदिक-
संज्ञा तयान्त्द्धावारस्वाद्युखत्तिभंषिष्यति ॥|
सुन्छोपे च प्रस्ययलक्षणस्वात् ।॥ ९९ ॥
सुम्लोपे च धरत्ययलक्षणेन प्रतिषेधः भरामोवि । राजा तन्ला†1 | प्रत्ययलक्षणेन प्रत्ययो 25
* ४.१. १६२. † ९.४. ९४. ‡ ८.९. २८. § १.४. २२२, भृ ६.२, ४७,
99 ४, ९, ६६. ` ¶1 ६ ६. ६८; (८, २. 9),
नरक ॥ न्याकर्णद्रहाभाऽ्वम् ` [म०र्.रर
नेति प्रतिषेधः भराभोति || नैष दोषः ।. भाजायेप्रवृत्तिज्ञापयति न प्रस्ययलक्षेणेन
प्रतिषेधो भवतीति यदयं न डिसंबु्ोः [८.२. ८ | इति प्रतिषेधं शास्ति ॥
अथवा पृनरस्तु पयुदासः | ननु चोक्तमप्रस्यय हति चेत्तिबेकादेो प्रतिषेधो
ऽन्तव्रस्वादिति | प्रसज्यप्रतिषेधेऽप्येष दोषः । ह ह्यत्र प्रातिपदिकसंज्ञे अत्रयत्रश्यापि
४ समुदायस्यापि । गृह्यते च प्रातिपदिकाप्रातिपदिकयोरेकादे शाः प्रातिपदिकम्रहणेन |
तस्मादुभाभ्यामपि. वक्तव्यं स्याद्भस्वो नपुंसके यत्तस्येति | किं च नपुंसके | नपुसकं
यस्य गृण : | कस्य च नपुंसकं गुणः, | प्रातिपदिकस्य |
- कृत्तादेतसमासाश्च ॥ १.।२ । ४६ ॥
` समासमहणं किमयम् |
10 समास ग्रहण उक्तम् । ९॥
किमुक्तम् | भेवतसमुदायानां समासयदणं नियमार्थमिति |
हूस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य ॥ ९. । २ । 9.9 ॥
पराति पदिकब्रहणं किमयम् |
नपुंसक हृस्वसत्वे प्रातिपदिकग्रहणं तिभिषरच्यर्थम् ॥ ९ ॥
1५ नपुंसकहस्वत्वे प्रातिपदिकम्रहणं क्रियते ति्निवृत्यथम् | तिबन्तस्य स्वत्वं मा
भूत् । काण्डे कुख्े | रमते ब्राह्मणकुलमिति ॥
भष्ययप्रतिषेधः । २॥
अव्ययानां प्रतिषेपो वक्तव्यः | दोषा ब्राह्मणकुलम् | दिवा ब्राक्षणक्ुरमिति |
स ताह वन्तव्यः | न वक्तव्यः | नात्राध्ययं नपुंसके वतेते | किं तर्हि | भधिक-
20 रणम्रव्ययं न्ुसकस्य || इष तर्हि प्राभोति | काण्डीभूतं वृषलकुलम् । कुीमतं
वृषरकुलमित्ति ॥
नै ६०२१ ४९१, # :* ५ . + # 1,
प०- ९.२.४६ -४८.] ॥ व्याक्टभमरहाभ्यम् ॥ गरड
न वा लिद्भाभावात् | २ ॥
ने वा वक्तभ्यम् | क कारणम् | लिङ्गाभावात् | भलिङ्गमव्ययम् || किं पुनर य -
म्ययस्मैव परिहार आहोस्वित्तिबन्तस्यापि । तिबन्तस्यापीस्याह | कथम् | अश्ययं
हि किंचिदहिभक्तयर्थप्रधानं किचिक्करियाप्रधानम् | उचचर्नविरिति विमक्तयथपरधानं
हिरक्टथगिति क्रियाप्रधानम् । तिबन्तं चापि किंविहिमक्त्यप्रधानं किंचिक्किया- $
प्रधानम् | काण्डे के इति विभक््यथप्रथानं रमते ब्राह्मणकुलमिति क्रियाप्रधानम् |
न चैतयोरर्थयोरछिद्गसंख्याभ्यां योगोऽस्ति || भवयं चैतदेवं विज्ञेयम् | क्रियमा-
णेऽपि हि प्रातिपदिकम्रहण इ प्रसज्येत | काण्डे कुखे | हे यत्र प्रातिपदिकसंे
अवरयवस्यापि समुदायस्यापि | गृष्यते च प्रातिपर्दिंकाप्रातिपदिकंयोरेकादेराः प्रातिष-
दिके महणेन | तस्मादुभाग्यामपि वक्तव्यं स्या द्रस्वो नपुंसके यत्तस्येति | किं च 10
नपुसके । नपुंसकं यस्य गुणः | कस्य च मूपुंसकं गुणः | प्रातिपदिकस्य ||
यकादेदादीवैचखेषु प्रतिषेधः ॥.४ ॥
यंओकादेशदी्ैचेषु प्रतिषेधो वक्तध्यः । युगवर्राय' युगवर परार्थम् युगवर-
बेभयः ||
यञओकादे रादीर्धैेषु बहिरद्र लक्षणत्वास्सिदम् ।! ५ ॥ 15
बहिरद्भा एते विधयः" | भन्तर ङ्ग दस्वस्वम् | सिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग ॥ |
गोखियोरूपसजेनस्य ॥.१. ।,२ । ४८ ॥
उपसर्जनहस्वत्वे च ॥ ९॥ `
उपस जेनहस्वस्वे च | किम् । यञकादेशदीरधे्वेषु प्रतिषेष वक्तव्यः | अतिखटाय
भतिखटराथम् अतिखद्रभ्यः || उपसजेनहस्थत्वे च| किम् । बहिर ्गलक्षणस्वास्िद- 20
मित्येव | बहिर ङ्घ एते विधयः | अन्तर ङ्ग हस्वस्वम् | असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥
गीटाङ्हणं कुन्निवृच्यथंम् ।। २.॥
गोटाङ्णं कतेव्यम् । किमिदं यञ्वति । प्रत्याहारमरहणम् | क संनिविष्टानां
भत्याहारः | टापः प्रभृत्या प्यडो ऊकारात्। । कं प्रयोजनम् । कृतिषु स्ययेम् |
@ ६.९. ९०६; ०.६. ९०३; ९०३. ` ` + ४.९. ४.७८.
२२४ ॥ व्यौ करणमहाभाव्वम् ॥ [मम९.२््श
कृस्लिया धातुखियाश्च हस्त्रतत्रं मा भूदिति | अतितन्त्रीः अतिश्रीः अतिठक्ष्मीरिति"॥
तत्त वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | खी ग्रहणं स्वर्यते तत्र स्वरितेनाधिकार गतिर्भवति, |
ज्ञियाम् |४.९. ३ | इत्येवं कृत्य ये विहितास्तेषां महणं विज्ञास्यते । स्वरितेनाधि-
कार गतिभेवतीति न दोषो भवति || यद्येवं प्रत्ययम्रहणमिदं भवति तत्र प्रत्ययग्रहणे
यस्मात्स तदादेभैहणं भवतीवीह न प्रभोति | अतिराजक्मारिः भतिसेनानीकुमरि-
रिति | अलीप्रत्ययेनेत्येवं तत् ||
देयसो बहुव्रीहौ ववद्षनम् ॥ २ ॥
हेयसो बहत्रीरौ पुंवद्भावो वक्तव्यः| बह्यः यस्व ऽस्य बहुश्रेयसी । विद्यमा-
नभ्रेयसी ॥ |
10 . प्रूवैपदस्य च प्रतिषेधो गोसमासनिवृच्थथेम् ॥ ४ ||
पृेपदस्य च भरतिषेधो वक्तव्यः| किं प्रयोजनम् | मो समासनिवृन््यथेम् | गोनिवृत्त्व-
थे समासनिवृ स्यथ च || गोमिवृत््यथे तायत् | गोकुलम् गोक्षीरम् गोपालक इति||
समासनिवृर्वथेम् | राजकरुमारीपुत्रः सेनानीकुमारीपुत्र इति | किमुच्यते समास-
निवृ स्यथोमिति न पुनरसमासाऽपि किंचि्पुवेपदं यदर्थः प्रतिषेधः स्यात् । ख्यन्तस्व
15 प्रातिपरिकस्योपस जनस्य ह्मो भवती व्युख्यते न बान्तरेण समासं क्यन्तं प्रातिपदि-
कमुपरसजजनमस्ि | ननु चेदमस्ति । खट्रापादः मालापाद इति | एकदे कृते भ्नता-
दिवद्धावास्माभोति । उभयत भश्रये नान्तादिवत् ॥
मोनिवृयर्थेन तावच्नाथः । गोऽन्तस्यर प्रातिपदिकस्योपसजेनस्व (स्वो भवती-
त्युष्यते न धेतद्गोऽन्तम् | ननु चैतदपि व्यपदोशिवद्धावेन गोऽन्तम् | व्यपदेशेवद्धा-
20 बोऽप्रातिपदिकेन || तमातनिवृस्यर्थन चापि नार्थः | स्व्यन्तस्य प्रातिपदिकस्योपसजैनस्य
हस्यो भवतीरयुच्यते भधान मुपसजेनमिति च संबन्धिद्याम्दायेती | तत्र संबन्धादेतह-
न्त्यं य॑ प्रतिं यदप्रधानं तस्य चेस्सो ऽन्तो भवतीति | अबवदयं चैतदेवं विज्ञेयम् |
उच्यमाने ऽपि हि प्रतिषेध इह प्रसज्येत | परश्च कुमायः भरिया भस्य पश्बकुमारी-
भरिवः | दहाक्मारीप्रिय इति ॥ |
| कपि च ॥ ९ ॥
% कपि थ प्रतिषेधो वक्तव्यः | बहुकुमारीकः बहवुषलीकः† || `
# ९.३.६१५. † ५.४, १५३.
प्० १.२.४९. | ॥ व्थाखटगव्रहाभाष्वत्र ॥ ११९
| इन्देव॥६॥
बन्दे च प्रतिषेधो वक्तव्यः | कुकषुटमयूरयी ॥ `
उक्तं वा ॥ ७ ॥
किभुक्तम् | कपि तवदुक्तं न कपि [७.४.१४] इति प्रतिषेध इति । तैतद-
सुक्तम् । केऽणः [७.४.९२ | इति या ह्वप्राप्निस्तस्याः प्रतिषेधः | कुत एतत् । $
अनन्तरस्य विधिवौ भवति प्रतिषेधो वेति | भवदयं तदेवं विज्ञेयम् | यो हि मन्यते
या च यावती च हृस्वप्रात्निस्तस्याः * सवैस्याः प्रतिषेध इतीहापि तस्य प्रतिषेषः प्रस-
ज्येत | प्रियं म्रामणि" ब्राह्मणकुमस्य प्रियमामणिकः | प्रियसेनानिकः || इदं तद्य
क्तम् | कपि कृते ऽनन्त्यस्वा द्रस्वत्व॑ न भविष्यति | हदमिह संपधार्येम्। कच्कि-
यतां हृस्वसमिति किमन्र कर्तव्यम् । परत्वात्कप् | अन्तरङ्गं हस्वत्वम् | भन्तर- 10
क्गवरः कप् । ननु चायं कम्तंमासान्त ह्युच्यते | तादथ्यो साच्छभ्धं भविष्यति |
वेषां पदानां समासो न तावत्तेष(मन्यद्धवति कपं वावलवीक्षते || इन्दे ऽप्यु्तम् |
किमुक्तम् | परवचिङ्गमिति हाम्द शष्शाथोविति। । नेतरौ षदेशिकस्य हैस्वस्भमातिदे-
शिकस्य श्रवणं भविष्यति ॥
लृक्तडितलकरि । ९ । २। ९. ॥। 15
तदितदुक्यवन्त्यादीनां प्रतिषेधः ॥ ५ ॥ `
तद्धितलुक्यवन्त्यादीनां प्रतिषेषो वक्तव्यः | अवन्ती कुन्ती कुरूः‡ ||
तदधितद्ुक्यवन्स्यादीनामपतिषेधो ऽलुक्यरंस्वात् ॥ > ॥
तदितलुक्यवन्त्यादीनामगप्रतिषेषः । अनर्थकः: प्रतिषेधो ऽप्रतिषेधः । लुक्स्मात्
भवति | अलुक्परस्वात् | दु कीदयुष्यते न चात्र लुकं पयामः ॥ लुकीति वैष] 20
परसप्रमी शक्या विक्षातुं न हि लका पौवोपर्यमस्ति | का तरि । सस्सप्रमी |
लुकि सतीति । सस्सप्रमी चेत्पाभोति ॥ एवं तर्हीदमिह व्यपदेदवं सदाचार्यो न
भ्यपदिदाति । किम् । उपस जेनप्येति क्तैते9 । न च जातिरपलजेनम् ||.
ॐ ९.२, ४९, †द.४.२५१, ४.९. ९५६; ९०२; १७६; ६९; ६६. $ ९.२. ४८.
29 नवि
२६ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥ [म०.२१.
दूदरोण्याः ॥ १ ।२।५९५०॥
इततोण्या नेति वक्तव्यम्
गोण्या नेर्येव सिंडम् | नार्थं इवेन || का रूपसिद्धिः | प्चगोणिः दश्यगोणिः.|
स्वता हि विषीयते ।
5 हस्वत्वमनत्र विधीयते गोल्ियोरूपजेनस्य ९.२.४८ | इति ॥
इति वा वचने तावत्
इदिति बोध्येत नेति वा को न्वत्र विशेषः ॥
मार्थं वा कृतं भवेत् ॥ \॥
. अथवा मान्राथमिदं वक्तव्यम् । गोणीमात्रमिदं गोगिः! ॥
10 अपर आक |
गोण्या इं प्रकरणात्
अशिष्यं गोण्या इवम् | किं कारणम् | प्रकरणात् | प्रकृतं हस्वत्वम् | हस्व
इति वतेतेः,|| ननु खच्याः |
सूुच्याद्यथमथापि वा॥
15 स्ूव्याश्यथेमिदं अष्टव्यम् | पश्चसुचिः दङ्रास्चिः |
श्दोण्या नेति वक्तव्यं शूस्वता हि विधीयते ।
हति वा वचने तावन्पा्ाथं वा कुतं भवेत् ॥ ९ ॥
गोण्या शत्वं प्रकरणात्सुष्यादयर्थमथापि वा ॥
लुपि युक्तवदूधक्तिवचने ॥ १. ।२। ५१ ॥
20 ष्यक्तिवचने इति किमर्थम् । शिरीषाणामदूरभवो भामः शिरीषाः$ | तख
भामस्य वनं शिरीषवनम् | किं च स्यात् | विभावषौषधिवनस्पतिभ्यः [८.४.६।
श्ति णत्वं प्रसज्येत |
“ अपर आह | कटुबदयौ अदूरभवो भामः कटुबदरी । षष्ठी युक्तवद्धविन भा
भूरिति || अथ व्यक्तिवचने हत्यप्युच्यमाने कस्मादेवात्र न॒ भवति षष्ठचचपि हि
# ५.९, ३७; २.८. † ५.२. २७४. { ९.२. ४७. § ४.२. ०; ८२.
पा ९.२.५० -५९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् ॥ ९७
वचनम् । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य म्रहणम् । किं तर्द | अन्वथेमहणम् ।
उच्यते वचनमिति | एवमपि षक्षी प्रामोति षष्ठ यपि द्युच्यते | लुपक्तत्वा्स्या-
थस्य हितीयस्य प्रयोगेण न भवितव्यमृक्ताथौनामप्रयोग इति | आतिदेशिकी तर्हि
भराभोति | एवं तर्हि
प्रागपि व॒त्तेर्युक्त वृत्तं चापीह यावता युक्तम्।
वक्तुश्च कामचारः प्राण्वत्तेरिङ्गसंख्ये ये ॥
प्रागपि वृत्तगुक्तं वनस्पतिमिर्नगर वृत्तं चापि युक्तं वनस्पतिमि्नेगरम् । वृत्ते च
युक्तवद्भावो विधीयते | कामचार प्रयोक्तुः प्राग्वृततर्यै किङ्गसंख्ये ते अतिदेषं
वृत्तस्य वा ये लिङ्गसंख्ये ते | यावता कामचारो वृत्तस्य ये लिङ्गसंख्ये ते अति-
देद्येते न प्राग्वृत्तेर्ये | 10
किमर्थं पुनरिदमुच्यते |
अन्यत्राभिधेयव्यक्तिवचनभावष्कुपि युक्त वदनुदेदाः ॥ ९ ॥
अन्यज्राभिपेयवदि ङ्गव चनानि भवन्ति | कन्यत्र | लुकि । ठवणः कूपः |
तवणा यवागूः | लवणं शाकमिति" | अन्यत्राभिपेयवव्यक्तिवचनानि भवन्ति
ठुकि। इहाप्यभिषेयवद्धिङ्ख चनानि पराम ्रन्ति | इष्यन्ते चामिधानवस्स्युरिति तच्चा- 15
न्तरेग॒ यलं न सिध्यतीति लुपि युक्तत्रदनुदेशः | एवमयमिदमुच्यते ॥ भसि
प्रयोजनमेतत् । किं तर्हीति |
लुपो ऽददौनसंन्ञित्वाद्थगतिननोपपद्यते ॥ २॥
लुज्ञामेयमदरेनस्य संज्ञा क्रियते न चादशहोनस्य लिङ्गसंख्ये शक्येते अतिदे-
टुम् । ल्पो ऽदरोनसं्ञित्वादथेगतिर्नोपपद्यते ॥
न वादरौनस्यादाक्यत्वादर्थगतिः साहचर्यात् ॥ ३ ॥
न वैष दोषः | किं कारणम् । अदशेनस्याशक्यत्वात् | अद दैन्य लिङ्गसंख्ये
अशक्ये अतिरेषूमिति कृत्वादशौनसह चरितो योऽर्थस्तस्य गतिभविष्याति साह चर्यात् ||
20
यो गाभावाचन्यस्य ॥ ४॥
अदरानेन च योगो नास्तीति कृतत्रादरौनसड बरितो योऽथैस्तस्यं गतिर्मविष्याति 25
साह चयोत् ॥
~ -~~ == ~ ~ -~-~-----~-
# ४.४. २२; २४. † ९.१. ६९.
१ ॥ व्याकरनगपहामाच्छयम् ॥ [सिर ९.२.
समास उत्तरपदस्य बहूक्वनस्य लुपः ॥ ९ ॥
समास उ्लरपदस्य बहुवचनस्य लुपो युक्तवद्भावो वक्तव्यः | मधुरापश्चालाः' |
कि प्रयोजनम् । नियमार्थम् । समास उत्तर पदस्यैव | क मा मृत् | पचचालमधुरे इति ॥
विरोषणानां चाज्ञातेः ॥ ९. । २।५२ ॥
$ कथमिदं बिङ्खायते | जातियैदिरोषणमिति | आोस्विज्जतियानि विशेषणा-
नीति | फं चातः | यदि विश्चायते जातियैदिदोषणमिति समिद्धं पश्चाला जनपद
इति छमिक्षः संपच्चपानीयो बहुमाल्यफल इति न सिध्यति । अथ विज्ञायते जते-
यानि विक्ोषणानीति सिद्धं छभिक्षः संपच्तपानीयो बहुमाल्यफल इति पञ्चोला
जनपद इति न सिध्यति || एवं तर्द नैवं विज्ञायते जातिरयहि शेषणमिति नापि जतिय-
10 नि विदहोषणानीति | कथं तार्हि | त्रि्ोषणानां युक्तवद्भावो भवत्या जातिप्रयोगान् |
किमथे पुनरिदमुच्यते |
विद्रीषणानां वचनं जातिनिव्रच्यर्थम् ॥ ९॥
जातिनिवुृश्यर्थोऽवमारम्भः ॥ कि मुष्यते जातिनिवृत्यये हति न पुनर्विेषणा-
नामपि युक्तवद्भावो यथा स्यादिति |
15 समानाधिकरणत्वात्सिद्धम् ॥ २ ॥
समानाधिकरणस्त्राहिशेषणानां युक्तवद्भावो भवष्यति || ययेवं नार्थो जेन।
लुपो ऽन्यत्रापि जातिवुक्तवद्धाभो न भवति | कान्यत्र | बदरी खदेमकण्टका मधुरा
युषे हति । किं पुनः कारणमन्यत्र(पि जातेयं क्तश्रद्धानो न भवति । आविष्ठलिङ्क
जातियेधिङ्गमुषादाय प्रवतैत उत्पन्तिप्रभुत्या विनाशा तदिङ्गं जहाति || न वर्ह
20 दानीमयं योगा वक्तव्यः | वक्तव्य | किं प्रयोजनम् । इदं तत्र तत्रोच्यते गुभ-
ववनानां शब्दानामाभ्रयतो लिङ्गवचमानि भवन्तीति | तदनेन क्रियते || `
हरतक्यादिषु व्यक्तिः | ३॥
इरीतक्यादिषु भ्यक्तिभैवति युक्तवद्धाकेन | हरीतक्याः फलानि हरीतक्यः
फलानि || ।
* ५.२. ८१. ` त ४.३. १४०; ९६५.
पीर ६.२.५२३-५८.| ॥ व्थाकरण्ररोपष्ष्यम् ॥ ९१९
` खलतिकादिषु वचनम् ॥ % ॥
खलतिकादिषु वचनं भवति युक्तवद्भावेन | खकतिकस्य पवेतस्यादुरभवानि
वनानि खलतिकै" वनानि ||
मनुष्यदुपि प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
मनुष्यलुपि प्रतिषे वक्तंश्यः | च्चामिरूपः | वभिका ददहीनीयः† | $
तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणलात् ॥ १. । २।५३.॥
किं या एताः हत्रिमाष्टिषुषभादिसंज्ञास्तसामाण्यादशिष्यम् | नेत्याह | संज्ञानं
संज्ञा ||
नायाख्यायामेकस्मन्बहुवचनमन्यतरस्याम् ॥ १।२।५८ ॥
इदमयुक्तं यतेते | केमत्रायुक्तम् । बहवस्तेऽथौस्तत्र युक्तं . बहुवचनम् | तद्यदे- 10
कवचने श्यातितव्ये बहुवचनं शिष्यत एतदयुक्तम् । बहुभ्वेकवचनमिति नाम वक्त-
ष्यम् || अत उन्तरं पठति |
जात्याख्यायां सामान्याभिधानादेकार्थ्यम् ॥ ९ ॥
जात्याख्यायां सामान्याभिधानारैकार्थ्यं भविष्यति | यन्तद्कि व्रीहित्वं यते यवस्वं
` ाग्वे गाग्यत्वं तदेकं त्च विवक्षितम् | तस्थैकस्वादेकव चनमेव प्रामोति । इष्यते च 15
बहुवचनं स्यादिति तञ्चान्तरेग यलं न सिध्यतीति जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनम् |
एवमथेभिदमुध्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् । किं तर्हीति |
तत्रैकवयनादेदा उक्तम् || २॥ |
किमुक्तम् | त्रीदिभ्य भगत इत्यत्र वति [७.३.९९९] इति गुणः भामो -
तीति‡ || नैष दोषः | 20
अथौतिदेशास्सिदधम् ॥ ३.॥
अथौतिरेशोऽयम् । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य ब्रहणम् । किं तरि | अन्वर्थ-
= ४,२. ७०; ८२, † ५.३. ९७; ९८. ‡ ९.९. ५६.
९५३० ॥ व्याकरणमरहामाष्यम् ॥ ` [बण ९,२.३.
ग्रहणम् | उच्यते वचनम् | बहूनामथानां वचनं बहुव चनामिति | यावद्भूयादेकोऽ्या
बहुवद्भवतीति तावदे कस्मिन्वहु वचनमिति ॥
संख्याप्रयोगे प्रतिषेधः ।। ४ ||
संख्याप्रयोगे प्रतिषेधो वक्तव्यः | एको व्रीहिः संपन्नः खमिक्तं करोति ॥
$ ` ` अस्मदो नामयुवप्रत्यययोश्च ॥ ५ ॥
अस्मदो नामप्रयोगे युवमप्रत्ययप्रयोगे च प्रतिभेषो वक्तव्यः || नामप्रयोगे | भहं
देवदत्तो ब्रवीमि । भहं यज्ञदत्तो ब्रवीमि ॥ युवप्रत्ययप्रयोगे | अहं गाग्यौयणो
ब्रवीमि । अहं वात्स्यायनो ब्रवीमि ॥ युव्रहणेन नाथैः | अस्मदो नामप्रत्यय-
प्रयोगे नेत्येव | हदमपि सिद्धं भवति | भहं गार्ग्यो ्रवीमि । अहं वात्स्यो ब्रवीमि |
10 भपर आह | अस्मदः सविशेषणस्य प्रयोगे नेत्येव } इदमपि सिद्धं भवति ।
अहं पटुत्रैवीमि । अहं पण्डितो ब्रवीमि ॥
अरिष्यं वा बहूवत्पृथक्काभिधानात् | & ॥
अशिष्यो वा बहुवद्धावः | किं कारणम् | परथत्कतामिषानात् । पथश्छेन दि
द्रव्याण्यभिधीयन्ते | बहवस्तेऽर्थास्तत्र युक्तं बहुवचनम् | किमुच्यते परथच्काभि-
15 धानादिति यावतेदानीमेवोक्तं जाव्याख्यायां सामान्याभिधानादैकार्थ्यमिति ।
जातिरराम्देन हि दव्याभिधानम् ॥ ७ ॥
जातिराब्देन हि द्र्यमप्यमिषीयते. जातिरपि । कथं पुनर्ञायते जातिराब्दे
द्रव्यमप्यभिधीयत इति | एवं हि कथिन्महति गोमण्डले गोपालकमासीनं एच्छति |
अस्त्यत्र कांिदवां पदयसीति | स परयति परयति चायं गाः प्रच्छति च कांवि-
20 दत्र गां पदयसीति नूनमस्य द्रभ्यं विवक्षितमिति । तद्यदा द्रव्यामिधानं तदा बहु-
वचनं भविष्यति यदा सामान्याभिधानं तंदैकवचनं भविष्यति ॥
| अस्मदो दयोश्च ॥ ९. । २।५९.॥
अयमपि योगः शाश्योऽवक्तम् | कथम् अहं ब्रवीमि आवां त्रूवः बयं ब्रूमः |
इमानीन्द्रियाणि कदाचि्स्वातन्त्येण विवक्षितानि भवन्ति । तद्यथा | हृदं मे अकि
5 छु प्रयति | भयं ने कणेः इषु शृणोतीति । कदाचित्पारतन्श्येण । अनेनाषेणा इष्ट
श १.२,५९-६३, | ॥ ध्याकरणयमरहाभाष्यय् ॥ ०३९
कटयामि | अनेन कर्णेन इक्षु मृणोमीति । तद्यदा स्वातन्व्येण विवन्ता तदा बहुव-
्रनं भविष्यति यदा पारतन्ध्येण तरैकवचनदिव चने भविष्यतः ||
फल्गुनी परोष्ठपदानां च नक्षत्रे ॥ १. । २।६० ॥
अयमपि योगः शक्योऽवक्तुम् | कथम् उदिते पूर्वे फल्गुन्यौ उदिताः पवः
फल्गुन्यः उदिते पूर्वै प्रोष्ठपदे उदिताः पुवः प्रोष्ठपदाः । फन्गुनीसमीपगते .चन्द्र- ¢
मसि फल्गुनीश्म्दो वतेते | बहवस्तेऽथौस्तत्र युक्तं बहुवचनम् | यदा तयोरेषाभि-
धानं तदा हिषचनं भविष्यति |
छन्दसि पुनवेस्वोरे कवचनम् ॥ ९. । २।६१. ॥
विशाखयोश्च ॥ १. ।२।६२ ॥
हमावपि योगौ शचक्षयाववक्तुम् । कथम् । 10
पुनवसुविशाखयोः सुपां सुटुक्पूर्वंसवणति सिद्धम् ॥ ९ ॥
पुनर्व॑द्विश्ाखयोः षां खलुक्पुवसवणे [७.९.३९] इत्येव सिडम् ||
तिष्यपुनवेस्वोनेक्षत्रदनदरे बहुवचनस्य द्विवचनं नित्यम्।॥१।२।६३॥
तिष्यपुनवेस्वोरिति किमथम् । कृत्तिकारोदहिण्यः || नक्षत्र हति कमथम् । तिष्य
माणवकः पुनर्वसर च माणवकौ" तिष्यपुनवैसवः || भथ नक्षत्र हति वर्तमाने पुन- 15
नक्षत्रयहणं किमथम् | भयं तिष्यपुनवेखदाब्दोऽस्त्येव ज्योतिषि वतेते | स्ति च
कालवाची | तद्यथा | बहवस्तिष्यपुनवेसवोऽतिक्रान्ताः | कतरेण तिष्येण गत इति|
त्यो ज्योतिषि यतेते तस्येदं हणम् || अथवा नक्षत्र इति वतमाने पुननैक्षत्रमह-
णस्यैतल्मयोजनं विदेशस्थमपि तिष्यपुनर्वस्वोः कायै तदपि.नह्क्नस्वैव यथा स्यात् ] `
तिष्यपुष्ययोर्मक्षत्राणि यलोपो वक्तव्य हति नक्षत्र ्रहणं न कर्तव्य भवति || अथवा 20
नक्षत्र इति वतमाने पुननेक्षत्रम्रशट्णस्थैतखयोजनं तिष्यपुनवैद्धपयायवाचिनामपि यथा
> ४.२.२३; ४; ४.२. ९६; २४. ¶ ९.२, ४०, 4 ६.४. ९४९,
२३९ ॥ न्याकरणमहाभाष्यम ॥ [म०१.२.१.
स्यात् } पुष्यपुनर्वद सिध्यपुनवैङ | अथ इन्द इति किमर्थम् । यस्तिष्यस्तौ पुन-
वख येषां त हमे तिष्यपुनर्वसव उन्मुग्धाः | बहुवचनस्येति किमथैम् | उदितं तिप्व-
पुनवेद्ध । कथं चात्रैकवचनम् | जातिन््र एकवद्धवतीति | अप्राणिनामिति प्रतिषेषः
धामोतिः | एवं तर्हि सिद्धे सति यद्रहुवचनभरहणं करोति तञक्ञापयत्याचायेः सर्वो
६ इन्दो विभाषैकवद्भवतीति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् | त्राभ्रवश्लालद्कयनम्
बाश्रवदालङ्कयना .इत्येतस्सिद्धं भवति ॥ अथवा नात्रभवन्तः पराणिनः प्राणा एवा-
भवन्तः |
इति ओरभगवत्पतञ्जञकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य दहितीवे
पादे डितीयमाद्धिकम् ॥
# २.४.६९.
फर १.२.६४. | ॥ व्याकरण पहाभाष्यम् ॥ २३३
सरूपाणामेकरोष एकविभक्तौ ॥ १।२।६४७॥
` सूपरहणं किमर्थम् | समानानामेकदोष एकविभक्तावितीयस्युच्यमाने यत्रैव
स्व समानं दाब्दोऽथेथ तत्रैव स्यात् | वृक्षाः क्षा इति । इह न स्यात् । भक्षाः
पादः माषा इति | रूपमहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | रूपं निमित्तते-
नाश्रीयते मरुतौ च रूपय्रहणम् ॥ अयेकमरहणं किमथेम् | सरूपाणां शेष एकवि- 5
भक्तावितीयद्युच्यमाने क्िबह्मोरपि रोषः प्रसज्येत | एकम्रहणे पुनः क्रियमणि न
दोषो भवति ॥| अथ रोषम्रहणं किमर्थम् । सरूपाणामेक एकविभक्तत्रितीयत्युच्य-
मान आदेश्योऽयं विज्ञायेन | तत्र को दोषः | अश्थाश्वश्च अश्री | आन्तर्यतो द्युदा -
लवतः स्थानिनो ब्युदात्तवानादेशः प्रसज्येत | लोप्यलोपिता च न प्रकल्पेत | तत्र
को दोषः | गगौः वत्साः | विदाः उग्रः. | अञ्यो बहुषु यञ्यो बहुष्वित्युच्यमानो 10
तुप्र प्रामरोति" । मा भुरेवम् | अयन्त यद्रहुषु यजन्तं यद्हुविितस्येषं भविष्यति | नैवं
दायम् । इह हि दोषः स्यात् । कादयपप्रतिकृतयः कादयपा इति† || एकविभ-
ताविति किंमथम् | पयः पयो जरयति | वासो वासम्ढादयति | ब्राह्मणाभ्यां
च कृतं ब्राह्मणाभ्यां च देहीति ॥
किमर्थे पुनरिदमुच्यते | 18
प्रत्ययं शाव्दनिवेरान्नेकेनानेकस्याभिधानम् ॥ ९॥
पर्ययं शाष्दा अभिनिविशन्ते | किमिदं प्रत्यथमिति | अथेमथे प्रति प्रत्यर्थम् |
प्रत्यथै शब्दनि शादेतस्मात्कारगल्निकेन राग्देननेकस्याथस्याभिधानं प्राति |
तत्र कोदैःषः |
तत्रानेका्थाभिधनि अनेकरान्दत्वम् || > ॥ 20
तत्रानेक्राथ।भिधने जेकश्चष्यसं प्राप्रोति । इष्यते चैकेनाप्यनेकस्यामि पानं
स्यादिति तचान्तरेण यलं न सिध्यति |
तस्मादेकशेषः || २॥
एवमथेमिदमुच्यते || भसति प्रयोजनमेतत् | किं तर्हीति | किमिदं प्रत्यर्थं
शाष्दा अभिनिविशन्त इत्येतं दृष्टान्तमास्थाय सरूपाणामेकशेष भारभ्यते न पुनर- 2
#* २, ४. ६४. † ४.९, १०४) ५. ३. ०.६; ९९.
30 ध
२३४ ॥ व्याकरणयरहाधाष्य ॥ | भ० ९.२.३..
परत्यथे शाम्दा अभिनिविश्चन्त इत्येतं दृषशटन्तमास्थाय विरूपाणमनेकदोष आरभ्यते |
तत्रैतस्स्याह्वधीयसी सरूपनिवृत्तिगरीयस्षी विरूपप्रतिपत्तिरिति | तच्च न | ठधीयसी
विरूपप्रतिपत्तिः । किं करणम् | यत्र हि बहूनां सूपाणामेकः रिष्यते. तत्रावरतो
इयोः ससूपयोर्मिवुत्तितरेक्तव्या स्यात् | एवमप्येतस्मिन्सति किंचिदा चायः इकर-
5 तरकं मन्यते छकरतर कं चैक शोषारम्भं मन्यते ॥
किं पुनरयमेकविभक्तावेकरोषो भषति । एवं भवितुमहैति |
एकविभक्ताविति चेन्नाभावाद्विभक्तेः ॥ ४॥।
एकविभक्ताविति चेत्तत्र | किं कारणम् | अभावाद्िभक्तेः | न हि सम॒दाया-
त्परा विभक्तिरस्ति । किं कारणम् | अप्रातिपदिकस्तरात् | ननु चार्थं बतभातिपदिक-
10 मिति” प्रातिपदिकसंज्ञा भविष्यति | नियमान्न प्रामोति | अर्थघरत्समुदायानां समा-
सग्रहणं नियमायेमिति। ||
यदि पुनः एथक्सर्वेषां विभक्तिपराणामेकशेष उच्येत |
परयक्सर्वैषामिति चेदेकरोषे पथग्विभक्तयुपरुभ्धिस्तदाश्रयस्वात् ॥ «९ ॥।
पथक्सर्वेषामिति चेदेकदोषे एरथग्विभक्त्युपलम्धिः भरामरोति | किमुच्यत एक-
15 शोषे प्रथग्विभक्युपलग्पिरिति यावता समयः कृतो न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या
न केवलः प्रत्यय इति । तदान्रयत्वा्मामोति । यत्र हि प्रकृतिनिमित्ता प्रत्ययनि-
वृ्तिस्तत्राप्स्ययिकायाः प्रकृतेः प्रयोगो भवति । अभिचित् सोमखरिति यथा ।
यत्र च प्रत्ययनिमित्ता प्रकृतिनिवृत्तिस्तत्राप्रकृतिकस्य प्रत्ययस्य प्रयोगो भवति ।
अधुना हयानिति यथा$ | भस्तु | संयोगान्तरोपेन सिद्धम्¶ | कुतो नु खस्त्रेत-
20 परयो वृक्षशब्दो मिवृत्तिभेविष्यति न पुनः पूर्वयोरिति | तत्रैतस्स्यास्पूर्वैनिवु तातपि
सत्यां संयोगादिकलेषेन तसिद्धमिति** | न सिभ्यति । तज्रात्ररतो इयोः सकारयोः
अव्रणं प्रसज्येत | यत्र च संयोगान्तलोपो नास्ति तत्र चन सिध्यति | क च
संयोगान्तलोपो नास्ति | द्विवचनवहुवचनयोः |
यदि पुनः समास एकदोष उच्येत । किं कृतं भव्ति | कथिह चनलोपः परि-
४ हतो भवति | तत्तर्हि समासमरहणं कतेव्यम् | न कर्तव्यम् | प्रकृतमनुवतेते | क
प्रकृतम् | तिष्यपुनवैस्वोनक्षत्रहन्डे बहुवचनस्य द्विव चनं नित्यम् [९.२.६२] इति ॥
~ --~ ~ ---~---~---~--
9 ९.२, ४५. 1 १. २. ४५. ‡ ६. ९. ६८. $ ५.३.९०; द; ६. ४. ९४८.-- ९.२.४०
६. २. ९०; ६. ४.१४८. थ् ८. २. २२. *# ८,२.२९.
पा० ९.२.६४. | ॥ व्याकरनमहामिच्यय् ॥ २३५
समास इति वेत्स्वरसमासान्तेषु दोषः ॥ & ॥
समास इति चेत्स्वरसमासान्तेषु दोषो भवति । स्वर | भश्थाश्वश्च भो |
तमासान्तोदात्तस्वे* कृत एक शोषः प्र परोति । इदमिह संप्रधार्यम् | समासान्तोदा-
तत्वं क्रियतामेकशोष इति किमत्र ककेव्यम् | परत्वात्सृमासान्तोदात्तत्वम् | समा-
सान्तोदा्तत्वे च दोषो भवति | स्वर || समासान्त । क्कु शकु कचौ । समा-
वान्ते कृतेऽसारूप्यादेक रोषो न प्राति | इदमिह संमधार्यम्। समासान्तः कक्रियता-
मेकोष इति किमत्र कतेव्यम् | परस्वात्समासान्तः । समासान्ते च दोषो भवति ||
अद्गाश्रये चेकरोषवचनम् ॥ ७ ॥
भद्गाश्रये च कायं एकशेषो वक्तव्यः | स्वसा च स्वसारौ च स्वसारः |
भङ्गाभ्रये‡ कृते ऽसारूप्यादेकशोषो न ॒प्रामोति । इदमिह संप्रधारयम् । अङ्गान्य ]
क्रियतामेक दोष इति किमन्न कतेव्यम् | परत्वादङ्गाश्रयम् ॥ `
तिङ्कमासे तिङ्मासवचनम् ॥ ८ ॥
तिङ्मासे तिङ्मासो वक्तव्यः || एकं ॒तिदुःहणमनर्थेकम् । समासे तिङ्माख
इत्वेव | नानर्थकम् | तिङ्मासे प्रकृते तिङ्मासो वक्तव्यः ||
तिद्धिधिपरतिषेधश्च ॥ ९॥ 15
तिङः कथिरिधेयः किखतिषेभ्यः | पचति च पचति च ¶चतः | तशब्दो
विभेयस्ति्ब्दः प्रतिषेध्यः |
यदि पनरसमास एकशेष उच्येत |
असमासे वचनलोपः ॥ १०॥
यद्यसमासे वचनलोपो वक्तव्यः | नन् चोत्पततैव वचनलोपं चोरिताः स्मः 1 20
हिवचनवहूवचनविर्धिं इन्दप्रतिषेषं च व्यति तदथ पन्ोद्ते ॥
दविववनव्रहुवचनविधिः ॥ ९९ ॥
हिव चनबहु वचनानि विधेयानि । वृक्तिथ वृक्षथ वृक्षौ | वृ्तथ वृक्षच वृक्षश्च
वृत्ता इति ॥ |
# ६.१. २२३. † ५.४. ७४. ‡ (२.४. ७९; ६.१. २५.) ७.३.९९० ६.४.९९.
§ २.१. °२, ग९,
२३६ ॥ व्याकरण महाभाष्यम् ॥ [म०९.२.३
. इन्द्रप्रतिषेधश्च ॥ ९ ॥
हन््स्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः । वृक्षथ वृक्ष वृष्तो | वृक्ष वृक्षश्च वृक्ष
वृक्षा इति । वार्थे इन्दः [२.२.२९] इति इन्दः प्रामोति | नैष दोषः | भनव-
काह एकरोषो हन्डं वाधिष्यते | सावकाश एकरोषः | कोऽवकाराः | तिड-
5 न्तान्यवकाडाः ॥
यदि पुनः पृथक्सर्वेषां विभक्त्यन्तानामेकदोष उच्येत | किं कृतं भवति | कथि-
इचनलोपः परितो भवति ।
विभक््यन्तानामेकदोषे
विभक्तयन्तानामेकदोषे विमक्तयन्तानामेव तु निवृत्तिभेवति ।
10 एकविभक्तयन्तानामिति तु पृथग्विभक्तिम्रतिषेधायम् ।॥ ९३ ॥
एकविभक्त्यन्तानामिति तु वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् । पृथग्विभक्तेप्रतिषे-
धायम् । पृथग्विभक्त्यन्तानां मा भूत् । ब्राह्मणाभ्यां च कृतं ब्राह्मणाभ्यां च देहि ॥
न वायथविप्रतिषेधादयुगपद्चनाभावः॥ १४॥
न वैष दोषः | किं कारणम् | भथेविप्रतिषेधात् | विभरतिविद्धधेतावर्थौ कतौ
15 संप्रदानभित्यश्चक्यी युगपिर्दष्टुम् | तयोविप्रातिषिद्धत्वादयुगपदकचनं न भविष्यति |
अनेका्थाश्रयश्च पुनरेकदोषः ॥ १९ ॥
भनेकमथे संप्रत्याययिष्यामीत्येक दोष आरभ्यते ।
तस्मान्नैकदाब्दत्वम् | ९६ ॥
तस्मादेक शब्दत्वं न भविष्यति || अयं तर्द दोषः | कथिहृचनरोषो हिवचन-
20 बहुवचनविधिदन््प्रतिषेधशेति ॥
यदि पुनः ` प्रातिपदिकानामेकञ्येष उच्येत | किं कृतं भवति | वचनठोपः
परितो भवति ।
प्रातिपदिकानामेकरोषे मातृमात्रोः भरतिषेधः स्रूपत्वात् ॥ ९७ ॥
प्रातिपदिकानामेकदोषे मातुमात्रोः प्रतिषेधो वक्ष्य | माता च जनयित्री
25 मातारौ च धान्यस्य मातृमातारः । किं कारणम् । सरूपत्वात् । ससूपाणि देतानि
पाण ९.२.६४. | ॥ व्याकरणमहामाष्यय् ॥ २३७
प्रातिपदिकानि | किमुच्यते प्रातिपदिकानामेकरषे मातुमात्रोः प्रतिषेधो. वक्तव्य
हति न पुनर्यैस्यापि. विभक्त्यन्तानामेकरोषस्तेनापि मात॒मात्रोः भतिषेधो वक्तव्यः
स्यात् । तस्यापि लयेतानि क्चिद्िमक्त्यन्तानि सरूपाणि | मातुभ्यां च मातृभ्यां चेति |
भथ मतमेतद्विभक्त्यन्तानां सारूप्ये भवितव्यमेवैकशेषेणेति प्रातिपदि कानामेधैकरशेषे
रोषो भवति | एवं च कृत्वा चोदते ॥ .5
हरितहरिणरयतदयनरोहितरोहिणानां खियामुपसंख्यानम् ॥ *५८ ॥
हरितहरिणदयेतदयेनरोहितरोहिणानां ज्ियामुपसंख्यानं कमैष्यम् | हरितस्य
त्री हरिणी | हरिणस्यापि हरिणी । हरिणी च हरिणी च हरिण्यी | इयेतस्य ली
रयेनी | दयेनस्यापि इयेनी । स्येनी च दयेनी च इयेन्यौ | रोहितस्य खी रोहिणी | ..
रोदिणस्यापि रोहिणी । रोहिणी च रोहिणी च रोहिण्यो || 10
न वा पदस्यार्थ प्रयोगात् ॥ ५९॥
न वैष दोषः | किं कारणम् । पदस्यार्थे ` प्रयोगात् । पदमर्थे प्रयुज्यते विभ-
त्यन्तं च पदम् | रूपं वेहाभ्रीयते रूपनिर्महथ ` दाष्दस्य नान्तेण दैौकिक॑ प्रयो-
गम् | तस्मिंथ ठऊौकिके प्रयोगे सरूपाण्येतानि |
भपर् भह | म वा पदस्यार्थे प्रयोगात् | न वैष प्त एवास्ति प्रातिपदिकानाभेक- 15
दोष इति | किं कारणम् | पदस्यार्थ प्रयोगात् । पदमर्थं प्रयुज्यते . बिभक्तयन्तं
च पदम् । रूपं चेहाभ्रीयते रूपनिर्थहथ शाब्दस्य नान्तरेण लोकिकं प्रयोगम् |
तस्मि री किके प्रयोगे प्रातिपदिकानां प्रयोगो नास्ति ||
थानेन पक्षिणाथेः स्यात्रातिपदिकानामेकशेष इति । वाढमर्थः | किं वक्तव्य
मेतत् । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते । एतेनेवाभिहितं सत्रेण सरूपाणामेकशेष 20
एकविभक्ताविति | कथम् | विभक्तिः सारूप्येणाश्रीयते | अनैमित्तिक एकशोषः।
एकविभक्तौ यानि सरूपाणि तेषामेकङेषो भवति | क्र | यत्र वा तत्र वेति ||
अथनिन पक्तिणथंः स्यादिभक्त्यन्तानाभेकशेष इति । वाढमर्थः | किं वक्त-
म्यमेतत् । न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते । एतदप्येतेतरैवाभिदितं त्रेण सरूपा- ..
णामेकराष एकविभक्ताविति | कथम् | नेदं पारिभाभिक्या विभक्तेमहणम्* | ४
किं तर्द । अन्वर्थम्रहणम् । विभागो विभक्तिरिति । एकविभागे यानि सरूपाणि
तेषामेकदोषो भवतीति || ननु चोक्तं कश्िद्रचनलोपो हिवचनबहुवचनविपिरन्धपरति-
# ९.४. ९०४
३८ ॥ व्याकरयद्हाभाष्वय्. ५. ` [ मण.
बेषशेति | तेष दोषः | यत्ताषदुच्यते कथिङ्चनलोपो हिव चनबहुवचनविधिरिति ।
सहविवक्षायामेकरोषः | युगपदिवक्षषायाभेकडोषेण भवितव्यम् | न तर्हीदानीमिदं
भवति वृक्षच वृक्षथ वृक्षौ वृक्षं वृक्षच वृक्षथ वृक्षा इति | नैतत्सहविवक्षायां
मवति | अथापि निदर्शयितुं बुद्धिरेवं निददहोयितव्यम् | वृक्षौ च वृक्षी च वृक्षो |
` 5 वृक्षा वृक्षा वृक्षा वृक्षा इति || यदप्युच्यते इन्द प्रतिषेधश्च वक्तव्य इति |
नैष . दोषः | .भनवकाडा एकरेषो इन्दं वाधिष्यते | ननु चोक्तं.सावक्यशा.एकशेषः
कोऽवकाङाः तिङन्तान्यवकाश्च इति | न तिडन्तान्येकदेषारम्भं प्रयोजयन्ति ।
किं कारणम् | यथाजातीयकानां हितीयस्य पदस्य प्रयोगे सामथ्यमस्ति तथाजाती-
यकानामेकरेषः | न च तिङन्तानां द्वितीयस्य पदस्य भयोगे सामथ्येमस्ति | किं
10 कारणम् | एका हि श्रिया | एकेनोक्तत्वास्स्यार्थस्य द्वितीयस्य प्रयोगेण न भवित-
` व्यमुक्ताथोनामप्रयोग इति | यदि तैका किया दिवचनवबहुवचनानि न सिध्यन्ति |
पचतः पचन्ति | तनैतानि क्रियायेक्षाणि | किं तर्हिं | साधनापेक्षाणि ॥।
' अथवा पुनरस्त्वेकविमक्ताविति । ननु चोक्तमेकविमक्ताविति चेत्नाभावादिभक्ते-
रिति । नैष दोषः | परिहतमेतत् ।. अर्थवत्पातिपदिकमिति प्रातिपदिकसंश्ञा भवि-
15 भ्यतीति । ननु चोक्तं नियमान्न प्रामोति अर्थवत्समुदायानां समासयहणं नियमा्थं-
? ` मिति । तष दोषः। तुल्यजातीयस्य नियमः | कथ तुल्यजातीवः | यथाजातीयकानां
खमासः | कथंजातीयकानां समासः | छबन्तानाम् ॥ ..
। - - स्व॑त्रापत्यादिषूपसंख्यानम् ॥ २० ॥
सर्वेषु पक्ेष्वपत्यादिषुपसंख्यानं कर्तव्यम् | भिक्षाणां समृजे भैक्षमिति" || स्व॑
20 ब्रेस्युच्यते प्राविपदिकानां वैकरेषे सिद्धम् । भपत्यादिष्वित्युच्यते बहवशापत्या-
' दयः. | गरथैस्यापत्यंः बहवो ग्मः† | एका प्रकृतिर्हवथ् यञः | असारूप्वादेक-
देषो. न भामति. ननु च यथैव बहवो यञ एवं प्रकृतयोऽपि बहथ्यः स्युः । वैवं
शक्यम् । इह हि. दोषः स्यात् | गगोः वत्साः विदाः उवौ इति । भञ्यो बहुषु
यञ्यो बहुखिद्युच्यमानो लुभ. ामोति.] मा भूदेवम् ।. अयन्त यद्वक्षु यजन्तं यदह
५5 च्विल्येत्रं भविष्यति |.ननु चोक्तं तेवं ` राक्यमिह . हि दोषः ` स्यास्कादयपप्रतिकृतकः
` कारयपा इति .| तेष. दोषः. । तौकिकस्य तच्र‡ गोत्रस्य --महणं .न चैतक्षोकिकं
गोत्रम् ।| अथवा पुनरस्त्वेका प्रकृति्बेह्व ध यञः | ननु चोक्तमसारूप्यादेकदेषो ब
परामोतीति ।
# ४.२. ३८. † ४,९. ९०५; २.४. ६४. ‡ २.४, ६४.
फण ९.२.६४. ] ॥ व्याकंरणमहाभाष्यम॥ ` २३९
सिद्धं तु समानाथानामेकरोषवचनात् ॥ २९ ॥ ` ॑
सिद्धमेतत्. | कथम् | समानाथौनामेकरोषो भवतीति व्कव्यम् | यदि लमा-
नाथौनामेकङोष उच्यते कथमन्ताः पादाः माषा इति |
नानाभानामपि सरूपाणाम् ॥ २२ ॥
नानाथानामपि सरूपाणामेकशेषो वक्तव्यः |
एकाथीनामपि विरूपाणाम् || २६३ ॥'
एकाथौनामपि विरूपाणामेकशोषो वक्तव्यः | वक्रदण्डथ कुटिलदण्डथ षक्र
रण्डौ कुटिलदण्डातिति वा ||
स्वरभिन्नानां यस्योत्तरस्वरविधिः ॥ २४ ॥
स्वरभिन्वानां यस्यो तरस्वरविधिस्तस्थैकश्चेषो वक्कव्यः | अक्षथान्षथ अह्ली* | 10
मीमांसकथ मीमांसकथ मीमांसकौ। |
इह कस्मान्न मवति | एक्थेक्थद्ौच दौ चेति।
संख्याया अथौसंप्रस्ययादन्यपदार्थत्वा्ानेकदोषः ॥ २५ ॥
संख्याया अथोसंप्रत्ययादेकरोषो न भषिष्यति | न द्येकाविव्यनेनार्थो गम्यते |
अन्यपदार्थत्वाच संख्याया एक शेषो न भविष्यति | एकथचैकथेत्यस्व शविस्यर्थः | 15
हौ च दौ चेत्यस्य चत्वार इत्यथः ॥ तैत स्तः परिहारौ । यत्तावदुच्यते संख्या-
या जथोसंप्रत्ययादिति | अथौसंप्रस्ययेभ्प्येकदोषो भवति | त्था | गार्ग्य गार्या-
यणञ्च गार्ग्यौ | न चोच्यते वृद्धयुवानाविति भवति चैकशोषः | यरप्युष्यतेऽन्य-
पदार्थत्वाचेति । भअन्यपदार्थेऽप्येकशोषो भवति } तद्यथा | तिति विद्यति
विदाती हति | तयोश्वत्वारिंश्चरित्यः || एवं तर्हि नेमौ पूथक्परिदारौ | एक- 0
परिहारोऽयम् । संख्याया अथोसंपरत्ययादन्यपदायेत्वाचेति । यत्र धथौसंपरस्यय
एव. वान्यपदायेतैव वा भवति तत्रैकरोषो गार्य विदाती हति यथा || अथवा
नेम एक दोष शब्दाः | यदे तरिं नेम एकशोषशचम्दाः समुदायशब्दास्तरि भवन्ति |
तत्र को दोषः † एकवचनं प्रामोति | एकाथ हि समुदाया भवन्ति । तद्यथा | यथम्
ङातम् वनमिति || सन्तु तरहक शेषशाब्दाः । किकृतं सारूप्यम् । भन्योऽन्यंकृतं 25
> ३.५. ३; ३.१. १९७, 4 ६.९. ९९२; ६९७, ‡ ९.२. ६९.
२४० ॥ व्यकिरणमहाभाच्य य ॥ [ मण ९.२२.
सारूप्यम् । सत्ति -पुनः केचिदन्येऽपि शब्दा येषामन्यो ऽन्यकृतो भावः । सन्ती-
स्या | तद्यथा | माता पिता भ्रातेति || विषम उपन्यासः | सक्रदेते शाभ्दा प्रवृत्ता
अपायेष्वपि वतन्ते | इह पुनरोकेनाप्यपाये न भवति चत्वार इति ॥| भन्यदिदा-
नीमेतदुच्यते सङृदेते दा्दाः प्रवृ त्ता अपयेष्वपि वतेन्त इति | यत्तु भवानस्मांधो-
दयति सन्ति पुनः केचिदन्ये ऽपि शाब्दा येषामन्योऽन्यकृतो भाय इति तत्रैते ऽस्ना-
भिरूपन्यस्ताः | तत्रैतद्ध बानाह सक्ृदेते शाब्दाः प्रवृत्ता अपायेभ्वपि वतेन्त इति |
एतश्च वातम् |
एकैको नोदयन्तुं भारं शक्रोति यत्कथं तत्र |
एकैकः कतौ स्यात्सर्वे वा स्युः कथं युक्तम् ||
10 कारणमु्यमनं वेन्नो्च्छति चान्तरेण तत्तुल्यम् |
तस्मास्पृथक्प्रथक्ते कतरः सम्यपेक्षास्तु ॥
प्रथममध्यमेात्तमानमिकराषो ऽसरूपत्वात् ॥ २६ ॥
प्रथममध्यमोत्तमानामेक रोषो वक्तव्यः | प्रचति च पचसि च पचथः | पचति
च पचामि चर पचावः | पचति च पचसि च पचामि च पचामः | किं पुनः कारणं
15 न सिध्यति. | असरूपरखत् ॥
श्चेकार्थत्वात्
द्विवचनबहुव चनाप्रसिदि ॥ ५७ ॥
हिव चनबहुव चनयो धाप्रसिदधिः | किं कारणम् | एकार्थत्वात् | एको ऽय मवशिष्यते
` तेननेन तदर्थेन भवितव्यम् | किमर्थेन | यदथ एकः | किमथथैकः | एक एका-
थैः || तेक्यैम् | नायमेकाथेः | क तर्हि | व्यर्थो बहथैथ |
20 नैका््यभिति चदारम्भानर्थक्यम् ॥ २८ ॥
नैकाभ्यमिति चेदेकशेषारम्भोऽनथेकः स्यात् ॥ इह हि हाभ्दस्य स्वामातरिकी
वाने का्थत। स्याहाचनिकी वा | तद्यदि तावत्स्वाभाविकीं
अशिष्य एकरोष एकेनोक्तस्वात् || ९ ॥
आशिष्य एक दोषः | किं कारणम् । एकेनो क्तस्वात्तस्याथस्य दिती यस्य प्रयोगेण
25 न भवितत्यमुक्तथौनामप्रयोग इति || भथ वाचनिकी तदक्तव्यमेकोऽय मवरशिष्यते
स च व्यर्थो भवति बहथशेति | न वक्तभ्यम् | तिडधमेकदोष इत्येव | कथं पृनरेको
ऽयमवाशिष्यत इत्यनेन व्यर्थता बहर्थता वा शक्या ठब्धुम् । तश्चैक शेषकृतम् ॥|
फो० १.२.६४. | ॥ व्थाकरणमहामाष्यमे ॥ २७४९
न ह्यन्तरेण तद्वाचिनः शब्दस्य प्रयोगं तस्याथस्य गतिभेवति | परयामश पुनरन्तरे-
णापि तद्वाचिनः शश्रस्य प्रयोगं तस्यार्थस्य गतिभेवतीति भभिपित् सोमखुदिति
यथा | ते मन्यामहे क पकृतमेतशेमत्रिन्तरेणापि तद्वापिनः शाब्दस्य प्रयोगं तस्या-
थ्य गतिम त्रतीति | एत्रमिहाप्येक हो षकृतमेतयेनज्रैकोऽयमव {रिष्यत इत्यनेन द्यथे-
ता बहथैता वा मव्रति || उच्येत तर्हि न तु गस्येत | यो हि गामश्च इति ब्रूयाद- 5
भ्रं वा गौरिति न जातुरित्संप्रत्ययः स्यात् || तेननेकार्थाभिधाने यलं कुरवैतावदय
तोकः पृष्ठतो ऽनुगन्तव्यः | केष्वर्थेषु ठीकिकाः काञ्शब्दान्प्युख्त इति | लो चे-
कस्मिन्वृक्ष इति भुञ्जते हयोवृक्षाभिति बहुषु वृक्षा इति | यदि तर्द लोकोऽवदयं
शाष्देषु प्रमाणं किमथेमेकशेष आरभ्यते | अथ किमथे रेप आरभ्यते | प्रत्यय-
लक्षगमाचायेः प्राथयमानेो लोपमारभत एक शोषारम्भे पुनरस्य न किंपित्रयोजन- 10
मसि || ननु चोक्तं पभरत्यथे हाब्दनिवरेशान्नेकेनानेकस्याभिधा नमिति | यदि चैकेन
शाब्देनानेकस्याथेस्याभिधानं स्यान्न प्रत्यये शाब्दनिवेदाः कृतः स्यात् |
प्रत्यर्थं रान्दनिधेदादेकेननेकस्यराभिधानादप्रत्ययेमिति चेत्तदपि
परत्यथभेव ॥ ३० ॥
रत्य शाब्दनित्रेशादेकेनानेकस्यामिधानःदपत्यर्थमिति वेदे वरमुच्यते | यदष्येके- ::
नानेकस्याभिधानं भवति तदपि प्रव्यर्थमेव । यदपि द्यथौवर्थौ प्रति तदपि प्रत्यर्थ
मेव | यदपि द्यर्थानथीन्प्रति तदपि प्रत्यर्थमेव || यावनामभिधानं तावतां प्रयोगो
न्याय्यः | यावतामथौनामभिषानं भवति तावतां शब्दानां प्रयोग इत्येष पन्नो न्याय्यः |
यावतामभिधानं तावतां प्रयोगो न्याय्य इति चेदेकैनाप्यनेकस्या-
भिधानम् ।। ३१५ ॥ | 20
यावतामभिधानं तावतां प्रयोगो न्याय्य इति चेदेवमुच्यते | एषोऽपि न्याय्य
एव यदप्येकेनानेकस्यामिधानं भवति || यदि तर्धकेनानेकपस्याभिधानं भवति षक्ष-
न्यमोषौ एकेना क्तत्वादपरस्य प्रयोगोऽनुपपन्नः । एकेनोक्तसवरात्तस्यार्थस्यापरस्य
योगेण न मनितव्यम् | किं कारणम् | उक्तार्थानामप्योग इति ।
एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगो ऽनुपपन्न इति चदनुक्तत्वा््ेण न्यग्रो-
धस्य न्यग्रोधप्रयोगः || ३२ ॥।
एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगोऽनुपपन्च इति चेदनुक्तः क्षेण न्यप्रोधाथ इतिक्रला
31 5
२९४२ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् ॥ 1 म० ९.२.२३;
न्यो धङब्दः प्रयुज्यते । कथमनुक्तो यावतेदानीमेवोक्तमेकेनाप्यनेकस्यामिषानं
भवतीति । सरूपाणामेकेनाप्यनेकस्याभिधानं भवति न॒विरूपाणाम् ॥ किं पुनः
कारणं सरूपाणामेकेनाप्यनेकस्याभिधानं भवति न पुनर्विरूपाणाम् |
अभिधानं पुनः स्वाभाविकम् | ३३ ॥।
$ स्वाभाविकमभिधानम् ||
उभयददांनाच ॥ ३४ ।|
उभयं खल्वपि दृदयते । विरू्पाणामप्येकेनानेकस्यामिधानं भवति । तद्यथा |
शवा ह क्षामा | यावा चिदस्मै प्रथिवी नमेते इति । विरूपाणां किक नानेकेनाने-
कस्यराभिधानं स्यात्कं पुनः सरूपाणाम् ||
10 आकृस्याभिधानद्दिकं विभक्तो वाजप्यायनः ॥ ३५ ॥।
आक्त्यभिधानादैकं शब्दं विभन्तौ वाजप्यायन नाचार्यो न्याय्यं मन्यते |
एकाकृतिः सा चाभिधीयत इति || कथं. पुनज्ञोयत एकाकृतिः सा चाभिधीयत इति।
प्रस्याविरोषात् । ३६ ॥
न हि गैरिस्युक्ते विशेषः प्रख्यायते शुङ्का नीला कपिला कपोतिकेति || यद्यपि
15 तावत्मख्याविदोषाज्ज्ञायत एकाकृतिरिति कुतस्त्वेतत्साभिधीयत इति ।
अव्यपवगंगतेश्च ॥ ३५७ |
` भव्यपवर्गैगतेथ्च मन्यामह आकृतिरभिधीयत हति । न हि गौरिव्युक्ते व्यपवर्गो
गम्यते भुङ्का नीला कषिला कपोतिकति ||
ज्ञायते चेकोपदिषटम् ।। ३८ ॥
20 ज्ञायते खल्वप्येकोपरिष्टम् | गौरस्य क दाचिदुपदिष्टो भवति । स तमन्यस्मिन्दे-
शे ऽन्यस्मिन्काके ऽन्यस्यां च वयोऽवस्थायां दृष्ट जानात्ययं गोरिति || कः पुनरस्य
विशेषः प्रख्याविशेषादित्यतः । तस्यैषरोपोद्रककमभेतत् । प्रख्यावि शेषाज्ज्ञायते चेको-
पदिष्टमिति ॥
धर्मराखरं च तथा ॥ ३९ |
४ ` एवं च कृत्वा पमेशालं प्रवृत्तम् । ब्राह्मणो न हन्तव्यः रा न पेयेति ब्राह्मेण-
पा० ९.२.६४.| ॥ व्याकरणमहाभार्यम् ॥ ४५४३
मारं न हन्यते खरामात्रं च न पीयते | यदि दव्य पदाथः स्यदेकं ब्राह्मणमह-
तैकां च द्रामपीस्वान्यत्र कामचारः स्यात् || कः पुनरस्य विदोषो ऽव्यपवगेग-
तेथेत्यतः । तस्थैवोपोदलकमेतत् । अव्यपवगेगतेथ धर्मश्चालं च तथेति ॥
अस्ति वैकमनेकाधिकरणस्थं युगपत्
भस्ति खस्वरप्येकमनेकाषिकरणस्थं युगपदुपठभ्यते | किम् । आदित्यः | तद्यथा | :
एक भदिष्यऽनेकाधिकरणस्थो यु गपढुपरभ्यते || विषम उपन्यासः | नैको बष्टा-
दित्यमनेकाधिकरणस्थं युगपदुपभते || एवं ताह
इतीन्द्रवदिषयः ॥ ४० ॥
तथथा। | एक इन्द्रो जेकस्मिन्क्रतु शात आहूतो युगपत्सवेत्र भवति | एवमा-
कृतिरपि युगपत्सर्वत्र भविष्यति || भवदरयं चेतदेवं विज्ञेयमेक मनेकाधिकरणस्थं 10
युगपदुपलभ्यत इति ।
नैकमनेकाधिकरणस्थं युगपदिति चेत्तथेकरोषे ॥ ४९ ॥।
योहि मन्यते नैकमनेकाधिकरणस्थं युगपदुपलमभ्यत इत्येकदेषे तस्य दोषः
प्यात् | एकदेषेऽपि नैको वृक्षश्ब्दोऽनेकमथं युगपदभिदषीत || अवद्यं चैतदेवं
विज्ञेयमाक्रतिरमिधीयत इति । ` | 15
द्रव्याभिधान ह्याकृत्यसंभत्ययः ॥ ४९ ॥
द्रव्याभिधान सत्याक्ृतेरसंप्रत्ययः स्यात् || तत्र को दोषः ।
तत्रासवैद्रव्यगतिः ॥ ४३ ॥
तत्रासवैद्रव्यगतिः प्रामरोति | असवैद्रभ्यगतैः को दोषः । गौरनुबन्ध्यो ऽजो प्री-
षोमीय इति । एकः शालोक्तं कुर्वातापरो ऽशालोक्तम् । अशालीक्ते च क्रियमा- ‰
णे विगुणं कमे भव्रति विगुणे च कमणि फलानवात्निः || ननु च यस्याप्याकृतिः
पदाथेश्तस्यापि यथनवयवेन चोद्यते न चानुबध्यते विगुणं कम भवति विगुणे च
कर्मणि फलानवापनिः | एकाकृतिरिति च प्रतिज्ञा हीयेत | यच्चास्य ॒पक्षस्यो पादाने
प्रयो जनमेकदोषो न वक्तव्य हति स चेदानीं वक्तव्यो भवति | एवं तद्यैनवयवेन
चोद्यते प्रस्येकं च परिसमाप्यते यथादित्यः | ननु च यस्यापि दर्यं पदार्थस्तस्या-
२७० - ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ [म०९.२.३.
प्यनवयवेन चोद्यते प्रत्येकं च परेसमाप्यते | एकरोषस्त्रय। बक्तव्यः | स्यापि
तर्हि दविवचनबहुवचनानि साध्यानि ॥
चोदनायां चेकस्योपाधिवृत्तेः ॥ ४४॥
चोदनायां चेकस्योपाधिवृत्तेमेन्यामह आकृतिरभिधीयत इति | भाग्नेयम्टाक -
¢ पालं निवेपेत् । एकं निरुप्य द्वितीयस्तृतीयञ्च निरुप्यते | यदि च द्रव्यं पदाथः
स्यादेकं निरुप्य द्वितीयस्य तृतीयस्य च निवेपणं न प्रकल्पेत || कः पुनरेतयोजी -
तिचोदनयो्वि दोषः | एका निवृत्तेनापरा नितरर््यन ॥
द्रव्याभिधानं व्याडिः ॥ ४९॥
द्रव्याभिधानं व्याडिराचायो न्याय्यं मन्यते | द्रव्यमभिधीयत इति ॥
10 तथा च लिङ्गवचनसिद्धिः || ४६ ॥
एवं च कृत्वा लिङ्क वचनात सिद्धानि भवन्ति | ब्राह्मणी ब्राह्मणः ब्राह्मणौ त्रा-
ह्मणा इति ||
चोदरनासु च तस्यारम्भात् ॥ ४७।।
चोदना च तस्यारम्भान्मन्यामहे द्रव्यमभिषीयत इति । गैरनुबन्ध्यो ऽजो
15 ऽन्नीषोमीय इति | आङ्तौ चोदितायां रभ्य आरम्भणालम्मनपरोक्षणविश्यसनारीनि
क्रियन्ते ||
न चेकमनेकाधिकरणस्यं युगपत् ॥ ४८ ॥
न खल्वप्येकमनेकाधिकरणस्थं युगपद्पलभ्यते | न श्चेको देवदत्तो युगपत्ुर
भवति मथुरायां च ||
20 विनारो प्रादुरभावि च स्वै तथा स्थात् ॥ ५९ ॥
किम् | विनरयेच प्ादुःघ्या्च | श्वा मृत इति श्वा नाम लोके न प्रचरेत् |
गोजौत इति सवै गोभूतमनवकाशं स्यात् ॥
अस्ति च वेरूभ्यम् ॥ ५० ॥
अस्ति खल्वपि वैरूप्यम् | नीथ गोश खण्डो मुण्ड इति ॥
१० ९.२.६४. ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम् ॥ २७५
| तथा च विग्रहः ॥ ५९॥
एतं च कृत्वा विग्रह उपपन्नो भवति | गोश्च मोभेति ||
व्यर्थेषु च मुक्तसंदायम् ॥ ९२ ॥
व्यर्थेषु च मुक्तसंशय भवति । भाकृृतावपि पदाथे ९कदषो वक्तव्यः | अन्ताः
पादाः मषा इति | 5
लिङ्गवचनसिद्धिशुणस्यानिव्यत्वात् ॥ ५३ ॥
लिङ्गवचनानि सिद्धानि भवन्ति | कुतः | गुणस्यानित्यत्वात् | अनित्या गुणा
अपायिन उपायिनश्च | किं य एते शुङ्गादयः । नेत्याह | लीपुंनपुंसकानि सत्त्वगुणा
एकत्वद्धिस्व बहुत्वानि च | कदाचिदाकृतिरेकत्वेन युज्यते कदाचिद्धित्वेन कदाचिद्र-
हुत्वेन कदाचित्लीव्वेन कदाचित्पुस्त्वेन कदाचिच्नपुंसकत्वेन || भवे्िङ्गपरिहार 10
उपपन्नो वचनपरिहारस्तु नोपपद्यते | यदि हि कदाचिदाकृतिरेकस्तरेन युज्यते कदा-
चिद्वित्वेन क दाचिद्रहुत्वेनैका कृतिरिति प्रतिज्ञा हीयेत यच्चास्य पक्षस्योपादाने प्रया-
जनमुक्तमेकशेषो न वक्तव्य हति स ॒चेदार्नीं वक्तव्यो भवति || एवं तर्द लिङ्ग-
वचनसिद्धिगुणविवक्षानित्यस्वात् । लिङ्गवचनानि सिद्धानि भवन्ति | कुतः । गुण-
विवक्षाया अनित्यत्वात् | अनित्या गुणविवक्षा | कदाचिदाकृतिरेकत्वेन विवक्षिता 15
भवाति कदाचिद्ित्वेन कदाचिद्रहुत्वेन कदाचित्लीत्वेन कदाचिषप॑स्त्वेन कराचि-
त्रपुंसकत्वेन | मवेहि द्ग परिहार उपपन्नो वचनपरिहारस्तु नेपपद्यते | यरि कदा-
विदाकृतिरेकत्वेन विवक्षिता भवति कदाचिदिस्वेन कदाचिद्रहुत्वेनैकाश्ृतिरिति
परतिज्ञा हीयेत यञ्चास्य पक्षस्योपादाने प्रयोजनमुक्तमेकदोषो न वक्तव्य इति स
चेदानीं वक्तव्यो भवति || लिङ्गपरिहारश्चापि नोपपद्यते | किं कारणम् । जावरिष्ट- 20
लिङ्गा जातियैचिङ्गमुपादाय प्रवतेत उस्पत्तिप्रमृत्या विनाशात्त्धिङ्गः न जहाति | त-
स्मान्न वैयाकरणैः शक्यं तोकिकं लिङ्गमास्थातुम् । अवदयं काथितस्वकृतान्त
आस्थेयः | कोऽसौ स्वकृतान्तः |
सस्त्यानप्रसवो लिङ्गम्।
संस्त्यानप्रसवौ लिङ्कमास्थेयौ । किमिदं संस्त्यानप्रसवाविति | ९5
संस्त्याने स्ययतेडंटस्त्री सुतिः सप््रसवे पुमान् ॥
ननु च सोकेअपि स्त्यायतेरेवर ज्ञी खतेश्च पुमान् । भधिकरणस्ष(धना रोके ली |
४६ ॥ व्याकरणयरहाभाष्यम् । [म०९.२.३,
स््यायत्यस्स्यां गभे इति | कर्तृसाधन पुमान् । सते पुमानिति | इह पुनरुभयं माव-
साधनम् | स्त्यानं प्रवृत्तिश्च | कस्य पुनः स्त्यानं खरी प्रवृत्तिवो पुमान् । गुणानाम् ।
केषाम् । शब्दस्पशोरूपरसगन्धानाम्। सवो पुनभूतेय एवभास्मिकाः संस्त्यानपरस-
वगुणाः शब्दस्पद्रोरूपर सगन्धवत्यः । यत्राल्पीयांसो गुणास्तत्रावरतखरयः शब्दः
ऽ स्पा रूपमिति । रसगन्पौ न सर्वन्र । प्रवृत्तिः खल्वपि नित्या | न हीह कथि-
दपि स्वस्मिन्न(त्मानि मुहुतेमप्यवतिष्ठते । वधते यावदनेन वर्धितव्यमपचयेन वा
युज्यते | तचोभयं सवेत्र | यद्युभयं सवैर कुतो व्यवस्था | विवक्षातः | संस्त्या-
नविवक्षायां खी प्रसवविवक्षायां पुमानुभयोरप्यविवक्षायां नपुंसकम् | तत्र॒ लिङ्ग
वचनसिदधिगणविवन्षानित्यस्वादिति लिङ्ग परिहार उपपन्नः ॥ वचनपरिहारस्तु नो-
10 प्रपद्यते | वचनपरिहारथाप्युपपन्नः | इदं तावदयं प्र्टव्यः | अथ यस्य द्रव्य
पदाथः कथं तस्थैकवचनहिव चनबहुव चनानि भवन्तीति | एवं स वक्ष्यति | एक-
स्मिन्नेकवचनं इयोिवचनं बहुषु बहुव चनमिति | यदि तस्यापि वाचनिकानि न
स्वाभाविकान्यहमप्येवं वक्ष्याम्येकस्मिन्नेकषचनं इयोर्डिवचनं बहुषु बहुवचन-
मिति | न द्याकृतिपदार्थिकस्य द्रष्यं न पदार्थो द्रव्यपदार्थिकस्य वाकृतिनै पदाथः ।
15 उभयोरुभयं पदाथेः कस्यचित्तु किंचित्रधानभूतं (किं चिद्ुणमूतम् । आकृतिपदा-
धिकस्याकृतिः प्रधानमूता द्रव्यं गुणभूतम् । द्रव्यपशर्थिकस्व द्रव्यं प्रधानभूतमाकृ-
तिगणभृता ॥
गुणवचनवद्वा ।। ५४॥
गुणवचनवद्वा लिङ्गवचनानि भविष्यन्ति | तद्यथा | गुणवचनानां शब्दानामा-
२0 श्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | भुङक वलम् मुङ्का शादी भुङ्कः कम्बलः मुक
कम्बलौ गुङ्ाः कम्बला इति | यदसौ द्रव्यं श्रितो भवति गुणस्तस्य यिद्ध वचनं
च तहुणस्यापि भवति | एवाभिषापि यदसौ द्रव्य भ्रिताकृति्तस्य यिद्ध वचनं च
तदाकृतेरपि भविष्यति |
अधिकरणगतिः साहचयोत् ॥ ५५॥
25 आकरतावारस्भणादरीनां संभवो नास्तीति कृत्वाकतिसह चरिते द्रव्य आरम्भणा-
दीनि भविष्यन्ति | |
न चेकमनेकाधिकरणस्थं युगपदित्यादित्थवदरिषयः ।। ५६ ॥
न खल्वप्येक मनेक।धिकरणस्थं युगपदुपरभ्यत इत्यादिव्थ्षहिषवो भविष्यति |
पा० १.२.६५.-६६. | ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् २४७
तदथा | एक आदित्यो ेकाधिकररणस्थो युगपदुपलभ्यते || विषम उपन्यासः ।
नैको द्र्टानेकाधिकरणस्थमादि्यं युगपदुपलभते || एवं तर्हीतीन्द्रवद्धिषयः ।
तथथ। | एक इन्द्रो जनेकस्मिन्क्रतुशत आहूतो युशपस्सर्वश्र भवति | एवमाकृतिर्यु-
गपत्सवेन्न भविष्यति |
अविनाशो ऽनाश्रितत्वात् ।॥ «९४७ || 8
व्रव्यविनाश आक्ृतेरविनारः । कुतः । अनाश्रितत्वात् | अनाभनितकृतिद्र-
व्यम् || किमुच्यते ऽनाश्नितत्वादिति यदिदानीमेवोक्तमपिकरणगतिः साहचयौ-
दिति || एवं तद्येविनाश्ो अनैकास्म्यात् | द्रव्यविनाश्च भाकृतेरविनाश्चः । कुतः |
भनैकास्म्यात् | अनेक आस्माकृतेद्ेष्यस्य च । तद्चथा | वुक्षस्थोऽवतानो वृक्षे छिन्न
ऽपि न विनयति || 10
वैरूप्यवि ग्रहौ दव्यभेदात् ॥ ५८ ॥
वैरूप्यविम्रहावपि दरव्यमेद।द्रविष्यतः ||
व्ययेषु च सामान्यास्सिद्धम् ॥ ५९ ॥
विभित्नर्थेषु च सामान्यास्सिद्धं सवेम् । भश्रोतेरक्षः | पद्यतेः पादः । मिमी-
तेमौषः | तत्र ॒क्रियासामान्यास्सिद्धम् || भपरस्त्वाह | पुराकल्प एतदासीस्षोडश्रा 15
माषाः काषोपणं शोडदाफलाथ माषराम्बरयः । तत्र संख्यासामान्यास्सिद्धम् ॥
वृद्धो युना तलक्षणश्वेदेव विोषः ॥ १.। २। ६.५ ॥
इह कस्माच्च भवति | भजथ वर्करथ | अश्व किशोर | उष्टथ करभयेति ।
तश्चक्षणथेदेव विरोष इत्युच्यते न चात्र तल्लक्षण एव विदोषः । तद्ठक्षण एव विोषो
यत्स मानायामाकृनी राम्दभेदः ॥ 20
स्री पुंवच्च ॥ १ ।२।६६॥
इदं सर्वेष्वेव खीम्रहणेषु विचायते खीग्रहणे सखीप्रस्ययम्रहणं वा स्यार्स्ठ्य-
येज्रदणं क शीद्यम्दमहणं वेति । किं चातः | यदि प्रत्ययम्रहणं वा शब्दमरहणं वा
१4 ॥ व्वाकग्मप्रहामाष्यम् ॥ [मण १.२.२.;
गार्यी च गाग्यौयमै च गोः केन यदाब्दो न भ्रूयेत | भजियाभिति हि ठुगु
च्यते" | हह च गार्गी च गाग्योयणौ च गगोन्प्रदय तस्माच्छसो नः पुंसि [६.९.१०३]
इति नस्तं न प्राभोति || भथायेप्रहणं न दोषो भवति । यथा न दोषस्तथास्तु ॥
हह कस्मान्न भवति । भजः च वकंरथ्च | वडवा च किशोर | उद्व
5 करभशेति | तदछछक्षण चेदेव त्रिशेष ह्युच्यते. न चत्र तघ्वल्षण एत्र विदोषः | तठ-
क्षण एव विशेषो यत्समानायामाकृती हाष्दभेदः ||
पुमान्सिया ॥ २. । २ । ६.७ ॥
इद कस्मान्न भवति } हंसश्च वरटा च | कच्छप इुटी च | ऋदय रोरि-
येति । तछक्षगथेदेव त्रिशेष हस्युच्यते न चात्र त्ठक्षग एव विशेषः | त्क्षण एव
10 विहोषो यत्समानायामाकृतौ शब्दभेदः ||
भातृपूत्ो स्वसुदुहितृभ्याम् ॥ २. । २ । ६८ ॥
किमर्थमिदमुच्यते | न पुमान्लियेव्येत्र सिद्धम् | न सिध्यति | त्क्ष गधेदेव
त्रिशोष इत्युच्यते न चात्र तह्वक्षण एव्र विशेषः | तल्लक्षण एव त्रिशेषो यत्समा-
नायामाकृतौ शाब्दमेदः ॥ एव तर्द सिद्धे सति यदिमं योगं शास्ति तञ्ज्ञापयत्या-
15 चार्यो यत्रोप परकृतेस्त्वस्षण एव विशोषस्तत्रैकदोषो भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने
प्रयोजनम् । दंस वरटा च कच्छपश्च डली च ऋदय श्च रोहिेस्यश्नैकशोषो न भ-
वति | पुर्बयेोर्योगयोभूयान्परिहारः । यावद्रूयाद्गोतर यूनेति तावदृद्ध यूनेति ।
पुवेखतरे गोत्रस्य वृद्धमिति संज्ञा क्रियते |
असरूपाणां युवस्यविरखरीपुंसानां विरोषस्याविवक्षितत्वास्सामान्यस्य
20 च विवस्षितत्वास्सिद्धम् ॥. ९ ॥
असरूपाणां युवस्थविरखीपुंसानां विदोषश्चाधि वक्षितः सामान्यं च विवत्तितम् |
वरिशेषस्याविषस्सितत्वार्सामान्यस्य च विवक्षितत्वास्सरूपाणामेकरोष एकविमक्तौ
[९.२.६४] इत्येव सिद्धम् ॥
#* २. ४.६४,
१० ९.२.६.-६९.| ॥ व्याकरणयहयभाष्यम् ॥ गर
पुमान्र्ल्िया |९.२.६७| इह कस्माच्च भवति । ब्राह्मणवस्सा च ब्राह्मगीव-
त्सति |
बाह्मणवत्साब्राह्यणीवत्सयोरखि ङ्गस्य विभक्तिपरस्य विदेषवाचकत्वादने-
करोषः ॥ २॥
ब्राह्मणवत्साब्राह्मणीवत्सयोरिङ्गस्य विभक्तिपरस्य विदोषव(वकत्वदिकदोषो न
भविष्यति | यत्र॒ लिद्घः विभक्तिपरमेव विष्ोषवाचकं तन्रैकदोभो भवति | नात्र
लिङ्गं विभक्ति परमेव विशेषवाचकम् ॥ यदि तर्हि यत्न ठिङ्ं विभक्तिपरमेव वि-
रोषवाचकं तत्रैकशेषो भवतीह न प्रामोति | कारकथ.कारेकाच कारकौ | न
यत्र लिङ्क विभक्तिपरमेव विदोषवाचकम् || कथं पुनरिदं विज्ञायते । शब्दो या
(५4 + 1
ली तद्क्षणथदेव विरोष इति । आहोस्विदर्थो या खी तद्ठक्षणथेदेव विशेष इति | 10
कि चातः | यदि विज्ञायते शब्दो या खी तष्छक्षणथेदेव विंदोष इति सिद्धं कारकश्च
कारिका* च कारकौ | इदं तु न सिध्यति गोमांथ गोमती च गोमन्त | अथ
विज्ञायते ऽर्थो या ली तद्वक्षणथेदेव विरोष इति सिद्धं गो मांथ गोमती च गोमन्त |
हदं तु न सिध्यति कारकथ्च कारिका च कारकौ | उभयथापि पटुश्चषटरीःचपदू
इत्येतन्न सिध्यति ॥ एवं तर नैवं विज्ञायते शब्दो याची तद्धक्षणशेदेव विशेष इति 15
नाप्यर्थो या ञ्जी तष्टक्षणथेदेव विशेष इति | कथं ताह | शब्दार्थौ मा खरी तत्स-
दावेन च तद्वक्षणो विशेष आश्रीयते | एवं च कृर्वेहापि प्राप्िः | ब्राह्मणवस्सा च
ब्राह्मणीवत्सति || एवं तर्हीदमिह व्यपदेरयं सदाचार्यो न व्यपदिशति । किम् |
तदित्यनुवतैते | तदित्यनेन प्रकृतौ खीपुंसौ प्रतिनिर्दिरयेते । को च प्रकृतौ | प्रधाने ।
प्रधानं या हाष्यखी प्रधानं याथेलीति ॥
नपुंसकमनपुंसकेनेकवच्चास्यान्यतरस्याम् ॥ १. । २ । ६९. ॥
भयं योगः शक्यो ऽवक्तुम् ] कथं भुङ्कथ कम्बलः मुष्कं च वलं तदिदं भुङ्कते
20
इमे भुके । भुङकथ कम्बलः भुङ्ख च बृहतिका गुङ्कं च वलं तदिदं शुदं तानीमानि ,
शुदि |
~~~ ~~ --- ~~ -~~-~ = ~ ~~
* ७.३.४४. # ६.९. ७७,
32 ऋष
२५० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥ (मण०१.२.३.
प्रधाने कायैसंभत्ययाच्छेषः ॥ ९ ॥।
भरधाने कायसंभत्ययाच्छेषो भविष्यति | किं च प्रधानम् | नपुंसकम् } कथं
पुनज्ञोयते नपुंसकं प्रधानमिति । एवं हि दृयते लोके | अनिज्ञोतेऽ्ये गुणसंदेहे च
नपुंसकलिङ्ग प्रयुज्यते । किं जातमित्युच्यते इयं चैव हि जायते सरी वा पुमान्वा |
5 तथा विद्रे ऽव्यक्त मारूपं दृष्टा वक्तारो भवन्ति महिषी रूपमिव ब्राह्मणी रूपमिव |
प्रधाने कायैसप्रस्ययान्नपृंसकस्य हेषो भविष्यति || इदं तर्द प्रयोजनमेक वचास्या-
न्यतर स्यामिति वश््यामीति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम् |
आशृतिवाचित्वदेकवचनम् | २॥
आकृतिषाचित्वारेकव चनं भविष्यति । यदा द्रव्याभिधानं तदा हिवचनबहूव-
10 चने भविष्यतः ||
भातृपुत्रो खसृदुहितृभ्याम् ॥ १।२।६८ । । पिता मत्रा
॥ १.।२९। ७० ॥ शवदुरः श्वा ॥१.।२९।.अ१
किमथेमिदमुच्यते न पुमान्स्तिया |९१.२.६७] इत्येव सिद्धम् । श्रातृपुत्र-
वितशवश्युराणां कारणाद्व्ये शब्दनिवेशः । भ्रातृपुत्रपितश्वभुराणां कारणादरव्ये शब्द-
15 निवेद भवति ।
भरातुपुत्रपितृश्वरुराणां कारणाष्रव्ये राब्दनिवेरा इति चेन्तुल्यकारणत्वा-
स्सिद्धम् ।॥ ९ ॥
यदि तावद्धिभर्तीति भ्राता स्वसर्यप्येतद्वति । तथा यदि पुनाति प्रीणातीति वा
पुत्रो दुहि तयेप्येतद्भवति । तथा यदि पाति पालयतीति वा पिता मातयैप्येतद्धवति ।
20 तथा यद्याश्चाप्रव्यः शवद्युरः श्वञ्वामप्येतद्भवति | ददनं वै हेतुः | न हि स्वसारे
भातहाष्दो ददयते |
ददोनं हेतुरिति चेन्त॒ल्यम् ॥ २ ॥
ददन हेतरिति चेन्तल्यमेतद्भवति | स्वसर्यपि भ्रातशष्दो दृदयतां तल्यं हि
कारणम् || न वा एष लोके संप्रस्ययः| न हि रोके भ्रातानीयतामिव्युक्ते स्व-
25 सानीयते ।
पा०१,२.६८-७२. | ॥ व्याकरण महाभाष्यम् ॥ २५९
तदिषयं च ॥ ३ ॥
तद्विषयं चेतद्ृष्टव्यं भवति स्वसरि भरातृत्वम् | किंविषयम् | एकशोषविष-
यम् ॥ युक्तं पुनयैन्नियतविषया नाम शब्दाः स्युः । वाढं युक्तम् |
अन्यत्रापि तदिषयदर्शनात् ॥ ४॥
अन्यत्रापि नियतविषयाः शाबष्दा दृरयन्ते | तद्यथा | समाने रक्ते वर्गे गौ- 5
सहित इति भवव्यश्वः शोण इति | समाने च काले वर्णे मीः कृष्ण इति भव-
व्यश्वो हेम इति | समाने च भुङ्के वर्णे गैः चेत इति भवस्यश्चः ककं इति ॥
त्यदादीनि सनिम् ॥ १ । २ । ७२ ॥
त्यदादितः रोषे पुंनपुंसकतो लिङ्गवचनानि ॥ ९ ॥
स्यदादितः शेषे पुंनपुंसकतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | सा च देवदस्थ ती | सा 10
घ कुण्डे च तानि|
अद्रन््तत्पुरुषविदोषणानाम् । ५ ॥
अन्द तस्पुरुषविरोषणनामिति वक्तव्यम् | इह मा भूत् । सच कुङ्ुटः सा
च मयूरी कु्ुटमयुर्यी ते | अधे पिप्पल्यास्तदधेपिप्पली च सा अर्पपिप्पल्यौ ते ||
भयमपि योगः दायो वक्तम् | कथम् |
त्यदादीनां सामान्यार्थत्वात् | ३ ॥
त्यदादीनां सामान्यमथेः | आतथ साम्यं देवदत्तेऽपि हि स ` इष्येतद्धषति
यज्ञदत्तेऽपि | त्यदादीनां सामान्या्थलाच्छेषो भविभ्यति || इदं तां प्रयोजनं
प्रस्य रोषं वक्ष्यामीति |
परस्य चभयवाचित्वात् ॥ ४॥ 20
15
उभयवानचि परम् ॥
र्वरोषदर्रानाश्च || ५ ॥
र्यस्य खस्त्रपि शोषो दृरयते | स॒ च यथ तावानय यावानयेति | इदं तर्द
पयो जनं इन्दो मा भूदिति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम् |
>५२ \ स्याकम्नयरामाच्यम \: [ब०१.२.३.
॥ 1
सामान्यविद्राषवाचिनोश्च इन्द्राभावात्सिद्धम् ॥ £ ॥
खामान्वविदरोषवाविनोञ् इन्दो न मवदीति व्छव्वम् |} चदि सामान्यविङ्ेष-
वाचिनेोद्न्द्रो न भवनीत्वुच्यने मुद्रामीरम् गोबरीवदेम् तृणो ठपपभिति न सिध्यति ।
तैषर दोषः | इद तावच्छद्रामीरमिति | आभीरा जात्वन्तराणि । मोबरीवदमिति |
5 गाव उत्काटितपुंस्का वाहाव च विक्रयाय च | (लिय एवावांशिष्वन्ते | तृणोतप-
मिति | अपामुलपमिति नामधेयम् || वत्ता वक्तव्यम् | न वक्तव्वम् | सामा-
न्येन क्तत्तराद्ि दोषस्य प्रयोगो न भविष्यति | खामान्येनो्छत्वात्तस्या यस्व विरेषस्व
प्रयोगेण न भवितव्यम् | किं कारणम् | उ्छार्थानामप्रयोग इति || न तर्द दानीभिरं
मवति तं ब्राह्मणमानय गाग्येमिति | भवति यडा नियोगतस्तस्थैवानयनं मवति |
10 एवं तई येत्ैव खल्वपि देतुतैतद्वाक्यं मवति तं ब्राह्मणमानव गा््यामिति तेनैव है-
तना वृत्तिरपि भरामोति । तस्मात्सामान्यविश्चेषवाचिनो दन्दो न मवतीति वक्तव्यम् ॥
ग्राम्यपदुसंघेष्वतसूणषु खी ॥ १. । २ । ७२. ॥
भयमपि योगः शाश्यो क्तम् | कथं गाव इमाश्रन्ति गजा इमाथरन्त |
गाव उत्कालितपुंस्का वाहाय च विक्रयाय च | लिव एवावश्िष्यन्ते || ददं त
15 प्रयोजनं प्ाम्येष्विति वद्या मीति | इह मा भूत् | न्यद्धव इमे शकरा इम इति ।
कः पुनरहैत्यमाम्याणां पुस उत्कारयितुं ये म्रहीतुमदाक्याः कुत एव वहाय व
विक्रयाय च || इदं तर्हि प्रयोजनं परुषिति वक्ष्यामीति । इह मा भूत् । त्राह
णा हमे वृषला हमे | कः पृनरहत्यपभरूनां पंस उत्कालयितुं ये ऽस्या वहाय च
चिक्रयाय च || इदं तर प्रयोजनं संघेष्विति वश्यामीति | इह भा मुत् | एतौ
20 गाग चरतः | कः पुनरैति निज्गंति अ ऽन्यथा प्रयोक्तम् || इदं ताहि प्रयोजनम-
तरुगेव्विति वक्ष्यामीति | इह मा भूत् | उरणका इमे वकंरा इम इति । कः
पुनरेति तरूणानां पंस उत्कालयितुं ये ऽहाक्या वाहाय च विक्रयाय च ॥
अनेकङाफेप्विति वक्तव्यम् | इह मा भूत् | अथा्रन्ति | गदेमाअर न्तीति ॥
इति श्रीमगवत्पतच्लिविरनिते व्याकरणमहाभाप्ये प्रथमस्याध्या यस्य हिरव
४5 पदि तृतीयमाह्विकम् || पादथ समाप्तः |
भूवादयो धातवः ॥ १. ।२. । २. ॥
कुतो ऽयं वकारः | यदि तावस्संहितया निर्देश : क्रियते भ्वादय इति भवित-
ष्यम् । अथासंहितया भूभादय इति भवितव्यम् ॥ अत उत्तरं पठति । ॥ि
भृवादीना वकारोऽयं मङ्ःलार्थः प्रयुज्यते ।
` भाद्गकिक भा्ार्यो महतः शाखीषस्य मङ्कलाथे . वकारमागमं प्रयुङधे, । मङ्ग 5
लादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि हि शालाणि प्रथन्ते वीरपुरषाणि च भव-
न्त्यायुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारथ्च मङ्गलयुक्ता थथा. स्युरिति || अथादिपहणं किम-
थेम् | यदि तावत्पद्यन्ते नाथे आदिभ्रहणेन | अन्यत्रापि ह्ययं पठन्नादिप्रहणं न
करोति । कान्यत्र | मृडमृदगुधकुषद्धिशवदवसः छा [ ९. २. ७ | इति | भथ
न पद्यन्ते नतरामथे आदिन्रहणेन | न ह्यपडटिताः इक्या अआदिमक्णेन विरोषयि- 10
तुम् । एवं तर्हि सिद्धे सति यदादिग्रहणं करोति तज्क्षपयत्याचार्यो अस्ति च षरे
ब्यश्च खूज।दिति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् | पाठेन धातुसंज्ञेत्येवदुपपन्तं भवति ||
पदेन पातुसंज्ञायां समानराब्द प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
पाठेन धतुसंज्ञायां समानद्रान्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | या इति धातुयौ इत्या-
बन्तः | वा इति भातुवौ इति निपातः । नु इति धातुनु इति प्रत्ययश्च निपातश्च | 15
दिविति धातुर्दिविति प्रातिपदिकम् || किं च स्याश्द्येतेषामपि धातुसंज्ञा स्यात् | धातोः
[३.९.९१] इति तव्यदादीना मृत्पत्तिः प्रसज्येत" । नैष दोषः | साधने तव्यदादयों
वि धीयन्ते साधनं च क्रियायाः | क्रियाभावात्साधनाभावः | साधनाभावात्सत्या-
मपि धातुसंश्ायां तव्यदादयो न भविष्यन्ति ||. इह तर्हि याः परय भातो भातोः
[६.४.९४०] इति लोपः प्रसज्येत | नैष दोषः | भनाप इत्येवं सः† || अस्य 20
तर्द वाशा्दस्य निपातस्याधातुरिति‡ प्रातिपदिकसंज्नायाः प्रतिषेधः प्रसज्येत ।
भपातिपदिकत्वास्स्वाद्युत्पत्तिने स्यात् | नैष दोषः । निपातस्यानथेकस्य प्रातिपदि-
कत्वं चोदित॑ऽ$ तत्रानर्थकम्रहणं न करिष्यते | निपातः प्रातिपदिकमित्येव || इह तर्हि
# ३.९. ९.५. ¶† ६.४. ९५४०. ‡ १,२.४५. § ९.२. ४५१.
२५४ ॥ व्याकरणमहाभाव्यम् ॥ [ म०१.२.१.
चलू इत्यवि भुधातुभरुवां य्वोरियङ्वड [६.४. ७७| इत्युवडादे शः प्रसज्येत |
नैष दोषः । आचार्यपरवृत्निज्ञौपयति न प्रस्ययस्योवङदेशो भवतीति यदयं त्र
भुमरहणं करोति || अस्य ताद दिव्शा्दस्याधातुरेति प्रातिपदिकसंज्ञायाः प्रतिषेधः
प्रसज्येत | अप्रातिपदिकल्वास्स्वादयुत्पत्तिम स्यात् | नैष दोषः | आचार्यमवृत्िजञौ -
5 पयत्युत्पद्यन्ते दिडाभ्दारस्वादय इति यदयं दिवः सावौत््वं शास्ति* | तैतदासि
ज्ञापकम् | अस्ति न्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् | किम् | दिष्डराब्दो यत्मातिषदिकं
तदथमेतत्स्यात् । अक्षद्यूरिति । न वा अत्रेष्यते | अनिष्टं च प्रापरोतीष्टंच नसि-
ध्यति | एवं तद्येननुंबन्धकपरदणे न॒ सानुबन्धकस्येत्येवमेतस्य न भविष्यति |
` एव मप्यननुबन्धको दिष्डाब्दो नास्तीति कृत्वा सनुबन्धकस्य पदणं विज्ञास्यते |
10 परिमणग्रहणं च ।| २॥
परिमाणग्रहणं च कतेग्यम् | इयानवधिषोतुसंज्ञो भवतीति वक्तव्यम् | कुतो
दयतद्भञ्चष्दो धातुसंज्ञो भविष्यति न पुनरभ्वेष् शाब्द इति ||
यदि पुनः क्रियावचनो धातुरिव्येतहक्षणं क्रियेत | का पुनः क्रिया । ईहा |
कपू पुनरीहा | वेष्टा । का पुनधे्टा | व्यापारः || स्वेथा भवाञ्शब्देनैव राब्दा-
15 नाचष्टे न किंचिदथेजातं निद दौयत्येवंजातीयिका क्रियेति | क्रिया नामेयमत्यन्ता-
परिदृष्टा । अङ्स्या क्रिया पिण्डीभूता निददोयितुं यथा गर्भो निलुञितिः | सासाव-
नुमानगम्या | कोऽसावनुमानः | इह सर्वेषु साधनेषु संनिदितेषु कदाचित्पचतीय्ये-
तद्वति कदाचिन्न भवति । यस्मिन्साधने संनिहिते प्रचतीव्येतद्भवति सा नूनं
क्रिया | अथवा यया देवदत्त इह भृत्वा पाटरिपृत्रे भवति सा नूनं क्रिया||
20 कथं पुनज्ञोयते क्रियावचनाः पचादय इति | यदेषां करोतिना सामानाधिकरण्यम् |
किं करोति पचति | कं करिष्यति पश्यति । [किमकार्षीत् अपाक्षीदिति ॥ तत्र
क्रियावचन उपसगेभरत्ययप्रातिषेधः ।। ३ ||
क्रियावचने धातावुपसगेप्रत्यययोः प्रतिषेधो वक्तव्यः | पचति प्रपचति ॥ किं
पुनः कारणं प्रमति |`
९४ संघातेनाथंगतेः ॥ ४ ॥
संघ्रातेन र्थो गम्यते सप्रकृतिकेन सप्रत्ययकेन सोपसर्भण च |
जक, क
ऋ ७.९. ८४,
पा० ९.३.९. | ` 1 न्याकरणमहाभाष्यप् ॥ २५५
अस्तिभवतिविद्यतीनां धातुत्वम् ।। ५॥।
भस्तिभवतिविंद्यतीनां धातुसंज्ञा वक्तव्या | यथा हि भवता करोतिना पचादीनां
सामानाधिकरण्यं निदाशितं न तथास्त्यादीनां निददर्यते | न हि भवति किं करोति
अस्तीति ॥
प्रत्ययाथस्याव्यतिरेकास्रकृव्यन्तरेषु
रत्यया्थस्यात्यतिरेकालक्व्यन्तरेषु मन्यामहे धातुरेव क्रियामाहेति | पचति
पठति | प्रकृत्यर्थो ऽन्यधान्यश्च प्रत्ययाथेः स एव ||
धातोश्वाथाभिदात्पत्ययान्तरेषु
धातोश्वाथौमेदायत्ययान्तरेषु मन्यामहे धातुरेव त्रियामाहिति | पक्ता पचनम् `
पाक इति | प्रत्ययार्थो ऽन्यान्यथ्च भवति ्रङृत्यथेः स एव ॥ कथं पुनज्ञौयते 1
ऽयं प्रक व्यर्थो ऽयं प्रत्ययां इति ।
सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम् | ६ ॥
अन्वयाच्च व्यतिरेक | को ऽसावन्वयो व्यतिरेको वा | इह प्रचतीत्युक्ते
क्िच्छब्दः भ्रुयते पच्दाब्दधकारान्तो तिशब्दश्च प्रत्ययः | अ्थाऽपि कथिद्धम्यते
विङ्धित्तिः कनत्वमेकस्वं च | पठतीत्युक्ते कथिच्छब्दो हीयते कथिदुपजायते 1:
कथिदन्वयी | पच्डाष्दो हीयते पट्शष्द उपजायते ऽतिशब्दो ऽन्वयी | अर्थोऽपि
कथिद्धीयते किदुपजायते कथिदन्वयी | वि्कित्तिहीयते पञिक्रियोपजायते करत्वं
चैकत्वं चास्बयि | ते मन्यामहे यः शाश्दो हीयते तस्यासावर्थो योऽर्थो हीयते यः
खान्द उपजायते तस्यासावर्थो योऽर्थं उपजायते यः राब्दोऽन्वयी तस्यासावर्थो यो
ऽर्थाऽन्वयी || विषम उपन्यासः । बहवो हि शम्दा एकाथौ भवन्ति | तद्यथा | 20
इन्द्रः शक्रः पुरुहूतः पुरंदरः । कन्दुः कोः कुल हति | एकथ शा्दो बहथेः।
तद्यथा । अक्ताः पादाः माषा इति | अतः किं न साधीयो ऽर्थवन्ता सिद्धा भवति |
नापि त्रुमो ऽथेवत्ता न क्षिभ्यतीति | वर्णिताथेवत्तान्वयव्यतिरेकाभ्यामेव | तत्र कुत
एतदयं प्रकृत्यर्थो ऽयं प्रत्ययां इति न पुनः प्कृतिरेवोभावर्ी त्रूयासल्यय एव वा |
सामान्यश्चब्दा एत एवं स्युः । सामान्यद्राब्दा् मान्तरेण प्रकरणं विरोषं वा 25
वि दोषेष्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगतः पचतीत्युक्ते स्वभावतः करिमिधिदि शेषे
२५६ ॥ व्याक्रणप्रहाभाष्यमर. ॥ [म०९.३.९.
पचतिदाष्दो वतेते ऽतो मन्यामहे नेमे सामान्यकाष्दा इयति | -न चेत्तामान्यश्चभ्य
प्रकृतिः प्रक्गव्यर्थे वतेते प्रत्ययः प्रत्ययार्थे ||
क्रियाविरोषक उपसर्गः । ७ ॥
पचतीति क्रिया गम्यतेतां भो विशिनष्टि || यद्यपि तावदनरैतच्छक्यते वक्तं
5 यत्र धातुरुपस्ं व्यमिचरति यत्र न खलु तं भ्यमिचरति तत्र कथम् | अध्येति
अधीत इति | यद्यप्यत्र धातुरुपसभे न ॒व्यमिचरद्युपसगेस्तु धातुं व्यमिचरति |
ते मन्यामहे य एवास्याधेरन्यत्राथेः स इहापीति । कः पुनरन्यत्रापेरथः । अधि-
रुपरिभावे वतैते || इह तर्हि व्यक्तमथोन्तरं गम्यते । तिष्ठति प्रतिष्ठत इति । ति्ठ-
तीति व्रजिक्रियाया निवत्तिः प्रतिष्ठत इति व्रजिक्रिया गम्यते | ते मन्यामह उप-
10 सर्गकृतमेतथेनात्र व्रजिक्रिया गम्यत इति | प्रो ऽयं कृ्टापचार आदिकमेणि वतेते |
न वेदं नास्ति बहथौ अपि धातवो भवन्तीति | तद्यथा | विः प्रकिरणे दृष्ट्छे-
दने चापि वतैते | केशदमभ्रु वपतीति | हडः स्तुतिचोदनायान्च् इष्टः प्रेरणे
चापि वैते | अभिर्वा इतो वृष्टिमीट्रे मरुतो अमुतश्याव्रयन्तीति | करोतिरभूतपा-
दुरमौवि दृष्टो निमेलीकरणे चापि वतैते । प्ट कुरु | पादौ कुर । उन्मृदानेति गम्यते |
15 निक्षेपगे चापि वतते | कटे कुरू | घटे कुर | भरमानमितः कुरू | स्थापयेति गम्यते |
एवमिहापि तिष्ठतिरेव व्रजिक्रियामाह तिष्ठतिरेव त्रजिक्रि याया निवृत्तिम् ॥| अमं
ताईं दोषः | भस्तिभवतिविद्यतीनां धातुत्वमिति ॥
यदि पनभौववचनो घातुरिस्येवं लक्षणं क्रियेत । कथं पुनज्ञायते भाववचनाः
पचादय इति | यदेषां भवतिना सामानाधिकरण्यम् | भवति पचति । भवति प-
2० कषयति | भवस्यपाक्षीदिति || कः पुनभौवः । भवतेः स्वपदार्थ भवनं भाव इति ।
यदि भवतेः स्वपदार्थो भवनं भावो विप्रतिषिद्धानां धातुसंज्ञा न प्रामोत्ति। भेदः
ढदः | अन्यो हि भावो ऽन्यो ऽभावः | आतशान्यो भावो ऽन्यो ऽभाव इति यी
हि यस्य भावमिच्छति स न तस्याभावं यस्य चाभावं-न तस्य भावम् || पचादीनां
च धातसंज्ञा न प्रामोति | यथा हि भवदा क्रियावचने धाती करोतिना पचादीनां
„ सामानाधिकरण्यं निदश्चितं न तथा भाववचन धातौ निददयेते । करोतिः प्रादीनां
सर्वौन्काकान्सर्वान्प्रुषान्सवीणि वचनान्यनुवतैते भवतिः -पुनवेतमानकालं चैवैकत्वं
च || का तर्डीवं वाचोयक्तिर्मवति पचति भवति पष्यति भवस्यपाक्षीदिति | एवैषा
वाचोयुक्तिः | पचादयः क्रिया भवतिक्रियायाः कन्या भवन्तीति । यद्यपि ताव-
पा०९.२.९.| ॥ श्याकरणपहाभाष्यम् ॥ २५७
दप्रेतच्छक्यते वक्तं यत्रान्या चान्या च क्रिया यञ्रखलु सैव क्रिया तत्र कथम्|
भवेदपि भरेत् | स्यददवि ध्यादिति| अत्रप्यन्यतस्वमस्ि | कुतः | कालमेदात्ताध-
नभेदाच ) एकध्यत्र मवरतेर्भवतिः साधनं सर्वकालश्च प्रत्ययः | अपरस्य बाय
साधनं वर्वभानक्राथ प्रत्ययः || यावतात्राप्यन्यलखमस्ति पचादयश क्रिया भव-
विक्षियायाः कयौ मवन्तीत्यस्त्वयं कतृ्ाधनः | भत्रतीति भाव इति | किं कृतं 5
भवति | विप्रतिषिद्धानां धातसंज्ञा सिद्धा भव्रति | भवेदधिप्रतिषिद्धानां धतुसंज्ञा
विद्धा स्यसितिपदिकानामपि प्रामोति | वक्तिः ष्क इति | किं कारणम् । एतान्यपि
दि भवन्ति | एवं तहिं कमक्ताधनो भविष्यति | भाव्यते यः स भावइति | क्रिया
चेत्र हि भाव्यते स्वभावसिद्धंतु द्रभ्यम् | एवमपि भवेत्के्षाचिन्न ` स्यत्यानि म
भत्यन्ते | ये स्पते संबन्धिशष्दास्तेषां प्रमिति | माता पिता भातेत्तिः। सवथा वयं 10
भ्रातिपदिकपवुँदा सान्न मुच्यामहे || पठिष्यति ` द्याचार्यो भूवादि पाठः प्रातिपदिका-
णपयत्यादिनिवुस्यर्थं इति | यावता पठिष्यति पचादय क्रिया-मवतिक्रियायाः कर्यो
भवन्तीत्यस्त्वयं क्ैसाधनः | मवरतीति भाव इति | किः वक्तव्यमेतत् | न॑ हि ।
कथमनुच्यमानं गंस्यते | एतेनैवाभिहितं सत्रेण भुकादयोः धातव इति । कथम् | .
नेदमादरिप्रहणगम् | वदेर्यगरीणारिक्र इञ्कनृंसाधनः | भुवं वदन्तीति मूतव्रादयः इति || 15
भाववचने तदयथप्रत्ययप्रतिषेधः ॥ < |
भ्रातरत्रत्रने घातौ तद्यस्य प्रत्ययस्य प्रतिषेधो वक्तभ्यः | शिश्य इति } किच
स्यात् । अशितीव्यात्त्वं प्रसज्येत" | तदि धातोधिहितम्। || `
इतरेतराश्रयं च प्रत्यये भावव वनत्वं तस्माच्च प्रत्ययः ॥ ९२. ॥
डतरेतराश्रयं च भवति | केतरेतराश्रयता | प्रत्यये भाववचनत्वं तस्माच्च 20
प्रत्ययः | उत्पन्ने हि प्रस्यये भाववचनत्वं गम्यते स च तावद्धाववचनादुत्पाद्यः |
तदेतादितरेतरात्रयं भवति } इतरेतराञ्नयाणि च न प्रकल्पन्ते ||
सिद तु निव्यगब्दत्वादनाभित्य भाववचनत्वं प्रत्ययः ॥ ९० ॥
सिद्धमेतत् | कथम् | नित्याः शब्दः | नव्येषु च राब्देष्वनाननित्य भाववच्-
नृस्वं प्रस्यय उत्पद्यते || 2:
+ ६.१.४५. † ६.२.६५५.
ॐ3 भा
णर 1 व्याकरणमहाभाष्य ॥ [म०१.२३.९.
प्रथमभावम्रहण च ॥ ९९ ॥
प्रथमभावम्रहणं च कतेष्यम् । प्रथमं यो भावमाहेति | कुतः पुनः प्राथम्यं
किं शब्दत आहोस्विदथेतः । किं चातः | यदि शब्दतः सनादीनां धातुसंज्ञा न
प्राभोति | पुत्रीयति वलीयतीति । अथार्थतः सिद्धा सनादीनां धातुसंज्ञा स एव
४ तु दोषो भाववचने तदथेप्रस्ययप्रतिषेध इति | एवं तर्हि तैवाथेतो नामि शब्दतः |
रकि तर्हिं | अमिधानतः | छमध्यमे अभिधाने यः प्रथमं भावमाह ||
इ य एव भाववचने धाती दोषास्त एव क्रियावचने ऽपि | तत्र त एव परि-
हाराः । तत्रेदमपरिहतमस्तिभवतिवि तीनां धातुत्वमिति ।- तस्य परिहारः | कां
पुनः क्रियां भवान्मत्वाहास्तिभवतिविद्यतीनां धातुसंज्ञा न प्रामोतीति | किं यत्तहेव-
10 दन्तः कंसपात्र्यां पाणिनीदनं भुङ् इति | न च्रुमः कारकाणि क्रियेति | कं तर्हि ।
कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया | अन्यथा च कारकाणि श्ुष्कोदने प्रवतैन्ते ऽन्यथा
च मांसौदने । ययेवं सिद्धास्तिभवतिदिद्यतीनां धातुसंज्ञा | अन्यथा हि कारका-
ण्युस्तौ प्रषतेन्ते ऽन्यथा हि भ्ियती || षड्ावविकारा हति ह स्माह . भगवान्वाष्यौ
गणिः | जायते ऽस्ति विपरिणमते वधते ऽपश्चीयते विनरयतीति | सवेथा स्थित
15 इत्यत्र धातुसंज्ञा न प्रामोति | बाह्यो द्येतेभ्यसितष्ठतिः | एवं ॒तर्दि क्रियायाः क्रिया
निवर्तिका भवति द्रव्यं द्रव्यस्य निवतेकम् | एवं हि कथित्कंचित्प॒च्छति | किम-
वस्थो देवदत्तस्य व्याधिरिति | स आह | वधेत इति । अपर भह | अपक्षीयत
इति । भपर आह | स्थित इति | स्थित इत्युक्ते वरषतेापक्षीयतेश निवृत्तिसेवति |
अथवा नान्तरेण क्रियां भूतभविष्यद्तेमानाः काला व्यज्यन्ते | भस्त्यादिमिशचाषपि
20 भूतभविष्यदतेमानाः काला ध्यज्यन्ते ||. .अथवा नान्यत्पष्टेान्यदाख््येयम् । तेन
न भविष्यति किं करोति अस्तीति ॥
अथ य्येव क्रियावचनो धातुरिव्येष पक्षो ऽथापि भाववचनो धातुरिति किं
गतमेतदियता सूतरेणाहोस्विदन्यतरस्मिन्पक्षे भुयः सूत्रं कर्तव्यम् | गतमित्याह ।
कथम् । जयमादि शब्दो सस्त्येव व्यवस्थायां वतैते | तद्यथा । देवदत्तादीन्छमुप-
9 विष्टाकह देवदश्तादय आनीयन्तामिति | त उत्थाप्यानीयन्ते | अस्ति प्रकारे वतेते ।
तद्यथा । देवदन्तादय द्या अभिरूपा दशंनीयाः पक्वन्तः । देवदन्तप्रकारा इति
गम्यते । प्रस्येषं चारिशम्दः परिसमाप्यते । भ्वादय इति च वादय हति च | तथ्यरा
तावच्कियावचनो धातुरिव्येष पक्षस्तदा भू इत्यत्र य आदिशब्दः स भ्यवस्यायां
यतेते वा त्यत्र य॒ आदिरान्दः स प्रकारे | भू हत्येवम्दयो वा इत्येव॑भरकारा
पा० ९.३.२. |] ॥ अ्ाकर्णयहाभाष्यम् ॥ २५५९
हति | यदा तु भाववचनो धातुरिव्येष पल्षस्तदा वा इत्यत्र य॒ भादिदाष्दः स
व्यवस्थायां भू इत्यत्र य आदिशब्दः स पभरकारे | वा इत्येवमादयो भु इत्येवंप्रकारा
इति || यदि तरि लक्षणं क्रियते नेदानीं पाठः क्तव्यः | कर्तव्यथ | किं प्रयोजनम् ।
भूवादिपाठटः भरातिपदिकाणपयत्यादिनिवृत््यथैः || ९२ ॥
भूवादिपाठः कतैष्यः | किं प्रयोजनम् | प्रातिपदिकाणपयत्यादिनिवुच्यथेः | 5
प्रातिपदिकनिवृ्यथै आणपयस्यादिनिवृच्य्थथ | के पुनराणपयल्यादयः । भाण-
पयति वटति वडतीति ॥
स्वरानुबन्धनज्ञापनाय च| ९३ ॥
स्वरानुबन्धन्ञापनाय च पाठः कर्तंघ्यः | स्वराननुबन्धांथ ज्ञास्यामीति | न
ह्यन्तरेण पावं॑स्वरा अनुबन्धा वा शाक्या विज्नातुम् || यें त्वेते न्याय्यविकरणां 10
उदात्ता अननुबन्धकाः पद्यन्तं एतेषां पाठः शक्यो ऽकतैम् | एतेषामप्यवरय-
माणपयत्यादिनिवृत्त्यथेः पाठः कतेव्यः ॥ न कतैव्यः | शिष्टप्रयोगाराणेपयत्या-
दीनां निवृ्तिभविष्यति | स चावरयं शिष्टप्रयोग उपास्यो येऽपि पद्यन्ते तेषामपि
वि पयांसनिवृत्त्यथेः । लोके हि कृष्यर्थे कसिं प्रयुच्जते दुदयथ च दिशिम् ॥
उपदेशे ऽजनुनासिक इत् ॥ १. । ३ ।.२॥ 1६
उपदेश हति किमथेम् | अभ्र आँ अपः | उषशे यो शुनासिकस्तस्य मा
भूदिति ॥ कः पुनरहेशोपदेशयोर्धिरोषः । प्रस्यक्षमाख्यानमुपदेश्ो गणिः प्रापणमु-
हेदाः। प्रस्यक्ष तावदाख्यानमुषदेशः । तद्यथा । अगोज्ञाय कं्िदवां सक्थनि कर्ण
वा गृहीत्वोपदिशाति | अयं नौरिति । स भव्यक्षमाख्यातमाह “| उपदिष्टो अ `
गौरिति । गुणैः प्रापणमुहेदाः । तदथा | क्ितकंचिदाह 1 देवदत्तं मे भवानुहि- 20
शास्विति | स इहस्थः पाटलिुत्रस्थं दे वदत्तमुदिदाति । अङ्गदी कुण्डली किरीटी
व्युद्धोरस्को वृत्तबाहुर्लोहिताक्षस्तुङ्गनासो विचित्रामरण ददृशो देवदत्त इति | स
` गुणै भराप्यंमाणमाह | उदहशे मे देवदत्त इति ||
| इत्संज्ञायां सवरसङ्गो अविरोषात् ॥ १॥
इत्संशायां सवेप्रसङ्गः । सवेस्यानुनासिकस्येत्संजञा प्रामोति । अस्यापि प्राति ‰
, + ६.९.६२६. . ;
६० ॥ व्थौकरणपायीष्थिये ॥ [मण० ९.३.१९.
अभर भं भपः | किं कारणम् | अवि दरोषात् | न हि कथिदि शेष उपादीयत एषं
जातीयकस्यानुनासिकस्येत्संज्ञा भवतीति | जनुपादीयमाने विशेषे सवप्रसङ्कः ||
किमुच्यते अनुपादीयमाने विद्षोष इति । कथं न नामोपादीयते यदोपदेश्च इत्युच्यते |
लक्षणेन 'दयुपदेराः । संकीणोवुहेशो पदे रौ । प्रत्यक्षमाख्यानमुहेशो गुणे प्रापण-
.£ मुपदेशः । प्रत्यक्षं तावदाख्यानमुदहेशः | तद्यथा । कधित्कविदाह | अनुवाकं ने
भवानुदिद्यत्विति । स तस्मा आचष्टे | इषेस्वकमधीष्व | शंनेदिवीयम धीष्वेति |
स प्रत्यक्षमाख्यातमाह । उिटो मे ञनुवाकस्तमध्येष्य इति | गुणैश्च प्रापणमुपदे शः।
तद्यथा | कथिरत्केचिदाह | सामान्तरं गमिष्यामि पन्थानं मे भवानुपदिदास्विति।
स तस्मा आचष्टे | अमुष्मिन्नवकाशे हस्तदक्षिणो महीतव्यो ऽमुस्मिन्स्तवाम इति |
10 स गुणैः प्राप्यमाणमाह | उपदिष्टो मे पन्था इति| एवमेतौ संकीर्णा वुषदोषरेस्ौ
एवं तर्हत्कायौभावादत्रेत्संज्ञा न भविष्यति | ननु च ऊोप फएवेत्कार्यं स्यात् |
भका केपः ] इद हि शाब्दस्य व्यथं उपदेशः । कायर्थो वा भवल्युपदे शः अ्रव-
गार्थो वा| कायै चेह नासि | कार्य चासति यदि श्रवणमपि न स्वादुप्देशो
-ऽनथैकः स्यात् || इदभस्तीत्कायेम् | अभ ओं अरितः | अनम्तररक्षिणायाभिस्सं-
15 ज्ञायां सत्यामा्दितेथ ७.२. ९६] इतीटूप्रतिषेधः ` प्रसज्येत ॥
सिद्धं तुपदेराने शनुनासिकव चनात् ॥ > ॥
सिद्धमेतत् | कथम् | उपदेशने यो ऽनुनाक्षिकः स इत्संज्ञो भवतीति वक्तव्यम् |
किं पुनरुपदेशनम् } दाखम् | सिध्यति । छतं तई भिद्यते || यथान्यासंमेवास्तु |
ननु -चोक्तमिस्संज्ञायां सवेभ्रसङ्खो ऽविरोषादिति । नैष दोषः | उपदेरा इति घअयं
20 करणस।धनः | न सिध्यति | परत्वाछछचुट् प्रामोति† | न तरूमो ऽकर्तीरि च कारके
संज्ञायाम् [३,२, ९९] इति । किं तर्हि । हलथ [३.३.९२९ | इति | तत्रापि
संज्ञायामिति वैते न चैषा संज्ञा | परायवचनादसेज्ञायामपि भाविष्यति | प्रयवः
चनास्संश्ञायांमेव स्याह न वा न द्युपाधेरपापिर्भवति विरोषणस्य वा विदोषणम् | यदि
नोपापेरपाधिर्मैवति विशेषणस्य वा विद्रेषणं कल्याण्यादीनामिनङ् [४. ९.९२१६।
25 कुलटाया वा [१९७] इनङ््भाषा न प्राभोति । इनडेवात्र प्रधानम् | विहितः
प्रत्ययः प्रकृतशानुवतेते९ | इह तर्हि वाकिनादीनां कक् [४.१.१९८] पुजान्ताद्-
न्यतरस्याम् . [९९.९] इति कुग्विभाषा -न प्रामोति । सत्रापि कुभेव. भधानम् ।
क-म कन
† ९.३. ९. † २.३. ६९५, ‡ ३.३. ९६८. $ ४.९. ९२०.
पा० ९.३.३. | ॥ श्वाकरनचहाष्ष्यत्र ॥ २६९.
विहितः ` प्रत्ययः भरकृ तश्वानुवतेते* | एवं. न. चेदमकृतं भत्ति नो पपेहपाधिभेवति
विशेषणस्य वा विदोषणमिति न च कथिहेषो भवति| एषं च कृत्वा षञ्न प्रा-
रोति || एवं तार्हि कृत्यल्युटो बहुलम् [३.३.११३] इत्येवमत्र घञ्भविष्यति ||
हरन्त्यम् ॥ १,।२।२. ॥
` हलन्स्ये स्व॑प्रसङ्गः. सर्वान्त्यत्वात् | ९ ।। 5
हलन्त्ये स्चप्रसङ्कः | सवैस्य हल हत्संज्ञा प्रामोति । कि कारणम् | सवौ-
न्त्यत्वरात् । सर्वो हि हठ तं तमव प्रत्यन्त्यो भवति ||
सिद्धं तु व्यवसितान्त्यत्वात् || > ॥
सिद्धमेतत् कथम्| ष्यवसितान्स्यरवात् | व्यवसितान्त्यो हरिर्संश्ञो भवती `
धक्तव्यम् | के पुनव्यवसिताः | धातुप्रातिपदिकप्रस्ययनिपातागमादेश्ाः । सिध्यति } 10
सूत्रं तहि भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु | ननु चोक्त हलन्त्ये सवेप्रसङ्गः स्बान्त्य-
त्वादिति । नैष दोषः । आहायं हठन्त्यमित्संश्चं भवतीति सवे हस् तं तमव्धि
परत्यन्त्यो भव्ति तत्र प्रकषगतिर्धिज्ञास्यते | साधीयो योऽन्त्य इति | कथ साधीयः |
यो व्यवसितान्त्यः || अथचा सापेक्षो ऽयं निर्देशः क्रियते न ॒चान्यक्किचिदपेक्ष्य- `
मस्ति ते व्यवतितमेवापेक्षिष्यामहे || 15
लक रिस्यानुबन्धाज्ञापितत्वा इल्ग्रहणाप्रसिदददिः।। ३ ॥
लकारस्यानुबन्धत्वेनाज्ञापितत्वा द्ल्त्रहणस्याप्रसिदिः | दरन्त्यमित्सं्गं भवती-
त्युच्यते कारस्यैव तावदित्संज्ञा न प्रापमोति। ||
` सिद्धः तु लकारनिदेशात् ॥ ४ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | लकारनिर्देशाः कमैव्यः | दलन्त्यमित्सेकञं भवति लका- ‰0
` रथेति वक्तव्यम् ॥ ,. [ि
. | एकरशेषनिदैशादया ।॥ < ॥
', ` आथवेकदोषनिर्दजोऽयम् | दल् च हल् च हल् | हलन्स्यमिस्सैश्गं भवतीति ॥
यरि ~~~ ~ न
# ४.९.१५७. ` † ९.९.७१.
%२६२ ॥ ध्याकरणप्हाभाष्यम ॥ ¦ [म० १.३.९,
अथवा ककार स्थेवेदं गुणभूतस्य पहणं तत्रीपदेद्ोऽजनुनासिक इत् [१,३.२] इती-
स्तज्ञा भविष्यति || अथवाचायेप्रवृत्तिज्ञापयति भवंति लकारस्येस्संज्ञेति यदयं णलं
कितं करोति |
परातिपदिकमतिषेधो त्ताेते ॥ ६ ॥
8 भकृ्तदधितान्तस्य प्रातिपदिकस्य प्रतिषेधो धक्तव्यः | उदश्वित् शकृदिति ।
भक्ृत्तदधितान्तस्थेति किमथम् | कुम्भकारः नगरकारः । ओपगवः कापटव इति||
इदर्थाभावात्सिदम् ॥ ७ ॥
इत्कायोभावादन्ेत्संज्ञा न भविष्यति || इदमस्तीत्काये तित्स्वरितम् [६.१.९८९ |
इति स्वरितत्वं यथा स्यात् | नैतदस्ति | प्रत्ययम्रहणं त्न चोदायिभ्यति। || इदं
10 तर्हि | राजा तक्ता | उिनितीत्यादयुदात्तत्वं यथा स्यात्; | डिनतीर्युच्यते तत्र ध्यपव-
गौभावाच्त भविष्यति || इदं तर्द | स्वर् । उप्तम रिति [६.९.५९७] इत्येष स्वरो
यथा स्यात् | स्वारितकरणतामर्यान्न भविष्यति | न्यङ्स्वरौ स्वरिताविति || इह
त । अन्तर् । उत्तमशाब्दलिपरमृतिषु वतैते न चान्न तिप्रभृतयः सन्ति || इह
त सनुतर् उपोत्तमं रितीर्येष स्वरो यथा स्यात् । अन्तोदात्तनिपातनं करिष्यते
15 स निपातनस्वरो रित्स्वरस्य वाधको भविष्यति || एतचत्र युक्तं यदित्कायाभा-
वादित्संज्ञा न स्यात्| यत्रेर्कायै भवति भवति तत्रेत्संज्ञा | तद्यथा । आगस्त्यकी
ण्डिन्ययोर गसिकुण्डिनच् [२.४.७०] इतिऽ ॥
न विभक्त तुस्माः ॥ १. ।३.। 8 ॥
विभक्तौ -तवर्गपरतिषेधो ऽतद्धितेः ॥ ९ ॥
20 विभक्तौ तवगेप्रतिषेषो ऽतदधित इति वक्तव्यम् | इह मा मृत् । किमोन्
[९.३.९२] । क परेप्सन्दीष्यसे | कापेमासा इति || स तरद प्रतिषेधो वक्तष्यः | म
वक्तव्यः | भावचार्यप्रवृत्तिञोपंयति न विभक्तौ तद्धिते भरतिषेधो भवतीति यदय-
भिदमस्थमुः [९.२.२४] इति मकारस्वेस्संजापरिक्रणाथमु कार मनुबन्धं करोति ॥|
यथेतञ्जञाप्यत इदानीमिस्यक्रापि प्रामोति4 । इत्कार्याभावादत्रेस्संज्ञा न भविष्यति ||
ॐ २,२.९; ४.९. ८३; ९२. † ६.९. ९८५१, | ‡ ६.९. ९९७. .§ -६.९, ९६३. बृ ९.२.६८
फ १.३.४-०. | - , ॥ न्याकर्णयहाभाष्यष् ॥ २६३
इदमस्तीत्का्थै भिस्वोऽन्स्थात्परः [९.९.४७ | इत्यचामन्त्यास्परो यथा. स्यात् |
हरमावे कृते *. नालि विशेषो भिद चोऽन्त्यात्परं हति वा. परत्वे प्रत्ययः पर. इति
वा | स एव तांवदिरभावो न प्रामोति | किं कारणम्| प्राण्दिदाः प्रत्ययेष्विस्युच्यतेः |
कः पुनरतीदभावं प्राग्दिशः परस्ययेषु वक्तुम् 1 किं ताह । प्राग्दिदोऽथैष्विर्भावः
किंसवैनामबहृभ्यो ऽद्यादिभ्यः प्रत्ययोस्पत्तिः‡ || एवं ताहि तदोऽप्ययं वक्तव्यः§ | 5
तदश्च भिदचोऽन्त्यात्परत्वेन न सिध्यति | ननु चात्राप्यत्वे कृते 4 नास्ति. विशेषो
मिदचो ञन्त्यात्पर इति बा परत्वे प्रत्ययः पर इति वा । तद्थत्वं न प्रामोति | किं
कारणम् । विभक्ताविल्युच्यते || एवं तर्हि यकारान्तो दानीं करिष्यते | किं यकारो
न श्रूयते | लुप्रनिर्दि्टो वकारः ॥
चुटू ॥ १. ।२. । `9 ॥ 10
युन्ुप्णपोश्चकारमतिभेधः ।। ९ ॥
चुन्चुधूणपोधकारस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः** | केशचुन्तुः केशचणः ||
इदथीभावास्सिडम् | ।। |
इत्कायौभावादत्रेत्संज्ञा न भविष्यति || इदमस्तीत्कायै चितो ऽन्त उदानो
भवतीत्यन्तोदात्तत्वं यथा स्यात्1†1 | पित्करणमिदानीं किमथ स्यात् । 15
| पित्करणं किमर्थमिति चेत्प्यायार्थम् ॥ ३॥
पित्करणं किमथेमिति वेत्पंयायार्थमेतस्स्यात्!‡ ॥ एवं तर्हि यकारादी चु्बु-
पणौ । किं यकारो न श्रूयते | लुपरनिररि्टो यकारः ॥
इर उपसंख्यानम् ॥ ४ ॥
इर उपसंख्यानं कतैव्वम् | राधिर् । भरुधत् भरौत्सीत्$$ ॥ भवयवद्नहणा- 20
स्षि्धम् | -रेफस्यात्र हलन्त्यम् [१-३.३] इतीत्संश्ञा भविष्यतीकारस्योपरेशेऽज-
नुनासिकः | २९. इति ।
अवयवग्रहणादिति. चेदिदिदिपिप्रसङ्गः ॥ ९ ॥
` ` ` अवथवंमहणादिति ` वेदिदिदिषिरपि प्रामोति । मेत र्ता | हदितो नम्धातोः
__ =*५. १.३. 1†२.९.२. {९.३.२, ` ` § ९ ` ` ¶ ०.२.९०१
~ ५ ५.२.३९... 41 ९९.६९२ , {२९.४.५4 २,९.५० ;
२१६४ ॥ व्याक रग ग्रराभाष्यन्र ॥ [म० ९.३५१.
[७.१.९८] इति नुम्परामोति ॥ यदि पुनरयमिदिदिधिः कुम्भी धान्यन्यायेन विज्ञा -
येत | तद्यथा | कुम्भीधान्यः श्रोज्रिय हस्युच्यते | यस्य कुम्*यामेव धान्वं स कुम्भी-
धान्यः | यस्य पुनः कुम्भ्यां चान्यत्र च नासौ कुम्भीधान्यः | नायमिदिहियिः
कु स्भीधान्यन्यायेन शक्यो विज्ञातुम् । हह हि दोषः स्यात् | टुनदि । नन्दथु-
5 रिति || एवं तर्हि तवं विज्ञायत इकार इदस्य सेऽयमिदित् तस्येदित इति | कथं
तर्हि । इकार एवेत् हदित् हदिदन्तस्येति || अथवा ऋटकारस्थैवेदमित्वेभूतस्य मह-
णम्* ] तन्नो पदेरोऽजनुनासिक इतीस्संज्ञा भविष्यति ॥ अथवाचार्यप्रवृत्तिज्ञी पयति
तरैवंजातीयकानामिदिरिषिभवतीति यदयमिरितः कां चिन्रुमनुषक्तान्पठति | उवृन्दिर्
निरामने । स्कन्दिर् गविश्ोषणयोः || अथवा चा्ैभरवृत्ति्ौपयती शौष्दस्येस्संज्ञा
10 भवतीति यदवामिरितो वा [३.१.९७] इत्याह | भथवान्त इति वैते |
तस्य टोपः॥ १।३।९॥
तस्यय्हणं किमर्थम् । इत्संज्ञकः प्रतिरनििरयते | त्रैतदस्ति प्रयोजनम् | परकृत-
मिदिति वतेते | क्र प्रकृतम् | उपदेशे ऽजनुनासिक इत् |१.३.२] इति ¡ तदे प्रथ-
मानिर्िष्टं षष्ठीनिर्दिष्टेन वेहार्थः | अथोद्विमक्तिविपरिणामो भविष्यति | तद्यथा |
15 उच्चानि देवदत्तस्य गृहाणि । भामन्त्रयस्तरैनम् । देवदन्तमिति गम्यते । देवद लस्य
मावो ऽा हिरण्यं च | भद्यो वैधवेयः | देवदत इति गम्यते । पुरस्तात्ष्टीनि-
रिष्टं सदथादहितीयानिर्रिष्टं प्रथमानिर्दिष्टं च भवति । एवमिहापि पुरस्तासथमानि-
ष्टं सदथात्यष्ठीनिर्दटं भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम् । ये ऽनेकाल इत्संत्ञा-
स्तेषां ठोपः स्वीदेश्यो यथा स्यात् | भथ क्रियमाणे अपि च तस्यसहणे कथमिव लोपः
90 सर्वादेशो लभ्यः | भ्य ` इत्याह | कुतः | वचनप्रामाण्यात् | तस्यमहणसामथ्यात् |
इतो छपे गल्च्कानिष्ठाषूपसंख्यानमिस्मतिषेधात् ॥ ९॥ |
इतो रोपे गल््कानिष्ठासुपसं ख्यानं कतैव्यम् | णल् । अहं पपच | चका |
देवित्वा सेवित्वा | निष्ठा ¡ शयितः शायितवान् | किं पुनः कारणं न सिध्यति ।
इसतिषेधात् । प्रतिषिध्यते जतरेस्संत्ता | णलुत्तमो णिहया भवति | क्का सेण्न
2 किद्भवति | निष्ठा सेण्न किडवत्ीति; 1
# ७,१६.९००; ९,९.५६. ˆ ` † ०,९.९७, ` . ०,९.९९; १.२.६८; १९.
पा ९.३.९.] ॥ व्याकरनमहाभाष्यम ॥ २६५,
सिद्धं तु णलादीनां ग्रहणमरतिषेधात् ॥ २॥
सिद्धमेवत् | कथम् | गकारैनां चहणानि प्रतिषिध्यन्ते | गु मो वा णिद्रह- .
णेन गृह्यते | त्का सेण्न किद्भहणेन गृह्यते । निष्ठा सेण्न किद्रहणेन गृद्यत इति
निर्दिष्टलोपाद्वा || ३
निरदिशटलो पाहा सिद्धमेतत् | अयवा निर्शि्टस्यायं लोपः क्रियते तस्मास्मि द्मेतत् || $
तेत्र तुस्मानां प्रतिषेधः ॥ ४॥
तत्र तुस्मानां प्रतिप्रेषो वक्तव्यः | तस्मात् तसिमिन् | यस्मात् यस्मिन् । वृक्षा
बरल्षाः | अचिनवम् अद्नत्रम् अकरवम् ||
न वोचारणसामयथ्योत् ॥ ^ ॥
नवा वक्तञयः | किं कारणम् | उच्यारणस्ामथ्योदत्र रोपो न भविष्यति || 10
अनुजन्धलोपे भावाभावयोर्विप्रतिषरेषादप्रसिद्िः ॥ ६ ॥
अनुन्धलोपे भावाभाषयो्धिसेधादप्रसिदिः | न ज्ञायते केनाभिप्रायेण प्रस-
जति केन निवृति करोतीति ॥
सिद्ध त्वपवादन्यायेन ॥ ७ ॥
सिद्धमेतत् | कथम् | भपवादन्यायेन || किं पुनरिह तथा यथोस्सगौपव्रादौ 115
भावो हि कायौर्यो नन्यार्थो लोपः । ८ ॥
कायै करिष्यामी्यनुन्ध भास्यते कायौदन्यन्मा मृदिति लोपः |
अथ यस्यानुबन्ध आसज्यते किं स तस्थैकान्तो मवत्याहोलिदनेकन्तः |
एकान्तस्तत्रोपलन्धेः ॥ ९॥।
एकान्त इत्याह | कुतः | तज्रोपलञ्धेः | तत्र्थो द्यसावुपठलभ्यते | तथथा | 20
वृक्षस्था शाखा वृक्षिकान्त उपकभ्यते |
तत्रासरूपसवदिशदाप्पतिषेभे पृथक्छनिदैरोऽनाकरान्तत्वात् ॥ ९०॥
तज्ाखरूपविषौ रोषो. भवति | कर्मण्यण् [३.२.९| आतो श्नुपसभ कः [३] हति
34 #
8६ ॥ व्याकरणयमहाभाप्यम ॥ [म० १.३.९;
काविषये ऽणपि प्रा्ोवि* || सववादेश्चे च दोषो भवति | दिव ओस्सवौदेश्ः प्रामोति। |
राप्पतिषेधे पृथच्छनिर्देशः कर्वेष्यः ¡ अदाभ्डैपायिति वक्तव्यम्‡ | किं पुनः कारणं
न सिध्यति | अनाकाराम्तत्वात् | ननु चान्ये कृते भविष्थतिं | तद्याच्छं न प्रामोवि 1
किं कारणम् | अनेजन्तत्वात्$ ॥ अस्तु तदयेनेकान्तः |
$ अनेकान्ते वृत्तिविदोषः ॥ ९९॥
यद्यनेकान्तो वृत्तिषि दोषो न सिध्यति । किति णितीति कायोणि न िभ्यन्ति |
किं हि स तस्येद्धवति येनेत्कृतं स्यात् ।| एवं तह्यैनन्तरः |.
अनन्तर इति चेत्पूवपरयोरित्कृतभसङ्गः ॥ ९२ ॥
अतन्तर इति चेत्पवैपरयोरित्कृतं प्राभोति । वुज्छण्१ ॥
10 सिद्धं तु व्यवसितपाठात् ॥ ९३॥
सिद्धमेतत् | कथम् । व्यवसितपाठः कतैष्यः | वञ् छण् | स चावदवं
व्यवक्षितपाठः कतेन्यः |
इतरथा ्येकान्तेऽपि संदेहः ॥ ९४॥
अक्रियमाणे व्यवसितपाठ एकान्तेऽपि संदेहः स्यात् | तत्र न ज्ञायते किमव
15 पूर्वैस्य भवस्थाहोस्वित्पर स्येति ॥ संदेहमातरमेतद्भवति स्ैसदेहेषु चेद मुपतिष्ठत
व्याख्यानतो विहोषभरतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणामिति पूर्वस्येति व्याख्यास्यामः ॥
| | वृचादा ।। ९९ ॥
वृत्ताया पुनः सिद्धमेतत् । बुद्धिमन्तमाद्युदात्तं॑दृष्टरा जिदिति व्यवसेयम् | अ-
न्तोदात्तं दृष्टा किदिति** ॥ युक्तं पुनर्यहतनिमि्षको नामानुबन्धः स्याचचानुबन्ध-
20 निमिलतकेन नाम वृत्तेन भवितव्यम् | वृत्तनिमित्तक एषानुबन्धः । वृत्तज्ञो ह्याचा
नुबन्धानासजति ॥
उभयमिदमनुबन्धेषुक्तमेकान्ता अनेकान्ता इति | किमत्र न्याय्यम् | एकान्ता
इत्येव न्याय्यम् । कुत एतत् । अज्र हि हेतुग्यपदिष्टो यञ्च नाम सहेतुकं तङ्याय्यम्।
ननु चोक्तं तजासरूपसकीदेरादाप्प्रतिषेषे पथक्छनिर्देशोऽनाकारान्तत्वादिति -| अस
9 द. ९.९४. ¶ ९,१.८४; ९.९०५५. [९.९.२० § ६.९, ४५. भु ४.२, ८०.
भ# ७, २. १९७; ९१८; ६. ६०१९०; २६५.
पार -९.२.९.०. ] 11. व्याकररणम्रहाभाष्यय ॥ ११७
कूपविधौ तावत्न दोषः | आचायप्रतरृसिज्ौपयति नानुबन्धकृतमस्मरूप्यं भवतीति यदयं
र्दातिदधास्येपविभाषा [३.१.१३९] हति विभाषा शं शासि | यदप्युक्तं सर्वादेशा
इति | अत्राप्याचायैप्रवृततिर्खापयति नानुबन्धकृतमनेकाल्त्वं भवतीति यदयं शिस्समैस्य
[१.९.९९] इत्याह | यदप्युक्तं दाप्मतिषेषे पथत्छनिर्ईशः क्ैव्य इति | न
कतैष्यः | जाचार्यप्रवृसिज्गौ पयति नानुषन्धङृतमनेजन्तस्व॑ भवतीति यदयमुदीचां 5
माडो व्यतीहारे [३.४.१९] इति मेङः सानुबन्धकस्याच्वभूतस्य ग्रहणं करोति ॥।
यथासंख्यमलुदेशः समानाम् ॥ १. + २ । १.० ॥
किमिहोदाहरणम् | इको यणचि | ६.१. ७७] 1 दध्यत्र मध्वत्र | तैतदासि | स्था-
नेऽन्तरतमेन्प्प्येतर्मिद्धम्* । कुतं भान्तयेम् । वालुस्थानस्य तादुस्थान भस्थान-
स्यो्ठस्थानो भविष्यतीति || इदं तरिं । तस्थस्थमिपां साम्तम्तामः [३.४.१०९] 10
इति । ननु चेतङ्पि स्थानेऽन्तरतभेनेव सिद्धम् । कुत आन्तयेम् ॥ एकाथेस्थैका्थौ
व्यस्य व्यर्थो बहर्थस्य बहर्यो भविष्यतीति || इदं तर्हि । तूदीशलातुर बरमैतीकू चवा-
राङ्क्षृण्डञ्यकः [४.३.९४] इति. ||
मये पुनरिदमुच्यतेः।
संज्ञासभासनिर्देशात्सवंप्रसङ्गो ऽनुदेरास्य तत्रै यथासंख्यव खनं 1
नियमार्थम् ॥ ९ ॥ | `
संज्ञया समासैथ निर्देश्याः क्रियन्ते | संश्ञया तावत् । परस्मैपदानां गलतुसुस्थ-
लथु सणल्वमाः [३.४.८२] इति | समासैः । तुदीहालातुश्वर्म॑तीक् चवाराड करण्ड -
ञ्यकः [४.३.९४] इति | सं्ञासमासनिरदे श्चादेतस्मात्कारणात्सर्वप्रसङ्गः | सर्व-
स्येहिं दास्य सर्वो नुदेशः प्रापनोति । इष्यते च समसंख्यं यथा स्यादिति तञ्चान्तरेण 20
यल न सिध्यतीति तत्र यथासंख्यवचनं नियमार्थम् । एवमथंमिदमुच्यते || किं
पुनः कारणं संज्ञया च समसैश निर्देशाः क्रियन्ते |
संज्ञासमासनिर्देराः प्रथग्विभक्तिसस्यनुचारणा्थः ॥ २ ॥
संशया च समावैथ निर्दे्लाः क्रियन्ते पृथग्विमक्तीः संशिनथ मोद्धीचरभिति ॥
[षरि णण षिभिः म
९६८ ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यभ.॥ [ म० ९.२.४.
प्रकरणे च सवेसंप्रत्ययाथः ।। ६ ॥
प्रकरणे च सर्वेषा संप्रत्ययो यथा स्यात् । विदो लटो वा [३.४.८३] इति
कं पुनः शाष्दतः साम्ये संख्यातानुदेशे भवत्याहोस्विदथेतः | कथा विरोषः।
संख्यासाम्यं राब्दंतश्चेण्णलादयः परस्मैपदानां डारोरसः पथमस्या-
5: ` ` यवायाव एच इव्यनिददाः ॥ ४ ।| `
भगमको निर्देडो अनिर्देशः | परस्मैपदानां णठतुसुस्थलथुक्षणल्वमाः [३.४.८२]
इति णलादयो बहवः परस्मेपदानाभिस्येकः दाब्दः. | वैषम्यात्संख्यातानुदेरो न
भरामोति | डारौरसः प्रथमस्य | डारौरस बहवः प्रथमस्येव्येकः दाब्दः | वैषम्या-
स्संख्यातानुदेशो न प्राभोति || एचो ऽयवायावः [६.५.७८] | भयवायावो बहव
10 एच इत्येकः शाब्दः | वैषम्यात्संख्यातानुदेरो न प्रमेति ॥ अस्तु तदर्थतः ।
अर्थतश्वेल्कखटोनेन्दययरीहणसिन्धुतक्षरिखादिषु दोषः ॥ ५ ॥
` अर्थतधल्ललुटोनैन्थरीहणसिन्धुतक्षिकादिषु दोषो भवति || स्यतासी ठललगे
[३.९.३३] । स्यतासी हौ लृुटोरित्यस्य ` चयोऽथोः । वैषम्यात्संख्यातानुदेशो न
प्रापरोति || नन्दिम्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः [३.१.९३४] | नन्दादयो बहवो
15 ल्युणिन्यचल्रयः । वैषम्यास्संख्यातानुदेशो न ॒प्रामोति ॥ भरीहणादयों बहवो
वुञादयः सप्रददा† | वैषम्यास्संख्यातानुदेशो न भ्रामोति ॥ सिन्धुतक्षशिलादिभ्यो
ऽणजौ [४.३.९३] । तिन्धुतक्षिलादयो बहवो ऽणजो दौ । वैषम्यात्संख्याता-
सुदेशो न प्रामोति ॥
आत्मनेपदविधिनिष्ठासावेधातुकद्धिग्रहणेषु ॥ £ ॥
20 अआरमनेपदविधिनिष्टासावेषातुकिमरहणेषु च दोषो भवति || आतमनेपदविधिथ न
सिध्यति | अनुदातच्तडित आस्मनेपदम् [१.३.१२] । अनुदात्तौ हावास्मनेपदमि-
व्यस्य हव ‡ | त्र संख्यातानुदेशः प्रामोतिं || निषा | रदाभ्यां निश्नतो नः पूर्वस्य
च दः [८.२.४२] इति | रेफदकारौ शै निषठेत्यस्य दहाव्थौ $ | तत्र संख्यातानुदेशः
प्ामोति ॥ सा्वैधातुकद्विमहणेषु च दोषो भवति । भरसोरहोपः [६.४.९१९]
०5; अमस्ती डौ सार्वधातुकमिस्यस्य हावर्थो¶ | तत्र संख्यातानुदेशः प्रापोति ॥
=-= = 9 0 9 णो
# २.४. ८९. ¶ ४.२. ८०. ‡ ९.४, ९००. $ ९.९, २.६. 4 ३,४. ६६९.
पा० ९.२.९०. ] ॥व्याकरणमहापाष्यम्।। . २६९.
` एङः पूर्वेतवे प्रतिषेधः | ७ ॥
एङः पूैस्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | एङः पदान्तादति ङसि ङसो [६.१. ९०९;
९९०] | उाक्तेङसौ हवेडित्यस्य हावर्थौ | तज्र संख्यातानुदेशः भ्रामोति ॥ भस्तु तशि
दाब्दतः | ननु चोक्तं संख्यासाम्यं शब्दतथेण्णलादयः परस्मैपदानां डारौरसः प्रथ-
मस्यायेवायाव एच ` इत्यानिर्देदा इति | नष दोषः | स्थानेऽन्तरतमः [१.९.९०] इत्य- 5
नेन व्यवस्था भविष्यति | कुत आन्तर्यम् | एकाथैस्थेकार्थो च्यथेस्य व्यर्थो वहर्थस्य
बहथेः | संवृतावणैस्य संवृतावर्णो विवृताषणेस्य विवुतावणेः |.
अतिप्रसङ्गो . गुणवृद्िप्रतिषेधे किति ॥ ८ ॥
अतिप्रसद्खो भवति गुणवृद्धिम्रतिषेषे क्विति" | गुणवृद्धी डे कितौ द्रौ | तत्र
संख्यातानुदेशः प्रामोति || तरैष दोषः| गकारोऽप्यत्र निरदिरयते | तद्रकार ग्रहणं 10
कतेव्यम् | न कतेव्यम् | क्रियते न्यास एष | ककारे गकारशत्वेभूतो। निरि
इयते | गिति [कति रितीति ॥ .
उदि कुले राजिवहोःः ॥ ९ ॥
उदिकृले हे राजेव दौ । तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति ॥ नेष दोषः | नोदिरूप-
पदम् । किं तरि । विदोषणं रुजिवहोः | उत्पुवौभ्यां साजेवहिभ्यां कूर उपपद हति | 15
तच्छीलादिषु धातुतरिग्रहणेषु ॥ ९० ॥
तच्छीलादिषु धातुत्रिभहणेषु दोषो भवति | बिदिभिदिष्ठ्दिः कुरच्|३.२.९९ २
विदिभिदिच्छिदयलयस्तच्छीलादयज्ञयः$ | तत्र संख्यातानुदेदाः प्रामोति ॥ ` `
घञादिषु द्विग्रहणेषु ॥ ९९ ॥
घादिषु दि्हणेषु दोषो भवति । निरभ्योः `पल्वोः [३.३.२८] | निरभी ही %
पूल्वी हौ । तत्र संख्यातानुदेशः भरामोति ॥ नैष दोषः । इष्यते चात्र संख्याता-
नदेाः । निष्पावः भभिलाव हति | एवं तद्यैकतैरि च कारके मावे चेति¶ है `
पुल्वौ च दौ । तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति ||
. अवे दृखलोः करणाधिकरणयोः.॥ ९२॥ ` .
तृखौ हौ करणाधिकरणे दै** | तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति || ˆ . . ४
भः ९.६५ ९९, ¶ ८०४, ९५, “ ४ . ०२. १९६. $ १.२. ९२४. ¶ ३.१ ९९५ ९, ८
॥ ** ३.२. ६२०; ९६०, |
१७० ॥ व्याकरनग्हाभाष्यय ५. , [म०१्.४
कतैकमेणोश् भृरूओः* ॥।: ९३
कतैकभणी हे मूक जी हौ । तत्र संखूयातानुदेशः प्रामोति ॥
अनवकुप््यमषेयोरकिवृत्तेऽपि। ॥ ९४ ॥
अनवकुम्यमर्शौ दौ किंवृं्तार्िवृत्ते हे | तत्र संख्यातानुदेाः प्राभोति ॥
° कृभ्वोः चकाणमुलौ ।। १९ ॥
कृभ्वौ डौ चाणमुलौ डौः । तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति ||
अधीयानविदुषोदछृम्दोव्राह्मणानि ॥ ९६ ॥
छन्दोब्राह्मणानीति हे भषीते वेदेति च हौ$ | तत्र संख्यातानुदेदाः प्राभोति ॥
रोपधेतोः पथिदूतयोः ॥ ९५७ ॥
10 रोपधेतोः प्राचाम् [४.२.९२३] तदच्छति पथिदुतयोः [४.३.८९ | । रोपष-
तौ हौ पथिदूतौ दौ | तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति |
तत्र भवस्तस्य म्याख्यानः क्रतुयज्ञेभ्यश्च ॥ ९८ ॥
तत्रमवंस्तस्य व्याख्यानौ डौ क्रतुयज्ौ दौ ¶ | तत्र संख्यातानुदेशः प्राोति ॥
संघादिष्वञ्पभृतयः ॥ १९ ॥
15 संबारिष्वञ्परमृतयः** संख्यातानुदेदोेन न सिध्यन्ति || तैष दोषः । षोषमहण-
मपि तत्र कतेष्यम् ||
वेंशोयशमदेभगाद्यल्खी ॥ ५० ॥
ेशोयदशाभादी शै यल्खौ हौ | तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति |
हसिढसोः ख्यत्यात्परस्य ॥ ५९ ॥ ..
20. . डसिङसै कै ख्यत्यौ है; । तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति ॥
न वा सभानयोगवथनात् ।॥ ०० ॥
नं चैष दोषः | किं करणम् । समानयोगवचनात् । समानयोगे संख्यातानुदेधं
वश्यामि ॥
1 + इ.१.९२७. 1 १,१,९४९. 1 ९.४, ६९; ५९. § ०,२.९६) ५९.
थु ५.२.५६; ६९६८. ++ ४.१.६२०. , †† ४.४, ९९९; ९३२. {{ ६.९. ९९०; ९९६.
प° ९.२.१९. ॥ व्याकरनमहाभाच्यम्-॥ २9१
तस्य दोषो विदो-लटो वा ॥ ५६३॥
तस्यैतस्य लक्षणस्य दोषो विदो र्ट वा [३.४.८२] इति संख्यातानुदेशो न
भ्रामोति ॥ __
ध्नाधेटोः नाडीमुषटयोच ॥ ५४॥
ध्मापेटोनाडीमुष्टचचोथ' संख्यातानुदेशो न प्रामोति || ४
खलगोरथात् इनित्रकट्यचश्च! ॥ २९५ ॥
संख्यातानदेशो न परामेति ॥
सिन्ध्वपकराभ्यां कन् अण चः ॥ २६॥
संख्यातानुदेशो न प्रामोति ॥
युष्मदस्मदोश्वदेकाः ॥ ७ ॥ 10
युष्मदस्मदोधादेशाः $ संख्यातानुदेशेन न सिध्यन्ति |
तस्माग्यास्मिन्पन्ति ऽल्वीयांसो रोषास्तमास्थाय प्रतिविषेयं दोषेषु | अथवैषं
वष्ट्यामि | यथासंख्यमनुदेशः समानां स्वरितेन । ततो अधिकारः । अधिकारथ
भवति स्वरितिनेति । एवमपि स्वरितं दृष्टा संदेहः स्यात् | न श्ञायते किमयं
समसंख्या्थ आहोस्विदधिकारा्थं इति । संदेहमात्रमेतद्भवति सवसंदेहेषु चेदमुपति- 15
छते व्याख्यानतो तरिशेषप्रतिपत्तिन हि संदेहादलक्षणमिति समसंख्यथे इति ग्या-
ख्यास्यामः ॥ | |
स्वरितेनाधिकारः ॥ १।२।११ ॥
किमयेमिदमुच्यते ।
अधिकारः प्रतियोगं तस्यानिदेार्थः ॥ ९ ॥ 20
अधिकारः क्रियते प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ हति । किमदं प्रतियोगमिति | योगं
येगं प्रति प्रतियोगम् । योगे योगे तस्य यहणं मा काषमिति || किं गतमेतदियता
द्त्रेण | गतमित्याह | क्रुतः । लोकतः । तद्यथा | लोके ऽधिक्ृतोऽसौ मामेऽधिक्-
तोऽसौ नगर इस्यु च्यते यो यत्र व्यापारं गच्छति | शाब्देन चाप्याभिकृतेन कोऽन्यो
व्यापारः शक्योऽवगन्तुमन्यदतो योगे योग उपस्थानात् ॥ %
2.७२ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्॥ [म० ९.२.९१;
, नवा निरिरयमानापिशृतत्वाद्यथा लोके ॥ ९॥
न वैतसयोजनमस्ति | किं कारणम् | निर्दिरयमानाधिकृतत्वाश्था सोके |
निरि रयमानमधिक्ृतं गम्यते | तद्यथा | देवदत्ताय गौर्दीयतां यज्ञदत्ताय विष्णुमि-
जायेति | गौरिति गम्यते ।. एवमिहापि पदरुजविशस्पृशो धञ् [३.३.९६] ब
5 स्थिरे |९७| भावे |९८ | घाञिति गम्यते |
अन्यनिर्देशस्तु निवतैकस्तस्मात्यरिभाषा ॥ ३ ॥
अन्यनिर्देश्तु रोके निवर्तको भवति । तद्यथा | देवदत्त।य गौर्दीयतां यक्ञ-
दसाय कम्बलो विष्णुमित्राय चेति | कम्बलो गोर्भिवतेको भवति | एवमिहा-
प्यमिविषौ भाव इनुण् [३.३.४४ | घञो निवतेकः स्यात् । तस्माससरिभाषा ।
10 तस्मात्पारेभाषा कतेष्या ||
| अधिकारपरिमाणाज्ञानं तु ॥ ४ ॥
अधिकारपरिमाणाज्ञानं तु भवति | न ज्ञायते क्रियन्तमवाधिमधिकारोऽनुषतैत
इति ||
| अधिकारपरिमाणज्ञानाये तु
15 . अधिक्रारपरिमाणज्ञानाथमेव तद्यैयं योगो वक्तव्यः | अपिकारपरिमाणं ज्ञा
स्यामीति | कथं पुनः स्वरितेनाधिकार इत्यनेनाधिकारपरिमाणं हाक्यं विज्तुम् |
एवं वक्ष्यामि | स्वरिते नाधिकार इति | स्वरितं दृष्राधिकारो न भवतीति| केने-
दानी मधिकारो भविष्यति | लोकिकेऽधिकारः ।
नाधिकार हति वेदुक्तम् ॥ ९॥
20 किमुक्तम् | अन्यनिर्दशस्तु निवतैकस्तस्मात्परिभाषेति || अधिकारार्थमेव तर्य
योगो वक्तव्यः | `ननु चोक्तमधिकारपरिमाणान्ञानं त्विति |
यावतिथो ऽलनुबन्धस्तावतो योगानिति वचनास्सिद्धम् ॥ ६ ॥ `
यावतिथो ऽलनुबध्यते तावतो योगानधिकारोऽनुवरषैत इति वक्तष्यम् || भये-
दानीं यज्नाल्पीयांसोऽलो भूयस योगाना्धंकारोऽनुषतेते कथं तत्र कतैव्यम् |
2 ` भूयसि प्राग्वचनम् ।। ७ ॥
भूयसि प्राग्वचनं कतेन्यम् । प्रागमुतं इति वक्तभ्यम् ॥ तर्त वक्तव्यम् | न
वक्तव्यम् । संदेहमात्रमेतदवति सवसंदेहेषु नेदमुपति्ते व्याख्यानतो विदोषप्रति.
पा० १.३.९९. ॥ व्याकरण प्ाभानब ॥ नि भ
पत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति प्रागमुत इति. व्याख्यास्यामः | यथेवं नार्थोऽनेन ।
केनेदानीमधिकारो भविष्यति । रोकिको अधिकारः | ननु चोक्त नाधिकार हति
चेवुक्तम् किमुक्तम् भन्यनिर्देशस्तु निवतेकस्तस्मात्परिभाष। |. संदेहमाज्रमेतद्वति
सवसंदेहेषु नेदमुपतिष्ठते व्याख्यानतो विदोषप्रतिपरत्तिने हि संदेहादलक्षणमिवी-
` नुण्वभिति संदेहे षमिति व्याख्यास्यामः || । 5
न तर्हीदानीमयं योगो वक्तव्यः । वक्तव्यश्च | किं प्रयोजनम् । स्वरितेनाभि-
कारगतिर्येथा विज्ञायेत | अधिकं कायेम् । अधिकः कारः ||
अधिकारगतिः । गोजियोरुपसजेनस्य १.२.४८ | इत्यत्र गोटाङ्हणं चोदितं
तच्च कतेव्यं भवति । ओीम्रहणं स्वरयिष्यते. | स्वरितेनाधिकारगतिमेउतीति जियाम्
[४.९.२३ | हत्येवं प्रकृत्य ये प्रत्यया विहिवास्तेषां ब्रहणं विक्षास्यते ! . तश स्वरिते - 10
नाधिकारगतिभेवतीति न दोषो भवति ॥
अधिकं कायम् । अपादानमा चायः कि न्याय्यं मन्यते यत्र प्राप्य निवृत्तिः |
तेनेहैव स्यात् भामादानच्डति नगरादागस्डति । सांकादयकेभ्यः पाटलिपुत्रका
भभिरूपतरा इत्यत्र न स्यात् | स्वरितेनाधिकं काये भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति |
लधापिकरणमाचायैः कि न्याय्यं मन्यते यक कृत्स्न आपारात्मा व्याप्रो भवति | 18
तेनेहैव स्यात् तिलेषु शम् दभि सर्िरिति । गङ्गायां गावः कुषे गर्कुलभित्यत्र'
न स्यात् । स्वरितेनाभिकं कार्य भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति । अधिकं कायम् ॥
धिकः कारः । पृवेविप्रतिपेधा न पठितव्या भवन्ति । ` गुणवृद्ौर्वतृज्वद्गा-
वेभ्यो नम्युवैविप्रतिषिद्धं नुमचिरतृज्वद्गावेभ्यो नुडिति" । न्रौ स्वरयिष्येते ।
तज्र स्वरितेनाधिकः कारो भवतीति नुपधुटौ भविष्यतः || कथं पुनरधिकः कार 2
इस्यनेन पूवेविप्रतिचेधाः शक्या न पठितुम् । लोकतः । तद्यथा । लोकि अपिकमयं
कारं करोतीर्युच्यते योऽयं बुबेलः सन्बलवद्गिः सह भारं वहति । एवमिहाप्व-
धिकमर्यं कार करोतीत्युच्यते योऽयं पु्वैः सन्परं वाधते || ` |
अधिकारगतिः ल्यथा विेषायापिकं कायम् |
` भष यो लयो अधिकः कारः पुवंतव्िप्रतिषेषाथेः सः || . :
हवि श्रीभगवस्पतश्डलिविरजिते ध्वाकरणमहाभाष्ये प्रथमस्वाध्यायस्य तृतीये
वरे प्रथममाह्िकम्॥
ॐ
- से ॥ भ्थाकरक्महाभाष्यन्र् ॥ (र्दद.
हि 1
| अनुदात्तङित आस्मनेषदम् ॥१।३। १२ ॥
विकरणेभ्यः प्रतिषेधो वक्तण्यः । चिनुतः नुतः लुनीतः पुनीतः | डित
शस्यात्मनेपदं प्रामोति+ || तैष दोषः । तैव विज्ञायते ऊकार हृदस्य सोऽयं डित्
डित इति | कथं तर्हि । उकार एषेत् डित् डित इति || भथवोपदेश इति वतैते1॥|
४ भयवोक्तमेतत्सिदधं त् पूर्वस्य कायौतिदेशादिति{ ॥ सर्वथा चङ्ङ्भ्यां प्रापनोति |
एवं तर्हि धातोरिति वतेते | कर प्रकृतम् | भूवादयो धातवः [१.३.१९] इति । कै
प्रथमानिर्दिष्टं पन्चमीनिर्दिरेन वे्हाथेः | अथौदहिभक्तिविपरिणामो भविष्वति |
तथथा । उथ्ानि देवदत्तस्य गृहाणि । आमन्त्रयस्यैनम् । देवदत्तमिति गम्यते |
देवदतस्य गावो अवा हिरण्यं च | आद्यो वैवेयः | देवदग्ल इति गम्यते | पुरः
10 स्तात््ठीनिर्दि्टं सदथतथमार्निर्िष्टं दितीयानिर्ि्टं च भवति । एवमिहापि पुरस्ता-
स्भमाभिरदिषटं सदथोस्पश्चमीनिर्शि्टं भविष्यति ॥|
किमे पुनरिदमुच्यते।
आस्मनेपदवखनं नियमार्थम् ॥ ९ ॥
नियमार्थोऽयमारम्भः | किमुच्यते नियमार्थो ऽयमिति न पुर्विध्यर्थो अपि स्वत्
15 लविधानाद्िहितम् | > ॥
छविषानाद्यास्मनेपदं परस्मैपदं च विहितम् || असिति प्रयोजनमेतत् | किं
तर्हीति | विकरणैस्तु ्यवदहितस्वान्नियमेो न प्राभोति । इदमिह संप्रधार्यम् | विकरणाः
क्रियन्तां नियम् इति किमत्र कतेष्यम् । परत्वाहिकरणाः¶ | नित्याः खल्वपि
विकरणाः 1. कृतेऽपि नियमे प्रामुवन्त्यकृतेऽपि प्रापुवन्ति । नित्यस्वात्परत्वा्च
90 विकरणेषु कृतेषु विकरणेव्यैवहितस्वा्नियमो न प्रामोति || त्रैष रोषः | भनबकाद्चो
नियमः | सावकाशाः ] कोऽवक्राहाः । च एते लुभ्विकरणाः द्ुविकरणा किङ्-
श्ट च | य॒दि पुनरियं परिभाषा विश्ञायेत । किं कृतं भवति | कायैकातं
संक्ञापरिमाषं यत्र कायै तत्र दषटव्यम् । लस्य तिबादयो ` मवन्तीत्युपस्थितमिरं
-- भषंत्यनुदात्तडित आत्मनेपदं शोषास्कवैरि परस्मैपदम् [१.३.७८] इति 1| एवमपी-
तरेषरा्रयं मधति । केतरेतराश्रयता । भभितिवन्तानत ठस्य स्थाने ` तिनादीन्भो-
र्मनेपदपरस्मैपदसंश्ञया भवितर््य'* संश्ञया चं तिवादयो भाष्यन्ते ! तदि्रेलैराभं
# ९.४ † ९.१.२. ‡ ९.२.९*. § १.४.०८. ¶ृ ३.९.३६१. ®* ९.४. ९९; ९०९
. आर १.२.९.२.] ॥ भ्वाकरयकलमाच्यन # + 9)
भवति | इतरेतरसियाणि च ने प्रकल्पन्ते || परस्मैपहेषु ताकचवेतरेतराभ्रयं भ्रति |
परस्मैपदानुक्रमणं न करिष्यते | अवयं कतैव्यमनुपराभ्यां कृगः [१,२.७९]
इत्येवमथेम् | ननु वैतदप्यात्मनेपदानुक्रमण एव करिष्यते | स्वरितञितः करतभिप्राये
क्रियाफले [१.३.७२ | आत्मनेपदं भवति कतैथनुपराभ्यां कमो नेति || आत्मनेपदेषु
चापि नेतरेतराभ्रयं भवति | कथम् ।. भाविनी संज्ञा विज्ञास्यते स्व्रश्ाटकषत् ।
तद्यथा | कथित्क॑चित्तन्तुवायमाह | भस्य इतरस्य दाटकं वयेति | स पदयाति यदि
शाटको न वातव्यो ऽथ वातव्यो न शाटकः शाटको वातव्यभेति विप्रतिषिद्धम् |
भाविनी खल्वस्य संश्ञामिप्रेता स मन्ये वातव्यो यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद् वतीति 1
एवमिहापि. ख ठस्य स्थाने कतेव्यो यस्याभिनिवन्तस्यात्मनेपदमित्येषा संज्ञा भवि-
भ्यति || अथवा पुनरस्तु नियमः | ननु चोक्तं विकरणैव्यैवहितव्वान्नियमो न 10
भ्ामोतीति । त्रैष रोषः | आचार्यभवृततिज्ञौपयति विकरणेभ्यो नियमो बलीयानिति . `
यदयं विकरणविभावात्मनेपद परस्मैपदान्याश्रयति । पुषादिद्ुताद्युदितः परस्मै-
पदेषु [३.९.९९] आठमनेपदेष्वन्यतरस्याम् [५४] इति । नैतदस्ति ापकम् ।
भभिनिवत्तानि हि रस्य स्थान आत्मनेपदानि प्रस्मैपदानि च । यत्त्यनुपसगोदा
[१.३.४२] इति विभाषां शास्ति | | +
किं पुनरयं प्रस्ययनियमः | भनुदा्षङित एवात्मनेपदं भवति भावकर्मणो
रेवात्मनेपदं भवतीति | आहोस्विदयङ्ृत्यथनियमः | भन् दराचडित आत्मनेपदमेव
भाककमेणोरात्मनेपदमेवेति | कथात्र विदोषः }
तत्र प्रत्ययनियमे रोषवचनं परस्मैपदस्यानिवृन्तस्वात् || ३ ॥
तच्च प्रत्ययनियमे शोषग्रहणं कर्तव्यं पर स्तरप्दनियमार्थम् ¡ शोषात्कतैरि परस्मै- 20
पदम् [१.२.७८] इति । किं कारणम् । परस्मैपदस्यानिव तत्वात् | प्रत्यया
नियताः परकृत्यथावनियतीं तत्र परस्मैपदमपि प्रामोति | तत्र शोषणं कर्ैव्यं
परस्मरैपदनियमा्थम् । शेषादेव परस्मैपदं भवति सन्यत इति ॥| |
क्यष आत्मनेषदबवनं तस्यान्यत्र नियमात् ।॥ ४॥
कयष आत्मनेपदं बक्तव्यम्- | लोहितायति लोहितयते |. कि. वनः कारण न £,
खिध्वति | तस्वान्य्च नियमात् .} कद्यन्यत्र भियस्यते ।{-ऊच्यते चन च प्रामोति
अद्धचन्यहसत्रिष्यति | स्तु तर्हि प्रकृस्मथेनियमः
क~~ -- ~
न्न ५
, *#१,,.३,.९द् ४ "वर. २.९० ,- . £ ^“
3 ॥३ \॥ श्प्रकरनयहाभाष्यय् ॥ [म २१.३२
' .“ “: - . -"प्कृष्यर्थनियमे ञन्याभावः ॥ ५ ॥
पकृ त्ययेनिवमे उन्मेषं प्रत्ययानामभावः 1 भनृदा्ङिलस्तृजादयो न प्रामुवन्ति |
नैष दोषः 1 भनवंकारशास्तृजादय उच्यन्ते" च ते वचनादविष्वान्ति | सावकाराः
स्तृजादयः ] को ऽबकाराः | परस्मेपदिनो ऽवकाशाः | त्रापि नियमाच्च परामुवन्ति॥
६ तव्यदादयस्ताहि भावकमेणोमियमाचच परामुष्न्ति | तव्वेदादयोऽप्यनबकाहाः | ते
वचनाद्ध्िष्यन्ति† || चिण्ति भावकर्मेणोर्मिवमाच्च परायोति । चिणपि वचनाद्-
विष्यति ॥ षञ्ल्ि भावकर्मेणोभियमाच्च प्रामोतिऽ । त्रापि प्रकृतं कर्मप्रहणमनु-
यतेते | कः प्रकृतम् । अण्कर्मणि च [२.३.९२] इति || तहे तज्रोपपदविदोषण-
मभिधेयचिशोषणेन चेहाथैः | न चान्याथे प्रकृतमन्यायै भवति | न खल्वप्यन्यसङ़-
10 समनुवतेनादन्यद्कवति नं हि गोधा सपैन्ती सपेणाददहिभवति || यन्ताबडुख्यते नान्याये
पकृतमन्याये भवतीस्यन्याथंमपि प्रकृतमन्या्थै भवति । तथंथा । शाल्यर्थे कुल्याः
प्रणीयन्ते ताभ्य पानीयं पीयत रुपश्यश्यते च शालयश्च भाग्यन्ते | यदप्युच्यने न
खल्वप्यन्यतङ्ृतमनुतरतैनादन्यडूत्रतिं न हि गोधा सर्पन्ती सर्पणादहि्ग्रतीति
भवरेदर्येष्वेतदेवं स्वात् | शाब्दस्तु खलु येन येनाभिसंबध्यते बस्य तस्य विशेषको
15 भवति ||
गेषवचनं च ॥ ६ || . |
होषम्रहणं च करतेष्वम् । शेषात्कर्तरि ` परस्मैपदम् ` [१.३.७८] इति । किं
प्रयोजनम् | शेषनियमार्थेम् । प्रक्ृव्यर्थी नियतौ प्रत्यया आनियतास्ते देषेऽपि
प्ाुवन्ति | तत्र रोषयहणं कतेव्यम् | शेषात्कतैरि परस्मैपदमेव नान्यदिति ॥
20 कर्तरि चात्मनेपदविषये परस्मैपदम्रतिषेधार्थम् ।। ७ ॥
कर्ैरि चात्मनेपदविषये - परस्मैपदप्रतिषेधा्थं द्वितीयं रोषग्रहणं कतैव्यम् |
होषाष्डेष हति वक्कष्यम् | इद मा मृत् | -भिथ्ते कु शूलः स्वयमेवेति4 || कतर
स्मिन्पसे ऽय॑ दोषः | प्रकृत्यथानियमे । प्रकृत्यथनियमे तावन्न दोषः | प्रकृत्यौ
नियतौ प्रत्यया अनियतास्तेज्र नाथैः कतैमहणेन कर्वृमहणाज्ैष दोषः | प्रन्यय-
% नियमे तद्येयं दोषः । प्रत्यया नियताः प्रङ्ृत्यथावानियतौ तत्र॒ कर्तृग्रहणं करयं
भावक्मेणोर्गिवु य्यम् | कतेग्रहणाथैष दोषः || प्रकृत्यथेनियमे रे मदणे- सक्यय-
कर्तैम् । कथम् | प्रकृत्य्यी निवकतौ प्रर्बया अनियताः । क्तोः वस्यामि प्ररस्मेपरर
जायका
* ६.९.९३३. 1३.४.७०. ‡३.९. ५६. १३.१.९८. ०२.९- <८*
पा०९.२.९ ४. : भन्थकरनगहमाष्वय्॥ क
भवतीति | ताश्नैवमारे.भविष्यति | बज्र परस्मैपदं चान्वल ध्राओोति. वच परस्मैपदमेव
भवतीति ।| तनां पत्वयनिवमे द्विती जं - दोषंयहणं कतेष्वम् | न कतैव्यम् | वोग-
विभागः करिष्यते" | .अनुदालरिम्त आत्मनेपदम् | ततो भावकमेणोः ] ततः कतैरि ।
कवैरि चास्मनेषदं भवति भावकर्मणोः | ततः कमेष्यतिहरे । कतेरीत्येव | भाव-
कर्मणोरिति निवृलम् || यथैव तर्हि कर्मणि कतरि भत्रस्मेवं मात्रेऽपि करीरि $
प्ामोति । एति. जीबन्तमानन्दः† । -नास्व किलि जतीतिः || हितीयो योगविभागः
करिष्यते$ | अनुदा्डित आत्मनेपदम् | ततो भ॑वरे | ततः कमेणि | कर्मणि
चात्मनेपदं ` भव्ति । वतः कतेरि । कतैरि चारमनेपदं भवति । कर्मणीत्यनुवतेति
भाव इति निवृत्तम् । ततः कमेन्वतिहारे | कतंरीस्येत्र | कमेणीति निवृ लम् ।| एक्र-
मपि दोषपरहणं कतेव्यमनुपराभ्यां कृ जः |१.२.७९] इत्वेत्रमभेम् । इह मा भूत् | 1)
अनुक्रियते स्वयमेव । पराक्रि बते स्वलमेत्र | नन् त्रैतदपि योगतरिभागादेवर सिद्धम्
न सिध्यति । अनन्तरा या प्रापनिः सा बोगिभागेन राक्ता बाधितुम् | कृत एतत् |
अनन्तरस्य व्रिधिवौ भत्रति प्रतिषेधो तवेति | परा प्राप्निरप्रतिकिडधा तया प्रामोति |
मनु चेयं प्राप्तिः परां प्रापिं बाधते | नोत्सहते प्रतिबिडधा सती वाधितुम् ॥ एवं तरि
कतैरि कर्मव्यतिहारे [९.२.९४] इत्यत्र कनुप्रहणं प्रस्यारूतरावते तत्कृ वमु ल्तरत्रा- 15
न॒व्र्मिष्यते | शोषात्कतैरि कमैरीतिग ! किजभंजेदं कतरि क्तेति | कर्त्र य
कतो तत्र यथा स्यात् | कता चान्वच बः कता तत्र मा भृदिति ] ततो जुपरा्भ्यां
कृञः | कतरि कवरीत्येष ।
कतरि कमत्यतिहारे ॥ ९।२३।१४॥
क्रियाग्यतिहार हति वक्तववम् । कमत्वतिहार इट्युन्वमानं इष्ट प्रसज्यत | 20
देवदत्तस्य धान्यं व्यतिलुनन्तीति | इह चन स्वात् | व्यतिलुनते उ्यतिपुनत
इति || वत्ति वक्तव्नम् | न वक्छत्यम् | क्रियां हि रोके कर्मेट्युपचरन्ति |
कां क्रियां करिष्यसि । कि कमे करिष्यसीति || एवमपि कनेत्वम् । कृतिमाकृि-
मयोः कतरिमे संप्रत्ययो भवति. || क्रियापि कृत्रिमं कम | न सिध्यति | कर्तृरी-
स्थिततमं कम [९.४.४९] इल्युच्यते कथं च क्रिया नाम क्रियधेभ्सिततमा स्यात् । ९5
क्रियापि, क्रिययेप्सिततमा भवति | कवा क्रियवा | संपरवतिक्रियया प्राथैयसि- `
* ९.३.९४. † ३.३.१९८ . ` ‡ २.२.५५. ई. ९.६.९६. ष ९.२. ७८,
>, ४ ब्याकरनप्रहनष्डयत् ॥ ` [म० १,३२.१.
क्रिय पराभ्यवस्यतिक्रियया वा | इष य एष मनुष्व पे्सयूवेकारी भक्ति स बुदा
तप्मवत्कंचिद्टये संपद्यति संदृष्टे भाथना प्रार्थिते ऽवक्सायो यवसाय . आरम्भ
आरम्मे निवृत्तिर्निवैचौ फलावाग्निः ।. एवं क्रियापि किनं क्रमे | एत्रमप्युभग्रोः
कृभिमयोरभयगतिः प्रसज्येत | स्माक्कियाव्यतिहार इति ब्तव्यम् || न वक्तव्यम्|
$ इह कतरे व्यतिहार हतीयत्रा सिद्धम् \। शोऽयमेषं चिदे सति यत्कर्मप्रहणं करोति
तस्थैतल्मयोजनं क्रि याव्यतिहारे बथा स्यात्कमेम्यिहारे मा भूदिति ||
भग कैतेम्रहणं किमयम् 1
' ` ` कर्मव्यतिहारारिषु करव॑ग्रहणं भावक्मनिवृच्वर्थम् । *९।। `
कर्मव्यतिहारादिषु कर्त्रहणं क्रियते `भावकमैणोरनेनार्मनेपदं* मा मृदिति ॥
10 इतरथा हि तत्र प्रतिषेधे भावकर्मणोः प्रतिषेधः || ॥
अक्रियमणि कर्तृ्रहणे भांवकर्मणोरप्यनेनात्मनेपदं प्रसज्येत । तत्र को रोषः |
तत्र प्रतिषेधे भावकर्मणोः प्रतिषेधः | तत्र प्रतिषेधे† भावकर्मणोरप्यने्पत्मनेषडस्व
प्रतिषेधः प्रसज्येत । ष्यतिगम्यन्ते रामाः | ध्यतिहन्वन्ते इस्यव इति ॥
न वानन्तरस्य प्रतिषेधात् ॥ ३॥
15 न वैष दोषः | कि कारणम् | भनन्तरस्य अरतिबेधात् ¡ अनन्तरं वदास्मनेष-
बविधानं तस्य परतिभेधात् । कत एतत् | भनन्तरस्य विधिवो भवति प्रतिषेधो वेति |
पुरवा प्रापरिरमतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं प्राप्न; पूर्वा परां वाघते | नोस्स-
इते प्रतिषिद्धा सती बाधितुम् | उत्तरार्थं तार्हे करग्रहणं कतेव्वम् । न करेष्यम् |
क्रियते तत्रैव शेषास्करैरि परस्मैपदम् [९.२.७८] इति । हितीवं कर्रहणं कतं-
20 व्यम् | कि प्रयोजनम् | कर्व यः कतौ तत्र यथा स्वात् | कतो चान्यथयः
कतो तत्न मा भूदिति ||
न मतिरहिसारथेभ्यः॥ १. ।३ ९५ ॥
प्रतिषेधे हसादीनामुपसंख्यानम् ॥ ९ ॥ `
प्रतिषेधे दसादीनामुपसंख्यान कतेव्यम् । व्यतिहसन्ति व्यतिजल्पन्ति स्यति
% प्रान्ति ॥ |
„ ॐ १.३.१३. | , ि ¶ ९.३. ९५६.
षार १,३.९५-२०. | ॥ व्याक्णतहाभाण्यप्र ३
हरिवह्योरपरतिषेधः ॥ ९ ॥
हरिवद्योरम्रतिपेधो भवतीति वक्तष्यम् । संप्रहरन्ते राजानः । संविवहन्ते गगै-
रिति || न बरहिगेव्यर्थः | देशान्वरप्रापणक्रियो वहिः | ``
` इतेरेतरान्योऽन्योपषदाश्च ॥ २. 1 २, । १६. ॥। `
परस्परोपपदाथ ॥ ९॥ $
पर स्परोपपश्चति वक्तव्यम् । परस्परस््र व्यतिलुनन्ति | परस्यरस्व व्वति-
वुनन्ति |
विपराभ्यां जेः॥ ९।२।१९,॥
` उपसर्गमरहणं कर्तव्यम् 1 इह मा भूत् । परा जयति सेनेति ॥ त्ता धक्तव्यम् ।
न वक्तव्यम् | यद्यपि तावदयं परादाब्ो दृष्टापचार ` उपसगेथानुपस्येधायं तु 'खलु 10
विशब्दो उदृष्टापचार उपसगे. एव । तस्कास्य को ऽन्यो द्वितीयः सहायो भवितुमहै-
स्वन्यदव रखपसगौत् । तद्यथा | अस्व गेोर्दितीजेनायं इति गौरेवोषादीयते नाशो
न ॒गदेम इति ॥
आडो दो अनास्यविहरणे ॥ १ ।२।२०॥।
आो दो ऽ्यसनंक्रियस्य ॥ ९ ॥ 15
आड दो ऽव्यसनाक्रियस्येति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । विपादिकां व्या-
दाति । कूरं ष्याददातीति | तन्ति वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् | इहा दो
ऽनास्थ इतीयता सिद्धम् । सोऽयमेवं सिद्धे सति यद्विहरणग्रहणं करोति तस्थैतसय-
योजनमास्यविदृरणत्तमानक्रि कद पि यथा स्यात् | यथाजाततीयका चास्यविहरणक्किया
वथाजातीयकात्रापि || , , . ५
, -- | स्वाङ्गकमेकाच | २ || |
स्याङ्गकमकाथयेति व्कव्यम् । इह मा भूत् । भ्याददते पिपीकिकाः
मुस्वभिति ॥
८० | ॥.ब्याक्ररनमहाभाष्यम् ॥ [ मण ९.१.२.
की डोऽनुसंपरिभ्यश्च ॥ ९. । २. । २९ ||
उपसर्गग्रहणं कर्मैठ्वम् | इह मा भूत् | अनु क्रीडति माणवकमिति ॥
खमो ऽक्रुजने || ९॥
समो ऽकूजन हनि वक्तव्यम् । हह मा भत् । संक्री डन्ति शाकटानि ॥|
, $ आगमेः समायाम् ॥ ५ ॥
मागमेः क्षमायामुपसंख्यानं कर्तव्यम् । जागमयस्व तावन्माणवक ||
शिक्षेजिज्ञासायाम् ॥ २ | |
रिक्षजिङ्ञासायामुपशंख्यानं कर्तव्यम् } जि दिकषते । षनुवि शिक्षते |
किरतेहषेजीविक्राकुखायकरणेषु ।। * ॥
10 किरतेहैषेजीविकाकुलायकरणेषु पसंख्यानं कतेव्यम् । भपस्किरते वृषमो ष्टः
भपस्किरते कुटो मक्षार्था । अपस्किरते चाजवार्ी |
हरतेर्गववाच्छीम्ये ।। ^ ॥
हरतेर्गतताच्शील्य उपसंख्मानं कतेव्यम् । पेतृकमथा अनुहरन्ते । मातृकं गा-
वो जनुहरन्ते | |
15 आङि नुप्रच्छच्ोः ॥ & ॥
भाङिः नप्च्वधो रपसंख्यानं करैवयम् । भानुते सृगालः । भाएच्छते गुरुमिति ॥।
आरिषि नाथः ॥ ७ ॥
आश्ठिषि नाथ उपसंख्यानं कर्वव्यम् । सर्पिषो नाते । मधुनो नायते ||
तराप उपलम्भे ।। ८ ॥
शाप उपलम्भन उपसंख्यानं कतेव्वम् । देवदताय शपते । यज्दत्षाय दापते ||
समवप्रविभ्यः स्थः ॥ १।२. 1 २२ ॥
आङः स्यः प्रतिज्ञाने ।। ९॥ `
भाङः स्थः प्रतिज्ञान इति वक्तव्यम् । अस्ति सकारमातिष्ठते । आगमौ मृणवृदी
लातिष्ठते | विकारौ गुणवृद्धी भातिष्ठते || |
@ ९.४. ८९
%0 .
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।
पा० १.३.२१-२०.] ॥ व्थाकरणमहामोष्यम् ॥ च०९
उदोऽनूरष्वकमेणि ॥१.।२.।२४ ॥
उद इहायाम् ॥ ९ ॥।
उद हइंहायाभिति वक्तव्यम् | इह मा भूत् । उत्तिष्ठति सेनेति ॥
उपान्मन्लकरणे ॥१.।२ । २५॥ `
उपाहेवपूजासंगतकरणयोः ॥ ९ ॥ 5
उपिवपुजासंगतकरणयोरिति वक्तव्यम् । भादित्यमुपतिष्षते । चन््रमसमुप-
तिष्ठते || संगतकरणे | रथिकानुपतिष्ठते । अश्ारोहानुपतिष्ठते ॥
बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चित्तवान् ।
परय वानरसैन्ये ऽस्मिन्यद कैमु पतिते ||
नवं मंस्थाः सिसो ऽयमेषोऽपि हि यथा वयम् | 10
एतदप्यस्य कापेयं यदकं मुपतिष्ठति ||
अपर आह | उपदेवपूजासंगतकरणमित्रकरणपथिष्विति वक्तव्यम् | संगत-
करण उदाहतम् | मित्रकरणे । रथिकानुषति्ते | भश्वारोदानुपतिष्ठते || परथि |
भयं पन्थाः सुप्रमुपतिष्ठते । अयं पन्थाः साकेतमुपति्ठते ||
वा लिप्सायाम् ॥ २ ॥ 15
वारिप्सायामिति वक्तव्यम् | भिश्चुको ब्राह्मणकुलमुपतिष्ते । भिक्षुको ब्राहम-
णक्ुलमुपतिष्टतीति वा ||
उद्विभ्यां तपः ॥ १.।२। २.७ ॥
अकमैकारिस्येव* । उन्तपति इवणै इवणेकारः ॥
| स्वाङ्गकमंकाच || ९॥ 20
स्वाङ्गकमेकाचेति वक्तव्यम् | उत्तपते पाणी | वितपते पाणी । उत्तपते पृष्ठम्
वितपते पृष्ठम् ॥
अथेदिभ्यामित्यन्र किं प्रत्थुदाहियते 1 निष्टप्यंत हति | कक पुनः कारणमास्म-
# ९. द, २.६.
36 7
. ¶्<र् ॥ .व्याकरणमहमाष्यम.॥ ` , -.[मि०१.२.२
नेपदमेवोदाह्ियते न परस्मैपदं प्रस्युदाहार्यं स्यात् । तपिरयमकर्मकः | अकमैका-
थापि सोपसगोः सकर्मका भवन्ति | न चान्तरेण कर्मकतौरं सकर्मका अकर्मका
भवन्ति | यदुच्यते न चान्तरेण कमैकर्तारं सकर्मका अकर्मका भवन्तीत्यन्तरेणापि
क्मेकतौरं स्षकमेका अकमेका भवन्ति | तद्यथा | नदी वहतीत्यकरमकः | भारं
६ वहतीति सकर्मकः | तस्मान्निष्टपतीति प्रत्युदाहार्यम् ||
आडो यमहनः ॥ १.।२.।२८ ॥
भकममकादिष्येव* | आयच्छति रज्जुं कूपात् | भन्ति वृषलं पादेन ॥
स्वाङ्गकमेकाच | ९॥
स्वाङ्गकर्मेकाचेति क्त्यम् | आयच्छते पाणी | भत उदरभिति ।|
16 समो गम्यृच्छिभ्याम् ॥ १।३। २९ ॥
समो गमादिषु विदिप्रच्छिस्वरतीनामुपसंख्यानम् ॥ ९॥
समो गमादिषु विदिप्रच्छिस्वरतीनामुपरसंख्यानं कतेव्यम् | संवित्ते । संप्रच्छते |
संस्वरते ||
अर्तिश्वुदरिभ्यथ । २॥
15 अर्तिभुदृहिभ्येति वक्तव्यम् । मा समृत । मा समृषाताम् | मा समृषत ।
अर्ति || श्रु | संभृण॒ते ॥ दरि । संप्ररयते ॥
'उपसगोदस्यत्दूह्योवोवचनमम् 1} ३ ॥
उपसगोदस्यत्युह्योेति वक्तव्यम् | निरस्यति निरस्यते । समूहति समूहते ॥।
आङ ठद्रमने॥ ९ ।२।४०॥
20 ज्योतिषामुद्रमने । ९॥
ज्योतिरद्मन इति वक्तव्यम् । इह भा भृत् | आक्रामति पुमो हसम्येतलमिति ॥
* ९. ३. २६.
पा० ९.२.२८-५४. | ॥ ध्याकरगमहाभाष्यंय् ॥ २८३
व्यक्तवाचां समुद्यारणे ॥ १. । २, । ४८ ॥
व्यक्तवाचामिति किमयम् |
वरतनु संप्रवदन्ति कुकुटाः ।
व्यक्तवा सामित्युच्यमानेऽप्यन्न प्रामोति | एतेऽपि हि व्यक्तवाचः । आत व्य-
वाचः कुक्ुटेनोदित उच्यते कुटो वदतीति || एवं तरदं व्यक्ता चामिस्युच्यते &
सर्व॑ एव हि ग्यक्तवाचस्तत्र प्रक्वेगतिर्भिज्ञास्यते | साधीयो ये व्यक्तवाच इति |
के च साधीयः | येषां वच्यकारादयो षणौ भ्यज्यन्ते ] न चेतेषां वाच्यकारादयो
वणां व्यज्यन्ते | एतेषामपि वाच्यकारादयो वणा व्यज्यन्ते | आतश्च ध्यज्यन्त
एवं द्याहुः कुङ्टाः कुङ्कडिति । मैवं त आहः | अनुकरणमेतत्तेषाम् || अथवा तरषं
विज्ञायते व्यक्ता याग्येषां त इमे व्यक्तवाच इति | कथं तर्हि | व्यक्ता वानि 10
वणो येषां त इमे व्यक्तवाच इति |
अवाद्ः ॥ १ 1 ३।५९१ ॥
अवाद्गौ गिरतेः ॥ ९॥
अवाद्र इत्यत्र गिरतेरिति वक्तव्यम् | गृणातेमौ भूत् | ताह वक्तव्वम् | म
वक्तव्यं प्रयोगाभावात् । अवाद ह्युच्यते न चावपुवैस्य गृणातेः प्रयोगो ऽस्ति || 15
समसतृतीयायुक्तात ॥ १. । ३.। ५४ ॥
तृतीयायुक्तादिति किम्थम् |
उग्रौ लोकौ संचरसि इम ॑चामुं च देवल |
तृतीयायुक्तारि्युच्यमाने ऽप्यत्र प्रभोति | अत्रापि हि तृतीयया योगः ॥
एवं तर्हि तृतीयायुक्तादित्युच्यते स्वैश्र च तृतीयया योगस्तत्र प्रकर्षगतिर्धि्ा- 20
स्यते | साधीयो क्र तृतीयया योग इति | क्र च साधीयः | यत्र तृतीयया
योगः भूयते ॥
न्नी
षप , ॥ व्याकरण महाभाष्यम् ॥ [ म० ९.३.२.
दाणश्च सा चेद्यतुथ्यंथं ।॥ १।२.।५५ ॥
सा चेत्तृतीया चतुथ्यैथे इत्युच्यते | कथं नाम तृतीया चतुथ्यरथे स्यात् ] एवं
तदयीरिष्टव्यवहारेऽनेन तततीया च विधीयत आत्मनेपदं च | दास्या संप्रयच्छते|
वृषल्या संप्रयच्छते | यो हि शिष्टड्यवहारो ब्राह्मणीभ्यः संप्रयच्छतीस्येव तत्र भवित-
६ व्यम् | -य्येवैः नार्थोऽनेन योगेन । केनेदानीं तृतीया भविष्यत्यात्मनेपदं च |
सहयुक्ते तृतीया स्थाटूवतिषहारे तड विधिः ।
सहयु कतेऽप्रधनि | ०. ३. ९९ | इत्येव तृतीया भविष्यति कतैरि कर्मन्यतिहारे
| १. द, ९४ | इत्यात्मनेपदम् |
उपाद्यमः स्वकरणे ॥ १५।२। ५६ ॥
10 इह कस्मान्न भवति | स्वं शाटकान्तमुपयच्छतीति | अस्वं यदा स्वं करोति
तदा भवितव्यम् | यथेवं स्वीकरण इति प्रामोति* । विचित्रास्तद्धितवृश्तयः | नात-
स्तद्धित उत्पदथते ||
नानोज्ञः ॥ ९ ।२।५८ ॥
अनोज्ञः प्रतिषेधे सकर्मकवचनम् ॥ ९ ॥
15 अनेोश्गः प्रतिषेभे सकमेकम्रहणं कतेव्यम् । इह मा मृत् | भौषपस्यानजिश्ला-
सत इति || . ˆ, `
न वाकर्मकस्योत्तरेण विधानात् ॥ २ ॥
न वा कतेव्यम् | किं कारणम् | भकर्मकस्योत्तरेण विधानात् | अकर्मका-
ज्नानातेरत्तरेण योगेनास्मनेपदं विधीयते पूवैवत्नः [ ९. ३. ६२ ] इति! ||
90 प्रतिषेधः पूर्वस्य च ॥ ३॥
पुवेस्य{ चायं प्रतिषेधः | स च सकर्मकार्थं आरम्भः | कथं पनर्ञायते पर्व
स्यायं प्रतिषेध इति | अनन्तरस्य विधिर्या भवति प्रतिषेधो वेति | कथ परनज्ञायते
कर ५.४ ५० ॥। १.६. ४५ { १.३. ५७
पा० ९.२.५५६ ०. | ॥ व्याकरगमहायाष्वम् ॥ २८५
सकर्मकार्थं आरम्भ इति । अकर्मकाञ्जानातेः सन आत्मनेपदवचने प्रयोजनं
नास्तीति कृत्वा सकमकार्थो विज्ञायते ||
रादेः रितः ॥ १. । ३. । ६० ॥
वादेः शितः परस्मेपदाश्रयत्वादात्मनेषदाभावः ॥ ९ ॥
शरेः शितः परस्मैपदाश्रयत्वादात्मनेपदस्याभावः | रीयते स्येते शीयन्ते || &
किं च भोः शदेः शिस्परस्तमरैपदेष्विव्युच्यते | न खलु परस्मैपदेषवित्युच्यते परस्मै-
पदेषु तु धिज्ञायते | कथम् | अनुदात्तङित आत्मनेपदं भावकमेणोरात्मनेपदमि-
स्थेती* डौ योगावु्का शेषार्करत॑रि परस्मेपदमुध्यते। | एवं न च परस्मैपदेषुध्यंते
परस्तीपदेषु च विश्चायते || कः पुनरहेस्येती योगावु्का शोषत्कतीरे प्रस्मैपदं
वक्तम् | क तर्हि | भविशेषेण सर्वैमात्मनेपदप्रकरणमनुक्रम्य रोषात्कतरि परस्मे- 10
पदमिस्यु च्यते | एवमपि परस्मैपदाभ्रयो भवति । कथम् | इदं तावदयं प्रष्टव्यः
यदीदं नोच्येत किमिह स्यादिति | पर स्मैपदमिरयाह | परस्मैपदमिति चेत्परस्मैप-
दाञ्रयो भवति ||
सिद्धं तु लडादीनामात्मनेपदवचनात् ॥ २॥
सिद्धमेतत् । कथम् । शादेलेडादीनामात्मनेपदं मवतीति वक्तष्यम् || सिध्यति | 15
सुज तरि भिद्यते | यथान्यासंमेवास्तु | ननु चोक्तं शदेः शितः परस्तमैपदाम्रयत्वा -
दात्सनेपदाभाव इति | नैष दोषः | शित हति तरैषा पन्चमी । का तार्हे | संबन्ध-
ष्टी । शितो यः शदिः | कथं शितः हारिः | प्रकृतिः । दादेः िव्पकृतेरिति ॥
अथमब्राहायं शदेः शोत इति न च दादिः शिदस्ति त एवं विश्षास्यामः दारैः शि-
हिषयादिति ॥ अथवा यद्यपि तावदेतदन्यत्र भवति विकरणेभ्यो नियमो बीया- 20
नितीशेतच्रास्ि | विकरणो हीहाभ्रीयंते शित इति |
उपसगैपुवंनियमे ऽङ्यवाय उपसंख्यानम् ॥ ३ ॥
उषसगेपुवैस्य नियमे ऽङुधवाय उपसंख्यानं कतेव्यम् । न्यविराच श्यक्रीणीतः |
किं पुनः कारणं न सिध्यति | भटा भ्यवहिवस्वात् | ननु चायमड् धातुभन्कौ
भरातुम्रहणेन .महीष्यते | न सिध्यति | भङ्गस्य शङुष्यते$ विकरणान्तं बाङ्गम् | 2
# ९.१, ६२; ९२. ¶ २,३०.५८, . { ९.२.९०; ९८. , § ९.४.०९. `
भत 1 व्याकरणमरभिाष्यय् ॥ {म० ९.३.१
मेपदं न भवत्येवमिहापि श्दिभियत्तिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपद न भवतीति || यरि
ताहि रादिभियत्ययौऽयमारम्भों विधिने प्रकल्पते | आसिपिषते शिशयिषते | भथ
विधभ्यथेः शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामास्मनेपदं प्रमति ॥ यथेच्छति तथास्तु | अस्तु
वस्रतिषैधाथेः । ननु चोक्तं विधिने पर्कल्पत हति । विधिथ प्रकुपरः | कथम् 1
& एतदेव श्चापयाति सनन्तादात्मनेपदं भवसीति यदयं शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामा-
स्मनेपदस्य प्रतिषेष रास्ति ।| अथवा पुनरस्तु विधभ्यथेः | ननु चोक्तं शादिश्निय
तिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपरं प्रामोतीति |" तैष दोषः | प्रकृतं सने नेत्यनुवार्विष्येते |
क प्रकृतम् । ज्ञाभुस्मृद् शां सनः [९.३.५७] । ननोश्चैः [९८] | सकर्मकास्सनो
न । प्रत्याङ्भ्यां जुवः [९९] खनो न । शदेः शितः [६ ०| सनो न | न्नियतेलङि-
10 डं [६९ सनो नेति | इहेदानीं पुवेवत्सन इति सन हत्यनुवतैते नेति निवृत्तम् |
एवं च कृत्वा सोऽप्यदोषो भवति यदुक्त निमिन्तमविश्रोषितं भवतीति || नैव वा
पुनरत्र शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपदं प्रामोति | किं कारणम् । शदेः (शिव
इत्युच्यते न च शादिरेवात्मनेपदस्य निमित्तम् । किं तर्हि | शिदपि निमित्तम् |
अथापि शादिरेव शित्परस्तु निमित्तम् | न चायं सन्परः शित्परो भवति | यत्र
15 तर्हि शिक्ताभ्रीयते नियतेदङडोशेति | भव्रापि न न्नियतिरेवात्मनेषदस्य निमित्तम्।
किं तर्हि । ुङ्िडिवपि निमिचम् | अथापि ज्ियतिरेव लुङ्धिडःपरस्तु निमित्तम् |
न चायं सन्परः लुडिङ्परो भवति ॥ ` `
किं पुनः पूवस्य यदारमनेपदद दोनं तत्सनन्तस्याप्यतिदिदयते | एषं भवितुमरैति।|
ूर्वस्यास्मनेप ददर्दानास्सनन्तादात्मनेपदभाव इति चेहुपादिष्वप्रसिद्धिः ।॥। ३॥
20 पूर्वस्यास्मनेषदद दीनास्सनन्तादास्मनेषदं भवतीति येह्कुपादिष्वम्रसिद्धिः | गुपादी-
नां न प्रपिति । जुगुप्सते मीमांसत इति | न तेभ्यः प्राक्खन आरेमनेपदं नापि
परस्मैपदं पयामः ॥
सिद्धं तु पुवेस्य लिङ्तिदेदात् ॥ ४॥
सिद्धमेतत् । कथम् | पूवस्य यदास्मनेपदणिङ्गं तस्सनन्तस्याप्यतिदिरददयते ॥
2 . . हृआदिषु तु लिङ्परतिषेधः | ९॥
कृगादिषु तु छिङ्स्य प्रतिभेपो वक्तव्यः । आनुचिकीषेति पराविकीषतीति। ॥।
अस्तु रि प्राक्सनो येभ्य आस्मनेपदं दृष्टं तेभ्यः सनन्तेभ्योपे भवतीति 1 नलु
* ६,९.५६, † ६.३. 9२; ७९.
पार ९.२.६३. | . ॥ ष्थादरणदयशायाष्वम्॥ गह्
चत्त पुवैस्यारमनेपदद हौनास्नन्तादात्मनेपदम्प्रव. इति - चेहुपादिष्वप्रसिद्धिरिवि ।
तरैष. दोषः । भनुबन्धकरणसामथ्योद्धविष्यति || -अथवावयके. कृतं लिङ्गं .` समुदा-
बस्य विशेषकं भवति। तदथा | गोः सक्थनि कर्णवा कृतं लिङ्गं: समुदायस्य
विशेषकं भवति|| यद्यवयवे कृतं लिङ्गं सम॒र्दाथस्य विशेषकं भवति -जुगुप्सयति
मीमांसयवीत्यश्रापि प्राति | वैष दोषः | भवयवे कृतं लिङ्गः कस्य समुदायस्य -४
विद्चेषकं भवति | यं समृदायं यो ऽवयवो. न व्यभिचरति । सन च न व्यभिचरति
निच पनर्व्यभिचरति | तद्यथा । गोः सक्थनि कर्णे वा कृतं लिङ्ग. गोरेव विशेषकं
भवति न गोमण्डलस्य |
प्रत्ययग्रहणं णियगथेम् ॥ & ॥
प्रत्ययस्य भहणं कर्व्यम् । पुवैवलस्ययादिति वक्तव्यम् | किं प्रयोजनम । 10
णियगर्थ॑म् । णिकगन्तादपि यथा स्यादिति 1 ` आङ्गस्मयेते विकस्यते | हभीयते
महीयत इति || तत्र को दोषः | | |
तत्र हेतुमण्णिचः प्रतिषेधः ॥ ७ ॥
तत्र हेतुमण्णिचः प्रतिषेधो वक्तव्यः† | आसयति शाययतीति ! सत्रं च भ्त्थिते।।
यथान्यासमेवास्तु | कथमाकुस्मयते . विकुस्मयते हणीयतेः ` महीयत इति | अनुब- 15
न्धकरणसाम्यां भविष्यति || भथयावयवे कृतं किङ्ग समुदायस्य विशेषकं भवति|
तदयथा | गोः सक्यानि कर्णे ऋ कृतं लिङ्गं समुदायस्य विदहेषकं भवति । यद्व-
यवे कतं लिङ्गं समुदायस्य विदोषकं भवति हणी ययति महीययति अत्रापि परो
| अवयवे कृतं लिङ्ग कस्य समुदायस्य विदोषकं भवति । य समदाय यो
ऽकवयवो न व्यभिचरति | यकं च न व्यभिचरति णिचं त॒ व्यभिचरेति। तथा| 20
गोः सक्थनि कर्णे षा कृतं लिङ्गं गोरेव विरोषकं भवति न गोमण्डलस्ष |
आम््रत्ययवत्कृजो ऽनुग्रयोगस्य ॥ ९. । ३, । ६२. ॥
कृञ्यदणं किमथेम् | इह मा -भूत् । इहामास हैहामासतुंः हहामाखः । कथं
चात्रास्तेरनुभरयोगो भवति- | प्र्याहारब्रहणं तत्र; विज्ञायते | .कथं पुनक्षोयते तत्र
प्रस्याहारबहणमिति । इद कृञ्व्रहणात् | शह कस्मासत्याहारग्रहणं न. भवति | ८5
# ३.९.२५; २.५. † २.९, २६. { ३.६. ४०.
37 न
2९० प व्याकरगमहामाध्यम्॥ | [म०१.३.२.
हृदेव $ृञमहणात् | अथेह कस्माच भवति । उवुम्मांचकार उदुष्ांचकार् ।. नन्
चाम्पस्ययर्वदिस्युऽ्यते न चात्राम्भत्यय्ादास्मनेपदे प्रदयामः. | न ब्रूमो जेनेति| जिं
हदि | स्वरितवितः ` कर््रभिप्राचे क्रियाफल आत्मनेपदं भवतीति ||. वैष दोषः |
हदं नियमार्थं भविष्यति । आम्परस्ययवदेबेतिं | यदि नियमार्थे विधिने प्रकल्पते |
£ हृहांचक्रो छऊर्हांचक्र इति । विधिश्च प्रकुपः । कथम् | पुवेवदिति वतेते। । आ-
त्मत्ययवत्पववचेति ॥
प्रोपाभ्यां युजञेरयज्ञपात्नेषु ॥ ९. । २ । ६४ ॥
स्वराद्युपसृष्टादिति वक्तव्यम् | उदयु ङ् अनुयुडध
अपर .आह । स्वराद्यन्तोपसूष्टादिवि वक्तव्यम् । प्रयु, नियुङ, विनियुङ्क ||
10 समः द्णुवः ॥ ९. । २. । ६५ ॥
-. किमथ विदेशस्थस्य महणं क्रियते न समो गमारिष्वेवोच्येतः |
| समः .क््णुवः सकममकार्थम् । ९ ॥
, , सकर्मकार्थोऽयमारम्भः | अकमेकादिति हि वत्रानुवतेते ॥
भुजोऽनवने ॥ १. ।. २ । ६६ ॥
15 . अनवनकौटिल्ययोरिति वक्तव्यम् । इहापि यथा स्यात् । प्रभुजति वाससी |
निभृजति जानुशिरसी इति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् | यस्य भुनेरव-:
नमनवनं चा्थस्तस्य महणं न चास्य भुजेरवनमनवनं चाथेः ||
गेरणौ यत्कर्म णौ वेस्स -कतौनाध्थाने ॥ ९. ।.२ ।.६७ ॥
गेरात्मनेपदविधाने ऽण्यन्तस्य कमेणस्तत्रोपलन्धिः । ९ ।।.
नेरास्मनेपदाथिधाने. ण्यन्तस्य यत्कर्म यदा ण्यन्ते वदेव कम भवति तदास्मने-
पदं भवतीति वक्तव्यम् | | -
* १.६.०१. † ९.६. ६३. ‡ ९.१.२९. `
20
फ १.२.६४;६७.] ॥ व्वाकर्ण प्रह भष्यम् ॥ ९.१
; इतरथा हि सवेप्रसङ्गः. ॥;: २ ॥। .
“ ` इतरथा हि सरथ प्रसङ्गः स्यात् । इहापि प्रसज्येत । आरोहन्ति हलिनं ह-
स्तिपका; । आरोहयमाणो हस्ती ` स्थलमारोहयति मनुष्यान् || तत्तर्दिं वक्तव्यम् |
न वक्तव्यम् | कस्मान्न भवति भरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः भारोहयमाणो
हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यानिति | एवं वक्ष्यामि । गेरात्मनेपरं ` भवति 1 ततो `
ऽगौ यत्कर्म णौ चेत् | अण्यन्ते यत्कर्म णौ चेण्णौ यदि तदेव कर्मं भवति | ततः
स कतौ | कर्ती तरेरस भवति णाविति ॥ ययेवं कर्मकतौयं मवति तत्र कर्मकरु-
त्वास्सिद्धम्* | | | |
कर्मैकर्वस्वास्सिद्धामिति ेव्यक णोर्भिवृ यर्थ वचनम् ॥ ३॥।
कर्मक्त्वास्सिद्धमिति वेदयङ्किणोर्भवृर्यथमिदं वक्तव्यम् । कर्मापदिष्टौ यङि- 16
भै† मा भूतामिति || | |
न.वा यङ्किणोः प्रतिषेधात् | ४ ॥
न वैष दोषः | किं कारणम् । यककुणोः प्रतिषेधात् । प्रतिषिध्येते अत्र य-
किणौ । यङ्किणोः ्रतिषेषे हेतुमण्णिननिनब्रुखामुपसं ख्यानमिति{ || यस्तर्हि न हेतु-
मण्णिञ्तदथमिदं वक्छव्यम् | तस्य क्मापरिष्टौ यङ्किणौ मा भूतामिति । उत्पुच्छ- 15
यते पुच्छं स्वयमेत्र | उदपुपुच्छत पुच्छं स्वयमेव | अत्रापि यथा भारद्वाजीयाः
पठन्ति तथा भवितव्यं प्रतिषेधेन । यङ्किणोः प्रतिषेधे शिभ्नन्यिमन्धित्रूजात्मनेपदा-
कमे काणामुपसंख्यानमितिः || स चाव इयं प्रतिषेध आभ्रवितव्यः |
इतरथा हि यत्र नियमस्ततो ज्यत प्रतिषेधः ॥ ९॥
अनु्यमाने दछेतस्मिन्यत्र नियमस्ततो न्यत्र तेन यङ्किणोः प्रतिषेधो वक्तव्य 20
स्यात् | गणयति गणं गोपालकः | गणयति गणः स्वयमेव |
आत्मनेपदस्य च || ६ ॥
आत्मनेपदस्य च प्रतिषेपो वक्तव्यः | गणयति गणः स्वयमेव . |
आत्मनेपदप्रतिषेधार्थं तु ॥ ७ ॥ `
आत्मनेपदप्रतिषेधाथेमिदं बक्तव्यम् | गणयति गणः स्वयमेव || इष्यत एवा- 2४
अत्मिनेषंदम् । किमिभ्यत एवाहोस्वित्रपित्यपि | हृष्यते च प्राति च | कथम्
१ "गगण णण ककय ०
# २.९. ८$; १.२.१२. ¶ २.५. ६७; ६६. { ३.९. ८९१५.
+: ॥ न्वौक्स्भकहीभोष्यय् [.म॑ं० ९.२. .
भणाविति कस्येदं गेर्भक्णम् । यस्माण्णेः प्राम ` क्ता वा विते न चेतस्माण्णेः
श्राक्षमे कती वा विद्यते || इदं ताहि प्रयोजनमनाभ्यान इति - वश्ट्यामीति । इह मा
भूत् -। स्मरति वनगुल्मस्य कोकिलः. | स्मरयत्येनं वनगुल्मः स्वयमेवेति ।। एतः
दपि-नास्ति प्रयोजनम् | कमौपदिष्टा विधयः कर्मस्थभावकानां - कर्मस्थक्रियाणां क
5 भवन्ति -कतैस्थमावकथायम् ||. एवं ताह सिद्धे सति यदनाध्यान इति प्रतिषेधं शास्वि
तज्ज्ञापयस्याचार्यो भवस्येवंजातीयकानामास्मनेपदमिति । किमेवस्य- ज्ञापने प्रयो -
जनम् | परदयन्ति भृत्या राजानम् | दक्ौवते भृस्थाजाजा । ददौयते मृत्य रान 4
भत्रात्मनेपदं सिद्धं भवति ||
आत्मनः कमेत प्रतिषेधः | ८ ॥
10 जात्मनः कमत्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | हन्त्यात्मानम् | षातयत्यत्मिति ॥ स
तरि वक्तव्यः |
न वा ण्यन्ते ऽन्यस्य करवैस्वात् ॥ ९.॥
न वां वक्तव्यः | किं कारणम् | ण्यन्ते ऽम्यस्य कतेत्वात् | अन्यदव्राण्यन्ते
कमौन्यो ण्यन्तस्य कतौ | कथम् | दवावात्मानाबन्तरात्मा शरीरात्मा च | अन्त-
15 रात्मा तत्कर्म करोति येन शरीरात्मा सुखदुःखे अनुभवति । शरीरास्मा तत्कमे
करोति येनान्तरास्मा सुखदुःखे अनुभवतीति ॥
स्वरितसितः कनेभिप्राये क्रियाफरे ॥ १ । ३ । *७२ ॥
स्वरितञित इति किमर्थम् । याति वाति द्राति प्साति | स्वरितनित इति
दाक्यमकतुम् । कस्मान्न भवति याति वाति द्राति व्सातीति | क्रभिराये क्रिया-
20 फल इत्युच्यते सर्वेषां च कनैमिपरायं क्रियाफरमस्ति । त एवं धिन्ञास्यामः । येषां
क्भिप्रायमकर्रभिपरायं च क्रियाफलमस्ति तेभ्य . भस्मनेपदं भवतीति | न चैतेषां
कतरेभिपायमकंजरभिपरायं च (क्रेयाफलमस्ति | तथाजतीवकाः खल्वाधार्येण स्वरि-
. सथितः पठिता यं उमयबन्तो येषां कञ्मिप्रा्य चाकर्रैमिप्रायं च क्रियाफलमस्ति ॥
अधाभिप्रमहणं किमयम् । -स्करितथितः कत्रीये क्रिथाफल इतीयस्युच्वमाने यमेव
2 संपरत्येति क्रियाफलं तत्रैव स्यात् | लूञ् लुनीते | पय् पुनीते' । हह न ` स्यात् |
यञ यजते | षम् वपते | अभिपरसहणे. पुनः क्रियमाणे न दोश भवति | भमिरा-
प° ९.३.५२-७८.] ॥ व्याकर्नपशामाच्यप ॥. ९९३
भिमुखूबे वतेते प्र भादिकमणि । तेत्र यं चाम्िति यं चामित्रैष्यति यं चामिप्रामात्त्र
सयेक्राभिमुख्यमात्रे सिद्धं भवति || कञ्रेभिपराये क्रियाफल इति कि मथंम् । पचन्ति
मन्तकाराः ] कुवन्ति कमेकराः । यजन्ति याजकाः | कत्रेभिपराये क्रिथाफरं इत्यु
च्यमाने ऽप्यत्र प्रामोति । अत्रापि हि क्रियाकलं कतोरमम्प्रिति | याजका यजन्ति
शा रष्स्यामहः इति. | कमेकराः कुवन्ति पारिकम्ंप्स्वामह इति । एवं तर्हिं कत्ै- 5
भिधाये क्रियाफर इत्युच्यते सर्वत्र ल कीर क्रिवाफरममित्रेति तत्र अरफषेगतिर्थि-
हास्यते । साधीयो यत्र कतौर (क्रेयाफकमभ्प्रिति । न चान्तरेण यजिं यजिफखं
वपि वां वपिफलं लभन्ते | याजकाः पुनरन्तरेणापि वजि गा. लभन्ते भृतक
पादिकमिति | |
शेषात्कतैरि परस्मैपदम् ॥१॥। ३ । 9८ ॥ 10
दोषवचनं पश्चम्था वेदर्थे प्रतिषेधः ॥ ९॥
दोषवचनं पञ्चम्या चेदर्थे प्रतिषेधो वक्तव्यः | भिद्यते कु दालः स्वयमेव |
छिद्यते रज्जुः स्वयमेवेति" || एवं तर्हि शेष इति वयामि |
ि सपम्या चेश्पकृतेः ॥ २ ॥
सप्रम्या चेव्यङृतेः प्रतिषेधो वक्तव्यः | आस्ते देते च्यवन्ते भवन्ते || ` 16
सिद्धं तूभयनिर्देशात् ॥ ३ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | उभयनिर्देशाः कर्तष्यः | शोषाष्डेष इति वक्तव्यम् ॥
कनेमहणामिदानीं किमथे स्यात् |
| करृग्रहणमतुपरादर्थम् ॥ ४ ॥
अनुपरा्थमेतस्स्थात्{ । इह मा मृत् । भनुक्रियते स्क्यमेवै | पराक्रियते 20
स्वयमेनेति || सिध्यति । खतं तहि भिद्यते । यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं शेष-
वचनं पत्चंम्या वेदर्थ प्रतिषेध इति । नैष दोषः । कतरि कर्मव्यतिारे [९.३.९४
इत्यत्र कंतृ्रहणं प्रस्याख्यायते तत्पकृतमिहानुवतिष्य्ते । रोषात्कतेरि कपैरीति |
किमिद कर्तरि कर्तरीति । ककव यः कता तत्र यशा स्यात् | कर्ता घान्यथ -कः
क्रतो तत्र मा भदिति।| | 25
# ३, ९.८७; ९.३. ९३. क ९८३. ९२. { ९.३.७९. `
2९४ ॥ व्याकरणगहाभाष्यम् ॥ [. .. [म१.१.२.९.
अनुपरभ्यां कृञः ॥ २.।२।७९) ॥ . `
किमथोमिदमुष्वते ।
परस्मैपदप्रतिषेधात्शजोदिषु विधानम् ॥ ९ ॥।
„ परस्मैपदप्रतिषेधाव्कृयादिषु परस्पैपदं विधीयते । प्रतिषिध्यते तत्र॒ परस्मैपदं
¢ स्वरिताथितः कजभिपराये क्रियाफलं भास्मनेपं भवीति" || अस्ति प्रयोजनमेतत् |
किं तर्दति | ¦
तत्राप्मनेपदग्रतिधेधो प्रतिषिद्ध त्वास् ॥ २॥
तत्रास्मनेपदस्थ प्रतिषेधो वन्कभ्यः | किं कारणम् | भप्रतिषिदत्वात् | न द्यातमं-
नेदं प्रतिषिध्यते | किं तर्हि | परस्मरपदमनेन विधीयते ||
10 -: - . म धा दुततादिभयो वावचनात् ॥. ३ ॥
भ वैष दोषः.| क्रि कारणम्ः। द्युतादिभ्यो वावचनात् । यदव. धयुतारिभ्यो वाव-
चनं क्ररोति† तज्ज्ञापयत्याचार्थो न परस्मेपदविषय आस्मनेपदं भवतीति ॥
आस्मिनेपदनिथमे धा प्रतिषेधः. ॥ ४ ॥
भास्मनेपदनियमे घा प्रतिषेधो ब्रक्तव्यः | स्थरितयितः कत्रभिप्राये क्रियाफलठ आ-
15 स्मनेपदद भवति करतैर्थनूपराभ्यां कृ जो नेति || सिध्यति | सज तर्हि भिद्यते | यथान्या-
समेवास्त | नतु चोन्तं तज्रात्मनेपदप्रतिषेधो ` ऽप्रतिषिद्धत्वादिति | परिहतमेतन्न .वा
द्युतादिभ्यो वावचनादिति || अथवेदं षावदयं प्रष्टव्यः | स्वरितानितः कतरैभिप्राये
क्रियाफल आत्मनेषर भव्रतीति, परस्मैपदं कस्मान्न. भवति | भात्मनेपरेन वाध्यते |
यथैव तद्योस्मनेपदेन परस्मैपदं बाध्यत एवं परस्मैपदेनाप्यात्मनेपदं बाधिष्यते ॥
. चषयुधनराजनेङ्दृख्भ्यो णेः ॥ ९.।३ । ८६ ॥
लुधादिषु ग्रे कमेकास्तेषां महणं किमथेम् । सकमेकार्थमविश्तवत्करतैकाये वाः
अणावकमैकाित्तवः कतृकात् ॥ १. ।३. । ८८ ॥
अणावर्कर्मकादिति चुरादिणिचो ण्यन्वात्परस्पैपदषवचनम् ।॥ \॥
भणावकमेकादिति चुरादिणिचो गण्वन्तास्परस्मैषदं वक्तत्थम् । इहापि यथा
. ५१.३.७२. † ९. १. ९९. { ९. ६, <<. ि
पा० ९.३.५९-९३.| ॥ व्वाकरणग्हाभोष्यम् ॥ २९.५
स्यात् | चेतयमानं प्रयोजयति चेतयतीति || यदि वद्यत्रापीष्यते अणिब्रहणमिदानीं
किमथे स्यात् | अकमकम्रहणमण्यत्तविशेषणं यथा विज्ञायेत । अथाक्रियमाणे
ऽणिम्रहगे कस्याकर्मकमरदणं विदोषणं स्यात् । णेरिति वर्ते ण्यन्तविशेषणम् । तत्र
को दोषः | इटैव स्यात् | चेतयमानं प्रयोजयति चेतयतीति । इह न स्यात् |
आसयति चाययतीति ॥ 5
| सिद्धं स्वतस्मिष्णाविति वचनात् ॥ २॥ |
सिद्धमेतत् | कथम् | अतस्मिण्णौ यो ऽक्मैकस्तत्रेति बक्तत्यम् || सिध्यति |
सूत्रं ताहि भिद्यते | यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तमणावकमेकादिति चुरादिणिचो
ण्यन्तात्परस्मैपदवचनमिति | त्ष दोषः | अणाविति कस्येदं गेग्रेहणम् | यस्माण्णे
पराकृ्म कतो वा विद्यते न वैतस्माण्णेः प्राक्षमे कतौ वा विद्यते || ` 10
न पादम्याङचमाङयसपरिमुहरुचिनृतिवदवसः ॥ १. । २.।८९॥ `
। पादिषु धेट उपक्षंख्यानम् ॥ ९ ॥. ।
ˆ पादिषु भेट उपसंख्यानं कतेव्यम् । धाप्येते शिद्युमकं समीची || ` `
ट्ट च कुपः ॥ १. ।२.। ९२ ॥
किमथेथकारः । स्यसनोरिस्येतदनुकृष्यते। । यरि ताहि नान्तरेण चकारमनु- 15
वृत्तिभेवति शुद्धो लुडि [२.३.९९] हत्यत्रापि चकारः कतेव्यो विभाषेत्यनुकरषे-
गार्थः ‡ । अयेदानीमन्तरेणापि चकारमत्रानुवृत्तिभेवतीहापि नार्थथकारेण || एवं
सर्वे चकाराः प्रत्याख्यायन्ते ॥ |
हति रीभगवत्यतच्ञलिविरचिते ष्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्वाध्यायस्य तृतीये `
पादे दितीयमादहधिकम् ॥ पाद समाप्तः | - 20
% ६.३, ८६. †{ ९.३. ९२. ‡ ९३, ९५०.
न मि ण भो
आ कडारदेका संज्ञा ॥१.।४।९.॥'
किमथेभिरदमुच्यते | |
अन्यत्र संज्ञासमावेदान्ियमथं वचनम् ।॥ ९ ॥
अन्यत्र संज्ञासमावेशो भषति | कान्यत्र | लोके व्याकरणे च | लोके तावत् |
¢ इन्द्रः दाक्रः पृखहुतः पुरंदरः | कन्दुः कोठः कुल हति | एकस्य द्रव्यस्य बहचः
संज्ञा भवन्ति | व्याकरणेऽपि कर्वव्यम् हकैव्यमिष्यन्न प्रत्ययज्ृककृत्यसंक्ञानां समा-
वेदो भवति | पालः वैदेहः त्रैदमं इत्यत्र प्रत्ययतद्धिततद्राजसंज्ञानां समावेशो
भवति | अन्यत्र संज्नासमावेशादेतस्मात्कारणादा कडारादपि संज्ञानां समावेशः
प्राभोति | इष्यते वैकैव संज्ञा स्यादिति त्ान्तरेण यज्ञै न सिध्यतीति नियमा
10 वचनम् । एवम्थैमिदमुच्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत् । किं तीति |
कथं त्वेतत्सत्रं पठितव्यम् | किमा कडारादेका संज्ञेति | आहोसििस्माङ्गडारा-
स्मरं कार्यमिति । कुतः पुनरवं संदेहः | उभयथा श्याचर्यैण शिष्याः बजरं परतिपा-
रिताः । केचिदा कडारादेका संशेति । केचिसाक्षडारात्परं कायमिति }. कथात्र
वि्ेषः |
15 तत्रैकसंज्ञाधिकारे तद्वनम् .। २ ॥
तत्रैकसंश्ञाधिकारे तहक्तव्यम् | किम् एका संज्ञा भवतीति | | ननु च यस्यापि
परंकार्यत्वं तेनापि परम्रहणं कतैव्यम् । पराथ मम भविष्यति | विप्रतिषेधे चेति |
ममापि त्धैकमहणं पराथ भविष्यति । सरूपाणामेकदोष एकविभक्तौ [९. २.६ ४ |
इति | सं्ञाधिकारथायम् । ततर किमन्यच्छक्यं विज्ञातुमन्यदतः संश्ययाः । तत्रै
20 तावद्माच्यम् | आ कडारादेका । किम् । एका संज्ञ भवतीति ||
अङ्गसंजया भपदसंक्ञयोरसमावेराः ॥ ३ ॥
अङ्गसंश्चया भपदसंज्ञयोः† समावेशो न प्रामोति | सार्षिष्कः बार्हिष्कः याजुष्कः
धानुष्कः‡ | बाभ्रव्यः माण्डव्य$ इति । अनवकाश भपदवंजञे अङ्गसंज्ञं वाधेवा-
# ९.४.२. 1 ९.४.९२; ९४;९८ { ४,४.५९; (५.९. ६३); ७.१. ९९; ८.१. १९; ०.२. ९६८.
§ ४.९० ९.०६; (६०५); ६.४. ९४६. ७,२. ९९७,
पा०९.४.९. | ॥ वयाकरणमटभाष्यय् ॥ २९७
ताम् | पर वचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः || यस्य पुनः परंकायैत्वं निय-
मामुपपत्तेस्तस्योभयोः संज्ञयोभांवः सिद्धः | कथम् । पूर्वे तस्य॒ भपषदसंजञे पराङ्-
संज्ञा । कथम् | एवं स वक्ष्यति | यस्माखत्ययविधिस्तदादि खम्रिडन्तं पदम् |
नः क्ये | सिति च | स्वादिष्वसवेनामस्थाने | यत्ति भम् | तस्यान्ते प्रत्यये ऽङ्मिति ।
तत्रारम्भसामथ्यौचच भपदसंज्ते परंकार्यत्वाञ्चाङसंज्ञा भविष्यति || ननु च यस्याप्ये-
कसंज्ञाधिकारस्तस्याप्य ङ्संज्ञपूविके भपदसंज्ञे । कथम् । अनुवृत्तिः क्रियते | पयोगः
प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगपद्येन संभवः ||
कर्मधारयस्वे तत्युरुषग्रहणम् ॥ ४ ॥।
क्मधारयस्वे तस्परुषपरहणं कर्तव्यम् । तद्पुरूषः समानाधिकरणः क्मेषा- .
रयः |९.२.४२| . हति । एकसंज्ञाधिकार इति चोदितम् | अक्रियमाणे ह्यनवकाशा 10
कमेधारयसंज्ञा त्पुरुषसंश्ञां षाधेत | प्रवचने. हि नियमानुपपत्तेरमयसंज्ञामावः ॥
यस्य पुनः परंकार्यत्व नियमानुपपततेस्तस्योभयोः संज्ञयोभोवः सिद्धः । कथम् | पृं
तस्य कमषरयंज्ञा परा तत्परषसंज्ञा | कथम् | एवं स॒ वल्यति | पर्वैकाकेकसवै- `
जरत्पराणनवकेव्रलाः समानाधिकरणेन कमधारय इति] एवं सवे कर्मपारयप्रकर-
गमनुक्रम्य तस्यान्ते . भितदिस्तत्पुरुष . इति† । तत्रारम्भसामर्थ्याब्च कर्मधारयसंज्ञा
परं कायेत्वा्च तस्पुरुषसंज्ञा भविष्यति ॥ ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि
तद्पुरुषसंज्ञापूर्वैका क्मेधारयसंज्ञा । कथम् | अनुवृत्तिः क्रियते | पयोयः प्रस-
ज्येत | एका संज्ञेति वचनात्नास्ि यीगपद्येन संभवः |} `
तव्युरुषस्वे द्विगुचग्रहणम् ॥ ९ ॥
तस्पुरुषत्वे द्विगु चयहणं कतैव्यम् | तत्पुरुषः [१.९.२२] दगु [५३] हति %
च कारः कतैव्यः | अक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाश्ा द्विगुसंज्ञा तस्पुरुषसंशनां वाधेत |
पर वचने दि नियमानुपपत्तेरभयसंज्ञामावः || यस्य पुनः परं कार्यत्वं नियमानुपप-
सेस्तस्योभयोः संक्तयोभोवः सिद्धः | कथम् 1 पूवो तस्य द्िगुसं्ञा परा तत्पुस-
षसंज्ञा । कथम् । एवं स वक्ष्यति | तद्धितार्थोत्तरपदसख्मर्करे. च [२.९.९९ | सं-
सट्यापूर्वो द्विगुः [९२] इति | एवं सवै दिगुप्रकरणमनुक्र म्य तस्यान्ते श्रितादिस्तत्पु- 2
रुष इति! | तत्रारम्मसामथ्यो्च दिगुसं्ञा परंकायत्वाश्च तत्ुरुषसं जा भावि-
ध्याति || ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि तस्पुरुषसंज्ञापर्विका हिगुसंज्ञा ।
+ २.१. ४९, ` ¶ २.१.२५,
38 श्च
२९८ ॥ व्यौकरनमरहाभाष्यम् ॥ (भ०९.४.९
कथम् [ अनुवृत्तिः क्रियते | पर्यायः प्रसज्येत । एका संज्ञेति वचनात्नास्ति
यौगपद्येन संभवः ॥ ` `
गतिदिवःकमेहेतुमस्सु चग्रहणम् ॥ & ॥
गतिदिवःकमेहेतुमस्ु चमहणं. कतेन्यम् |] उपसगौः क्रियायोगे [१.४.९९ |
£ गतिश्च [६०] इति चकारः कतेव्यः | आक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाञ्चोपसगेसंज्ञा
गरतिसंज्ञां वापेत | प्रवचने हि - नियमनुपपत्तेरुभयसंज्ञामावः || यस्य पुनः परं -
कार्य्वं नियमानुपपत्तस्तस्योभयोः संज्ञयोभावः सिद्धः | कथम् । पवो तस्योपसगे-
संज्ञा परा गतिसंज्ञा । तक्नारम्भसामथ्योचोपसगसंज्ञा परं कार्यरवाच्च ग्रतिसज्ञा भावि-
ष्यति ॥ ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्याप्युपसगसंज्ञापूर्दिका गतिसंज्ञा |
10 कथम् | अनुवृत्तिः क्रियते | पर्यायः प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नासि यीग-
पद्येन संभवः || गतिसंज्ञाप्यनवकादा सा वचनादविष्यति | सावकाडा गतिसंज्ञा |
, को ऽवकाशः | ऊयोशेन्यवकाश्चः* | प्रादीनां या गतिसंज्ञा सानवकाशा | गति ॥
दिवः कमे । साधकतमं करणम् [१.४.४२] दिवः कमे च [४२] इति चकारः
कतैष्यः | अक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाश्चा कर्मसंज्ञा करणसंज्ञं वाधेत | पर-
15 वचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः ॥| यस्य॒ पुनः परं कायेस्वं नियमानुपपत्ते-
स्तस्योमयोः संश्नयोभोवः सिद्धः | कथम् | पुव तस्य कर्मसंज्ञा परा करणसंज्ञा |
कथम् | एवं स वक्यति | दिवः साधकतमं कर्म | ततः करणम् | करणसंज्ं
च भवति साधकतमम् । दिवं इति निवृत्तम् | तन्रारम्भसामथ्याच कर्मसंज्ञा परका-
यैस्वा्च करणसंज्ञा भविष्यति ॥ ¶नु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि करणसं-
20 ज्ञापुरविका कर्मसंज्ञा । कथम् । भनुवृत्तिः क्रियते | प्यायः प्रसज्येत | एका
सक्तेति वचनान्नास्ति यौगपयथेम संभवः | दिवः कर्म ॥ हतुमत् । स्वतन्त्रः क्तौ
[१,४.९४] तखयोजको हेतु | ९५] हति चकारः कमैव्यः | आक्रियमाणे हि चकारे
ऽजवकाद्रा हेतुसंज्ञा कतृसंज्ञां बाधेत | परवचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः ॥
यस्य पुनः परंकायेत्वं नियमानुपपत्तेस्तस्योभयोः संशयोभोवः सदः | कथम् |
पवौ तस्य हेतुसंजञा परा कतृंसं्ञा | कथम् | एवं स व्यति ] स्वतन्त्रः प्रयोजको
हेतुरिति । ततः कतौ । करसखंजञश्च भवति स्वतन्त्रः | प्रयोजक इति निवृ्लम् ।
25 तत्रारम्मसामथ्याच हैतुसंज्ञा परं कायैत्वाञ्च कतसंज्ञा भेष्यति ॥ ननु भ यस्या-
# ९.४, ६९,
पा०९.४.९.॥ ॥ व्याकरगपहामाष्यय् ॥ २९९.
प्येक संज्ञाधिकारस्तस्तरापि कर्तृसंजञापुर्विका हेतुसंज्ञ | कथम् | भनु वृत्तिः क्रियते|
पयोयः प्रसज्येत । एका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगप्येन संभवः ||
गुरुखषु संते नदीधिसन्ञे | ७ ॥
गुरलघुसंज्ञे नदीधिसंजे वाधेयाताम्' । गार्जीबन्धुः वात्सीबन्धुः{ । वेनन्;
विविनय्य$ | परवचने हि नियमानुपपत्तेरभयसंज्ञाभावः || यस्य पुनः परंकार्यत्व ४
नियमानुपपत्तेस्तस्योभयोः संज्ञयोभोवः सिद्धः । कथम् । पूर्वै तस्य नदीषिसंज्ञे परे |
गुरुलयुसंज्न | तत्रारम्भसामथ्याच नरीधिसंजञे परंकायत्वाच गुरुल घुसंज्ञे भविष्यतः ॥
ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि नदीषिसंजञापूर्विके गुरुलघुसंज्ञे | कथम् |
अनुवृत्तिः क्रियते | पयायः प्रसज्येत । एक। संज्ञेति वचनात्नासि योगपदथेन
संभवः ॥ | | 10
परस्मेपदसंज्ञां पुरुषसंज्ञा ॥ ८।।
परस्मैपदसंज्ञा पुरुषसंज्ञा वाधेत¶ | परवचने हि नियमानुपरपत्तेरभयसंज्ञाभावः ॥
यस्य पुनः पर्कायेच्वं नियमानुपपत्तस्तस्योभयोः संज्ञयोभावः सिद्धः | कथम् |
पुत्रौ तस्य पुरुषसंज्ञा परा परस्मैपदसंज्ञा । कथम् । एवं स वक्ष्यति | तिङखीगि
त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमा इति | एवं सवै पुरुषनियममनुक्रम्य तस्यान्ते तः परस्मै- 1;
पदमिति । तत्रारम्भसामथ्यौच पुरुषसंज्ञा परंकायत्वाञ्च परस्मैपदसंज्ञ। भधरष्यति ।
ननु च यस्याप्येकसंजञापिकारस्तस्यापि परस्मैपदसंज्ञापूर्विका पुरुषसंज्ञा | कथम् ।
सनुवृत्तिः क्रियते | प्रयोयः प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नासिि योगप्येन संभवः।|
पर स्मैपदसंज्ञाप्यनवकाशा सा वचनाद्भविष्यति | सावकाशा परस्मेपदरून्ना | को ऽव-
कादाः | दातृकष अवकाशः ॥ | 20
परवचने सिति पदं भम् ॥ ९॥
पर वचने सिति पदं भसंज्ञमपि प्रामोति{1† । अयं ते योनिक्रैलियः ‡‡{ । प्रजां
तरिन्दाम कल्वियाम् । भारम्भस्तमध्योचच पदसंज्ञा परंकायेत्वाच भसंज्ञा परामेति ।
गतिबुद्यादीनां ण्यन्तानां कमं कवरसंज्ञम् ॥ ९० ॥
गातिबुद्धादीनां ण्यन्तानां कर्म कतृसंज्ञमपि प्रामोतिऽ | आरम्भसामभ्यौचच 25
~न ~ ~~ ---- --- ~~ ~~ -~-----~-~ ~--*--~
# ९.४.२-९२. † ६.२.१०८ ८.२.८६. {२.२.१२ ५.९.९३९. 9 ६.४.५६.
थ् २.४. २२; २०१९. +भ २.२.१२८; १०७. 11 १.४.१६ १८. दु ५.१.१०६ (६.४.१४).
§§ ९,४ ५२; ५४,
३०० ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम् | [ म० ९.४.९१.
कर्मसंज्ञा परंकायैत्वाच कत॑सज्ञा प्रामोति 1] नैषः दोषः । आचार्यप्वृत्तिज्ञौपयति
म कमेसंज्ञायां कनुसंज्ञा भवतीति यदयं हक्रोरन्यतरस्याम् [९.४.५२ | इत्यन्यतर-
स्यांभह्णं करोति ॥
दोषवचनं च धिसंज्ञानिवृच्यर्थम् || ९९ ॥
४ होषम्र्णं च कतैव्यम् | देषो ष्यसखि |१.४.७] इति । किं प्रयोजनम् ।
निसंज्ञानिवृत््यथेम् । नदीसंज्ञायां धिसंज्ञा मा भूदिति । -शकटचै पद्त्यै बु
धेन्वै" । इतरथा हि परं कायव्वा् विसंज्ञारम्भसामथ्यौ च डिति स्वश्च [१.४.६
इति नदीसंज्ञा. ||
न वासंभवात् ९ ॥
10 नवा कर्तव्यम् । नरीसंज्ञायां पिसंज्ञा कस्मान्न भवति | असंभवात् । को
ऽसावसभवः | |
हस्वलश्षणा हि नदीसंज्ञा विसंसायां च गुणः ॥ ९३ ॥
स्वलक्षणा हि नदीसंज्ञा धिसंश्ञायां च गुणेन भवितव्यम् |
तत्र वचनप्रामाण्याज्नदीसंत्ञायां पिसंज्ञाभावः ।। ९४ ॥
15 तत्र वचनप्ामाण्याश्नदीसंज्ञायां तिजा न भविष्यति । किं कारणम् | भत्र
याभावात् ।
आश्रयाभावान्नदीसंज्ञायां पिसंज्ञानिवृत्तिरिति चेद्यणादेराभावः ॥ १९५॥
का्रयाभावान्नदीसं्ञायां धिसंज्ञानि वृत्तिरिति चेदेवमुच्यते | यणादेशो अपिन
प्रामोति ॥ वैष दोषः |
20 नद्याश्रयत्वाद्यणदेदास्य स्वस्य नदीसंत्ताभावेः ॥१६ ॥।
नद्यान्रयो यणादेश्चः । यदा नदीसंज्ञया विसंज्ञा वाधिती तते उत्तरकालं यणा-
देशेन भवितव्यम् । नद्याभ्रयत्वाद्यणादेशस्य हस्वस्य नदीसंज्ञा भविष्यति ||
बहुत्रीह्यथे तु ॥ ९७ ॥ `
बहुव्रीदिपरतिपेधायै तु रोषग्रहणं कर्तन्यम् । रेषो बहुत्रीहिः [२.२.२३] इति ॥
25 किं प्रयोजनम् |
# ७.३. १९२; (२६९). † ७,२,११९.
फ० १.४.९. | ॥ व्याकट्णप्रहाभाष्यम् ॥ ३०१
प्रयोजनमव्ययीभावोपमानदिगुकृ द्योपेषु .॥ ९.८.॥
अव्ययीभावे | उन्मत्तङ्गम् लोहितगङ्गम्" | उपमने । शखीदयामा कुमुद-
दयेनी† । द्विगु | पञ्चगवम् दशगवम् । कृद्ेपि | निष्कौशाम्बिः निर्वाराणसिः§ ॥
तच रोषवचनादोषः संख्यासमानाधिकरणनञ्समासेषु बहुव्रहै-
प्रतिषेधः ।॥ ९९ ॥ । ६
तत्र शेषवचनाहेषो भवति । संख्थासमानाधिकरणनञ्समासेषु बहुत्रीहेः प्रतिषेधः
्रामोति | संख्या | दीरावतीको देशः । बीरावतीको देशाः¶ | समानाधिकरण ।
वीरपुरुषको भरामः” * । नञ्समाते । अत्राढ्मणको देशः । अवृषलको देशाः1† |
कृदोपे च दोषवचनात्मादिभिनं बहुत्रीहिः ॥ २८ |
कृट्धोपे च शेषवचनास्ादिभिवहु््रीहिनं प्रामोति | प्रपतितपणीः प्रपणीकः | प्रप- 10
तितपकलाशचः प्रपलादहाक हतिः || अधैकसं्ञाधिकारे कथं सिध्यति | पएकर्सज्न[-
धिकरारे विप्रतिषेधाद्रहुवरीहिः । एकसंज्ञाधिक्ारे विप्रतिषेधाद्रहुव्रीहिभ॑विष्यति ॥
एकतज्ञायिकरि विपरतिगरेधाद्रहुर्रहैरिति चेत् क्त्ये प्रतिषेषः ॥ २९॥
एकसंज्ञाधिकारे विप्रतिषेष।दवहु व्रीहिरिति चेत् क्तार्थ प्रतिषेधो वक्तव्यः| निष्कौ-
्ाम्बिः निवौराणसिः ॥ तत्पुरुषोऽत्र वाधको भविष्यति | 15
तत्पुरुष इति चेदन्यत्र क्तायोत्मतिषेधः | २२ ॥
तस्पुरुष्र इति चेदन्यत्र क्ाथोलतिपेपो वक्तव्यः | प्रपतितपणैः प्रपणकः |
प्रपतितपलाशः प्रपलाशकं इति ॥|
सिद्धं तु प्रादीनां क्त्ये ततपुरुषवचनात् ॥ २३ ॥
सिद्धमेतत् | कथम् । प्र दीनां क्त्ये तत्पुरुषो भवतीति वक्तव्यम् ॥ 20
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि ।
पयोजनं हस्वसंज्ञां दीेष्नी ।॥ २४ ॥
स्वसंज्ञा दीर्षश्चतर्सज्ञे बाधेतेऽ9 ॥
# २.९. २९; (६.२.२१; ५.४. ६.४). † २.१. ५५; (५.४, २५४; १५३). { २.१. ५९; ५१; (६.२.१५).
$ २.१. ८४; (५.४, ९५६), ¶ृ (१.९. २०). +* (२.१९. ५८). †† (२.१.६). {‡ (२.२.९८४).
। 6९ ९.१. २७.
२०१ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [म० ९.४.१९
तिङ्ावेधातुकं लिङ्टोरार्धधातुकम् ॥ २९ ॥
तिडः सार्वधातुकसंज्ञां लिङ्खिटिराधेधातुकसंज्ञा वाधते" ॥
अपत्यं वृद्धं युवा ॥ २६ ॥ |
अपत्यं वृधं युवसंज्ञा वाधते! ॥
5 पि नदी २७॥
धिसंज्ञां नदीसज्ञा वाधते |
लघु गुर् ॥ १८ ॥
लघुेज्ञां गुरुसंज्ञा वाधते ||
पदं भम् । ५९॥
10 पदसंज्ञं भसंज्ञा वाधते¶ ||
अपादानमुत्तराणि धनुषा विध्यति कंसपाध्यां भुङ्के गां दोग
धनुर्विष्यतीति ॥ २० ॥
भपादानसंज्ञामु चराणि कारकाणि षाधन्ते | क | धनुषा विध्यति | कंसपात्र्यां
भुङे । गां दोग्धि | धनुर्भिभ्यति | धनुषा विध्यतीत्यपाययुक्तत्वा्च धुव्रमपाये
15 ऽपादानम् [१.४.९४ | इत्यपादानसंन्ञा प्रभोति साधकतमं करणम् [४२] इति च
करणसंज्ञा । करणसंज्ञा परा. सा भवति || कंसपात्र्यां भुद्गः इत्यत्रापाययु क्तत्वा-
च पु वमपायेऽपादानमित्यपादानसंज्ञा प्रामोत्याधारोऽधिकरणम् [४९]. इति चाभि-
करणसंज्ञा | अधिकरणसंज्ञा परा सा भवति ॥ गां दोग्धीत्यत्रपाययुक्तत्वाचापा-
दानसंज्ञा प्रामोति कतुरीस्िततमं क्म [४९] इति च कर्मसंज्ञा | कर्मसंज्ञा परा
20 सा मवति || धनुर्विभ्यतीत्यत्रापाययु्छत्वाचचपादानसंज्ञा पभ्रामोति स्वतन्तः ` कतौ
[९४] इति च कर्मसंज्ञा । कर्वृसंज्ञा परा सा मवति |
क्ुधहुहोरुपसृष्टयोः कमं संप्रदानम् 1 ३९ ॥
्रुयद्रुरोरुपसृष्टयोः कमता संप्रदानसंज्ञं वाधते.“ ||
* ३.४.१९३; ९६५; ९१६. ¶† ४.२. ९६२; १६३ { \.४.३-० $ १८८४. १०; ११.
4 २.४. ५४६९८. २८; २७
पा०९.४.९. | ॥ व्याकरेणयहामाष्यम ॥ ६०३
करणं पराणि साष्वासिरिछनत्ति ॥ ३२॥
करणसंज्ञं ` पराणि कारकाणि वाधन्ते | क्र | धनुर्विध्यति । असिरिक्नत्तीति |
अधिकरणं कम॑ गेहं परविराति ॥ ३३ ॥
भधिकरणसंज्ञां कर्मसंज्ञा वाधते। | क्र । गेहं प्रधिदातीति |
| अधिकरणं कतो स्थाली प्ति ।। ३४ ॥| £
भधिकरणसंज्ञां कतृसंज्ञा वाधते‡ । क | स्थाठी पचतीति |
अध्युपसृष्टं कम । ३५९ ॥
अध्युपसुषटं कमोधिकरणसंज्ञां वाधते$ ॥।
गल्युपसगेसंजञे कमेप्रवचनीयसंज्ञा ॥ ३६ ॥
गत्युपसगेसं जे कमेप्रवचनीयसंज्ञा वाधते¶ || 10
परस्मेपदमात्मनेपदम् ॥ ३५७ ॥
परस्मैपदसंज्ञामातमनेपदसंश्ञा वाधते“ ||
. समाससंज्ञा ॥ ३८ ॥ |
, समाससंज्ञा या याः परां अनवकाशाश्च तास्ताः पुवोः सावकाराथ्च वाधन्ते |
अ्थवत्मातिपदिकम् ।। ३९॥। 15
अथेवत्पातिपदिकसं्चं भवति ॥ |
गुणवचनं च ॥ ४० ॥
गुणव चनसं्ते च भवत्ययैवत् || |
समासकृत्तदधिताव्ययसवैनामासर्वलिङ्गा जातिः ॥ ४९॥
समास | समाससंत्ञा च वक्तव्या | कृत् । कृत्संज्ञा च वक्तव्या | तद्धित | ९0
तद्धितसंज्ञा च वक्तव्या | व्यय | भव्ययसंज्ञा च वक्तव्या । सर्वनाम | सर्व-
नामसंज्ञा च वक्तव्या | असवेलिङ्गा जातिरिस्येतच्च वष्कष्यम् |
# ९.४. ४२. -† ९.४. ४९; ४९. { ९.४, ४९९; ५८, § १.५. ४६; ४५. ¶ ९.४, ५९९; ४.०; ८दे
@# ६.४.९९; ६००,
३०४ | ॥ व्वाकरत्रपरहामाष्वम् ॥ [म० ९.४.९.
संख्या ॥ ४२ ॥।
संख्यासंज्ञा. च वक्तव्या ॥ .
ड् च| ४३॥।
इसंज्ञा' च वक्तव्या ॥ का पुनडुसंज्ञा । षट्संज्ञा ॥
£ एकद्रव्योपनिवेरिनी संतता ॥ ४४ ॥
एक द्रव्योपनिवेद्षिनी सं्ञेरयेतच वक्तव्यम् ||
किमथैमिदमु च्यते | यथान्यास एव भूयिष्ठाः संज्ञाः क्रियन्ते | सन्ति चैवात्र
काथिदपृर्वाः संज्ञाः | अपि चेतेनानुपूर्व्येण संनिविष्टानां वाधनं यथा स्यात् । गुणः
वचनसंज्ञायाश्चैतामिवं।धनं यथा स्यादिति ॥
0 विप्रतिषेधे परं कायम् ॥१।४।२॥
विप्रतिषेध इति कोऽयं शब्दः | विप्रतिपरवास्सिभेः कर्मव्यतिहारे घञ | इतरेत-
रप्रतिषेपो विप्रतिषेधः । अन्योऽन्यप्रतिषेषो विप्रतिषेषः ॥ कः पृनर्विप्रतिषेषः |
दरो प्रसङगवन्यायाेकस्मिन्स विप्रतिषेधः ॥ ९ ॥
दौ प्रसङ्गौ यदान्यार्थी भवत एकरस्मिथ युगपत्पराप्नुतः स विप्रतिषेधः | क पन-
15 रन्याथौ क चैकस्मिन्युगप्या्ुतः । वृक्षाभ्याम् वृक्षेष्वित्यन्या्ौ वृक्षेभ्य इत्यत्र
युगपदरामुतः ॥| किं च स्यात् | `
एकस्मिन्युगपदसंभवात्युवेपरमापेरुभयभसडः ॥ २ ॥
एकस्मिन्युगपदसंभवात्पुवेस्याश्च परस्या प्राप्रेरुभयप्रसङ्गः || इदं विप्रतिषिडं
यदुच्यत एकस्मिन्युगपद संभवात्पुवेपर प्रापरभयप्रसङ्ग इति } कथं ` हेकर्सिमिख नाम
20 युगपदसंभवृः स्यात्पूवेस्या्च परस्याथ प्रापेरुभयप्रसङ्गथ स्यात् | तेतद्िभरतिषिद्धम् ।
यदुच्यत एकस्मिन्युगपद संभवादिति कायेयो यगपदसंभवः शाखयोरुभयप्रसङ्कः ॥
तृजादिभिस्तुल्यम् ॥ ३ ॥
तृजादिमिस्तुल्यं प्रयोयः परामेति । तद्यथा । तुजादयः† पर्यायेण भवन्ति ॥
किं पुनः कारणं तृजादयः पययेण भवन्ति | `
# ७.२.१०; ९०३. † २.६. ६२३.
फ? १.४.२३. । व्याकरणयरहाभष्पिम् 11 भिः
-अनवयवप्रखङ्गासतिपदं विधेश्च || ४ ॥.
अनवयत्रेन प्रसज्यन्ते प्रतिपदं च विधीयन्ते |
अप्रतिपत्तिवाभयोस्तुल्यबलत्वात् ॥ ९ ॥
भप्रतिपत्तियो पनरुभयोः शालयोः स्वात् | किं कारणम् } वल्यबलस्त्रात् |
तुल्यबले ह्युभे शाले । तद्यथा । द योस्तुल्यवलयोरेकः परेभ्यो भवति | स वयोः.
पर्यायेण कायै करोति | यदा तमुभी युगपस्मेषयतो नानादिक्ष च कर्वे भवतस्तदा
यश्थसावविरोभार्थी भवति तत उभयोने करोति । किं पुनः कारणमुभयोर्न करोति|
यै गपद्यासं मवात् | नास्ति यौगप्येन संभवः ॥
तत्र प्रतिपस्यथं क्वनम् || ६ ॥
तत्र प्रतिपस्यथमिदं वक्तव्यम् || . | 19
तव्यदादीनां स्वप्रसिडधिः ॥ ७ ॥
ततव्र्यदादीनां' तु कायेस्याप्रसिद्धिः | न हि किंचित्तव्यदारिषु नियमक्रारि.शा-
श मारभ्यते येन तव्यदादयः स्युः | यञ्च मवतां हेतुव्येपदिष्टो ऽपतिपरत्ति्वीभयोस्तु-
ल्य बलत्वादिति त॒ल्यः सः सन्यदादिषु || वेष दोषः | अनवकाहास्तत्यदादय ड 1
च्यन्ते च ते .वचनाद्विष्यन्ति | यञ्च भवता हेतुष्येपदिष्स्तृजादिभिस्वुस्यं पयोयः 15
प्रामोतीति तल्यः स तव्यदादिषु || | |
एतावदिह सत्रं विप्रतिषेषे परमिति | पटिष्यति द्याचा्यैः | घङहती विप्रतिरेषे
यङाधितं तद्वापितमेवेति। | पनथ पटिष्यति | पुनःप्रसङ्कविज्ञानास्सिद्धमितिः } किं
फनरियता सतरेणोभयं लभ्यम् | ठभ्यभित्याह | कथम् | इह भवता ही हेत व्यपदिष्ै।
तुजादिमिस्तुल्य षयोयः प्रामोतीति च | भप्रतिपत्तिवभियोस्तुल्यवललवादिति वादितिं च .| %
तच्यदा तावदेष हेतुस्तजादिभिस्तुल्यं प्रवयौयः प्रामोतीति तदा ` विप्रतिषेषेः परमिस्थ-
नेन किं क्रियंते | नियमः | विग्रतिषेषे- परमेव भवतीति } तदैतदपपन्तं भवति
सकर द्भतौ विप्रतिषेपेः यद्वाधितं वह्ाधिकमेवेतिः | यदा स्वेषः हेतुरपरतिपत्तिर्वोभयोस्त्-
ल्यबटस्वादिति तदा विप्रतिषेधे परमित्यनेन किं क्रियते । हारम् । यिप्रतिषेषे परं
लाय द्भवति तस्मिन्कृते . यदि -पूवैमपि प्राभोति तदपि भवति । तरैतदुपपन्नं भबति 25
पन्ःप्रसद्भविज्चानास्विद्धमिति ॥ ।
= इ.९.९९. 1 २.२.०२१ २१०१ ५,१.६० ११२९१. ०१.८२० ०.२.९१ ०.२.९१२ २०५.
39 #
३०६८ ॥ म्थाकरभणमहाभाष्यम् ॥ [मे० ६.४.९7
विप्रतिषेषे परमिस्यु क्क ङ्गाभिकरि पृश्रमिति वक्तव्यम् | किं कृतं भषति । पू-
वविप्रतिषेषा नः पाठितव्या भवन्ति | गुणवृद्धौस्वतृज्वद्भाेभ्यो नुसम्पूवैविग्रतिषिदम् ।
नुमचिरतुज्य विभ्यो नुडिति* । कथं ये परविभ्रतिषेभाः । इच्वोतवाभ्यां गुणवृद्धी.
भवतो विपरतिपेधेनेति। | सत्रं ष भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु | कथं ये पुैविप्र-
5 विषेधाः । विपतिषेधे परमित्येव सिद्धम् । कथम् । परशाम्दोऽवं बहर्थः | अस्त्येव
- व्यवस्थायां वरते । तथथा | पूर्वः पर इति | अस्त्यन्यार्थे वर्ते । परपुश्रः पर
भायो | अन्वपुग्र ; अन्यभार्योति गम्यते | अस्ति प्राधान्ये वतते | तद्यथा । पर-
मियं. ्राद्म्यस्मिन्कुटुम्बे । भरधानमिति गम्यते । भस्तीष्टवाची परशब्दः । तद्यथा |
परं धाम गत इति । हृष्टं धामेति गम्यते | तय इष्टवाची परशब्दस्तस्येदं हणम् |
10 विभ्रतिषेपे प्ररं यदिष्टं त्डवति |
अन्तरङ्ग च| ८॥
भन्तरङ्गं च बतीयो भवतीति. वक्तव्यम् || किं प्रयोजनम् । ।
--. योजनं यणेकादेरोच्वोस्वानि गुणवृदधिदधिवेचनाछ्लोपस्वरेभयः ॥ ९ ॥
` गुणाश्गारेशाः | स्योनः स्योना | गुणश प्रमति यणदेद्चथः | परत्त्राहुणः स्यात्
15 बणादे रो भवस्यन्तर ङ्गतः | वदे वंणादेशः | थोकामिः स्थोकामिः | बृदिश प्रामोति
` शणारेशथं$ | परत्वादृदधिः स्यात् । यणादेकयो भवस्यन्तर ङ्गतः | दिवेचनाद्ण्छ-
देशः । दुद्युषति सुस्यूषति । हिवै चमं च प्ामोति , यणादेशथ¶ । निस्यत्वाद्वचनं
स्यात् } यणादेशो भवस्यन्तर ङ्गतः || भक्लोपस्य च यणादेशस्य च नास्ति संप्रधारणा ॥
स्वरा्यणादेशषः | शौकामिः स्यीकाभिः | स्वर भामति यणादे दाथ" “| परत्वात्स्वरः
२० स्यात् | यणादेशो मवत्यन्तरङ्तः | गृणादेकादेशाः । काद्रवेयो मन्त्रमपरयत् ।
गुणथ प्रामोस्येकादेराथ!† | परत्वाङ्ुणः स्यात् | एकादेशो भवस्यन्तरङ्तः || व॒दे-
रेकादेशः | वै्षमाणिः .सीस्थितिः । वृदिथ भामोययेकादेशाथः‡ | परत्वाहृदधिः
स्यात् । एकादेशो भवस्यन्तर ङ्कतः || हिवेचनादेकादेशाः। क्षाया भोादनो शौदनः ।
शौदनमिच्छति ्ौदनीयति.। शौदनीयतेः सन् जुश्चौदनीयिषति । हि्षचनं च प्रामो-
४६स्येकादेशथऽ । निस्यत्वा्र्वचनं स्यात् | एकादेशो भवत्यन्तरङ्तः | अ्ोपा-
देकादेशाः । श्यना शुने । अलोप परामोत्येकादे थ? । परत्वादघलोपः स्यात् ।
9 ७.१.९९४. 1 ७.९.१०१. द १२, ८९१९.६.०७. § ०२,९६०६.२.००. वू ६.१.९६०
=+ ५.९.६५७; ७७, 1 4.४,९०६;६.१.१०९. {प ०२. ९६०; ६.१.१६०९. 55§ ९.६.५८८
- धषु ६.०.९द२.९.६.९०८ ` |
पा०९.४.२.] ॥ व्याक्ररनप्रहामाष्यम्.॥ १०७
एकादेशो भत्रव्यन्तरङ्गतः | तैतदस्ति प्रयो जनस् | नास्त्यत्र विशेषो . ऽल्लोषेन
वा नित्रसौ सत्याः पूर्वस्वेन वा ।.भयमस्ति विशेषः । भ्ोपेन `निवृत्ती सदयामु-
दा्चनिवृ्तिस्वरः प्रसज्येत" । नात्रो दा्तनिवृत्तिस्वरः प्रामोति । किं , कारणम् ।
न गो न्साववणं [६.१.१८०] इति प्रतिषेधात् | नैष उदात्तनिवृत्तिस्वरस्य. भ्र-
तिषेधः । कस्य तर्हि | तृतीयादिस्वरस्य । यत्र॒ तहिं तृतीयादिस्वरो. नात्ति. | :5
शुनः पर्येति एवं तरिं न लाक्षणिकस्य प्रतिषेधं शिष्मः । किं वर्हि | येन केनधि-
छक्षणेन प्राप्रस्य विभक्तिस्वरस्य प्रतिषेधः | यत्र तर्हि विभक्ति नास्ति | बहृद्यनीतिः ।
यदि प्नरयमुदासनिवृत्तिस्वरस्यापि प्रतिषेधो विज्ञायेत | तेवं . शक्यम् । इहा
प्रसज्येत | कुमारीति । एवं तष्य चार्यप्रवृततिज्ञौपयति नो दाच्निवृत्तिस्वरः शुन्यव>
तरतीति यदयं चन्शष्दं गौरादिषु पठतिऽ। भन्तोदाताथें यलं करोति । सिद्धं हि 10
स्यान्डीवैष || स्वरादेकादेशः । सौस्थितिः वक्षमाणिः । स्वरथ प्राभोत्मेकादेदाथ¶ं | `
परत्वास्स्वरः स्यात् | एक्देद्ो भवस्यन्तरङ्गतः || गुणस्य चेच्वोर्यो् नारित
संप्रधारणा ॥ वृदेरिच्छोन्खे । स्तिः वीर्तिः | वृडिष प्रामोतीत्तवोवे च** | पर
स्वाहृदिः स्यात् । हस्वोरवे भषतो ऽन्तर ङ्गतः | दिर्वचनादिस्वोस्वे | धातिस्तीयते
आरोप्यते | दिर्व॑चनं च भरामोतीत्त्वोर्वे च1† | नित्यंस्वाद्विवैचनं स्यात् । हस्तत त्तवे 15
भवतो ऽन्तरङ्गतः || अष्लोपस्य चेश््ोख्वयोथ नास्ति संप्रधारणा ॥ स्वरे ` नस्ति
बिदोषः || -
दण्डि शीनामादुणः सवगदीर्षस्वात् ॥ १० ||
हण्किङहीनामाद्भुगः सवणैदीषैत्वाखयो जनम् | भयज इन्द्रम् भत्रप हन्द्रम्|
खष्ष इन्द्रम् क्ष इन्त्रम् | य इन्द्रम् त हन्द्रम् | आद्ुशशथ प्रामोति सत्र दीर्ध 20
च ‡‡ | परस्वात्सबगर्दी्षतवं श्यात् । आद्रुणो भवत्यन्तरङ्गतंः | |
| न वा पवर्णदीर्धष्वस्यानवकागास्वात् ॥ ९१ ॥
न त्रैवदन्तर ङ्केणापि सिध्यति । किं कारणम् | सवणेदीषत्वस्यानक्काशत्वाव |
नवका सवणेदीषत्वमाद्वुणं वाधेत ॥ तरैतंदन्तर डः ऽस्त्यनव्रकरार परमिति | इ-
हापि स्योनः स्परोनेति श्ाक्यै वक्तु न वा परस््राहणस्येति ||
ऊढपोरेकादेदा ईस्वलोपान्याम् ॥ ९२॥ ॐ
ऊ डापोरेकादेश हत्वलोपाभ्यां भवरत्यन्तर ्गंतः प्रयोजनम् | हैव्यादेकादेशः
+ ६.१.१६१. † ६.१.१६८... { ५.२.६९९. 6 ४.९. ४१. 4. ६.९. ९९.७; ३०१. `
#१.७,२., ९६९; ०.५. ६०० ०२. 11 ६.९. ९; 9१; १००; १०२. द] २.१.८३०.
. + ॥ व्याकारभप्हामोष्कय ।४: ` [म ०१.४१;
खटरीयति मालीयति । हैष्वं च प्रामरोत्येकदिकाध । परल्छ्कीस्वं स्वात् | क्कादेशो
भवतप्न्तरङ्तः || लोपरादेकादेराः | कामण्डकेय; भाद्रवाहियः | लोपश्च प्राभत्ये-
कषादेराथ† | परत्वालोपः स्यात् | एकादेशो भबत्यन्तरङ्गतः | भथ किम्थेमी-
स्क्लोपाभ्यामिव्युच्यते न लोपेत्वाभ्यामिव्येवोच्येव । संख्यातानुदेशो मा भूदिति ।
४ भाषो ऽप्येकादेश्चो लोपि भ्रयोजयति । चौडिः बालाकिः; |
आच्वनपुंसकोपसजनहस्वत्वान्ययवायविकादेरातुग्विधिभ्यः ॥ ९३ ॥
भन्खखनपुंसकोपस्जनहस्वस्वान्ययवायावेक दे शातुग्विधिभ्यो भवन्त्यन्तरङ्गतः ॥
वेन् वानीयम्। शो शानीयम् | ग्छै ग्लानीयम् । म्न स्लानीयम् | ग्लाच्छक्लम् म्लाच्छ-
त्म्। आत्वे च प्रामोव्येते च विधयः4 | परत्वदिते विधयः स्युः । जच्॑भववत्यन्त-
10 रङ्न्तः || नप॑सकोपसजनहस्वत्वं च प्रयोजनम् । अतिर्यत्र अतिन्वत्र | अतिरिच्छन्तम्
भतिनुच्छन्तम् | आराशखीदम् धानाश्यष्कुटीदम् । निष्को शाम्बीदम् निवोराणसी
दम् | निष्कौशास्निच्छक्चम् निवाराणसिच्छत्नम् | नपुंसकोपसर्जनहस्वस्वं च प्राभोस्येते
च विधयः**| परत्वादेते विधयः स्युः | नपंसकोपसजजनहस्वतवं भवत्यन्तरङ्गतः ॥
बुग्यणेकादेशगुण वृ व्यै खदीधेत्वमुमेच्वरीविधिभ्यः ॥ ९४ |
1 ` यगेकादेश गुणवृद्धी! दी षेत्वेत्वमुमे्वरीविपिभ्यस्तुगभवत्यन्तरङ्गतः || यणा-
देशात् । भभिविदत्र सोमछदत्र | एकादेशात् । अभिचिदिदम् तोमछदुदकम् ॥
गुणात् } अम्निचिते सोमद्ठते ॥ वृद्धेः | भ्र ऋच्छकः प्राच्छकः || भौच्वात् | भभिचिति
सोमद्धति || दोर्षत्वात् । जगद्याम् अनगद्याम् || हेत्वात् | जगस्यति जनगत्यति ||
मुमः | अभिचिन्मन्यः सोमद्न्मन्यः || एत्वात् | जगद्यः जनगद्ः || रीविधेः |
9० घुक्रत्यति पापकृत्यति ॥ |
भनडनङ्भ्यां चेति वक्तञ्यम् । उकृत् | षछङ्ृदृष्कतौ ॥ +
तुक् प्रामोत्येते च विधयः11 | परत्वदिते विधयः स्युः । तुगभवत्यन्तरङ्तः ||
| हयडादेरो गुणात् ॥ ९९ ॥ |
हय डादरेशो गुणाद्धवत्यन्तरङ्तः प्रयोजनम् | पियति रिविति | श्वडदे श
% प्रजोति गृणञ्चः‡ | परत्व्रह्वुगः स्यान् | इय डदेशो मवत्यन्तरङ्तः ॥
. "+ ०,४, ३; ६.९.९०१. क. ६.४. ४७; ६.९. ९०९. { ९.३.१९०, 6 ६.४.१५८,
थ ६.९. ४५; ६.९. ८; ७६ ## १.२. ४७; ४८; ६.९.७८; अ; ९०१.
11 ६.९. ७१; ०२; 8.१. ०७; ५०९; ७.२. ९९१; ६.९. ५१; ७.३, ९९९; ९०२; ७,४. देर; ६.९.६७.
1 ७.२.१०३; ७.४ 9 २७; ७,९. ९४; ६.३.२५. 7 {4 ४.४. 9 ७.० ८६, #
क्रि ९.४.२.] ॥ व्वाकरणमरलभान्यय-॥ ॐ
~ उवडादे दशेति वक्तव्यम् । दहरुव॑त् भाङ्धलुवत् ||
| श्वेः संप्सारणपूैत्वं यणादेदात् ॥ ९६॥
श्वेः संप्रसारणपवैस्वं यणादेशादवस्यन्तरङ्गतः प्रयोजनम् | दयुश्ुवतुः शुगुवुः |
परवेततरं च प्राप्रोति यणादेश |. पर स्वाद्यणादे शः स्यात् । पूवस भवत्यन्तरङ्गतः ||
ह आकारलोपात् ॥ ९४७ ॥ |
ह. आकारलोपास्पूवेस्वं, भवत्यन्तरङ्गतः प्रयोजनम् । ज्हुवतुः जुहुवुः | पर्व
स्वै च प्रापरोत्याकारलोपथ | परत्वादाकारलोपः स्यात् | पृयैस्वं भवत्यन्तरङ्गतः ||
स्वरो - लोपात् | ९८ ॥
स्वरो लोपाद्वत्यन्तर द्कतः प्रयोजनम् । भीपगवी सौदामनी ] स्वरथ प्रामोति
लोपः | परत्वाह्ठोपः स्यात् | स्वरो भवत्यन्तरङ्गतः || ` : 10
| परत्ययविधिरेकादेदात् ॥ ९९ ॥
` प्रस्ययनिधिरेकादे शाद्वत्यन्तर ङगवः प्रयोजनम् | भभिरिन््रः ] वायुरूदकम् |
परस्ययविधिथ प्राभोस्येकदेदाथ | परस्वादेकादेशाः स्यात् | प्रत्ययविधिभेवबत्यन्तर-
इःतः ॥ |
यणादेशायेति वक्तष्यम्¶ । अभिरत्र । वायुरत्र ॥ 15
खदिरो वणेविधेः | २० ॥
लादेशो बणेविपेभेवत्यन्तर ङ्गतः प्रयोजनम् | पचत्वत्न | पठत्वत्र ¡ लदि काच
धाप्रोति यणादेश । परस्वाद्यणादेशः स्यात् | लादेशो भवत्यन्तरङ्गतः ||
तद्युरुषान्तोदान्तष्वं पृर्वपदभरकृतिस्वरात् ॥ २९ ॥
तस्पुरषान्तोदा त्तत्वं पुत्रपदग्रकृतिस्वराद्वस्यन्तर ङ्गतः प्रयोजनम् । पूर्वश्चाला- 20
प्रियः अपरद्ालाप्ियः । तत्परषान्तो दात्तत्वं च प्राभोति पर्वपदप्रकृतिस्वरस्वं च++ |
पर स्न त्पुवेपदप्रकृतिस्वरत्वं स्यात् । ततपुरषान्तोदात्तस्वं भवव्यन्तरङ्गतः ||
एतान्यस्याः परिभाषायाः प्रयोजमामि यदयैमेषा परिभाषा कर्वध्या || धरि
सन्ति प्रयोजनानीस्येषा परिभाषा क्रियते ननु चेयमपि कतैब्यासिद्धं अहिरङ्गल- `
। । ९.१; १०८} ६.४. ८२. + ६.९, ९०८; ६.४. ६४. ‡ २.९. १; ४; ६.४.१४८.
6 ४.९. २; ९.९.९०९. ¶ ९.१. ७७. +न ३.४. ६ ६.६. ०७, ¶ ९.१.२२३; ९२.१९.
६९० ॥ न्याकरमरामाच्वय्द् ॥ ६ म० ९.४.१६
लषणमन्तर र्षण इति । किं प्रयोजनम् । परचावेदंम् † ककामेदम् । भसिदधत्वा-
दहिर ङग लक्षणस्य गुणस्यान्तर ्गलक्षणननैस्वं * मा भूदिति । उमे तर्हिं कतेष्ये | नेत्याह |
अनयैव सिद्धम् | इहापि स्योन स्वोनेत्यासिदत्वाद्रहिरङ्गलक्षणस्य गृणस्यान्तर ङ-
लल्षणो यणादेशो भविष्यति || यथसिदधं बहिरङ्गलक्षणमन्तरङ्गलक्षण इत्युच्यते
5 ऽ्तथः हिरण्यद्यः असिदव्वाद्हिर ङ्गलक्षणस्योढो ऽन्तर ङ्गलक्षणो यणादेशो न प्रा-
भरोति। | त्ष दोषः | असिद्धं बहिर ङ्गरक्षिगमन्तर ङलक्षण इत्यु च्छा ततो वदेयाभमि
नाजानन्तर्ये बहिषटुभकुभिरिति । सा तर्षा परिभाषा -करैव्या । न कतेव्या | भा- ,.
सार्यपरवृत्तिज्ञीपयति .मवत्येषा परिभाषेति यदव षस्वतुक्तोरलिडधः [६.९.८६] £“
स्थाह || इयं तर्हि परिभाषा कतैव्यासिदधं बहिर ङुलक्षिणमन्तरङ्लक्षण इति । एषा
10 च न कतैव्या । आवचार्यप्रवृततिर्शापयति भवस्येषा परिभाषेति यदयं वाह रव
, . [६.४.९३ २| इत्यु रास्ति ॥ |
तस्य दोषः पवैपदोतच्तरपदयोवृंडिस्वरावेकदिशात ।। २२ ॥
तस्यैतस्य तक्षणस्य दोषः ` पर्वो्तश्पदयो व दिस्वरावेकादेशादन्तर ङुतोऽमिनि-
तान्त प्रापुः । पु्वषुकामशामः अपरेषुकामदामः‡ । गुडोदकम् तिलोदकम् । उ-
35 दकेऽकेवठे [६.२.९६] इति पूर्वो रपद योष्येपवगोमावाच्च स्यात् || नेष दोषः )
' ¦ आआावारयपवृत्तिक्ञीपयति पुर्ोल्रपद योस्तावेत्काये भवति नैकादेहा इति यदयं नन्तर-
स्य परस्य [७.३.२२] इति प्रतिषेधं शास्ति | कथं कृत्वा ्ञापकम् । इन्द्रे डाव-
चौ | तत्रैको यस्येति च [६.४.१४८ | इति लोपेन हियते ऽपर एकादेदोन | ततो
ऽनस्कर इन्द्रः संपक्चः | तत्र कः प्रस ङो वृद्धः | परयति स्वाचार्यैः पूवेषदोत्तरपदयो-
2 स्तावस्कायथे भवति भैकारेश हति ततो नेन्द्रस्य परस्येति प्रतिषेधं दासि |
यणादेरादियुवो । २६ ॥
अणादे शादिथुवावन्तरङ़तोऽभिनिरवु लाच प्रामुतः | वैयाकरणः सौवश्व इति ।
रक्षणं हि मवति य्वोमैदधिप्रसङ् हयुवौ भवत इति || नैष दोषः | अनवकाशा-
` विञुवौ । अचीस्युस्यते | किं पुनः कारणमचीव्युष्यते । इह मा भूताम् । रेति-
४ क्रायनः ओपगव इति । स्तमत्रयुवी लोपो भ्वोवेलि [६.९.९६] इति लोपो भ-
विष्यति | यत्र तर्हि ऊोपो नासि | व्ैयमेधः प्रियंगव इति ॥ |
ˆ . क ३.४. ९. ` त „४, १९; ६.९,७७, “ ˆ `{ १.३. ९४ ६.२,२३.०५.
पो०.१.४.२. | ॥ . व्याकरणग्रह्ानास्यव ॥ ' ३६१
उसि .षरदूपाच || २४.॥
उसि पररूपाशचान्तरङ्गतो ऽभिनिवत्तादियादेशो न प्रामोति. | पचेयुः यजेयुः ॥।
प्रेष दोषः | नैवं विज्ञायते या इ्येतस्येय्मवतीति । कथं तर्हि | यास् इत्येतस्येव्
भवतीति ||
लग्छोपयणयवायविकदिदेभ्वः | २९ ॥ _ ` £
लोपयणयवायाबेक देशेभ्यो लुम्बलीयानिति वक्तव्यम् | सोकात् | मान्ियो
घ्य `गोमसियः । वमलसियः | गो मानिवाचरति गो म्यते । यवमत्यते- || यणा-
देशात् | चामेण्यः कुलं ब्रामणिकुलम् | सेनान्यः कुर सेनानिकुलम् || अयवा-
याौवेकारेशभ्यःः | गवे हितं मोहितम्. ] रावः कुलं रैकुरम् | नात्रः. कुठे नीकु-
लम् | वृकाद्यं वृकमवम् ॥ लुक प्रामोस्येते च विधयः। |-पर्ल्वारेते चिधयः स्युः | 10
लग्बली यानिति वक्तव्यं लुग्यथा स्यात् | ` :
इति श्रीभगवत्पतस्लिषिरंचिते ध्याकरणमंहामाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थ
पारे ` प्रथममदधिकम् ॥ |
* ६.९, ९६; ७.३. ८० † २.४. ७१५ ६.९. ९८ ०७; ०८; ६०९.
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३१४ ।॥ ष्थाक्गगयहाभाष्यम् ॥ [भ०९.४.२
यू ख्याख्यौ नदी ॥ १। ४ ।२. ॥
यू इति किम्थेम् । खटा माला | किं च स्यात् | खट्ाबन्धुः मालावन्धुः |
नदी बन्धुनि [ ६. ९. १०९ ] इत्येष स्वरः प्रसज्येत । इह च वहुखटुक इति नथु-
तथच [९.४.९९ दे [हति नित्यः कप्मसज्येत || नैष दोषः | शाचायेप्रवृ्तिर्ापयति
5 नापो नदीसंज्ञा भवतीति यदयं उराघ्नश्याप्नीभ्यः | ७.३.९९६ | इति परथगान्बरहणं
करोति || इह तरिं मात्रे मातुरित्याण्नद्ाः [ ९९२ | इत्याट् प्रसज्येव ||
किं पुनरिदं दीधयोभ्हणमादहोस्विद्धस्वयोः । किं चातः | यदि दीषेयोयेहणै यु
हति निदंशो नोपपद्यते | दीदि पूर्वैसवणेः प्रतिषिध्यते" ॥ उत्तरत्र च विशोषणं
न प्रकल्पेत यू हस्वाबिति | यदिव न हस्वी | अथ हस्वौनयु.| यु हृस्वौ चेति
90 विप्रतिषिद्धम् || भथ हस्वयेर्है . शाकटे अत्रापि प्रसज्येतः | नेष दोषः | अवदव-
मन्र विभाषा नदीसं्ैषितव्या | उभयं दीप्यते | हे शकटि हे शकट इति ॥ इह
तर्हिं शाकटिबन्धुरिति नदी बन्धुनीस्येष स्वरः प्रसज्येत | हह च बहृश्ाकटिरिति
नश्यतति नित्यः कप्रसज्येत || नैष दषः | डति हस्वश्च [ १.४.९६ | इत्यव॑ |
नियमार्थो भविष्यति | छिस्येव यु हृस्वौ नदीसंज्ञौ भवतो नान्यत्रेति || कैमर्थ-
15 क्याच्नियमो भवति | विधेयं नास्तीति कत्वा । इह चास्ति विधेयम् | किम् | नि-
व्या नदीसंज्ञा प्रप्रा सा विभाषा विधेया | तन्नापूर्वाो विधिरस्तु नियमो अस्त्वत्व
पुवं एव विधिर्भविष्यति न नियमः || अथायं नित्यो योगः स्यासकल्पेत निय-
मः | वाढं प्रकल्पेत | निव्यस्तर्ि भविष्यति | तत्कथम् । योगविभागः करिष्य-
ते$ | इदमतसि । यू ख्याख्यौ नदी | नेयङुबङ्स्थानावस्जी [४| } वामि [९]
20 ततो डति | छिगति चेयड्वङ्स्थानी यू वाली नदीसंज्ञौ न भवतः | ततो हस्व । द्स्वौ
चयु ख्याख्यौ डिति नदीसंज्ञौ भवतः । इयङुवङ्स्थानौ वा नेति च निवृत्तम् ॥
यद्येवं श॒कटये अत्र गुणो न प्रामोति | द्वितीयो योगविमागः करिष्यते दोषमहणं
न करिष्यते * । कथम् । इदमस्ति | यू ङ्याख्यौ नदी | नेयङुवङ्खस्थानाषसी ।
वामि | ततो डिति | डिति चेयङ्कवङ्स्थानौ यू वाखी नदीसंज्ञौ न भवतः | ततो
%दस्वौ । हष्वौ च यू ख्याख्यौ डिति नदीसंज्ञौ भवतः | हयङ्वङ्स्थानौ वा नेवि.
च निवृतम् | ततो षि | धिसंज्ञौ च भवतः ख्याख्यौ यु हस्वौ डति | ततो
ऽखखि | सखिव्जिती च यू स्वी विसं भवतः । क्याख्वौ डितीवि च निवृत्तम् ॥
फा ९.४३. | ॥ उधाकर्णंहोयष्यिंय ॥ १९३.
यदि तहि शेषग्रहणं न क्घेग्रते. नार्थं एकेनापि योगविभागेन | अविशेषेण नदीसं-
ज्ोरसगैः । तस्या हस्वयोर्धिसंज्ा वाधिका | तस्यां नित्यायां प्राप्रायामियं डिति वि-
माषारभ्यते || अथवा पुनरस्तु दीधयोः । ननु चोक्तं॒निर्दशो नोपपद्यत इति दी-
वदि पूर्वसवर्णः प्रतिषिध्यत इति | वा छन्दसि [३.९.९०६] इत्येवं भविष्यति |
न्दसीय्युच्यते न चेदं छन्दः | छन्दो वत्सतरा गि भवन्तीति ॥ यदप्युच्यत उत्तरत्र ४
विशेषणं न प्रकल्पेत यु ह्रस्वाविति यहि यून दृस्तौ अथहस्वौनयु वु हस्वा-
विति विप्रतिषिद्धमिति । वैतद्िमतिषिद्धम् | आहायं यु, हृस्वाविति । यादिष नं
स्वौ | अयह्स्वौनयु | त एवं विज्ञास्यामः य्वोर्यौ हृष्वाविति । कौ च य्वो-
हैस्वो | सवर्णौ ||
भथ छयाख्य(विति कोऽयं शब्दः 1 लियमाचक्षति ख्याख्यौ | यद्येवं ख्या- 10
खय्रायातरिति प्रभोति । अनुपसर्गे हि को विधीयते | न सर्हीदानीभिद् भवत्ति
यस्मिन्दर सहस्राणि पुत्रे जति गवां ददी] `
ब्राह्मणेभ्यः प्रियाख्येभ्यः सोऽयमुञ्छेन जीवति ॥
न्दोवत्कवयः कुवन्ति | न हयेषेिः ॥ एवं तर्हि कमैसाघनो मूक्िष्यतिः |
लियामाख्यायेते छ्याख्यौ | यदि कर्मसाधनः कृस्लिया धातुखियाश्च न स्सिभ्यति | 1४
तन्ल्यै लदेम्ये भ्रव भत्रे ॥ एवं तर्हि बहुत्रीहिभेविष्यति । जियामाख्यानयोः ख्या-
ख्यौ । एवमपि कूल्लिया, धातुलियाथच न सिध्यति | तन्व्ये -लकम्ये त्रिध भुत ||
एवं तर्हिं त्रिज्मविप्यतिर || अथत्रा पुनरस्तु क एव | जियमाचक्षाते र्याख्यावि-
ति | ननु चोक्तं ठ्यख्यायाविति प्रामोति भनुपसर्गे हि को विधीयत इति । मूल-
विमुजादिपाठस्को भविष्यति¶ । एवं च कृत्वा सोऽप्यदोषो भवति यदुक्तं . "0
` यस्मिन्दरा सदनानि पुत्रे जति गवां ददौ |
बाहमणेभ्यः भ्रियाख्येभ्यः सोऽ्यमुञ्छेन जीवतीति ॥|
` अथाख्याभ्रहणं किमथंम् |
नद्रीसंज्ञायामाल्याग्रहणं खीविषयाथम् | ९ ॥
` . नदीसंज्ञायामाख्या महणं क्रियते खीविषयाथेम् | लीनिषयावेव य नित्यं तयोरेव 2
नदीसंज्ञा यथा स्यात् । इड -मा भूत् }` ब्रामप्ये सेनान्ये खिया इति ॥ `
> ३.२.१५. 1 २.२. ३. { २.२.५८१, - § ३.३ ४५, १ दे.दे. ५५.
40 ।
३९०८ ॥ व्याकस्णपहाभाष्यय ॥ 1 म० ९.४.९.
प्रथमलिङ्ग्रहणं च ।॥ २ ॥
प्रथमलिङ्परहणं च कव्यम् | प्रथमलिङ्के यौ कयाख्याविति वक्तव्यम् || किं
प्रयोजनम् |
प्रयोजनं किब्डुप्समासाः ।। ३ ॥
४ क्ष् | कुर्वः ब्राह्मणाय | दुप्। खरकुट्चै† त्राह्मणाय | समास | अतित-
नद्यै ब्राह्मणाय | अतिरुकम्यै ब्राह्मणाय || तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | अवय-
वख्रीविषयल्ास्सिद्धम् । अवयवोऽत्र खीविषयस्तदा्रया नदीसंज्ञा भविष्यति|
अवयवसख्रीविषयत्वास्सिद्धभिति चेदियङ्वडस्थानप्रतिषेधे यण्स्थान-
प्रतिषेधप्रसङ़ी ऽवयवस्येड्वडस्थानत्वात् ॥ ४ ॥
10 अवयवसल्ीविषयत्वास्सि द्धमिति चेरियङुवडस्थानप्रतिषेपेः यण्स्थानयोरपि य्वोः
प्रतिषेषः प्रसज्येत | ध्ये प्रभ्ये$ ब्राह्मण्यै | किं कारणम् | अवयवस्येयङुवड-
स्थानस्वात् | भवयवो अत्यङुवडस्थानः4 |
सिद्धं स्वङ्रूपग्रहणाद्यस्यङ्स्येयुवो तत्पतिषेधात् ॥ ५ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । अङकरूपं गृह्यते । यस्याङ्स्येयुबौ भवतस्तस्येदं महणं न
15 चैतस्याङ्स्येयुबौ भवतः ||
हस्वेयुष्स्यानप्रवृत्तौ च खीवचने ॥ ६ ॥
स्वौ चेयु्स्थानी च प्रवृत्तौ च प्रकु . प्रवृत्तेः खीवचनावेव नदीसंज्ञौ भवत
इति वक्तव्यम् । शकटे" अतिशकट्यै ब्राह्मण्ये | क मा मृत् । दाकटये* भति-
दाकटये ब्राह्मणाय । पेन्वै अतिषेन्वे ब्राह्मण्ये | क मा भूत् | घेनवे अतिषेनवे
0 ब्राह्मणाय | भ्रियै अतिभय ब्राह्मण्ये | क मा भूत् । श्रिये अतिभ्िये ब्राह्मणाय ।
भवै अतिभ ब्राह्मण्यै | क मा भूत् | भुवे अतिभुवे ब्राह्मणाय ॥
अपर आह । हस्वौ चेयु्स्थानी च प्रवृत्तावपि सख्रीवचनावेव नदीसंज्ञो भवत
इति वक्तव्यम् । शाकटचै अतिदाकण्ये ब्राह्मण्यै | क मा भूत् | शकटये अतिरा-
कटये ब्राह्मणाय | धेन्वै भतिषेन्वे ब्राह्मण्यै | क मा भूत् । धेनवे अतिधेनवे ्ा-
2४ ह्यणाय | भ्रिधै अतिभरिवे ब्राह्मण्ये | क मा मुत् | भिये अतिभ्रिये ब्राह्मणाव |
भवै अतिभुवे ब्राह्मण्ये । क मा भूत् । भुवे अतिभुवे ब्राह्मणाय ||
* ३.१. ८; ३.२. ५७८. † ५.३. ९८, { १.४. ४. § ६.४.८२. षु ६.४, ७७, #क ९.६. ९८.
पा० ९.४.९.९२.] ` ॥ व्याकरणमहाभध्यम् ॥ ` ३९५
किमर्थे पुनरिदमुच्यते । प्रधमलिङ्कप्रहणं चोदितम् | तदैष्यं विजानीयात्सर्व
मेतदिकल्पत इति । तदाचार्यः सुह हूतवान्वाचष्टे हस्वौ चेयुर्स्थानौ च प्रवृत्तौ च
प्रकु प्रव॒त्तेः सख्रीवचनावेवेति ||
्ीयुक्त “छन्दसि बा ॥१।४।९॥
योगविभागः कतेव्यः | षष्टीयुक्त प्डन्दसि । षष्ीयुक्तः पतिशब्द्डन्दसि वि~ 5
संज्ञो भवति | ततो वा | वा छन्दति सर्वै त्रैषयो भवन्ति | सुपां व्यत्ययः |
तिडं व्यत्ययः | वणेव्यत्ययः | लिङ्गव्यत्ययः | कार्व्यत्ययः | पुरूषध्यत्ययः |
भात्मनेपदव्यस्ययः । परस्मैपदव्यत्ययः ॥ ` सुपां व्यत्ययः | युक्ता मातासीद्धुरि
दक्षिणायाः | दक्षिणायामिति प्राप्रे || तिडनं व्यत्ययः । चषाठं ये अश्वयूपाय
तक्षति । तक्षन्तीति प्राप || वणेव्यत्ययः | च्रिष्टुभौजः शुभितमुम्रवीरम् । सुहितमिति 10
प्ररे ॥ रिङ्व्यत्ययः | मधोगृह्णाति । मधोस्तृप्रा इवासते | मधुन इति प्राप्रे ॥
कालव्यस्ययः । शऽप्रीनाधास्यमानेन । श्वः सोमेन यदेयमाणेन | शर. आधाता शो
यष्टेति प्रापे" ॥ पुरूषव्यत्ययः । अधा स वीरैदेश्चभिर्षियूयाः । वियुयादिति प्रते ||
, आत्मनेपदव्यत्ययः । ब्रह्मचारिणाभिच्छते | इच्छतीति प्रापे | परस्मैपदव्यत्ययः |
प्रतीपमन्य ऊर्भियभ्यति । अन्वीपमन्य ऊर्मियुभ्यति | युध्यत इति प्रपरे || 15
यस्माखव्ययविपिस्तदादि प्रस्यये ऽङ्म् ॥ १. । ४ । १२ ॥
यस्मादिति व्यपरेश्चाय ॥ भथ प्रत्ययभ्रदणं किमथेम् । यस्मादिपिस्तदांदि पर
स्ययेऽद्कमिती यस्युच्यमाने खी हयती† खीयतीत्यत्रापि प्रसज्येतः | प्रत्ययम्रह्णे पुनः
क्रियमाणे न दोषो भवति || भथ विधिपहणं किमथेम् | यत्मासत्ययस्तदारि प्र
त्ययेऽङ्भितीयस्युच्यमाने दधि अधुना मधु अधुना अत्रापि प्रसज्येत¶ | विधि- 20
हणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || तदेतत्मत्ययम्रहणेन विधिमरहणेन च समु-
दितेन क्रियते संनियोगः।| यस्माच्यः प्रत्ययो विधीयते तदादि तस्मिन्न ङ्संज्ञं भवतीति।
भथ तदादिव्रहणं किमथम् |
# ३२,३, १५. † ५.२. ४०;७.२.२; ६.३.९०; ६.४. १४८. { ६.४. ९४८.
§ ५.१. ९७, थु ६.४. २४८; ७.१. ७३,
२१९.६ ` ॥ च्याकरनहाभास्यय ॥ [ म०९.४.२.
अङ्गखनज्ञायां तदादिवचनं स्यादिनुमथेम् । ९ ॥
अङ संज्ञायां तदादिब्रहणं क्रियते ्याद्यथं नमथ च || स्यद्यये तावत् | करि-
प्यावः करिष्यामः" || नुमर्थम् | कुण्डानि वनानि ॥
मित्डटोरूपसंख्यानम् ।। २ ॥
$ भित्वतः छद्धुतथोपसंख्यानं कर्तव्यम् | मित्वतः | भिनत्ति छिनत्ति | अभिनत्
भच्छिनत् | खङतः । संचस्करतुः सं चस्करुः§ || किं पुनः कःरणं न सिध्यति | टो
बहिर ङ्त्वात् । बहिर ङः सुद् । अन्तरङ्गो गुणः | भसिद्धं बहिर ङ्ग मन्तर ख । वश्य -
तयेतत् । संयोगादेगुणविधाने संयोगोपधग्रहणं कृअर्थम्रगृ । यदि संयोगोपधम्रहणं
क्रियते नाथः संयोगारिग्रहणेन | इहापि सस्मरतुः सस्वरूरिति संयोगोपस्येत्येव
10 सिद्धम् । भवेदेवमर्थन नाथेः | हदं तु न सिध्यति सं चस्करतुः संचस्कषः || कि पुनः
कारणं न भ्वति | इह तस्य वा ग्रहणं भवति तदादे न चेदं तन्नापि तदादि ।
| । सिद्ध तु तदाद्यादिवचनात् ॥ २ ॥
तलिदधमेतत् | कथम् | तदाद्ा्ङ्संजञं भवतीति वक्तव्यम् । किमिदं तदाया-
दीति । तस्यादिस्तदादिः | तदादिरादियैस्य तदिदं तदाव्यादीति || ख तर्हि तया
15 निर्देशः कतेग्वः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो ऽअ द्रष्टव्यः | तव्यथा | उष्टूमुखमिष
मुखमस्वोष्टमुखः 1 खर सुखः । एवं तदाश्यादि तदादीति |
तदेकदे राविन्ञानाद्रा सिद्धम् ॥ ४॥
तरेकदेशविज्ञानादा सिद्धमेतत् । तदेकदेराभूतं तद्वदणेन गृह्यते | तद्यथा ।
गड यमुना देवदत्तेति | अनेका नदी गड यमुनां च प्रविष्टा गङययमुनाभ्रहणेन
20 गृह्यते । तथा देवदत्तास्थो गर्भो देवदत्ता्णेन गुद्यते || विषमं उपन्यासः | इह
केविच्छब्दा अक्तपरिमाणानामथौनां वाचका भवन्ति य एते संख्याशब्दाः परि-
माणराब्दा्च | पर्व सतेत्येकेनाप्यपाये नं भवन्ति | द्रोणः खार्याहकमिति नैवाधिके
भवन्ति न च न्यूने । केचिच्यावदेय तद्वति तावदे वाहूयं एते जातिशब्दा गुण-
दाब्दाश्च | तैलं घृतमिति खायोमपि भवन्ति द्रोणे अपि } भुक्को नीलः कृष्ण इति
95 हिमवत्यपि भवति वटकभिकामात्रे ऽपि द्ये । अङ्कसंन्चा चाप्यक्तपरिमाणानां
क्रियते सा केनाधिकस्य स्यात् | एवं तद्यचायेप्रवृत्तिज्ञोपयति तदेकरेशभूतं तद्र
* ०.२.९०९. † ६.५.८. ‡ २.९.०८; ९.४.७६५. § ६१.९३६; ०,४.९०. बु ७,४.९०५.
पार १.४.१३. ] ॥ उ्वाकरणयहाभाध्यम् ॥ ३१६.
हणेन मृश्चत इति यदयं नेदमदसोरकोः [७.९.९९] इति सककारयोः प्रतिषेधं
शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञापकम् । इदमदसोः कायेमुच्यमानं कः प्रसङ्को यत्सक-
कारयोः स्यात् । पदयति त्वाचयेस्तदेकदेशभूतं तद्भहणेन गृह्यत इति ततः सक-
कारयोः प्रतिषेधं शास्ति ॥ | _ |
अथ द्वितीयं प्रत्ययग्रहणं कमथम् ।
परस्ययग्रहणं पदादावभसङर्थम् ॥ ५ ॥
रत्ययम्रहणं क्रियते पदादावङ्सज्ञा मा भूदिति | किं च स्वात् | व्यर्थम्
श्यर्थम् भ्व्थम् | अङ्गस्येतीयदडुवड स्याताम्! ||
परिमाणार्थं च ॥ £ ॥
परिमाणा च द्वितीयं प्रत्ययग्रहणं क्रियते | यस्मात्पत्ययविधिस्तदा्ङ्गमिती- 10
यस्युच्यमाने दाशतयस्याप्यङगसेज्ञा प्रसज्येत |
तत्ता्दि कतैव्यम् । न कतेव्यम् । केनेदानीमङ्का्यै भविष्यति | प्रत्यय इति
प्रकृत्याङ्कायेमध्येष्ये | यदि प्रत्यय इति प्रकृत्याङ्ककायेमधीषे पराकरोत् उपदिष्ट
उपसमौस्पवौवडादी प्रामुतः† | |
सिद्धं तु रत्ययग्रहणे यस्मात्स तदादितदन्तविन्ञानात् ॥ ७ ॥ . ` 15
ज्तिद्धमेतत् } कथम् । प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स प्रत्ययो विहितस्तदादेस्तदन्तस्य च
ग्रहणं भवतीव्येषा परिभाषा कतेव्या ||. कः पुनरत्र विदोष एषा परिभाषा क्रियेत
प्रत्ययमहणं वा | अवरयमेषा परिभाषा कतेव्या । बहृन्येतस्याः परिभाषाया
प्रयो जनानि ।
प्रयोजनं धातुप्रातिपदिकमरत्ययसमासतादितविधिस्वराः ॥ ८ ॥ %
धातु | देवदत्तथिकीषंति । संघातस्य धातुसंज्ञा प्रामोतिः || प्रातिपदिक | देवदत्तो |
गार्ग्यः | संघातस्य प्रातिपदिकसं्ता पामोति | भस्यय | महान्तं पुतामिच्छति | संघाता-
सत्ययोत्पत्तिः प्राभोति्ण || समास । ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः | संघातस्य समाससंज्ञा
प्रामोत्ति+**.|| ताद्धितविधि | देवदत्तो गाग्योयणः । संघातात्तद्धितो त्पत्तिः प्रामोति।†1 ||
स्वर । देवदन्तो गाग्यैः | संघातस्य 6नित्यादिर्नित्यम् [६.१.९९७] इत्यादयुदान्तत्वं 2
क
ॐ ६.४, =; ७९. † ६.४. अ; य् 1 २.९. २) २.४. ७९. § ९.२. ४६; २.४.७६.
¶ ३.९. <. ५२ २.९.८. 1} ४.९. ९०९ २.४.५६.
९१७ ॥ व्याकरणयहाभाष्यय् ॥ , „ [म९.४.२.
भ्रामोति ॥ प्रस्ययब्रहणे यस्मार्घ तदादेस्तदन्तस्य महणं भवतीति न दोषो भक्ति ||
सा तर्षा परिभाषा क्ैव्या | न कपैव्या | एवं वश््यामि | यस्मासस्ययविधिस्तरादि
भत्यये गृह्यमाणे गृ्यते | ततोऽङगम् । अङुसं्ं च भवति यस्मासस्ययविधिस्तदादि
प्रत्यये ||
5 यदि प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स त दादेभरणं भवतीत्युच्यते अवतप्रनकुलस्थितं त ९-
तत् उदकेविर्षीे त एतत् सगतिकेन सनकुलेन च समासो" न प्रामोति । एवं
ति प्रस्ययमहणे यस्मात्स तदादेभ्रेहणं भवतीच्युत्का ततो वश्यामि
कृद्रहणे गतिकारकपूवैस्यापि । ९ ॥
कृ हणे गतिकारक पुवैस्यापि प्रहणे भवतीरयेषा परिभाषा कतेव्या || कान्य -
10 तस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि ।
प्रयोजनं समासतद्धितविधिस्वराः || १० ॥
समास | अवतपेनक्ुरस्थितं त एतत् । उदकेविश्शीणै त एतत् । सगतिकेन
सनकुठेन च समासः सिद्धो भवति | समास || तद्धितविधि | सांकूटिनम् व्याव
करोरी । संघातात्तद्धितोत्यन्तिः सिद्धा भवति । तदडधिताविधि || स्वर | दरात्
15 जायतः दुरादायत इतिः | अन्तस्थाथषञ्क्ताजवित्रकाणाम् | ६.२.९४३१४४|
इत्येष स्वरः सिद्धो भवति ॥ कृ द्रहणे गतिकारकपवैस्यापि ब्रहणं भवतीति न दोषो
भ॑वति || सा तर्षा परिभाषा कतेध्या । न कतैव्या | जा चार्यपरवृत्तिज्ञोपयति भ-
वस्येषा परिभाषेति यदयं गतिरनन्तरः [६.२.४९] इत्यननतरमहणं करोति ॥
सुप्तिङन्तं पदम् ॥१।४।९४॥
20 भन्तग्रहणं किमथ न षिडः पदभिव्येबोच्येत | केनेदानीं तदन्तानां भविष्यति|
तदन्तविधिना || अत उत्तरं पठति |
पदसंज्ञायामन्तवचनमन्यत्र संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्त-
विधिप्रतिषेधाथेम् ॥ ९ ॥
पदसं ्ञायामन्तम्रहणं क्रियते क्षापका्येम् । किं ज्ञाप्यम् | एतजक्ञ!पयस्याचा्य
25 ऽन्यत्र संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तविधिनै भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोज-
9 २.९.४०. † ९.४.९५ ९४. | २,५५.२९ ६.२.३२ §१.५.२.
पा० ९.४.९४.१९७.] ॥ व्याकररणमरहाभाष्यम् ॥ - ` ६९१९
नम् | तरप्रमपी वः [९.९.२२] तरप्रमबन्तस्य षसंज्ञा न भवति | कि च स्यात् ।
कुमारी गौरितरा । धारिषु न्या हृस्वो भवतीति" स्वत्वं प्रसज्येत ॥ यथेतञ्जा-
प्यते सनाद्यन्ता धातयः [३.९.३२ | हत्यन्तम्रहणं कतेव्यम् । कत्तदधितसमासाश्च
[ ९.२.४६ | इत्यन्तमरहणं कतेव्यम् | इदं तृतीयं ज्ञापकार्थम् || दे तावक्क्रियेते
न्यास एव । यदप्युच्यते कृत्तदितसमासाधेस्यन्तम्रहणं कतेव्यमिति । न कतेव्वम् । ऽ
भर्यैवदिति वतेते† कृत्तद्धितान्तं चेवा्थैवन्न केवलाः कृतस्तद्धिता वा ॥
नः क्ये ॥१।४७।१५ ॥
किमथेमिदमुच्यते न सुबन्तं पदमित्येव सिद्धम्, । नियमार्थोऽयमारम्भः |
नान्तमेव क्ये पदसंज्ञं भव्ति नान्यत् | क मा भूत् | वाच्यति सुच्यति* ॥
स्वादिष्वसर्वनामस्थाने ॥ ९ । 9 । १.७ | 10
असवैनामस्थान इव्युच्यते तत्र ते राजा तल्ञा¶ अस्वैनामस्थान इति पदसंज्नायाः
प्रतिषेषः प्रसज्येत | नाप्रतिषेधात् | नायं प्रसज्यप्रतिषेधः सवेनामस्थाने नेति | किं
तदि | पर्युदासोऽयं यदन्यस्सर्वनामस्थानादिति । सर्वनामस्थाने अव्यापारः | यदि `
केनचि्पाभोति तेन भविष्यति | पूर्वेण च प्रामोति ॥ अप्राप्वौ | अथवानन्तरा
या पाभिः सरा प्रतिषिध्यते | कुत एतत् | अनन्तरस्य विधिव भवति प्रतिषेधो 15
वेति । पुवौ प्ापिरमरतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं प्राक्निः पूर्वौ प्रानं वाधते |
नोरसहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम् || अथवा योगविभागः करिष्यते | स्वादिषु पूवे
पद संज्ञं भवति | ततः सवेनामस्थाने ऽयचि । पुवे पदसंज्ञं भवति | ततो भम् । भसंज्ं
च भवति यजादावसर्वनामस्थान इति || यदि तर्हि सावपि पदं भवव्येचः श्ुतविकारे
पदान्तमदहणं चोदितम्+* इह मा भूत् भद्रं करोषि गीरिति तस्मिन्क्रियमाणेऽपि 0
प्रामोति । वाक्यपदयोरन्त्यस्येव्येवं तत् ॥
भुवदद्यः धारयद्ृज्यः एतयोः पदसंज्ञा वक्तव्या । मुवदृद्यः धारयद श्यः ॥
# ६.३. ४२. † २.२, ४९. व ९.४.९४; २.४. ७९; ९.९६. ६२. § ८.२. ३०; ३९०. .
ग ६,६.६८ १.९.६२ ` + ८.२. ९०७४,
३२५ ॥ व्याकर्णम्रहामाच्यम् ॥ ` : [०९४
यचि भम् ॥ १।४।१८ ॥
भसंज्ञायामुत्तरपदलोपे षषः प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
, भसंज्ञायामुकत्तर पषलोपरे षषः प्रतिषेधो वक्तव्यः | अनुकम्पितः षडङ्ङिः ¶-
डिक
£ सिद्धमचः स्थानिवत्वात् ॥ २॥
सिद्धमेतत् ।.कथम् । भचः स्थानिवद्धावाद्सं ज्ञा न भविष्यति | इहापि तर्हि ्-
भोति । वागाहीरैत्तो वाचिक इति | वश््यस्येतत् | सिडधमेकाक्षरपूर्वपदानामत्तरपद-
लोपव चनादिति† | इहापि तर्हि भरामोति | षडङ्लिः षडिक इति | वक्ष्यत्येतत् | ९एष-
कषाजादिवचनास्सिद्धमिति! ॥ |
10 नमोऽङ्किरोभनुषां वत्युपसंख्यानम् ॥ ३ ॥
नमोऽङ्किरोमनुषां वसयुपसंख्यानं कतेष्यम् | नभस्वत् भङ्किरस्वत् मनुष्वत् |
घृष्रण्वस्वश्रयोः. || ४ ॥
वृषणिस्येतस्य वस्वश्वयोभेसंज्ञा वक्तव्याः । वृषण्वञ्चः | वृषणश्वस्य यच्छिरः |
वृषणश्वस्य मेने ॥
5 . .., तकौ मलं ॥१९।७।१९॥
अथेव्रहणं किमथे न तसौ मतावित्येबोच्येत । तसौ मतावितीयव्युच्यमान `इरैव
स्यात् पयस्वान् यरास्वान् । इह न ्यात् ` पयस्वी ` यशस्वी | अर्थैसहणे पुनः
क्रियमाणे मतुपि च सिद्ध भवति यथान्यस्तेन समानार्थस्तस्मिश्च | ययं रहण
क्रियते पयस्वान् यशस्वान् अत्र न प्रामोति | किं कारणम् | न हि मतुम्मतवये
20 वतैते | मतुपि मस्वर्थै वतेते | तद्यथा । देवदत्तशालाया ब्राह्मणा भानीयन्तामि-
युक्ते यदि देवदत्तोऽपि ब्राह्मणो भवति सोऽप्यानीयते ॥
अयस्मयादीनि च्छन्दसि .।॥ १.।४।२९०॥
उभयसज्ञान्यपीति वक्तव्यम् । स सुष्टुभा स कऋक्रता¶ गणेन ॥
-ग्द्रम्न न्य्नज्मन्दप्द पफ न्न रए न्र्ज्र ५.३.०८ ८२;६.४, ४८.८.१.२९. ` ` -¶ ५.२.८४१ ` फ <. ९५; १९
6 ८.४. २.३७; (८.२.७9). . .¶ ६२.३०; (३९),
फ० ६.४.१८९. ] ॥ व्याकरणयहाभाष्यम् ॥ ३९१
बहुषु बहुव्वनम् ॥ २.।०।९९.॥
बहुषु वहुवचनमित्युच्यते । केषु बहुषु । अर्थेषु | यथ्येवं वृक्षः रक्षः अत्रापि
पाभोति । बहवस्ते ऽ्थौ मुरं स्कन्धः कलं पलाशमिति ॥ एवं तर्कव चनं हिव-
चनं बहुवचनमिति शब्दसंज्ञा एताः । येष्वर्थेषु स्वादयो तिधीयन्ते तेषु बहुषु |
केषु चार्थेषु स्वादयो विधीयन्ते | कमौदिषु | न वै कमोदयो विभक्त्ययौः | के तारि | 5
एकल्वादयः । एकस्वादिष्वपि वै विभक्तयर्थेष्ववरयं क मोदयो निभितस्वेनो पदेयाः ।
कर्मेण एकस्वे कर्मणो श्वित्रे कर्मणो बहुत्व इति || स तदि तथा निर्देशाः कतैव्यो न
न्तरेण भावप्रत्ययं गुणपरधानो मवति निर्देशः | इह चेत्येके मन्यन्ते तदेके मन्यन्त
इति परत्तरादेकव चनं प्रामोति" || बहुषु बहुवचनमिष्येष योगः परः करिष्यते || सूत्र-
विषयो सः कृतो भवति । इह च बहुरोदनः बहुः खुप इति परत्वाद्रङ्वचनं पामरोति || 10
नैष दोषः । यत्तावदुच्यते न ह्यन्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रभानो भवति निर्देश इति तन्न |
अन्तरेणापि भावप्रत्ययं गुणप्रधानो भवति निर्देशः | कथम् । हह कदाचिदुणो
गुणिविशेषको भवति | तद्यथा । पटः शुक इति । कदाचि बुणिना गुणो व्यप-
दिदयते | पटस्य श्युङ्क इति । तद्यदा तावहणो गुणितिोषको भवति पटः शुक
इति तदा सामानाधिकरण्यं गृणगुणिनोः । तदा नान्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रषानो 15
भवति निर्दहाः | यदा तु गुणिना गुणो व्यपदिहयते पटस्य श्युक्क हति स्वप्रधानस्तदा
मुणो भव्रति | तदा द्रष्ये षष्ठी | तदान्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रथानो भवति निशः |
न नेह वयमेकत्वादिभिः क मौदीन्विशेषयिष्यामः | किं तरि | कमौदिभिरेकत्वादीन्वि-
रोषयिष्यामः | कथम् | एकस्मिन्नैकवचनम् | कस्थैकस्मिन् | कर्मणः | इयोर्हिवच-
नम् | कयोर्ईयोः | कर्मणोः | बहुषु बहुवचनम् | केषां बहुषु | कर्मणामिति ॥ कथं 20
बहुषु बहुवचनमिति । एतदेव ज्ञ।पयव्याचार्यो नानाधिकरणवाची यो बहु शब्दस्तस्येदं
ग्रहण न धैपुल्यवानिन इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् । यदुक्त बहुरोदनः बहुः सप
इति पर त्वाद्रहुवचनं भ्रामोतीति स दोषो न भवति ॥ यदप्युच्यत हस्येफे मन्यन्ते तदेके `
मन्यन्त इति परस्वादेकव चनं परामोतीति नैष दोषः । एकराब्दोऽयं बहर्थः । अस्त्येव
संख्यावाची | तद्यथा | एको हौ बहव इति । अस्त्यसहायवाची | तद्यथा | एकाप्रयः 25
एकदानि एकाकिमिः क्षुद्रकरैरभितमिवि । अस्त्यन्यार्थे वतते | तद्यथा | सधमादो
धयु एकास्ताः | अन्या इत्यर्थः | तथो =न्यार्थै वतैते तस्वैष प्रयोगः |
# १.४. २२.
41 9
३२१ ॥ व्थाकरणपहाभप्यम ए मिज०्९.४.२.
किमथे पुनरिदमुच्यते |
सुषिडामविोषविधानाहृष्टविप्रयोगत्वाच्च नियमाय वचनम् ॥ ९ ॥।
डषो अविकेषेण प्रातिपदिक मात्राहिधीयन्ते* । तिङो अविोपेण धातुमात्राहिषी-
यन्ते† | तत्रैतत्स्या्श्यप्यविरेषेण विधीयन्ते नैव विप्रयोगो ठश्यत इति । वृष्ट-
£ विप्रयो गत्वाच्च | दृरयते खल्वपि विप्रयोगः } तद्यथा | अक्षीणि भे ददहोनीयानि |
पादामे खकूुमारा इति | खप्रिडोरचहोषविधानादृष्टविप्रयोगत्वाञ्च व्यतिकरः
परामोति | इष्यते चाव्यतिकरः स्यादिति तचान्तरेण यलं न सिध्यतीति नियमाय
वचनम् । एवमथमिदमुच्यते || भधेतस्मिन्नियमार्थे सति किं पुनरयं प्रत्ययनियमः ।
, एकस्मिच्ेत्ैकव चनं इयोरेव द्विवचनं बहृष्वेव बहूवचनमिति | आदोस्िदथनियमः ।
10 एकस्मिन्नैकवचनमेव हयोर्दिवचनमेव बहुषु बहुवचनमेवेति | कथात्र विदोषः |
तत्र प्रत्ययनियमे ऽव्ययानां पदसंज्ञाभावों ऽसुबन्तत्वात् ॥ २ ॥
तत्र प्रत्ययनियमे ऽव्ययानां पदसंज्ञा न प्रामोति । उचैः नीचैरिति । किं कार-
ग॑म् । अष्ुबन्तत्वात् ||
अथनियमे सिद्धम् ॥ २।
15 भथनियमे सिद्धं भवति | अस्त्व्थनियमः || अथवा पुनरस्तु प्रत्ययनियमः |
ननु चोक्तं तत्र प्रत्ययनियमे ऽष्ययानां पदसंज्ञाभावो ऽखबन्तत्वादिति । नैष दोषः ।
सुपां कर्मादयोऽप्यथौः संख्या चेव तथ। तिडाम्।
दषां संख्या चैवाथेः कमदयथ । तथा तिडम् ||
प्रसिद्धो नियमस्तत्र
20 प्रसिद्धस्तत्र नियमः |
नियमः प्रकृतेषु वा ॥ `
अथवा प्रकृतानथौनपेक्ष्य नियमः | के च प्रकृताः । एकत्वादयः | एकस्मिक्े-
वैकवचनं न हयोने बहुषु | हयेरिव द्विवचनं त्ैकस्मिन्न बहुषु । बहष्वेव बदु-
वचनं न ह्योर्ैकस्मिच्निति || भथवाचार्यप्रवृततिक्ञपयरयुत्पद्यन्ते ऽव्ययेभ्यः स्वादय
25 इति यदयमभ्ययादाष्डपः [२.४.८२] इत्यत्ययाह्लुकं शास्ति ॥
इति श्रीभगवत्पतच्रकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थ
पादे द्ितीयमाद्भिकम् ॥
+^ ४.९. द, + ३.४.७८,
११० १.४.२२. ॥ ध्वोकरनप्रराभाष्यय् । १8
कारके ॥२९।०2।२२॥
किमिदं कारक इति | सं्ञानिर्देशः । किं वक्तत्यमेतत् | न हि | कथमनु-
स्यमानं गंस्यते | इह हि व्याकरणे ये चैते लोके प्रतीतपदार्थकाः दाब्दासैर्वरदशचाः
क्रियन्ते पड्युरपत्यं देवतेति या वेताः कृत्रिमाशटिघुषभसंज्ञास्तामिः | न चाय
लोके धरुवादीनां प्रतीतपदार्थकः दाभ्टो न खल्वपि कृत्रिमा . संजञान्यत्राविधानात् | 8
संक्नाधिकारथायं तत्न किमन्यच्छक्यं विज्ञतुमन्यदतः संज्ायाः |
कारक इति संज्ञानिदेराश्वेत्संज्ञिनो ऽपि निर्दराः । ९॥)
कारक इति संज्ञानिर्देराथेत्सं्ञिनो ऽपि निर्देशः कतैव्यः | साधकं निर्वर्तकं कार-
कसंञ्चं भवतीति वक्तव्यम् ||
इतरथा ह्यनिष्टप्रसद्भौ भ्रामस्य समीपादागच्छतीत्यकारकस्य || २॥ 1
इतरथा ह्यनिष्टं प्रसज्येत | अकारकस्याप्यपादानतंज्ञा प्रसज्येत | क | पराम-
प्य* समीपादागच्छतीति || नेष दोषः | नात्र मामो ऽपाययुक्तः | किं तर्हि | समी-
पम् | यदा च भ्रामोऽपाययुक्तो भवति भवति तद।पादानसंज्ञा | तद्यथा | ्रामादा-
गच्छतीति | |
` कर्मसंज्ञापसङ़ो ऽकयितस्य ब्राह्मणस्य. पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति ॥ ३ ॥ . 1:
कर्मसंज्ञा च प्रामोत्यकथितस्य | क । ब्राह्मणस्य पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति ||
तैष दोषः | अयमकथितष्दो ऽप्त्येवासंकीर्तिते वतैते | तद्यथा | कथित्कंचित्संच-
क्याह । असावत्राकथितः । असंकीर्तित इति गम्यते | भस्त्यप्राधान्ये तेते |
तद्यथा | भकथितो ऽदौ मामे भकथितो ऽसौ नगर हल्युच्यते यो यत्राप्रानो
भवति || तद्यदाप्राधान्ये ऽकथितदाम्दो . वतेते तदैष दोषः कर्मसं श्षाप्रसङ्ोऽकथितस्य 0
ब्राह्यणस्य पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति ||
अपादानं च वृक्लस्य पणं पततीति ॥ ४ ॥
धभपादानसंज्ञा च प्राप्रोति | कै | वृक्षस्य" पणे पतति । कुयस्य पिण्डः
पततीति ॥ |
९,४.२४, † १.४.५१.
दे ॥ ह्योक्ररणमहाथाष्य्च ॥ . [ मर १.६३,
` न व्रापयस्थाविवक्षितत्वांत् ।। «९ ॥ `
न वैष दोषः | किं कारणम् । अपायस्याविवक्षितत्वात् | नाज्रापायो विवितः।
किं तर्हि | संबन्धः| यदा चापायो त्रिव्रकषितों भवति भवति तदापादानसंज्ञा | त-
द्यथा | वुक्षात्पणै पततीति । संबन्धस्तु तदा न. किवक्ितो भवति | न ज्ञायते क-
४ ङस्य वा कुररस्य वेति ॥ | |
भयं ताहि दोषः कर्मसंज्ञाभसङ्ा कथितस्य ब्राह्मणस्य पुरं पन्थानं एच्छतीति |
नैष दोषः | कारक इति महती संज्ञा क्रियते | संज्ञा च नाम यतो न लघीयः।
कुत एतत् । लप्त्रथ हि संज्ञाकरणम् । वत्र महत्याः संज्ञायाः करण एतत्रयोन-
नमन्वथेसंज्ञा यथा विज्ञायेत | करोतीति कारकमिति |
10 अन्वर्थमिति चेदकतरि कर्रैराब्दानुपपक्तिः || & ॥
अन्वथोभिति. चेदकर्तैरि कतशाब्दो नोपपश्चते | करणं कारकम् | आधिकरणं
कारकमिति ॥
सिद्धं तु प्रतिकारकं क्रि याभेदात्यादीनां करणाधिकरणयोः कतेभावः।। ७॥
सिद्धः करणाधिकरणयोः -करतभावः । कुतः | प्रतिकारकं क्रिमाभेरात्पचादी-
15 नाम् । पचादीनां हि प्रतिकारकं क्रिया भिश्यते | किमिदं प्रतिकारकमिति । का-
रकं कारकं प्रति प्रतिकारकम् || कोभ्लौ प्रतिकारकं क्रियामेदः पचादीनाम् ।
अधिश्रयणोदकासेवनतण्डलावपतरैधोपकषणक्रियाः प्रानस्य
| | कुः पाकः ॥ ८ ॥
अधपिश्रयणोदकासेचनतण्डुलावपनैधो पकर्षणादिक्रियाः कुर्वन्नेव देवदसः पवती-
0 स्युच्यते | तत्र तदा पचिकेतेते | एष प्रधानकलैः पाकः । एतत्पधानकतुः कतेलम् ॥
क्रोणं पवत्याहटकं पथतीति संभवनक्रिया धारणक्रिया वाधिकर-
णस्य पाकः ॥ ९ ॥
~ दोणं पचल्याढकं प्रचतीति संभवनक्रियां धारणक्रियां च कुर्वती स्थाली पती
स्यच्यते | तत्र तदा परचिवैतेते | एषो ऽधिकरणस्य पाकः | एतदधिकरणस्ं
2४ कर्तृत्वम् |
पी ५९.४;२३ म] ॥ व्यकिरनमहाभष्यम् ॥ १२६
एधाः पषट्यन्स्या विक्ित्तेञ्वैखिध्यन्तीति ज्वलनक्रिया करणस्य पाकः ॥*९०॥।
एधाः. परश्ष्यन्त्या चिक्धि त्तेज्वेकिभ्वन्तीति ज्वलनक्रियां कु वेन्ति काष्ठानि पचन्ती.
रु च्यन्ते | तत्र तदा पचिवतेते । एष. करणस्य पाकः । एतत्करणस्य कतृर्वम् ||
उद्यमननिपातनानि कतेम्डिदिक्रिया ॥ ९९
उद्यमननिपातनानि कृवेन्देवदत्तम्रछिन तीरयुच्यते | तत्र तदा शिदिर्वंतेते | एष $
प्रथानकतर्डेदः | एतसधानकरौः कतेत्वम् ॥
यत्तन्न तृणेन तत्पररोग्केदनम् ॥ ९२ ॥
यत्तत्समान उद्यमने निपातने च. परञ्युना शिद्चते न तृणेन तत्पर शोण्डेदनम् +
अवयं वैतदेवं विज्ञेयम् |
इतरथा ह्यसितृणयोग्छेदने ऽविदोषः स्यात् || ९३ ॥ 10
यो हि मन्यत उद्यमननिपातनारेषैतद्ध वति च्छिनततीत्यसितणयोग्ेदने न तस्य
विरोषः स्यात् | यदसिनां शिश्यते तणेनापि तच्छ्थित ॥
अपादानादीनां स्वप्रसिदहधिः ॥ ९४॥
` अपारानादीनां कतेत्वस्याप्रतिद्धिः | यथा हि भवता करणाधिकरणयोः कर्तृत्वं
निदितं न तथापादानादीनां कतृस्वं निददयेते ॥ 15
न वा स्वतन्लपरतन्बस्वासयोः पययेण वचनं वचनाश्रया च संज्ञा।। ५९॥।
न त्रैष दोषः | किं कारणम् | स्वतन्त्रपरतन्त्स्वात् | सर्वतरैवा्च स्वातन्व्ये
पारतन्स्यं च विवक्षितम् | तयोः पयोयेण वचनम् | तयोः स्वातन््यपारतन्ल्ययोः
पयौयेण वचनं भविष्यति | वचनाञ्रया च संज्ञा भविष्यति | तद्यथा | बलाह कादिद्यो-
तते | बलाहके विद्योतते | बलाहको विद्योतत इति || किं तदयेच्यते ऽपादानादीनां ९
स्वप्रसिद्धिरिति । एवं तर्द न त्रुमो ऽपारानादीनां कवैत्वस्याप्रसिदिरिति । पयीपतं
करणाधिकरणयोः कर्तस्वं निदाशितमपादानादीनां कर्ैस्वनिदरनाय | पर्यापरो देकः
पुलाकः स्थाल्या निदरदौनाय | किं तर्हि | संज्ञाया अप्रसिद्धिः । यावता सर्वत्रैवात्र
स्वातन्ल्यं विन्धते. पारतन्ल्यं च तत्र परत्वात्कतेसंज्ञैव प्रामोति* |.अत्रापिन वा
स्ववन्त्रपरतन्तत्वास्तयोः पययेण वचनं वचनाश्रया च संज्ञेत्येव || ` - . . ~
कै १, # |, # ५९ 1 क
६१६ 1. व्यकरणमहमिष्यय ॥ [म० ९.४.
यथा पुनरिदं भवता स्थाल्याः स्वातन्श्यं निर्दाशितं संमबनक्रियां धारणक्कियां
च कुवैती स्थाली स्वतन्त्रेति कैदानीं परतन्त्रा स्यात् | यत्तत्मक्षालनं परिषतैनं
धा] न वा एवमथ स्थाल्युपादी रते प्रक्षालनं परिवतैनं च करिष्यामीति | किं तर्।
संभवनक्रियां धारणक्रियां च करिष्यतीति | तत्र चासौ स्वतन्त्रा | केदानीं पर-
5 तन्त्रा || एवं तर्द स्थालीस्ये यते कथ्यमाने स्थारी स्वतन्त्रा करस्थे यले कथ्यमाने
परतन्ला | नन् च भोः कतेस्थेऽपि वरै यले कथ्यमाने स्थाठी संभवनक्रियां धारण-
क्रियां च करोति । तज्रातौ स्वतन्ल्ा | केदानीं परतन्ता || एवं तर्हि प्रधानेन समवाये
स्थाली परतन्ल्ला व्यवाये स्वतन्ला | तद्यथा | अमात्यादीनां राज्ञा सह समवाये
पारतन्ट्यं व्यवाये स्वातन्क्यम् | किं पुनः प्रधानम् | कतौ | कथं पुनर्ञायते कर्ता
10 प्रधानमिति । यस्सर्वेषु साधनेषु संनिहितेषु कतौ प्रवतेयिता भवति || ननु च भोः
परधानेनापि वै समवाये स्थाल्या अनेनार्थो अधिकरणं कारकमिति | न हि कारक-
मित्यनेनाधिकरणत्वमुक्तमधिकरणमिति वा कारकत्वम् | उभौ चान्योऽन्यविदे-
पकौ भवतः | कथम् | एकद्रव्यसमवायिसात् | तद्यथा | गार्ग्यो देवदत्त इति |
न हि गाग्यै हत्यनेन देवदत्तस्वर मुक्तं देवदत इत्यनेन वा गाग्यैस्वम् । उभी चान्यो -
15 ऽन्यविशेषकौ भवत एकद्रव्यलमवायित्वात् || एवं तर्हि सामान्यभूता क्रिया वतैते
तस्या निवैरतैकं कारकम् || भथवा यावद्रूयाक्कियायामिति तावत्कारक इति । एवं
च कत्वा निर्देश उपपन्नो भवति कारक इति | इतरथा हि कारकेल्विति नुयात् ||
भरुवमभपायेऽपादानम् ॥ १. । ४ । २४ ॥
श्रुवभिति किमथेम् | मामादागच्छति राकटेन । नैतदस्ति । करणसंक्षात्र वा-
%0 धिका भविष्यति" || इदं तर्हि । मामादागच्छन्कंसपात्रयां। पाणिनीदनं भङ इति |
भत्राप्यभिकरणसंज्ञा वाधिका भविष्यति || इदं तरि । वृक्षस्य पणे पतति । सुद्स्य
पिण्डः पततीति ॥
जुगुप्साविरामप्रमादाथोनामुपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
जुगुप्साविरामप्रमादाथोनामुपसं ख्यानं कर्तव्यम् | जुगुप्ता । भधरमौञजुगुष्सते।
9; कधमीद्वीभत्छते || विराम । धमौहिरमति | धर्मा्धिवतेते || प्रमाद | धर्माद्मु -
ति | धमाोन्मुष्यति ||,
ॐ ९.४. ४द, ¶ ९.४, ४९५.
प° ९.४.२४.२५.] ॥ ध्यीकस्नयहाभाष्यम् ॥ ३२.
इह चोपसं ख्यानं कतेभ्यम् | सांकादयकेभ्यः पाटकिपुत्रका जभिरूपतरा इति |
तत्तरदीदं वक्तव्यम्| न वक्तव्यम्| इह तावदधमान्नुगुण्सते अधमोद्रीभस्सत इति
य एष मनुष्यः प्रेक्षापुवेकारी भवति स परयति दुःखो ऽधर्मो नामिन कृत्यमस्तीति |
स वुद्या संप्राप्य निवनेते | तत्र धरुवमपाय ऽपादानमिस्येव सिद्धम् || इह च ध-
मोहिरमति धमीाश्निवतेत इनि धमाखमाद्यति धर्मान्मुद्यतीति य एष मनुष्यः संभिन्न-
बुद्धिमैवति स पदयति नेदं किंचिद्धर्मो नामनैनं करिष्यामीति |स बुद्धा संप्राप्य
निवतेते | तत्र ध्रुवमपाये ऽपादानमित्येत्र स्सिडम् || इह च सांक्रादरयकेभ्यः पाट-
लिपुत्रका अभिरूपतरा हति यस्तैः साम्यं गतवरान्भवति स एततलयुङ्क ||
गतियुक्तेष्वप(दानसंज्ञा नोपपद्यते ुवत्वात् ॥ २. ॥
गतियुक्तंष्वपादानसंज्ञा नोपपद्यते | अश्वान्नस्तात्पतितः | रथालसव्रीतात्पतिनः |
सथोहच्छतो हीन हति | किं कारणम् | अध्रुतरस््रात् ||
नः वाप्रौव्यस्याविवक्षितत्वात् ॥. ३ ॥
न वेष दोषः | किं कारणम्| अप्रौऽ्यस्यातिवक्षितखरात् | नात्राभरौग्यं विवाति
तम् । किं तर्हि | ध्रौव्यम् | इह तावदश्वा च्लस्तात्पतित इति यत्तदश्वे ऽशत्वमाुगामित्वर
तैद्धुवं तश्च विवक्षितम् | रथातपरवीतास्पतित इति यत्तद्रथे रथतवं रमन्ते ऽस्मिज्रथ
इति तद्धवं तञ्च विवक्षितम् | साथोद्रच्छतो हीन हति यत्तत्सार्थे सार्थत्वं सहार्थी-
मावस्तद्भुवं तच्च विवक्षितम् || यद्यपि तावदत्रेतच्छक्यते वक्तं ये स्येते ऽव्यन्तगति-
युक्तास्तत्र कथम् | धावतः पतितः | स्वरमाणात्पतित इति | अत्रापि न वाप्रीष्य-
स्याविवक्ितत्वादिस्येव सिद्धम् || कथं पुनः सतो नाम।धिवक्ता स्यात् | सतोऽप्य-
विवक्षा भवति | तद्यथा | अलोभिक्तेडका | अनुदरा कन्येति | असत विवक्षा
भवति | समुद्रः कुण्डिका | जिन्ध्यो बर्थितकमिति ॥
भीन्राथानां भयहेतुः ॥ १ । ४ । २५ ॥
१)
10
19
20
अयं योगः शाक्यो क्तुम् | कथं वृकेभ्यो बिभेति दस्युभ्यो निभेति चीरेभ्य- '
ख्कायते दस्युभ्यल्लायत इति । इह तावद्ूकेभ्यो विभेति दस्युभ्यो बिभेतीति च -एष
मनुप्यः प्रे्षापुवैकारी भवति स परयति यदि मां वृकाः परयन्ति. धुधो मे 2
मृस्युरिति । स बुद्धा संराप्य निवतेते | तत्र ध्रुवमपाये ऽपादानम् [९.४.२४ | इत्येव
९२८ ॥ व्या करणमहाभाय्कय् ।| ` [| म०.९.४..
सिद्धम् || इद चैरेभ्यलायते दस्युभ्यल्ायत इति य एष .मनुष्यः वेक्षपर्वकारी
उक वति स परयति यदीमं चौराः परयन्ति प्रु ्रमस्य वधवबन्धनपरिङ्केशा इति |
स बुद्या संप्राप्य निवतेय्ति | तत्र भ्रुवमपाये ऽपादानभिस्येव सिद्धम् ||
पराजेरसोढः ॥ १. । 9 1 २६ ॥
$ अयमपि योगः शक्यो ऽवक्तुम् | कथम् अध्ययनात्पराजयत इति । य एष
मनुष्यः प्रक्षापूवैकारी भव्रति स परयति दुःखमधभ्ययनं दुधेरं च गुरवथ दुरुपचारा
इति । स बुद्धा संराप्य निवतैते | तश्र ध्रुवमपाये ऽपादानम् [ ९.४.९४ | इत्येव
सिद्धम् ॥
वारणाथानामीष्सितः ॥ ९ । ४ । २७ ॥
10 किमुदाहरणम् | माषेभ्यो गा वारयति । भवेद्यस्य माषा न गावस्तस्य मापा
हेष्सिताः स्युः | यस्य तु खलु गवो न माषाः कथं तस्य माषा हैष्सिताः स्युः |
तस्यापि माषा एषेष्सिताः ] आतश्रेप्तिता यदेभ्यो गा वारयति ॥ इह कूपादन्धं
वारयतीति कूपे ऽपादानंज्ञा न प्रामोति | न हि तस्य कूप हष्तितः । कस्तर्हि ।
अन्धः] तस्यापि कूप एव्रेम्ितः | परयत्ययमन्धः कूपं मा प्रापदिति । अथवा यथै-
15 बास्यान्यत्रापदयत इप्तेवं कूपे ऽपि | इष्ट अपन माणवकं वारयतीति माणवके ऽपरा
दानसंज्ञा प्रामोति | क्मेधज्ञा्र वाधिका भविष्यति* | अस्नावपि तर्हि वाधिका
स्यात् | तस्माक्तव्यं कमणो यदीप्तितमिति । श्ष्सितेष्सितमिति वा |
वारणर्येषु कमेग्रहणानयथक्यं कर्तुरीप्सिततमं कर्मेति वचनात् ॥। ९ ॥
वारणार्थेषु कमेय्टणमनथैकम् । किं कारणम् । कलतुरीष्सिततमं कमं
० [१.४.४९] इति वचनात् । क्रीप्सिततमं कर्मत्येव सिद्धम् |
अयमपि योगः शक्यो अवक्तुम् | कथं माषेभ्यो गा वारयतीति | परयत्ययं
यदीमा गावस्तत्र गच्छन्ति भ्रुवं सस्यविनाश्ः सस्यविनाश्चे ऽषर्म॑ेव राजमयं
च | स बुद्धा संराप्य निवतेयति | तत्र पुवरमपाये ऽपादानम् [९.४.२४] इत्येव
सिद्धम् ॥
` * १.४. ९.
प५।०६१.४.२६.३०. |] ॥ व्यौकरणपंहाभष्यय् ॥ ३२९.
अन्त येनादर्नमिच्छति ॥ १ । ७।२८॥ ` `
अयमपि योगः शाक्यो ऽवक्तुम् | कैथम् उपाध्यायादन्तर्षत्त इति | पदयत्ययं
यदि मामुपाध्यायः परयति धुवं प्रेषणमुपालम्भो वेति | स बुद्धया संप्राप्य निवत्ते |
तत्र भुवमपाये ऽपादानम् [९.४.२४] इत्यैव सिद्धम्|
आख्यातोपयोगे ॥ ९. । ¢ । २९.॥ ` ¢
उपयोगं हति किमर्थम् । नटस्य शृणोति | म्रन्थिकस्य शुणोति || उपयोग इ-
स्युच्यमाने ऽप्यत्र प्रामोति | एषोऽपि ह्युपयोगः | आतशोपयोगो यदारम्भका रु
गच्छन्ति नदस्य भोप्यामो मरन्थिकस्य श्रोष्याम इति ॥ एवं तद्युपयोग इत्युच्यते
सर्वोपयोगस्तत्र प्रकर्पगतिर्थिन्नास्यते | साधीयो य उपयोग इति | कथ साधीयः |
यो ब्रन्धार्थयोः || अथवोपयोगः को भविुमहैति | यो नियमपुवैकः | तद्यथा | 10
उपयुक्ता माणत्रका इत्युच्यन्ते य एते निय मपूवेक मधीतवन्तो भवन्ति || .
किं पुनराख्यातानुपयोगे कारकमाहोखिदकारकम् | कथात्र विशेषः |
आङ्यातानुपयोगे कारकमिति चेदकयितत्वात्कभेसंज्ञापसङ्ः । ९ ।। `
आख्यातानु पयोगे. कारकमिति चेदकथितत्वास्कर्मसंज्ञा परामोति' || -अस्तु तद्य
- कारकम् | 15
अकारकमिति चेदुपयीगवखनान्थक्यम् ॥.२ ॥
यद्यकारकमुपयोगवचनमनभेकम् ॥ अस्तु तर्हि कारकम् | ननु चोक्तमाख्या-
तानुपयोगे कारकमिति चेदकथितत्वात्फम॑संज्ञाप्रसङ् इति | तरैष दोषः | परिगणनं
तक्र क्रियते । दुहियाचिराधिप्रहिभिष्षिचिनामिति। | `: ˆ 7.
अयमपि योगः शक्यो वक्तुम् | कथम् उपाध्यायादधीत इति ।. अपक्रामति 20
तस्मन्तदध्ययनम् । यश्यपक्रामति विं नात्यन्तायाप्क्रामति | संततस्वात् ॥ भवा
स्योतिवैज्ज्ञानानि भवन्ति ॥
जनिकतुः प्रकृतिः ॥ १.।४।३० ॥
अयमपि योगः राक्थो ऽवक्तुम् | कथं गोमयादुधिको जायते| गोरो मातिंठी-
# ९.४, ५१ ` “ ` † ६.४. ५
42 जव
३३०. ॥ व्वाकरणयमरहाभाष्यमय् ॥. [ म० ९.४.२५.
मभ्यो दुवो जायन्त इति | भपक्रामन्ति तास्तेभ्यः | यद्यपक्रामन्ति किं नास्यन्ताया-
पक्रामन्ति | संततत्वात् || अथवान्याधान्याश्च प्रादुभेवन्ति ॥
भुवः प्रभवः ॥ ९19७ । २९ ॥
अयमपि योगः शाक्यो वक्तुम् । कथं हिमवतो गड प्रभवतीति | अपक्रा-
४ मन्ति तास्तस्मादापः | यद्यपक्रामन्ति किं नत्यन्तायापिक्रामन्ति | संततत्वात् ||
लथवान्याथान्याशच प्रादुभवन्ति ॥
कर्मणा यमभिगेति स संप्रदानम् ॥ ९. । ७।२२॥
कर्मग्रहणं किमथेम् | यमभिप्रैति स संप्रदानभितीयत्युच्यमानि कर्मण एव संप्र
दानसंज्ञा प्रसज्येत | कर्मग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | कमे निभित्तत्वे-
10 नाश्रीयते || अथ यंसच्रहणं किमर्थम् | कर्मेणाभिप्रेति संप्रदानमितीयत्युच्यमाने
अभिप्रयत एव संप्रदानसंज्ञा प्रसज्येत | यंसम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति ।
यंस प्रहणादभिप्रयतः संप्रदानसंज्ञा निभेज्यते || अथाभिप्रमरहणं किमर्थम् | कर्मणा
यमेति स. संप्रदानमितीयस्युच्यमाने यमेव संप्रत्येति ` तत्रैव स्यात् | उपाध्यायाय गां
ददातीति । इह न स्यात् | उपाध्यायाय गामदात् । उपाध्यायाय गां दास्यतीति ।
15 अभिपरम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | .अभिराभिमुख्ये वर्ते. प्रशब्द आदिक-
मणि | तेन यं चाभितरैति य॑ चाग््रष्यति यं चामिप्रागादाभिमुख्यमात्रे सवत्र सिद
भवति ॥ | „ .
क्रियाम्रहणमपि कतेव्यम् । इहापि यथा स्यात् | ..्रद्धायः निगहेते | - युद्धाय `
संनष्यते । पत्ये शेत इति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तभ्यम् । कथम् | क्रियां
20 हि लोके कर्मेत्युपचरन्ति | कां क्रियां करिष्यसि । किं कमे. करिष्यसीति | एव- `
मपि कतेभ्यम् | कृत्चिमाक़ृत्निमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवति || क्रियापि कृजिमं
क्म | न सिध्यति | क्रीप्िततमं क्म [१.४.४९] इस्युच्यते कथं च नाम
क्रियया क्रियेस्तितत्तमा स्यात् | क्रियापि क्रिययेप्सिततमा भवति । कया क्रियया |
संददानक्रियया वा -प्राथेयतिक्रियया वाध्यवस्यतिक्रियया वा| इह य एष मनुष्व,
25 परक्षापुवेकारीं भवति स बुद्धया ताव्कचिदये संपरयति संदृष्टे प्राथेना प्राथनायाम -
पा० १.४.२१-४२. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ३३१
ध्यवसायो ऽध्यवसय आरम्भ आरम्भे निववत्तिर्निवृत्तो फकावाप्निः | एवं क्रियापि
कृत्रिमं कमं ॥ ` `
एवमपि .क्मेणः करणसंज्ञा वक्तव्या संप्रदानस्य च कर्मसंज्ञा । पडुना स्रं यजते|
पश्यं सद्राय ददानीत्यथः । भभौ किल पद्ुः प्रक्षिप्यते तद्रुद्रायोपदियत इति ॥
कुधटटहष्यौसू्रा्ानां यं प्रति कोपः ॥१।४।३७॥
किमेत एकाथौ भहोखित्नानाथोः । क्रं चातः । यदयेकाथोः किमर्थे प्रथङ्ि-
िदयन्ते । अथ ननाथौः कथं कपिना शक्यन्ते विश्षयितुम् | एवं तर्हि
नानायौः कुषौ त्वेषां सामान्यमस्ति । न ह्यकरुषितः क्रुष्यति न वाकुपितो दुष्यति
न वाकुपित हैष्वति न धाक्रुषितो ऽख्यति ॥
साधकतमं करणम् ॥ ९ । 9 ४९ ॥ 10
` तमय्रहणं किमे न साधकं करणमित्येवोच्येत | साधकं करणमितीयस्य॒च्य- `
माने सर््रषां कारकाणां करणसंज्ञा प्रसज्येत | सवौणि हि कारकाणि साधकानि ।
तमम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || नैतदि प्रयोजनम् । पृवौस्तावस्तंश्ञा
अपवादत्वाद्ाधिका भविष्यन्ति पराः परत्वाञ्यानवकाशत्वाश्च || इह तर्द
धनुषा विध्यति अपाययुक्तत्वाञ्चापादानसंज्ञा साधकत्वाश्च करणसंज्ञा प्रामोति |15
तमय्रङ्णे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति ।| एवं तर्हि ` लोकत एतस्सिद्धम् ।
तश्थथा । ठकि ऽभिरूपायोदकमानेयमभिरूपाय कन्या देयेति न चानभिरूपे
प्रवृत्तिरस्ति तत्रभिरूपतमायेति गम्यते । एवमिष्टापि साधकं करणमित्युच्यते
सर्वणि च कारकाणि साधकानि न चासाधके भवृत्तिरस्ति तत्र `साध-
कतममिति ` विज्ञास्यते || एवं तर्द सिद्धे सति यत्तमप्रहण करोति तञ्ज्ा- 20
पयव्याचार्यः कारकसंज्ञायां तरतमयोगो न भवतीति | किमेतस्य ज्ञापमे प्रयो-
जनम् । अपादानमाचायैः किं न्याय्यं मन्यते यत्र संप्राप्य निवृतिः | तेनेहैव
स्यात् म्रामादागच्छति नगरादागच्छतीति | सांकारयकेभ्यः पाटकिपुत्रका अभिरूपता
इत्यत्र न स्यात् । कारकसंश्ञायां तरतमयोगो न भवतीत्यत्रापि सिडं भवति ॥
## १, ` ` >*१.५.२* र २४.
३३१ , ;, | -च्वाकश्यप्रहाधास्वय् ॥ - - | बम १.४.३१,
तथाधारमाचयेः. क्रि न्याय्यं मन्यवे यत्र कृस्ल् -आधारारमा -व्याप्नो भवाति | तेने-
हेव स्यात् तिकेषु तैलम् दति सर्पिरिति | मङ्कायां गावः कूपे ग्गैकुभमिस्यन्न न
स्यात् | कारकसंज्ञायां तरतमयोगो. न भवतीस्यत्रापि सिद्धं भवति .॥
चपान्वभ्याङ्सः, ॥ १, । ४। ४८ ॥
5 '' . ˆ “ ` वसिररयर्थस्य भतिषेधः ॥ ९॥ ` |
बसेरदयर्थस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । माम उपवसतीति ॥ स तरि वक्तव्यः|
म वक्तव्यः | नात्रोपपुवैस्य वसेयौमोऽधिकरणम् । कस्य तर्हि | अनुपसरैस्य |
मामे ऽतौ वसंखिरात्रमुपवसतीति ॥
कतुरीप्सिततमं कम ॥ १. । ४ । ५९ ॥
10 तमम्रहणं किमथैम् । कतुरीष्सितं कर्मेतीयत्युच्यमान हह अपनेमौणवकं वारयतीति
माणवके ऽपादानसं्चा प्रसज्येत" । नैष दोषः | कर्मसंज्ञा तत्र बाधिका भविष्यति|
अ्बपि तर्हिं वाधिका -स्यात् |. हृष पुनस्तमयहणे क्रियमाणे तदुपपन्नं भवाति -यदु-
कतै .वारणार्थेषु कमेमरहणानधैक्यं कतैरीप्सिततमं कर्मेति वचनादिति. ॥ ` ..
इहोष्यत ओदमं परवतीतिः। यश्चोदनः पच्येत द्रन्यान्तरमभिगिर्व्तेत । वैष रोषः ।
15 ताङ्थ्यौन्ताच्छब्धं भविष्यति । ` ओदनाथास्तण्डुला दन इत्ति || अथेह कथं भवे-
तव्यम् | तण्डुलरनोदनं पचतीति | आहोस्वित्तण्डुलानामोदनं पचतीति । उभयश्षपि
भवितव्यम् | कथम् | हह हि तण्डुलानोदनं पचतीति व्यथे ः पचिः | तण्डुलान्पच-
तोरम निवैतैयतीति || इहेदानीं तण्ड्ूलानामोदनं पचतीति -व्य्थशचैवः पचिर्विकारयो-
गे च षष्ठी | तण्डुलयिक्र मोदनं निवर्तयतीति `|
20 -इह. कथित्वविदामन्छथते सिद्धं भुज्यतामिति | ख आमन्दयभाण आह | प्रभूत
भुक्त मस्मौभिरिति | जामन्तवमाण आह | दधि खलु भविष्यति पयः खलु भविष्यति |
कामन्यमाण भह | दघरा खलु भुष््ीय पयंसा खलु भुख्छीयेति । अत्र कमेखं्ञा
प्राप्रोति । तद्धि तस्येप्सिततमं भवति ॥| तस्याप्योदन एवेम्सिततमो न तु मुणेष्व-
स्यानुरोधः । तद्यथा । मुश्छरीयाहमोदनं यदि मृदुविद्चदः स्यादिति । एवमिहापि
25 दधिगुणमोदनं भुञ्जीय पयोगुणमोदनं मुश्जीयेति ॥
॥पणरकषषिीषििपपीषोरषीषषिषयषिषषषष ४४४ ४99४9 ममम ११११११११ १११ सि
` # ९.५. २५. † ९.४, २०२,
पा? ९.४.४८-५.९. | ॥ व्वाकरणदहाभाध्यम .॥ | रदे
ईैष्सिलस्थ कर्मसंज्ञाथां निरवंतचस्य कारकत्वे कमैसंज्ञामसङ्गः क्रिये-
प्सितस्वात् ॥। ९ ॥
हैष्सितस्य कमसंज्ञायां निवृत्तस्य कारकस्वे कमैसंज्ञां न प्रामोति | गुडं मक्ष-
यतीति | कं कारणम् | क्रियेप्ठितत्वात् । क्रिया तस्येष्सिता ||
न वौोभयेप्सितत्वात् ॥ २ ॥ &
न तैषः दोषः । किं कारणम् । उभयेस्सितत्वात्. |. उभयं हि तस्येम्सितम् ।
ध्रातञोभयं यस्य हि गृडभक्षणे बदिः. प्रसक्ता भवति नासौ. रोष्टे भक्षयिता कृती
मवति ॥ यद्यपि तावदश्नैतच्छक्यते वक्तु ये त्वेते राजकर्िणो मनुष्यास्तेषां कथिं-
स्कंचिदाह | कटं कुर्विति । स आह । नाहं कटं करिष्यामि. षदो मग्राहत्ं इति ।
तस्य क्रियामात्र मीम्सितम् ॥ यद्यपि तस्य क्रेयामात्रमीय्सिते यस्त्वसो प्रेषयति 19
तस्योभयमीस्सितमिति ॥
तथायुक्तं चानीप्वितम् ॥ १. । ४ ।५० ॥,
किमुदाहरणम् | विषं भक्षयतीति | तैतदस्ति | पूर्वैणप्यितस्सिभ्यति | न सिध्य॑ति | `
कतरीप्सिततमं कमे [९.४.४९] इत्युच्यते कस्य च नाम विषभक्षणमीष्वितं स्यात् |
विषमक्षणमपि कस्यचिदीप्ितं भवति । कथम् | इह य एष मनुष्यो दुःखार्तो मवति 15
सोऽन्यानि दुःखान्यनुनिद्यम्य विषभक्षणमेव ज्यायो मन्यते | आतधेस्तितं यत्तद्-
क्षयति | यत्त्यन्यत्करिष्यामीत्यन्यत्करोति तदुदाहरणम् । क पुनस्तत् | भामा-
न्तर मयं गच्छंश्चौरान्पदयत्य्िं लद्रुयति कण्टकान्मृद्राति ॥
इदेव्वितस्यापि कर्मसंज्ञारभ्वते ऽनीप्मितस्यापि । यदिदानीं नेवेष्सिते नाप्यनी- `
त्सिते तत्र कथं भवितव्यम् । मामन्तरमयं गच्छन्वृत्तमृलान्युपसपेति कुदमला- 20
न्युपसपेतीति | अत्रापि सिद्धम् । कथम् | अनीस्सितमिति नायं प्रसज्यप्रतिषेध
हैस्सितं नेति । किं तर्हि. पयुदासोऽयं यदन्यदीप्सितात्तदनीप्सितमिति । अन्यक्चै-
तदीप्सितादयद्निषेष्वितं नाप्यनीप्सितमिति ॥
अ य
अकथित ध ॥२१ ।४।५९ ॥ |
केनाकथितम् | अपादानादिभिर्विशचेषकथाभिः ॥ किमुदाहरणम् | ` %
६९४ ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम् ॥ [०१४
इाहियाचिरुधिप्रिभिक्षिचिजापुपथोगनिमित्तमपूर्वविधौ ।
ब्रुविशासिगुणेन ख यत्सचते तदकपीर्मितमराचरितं कविना ॥
दुहि । गां दोश्धि पयः ॥ तैतदस्ति | कथितात्र पुर्वापादानसंज्ञा* । इहि॥
याचि । इदं तर्हि | पौरवं गां याचत इति || नैतदस्ति | कथितात्ापि पूर्व पादानतं्ञा' |
` 5न याचनदिवापायो भवति | याचितो ऽसौ यरि ददाति ततो ऽपायेन युज्यते | याचि
रुषि | अन्ववरुणद्धि गां व्रजम् || नैतदस्ति | कथितात्र प्वौपिकरणसंज्ञां |
रुधि ।| प्रच्छि | माणवकं पन्थानं पृच्छति || बैतदस्ति | कथिताच्र पूवौपादान-
संज्ञा || न प्रश्रादेवापायो भवति | पृष्टो ऽसौ यद्याचष्टे ततो ऽपायेन युज्यते |
मच्छि || भिक्षि | षीरवं गां भिक्षते | नैतदस्ति | कथितात्र पुवौपादानसंज्ञा* || न
10 भिन्ञणादेवापायो भवति | भिक्षितोऽसौ यदि ददाति ततो ऽपायेन युज्यते | मिति |
चिञ् । वृक्षमवचिनोति फलानि || नैतदस्ति । कथिताश्च पूर्ापादानसंज्ञा* ॥
तुविश्चासिगुणेन च यत्सचते तदकीर्तितमाचरितं कविना | त्रुविश्चासिगुणेन च
यत्सचते संबध्यते. तचयोदाहरणम् । किं पुनस्तत् । पुत्रं ब्रृते धर्मम् | पुत्रमनुशासिं
धर्ममिति || तैतदस्ति | कथितात्र पूवा संप्रदानसंज्ञा || तस्मान्नीण्येवो दाहरणानि |
15 कौरवं गां याचते | माणवकं पन्थानं पृच्छति | वीरवं गां भिक्षत इति ॥
अथ ये धातूनां हिकर्मैकास्तेषां किं कथिते लादयो9 भवन्त्याहोस्विदकथिते |
कथिते लादयः || कथिते लादिभिरभिदहिते गुणकमेणि का कतेव्या |
कथिते लादयशश्वेस्स्युः षष्ठीं कुयात्तदा गुणे ।
कथिते लादयधेस्स्युः षष्ठी गुणकर्मणि तदा कतेव्या | दुह्यते गोः पयः । य-
20 च्यते पौरवस्य कम्ब इति. || कथम् |
भकारकं दयकथितत्वात्
कारकं द्येतद्धवति । किं कारणम् । भकयथितत्वात् ॥
कारकं चन्त नाकथा ।
अथ कारकं नाकथितम् | अथ कारके सति का कतैव्या |
2४ कारकं चेद्धिलानीयादा यां मन्येत सा भवेत् ॥
कारकं चेद्दिजानीयाद्या या भ्रामोति सा सा कतिष्या | दुद्यते गोः पयः । या-
च्यते पौरवात्कम्बल हति ||
# ९.४.२४. † १.४.४५. { ९.४.२२. § ३.४.६९
पा०. ९.४.५९. | ॥ भ्थाक्ररणमहाभाष्यम ।। ३३५
कथिते ऽभिहिते त्वविधिस्वमति्गुगकमंणि खारिविषि.्षपरे ।
कथिते लारिमिरभिरहिते त्वविधिरेष भवति | किमिदं त्वविधिरिति | तव वि-
पिष्त्वविधिः | स्वमतिः | किमिदं च्वमतिरिति | तव॒ मतिस्त्वमतिः | त्रैवम-
न्ये मन्यन्ते || कथं तर्हन्ये मन्यन्ते | गुणकमेणि कादिविधिः सपरे | गुणकमेणि
लादिविधयो भवन्ति सह परेण योगेन | गतिबुद्धिप्रत्यवसानाथशब्दकमाकर्मकाणा-
मणिक्रतौ स णौ [ १.४.५२९ ] इति ॥ |
धुवचेदितयुक्तिषु चाप्यगुणे तदनस्पमतेर्व चनं स्मरत ॥
धु्रयुक्तिषु चेशितयुक्तिषु चाप्यगुणे कमणि लादयो भवन्ति | एतदनल्पमतेरा-
चायैस्य वचनं स्मयताम् ||
अपर आह |. | 10.
प्रधानकर्मण्याख्येये लादीनाहर्दिकर्मणाम् । `
प्रपानकममेण्यभिेये हिक्मणां धातूनां कर्मणि कादयो भवन्तीति वक्तव्यम् |
अजां नयति च्रामम् | भजा नीयते भामम् | अजा नीता याममिति ||
अप्रधने दुहादीनाम्
अप्रधाने दुहादीनां क्मेणि कादयो भवन्तीति वक्तव्यम् | दुह्यते गौः प्रयः ॥ 15
| ण्यन्ते कश्च कर्मणः ॥
कादयो भवन्तीति वक्तव्यम् | गम्यते देवदत्तो मामं यज्ञदत्तेन ||
के पुनधीतुनां हिकमेकाः |
` नीवद्योहरतेश्वापि गत्यर्थानां तथैव च । `
दिकमेकेषु ग्रहणं तरषटव्यामिति निश्वयः॥ 20
जां नयति चामम् | भारं वहति भ्रामम् | भारं हरति सामम् | गत्यथ-
नाम् | गमयति देवदत्तं मामम्.। यापयति ` देवदत्तं पामम् ॥
छ
सिद वाप्यन्यकर्मणः।
सिद्धं वा पुनरेतद्भवति | कुतः । अन्यकमेगः । अन्यस्यात्राना कमौन्यस्य
मामः । भजामसौ गृहीत्वा भ्रामं नयति | 5
अन्यकर्ति चेद्रुयालादीनामविधिर्मवेत् ॥
अन्यकमति चेद्भूयाष्टादीनामविधिरयं भवेत् । अजा नीयते ब्राममिति । परसा-
धन उत्पश्यमानेन लेनाजाया अभिधानं न प्रामोति |
३३ ॥ व्याकरणयहाधाष्यय् ॥ [मण ९.५..
कारभावाध्वगन्वन्याः. कयंसंज्ञा दयंकर्मणायः-।.
कालभावाध्वगन्तव्या अकर्मकाणां धातूनां कर्मसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम् |
काल | माखभास्ते | मासं स्वपिति | भाव | गोदोहमास्ते । गोदोहं स्वपिति |
अध्वगन्तव्य | क्रोशमास्ते | क्रोशं स्वपिति | देराधाकर्मणां कमेसंक्नो भवतीति
5 वक्तव्यम् | कुरून्स्वपिति । पत्चालान्स्वपिति ॥
विपरीतं व यत्कमं तत्कल्मे कवयो विदुः ॥
किमिदं कल्मेति | अपरिक्षमाप्रं कमै कल्म | न वा अस्मिन्सवोणि कर्मका-
याणि क्रियन्ते | कि तर्हिं | हितीयैव ॥
यध्मिस्तु कमेण्युपजायते ऽन्यद्धास्वथेयोगापि च यत्र ष्ठी |
10 तत्कर्म कल्मेति च कल्म नोक्तं धातोर्दि वृत्तिने रवक्वतो अत्ति ||
एतेन क्बसंजञा सवौ तिद्धा भवस्यकयितेन । `
तत्रेप्ितस्य किं स्याखयोजनं कर्मसंज्ञायाः |
यत्त॒ कथितं पुरस्तादीत्सितयुक्तं च तस्य सिद्यर्थम् |
हैप्तितमेव तु यद्स्यात्तस्य भ॑विष्यत्यकथितेन ॥
75 अथेह कथं भवितव्यम् । नेताश्वस्य सुप्रमिति | आहोस्विच्तेताश्वस्य सुप्रस्येति ।
उभयथा गोणिकापृ्रः ॥
गतिबुटि प्र्यवंसानार्थशब्दकंमौकमेकणामणिकर्तौ
सणो॥९।४।५२॥
हाम्दकार्मेति कथमिदं विज्ञायते | शाब्दो येषां क्रिमरेति [ आहोस्विच्छब्दो येषां
20 कर्मेति । कथचात्र विद्धोषः |
दाब्दकर्मनिर्दशो शब्दक्रियाणामिति चेदूयस्थीदीमां प्रतिषेधः ॥ ९॥
शभ्दकमेनिर्द शे शब्दक्रियाणामिति चेद्धुयत्यादीनां प्रतिषेधो वक्तैध्यः | कै
पनहेयत्यादयः | हयति क्रन्दति शब्दायते ॥ इयति देवदन्तः । हाययति देवद
न्तेन ।॥। क्रन्दति देवदत्तः । क्रन्दयति देवदत्तेन ॥ दाभ्दायते देवदत्तः | शब्दाय तति
४ देवदत्तेनेति ॥ | ,.
फ़ १,४.५२. ] ` ॥ ष्वाक्रणमहाभाष्वम् ॥ ३ ३७
गृणोत्यादीनां चोपरसंख्यानमराब्दक्रि यत्वात् ॥ ‰ ॥
. शुणोत्यादीनां चोपलंख्यनं करतैव्यम् । के पुनः श्यृणोत्यादयः | शुणोति विजा-
नाति उपलभते || शृणोति देवदतः | भ्रावयति देवदत्तम् | विजानाति रेत्रदत्त।
विज्ञापयति देवदत्तम् || उपलभते देवदत्तः | उपलम्भयति देवदतम् ॥ किं पुनः
कारणं न सिध्यति । अश्चब्दक्रियत्वात् || 5
अस्तु तरि शब्दो येषां कर्मेति | | ।
शब्दकमेण इति चेज्जल्पतिपभृतीनामुपसंख्यानम् ॥ ३ ॥ ` ..
शम्दकमेण इति चेज्जल्पतिप्रभृतीनामुपसं ख्यानं कतेष्यम् | के पुनजैर्पतिप्रभू-
तयः ¡ जल्पति विलपति भाभाषते || जल्पति देवदतः । जल्पयति देवदत्तम् || विक-
पाति देवदत्तः | विलापयति देवदत्तम् || आभाषते देवदत्तः | आभाषयति देवदतम् ।| 10
दृः सर्वत्र ॥ ४ ॥
कृदोः स्त्रोपसंख्यानं कतैष्यम् । परदयति रूपतर्कः काषौपणम् । ददौयति
रूपतर्कं कार्षापणम् ||
अदिखादिनीवहीनां प्रतिषेधः | ९«॥
अदिखादिनीवहीनां प्रतिषेषो वक्तव्यः || अत्ति देवदत्तः | दयते देवदत्तेन ||1;
अपर आह । सर्वमेव प्रत्यवसानकार्यमदेभै भवतीति वक्तव्यं परस्मैपदमपि" । हद-
मेकमिष्यते क्तो अधिकरणे च प्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थभ्यः | ३.४.७६ | । इदमेषां
जग्धम् | खादि । खादति देवदत्तः । खादयति देवदत्तेन || नी | नयति देवद-
तः | नाययति देवदत्तेन ॥
वहेरनियन्तृकर्तृकस्य || ६ ॥। 20
वदेरमियन्तृकर्तृकस्येति वक्तव्यम् | वहति भारं देवदत्तः | वाहयति भारं दे-
वदत्तेन || अनियन्तुकरमकस्येति किमर्थम् | वहन्ति यवान्बलीवदौः `| वाहयन्ति
बली वर्दान्यषान् ॥
भक्षेरहिंसा्थस्य ॥ ७ ॥
भक्षेरर्हिसाथस्येति वक्तव्यम् । भक्षयति पिण्डीं देवदन्तः } मक्षयति पिण्डीं दे:
वद्रसेन | अर्हिसार्थस्येति किमर्थम् | भक्षयन्ति यवान्बलीवर्दाः | भक्षयन्ति ब-
लीवदोन्यवान् |
.* ९,२.८५.
43 ज
३३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ [म० ९.५.३.
अक्मकग्रहणे कालकमैकाणामुचसंख्यानम् ॥ ८ ॥
भकमेक प्रहणे कालकमेकाणामुपसंख्यानं कतेष्यम् ]| मासमास्ते देवदत्तः | मा-
समासयति देवदत्तम् ॥| मासं शेते देवदत्तः | भासं शाययति देवदत्तम् ॥
सिद्धं तु कालकर्मणामकर्मकवदचनात् ॥ ९ ॥
५ सिद्धमेतत् | कथम् | कालकर्मका अकर्मकवद्भवन्तीति वक्तव्यम् || त्तर व
क्तष्यम् | न वक्तव्यम् | अकमेकाणाभिस्युच्यते न च केचित्कदाचित्कालभावाध्व-
भिरकर्मेकाः | त एवं विज्ञास्यामः | कचिथे ऽकर्मका इति || अथवा येन कर्मणा
सक्मकाथाकमेकाथ भवन्ति वेनाकमेकाणां न. चैतेन कमणा क्चिदव्यकर्मकः ||
मथवा यत्कर्म भवति न च भववि तेनाकर्मकाणां न चेतत्कमे क्रानिदपि न भवति |
10 हक्रोरन्यतरस्याम् ॥ १. । ¢ । ५२. ॥
हक्रोवावचने अभव दिदृरोरस्मिनेषद उपसंख्यानम् ॥ ९॥
हक्रोषोवेचने अभिवादेदखोरात्मने१द उपसंख्यानं कतेव्यम् || अभिवदति गुरं
देवदन्तः | भाभिवादयते गुरं देवदत्तम् | भमिवादयते गुर देवदत्तेन || परयन्ति
भृत्या राजानम् | रशोयते मृत्यान्नाजा | ददहौयते भूत्यै राजा || कथं बनत्रास्मने१-
15 दम् । एकस्य गेर्णी. [९.३.६७] इति । भफ्रस्य णिच्श्च. [१.३.७४ | इति ॥
स्वतन्वः कता ॥ १ । 9 । ५४ ॥
, .क्रिं. चस्य स्व तन्त्रं स स्वतन्तः | फ चातः | तन्तुवाये प्राभोति | नैष रोषः |
अयं तन्त्राष्दो ऽस्स्येव विताने वर्तते | तश्चथा । जास्ती तन्त्रम् । प्रोतं तन्त्रम् |.
वितान इति गम्यते | अस्ति प्राधान्ये बतते | त्यया | स्वतन्त्रो. ऽसौ ब्राह्मण ई-
20 त्युच्यते स्वभरधान इति गम्यते | -तद्यः प्राधान्ये वर्तते तन्तशभ्दस्तस्येदं हणम् ॥
- ` .स्वतन्स्य कर्तसंन्ायां हेतुमव्युपसंख्यानमस्वतन्त्त्वात् ॥ ९॥ :
स्वतन्त्रस्य कत संज्ञायां हेतुमल्युपसं ख्यानं, कतैव्यम् | पाचयत्योदनं रेषदसो
यश्ञदत्तेनेति* | किं पुनः कारणं न ध्यति । अस्वतन्तरस्वात् ॥
#२. ३. ९८०
पौ ° ९. ४.५३-५५. | ॥ व्याकरणयह भाष्यय् ॥ -३३९
न वा स्वातन्ल्यादितरया ह्यङु वेत्यपि कारयतीति स्यात् ॥ २ ॥
न वा कर्तव्यम् | किं कारणम् | स्वातन्त्यात् । स्वतन्त्रोऽतौ भवति | इतरथा
दयक् वैस्यपि कारयतीति स्यात् | यो हि म॒न्यते न्सौ स्वतन्त्र ऽकवैत्यपि तस्व
कार यतीव्येतस्स्यात् || |
| नाकु वतीति चेत्स्वतन्लः ॥ ३ ॥ ` | ४
न चेदकुरवति तस्मिन्कारयतीस्येतद्वति स्वतन्त्रोऽपतौ भवति | शक्यं तावदने-
नोपसंख्यानं कुवेता वक्त कु वेन्स्थतन्त््रे ऽकुवेत्तेति । साधीयो ज्ञापकं भवति | प्रेषिते
च किलायं क्रियां चाक्रियां च दृषटाध्यवस्यति कुवैन्स्ववन्तरो -करुयेननेति यदि -च
प्रेषितो ऽतौ न करोति. स्वतन्त्रोऽतौ भवतीति ॥
तसयोजको हेतुश्च ॥ १. । ४ 1 ५५ ॥ 0
प्रेषे ऽस्वतन्लप्रयोजकस्वादेतुसंज्ञाप्रसिदिः॥ ९॥. `
त्रेषे ऽप्वतन्त्रप्रये जकस्वाद्धेतुसंञ्चया भप्रसिडिः | -स्वतन्तप्रयोजको देतुसंशो
भवतीस्युच्यते न चासी स्वतन्त्रं प्रयोजयति || स्वतन््त्रास्सिद्धम् । सिडधमेतत् ।
कथम् | स्वतन्त्रत्वात् | स्वतन्त्रमसौ प्रयोजयति । |
स्वतन्लत्वास्सिद्मिति चेत्स्वतन्बरपरतन्त्त्वं विम्रतिषिद्धम् ॥ २॥ 5
यरि स्वतन्त्रो न प्रयोज्यो ऽय प्रयोज्यो न स्वतन्त्रः प्रयोज्यः स्वतन्तलधेति
विप्रतिषिडम् ॥ |
उक्तं वा ॥ ३॥
किमुक्तम् | एकं तावदुक्तं न वा स्व्रातन्स्यादितरथा द्यकुवेत्यपि कारयतीति
स्यादिति । अपरमुक्तं न वा सामान्यङृतत्वादेतुतो द्यविशिष्टं स्वतन्तप्रयोजक~- 20
त्वादप्रयोजक इतिं चेन्मुक्तर्सद्रायेन तुल्यमिति! ||
`इति अ्रीमगवत्पतञ्जटिविरविते ` व्याकरणमहामाष्ये प्रथमस्याध्यायस्वं चतुय
पादे तुतीयमाद्धिकम् | `
# ५.४.५४५. ¶ ३.१. २६९५.
` ६४० ॥ ध्याकरनपरहामाष्वम् ॥ ` [म०९.४.४ै.
प्रा्रीश्चराननिपाताः ॥ ९ ।४।५६ ॥
` ` " किमथे रेफापिक हैश्वरशब्दो गृष्यते |
री-्वराद्रीश्वरान्मा भत्
रीशरादि्युच्यते वीशरान्मा भूत् । हाकि णमुल्कमुलावीश्वरे तो ्न्कखनौ
£ [३.४.९२;९ दे | हति | नैतदस्ति प्रयोजनम् | जा चा यैप्रवृ्िर्ञापयत्यनन्तरो य
हेर शब्दस्तस्य महणमिति* यदयं कृन्मेजन्तः [९.१.३९] इति कतो भान्तस्यै -
-जन्तस्य चाव्ययसंज्तां शास्ति ॥ - _
कुन्मेबन्तः परो ऽपि सः ।
परो ऽप्येतस्मात्कृन्मान्त एजन्तास्ति। तदर्थमेतस्स्यात् || यत्तद्व्ययीभावस्या-
10 व्ययसंज्ञां शासि तज्ज्ापयत्यानार्यो ऽनन्तरो य दश्वरद्म्दस्तस्य महणमिति ||
समासेष्वव्ययीभावः
समासस्थैतञ्ज्ञापकं स्यात् | अव्ययीभाव एव॒ समासो व्ययसंश्ञो भवति
मान्य इति || एव॑ तर्हि लोकत एतस्सिदधम् । तद्यथा । लोक
आ वनान्तादोरकान्तासियं पान्थमनुव्रजेरिति `
15 य एव प्रथमो वनान्त उदकान्तंथा ततो भुव्रजति ||
लोकिकं चातिवतते ॥
हितीयं च तृतीयं च वनान्तमुदकान्तं वानुत्रनति ॥ तस्माद्रेफाधिक हैश्वर-
राम्दो भ्रहीतव्यः ||
अथ प्राग्वचनं किमथम् |
20 प्राग्वचनं संज्ञानिवृत्यर्थम् || ९ ॥
भागव चनं क्रियते निपातसंज्ञाया अनिवृत्तियेथा स्यात् | अक्रियमाणे हि प्राग्ब-
चने ऽनवकाशा गस्युपसगेकमेप्रवचनीयसंज्ञा निपातसंज्ञा वाधेरन् । ता मा वाभि-
धतेति प्राग्वचनं क्रियते || अथ क्रियमाणेऽपि प्राग्वचने यावतानवकादा एताः संज्ञाः
कस्मादेव न वाधन्ते | क्रियमाणे हि प्राग्वचने सत्यां निपातसंज्ञायामेता भवयवसंश्ा
25 भारभ्यन्ते त्र वचनात्समावेश्चो भवति ||
~
# ९.४. ९७, † ३.५.९४; २५. { १.१, ४९,
१० ९.४.५६-५९.] ॥ व्याकरणमहामाष्वयं 1 . ४९
चादयो ऽसे ।॥। १ । 91 ५.॥
भयं सद्वदाष्यो ऽस्वयेव उव्यपदायकः ] तद्यथा | सत्वमथं ब्रह्मणः | सत्व
भियं ब्राह्मणीति | भसति क्रियापदाथेकः | सदावः सश्वमिति | कस्ये हणम् |
व्यपदाथेकस्य | कत एतत् | एवं हि कृत्वा विधिश सिद्धो भवति प्रतिषेधश्च ||
किं पुनरयं पयुदासः । यदन्यत्सस्ववचनादिति | आहोस्ित्मसज्यायं प्रतिषेषः | -5
सतत्ववचने नेति | किं चातः | यदि पयदासो विप्र॒ त्यत्रापि प्रामोति | क्रिया-
द्रभ्यवचनो ऽयं संघातो दव्यादन्यश्च विधिनाभ्रीयते | अस्ति च प्रादिभिः सामा-
न्यमिति कृत्वा तदन्तविधिना * निपातसंन्ना प्रामोति ॥ अथ प्रसज्यप्रतिषेधो न
दोषो भवति || यथा न दोषस्तथास्तु |
प्रादय उपसगाः क्रियायोगे ॥ १ । 9 । ५८-५५९, ॥ 10
प्रादय इति योगविभागः ॥ ९ ॥
प्रादय इति योगविभागः कतेव्यः | प्रादयो ऽघह्ववचना निपातसंज्ञा भषन्ति |
तत उपसर्गाः क्रियायोग हति ॥ किमर्थो योगविभागः |
निपातसंज्ञाथः | २ ॥
निपातसंशा यथा स्यात् ॥ 15
एकयोगे हि निपातसंज्ञाभावः ॥ ३ ॥
एकयोगे हि सति निपातसंज्ञाया अभावः स्यात् | यस्मिन्नेव विदोषे. गव्युपस-
गैकर्मप्रव चनीयसंज्ञास्तस्मिन्नेव विशेषे निपातसंज्ञा स्यात् ॥ ऊ
मरच्छब्दस्योपसंख्यानम् ॥ ४ ॥
मरुच्छब्दस्योपसंख्यानं कर्तष्यम् । मरुतो मरुत्तः । भच उपसगात् 9
[ ७.४.४७ | इति तत्वं यथा स्यात् ||
अच्छन्दस्योपसंख्यानम् ॥ ५ ॥
अ्रच्छम्दस्योपसंख्यानं कतेव्यम् । ज्रदधा† ||
* ९,,६. ७२. . † ३.३.९०६. -.
+ ॥ व्याकरणप्रहाभाष्वय ॥... ` , ` [मम ९.४.४
, गतिश्च ॥ ९.।४७।६० ॥
कारिकादाब्दस्य ॥ ९ ॥
कारिकाराब्दस्योपसंख्यानं कर्तव्यम् । कारिकाकृत्य" ॥
पुनश्नसो छन्दसि ॥ २॥।
5 पुनथनतौ छन्दसि गतिसंजञौ भवतं इति वक्त्यम् | पुनरत्स्य॒तं† वासो देयम् ।
पुनर्मिष्कृतोः रथः । उश्िग्दूतथनोहितः $ ॥।
गव्युपसगसंज्ञाः क्रियायोगे यक्करियायुक्तास्तं प्रतीति वचनम् | ३॥
गत्युपसगे संज्ञाः (क्रियायोगे यक्करियायुक्तास्तं प्रति गस्युपसभसंज्ञा भवन्तीति वक्त-
घ्यम् || किं प्रयोजनम् | |
10 . . भ्रयोजनं घञ्चस्वणत्वे ।|. ४ ॥
घञ् | प्रवृद्धो भावः प्रभावः | भनुपंसे इति प्रतिषेधो मा भृत्4 || षत्वम् |
विगताः सेचका भस्माद्भामाद्िसेचको याभः | उपसरगांरिति षत्वं मा भृत् ` || णत्वम् |
प्रयता नायका भस्माद्रामालनायको भरामः | उपसर्गारिति णवं मा भत्†1 ॥
वृद्धिविधौ च धातुग्रहणानथैक्यम् ॥ ५ ॥
15 वृद्धिविषौ च धातुमरहणमन्थंकम् । उपसलगौदूति धातौ [ ६.१.९९ ] इति | तत्र
धातम्रहणस्थैतस्मयोजनामिह मा भूत् प्रषभं वनमिति | (क्रियमाणे चापि धातुग्रहणे
` प्रच्छैक इत्यत्र प्राभोति | यक्कियायुक्तास्तं प्रतीति वचनाच्च भवति || `
बहिधिनस्मावाबीत््वस्वाङ्गादिस्वरणत्वेषु दोषो भवति | वदिधि‡* | यदुदतो
निवतो याति. बप्तत् । बिधि || नस्माव$9 | प्रणसं मुखम् । उच्रसं मुखम् |
20 नस्भाव || भवीत्त्व¶¶. | प्रेपम् परेपम् | भवीत्त्व || प्वाङ्गादिस्वर*°* | प्रस्िक्
मरोदरः । स्वाङ्गादिस्वर || णत्व111 । प्र गः भूद्रः प्र ण भाव्यैः प्रणो राजाप्र
णो वृत्रहा || उपघ्गौरित्येते विधयो न परापुवन्ति ॥
वदिधिनस्भावाबीच्वस्वाङ्गादिस्वरणववेषु वचनपामाण्यास्सिद्धम् ॥ ६ ॥
अनवकादा एते विधयस्ते वचनपरामाण्यादविष्यन्ति || ` `
, # १,२.१८ ०.१.३०. †२.२,१८.. [८.१.७० § ६.२. नकर ९५१२. ७ 1२.९८. [९.० इस्र् ५ बस्य ब २.२.२५.
(नन ८.३.६५. 1 ८.४.९४, {{ ५.९.९९८. 55 ९.४.९९९. बृषु ६.२.९१
# क ६.१, १,७७. - 411 <.*.२<८.
प° ९.४.६९ ०-६२. ] ॥ व्यौकरणपहायाष्यम ¶# `" १७९३
सुदुरोः प्रतिषेधो नुम्विधितत्वषस्वणस्वेषु ॥| ७ 1 `
उदुरोः प्रतिषेधो नुर्विधितस्वषत्वणस्वेषु वक्तव्यः || नुम्विधि | छरभम् दुरं ~
भम् | 9 समौदिति नुम्मां भूदिति । न छदुभ्यौ केवलाभ्याम् [७.१.६८ | हव्ये
तन्न वक्तीव्यं भवति || नैतदस्ति प्रयोजनम् । क्रियत एतन्रयास एव || तत्वम् |
सुदत्तम् | अच उपक्चगात्तः | ७.४.४७ | हति तत्वं मा भूदिति ॥ षत्वम् । सिक्तं 5
घट शतेन । खस्तुतं धोक शतेन | उपसगीदिति षत्वं मा भूदिति | जः पुजायाम्
| १.४.९४ | इत्येतन्न वक्तव्य भवति || तैतदस्ति प्रयोजनम् । क्रियत एतञ्यास
एव || णत्वम् | दु्ैेयम् दुर्नीतमिति । उपसगोदिति णत्व मा भूदिति ॥
ऊयादिचिडाचश्च ॥ २. । ७। ६९. ॥
कभ्वस्तियो ग इति वक्तव्यम् | इहैव यथा स्यात् | ऊरीकृत्य उरीभूय । इह 10
मा भूत् | ऊरी प्ता || तन्तं वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् । क्रियायोग इत्यनु-
वतेते न चान्यया क्रिययोयादिच्चिडाचां योगो स्ति ॥
अनुकरणं चानितिपरम् ॥ १. । 9 । ६२ ॥
कथमिदं विज्ञायते | इतेः परमितिपरम् न इतिपर मनितिपरमिति | आहेस्विदितिः
चरो यस्मान्तदिदमितिपरम् न इतिपर मनितिपरमिति || किं चातः | यदि विज्ञायत 15
हतेः परमितिपरम् न इतिपरमनितिपरमिति खाडिति कृत्वा निरष्षीवदिर्यन्र प्रभोति |
अथ विज्ञायत इतिः परो यस्मात्षदिदमितिषरम् म. हतिपरमनितिपरमिति ज्रौषडौष-
डिति कृत्वा निरक्षी वदिव्यत्र प्राभोति || अस्तु तावदितिः परो यस्मा्षदिदमितिपरः
म् न इतिपरमनितिपरमिति । ननु चोक्तं भ्रौषङौषडिति कत्वा निरष्ठीवदिस्यन्र पा-
मओोतीति | नैष दोषः | इदं तावदयं प्रष्टव्यः ¡ अथेह ते प्राग्धातोः [ १.४.८० | 20
इति कथं गतिमात्रस्य पूर्वप्रयोगो भवति | उपोद्धरतीति | गत्याकृतिः प्रतिनिर्दि-
इयते | इहापि तद्यनुकरणाकृतिर्िर्दिरयते ॥
किमथेमिदमुच्यते |
अनुकरणस्येतिकरणपरस्वपतिषेषो अनिषटशभ्दनिवृत््यर्थः ॥ ९ ॥
अनुकरणस्येतिकरणपरस्वप्रतिषेध उश्यते | द्रि भरयोजनम् | अनिष्टज्म्दभिवु- 25
# ०,९.६०. - ‡ ८.३.६९. {८.४, 2४, ९९.४.५९. .
३४४ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् ।॥ ` ` [०१.४४
स्यथेः | अनिषटदाष्दतां मा भूदिति `| हदं विचारयिष्यति तेप्राग्धातुवचनं प्रयोग-
नियमाय . वा स्यास्संज्ञानियमा्थे वेति“ | तद्यदा प्रयोगनियमे तदानिषटशम्दनि-
वृत्त्यथेमिदं वक्त भ्यम् । यदा हि संज्ञानियमाये तदा न दोषो भवति ॥
आदरानादरयोः सदसती ॥ १. । ¢ 1 ६२३ ॥
४ इदमतिबहू क्रियते आदरे अनादरे सत् असदिति । भआदरे सदित्येव सिद्धम्|
कथमसककृत्येति । तदन्तविधिना भविष्यति! | केनेदानीमनादरे भविष्यति | नबा-
दरप्रतिषेधं विज्ञास्यामः | नादरे ऽनादर इति || नैवं शक्यम् । भआादरमसद्गः
एव हि स्यादनादरप्रसङ्गे न स्यात् | अनादर यणे पुनः क्रियमाणे बह व्रीहिरयं विज्गा-
यते । अविद्यमानादरे ऽनादर इति । तस्मादनादर महणं कतेव्यमखतस्तु॒तदन्त-
10 विधिना तिद्धम् ॥ | |
अन्तरपरिय्रहे ॥ १.। 9 । ६५५ ॥ `
अन्तः शाब्दस्याह्िविषिसमाखणव्वेषूपसंख्यानम् ॥ ९॥
. भन्तः शब्दस्याह्धिविधिसम।सणस्वेषुपसंख्यानं कतेध्वम्† | अङ् | अन्तथो ॥
~ किविषिः । अन्तर्धिः || समासः । भन्तरैस्य || गस्वम् । अन्तदैण्या भ्यो गाः ॥
15 - घाक्षाव्मभृतीनि च ॥ २. । © । ॐ ॥
साक्षास्मभृतिषु च्व्यर्थवचनम् ॥ ९ ॥
खाक्षाखमृतिषु॒च्वयर्थग्रहणं कर्तष्यम् । भसाक्षात्साक्षात्कृत्वा साक्षाकृत्य ।
यदा हि. सक्ादेव किंचित्क्रियते तदा मा भूदिति ॥
मकारान्तत्वं च गतिसज्ञासंनियुक्तम् | ५॥
20 मकारान्तत्वं च गतिसंज्ञासंनियोगेन वक्तव्यम् । लवणंकृत्य ||
तंत्र च्विपरततिषिधः॥ ३॥
तग्र श््यन्तस्यः प्रतिषेषो भक्तव्यः | ठंवणीकृत्य ॥
--ग्पण्व्म कर्म करर स्प.पस्छरस् ८२.१५१
पा०.१.४.६३-८०,] ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ , २३८४५.
न वा पूर्वेण कृतत्वात् ॥ ४ |
नं वा वक्तव्यम् | किं कारणम् | पूर्वेण कृतत्वात् । अस्त्वनेन विभाषा पुर्वे -
ण^+ निरयो भविष्यति ॥ इदं ता प्रयोजनम् | मकारान्तत्वं च गतिसंज्ञासंनियक्त-
मित्युक्तं तू्यन्तस्य मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | रवणशब्दस्यायं
विभाषा लवणंशब्द आदेशः क्रियते । यदि च रवणीराब्दस्यापि विभाषा .कवणं- 5
शब्द आदेशो भवति न रकिचिहुष्यति | तरैशम्थं वेह साध्यम् । तच्चैवं सति सिद्धं
भवतीति | |
ते प्राग्धातोः ॥९।। ८० ॥
किमिदं प्रागधातुवचनं प्रयोगनियमाथम् | एते प्रागेव धातोः प्रयोक्तव्याः ।
आहोस्विस्संज्ञानियमा्थम् | एते प्रक्ाप्राकरु भयोक्तव्याः प्राक्मयुज्यमानानां गति- 10
संज्ञा भवतीति | कात्र विदोषः ।
भराग्धातुवचनं प्रयोगनियमायभिति चेदनुकरणस्येतिकरणपरमरतिषेधो
निष्टकाब्दनिवृत्ययेः || ९॥
प्रागधालुवचनं प्रयोगनियमाथेमिति चेदनुकरणस्येतिकरणपरप्रतिषेधो वक्तव्यः! |
कि प्रयोजनम् । अनिष्ट शाष्दानिवुच्यथेः | अनिष्ट शब्दता मा मृदिति || 15
छन्दसि परव्यवहितवचनं च | ‰॥
छन्द्ति परेऽपि व्यवहिता [१.४.८९८ ९] इति वक्तव्यम् |
संज्ञानियमे सिद्धम् | २ ।।
सं्ञानियमे सिद्धमेतद्धव्रति । अस्तु तर्हि संज्ञानियमः ||
उभयोरनर्थकं वचनमनिष्टादरोनात् |॥ ४ ॥ 20
उभयोरपि पक्षयोर्वैचनमनर्थकम् । किं कारणम्| अनिषददीनात् | न हि कथि-
[१ क
त्पमपचतीति प्रयो क्त्ये पचतिपरेति प्रयुङ्के । यदि चानिशं दृदयेत ततो यलाहं स्यात् ||
, , # १,५४.६१. { २.४.६२.
44 ता
६४६ ॥ व्याकरणयरहाभाष्यपः॥ [ म०९.४.४.
उपसजेनसंनिपाते तु पवपरण्यवस्थाथम् ॥ ५ ॥
` उपखजेनसंनिपाते तु पृवेपरब्यवस्थाथमेतदक्तव्यम् | क्षभं कूलमुद्रुजम् | ऋष
कूलमुद्रहम्* | अत्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगे यथा स्यात् || यद्युपसर्जनसंनिपाते
पुैपरव्य॒वस्थाथामिदमुच्यते कटंकराणि † वीरणानीत्यत्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगः
5 परामोति | आचयेप्रवृत्तिज्ञौ पयति नात्र गतेः प्राक्भयोगो भवतीति यदयमीषहःसुषु
कच्छराङ्च्छरार्थेषु खल् [३.३.१२६] इति खकारमनुबन्परं करोति । कथं त्तर
ज्ञापकम् | वित्करण एतत्योजनं खितीः; मुम्यथा स्यादिति; | यदि चात्र गतेः
पराक्मयोगः प्यास्वित्करणमनथेकं स्यात् । अस्त्वत्र मुम् | अनग्ययस्येति प्रतिषेधो
भविष्यति | परयति त्वाचार्यो नात्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगो भवतीति ततः खका-
10 रमनुबन्धं करोति ॥ नैतदस्ति ज्ञापकम् | यद्यप्यत्र गतेः प्राक्मयोगः स्यात्स्यादेवात्र
मुमागमः । कथम् | $द्भहणे गतिकारकपूवेस्यापि ब्रहणै भवतीति | तस्मान्ना
एवमर्थेन प्रारधातुवचनेन || कथम् ऋषभं कुलमुद्रुजम् ऋषभं कूठ मुदम् । नेष
दोषः । नेष उदिरपपदम् | किं तई | विङेषणम् | उरि कूले रुजिवहोः [३.२.३१
उल्यूर्वाभ्यां सुजिवहिभ्यां कूल उपपद इति ॥
॥ कर्मप्रवचनीयाः ॥ १. । ¢ । ८२ ॥
किमथे महती संज्ञा क्रियते | भन्वथसंज्ञा यथा विज्ञायेत | कम प्रोक्तवन्तः
कर्मप्रवचनीया इति || के पुनः कमे प्रोक्तवन्तः । ये संमति क्रियां नाहुः | के च
संप्रति क्रियां नाहुः | ये पयुज्यमानस्य क्रियामाहुस्ते कर्मप्रवचनीयाः ||
अनुरुक्षणे ॥ १. । ४ । ८४ ॥ `
20 किमर्थमिदमुच्यते । कर्मभरवचनीयसंज्ञा यथा स्यह्युपसगंसंे मा मूतामिति |
किं च स्यात् | शाकल्यस्य संहितामनु भरावरष॑त् | गतिगैती [८.१.७०] हति निषा-
तः प्रसज्येत || यथ्येवं वेरपि कर्मप्रवचनीयसं ज्ञ वक्कव्या | वेरपि निधातो नेष्य-
ते | प्रादेशं प्रादेशं वि परिलिखति | अस्त्यत्र विदोषः | माश्र वेरं प्रति क्रिवा-
» ३.२.३९. † ३.३.९११. 1 ९.२.९६६.
पा० १.४.८२-८९.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ३४७ .
योगः | किं तर्द | भप्रयुज्यमानम् | प्रादेशं प्रादेशं व्रिमाय धपरिलिखवीति || य्ये-
वमनोरपि कमे्रतरचनीयसंज्ञया नाथः | अनोरपि हि न वुर्षिं प्रति क्रियायोगः. कि
तर्द | अभयुञ्यमनम् । शाकल्येन छङृतां संहितामनुनिशम्य देवः प्रावषत् | इदं ,
तर्हि प्रयोजनं दितीया यथा स्यत्कमेप्रवचनीययुक्ते हितीया [२.३.८] इति | भत
उत्तरं पठति । | ४
` अनुलक्षणेवचनानथक्यं सामान्यकृतस्वात् ॥ ९ ॥
भनुर्क्षगेत्रचनानथक्यम् । कं कारणम् । सामान्यकृतत्वात् | सामान्ये-
नैवात्र कमेप्रवचनीयसंज्ञा भविष्यति लक्षणे््थ॑भृताख्यानभागवीप्साञ्च प्रतिपर्यनवः
[१.४.९० इति ॥ [र _
हेत्वथं तु वचनम् ॥ २॥ | 10
` हेत्वथमिदं वक्तयम्. | हेतुः - शाकल्यस्य संहिता वर्षस्य न ठक्षगम् | किं
वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | लक्षणं हि नाम स भवति येन
पुनः पुनरेक्ष्यते न यः सङृदपि निभिसत्वाय कर्पते । सकृघासौ शाकल्येन
खक्ृतां संहितामनुनिराम्य देवः प्रावभैत् || स तर्हि तथा निर्देशः करतैव्यो लुरहेता-
विति ॥ अथेदार्मी लक्षणेन हेतुरपि श्याप्रो नार्थो न । रक्षणेन हेतुरपि व्याप्तः | 1४
न द्य्ररयं तदेव लक्षणं भवति येन पुनः पुनरठश््यते | किं तरद । यत्सकृदपि निमि-
न्तत्वाय कल्पते तदपि लक्षणं भवति | तद्यथा । अपि भवान्कमण्डलुपाणि शन्त-
मद्र(तीदिति | सकृदसौ कमण्डलु पणिग्डान्तो दृष्टस्तस्य तदेव लक्षणं भवति || तदेव
त प्रयोजनं हितीया यथा स्यात्कमेप्रघचनीय युक्ते हितीयेति । एतदपि नास्ति प्रयो-
जनम् | सिद्धात्र हितीया कमेप्रवचनीययुक्त इत्येव | न सिध्यति | परल्वाद्धेत्वा- 20
सया तृतीया प्रामोति ॥
आङ्यांदावचने ॥ ९. । 9 । ८९ ॥
` भाङ्कयांदाभिविभ्योरिति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् | भाकुमार। यश
पाणिनेरिति ॥ वत्तं वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | मयौदावचन इत्येव सिद्धम् |
एषास्य यरासो मयादा ॥ ॐ
= २.३, २३. ¶ २.१. ९०; २,६.९३.
13 1 व्याकरणमराभाष्यम् ॥ ` [मण १.४.४.
सक्षणेत्यंभूताख्यानभागवीप्सासु प्रतिपयैनवः ॥ १. । ४.। ९।० ॥
कस्य लक्षणादयो ऽथा निर्दिरयन्ते । वृक्षादीनाम् ।| किमथे पुनरिदमुच्यते ।
कर्मप्रवचनीयसंज्ञा यथा स्यादत्युपसरगेसन्े मा भूतामिति । नैतदत्ति प्रयोजनम् ।
यक्कियायुक्तास्तं प्रति ग्युपसगेसंज्ञे भवतो न च वृक्तादीन्प्रति क्रियायोगः || इदं
5 तर्दि प्रयोजनं द्वितीया . यथा स्वात्कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया [१.३.८] इति।
वृकं प्रति विद्योतते । वृक्षमनु विद्योतत इति ||
अपिपरी अनर्थको ।॥ १ । 9 । ९३ ॥
किमथेमपिपर्योरनर्थकयोः कर्मप्रवचनीयसंज्ञोच्यते | कर्मेप्रचनीयसंज्ञा यथा
स्याह्त्युपसर्गसं्ने मा भूतामिति । तैतदस्ति प्रयोजनम् । यच्कियायुक्तौ तं भ्रति
19 गद्युपसर्गसं्चै भवतो ऽनयेकौ वेमी || इदं तर्द प्रयोजनं पञ्चमी यथा स्यात् ।
पञ्चम्यपाङ्रिभिः [२.३.९०] इति । कुतः पयागम्यत इति ।] सिद्धात्र पञ्च-
म्यपादान इव्यव । आतथापादानपन्चम्येषा यत्राप्यधिराब्देन योगे पन्चमी न
विधीयते तत्रापि श्रूयते । कुतो ऽध्यागम्यत इति || एवं तरि सिद्धे सति यदन-
यकयोर्मस्युपलगेसंक्ञावाभिकां कर्मप्रवचनीयसंज्ञां शास्ति तज्ज्ञापयस्याचार्यो यथे
15 कानामप्येषां भवत्यर्थ वलकृतमिति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् | निपातस्यानथं-
कस्य प्रातिपदिकस्वं चोदिवं† तत्त वक्तव्यं भवति || अथवा ैवेमावनर्थकौ | किं
त्लनर्थकाविस्युस्मते | अनथौन्तरथाचिनावनथैकौ | धातुनोक्तां क्रियामाहतुः | तद-
वि्िष्टं मवति यथा श्रद्ध पयः || येकं धातुनोक्तत्वात्तस्याथस्योपसगेरयोगो न
भ्रामोष्युक्ताथोनामप्रयोग इति | उक्ताथोनामपि प्रयोगो दृयते । तद्यथा | भपप
९० इावानय । ब्राह्मणी दावानयेति |
अपिः पदा्थसंभावनान्ववसगेगहासमुद्चयेषु ॥ १.।० । ९६ ॥
इह कस्मान्न भवति | सर्पिषोऽपि स्यात् । गोमूत्रस्यापि स्वात् किं च स्वात् ।
द्वितीयापि प्रसज्येत कमप्रवचनीययुक्ते हितीया [ २.३.८ | इति । नेष रोषः ।
* २.३.२८. † ९.२. ४९५.
प° ९.४. ९०-९९.] ॥ ठ्वोकरणमहाया्थय् ॥ ` ३५९.
नेमेऽप्यथौ निर्दि रयन्ते | किं तर्हि | परपदार्था इमे निर्दिरयन्ते । एतेष्वर्थेषु यत्पदं
वतेते तदपत्यपिः करमेप्रवचनीयसंज्ञो भवतीति |} अथवा यदत्र करमेप्रवचनीयथुक्तं
नादः प्रयुज्यते | किं पृनस्तत् | विन्दुः | विन्दोस्तर्दिं कस्मान्न भवति | उपपद-
विभक्तेः कारकविभक्तिबंली यसीति प्रथमा भविष्यतीति | `
अधिरीश्वरे ॥१।४।९७॥ ४
अधिरीभ्वरवचन उक्तम् ॥ ९॥
किमुक्तम् । यस्य ॒चेश्वरवचनमिति कतैनिर्देशेदवचनात्सिदम् । प्रथमा-
नुपपत्तस्तु | स्ववचनास्सिदधमिति* । अभिः स्प प्रति कर्मप्रवचनीवसं्ञो भव-
तीति वक्तव्यम् ॥
लः परस्मेषदम् ॥ १. । ¢ । ९९. ॥ "0
देर परस्मैपद ग्रहणं पुरुषवाधितत्वात् ॥ ९ ॥
उादेो† प्रस्मैपदय्रहणं कतेव्यम् | किं कारणम् । पुरुषवाधिततत् |
इह वचने हि संज्ञावाधनम् । २॥
हृह हि क्रियमाणे ऽनवकाशा पुरुषसंज्ञा परस्मैपदसंज्ञा वाधेत || परस्मेपद-
संञ्ाप्यनवकाङ्चा सा वचनाद्वाविभ्यति | सावकाशा परस्मपदसंज्ञा | कोऽवकाश्चः | 15
खतृक्षसु$ अवकाशः ||
सिचि वृद्धौ तु परस्मेषद ग्रहणं ज्ञापकं पुरुषावाधकत्वस्य ॥ ३ ॥
` . यद्यं तिचि वृद्धिः परस्प पदेषु [७.२.१] इति परस्मेपदमरहणं करोति तज्जञा-
पयत्याचार्यौ न पुरुषसंज्ञा परस्मेपदसंजञां वाधत इति ॥
[ररि णी ण णि
भिकयोणयोनयाानवाछ
# २.२.९.४ † ३.४.०८. 4 १.४. ६०९. § ३.२. ९२४; ९०७.
३५० ` ॥ व्याकरणयपहाभाष्यचः ॥ ` ` ˆ [म०९.४.४,
तिडखीणि जीणि प्रथममध्यमोत्तमाः।९ 191१०९२ ॥
` प्रथममध्यमोत्तमसंज्ञायामात्मनेपद ग्रहणं समसंल्याथंम् ॥ ९ ॥।
प्रथममध्यमो्मसंज्ञायामात्मनेपद महणं कतैव्यम् । जास्मनेपरानां च प्रथम-
मध्यमोत्तमसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् | तमसंख्यार्थम् | संख्वातान्-
5 देशो" यथा स्यात् | भक्रियमाणे ह्यारमनेपदब्रह्णे तिस्रः संज्ञाः षट सं्िनः |
वेषम्यात्संख्यातानुरेश्यो न प्रामोति ॥| (क्रि वमाणेऽपि चात्मनेपदम्रहण
` आनुपृव्येवचनं च | २॥
आनुपुष्यैवचनं च क्तैव्यम् | भक्रियमाणे हि कस्यचिदेव त्रिकस्य प्रथमसं्ञा
स्यात्कस्यचिदेव मध्यमसंज्ञा कस्यविदेवोत्तमसंन्ना || |
10 न त्रैकरोषनिदेदात् ॥ ३॥
यत्तावद्ष्यत भारमनेपदप्रहणं कतेष्यं समसंखूयाथेमिति तत्न कतेन्यम् | संजा
भपि षडेव निर्दिरयन्ते | कथम् । एकशेषनिर्देशात् । एकशेषनिर् शोऽयम् ॥
शथेतस्मिन्नेकशोषनिर्दशे सति किमयं कृतैक दोषाणां इन्दः | प्रथमश्च प्रथम प्रथमौ |
मध्यमश्च मध्यम मध्यमौ | उत्तमथओसमथोत्तमी | प्रथमौ च मध्यमौ चोत्तमी च
15 प्रथममध्यमोत्तमा इति | आहोस्वित्कृतदन्दानामिकशेषः ] प्रथम मध्यमथोत्तमञ्च
प्रथममध्यमोन्तमाः . | प्रथममध्यमोत्तमाथ प्रथममध्यमोत्तमश्ि प्रथममध्वमोत्तमा
इति । किं चातः | यदि कृतैक्र रोषाणां इन्दः भथममध्यमयोः प्रथमसंश्ञा प्राभोत्युत्तम-
प्रथमयोर्मध्यमसंज्ञा परामोति मध्यमोत्तमयोरुत्तमसंज्ा प्रामोति । अथ कृतहन्दानामे-
कोषो न दोषो भवति | यथा न दोषस्तथास्तु | किं पुनरत्र न्याय्यम् | उभवमि-
20 त्याह | उभयं हि दृदयते । तद्यथा । बहु राक्तिकिटकम् | बहूनि शक्तिकिटकानि।
बहु स्थालीपिटरम् । बहुनि -स्थालीपिठराणि ॥ यदप्युच्यते क्रियमाणे ऽप्यास्मनेषद-
हण आनुपु्य वचनं कर्तव्यमिति | न करेष्यम् | लोकत एतस्िद्धम् । त॑द्यथा ।
लोके विह्यस्य शाभ्यां हाभ्यामभिरुपस्थेय इति न चोच्यत भानुपूर्व्यगेत्यानुपु्बण
चोपस्थीयत इति ॥
क ९,३.९०.
प°. ५.४.१०१-१९०८.] ॥ व्यौकर्गयशभाष्यप् | ३५५१.
विभक्तिश्च ॥ १ । 1१.०४ ॥ `
रीणि ब्रीणीत्यनुवतेत' उताहो न । किं चातः | यशनुवतैते ऽ्टन आ विभक्तौ
[७.२.८४] इत्यात्वं न प्रामोति | भथ निवृत्त प्रथमयोः पूर्वैसवणैः [६.१.१०२]
इत्यन्न प्रत्यययोरेव परहणं प्रामोति । यथेच्छसि तथ।स्त || अस्त तावदनवतेत इति |
ननु चोक्तमष्टन भा विभक्तातित्यात्वं च प्रामोतीति | वचनाद्विष्यति || अथवा 5
पुनरस्तु निवृत्तम् । ननु चेक्तं प्रथमयोः पूवेसरवणे इत्यत्र प्रस्यययोरेव ग्रहणं भरामो-
तीति । नैष दोषः । अचीत्यनुवर्तेते न चाजादी प्रथमौ प्रययौ स्तः | ननु चैव
विज्ञायते ऽजादी यै प्रथमावजादीनां वा यौ -प्रथमाविति | यत्तर्हि तस्माच्छसो नः
पुंसि [६.१.१०६] इरयनुक्रान्तं पृथैसवणेदीधे प्रतिनिरिश्चति तज्ज्ञापयत्याचार्यो
विभक्तयोर्महणमिति ॥ अथवा वचनग्रहणमेव कृयीत् | ओजसः पृवैसवणं इति|| 10
युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्थपि मध्यमः ॥ १।४।२१.०५ ।
अस्सदयुत्तमः।। ९.1 ४।१.०.७॥ रोषे प्रथमः ॥ १.।४।२.०८॥
किमथंमिदमुच्यते ।
युष्मदस्मच्छेषवचनं नियमार्थम् ॥ ९ ॥
नियमा ऽयमारम्भः || अचेतस्मित्नियमारथे विज्ञायमाने किंमयमुपपदनिथमः | 18
युष्मदि मध्यम एव | अस्म्युत्तम एव | भहोखिष्युरुषनिथमः | युष्मयेव मध्यमः |
भस्मद्येवोत्तम इति | करं चातः | यदि पुरुषनियमः दोषम्रहणं क्ष्यं शोषे प्रथम
इति । किं कारणम् । मध्यमोत्तमौ नियतौ युष्मदस्मदी अनियते तत्र॒ प्रथमो अपि
प्रामोति । त्र रेषमहणं कतेव्यं प्रथमनियमा्थंम् | शेष एव प्रथमो भवति नान्य-
ति | अथप्युपपदनियम एवमपि शोषप्रहणं करतैव्यं दषे प्रथम इति | युष्मद- 20
स्मदी नियते मध्यमोत्तमावनियतौ तौ ेषेऽपि प्ामुतः । तत्र शेषग्रहणं -कर्ैव्यं
कसेषनियमार्थम् | दोषे प्रथम एव भवति मान्य इति || उपपदनियमे शेषग्रहणं
च्ाक्यमकरुम् । कथम् । युष्मदस्मदी नियते मध्यमोत्तमावनियतौ वौ -लेषे ऽपि प्रा-
१ ष 1 त
३५२ | ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम् ॥ - ` [म०९.४.४,
भुतः | ततो वक्ष्यामि प्रथमो भवतीति | तक्नियमाथे भबिष्यति । यत प्रथमथा-
न्य प्राति तत्न प्रथम एव भवतीति ॥
. तत्र युष्मदस्मदन्येषु प्रथमप्रतिषेधः दोषत्वात् ।। २ ॥
त्र युष्मदस्मदन्येषु प्रथमस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्वं च देवदसथ पचथः।
5 अहं च देवदत्त पचावः | किं कारणम् | दोषत्वात् | दोषे प्रथमं इति प्रथम
प्रामोति ||
सिद्धं तु युष्मदस्मदोः प्रतिषेधात् ॥ ३।।
सिद्धमेतत् । कथम् | युष्मदस्मदोः प्रतिषेधात् । शेषे प्रथमो युप्मदस्मदोनति
कक्तत्यम् ॥
10 युष्मदि मध्यमादस्मद्युत्तमो विप्रतिषेधेन ।। ४॥
युष्मदि मध्यमारस्मश्ु्म इव्येतद वति विप्रतिषेधेन | युष्मदि मध्यम इत्य-
स्यावकाश्चः | त्वं पचसि | अस्मद्युत्तम इत्यस्यावकाशः | अहं पचामि | इहोभयं
प्राभ्रोति | सवरं चाहं च पचावः | अस्मद्युत्तम इत्येतद्ध वति विप्रतिषेधेन || स ई
विप्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः | त्यदादीनां यद्यत्परं तक्तच्छिष्यत इत्येवमस्मदः
15 शेषो भविष्यति । तत्रास्मश्युत्तम इत्येव सिद्धम् ॥ |
अनेकरोषभावाये तु ॥ ५
अनेकदोषभावाथे तु स विप्रतिषेधो वक्तष्यो यदा चैकरोषो न | कदा चैकेन
न | सहविवक्षायामेकशेषः | यदा न सहविवक्षा तदैक रेषो नात्ति ||
नवा युष्मदस्मदोरनेकरोकभावात्तदधिकरणानामप्यने-
20. .:. .. . कशेषभावादविप्रतिषेधः। ६॥
न वार्थो विप्रतिषेधेन ! किं . कारणम् | युष्मदस्मदोरनेकशरोषभावात्तदधिकर-
गानामपि युष्मदस्मदधिकरणानामप्येकदोषेण न भवितव्यम् | स्वं चाहं च पचसि
पचामि चति || -
क्रियापृथक्के च द्रव्यपृयक्तदरदा नमनुमानमुत्तरव्रानेकरोषभावस्य ॥ ७ ॥
28 क्रियाप्रथक्के च द्व्यपृथत्कं दृयते । तदथा । पचसि पचामि च त्वं चाहं
पा० १.४.९०५-९०८. ] ॥ व्याक्ररणमहाभ्राष्यम् ॥ ३५३
चेत्नि (- वदु भानमुत्तरयोरपि क्रिययोरेकशोषो न भ्रवतीति | ..एवं च ङ्त्व सो
ऽप्यदोषो भवति यदुक्तं तन्न युष्मदस्मदन्येषु परथमप्रतिषेधः. दोषत्वादिति । तज्ापि
छेतर भव्रितभ्यम् | त्वं. च देवदत्त पचसि पचति च | अहं च देवदत्तथ पचामि
पचति चेते ॥
यत्तावदुच्यते न वा युष्मदस्मदोरनेकशेषभावात्तदधिकरणानामप्यनेकरोषभावा- $
दविप्रतिषेध इति दुइयते हि युष्मदस्मदोश्चनेकरोषस्तदपिकरणानां चैकदोषः | त-
द्यथा | त्वं चाहं च वृत्रहज्तुभा संप्रयुज्यावहा इति || |
यदप्युच्यते क्रियाप्रथत्के च द्रव्यपृथक्करदरोनमनुमानमुत्तरत्रानेकर दोषभावस्येति
्रियापृथक्के खल्वपि द्रन्यैक शोषो भवतीति दृरयते | तव्यथा | अन्षा भज्यन्तां
भद्यन्तां दीभ्यन्तामिंति | एवं च कृत्वा सोऽपि दोषो भवति यदुक्तं तत्र युष्मद- 10
स्मदन्येषु प्रथमप्रतियेधः रोषस्वादिति || नेष दोषः । परिहतमेतस्सिद्धं तु युष्मद-
स्मदोः प्रतिषेधादिति | स तरह प्रतिषेधो . वक्तव्यः | न वक्तव्यः | दोषे. प्रथमो
विधीयते न हि रोषधान्यथ दोषग्रहणेन गृह्यते | भवेखथमो न स्यान्मध्यमोत्तमा-
वपिन प्राप्तः | किं कारणम् | युष्मदस्मदोरूपपदयो मैध्यमोत्तमावुच्येते न च युप्म-
दस्मदी अन्य युष्मदस्मद्भहणेन गृह्यते | यदत्र युष्मद्यवास्मत्तदाश्रयौ मध्यमोत्तमौ 15
भत्रिष्यतः | यथेव तहिं यदत्र युष्मद्यचास्मत्तदाश्रयौ मध्यमोत्तमी भवत एवं योऽत्र
दोषस्तदाश्रयः प्रथमः प्रामोति || एवं तर्हि रेष उपपदे प्रथमो विधीयते. । उपोच्ारि
पदमुपपदम् । यचत्रोपोचारि न स रेषो यथ दोषो न तदुपोचारि | भत्रेखथमो
न स्यन्मध्यमोत्तमावपि. न प्राप्ुतः | किं कारणम् | युष्मदस्मदोरुपपरदयो मेध्यमो-
तमावुच्येते | उपोचारि पदमुपपदम्. | यच्यात्रोपोचारि न,ते युष्मदस्मदीये च यु-
ऽ्मदस्मदी न तदुपोज्चारि || एवं तर्द रोषेण सामानाधिकरण्ये प्रथमो विधीयते
न चाक्र रोषेणेवर सामानाधिकरण्यम् | भवेखमथमो न स्यान्मध्वमोत्तमावपि न प्रात्र
: | करं कारणम् | युष्मदस्मद्यां सामानाधिकरण्ये मध्यमोत्तमावुच्येते न चत्र
युऽ्मरस्मद्यामेव सामानाधिकरण्यम् || एवं तरदं -व्यदारैनि सर्वैर्नित्यम् [ ९.२.
७२ | इत्येवमत्र युष्मदस्मदोः दोषो भविष्यति | तत्न युष्मदि मध्यमो ऽप्मदयुत्तम ४
इत्प्रेव सिद्धम् || न सिध्यति. | स्थानिन्यपीति प्रथमः प्राप्रोति | व्यर्सदीनां
खल्त्रपि यद्यत्परं तत्तच्छिष्यत इति यदा भवतः दोषस्तदा प्रथमः प्रभोति ||
युप्मदि मध्यमो सस्मयुत्तम इस्येब्रोच्यते | ताविह न प्रामुनः | परमस्य पचमि |
45 आव
३५४ ॥ म्याकरगयहामाप्यदच्् ॥ { म० ९.४.४.
पर माहं पचामीति. | तदन्ततिधिना+. भविष्यति । इद्यपि तहि तदन्तविधिना प्राप्ुतः |
भतित्वं पचति । भत्यहं पचतीति । ये चाप्येते समानापिकरणवुत्तयस्तद्धितास्तत्र
भ मध्यमोत्तमौ न प्रापुतः | स्वत्तरः पचसि मत्तरः पचामीति | त्वनबरूपः पचति
मद्रपः पचामीति | त्वत्कल्पः पचति मस्कल्यः पचामीति || एवं तहिं युष्महत्य-
४ स्मदतीव्येवं भविष्यति । हापि तहं प्राभुतः | अतित्वं पचति । त्यहं एचतीति ॥
एवं तर्हि युष्मदि साधने ऽप्मदि साधन हत्येवं भविष्यति | एवं च कृत्वा
सोऽप्यदोषो भवति यदुक्तं तत्र॒ युष्मदस्मदन्येषु प्रथमप्रतिषेधः . दोषत्वादिति ॥
अथवा प्रथम उत्सः करिष्यते तस्य॒ युष्मदस्मदोरपपदयोर्मध्यमोत्तमावपतरारो
भविष्यतः | तत्र युष्महन्धथास्महन्धथास्तीति कृत्वा मध्यमोतमौ भविष्यतः ॥
10 भयेह कथं भवितम्यम् । अत्वं त्वं संपद्यते त्वद्भवति मद्भवतीति । भहोस्वि-
श्वद्भवसि मद्रवामीति | स्वदवति मद्धवतीव्येवं भवितव्यम् | मध्यमोत्तम कस्मान्न
भवतः | गौणमुख्ययेोरजुख्ये संप्रत्ययो भवति । तथथा । गीरनुबन्ध्यो . ऽजो ऽओी-
पीमीय इति न बाहीको अनुबध्यते | कथं ता बाहीके. वृद्यास्वे भवतः† | नौ
स्तिष्ठति । गामानयेति । अर्थाश्रय एतदेवं भवति । यद्धि शब्दा्रयं शब्दमात्रे
15 तद्वति | राब्दात्रये च वृद्धात्वे ||
परः संनिकषैः संहिता ॥ १. । 9 । २.०९, ॥
परः संनिकर्षः संहिता चेदद्रुतायामसंहितम् ॥ ९ ॥ `
परः संनिकषेः संहिता वचेदहरुतायां धर चौ संहितासंज्ञा न प्रामोति । दुतावामेव
हि परः; संनिकर्षो षणौनां नाद्रतायाम् ॥
20 तुल्यः संनिकपषेः ॥ ‰ ॥
तुल्यः संनिकर्षो वणानां दुतमध्यमविलम्बिताद वृत्तिषु || किकृतस्ता्दि विशेषः ।
वणकालभूयस्स्वं तु ॥ ३ ॥
वणोनां तु कालमूयस्त्वम् । त्चथा । दस्तिमशकयोस्तुल्यः संनिकषेः प्राणि
भूयस्त्वं तु || यद्येवं
* ९.९.७२१ † ०,९.९०; ६. १.९६. `
पा, १.४.९०९. ॥ व्याकरणमहाभाष्य ५ ३५५
दुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्योनं कालभेदात् ॥ ४ ॥ `
द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरपसंख्यानं कतेव्यम् । किं कारणम् ।
कालमेदात् | ये क्रुतायां वृत्तौ वणाज्निभागाधिकास्ते मध्यमायां ये मध्यमायां वृत्तो
बणालिभागाधिकास्ते विलम्बितायाम् ॥
उक्तं वा ॥ ९५९॥ | 6
किमुक्तम् 1 सिद्धं त्ववस्थिता वणी वक्तुधिराचिरवचनाद्रृत्तयो विशिष्यम्त
इति" ॥ | |
अथवा दाब्दाविरामः संहितेत्येतद्वक्षणं करिष्यते |
राब्दाविरमि प्रतिवणंमवसानम्।॥ £& ॥
हाष्दाविरामि प्रतिवणेमवसानसंज्ञा प्रामोति† | किमिदं प्रतिवणैमिति | वणे वणे 10
प्रति प्रतिवणैम् । येनैव यनेतैको वणे उयते विच्छिन्ने वणे उपतंहत्य तमन्यमु-
पादाय द्वितीयः प्रयुज्यते तथा तृतीयस्तथा चतुथः || एव्वं तद्यनवकाशा संहितासं-
ज्ञावसानसंज्ञां वापिष्यते | अथवावसानसंज्ञायां प्रकर्षगतिर्िज्ञस्यते साधीयो यो
विराम इति | कथ साधीयः | यः शब्दाथैयेर्विरामः | `
अथवा हःदाविरामः संहितेव्येतष्टक्षणं करिष्यते । | 15
हादाविरमे स्परापोषसंयोगे ऽसंनिधानादसंहितम् ॥ ७ ॥
हादाचिरामि ` स्पश्यौनामवोषाणां संयोगे ऽसंनिधानारंसंहितासंज्ञा न प्राभोति |
कुक्कुटः पिप्पका पित्तमिति || किमुच्यते संयोग इति | अथ यत्रैकः पचतीस्येकः
ूर्वैपरयोहौदेन प्रच्छाद्यते 1 तद्यथा । हयो रक्तयोवेखलयोमेभ्ये शुङ्क वल्ल तदुण-
मुपलभ्यते | बदरपिटके रिक्तको लोहकंसस्तहुण उपलभ्यते ॥| 20
एकेन तुल्यः संनिधिः ॥। ८ ॥
धयेको वर्णो हदिन प्रच्छाद्यत एवमनेकोऽपि ॥
थवा कौर्वापर्यमकोलम्यपेतं संहितेस्येतद्यक्षणं करिष्यते । `
एकाक ० क क गिणगीणगगीगिणणिणणिणीणणणणरणगणगीषषकिषणीयष णी
+ ९,६.७०. ¶† २.४.६१०,
९५६ ॥ व्छाकरणम्रराभाव्यन्र् ५ [ म०९.४४.
वोर्वापर्यमकालव्यपेतं संहिता चेप्पूवपराभावादसंहिसम्'॥ ९ ॥ `
. पौव।पर्यमकालम्यपेतं संहिता चेत्पूवापर भाव, त्संहितासंज्ञा न प्रामोति, नदि
वर्णानां पौवापयेमस्ति | किं कारणम् |
एकैकवर्णवर्ित्वाद्राच उचरितपध्वैसिस्वाच वर्णानाम् ॥ १०॥
एक्ैकवणेवर्विनी वाक् | न द्वौ युगपद्चारयति । गौरिति यावह्ूकारे वाग्बतेत
नीकांरे न विसजेनीये यावदौकारे न गकारे न विसजेनीये यावद्धिस जनीय न गकारे
नीकारे । उचारेतप्रध्वेसितस्वात् । उचरितप्रध्वंसिनः खल्वपि वणः | उच्चरितः
प्र्वस्तः | अथापरः प्रयुज्यते न वर्णो वणेस्य सहायः | एवं तर्द
बुद्धौ कृत्वा सर्वाश्चेष्टाः कतौ धीरस्तत्वन्नीतिः ।
शब्देनार्थान्वाच्यान्दरषएा बुद्धो ुर्यात्पोवौपरयम् ॥
बुद्धिविषयमेव शाढ्डानां पौर्वापयेम् । इह य एष मनुष्यः प्रेक्षापर्वकारी मवति
स परयत्यस्मन्नर्थे अयं दाब्दः प्रयोक्तव्यो ऽरिमस्तावच्छ्दे ऽयं तावद्कणस्ततो यं
ततो ऽयमिति ||
%
विरामो अवसानम् ॥ १। ७।११० ॥
15 इदं त्रिचायते ऽभावो ऽवसानलक्षणं स्याहिरामो वेति | कात्र विदोषः |
अभावे जसानलक्षण .उप्यभाववचनम् | ९॥।
अभावे ऽवसानलक्षण उप्येभावमरहणै कतैभ्यम् | उपरि यो ऽभाव इति
वक्तव्यम् |. पुरस्तादपि हि शब्दस्याभावस्तत्र म। भूदिति। किं च स्यात् | रसः
रथः | खरवसानयोर्धि सजनीयः [८.३.९९] इति विसजनीयः प्रसज्येत ॥ भसु
2५ तर्हि विरामः | |
विरामे विरामवंचनेम् ॥ ‰॥
य्य विरामो विरामग्रहणं तेन कतेग्यम् | ननु च यस्याप्यभावस्तेनाप्यभाव-
्रहणं कतव्यम् | पराथ मम भविष्यति | अभावो लोपः! | ततो त्रप्तानं चेति|
~ -*-~ --=--=- - --- ~~
#९,, ९. ६०,
पा० ९.४.५२०. ॥ व्याकल्णमदाभाष्यप ॥ ६५७
ममापि तहि विरामग्रहणं परार्थं भविष्यति | विरामो रेपो ऽवसानं चेति | उपरि
यो विराम इति वक्तव्यम् । पुरस्तादपि शाब्दस्य विरामस्तत्र माभूत् | किं र
स्यात् | रसः रथः | खरवसामयोर्विसजेनीय इति वसजनीयः प्रसज्येत | भआर-
म्भपवको मम निरामः ॥
अथवा नेदमवसानलन्षणं विचार्यते | कि तरि | सं्नी | अभावो ऽवसानस्ी $
स्याद्िराम वेति | कथात विश्येषः|
अभावे भवसानसंससिन्युपयैभाववचनम् ॥ ३ ॥
अभावे ऽवसानसंज्ञिन्युप्यभावम्रहणं कतेष्यम् | उपरि यो ऽभाव इति वक्त-
ध्यम् | पुरस्तादपि हि शब्दस्याभावस्तत्र मा भूदिति | किं च स्यात् | रसः
रथः । खरवसानयोविसजेनीय इति विसजेनीयः प्रसज्येत || स्तु तहि विरामो 10
ऽवस्रानम् |
विरामे विरामवचनम् || ४.॥
यस्य विरामस्तेन विरामय्रहणं कतेव्यम् | ननु च यस्याप्यभावस्तेनाप्यभावभ-
हणं कतेव्यम् | पराथ मम भाविष्यति | अभावों लोपः | ततो ऽवसानं चेति |
ममापि तहि विरामयहणं पराथं भाविष्यति । विरामो रेपो ऽवक्तानं चेति | उपरि 15
यो विराम इति वक्तव्यम् | ननु चोक्तमारम्भपुवैक इति | नावदयमयं रमिः
परवृत्तावेव वर्तेते | किं तहि । अप्रवृत्तावपि | तश्चथा | उपरतान्यस्मिन्कुके व्रता-
न्युपरतः स्वाध्याय इति न च तत्र स्वाध्यायो भूतपूर्वो भवति नापि व्रतानि ||
भावाविरामभाविव्वाच्छब्दस्यावसानलक्षणं न ॥ ५॥
भावाविरामभावित्वाच्छब्दस्यावसानलक्षणं नोपपद्यते | किमिदं भावाविरामभा- 20
विस्वादिति | भावस्याविरामो भावाविरामः | भावाविरामेण भवतीति भावाविरा-
मभावी | भावाविरामभाविनेा भावो भावाविराममावित्वम् |
अपर भाह । भावभाविलादविरामभाविघ्वाच शष्दस्यावसानरक्षणं नोपपश्यत
इति ||
तदयर इति वा वर्णस्यावसानम् ॥ ६ ॥ ` ॐ
विरामपरो वर्णो भवसानसंज्ञो मत्रतीति वक्तव्यम् ||
३५९ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [बण ९.१.४,
वर्णोऽन्स्यो वावसानम् | ४७ ॥
अथवा ध्यक्तमेव पठितव्यमन्त्यो वर्णो ऽव खानसं्ो भवतीति | तन्तर्दिं वक्ष
प्यम् | न षक्तव्यम् |
संहितावसानयीर्खोकविदितस्वास्सिद्धम् ॥ ८ ॥
५ संहितावसानमिति लोकविदितावेतावथौ | एवं हि ` कथित्कचिदधीयानमाह |
हानोदेवीयं संहितयाधीष्वेति | स सत्र परमसंनिकषंमषीते | भपर आह | केग.
वस्यसीति | ख आह । भकारेणेकारेणो करणेति । एवमेत लोकविदितावर्थौ तयोः
लोंकविदितस्वास्सिद्धमिति ॥
इति भ्रीभगवस्पतच्ञकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चुं
10 पादे चतुथेमाह्धिकम् ॥ पाथ समापनः ॥
--॥| प्रथमो ऽध्यायः समाप्तः |.
समथः पदविधिः ॥२।१।१॥
विधिरिति कोभ्यं शब्दः | विपुर्ीदामः कमसाधन इकारः | विधीयते निधि-
शिति | किं पुनधिधीयते | समासो बिभक्तेविधानं पराङ्गवद्धावभ' ||
किं पुनरयमधिकार भाहोस्विस्परिभाषा | कः पुनरधिकारपरिभाषयोविशोषः ।
भधिकारः प्रवियोगं तस्यानिर्दश्चाथं इति योगे योग हपतिष्ठते | परिभाषा पुनरे-
कदेशास्था सती सवै शाखलरमभिज्वखयति प्रदीपवत् | तद्यथा | प्रदीपः प्रज्व-
कित एकरेदस्थः स्वे वेदमाभिज्वलयति | कः पुनरत्र प्रयलविदोषः | अधिकारे
सति स्वरयितव्यं परिभाषामां पुनः सत्यां सवैमपेषष्यम् || तथेदमपरं हैतं भव-
व्येकार्थीभावो वा सामथ्यै स्याद्यपेक्षा वेति । तश्रैकार्थीभावे सामर्थ्ये ऽभिकारे
च सति समास एकः संगृहीतो भवति विभक्तेिविधानं पराङ्गवद्धावासंगृहीतः | 10
ध्यपेक्षायां पुनः सामर्थ्ये अधिकारे च सति विभक्तिविधानं पराङ्गवद्भाव संगृहीतः
खमासस्त्वेको ऽसंगृहीतः । अन्यत्र खल्वपि समर्थमहणानि युक्तप्रहणानि च कते-
व्यानि भवन्ति | कान्यत्र | इठसोः सामर्थ्ये [८.३.४४] न चवाहाहैवयुक्ते
[८.९.९४] इति । व्यपेक्षायां पुनः सामर्थ्य परिभाषायां च सत्यां यावान्ब्याकरणे
पदगन्धो अस्ति स सवैः संगृहीतो भवाति समासस्त्वेको ऽतंगृहीतः । तत्रैकार्थाीभावः 15
सामथ्यै परिमाषा वेस्येवं सुश्रमभिच्रतरकं भवति || एवमपि कचिदकतेग्यं समथ-
परहणं क्रियते कचिश्च कतेव्यं न क्रियते | अकर्तव्यं तावच्कियते समथोनां प्रथमाहया
[४.१.८१] इति | कर्तव्यं न क्रियते कर्मण्यण् [३.२.१९ | समथोरिति | ननु च गम्यते
तजर सामथ्यंम् | कुम्भकारः नगरकार इति | सस्यं गम्यत उस्पन्ने तु प्रत्यये | घ
एव तावत्समयादुत्पा्ः || 20
अथ समथेमहणं किमथेम् | वशयति हितीया भरितारिभिः समस्यते | कष्टिः
नरकञ्चित इति । समथेग्रहणं किमयेम् | परय देवदत्त कष्टं त्रितो विष्णुमित्रो
# >.६.,३; २,३.६; २,९६.२. ¶† २. ९. २४.
॥ / |
३६० ॥ त्याकस्मपटाभाष्यय् ॥ [म०-२.१.९.
गुरुकुलम् || तूया तक्कृतार्थेन गुणव चनेन [२.१.२०] शङ्कलाल डः किरि काणः।
समथ महणं क्रिमधेम् । तिष्ठ त्वरं शाङ्कलया खण्डो धावति मुसलेन । चतुर्थी तद-
धाथ बरिहितङखर्तितेः [२६] गोहितम् अश्वहितम् | समथंमहणं कमथम् । एलं
गोभ्यो हितं देवदत्ताय || पन्चमी भयेन [३७] वृकभयम् दस्युभयम् चोरभयम् ।
5 समयेदणं किमथेम् | गच्छ स्वं मा बृकेभ्यो भयं देवदतस्य यज्ञदत्तात् ॥ षी
उबन्तेन समस्यते* | राजपुरुषः ब्राह्मणकम्बलः | समर्थग्रहणं किमर्थम् | भायां
राज्ञः पुरुषो देवदत्तस्य || सपमी श्रौण्डैः [४ ०] भक्षक्ौण्डः लीह्लौण्डः | समर्थमर्हणं
किमर्थम् | कु दारो देवद तोऽ्ेषु शौण्डः पिबति पानागरे ॥
अथ क्रियमणिऽपि सम्थप्रहण इह कस्मान्न भवाति । महत्क्ं भ्नित इति |
10 न वा भवति महाकष्टश्नित इति | भवति यदैतहाक्यं भवति महत्कष्टं महाकष्टम्
महाकष्टं भ्नितो महाकष्टसित हति | यदा त्वेतदाक्यं , भवति महस्कष्टं भित. इव
त-न भवितव्यं तदा च प्राप्रोति | तदा कस्मान्न भवति | कस्य कस्मात्त भवति
किं हयोराहो्वद्वहूनाम् { बहुनां कस्मान्न भवति | इष्डपोति वतेते! | ननुच
भो आकृतौ हालराणि प्रवर्वन्ते | तद्यथा । प्रातिपदिकादिति बतेमाने =न्यस्म्ा-
15 ्ान्यस्माच प्राति पदिकादुत्प्तिमेवति । सत्यमेवमेतत् | आकृतिस्तु प्रत्येकं परि-
समाप्यते | यावत्येतत्परिस्माप्यते प्रातिपदिक।दिति तावत उत्यस्या भवितष्ं
प्रस्येकं चैतस्परिसमाप्यते न समुदाये । एवमिहापि यावव्येतत्परिसमाप्यते ष्डुपेति
तावतः समासेन भावितव्यं इ योभ्चैतस्परिसमाप्यते न बहषु || इयोस्तर्हि कस्मान्न
भवति | असामर्थ्यात् | कथमसामर््यम् | सापेक्षमसमयै भवतीति ।|
20 ` यदि सपेक्षमस्मथे भवतीत्युच्यते राजपुरूषो ऽभिरूपः राजपुरुषो द दोनीयः भ
वृत्तिनै प्रामोति । नैष दोषः | प्रधानमत्र सापेक्षं भवति च प्रधानस्य सपिक्षप्यापि
समासः || यत्र तद्येभधानं सापेक्षं भवति तत्र ते वृत्ति परामोति | देवदत्तस्य गरकु-
लम् देवदत्तस्य गुरुपुललः देवदत्तस्य दासभार्येति | नैष दोषः । समुदायापिकषाब्र
षष्ठी सवे गुरुकुल मपेक्षते || यत्र तां न समुदायापेक्षा षष्ठी तत्र वृतिने प्रामोति |
25 किमोदनः शालीनाम् । सक्कराहकमापणीयानाम् | कुतो भवान्प्रटलिपुत्रकञ इति|
` इह त्रापि देवदत्तस्य गुरुकुलम् देवदत्तस्य गुरुपुत्रः देवदं ततस्य दासभार्येति यथेषा
समुदायापेक्षा षी स्यान्चैतन्नियोगतो मम्येत देवदत्तस्य यो गुकस्तस्य यः पुल हइति।
किं तर्द | अन्यस्यापि गुरुपुत्रो देवदत्तस्य किंचिदिस्येषो ऽर्था गम्येत । यतस्तु नि-
२.२.८० .- {२.५८८.२८४ - {५.१९.९. . , §४.२. २२३.
फ्०२.९.९. | ॥ ग्छकस्ममहसभाष्वम् ।। ३६९
योगतो देधदत्तस्य यो गुरस्वस्य यः पुत्र इत्येषो ऽथा मम्यते ऽतो मन्यामहे नैषा
समुदायापेक्षा षष्टीति || अन्यत्र खस्थपि समथे्हणे सपेक्षस्यापि काये भक्ति 1
कान्यत्र | इष्डसोः सामर्थ्ये [८.३.४४] ब्राह्मणस्य सर्पिष्करोतीति || तस्मातैतच्छ-
क्यं वक्तु सापेक्षमसमर्थं भवतीति | वृत्तिस्तार्दि कस्माच्च भवति महत्कष्टं भरित
इति । सवि होषणगानां वृत्तिने वृत्तस्य वा वैदोषणं न प्रयुज्यत इति वक्तव्यम् || ४
यदि सविदोषभानां वृत्तिर्न वृत्तस्य वा विदहोषणं न प्रयुज्यत ह्युच्यते देवदत्तस्य
गुरुकुलम् रेवदन्तस्य गुरुपुत्रः देवदन्तस्य दासभार्येस्यत्र वृतिने प्राभोति 1 अग्-
दकुलपुलादीनामिति वक्तष्यम् ॥
तत्तर्हि वक्तव्यं सविशेषणानां विने वृत्तस्य वा विशेषणं न प्रयुज्यते ऽगुस-
कुठपुत्रादीनाभिति | न वक्तश्यम् | वृत्तिस्तार्हि कस्माच्च भवति | अगमकस्वात् ] 10
इड समानार्थेन वाक्येन भवितव्यं समासेन चं | यथहा्थौ वाक्येन गम्यते महत्कष्टं
श्रित इति न जातुचित्समासेनासी गम्यते मदत्कष्टभिष इति | एतस्माद्धतो््रुमो
ऽमकस्वादिति न ब्रूमो ऽपश्चष्दः स्यादिति | यत्र गमको भवति भवति तंत्र
वृत्तिः | तद्यथा | देवदत्तस्य गुरुकुलम् देवदत्तस्य शृर्पुत्रः देवदत्तस्य दास-
भार्येति ॥ यद्थगमकस्वं हेतुनथेः समर्थम्रहणेन । इहापि भाया राकः परषो 15
देवदन्तस्येति यो अर्थो वाक्येन गम्यते नासौ जातुचिस्समासेन शम्यते भायौ राज-
पुरुषौ देवदत्तस्येति । तस्माच्नायैः ख मथेमहणेन ||
इदं तर्हि प्रयोजनम् । भस्त्यमयैसमासो नञ्घमासो गमकस्तस्य साधुस्वं मा
भूत् | भर्किचिस्कुवोणम् अमाष॑हरमाणम् अगाधादुस्छष्टमिति ॥ एतदपि नास्ति
भयोजनम् । भवदयं कस्यवित्नञ्समासस्यासमथ समासस्य गमकस्य साधुत्वं वक्त. 20
व्वम् | अस्यपरयानि मुखानि । अपुनगयाः शाकाः । अश्राद्धभोजी अलवणभोजी
ब्राह्मणः | छडनपुंसकस्य [१.१. ४३] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । एतस्यैवास-
मर्धसमासस्य नञ्समासघ्य गमकस्य॒साधुस्वं भवति नान्यस्येति || तस्मान्नार्थ
समयेषहणेन |
कथ क्रियमाणे ऽपि समथेग्रहणे समथमिव्युव्यते किं समथ नाम| ४
पृथगर्थानामिकार्थीभावः समर्थवचनम् ॥ ९ ॥
पृथगथौनां पदानामेकार्थामावः समर्थमित्युच्यते ॥ क पुनः प्रथगर्थानि कका-
योनि । वाक्ये एथगथोनि । राज्ञः पुरुष हति | समासे पनरेकाथोनि | राजपुरुष
46 श
३६९ ॥ ग्याकरनमहामाच्यमः॥। ` [मण०९.१.१
हति || किमुच्यते प्रथगर्थानीति यावता' राज्ञः पुरुष आनीयतामिव्युक्ते राजपुरुष
आनीयते राजपुरूष इति च स एव | नापि न्रुमो ऽन्यस्यामयनं भवतीति | कस्त
कार्थीभावकृतो विदोषः |
सुबरोपो व्यवधानं यथेषमरन्थतरेगाभिरसंबन्धः स्वर
` इति ।| छपोऽलोपो भवति वाक्ये | राज्ञः पुरुष हति । समासे पुजन भवति |
राजपुरुष इति || व्यवधानं च भवति वाक्ये | राज्ञ ऋद्धस्य पुरुष इति|
मासे न. भवति । राजपुरुष इति ॥ यथेष्ट मन्यतरेण।मिसंबन्पो भवति वाके ।
राक्षः पुरुषः पुरुषो राज्ञ इति | समासे न भवति । राजपुरुष हति ॥ हौ स्वरौ
भवतो वाक्ये | राज्ञः पुरुष इति । समसि पुनरेक एव | राजपुरुष इति || नैत
10 एकार्थभिावकृता विदेषाः | कं तर्द | वाचनिकान्येतानि | आह हि भगवान् ¡ पो
धातुप्रातिपदिकयोः [२.४.७१]|। उपस्जेनं पूवम् [२.२.३०] । समासस्यान्त
उदात्तो भवतीति" ॥ इमे तर्हकार्थीभावङ्ता विषाः | |
संख्याविशेषो व्यक्ताभिधानयुपसलं नविरोषणं चयोग
इति :॥| संख्यावि दोषो भवति वाक्ये | राज्ञः" पुरुषः राज्ञोः .पुरुषः राज्ञां पुरुष
15 इति | समासे न भवति। राजपुरूष इति || अस्ति कारणं येनैतदेत्रं भवति 4 कं कार,
णम् | योऽसौ विशेषवाची शब्दस्तदसांनिष्यात् | अङ्ग हि मवास्तमुच्ारयतु मंस्वद्े
स निशोषः ॥ ननु च चैतेनैवं भवितव्यम् | म-हि दा्दकृतेन नमार्थेन भवितव्यम् |
अधैकृतेन नाम -राष्देन भवितश्यम् | -तदेतदेवं -दृदयतामथस््पमेवैतदे वं जातीयकं
येनात्र - विशेषो न गम्यत इति | भवदयं चैतदेवं विक्ञेयम् | .यो हि मन्थते वो
९0 ज्सौ . विशेषवाची - शब्दस्वदसांनिध्यादन्र -विदोषो न .गस्यत इतीह तस्य विश्चेषो
नस्ये | अष्डचरः गोषुच्ररः वशोद्धज इति | व्यक्तामिधानं भवति वाक्मे | त्रा-
ह्मणस्य कम्बलस्ति्ठतीति । समासे -पुनरव्यक्तम् । ब्राह्मणकम्बलस्तिषठतीते । सं-
देहो भवति संबुदधिवौ स्माखष्ठीसमासो वेति | एषोऽप्यविशोषः | भवति हि
` किचिदाक्ये ऽच्यग्कं तञ्च समासे व्यक्तम् | वाक्ये तावदव्यक्तम् | अपे षोर्देवर-
2 स्वेति । संदेहो भवति पद्युगुणक्य वा देवदत्तस्य यदेथमथवा- योऽसौ संज्ञीमुतः
वशुमीम तस्य , यदपम्मिति. | तश्च. समासे. व्यक्त. भवति । गैपशयुदवदचस्येवि ॥
उपसभेनविशोकणं भवति. चम्क्ये - ( -ऋ्ट्दरस्य -राज्तः पुरष हति । समासे. भवति ।
+= 1
५ #ि ॥। # १ * ब रहे 9
पा१२.१.९. ॥ व्यकर्गयहयभाष्ययः ॥ ३एडे
राजपुरुष हति ॥ एभोऽप्यविरोषः.| खमासे ऽप्युपसजेनविशरोषणं भवति । तद्यथा |
देवदतस्य गुरुकुलम् देवदत्तस्य गुरुपुत्रः देवदत्तस्य दासभार्येति | चयोगो भव्ति
वाज्य | स््रचयोगः स्वमिचयोगथ | स्वचयोगः | राज्ञो गौश्च परूषथेति |
समसि न भव्राति | राज्ञो गवराशपुरुषा इति | स्वामिचयोगः | देव्रदत्तस्य च यज्ञ-
दत्तस्य च विष्णुमित्रस्य च भैरिति । समति न भवति । देवदयज्ञदत्विष्णुमि- ४
त्राणां गौरिति ॥
भधैतस्सित्नेकार्थाभावजते विशेषे किं स्त्राभाविकं शब्दैरथोमिधानमाहोस्विहा-
चनिकम् | स््राभाविकामिस्याह | कुत॒ एतत् । अथीनादेशात् । न यथौ भादि-
यन्ते | कथं पुनरर्थानादेशतेवं ब्रुयाच्चाथौ आदिदयन्त इति । यदाह भगवान् ]
भअनेकमन्यपद्थं [ २,२.२४ ] चार्थे शन्डः [| ५९ | भपव्ये रक्ते निवत्त हति" | 10
नैतान्वथंदशानानि | स्वभावत एतेषां शाब्दानामेतेष्वर्थष्वभिनिषिष्ठानां निमित
त्वेनान्ाख्गरानं क्रियते | तथथा | कुपे हस्तदस्षिणः पन्थाः | अघे चन्द्रमसं प
दयेति । स्वभावतस्तत्रस्थस्य पथश्चन्द्रमसथ निभित्तत्वेनान्वाख्यानं क्रियते |
एवमिहापि चार्थे यः स दन्द्रतमासौ ज््प्रपदर्थे यः स बहूत्रीहिरिति ॥ किं
पुनः कारणमयौ नारिदयन्ते | तच रुध्व्रथम् | रष्वे यथो नादिदयन्ते | भैवरयं 1
द्यनेनार्थानादिदाता केनचिच्छब्देन निदेशः कतैव्यः स्यात् | तस्य च तावत्केन कृतो
येनासौ क्रियते | भथ तस्य केनचिक्कृतस्वस्य केन कृत इत्यनवस्था | असंभवः
खस्तरप्यथोदेशनस्य । को हि नाम समर्थो धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानाम्थाना-
देष्टेम् । ने चैतन्मन्पष्यं प्रत्ययार्थे निर्दिष्टे पङस्यर्थो निरिष्ट इति | भवति हि गुणा-
भिधाने गुणिनः संप्रत्ययः | तद्यथा | शुङ्कः कृष्ण `इति । विषम उपन्यासः | 20
सामान्यशब्दा एत एवं स्युः | सामान्यशब्दाश्च नान्तरेण विरोषं प्रकरणं वा `
वि रहोषेष्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगतो वृक्ष हद्युक्ते स्वभात्रतः कर्समिथिदेव
विशेषे वृक्षश्टो वतेते ऽतो मन्यामहे नेमे सामान्यशन्दा हति 1 न चेरसामान्य-
दाब्दाः प्रकृतिः प्रकृत्यर्थे वतेते प्रत्ययः प्रत्ययार्थे वतैते ॥ भप्रवृत्तिः खल्वप्यथा-
देशानस्य | बहवो हि दाब्दा येप्रामथौ न त्रिज्ञायन्ते | जभैरीं तुफरीतु || अन्तरेण 2४
खल्वपि हौष्दप्रयोगं कहत्रो ऽथो गम्यन्ते ऽक्षिनिकोतैः पाणिविहरिशथ |] म खल्वपि `
निज्लौतस्यार्थस्यान्वाख्याने किंचिदपि प्रयोजनमस्ि | यो हिः ब्रूया्पुरस्तादादित्य
उदेति पथादस्तमेति मधुरो गुडः कटुकं शङ्गवेरमिति किं तेन कृतं स्यात् ||
# ४.१. ९१; ४.२. १; ६८; ९.१. ७९ ६.४. ९७०; ९.४. २२; ४.४. २९.
३६४ ॥ व्याकश्णम्रहाभाच्यम् ॥ {म०२.९९.
` वावंचनानथंक्यं च स्वभावसिंदव्वात् ॥ ॥
चावचनमनथेकम् । किं कारणम् । स्वभावसिद्धस्वात् । इह दौ पर्षौ वृत्ति-
पक्षथावृत्तिप्रक्षथ | स्वभावतधतद्वति वाक्यं च समासश्च | तत्र स्वाभाविके
वृत्तिविषये नित्ये समासे प्रापे वाकचनेन किमन्यच्छक्यमभिसंबन्दुमन्यदतः सं-
४ ज्ञायाः | म च संज्ञाया भावाभावाविष्येते | तस्मान्नार्थ वाषचनेन ॥ `
अथ ये वृत्ति वतेयन्ति किं त बहू: | पराथोभिधानं वृतिरित्याहृः | भथ तेषामेवं
बुवतां कि जहत्स्वाथो पृत्तिभ॑वत्याहोस्विदजहत्स्वाथा । कं चातः । यदि नदस्स्वाथौ
वृत्ती राजपुरुषमानयेस्युक्ते पुरुषमाज्स्यानयनं प्रामोत्यौपगवमानयेस्युक्ते ऽपत्यमा-
रस्य | भथाजहस्स्वाथौ वृत्तिसभयोर्विद्यमानस्वार्थयोदयो्दिव चनमिति* (दिवचनं
10 ्रामोति ॥ का पुनवत्तिन्योय्या । जहत्स्वाथौ । युक्तं पुनर्यैज्जहस्स्वाथौ नाम वृत्ति
स्यात् | वाढं युक्तम् | एषं हि दरयते लोके | पुरुषो ऽय॑ परकमेणि प्रवतैमानः स्वं क्म
जहाति । तद्यथा । तक्षा राजकमेणि प्रवतेमानः स्वं कर्मं जहाति। एवं युक्तं यद्राजा
पुरुषार्थे वतैमानः स्वमये जद्यादुपगु धापत्यारथे वतमानः स्वमर्थ जघ्यात् | ननु चोक्तं
, राजयपुरुषमानयेल्युक्ते पुरुषमात्रस्यानयनं प्रामोस्यौ पगवमानयेस्युक्ते ऽपत्यमातरस्थेति |
15 ्रैष दोषः । जहदप्यसौ स्वाथे नात्यन्ताय जहाति | यः परार्थविरोधी स्वा-
यस्तं जहाति । तद्यथा | तक्षा राजकमीाणि प्रवतेमानः स्वं तक्षके जहाति न हिक्षि-
तहतसितकण्डूयितानि । न चायमथेः पराथविरोधी विशेषणं नाम तस्माच्च हास्यति ॥
अथवान्वंयाद्वं शोषणं भविष्यति । तद्यथा | घृतषटसतैलषट हति निषिक्ते धुते वैते
वान्वयादिशेषणं भवत्ययं घुतधटो अय तैरुषट इतिं | विषम उपन्यासः | भवति
20 हि तत्रं या च यावती चाथेमात्रा | ङ्ग हि भवानत्र निष्टप्य धृतषटं तृणंकूर्वेन
प्रल्षालयतु न गंस्यते स विदोषः । यथा ताहे मधिकापुटशम्पकयुट इति निष्की-
गोस्वपि डमनःस्वन्वयाद्विशोषणं भवत्ययं मलिकापुटो भयं चर्पकपुट इति ॥
थवा समर्थाधिकारोऽयं वृत्तौ (क्रियते | सामथ्यै नाम् भेदः संसर्गो वा || अपर
आह | भेदसंसर्गौ वा सामथ्यमिति || कः पुनभेदः संसर्गो वा | इह राज्ञ इर्युक्ते सव
2 स्वं प्रसक्तं पुरुष इस्युक्ते स्वैः स्वामी प्रसक्तः । इहेदानीं राजपुरुष इत्युक्ते राजा
पुरुषं नित्रतेयत्यंन्येभ्यः स्वामिभ्यः पुरुषोऽपि राजानमन्येभ्यः स्वेभ्यः | एवमतः
स्मन्नुभयतेो व्यवच्छिन्ने यदि जहाति काम जहातु न जातुचित्पुर्षम्नस्यानयनं मवि-
ष्यति || अथवा पुनरस्त्वजहत्स्वाथो वृत्तिः | युक्तं पनयद जहस्स्वा्था नाम वृति
# ९.४.२२
वा० २.९.९.] 1 व्वाकरणवहाभाष्यम्॥ ३६५
स्यात् | वाढं युक्तम् | एवं हि. दृरयते लोके । भिक्षुकोऽयं हितीयां भिक्षामासाद्य
पवौ न जहाति संचयाय प्रवतेते { ननु चोक्तमुभयोर्वि ्मानस्वार्थयोहेयोर्िव चन-
मिति दिव चनं प्रामोतीति | कस्याः पुतनर्दिव चनं पामोति | प्रथमायाः | न प्रथमासमर्थो
राजा | ष्ठधास्तर्दि प्रामोति । न षष्ठीसमर्थः पुरूषः | प्रथमाया एव तर्द प्रामोति ।
ननु चोक्तं न प्रथमासमर्थो राजेति | भभिहितः सोऽर्थो ऽन्तभूतः प्रातिषदिकाथेः सं- ऽ
पन्नस्तश्र प्रातिपदिकार्थे प्रथमेति" प्रथमाया एव द्विवचनं प्रामोति |
संषातस्यैकाथ्योन्नावयवसंख्यातः सुजुत्पत्तिः ॥ ३ ॥।
. संघातस्यैकत्वमयस्तेनावयवसंख्यातः सुबुत्पत्तिने भविष्यति | .
परस्परव्ययेक्तां सामथ्यंमेके ।। ४ |
परस्परव्यपेक्ां सामध्यैमेक इष्ठन्ति || का पुनः शब्दयोव्येपेकषा | न ब्रुमः 10
शम्दयोरिति | किं ताईं | अर्थयोः । इड राज्ञः प्रुष हत्य के राजा पुरुषमपेक्षते
ममायमिति पुरुषो भि राजानमपेक्षते ऽहमस्येति | तयोरभिसंबन्धस्य पक्षी वाचिक्रा
भवति | तथा कष्टं भरित इति क्रियाकारकयोरभितसंबन्धस्य हितीया वाचनिका
भवति ` |
. अथ यथयेवैकार्थाभावः सामथ्यैमथापि व्यपेक्षा सामर्थ्यं किं गतमेतदियता सुतर 15
गाहोखिविदन्यतरस्मिन्पन्े भूयः खतं कतेव्यम् | गतभित्याह | कथम् । समो अग्रमथे+
स्ष्देन सह समासः । सं चोपखगेः । उपसग पुनरेवमात्मका यत्र कथिक्किया-
वाची शाब्दः प्रयुज्यते तत्र क्रियाविहहोषमाहुः | न चेह. कंचिक्क्रियावाची शाब्दः
प्रयुज्यते येन समः सामथ्यै स्यात् | तत्र प्रयोगादेतद्गन्तव्यं नृनमच्र कथिलयो-
गाहैः दाम्दो न प्रयुज्यते येन समः सामर्थ्यमिति | तद्यथा । धूमं दृष्टाभिरत्रेति 20
ग्यते जििष्टम्धकं च दृषा परिव्राजक इति | कः पुनरसौ प्रयोगाहैः शाब्दः. |
उच्यते | संगतार्थ समर्थं संख्टार्थं समर्थं स्तरि्ितार्थं समर्थं संबद्धार्थ समर्थं -
मितिः] तदा तावदेकार्थभिावः सामथ्यै तदैवं विहः करिष्यते संगतार्थैः
समथः संखष्टाथेः समथ इति । तद्यथा । संगतं घृतं. संगतं तेतमिस्युच्यत
एकीमूतमिति गस्यते | संखष्टो ऽभिरिस्युच्यत एकीभूत इति गम्यते || यदा व्यपेक्षा 25
सामर्थ्यं. तदैवं - विमदः करिष्यते संपेकितार्थः समर्थः संबद्धार्थ समर्थ. हति ||
कः पुनरिह बध्रात्यथः | संबद्ध हस्युच्यते यो रज्जञ्वायसा वा. कीले व्यति-
# २.द. ४६.
३६६ ॥ व्याकरभमहाभाप्यम् ॥ [मि २.९५
क्तो भवति | नावदयं व्नातिष्यैतिषङ्ग एव वतेते । किं तर्हि | अहानावपि वतैे।
तथा | संबद्धातिमौ दम्याविर्युच्येते यावन्योऽन्यं म ज्ीतः |] अथवा भवति
चैवंातीयकेषं बघ्ातिर्वषेते | व्यथा | अस्ति नो ग्भः संबन्धः | अस्तिनो वतते
खंबन्ध हति । संयोग इत्यथः || अथैतस्मिन्व्यपेक्षायां सामर्थ्ये योऽसावेकार्थभिा-
४ वकरब्ो विदोषः स क्कञ्यः. ||
तत्र॒ नानाकारकात्निधातयुष्मदस्मदादेराप्रतिषेधः ॥ «९ ॥
ततरैतस्मिन्व्यपेक्षायां सामर्थ्य. नानाकारकान्निषातयुष्मदस्मदारेशाः प्रायुवन्ति
तेषां प्रतिषेषो वक्तव्यः || निषातः | अयं दण्डो हरानेन | अस्ति दण्डस्य दरे
व्यपेक्षेति कृत्वा निघातः प्रापरोति ॥। युष्मदस्मदादेशाः । ओदनं पच तव भवि.
10 ध्यति | ओदनं प्रच मम भविष्यति । भस्त्योदनस्य युष्मदस्मदोश्च व्यपेक्षेति कृत्वा
वाघ्नावादयः प्राप्ुवन्तिं तेषां प्रतिषेधो वक्तव्यः || किमुच्यते नानाकारकादिति
यदा तेनैवासज्य हियते | नापि त्ुमोऽन्येनासज्य (हियत इति । किं तर्हि | शब्द
प्माणका वयम् | यच्छब्द आह तदस्माकं प्रमाणम् । शब्दशेह सत्तामाह । बयं
रण्डः | अस्तीति गम्यते | स दण्डः कतो भृत्वान्येनं शब्देनामिसं बध्यमानः करणं
15 संपद्यते | तद्यथा | कथित्कंचिदपृच्छति | क देवदत्त हति | स तस्मा आचष्टे ।
भसौ वृक्ष इति | कतरस्मिन् । यत्तिष्ठतीति । स वृक्षो अधिकरणं भुत्वान्येन शद
नाभिसंबभ्यमानः कतौ संपश्यते ॥|
प्रचये समासभतिषेधः ॥ ६ ॥
+ - । |
प्रचये समासप्रतिषेषो वक्तश्यः | राज्ञे मौधश्चथ्च पुरुषश्च राजंगव।च-
20 पुरुषा इति || |
सम्थतराणां वा ॥ \७ |
` समथेतराणां वा पदानां समासो भविभ्यति | कानि गुनः सभ्थ्तराभि |
यानि इन्दभावीनि | कुत एतत् । रएषां द्याद्युतसा वृत्तिः प्रामोति । तद्यथा 1
समथेतरोऽयं माणवको ऽध्ययनाग्रेत्युच्यत अआंद्चुतर मन्थ इति गम्यते ॥
ॐ अपर भाह | समर्थतराणां घा पदानां खमासो भविष्यति | कानि पुनः समथ
तराणि । यानि इन्दभावीनि । कुत एतत् । एतानि समानविभक्तीन्यन्यविभक्ती
राजा | भवति विशोः स्वस्मिन्भ्रतरि पितृव्यपुत्र च ॥
# ८.९, २८. † ८.९. २०,
फा० २,९१.९. ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् | ' ३६७
समुदायसामर्थ्याद्वा सिद्धम् ॥ ८ ॥
समुदायक्ममभ्योदा पुनः - सिद्धमेतत् । समुदायेन रज्ञः साम्यं भवति
नावयवेन ||
अपर आह । समर्थतराणां वा समुदायसामध्यौत् | सम्थेतरणां वा पदानां
समासो भवति | कत.एतत् । संमुदायसामय्यदिष | . स्मिन्फ्े वेत्येतदस्तमथितं ४
भवति ।. एतश्च समर्थितम् । कथम् । नेव वा पुनरत्र राज्ञो .ऽपुरुषावयेक्षमाणस्य
शवा सह समासो भ्रति | किं तर्हि | गो राजानमपेक्षमाणस्याश्वपुरषाभ्यां सह
समसो भवाति | प्रधानमत्र तदा गौर्भवति भवति च प्रधानस्य सावेक्षस्यापि
समासः ||
आख्यातं साव्ययकारकविरैषणं वाक्यम् ॥ ९॥ 10
भा ल्यातं सव्ययं सक्रारकं सकोरकतरिदोषणं वास्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम् ||
सव्ययम् । उज्चैः पठति । नीरैः पठति || सकारकम् भदनं पचति || सकारक-
विशोषणम् } ओदनं मृदुविदादं पचति ॥| सक्रियाविशेषणं चेति वक्तव्यम् | धु
पचति | दुधु पचति ॥
भपर आङ् । आख्यातं सतरिदोषणमित्येव । सर्वणि हतानि करियाचिरेषगानि ॥ ४
` एकतिङ् ॥ १०.॥ = `
एकतिङुगक्यसंजञ भवतीति वक्तव्यम् | ब्रुहि | ब्रूहि ॥
समानवाक्ये निषातयुष्मदस्मदादेशाः ॥ ९९ ॥
खमानवाक्य इति प्रकृत्य निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः | किं प्रयोजनम् |
नाववाम््ये मा मवक्िघातादय इति । अयं. दण्डो हरानेन | ओदनं -पच तव 20
भविष्यति | ओदनं पचमम भकिष्यृति.|
योगे प्रतिषेधश्चादिभिः ॥ ९२॥
चादिभिर्योगे प्रतिषेधो वक्तव्यः | भामस्तव च स्वं मम. च स्वम् | किमर्थ
मिदमुच्यते । यथान्यासमेव चादिभिर्योगे प्रतिषेध. उच्यते ।| इदमथ्यापुदै त्रियते
# ८२, २४.
8 फः ॥ .ठ्कस्नमराभरव्वव् +. [भ०२.९.४
वाक्यसंज्ञा समानवाक्याधिकारशथ | तदेष्यं विजानी यात्सर्वमेतहिकल्पत इति ।
तदाचायेः खहदत्वान्वाचष्टे चादिभिर्योगे यथान्यासमेव भवतीति ॥
सा चावदयं वाक्यसंज्ञा वक्तव्या समानवाक्याधिकारश्च वक्तव्यः |
समथनिघाते हि समानाधिकरणयुक्तयुक्तेषुपसंख्यानमसमथत्वात् | ९३ ॥
5 समथनिधाते हि समानाधिकरणयुक्तयुक्तेषुपसंख्यानं . कतैव्यं स्यात्. ॥ .षमा-
नाभिकरणे | परटवे ते दास्यामि । मृदवे ते दास्यामि । समानाधिकरणे ॥ युक-
युक्तै | नच्यास्तिष्ठति कुले । वृक्षस्य लम्बते दाखा । शालीनां त ओदनं ददामि ।
शारीनां म ओदनं ददाति || किं पुनः कारणं न सिभ्यति | भसम्थ॑त्यवात् ॥
राजगवीक्षीरे दिसमासप्रसद्गो द्विषष्ठीभावात् || ९४ ॥
10 राजगवीक्षीरे” हिसमासप्रसङ्गः । कं कारणम् । दविषक्षीभावात् । दे ह्यत्र षष्ठौ |
राज्ञो गोः क्षीरमिति ॥ कि मुष्यते हिसमासप्रसङ्ग इति यावता इष्डधपेति। वतेते |
हिक्षमासप्रसङ्गः इति तेषं विज्ञायते इयोः उबन्तयोः .समासप्रसङ्गो हिसमासप्रसङ्ग
इति । कथं तर्हि | हिभकारस्य समासस्य प्रसङ्गो हिसमासप्रसङ्गः इति ।. राज-
गोक्षीरमित्यापि प्रापोति न चैवं भावितव्यम् | भवितष्यं च यदेतहयाक्यं भवति गोः
15 क्षीरं गोक्षीरम् राशो गोक्षीरं राजगोक्षीरमिति | यदा त्वेतदाक्यं भवति राश्चो गोः
क्षीरमिति तदा न भवितव्यं तदा च प्राप्रोति | तदा कस्मान्न भवति ॥
सिद्धं तु राजविशिष्टाया गोः क्षीरेण सामध्यात् । १५ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । राजविशिष्टाया गोः क्षीरेण सह समासो भवति न केव-
लायाः | किं वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | यथैवायं गवि यतते न
४0 क्षीरमात्रेण संतोषं करोत्येवं राजन्यपि यतते | राज्ञो या गौस्तस्या यत्श्षीरमिति |
नैव वा पुनरत्र गो रांजनमयेक्षमाणायाः क्षीरेण सह समासः प्राप्रोति | किं का-
रणम् । असामथ्यौत् | कथमसामर्थ्यम् | सापेक्षमसमयथे भवतीति | कथं तारं
गोः क्षीर मपेक्षमाणाया राज्ा.सह समासो भवति | प्रधानर्मत्र तदा भीभेवति भवति
च प्रधानस्य सापेक्षस्यापि समासः || । |
9 अथ किमथ पदविषौ चमथांधिकारः (क्रियते |
= ५.४०९द्; ४,६.६५. † २.९ २; ४.
षु(० २.६.९१. | ॥ सौकर्णग्रहमोरकय ३६९
पदविधौ समर्थवथनं वणांश्रये दाख आनन्तयंविज्ञानात् ॥ ९६ ॥
पदविपौ समथाभिकारः क्रियते व्णा्रये शाल भानन्तर्यमात्रे काये यथा
विज्ञयितेति । तिष्ठतु दध्यशान स्वं शयकेन । तिष्ठतु कुमारी च्छ्ल इर
देवदत्तेति ॥
समथाधिकारस्य विधेयसामानापिकरण्यान्निर्देशानर्थक्यम् || ९७ | ¢
समथोधिकारोऽयं विपेयेन समानाधिकरणः । किः च विधेयम्. |. समासः |
यावह्ूुयास्समथेः सम्प्रस हति . तावत्समथेः पदविधिरिति । न च राजपुरूष इस्येत-
स्छमवस्थायां समथोधिकारेणः किंचिदपि शक्यं प्रवतेयितुं निवतेयितुं वा । समथः
(विकारस्य त्रिभेयसामानाधिकरण्याच्निर शो जनर्थकः |
सिद तु समथीनामिति वचनात् || १८ || ` ` _ _ 10
सिद्धमेतत् । कथम् । समर्थानां पदानां विधिभेवतीतिः वक्तश्यम् || एवमपि
व्येकयोनै प्रामोति ॥
एकशेषनिर्दैरादा ॥ ९९ ॥
आथतैकदोषनिरदेशो ऽयम् | समस्य च समथेयोश्च समर्थानां च समथौनामिति ||
स्वमपि षटप्मृतीनामेव प्राति षटपरभृतिषु दयक शेषः परिसमाप्यते | वैष रोषः | 15
लत्येकं॑वाक्यपरिसमोपिदृ्ेति व्येकयोरपि भविष्यति | एवमपि विविभक्तीनां न
भामति | सपरथौतसमर्थे पद्धत्पद इति || एवं तर्हिं समथेप्दयोरयं विधिशब्देन
सख्ैविभकस्थन्कः समसः । समयैस्व विधिः समथेविधिः । समर्थयोर्विपिः सम~
विधिः| समथ्यनां विधिः सम्थविषिः । समथौहिधिः समथविधिः | समथ चिषिः
ख मभविधिः । पदस्य धिभिः पदविधिः | पदयोधिधिः पदविधिः । पदानां विधिः 20
यदुविधिः { पडादिधिः पदविधिः | पदे बिधिः पदविधिः | सम्थविधिथ समयंके-
धि समयेविषिश्व समर्थविपिथः समयेविधिश्च समथेविधयः {- पदविधिश्च पदवि-
विथ पदविधि पद्विधिथ पदविधिश्च पदविधयः | समथेविपयथ पदविधयश्च
खमयेः पदविधिः । पुवः सम्रपत उत्तरपदलोषी यादृष्डिकी विभक्तिः ]|
9 ६.९, ५७, † ६.१९. ५; ७६,
7 वै
३७०. ॥ व्याकररणमहाभष्यये ॥ (मण २.९.
संमानाधिकरणेषृपसंख्यानमसम्थ्वात् ॥ २० ॥।
समानाधिकरणेषुपसंख्यानं कतेम्यम् । वीरः पुरषो वीरपुरूषः । किं . पुनः
कारणं न सिध्यति । भसमथेत्वात् | कथमसामथ्यम् ।
दरव्यं पदार्थं इति चेत् ॥ २६॥।
5 यदि व्रष्वं पदार्थो न भवति तदा साम्यम् | अथ हि गुणः पदार्थो भवति
तदा सामर्थ्यम् । अन्यो हि वीरत्वं गुणो जन्यो हि पुरुषत्वम् | नान्यत्वमस्तीती-
यता सामर्ध्यं भवति | भन्यो हि देवदलो गोभ्याश्ेभ्यश्च न च तस्थैतावद्य
सामर्थ्यं भवति । को वा विशेषो यद्वुणे परार्थ सामर्थ्यं स्याष्व्ये च न स्वात् |
एष विदोषः | एकं तयोरधिकरणमन्यश्च वीरत्वं गणो ऽन्यः पुरुषत्वम् ॥ व्रव्ब-
10 पदार्धिकस्यापि ताहि गृणभेरात्सामथ्यै भविष्यति । अद्यो द्ष्यपदार्थिकेन
द्रव्यस्य गुणकृत उपकारः प्रतिज्ञातुम् । मनु चाभ्यन्तरोऽसौ भवति । यद्यप्वभ्य-
न्तरो नतु गम्यते | न हि गड हत्युक्ते मधुरस्वं गम्यते शृङ्कधेरमिति वा कंदुक-
स्वम् । गुणपदार्थिकेनापि तद्यैशाक्यो गुणस्य दर्यकृत उपकारः प्रतिश्षातुम् । भ
गुणपदार्थिकः प्रतिजानीते दव्यपदार्धकोऽपि कस्माच्च प्रतिजानीते | एवमनयोः
15 तामथ्यै स्याह न वा|| क्र च तावदिदं स्यात्समानाधिकरणेनेति। | यत्र सवै स-
मानम् | इन्द्रः शाक्रः पुरुहूतः पृरदरः । कन्दुः कोष्ठः कुशूल इति | ैषंजातीयकानां
समासेन भवितव्यं प्रत्ययेन वोत्पत्तव्यम् | किं कारणम् | अर्थगत्यर्थः शाब्द-
प्रयोगः | अथ संप्रत्याययिष्यामीति शाब्दः प्रयुज्यते | तत्रैकेनोक्तत्यात्तस्यार्थस्व
हितीयस्य प्रयोगेण न भवितव्यम् | किं कारणम् | उष्का्थानामप्रयोग इति | न
0 तर्हीदानीमिदं भवति भुत्यभरणीय इति । तैत समानार्था । एकोऽत्र शाक्वार्थे
कृत्यो ऽपरो ऽहीर्थे | शक्यो भतं भृत्यः । अहेति भृतिं भरणीयः | भृत्यो भरणीयो
भृस्यभरणीयं इति || यदि ता यत्र किंचित्समानं कथि विशेषस्तत्र भवितव्य-
भिहापि तर्हि प्राभोति | ददोनीयाया भाता ददौनीयामतिति । अश्रापि किचित्समानं
कथि विदोषः | किं पुनस्तत् | सद्धावान्यभावौ | म कचिस्सद्धावान्यभावौ न स्त
2४ उच्यते चेदं समानाधिकरणेनेति तत्र प्रकर्षगति्धिज्ञाप्यते । यज्र साधीयः सामान-
धिकरण्यम् । क्र च साधीयः सामानाधिकरण्यम् । यत्रे सै समानं ` सद्ायान्थमानौ
क ` २,.१- ५८. ¶† २.९, ४९.५७,
पं०२.९.९. ४ व्याकरगग्रहाभाष्यम् ॥ ३७१
द्रष्य च || अथवा समानाधिकरणेनेति तत्समानमाभ्रीयते यत्समानं भवति न च
भवति न चैतत्समानं कवचिदपि न भवति || अथवा यावद्भूयास्समानद्रव्येणेति
तावत्स मानाधिकरणेनेति । द्रभ्यं हि लोके ऽधिकरणमिर्युपचयेते | तद्यथा । एक-
स्मिन्द्रभ्ये व्युदितम् | एकस्मिन्नधिकरणे व्युदितामिति | तथा व्याकरणे विप्रतिषिद्धं
चानधिकरणवाचि [२,४.९३] इत्यद्रव्यवाचीति गम्यते ॥ एवमपीदमवदयं $
` -करतैव्यं समानाधिकरणमस्मर्थवद्वतीति । किं प्रयोजनम् | सर्पिः कालकम् यजुः
कीतकमिव्येवमर्थम्* | यदि समानाधिकरणमसम्थैवद्गवतीस्युच्यते सर्पिष्यीयते
यजुष्क्रियत इत्यत्र षस्वं न प्रामोति । भधात्वमिहितमिव्येव॑ तत् । एवं च कृत्वा
समानाधिकरणेषुपपंख्यानं कतेव्यम् | वीरः पुरुषो वीरपुरुषः । किं कारणम्ः |
भसमयंत्वात् | 10
| न वा वचन प्रामाण्यात् ॥ २२ ॥
न वा कतेव्यम् | किं कारणम् | वचनप्रामाण्यात् । वचनप्रामाण्यादन्न समासो
भविष्यति | किं वचनप्रामाण्यम् | समानमध्यमध्यमवीराधेति। ||
दुपरख्यातेषु च ॥ ५२ ॥।
टु्ाख्यातेषु चोपसंख्यानं कर्तव्यम् । निष्कौशाम्बिः निवीराणसिः ॥ लुपार्या- 1
तेषु च | किम् | वचनप्रामाण्यादिस्येव | किं वचनप्रामाण्यम् | कुगतिप्रारयः
[२.९.१८] इति | अस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम् । सुराजा भतिरा,
जेति । न ब्रूमो वृत्तिसुञ्रवचनप्रामाण्यादिति | किं तर्हिं | वाक्षिकवचनप्रामाण्या-
दिति | सिद्धं तु क्राडस्वतिदुगेतिवचनास्रादयः क्तार्थ हति{ ||
तदर्थगतेर्वा ॥ २४.॥ 20
शद थ गतेर्वा पुनः सिद्धभेतत् । किमिदं तदर्थगतेरिति । तस्यार्थस्वदथैः.1 तद-
यस्य गतिस्तदर्थगतिः | तदर्थगनेरिति | यस्यार्थस्य कौशाम्भ्या सामथ्यै स निसो-
श्यते | भथवा सोऽयेस्तद्थः | तदर्थस्य गतिस्तदथगतिः | तदर्थगतेरिति । योऽयं
कौशाम्म्या समर्थः स निसोध्यते ||
अथ यत्र बहूनां समासप्रसङ्गः किं तत्र इयोहैयोः समासो भवत्याहोस्विदधि- 2
ओषरेण. | कथचात्र विशेषः |
४ ८ण्द. ८४, ^ ¶ २.०९. ५८ ५ २.२. ९८१०
१७९ . ॥ व्याक्रनवहाम्मष्वच् । {म०२.९.६.
` समासो द्रयोर्दयोशेशन्दे जेकग्रहणम् 1] २९१
समासो इयोदेयोचेद्न्दे ऽनेकयदणं कर्वैव्यम् । चार्थ इन्रः [२.२.२९] अने-
कमिति वक्तव्यम् । हहापि यथा श्यात् } शक्षन्यमोधखदिरपलाशा इति ।| नैष
दोषः 1 अत्रापि इयो्ेयोः समासो भविष्यति |
६ दयोईयोः समास इति चेन्न बहुषु दित्वाभावात् 1 ०६ ॥
इयोदेयोः समास इति चेच | किं कारणम् । बहुषु हित्थाभावात् | न बहुषु
दित्वमस्ति.॥| नावद यमेवं विहः कतेव्यः रक्ष न्यमोधश्च खदिरथ प्रताराथेति १
कि ता । एवं विहः करिष्यते | अक्षश्च न्यमोधशथ शक्षन्वमोषौ | खरिरथ परला-
चाथ लंदिरपलाश्षौ | छनल्षन्ययोषौ च खदिरपलाश्चौ च अक्षन्यमोषखदिरपलश्छ
10 इति ॥ होतुपोतुमिष्टो द्वाबारस्तर्ि न सिध्यन्ति | होतापोताने्टोहातार इति प्रामोति
न चैवं भवितव्यम् | भवितभ्यं ध अदैवं विम्रहः क्रियते । होता च पोता व
हेतापोतारौ । नेष्टा चोद्धता च नेशोद्तारौ | होतापोतारौ च नेशोद्कवारौ च
. ओतायोनानेषटो दातारः । हतत पोतुनेषटोद्ातारस्तु न सिध्यन्ति |
समासान्तपरतिषेधश्च ॥ २७ ||
15 ` संभासान्ेस्थ च प्रतिषेधो वक्कव्यः ¡ वाक्छक्लुग्डषदमिति। । वाक चर्ुग्दष-
हमिति प्रामोति ॥ तरैष दोषः | अन्नापि परेण परेण संह समासो भविष्यति|
शुकः दृषश्च शुग्द्षदम् | त्वक सुग्दूषदं च रवक्सुग्दषदम् । वाकु त्यक्सुग्दुषदं च
वाच्कक्सुग्दुषदमिति | शोतृपोतृनेष्टोद्रातार एवं तहि न सिध्यन्ति | इह व
सुसुकेमजटकेदहोन इनताजिनवाससा ।
४0 समन्तदितिरन्भरेण योवै न सिध्यति ॥
शस्तु तद्येविशेषेण | ।
` अविरोषेण बहुत्रीहावनेंकपदप्रसङ्गः ॥ ५८ ॥
यद्यविशेषेण बहुत्रीहा वनेकपदप्रसङ्गः | तत्र को दोषः |
, सत्र .स्वरसमासान्वपंबद्रावेषु दौषः ॥ १९. ॥
४ तत्र श्वरसमासान्तपंषद्वावेषु दोषो भवति || स्वर । पुवेशालापियः अपर श~
४ ६.१.२५. ¶ ५.४, ९०६,
पम २.९.९. | ॥ व्याकस्नवहाभाध्यम् 1. +
लाभियः । स्थर || समासाल्त । पर्गवप्रियः* । समासान्त ॥ पुंवद्ाव । खादिरे-
तरश्यम्बम् रौरवेतरशम्यम्। ॥
न वाचयक्तद्युरुषत्वात् ।। २० ॥
न त्रैष दोषः | किं कारणम् | अवयवतद्पुरुषत्वात् । अवयवोऽत्र त्युरुष-
संजञस्तदाश्रयौ समासान्तपुंवद्धावैौ -भविष्यतः || स्वरः कथम् |
॥ ~
तस्यान्तोदाचरवं विप्रतिषेधात् । ३१ ॥
अन्तोदात्स्वं क्रियतां पूर्व पदप्रकृतिस्वरः इत्यन्तोदा त्वं भवति विपरतिषेधेन |
नेष युक्तो विप्रतिषेधः । विप्रतिषेधे परमिस्युच्यतेऽ पै चान्तोदाततत्थं परं
परवैपदप्रकृतिस्वरत्वम् । न परविप्रतिषेधं ब्रूमः | किं ता । अन्तरङ्गविप्रतिषेधम् |
निमिचिस्वरबली यस्त्वादा ॥ २.२ ॥ 10
अथवा" निभिचस्वरा्निमिततिस्वरो बरीयानिति वक्तव्यम् । किं पुनर्मिभिन्तं
को वा निमिसी | बहू व्रीहि्गिमित्तं तत्पुरुषो निमित्ती 4 || तत्तर्हि वक्तव्यं निभि-
तस्वरान्निमिसिस्वरो बलीयानिति । न वक्तव्यम् ~|
एकरितिपास्स्वरवचनं तु जापकं निमिन्तिस्वरबस्ठीयस्त्वस्य ॥ ३३ |
यदयं युक्तारोद्यादिष्वेकशितिपाच्छब्दं पठति" तञ्ज्ञापयस्याचार्यो निमिलस्वरा- 15
स्निमित्तिस्वरो बलीयानिति 1 कः पुनरहैति युक्तारोद्यादिष्वेकरितिंपाच्छब्दं प१ठि-
जुम् । एवं किल नाम पद्यत एकः शिपिरेकशितिः एकशितिः पादो यस्थेति | तञ्च
न | एवं विग्रहः करिष्यते | एकः शितिरेषु त इम एकशितयः एकशितयः पादा
यस्येति । अथाप्येवं विग्रहः क्रियत एकः शितिरेकशितिः एकरितिः पादो यस्ये-
स्येवमपि नाथैः पाठेन । इगन्ते हिगाविव्येष स्वरोऽत्र वाधको भविष्यति! || 20
भस्य तर्हिं बहृव्रीश्चवयवस्य तत्पुरषसं शा प्रामोति । सुसुश्मजटकेशेन खनता-
जिनवाससा समन्तशितिरन्परेणेति | तत्र को दोषः । तस्यान्तोदात्तत्वं विप्रतिषेधा-
दिव्यन्तोदान्तत्वं स्याहिप्रतिषेधेन ॥ त्रैष दोषः । नेदं बहुव्रीह्यवयवस्य तत्पुरुषस्य
रुक्षणमारभ्यते | किं तर्हिं । यस्य॒ बहुव्रीह्यवयवस्य त्युरुषस्व तष्ठक्षणमस्ति
+ ५.४.९२. † ६९.३.६४. { ६.९.२२२. ६.२.९. 3 ९.४.३६. ¶ २,६९.५१९
9# ९.३, ८१ †† ६.२. २९.
६.७७ ॥;भ्वाकर्ण महाभाष्यम् ॥ [मण २.९.१६.
स्यान्तोद्रासस्वं भविष्यति विपरकतविषेन । ननुं चांस्थाध्यस्ति | किंम् । विदोषणं
विशेष्येण बहुलम् [२.१.९७] हति | बहुलवचनात्न भविभ्यति ||
भस्य तरि बहु वीद्यवयवस्य तत्पुरुषसंश्ञा प्रामोति । भधिकषष्टिवषे हाति * ।
तत्र को दोषः । त्यान्तोदात्तत्व विप्रति षादिव्यन्सोदात्तत्वं स्यादि परतिषेपेन | त्रैव `
5 दोषः | इगन्ते द्विगाविव्येष स्वरो ` भविष्यति ।| यस्तर्दि. नेगन्तः । अधिकशातवर
हति ॥| इह चप्यधिकषष्टिवर्ष इति समासान्तः प्रामोति । डच्यकरणे संख्या-
यास्तदपुदषस्योपसंख्यानं निशिश्ाधर्यमिति{ । त्ष दोषः । अग्ययादेरित्येवं
तत् | कं पुनः कारणमव्ययादेरिस्येवं तत् । हह मा भत् | गो्रिशात् गोचत्वारि-
हादिति || बहुव्रीहिसंज्ञा ताईं प्रामोति । संख्ययाव्ययासन्रादुराभिकंसंख्याः संख्येवे
10 [२.२.२९] इतिऽ || न संख्यां संख्येये वतेयिष्यामः. | कथम् । एवं विग्रहः
करिष्यते अधिका षष्टिर्वषौणामस्येति ॥ यथा तर्द स योगः प्रत्याख्यायते तथा
पर्वेण्भृ प्राप्रोति । कथं च स योगः प्रत्याख्यायते | अरिष्यः संख्योत्तरपदः स॑-
ख्येयवाभिषायित्वादिति* ॥ भ्त्याखूयाते तस्मिन्योगे संख्यां संख्येये वर्तयिष्यामः |
तत्वं विग्रहः करिष्यते अधिका षषटिर्वेषौण्यस्येति ॥ सर्वथा वयमधिकषटटिवर्भा्र
15 मुष्यामहे | कथम् | यावता स च योगः प्रस्याख्यायते ऽयं च विगरहोऽस्ति भिका
षष्टिवेषौणामस्येति || यत्तु तदुक्तमधिकषष्टिवर्भो न सिध्यतीति ख सिद्धो भवति |
कथम् | यावता स च योगः प्रत्याख्यायते ऽयं च विहोऽस्ति अधिका षष्टि
वंषौभ्यस्येति || अधिकशहातवर्षस्तु न तिध्यति | कर्तैव्योऽ यलः ||
इति श्रीभगवत्यतञ्जारषिरथिते व्याकरणमहाभाष्ये हितीयस्याध्यायस्य प्रथमे
20 पादे प्रथममाद्धिकम् ॥| |
# २.१. ९१. ¶† ६.२. २९. ५.४. ७३१; ६.९. १६३. § ५.४. ७३; ६.९. ९६३.
| 4 २.२.२४; ५.४.०३. #+# २.२. २.५१.
प्रण २.९.२.] ॥ व्याकरभनय्रहाभाव्यम् ॥ ४१७५
सुत्रामन्लिते पराङ्वर्खरे ।॥२।१।२ ॥
सुबिति किमर्थम् | करोभ्यटन् । नैतदस्ति | भसामभ्योदत्र न भविष्यति ।
कथमसामर्थ्यम् | समानाधिकरणमसमथवद्भवतीति || इदं तरि । पीथे पीड्यमान ||
हदं चाप्युदाहरणम् । करोष्यटन् । मनु चोक्तमसामथ्योदत्र न भविष्यति कथम-
सामभ्यै समानापिकरणमसम्थवद्धवतीति | नैष दोषः | अ धात्वभिहितमिव्येवं तत्| 5
आमन्तस्य पराङ्गवद्रावे बष्टयामान्लितकारकवचनम् ॥ ९. ||.
आमन्तितस्य पराङ्गवद्ावे षष्ठचन्तमामन्तितकारकं च परस्याङ्गवद्वतीति
वक्तव्यम् || षष्ट्यन्तं तावत् । मद्राणां राजन् । मगधानां राजन् ॥ भामन्त्रित-
कारकम् | कुण्डेनाटन् । नास्त्यत्र विदोषः सति पराङ्कवद्धाबे ऽसति वा | इदं
तर्हि | पर दना वृधन् ॥ 10
तन्निमित्तग्रहणं वा | २॥
तक्निमित्तव्रहणं वा कतेभ्यम् | आमन्तितनिमित्तं परस्याङ्गवद्धवतीति वक्तव्यम् ॥
तचावदयमन्यतरदक्तव्यम् |
अवचने हि सुबन्तमात्रप्रसङ्गः | २ ॥
भनुच्यमाने दयेतस्मिन्छुबन्तमात्रस्य पराङ्गबदावः प्रामोति | अस्यापि प्रसज्येत | 15
हषत्रेणामने स्वायुः संरभस्व मित्रेणान्ने मित्रधेये यतस्व || किं पुनरत्र ज्यायः |
तक्चिमित्तप्रहणमेव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भवति | गोषु स्वामिन् । भशवेषु
स्वामिन् | एतद नैव षष्ठ्यन्तं नाप्यामन्तितकारकम् ||
सुबन्तस्य पराङ्गवद्रावे समानाधिकरणस्योपसख्यानमननन्तरत्वात् ॥ ४ ॥
दवन्तस्य पराङ्गवद्भावे समानाधिकरणस्योपसंख्यानं कतैष्यम् । तीश्गया ष्या 20
सीव्यन् | तीश्णेन परद्युना वन् | किं पुनः कारणं न सिध्यति | अननन्त-
रत्वात् || ननु च प्रस्य पराङ्गवद्ाषे कृते पूषैस्यापि भविष्यति |
# २, ३, ३९.
द्द ॥ व्य्करेण्पराभ्छथ्यःप 1 [मन्ड
स्वरे ऽवधारणाश्च || ९ ॥
स्वरेऽबधारणाञ्च न सिध्यति । स्वरेऽवधाररणं क्रियते नानन्तर्ये ॥
परमपि च्छन्दसि ॥. ६ ॥
परमपि च्छन्दसि पुरेस्याङ्गवड वतीति | वक्तव्यम् | भा ते पितर्मरुतां सक्चमेदु ॥
¢ भ्रति. त्वा दुहितार्दिवः, । वृणीष्व दुहितार्दिषः ॥। `
` . . अव्ययप्रतिषेधश्च ॥ ७.॥ ` `
अव्ययानां च प्रतिरेपो वक्तव्यः | उद्ैरधोयान । नीचैरीयान ||
अनव्ययीभावस्य | ८ ॥
अनव्ययीमावस्थेति वक्तव्यम् । इह मा भूत् । उपागन्यधीयान प्रत्यगन्य भीयान ॥
10 अथ किमथ स्वरेऽवधारणं क्रियते ।
स्वरेऽवधारणं सुबलोपाथम् ।। ९ ॥
स्वरेऽवभारणं क्रियते सुम्लोफो* मा भूदिति । परद्यना वृथन् |
न वा सुबन्तैेकान्सत्वात् । ९० ॥ |
न वा करैव्म् | किं कारणम् | इभन्तैकीन्तस्वात् | ञबन्तैकान्तः पराङ्ग-
15 बद्धावो भवति ॥ ॥ `
| _ , . परातिपादिकेकान्तस्तु सुम्लोपे ॥. ९५ ॥ . ,
प्रातिपदिक्ैकान्तस्तु ः- भक्ति कम्लोपिः कृते। ||. परस्ययलक्षणेन डवन्तैकान्तचद
व्यासस्मासस्वरेऽवधारणं न क्ैव्यं बलोपाथंम् । प्रातिपदिकस्थायाः गो तुमु-
च्यते | तस्मात्स्वरग्रहणेन नार्थः || इदं तर्हि प्रयोजनं पत्वणत्वे$ मा भूतामिति |
0 कये सिभ्चन् | चमे नमन्निति ।| एतदपि नासत प्रयोजनम् । इह तावत्कूपे सिभ्च्तिति
स्वाश्रयं पदादित्वं मविष्यति¶ । चम नमननिति पूवैपदाल्वंशञायामनः [८.४.३।
इत्येतस्मान्नियमाच्च भविष्यति | ननु च समास एतङ्गवति पुयैपदरमुं्तरपदमिति ।
नेत्याह । अविरोषेभेतद्धवति । पूर्वं पदं पुेपदम् । उत्तरं पदमुर पमिति ॥
„~ __ --------~~ ~~~ ~ कानानानि = = ~
क २.४. ७६. ¶ ६.६. ६८. { ९.१.९२ - § ८.१, ५०; ८.४.२. 4 ८.२.२९९.
पा००२.९.३-४. | ॥ व्याकरमरमहामाष्यष्ट-॥: ३७
प्रक्षडारारषमासः ॥.२।१६।३२॥
प्राग्वचनं किमथेम् ।
भाग्वचनं संज्ञानिवृच्यर्थम् ॥ ९ ॥
प्राग्वचनं क्रियते समाससंज्ञाया अनिवृत्तिर्यया स्यात् | अक्रियमाणे हि प्रावचने
ऽनवकादा अव्ययीभावारयः संज्ञाः समाससंज्ञां बाधेरन् । ता मा वापिषतेति ऽ
परागवचनं क्रियते || अथ क्रियमाणेऽपि प्राग्वचने यावत्तानवकाश्चा अनव्ययीभावादयः
संज्ञाः कस्मादेव न“वाधन्ते | क्रियमाणे हि प्रावचने सत्यां समास्रसंज्ञायामेता अवब-
वसंज्ञा आरभ्यन्ते तत्र वचनात्समावेश्यो भविष्यति ॥ समाससंज्ञाप्यनवकादा सा
वचनाद्धविष्यनि | सावकादा समाससंज्ञा | कोऽवकादाः | विस्पष्टादीन्यवकाशः |
विस्पष्टं पदुर्धिस्पष्ट पटुः । नैषो ऽस्त्यवकाराः | एषा ाचा्यस्य हौली लक्ष्यते येत्नैवा- 10
वयवकारये भवति तेनैव समुदायकायैमपि भवति । येनैवात्रावयवकायै स्वरस्तेमैव
समुदायकायेमपि समासो भविभ्यति । विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु [६.२.२४ | इति ॥
दं तर्हि ¡ काकताठीयम् अजाकृपाणीयम् । अत्रापि येनैवावयवका्ै प्रस्ययो-
स्पत्तिः क्रियते तेतरैव समुदायकायै समाससंज्ञा भविष्यति । समासाच्च तदिषयात्
[९.३.१०६] इति ॥ हदं तर्दि । पुनाराजः पुनर्गेवः । अत्राप्यवदयं तस्पुरुषतंश्ञा 15
कनक्तव्या तत्ुरुषाश्रयः समासान्तो यथा स्यान्” || इदं ति । पुनराधेयम् । अत्राध्य-
करयं गतिसंज्ञा वक्तश्या† गतिकार कोपपदात्कृत् [६.२.९३९ | इत्येष स्वरो. यथा
स्यात् || इदं तार्हि | पुनरस्स्यूतं वासो देयम् । भत्राप्यवदयं गतिसंज्ञा वक्तव्या गति-
गतौ [८.१.७०] इति निषातो यथा स्यात् | वदि तन्नासि पुनश्चनसौ छन्दसीतिः |
सति तस्मिस्तेतैव सिद्धम् ॥ एवमप्येका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगपद्येन संभवः | 20
पयौयः प्रसज्येत | तस्मास्राग्वचनं कर्तव्यम् ॥
सह सुपा ॥ ९।१।५४५॥
सदव चनं किमर्थम् | `
1 सहवचनं पृथगसमासार्थम् ॥ ९ ॥
सहमदणं क्रिवते सदमुतयेः समाससंज्ञा यथा स्यादेकैकस्य मा भूदिति | कि 2;
गयि मि म
०० "्णायपमषिषाषषगिणिरिररषयषरिगीणणणिणष्यीं
। ५,४.९१; ९२. ॥। २.२.९८. ‡ ९.४ ०६० क, $ २.४.९१,
468
३७८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ {मिन २२९.२.
च स्यात् | यद्येकैकस्य समाससंज्ञा स्यादिह ऋक्पाद इति समासान्तः प्रसज्येत* |
इह च राजाच इति द्वौ स्वरौ स्याताम्। || कथं च कृतयैकै कस्य संज्ञा प्रामोति ।
प्रयेकं वाक्यपरिसमामिदृष्टेति । तद्यथा । वृद्धिगुणसंज्ञे प्रत्येकं भवतः | ननु चाय-
मप्यस्ति दृष्टान्तः समुदाये वाक्यपरिसमाप्निरिति । तद्यथा । गगोः शातं दण्डयन्ता-
£ मिति | अधिनथ राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मि-
दृष्टान्ते यदि तत्र प्रव्येकमि्युच्यत हृहापि सहग्रहणं कतेभ्यम् | अथ तत्रान्तरेण
` भ्रस्येकमिति वचनं प्रस्येकं गुणवृदधिसंज्ञे भवत इहापि नाथेः सहम्रहणेन || एवं तर्हि
सिद्धे सति यत्सहम्रहणं करोति तस्येतसयोजनं योगाद्धं यथा विज्ञायेत | सति च
योगाङ्ग योगविभागः करिष्यते | सह खप्समप्यते | केन सह | समर्थेन | अनुव्य-
10 चलत् अनुप्राविदात् | ततः छपा | डपा च सह इष्समस्यते | अधिकार
लक्षणं च | यस्य समासस्यान्य्टक्षेणं नास्तीदं तस्य ठक्षणं भविष्यति | पनस
सस्युतं वासो देयम् । पननिष्कृतो रथ इति ||
इवेन विभक्त्यलोपः पूवेपदप्रकृतिस्वरस्व॑ च ॥ २॥
, इवेन सह समासो विभक्तयरोपः पूवेपदप्रकृतिस्वरस्वं घ वक्तव्यम् | षाससी
15.इव | कन्ये इव ॥
अन्ययीभावः॥ २।१९।५॥
किमथे महती संज्ञा क्रियते | अन्वर्थसंज्ञा यथा विज्ञायेत | अनव्ययमव्ययं
भवतीत्यव्ययीभावः | अव्ययीभावश्च समासो ऽत्ययसंज्ञो भमवतीस्येतन्न वन्कव्यं
भवतिः |
४ अव्ययं वरिभक्तिसमीपसमृदिव्यृद्बयोभावास्ययासंप्रतिशब्द-
प्रादुभावपश्चायथानुपूरव्ययीगपदयसादृर्यसंपत्ति-
साकल्यान्तवचनेषु ॥ २ । १. । ६ ॥
इह कस्मान्न भवति । छमद्राः डमगधाः । सपुत्रः सच्छा इति । समृदौ
साकल्य इति च प्राभोति |] मेष दोषः इह कथिस्वमासः पूर्वपदाथेभरधानः
+ ९.५.०४. † ६.६.२२२. ‡ ९५.५९.
पा० २,१९.५९०. | ॥ व्याकरभमबहामष्यम् ॥' ३९.
कथिदुत्तरवदाथप्रधानःः कथिदन्यपदार्प्रधानः कथिदुभयपदायंप्रधानः । पुवेपदार्थ-
प्रपानो ऽव्ययीभावः | उत्तरपदायेप्रधानस्तव्पुरुषः | अन्यपदायेप्रधानो बहृव्रीहिः |
उभयपदाथप्रधानो इन्दः | न चात्र पुवेपदाथेप्राधान्यं गम्यते || शथवा नेमे
समासार्था निर्दिरयन्ते | किं तई । अव्यया निर्दिरयन्त इमे । एतेष्वर्थेषु यद-
व्ययं वतैते तर्डबन्तेन सह समस्यत इति ॥ ¢
यथासादृश्य ॥ २।१.। ७ ॥
असादृदय इति किमर्थम् | यथा देवदन्तस्तथा यज्ञदत्त हति ॥ असादृदय
इद्युच्यते तज्रेदं न सिध्यति | यथाशक्ति यथाबलमिति | किं कारणम्| यथेत्ययं
प्रकारवचने थाल् स च सादये वतैते“ | त्रैष दोषः | भयं यथारब्दोऽस्त्येवा-
व्युत्पन्नं प्रातिपदिकं वीप्सावाचीं | अस्ति प्रकारवचने थाल् । तश्यदव्युत्पन्नं प्रातिपदिकं 10
वीप्सावाचि तस्येदं ब्रहणम् || अथ यः प्रकारवचने थाल् तस्य प्रहणं कस्मान्न
भवति | पूर्वेण प्रामोति सादृरयसंपत्तीति। । प्रतिषेधवचनसामध्यौच्च भविष्यति || ,
सुप्प्रतिना मात्रं ॥ २।१.।९.॥
उजिति वतेमाने{ पुनः उन्प्रहणं किमथेम् । भव्ययमिस्येवं तदभृत्खम्मात्र
यथा स्यात् । माषप्रति सुपप्रति ओदनप्रति | 15
अक्षरराकासंख्याः परेणा ॥ २ ।१।१९०॥
अन्षादयस्तृतीयान्ताः पूर्वोक्तस्य यथा न तेत् ।
अक्षादयस्तृतीयान्ताः परिणा सह समस्यन्त इति वक्तव्यम् । पूर्वोक्तस्य यथा
न तत् | भयथाजातीयके दयोस्ये । अक्षिणदं न तथा वृत्तं यथा पूर्वमिति । अक्षपरि
शलाकापरि ॥ | | 20
रकत्वेऽश्चदालाकयोः
अल्षशलाकयोचैकथचनान्तयोरितिः वक्तव्यम् ` | इह मा भृत् | अन्ताभ्यां
वृत्तम् अकषिवृत्तम् ॥ |
भै ५९.३.२३. ॥ ॥॥ २.६.६६. ‡ २,.६०२.
३८० ॥ व्याकरणहापोप्वम् ॥ ~ [मन २.९
कितवभ्यवहारि च ॥ ९॥
कितवव्यवहार इति वक्तव्यम् । इह मा मूत् [` अदं न तथा वृत्तं शकटेन
यथा पुवेमिति ॥
` भक्षादयस्तृतीयान्ताः पूर्वोक्तस्य यथा न तत् ।
॥ कितवव्यवहारे च रकल्येऽक्षद्रालाकयोः ॥ ९ ॥
विभाषापपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या ॥ २।१ । ११-१२॥
, योगविभागः कतैव्यः । विभाषेत्ययमधिकारः | ततो ऽपपरि बहिर्चवः पभ्च-
म्येति ॥ पत्चमीग्रहणं शक्यमकतैम् । कथम् । खबन्तेनेति' वतत एतैश्च कममपरव-
चनीचैर्योगि पल्चमी विधीयते† । तत्रान्तरेणापि पश्चमी ग्रहणं पञ्चम्यन्तेनैव समासो
10 भविष्यति | इदं तार्हि प्रयोजनम् । बहिः शाब्देन योगे पञ्चमी न विधीयते तत्रापि यथा
स्यात् । बहिग्रौमम् बहिम्रीमात् || भथ क्रियमाणेऽपि पश््रमीम्रहणे यावता बहिः-
शब्देन योगे पश्चमी न विधीयते कथमेत्रैतस्सिष्यति | पथ्चमीग्ररणसामर्थ्यात् ॥
आङ्यदामिविष्योः ॥ २।१.।१२ ॥
मयोदामिविधिन्रहणं शक्यमकतुम् । कथम् । पञ्चम्यन्तेनेति; वतेत आ च
15 क्मभ्रवचनीययुक्ते पचमी विधीयत$ एतयोश्चैवाथेयोरा इ्मेप्रवचनीयसंज्ञो भवति
नान्यत्र4 ॥
यस्य चायामः ॥ ९।१.।१& ॥
किमुदाहरणम् । भनुगद्धं शास्तिनपुरम् । अनुगङ्गं वाराणसी । भनुश्चोणं
पाटरिपुत्रम् || यस्य चायाम ह्युच्यते द्धा चाप्यायता वाराणस्यप्वायता तत्र कुत
90 एतदङ्गया सह समासो भविष्यति न॒ पनवाराणस्येति । एवं तर्हि लक्षणेनेति**
वकते गङ्गा चैव हि लक्षणं न वाराणसी || अथवा यस्य चायाम इत्युच्यते गङ्गा
चाप्यायता वाराणस्वप्यायता तत्र प्रकषेयतिर्धिज्ञास्यते साधीयो यस्यायाम् इति ।
साधीय गद्धया न वारणस्याः ॥
[कय क 1
# २.९.४. † २.६.९० (२९). ` २,६.९२. § २,३.९०. बू १,४.८९, अक २,६.६४.
भा० २.१.१.९.-९८. | 4॥-व्वाकरणमहाभाष्यम्॥ ३८९
,. तिष्ठरप्रमृतीनि च ॥ २।१.।१.७॥
किमथेधकारः | एवकाराथेः । तिष्ठहुपरभृतीन्येव । क मा भूत् | परमं `तिष्ठ ||
तिष्ट कांलविदोषे ॥ ९ ॥
तिह कालविशेष इति वक्तव्यम् । तिष्ठन्ति गावो अस्मिन्काले तिषठह | बहदु ||
खलेयवादीनि प्रथमान्तान्यन्यपदार्थ ॥ ‰ ॥ $
` खलेयवादीनि प्रथमान्तान्यन्यपदा्थ समस्यन्ते | खलेयवम् खलेबुसम् लूमय-
वम् लूयमानयवम् पतयवम् पूयमानयवम् ॥ ` |
`. परे मध्ये षष्ठ्ावा॥२।१।१८॥.
वावचनं किमथेम् । विभाषा समासो यथा स्यात्समासेन मुक्ते धाक्यमपि यथा
स्यात् | पारं गङ्गया इति | नैतदस्ति प्रयोजनम् । प्रकृता महाविमाषा तया 10
वाक्यमपि भविष्यति | हदं तर्हि प्रयोजममव्ययीभावेन मुक्ते षष्टीसमासो* यथा
स्यात् | गद्खापारमिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । भयमपि विभाषा बष्ठीसमा -
सोऽपि तावुभौ वचनाद्विभ्यतः || भत उत्तरं पठति |
पारे मध्ये षष्ठया वावचनम् ॥ ९ ॥ |
पारे मध्ये ष्या वेति वक्तव्यम् ॥ 15
अवने हि षष्ठीसमासाभवो यथैकदेरिप्रधाने ॥ २ ॥
अक्रियमाणे हि बावचने षष्ठीसमासस्याभावः स्याद्ययैकदेशिप्रधाने। | तव्था |
एकदेशिसमासेन मुक्ते षष्ठीसमासो न भवति । कि पुनः कारणमेकदेशिखमासेन मुक्ते
षष्ठीसमासो न भवति । समासतद्धितानां वृत्तिर्धिभाषा वृत्तिविषये नित्यो ऽपवादः |
इह पुनवौवचने क्रियमाण एकया वृत्ति्िभाषापरया वृत्तिविषये विभाषापवादः || 20
कै २०२. ८१ 4 २०२०.९..
३८२ ` ॥ व्याकरणमहामाष्यम् + [म० २.९.२८
एकारान्तनिपातनं च ॥ २॥
एकारान्तनिपातनं च कतेव्यंम् 1 पारे गङ्धमिति | न कर्वैव्यम् । सप्तम्या अलुका
सिद्धम्" । भवेस्सिडध यदा सप्तमी यदा त्वन्या विभक्तयस्तदा न तिध्यति |
नदीभिश्च ॥ २।१।२०॥
5 नदीभिः संख्यासमासे ज्यपदार्थै प्रसिषेधः ॥ ९ ॥
नदीभिः संख्यासमासे ऽन्यपदार्थे प्रतिषेधो वन्कव्यः | द्वीरावतीको देशः | त्रीरा-
वतीको देदाः । नदीभिः संख्येति प्राभोति ॥ न वक्तव्यः | इह कथित्समासः पूरव॑प-
दाथप्रधानः कथिदुत्तरपदा्थप्रधानः कञिदन्यपदाथंप्रधानः कथिदुभयपदाथप्रधानः ।
पु्वैपदा्प्रधानो ऽव्ययीभावः | उत्तरपदाथंप्रधानस्तत्पुरुषः | भन्यपदायेप्रधानो बहू-
10 व्रीहिः | उभयपदाथप्रधानो हन्हः | न चात्र पूवेपदाथप्राधान्यं गम्यते || नन् च
यथेनोच्यते स॒ तस्यार्थो भवति । भत्र च वयमेताभ्यां पदाभ्यामेतमथ मुच्यमानं
पयामः || एतदेव न जानीमो यद्यनोच्यते स तस्यार्थं हति | अपि चान्यपदार्थता
न प्रकल्पेत | चित्रगुः शबलगुरिति । किं कारणम् | भत्रापि हि वयमेताभ्यां शाब्दा-
भ्यामेतमथं मच्यमानं प्रयामः || य्यप्यक्ैताभ्यां शब्दाभ्यामेषोऽथं उच्यतेऽन्यपदा-
15 योऽपि तु गम्यते । तत्रान्यपदार्थाश्रयो बह व्रीहिर्भविष्यति | इहापि तर यद्यप्य-
न्यपदार्थो गम्यते स्वपदार्थोऽपि तु गम्यते तत्र स्वपराथाभ्रयोऽन्ययीभावः प्राभोति ॥
एवं तर्हीदमिह संप्रधायेम् । अव्ययीभावः क्रियतां बहुक्रीहिरिति | बहुव्रीहिभविष्यति
विप्रतिषेधेन । भवेदेक संज्ञाधिकारे सिद्धं परकायेत्वे तु न सिध्यति । आरम्भसाम-
थ्यौदव्ययीभावः प्रामोति परकार्येत्वा्च बहुव्रीहिः! | परंकार्यत्व च न दोषः |
20 नदीभिः संख्यायाः समाहारे ऽउ्ययीभावो वक्तव्यः । प्न चावरयं वक्तव्यः |
सर्वैमेकनदीतरे; ||
द्विगुश्च ॥ ९ । १।९२. ॥
हिगोस्तस्पुरुषस्वे कानि प्रयोजनानि. द्िगोस्तस्पुरुषत्वे समासान्ताः प्रयोजनम् ॥
पञ्चगवम् दशगवम् पन्चराजम् ददहाराजम्* ॥
# ६.३.९४, † २.२.२४. ‡ (५.४. ९९०; १.४.१८.) ९ ५९.४९२; ९६,
वा० २.९.२०-२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् 1 ३५३
द्वितीया श्ितातीतपतितगताव्यस्तप्राप्रापचरेः ॥ २।९ । २४ ॥
त्रितादिषु गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानम् ॥ ९॥
भ्नितादिषु गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानं कतेव्यम् । भामं गमी मामगमी | मामं
गामी मामगामी ॥
श्रितादिभिरहीने द्वितीयासमासवचनानथक्यं बहुव्रीहिकृतत्ात् ॥ २।।5
भ्नितादिभिरदहीनवाचिन्या दितीयायाः समासवचनमनर्थकम् | किं कारणम् ।
बह व्रीहिकृ तत्वात् | इह यः कष्टं भरितः कष्टमनेन नितं भवति | तत्र बहुव्रीहिणा
सिद्धम् || |
अहीने द्वितीयास्वरवचनानथक्यं च ॥ ३ ॥
अहीने दितीया [६.२.४७] पवेषदं प्रकृतिस्वरं भवतीस्येतस्स्वर वचनमनर्थकम् | 10
किं कारणम् ] बहुत्रीहिकृतस्वादेव* ||
जातिस्वरप्रसद्गस्तु । ४॥
जातिस्वरस्तु प्रामोति । चामगतः अरण्यगत इति | जातिकारङखादिभ्योऽना-
ख्डादनात्कतो ऽकृतमितम्रतिपत्ताः [६,२.१९७०| इति ||
ततर जातादिषु वावचनास्सिद्धम् ॥ ५॥ ` ` 15
यदेतद्वा जाति [९७९] हप्येतद्वा जातादिष्वित्ति वश्यामि | इमे जातादयो
भविष्यन्ति || ननु च भेदो भवति । बहुत्रीहौ सति समासान्तोदात्तत्वेनापि भवि-
सव्यं पूर्वैपदप्रकृतिस्वरत्वेनापि त्पुरषत्वे सति पूवैपदभकृतिस्वरस्वेनैव | नास्ति
भेदः । योऽपि हि तदपुरुषमारभते न तस्य दण्डवारितो बहुत्रीहिः । तश्र तत्परुषे
सति है समासौ है स्वरी बहृन्रीही सत्येकः समासो दविस्वरस्वरम् | एवं तर्हि 0
सिदे सति यत्ततपुरुषं शासि तज्जापयत्याचायेः समानेऽ्थ केवलं विमरहमेदा्त्र
तरपुरुषः प्रामोति बहत्रीहिथ तत्र तस्युरुषो भवतीति | किमेतस्य क्नापने प्रयोजनम्।
राज्ञः सला राजसखः । राजा सखास्येति बहृव्रीहिने भवति | तेतञ्ज्ञापकताध्य-
मपवदररत्सगौ घाभ्यन्त इति -। बाधकेनानेन भवितव्यं सामान्यविहितस्य विरोष-
कक "~~ --~---------~--~---~----~----------~-----~--~--~------
३८४. ॥ व्यार्करणमहामभाष्वमे | . [मं० २.९२
विहितेन । अथ न सामान्यविषितो यदुच्यते बहू व्रीहिकृकत्वादित्थेतद युक्तम् || असि
वेपि विशेषो बहु ब्रीहेस्तस्पुरषस्थ चः | किं राग्दक्ृतो ऽथाथेकृतः । राब्दकृतथा-
थेकृत |. शाभ्यकृतस्तावत् । बहुत्रीहौ सति कणा भवितव्यं* तस्पुरूषे सति न भवि
तव्यम् । अथेक्ृतः । तत्पुरुषे सति रुहादीनां क्तः करतेरि भवति धास्वर्थस्वानः
5 पवर्गे | आरूढो वृक्षं देवदत्त हति । बहुव्रीहौ व्यपवृक्ते कर्मणि भव्रति | आस्म
वृक्षो देवदत्तेनेति || अन्यथाजातीयकः खल्वपि प्रस्यक्षेणाथंसं परत्ययोऽन्यथाजाती बकः
संबन्धात् । राज्ञः सखा राजसखः | संबम्धादेतद्रन्तव्यं नूनं राजाप्यस्य सखेति ॥
उभयं ` खस्वषीष्यते | स्वस्ति सोमसखा पुनरेहि । गवांसख इति ॥
खटा क्षेपे ॥ २।१। २६. ॥ |
10 किमुदाहरणम् । खट्रारूढो जाल्मः । क्षेप इत्युच्यते कः क्षेपो नाम | अषीत्य
ज्ञात्वा गुरमिरनुक्घातेन खटरारोहव्या | य इदानी मतो ऽन्यथा करोति स उच्यते खटरा-
रूडोऽवं जाल्मः । नातित्रतानिति ॥ -
अत्यन्तसंयोगे च ॥ २ । १. । २९. ॥
अत्यन्तसंयोगे समासस्याविरोपव वनात्केन समास्ववनान्थक्यम् ॥ १९ ॥
15 अत्वन्तसंयोगे समासस्याविशेषव चनाल्क्तान्तेन चाक्तान्तेन च कालाः क्तान्ते-
नेस्थेतत्समासबचनमनथेकम्† | अत्यन्तसंयोग इत्येव सिदम् ॥
अनव्यन्तसंयोगार्थं तु | २॥
अनस्यन्सं योमाथे तर्हीदं वक्तघ्यम् | षण्मुहुता्चराचराः | ते कदाचिदहगेच्छन्ति
कदाचिद्रात्रिम् । तदुच्यते | अहगेताः रात्रिगता हति ॥ नैतदस्ति । गतप्रहणादप्ये-
90 तत्सिद्धम्‡ ।| इदं ताहे । भहरतिसृताः रात्रयतिसृताः । मासप्राभितशन्द्रमाः ॥
तृतीया तक्कृतार्थेन गुणवचनेन ॥ २ । १. । ३.० ॥
` तत्कृतार्धनेति क्िमथेम् । दधा पटुः | धृतेन पटुः | नैवदल्ति | असामथ्यादत्र न
भविष्यति | कथमसामर््यम् । सये्षमतमथे भवतीति| न हि दधः षदुना साम्यम्
+ ५.४.१९४, † २.६.२८. ‡ २,६.२४.
1
का०.२.६.२६।२९. ] :॥ ब्वाकटशयहाभाष्यय॥ ई.
केन तर्हि | भुजिना । दधा भृदधुः ` षष्टुरितिः । इहापि तर्हि न प्रामोति | शङ्कला-
खण्डः किरिकाण - जति | -अक्रापि न रशाङ्लाकाः खण्डेन सानण्केन् |`केन,
तारे | करोतिना | शङ्कया कृतः खण्ड इति | अचनाद्बिष्यति । श्टपि. र्द
वचनासखाभोति । दधा पटुः । धृतेन पटुरिति | तस्मात्तत्कृतये मरहणं कतेव्यम् ॥
गृणवच॑नेनेति किम्थम्। गोमिवेपावीन् ] ` न्येन धनेधान्)| किं पुनरिहोदाहरणम् |
शङ्लाखण्डो देवदत्त इति । कथं पुनगणवचनेन समास उच्यमानो इव्यधचनेन .
स्यात् † इह तृतीया तत्कृतार्थेन गुणेभेकीयता सिद्धम् । सोऽयमेवं सिदे सति यदह च-
नमहणंः करोति तस्थैतखयोजनंमेवं यथा ` विज्ञायेत गुणमुष्कवता `गुणवचनेनेति ॥
कथं पुनरयं मुणवचनः सन्द्रव्यवचनः संपद्यते | आरभ्यते `तत्र ' मतुब्लोपो
गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिति ` । तद्यथा | शयङ्धगुणः युः 1 कृष्णगुणः ` क्ष्णः 1 10
एवं खण्डगृणः खण्डः || य्येवं नाथेस्तत्कृताथं पह्णेन | भवति हि शङ्लाया
खण्डेन साम्यम् | .असामथ्यौचक्र न . भविष्यति | दधां पटुः । धृतेन पट्रिति ।
तस्मान्नर्थस्तत्कृतार्थप्रहणेन ॥ |
तृतीयासमासे. ऽयैग्रहणमनथकमर्थगतिदह्यंवचनात् ॥ ९ ॥ |
छि
¢ शे
क क
धि तृतीयासमासे ऽथे ग्रहणमनर्थकम् । किं कारणम् । "भये गतिद्यैवचनात् 1 15
अन्तरेणापि वचनमर्थगतिभोविष्यति ||
` - िर्देद्यभिति चेन्तृतीयार्थीनिदेशोऽपि ॥-९-॥
भचेवमपि निर्ैश्षः कतेव्यः इति, चेसुतीधायेनिदेशोऽपि कतेष्यः स्यात् । पृतीया -!
तदथेकृतार्थनेति वक्तव्यम् || तन्तर्दि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् |` नावमर्थनिर्दशाः ]
किं तर्हि । योगाज्गमिंदं निर्दिरयते।। - सवि; च. योगाद्के योगविभागः करिष्यते | तृती- 20
या पतत वु नेन .समृस्यते । ततोऽ्यन । अथेदम्देन ऋ तृतीया समस्यते ।
धान्याथः । पूर्वसदृशसभोनाथः[२.९. ३ ९| हंत्य्थ॑महणे न कतेव्यं भवति ||
पवेसदृरासमेोनंथैकरहनिपुणमिश्र श्वेः ॥ २।१.।२१ ॥
पूादिष्ववंरस्योपसख्यानम् ।। ९ ॥
चृ्यरिष्ववरत्योपरसंस्परानं . कतेव्यम् । मासावरोऽयम् ,| संवत्सरावरोऽवम् 1| 25
+ ऋ = => = ~~~
49 छ
दद ॥ व्याकरणबहाभावष्यम् ॥ [म २.९१
सदृ राग्रहण उक्तम् ॥ २॥
किमुक्तम् । सदृशम्रहणमनर्थकं तृतीयासमासवंचनात् । ष्धर्थमिति चेकती-
यासमासवचनानथे क्यमिति! ||
कतकरणे कृता बहुलम् ॥ २ । १।३२ ॥
. . कतृकरणे कृता क्तेन ॥ ९ ॥
ककरणे कृता क्तनेति वक्तव्यम् । अशिषहतः नलनिरिन्नः दात्रहूनः, प्र
च्छिन्नः । कृता क्तेनेति किमथम् । इह मा भूत् । रात्रेण लूनवान् | पर शुना छिन्त-
वान् || तत्त वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् } बहूलवचनास्तिडधम् ।|.
कृत्यैरधिकायैवचने ॥ २ ।१।३३ ॥
10 कृत्येरधिकार्थवचने न्यत्रापि दृइयते ॥ ९ ॥
कृत्यैरधिकाये वचने <न्यन्रापि दृदयतं हति वक्तव्यम् । बुसोपेन्ध्यम् तृणोपे-
न्ध्यम् धनघात्यम् ॥
साधनं कृतेति वा पादहारकायर्थम् ॥ २ ॥
अथवा साधनं कृता सह समस्यत इति वक्तव्यम् । किं प्रयोजनम् । पादहा-
15 रकाद्यथम् | पादाभ्यां हियते पादहारकः | गते चोप्यते गलेचोपकः ||
अन्नेन व्यञ्जनम् ॥-२।२१.।२४ ॥
भध्येण मिश्रीकरणम् ॥ २।१ ।२५९ ॥
अन्नेन व्यश्जनं भक्ष्येण भिश्रीकरणमित्यसमयथसमासः ॥ ९ ॥
अतेन व्यश््नं मश्येण भिभीकरणमित्यसमथे मासो ` ऽयं त्ष्टव्यः | कि
20 कारणम् ॥
कारकाणां क्रियया साम्यात् ॥..९ ॥
कारकाणां क्रियया सम्य भवतिः न तेषामग्योऽन्येन | तथथा । नि जबण्वा
# ६.२. ६६१५.
प्रा * २.९.२३२-३५.| ॥व्याकरनवहाभत्थम् ॥ -द<9
दाभ्यां काषछठाभ्यां सामथ्यै न तेषामन्योऽम्येनः|| एवं तद्योहांयमत्ेन व्यञ्जनं भष्वेण
मिभ्रीकरणमिति न चास्ति सामथ्ये तजर वचनात्स्षमासो भविष्यति .||
वयनप्रामाण्यादिति चेन्नानाकारकाणां प्रतिषेधः ॥ ३ ॥
वचनप्रामाण्यादिति चेत्चानाकारकाणां प्रतिषेधो वक्व्यः | तिष्ठतु दधा ओदनो
भुज्यते देवदत्तेनेति ॥| ` ¢
सिद्धं तु समानाधिकरणाधिकारे क्तस्तृतीयापू्ैयद उशरपदल्ोपश्च | ४ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | _समानाधिकरणाधिकारे* वक्तव्यं क्तस्तृतीयापुवैषदः
समस्येते सुपोत्तरपदस्य च लोपो भवतीति | दधोपसिक्ते दध्वुपसिक्तः दध्युपसिक्त
ओदनो दध्योदनः । गुडेन संखृष्टा गुडसंसृष्टाः गुडसंसृष्टा धाना गुडधानाः ॥
घष्ठी समासश्च युक्तपूणान्तः | ९ ॥- 10
षक्ठीसमासश्च युक्तपुणोन्तः समस्यत उत्तरपदस्य च लोपो वक्तव्यः | अश्वानां
युक्तो ऽ्वयुक्तः अश्वयुक्तो रथो अरथः । दभः पूर्णो दधिपुणैः दधिपूर्णो घटो
दधिषटः || ततर्ह बहु वक्तव्यम् |
न वासमासे ऽदरशनात्॥ ६ ॥
न वा वक्तव्यम् | किं कारणम् | असमासे - ऽद शनात् | यद्यसमासे दृदयते 1४
समासे च न दुदयते तष्ठोपारम्भं प्रयोजयति | न चाखमास उपसिक्तराब्दः संद्ट-
चब्दो युक्त शब्दः पृणैराम्दो वा दृरयते || कथं तर्हि सामथ्यै गम्यते |
युक्तार्थस्पत्ययाच् सामध्यम् ॥ ७ ॥ `
दभ्रा युक्ता्ैता संप्रतीयते || .कथं पुनज्ञोयते दश्रा युक्कताथेता संप्रतीयत इति |
संप्रत्ययाच्च तदथौध्यवसानम् ॥ ८ ।}; 20
संप्रस्यवा् तदर्थो ऽध्यवसीयते ॥ अवद्यं चैतदेवं विज्ञेयम् ।
संप्रतीयमानाथलोपे ह्यनवस्या ॥ ९॥
` यो.हि मन्ते संप्रतीयमानाथोनां शब्दानां लोपो भवतीत्यनवस्थ। तस्य लोपस्य
# २.६. ४९.
दद ॥ व्वाकरणंहाभान्वपः ॥:। : . {१५ र्रद
स्नातेः | दवीयु के वंहवोऽ्थः यम्स्ते, मन्दकमुत्तरक- निलीर्नकमितिः -सहाचिगा
शब्दानां लोपः व्॑कष्यः स्यात् । तथा गुड 'श्युक्ते' भुर शाब्दस्य रा देरिति
च कटुशब्दस्य. ||. अन्तरेण खल्वपि शब्दप्रयोगं ` बहवोऽर्था गग्यन्ते अक्षिनिकोवै
पाणिविष्चैरेथ तद्वाचिनां शब्दानां .रोपो वक्तव्यः स्यात् ||
५; चतुर्थ तदथाधेवकिहितसुखरतितेः ॥ २.।१.।३६. ॥ `
$ 4
~ किं: चक्तर्थ्यन्तस्य तदर्थमात्रण -समासी भवति | एकं मवितमष््ति 1
चतुर्थी तदर्यमात्रेण चेस्सवंप्रसङ्गो िदोषात् ॥ ९॥
चतूर्थी तदथमात्रेण चेत्सर्वप्रसङ्कः | सर्वस्य चतथ्यैन्तस्य तदथमात्रेण सह
समासः प्रामोति । अनेभावि प्रामोति | रन्धनाय स्थाली | भवहननायोलुखकमिति |
10 त्रि कारणम् | भविद्रोषात् | न हि कशिष्टिशेष उपादीयते एवंजातीयकस्य चेतुध्व
न्तस्य .तद््ैन स्ट समासो भवृतीति । भनुपादीयमामे विशचेमे सवैप्रसङ्गः 1
बलिरक्षिताभ्यां चानयंकं कवनम् ।। २ ॥
बलिरकिताभ्यां च सप्रीसवन्ननमनर्थकम् । यो.हि महाराजाय बलिर्महाराजाथ
, क भवति | तत्र तदधे इत्येव सिद्धम् ।।
1 | , यदि पुनर्धिकृतिथतु्यन्ता प्रकृत्या सह समस्यत इत्येतह्क्षणं. क्रियेत ।
विकतिः प्रकृत्येति चेदभ्वघासादीनामुपक्ख्यानम् ॥ २ ॥
विकृतिः प्रकृत्येति, चेदश्चधासादीनामपसंसख्यानं कतेत्यम् | अश्चषासः अभ्रुषु-
रम् हस्िविपेति || `
"`" "" अथन नित्यसमासवचनम् 1 ‡ ॥
20 अथशब्देन नित्यसमासो ` वक्तव्यः | ब्राह्मणार्थम् क्षत्रियाम् ॥ किं किकृति्-
तुथ्येन्ता भ्रकूत्या सश सभध्यत ` इत्यतो अर्थेन ` नित्यसमासो क्ष्यः । नेत्वा ।
स्वैथार्थेन निस्यस्तमासी वक्तव्यो विग्रहयो मा भदिति ||
स्वंलिङ्गत च ॥ ५ ॥
` स्वैलिदङ्गता.च वक्तत्या | ब्राह्मणाश्च पयः | ब्राह्मणाः सूपः । ्रांदमणां्था
25 यवागुरिति || किमर्थेन नित्यसमा उच्ग्रत इृतमतः सर्वलिङ्गता वक्तम्या । नेत्याह |
प्रण २१. ३९. ॥)ब्यरकरणहमाष्यय् 44; ई८ः९
हवेथा. सर्वलिङ्गता वक्तव्या | किं कारणम् | भर्श्म्खे ऽये.पुचिङ्ग उत्तर पदार्थपरषा-
नअ तत्पुरषस्तेन पठि ङ्गस्यैव सम्मसस्याभिषानं स्यात्ीनपुंसकणिङ्गस्य न स्यात्||
-.. तैतर्दीदिं बहुं वक्तन्यम् | विकृतिः प्रकृत्येति वक्तव्यम् | अभ्रषासादीनीमुप-
संख्यानं कतेव्वम् | अर्थेन :नित्यसमासो. वक्तव्यः । सर्वणिङ्गता च वक्तव्या ॥
भ वक्तव्यम् |. : `: ॐ
यत्तावदुच्यते विकृतिं: धकर्येलि ` वक्तव्यमिति | न वक्तव्यम् |. भाघार्यपरच्-
्तिज्ञोपयति विङृतिथतुथ्यैन्तां प्रकृत्या सह समस्यते हति यदयं' बरिरलितंमरहण
करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम् | यथाजातीयकानां समासे वरिरत्तितग्रहणेनाथेस्त-
थाजातीयकानां समातः | यरि च विकृतिथतुभ्येन्ती प्रकृत्या सह समस्यते" नं
` तद्थमात्रेण ` तती बरिरलितमरहणमर्थवद्भवति || , - 16
यदप्युच्यते .ऽघासादीनामुपसं ख्यानं कतेव्यमिति । न कतेव्यम् | अश्वषासा-
दयः षष्ठीसमासा भविष्यन्ति | यद्धि यदर्थे भवत्ययमापि तत्राभिसंबन्धो. भवस्य
स्ेदामिति | तथथा | गुरोरिदं गुर्वर्थमिति । ननु च स्वरभेदो भवति ।. चतुर्थीसि-
मासे सति पूर्वपदपरकृतिस्वरस्वेन भवितव्यं" ष्ठीसमासे पुनरन्तोदान्तरवेनः। |
नास्ति मेदः । चतुर्थीसमासेऽपि सस्यन्तोदात्तस्वेनैव भवितव्यम् | कथम् | भाचा- 15
येप्रवृत्तिज्ञोपयति विकृतिथतु््यन्ता प्रकृतिस्वरा भवति न ॒चतुर्थामात्रमिति. यदयं
चतुथी तदर्थे ्येक्ते च [६.२.४३-४९] इस्यर्थब्रहणं क्तम्रहणं च करोति | कथं
कृत्वा ज्ञापकम् । यथाजातीयकानां प्रकृतिस्वर स्वे ऽथ॑प्रहणेन कत प्रणेन चाथेस्त-
थाजातीयकानां प्रकृतिस्वरत्वम् । यदि च॒ षिकृतिथतुध्वेन्तां प्रकृत्या भवति न
चतुर्थीमात्रं ततो: ऽथद्हप्रं कमहंणं, चाथेवद्वति || . , 20
, यदप्युच्यते्थेन नित्यसमासो वंक्तव्य इति | न॒ वक्तव्यः | सथेष्मत्ययः
रिष्यते । फ कृतं भवति | न चैव हि कराचिसस्वयेन विधहो भबति | अबि
च, सर्वलिङ्गता सिडा. भवतिः | यदि . सथपत्ययः क्रियत इत्संज्ञा न -प्रामोति | `
अथापि कथंचिदित्संशा स्यादेवमपि भ्यर्थम् भ्ब्थमित्यद्गस्येतीय्डवहै स्याताम् ||
यवं ताहि बहुत्रीहिभतेष्यति | कं कृतं भवति | भवति वै कथिदस्वपदतिमहो बहु- %
स्रीहिः । तद्यथा । ` शोभनं मुखमस्याः खंमुखीति-। नैवं शक्यम् ˆ | इह हि महद -
असित्यात्त्रकपौ प्रज्येवाताम् » || एवं ताहि तदथस्योत्तर पदस्माथेशाभ्ट अददा
* ८,२.४३. 1 दर्पे. | ~ ६.४.७७०, 5 -- § ९.३.४६.५.४.६५४.
३९० ॥ भ्याकरणम्रहाभाष्यय ॥ ([म० २.९९
करिष्यते | -किं कृतं भवति | न वैव हि कदाधिदारेदोन विपहो भवति | अपिच
सवेलिङ्गतापि सिद्धा भवति || तत्ता्ह वक्तव्यम् | न वक्तव्वम् | योगविभागः करि-
ष्यते | चतुर्थी । चतुर्थी छवन्तेन सह समस्यते | ततस्तदथाथे | तदर्थस्यो त्तरपदस्या-
थे शाब्द आदेशो भवति || इहापि तर्हि समासः .प्रामोति | शन्ताय रुचितम् । न्लाय
$ स्वदितमिति" । आचार्यभवृतिक्गोपयति ताद्य या चतुर्थी सा समस्यते न चतुर्था
मात्रमिति यदयं हितद्खब्रहणं करोति । कथं .कृत्वा ज्ञापकम् । यथाजातीयकानां
समासे हितङ्धखपर्णेनार्थस्तथाजातीयकानां समासः. | यदि च तादर्थे या चतुर्थी
सा समस्यते न .चतुर्थीमात्रं ततो हितङखम्रहणमथेवद्भवति ॥ इहापि तार्हि तदर्थ-
स्वोत्तरपदस्यारथं शम्द आदेशाः प्रामोति । युपाय दार यूषदाङ | रथदारु | वावचनं वि-
10 षास्यते | इहापि तर्हि विभाषा प्रामोति । ब्राह्मणार्थम् क्षत्रियाथंभिति | एवं तद्यी-
चायपरवृत्तिश्तौपयति प्रकृतिविकृरयोर्यैः समासस्तत्र तदंस्योत्तरपदस्य वार्थशम्द
आदेशो भवत्यन्यत्र निस्य इति यदयं बरिरल्षितप्रहणं करोति | एवं तर्द उद-
कार्थो वीवधः स्थानिवद्धावाददमावः परामोति। | तस्मातचैवं शक्यम् | न चेदेवमर्थन
नित्यसमासो वकछव्यः सवैलिङ्गता च ॥ मैष दोषः | इदं तावदयं प्रटभ्यः | भयेह
15 ब्राह्मणेभ्य हति कैषा चतुर्थी | ताद्य इत्याह | यदि तादर्थ्ये चतुर््व्थराब्दस्य
प्रयोगेण न भवितव्बमुक्ताथीनामप्रयोग इति । समासोऽपि तार्हि न प्रामोति | वचना-
स्समासो भविष्यति || |
यदप्युच्यते सवेरिङ्गता च वक्तव्येति | न वक्तव्या | लिङ्गमशिष्यं लोकाभ्र-
यल्वादिद्धस्य ॥
%0 पञ्चमी भयेन ॥ २।१ 1२५७ ॥ ~:
भस्यल्पमिदमुच्यते भयेनेति | भयमीतभीतिमीमिरिति वक्तव्यम् । वृकादयं ` |
वृकभयम् | वृकाद्धीतो वृकभीतः | वृकाडीतिवृंकमीतिः । वृकाङ़ीवंकभीरिति ॥
` पर आह | भयनिगेतजुगुष्डभिरिति वक्तव्यम् । वृकभयम् मामनिर्गेतः भध-
मंजुगुप्डरिति ॥
४ . -सप्तमी शोण्डेः॥२।९।४०॥
रीण्डादिभिरिति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । भन्धुतैः खीधुर्वः । भक्ष-
"णि षी १० प ०
प्रीणि मिणगणा
. पा° २.१.२७-४.०.] ॥ व्याकरणयहमाष्यम् ॥ २९६१.
कितवः खीकितव इति || त्ति वक्तव्वम् | न वक्तव्यम् । बहवचननिर्देशा-
च्डीण्डादिभिरिति विज्ञास्यते || |
प्राह्ण क्षपे ॥ १ ।२१.। ४९. ॥
ध्वाङेगेत्यर्थंग्रहणम् ॥ ९ ॥।
ध्वाङेण सिषे ऽथग्रहणं कतेव्यम् । इहापि यथा स्यात् । तीथेकाक इति ॥ क्षेप $
इत्युच्यते क इह शेपो नाम । यथा तीथे काका न चिरं स्थातारो भवन्त्येवं यो गुद-
कुलानि गत्वा न. चिरं तिष्ठति स उच्यते तीथेकाक इति ॥ . .
` कृलयैकऋणे ॥ १.।१। ४२ ॥
` कृस्यैर्भियोगे यद्रहणस्् ॥. ९ ॥
कर्यैर्भियोग इति वक्तव्यम् । इहापि यथा स्यात् | पर्वह्गेयं साम । परातर - 10
ध्येयोऽनुवाक हति || तत्त वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | कण इत्येव सिदम् | इह
यद्यस्य नियोगतः कार्यमृणं तस्य तद्वति | तत्र कण हव्येव सिम् || यद्कहणं
च कतेव्यम् | इह मा भृत् । पृवोह्े दातव्या भिसेति ॥
क्षेपे ॥ १ । ९ । ४.७ ॥
किमुदाहरणम् । भवतप्ेनकुलस्थितं तं एतत् ॥ शेप हव्युश्यते क इह लेषो 15
नाम । यथावतप्ने नकुला न चिरं स्थातारो भवन्त्येवं कायौण्यारभ्य यो न चिरं
तिष्ठति स उच्यते ऽवतप्रेनकुटस्थितं त एतदिति ॥। क्षेपे सप्रम्यन्तं क्तान्तेन सह सम-
स्यत इत्युच्यते तत्र सगतिकेन सनकुलेन च समासो न प्रामोति |
क्षेपे गतिकारकपूवे उक्तम् ॥ ९ ॥
किमुक्तम् । कृद्भहणे गतिकारकपर्वस्यापीति* || ` 20
* ९,४.९३.
# >. ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ 1.“ -[म०२.९.२.
पत्रेसमितादयश्च ॥ २।-१। ४८ ॥
किमर्थश्चकारः । एवकाराथैः | पात्रेसमितादय एव | क माभत् | परमं
पात्ेसमिता इति | । ˆ ,^
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४“ फ £
पूवकाङेकसवेजरत्पुराणनवेकेवला समानाधिकरणेन ।२।१।४९॥
इद कस्मादश्यवीभावो न भवति । एका नदी - एकनदी । मदीभिः संख्येति
पामोति । इह कथित्संमासः पूर्वेपदार्थत्रथानः कथिदुल्रपदार्थप्रधानः कथिदन्यष-
दा्थप्रधानः कथिवुभवपदा्थेपधानः । पू्यपदार्थप्रधानोऽष्ययीभावः | उत्तरपदार्थ-
प्रपानस्तत्पुरुषः । स्मन्यपरर्प्रधानो . बहुत्रीहिः । ङमयपदायेप्रधानो इन्डः | न
चात्र पूवैपदायप्राधान्यं गम्यते || अथवाष्ययीभावः क्रियतां तत्पुरुष इति तस्पुरुषो
10 भविष्यति विप्रतिषेधेन :| भवेदेकसंश्चाधिकारे सि परंकायेत्वे त॒ न सिध्यति |
भआरम्भसामथ्यो्ाष्ययीभावः प्रामोनि परंकार्यत्वाचच तत्पुरुषः भामोति | परं कार्यत्वे
च न दोषः | कथम् | नदीभिः समहारे ऽन्ययीभावो वक्तव्यः | स॒ चावर्यं
वक्तव्यः |
सवैमेकनदीतरे† ॥
15 इति ओभगवत्पतच्रकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये हिवीयस्याध्यायस्य प्रथमे
पादे द्वितीयमाद्धिकम् ॥ |
9 २,९.२० † (५.४.९९. ०; २,०४.५८.)
[१ ¢^ {4 .
| ), ;
१० २.१.४ ८५२९. ॥ धया ङरगप्रहाभाष्यप् | ; ३९.४३
तहितार्थौन्तरपदसमाहरे च ॥ २।१।५१ ॥
समाहार इति कोऽयं शब्दः । समारःपवौद्धरतेः कर्मसाधनो घन् । समाहि-
थते समाहार इति || यदि कर्मसाधनः प्च कुमार्यः समाहताः पश्चकमारि दश-
कुमारि गोजियोरुपसजेनस्व [१.२.४८] इति हस्वस्वं न प्रापोति हिगुरेक वचनम्
[२.४.९] हत्येत् वक्तव्यम् || एवं ताहि भावसाधनो भविष्यति | समाहरण ¢
समाहारः | अथ भावसाधने सति किमभिधीयते । यत्तरौत्तराधर्यम् | कः पून-
गवां समाहारः | यत्तदजेनं क्रयणं भिक्षणमपहरणं वा । यद्येवं विक्षिपनेषु पुरेषु
गोषु चरन्तीषु न विध्यति | एवं तर्हिं समभ्याजीकरणं समाह्नरः । एवमपि प्र्च-
प्रामी षण्णगरी त्रिपुरीति न सिध्यति | किं कारणम् । समेकत्ववाच्याडाभिमुख्ये
वर्तते हरतिर्दे शान्तर प्रापणे | नावश्यं हरतिर्देश्ान्तरपरापण एष धर्तते | किं तर्हि | 10
सादृदयेऽपि वतते । तद्यथा । मातुरनुहरति । पितुर नुदरति ॥ भथवा पञ्चामी
पण्णगरी च्रिपुरीति नैवेदमिवस्येवावतिष्ठते । भवरयमसी ततः किचिदाकाङति क्रियां
गुणं वा | यदाकाड़ति तदेकं स च समाहारः ॥ भयं र्ता भावसाधने सति
दोषः | प्चपल्यानीयतामिति भावानयने. चोदिते दध्यानयनं न प्रामोति। तरैष रोषः |
इदं तावदयं प्रटव्यः । भेह गैरनुबन्भ्योऽजोऽरीषोमीय इति कथमाकृती चोदि - 15
तायां दव्य आरम्भणालम्भनपरोक्षणव्रिशासनानि क्रियन्त इति । भसंभवात् | भा-
कृतावारम्भगादीनां संमवौ नास्तीति कृत्वाङृतिसहचरिते द्रव्य भारम्भणादीनि
क्रियन्ते | शदमप्येवंजातीयकमेव । असंमव्रादावानयनस्य द्रव्यानयनं भविष्यति ||
भयवाव्यतिरे काद्रव्याकृत्योः ॥
किं पुनर्िगुसंज्ञा परस्ययो सरपदयोर्भवति | एवं भवितु महति । | 29
दिगुसंज्ञा प्रत्ययोतरपदयोश्वेदितरेतराश्रयतस्वादपरसिदिः ॥ ९ ॥
दिग संज्ञा प्रत्ययोत्तरपदयोशथेदितरेतराशभ्रयत्वादगप्रसिदिः | केतरेतरान्रयता । 2ि-
गुनिमित्ते प्रत्ययोन्तरपरे प्रर्ययोत्तरपदनिमि्ला च दिगुसंक्ता तदेतदितरेतर।भवं
भवति | इतरेतराश्रयाणि च न प्रकल्पन्ते || एवं तद्येयं इति वरह्यामि |
50 ऋ
१९७४ ॥ व्याकरणयहाभाष्यय्ः +4. [म०र्.प्द.
अथं चेत्तद्धिसानुत्पज्तिबंहुत्रीहिवस् । २ ॥
अथै वेत्तद्धितोत्पत्तिम भामति | पाभ्चनापितिः हेमातुरःप्रेमातुरः*। षं कारणम् ।
दिगुनोक्तस्वाद्रहु व्रीहिवत् | तद्यथा | चित्रशुः दाबलगुरिति बहुव्रीदिणोक्तत्वान्म-
त्वर्थस्य मस्वर्थयो न भवति ॥ एवं तार्हे समासतड्धितविधाविति वक्ष्यमि |
5 संमासवशितविधाविति चेदन्यज्र समासक्तन्ञाभावः- ॥ ३ ॥
समासतदिवविधाविति चेदन्यन्र समाससंश्ा न प्राभोति । कान्यत्र | स्वरे |
पठ्च[रलिः दशारलिः | इगन्ते हिगाविस्येष स्वरो न प्राभोति ॥
सिद्ध तु प्रत्ययोत्तरपदथोश्चेति वचनात् ॥ ४।।
लिद्धमेतत् | कथम् । ्रस्ययोन्तर पदयोभेति वचनात् | प्रथयोश्तर पदयोिगुसंश्षा
10 मचतीति वक्तव्यम् || ननु चोक्तं द्िगुंजञा प्रत्ययोत्तर पदयोभेदितरेतराभयस्वादम-
- सिद्धिरिति । तैष दोषः । इतरेतराभ्रयमात्रभेतश्चोदितं सर्वाणि चेतरेतराभरयाण्येक-
स्वेन परिहतानि सिद्धं तु निस्यदाष्दत्वादिति; | नेदं तुल्यमन्धैरितरेतराभ्रतैः ।
न हि-संज्ञा नित्या || एषं तर्हि भाविनी संज्ञा विज्ञास्यते | तद्यथा | कथित्क-
चिन्तन्तुवायमाह | अस्य सत्रस्य शाटकं वयेति | स परयति यदि शाटको न
15 वातव्यो ऽथ वातव्यो न शाटकः शाटको वातव्यश्चेति चिप्रतिषिडम् | भाषिनी
खल्वस्य संज्ञामिपरेता स मर्ये वातव्यो यसिमिच्ुते शाटक हइत्येतद्वतीति ।
एवमिहापि तस्मिन्दिगुमवति यस्याभिनिर्व्तस्य प्रत्यय उन्तरपदमिति चेते सं
भविष्यतः | भथका. पुनरस्स्व्थं इति । मनु चोक्तमरथे चेत्तद्धितानुत्पत्तिबैहुतरीहि-
वदिति || वैष दोषः नावदयमथं शाब्दो अभिपेय एव -वमैते | किं ताहि | स्यादर्थे ऽपि
80 वतेते | तद्यथा. }. दारार्थं॑घरगांमहे .। धनाथ भिक्षामहे | दारा नः स्यु्पैनानि नः
स्युरिति । एवमिहापि तद्धितार्थे हिगुभवति तद्धितः स्यादिति ॥
दिगोवां लुग्वचनं ज्ञापक तद्धितीत्यत्तेः ।। ५ ॥।
` . कथवाः यदयं विगो्दुगनपत्थे [ ४.१.८८ ] इति द्विगोरुत्तरस्य तद्धितस्य लुक
चास्ति .तजञ्ज्ञापयत्याचार्यं उत्पद्यते दिगोस्तडित शति ॥
क ४,१.९९; ११९९. † ६.२ २९. { ९.६.६४,
पा० २.९.५९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ - *९५
समाहारसमृह योरविरोषास्समाहारग्रहणानथेक्यं सदितार्थेन कृ तत्वात् ॥६॥
समाहारः समृह हत्यविदिष्टावेतावर्थी | समाहारसमूहयोरविोषात्समाहारभ्र-
हणमनथकम् । किं कारणम् । तद्धितार्थेन कृतत्वात् । तद्धितार्थ ` द्विगुरित्येवमन्र
दिगुभेविष्यतिˆ || यदि तद्धितार्थे दविगुरिस्येवसत्र दिगुभैवति तद्धितो स्पत्तितः प्रामोति ।
उत्पद्यतां लुगभविष्यति† । लुक्कृतानि पागुवन्ति । कानि | पत्चपली दशपूली । ४
अपरि माणविस्ताचितकरम्बस्येभ्योः न तद्धितलुकि [४.९.५९२] इति मतिषेधः प्रा-
भोति । प्चगवम् ददागवम् । गोरतद्धितदुकि [९,४.९२] इति टज्न प्रामोति ॥
नैष दोषः | अविरहोषेण द्विगोडीम्भवती्युच्कापरि माणविस्ताचितकम्बल्येभ्यः स-
महार इति वक्ष्यामि | तक्तियमाथे भविष्यति | समाहार एव नान्यत्रेति । गोर-
कारो दिगोः समाहारे | अविरोषेण गोशटज्भवतीस्युक्का हिगोः समाहार इति व - 10
श्यामि । तक्नियमा्थं भविष्यति | समाहार एब नान्यत्रेति ||
अभिधाने तु ।} ७॥
भमिधानाथे तु समाहारमहणं कतैव्यम् | समाहारेणाभिधानं यथा स्यात्तदिता-
थेन मा भूदिति । श च स्यात्| तद्धितोत्पत्तिः प्रसज्येत | उत्पद्यतीं लुग्भविष्यति ।
लुकृतानि प्राभुवन्ति | सर्वाणि परिहतानि | न स्रौणि परिहतानि । पञ्चकुमारि 15
दशकुमारि । लुक्तद्धितलुकि [९.२.४९] इति ङीपो टुक्मसज्येत ।|
दन्द्रतत्पुरुषयो रुत्तरपदे निस्यसमासवचनम् ॥ ८ ॥
इन्द्तस्पुरषयो द्रपदे नित्यसमासो वक्तव्यः | वाग्द्षर्दभियः छलोपानह-
प्रियः । पञचगवप्रियः दङागवमियः§ | कि प्रयोजनम् । समुदायवृ लायवयवानां मा
कदाचिदवृत्तिभूदिति || तन्ति वक्तव्यम् | न वक्तभ्यम् । इह दी पक्षौ वृत्तिपक्षो 0
ऽवृत्तिपक्तथ | यदा वृत्तिप्षस्तदा सर्वेषामेव वृत्तिः । यदा स्ववृत्तिपन्षस्तदा सर्वै-
पामवृत्तिः ||
उत्तरपदेन परिमाणिना द्विगोः समासवचनम् ॥ ९ ॥।
चन्तरपरेन परिमाणिना हिगोः समासो वक्तव्यः | द्विभात्तजातः त्रिमासजातः¶ |
कि पुमः कारणं न ध्यति । दवण्डपोति** वतैते । एवं तर्हीदं स्यात् । बौ मासौ "°
क ४,२.३९, 1 ४.९.८८, { ४.२.२९. § ५.५.१०६; ०२. ¶ २.१.५९. +५ २.१.२०४.
६९६ । ॥ व्याकरगटापीष्वप् ॥ ` {म०२.९.९.
हिमासम् दिमासं जातस्येति । तरैवं दाक्यम् । स्वरे हि दोषः स्यात् | हिमासजात
इति प्रामोति* । द्विमास्जात इति चेष्यते! | व्यद्धजातथ्च न सिध्यंति | व्यहजात इति
भामति न चैवं भवितस्यम् | भवितव्यं च यदा समाहारे द्िगुः । ब्यक्कजातस्तु न
सिध्यति ॥ किमुच्यते परिमाणिनेति न पुनरन्यत्रापि । पञ्चगवप्रियः ददागकप्रियः |
अन्यत्र समुदायवबहुवीरित्वादुत्तरपद प्रसिद्धिः ॥ ९० ॥
अन्यत्र समुदायो बहुव्रीहिसंज्ञः । * अन्यत्र समुदायबहुत्रीहित्वादु्तरपदं
प्रसिद्धम् । उत्तर पदे प्रसिद्ध उत्तरपद इति दिगुमेविष्यति ||
सर्वत्र मस्वथँ प्रतिषेधः ॥ ९९ ॥
| सैष पक्षेषु दिगुसंश्ञावा मत्वर्थे प्रतिषेधो वक्तव्यः | कि प्रयोजनम् | पत्च-
10 खदा दशखटटरा । द्विगोः [४.१.२१] इतीकारो मा भून् । पञ्चगुः दशगुः |
गोरतदितलुकि [५.४.९२९] इति टज्मा भूदिति ॥ _
` - संख्यापूर्वो द्विगुः ॥ २।१५।५२ ॥
` किमनन्तरे योगेऽ यः संख्यापुवैः स हिगुसंत भआशेसिविसपूत्ेमोत्रे । किं चातः |
यद्यनन्तरे योग एकशाटी 4 हिगोः [४.९.२१] इतीकारो न प्राभोति । भथ पुवेमात्र
15 एकभिन्षा अत्रापि प्राभोति || भंस्त्वनन्तरे । कथमेकशाटी । ` हेकारान्तेन समासो
भविष्यति । एका शाटी एकड्ाटी 1। इह तरि एकापुषी हिगोरितीकारो न प्रामोति ।
भेत्तुं तिं पर्वमात्रे । कथमेकमि्षा | टाबन्तेन समासो भविष्यति । एका भिल्ला
एकभिक्षा || इह॒ ति सपर्षयः** इगन्ते द्िगावित्येष स्वरः परामोति।† | धस्तु
` तदयनन्तरे । कथमेकापुपी । समाहार इत्येव सिद्धम् । कः पुनरत्र समाहारः ।
20 यत्तहानं संभमो वा || हह तर्हि पञ्चदहोतारः दराहोतारः इगन्ते दिमावित्येष स्वरो
नं भागोति } भस्तु तंहि पुवैमातन्रे । कथं संप्रषयः | अन्तोरात्तप्रकरणे त्रिचक्रादीनां
-छन्दसीव्येवंमेतस्तिडम्{{ । अथवा पुनरस्तवनन्तरे | कथं पञ्चंहोतारः दशहोतारः ।
भादयुदा्प्रकरणे दिवोदासादीसां शन्दसीत्येव सिम् ||
, * ६.९.२२३३.. † ६.२.२९. { ५.१,९१; ८८८९. § २.१.५१. ¶ २.९.४६.
@* २.९.५०. +† ६.२.२९. {{ ६.२.१९२९४., §6§ ` ६.२.९९०. |
वां ° २.९. ५२-५५. | ॥ वकाकरणमहाभाष्यम् ॥ २३९७
| कुत्सितानि कुतस ॥२।१।५३॥
किमुदाहरणम् | वैयाकरणखदनिः । किं ष्याकरणं कुस्सितमादोसिदैयाक-
रणः | वैयाकरणः कुस्सितस्तस्मिन्कुस्सिते तत्स्थमपि कुस्ितं भवति ॥
उपमानानि सामास्यवचनैः ॥ २।१।५९५९ ॥
उपमानानीस्युच्यते कानि पुनरूपमानानि । किं यदेवोपमानं तदेवोपमेयमा्े-
स्विदन्यदुपमानमन्यदुपमेयम् । किं चातः |` यदि यदेवोपमानं तदेवोपमेयं क इहे-
पमार्थो नौरिव गौरिति । अथान्यदेवोपमानमन्यदुपमेयं॑क इहोपमार्थो गौरिव
इति | एवं तरि यत्र किंचित्सामान्यं कथि विशेषस्सन्नोपमानोपमेये भवतः ।
रिं वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | मानं हि नामानिज्ञोतज्ञाना-
थेमुपादीयते ऽनिर्ातमर् ्ञास्यामीति | तत्समीपे यन्नास्यन्ताय मिमीत तदुपमानम् | 10
गौरिव गवय इति । गौर्भिशीतो गवयोऽनिर्ञातः | काम॑ तद्यनेनैव हेतुना यस्य ग-
वयो निर्चातः स्या द्ौरनिर्ञातस्तेन कर्तध्यं स्यादवय इव गौरिति । वादं कैव्यम् |
किं पुनरिोदाहरणम् । शख्ीरयामा | क पुनरयं श्यामाशब्दो वतैते | श-
छयामित्याह । केनेदानीं देवदन्ताभिधीयते | समासेन । यद्येवं शाजीइयामो देवदत
इति न सिध्यति । उपसजेनस्येति हस्वत्वं भविष्यति । यदि तश्युपसजेनान्यप्येवं- 15
जातीयकानि भवन्ति तित्तिरिकल्माषी कुम्भकपाललोहिनी अनुपसजैनलक्षण
हकारो न प्रामोति ॥ एवं तर्हि शषयामेव शलीद्यम्दो वतैते देवदस्तायां च्या-
माशब्दः | एवमपि गुणो अनिर्रिंष्टो भवति । बहवः श्यां गुणास्तीशणा खश्मा
परथुरिति । आनिर्दिहयमानस्यापि गुणस्य भवति लोके संप्रत्ययः । तद्यथा । चन्त्र-
मुखी देवदत्तेति .बहवशन्दरे गुणा या.चासौ प्रियदश्ेनता सा गम्यते || एवमपि 0
समानाधिकरणेनेति वतेते. व्यधिकरणत्वात्समासो न प्रामोति | किं हि वचनान्न
भवति | यद्यपि तावद चनात्समासः स्यादिह तु खलु मृगीव चपला भृगचपला
“ समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्धायोऽ न प्राभोति || एवं तर्हिं तस्यामेवोभयं वतैते .|
एतच्चात्र युक्तं यत्तस्यामेवोभयं तेत इति । इतरथा. हि बहपेश्य॑. .स्थात् ।
यदिः तावदेवं विग्रहः क्रियते शाखीव द्यामा देवदत्तेति श्यां दयामेव्येतदपे्ष्यं 25
* ६,१.४८. † ४,९.९४;.४०; १९. ‡ २.१.४९. $ ६.१.४२,
॥-॥
३९.९ ` -4"ब्ककरणमश्छमाष्यम् ॥ -- (म०.२.९.९
स्यात् । अथाप्येवं . विप्रः क्रियते यथा शली. इमामा क्रियं देवदन्तेर्येवमपि
देषदन्तायां रयाभेत्येतदपेश्यं स्यात् । एवमपि गुणो ˆ अनिर्दिष्टो भवति | बकं
शाठ्यां गुणास्तीकष्णा खमा पृथुरिति । अनिर्दिदयमानस्यापि गुणस्य भवति
लोके संप्रत्ययः । तच्यथा । चन्द्रमुखी देव दत्तेति बहवशन्दरे गुणा या चासौ प्रिय-
5 द दोनता सा गम्यते || |
उपमानसमासे गणववनस्य विरोषभाकत्सामान्यवचनाभरसिदिः॥ ९॥
उपमानसमासरे गुणवचनस्य विदोषभाक्कात्सामान्यवचनस्यीपरसिद्धिः स्यात् |
शस्रीदयामा । उयामाश्ब्डोऽयं शश्रीकाब्देनाभिसंबध्यमानो विद्चेषव्रचनः संपथते |
तत्र सामान्यवचत्रैरिति समासो न प्रपति ||
10. न वा.इयामस्वस्योभयव भावात द्वाचकत्वा्च दाब्दस्य सामान्य-
वचनमरसिद्धिः ॥ २॥
`; न वैष -दोषः ।- क्रिः कारणम् | रयामस्वस्योभायत्र भावात् | उभयत्रैवाज्र
दच्रामल््रमस्ति शल्या. देवदसाथां च. | तदाचक्रत्वा्च शाब्दस्य | तदाचकथात्र
इयाम्नाद्चष्दः प्रयुञयते | किवाच्रकः | उभयवा चकः, । इयामत्वस्योभवत्र भावाद्वा -
15 चकत्ध(च दा्डस्य सामान्यवचनं ` परसिदधम् | सामान्यवचने प्रसिडे सामान्यवचनै-
` रिति समासो -भबिष्वति | न चावरमं स एवः सामान्यवचनो यो बहूनां सामान्व-
साह इयोरपि यः सामान्यमाह सोऽप्रि ` सामान्यबचन एव ॥ जवा सासान्य-
वचनैरित्युच्यते सर्वश्च शाब्दो. ज्येन दाब्देनाभिसंकभ्यमानो विदोषवचनः- सप्ते
त एवं विक्गास्यामः -प्रागभिसंबन्धा्यः सामान्यबचन इतिः ||
2 उपमितं -ग्याघादिभिः सामान्धाप्रयोगे ॥-२।१।५६ ॥ -
सामान्यापरयोग इति कमथम् -। इह मा भूत् । पुरुषोऽयं व्याघ्र इब - द्रः ।
पुरुषोऽयं व्याघ्र इव बलवान् ।। सामान्याप्रयोग हति -शक्यमवक्तुम् | कस्मान्न
भवति पुरुषोऽयं व्यप्र इव शरः पुरुषोऽयं ध्याघ्र हब बलवामिति | असप्थ्योत् ।
कथमसामर्थ्यम् । सापेक्षमसमथं भवतीति| एवं तरि सिदे सति यस्सामान्या-
25 प्रयोग इति प्रतिषेधं शास्ति तज्जपयत्याचार्यो भषति वै प्रधानस्य सापिक्षस्व।पि
प° २.९, ५६.-५.७.] ।॥#व्यकरणदप्हभ्रष्यय् ॥ ३९९,
समास इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रेजनम् । राजपुरषो ` अभिरूपः । र।जवुरुषो
ददोनीयः | अक्र वृत्तिः सिद्धा भवति 1।
विशेषणं विशेष्येण बहुलम् ॥ २।१. ।५.७ ॥
विदोषणविोष्ययीरुभयाविरोषणत्वादुभयोश्च विरोष्यत्वादुपसजं-
नापरसिदिः ॥ ९ ॥ 9
विशेषणवि शेष्ययोरुभयविद्ोषणत्वादुभयो्च विदोष्यत्वादुपस ज॑नस्याप्रतिद्धिः ।
कृष्णतिला इति । कृष्णहाब्दोऽयं तिल शब्देनाभिसंबभ्यमानो विशेषुणवचनः संपद्यते |
तथा तिलदाब्दः कृष्णशम्देनाभिसंबध्यमानो विशेषणवचनः संपद्यते | तदभयं विद्यो-
षणं भवस्युभयं च विरोष्यम् । विशहोषणविरेष्ययोरुभयविंशेषणस्वादुभयोथ
किशेष्यस्वादुपसजेनस्याप्रसिदिः ॥ . - 10
न -वान्यतरस्य पधानभावाचद्िरीषकत्वाचापरस्योपसर्जनपरसिद्धिः ।। २ ॥
नं चैष दोषः | किं कारणम् । अन्यतरस्य प्रधानमावात् | शन्यतरदत्
प्रधानम् । तद्िशेषकत्वाकापरस्य । तदिरेषकं चापरम् | अन्यतरस्य प्रपनभा-
वांसद्िदोषकत्वा्ापर स्योपसजेनसं ज्ञा भविष्यति | यदास्य तिलाः प्राधान्येन
विवक्षिता भवन्ति कृष्णो विशेषणत्वेन वदा तिलाः प्रधानं कृष्णो विरहोषणम् | कामं 15
तद्येनेनैव हेतुना यस्य कृष्णाः प्राधान्येन विवक्षिता भवन्ति तिला विदोषणस्वेन तेन
कततैवयै तिठक्ृष्णा हति | न ` कतैव्यम् | न द्यं इन्दः । तिला कृष्णाधेति | न
खल्वपि षष्ठीसमासः । तिलोनां कृष्णा हति | किं तर्हि । हाविमौ प्रधानशाष्दावे-
कस्मिक्तर्थे युगपदवरुष्येते न च इयोः प्रधानशब्दयोरेकस्मिन्र्थैयुगप दवरुष्यमानयोः
किंचिदपि प्रयोजनमस्ति तत्र प्रयोगादेतद्वन्तव्यौ नूनमन्रान्यतरत्मभानं तदशेषं 20
चापरमिति | तत्र स्वेतावान्संदेहः किं प्रधानं किं विशेषणमिति | सखापि क्र
संदेहः । यत्रोमौ. गुणशब्दौ । तदथा । कुष्जखश््ः ` खच्ञकुम्ज हति | यत्र
दन्यतरद्रब्यमन्यतरो गुणस्तत्र यषटष्यं॑तस्पधानम् | तथथा । शुङकमारुमेत कृष्ण-
मौलमेतेति न पि्टपिण्डीमाकभ्य ` कृती भवति | भवरयं तद्ुणं द्रव्यमाकाङति ।| :
कथे तर्हनि द प्रधानरंब्दविकसिमिन्न्थे युगपदवंरुध्येते वृक्षः दि श्चपेति वैतर्थो- 25
रावरयकः समविहाः | न दनवृक्षः शिरापास्ति
त + ` ~ >+...
धिक 9 ॥ श्ककरनकहामष्पय् ॥ , मि०२.९.३.
पुवौपरप्रथमचर मजघन्धसमानमष्यमध्यमवीराश्च ॥ २।१।५८॥
अथ किमथेमुत्तरत्रैवमाद्यनुक्रमणं क्रियते म विशोषणं विशेष्येण बहूलम्
[२.१.९७] इस्येव सिम् । .
बहुलवचनस्याकृत्लत्वादुत्तरघ्ानुक्रमणसामर्थ्यम् ॥ ९॥
$ अकृतकं बहल चनमिव्युत्तरत्रानुक्रमणं क्रियते । यद्यकृत्लं यदनेन कृत मक्त
तत् । एवं तिं न ब्रूमो ऽङृत्कमिति । कर्कं च कारकं च साधकं च निववतेकं
च | यश्चानेन कृतं शकतं तत् । किमथे तर्चवमाद्यनुक्रमणं क्रियते । उदाहरणभू-
यस्त्वात् | ते खल्वपि विषयः परिमृदीता भवन्ति येषु लक्षणं प्रपत्च्च | केवलं
लक्षणं केवलः प्रपत्चो वा न. तथा कारकं भवति || भव्यं खल्वस्माभिरिदं
10 ब्भ्य बहुलम् अन्यतरस्याम् उभयथा वा एकेषामिति । सवेवेदपारिषदं षीद
शाखम् । तत्र नेकः पन्थाः शक्य भास्थातुम् ॥
श्रेण्यादयः कृतादिभिः ॥ २।९.।५९ ॥
अण्यादयः पद्यन्ते कृतारिराकृतिगणः||
श्रेण्यादिषु च्व्यर्थवचनम् | ९॥
15 म्ेण्यादिषु च्व्यथे्हणं कतेव्यम् | भभरेणयः भेणयः कृताः श्रेणिकृताः | यदा
हि अेणय एव किंचिच्कियन्ते तदा मा भूदिति || अन्यत्रायं ख्ट्यथेमरहणेषु च्व्यन्तस्य
परतिषेधं श्ास्ति* । तदिह न तथा | किं कारणम् | अन्यत्र पूर्वै च्व्यन्तकाथे परं
ष््यर्थकार्यम् । इह पुनः पूवे च्वयथका्ै परं च्व्यन्तकायैमिति। ||
क्तेन नञ्विरि्टेनानञ् ॥ २ ।९१.।६०॥
20 नञ्विरिष्टे समानप्रकृतिवचनम् ॥ ९ ॥
नज्विरिष्टे समानपृकृतिप्रहणं कतेष्यम् । इह मा भूत् ।. सिदधं॑चागुक्तं वेति ॥
भनवयिति च प्रतिषेषो वक्तध्यः |. इह मा भूत् । कतेष्यमकृतमिति.॥
# ९,४.७४, † २.२.९८.
पां०२.९,५८-६०. | ॥ च्थाकरणपहलमव्यपर ॥ ७०९
नडिडधिकेन च ॥ २॥
नृडिदडधिकेन च समासो वक्तव्यः | इहापि यथा स्यात् | अशितानशितेन
जीवति | किष्टाङ्किरितेनः जीवतीति ॥
किमुच्यते समानप्रकृतिम्रहणं कतैन्यमिति यदा नज्विशिष्टेनव्युच्यते न चात्र
नञ्कृत एव विदोषः । किं तर्हि । प्रकृतिकृतोऽपि | अयं विदिष्टञ्चब्दोऽस्स्येवाव- ४
धारणे वतैते | तद्यथा । देवदन्तयश्चदत्तावाद्यावमिरूपौ ददहौनीयौ पक्षवन्त देव -
द्तस्तु यज्ञदत्तास्स्वाध्यायेन विशिष्टः । स्वाध्यायेतैवेति गम्यते न्ये गुणाः समा
भवन्ति | अस्त्याधिक्ये वतेते । तद्यथा । देवदत्तयज्ञदत्तावाद्यावभिरूपी ददौनीयौ
प्षव्रन्तौ देवदत्तस्तु य॒ज्गदतास्स्वाध्यायेन . विशिष्टः । स्वाध्यायेनाधिको न्ये गुणा
अविवक्षिता भव्रन्ति || तद्यदा तावदवधारणे विशिष्टशाब्दस्तदा मैवा्थैः समान- 10
प्रकृतिग्रहणेन । नेह भविष्यति । सिद्धं चाभुक्तं चेति । नाप्यनथिति प्रतिषेषेन । नेह
भविष्यति | कतैव्यमकृतमिति । नुडिडधिकेनापि तु तदा समौसो न प्रामोति|
यदापिश्ये विशिष्टदाम्दस्तदा समानप्रकृतिम्रहणं कतेष्यम् | इह मा भत् | सिद
चामं ॒नेति | अनञिति च प्रतिभेषो वक्तव्यः | इह मा भत | कतैव्यमकृत-
भिति नुडिडधिकेनापि तु समासः सिद्धो भवति | तत्राधिक्ये विशिष्ट शब्दं मत्वा 15
समानप्रकृतिमहणं चोद्यते ||
भवधारणं नञा चेश्रुडिडिशिष्टेन न प्रकल्पेत |
अथ चेदधिकविवक्षा काये तुल्यप्रकृतिकेनेति ॥
कृ तापकृतादीनां चोपसंख्यानम् | ३ ॥
कृतापङृतादीनां चोपखंख्धानं कतेत्यम् | कृतापकृतम् भुक्तविभुक्तम् पीत- 2
विषीतम् ||
सिद्धतु क्तेन विस्षमापवमम् ॥ ४॥
सिद्धमेतत् । कथम् । क्तान्तेन क्रियातिसमप्रप्रावनञ्क्तान्तं सम्रस्यत इति व-
त्तव्यम् ||
गतपरतव्यागतादीनां चोपसंख्यानम् ॥ ५ ॥ %
गतप्रत्यागतादीनां चोपसंख्यानं कतेष्यम् । गतप्रत्यागतम् यातानुयातम् पुटाप-
रिका क्रयाक्रयिका फलाफलिका मानोन्मानिका |
# ६. २.७४. 1 ७.२. «० °
91 शि
. ४०२ ॥ व्थाकरणमहाभवच्यम् ॥ | | म०२.९.३.
युवा खकतिपकितिबलिनजरतीभिः ॥ २ ।१. । ६.3 ॥
भयुक्तोऽयै निर्देशाः । समानाधिकरणेनेति“ यतैते कः प्रसङ्गो यश्यपिकरणानां
समासः स्यात् ॥ एवं ताहि ज्ञापयत्याचार्यो यथाजातीयकमुन्तरपदं तथाजातीयकेन
पुवेपदेन समस्यत इति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् । प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गवि-
5 हिष्टस्यापि महणं भवतीत्येषा परिभाषा न कतैव्या भवति ॥
वर्णो वर्णेन ॥ २।१ । &९.॥
इदं विचायैते वर्गेन तृतीयासमासो वा स्यात् ] कृष्णेन सारङ्गः कृष्णसारङ्गः ।
समानाधिकरणो वा | कृष्णः सारङ्गः कृष्णसारङ्गः इति । कञथचात्र विदोषः |
वर्णेन तृतीयासमास एतपरतिषेधे वण ग्रहणम् ।॥ ९ ॥
10 वर्णेन तृतीयासमास एतप्रतिषेधे वणग्रहणं कतेव्यम् । तृतीया पूवेपदं ्कृति-
स्वरं भवति† | अनेते वणे इति वक्तव्यम् ॥ अथ द्वितीयेन वर्ण्रहणेनैतविशेषणे-
नायेः | वाढमर्थो यद्यवणे एतशब्दोऽस्ि । ननु चायमस्ति । आ इत एतः कृष्णेतः
तोहितेत इति | नाथे एवमर्थन वणेम्रहणेन | यदि तावदयं कर्मणि क्तस्तृतीया
कर्मणि [६.२.४८] इत्यनेन स्वरेण भवितव्यम् | भथापि कतरि परत्वाकृत्स्व-
15 रेण भवितन्यम्$ ॥ अथ समानाधिकरणः |
समानाधिकरणे द्विवंणंग्रहणम् ॥ २॥।
समानाधिकरणे द्िवेणे्रहणं कतैव्यम् । वर्णो वर्णेष्वनेत इति वक्तव्यम् | एकं
वणेग्रहर्णं कतेव्यमिह मा भूत् | परमशुङ्कः परमकृष्ण॒ इति | दितीयं वणंमहषं
कतेव्यमिह मा भूत् | कृष्णतिला इति || एकं वणैम्रहणमनथेकम् | अन्यतर क-
५0 स्मान्न भवति । लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति ॥
एवं सति तान्येतानि त्रीणि वणेम्रहणानि भवन्ति समासविषौ दे स्वरविषी वेकम्।
यस्यापि तृतीयासमासस्तस्यापि तान्येव त्रीणि व्णैमहणानि भवन्ति समासविषौ
हे स्वरविधौ चैकम् | सामान्येन मम तृतीयासमासो भविष्यति तृतीया ततकृता
# २.१. ४५. { ६.२.२. ‡ ६.२.२३. $ ६.२.९३९.
ॐच.
प° २.६.६.०-६९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ७०३
गुणवचनेन [२.९.३० | इति || अवद य वर्णेन प्रतिपदं समासो वक्तव्यो यत्र तेन
न सिध्यति तदथेम् | क च तेन न सिध्यति | शुकवभुः हरितवबभ्रुरिति। तथा च
सति तान्येव श्रीणि वर्णमरहणानि भवन्ति समासविधौ दे स्वरथिधौ चैकम् ॥ अथे-
दानीं समानाधिकरणः सामान्येन सिद्धः स्यात् | वां सिद्धः | कथम् । विरोषणं
विशेष्येण बहुलम् [२.९.५९७] इति । एवमपि हे वणेम्रहणे कतेव्ये स्वरवि-
4
धावेव प्रतिपदोक्तस्याभावात् ॥ तस्मात्समानाधिकरण इत्येष पक्षो ज्यायान् ॥
समानाधिकरणाधिकारि प्रधानोपसञनानां परं परं विप्रतिषेधेन ॥ ३ ॥
समानापिकरणाधिकारे प्रधानोपसजैनानां परं परं भवति विप्रतिषेधेन । प्रधानानां
प्रथानमुपसजेनानामुपसजेनम् || प्रधानानां तावतल्धानम् | वृन्दारकनागकुश्जरेः पूज्य-
मानम् [ २.१.६२] इत्यस्यावकाशः । गोवृन्दारकः अश्ववृन्दारकः | पोटायुवती- 10
` नामवकादाः* | इभ्ययुवतिः आद्ययु वतिः| इहोभयं प्रामोति | नागयुवतिः वृन्दारक-
युवतिः | प्रधानानां परं प्रधानं भवति विप्रतिषेधेन || उपसजैनानां परमुपसजैनम् |
सन्महत्परमोत्तमेोत्कृशः [६९] इत्यस्यावकाशः । सद्गवः सदश्वः । कृत्यतुल्या-
ख्या जजाव्या [६८] इस्यस्यावकाडाः । तुल्यश्वेतः तुल्यकृष्णः । इहोभयं प्रामोति ।
तुल्यसन् तुल्यमहान् । उपसजेनानां पर मुपसजेनं भवति विप्रतिषेपेन ॥ 15
समानाधिकरणसमासाद्रहुत्रीहिः ॥ ४॥
समानाधिकरणसमासाद्रहव्रीहिमेवति विप्रतिषेधेन । समानाधिकरणसमासस्या-
वकाश | वीरः पुरुषो वीरपुरुषः1 । बहुव्रीहेरवकाशः । कण्ठेकालः | इहोभयं
प्रामोति । वीरपुरुषको मामः । बहुत्रीहिभेवति विप्रतिषेधेन ||
कदाचिस्कमधारयः सव॑ंधनाद्यर्थः ॥ ५॥ 20
कदाचित्कर्मधारयो भवति बहुव्रीहेः । किं प्रयोजनम् । सर्वधनाद्र्थः । सर्व-
धनी । सवैवीजी । सवेकेश्ी नटः । गौरखरवदरण्यम् | गौरमृगवदरण्यम् |
करष्णसपेवान्वल्मीकः । लोहितक्लारिमान्मामः । किं प्रयोजनम् | कर्मपारयप्रक्ृति-
भिर्मस्वर्थीयरभिधानं यथा स्यात् । किं च कारणं न स्यात् । बहुब्रीहिणोक्तस्वा-
न्मस्वर्थस्य || यथुक्तस्वं हेतुः कमेधारयेणाप्यु तत्वाच्च प्रामोति । न खल्वपि संज्ञा- 25
भयो मच्वर्थीयः | किं तर्हि । अथौभ्रयः । स यथैव बहब्रीहिणोक्तत्वान्त भवव्येवं
# २.१.६५. { २.१.५८. { ५.४. १५५; २.२.९१.
४०७४ ॥ व्याकरणयहाभष्यम् ।॥ , मि०२.१.२.
क मैधारयेणाप्युक्तसवान्न भविष्यति || एवं तर्हीदं स्यात् । सवोणि धनानि सवरेषनानि
सर्वैषनान्यस्य सन्ति सर्वधनीति । तरैवं शाक्यम् । नित्यमेवं सति कमेधारयः स्यात्
तत्र यदुक्तं कदाचित्कर्मधारय इत्येतदयुक्तम् ॥ एवं॑त्ि भवति वै किंचि
दाचायो: कायेवदुदि कृत्वा पठन्ति कायाः शब्दा हति । तद्वदिदं पितं समानाधि-
४ करणसमासाद्रहुव्रीहिः कतेव्यः कराचित्कमैधारयः सवेधनाश्यये इति ||
यदुच्यते समानाधिकरणसमासाद्रहब्रीहिभेवति विप्रतिषेधेनेति नैष युक्तो वि-
प्रतिषेषः । अन्तरङ्गः कमेधारयः | कान्तरङ्गता | स्वपदार्थे कमेधारयो ऽन्यपदार्थे
बहुत्रीहिः । अस्तु | विभाषा कमेधारयो यदा न कमेधारयस्तदा बहुव्रीहिभेषि-
प्यति | एवमपि यद्यत्र कदाचिस्कर्मधारयो भवति कर्मधारयपकृतिभिर्मव्वर्थी-
10 नैरभिषानं प्रामोति । स्वैधायमेवम्थौ यलः क्मधारयप्रकृतिमिमेत्वर्थधिरमिषानं
मा भूरिति || एषं तर्हि नेदं तस्य योगस्योदाहरणं विप्रतिषेधे परमिति" । किं वार |
इषटिरियं पठिता | समानाधिकरणसमासाद्रहु्ीदिरि्टः कदाचित्कर्मधारयः सर्वधना-
शथे हति | यदीष्टिः पठिता नार्थोऽनेन । इह हि सर्वे मनुष्यां अल्पेन यतेन
महतोऽथौनाकाङ्कन्ति । एकेन माषेण शतसहल्लम् । एकेन कुशलकेन खारीसहक्म् |
15 तत्र क्मैधारयप्रकृतिभिमेलर्थीैरभिधानमस्तु बहुब्रीहिणेति बहुव्रीहिणा भविष्यति
लघुत्वात् ।। कथं सर्वधनी सवैवीजी सवेकेही नट हति । इनिप्रकरणे सवौदेरि्िं
वक्ष्यामि । तश्चावरयं वक्तव्यं ठनो ‡ वाधनाथम् ॥| कथं गौरखरवदरण्यम् गोर-
मृगवदरण्यम् कृष्ण सपेवान्वल्मीकः लोहित शालि मान्म्रामः | अस्त्यत्र विदोषः | जा-
त्यात्राभिसंबन्धः क्रियते. | कृष्णसर्पो नाम सपेजातिः सास्मिन्वल्मीकेऽस्ति | यदा
20 न्तरेण जातिं तदताभिसंबन्धः क्रि यते कृष्णसपी वल्मीक इत्येवं तदा भविष्यति ॥
पूवेपदातिशय आतिशायिकाद्रहुतरीहिः सुल्मवखतराद्यर्थः ।। ६ ॥
पृवेपदातिराय आतिहायिकाद्रह्रीहिभेवति विप्रतिषेधेन । किं प्रयोजनम्
सष्मवखरतराद्यथंः । आतिश्चायिकस्यावकाडाः । पटुतरः पटुतमः । बहुगरीहिरव-
कांदाः । चित्रगुः शबलगुः । इहोभयं प्रामोति । खक्मवलरतरः तीह्गशरूङ्गतरः ।
25 बहुव्रीहिमेवति विप्रतिषेधेन }| नैष युक्तो विप्रतिषेधः । विप्रतिषेधे ` परमिव्यु-
च्यते” पूवश बहुत्रीहिः पर आतिदायिकःऽ | इष्टवाची पर दाब्दः | विप्रतिषेधे परं
यदिष्टं तद्भवति || एवमप्ययुष्कः | अन्तरङ्ग आतिहायिकः | कान्तरङ्गता | उन्ा-
प्मातिपदिकादातिहायिकः¶ छवन्तानां बहुत्रीहिः । आतिशायिकोऽपि नान्तरङ्गः ।
# १.४.२ † ५.३.१३ ५१. { ५.२.११५. & २.२. २५; ५,३.९.,५७. वा ४.१.६.
पा० २.९.६९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यय ।। ४०५
कथम् । समयोत्तद्धित र्पद्यते ` सामथ्यै च छबन्तेन । एवमप्यन्तर द्गः ।
कथम् | स्वपदाथे आतिश्चायिको ऽन्यपदार्थे बहुत्रीहिः | एवमपि नान्तरङ्गः .।
कथम् | स्पधीयामातिश्षायिको भवतिः न चान्तरेण प्रतियोगिनं स्पर्धा भवति ॥
त्रैव वान्रातिद्यायिकः भामति | किं कारणम् । असामभ्योत् | कथमसासथ्येम् ।
सापेक्षमसमथे भवतीति । यावता वज्राणि तदन्तमपेक्षन्ते तदन्तं चपिक्ष्य वाणां 5
वजैयगपत्स्पधौ भवति । ननु चायमातिश्वायिक एवमारमकः सत्यां व्ययेक्षायां
विधीयते । सस्यमेवमात्मको यां च नान्तरेण ्यपेक्षामातिशायिकस्य प्रवृत्ति-
स्तस्यां सत्यां भवितव्यम् । कां च नान्तरेण व्यपेक्षामातिदायिकस्य प्रवृत्तिः | या
हि प्रतियोगिनं प्रति व्यपेक्षा | या हि तद्वन्तं प्रति न तस्यां भवितव्यम् || बहुव्री-
हिरपि तर्हि न प्रामोति । किं कारणम् | भसामथ्योदेव | कथमसामथ्यैम् । सा- 10
वेक्षमसमथं भवतीति । यावता वखाणि षलान्तराण्यपेक्न्ते तद्ता चाभितसंबन्धः ॥
एव तरि नेदै तस्य योगस्योदाहरणं विप्रतिषेधे परमिति" | किं तर्द । हष्टि-
रियं पठिता । पृवैपदातिहाय आतिङायिकादटुव्रीहिरिष्टः करेमवखतराद्यथं इति ।
यदीष्टिरिवं पठिता नार्थो न । कथं चैषा युक्तिरुक्ता वलान्तराणां वलान्तैेय-
गप्स्पथौ तदता चामिसंबन्ध इति | यदा न्तरेण वखराणां वदैयगपत्स्पधी तह्ता 15
चाभिसंबन्धः क्रियते निष्पतिदन्हस्तदा बहुत्रीिरबहुत्रीहेरातिहायिकः || न तर्हीदा-
नीमिदं भवति खष्मतरवल् इति | भवति । यदान्तरेण तदन्तं वलाणां वजय
गपर्स्पथौ निष्परतिन्द स्तदातिशश्ायिकः || कथं पुनरन्यस्य प्रकर्षेणान्यस्य प्रकर्षः
स्यात् | त्रैवान्यस्य प्रकर्षेणान्यस्य प्रकर्षण भवितव्यम् | यथैवायं द्रव्येषु यतते
वज्राणि मे स्युरित्येवं गुणेष्वपि यतते सषेमतराणि मे स्युरिति । नात्रातिदायिकः 20
भरामोति | किं कारणम् । गुणवचनारित्थुच्यते न च समासो गुणवचनः | समा-
सोऽपि गुणवचनः । कथम् । भजदस्स्वाथा वृत्तिरिति । भथ जहस्स्वायौयां तु दोष
एव | जहत्स्वाथोयां च न दोषः । भवति बहुतरी तहणसंविज्ञानमपि । तद्यथा ।
शुक्कवाससमानय लोहितोष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्तीति तद्गुण आनीयते तहुणाथ
प्रचरन्ति || ~
उत्तरपदातिदाय आतिरायिको बहुररीहेर्बहादचयतरादयर्थः ॥ ७ ॥
उत्तरपदातिशाय जतिङायिको बहुत्रीहेभवति विप्रतिषेधेन | करं प्रयोननम् |
जा निक रच ~=
[ क)
#* ९.४.२२.
४०६ ॥ व्याकरनमहाभाष्वय् ॥ [म०२.९.२.
बहाद्यतरायर्थः | बदमाद्यतरः बहुसुकुमारतरः | कः पुनरत्र विशेषो बह्ु्रीहेवो-
तिशाविकः स्यादातिशायिकान्तेन वा बहुत्रीहिः । स्वरकपो्विशोषः । यदयत्राति-
दायिकादरदुव्रीहिः स्याद्रह्वाद्यतर एवं स्वरः प्रसज्येत बहयाद्यतर इति चेष्यते" ।
बहाद्यकतर इति च प्राभोति बहाद्यतरक इति चेष्यते! ॥
5 समानाधिकरणाधिकारे शाकपाधथिवादीनामुपसंख्यानसुत्तरपदलोपश्च ॥ ८ ।।
समानापिकरणाभिकारे शाकपार्थिवादीनामुपसं ख्यानं कतेव्यमुत्तरपदलोपथ्च व-
तव्यः | शाकमभोजी पार्थिवः शाकपार्थिवः । कुतपवासाः सौग्युतः कुतपसोगुतः।
भ जापण्यस्तील्वकलिरजातील्वलिः | यष्टिभरधानो मौडल्यो यष्टिमोद्ल्यः ॥
चतुष्पादो गमिण्या ॥ २। १. । ७२. ॥
10 | चतुष्पाज्नातिरिति वक्तव्यम् । इह मा भूत् | कालाक्षी गर्भिणी । स्वस्तिमती
गर्भिणी ॥
मयुरव्यंसकादयश्च ॥ ९ । १. । ७२९ ॥
किम्थं्कारः । एवकाराथेः । मयुरव्यंसकादय एव । क्र मा भूत् | परमो
मयुरव्यंसक इति ॥
15 इति श्रीभगवत्पतज्ञजिविरचिते व्याकरणमहामाष्ये विवीयस्याध्यायस्य प्रथमे
पादे तृतीयमाह्विकम् ॥ पाद्च समाः ||
* ६.२. ९७९; ३.६.४ ` † ५.५.९५४.
अषै नपुंसकम् ॥ २,।२।२॥
हह कस्माच्च भवति | मामाधैः नगरा इति । भर्पशब्दस्य नपुंसकरिङ्गस्येदं
ग्रहणं पंिङ्गश्चायमर्पदाब्दः | क्र पुनरयं नपुंसकलिङ्गः क पूंलिङ्गः | समप्रविभागे
नपुंसकलिद्धो ऽवयववाची पुंलिङ्गः || इह कस्माच्च भवति | अ पिष्पलीनामिति |
नवा भवत्यर्पपिप्पल्यं इति । भवति यदा खण्डसमुद्चयः | अर्षपिप्पली चा्षै- ¢
पिप्पली चापेपिप्पली चाधेपिप्पल्य इति | यदां त्वेतद्गाक्यं भवत्यै पिप्पलीनामिति
तदा न भावितव्यम् । तदा कस्मान्न भवति । एकाधिकरण इति वतैते || न तर्ही-
दानीभिदं भवति अर्षराश्िरिति | भवति । एकमेतदधिकरणं भवति यो ऽसौ
राहिनाम ||
द्वितीयतृतीयचतुथैतुयाण्यन्यतरस्याम् ॥ २।२।२॥
अन्यतरस्यांमरहणं किमथम् । अन्यतरस्यां समासो यथा स्यात्समासेन मुक्ते
वाक्यमपि यथा स्यात् | हितीयं भिक्षाया इति | नैतदस्ति प्रयोजनम् | प्रकृता
महाविभाषा तया वाक्यमपि भविष्यति | हदं तर्हिं प्रयोजनमेकदेशिसमासेन मुक्ते
प्टीसमासोऽपि यथा स्यात्। । भिक्षाहितीयमिति । एतदपि नासि प्रयोजनम् । अ-
यमपि विभाषा षक्षीसमासो ऽपि | तावुभौ वचनादविष्यतः || अत उत्तरं पठति | 15
द्वितीयादीनां विभाषाप्रकरणे विभाषावचनं ज्ञापकमवयवविधाने सामान्य-
विधानाभावस्य ॥ ९॥
दितीयादीनां विभाषाप्रकरणे विभाषावचनं क्रियते क्षापकार्थम् | किं श्राप्यते |
एतञ्ज्ञापयत्याचार्योऽवयवविषौ सामान्यविधिने भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयो-
जनम् | भिनत्ति छिनत्ति | मि कृतेः रान्न भवति || नैतदस्ति प्रयोजनम् | 20
` काबदेशाः इयनादयः करिष्यन्ते | तत्त दापो हणं कर्तव्यम् | न कर्तव्यम् ।
४०८ ॥ व्याकरणप्रराभाष्यप् ॥ | | मं० २.२.९१.
भरकृतमनुवतेते । क प्रकृतम् | कतैरि शप् [३.१.६८ | इति । तदै प्रथमानिर्दिष्टं
षक्ठीनिर्दिटेन चेहाथः । रुषारिभ्य इत्येषा पञ्चमी राविति प्रथमायाः षर प्रकल्प-
यिष्यति तस्मादिस्युन्तरस्य [९.९. ६७] इति | प्रत्ययविधिरयं न च प्रत्ययविधौ
पञ्चम्यः प्रकल्पिका भवन्ति | नायं प्रत्ययविधिः । विहितः प्रत्ययः प्रकृतश्चानुव-
८ तेते || एवं तर्हि श्ापयस्याचार्यो यत्रोस्सगीपवादं विभाषा तज्रापवादेन मुक्त उ.
त्सरगों न भवतीति । किमेतस्य श्ञापने प्रयोजनम् । दिक्पुवेपदान्डीप् [४.९.६०] |
भाङ्खी पाङ । परत्यङ्ुसी भत्यज्खा । डीपा मुक्ते डीषु भवतिः ॥ त्रैतदसि
प्रयोजनम् । वक्ष्यत्येतत् | दिक्पुव॑पदान्डीषोऽनुदान्तस्वं ङीभ्विधाने यन्यत्रापि डीषि-
षयान्डीप्मसङ्ग इति || हदं तार्ई प्रयोजनम् | अर्धपिप्पली भ्धकोशातकी | एक
10 देशि खमासेन‡ मुक्ते षष्ठीसमासो न भवति । उन्मत्तगङ्गम् लोहितगङ्गम् | अव्व-
यीभावेन$ मुक्ते बहुव्रीहिनं भवति । दाः शक्षिः | इया मुक्ते ऽण्न भवर्ति¶ ||
यथेतज्ज्ाप्यत उपगोरपत्यमौपगवः तद्धितेन मुक्त उपग्वपत्यामिति न सिध्यति |
अस्त्यत्र विशेषः | दे शत्र विभाषे | दै वयत्तिहोचिवृक्तिसात्यमुभिकाण्डेविदिभ्वो
ऽन्यतरस्याम् [४.९.८९] इति सम्थीनां प्रथमाद्वा [८२] इति च । तत्रैकवा
15 वुत्िविमाषापरया वृत्तिविषये विभाषापवादः ॥
क्रियमाणेऽपि वा अन्यतंरस्यांम्रहणे षक्षीसमासो न प्राप्रोति | कि कारणम् |
पुरणेमेति प्रतिषेधात्“ | वरैतत्पुर णान्तम् । अभैतत्पर्यवपक्तम्†† । एतदपि पूरणान्तमे-
व ] कथम् | परणं नामार्थस्तमाह तीयशशब्दोऽतः पूरणम् | योऽसौ पुरणान्तास्स्वाबे
भागे ऽन्सोऽपि पूरणमेव || एवं तर्न्यतरस्वां्रहणसामर्थ्यात्य्ठी समासोऽपि भवि-
20 ष्यति |
प्राप्तापन्ने च दवितीयया॥२।२।9॥
किमर्थथकारः | अनुकर्षणार्थः | अन्यतरस्यामिव्येतदनुकृष्यतेः‡ | किं प्रवोज-
नम् | अन्यत्तरस्यां समासो यथा स्यास्समासेन मुक्ते वाक्यमपि यथा स्यात् | जी-
विकां प्राप्न इति | त्रैतदस्ति प्रयोजनम् । प्रकृता महाविभाषा तया वाक्यमपि मवि-
९5 ध्यति || इदं तर्हि प्रयोजनं हितीयासमासोऽपि यथा स्यात्§$ | जीविकाप्राप्त इति ।
# ४,९.५४. न ४.९.६०४. { २.२.२. § २.९.२१. ¶ ४.१.९५.; <स; ९२
+भ २,२.११ †† ९.३.४८. {‡ २.२.६. §§ २.९.२४
शो° २,२.४५. | ॥ भ्वाकरनमहाभाष्यत् ॥ ४०९
एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | भयमप्युच्यते द्ितीयासमासोऽपि तदुभयं वचनाडविष्य-
ति | एवं तर्हि नायमनुकषेणार्थधकारः । किं. तर्हिं | अत्वमनेन विधीयते | प्राप्रा-
पते हितीयान्तेन सह समस्येते अत्वं च भव्रवि प्राप्रापल्लयोरिति । प्राप्रा. ओविकां
पराप्रजीविका | आपच्ा जीविकामापन्रजीविका ||
कालाः परिमाणिना ॥ २।२।५॥ ` #
किंप्रधानोऽयं समासः | उत्तरपदा्थप्रधानः } यद्युत्तरपदार्थप्रधानः सधर्मणाने-
नान्थैरत्तरपदार्थप्रधातैर्मवितव्यम् | अन्येषु चो्तरपदार्थप्रधानेषु चैवासावन्तवर्षिनी
विभक्तिस्तस्याः समासेऽपि श्रवणं भवति । तद्यथा | राज्ञः पुरषो राजपुरुष इति|
इह पुनर्वाक्ये षष्ठी समासे प्रथमा. | केनैषदेवं भवति । योऽसौ मासनातयोरमि-
संबन्धः स समासे निवतेते | भमिहितः- सोऽर्थोऽन्तभूतः प्रातिपदिकार्थः सं पन्चस्तन्र 10
प्रातिपदिकार्थे प्रथमेति* प्रथमा भवति | न तर्हीदानीमिदं भवति मासनातस्येति |
भवति बाद्यमथेमपेशष्य षष्ठी ॥|
काकश्य येन समासस्तस्यापरिमाणित्वादनिरदैदाः ।॥ ९ ॥
कालस्य येन समासः सोऽपरिमाणी तस्यापरिमाणिस्वादनिरशः । अगमको
निर्दे रमेऽनिरदेराः । न हि . जातस्य मासः परिमाणम् | कस्य तर्हि | त्रिशाद्यत्रस्य | 15
श्या | द्रोणो बदराणां देवदत्तस्येति ।. न देवदत्तस्य द्रोणः परिमाणम् | कस्य
तर्हि | बदराणाम् ॥
सिद्धं तु कालपरिमाणं यस्य स कालस्तेन | २॥
सिद्धमेतत् । कथम् । कालपरिमाणं यस्य स कालस्तेन सह समस्यत इति
वक्तव्यम्] सिध्यति | खतं तर्हि भिद्यते ॥ यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं कास्य 20
येन समासस्तस्यापरिमाणिस्वादनिर्देश हति । कं पुनः कारं मत्वा भवानाह कालस्य
येन समासस्तस्यापरिमाणिस्वादनिर्देश हति } येन मूर्तीना मुपचयाश्चापचयाञ्च ठदेयन्ते
त॑ कालमाहुः | तस्थैव हि कयाचिक्क्रियया युक्तस्याहरिति च भवति रात्रिरिति
च | कया क्रियया | आदित्यगस्या । तचैवासङ्दावृ्तया मास हति भवति संवत्सर
इति च | यद्येवं भवति जातस्य मासः परिमाणम् ॥ ` ` ४
# १, ३. ४६.
52 7
४९७ ॥ व्वाकर्णगहाभान्यय ॥ [मम०२.२.९,
एकव चनद्िगोश्योपसंख्यानम् ॥ ३ ॥
एकं वचनान्तानामिति वक्तष्यम् । इह मा भूत् | मासौ जातस्य | मांसा जातं-
स्येति || दिगोधेति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । ह्िमासजातः ज्रिमासजोतः |
उक्तं वा | ४ ॥
४ किमुक्तम्। एकवचने ताबदुक्तमनमिधानादिति* || हिगोः किमुक्तम् | उत्तर-
पदेन परिमाणिना दिगोः समासववनमिति! ॥
नञ् ॥ २।२९।६॥
किंप्रपानोऽवं समासः | उत्तर पदाथप्रभानः | यद्यु्तरपदार्थपधानो अब्राह्मनमा-
नयेव्युक्ते ब्राह्मणमत्रस्यानयनं प्रामोति || अन्यपदायप्रभानस्तर्िं भविष्यति | यदन्व-
10 पदार्थप्रधानो ऽवषो हेमन्त इति हेमन्तस्य यदि द्ग व चनं च तत्समासस्यापि भ्रामोति ॥
पुवपदार्थप्रभानस्त्िं भविष्यति | यदि पूर्वपरा्थम्रधानो ऽव्ययसंज्ञा परामोति । अव्ययं
धस्य पुनैपदमिति । नैष दोषः | पाठेनाव्ययसंज्ञा क्रियते न च नञ्खमासस्तत्र
पद्यते । यथपि नञ्समासो न पद्यते नञ्तु पद्यते । पठेनाप्यव्ययसंज्ञायां
सत्यामभिषेयवष्धिङ्गव चनानि भवन्ति यशहार्थोऽभिषीयते न तस्य लिङ्गसंख्याभ्यां
15 योगोऽसि ॥ नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंख्यता वा | किं तर्द | स्वाभाविकमेतत् |
तद्यथा । समानमीहमानानां चाधीयानानां च केविदर्थैरयुज्यन्ते ऽपरे न | न वेदानीं
किदं वानिति कृत्वा सर्वैरर्थवङ्धिः रा्यं भवितुं कथिद्वानर्थक इति कृत्वा सवै-
रनथेकषैः । तत्र किमस्माभिः दाक्यं करम् | यच्तअः प्राक्समासालिङ्कसंख्याभ्यां
योगो नास्ति समासे च भवति स्वाभाविकमेतत् || भथवाश्रयतो लिङ्गषचनानि
20 भविष्यन्ति | गुणवचनानां हि शब्दानामाभ्रयतो लिङ्कव चनानि भवन्ति | तथथा |
शष वलम् शयुज्ञा शाटी श्य॒क्ृः कम्बलः शुक्तौ कम्बलौ शुह्धाः कम्बला हति ।
यदसौ द्रव्यं भ्रितो भवति गुणस्तस्य यदचिङ्खं वचनं च तहुणस्यापि भवति | एवमि-
हापि यदसौ द्रव्यं भ्रितो भवति समासस्तस्य यलिद्गः वचनं च तत्समासस्यापि भ-
विभ्यति || अथवा पुनरस्तूत्तर पदाथप्रभानः | ननु चोक्तमन्राक्मणमानवे्युक्ते ब्राद्य-
25 णमात्रस्यानयनं प्राभोतीति । नेष दोषः | इदं तावर प्रष्टव्यः | अथेह राजपुरुष-
* ३.२.६९५, † २.९.५९५. ` ‡ ९.६. ३७.
पा०२.२.६. | ॥ भ्याकस्नणवेहाभाष्यय् ॥ ४९१.
मानयेव्युक्तं पुरुषमात्रस्यानयनं कस्मान्न भवति | अस्त्यत्र विशेषः | राजा विशे-
पकः प्रयुज्यते तेन विरिष्टस्यानयनं भवति | इहापि ताह नञ्विशेषकः प्रयुज्यते
तेन नजञ्विशिष्टस्यानयनं भविष्यति | कः पुनरसौ | निवृन्तपदाथेकः || यदा पुनरस्य
पदार्थो निवमते कं स्तराभाविकी निवृत्तराहोसिद्वाचनिकी । किं चातः | यदि
स्वाभाविकी किं नञ्पयुज्यमानः करोति । अथ वाचनिकी तहक्तव्यं नञ्प्रयुज्य- 5
मानः पदार्थं निवतैयतीति | एवं तार्हि स्वाभाविकी निवृत्तिः | ननु चोक्तं किं नञ्प्र-
युज्यमानः करोतीति । नञ्परयुज्यमानः पदाथ निवतेयति | कथम् | कीठप्रति-
कीलवत् | तद्यथा | कील हन्यमानः प्रतिकीलं निहन्ति । यथेतच्चजो मा-
हास्म्ं स्यान्न जातुचिद्राजानो दस्व्यश्वं॑निभूयुर्स्येषे राजानो बरुयुः ॥ एवं तरि
स्वाभाविकी निवृत्तिः | ननु चोक्तं किं नञ्पयुञ्यमानः करोतीति | नञ्निमित्ता 16
तूपलभ्धिः । तद्यथा | समन्धकारे दव्याणां खमवस्थितानां प्रदीपनिमित्तं ददनं न च
तेषां पदीषो निर्वतैको भवति || यदि पुनरयं निवृ ्तपदाथेकः किमर्थ ब्राह्मणश्चम्दः
पयुज्यते | एवं यथा विक्ञायेतास्य पदार्थो निवतेत इति । नेति शुक्ते संदेहः स्या-
स्कस्य पदार्थो निवतैत इति । तत्रासंरेहाय ब्राह्मणशम्दः प्रयुज्यते । एवं वैतत् |
अथवा सर्व एते शब्दौ गुणसमुदायेषु वतैन्ते ब्राह्मणः क्षतियो वेदयः शुद्र हति | 15
तपः भुतं च योनिधेव्येतद्भाद्मगकारकम् | |
तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः ||
तथा मीरः शुच्याचारः पिङ्गलः कपिलकेहा इत्येतानप्यभ्यन्तरान्त्राहमण्ये गुणा -
कुर्वन्ति | समुदायेषु च वृत्ताः शाब्दा अवयवेष्वपि वतेन्ते | तयथा | पूर्वे पञ्चालाः ।
उत्तरे पत्चालाः । वैकं भुक्तम् । धृतं मुक्तम् । शुङ्कः नीलः कपिलः कृष्ण हति | एव- 20
मयं समुदाये ब्राह्मणशब्दः प्रवृ त्तो ऽवयवेष्वपि वतेते जातिहीने गुणदीने च || गुणकषिने
तावत् | अत्राह्मणोऽयं यस्ति्ठन्मूत्रयति । अब्राह्मणोऽयं यो गच्छन्भ्षयति || जाति-
हीनि संदेशदरपदेशाश्च ब्राह्मणशब्दो वतैते । सदे्ा्तावत् | गौरं शुच्याचारं पिङ्गलं
कपिलकेशं दृष्टाभ्यवस्यति ब्राह्मणोऽयमिति | ततः पश्चादुपलभते नायं ब्राह्मणों
अब्राह्मणोऽयमिति । तत्र संदेहा ब्राह्मणशब्दो वतेते जातिकृता चयस्य निवृत्तिः | ४
दुरुपदेशात् । वुरूपदिष्टमस्य मव्रत्यमुभ्मित्तवक।दो ब्राह्मणस्तमानयेति | स तत्र
गत्वा य॑ परयति तमध्यवस्यति तब्राह्मणोऽयमिति | ततः पथादुपलभते नायं ब्राह्म
णो ऽत्राह्मणोऽयमिति । तत्र दुरूपदेशाच ब्राह्मण शम्दो वतेते जातिकृता चार्थस्य
निवृत्तिः | आतश्च संदेहाहुरुपदेशाद्वा न धयं कालं माषराशिवणेमापण भासनं
४९२ # व्वकरयद्रहाभाच्यम्ः॥ ` [मम २.२.९.
बृषटाभ्यवस्यति ब्राह्मणोऽयमिति । निन्ञातं तैर्य .भवति. || इदं खल्वपि भुय उक्ररप-
दाथेभराधान्ये सति संगृहीतं भवति | किम् | अनेकमिति । किमत्र संगृहीतम् ।
रकवचनम् | कथं पुनरेकस्य प्रतिषेधेन बहूनां संम्रस्ययः स्यात् । प्रसज्यायं क्रिवा-
गुणी ततः पथा्निवृक्ति करोति । तद्यथा | भासय शायय भोजयानेकमिति । यद्यपि
४ तावदन्रैतच्छक्यते वक्तु यत्र क्रियागुणौ प्रसज्येते यत्र खलु न प्रसज्येते तत्र कथम्।
शनेकौस्तिष्ठतीतिः | भवति वैवंजातीयकानामप्येकस्य परतिषेभेन . बहूनां संप्रस्ययः ।
तद्यथा | न न एकं प्रियम् | न न एकं लमिति ॥|
इह भब्राद्मणसखम्- अब्राह्मण पर स्कात्त्वतलौ प्राप्रुतः' | तत्र को रोषः |
स्वरे हि दोषः स्यात् | ` अब्राह्मणत्वमिव्येवं स्वरः प्रसज्येत. | अब्राह्मणस्वमिवि
10 वेष्यते || | - .
| नञ्समासे भाववचन उक्तम् ॥ ९॥
कि मुक्तम् । स्वतल्भ्यां नञ्समासः पुवेविप्रतिषिद्धं त्वतलोः स्वरसिद्ययेमितिऽ |
ईषदकृता ॥ २? । ९ | अ ॥
देषवहुणवचनेन ॥ ९ ॥
15 दैषहुणवचनेनेति वक्तव्यम् | अकृतेति घ्युध्यमान इह च प्रसज्येत | हहा
इति । इह च न स्यात् । हेषत्कडार इति ||
पक्ी ॥ २।२।८॥
कृद्योगा च ॥ ९॥।
कृ्ोगा च षी समस्यत इति वक्तध्यम् | इध्ममत्रथनः प्रताशशातनः ||
26 किमर्थमिदमु्यते । प्रतिपदविधाना च षष्ठी न समस्यत इति वह्यति¶ तस्यायं
पुर॑स्तादपकषेः } क। पुनः षश्षी प्रतिपदविधाना का कृ्योगा । सवो षष्ठी प्रतिपदषि-
धाना शेषलक्षणं ** वजेयित्वा । करतृंकमेणोः कृति [२.३.६९ | हति या ष्ठी सां
कृद्योगा |
* ५.६.१९९. † ६,९२.२. { २.१९.१, § ९.९.९९२५ बु २.२.९०१. ५# २.३.५०,
पा० २.२.७-९९१.| ॥ व्वाकरणमहाभाष्यद्र ॥ ४९
तस्स्थेश्च गुणैः ॥ २ ॥
तत्स्थैश्च गुणैः ष्ठीगुशैः ष्ठी समस्यत इति वक्तव्यम् | ब्राह्मणवणेः चन्दनगन्ध
पटहशब्दः नदीषोषः ॥
-न तु तद्दिोषणैः॥ २॥ |
न तु तदिषोषणैरिति षच्तष्यम् | हह मा भूत् । घृतस्य तीवः । चन्दनस्य 5
दुरिति ॥
किमथेमिदमुच्यते | गुणेनेति प्रतिषेधं व्यति” तस्यायं पुरस्ादपकषेः. । किं
कारणे गुणेन नेस्युस्यते न पुनर्गुणवचनेन नेस्युध्यते |. वैवं श्यम् | इह हि न
स्यात् । काकस्य काण्यम् | कण्टकस्य तेेण्यम् । बलाकायाः शौहृघमिति.।
एतदेव तस्मिन्योग उदाहरणम् । यदै ब्राह्मणस्य शुकाः वृषलस्य कृष्णा इत्यसा- 10
मथ्यौदन्र न भविष्यति । कथमसाम्यैम् । सापेक्षमसमर्थं भवतीति । द्रव्यमच्रा-
पेश्यते दन्ताः । तस्माहुणेन नेति वक्तव्यम् | गुणेन नेस्युष्यमाने तस्स्यैथ गुणै-
रिति वक्तव्यम् । तस्स्थैथ गुभैरित्युच्यमाने न तु तिशोषशैरिति वक्तव्वम् ॥
न निधौरणे ॥ २।२।। १० ॥
प्रतिपदविधाना च ॥ ९॥ | 15
प्रतिपदविधाना च षष्ठी न समस्यत इति वष्कष्यम् । इह मा भूत् । सर्पिषो
ज्ञानम् । मधुनो ज्ञानमिति ||
पूरणगुणसुहिताथंसदग्ययतव्यसमानाधिकरणेन ॥। २।२।११. ॥
गुणे किमुदाहरणम् । ब्राह्मणस्य शुङ्गाः । वृषलस्य कृष्णा इति । नैतदस्ति
प्रयोजनम् । भसामर््यादत्र म भविष्यति | कथ्रमसामध्यम् | सापिक्षमसमथै भव- 20
तीति |. ब्रम्यमत्रापेश्यते दन्ताः ||. इदं तर्द । काकस्य काण्यम् | कण्टकस्य
तैर्ण्यम् । बलाकायाः शौहृयमिति || इदं चाप्युदाहरणम् । ब्राहमणस्य शुङ्गाः ।
१ इ.२,.६६. । ¶† २.१. .५९.
४१४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ मि०२,२.९.
वृषलस्व कृष्णा इति । ननु चोन्कतमस्ामथ्योदत्र न भविष्यति कथमसामथ्यै सापे-
क्षमसमर्थं भवतीति दइतयमत्रापेक्ष्यते दन्ता इति । तरैष दोषः । भवति धै कस्यचि-
दथोत्मकरणाहपेश्यं निज्ञोतं तदा वृत्तिः प्रामोति ॥
सति किमुदाहरणम् । ब्राह्मणस्य परक्यन् | ब्राह्मणस्य पक्ष्यमाणः | तैतदस्ति |
£ प्रतिषिध्यते ऽत्र षष्ठी प्रयोगे नेति* । या च भ्रुयत एषा बाद्यमथेमपेश्य भवति |
तथ्ासामभ्योज्न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम् । सापेक्षमसम्थै भवतीति । द्रष्यम-
ापेश्यत ओदनः | इदं तहि | चौरस्य द्विषन् । वृषलस्य द्विषन् । ननु चात्रापि
प्रतिषिध्यते | वदेयत्येतत् | दषः शतुवोवचनमिति! ॥
भष्यये किमुदाहरणम् | ब्राह्मणस्योचैः | वृषरस्य, नीन्रैरिति । चैतदस्ति | भसा-
10 म््यादत्र न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम् | सापेक्षमसमर्थं भवतीति | द्रवष्यमतरापेशष्यत
भाखनम् | हदं ताहि । ब्राह्मणस्य कृत्वा | वंषलस्य कृत्वेति | एतदपि नास्ति ।
प्रतिषिध्यते तत्र ष्यव्ययप्रयोगे नेति* । या च श्रूयत एषा बाद्यमथैमपेक्ष्य भवति|
तत्रासामभ्योन्न भविष्यति | कथमसामथ्येम् | सापेक्षमसमथै भवतीति | इव्य-
मत्रापेश्यते कटः | इदं तर्हि । पुरा खयैस्योदेतोराभेयः । परा वत्सानामपाकर्तोः |
15 ननु चात्रापि प्रतिषिष्यतेऽव्ययमिति कत्वा । वद्यत्येतत् । अव्ययप्रतिषेभे तो -
न्क नोर प्रतिषेध इति ॥
समानाधिकरणे किमुदाहरणम् । राशः पाटशिपुत्रकस्य | शुकस्य माराविदस्य |
पाणिनेः सूत्रकारस्य | तैतदस्ति । असामथ्यौदन्र न भविष्यति | कथमकामर्थ्यम् |
समानाधिकरणमसमथे वद्वतीवि ।| हदं तर्हि | सर्पिषः पीयमानस्य । यजुषः क्रिय-
90 माणस्येति | ननु चाज्राप्यसामथ्यौदेव न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम् | समानाधि-
करणमसमये वद्ूवतीति । अधात्वमिहितमित्येवं तत् ॥
कमौणि च ॥२।२।१४ ॥
कथमिदं विज्नायते | कर्मणि या षष्ठी सान समस्यत इति । आशोस्वित्कर्मभि
यः. क्त हति | कुतः सदेहः | उभयं प्रकृतं तत्रान्यतर च्छक्यं ^ विशेषयितुम् ।
9६ कथाज्न विशेषः | . |
+ द.६, ६९, न¶ २.३. ६९१, ` { २.९. ८.९.
पा० २.२.९४-९.०. | ॥ ध्याकरनमहमष्यय॥ 9९५
कर्मणीति षष्ठीनिरदेदाेदकतरि कृता समासववनम् ॥ ९ ॥
कमेणीति षष्ठीनिर्देशभेदकतैरि कृता समासो वन्कव्यः | हष्मपरत्रधनः पलादच्च-
शातनः' ||
तृजकाभ्यां चानर्थकः प्रतिषेधः ॥ २ ॥
तृजकाभ्यां चान्थेकः प्रतिषेधः | भपां ष्टा! | कमेणीस्येव सिद्धम् ॥ भस्तु ऽ
तर्हि कमेणि यः क्त इति | किमु राहरणम् । ब्राह्मणस्य मुक्तम् | वृषलस्य पीतमिति |
्तनिर्देदो ऽसमर्थस्वादम्रतिषेधः ॥ ३ ॥ |
निरे ऽसमथेत्यादप्रतिषेधः | भनथेकः प्रतिषेधो ऽप्रतिषेधः | समासः क-
स्मान्न भवति । भसाम्यौत् | कथमसामथ्येम् । सपिक्षमसमर्थं भवतीति | इष्य
मन्रापेश्यत ओदनः || 10
मतिषेष्यमिति चेत्कर्र्यपि प्रतिषेधः ॥ ४ ॥
अवं सति प्रतिषेधः कैव्य इति दृरयते क्यपि प्रतिषेधो वक्तव्यः स्यात् |
ब्राह्मणस्य गतः | ब्राह्मणस्य यात हति || |
पूजायां च प्रतिषेधानयेक्यम् ॥ ५ ॥
पृजायां च प्रतिषेधो ऽनर्थ॑कः | राजां पूजितः ‡ । कर्मणीस्येव सिद्धम् || 15
तस्मादुभयमप्रासी कमणि षष्ठचाः प्रतिषेधः ॥ & ॥
तस्मादुभयप्राप्तौ कर्मणि [२.३.६६ | इत्येवं या षष्टी तस्याः प्रतिषेषो वक्तव्यः |
स तर्हिं वक्तव्यः | न वक्तव्यः | इत्यर्थे ऽयं चः परडितः | कर्मणि च । कर्मेणी-
व्येव या षक्षीति ॥
नित्यं कौडाजीविकयोः ॥२।२।१.७॥
किमिह मिस्यपहणिनाभिसंवप्यते विधिराहोस्विखतिषेधः | विषिरित्याह । कुत
एतत् | विपिर्दि विभाषा नित्यः प्रतिषेषः ॥
# द. ३, ९९७; ३.३. ६५. † २. ६, ९६. २, २,९१.
४९६ ॥ व्याकरगमहाभाच्यम्. ॥ [म०२.२.९.
` कुगतिप्रादयः ॥ २।२।१.८ ॥
भादिभसद्गे कमेभवचनीयप्रतिषेधः ॥ ९ ॥
पादिमसङ्गे कर्मप्रवचनीयानां प्रतिषेधो वक्तव्यः । वृक्षं प्रति विशोतते विशत् |
सापुरदेषदन्तो मातर प्रति" ॥
5 व्यवेतमतिषेध्च ॥ २ ॥ |
ध्यवेलानां चं प्रतिषेधो बक्तव्यः । आ मन्द्रैरिन्द्र इरिमि्याहि मयूररोमभिः ॥
सिद्धं तु काङ्स्वतिदुगतिवषनात् ॥ ३ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । काङ्स्वतिदुगेतयः समस्यन्त इति वक्कव्यम् | कु ।
कूुब्राह्मणः कुवुषकलः । भाङ् | कडारः .भापिङ्गलः | इ | उन्राह्मणः इवु-
10 बलः । अति | अतिब्राह्मणः भतिवृषलः | दुर् । दुब्रोदह्यणः । गति | प्रकारकः
प्रणायकः प्रसेचकः ऊरीकृत्य ऊरीकृतम् ॥
प्रादयः क्तर्थे ॥ ४॥
प्रादयः क्तर्थे समस्यन्त इति वक्तव्यम् | प्रगत आत्रार्यः प्राचायैः | प्रान्तेवासी
परपितामहः ॥ |
18 एतदेव च सौनानैर्विस्तरतरकेण पठितम् ॥ स्वतीः पूजायाम् || स्वती पृजाया-
मिति वक्तव्यम् |. राजा अतिराजा || दुर्निम्दायाम् ॥ दुर्िन्दायामिति वक्तव्यम्|
इुष्कूुलम् दुगैवः || आङीषदर्थे || आङीषदथ इति . वक्तव्यम् | भाकडारः
आपिङ्गलः || कुः पापाय | कुः पापार्थं इति वक्तव्यम् | कुतब्राह्मणः कुवृषलः ॥
प्रादयो गताष्यथे प्रथमया ।| प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया समस्यन्त इति वक्तव्यम् ।
20 प्रगत भआवायैः प्राचार्यः । प्रान्तेवासी प्रपितामहः ॥ अत्यादयः क्रान्तां हिती-
यया || अस्यादयः क्रान्ताश्यर्थ हितीयया समस्यन्त इति वक्तव्यम् | अतिक्रान्तः
खटरामतिखदटूः । अतिमालः ॥ अनादयः क्रुष्टाय्थे तृतीयया ॥ ` भवादयः क्रुष्टा-
दर्थे तृतीयया समस्यन्त इति वक्तव्यम् | भवक्रुष्टः कोकिलयावकोकिलो वसन्तः ||
पयोदयो ग्लानाय्थे चतुर्थ्या || पयीदयो ग्लानाथर्थे चतुर्थ्या समस्यन्त इति वक्त
25 ध्यम् । परिग्लानो ऽभ्ययनाय परयेध्ययनः || निरादयः क्रान्ताथर्थे पञ्लम्बा ॥
# ९.४.९०,
पा० २.२.१९८-१९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्वय् ॥ ४९७
निरादयः क्रान्ताश्य्ं पत्चम्या समस्यन्त इति वक्तव्यम् । निष्क्रान्तः कौशास्भ्या
निष्कौशाम्बिः | निवाराणसिः ॥
अव्ययं प्रवृद्धादिभिः || भं्व्ययं प्रवृद्धादिमिः समस्यत इति वक्तव्यम् |
पुनःपरवृदधं बर्हिभेवति | पुनणैवम् पुनः खम् ॥ इवेन विभक्त्यलोपः पूर्वेपदप्रकृ-
तिस्वरत्वं च ¡ वाससी इव | कन्ये हव || उदावता तिङा गतिमता चाव्ययं 5
समस्यत इति वक्तव्यम् । अनुव्य चरत् अनुप्राचिश्त् । यत्परियन्ति' ॥
उपपदमतिङ् ॥ ९ । ९।१९.॥
भतिञ्धिति किमर्थम् । कारको व्रजति | हारको वजति। || अतिङिति हाक्य-
मकम् | कस्मान्न भवति । कारको वरजति | हारकी व्रजतीति | शष्डपेति{ व-
तेते || अत उत्तरं पडति । “10
उपपदमतिकिति तदर्थप्रतिषेधः ॥ ९ ॥ . `
उपपदमतिङिति तदथैस्वायं प्रतिषेधो वक्तव्यः । कस्य | तिङ्थैस्य | कः
पुनस्तिङ्येः | क्रिया ॥
क्रियाप्रतिषेधो वा |> ॥
अथत्रा व्यक्तमेत्रेदं पठितव्यमुपपदमक्रियेति || अथाक्रियेति किं प्रव्युदाहियते | 15
कारको गतः | हारो गतः | नैतक्कियावाचि | कि तरि | द्रव्यवाचि || इदं
तर्द । कारकस्य गतिः । कारकस्य व्रज्या । एतदपि द्रव्यवराचि | कथम् | कृद-
भिहतो भावो द्रत्यवद्धवतीति || एवं तर्हि सिद्धे सति यदतिडिति प्रतिषेधं शास्ति
तज्ज्ञापयत्य चार्यो ऽनयोर्योगयोर्भिवृत्तं ° छष्डपेति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् |
गतिकारकोपपदानां कद्धिः सह समासो भवतीत्येषा परिभाषा न कतेव्या भवति | 20
यद्येतज्ज्ाप्यते केनेदानीं समासो भविष्यति । समर्थन ¶ || यद्येवं धातुपसर्मयोरपि
समासः परामोति पृषै धातुदपसर्गेण युज्यते पशात्साधनेनेति | नैतदस्ति | पूर्वै धातुः
साधनेन युज्यते पथादुपसर्भेण । साधनं हि क्रियां निवेतेयति तामुपसर्गो विरिनष्टि |
अभिनिर्वृत्तस्य चाथेस्योपसर्भेण विहोषः श्यो वक्तुम् ||
#* ८.६. १० † ३.१.९८०. .‡ २.९.२४ ऽ २.२.९८ ९००. बु २,२९.९.
` 53
४९८ ॥ व्यौकरणमहाधाध्यम् 1 | [म० २.२.९१.
षष्ठी समासादुषपदसमासो विप्रतिषेधेन ॥ ३ ॥
ष्ीसमासादुषपदसमासो भवति विप्रतिषेधेन । षीसमासस्यावकाक्ञः । राञ्जः
धुक्षो राजपुरुषः" । उपपदसमासस्यावकाशः । स्तम्बेरमः कर्णेजपः } इदहोमवं
भरपरोति | कुम्भकारः नयरकारः । उपपदसमासो भवति विप्रतिषेधेन ||
$ न वा षष्ठीसमासस्याभावादुपपदसमासः ॥ ४ ॥
न वार्थो विप्रतिषेधेन | किं काश्णम् 1 षष्ठीसमासस्याभावादुपपदसमासो भ-
विष्यति । कथम् | गतिक्रारकोपपदानां द्धिः सह समासवचनं प्राक्छबुतत्त-
रिति वचनात् || भथवा विभाषा षष्ठीसमासो यदा न षष्टीसमासस्तदोपपदसमासो
भविष्यति । भनेनैवं यथा त्यात्तेनं मा भूदिति । कथात्र विशेषस्तेन वा स्यादनेन
10 वा । उपपदसमासो नित्यसमासः षष्ठीसमासः पुनर्विमाषा | ननु च नित्यं यः
समासः स नित्यसमासो यस्य विरहो नास्ति | नेत्याह | निव्याधिकारे। यः स~
मासः स नित्यसमासः | नैवं शक्यम् । अव्ययीभावस्य ्यनिस्यसमासता प्रस-
ज्येत | तस्माचिस्यः समसो नित्यसमासो यस्य विमहो नासि |
अभैवाग्ययेन ॥ २।२।२०॥
एवकारः कमथः | नियमाः । वैतदस्ति प्रयोजनम्, | सिद्धे विधिरारभ्यमा-
णो ऽन्तरेणाप्येवकारं नियमार्थो भविष्यति ।| इष्टतोऽवधारणार्थस्तार्ईि भवष्यति |
यथैवं विज्ञायेत | अभ्ैवाव्ययेनेति । चैवं विज्ञामि | अमाव्ययेनैवेति | अस्ति
चेदानीं कथिदनव्ययमम्डाष्दो यदथौ विधिः स्यात् | अस्तीत्याह | खाय! ब्राह्मण-
कुलमिति | नैतदस्ति प्रयोजनम् | अन्तरङ्गत्वादत्र समासो भविष्यति | इदं ताह
,› मरयोजनममेव यततुल्यविधानमुपपदं तत्रैर यथा स्यादमा. चान्येन च यत्तल्यविधा-
नमुपपदं तत्र मा भूदिति ।-अमे मोजम् । भमे भुक्ता | भमादिष्वप्राप्राविभेः
घमासप्रतिषेधं चौदाधेष्यति म स न वक्तव्यो भवति ॥
दोषो बहुत्रीहिः ।॥ २ ।२। २२. ॥
शेष हस्युष्यते कः शेषो नाम । येषां पदानामनुक्तः समासः स शेषः |
= २.२.८ † २१.६९७. | १,२.९५ ०.९,२५. इ ३.५.२५२५ बृ २.५.२०
पा० २,२.२३०-२३.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् ॥ ४९९,
दोषवचनं पदतश्ेन्नाभावात् ॥ ९ ॥
होषवचनं पदतञ्े्तच्च । किं कारणम् | भभ्वात् । न हि सन्ति तानि पदानि
केषां पदानामनुक्छः समासः || भर्थतस्तर्दिं शेषग्रहणम् । वेष्वर्थष्वनुक्तः समास
स शेषः |
अथ॑तश्चेदविशिषटम् ॥ २॥ 5
अर्थतशेदविशिष्टमेत दवति । कुतः | पदतः | न हि सन्ति ते ऽथौ येष्वनुक्तः
समसः ।| त्रिकतस्तर्दि शेषग्रहणम् । यस्य त्रिकस्यानु्तः समासः स शेषः |
कस्य चानुक्तः | प्रथमायाः ॥
इति ्रीभगवत्पतश्ररिषिरचिते ष्याकरणमहाभाष्ये इितीयस्याध्यायस्य तीये
पादे प्रथममाह्धिकम् ॥ 10
8२१ ॥ व्पाकरणमहाभाष्यम् ॥ . (ममर...
अनेकमन्यपदाधं ॥ २।२।२४॥
` पदम्रहणं किमभरम् ।. अनेकम्रन्याथं इतीयत्यु ष्व माने वाक्यार्थेअपि बहत्रीदि
स्यात् । यथा मे माता तथा मे पिता छश्ञातं मो हति । प्दम्रहणे पुनः (क्रियमाणे
~ न दोषो भवति ॥| भथान्यग्रहणं किमयम् । भनेके पदाथे इतीयत्युच्यमाने स्वप-
5 दार्थेष्पि बहव्रीहिः स्यात् | राजपुरुषः त्षपुरूष इति । नैतदस्ति प्रयोजनम् |
तस्पृरुषः स्वपदार्थे वाधको भविष्यति । भवेदेकसंञाधिकारे सिदध परंकार्येत्वे तुन
सिध्यति | भारम्भसामथ्योख तस्पुरुषः परंकायेत्वा् बहव्रीहिः प्रामोति || परंका-
यैवे .च न दोषः । रोष" इति वतेते ऽशेषस्वान्न. भविष्यति ।
दोषवथन उक्तम् ॥ ९ ॥
0 किमुक्तम् | तत्र शोषवचनाहोषः संख्यासमानाधिकरणनञ्समासेषु बह त्रीहि प्रति-
बेष इति! ।| अथैकसंशाधिकारे नार्थोऽन्यमहणेन | एकसंज्ञाधिकारे च कतेष्यम् |
अक्रियमाणे छन्यग्रहणे यथैष तस्पुदषः स्वपदार्थे बहू व्रीहिं षाधत एवमन्यपदार्थेऽपि
वाधेत ||
अथानेकय्रहणं किमर्थम् | अन्यपदार्थ हती यत्युश्यमान एकस्यापि पदस्व बहू-
15 व्रीहिः स्यात् | सर्पिषोऽपि स्यात् । मधुनोऽपि स्यात् । गोमूत्रस्यापि स्यात्‡ । तैतदस्ति
प्रयोजनम् । दष्डपेति$ वतेते || हदं वार्ह प्रयोजनं बहनामपि समासो यथा स्यात्|
सुसृशेमजटके शेन सुनताजिनवाससा ॥
उत्तरार्थं चानेकमहणं कतेष्यम् | चार्थं न्ड: [२,२.२९ | अनेकमिति । इहापि
` यथा स्यात् । ्रक्षन्यभोधखदिरपला शया इति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | भावा-
20 यैमवृसिज्खोपयति बहूनामपि समासो भवतीति यदयमुत्तरपदे हिगुं शास्ति¶ |
तस्पुरषोऽपि -तर्दि बहुनां प्रारोति | भहणेन तस्पुरुष उच्यते तेन बहुनां न भविष्यति ॥
अत उत्तरं पठति ।
अनेकवथनमुपसर्जंनार्थम् ॥ > ॥
अनेकब्रहणं क्रियत उपस ननाथेम् । प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसजेनम् [ १.२.
28 ४३] इत्यनेकस्य सुप उपसजनसं्ञा यथा स्यात् । चिक्रगुः शवलगुरिति** ||
१२.२३. २६० ¶† ९.४.९५. { ६.४.९६. ऽ २.९.२४. ¶ २,९.५९. **९.२. ४८.
प° २.२.२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यय ॥ 9२९
न वैकविभक्तित्वात् ॥ ३ ॥
न वैवदपि प्रयोजनमस्ति । किं कारणम् | एकविभक्तिस्वात् | एकविभक्ति
ापु्ैनिपाते [४४ | हस्युपसओनसंज्ञा भविष्यति | चित्रगुः शबलगुरिति । चित्रा यस्य
गावथिज्रगुस्तिष्ठति | चित्रा यस्य गावशित्रगुं परय | चित्रा यस्य॒ गावशित्रगुणा
कृतम् । चित्रा यस्य गावश्चित्रगवे देहि । चित्रा यस्य गावधिक्रगोरानय | चित्रा यस्य ५.
गायधित्रगोः स्वम् | चित्रा यस्य गावधथिजरगौ निपेहि। चित्रा यस्य गावो हे
चिज्रमो इति || यदि तहि यतः कुतधिदेव किंचित्पदमभ्याहत्वैकविभकया योगः
क्रियत एतदप्येकविभक्ति युक्तं भवतीहापि प्राभरोति | राजकुमारी तक्षकुमारी | राशो
या कुमारी राजकुमारी तिष्ठति | राक्षो या कुमारी राजकुमारीं परय ।
राज्ञो या कुमारी राजकुमायां कृतम् । राज्ञो वा कुमारी राजकुमार्थै देहि 16
राज्ञो या कुमारी राजकुमा्यां भानय | राज्ञो या कुमारी राजकुमायोः स्वम् |
राज्ञो या कुमारी राजकुमायौ निहि | राज्ञो या कुमारी हे राजकुमारि इति ||
एकविभक्तियुक्तमेव य्ित्यं न वैतन्नित्यमेकविभक्तियुक्तमेव । राश्षः कुमारीं पदय
राजकुमारीं परयेस्यपि भवति । किं वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं
ग॑स्यते | एकबमहणसामभ्योत् | यदि हि यदेकविभक्तियुक्तं चानेकविभक्तियु क्तं च 15
तत्र स्यादेकम्रहणमन्थकं स्यात् । विभक्तियुक्तं चापुवेनिपात इत्येव ब्रूयात् ।| -
पदाथाभिधाने भुप्रयोगानुपपात्तिरभिहितत्वात् ॥ ४ ॥
पदार्थस्याभिधाने लनुप्रयोगस्यानुपप्तिः । चिश्रगु्देवद् इति । किं कारणम् ।
अभिहितत्वात् । चित्रगुराष्देनाभिहितः सोऽयं इति कृत्वानुप्रयोगो न प्रामोति ॥
न वानभिहितस्वात् ॥ «९ ॥। ४0
न वैष रोषः | किं कारणम् । अनभिहितस्वात् । चित्रगुश्भ्देनानभिहितः सो
ऽथ इति कत्वानुप्रवोगो भविष्यति || कथ मनभिहितो यावतेदानीमेषोक्तं पदा्थाीभि-
धाने नुप्रयोगानुपपत्तिरभिहित्वादिति |
सामान्याभिधाने हि विरोषानभिधानम् ॥ & ॥
सामान्ये शयभिधीयमाने धिदोषो ऽनभिहितो भवति । तत्रावरयं विशोषाथिना ४
जिरेषोभ्नुपरयोक्तष्यः । चित्रगुः | कः । देवद हति ॥ भवेस्सिद्धं॑वदा सा-
मान्ये वृतर्यदा तु खलु विशेषे वृललिस्तदा न सिध्यति । चित्रा गावो देव-
४२१ 1 -ब्यकरणमहदटाभाष्यय्॥ [म० २,२.९२.
दत्तस्य चित्रगुर्देबदत्त इति | तदापि सिद्धम् | कथम् | नेदमुभयं युगपद्धवति
वाक्यं च समास । यदा वाक्यं न तदा समसः | यदा समासो न तदा वाक्यम् ।
यदा समासस्तदा सामान्ये वृत्तिः । तज्रावदयं विशेषार्थिना विशेषोशुप्रयोक्तव्यः |
विच्रगुः | कः | देवदत इति || सामोन्यस्थैव तच्नुप्रयोगो न प्रामोति । चिश्रगु तत् ।
$ चित्रगु किंचित् । चित्रगु सवेमिति । सामान्यमपि यथा विदोषस्तहत् | चित्रगवि-
युक्ते संदेहः स्यात्सवै वाविश्वं॑वेति । तश्रावद्यं स्देहनिवृस्यथै विदोषार्थिना
वि शोषोऽनुप्रयोक्तष्यः || ` `
थवा विभक्तयर्थोऽभिधीयते | एतचान्न युक्तै यदिभक््यर्थो अभिषीयते तत्र हि
सवैपात्पदं यतेते ऽस्येति |
१० विभक्तयथाभिधाने इद्ष्यस्य लिङ्ग संख्योपवारानुपपत्तिः || ७ ॥
विभक्त्ययोमिधनि र्यस्य लिङ्गसंख्याभ्यामुपचारोश्नुपपत्नः | बहयवम् बह-
यवा बहूयवः बहूयवौ बहुयवा इति ||
` भपर भाह | विमक्तयथोभिधाने द्रव्यस्य लिङ्गसंख्योपचारानुपपत्तिः । धिभ-
त्यथोभिधाने ब्रष्यस्य ये लिङ्गसैख्ये ताभ्यां विभक्तय्थैस्योपचारोऽनुपपत्नः | बंहुय
15 वम् बहुयवा बहुयवः बहुयवौ बहुयवा इति | कथं ह्यन्यस्य लिङ्गसंख्याभ्यामन्य-
स्योपचारः स्यात् ॥ ` `
सिद्धं तु यथा गुणवचनेषु || ८ ॥
सिडमेतत् ¡ कथम् | यथा गुणवचनेषु | गुणवचनेषुक्तं गुणवचनानां शब्डा-
नामाभ्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्तीति | तद्यथा । शङ्क वलम् शुक्का शाटी शङ्क
20 कम्बलः श्यौ कम्बलौ शुङ्काः कम्बला इति | यदसौ द्रष्यं भितो भवति गुण-
स्तस्य यलिङ्गं वचनं च तहुणस्यापि भवति | एवमिहापि यदसौ द्रष्यं ननितो भ-
वति विभक्तवर्थस्तस्य यलिङ्गं वचनै च तत्समासस्यापि भविष्यति ||
यदि . र्हि विभक्त्यर्थो अभिधीयते कृत्लः पदाथः कथमभिहितो भवति सद्रव्यः
सलिङ्गः ससं स्यथ । भयेन्रहणसामभ्यीत् | हहानेकमन्यपद् इतीयता सिद्धम् । कथं
26 पुनः परदे नाम वृत्तिः स्यात् | शब्दो देष शाब्दे ऽघंभवादर्थे कायै विश्वास्यते |
सोऽयमेवं सिदे सति यदेथप्रहणं करोति तस्थैतत्मयोअनं कृतः पदार्थो वधाभि-
पीयेत सद्रभ्यः सलिङ्गः ससंख्यथेति ।| यदि तर्हिं कृस्शः पदार्थो अभिषीयते
कैङ्गाः साख्या विधयो नं क्ेभ्यन्ति |
षार २.२.२४. ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम् ॥ ४२६
उक्तं वा ।९॥
किमुक्तम् । ठेद्गेषु तावदुक्तं सिद्धं तु नियाः प्रातिपदिकविशेषणस्वासस्वार्थे
टाबादय इति“ । सांख्येष्वप्युक्तै कर्मादीनामनुक्ता एकत्वादय इति कृत्वा सांख्या
भविष्यन्ति† || प्रथमा तर्द न प्राति | समयाद्धाविष्यति‡ । यदि सामयिकी न
नियोगतो न्याः कस्माच्च भवन्ति | कमोदीनामभावात् ॥ षष्ठी तर्हि प्राभोति ऽ
होषलक्षणाऽ दष्ठद्यदोषत्वाच्च भविष्यति || एवमपि व्यतिकरः प्रामोति । एक-
स्मित्तपि हिवचनबहुवचने प्राप्तो इयोरप्येकव चन बहुव चने बहुष्वप्येकव चनादिवचने |
अथेतो ध्यवस्था भविष्यति || भथवा संख्या नामेयं परप्रधाना | संख्येयमनया
विशेष्यम् । यदि चात्र प्रथमा न स्यात्स॑ख्येयमविदोषितं स्यात् || अथवा वद्य-
स्येतत्तत्र वचनम्रहणस्य प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा यथा स्यादिति¶ || 10
एवमपि षष्ठी प्रामोति । किं कारणम् । ध्यभिचरत्येव ह्ययं समासो लिङ्गसंस्ये
ष्ठयथे पुनम भ्यमिचरति | अभिहितः सोऽर्यौऽन्तभतः प्राक्तिपरिकार्थः संपश्चस्तत्र
प्रातिपदिकार्थ प्रथमेति** प्रथमा भविष्यति || न तर्हीदानीमिदं भवति चित्रगेर्दे-
वद तस्येति | भवति वाद्यम मपेकष्य षष्ठी ॥
परिगणनं कतेष्यम् | । 15
बहुव्रीहिः समानाधिकरणानाम् ॥ ९० ॥
समानाधिकरणानां बहूत्रीहिवैक्तभ्यः | कं प्रयोजनम् | व्यधिकरणानां मा
भूदिति । पञ्चभिभुक्तमस्येति |
अव्ययानां च || ९९॥।
अव्ययानां बहुत्रीरिवेक्तव्यः | उचचर्मुखः नीवैमुखः ॥ 20
ससम्युपमानपृरव॑पदस्योत्तरपदलोपश्च ॥ ९२ ॥।
सप्रमीपुतेस्योपमानपृवैस्य च बहुत्रीहिव्व्य उत्तरपदस्य च लोपो षक्तव्यः |
कण्ठेस्थः कालोऽस्य कण्ठेकालः | उषटूमृखभिव मृखमस्योष्टमुखः | खरमुखः ||
समुदायविकारषदयाश्च | ९३ ||
समुदायषष्या विकारषष्षथा्च बहुत्रीहि तष्य उन्तरपदस्य च रोपो बक्तव्यः | २४
क ४.९, ३५, ॥॥ २.३.९४, ६ ३,६.२*. § २.१.९०. ष् २.३.४६१. **२.२,४६.
४२७४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [म०२.२.२.
केशानां समाषारश्रुडा भस्य केशचूडः | इवर्णस्य विकारोऽंकारोऽस्य इवणी-
ठकारः || |
प्रादिभ्यो धातुजस्य वा | ९४॥
प्रादिभ्यो धातुजस्य बहुब्रीहिवैक्तव्य उत्तरपदस्य चवा ठीषो वक्तष्यः |
$ प्रपतितपर्णः प्रपणः | प्रपतितपलाशः प्रपलाशः ||
नञो ऽस्त्यथीनाम् ॥ १५ ॥
नओऽस्त्यथौनां बहुत्रीहिर्वक्तव्य उत्तरपदस्य च वा लोपो वक्तव्यः | अविद्-
मानपुरः अपुत्रः | अविद्यमानभार्यः अभायैः ॥
तसर्दीदं बहु वक्तव्यम् |
10 न वानभिधानादसमानाधिकरणषु संज्ञाभावः ।। १६ ॥
न षा वक्कव्यम् । असमानाधिकरणानां बहुव्रीहिः कस्माश्च भवति । पश्चभि-
्ु्कमस्येति । अनभिधानात् || तचयात्रदयमनमिधाननाअयितव्यम् | क्रियमाणे
ऽपि शै परिगणने यत्राभिधानं नास्ति न भवति तत्र बहुत्रीहिः | तद्यथा | पन्च मु-
' क्तवन्तोऽस्येति ॥
15 अथैतस्मिन्सस्यनभिधाने यदि वृत्तिपरिगणनं क्रियते वर्विपरिगणनमपि कर्त-
व्यम् । तस्कथं कतैव्यम् |
अ्थनियमे भत्वथंग्रहणम् ॥ ९५७ ॥
अ्थनियने मत्वथंग्रहणं कर्व्यम् | मस्वर्थे यः स बहुव्रीहिरिति वक्तत्यम्।
शह मा भूत् । कष्टं भ्नितमनेनेति ॥
20 तथा चोत्तरस्य वचनार्थः ।॥ ९८ ॥
एवं च कृस्थोश्तरस्य योगस्य वचनार्थ उपपधो भवति | केचि्ावदादुर्यदृतति-
सत्र इति । संख्ययाध्ययातच्नादूराधिकसंख्याः संख्येये [२.२.२९] इति । अपर
आह यद्वा्तिक इति ॥
कर्मवखनेनाप्रथमायाः।। ९९॥
कर्मवचनेनाप्रयमाया बहुतरीहिर्वक्तव्यः । ढो रथो ेनोढरथो ऽनङ्खान् ।
उपहतः पद्यु हद्रायोपहतपद्य रश्व्रः | उद्धूत अदनः स्थाल्या उद्ृषीरना
पा० २.२.२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यय् ॥ ४२५
स्थाली ।| यदि कभेवचनेनेत्युच्यते कतृव चनेन कथम् || प्रापनमुदकं मामं प्राप्रोदको
मामः । आगता अतिथयो माममागतातिथिमरामः |
कतंवचनेनापि ॥ २०॥
कतव यनेना पीति वक्तव्यम् || प्रथमाया इति किमर्थम् । वृष्टे देवे गतः. ||
भथाप्रथमाया इत्युच्यमान हह कस्मान्न भवति | वृष्टे देवे गतं परयेति । बहि- ¢
र द्धगजप्रिथमा ॥
सुबधिकारे स्तिस्लीरादिवचनम् ॥ २९ ॥
डबधिकारे ऽस्तिक्षीरादीनामुपसंख्यानं कतैव्यम् । अतिक्षीरा ब्राह्मणी || तत्तर्हि
वक्तव्यम् |
न वलव्ययववात् | २५॥ 10
न वा वक्तव्यम् | किं कारणम् । भव्ययस्वात् | अव्ययमेषोऽस्तिशब्दो तैषास्ते -
ट् । कथमव्ययस्वम् | उपसगेविभक्तेस्वरप्रतिरूपकाथ निपातसंज्ञा भवन्तीति नि-
पातसं्ञा निपातोऽव्ययमित्यव्ययसंज्ञा* ||
भथ किंसब्रह्मचारीति कोऽयं समासः | बहुत्रीहिरित्याह | कोऽस्य विरहः |
के सब्रह्मचारिणोऽस्येति | यथेव कठ इति प्रति वचनं नोपपद्यते | न ह्न्यस्यटेनान्य- 15
दाख्येयम् || एवं तर्धवं निग्रहः करिष्यते केषां सब्रह्मचारी किंसब्रह्मचारीति -।
प्रतिव चनं चैवं हि नोपपश्यते स्वरे च दोषो भवति | रिंसब्रह्मचारीस्येवं स्वरः
प्रसज्येत। किसब्रह्मचारीति चेष्यते‡ ॥| एवं तर्धेवं विग्रहः करिष्यते कः सब्रह्म
चारी किंसनब्रह्मचारीति | भवेसखतिवचनमुपपत्तं स्वरे तु देषो भवति ॥ एवं त्वं |
विन्रहः करिष्यते कः सब्रह्मचारी तव किंसब्रह्मचारी त्वमिति ॥ भथवा पुनर- 20
स्त्वयमेव विहः के सब्रह्मचारिणोऽस्येति | ननु चोक्तं कठ इति प्रतिवचनं नोप `
पद्यत इति ।. नैष दोषः । अपौकरवाणिन्यायेन भविष्यति । ` तद्यथा | कथित्कं-
चिदाह । अन्नौ करवाणीति | कुर्विति कतेयेनुज्ञति कमोप्यनुज्ञातं भवति | भपर :
काह | अतौ करिष्यत इति । क्रियतामिति कर्मण्यनुज्ञाते क्ताप्यनुज्ञातो भवति |
यथैव खल्वपि के सब्रह्मचारिणोऽस्येति कठा इत्युक्ते संबन्धादेतदम्यते नूनं सोऽपि 25
कट इत्येवं कठ हइद्युक्ते सं बन्धादेतद्रन्तव्यं स्याच्नुनं तेऽपि कठा इति || न खल्वपि
ते शक्याः समासेन प्रतिनिर्देष्टुम् । उपसजेनं हि ते भवन्ति ||.
# ९.४.५७९ ग०; ९.९.३५. † ६.५.२२३ { ६.२.१६.
54 श
४२६ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ` [ म०२.२.२.
अथार्त॒तीया इति कोऽयं समासः । बहुव्रीहिरित्याह । कोऽस्य विग्रहः ।
अथे तृतीयमेषामिति । कः समासाथेः । समासाथा नोपपद्यते ऽम्यपदार्थो हि नाम
स॒ भवति | येषां पदानां समासस्ततो ऽन्यस्य पदस्यार्थोऽन्यपदायथेः || एवं त्वं
विब्रहः करिष्यते ऽथे तृतीयमनयोरिति । एवमपि कः षटयथः । षट्य्थ नोपप-
5 यते | किं हि तयोर भै भवति ॥ अस्तु तद्ययमेव विग्रहो ऽपे तृतीयमेषामिति ।
ननु चोक्तं समासार्था नोपपद्यत इति । नैष दोषः । भवयवेन विग्रहः समुदायः
समासाः | यश्यवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः
कअसिद्िती योऽनुससार पाण्डवम्
संकषेणदितीयस्य बलं कृष्णस्य त्र्ताभिति
10 हयो्िवचनमिति" द्विवचनं प्रामोति ।। भस्तु तर््यमेव विमरहोऽपै तृतीयमनयो-
रिति । ननु चोक्तं षश्यर्थाो नोपपद्यत इति | त्ैष दोषः | इदं तावदयं प्र्टव्यः | अथे
दे वदसस्य भ्रातेति कः षष्ट्यथं इति । तत्रैतस्स्यादेकस्मासरादुभीव हति । एतच वातम्
तद्यथा | सार्थिकानामेकप्रतिश्रय उषितानां प्रातरूत्थाय प्रतिष्ठमानानां न कित्परस्परं
संबन्पो भवति । एवंजातीयकं भ्रातृत्वं नाम । अश्र चेदयक्तः षक्षयर्थो दृदयत
15 इहापि युक्त ददयताम् ॥ इह॒ तद्यधेतृतीया भानीयन्ताभिस्यक्तेऽपेस्यानयनं न.
भामति | स्तु तद्यैयमेव विभरहोऽपै तृतीयभेषामिति । ननु चोक्तमसिरितीयोन्-
ससार पाण्डवम् संकषेणदितीयस्य बलं कृष्णस्य व्पतामिति इयोर्िवचनमिति दि-
वचनं प्रामोतीति । तैष दोषः | भयं तीयान्तः शब्दोऽस्त्येव पुरणमस्ति सहायवाची |
त्यः सहायव्राची तस्येदं ब्रहणम् | भसिद्वितीयः भसिसषशटाय इति गम्यते ॥ एवम-
९0 प्यध॑त॒तीया इत्येकस्मिन्नेकव चनं प्रामोति । एकाथ हि समुदाया भवन्ति | तद्यथा ।
दातम् यूथम् वनमिति || अस्तु त्ययमेव विपहोऽधै तृतीयमनयोरिति । ननु चोक्तम-
धैतृतीया आनीयन्तामिव्युक्ते ऽधैस्यानयनं न प्रातीति | तरैष दोषः । भवति वहुत्रीही
तद्ुणसंविज्ञानमपि । तद्यथा | शङ्कवाससमानय लोहितोष्णीषा ऋषिजः प्रचरन्तीति
तद्कुण आनीयते तद्वुणा्च प्रचरन्ति ॥ अथवा पुनरस्त्वयमेव वि्रहोऽे तृतीयभेषा-
25 मिति | ननु चोक्तभेकवचनं प्रामोतीति | नैष दोषः । संख्या नामेयं प्रमधाना |
संख्येयमनया विशेष्यम् । यदि चात्रैकवचनं स्यात्संख्येयमविरशेषितं स्यात् ॥
इह तद्यर्तृतीय। द्रोणा इत्ययं द्रोणदाब्दः समुदाये प्रवृत्तो ऽवयवे नोपप्यते । नैष
दोषः | समुदायेष्वपि शाब्दाः प्रवृत्ता अवयवेष्वपि वर्तन्ते | तद्यथा | पूर्व पत्चालाः |
५९.४.२२.
पा० २.२.२५९. | ॥ व्याकरणमहामाष्यम् ॥ ७२७
उत्तरे पञ्चालाः । तैं भुक्तम् । शुः नीलः कृष्ण इति । एवमयं समुदाये
्रोणराष्दः प्रवृतो ऽवयवेष्वपि वतेते | कामं तद्यनेनैव हेतुना यदा हौ द्रोणावधी-
हकं च करतैव्यमधेतृतीया द्रोणा इति । न कतेव्यम् । समुदायेष्वपि हि दाब्दाः
परवृत्ता अवयवेष्वपि वतैन्ते । केष्ववयवेषु | योऽवयवस्तं समुदायं न व्यभिचरति |
कं च समुदायं न व्यभिचरति । भधद्रोणो द्रोणम् । भधोढकं पुनव्यभिचरति || ॐ
संख्ययाव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये ॥ २।२।२५॥
दित्राः त्रिचतुरा इति कोऽयं समासः | बहुत्रीहिरित्याह । कोऽस्य विमहः | बौ
वा चयो वेति | भवेद्यदा बहुनामानयनं तदा बहुवचनमुपपन्नं यदा तु खलु हावानी-
येते तदा न ध्यति | तदापि सिद्धम् ¡ कथम् | केचित्तावदाहुः । अनिन्ञतेर्थे
बहुवचनं प्रयोक्तव्यमिति | तद्यथा । कति भवतः पुत्राः | कति भवतो भाया इति | 10
अपर आह | दौ वेस्युक्ते अयो वेति गम्यते | त्रयो वेस्युक्ते दौ वेति गम्यते | सैषा
पतचाधिष्ठाना वाक्तत्र युक्तं बहुवचनम् ||
अथ दिदशाः त्रिदशा इति कोऽयं समासः | बहुव्रीहिरित्याह | कोऽस्य विमदः |
विदेश दिदरा इति ।
संख्यासमासे सुजन्तस्वास्संख्याप्रसिदिः ।। ९ ॥ 15
संख्यासमासे सुजन्तत्वारसंख्येत्यप्रतिदिः" | न हि उजन्ता संख्यास्ति ॥ एवं
तथैवं विरहः करिष्यते हौ दशातौ द्विदशा इति | एवमप्यत्कारान्तस्वास्संख्यये-
त्यप्रसिदिः† । न ्यत्कारान्ता संख्यासि || अस्तु तर्येव विग्रहो ्िर्दंशच द्िद-
छा इति | ननु चोक्तं संख्यासमासे इजन्तत्वात्सं ख्येव्यप्रसिदधिरिति |
न वासुजन्तत्वात् ॥ > ॥ 20
न वैष दोषः | किं कारणम् । भसुजन्तत्वात् । सुजन्तेद्युच्यते न चात्र
जन्तं परयामः || किं पुनः कारण वाक्ये खञ्दूरयते समासे तु च दृदयते।
सुजभावो ऽभिहिता्थत्वात्समासे ॥ ३ ॥
समासे इवो भावः । किं कारणम् । भभिहितार्थत्वात् } अभिहितः सुजर्थः
# ५.४. ९८. ¶ ९.१. ६०,
४२८ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्।। [मण २.२.२,
समासेनेति कृत्वा समासे सुज्ज भविष्यति । किं च भोः जथ इति समास
उच्यते | न खलु सुजथे ह्युच्यते गम्यते तु सुजथेः | कथम् । यावता संख्येयो
यः संख्यया संख्यायते स च क्रियाभ्यावृ्यथः । स चोक्तः समासेनेति कृत्वा
समासे सुज्न भविष्यति ||
& अरिष्यः संख्योत्तरपदः संस्येयवाभिधायित्वात् ॥ * ॥
अशिष्यः संख्योत्तरपदो बहृव्रीहिः । किं कारणम् | संख्येयवाभिधायित्वात् ।
संख्येयं वार्थधामिधीयते तश्रान्यपदार्थ* इत्येव सिद्धम् ॥ भवेत्सिद्धमधिकविदाः
अधिकरत्रिंदा इति यत्रैतहिचाथेते विंशत्यादयो दश्ादर्थे वा स्युः परिमाणिनि वेति।
इदं तु न सिध्यति भधिकदहा इति यत्र नियोगतः संख्या संख्येय एव वतेते ॥
10 अथोपदशा इति कोऽयं समासः । ` बहूव्रीरिरिव्याह | कोऽस्य विमरहः | दशानां
समीप उपदशा इति । कस्य पुनः सामीप्यम्थैः । उपस्य । यद्येव नान्यपदार्थो
भवति | तत्र प्रथमानिर्दिष्टं संख्याप्रहणं शक्यमकर्तुम् ॥
मत्वर्थे वा पृवंस्य विधानात् ॥ ^ ॥
अथवा मत्वर्थे पूरो योगो ऽमत्वर्थो ऽवमारम्भः ॥
15 कबभावार्थं वा | ६ ॥
अथवा कम्मा भूरिति ॥
दिङ्ामान्यन्तराठे ॥ २।२।२६ ॥
तेन सहेति तुल्ययोगे ॥ २।२।२८॥
दिक्समाससहयोगयोश्चान्तरालप्रधानाभिधानात् ॥ ९ ॥।
20 दिक्समाससहयोगयो धादिष्यो बह व्रीहिः | किं कारणम् । अन्तरालग्रधानाभि-
धानात् । दिक्समासे सहयोगे चान्तरालं प्रधानं चाभिधीयते तज्रान्यपदाथै* इत्येव
सिद्धम् ॥ यद्येवं दक्षिणपवो दिक् समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्भावो न प्रामोति ।
अद्य पुनरियं सैव दक्षिणा तैव पूर्वेति कृत्वा समानाधिकरणलक्षणः पुंषद्धावः
# २.२.२४. † २.२.२४४, { ५९,४.१९५४. ऽ ६.२.१४.
पा०२.२.२६-२८.| ॥ व्याकर्णमहाभिाष्यम् ॥ ४२९
सिडधो भवति || न सिध्यति | भाषितपुंस्कस्य पुंवद्भावो न चैतौ भाषितपुंस्कौ |
ननु च भो दक्षिणशभ्दः पुवेदाब्दथ पुंसि भाष्येते | समानायामाकृतौ यद्धाषित-
पस्कमाङृत्यन्तरे चैतौ भाषितपुंस्कौ । दक्षिणा पूर्ति दिक्डाब्दौ दक्षिणः पूर्वं इति
व्यवस्थादाब्दौ | यदि पूार्दिक्शाष्दा अपि व्यवस्थादाष्दाः स्युः | कथं यानि
दिगपदिष्टानि कायाणि | यदा दिशो व्यवस्थां वक्ष्यन्ति | यदि तर्हियों यो दिशि 5
वतेते स स दिक्शब्दो रमणीयादिष्वरतिप्रसङ्खो भवति | रमणीया दिक् शोभना दिः
गिति || अथ मतमेतदिशि दष्टो दिग्दष्टः दिण्द्रष्टः शाब्दो दिक्डाब्दः दिश॑योन
व्यभिचरतीति रमणीयादिष्वतिपरसद्गो न भवति पुंवद्कावस्तु न प्रापोति || एवं तर्द
स्वेनान्नो वृत्तिमात्रे पुंबद्धावो षक्तव्यो दक्षिणोत्तरपुवोणामित्येवमथेम् । एव च
कृत्वास्तु दिक्समास सहयोगयोश्ान्तराठप्रधानाभिधानादिव्येव | ननु चोक्तं दक्षिण - 10
पुवौ दिक् समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्भावो न प्रामोतीति | तेष दोषः | स्वैनाप्ो
वृत्तिमात्रे पुंवद्भावेन परिहतम् ॥
मत्वर्थे वा पूर्वस्य विधानात् ॥ २ ॥
अथवा मत्वर्थे पूर्वो योगो" ऽमत्वर्थो ऽयमारम्भः |
कबभावा्थे वा || ३ ॥ 1:
अथवा कम्मा भूदिति! |
तत्र तेनेदमिति सरूपे ॥ २ ।२। २.७॥
तृतीयाससम्यन्तेषु च क्रियाभिधानात् ॥ ९ ॥
तृतीयासपरम्यन्तेषु चाशिष्यो बहृव्रीहिः | किं कारणम् । क्रियाभिधानात् ॥
क्रियाभिधीयते तत्रान्यपदाथं; ह्येव सिद्धम् ॥ ४
न वैकदोषप्रतिषेधार्थम् ॥ २॥
न वाश्िष्वः | किं कारणम् । एकदोषपरतिषेधाथेमिदं वक्तव्यम् ||
पू्ंदीषीयै च ॥ २॥
पुवैदीर्षाथे चेदं वक्तव्यम् । केशाकेशि ॥ स्यादेतस्रयोजनं यदि नियोगतो
+२.२.२३४४. ¶ ५.४.९५४, { २,२.२४.
४३० ॥ ध्याकरणमहाभाष्यम् ॥ [मण २.२.२.
ऽस्यानेनैव दीर्ष॑वं स्यात् | अथेदानीमन्येषामपि दृरयते [६.३.१३७] इति दीर्षत्वं
न प्रयोजनं भवति ॥
मत्वर्थे वा पुरस्य विधानात् ॥ ४॥
अथवा त्वरय पूर्वो योगो" ऽमत्वर्थो ऽयमारम्भः |
४ कवबभावाथे वा ॥ ५॥
अथवा कम्मा भूदिति। ॥
चां दन्दः ॥ २।२।२९ ॥
चार्थं इत्युच्यते चथाव्ययं ‡ तेन समासस्याव्ययसंज्ञा प्राभोति | नैष दोषः ।
पठेनाव्यंयसंकज्ञा क्रियते न च समासस्तत्र पद्यते || पाठेनाप्यव्ययसंज्ञायां सत्या-
10 ममिधेयवद्िङ्क वचनानि भवन्ति यशेहार्थोऽभिपीयंते न तस्य लिङ्गसंख्याभ्यां यो-
गोऽस्ति | नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंस्यता वा | किं तहिं | स्वाभाविकमेतत् |
तद्यथा | समानमीहमानानां चाधीयानानां च केचिदर्थेयज्यन्ते ऽपरे न । न चेदानीं
कथिदर्थवानिति कृत्वा सर्वैरथेवद्धिः शक्यं भवितुं कथिद्वानर्थक इति सर्वैरनर्थकैः |
तत्र किमस्माभिः हाक्यं क्तुम् । यत्पाक्समासाचार्थस्य लिङ्गसंख्याभ्यां योगो
15 नास्ति समासे च भवति स्वाभाविकमेतत् || भअथवाभ्रयतो लिङ्गवचनानि भविष्यन्ति |
गुणवचनानां हि शब्दानाभाशभ्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | तद्यथा | शङ्कं वलम् शुङ्ञा
राटी शुकः कम्बलः शङ्खौ कम्बलौ शुकाः कम्बला इति | यदसौ ब्रष्यं न्नितो
भवति गुणस्तस्य यलिङ्गं वचनं च तद्कुणस्यापि भवति । एवमिषशपि यदसौ द्रव्यं
रितो भवति समासस्तस्य यद्िद्धः वचनं च तत्समाषघस्यापि भविष्यति ||
% अथेह कस्माच भवति । याज्तिकथायं वैयाकरणथ । कटठथायं बहूचथ ।
ओौक्थिकथायं मीमांसकथेति । रोष ऽ इति वतेते ऽदरोषत्वान्न भविष्यति¶ृ | यदि
शोष इति वतैते
उपाज्ञातं स्थुरसिक्तं तूष्णीगद्धं महाहदम् ।
दरोणं चेदश्यको गन्तुंमा त्वा तारां कृताकृते ॥
25 इत्येतच्च सिध्यति ** । त्रैष दोषः | अन्यडधि कृतमन्यदकृतम् ॥
# २.२.२४५. † ५.४० ९५४. { ९,४.५७; ९,१.२७. ९ २,२.२९. ¶ २,६.५७. *#* २.९.६०.
पा० २.२.२९. ॥ व्याकरणमहभष्यम् ॥ ४३१९
चार्थे इन्द्रवचने समासेऽपि चार्थसंमत्ययादनिष्टपरसङ्गः ।। ९ ॥
चार्थे इन्दव चने ऽखमासेऽपि चाथसंप्रत्ययादनिष्टं प्रामोति ।
कहरहनेयमानो गामश्वं पुरुषं पुम् ।
वैवस्वतो न तृप्यति छराया इव दुमेदी ॥
इन्द्रस्त्वष्टा वरणो वायुरादित्य इति || &
सिद्धं तु युगपदधिकरणवचने इन्दव चनात् ।। २ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । युगपदधिकरणवचने इन्डो भव्रतीति वक्तव्यम् ॥
तत्र पुंवदावप्रतिषेधः ।। ३॥
तश्रैतसिम्क्षणे पुंवद्धावस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । पदरीमृब्यौ | समानाधिकरण-
लक्षणः पुंवद्भावः प्रामोति* || 10
विप्रतिषिद्धेषु चानुपपत्तिः ॥ ४ |
विप्रतिषिदधेषु युगपदधिकरणव चनताया अनुपपत्तिः | हीतोष्णे इखदुःखे जन-
नमरणे । कं कारणम् । छखप्रतिधातेन हि दुःखं दुः खप्रतिषातेन च छलम् ॥
यत्तावदुच्यते तत्र पुंवद्धावप्रतिषेध इति । हदे तावदयं प्रष्टव्यः | अथेह कस्माच्च
भवति | ददौनीयाया माता दद्ेनीयामातेति | अथं मतमेतसाक्समासाद्यत्र सामा- 15
नापिकरण्यं तत्र पुंवद्भावो भवतीतीहापि न दोषो भवति || यदप्युच्यते विप्रति-
षिद्धेषु चानुपपत्तिरिति । सवे एव हि दाब्दा विप्रतिषिद्धाः । इहापि शक्षन्य-
भरोधाविति क्षशब्दः प्रयुज्यमानः शक्षाथै संप्रत्याययति न्यमोधाथै निवर्तयति
न्यो पशचब्दः प्रयुज्यमानो न्यमोधाथे संप्रत्याययति शक्षाथे निवतेयति | अत्र चे-
द्युक्ता युगपदधिकरणवचनता बृदरयत इहापि युक्ता कृरयताम् ॥ 20
एवमपि शाष्दपीर्वापर्यप्रयोगादर्थपीवौपयोभिधानम् । शाब्दपौवौ पयपरयोगादर्थवी -
वौ पयोभिधानं प्रामोति । अतः किम् | युगपदधिकरणवचनताया अनुपपक्तिः |
अक्षन्यमोपौ अक्षन्यमोधा इति । यथैव हि शब्दानां पैर्वापयै तददथौनामपि भवि-
तव्यम् ।
शब्दधोवौपयैभयोगादरथषीर्वापर्याभिधानमिति चेद्धिवचनबहुवच-
नानुपपत्तिः ॥ «९ ॥
शष्दपौवौपरयप्रयोगादथषीवो पयोभिधानमिति चेद्धिवचनबहूवचनयोरनुपपत्तिः |
> ६.३.२४.
७३१ ॥ व्याकरनम्रहाभाष्यम् ॥ ` [म०२.२.२.
घक्षन्यमोौ शक्षन्यमोधा इति । अक्षराब्दः सार्थको निवृम्तो न्यमोधशाम्द उपस्थित
एकार्थस्तस्थैकार्थत्वादेक वचनमेव प्रामोति ॥
विग्रहे च युगपद्रचनं ज्ञापकं युगपदचनस्य || ६ ॥
विग्रहे खल्वपि युगपद्वचनता ददथते | श्यावा ह क्षामा | दावा चिदस्तै प्रथिवी
नमेते इति | किमेतत् | युगपदधिकरणवचनताया उपोद्रलकम् | विष्रहे किल
नाम युगपदधिकरणवचनता स्या्कि पुनः खमासे ||
समुदायास्सिद्धम् । समुदायास्सिद्धमेतत् । किमेतत्समुदायास्सिद्धमिति | दिवच-
नबहूवचनर्रसिद्धिरिति चोदितं तस्यायं परिहारः |
समुदायास्सिद्धमिति चेत्नेकायैत्वात्समुदायस्य ॥ ७ ॥
10 समुदायास्सि द्धमिति चेत्तत | किं कारणम् । एकाथेत्वात्समुदायस्य । एकायो हि
समुदाया भवन्ति । तद्यथा । दातम् यूथम् वनमिति ॥| तरैकार्थ्यम् | नायमेकार्थः |
किं तर्हि ] व्यर्थो बहर्थध | प्षोऽपि द्यर्थो न्यभरोधोऽपि व्यर्थः | यदि तर्द शस्षो
ऽपि द्यर्थो न्यभोपोऽपि व्यर्थस्तयोरनेकाथैत्वाद्रहव चनप्रसङ्गः । तयोरनेकार्थत्वाद्रहुषु
बहवचनम् [९.४.२९] इति बहवचनं प्रामोति। `
1; तथारनेकार्थत्वाद्रहुवचन प्रसङ्ग इति चेन्न बहुत्वाभावात् ॥ ८ ॥
तयोरनेकार्थस्थाद्रहूष चनप्रसङ्गः इति चेत्तत्र । कं कारणम् । बहुत्वाभावात् ।
नात्र बहुत्वमतस्ति | किमुच्यते बहुट्वाभावादिति यावतेदानीमेवोक्तं अक्षोऽपि व्यर्थो
न्यम्ोधोऽपि व्यथं इति | याभ्यामेवत्रैको व्यथेस्ताभ्यामेवापरोऽपि || यथेवमन्य-
वाचकेनान्यस्य वचनानुपपत्तिः । भन्यवाचकेन श्ब्देनान्यस्य वचनं नोपपश्चते |
20 अन्यवाचकेनन्यस्य वचनानुपपन्तिरिति चेष्पस्षस्य न्यग्रोधलान्यग्रोधस्य
प्रक्षत्वत्स्विराब्देनाभिधानम् । ९ ॥।
अन्यवाचकेनान्यस्य वचनानुपपच्चिरिति चेदेवमुच्यते तन्न | कि कारणम् |
क्षस्य न्यमोधत्वा[न्यमोधस्य शरह्षत्वास्स्वशाब्दे नाभिधानं भविष्यति । रक्षो अपि
न्यमोधो न्यमरोषधो ऽपि षक्षः ॥ कथं पनः अक्षोऽपि न्यमोधो न्योऽपि शकष
25 स्याद्यावता कारणाहृष्ये शब्दनिवेशः |
कारणा्व्ये शाब्दनिवेरा इति चचुल्यकारणत्वास्सिद्धम् ॥ ९० ॥
कारणाहष्ये शब्दनिषेहा इति चेदेवमुच्यते तच्न । तुल्यकारणत्वास्सिद्धम् । तुल्यं
१।० २.२.२९. ॥ व्याकरणपमहाभाष्यम् ॥ ४३३
हि कारणम् | यदि तावतपक्षरतीति क्षः स्याञ्यमोधेऽप्येतद्गवति । तथा यदि
न्यमोहतीति न्यमोधः भक्षे ऽप्येतद्भवति ॥ ददनं धै देतुनं च न्यमरोधे शक्षश्दो
कृदयते |
दशनं हेतुरिति चेनुल्यम् ॥ ९९. ॥
ददनं हेतुरिति चेत्तुल्यमेतद्वति । क्षेऽपि न्यग्रोधशब्दो इदवतां तुल्यं हि 5
कारणम् || न वै लोक एष संभत्ययो भवति | न हि अक्ष आनीयतामिर्युक्ते
न्य॒म्रोध भानीयते |
तद्विषयं च ॥ ९० ॥
त्िषयं चैतदर्ट्यं क्षस्य न्यमोधत्वम् । किंविषयम् | इन्द्रविषयम् | युक्तं
पुनयेच्चियतविषया नाम शाब्दाः स्युः | वाढं युक्तम् | 10
अन्यत्रापि तदविषयदरनात् ॥ ९३ ॥
अन्यत्रापि हि नियतविषयाः शब्दा ददयन्ते | तद्यथा | समाने रक्ते वर्णे गौ-
सहित इति भवत्यश्वः शोण इति । समाने च काले वर्णे गौः कृष्ण इति भवत्यश्च
हेम इति । समाने च शङ्क वणे गौः श्वेत इति भवत्यश्वः कर्क इति || यदि तरि
्क्षोऽपि न्यमोधो न्यमोपोऽपि क्ष एकेनोक्तस्वादपरस्य प्रयोगो स्नुपपन्नः । एके- 15
नो क्तस्वालस्याथेस्यापरस्य प्रयोगो नोपपद्यते । क्षेण न्यम्रोधस्य न्यग्रोधप्रयोगः ।
एकेनोक्त व्वादपरस्य भरयोगोऽनुपपन्न इति चेदनृक्तत्वात्युक्षेण न्यग्रोधस्य
न्यग्रोधभयोगः ॥ ९४ ॥
एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगोश्नुपप्च हति चेत्तत | किं कारणम् ] भनुक्तस्वा-
लजक्षेण न्यग्रोधस्य न्यमोधप्रयोगः | भन्तः क्षेण न्यम्रोधाथं इति कृत्वा न्यमोध- 90
छम्दः प्रयुज्यते | कथमनुक्तो यावतेदानीमेवोन्तं अरक्षोऽपि न्यमोधो म्यमोषोऽपि शकष
इति । सहमभूतावेतावन्योऽन्यस्याथमाहतुने प्रथग्भूतौ । किं पुनः कारणं सहभूतावे-
तावन्योऽन्यस्या्थमाहतुने पनः एथग्भूती |
अभिधानं पुनः स्वाभाविकम् ॥ ९५॥
स्वामाविकमभिधानम् || भथवेह कौचिलाथमकल्पिकौ शक्षन्यमोषो वौचिक्ि- 2
यया वा गुणेन वा रक्ष इवा अह्नो न्यमोध इवायं न्यमोध इति । तत्र॒ अक्षावि-
99 #
४३४ ॥ ध्याकरणमरहाभाष्यम् ॥ मि०र.२.२
युक्ते संदेहः स्याक्किमिमौ शक्षावेवाहोस्विल्छक्षन्यभो धाविति । तत्रासैदेहाथ न्य-
मोधराम्दः प्रयुज्यते ॥ |
इयं युगपदधिकरणवचनता नाम दुःखा च दुरुपपादा च | यचाप्यस्या निब-
न्धनमुक्तं धावा ह क्षामेति तदपि च्छान्दसं तत्र इषां पो भवन्तीव्येव सिद्धम् ।
£ सुत्रं च भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं चर्थे इन््वचने ऽसमासेऽपि
चार्थसंप्रत्ययादनिष्टप्रसङ्ग इति । तरैष दोषः | इह चे हन्द इतीयता तिद्धम् । कथं
पुने नाम वृत्तिः स्यात् । शब्दो ह्येष शग्रे ऽसंभवादर्थे काये विज्ञास्यते | सोऽय-
मेवं सिद्धे सति यदथे्हणं करोति वस्थैतसखयोजनमेवं यथा विज्ञायेत चेन कृतो
अयथा इति | कः पुनेन कृतोऽथैः | समुच्चयो =न्वाचय इतरेतरयोगः समा-
10 हार इति | समुश्यः । क्षधेस्युक्ते गम्यत एतङ्यम्रोधशेति । अन्वाचयः | अक्ष-
थस्युक्ते गम्यत एतर्सापेक्षोऽयं प्रयुज्यत इति | इतरेतरयोगः । क्ष न्यो धशचत्युक्ते
गम्यत एत््क्षो ऽपि न्यमोधसहायो न्यमोधो ऽपि अरक्षसहाय इति । समाहारेऽपि
क्रियते शक्षन्यमो पमिति । तत्रायमप्यर्थो इन्डैकवद्धावो न पठितव्यो भवति | स-
माहारस्यैकसत्वरिव सिडम् ॥
15 एकादश हादरेति कोऽयं समासः | एकादीनां दशासिभिरन्द्ः | एकादीनां
ददादिभिदन्छः समासः |
एकादीनां द शादिभिदेन्द इति चेर्िरास्यादिषु वचनप्रसङ्गः ॥ ९६ ॥
एकादीनां दशादिमिदेन्ड इति चेिंशत्यादिषु वचनं प्राभोति | रकर्वितिः
दारविदातिः || ।
20 सिद्धं स्वधिकान्ता संख्या संख्यया समानापिकरणापिकारे अधिकः
रोपश्च || ९५७ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् | समानाधिकरणाधिकारे* वक्तव्यमधिकान्ता संख्या सं-
ख्यया सह समस्यते ऽधिक शाब्दस्य च कोपो भवतीति | एकाधिका विंशतिरेक-
विद्रातिः | व्यपिको विंश्तिद्ो्विंशतिः || यदि समानाधिकरणः स्वरो न सिध्यति
25 यद्धि तत्संख्या पृवेपठं प्रकृतिस्वरं भवतीति! इन्द ह्येवं तत् । किं पुनः कारणं इन्द
इत्येवं तत् । इह मा भूत् । रातसहस्रमिति ॥| अस्तु तर्हि दइन्हः | ननु चोक्तमे-
+ २. ६. ४९, † ६. २. ३५.
पा० २.२.३०-३४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ४३५
कादीनां दशादिभिर्ईन्ह इति चेदिशाव्यादिषु -वचनप्रसङ्धः इति । नैष दोषः । सर्वो
इन्दो विभाषैकवङ्वति | यदा तर्क चनं तदा नपुंसकणिङ्ख प्रामोति । लिङ्गम
शिष्यं लोकाश्रयत्वा्िङ्गस्य |
उपसजेनं पूवम् ॥ २।२।२.०॥
किमर्थमिदमुच्यते | ` + 5
उपसर्जनस्य पूवैवचनं परमयोगनिवृच्यर्थम् ॥ ९ ॥ `
उपसर्जनस्य पुवैवचनं क्रियते परम्रयोगो मा भूदिति ||
नं वानिष्टादरौनात् ॥ ९ ॥
न त्रैतस्मथोजनमस्ि | कि कारणम् | अनिष्टाददोनात् | न हि किंचिदनिष्टं
करयते | न हि कथिद्राजपुरूष इति भरयोक्तव्ये पुरषराज हति प्रयुङ्के । यदि चा- 10
निष्टं दृरयेत ततो यलाह स्यात् |
` अथ यत्र द्वे षष्ठ्यन्ते भवतः कस्मात्तत् प्रधानस्य पुत्रनिपातो न भवति | राज्ञः
पुरुषस्य राजपुरुषस्येति' |
घष्टचन्तयोः समासे ऽ्याभिदास्पमधानस्यापूवेनिपातः ॥ ३ ॥
षष्ठ्यन्तयोः समासे ऽथामेदाखधानस्य पूवेनिपातो न भविष्यति | एवं न वेदम- ];
कृतं भवत्युपसैनं पूरवमित्यथे्ामिन्च इति कृत्वा प्रधानस्य पूवैनिपातो न भविप्यति ||
अव्पाच्तरम् ॥ ९।२९।२४॥
किमयं तन्लं तरनिरदेश अ!होस्विदतन्तम् । किं चातः | यदि तन्त्रं इयोर्भियमो
बह्ष्वनियमः | तत्र को देषः | शङःदुन्दुभिवीणानामिति न सिध्यति । दुन्दुमिराब्द-
स्यापि पूर्वनिपातः प्रामोति । अथातन्ल . ५0
मृदङुश ङतुणवाः पृथङ्ःदन्ति . संसदि
१
# २,३२.८.
४३६ ॥ व्वाकरणगरहामाष्यम् ॥ | ०२.२२.
भरासादे धनपतिरामके शवानामित्येतच सिध्यति | यथेच्छति तथास्तु || अस्तु वाव -
लन्तम् | ननु चोक्तं इयोर्मियमो वहुष्वनियम इति तत्र शाडदुन्दुभिवीणानामिति
न सिध्यति दन्दुभिराब्दस्यापि पूर्वनिपातः प्राभोतीति । नैष दोषः | यदेतदल्पाच्तर-
` भिति तदल्पाजिति वह्यामि || अथवा पुनरस्त्वतन्त्रम्। ननु चोक्तं मृदङ्ग शङ्तुणवाः
¢ पृथङ्दन्ति संसदि प्रासादे धनपतिरामकेशवानाभित्येतचच सिध्यतीति ।
अतन्नै तर्नर्दो शङ्कतूणवयोमेदङ्गेन समासः ॥ ९ ॥
भतन्त्रे तरनिर्दशे शाङ्तृणवयोमदङ्गेन समासः करिष्यते । शङ तुणवथ शा-
ङतुणवौ । मृदङ्ग शाड्धतुणवौ च मृदङ्ग शङुतणवाः । राम केशव रामके-
९००.
शावौ | धनपतिथ रामकेशवौ च धनपतिरामकेदावास्तेषां पनपतिरामके शवाना-
10 मिति ॥
अथ यत्र बहुनां पूवैनिपातप्रसङ्गः किं तत्रैकस्य नियमो भवत्याहोस्विदविदोषेण ।
अनेकपरापरावेकस्य नियमो अनियमः शेषेषु ॥ २ ॥
अनेकप्राप्रविकस्य नियमो भवति शेषेष्वनियमः | पटुमदुदयुक्ाः प्टुद्यक्नमृदव
इति* ॥
15 अतुनक्षत्राणामानुपूर्व्येण समानाक्षराणाम् ॥ ३ ॥
कऋतुनक्षत्राणामानुप्व्यैण समानाक्षणां पूवंनिपातो वक्तव्यः । शिशिरवसन्ता-
वुदगयनस्थौ । कृसिकारोहिण्यः ॥
अग्यर्हितम् ॥ ४॥
अभ्यर्दितं पूर्वै निपततीति वक्तव्यम् | मातापितरौ श्रद्धामेपे ॥
20 लष्वक्षरम् ॥ ९ ॥
रष्वक्षरं पूरये निपततीति वक्तव्यम् । कुशकादाम् शरशीयम् ॥।
भपर आह | सवेत एवाभयर्हितं पूर निपततीति वक्तव्यम् | लष्व्षरादपीति ।
अडधातपकी । दीक्षातपसी ||
वर्णानामानुपूर््येण ॥ & ॥
% वणानां चानुपर््येण पवैनिपातो भवतीति वन्कव्यम् | ब्राह्मणक्त्रियविदचयद्राः |
# २.२.३६.
पा० २.२.६५-३९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ | ४३७
भ्रातुश्च ज्यायसः ॥ ७ ॥
भ्रातु ज्यायसः पूर्वनिपातो भवतीति वक्तव्यम् । युपिठिराजैनौ ॥
संख्याया अल्पीयसः || £ ॥
संख्याया अत्पीयसः पवेनिपातो वक्तव्यः | एकादश दादश ॥
धमोदिषूभयम् ॥ ९ ॥ &
धमौदिषूभयं पुै निपततीति वक्तव्यम् । धमोर्यौ अर्थधर्मौ | कामार्थौ भर्थ-
कामी | गुणवृद्धी वृद्धिगुणौ । आन्तौ अन्तादी ॥
सप्रमीविशोषणे बहुत्रीही ॥ २ । २ । ३५ ॥
बहुव्रीहौ सवैनामसंख्ययोरुपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
बहुव्रीही सवैनामसंख्ययोरुपसंख्यानं कर्तव्यम् | विश्वदेवः विश्वयराः | दिपुलः 10
दिभायैः ॥ भथ यत्र संख्यासरवैनाप्नोरेव बहुत्रीहिः कस्य तत्र पूर्वनिपातेन भवित-
ध्यम् | परत्वात्संख्यायाः | व्यन्याय भ्यन्याय ॥
वा प्रियस्य ॥ २॥
वा परियस्य पूरवैनिपातो वक्तव्यः | प्रियगुडः गुडप्रियः ||
ससम्याः पूवेनिपाते गडादिभ्यः पररवखनम् ॥ ३ ॥ 15
सपम्याः पुरवनिपाते गङड्धादिभ्यः परा सप्तमी भवतीति वक्तव्यम् | गङुकण्ठः
गडुदिराः ॥
निघा ॥ २।२।२६॥
निष्ठायाः पूर्वनिपाते जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम् ॥ \ ॥
निष्ठायाः पूवेनिपराते जातिकालद्चखादिभ्यः परा निष्टा भवतीति वच्छव्यम् । शा- 20
गं जग्धी पलाण्डुमलिती । मासजाता संवत्सरजाता । इखजाता दुःखजाता ||
४३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ | [म ०२.२.२.
न वोत्तरपदस्यान्तोदात्तवचनं ज्ञापकं परभावस्य ॥ २ ॥
न वा वक्तव्यम् । किं कारणम् | उत्तर पदस्यान्तोदात्तवचनं ज्ञापकं प्रभावस्य |
यदयं जातिकालद्धखादिभ्यः परस्या निष्ठाया उन्तरपदस्यान्तोदा्तस्वं शास्ति * तञक्ञा-
पयत्याचार्यः परात्र निष्ठा भवतीति ॥
$ प्रतिषेधे तु पूरवंनिपातप्रसङ्गस्तस्माद्राजदन्तादिषु पाठः ॥ ३॥
भरतिषेषे तु पुयैनिपातः भ्रामोति | अकृतमितप्रतिपन्ना इति । तस्मा द्राजदन्तादिषु†
पाठः कंतेव्यः | न कर्तव्यः | अत्रापि प्रतिषेषवचनं ज्ञापकं परा निष्ठा भवतीति||
| प्रहरणार्थभ्यश्च ॥ ४ || |
परहरणार्थभ्यथच परे निष्ठासप्रस्यौ भवत इति वक्तव्यम् । अस्युद्यतः मुसलो-
10 शतः | असिपाणिः दण्डपाणिः ॥
दन्द घ्यजाद्यदन्तं विप्रतिषेधेन ॥ ९ ॥
इन्द्रे चि [२.२.३२] इत्यस्मादजाश्यदन्तम् [३३] इत्येतद्धवति विप्रतिषेधेन |
इन्दे वीस्यस्यावकाशः | पटुगुत्रौ । भजाग्यदन्तमित्यस्यावकाशः। उष्टखरौ | इहो-
भयं प्रामोति । हन्द्राम्री | भजाद्यदन्तमिव्येतद् वति विप्रतिषेपेन |
15 उभागभ्यामल्पाच्तरम् ॥ & ।॥। |
उभाभ्यामल्पाश्तरम् [३४] इत्येत द वति विप्रतिषेधेन || हन्द षीत्यस्यावकाशाः |
पटुगुपौ । भल्पाख्तरमित्यस्यावका हाः । वाग्दुषरौ । इहोभयं प्रामोति | वागत्री |
भल्पाच्तरमिर्येतद्धवति विप्रतिषेपेन ॥ अजाश्यदन्तमित्यस्यावकाशाः | उष्टखरौ |
अल्पाच्तरमित्यस्यावकाशः | स एव । इहोभयं प्रामोति | वाभिन्द्रौ | भल्पाच्तरमि-
20 स्मेतद्भषति विप्रतिषेषेन ॥
| कडाराः कर्मधारये ॥ २ । २।२८॥।
कड़ारादय हति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । गडुल शाण्डिल्यः शाण्डि -
ल्यगङुलः | खण्डवास्स्यः वात्स्यखण्डः ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् |
बहुवचननिर्ेशात्कडारादय इति विशस्यते ||
25 इति ओभगवस्पवश्जिविरचिते ध्याकरणमहाभाष्ये द्विती यस्याध्यायस्य द्वितीये
पादे दितीयमाह्किकम् | पादथ समाप्तः ॥
# ९.२.९००. = ` † २.२. ३१.
। क
अनभिहिते ॥ २।२।१॥
अनभिहित इत्युच्यते किमिदमनभिहितं नाम | उक्तं निर्दिष्टममिहितभित्यन्था-
न्तरम् | यायद्भूयादनुक्ते अनिर्दिष्ट इति तावदनभिदित इति ||
अनभिहितवचनमनर्थंकमन्यत्रापि विहितस्याभावादभिहिते ॥ ९ ॥
अनमिहितव चनमनर्थकम् | किं कारणम् | अन्यत्रापि विहितस्याभाव्रादभिहिते | ऽ
अन्यन्राप्यभिरिते विहितं न भवति || क्रान्यन्र | चित्रगुः दाबलगुः । बहुव्रीहिणो -
क्तत्वान्मस्वथेस्य मल्र्थीयो न भवति. || गगः वत्साः । विदः उघौः* | यञ-
उ्भ्यामुक्तस्वादपत्या्थस्य न्याय्योत्पत्तिन भवति || सप्रपणेः अष्टापदमिति | समा -
सेनोक्तत्वादीत्साया द्विवैचनं‡ न भवति || यत्तावदुच्यते चित्रगुः शबलगुः बहुत्री-
हिणोक्तत्वान्मत्व्थस्य मत्वर्थीयो न भवतीति | अस्तिना सामानाधिकरण्ये मतुभ्वि- 10
धीयते$ न चात्रास्तिना सामानाधिकरण्यम् || यदप्युच्चते गगौः वत्सा विदाः उवौः
यमञ्म्यामुक्तत्वादपत्याथस्य न्यास्योत्पत्तिने भवतीति | समथोनां प्रथमा [४.९.
८२] इति वतैते न शैतस्समर्थानां प्रथमम् | कि तर्द | दितीयमर्थमुपतेक्रान्तम् ॥ -
यदप्युच्यते सप्रपणैः भष्टापदमिति समासेनो्षत्यादीम्ाया शिवैचनं न भवतीति |
यदश्र वीप्सायुक्तं नादः प्रयुज्यते | किं पुनस्तत् || पर्वणि पर्वाणि सपन पर्णान्यस्य | 15
पौ प्ङाबष्टौ पदानीति || भरम्बहृजकल्षु तर्हि | शनम् | भिनत्ति छनति |
भमो्तत्वात्कतैत्वस्य कतरि शन्न भवति4 । बह च् | बहृकृतम् बहुभित्तमिति ।
बहुचोक्तव्वादीषदसमापेः कल्पबादयो न भवन्ति" | भकच् । उश्यकैः नीचक-
रिति | अकचोक्तत्वाल्ुत्सादीनां कादयो न भवन्ति।1† ॥ ननु च शम्बहुजकचो
ऽपव्रादास्ते ऽपवादत्वाहाधका भविष्यन्ति | 20
अम्बहुजकभु नानदिरास्वादुस्सगाप्रतिषेधः || ० ॥'
` समानदेदीरपवारैरत्सर्गाणां वाधनं भवति नानादेरात्वाश्च प्रामोति ॥ कि पुन-
+ ४,१६.९०५; ९००४.१.४.६४. †१,९.८३;९९. { ८.९.४. §५.२०५४.
् ३.६.०८६८, ** ५.१.६८; ६७. †† ५.१.७६५७५.
४४० ॥ व्याकरनय्रशामाच्यम् ॥ | [म० २.२.९.
रिहाकतेभ्यो ऽनभिहिताधिकारः क्रियत भाहोस्विदन्मत्र कर्वव्यो न क्रियते ।
हहाकतेव्यः क्रियते | एष एव हि न्याय्यः परमो यदभिहिते विहितं न स्यात् ॥
अनभिहितस्तु विभक््य्थस्तस्मादनभिहितवचनम् ॥ ३ ॥ .
अनभिहितस्तु विभक्तयर्थः | कः पुनर्विमत्तयर्थः | एकत्वादयो विभक्तयथास्ते-
£ ्वनमिितेषु कमीदयोऽभिहिता विभक्तीनामुलखत्तौ निमित्तत्वाय मा भूवन्निति
तस्मादनभिदहितव चनम् । तस्मादनमिदितापिकारः प्रियते ||
अवद्यं वैतदेवं विज्ञेयमेकस्वादयो विमक्त्यथौ इति |
अभिहिते प्रथमाभावः ॥ ४ |
यो हि मन्यते कमोदयो विभक्तय्ास्तेष्वमिहितेषु सामथ्यौन्मे विभक्तीनामु-
10 स्पत्तिने भविष्यतीति प्रथमा तस्य न प्राभोति | क | वृक्षः अक्षः | कि कार-
णम् । प्रातिपदिकेनोक्ः प्रातिषरदिकाथे इति ||
` न कचित्मातिपदिकेनानुक्तः प्रातिपरिका्थं उष्यते च प्रथमा सा वचनाद्भविष्यति |
तवैव तु खल्वेष दोषो यस्य त एकत्वादयो विमक्तयर्था भमित प्रथमाभाव इति |
परथमाते न प्राति | क | पचस्योदनं देवदत्त इति | किं कारणम् | तिङोक्ता
15 एकस्वादय इति | अनमिहिताभिकारं च स्वं करोषि परिगणनं च ॥
न कचित्तिङकत्वादीनामनमिधानमुच्यते च प्रथमा सा वचनाद्भविष्यति | ननु
चेहानभिधानं वृक्तिः ऽक्षि इति | भत्राप्यभिधानमस्ति | कथम् । वश्यस्येतत् | अस्ति-
भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽयुज्यमानोऽप्यस्तीति। | वृक्षः ल्लः | अस्तीति गम्यते ||
तवैव तु खल्तरेष दोषो यस्य ते क्मीदयो विभक्त्या अभिहिते प्रथमाभाव इति ।
20 प्रथमा ते प्रामोति । क । कटं करोति भीष्ममुदारं शोमन॑ं ददीनीयमिति | कर-
रब्दादुत्पश्यमानया दितीययाभिहितं कर्मेति कृत्वा मीष्मादिभ्यो दितीया न प्राभोति |
का तर्हि प्राभोति | प्रथमा | तद्यथा | कृतः कटो भीष्म उदारः शोभनो दर्लनीय
इति करोतिरुत्पद्यमानेन क्तेनाभिहितं कमेत कृत्वा भीष्मारिभ्यो द्वितीया न भवति |
का तर्हि | प्रथमा भवति ||
2 नैष दोषः | न॒हि ममानभिहिताधिकारोऽस्ति नापि परिगणनम् । साम-
ध्यान्मे विभक्तीनामुत्पत्तिभविष्यस्यस्ति च सामर्भ्यम् । किम् | कमीविशेषो व-
क्तव्यः ॥ अथवा कटो परि कमे भीष्मादयो ऽपि तत्र कर्मणीत्येव तिद्धम् ॥
# ३.६.४६, † २.१.९४.
पा० २.३.९.] ॥ व्याकरणर्महापाष्यय् ॥ ७४९
अथवा कट एव कमं तरसामानापिकरण्यादधीष्मादिभ्यो दितीया भव्रिष्यति ॥ अस्ति
खल्वपि विशेषः कटं करोति भीष्ममुदारं शोभनं दशौनीयमिति च कृतः कटो भीष्म
उदारः शोभनो दरौनीय इति च । करोतेरुतद्यमानः क्तो ऽनवयतेन सवै कमो -
भिधत्ते कटशब्दास्पुनरुत्पद्चमानया द्वितीयया यस्कटस्थं कमे तच्छक्यमभिधातुंनहि
फमैविदोषः || तवैव तु खल्तेष दोषो यंस्य त एकत्वादयो विभक््यथो अभिहिते 5
प्रथमाभाव इति | प्रथमाते न प्रामोति । करं | एकः हौ बहव हति | किं कार-
णम् | प्रातिपदिकेनोक्ता एकत्वादय इति ॥
कमीदिष्वपि वै विभक्तवर्थष्ववदयमेकत्वादयो निमित्वेनोपादेयाः | कमेण
एकस्वे कर्मणो दिखे कर्म॑णो बहूत्व इति | न ॒तैकंत्वादीनामेकस्वरादयः सन्ति |
अथ सन्ति म॑मापि सन्ति | तेष्वनमिहितेषु प्रथ॑मा भ॑विष्यति | अथवोभयवचेना 10
दयते | द्रव्यं चाहुगणं च | यत्स्थोऽतौ गुणस्तस्यानुक्ता एकत्वादय हति कृत्वा
प्रथमा भविष्यति || अथवा संख्या नामेयं परप्रधाना । संख्येयमनया विश्चोष्यम् | यदि
चात्र प्रथमा न स्वात्संख्येयमविदोषितं स्यात् || भथवा व्यति तत्रं वचनम्रहणस्य
प्रयोजनमुक्तेऽ्वंप्येकत्वादिषु प्रथमा यथा स्यादिति || भथवा समयाद्विष्यति। ।
थदि सामयिकी न नियोगतोऽन्याः कस्मान्न भवन्ति | कमीदीनामभावात् | षष्टी 15
तर परामोति | दोषलक्षणा? षक्यशेषस््ान्न भविष्यति || एवमपि व्यतिक्षरः प्रामरोति |
पएकस्मिच्चपि हिव चनबहुवचने प्रापुतः | इयोरप्येकव चनबहुव चने प्रामुतः | बहुष्त्र-
प्येकवचनद्विवं चने प्रापुवः | अतो व्यवस्था भविष्यति ॥
परिगणनं कतैष्यम् |
तिङ्कत्द्धितसमातेः परिसंख्यानम् ॥ ९ ॥ | 20
तिङ्कत्तद्धितसमातिः परिसंख्यानं कतेभ्यम् | तिङ् । क्रियते कटः । कृन् |
कृतः कटः | तद्धित | ओपगवः कापटवः | समास । चित्रगुः हाबलगुः ||
उत्सर हि प्रातिपदिक सामानाधिकरण्ये विभक्तिवचनम् ॥ & ॥
उत्सर्गे हि प्रातिपदिकसामानाधिकरण्ये विभक्तिवेक्तव्या | कर | कटं करोति
ीप्ममुदारं शोभनं दद्रौनीयमिति | कट शष्दादुसद्यमानया द्वितीययाभिहितं कर्मेति 2
कृता भीष्मादिभ्यों द्वितीया न प्राति ।| का तर्हि स्यात् । षष्टी । शेषलक्षणा षषटय-
भिनी |
# २.३. ४६१. † ३.९.२५. { २.३.५०.
66 श्र
+
~
हि ।
.४४२ ॥ श्याकरणपम्रहाभार प ॥ [मण २.२.९.
शेषत्कान्च भविष्यति ॥ अन्या अपि न प्राप्ुवन्ति | किं कारणम् | कमौदीनाम-
भावात् || समयथ कृतो न केवला प्रकृतिः भ्रयोक्तम्या न केवलः प्रत्यय इति न
चान्या उत्पद्यमाना एतमभिसंबन्धमुत्सहन्ते वक्तमिति कृत्वा हितीया भविष्यति ॥
अथवा कटोऽपि कर्म भीष्मादयोऽपि तत्र कमेणीत्येव सिद्धम् | भथवा कट एव कमे
& तत्सामानाभिकरण्याद्धीष्मादिभ्यो द्वितीया भविष्यति || तस्मान्नाथः परिगणनेन ॥
दयोः क्रिययोः कारके ऽन्यतेरेणाभिहिते विभक््यभावप्रसङ्गः ॥ ७ ॥
हयोः क्रिययोः कारके ऽन्यतरेणामिहिते विभक्तिनं प्रापेति | क | प्रासाद
आस्ते | शयन आस्त हति | किं कारणम् | सदिप्रत्ययेनाभिदितमधिकरणमितिः
कृत्वा सप्रमी1† न प्राभोति |
10 न वान्यतरेणानभिधानात् | ८ ॥
न वैष दोषः । किं कारणम् | अन्यतरेणानभिधानात् | अन्यतरेणात्रानभिधा-
नम् | सदिप्रत्ययेनाभिधानमसिप्रत्ययेनानमिधानम् | यतोऽनभिधानं वदाभ्रया सप्रमी
भविष्यति ॥ कुतो नु खल्तेतत्सत्यभिधाने चानभिधाने चानभिहिताञ्नया सप्रमी
भविष्यति न पुनरभिहिताञ्नयः प्रतिषेध हति |
15 अनभिहिते हि विधानम् | ९॥
अनभिहिते हि सप्रमी विधीयते नाभिहते प्रतिषेधः || यद्यपि तावदत्रैतच्छक्यते
वक्तु यत्रान्या चान्या च क्रिया यत्रतु खलु तैव क्रिया तत्र कथम् | आसन
आस्ते | शायने शेत इति | अत्राप्यन्यत्वमस्ति | कुतः | कालभेद।स्ताधनमेराच |
एकस्यात्रासेरासिः साधनं सवेकालथ प्रत्ययः | अपरस्य बाह्यं साधनं वर्तमानकाल
90 प्रत्ययः || किं पुनद्रेव्यं साधनमाहोस्विद्ुणः | किं चातः | यदि इव्यं साधनं
नैतदन्यद्ध वत्यभिहितात् । भथ हि गुणः साधन भवत्येतदन्यदमिहितात् । अन्यो
हि सदिगुणो ऽन्वश्चासिगुणः || किं पुनः साधनं न्याय्यम् | गुण इत्याह । कथं
ज्ञायते । एवं हि क्चित्कंचित्पुच्छति । कछ देवदत्त इति । स तस्मा आचरे | भती
वक्ष इति | कतरस्मिन् । यस्ति्ठतीति | स ॒वृक्षोऽधिकरणं भूत्वान्येन शब्देनाभि-
„, संबध्यमानः कता संप्यते | द्रे पुनः साधने सति यस्कमे कर्मत्र स्याद्यत्करर्ण
करणमेव यदपिकरणमपिकरणमेव ||
* ६.१.५९. 4 २.२.३६.
पा० २.३.२.] ॥ व्याकरणपमहाभाष्यय् ॥ 2७३
अनभिहितवचनमन्कं प्रथमाविधानस्यानवकारात्वात् । ९० ॥
अनमिहिततचनमन्यंकम् । किं कोरणम् | प्रथमाविधानस्यानषकाशत्वात् |
अनवकाहा प्रथमा सा वचनादविष्यति* || सावकाशा प्रथमा | कोऽवकाशः |
भअकारकम् । वृक्षः जक्ष इति |
अवक।रो ऽकारकमिति चेन्नास्ति्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषो परयुज्यमा- 5
नोऽप्यास्त ॥ १९ ॥
अवकाशो ऽकार कमिति चेत्तन्न | किं कारणम् । अस्िभेवन्ती परः प्रथमपुरुषो
प्रयुज्य मानोऽप्यस्तीति गम्यते । वलः अक्षः | अस्तीति गम्यते ॥
विप्रतिषेधाद्वा प्रथमाभावः | ९२ ॥
अथवा दितीयादयः क्रियन्तां प्रथमा वेति प्रथमा भविष्यति विप्रतिषेधेन | 10
द्वित यादीनामवकाशचः } कटं करोति भीष्ममुदारं शोभनं ददौनी यमिति | प्रथमाया
भवक।(दाः | अकारकम् | वृक्षः छल्ष हति । इहोभयं प्रामोति | कृतः कटो भीष्म
उदारः दोभनो ददयौनीय हति । प्रथमा भविष्यति विमरतितरेपेन || न सिभ्यति। प-
रत्वात्षष्ठी प्रापोति। | रोषलक्षणा षषटदयशेषत्वान्न भविष्यति ||
कृसखयोगे तु परं विधानं षरष्टयास्तत्परतिषेधा्थम् ॥ ९३ ॥ 15
कृखयोगे तु परत्वात्पक्टी‡ प्रामोति तततिषेधाथेमनमिहिताधिकारः कतैव्यः ।
कतेष्यः कट इति ॥ स कथं कतेष्यः | यद्येकत्वादयो विभक्त्यथौः | जथ हि
कमोदयो विभक्तयथौ नार्थोऽनमिहिताभिकारेण ||
क्मेणि द्वितीया ॥ २।२।२॥
समयागिकषाहायोगेषू संख्यानम् ॥ १ ॥
समयानिकषाहायोगेषूपसंख्यानं कतेव्यम् । समया भामम् | निकषा मामम् |
हायोगे | हा देवदत्तम् । हा यज्ञदत्तम् ||
अपर आह ॥ द्वितीयाविधाने ऽभितन्परेतः समयानिकषाभ्यधिधिग्योगेषुपसं-
20
नानानना
* २.२.४६. { २.२.५५. ‡ २.३.६५.
४29 ॥ व्वाकर्नगरायाच्यम् ॥ | [ग०२.२.१.
ख्यानम् || द्विनीयाविवाने भमितः परितःखमयानिकषाभ्यधिधिग्वोमेषु पसंख्वानं कनै
व्यम् | अमिनो रामम् | परितो म्रामम् | समया मामम् | निकषा भामम् |
अध्यति यामम् । भिग्जाल्मम् | पिम्वुषठम् ||
अपर माह |
६ उमसर्वनसोः कारव धिनुपरवांरिपु त्रिषु |
दवितीयाम्रेदितान्तेषु ततो ऽन्यत्रापि दुदयते ॥
उमय सर्वं इत्येताभ्यां तखन्ताभ्यां ईितीवा वच्छवया | उमयतो मामम् । सर्वै-
ते भ्रामम् || धिग्योगे | धिग्जाल्मम् | धिग्वृषलम् || उपयोदिषु त्रिष्वाजोडेता ~
न्तेषु द्वितीया वन्तव्या | उपंपरि भामम् | अध्यधि भामम् | अपोऽषो भ्रामम् ॥
10 ततो ञन्यत्रापि दुदयते । न देवदत्तं प्रतिभाति किंचित् |
बुमुक्लितं न प्रतिभाति किचित् ॥
तृतीया च हो"छन्दसि ॥ २।३।३ ॥
किमर्थमिदमुच्यते | तृतीया यथा स्यात् | अथ तीया सिद्धा | सिद्धा कमे-
नीस्वेव* || तृतीयापि सिद्धा । कथम् | पां पो भवन्तीव्येव | भसव्येतस्मिन्छ-
15 पां छपो भवन्तीति तृती यार्थोऽयमारस्भः | यवाग्वाभिहोत्रं जुहोति || एवं तर्हि तृती -
यापि तिदा | कथम् | कतुंकरणयोरित्येव† | भयमभिशेत्रशब्दोऽस्स्येव ज्योतिषि
वर्तते | तद्यथा । भमनिोत्रं प्रज्वलयतीति । अस्ति हविषि वर्तते | तद्यथा | अभिहतं
जुहोतीति । जुहेतिशास्त्येव प्रक्षेपणे वतैते ऽस्ति ग्रीणात्यर्थे वतैते | तद्यदा तावद्यवा-
गुराष्दासृतीया तदामिहोत्र शब्दो ज्योतिषि वतेते जुहोतिश्च श्रीणास्यर्थे | तद्यथा |
४0 यवाग्वािहेोत्रं जुहोति | अन्नं प्रीणाति | यदा यवागुशब्दाद्धितीया वदाभनिशेत्रशम्दो
इविषि वेते जुहोति प्रक्षेपणे | तद्यथा । यवागूमभिहोतरं जुहोति । यवागूं शवि-
शमौ प्रकिपति ॥
अन्तरान्तरेणयुक्ते ॥ २।२.।०७॥
हह कस्मात भवति | किं ते बाभ्रवह्यार ङायनानामन्तरेण गतेनेति । लक्षणप्र-
® २.३,२, † २.३.१८,
पा०२.३.३-५.| ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम् ॥ ४४५
तिषरोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति || अथवा यद्यपि तावदयमन्तरेणशम्दो दृष्टापचारो
निपातश्चानिपतधायं तु खल्वन्तराशब्दो ऽद््टापचारो निपात एव त्यास्य कोऽन्यो
दवितीयः सहायो भवितुमहैत्यन्यदतो निपातात् | तद्यथा | अस्य गोर्ितीयेनार्थं
हृति मौरेवानीयते नाश्वो न गर्दभः ||
अन्तरान्तरेणयुक्तानामपरधानवचनम् ॥ ९।।
@र
अन्तरान्तरेणयुक्तानामप्रधानग्रहणै क्तैव्यम् । अप्रधाने हितीया भवतीति वक्त-
ष्यम् | अन्तरा त्वांच मां च कमण्डलुरिति | कमण्डलेोर्ितीया मा भूदिति ।
कः पुनरेताभ्यां कमण्डलोर्योगः । यत्तत्त्वं च मां चान्तरा तत्कमण्डलोः स्थानम् |
तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | कमण्डलोर्ितीया कस्मान्न भवति | उपपदवि-
भक्तेः कारकविभक्ति बेटी यसीति प्रथमा भविष्यति ॥ 10
काल]प्वनोरव्यन्तसंयोगे ॥ २।३।५॥
अत्यन्तसंयोगे कमवह्लाद्यर्थम् ॥ ९ ।।
भत्यन्तसंयोगे कालाध्वानौ कर्मवद्भवत इति वक्तव्यम् किं प्रयोजनम् लाद्य-
थम् | लादिभिरभिधानं यथा स्यात्* | आस्यते मासः | शय्यते क्रोहाः || अथ व-
त्करणं किमर्थम् । स्वाश्रयमपि यथा स्यात् | आस्यते मासम् । शय्यते क्रोशम् | 15
अकर्मकाणां भावे रो भवतीति" भावे लो यथा स्यात् ॥ तरतां वक्तभ्यम् | न
वक्तव्यम् । प्राकृतमेवैतत्क्म यथा कटं करोति दाकटं करोतीति ॥ एव॑ मन्यते |
यत्र कथिक्कियाङृतो विशेष उपजायते तन्याय्यं कर्मेति | न चेह कथिक्करियाक्तो
विष उपजायते || नैवं शक्यम् । इहापि न स्यात् । भादित्यं परंयति | हिमवन्तं
दुणोति । माम॑ गच्छति | तस्मातमाकृतमेवैतत्कर्म यथा कटं करोति शकटः करोतीति || 20
यदि तर्हि प्राक्ृतमेवैतत्कमौकर्मकाणां भावे लो भवतीति भावे लो न प्रारोति | आस्यते
मासं देवदत्तेनेति || तत्तर्हि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् | भक्मकाणामि्युच्यते न
च केचित्कालभावाध्वभिरकमैकाः | त एव॑ विज्ञास्यामः । कचिे ऽकर्मका इति|
भथवा येन कर्मणा सकर्मकाथाकर्मकाथ भवन्ति तेनाकर्मकाणां न चैतेन कर्मणा
# ३.४. ६९.
४४६ ॥ व्याकरणप्रहाभीष्यम् ॥ | [म० २.३.९.
क्थिदप्यकर्मकः || अथवा यत्कमे भवति न च भवति तेनाकर्मकाणां न चैतत्कमे
छ निदपि न व्रति ||
न तर्हीदानीमिदं सत्रं वक्तव्यम् | वक्तव्यं च | किं प्रयोजनम् | यत्राक्रियया-
त्यन्तसं योगस्तदयेम् । क्रोशं कुटिला नदी । कोशं रमणीया वनराजिः।।
अपव तृतीया ॥ २।३।६॥
क्रियापवगे इति वक्तव्यम् । साधनापवर्भे मा भूत् | मासमधीतेसनुत्राको
न चनेन गृहीत इति ॥ |
सप्तमीपज्चम्यीं कारकमध्ये ।॥ २।२३।७॥
क्रियामध्य इति वक्तव्यम् | इ्ापि यथा स्यात् । द्य देवदत्तो भुक्का द्यहा-
10 दोक्ता व्ये मोक्ता | कारकमध्य हतीयस्युच्यमान इहैव स्यात् | इहस्थेऽधमिष्वासः
क्रो शाष्ठश्यं विध्यति क्रोशे रष्टय त्रिध्यति | वं च विभ्यति यतश्च विध्यत्युभयोस्तन्म-
ध्यं भवति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | नान्तरेण साधनं क्रियायाः प्रवृत्ति-
भवति | क्रियामध्यं चेस्कारकमध्यमपि भवति तत्र कारकमध्य इत्येव सिद्धम् ॥
कमेग्रचनीययुक्ते द्वितीया ॥ २।३२।८॥
15 कमेप्रवचनीययुक्ते पत्यादिभिश्च लक्षणादिषुपसंसख्यानं ससमीपन्बम्योः
परतिषेधाथंम् ॥ ९ ॥
` कर्मप्रवचनीययुक्ते प्रस्यादिभिथ रक्षणादिषुपसंख्यानं कर्तव्यम्" | वृक्षं प्रति ति-
शोतते विद्युत् । वृक्षं परि । वृक्षमनु । साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति | मातरं परि । मात-
रमनु | किं प्रयोजनम् | सप्रमीपश्चम्योः प्रतिषेधार्थम् । सप्रमीपश्चम्यौ मा भृतामिति।
2 साधुनिपुणाभ्यामचीयां सप्रमीति सप्रमी† । पचम्यपा ङ्रिभिः [२.३.९०] हति
पन्चमी | तत्रायमप्यर्थो ऽप्रतेरिति† न वक्तव्यं भवति || तत्तर्हि वक्तव्यम् | न
वक्तञ्यम् । ।
® ९,०४.९. † २.३.४१.
पा० २,३.६-९.] ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यय् ॥ ४७७
उक्तं वा || ९॥
किमुक्तम् | एकत्र तावदुक्तमप्रतेरेति" | इतरत्रापि यद्यपि तावदयं परेदू-
छापतरारो वेने चाव्रजमे चायं खल्वपरम्दो ऽदृष्टापचारो वजैनाथे एव तस्य कोऽन्यो
हितीयः सहायो भवितुमर्ैत्यन्यदतो वज॑नार्थात् | तद्यथा | अस्य गोर्हितीयेनार्थ इति
नौरेवानीयते नाश्चो न गदभः | $
यस्मादधिक यस्य चेश्वरवचनं ततर सप्तमी ॥ २।२।९॥
क्रथमिदं विज्ञायते | यस्य चेश्वयेमीश्वरतेश्वरभावस्तस्मास्कर्मेभवचनीययुक्तादि-
ति । भशेखिश्यस्य स्वस्येश्वरस्तस्मास्कमेप्रव चनी ययुक्तादिति । कथात्र विदोषः |
यस्य चेभ्वरवचनमिति कर्तृनिर्देराश्वेदव चनास्िद्धम् ॥ ९ ॥
यस्य चेश्वरव चनमिति कर्तनिरदेशेदन्तरेण वचनं तसिद्धम् | अधि ब्रह्मदत्ते 10
पचालाः | भाधृतास्ते तस्मिन्भवन्ति† | सत्यमेवमेतत् । निर्यं परि रहीतभ्वं परि-
महीजरधीनं भवति ॥ .
प्रथमानुपपत्तिस्तु ॥ > ॥
प्रथमा नोपपद्यते | कुतः | पत्चतिभ्यः | का तर्हि स्यात् | षष्ठीसप्तम्यौ |
स्वामीराधिपति [२.२.२३९] इति | न त॒त्राधिशब्दः पद्यते । यद्यपि न पश्यते 15
ऽधिरीश्वरवाची | न तत्र परयोयव वनानां पहणम् | कथं ज्ञायते | यदयं कस्य-
चिस्पयौयवचनस्य ग्रहणं करोति । भधिपतिदायादेति || षष्ठी तर्हि प्रामोति | शेष -
लक्षणा षष्योषत्वान्न भविष्यति ॥ द्वितीया ता प्रामोति करमपभ्रवचनीययुक्ते
दितीया [२.३.८ | इतिऽ | सप्म्योक्तत्वत्तस्याभिसंबन्धस्य द्वितीया न भविष्यति |
भवेद्यो ऽेत्रह्यदत्तस्य चाभिसंबन्धः स सप्नम्योक्तः स्याश्स्तु खल्वधेः पत्चालानां 20
चामिसंबन्धस्तत्र द्वितीया प्रामोति ||
स्ववचनास्सिदम् ॥ ३॥
अस्तु यस्य स्वस्येश्वरस्तस्मात्कमेप्रवचनी ययुक्तारिति ॥ एवमप्यन्तरेण वचनं
सिद्धम् । अपि ब्रह्मदत्तः प्चारेषु | आधृतः स तेषु भवति | सत्यमेवमेतत् |
# २,२.४२. † २.१.१६. ‡ २.१. ५०. § ९,४.९७,
४७य् ॥ व्वाकर्णवह भाष्यत ॥ 1 [ म०२.३.९.
नित्वं परिप्रहीता परित्रहीतव्याधीनो भवति || प्रथमानुपपर्िस्तु | प्रथमा नोपष-
द्यते | कुतः | ब्रह्मदत्तात् | का तर्हि स्यात् | षक्षीसप्रम्यौ | स्वामीश्वराधिपतीति |
न तत्राधिशाष्दः पद्यते | यद्यपि न पद्यते अधिरीशरवाची | न तत्र पर्यायष-
चनानां यंहणम् | कथं ज्ञायते । यदयं कस्यचिरपयायवचनस्य म्रहणं करोति |
5 अधिपतिदायादेति || षी तरि प्राप्रोति | शेषलक्षणा षश्च ोषत्वान्न भविष्यति ||
हितीया तर्हिं प्रामोति कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीयेति । सप्नम्योक्तत्वरात्तस्यामिसंब -
न्धस्य हितीया न भविष्यति 1 भवेश्ोऽ्येः पत्ालानां चाभिसंबन्थः स सप्रम्योक्तः
स्या्स्तु खल्वधेत्रेयद तस्यं चाभिस॑बन्धस्तत्र दितीया प्राति | एवं तरि स्ववच -
नास्सिद्धम् । अधिः स्वरं परति कर्मप्रव चनीयसंश्ञो भवतीति वक्तव्यम्* || एवमि
10 यदा ब्रह्मदत्तेजधिकरणे सप्रमी तदा पज्ालेभ्यो द्वितीया प्रामोति करमप्रवचनीययुक्ते
दिती येति । उपपदाविभक्तेः कारकविभक्तिबेलीयसीति प्रथमा भविष्यति ||
गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि ॥ २।२.।१२॥
अध्वन्यर्थग्रहणम् ॥ ९॥
अध्वन्यर्थग्रहणं कर्तव्यम्| इहापि मा भूत् | पन्थानं गच्छति } वी वर्धं गच्छतीति |
18 आस्थितप्रतिषेधश्च ॥ २ ॥
आस्थितप्रतिषेधश्ायं वक्तव्यः | यो दयुत्पथेन पन्थानं गच्छति पथे गच्छतीस्येव
तत्रं भवितव्यम् ॥
किमथे पनरिदमुच्यते । चतुर्थं यथा स्यात् | अथ द्ितीयौ सिद्धा| सिद्धा
कर्मेणीस्येव† | चतुथ्यैपि तिधा | कथम् । संप्रदान इत्येव । न सिध्यति । क-
2० भणां यमभित्रैति स संप्रदानम् [ ९.४.३२ ] इत्युच्यते क्रियया चासौ म्राममभि-
प्रति | कया क्रियया | गमिक्रियया | क्रियामहणमपि तत्र चोद्यते ||
चेष्टायामनध्वनि लियं गच्छत्यजां नयतीत्यतिप्रसङ्गः ॥ २ ॥
वे्टायामनध्वनि लियं गच्छत्यजां नयतीत्यतिप्रसङ्खो भवति ॥
सिद्द त्वरसपराप्वचनात्॥ ४ ॥
४5 सिद्धमेतत् | कथम् | अश्ापरे कर्मणि दितीयाचनु्यी भवत इति वक्तव्यम् ॥
पा० २.२.९२-९१२. ॥ ध्याकरणमहाभाच्यम् ॥ ७४९,
अध्वनश्चानपवादः | ^ ॥
एवं च कृत्वानध्वनीत्येतदपिं न वक्तव्ये भवति | संप्राष्वं दयेतत्कमौभ्वानं गच्छ-
तीति || । »
चतु संप्रदनि॥२।२ । ९२॥
चतुर्थीविधाने ताद्य उपसंख्यानम् ॥ ९ ॥ ९.
चतुर्थीविधाने -तादथ्ये उपसंख्यानं कत्वम् | यूपाय दार | कुण्डलाय हिर-
ण्यम् || किमिदं तादभ्येमिति । तदथस्य भावस्तादभ्येम् | तदथै पुनः किम् |
सर्वैनान्नोऽयं चतुध्येन्तस्वार्थशब्देन सह समासः । कथं चात्र चतुर्थी | भने-
त्रैव | यदयेवमितरेतराच्चयं भवति | केतरेतरान्रयता । निर्ेशोत्तरकालं चतुध्यौ
भवितव्यं चतुभ्यो च निर्दशस्तदितरेतराश्र्य भवति | इतरेतराश्रयाणि च न प्रक- 10
स्यन्ते || तत्तर्हि वक्तव्यम् | न वक्तश्यम् | आवार्यपवृत्तिर्ञापयति भवत्य्थशब्देन
योगे चतुर्योति यदयं चतुर्थी तदयोये [२.५.३६] हति चतुथ्यैन्तस्यार्थशम्देन सह
समासं शास्ति || न खल्वप्यवरयं चतुध्यन्तस्थैवा्थ शब्देन सह समासो भवति ।
किं तर्हि । षष्टचयन्तस्यापि भवति | तदयथा । गुरोरिदं गु्वथोमिति || यदि ताद्य
उपसंख्यानं क्रियते नाथः संपदानय्रहणेन । योऽपि ध्युपाध्यायाय गौर्दीयत उपाध्या- 15
याथः स भवति तत्र ताद्य इत्येव सिद्धम् ॥ भवदयं संप्रदानम्रहणं कतैष्यं यान्येन
लक्षणेन संप्रदानसंश्ञा तदथेम् । छक्ताय रुचितम् | शन्नाय स्वदितमिति" ॥
तसचद्युपसंख्यानं कर्तध्यम् । न करतैष्यम् । आचायप्रवृिश्ञौपयति भवति तादर्थ्य
चतुर्थीति यदयं चतुर्थी तदथौर्भति चतुर्थ्यन्तस्य तदर्थेन सह समासं शास्ति ॥|
कुपि संपद्यमाने ॥ २॥। 20
कुमि संपद्यमाने चतुर्थी वक्तव्या | मूत्राय कल्पते यवागूः । उश्वाराय कल्पते
यवाच्नमिति |
उत्पातेन ज्ञाप्यमाने ॥ ३ ॥
उत्पातेन श्ञाप्यमाने चतुर्थीं वक्तव्या ।
वाताय कपिला विद्युदातपायातिलोहिनी | 2४
षीता भवति सस्याय दुर्भिक्षाय ससिता भवेत् ॥
* ९.४.२३.
87 9
, ॥ व्यकस्ममहामोष्यम् ॥ | [मर२.२३.९.
मांसौदनाय व्याहरति मृगः || .
हितयोगे च ॥ ४ ॥
हितयोगे चतुर्थी वक्तव्या | हितमरोचकिने | हितमामयाविने ॥
नमःस्स्तिखाहाखधाल्वषड्योगाच्च ॥ २ । २.।१६ ॥
$ स्वस्तियोगे चतुर्थी कुराखर्थैराशिषि वाविधानात् ॥ ९॥
स्वस्तियोगे चतुर्थी कुशलार्थैराशिषि वाविषानाद्भवति विप्रतिषेधेन | स्वस्ति
योगे चतुध्यौ अवकाशः । स्वस्ि जाल्माय । स्वस्ति वृषलाय | कुशकलार्थेरा-
श्िषि बाविधानस्यावकाशः । भन्ये कुरालाथौः । कुशलं देवदत्ताय । कुशलं,
देवदत्तस्य । इहोभयं प्रामोति | स्वस्ति गोभ्यः | प्वस्ति ब्राह्मणेभ्य इति । चतुर्थीं
10 भवति विप्रतिषेभेन ||
अमिति पयन्यिथग्रहणम् ॥ > ॥ -
अलमिति पयौध्यर्थम्रहणं कतेव्यम् । इह मा भूत् | अठंकुरुते कन्यामिति ॥।
अपर आह | अलमिति पयीघ्यथेमरहणं कतेव्यम् । इहापि यथा स्यात् | भल
मलो मल्लाय । प्रभुमेह्लो महछलाय । प्रभवति मल्लो मछायेति ||
1 मन्यकमेण्यनादरे विभाषाप्राणिषु ॥ २।२. ।१..७॥
भप्राणिष्विद्युच्यते तत्रेदं न सिध्यति । न स्वा चानं .मन्ये | न त्वा शुने मन्य
इति ॥ एवं तरि योगविभागः करिष्यते | मन्यकर्मण्यनादरे विभाषा | ततोऽपा-.
णिषु | अप्राणिषु च विभाषेति | हृदापि तर्हि प्रामोति | न त्वा काकं मन्ये | नत्वा
डुक मन्य इति || यदेतदाणिष्विस्येतदनावादिष्विति वक्ष्यामि | इमे च नावा-
80 दयो भविष्यन्ति | न त्वा नावं मन्ये यावत्तीणे न नाव्यम् | न स्वाघ्नं मन्ये
यावद्भुक्तं न श्राद्धम् | अत्र येषु प्राणिषु नेष्यते ते नार्वादयो भविष्वन्ति |
+ २.३, ७३.
पौ» २.२.९१-९०.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम् ॥ ४५९
मन्यकमणि पकृष्यकरुत्सितप्रहणम् ॥ ९ ॥
मन्यकर्मणि प्रकष्यकुस्सितमदणं कर्तव्यम् । इह मा भूत् | स्वां तृणै मन्य
इति ॥
इति श्रीभगवत्पतश्जलिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये द्वितीय स्याध्यायस्य तृतीये
पादे प्रथममाह्निकम् |
9५५२ ॥ व्वीकरनवहमिोष्वयः ॥ ` मिं २.२.३.
कतृकरणयोस्तृतीया ॥ २।२.।१८ ॥
तृतीयावेधाने प्रकृस्यादिभ्य उपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानं कतैव्वम् | प्रकृत्यामिरूपः | प्रकृत्या
ददोनीयः | प्रायेण याज्ञिकाः | प्रायेण वैयाकरणाः । माठरो ऽस्मि गोत्रेण । गारर्योऽस्सि
¢ गोत्रेण | समेन धावति | विषमेण धावति | दिद्रोणेन धान्यं क्रीणाति | लिद्रोणेन धान्यं
क्रीणाति । प्श्चकेन पदयन्क्रीणाति । साहजेणाश्चान्क्रीणाति || तर्त वक्तव्यम् |
न वक्तव्यम् | कर्वृक्रण योस्तृतीयेस्येव सिद्धम् ।| इह तावलकृत्याभिरूपः प्रकृत्या
शशौनीय इति प्रकृतिकृतं तस्याभिरूप्यम् || प्रायेण या्निकाः प्रायेण वैयाकरणा इति |
एष तत्र प्रायो येन तेऽधीयते || माठरोऽस्मि गोत्रेण गार्ग्योऽस्मि गोक्रेणेति । एते-
10 नाहं संज्ञाय || समेन धावति विषमेण धावतीति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच्च प्रयु -
ज्यते समेन पथा धावति विषमेण पथा धावतीति | हिदोणेन धान्यं क्रीणाति
द्रोणेन धान्यं क्रीणातीति । साद्या तताच्छन्धयम् | दित्रोणाथै द्िद्रोणम् | दिद्रोणेन
हिरण्येन धान्यं क्रीणातीति | पञ्चकेन पभूल्करीणातीति | त्रापि तादथ्यौत्ताच्छ-
ग्धम् | परश्चपच्चर्थः पञ्चकः । पत्चकेन पभुन्क्रीणातीति || सादजेणाचान्क्रीणा-
15 बीति | स्रपरिमाणं साहसम् । साहस्रेण हिरण्येनाश्वान्क्ीणातीति ॥
सहयुक्ते प्रधाने ॥ २।२.। १९. ॥ `
किमुदाहरणम् । तिङः सह माषान्वपतीति । तैतदस्ति | तिरैभिभ्रीकृत्व माषा
उप्यन्ते तत्न करण इस्येव सिद्धम् ॥ इदं तरि । पुत्रेण संशागतो देवदत्त इति|
भप्रधाने कतैरि तृतीया यथा स्यात् । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् | प्रधाने कतरि
90 लादयो भवन्तीति प्रधानक्तौ क्ेनाभिधीयते यथाप्रधानं सिद्धा तत्र॒ कर्व॑रीव्येव
तृतीया" || हदं तर्हि । पुत्रेण सहागमनं देवदतस्येति | षषठघत्र बाधिका भवि-
भ्वति || हदं तर्हि । पुत्रेण सह स्थुलः । पुत्रेण सह पिङ्गल इति || इदं चाप्युगा-
हरणं तिः सह माषान्वपतीति | ननु चीक्तं तिरैर्मिश्रीकृस्य माषा उप्यन्ते तत्र
करण इत्येव (सिद्धमिति । भनेस्सिद्धं यदा तिकेर्भिभ्रीकृत्योप्येरन् । यदा तु खलु
# २,६.६.८. २,३.६९.
पी २.३.१८-२९.] ॥ व्याकर प्रह्यभाष्यम् ॥ |
कस्यचिन्माषवीजावाप उपस्थितस्तद्थै च केत्रभुपाजितं तत्रान्यदपि किंचिदुप्यते
यदि भविष्यति भविष्यतीति तदा न सिध्यति 1| ` ` ` `
सहयुक्ते अप्रधानवचनमन्थंक स॒पपदविभक्तेः कारकविभक्ति
बली यस्त्वादन्यत्रापि ॥ ९॥
र सहयुक्ते ऽपधानवंचनमनर्थकम् | किं कारणम् | उपपदविभक्ते कारकबिभ- ४
क्तेवलीयस्त्वात् | अन्यत्रापि कारकविभक्तेबेरी यतीति प्रथमा विष्यति । का-
न्यत्र | गाः. स्वामी व्रजतीति ||
येनाङ्गविकारः ॥ २।२।२०॥
इह कस्मान्न भवति । भक्षि काणमस्येति |
अङ्गादिकृतात्तद्िकारतश्वेदङ्धिनो वचनम् ॥ ९॥ 10
` अङ्कादिक्ृतासृतीया वक्तव्या तेत्रैष चेदिकारेणाङ्गी शोस्यत इति वन्तव्यम् ॥
ततर्द वक्छव्यम् | न वक्तव्यम् | अङ्गशब्दोऽयं समुदायश्चब्दो येनेति च करण
एषा तृतीया । येनावयवेन ` समुदायोऽद्गी चोत्यते तस्मिन्भवितव्यं न वैतेनावयवेन
समुदायो थोत्यते ॥ |
इत्थंभूतलक्षणे ॥ २।२.। २२. ॥ 15
इत्थंभूतलक्षणे तत्स्थे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
ह्यंभूतलक्षणे तर्स्ये प्रतिरेषो वक्तव्य; । भपि भवान्कमण्डलुपाणि शत्रम-
द्रा्ीदिति ॥
` न वेत्थंभुतस्य लष्षणेनापृथग्भावास् ॥ २ ॥
न वा वक्तव्यम् | किं कारणम् । हर्त्थ॑भूतस्य लक्षेणेनापुथग्भावात् | यत्रेव्थ॑भू- 20 |
तस्य परथग्भूतं लक्षणं तत्र भवितव्यं न वत्रेत्थ॑भूतस्य एथग्भूतं लक्षणम् | किं
वक्तव्यमेतत् | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | तथा ह्ययं प्राधान्येन रक्षणं प्रतिनि-
शाति । इत्थंभूतस्य रक्षणमित्थंभूतंलक्षणम् तस्मितित्यंभूतर्षेण इति ||
२.६.२; (६९)
७५२ ॥ व्यीकरणमदभोष्यय् ॥ ` ` [मिं २.२२.
कतृकरणयोस्तृतीया ॥ २।२.।१८ ॥
तृतीयाविधाने भकृस्यादिभ्य उपसंख्यानम् । ९ ॥
तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानं कतेव्वम् | प्रकृत्यामिरूपः | प्रकृत्या
ददीनीयः | प्रायेण याञिकाः | प्रायेण वैयाकरणाः | माठरो ऽस्मि गोत्रेण । गार्योऽस्सि ,
¢ गोत्रेण | समेन धावति | विषमेण धावति | द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति | लिद्रोणेन धान्यं
क्रीणाति | पञ्चकेन पञयुन्क्रीणाति । सादसेणाश्वान्क्रीणाति || त्साह वक्तव्यम् |
न वक्तव्यम् | कर्वृकरण योस्तृतीयेस्येव तिम् ।| इह तावत्यकृत्यामिरूपः प्रकृत्या
हङीनीय इति प्रकृतिकृतं तस्याभिरूप्यम् || प्रायेण याश्ञिकाः प्रायेण धैयाकरणा इति |
एष तत्र प्रायो येन तेऽषीयते || माठरोअस्मि गोत्रेण गार्ग्योऽस्मि गोत्रेणेति । एते-
10 नाहं संज्ञाये || समेन धावति विषमेण धावतीति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच्च भयु -
ज्यते समेन पथा धावति विषमेण पथा धावतीति || हिद्रोणेन धान्यं क्रीणाति
द्रोणेन धान्यं क्रीणातीति । सादर्थ्या साच्छन्यम् | हिद्रोणा्थ द्िद्रोणम् | दिद्रोगेन
हिरण्येन धान्यं क्रीणातीति ॥ पञ्चकेन पभूल्क्रीणातीति | अत्रापि तादथ्यौन्ताच्छ-
न्धम् । पञ्चप्धरथः प्रश्चकः । पत्चकेन पभुन्क्रीणातीति | साहसेणा्ान्क्रीणा-
15 बीति । सश परिमाणं साहलम् । सादसेण हिरण्येनाश्वान्क्रीणातीति ॥
सहयुक्तेऽप्रधाने ॥ २।२.। १९.॥ ` `
किमुदाहरणम् । तिङः सङ माषान्वपतीति । त्रैतदस्ति | तिङैर्िभ्रीकृस्य माषा
उप्यन्ते तत्र करण इत्येव सिद्धम् ॥ इदं तर्हि । पुत्रेण सहागतो देवदत्त इति|
भप्रधाने कतैरि तृतीया यथा स्यात् । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । प्रधाने कतरि
20 लादयो भवन्तीति प्रधानकूती केनाभिषीयते यथाप्रधानं सिद्धा तच्र कर्वरीत्येब
तृतीया" ॥ हदं तरिं । पुत्रेण सहागमनं देवदतस्येति | षषठधत्र बाधिका भवि-
ष्यति† || इदं तर्हि | पुत्रेण सह स्थूलः । पुत्रेण सह पिङ्गल इति ॥ इदं चाप्वुदा-
रणं तिकः सह माषान्वपतीति । ननु चोक्तं तिङैर्मिश्रीकृत्य माषा उप्यन्ते तश्र
करण इत्येव (सिद्धमिति । भवेत्सिद्धं यदा तिकेर्भिभ्रीकृत्योप्येरन् । यदातु खल्
न १,३.६८. † २.३.६९.
फी° २.३.१५ ८-२९.। ॥ व्याकर परह्यभीर्यम् ॥ (|
कस्यचिन्माषवीजावाप उपस्थितस्तद्थै च सत्रमुपाजितं तत्रान्यदपि किंचिदुप्यते
यरि भविष्यति भविष्यतीति तदा न सिध्यति ]| ` - `
सहयुक्ते ऽप्रधानवचनमनथंकमुपपदविभक्तेः कारकविभक्ति-
बलीयस्त्वादन्यत्रापि ॥ ९॥
` सहयुक्ते पधानवचनमन्थकम् । कि कारणम् | उपपदविभक्तेः कारकविभ- 5
क्िबलीयस्त्वात् | अन्यापि कारकविभक्तिबेलीयसीति प्रथमा भविष्यति | क्रा-
न्यत्र | गाः स्वामी व्रजतीति
येनाङ्गविकारः ॥ २।२।२०.॥
इह कस्मान्न भवति । भक्षि काणमस्येति |
अङ्गादिकृतात्तदिकारतश्वेदङ्धिनो वचनम् ॥ ९॥ 10
` अङ्गादिकृतातृतीया वक्तव्या तेत्रैव चेदिकारेणाङ्गी शोस्यत इति वक्तव्यम् ॥
ततर्द वक्व्यम् | न वक्तव्यम् | भङ्ग रब्दोऽयं समुदायराब्दो येनेति च करण
एषा तृतीया । येनावयवेन ` समुदायोऽद्गी त्यते तस्मिन्भवितव्यं न चेतेनावयवेन
समुदायो शोत्यते ॥ | |
दर््यभूतलक्षणे ॥ २।२. । २२ ॥ 18
इत्थंभूतलक्षणे तत्स्थे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
हस्यं भूतलक्षणे तस्ये प्रतिषेधो वक्तव्यः । भपि भवान्कमण्डलुपाणि श्रम.
द्रा्ीदिति ॥
` न वेत्थंभूतस्य रक्षणेनापृथग्भावात् ॥ २ ॥
न वा वक्तव्यम् | किं कारणम् । हत्थ॑भूतस्य लक्षणेनापुथग्भावात् | यत्रेत्थभू- 20 |
तस्य परथग्भूतं लक्षणं तत्र भवितव्यं न चत्रत्थ॑भूतस्य परथग्भूतं रक्षणम् ॥ किं
वक्तव्यमेतत् । न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते | तथा हयं प्राधान्येन लक्षणं प्रतिनि-
शाति । इत्थंभूतस्य रक्षणमित्थंभूतंलक्षणम् तस्मितिष्यंभूतरक्षण इति ||
# ३,३.२; (३२).
४५७ 1 व्याकरगमहामष्यम् ॥ | [ भ०२.३.१
संज्ञोऽन्यतरस्यां कमणि ॥ २।२।२२॥
सत्तः कृत्प्रयोगे षष्ठी विभतियेधेन ॥ ९ ॥
संश जन्यतरस्यां कमेगीत्येतस्माक्कृसयोगे षष्ठी भवति विप्रतिषेधेन । संज्ञो
ऽन्यतरस्यामित्वस्वावकाशः | मातरं संजानीते | मात्रा संजानीते | कृखयोगे षषटचा
5 भवकाराः | इध्ममत्रथनः पलाश शातनः† । इहोभयं प्रामोति । मातुः संज्ञाता |
पितुः संजातेति । षष्ठी भवति विप्रतिषेधेन |
उपपदविभक्तेश्चोपपदविभक्तिः || २॥
उपपदविभक्तं थोपपदविभक्तिभेवति विप्रतिषेधेन । अन्यारादितरतैदिक्दाग्दाश्चू-
सर पदाजाहियुक्ते [२.३.२९] हत्यस्यावकादाः | अन्यो देवदत्तात् | स्वरामीश्वराधि-
10 पतिदायादसाक्षिपरतिभूप्रदतैथ्च [३९] इत्यस्यावकाशः | गोषु स्वामी । गवां स्वा-
.मी । इहोभयं परामोति । भन्यो गोषु स्वामी । भन्यो गवां स्वामीति । स्वामीश्वरा-
(सिपतीत्येतद्भवति विप्रतिषेधेन || तष युक्तो विप्रतिषेधः | न शयत्र गावो ऽन्ययुक्ताः |
कर्ता । स्वामी || एवं तरि तुल्यार्ैरतुलोपमामभ्यां तृती यान्यतरस्याम् [७२] इत्य
स्यावकाराः । तुल्यो देवदत्तस्य । तुल्यो देवदत्तेनेति | स्वामीश्वराधिपतीस्वस्याव-
18 काङाः | स एव । हशेमयं प्राभोति । तुल्यो गोभिः स्वामी | तुल्यो गवां स्वामीति।
तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यामित्येतद्ध वति विप्रतिषेधेन ॥
` 1 हेती ॥ २।२। २२ ॥
निभित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायदर्शनम॥
निमिन्तकारणहेतुषु सवौ विभक्तयः प्रायेण दृदयन्त इति वक्तव्यम् | कि
20 निमित्तं वस्तति | केन निमित्तेन वसति | कस्मै निमित्ताय वसति । कस्मान्नि-
मि्ताहसति । कस्य निमित्तस्य वसति -। कस्मित्निमिते षस्ति ॥| किं कार्णं
गसति.| केन कारणेन वसति | कस्मै कारणाय वसति । कस्मात्कारणाद्न सति +
कस्य कारणस्य वसति | कस्मिन्कारणे वसति ॥ को हैतुष॑सति । कं देतु वस-
+ २.६.६५. † २.२.८५.
पा० २;,२३.२२-२८. | ॥ ध्याकरगमरहभिष्वम् ॥ ४५५.
ति | केनहेतुना वसति | कस्मै हेतवे वसति । कस्माद्धेतोवेसति | कंस्य हेोर्घ-
सति । कस्मिन्हेती बसति ॥
अपादाने प्वमी ॥ २.।२। २८ ॥
पत्चमीविधाने ल्यन्कोपे कमेण्युपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
| पशचमीविधाने ल्यभ्लोपे कमेण्युपसंख्यानं कतैव्यम् | प्रासादमारद्य प्रेक्षते प्रासा- 5
दास्मेक्षते ||
अधिकरणे च | २॥
अधिकरणे चोपसं ख्यानं कतेव्यम् | भासनासरक्षंते | शयनासक्षते |
| प्रञ्नाख्यानयोश्च ।। २॥
प्रश्राख्यानयोश पश्चमी वक्तव्या ॥ कुतो भवान् । पाटलिपुत्रात् || ` +
| यतथाष्वकालनिर्माणम् || ४॥| ` 1
वतथाप्वकालनिरमाणं तल्ल पञ्चमी वक्तव्या | गवीधुमतः सांकाइयं चत्वारि
योजनानि | कात्िक्या आग्रहायणी मासे |
तद्युक्तात्काले सपमी ॥ ९ ॥
तशुक्तात्कले सप्रमी वक्तव्या | कात्तिक्या आम्रहायणीं मासे ॥ 15
अध्वनः प्रथमा च ॥ &॥
अध्वनः प्रथमा च सप्रमी च वक्तव्या | गवीधुमतः सांकादयं चत्वारि योज-
नानि | चतुषु योजनेषु ॥
तत्तद वहु वक्तव्यम् | न वक्तंडयम् । अपादान इत्येव सिद्धम् || इह ताव -
स्पास्ादास्परक्षते हायनास्मेक्षत इत्यपक्रामति तच्स्मादृशंनम् | यद्यपक्रामति किं ना- 20
ह्यन्तायापक्रामति | संततत्वात् । भथवान्यान्यपरादुभोवात् | प्रभ्ाख्यानयो् प१-
घ्चमी वक्तव्येति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सत्च प्रयुज्यते कुतो भवानागच्छति पाटर्पु-
लादागच्छामीति | ` यतथाध्वकालनिमोणं तत्र पश्चमी वक्तव्येति । इदमत्र प्रयो-
व्यं सन्न प्रयुज्यते गवी ध॒मतो निः सृत्य॒सांक[दयं चस्वारि योजनानि | कार्सि-
४९६ ॥ व्याकरगमहाभाष्वम् ॥ ` [म०१.९.२
क्या भायहावणी मास इति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच प्रयुज्यते काक्या प्रभ
त्बाम्रहायणी मास हति || वथुक्तात्काले सप्तमी वक्तव्येति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं
सच्च प्रयुज्यते काततिक्या भम्रहायणी गते मास इति || अध्वनः प्रथमा च सप्तमी
चेति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच प्रयुज्यते गवीधुमतो निःसृत्य यदा चत्वारि योज-
5 नानि शतानि भवन्ति तत; सांकादयम् । चतुषु योजनेषु गतेषु॒घांकादयमिति ॥
अन्यारादितरतेंदिक्डान्दाञ्चुत्तरपदानाहियुक्ते ॥ २।२।२९॥
भनदत्तरपदब्रहणं किमथे न दिक्दाब्यर्योग इत्येव सिद्धम् । षष्ठ थतसर्थप्रत्ययेन
[ २.३.२० ] इति वद्यति. तस्यायं पुरस्तादपकर्षः ॥
घ्चतसथेप्रत्ययेन ॥ २।२।२०॥
10 अ्थैमहणं किमयम् । षटचतस्पत्ययेनेत्युष्यमान इहव स्यात् | दक्षिणतो पा-
मस्य | उत्तरतो म्रामस्येति* । इह न स्यात् | उपरि भामस्य ¡ उपरिष्टाद्रामस्ये-
ति† | अथेच्रहणे पुनः क्रियमाणे तस्मत्ययेन च सिद्धं भवति यथ्ान्यस्तेन समाना-
थैः || भय प्रत्ययम्रहणं किमर्थम् । इह मा मूत् । प्राग्मामात् । भस्यग्मामात्{ |
अश्हृत्तरपदस्याप्येतसख्योजनमुक्तं $ तत्रान्यतरच्छक्यमकतुम् |
15 पृथग्विनानानामिस्तृतीयान्यतरस्याम् ।॥ २ ।२. ।२२ ॥
पृथगादिषु पत्चमीविधानम् ॥ ९ ॥
[ पृथगदिषु पश्चमी विभेया | पृथग्देवदत्तात् । किमयम् । न प्रकृतं प्मीब-
इणमनुवतेते | क प्रकृतम् | पादाने पश्चमी [ २.३.२८ ] इति ।
अनधिकारात् ॥ २ ॥
20 अनधिकारः सः ॥
अधिकारे हि द्वितीयाषष्ठीविषये प्रतिषेधः ॥ ३ ॥
अधिकारे हि वितीयाब्टीविषये प्रतिषेधो वक्तव्यः स्यात् । दल्तिणेन पामम् |
* ५.३. २८. † ५.३. ६९. ‡ ५.३.२०. . 6 २.६. २९५. ¶ २.६. १९; १०.
पा०.२.३.२९-२५.] ॥ ` व्याकरणम्रहामाष्यम् ॥ ७५७
दक्षिणतो बाभस्य || एवं तद्यन्यतरस्यांमरहणसामभ्यौखश्चमी भविष्यति | अष्त्य-'
न्यदन्यतरस्यांपरहणस्य प्रयोजनम् । किम् [ यस्यां नापराप्नायां तृतीयारभ्यते सा यथा
स्यात् | कस्यां च नाप्राप्रायाम् | अन्ततः ष्याम्" |
तत्त वक्तव्यम् | न वक्तव्यम्| पक्ृतमनुवरैते | कर प्रकृतम् । भपादाने पन्च
मीति | ननु चोक्तमनधिकारः सः अधिकारे हि द्वितीयाषष्टीविषये प्रतिषेध इति |
एवै तर्हि संबन्धमनुवर्तिष्यते | अपादाने पष्चमी [२८] | भन्यारादितरर्तदिक्डा-
ष्दाजुत्तरपदाजादियुक्ते [२९ | पञ्चमी | षश्यतसथेपरस्ययेन [३ ० | भन्यारादिभिर्योगे
पञ्चमी । एनपा द्वितीया [३९ | अन्यारादिभिर्योगे पञ्चमी । पथग्विनानानाभिस्तृती-
यान्यतरस्याम् । पञ्चमीमरहणमनु वतेते ऽन्यारादिभिर्योग इति निवृत्तम् || अथव। म-
ण्डूकगत यो ऽधिकाराः । तद्यथा मण्डूका उल्ुत्योलछुत्य गच्छन्ति तद्वदधिकाराः ॥।
॥ 1,
10
अथवान्यवचनाचकाराकरणालकृतस्यापवादो विज्ञायते यथोत्सर्गेण प्रसक्तस्य | अ- `
न्यस्या विभक्तेर्वचनाचकारस्यानुकरषैणा्थस्याकरणाद्यकृता्याः पत्चम्या हिवीया-
षच वाधिके भविष्यतो यथोत्सर्भेण प्रसक्तस्यापवादो वाधको भवति || अथवा
वक्ष्यत्येतत् । अनुवतैन्ते च नाम विधयो न चानुषतैनादेव भवन्ति । किं ताहि ।
यलाद्वन्तीति! ||
दृरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च ।॥ २।३। २८५ ॥
दूरान्तिकार्थेभ्यः प्चमीविधाने तद्युक्तावन्चमीपतिषेधः ॥ ९ ॥
दुरान्तिका्ेभ्यः पञ्चमीविधाने तद्युक्तातपत्चम्याः‡ प्रतिषेधो वक्तव्यः । वुरा-
द्ामस्य || -
न वा तत्रापि दर्शनादप्रतिषेधः ॥ ९॥।
न वा | त्रापि ददोनात्य्चम्याः प्रतिषे पोऽनथेकः । तत्रापि प्र्चमी -दृदयते ।
दुरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम् ॥
` दाच भाव्यं स्ु-चो दूराच इुपिताुरोः॥ , .
~ + # २.३.५०. , ¶ ५.२.४१, ू १॥ २.३.३५.
98 भ
- 19
20
४९५८ ॥ श्याकरभमहाभाष्यम् ॥ | [म९२.३.२.
सप्तम्यधिकरणे च ॥ २।२३.।२६ ॥
सपमीविधाने क्तस्येन्विषयस्य कर्मेण्युपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
सप्रमीविधाने क्तस्येन्विषयस्य कमेण्युपसंख्यानं कर्तव्यम् | भषीती व्याकरणे |
परिगणिती याञ्चिक्ये । आन्नाती छन्दसि ||
5 साध्वसाधुप्रयोगे च ॥ ९॥
साध्वसाधुप्रयोगे च सप्तमी वक्तव्या | साधुर्देवदत्तो मातरि । असाधुः पितरि ॥
कारकाहाणां ष कारकत्वे ॥ ३ ॥
कारकादौणां च कारकत्वे सप्तमी वक्तव्या । ऋद्धेषु भुञ्जानेषु दरिद्रा भस-
ते । ब्राह्मणेषु तरत्सु वृषला आसते ॥
10 अकारकाहौणां चाकारकवे ॥ ४ ॥
अकारकार्हाणां चाकारकत्वे सप्तमी वक्तव्या | मूर्खष्वासीनेऽवृद्धा भुञ्जते ।
वृषलेष्वासीनेषु त्राह्मणास्तरन्ति ॥
तददिपयांसे च ॥ ५९ ॥
तद्िपयोसे च सप्तमी वक्तव्या | ऋद्धेष्वासीनेषु मूएवौ भुञ्जते | ब्राह्मणेष्वासी-
15 नेषु वुषलास्नरन्ति |
निभिसात्कमेसंयोगे ॥ ६ ॥
निमित्तात्करमसंयोगे सप्रमी वक्तव्या |
चमेणि ीषिनं हन्ति दन्तयोहन्ति कुश्जरम् ।
केदोषु चमरीं हन्ति सीन्नि पुष्करको हतः ||
90 यस्य च भवेन भावरुक्षणम् ॥ २।२।२.५७ ॥
भावलक्षणे सप्तमीविधाने ऽभावलक्षण उपसंख्यानम् ॥ १॥
भावलक्षणे सप्तमीविधाने भावलक्षण उपसंख्यानं करतव्यम् । अभिषु हूयमानेषु
पा० २.२.२६-४४,] ॥ व्याकरणप्रहाभाष्वम् ॥ ४७५९
प्रस्थितो हृतेष्वागतः । गोषु दुद्चमानाद्ध प्रस्थितो दुग्धास्वागतः | किं पुनः कारणं
न सिध्यति | रक्षणं हि नाम तद्भवति येन पुनः पुनलेशष्यते सकृथासौ कथंचिद-
भिषु हयमानेषु प्रस्थितो हुतेष्वागतो गोषु दुद्यमानाद्ध प्रस्थितो दुग्धास्वागतः ||
सिद्धं तु भावप्रवृच्चौ यस्य भावारम्भवचनात् ॥ २ ॥
सिद्धमेतत् | कथम् । यस्य भावप्रवृ्तौ हितीयो भाव आरभ्यते तत्र॒ सप्रमी
वक्तव्या | विष्यति | वजरं तर भिश्ते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं भाव-
लक्षणे सप्रमीविषाने ऽभावलक्षण उपसंख्यानमिति | वरैष दोषः | न खल्ववहयं
तदेव लक्षणं भवति येन पुनः पुनरुश्यते । सकृदपि यत्धिमित्तस्वाय कल्पते तदपि
लक्षणं भवति | तद्यथा । अपि भवान्कमण्डलुपाणि छ्लमद्राक्षीदिति । सकृदसौ
कमण्डलुपाणिद्टग्ण त्रस्तस्य तदेव लक्षणं भवति ॥ 10
॥ ~ 1
पञ्चमी विभक्ते ॥ २।३।४२॥
इह कस्माच्च भवति । कृष्णा गवां संपतक्षीरतमेति | विभक्त इत्युच्यते न
ैतहिभक्तम् | विभक्तभेतत् | गोभ्यः कृष्णा विभज्यते | विभक्तमेव यन्नित्यं तवर
भवितव्यं न ॒चैतत्निस्यं विभक्तम् | किं वक्तव्यमेतत् | न हि । कथमनुच्य-
मानं गंस्यते । विभक्त प्रहणसामथ्योत् | यदि हि यदिभक्तं चाविभक्तं च तत्र स्या- 15
हिभक्तमहणमनथेकं स्यात् ॥
साधुनिपुणाभ्यामचायां सप्तम्यप्रतेः ।। २।२. । ४२. ॥
अप्रत्यादिभिरिति वक्तव्यम् । इहापि यथा स्यात् | सायुर्दवदन्तो मातरं परि |
मातरमनु ॥
प्रसितोस्सुकराभ्यां तृतीया च ॥ २।२. । 9४ ॥ 20
प्रसित ह्युच्यते कः प्रसितो नाम | यस्तत्र निस्य प्रतिबद्धः कुत एतत् |
सिनोतिरयं बधाव्यर्थ वतैते | बद्ध इवासौ तत्र भवति ||
# ६.४, ९०,
४६० ॥ व्याकरनम्रहायाष्ययर ॥ [म० २.३.२.
नक्षत्रे च ङ्पि॥ २।२। ४५॥
इह कस्मान्न मवति | अद्य पुष्वः| अशथ मघा इति | अधिकरण” इति वर्तते ||
इति श्रीभगवत्पतञ्जञरिविरचिते व्याकरणमहामाष्ये हितीयस्याध्यायस्य तृतीये
पादे दितीयमादहिकम् |
* २.३. २३६.
धा० २.२.४५-४६. ] ॥ व्याकरणप्रहाभष्यय ॥ ४६९
।
परातिपदिकाथलिङ्खपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा ॥ २।२.। ४६ ॥
प्रातिपदिकग्रहणं किमथेम् । उचैः नीचैरित्यत्नापि यथा स्यात् । करं पुनरत्र प्रथ-
मया प्राथ्येते | पदत्वम्" । नैतदस्ति । षष्ठयात्र पदत्वं भविष्यति! || इदं तर्हि प्रयो-
जनम् | माम उचैस्ते स्वम् | माम उचैस्तव स्वम् | सपूवीयाः प्रथमाया विभषा
| ८.१.२६ | इत्येष विधियेथा स्यात् ॥ भथ लिङ्ग महणं किमथंम् । खी पुमान् $
नपुंसकमिस्यत्रापि यथा स्यात् | त्ैतदस्ति प्रयोजनम् । एष एवात्र प्रातिपदिकार्थः ||
इदं तर्द । कमारी वृक्षः कुण्डमिति ॥ अथ परिमाणमरहणं किमर्थम् । द्रोणः `
खारी आढकमि्यत्रापि यथा स्यात् || भथ वचनमरहणं किमथम् । इह समुदाये
वाक्यपरिसमाग्निषेदयते । तद्यथा | गगौः रातं दण्डयन्तामिति | अर्थिनथ राजनि
हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मिन्दुष्टान्ते यत्रैतानि समुदि- 10
तानि भवन्ति तत्रैव स्यात् | णः खारी भाढकमिति | इह न स्यात् । कुमारी
वृक्षः कुण्डमिति | त्ैतदस्ति प्रयोजनम् । प्रत्येकमपि वाक्यपरिसमामिदरयते |
तद्यथा | वृद्धिगुणसंज्ञे परव्येकं भवतः || इदं तरि प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकस्वादिषु प्रथमा
यथा स्यात् | एकः हौ बहव इति || अथ मात्रमहणं किमथेम् । एतन्मान्र एव
प्रथमा यथा स्यात्कमारिविशिष्टे मा भूदिति । कटं करोति | नैतदस्ति प्रयोजनम् । 15
कमोदिषु हितीयाद्या विभक्तयस्ताः कमोदिविशिष्टे वाधिका भविष्यन्ति || अथ-
वाचार्यभवृत्तिज्ापयति न कमीदिविशिष्टे प्रथमा भवतीति यदयं संबोधने प्रथमां
शास्ति‡ । तैतदत्ति ज्ञापकम् | अस्ति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम् |
सामन्तरितम् [ २.३.४८ | इति वक्ष्यामीति | यत्तर्दि योगविभागं करोति | इत-
रथा हि संबोधन आमन्त्ितमिस्येव न्यात् || इदं तदक्तेष्वप्येकस्वादिषु प्रथमा 20
यथा स्यात् | एकः दौ बहव हति | वचनग्रहणस्याप्येतसयोजनमुक्तम् । भन्य-
तरच्छक्यमकतुम् ||
भरातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमतरे प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य
उपसंख्यानमधिकत्वात् ॥ ९ ॥
प्रातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमान्रे प्रथमालक्षणे पदसामानाधभिकरण्य उपसं- 25
ख्यानं कर्तेव्थम् | वीरः पुरुषः | किं पुनः कारणं न सिध्यति । अधिकत्वात् |
#* ९,४.९४. † २.२.५०. ‡ २,१.४०.
४६० . ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यय ॥ [मण २.२.२.
नक्षत्रे च दपि ॥ २।२। ४५ ॥
इह कस्मान्न मवति । अद्य पुष्यः| अथ मघा इति | अधिकरण” इति वर्तते ||
इति श्रीभगवत्पतच्ञछिविरचिते व्याकरणमहामाप्ये द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीये
पादे द्वितीयमाह्निकम् ||
+ २.३, २६.
धा० २.२.४५-४६. ] ॥ व्याकरणपहामप्यिम् ॥ ४६९
परातिपदिकाथलिङ्खपरिमाणवचनमातरे प्रथमा ॥ २।३.। ७६ ॥
प्रातिपदिकम्रहणं किमथेम् । उच्चैः नीचैरित्यत्रापि यथा स्यात् । किं पुनरत्र प्रथ-
मया प्राथ्येते | पदस्वम्* | नैतदस्ति | षश्यात्र पदत्वं भविष्यति। || हदं तर्द प्रयो-
जनम् । भ्राम उचैस्ते स्वम् | साम उचचैस्तव स्वम् | सपूत्रीयाः प्रथमाया विमाषा
[ ८.१.२६ | इव्येष विधिर्यथा स्यात् ॥ भथ लिङ्ग परहणं किमर्थम् । खी पुमान् ४
नपुंसकमित्यत्र परि यथा स्यात् । तैतदस्ति प्रयोजनम् । एष एवात्र प्रातिपदिकाथेः ||
इदं तर्दि । कुमारी वृक्षः कुण्डमिति ॥ अथ परिमाणमहणं किमर्थम् | दोणः
खारी भआढकमिस्यत्रापि यथा स्यात् || भथ वचनमरहणं किमथेम् | इह समुदाये
वाक्यपरिसमाप्निदेरयते । तद्यथा | गगौः रातं दण्डयन्तामिति | अर्थिनश्च राजानो
हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मिन्दुष्टान्ते यत्रैतानि समुदि- 10
तानि भवन्ति तत्रैव स्यात् | णः खारी आढकमिति । इह न स्यात् | कुमारी
वृक्षः कुण्डमिति | नैतदस्ति प्रयोजनम् । प्रत्येकमपि वाक्यपरिसमापनिरदैदयते |
तद्यथा | वृद्धिगुणसंज्ञे प्रस्येकं भवतः || इदं तर्हि प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा
यथा स्यात् | एकः हौ बहव इति || अथ मात्रमरहणं किमथेम् | एतन्मान्न एव
प्रथमा यथा स्यात्कमारिविरिष्टे मा भूदिति | कटं करोति ॥ नैतदस्ति प्रयोजनम् | 15
कमोदिषु हितीयाद्या विभक्तयस्ताः कमोदिविरिष्टे बाधिका भविष्यन्ति || भथ-
वाचार्यभवृत्तिर्वापयति न कमीदिविरशिष्टे प्रथमा भवतीति यदयं संबोधने प्रथमां
शास्ति‡ । तैत्ति ज्ञापकम् | असि ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम् । किम्
सामन्तम् [ २.३.४८ | इति वक्ष्यामीति | यत्तर्हि योगविभागं करोति । इत-
रथा हि संबोधन आमन्तरितमित्येव ब्रुयात् || इदं तश्क्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा 20
यथा स्यात् | एकः डौ बहव इति | वचनमहणस्याप्येतखयोजनमुक्तम् । अन्य-
तरच्छक्यमकतुम् ||
भरातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमव्रे प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य
उपसंख्यानमधिकत्वात् ॥ ९ ॥
प्रातिपदिकाथेलिङ्गपरिमाणवचनमाने प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य उपसं- 25
ख्यानं कतेव्यम् | वीरः पुरूषः | किं पुनः कारणं न सिध्यति । अधिकत्वात् |
#* ९,४.९४. † २,३.५०. ‡ २.२.४०,
४६२ ॥ व्याकरनप्रहामाध्यम् ॥ [म०२.३.३.
व्यतिरिक्तः प्रातिपरिका्थ इति कृत्वा प्रथमा न प्राप्रोति । कथं व्यतिरिक्तः |
पुरषे वीरत्वम् ॥
न वा वाक्यथिस्वात् ॥ २॥
न वा वक्तत्यम् | किं कारणम् | वाक्यार्थत्वात् । यदत्राधिक्यै वाक्यायेः
४सः ||
कथवामिहिति प्रथमेस्येत्लक्षण करिष्यते |
अभिहितलक्षणायामनभिरिते प्रथमाविधिः ।। ३ ॥।
अभिदहितलक्षणायामनमिहिते प्रथमा विषेया | वृत्तः अक्षि इति ॥
उक्वा॥ ४ ॥
10 किमुक्तम्। अस्तिभैवन्तीपरः प्रथ मपुरषोऽपयुज्यमानोऽप्यस्तीति* । वृक्षः क्षः |
भस्तीति गम्यते |
अभिहितानभिहिते प्रयमाभावः ॥ ९॥
अभिहितानभिहिते प्रथमा प्रामोति । क | प्रासाद आस्ते | शयन भास्ते | सदि-
भस्ययेनामिहितमधिकरणमिति। कृस्ा प्रथमा प्रामोति || एवं तर्हि तिङ भानाधि-
15 करणे प्रथमेस्येवयक्षणं करिष्यते ।
तिङ्कुमानाधिकरण इति चेत्तिढोऽपयोगे प्रथमाविधिः ॥ & ॥
तिङ्कमानाधिकरण इति चे्तिङोऽयोगे प्रथमा विधेया । वृत्तः क्त इति ||
उक्तै पूर्वेण ॥ ७ ॥
किमुक्तम् । असितर्मवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽयुज्यमानोऽप्यस्तीति । वृक्षः अर्षः |
20 अस्तीति गम्यते ॥ |
दातृशानथोश्च निमित्भावासिक्छोऽभावस्तयोरपवादत्वात् ।॥ ८ ॥
इातृशानचोच निमित्तभावानिजोऽभावः |. क | पचत्योदनं देवदत्त इति | किं
कारणम् । तयोरपवादस्वात् । शतृशानचोः तिर्पवादौ तौ चात्र वाधकौ न काप-
@ द.,३, ९४, † ३.३. ६९. ‡ ३.२. ९२४.
पा० २.३.५०. ॥ व्याङरनप्रहाभाष्यय् ॥ ४६३
वादविषय उत्सर्गोऽमिनिविशाते | पूर्वै शयपवादा अभिनिविजशान्ते पथा दुत्सगीः ।
प्रकल्प्य वापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविरहाते | तच्च तावदत्र कशाचिसिडादेश्षो
भवत्यपवादौ तावच्छतृशानचैौ प्रतीक्षते || पाक्षिक एष रोषः । कतरस्मिन्यकषे ।
दातृशानचेो्ैतं भवति । शप्रथमा वा विधिनाश्रीयते प्रथमा वा प्रतिषेधेनेति |
विभक्तिनियमे चापि हैतं भवति | विभक्तिनियमो वा स्यादर्थनियमो वेति | तद्यदा 5
तावदथेनियमो पथमा च विधिनाश्रीयते तदैष दोषो भवति | यदा हि विभक्ति-
नियमो यथेवाप्रथमा विधिनाश्रीयते ऽथापि प्रथमा प्रतिषेधेन न तदा दोषो भवति |
षष्ठी रेषे ॥ २।२।५०॥
शोष इत्युध्यते कः शोषो नाम| कमोदिभ्यो येञ््येऽथौः ख शेषः | येवं
दोषो न प्रकल्पते | न हि कमोदिभ्यो ज््येऽथीः सन्ति | इह तावद्राञ्जः पुरुष इति 10
राजा कती पुरुषः संप्रदानम् । वृक्षस्य शाखेति वृक्षः शाखाया अधिकरणम् |
तथा यदेतर्स्वं नाम चतुर्भिरेतस्रकारैमैवति क्रयणादपहरणाद्याञ्चाया विनिमयादिति |
भत्र च सर्वत्र कमौदयः सन्ति ॥ एवं तर्हि कर्मादीनामविवक्षा शोषः | कथं पुनः
सतो नामाधिवक्षा स्यात् । सतोऽप्यविवक्षा भवति | तयथा | भलोमिकैडका |
भनुदरा कन्येति । भसत विवक्षा भवति | समुद्रः कुण्डिका | विन्ध्यो वर्धित- 15
कमिति ॥
किमे पुनः होषग्रहणम् ।
भत्ययावधारणाच्छेषवयनम् ॥ ९ ॥
परस्ययावधारणाच्छेषम्रहणं कतैष्यम् । प्रत्यया नियता भर्या अनियतास्तत्र षष्ठी
प्रामोति | तच्र दोषम्रहणं कर्तव्यं शद्टीनिय मार्थम् | शेष एव षष्टी भवति नान्य- 20
तेति ॥ |
अ्थावधारणाद्वा ॥ २ ॥
भथवाथौ नियताः प्रत्यया भनियतास्ते दोषेऽपि प्रापुवन्ति | तत्र शेषग्रहणं
कतेव्यं शेषनियमार्थम् । शेषे षष्ठधेव भवति नान्या इति || भथनियमे रोषप्रहणं
राक्यमकतुम् । कथम् । भथ नियताः प्रस्यया भनियताः । ततो वष््यामि षष्ठी 25
७६४. 1 व्याकरणवहापाष्यय् ॥ ` ` [भ९.२.३.२.
भवतीति | तन्नियमार्थे भविष्यति | यत्र षक्षी चान्या च प्रामोति षष्ठ्येव तन्न
भवतीति ||
घष्ठी हैष इति चेदिरोष्यस्य प्रतिषेधः ।। ३ ॥
धश्री देष इति चेदिशोष्यस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | रो्तः पुरुष हत्यत्र राजा
¢ विशिषणं पुरुषो विष्यः । तत्र प्रातिपदिकार्थो व्यतिरिक्तं इति कृत्वा प्रथमा"
न प्राप्रोति | तत्र षष्ठी स्यात्तस्याः प्रतिषेधो बक्तव्यः ॥
तत्र प्रथमाविधिः ॥ ४ ॥
तत्र षष्ठीं प्रतिषिध्य प्रथमा विषेया | राज्ञः पुरुष इति ॥
उक्तं पूर्वेण ॥ ९॥
10 क्ेमुक्तम् | न वा वाक्याथेत्वादिति। | यदत्राधिक्यं वाक्याथैः सः | कुतो
नु खल्येतस्पुरुषे यदाभिक्यं स वाक्याथ इति न पुना राजनि यदापिक्य॑स
वाक्यायेः स्यात् । भन्तरेणापि पुरुषशब्दप्रयोगं राजनि सोर्थो गम्यते न पुन-
रन्तरेण राजशाब्दप्रयोगं पुरुषे सोऽर्थ गम्यते | अस्ति कारणं येनैतदेवं भवति |
किं कारणम् । राजशष्दादधि मव्रान्पक्षीमु्ारयति । अङ्ग हि भवान्पुरुषराब्दा -
15 दप्यु्ारयतु गंस्यते सोऽथैः |¦ ननु च तरैतेनैवं भवितव्यम् | न हि शष्दङृतेन
नामार्थेन भवितव्यम् । अथेङृतेन नाम राब्देन भवितव्यम् । तदेतदेवं दृदयतामर्थ -
रूपमेवेतदेवंजातीयकं येनालान्तरेणापि पुरषशब्दप्रयोगं राजनि सोऽर्थो गम्यते |
कि पुनस्तत् | स्वामित्वम् । किंकृतै पुनस्तत् । स्वकृतम् । तद्यथा । प्रतिपदिका-
थानां क्रियाकृता विशेषा उपजायन्ते तत्कृताथाख्याः प्रादुर्भवन्ति क्म करण-
20 मपादानं संप्ररानमधिकरणमिति । ताश पन्धिभक्तीनामुत्पततौ क दाचिन्निमित्तत्वेनो-
पादी यन्ते कदाचिन्न | कदा च विभक्तीनामुखन्तौ निमित्तत्वेनोपादीयन्ते | यदा
व्यभिचरन्ति प्रातिपदिकाथेम् | यदा हिन व्यभिचरन्त्याख्याभूता-एव तदा भव-
न्ति क्म करणमपादानं सं्रदानमधिकरणमिति || यथैव तर्द राजनि स्वकृतं
स्वामित्वं तत्र. ष्येवं पुरुषेऽपि स्वामिकृतं स्वत्वं तत्र षष्ठी प्रामोति । राजङाब्दा-
25 दुत्पश्चमानया षश्याभिहितः सोऽथे इति कृत्वा ` पुरुषशचब्दात्व्ठी न भविभ्यति || न
तर्शदानीमिदं भवति, पुरुषस्य राजेति । भवति रा्रराब्दा्त तदा प्रथमा ।| न तर्ी-
दानीमिदं भवति राज्ञः पुरुषस्येति । भवति बाद्यमथेममिसमीक्ष्य ॥।
# २.२३. ४६ , ` † २.१. ४६१
पा० २.३.५३ -५४.| ॥ व्याकरगप्रहाभाष्यय् ॥ ४६५
अधीगथदयेरां. कमणि ॥ २ ।२। ५२ ॥
क्मादिष्वकमंकवदइवनम् ॥ ९ ॥
कभादिष्वकंमेकवद्धावो वक्तव्यः | किं प्रयोजनम् | अकर्मकाणां भवे जो
भवतीति* भावे लो यथा स्यात् | मातुः स्मर्यते । पितुः स्मर्यते || अथ वत्करणं
किमर्थम् । स्वाभ्रयमपि यथा स्यात् | माता स्मयते | विता स्मर्यत हति" || 5
कमोभिधाने हि लिङ्गवचनानुपपत्तिः | २॥
कमौभिषनि हि सति लिङ्गव चनयोरनुषप्तिः स्यात् । मातुः स्मृतम् । मात्रोः
स्मृतम् । मातृणां स्मृतमिति । मातुयेि ङ्गं वचनं च तर्स्मृतञ्षब्दस्यावि प्रामोति ॥
षष्ठीप्रसङ्गश्व ॥ ३ ॥
षधी च प्राभरोति | कुतः । स्मृनशश्दात् | मतुः सामानाधिकरण्यास्ष्षी 10
परामोति ॥ | |
अपर आह | षष्ठीप्रसङ्गथ । षष्ठी च प्रसङ्ष्या । कुतः | मातृ शब्दात् । स्मृत-
शब्देनाभिहितं कर्मेति कृत्वा षष्ठी न प्रापोति ॥
त्तरं वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् । अविवकिते कर्मणि ष्ठी भवति । कि वक्त-
व्यभेतत् । न हि । कथमनुष्यमानं गंस्यते | होष† इति वर्तते | होषध कः | 1४
कमोदीनामविवल्ता शोषः | यदा कमे विवक्षितं भवति तदा षी न भवति |
वथथा । स्मराम्यहं मातरम् । स्मरास्यहं पितरमिति ॥
रजाथानां भाववचनानामज्वरेः ॥ २।२।५४ ॥
भज्वरिसंताप्योरिति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । चौरं संतापयति |
शुषे संतापयति ॥ भय किमथे भाववचनानामिस्युस्यते यावता रुजाथौ भाव- 20
वचना एव भवन्ति | भावकर्वृकाथथा स्यात् । इह मा भूत् | नदी कूलानि,
रुजतीति |
9 ३.४.६२, † २,२०५०.
99 ॐ
, \ > ॥ न्काकरनकहाभाच्यय् ॥ ` | [म ०३.३.३.
. द्वितीया ब्राह्मणे ॥ २।.२३।४० ॥
किमुदाहरणम् } गँ घ्रन्ति गां प्रदीष्यन्ति गां सभासश्य उपहरन्ति | तैतदस्ति ।
पर्वेणाप्येतस्सिद्धम् ॥ .इदं तर्दि । गामस्य तदहः समायां दीव्येयुः ॥
। ्र््गोहिषो देवतासंप्रदाने ॥ २।२ । ६९ । ।
5 . . हविषो प्रस्थितस्य ॥ ९ ॥
हविषो ऽप्रस्थितस्वेति यक्व्यम् । इन्द्राभिभ्यां शग हविवेषां मेदः प्रस्थितं
प्रेष्य ॥
चतुथ्यंथं बहुलं छन्दसि ॥ २।२३.। ६२ ॥
वष्टघर्थे ` चतुर्थीवचमेम् । ९ ॥
10 व्यथं अतुर्थी वक्कव्वा | या खर्वेण पिबति तस्थै खर्वसिखो रात्रीः । तस्या
हति भाप । यस्ततो जायते सोऽभिशस्तो यामरण्ये तस्थै स्तेनो यां पराचीं तस्यै
्तमुद््यपगल्भो या लाति तस्या अण्ड मारुको याभ्यङ्के तस्थै दुमा यो ` ्रलि-
ते बस्मै खलतिरपमारी याङ्के तस्यै काणो या दतो 'धाधते तस्तै इवावदम्या
गखानि निङृन्तते तस्थै कुनखी या कृणत्ति तस्थै क्वीवो या र्सु सृजति तस्वा
1; उद्न्धुको या पर्णेन पिबति तस्या उन्मादुको जायते । भडल्यात्ै जार | मनाश्यै
तन्तुः || लता वक्तव्यम् | न॒ वक्तव्यम् | योगविभागास्तिडम् । चतुर्थी ।
ततो अय बहलं छन्दसीति ॥
कतृकमेणोः कृति ॥ २ ।२.। ६५९ ॥
कृङहणं किमर्थम् । इद मा भुत् | पचत्योदनं देवदत इति ।
= भ
# २, ३, ५९
कौ० २,३.६०-६५| ॥ स्वाकरणमेराभाष्व् ॥ ॥।॥
करवैकर्मणोः बष्ठीविधाने कृद्रहणानर्थक्यं परतिषेधात् ॥ ९ ॥
करतृकमेणोः ष्ठीविधाने ईद्रहणमनथंकम् । किं कारणम् । प्रतिषेधात् ।
प्रतिषिध्यते तत्र षष्ठी ठप्रयोगे नेति ||
तस्य कर्मकरे तर्हिं कृद्रहणं कतैव्यम् | कतो ये कर्तृकर्मणी तत्र॒ यथा
स्यादन्यस्य ये कर्तृकमेणी तत्र मा भूरिति | नैतदस्ति प्रयोजनम् । धातोर्हिं इथे £
मस्यया विधीयन्ते तिङ कृतथ | तत्र कृखयोग इष्यते तिङ्योगे प्रतिषिध्यते ||
न ब्रूम हहा तस्व कर्मकैथे कद्रहणं कतैव्यमिति । कि तर्द । उत्तरार्थम् |
भष्ययप्रयोगे नेति पश्याः प्रतिषेधं वक्ष्यति स कृतो ऽव्ययस्य ये कतकमेणी तत्र
यथा स्यादकृतो ऽ्ययस्य ये कतक्मैणी तत्र मा भूदिति | उश्चैः कटानां लेति ।
तस्य कमंकर््रै्थमिति चेत्पतिषेभेऽपि तदन्तकर्मकर्तैस्वास्सिद्धम् । ९ ।| 10
कृत एते कर्तृकमेणी नाव्ययस्य | भधिकरणमत्राव्ययम् ॥
इदं तर्हि भरयोजनम् | उभयप्राप्री कर्मणि पषठधाः प्रतिषेधं वश्यति। ख हृतौ
ये कतृकर्मैेणी तन्न यथा स्याक्कृतोर्ये करतकर्मणी तत्र मा भूदिति । आधर्यैमिदं
वृत्तमोदनस्य च नाम पाको ब्राह्मणानां च प्रादुभोव हति | भय क्रियमाणे अपि
कृद्हणे कस्मादेवात्र न भवति । उभयप्राप्रातिति वैवं विजायत उभयोः प्राप्निसभय- 15
्रात्निः उभयपराप्राविति | कथं तर्द | उभयोः . परापरिर्यस्मिन्कृति सोऽयमुभयमामिः
कृत् उमयपराप्ताविति ॥| |
अथवा कृतो येः कतृकमेणी. तत्र यथा स्या्तदधितस्य ये . कवैकमेणी- तत्र मां
भूदिति । कृतपूर्वी कटम् । भुक्छपूर्व्योदनमिति{ ॥ ननु च वाक्येत्ैत्रानेन न भवि-
तव्यम् । हितीयवा तावच्च भवितव्यम् | किं कारणम् । क्तेनामिहितं कर्मेति 2
कृत्वा | हनिप्ररययेन चापि नोस्पन्तव्यम् । किं कारणम् | भसामथ्यौत् | कथमतसाम-
थ्येम् । सापिक्षमसमथे भवतीति ।| क्ताषदुस्मते दिती यया तावच्च भवितव्यम् किं
कारणम् केनाभिहितं कर्मेति कृत्वेति । योऽतौ कतकटयोरभिसंबम्धः स उत्पन्न
भरस्थवे निवतैते । भस्ति च करोतेः कटेन सामभ्यैमिति कस्वा हितीया भरिष्यति |
थरप्युष्वत हनिपरत्ययेन चापि नोस्पन्तव्यम् किं कारणम् असामर्ध्यात् कथमसाम- ४
थ्यैम् सापक्षमसमयै भवतीति | नेदमुभयं युगपञ्जवति वाक्यं च प्रस्ययथ | बदा
जाक्वं न तदा परस्ययः | बद भस्ययः सामान्येन तंदा बुिस्तंज्रावरयं विश्ेषार्थिया
+ वो =
# २.३. ६९ † २.१. ६६ { ५.२. ८५
७६९ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ` -[म०२.३.३.
विरोषोलुप्रयोक्तव्यः | कृतपूर्वी । कम् । कटम् । भुक्त पूर्वी । किम् । भदन-
मिति ॥ `
अथवेदं प्रयोजनं कर्तभूतपर्वेमात्रादपि षष्ठी यथा स्यात् । भेदिका" देवदत्तस्व
यज्ञदत्तस्य काष्ठानामिति ॥
५ उभयप्राप्तौ कमणि ॥ २,। २. । ६६ ॥
उभया कर्मणि षष्ठयाः प्रतिषेधे ऽकादि पयोगे ऽपतिषेधः ॥ ९ ॥
उभयप्राप्तौ कर्मणि षष्याः प्रतिषेधे ऽकादिप्रयोगे प्रतिषेषो न भवतीति वक्त
ध्वम् | भेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम् । विकीषो विष्णुमित्रस्य कटस्य ||
कपर आष । अकाकारयोः प्रयोगे प्रतिषेधो नेति वक्तव्यं शोषे विभाषा ।
10 शोभना खलु पाणिनेः दज्रस्य कृतिः | शोभना खलु पाणिनिना त्रस्य कृतिः ।
शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः | शोभना खलु राक्षायणेन संभ
हस्य कृतिरिति ॥
त्तस्य च वतमाने ॥ २।२. । ६.७ ॥
क्तस्य च वतेभाने नपुंसके भाव उपसंख्यानम् ॥ ९. ॥
15 क्तस्य च यतेमाने नपुंसके भाव उपसंख्यानं कर्तव्यम् | शज्नत्य हसितम् |
. नटस्य भुक्तम् । मयूरस्य नृत्तम् । कोकिलस्य ध्याहतमिति ॥
रोषविज्ञानास्सिडम् ॥ २ ॥
शोश्लक्षणात्र षष्ठी ‡ भषिष्यति । हेष हद्युष्यते कथ शोषः | कमीदीनामविवक्षा
दोषः | कथं पुनः सतो नामाविवल्ता स्याद्यदा शन्नो हसति नटो भुङ्ख मुरो
0 नृत्यति कोकिलो भ्यादरति । सतोऽप्यविवक्षा भवति | तद्यथा । अलेोमिकैडका |
अनुदरा कन्येति । भसतच विषक्ता | समुद्रः कुण्डिका । विन्ध्यो वर्पितकमिति ॥!
यथेवमुलरत्र चातुःशान्दं प्रामोति । इदमहेः सृप्तम् । इदाहिना सृतम् । इदहाहिः
सृप्र: । इहादेः सूपं मामस्य पार्थे मामस्व मध्व इति । इष्यत एव चातुः ग्यम् ॥
[4
= ३.३.९९९. † ६.१.९९४. {२.१.५० §२.१.९८. ¶ृ २.५.०६.
षा° २.६.६१ -९९.] ॥ व्याकरगपरद्यभाच्यन ॥ ४.६९,
न कोकाव्ययनिष्ठाखल्यैतृनाम् ॥ २ ।२ । 8९, ॥
` लादेदो सदिङ्हणं किकिनोः प्रतिषेधार्थम् ॥ ९ ॥
` लादेशे सलिङ्हणे कैष्वम् । सक्तिटोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम् । किं प्रयोज- .
नम् | किकिनोः प्रतिषेधार्थम् | किकिनोरपि प्रयोगे प्रतिषेष यथा स्यात् | पपिः
सोम॑ दरिगौः || किं पूनः कारणं न सिध्यति । 5
तयोरकदिशस्वात् ॥ २ ॥
नहि तौ लादेकौ || अथ ती रादेदी स्यातां स्यात्मतिषेधः | वाढं स्यात् |
लादेक्लौ तरि भविष्यतः । तत्कथम् । आ दृगमहनजनः किक्किग लिट [३.२.९७९]
इति लिङ्कदिति वक्यामि । स वर्हि वतिनिर्देशः कर्तव्यो न शन्तरेग वतिमतिदेशो
गम्यते | अन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते | वथथा | एष ब्रह्मरस्तः | अब्रह्म 10
दत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति । एवमिशष्यकिरं लि-
डिस्याह लि ङदिति विज्ञास्यते ||
डकारप्रयोगे नेति वक्तव्यम् । कट चिकीर्षुः । ओदनं बुमुलुः | त्ता ष-
तव्यम् | न वक्तव्यम् | डकारोऽप्यत्र निर्दिदयते । कथम् । प्रिष्टनिर्देशोऽयम् |
ख उक ऊक ल ऊक लोकेति ॥ 15
उकमरतिषेधे कमेभाषायामपरतिषेधः ॥ ३ ॥
उकमरतिवेषे कमेर्माषायां प्रतिषेधो न भवतीति वक्तव्यम् । दास्याः कामुकः |
वृषल्याः कामुकः || ।
| अबष्ययपतिषेधे तोसुन्कसुमोरमतिषेधः ॥ ४ ॥
अष्ययप्रतिषेषे तोद्धन्कद्धनोः प्रतिषेधो न भवतीति वक्तव्यम् | पुरा वर्यस्योदे- 20
तोराधेयः । पुरा वत्सानामपाकर्तोः | पुरा क्रूरस्य विसृपो विरण्डिन् ||
` ` शानंश्वानरदातृणामुपसंस्यानम् ॥ ९ ॥
शानथानरदातृणामुपसंख्यानं कर्वेव्यम् । सोमं पवमानः । नडमान्नानः ¡ भ- `
धीयन्पारायणम् । लप्रयोगे नेति प्रतिषेधो न प्राभोति | मा भूदेवं तनिस्येवं भवि-
# ६.२. ९१.८-९६६०. `
, ॥''ध्यादरनयहाभाच्यय ॥ ` ` [१०२३३
भ्वति | कर्थेम् | तृनिति नेदं परस्यंयपदणम् । कं ताह । भरत्याहारप्रहणम् | क
संनिविष्टानां प्रस्याहारः 1 लटः शाजिस्यतः भरमृस्या वृनो नकारात्” 1 ` वदि भरस्था-
हार्हणं चौरस्य द्विषन् वृषस्य (हिषन् अतापि प्रामोति† । |
| | दविषः दातुवावयमम् || ६ ॥ |
5 ` हिषः हातुर्येति वक्तव्यम् | तथ्चावदयै वक्ष्य प्रत्ववमहणे सति परतिकेषावेम् |
सदेव प्रस्याहार प्रहणे सति विध्यथे भविष्वति ॥
अकेनोभैविष्यदाधमर्ण्ययोः ॥ २।२ 1७9० ॥
अकस्य भविष्यति ॥ ९ ॥।
अकस्य भविष्यतीति वच्छव्यम् | यर्वाँद्यावको त्र जति । ओदनं भोजको व्रजति |
10 सच्छून्पायको व्रजतिः |
इन आधमर्ण्ये च ॥ २॥
तत हन आधमर्ण्ये च भविष्यति चेति बच्छव्यम् । शातं दाची । सदलं शायीऽ।
भामं ममी ॥
कृत्यानां कतरि वा ॥ २ । २३. । ७१ ॥
15 कतम्रहणं किमर्थम् | कर्मणि मा भूरिति । त्रैतदस्ति प्रयोजनम् । भावकर्मणोः
कृस्या विधीयन्ते** तत्र कृत्यैरभिहितस्वात्कर्मणि ष्ठी न भविष्वति ॥ अत उत्तर
पठति |
भव्यादीनां कर्मणोऽनभिधानास्कृस्यानां कतग्रहणम् ॥ ९ ॥
भव्यादीनां।1† कम कत्यैरनभिहितम् । गेयो माणवकः सान्नाम् | मध्वादीनां
20 कसेणो नभिधानास्कृस्यानां कतम्रहणं क्रियते || किमुख्यते मन्वादीनां कमे कस्मै
रनभिहितमिति । नेहाप्यनमिहितं भवति | आक्रषटव्या मामं दाखेति | एवं तह
१ ३.२. ६२४-१६५. † ३.३.६३६. { ३.३.९०. § ३.३.६५०. ¶ २.३.६.
9 ह.४. %%, + †† र. ४.८
पार २.६.७०-०१. |] + व्याकरनयमहममाप्वम् ॥ ७,७.
योगविभागः करिष्यते । कृस्यानां प्रयोगे बक्षी न भवकीति-। किमुदाहरणम् |
माममाक्रव्या हाला । वतः कतरि वेति ॥| इहापि तर्हि भ्रामोति | गेयो माणक्कः
सान्नाभिति । उभवपराप्नाविति बतेते } ननु चोभयप्राप्निरेषा | गेयो माणवकः
साघ्नामिति च गेयानि. माणवकेन सामानीति च भवति | उभयपाभिनीम खा भवति
यन्रोभयस्व युगपत्मसङ्गोऽत्र च यदा कर्मणि नं तदा कतैरि यदा करतैरि न तदा 5
कर्मणीति ॥ ॑
इति आओमगवस्यतश्जलिविरथिते ्याकरणमहामाप्ये दितीयस्याध्याथस्य तीये .
पादे त॒तीयमाह्धिकरम् ॥ पादथ चमार ॥
* २, ३. ६६,
द्विगुरेकवचनम् ॥ २। ७।२.॥
किभयेमिदमुच्यते |
परत्याधिकरणं वचनोत्पनेः संख्यासामानाधिकरण्याथ दिगीरेकवचनवि-
धानम् | ९ ॥ |
5 प्रत्यधिकरणं षचनोत्प्तिभेवति । किमिदं प्रस्यधिकरणामिति | भषिकरणम-
धिकरण प्रति भस्यधिकरणम् । संख्यासामानाधिकरण्या्च | संख्यया बहयथेया
चास्य सामानाधिकरण्यम् | प्रत्यधिकरणं वचनोस्पत्तेः संख्यासामानधिकरण्वा्च
बहुषु बहुवचनम् [ ९,४.२९ | इति बहुवचनं प्राभोति । इष्यते चैकवचनं स्वादिति
तच्चान्तरेण यलं न सिध्यतीति द्िगोरेकवचनविधानम् | एवमथमिदमुष्यते || अस्ति
10 प्रयोजनमेतत् । किं तर्हीति ।
तत्रानुप्रयोगस्यैकवथनाभावोऽ्िगुस्वात् ॥ २॥
ततरानुप्रयोगस्थैकवचनं न प्राभोति | पत्चपूलीयमिति । किं कारणम् । भदि-
गुस्वात् । डिगोरेकवचनाभिर्युच्यते न चात्रानुप्रयोगो हिगुसंश्ः ॥
सिद्धं तु दिग्वर्थस्यैकवदहथनात् ।। ३ ॥
15 सिङमेतत् । कथम् | हिग्व्ं एकवद्वतीति वक्तव्यम् || ततां वक्तव्यम् ।
न वक्तव्यम् । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य गहणम् । किं तर्हि । अन्वथेम्रहणम् ।
उच्यते वचनम् एकस्याथेस्य वचनमेकवचनमिति ॥
एकथेषपरतिषेधश्च ।। ४ ॥
एकरोषस्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः | पपी च पञ्चपूली च पञ्पुली च
20 पन्वपुल्यः ॥
न वान्यस्थानेकस्वात् ॥ ५ ॥
न वा बक्तव्यः | कविं कारणम् | अन्यस्यानेकस्वात् | वरैतद्िगोरमेकत्वम् ।
कस्य तरि | दिग्वयसमुदायस्व | ।
पा० २,४.९२ .| ॥ व्याकरणयहा्भाष्यम् ॥ [ ४.७१
समाहारग्रहणं च तदधितार्थप्रतिषेधार्थम् ॥ ६ ॥
समाहारमहणं च कर्तैष्यम् | किं प्रयोजनम् । तदधिताथेप्रतिषेधाथम् | तदितार्थ
यो हिगुस्तस्व मा भूदिति । पश्बकपाठी पञ्चकपाला हति" ॥ किं पुनरयं पञ्च-
कपालशम्दः प्रस्थेकं परिसमाप्यत भमहोस्वित्छमुदाये वतेते । किं धातः |. यदि
तावलस्थेकं परिसमाप्यते पुरस्तादेव चोदितं परिहतं च । अथ समुदाये वतेते । &
न वा समाहारैकस्वात् ॥ ७ ॥
न तैतत्समाहारै कस्मादपि सिध्यति | एवं तर्हिं भस्येक्ं प्रिषमाप्वते | पुरस्ता-
देव चोदितं परितं च ॥ |
अपर आह | न वा समाहारैकल्वात् | न वा योगारम्भेभैवायेः | किं कारणम् ।
समादारैकत्वात् । एकोऽवमर्थः समाहारो नाम तस्मैकस्वादेकवचनं भविभ्वति | 10.
दन्द्रश्च प्राणितूयेसेनाङ्गानाम् ॥ २।४७।२॥.
प्राणिसू्यसेनाद्भानां तव्परवैपदोलरपदग्रहणम् ॥ ९ ॥
प्राणितूयैसेनाङ्गानां तदपूवेपदोत्तरपदहणं कतैव्यम् । प्राण्यङ्गानां पराण्वद्गैरिति
वक्तव्यम् । तुवाङ्गमां तु्याद्धैः | सेनाङ्गानां सेमाङ्गैरिति । किं प्रयोजनम् | ध्य-
तिकरो मा भूरिति ॥ तत्तर्हि बक्तव्वम् । न वक्तब्बम् । ` 1४
योगविभागास्सिदडम् ॥ २॥ .
योगविभागः करिष्यते | इन्द प्राण्यङ्गानाम् । ततस्तुवोङ्गानाम् । ततः सेना-
ङ्गानामिति ॥ स तर्द योगविभागः कर्तव्यः | न कर्तव्यः | परस्येकमङ्गशम्दः
परिलमाप्यते ॥ `
अनुबाद चरणागम् ॥ २।४७।२॥
इद कस्मान्न भवति | नन्दन्तु कठकालापाः । वर्षन्तं कठकौशुमाः ।
@ ४.२, ९६; ४.९. ८८,
60 ०
| + , 1 ॥ ष्वाकरभेबहाभाष्यमः ॥ | [भट २.४.१९.
स्थेणोः ॥ ९ ॥
स्येणोरिति व्कव्यम् | एवमपि तिष्ठन्तु कठकालापा इस्यत्रापि प्रामोति।
अवतन्यां च | > ॥
भद्यतन्यां चेति वक्तध्वम् | उदगास्कटकालापम् | भत्वष्ठास्कठ कौयुमम् |
5 उदनान्मौ दवैत्पलादम् ॥ |
विशिष्टलिङखो नदी देखो ऽअामाः ॥ २ । ४ । ७ ॥
ग्रामप्रतिषेधे नगरप्रतिषेधः | ९ ॥
भच्रामा इच्यत्रानम णामिति वक्तव्यम् [ इह मा भूत् | मथुराफटनिपुत्रमिति॥
उभयतश्च ्रामाणाम् ॥ २॥
10 उभयत भ्रामाणां प्रतिषेषो वक्तव्यः | इह मा भूत् | शौय च केतवता च
शलौयकेतवते । जाम्बवं च शालुकिनी च जीम्बवशादुकिन्यौ ॥
क्षुद्रजन्तवः ॥ २ ।४।८॥
्रजन्तव इत्युच्यते के पुनः सुद्र जन्तवः | कोत्या जन्तवः | वेवं युकाति-
क्षम् कीढपिपीलिकमिति न लिष्यति || एवं तथ्ेनस्थिकाः स्ु्रजन्तवः | भथवा
15 येषां स्वं शोणिवं नास्ति ते शुद्रजन्तवः । अथवा येषामा सहस्रादश्ञलिने पु्ैते ते
कषग्रजन्तवः | भथवा वेषां गोचमेमात्रं रारि हत्वा न पतितो भवति ते सषद्रजन्तवः |
कथवा नकुलपर्यन्ताः षुद्रजन्तवः ॥
येषां च विरोधः शाश्वतिकः ॥ २ ।9।९॥
किमर्धधकारः | एवकोरा्थैथकारः | वेषां विरोधः क्ाशतिकस्तेषां शन्ड एक-
90 वचनमेव यथा स्याद्यदन्यस्मामोति तन्मा भूदिति | किं चान्यत्मरामोति । पश्शकु-
निन्दे धिरोधिनां पूवैविप्रतिषिद्धामिस्वु्तं * ख पुवेविप्रतिपेधो न वक्ष्यो भवेति ॥
क द,४. ९३२४,
एण ३.४.७१२] ॥ स्प्राकर्गमदाभाष्यवम् \. ४७५
शद्राणामनिरवसितानाम् ॥ २, । ४ । १.० ॥
भनिरवसितानामिस्युच्यते कुतो अनिरवसितानाम् | आयोषतौ वनिर वसितानाम् ।
कः पुनरार्यावतैः | प्रागादौ सपस्यक्षालकवनाइक्षिणेन हिमवन्तमुन्तरेण पारियात्रम् |
यथेवं किष्किस्धगन्दिकम् इकयवनम् शसौयेक्रौज्चमिति न सिध्यति ॥ एवं तद्योयै-
निवाच्ादनिरवसितानाम् । कः पुनरायेनिवासः | मामो षोषो नगरं संवाह इति | $
एव्रमपि य एते महान्तः संस्त्यायास्तेष्वभ्यन्तराशण्डाला मृतपाथ धसन्ति तत्र चण्डा-
लमवपा इति न सिध्यति || एवं तर्द याज्ञात्कमेणो अनिरवसितानाम् | एवमपि त-
क्षायस्कारम् रजकतन्तुवायमिति न सिध्यति || एवं तर्हि पात्रादनिरवसितानाम् ।
चेर्मुक्ते पाश्रं संस्कारेण शयुभ्यति तेऽनिरवसिताः । येभुक्ते पा्चं॑संस्कारेणापि न
छयुध्यति ते निरवसिताः ॥ 10
गवाश्वप्रभृतीनि च ॥ २।४।११ ॥
गवाश्वप्रभृतिषु यथोचारितं इन्द्रवृलम् ॥ ९ ॥
गवाशचप्रमृतिषु यथोधारितं शन्दवृक्त दव्यम् । गवाश्वम् गवाविकम् गवैड-
कम् ॥|
विभाषा वृषमगतृणधान्यव्यश्ञनपरुकून्य व डवपूवीपराधरोत्त-
राणाम् ॥ २।४।१२॥
बहुप्रकृतिः फलतसेनावनस्यतिमृगग्राङुन्तष्चुद्रजन्तुधान्यतृणानाम् ॥ ९ ॥
फलसेनावनस्पतिमृग्चकुन्तकषुद्रजन्तुधान्यतृणानां इन्दो विभाषैकवडषति बह-
प्रकृतिरिति व्यम् | फल | बदरामलकम् बदरामलकानि । सेना । हइस्त्यश्म्
हस्त्यश्वाः | वनस्वति | अरक्षन्यम्रोधम् रक्षन्य मोधाः । मृग | रुदप्रषतम् ररप्रषताः | 20
चकुन्त | शसचक्रवाकम् हंसचक्रवाकाः । क्षद्रजन्तु । युकालिक्षम् युकारिक्षाः |
धान्य | त्रीहियवम् व्रीहियवाः | माषतिलम् माषतिक्ताः । तृण । कुशकाशम्
४७६ ॥ व्याकरणमद्ाभाष्यम् ॥ [म०९४.९. ,.
कुदाकाशाः । शारशीर्यम् शरश्षीयौः| किं प्रयोजनम् । बहृप्रकृतिरेव यस्तत्र यथा
स्यात् । क मा भूत् | बदरामलके तिष्ठतः || किं पुनरनेन या प्राप्निः सा नियम्यत
भाहोस्विदविशेषेण | किं चातः | यद्यनेन या प्रात्निः सा नियम्यते अक्षन्यमोततौ
जातिरप्राणिनाम् [२.४.६] इति नित्यो इन्दैकषद्धावः प्रामोति | अथाचिरोषेण
५ न दोषो भवति | यथा न दोषस्तथास्तु ||
पशुदाकुनिदन्दे विरीभिनां पूवंविप्रतिषिदम् ॥ २ ॥
पश्युशकुनिन्दडे येषां च विरोधः शाथतिकः [२.४.९| इत्येतद्वति पूर्वविष-
तिषेषेन । पद्यु्यकुनिशन्दस्यावकाशः | महाजोरभम् महाजौोरभाः | हंसचक्रवा-
कम् हंसचक्रश्राकाः । येषां च विरोध हस्यस्यावकाहाः । श्रमणत्राह्मणम् । इदौ-
10 भयं प्रामोति | काकोलूकम् श्वशुगारंमिति । येषां च विरोध इल्येतङवति पूर्वविप्र-
तिषेधेन || ख तर्हि पूवैविप्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः । उक्तं तत्र चकारकर-
णस्य प्रयो जनं येषां च विरोधः शोश्वतिकस्तेषां शन् एकवचनमेव यथा स्याशद-
न्यस्माभोति तन्मा भुरिति* ॥ |
अश्ववडवयोः पूर्वलिङ्गस्वात्पशुदन्दनपुंसकम् ।। ३ ॥
15 शश्ववडववोः पुवैलिङ्गत्वास्पशयुन्छमपुंसकं भवति पुवैविप्रतिषेषेन1† । अश्व-
वयोः पूवेलिङ्गस्वस्यावकाशः | विभाषा पशयुदन्दनपुंसके यदा न पयुहन्हनपुंसकं
सोऽवकाशः । शश्चवडवौ | पशुहन्डनपंसकस्यावकाशः | भन्ये पद्युदन्डाः । म-
हाजोरभम् महाजोरनाः । पद्युदन्दनपुंसकप्रसङ्ग उभयं प्रभोति । अश्ववडवम् ।
पद्युन्ड नपुंसकं भवति पुवेविप्रतिषेधेन || स तर्हिं पुवैविप्रतिषेषो वक्तव्यः | न
20 वक्तव्यः |
भरतिपदविधामास्सिंशम् ॥ ४॥
परतिपदमत्र नपुंसकं विधीयते । अश्चवडवपूवापरेति॥
एकवचनमन्थकं समाहरिकत्वात् । ५९ ॥
एकवद्भावो न्थकः | किं कारणम् । समाहारैकस्वात् । एकोऽयम्थः समा-
95 हारो नाम तस्थैकत्वादेकव चनं भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम् | रतज्जास्वामीष
निस्यो विधिरिह विभाषेति । वैतदस्ति प्रयोजनम् । भाचार्यपरवृत्तिर्शापवति सर्वो
# २.४. ९१, - † २.४, २७; ६७,
पा० ९.४.६६-९९.] ॥ व्वाकरनयपहानाच्यय् ॥। ध.
इनो गिमावैकवदवतीति यदयं तिष्यपुनर्वस्वोर्मकषत्रहन्दे बहुवचनस्य दवचनं नि-
स्वम् [ १.२.६१ ] इस्याह | इदं तर्हिं परमोजनम् । ख नपुंसकम् [ २.४.१७ | इति
वक्ष्यामीति । एतदपि नास्ति प्रयोजमम् । लिङ्गमशिष्यं लोकान्नयस्वािङ्गस्य । न
तर्हीदानीमिदं वक्तव्यम् | वक्तव्यं च | किं प्रयोजनम् । प्वेज्र॒निस्यार्थमुन्तरत्र
व्यभिचारायं विभाषा वृक्षमृगेति ॥ & `
विभाषा समीपे ॥ २।४।१६ ॥
किमुराहरणम् । उपदश्य पाणिपादम् । उपदशाः पाणिपादाः | तैवदस्ति प्रयो-
जनम् | अयं इन्ैकवङ्भाव आरभ्यते तत्र कः प्रसङ्गो यदनुभरयोगस्य स्यात् ॥
एवं तद्यैष्वयस्य संख्ययाव्ययीभावोऽप्यारभ्यते बहुत्रीहिरपि* | तथयदा तावदेकव-
यनं तदाव्वयीभावोश्नुपयुज्यत एकायेस्थैकाथै इति | यदा बहुवचनं तदा बहुघ्री- 10
दिरनुपयुञ्यते बहर्थस्य हयं इति ॥
तलयुरुषो ऽनठ्कमेधारयः ॥ २।४।१९. ॥
किमथेमिद मुख्वते । संज्ञायां कन्योीनरेषु | २.४.०० | इति वशयति वदतस्पु-
दषस्य मञ्तमासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । त्ैतदस्ति प्रयोजनम् । न हि
संश्ञावां कन्धाम्त उशीनरेष्वतस्पुरषो नञ्समासः कर्मधारयो वास्ति ॥ उन्तराथै 15
तरि । उपञ्ञोपक्रमं तदाशाचिख्थासायाम् | २९ | इति वदेयति तदतसपुरषस्य न-
उसमासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । न हि तदा-
दाचिख्यासायामुप्ञोपक्रमान्तो ऽतस्पुरुषो नञ्समासः कर्मधारयो वास्ति || उन्त-
रा्थमेव तर । हाया बाहुल्ये [२९२] इति वदेयति तदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य
कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । न हि च्छायान्तो बा- ४०
इल्ये आस्युदषो नञ्समासः कमधारयो वास्ति || उश्तरारथमेव ति | सभा राजाम-
नुष्वपूरवा [९६] अशाला च [९४] इति वश्चति तदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य क-
मधारवस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम् । न हि सभान्तो ऽशाला-
बामतस्युदषो नञ्समासः कमेधारयो वास्ति ॥ इदं तर्हि । विभाषा सेनासुरा [२९]
@ २.६. ६; २.३.१५.
धेट ॥ व्क्रौरशरनचसभाण्यभ् ॥ [० २.४.९.
हति व्यति तंदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति ॥ तच््ु-
र इति किमर्थम् । शृढसेनो राना || अनभिति किमर्थम् । असेन ॥ भक्मै-
रथ हंति किमयम् । परमसेना खक्रमसेबा ॥
परवलिङ्गं दृन्द्रततयुरूषयोः ॥ २ । ।२६ ॥
४ किमर्थमिदमुष्यते | इन्डोऽवमुमयपदार्थेपध्मनस्न् कदाचिसर्वपदस्य यलिङ्ग त-
स्समासस्यापि स्वात्कदाचिदु्तरपदस्य | हष्यते च परस्य यदङ्ग तस्वमाखस्य
यथा स्वादिति तथान्तरेण यलं न सिध्यतीति परवधिङ्गं इन्तसपुरुषयोरिति । ए-
वभयेभिदमुच्यते ॥ तरपुरषथापि कः प्रयोजयति । यः पूर्वपदार्थपरधानः । एकरे-
शिसमासः । भधपिष्पकीति* | बो हयुश्तरपदार्थप्रभानो दैवकृतं तस्य परविङ्गम् ॥
10 परवलिङ्गं इन्द्रतस्पुरुषयोरिति चेस्भापन्नालपूैगतिसमासेषु
प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
परवलिङ्ग इन्दरतत्पुरुषयोरिति वेत्पराप्रापच्रालंपुवेगतिसमासेषु प्रतिषेधो वक्त-
ष्यः । प्रापो जीधिकां प्राप्रलीविकः | पन्नो जीविकामापचजीनिकः || अयव ।
अलं जीविकाया अलंजीधिकः || गतिसमास । निष्कौशाम्बिः नि्वंराणसिः† ॥
15 पूवंपदस्य च ॥ २॥
पृेपदस्य ख प्रतिषेधो षक्व्यः | मवृदीकुुरौ ॥ यदि पनर्वेषाजातीयकतं प-
रस्य लिङ्गं वधाजातीबकं खमासादन्यदतिदिश्येत |
समासादम्यद्धिक्रजिति चेदगश्धवडवयो्टाब्डंग्वचनम् ॥ ६ ॥
समासादन्यद्ि मिति चेदश्ववडवयोष्टापो लुग्वक्तव्यः | अश्ववडवौ ॥
20 निपातनास्सिद्धम् ॥ ४ ॥
निपावनास्सिडमेतत् । किं निपातनम् || भशवडङकपुबोपरेतिऽ$ ॥
उवस्जनहस्वस्वं वा ।। ५ ॥
अथवोपस्जनस्येति¶ हस्वत्वं भविष्यति || इ्ापि तर्हि प्रामोति । कुङ्टम-
यर्यी । भस्त ।
* ३.२.२. † २.२. ४,२.२.६८१. { २.४.२५, § २.४.९२. ` ¶ ९.३.१८.
फा० २.४.२६.२०,] | ॥ व्याकरनबहाभास्वम् ॥ ऽश,
परवलिङ्गमिति राब्दरान्दार्थौ || ६ ॥
परवलिङ्गमिति शाम्दहाब्दाथोवतिरिरयेते । तत्रौपदोक्तिकस्य हस्वस्वमातिरेशि-
कस्य भ्रवणं भविष्यति || इद तर्हि | दत्ता च कारीषगन्ध्या च दत्ताकारीषगन्ध्ये |
दत्ता च गार्ग्यायणी च दत्तागाग्योयण्यौ | हौ प्य हौ ष्फौ च प्रामुतः* | स्ताम् |
पंवङ्धावेनैकस्य निवृत्तिर्मेविष्यति। || हैदं॑तर्हि । र्ता च युवतिथ दत्तायुवती | 5
हौ तिराब्दौ मामुतः‡ | तस्मोतैतन्छक्यं वत्तौ शाम्दकशाम्दार्थावतिदिरयेते हति ।
ननु चोक्तं संमासौदन्यदिङ्गमिति चेदश्चवडवयो्ौम्लुग्वचंनमिति | परिदतभेतति-
पातनास्सिद्धमिति || भथवा त्ैषं विज्ञायते षरस्तैव परवदिति | कथं ति | परस्येव
परषदिति | यथाजातीयकं परस्य लिङ्गः तथाजातीयकं समासस्थातिदिर्यते ||
कथ पूवेपदस्य न प्रतिषिध्यते प्राप्रादिषु कथम् | 10
चासादिषु लेकदेशिग्र्णास्सिदम् ॥ \७ ॥
शन्दैकरेशिनोरिति वश्यामि ॥ तदेकदेशिमहणं कतैव्यम् } न केर्वव्यभ् | द-
कदेशिसमासो$ नारप्स्वते | कथमधपिष्पीति } समानाधिकर्णसमासो भवि-
ष्यतिर्¶ | अप च सा पिप्पली चार्धपिप्पलीति | म सिध्यति | परत्वात्य्ी समासः
भामोति | भ्य पुनरयमेकदेशिसमास आरभ्यमांणः षष्ठीसमासं वाधते | इष्यते 15
च पष्ठीसमासोओपि | तयथा } भषैपाै मया भक्तम् । भामा मया लम्धमिति |
एवं तपिप्पल्यपेमिति भवितव्यम् । कथमधपिप्पलीति | समानाधिकरणो भविष्यति ||
रात्राह्वाहः पुंसि ॥ २।४।२९. ॥
अनुवाकादयः पुंसि ॥ ९ ॥
भनुवाकादयः पुंसि भाष्यन्त इति वक्तव्यम् । भनुकाकः शंयुवाकः सूक्त - 20
वौकः |
अपथं नपुंसकम् ॥ २।४।२० ॥
पृण्यद्धदिनाभ्याभङ्ो नपुंसकत्वं बक्तष्यम् | शृण्या्हेम् इंदिनादम् ॥
५ ४,६.०८ ६५. † ६.१.३५५. ‡ ५४.९७७. ई २.२,९-३. १ २,९.५७. कके २.१.८.
धे ॥ व्याकस्नपहामाच्यय् ॥ | [ म० २.४.९१.
पथः संख्याग्ययादेः ॥ ९ ॥
पथः संख्याव्ययादेरेति वक्तव्यम् | दिपथम् ज्रिपयम् घलुष्पथम् । उत्थम्
विपथम् ॥
द्विगुश्च | >॥
5 शगु घमासो नपुंसकलिङ्गो भवतीति वकछष्वम् | पञ्चगवम् दशगवम् ॥
भकारान्तोलतरपदो हिगुः जियां भाष्यत इति व्छष्वम् । पञ्पुली दद्पुली ॥
वाज्रन्सः ॥ ३ ॥
वाबन्तः लिवां माष्वत इति वन्तष्वम् | पतञ्चलम् पश्चखटरी | दशाखटम्
दशखटरी ॥
10 भनो नञोपञ्च वा च जिवां भाप्वत इति व्कव्यम् । पञ्चतक्षम् पञ्चत ।
दरदातन्षम् ददातसी ॥ |
पात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः | दिषाज्रम् पत्चपात्रम् ॥
अचोः पुंसि च ॥ २।५४।३९ ॥
भ्वादय इति षकतव्यम् । अर्पयैम् अर्यैः । कार्षापणम् काषौपणः | गोम-
. 15 यम् गोमयः | खारम् सारः || तन्तं वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | बहुवयननि-
दशादार्था गम्यते ||
इदमो ऽन्वादेशो ऽशनुदात्तस्तृतीयादौ ॥ २। ४।२२ ॥
अन्वादेरो समानाधिकरणम्रहणम्
शन्वादेशे समानापिकरणमरहणं कतैव्यम् । कं प्रयोजनम् ।
%0 देवदनं भोजयेमे चेष्यपङ्भार्थम् ॥ ९ ॥
इद मा भूत् । देवदन्तं भोजयेमं च यजश्चदत्तं भोजयेति ॥
पा० २.४.३९-२३२. | ॥ व्याकरणपहाभाष्यम् ॥ ४८१
अन्वदिराश्च कथितानुकयथनमात्रम् ॥ ९ ॥
अन्वादेश कथितानुकथनमात्रं दर्व्यम् । तंेष्यं विजानीयादिदमा कथित-
मिदग्रैव यदानुकथ्यत हति | तदाचार्यः सुहदधत्वान्वाचष्टे ऽन्वादेदाश्च कथितानुक-
यनमात्रं द्रष्टम्यमिति ||
अथ किमथेमहादेदाः त्रियते न तुतीयादिष्विव्येवोच्येत | तत्र टायामोसि चै- 5
नेन* भवितव्यमन्याः सर्वा हृलादयो त्रिभक्तयस्तत्रेदरुपलोपे कृते केवलमिदमो ऽनु -
दात्त्वम्रेव वक्तव्यम् || भत उत्तरं पठति |
अदिरावचनं साकच्काथम् | ३॥
आदे शवचनं साकच्कार्थै क्रियते | साकच्कस्यापीदम आदेशो यथा स्यात् ।
इमकाभ्यां शन्ाभ्यां रात्रिरधीता भयो आभ्यामहरप्यधीतम् || भथ किमथे शि- 10
त्करणम् ।
शिस्करणं सर्वादेरार्थम् ॥ ४ ॥
शिर्करणं क्रियते सव॑देशार्थम् । शित्सर्वस्येति स्वदेशो यथा स्यात् | इ-
मकाभ्यां छाल्ताभ्यां रात्रिरधीता भथो अभ्यामहरप्यधीतमिति | अक्रियमाणे हि
शित्करणे ऽलोऽन्त्यस्य विधयो भव्रन्तीत्यन्त्यस्य भ्रसज्येतऽ || 15
न वान्त्यस्य विकारवचनानर्यक्यात् ॥ ९५ ॥ |
न वा कर्ब्यम् । किं कारणम् | अन्त्यस्य विकारवचनान्थस्यात् | अकार-
स्याकारषचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वान्तरेणापि शकार सवादेशो भविष्यति ॥
अर्यवच्वदेदाप्रतिषेधांम् ॥ ६ ॥
अयेवस्वकारस्याकरारव चनम् | कोञ्येः | भदेदाप्रतिषेधार्थम् । ये ऽन्ये ऽक्रा- 20
रस्यादेराः प्राुवन्ति तद्वाधनार्थम् । तद्यथा । मो राजि समः कौ [८.३.१९]
इति मारस्य मक्रारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वानुस्वारादयो बाध्यन्ते ॥
तस्माच्छिर्करणम् ॥ ७ ॥
तस्माष्छकारः कर्वैव्यः || न कर्तव्यः । प्रशिष्टनिरेशोऽथम् । भ अ इति |
भनेकाल्शित्सवेस्य | १.१.९९ | इति सवोदेशो भविश्यति ।| अथत्रा विनरित्रास्त- 25
डितवृत्तयः | नान्वादेदोऽकजुत्पत्स्यते ॥
= द.४. ३४... ¶† ७.२. ९६३. ‡ ९.९.५५. 6 ९.९.५२.
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४७८० ॥ व्याकरनयहाभाच्यय् ॥ - [ म० २.४.९१.
पथः संख्याव्ययादेः ॥ ९ ॥
पथः संख्याव्ययादेरेति वक्तव्यम् | दिपथम् ज्रेपथम् घलुष्पथम् । उत्थम्
विपथम् ॥
द्विगुश्च ॥ >॥
5 शगु षमासो नपुंखकलिङ्गो भवतीति वकछष्वम् | पञ्चगवम् दशगवम् ॥
भकारान्तोत्तरपदो हिगुः जियां भाष्यत इति वक्छष्वम् । पपी दश्चपुली ॥
वान्तः ।। ३ ॥
वाबन्तः जिवां भाष्वत इति वक्तव्यम् । पश्चखदरम् पश्खट्री | दशलखटूम्
दशखटी ॥
10 भनो नञोपञ्च वा च जियां भाष्वेत इति वक्तव्यम् । पञ्चतक्षम् पश्चतसी ।
ददातल्तम् ददाती ॥
पाज्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तष्यः | हिपात्रम् पन्बंपात्रम् ॥
अचोः पुंसि च ॥ २।७। ३१ ॥
भ्वादय इति वक्तव्यम् । अर्यैम् अपचैः । कार्षापणम् काषौपणः | गोम-
. 15 यम् गोमयः । सारम् सारः | त्ति वक्कव्यम् | न वक्तव्यम् | बहुवचननि-
देशादार्थो गम्यते |
इदमो ऽन्वादेशे ऽशनुदात्तस्तृतीयादौ ॥ २। ४ । २.२ ॥
अन्वादेरो समानाधिकरणम्रहणम्
अन्वादेशे समानाधिकरणमहणं कतैष्यम् । कं प्रयोजनम् |
0 देवदले भोजयेमं वेष्यम्क्गार्थम् ॥ ९ ॥
इद मा भूत् । देवदत्तं मोजयेमं च यज्जदन्तं भोजयेति ॥|
पा० २.४.३९-३२. | ॥ व्याकरणपहाभाष्यय् ॥ ४८१
अन्वदि गश्च कथितानुकयथनमात्रम् ॥ ९॥
अन्वादेश कथितानुकथनमाज्रं द्रष्टव्यम् | तंदेष्यं तरिजानीयादिदमा कथित-
भिदत्रैव यदानुकथ्यत इति | तदाचार्यैः सुददभूस्वान्वाचष्टे ऽन्वादेशाश्च कथितानुक-
थनमात्रं द्रशटत्यमिति ॥
अथ किम्थेमहादेशः क्रियते न तृतीयादिष्वित्येवोच्येत | तत्र टायामोसि चै- ऽ
नेन* भवितव्यमन्याः सर्वा हलादयो व्रिभक्तयस्तत्रेद्रूपलोपे कृते† के वलमिदमोऽनु -
दा्त्वमरेव वक्तव्यम् || भत उत्तरं पठति |
अदेरावचनं साकच्काथम् || ३ ॥
आदेदावचनं साकच्कार्थं क्रियते | साकच्कस्यापीदम आदेशो वथा स्थात् |
इमकाभ्यां शन्ताभ्यां रात्रिरधीता भयो आभ्यामहरप्यधीतम् || अथ किमथे श्ि- 10
त्करणम् ।
शिस्करणं सवदिदा्थम् ॥ ४ ॥
शिरकरणं क्रियते सवं देशार्थम् । दित्सर्वस्येति सर्वौदेरो यथा स्यात् | इ-
मकाभ्यां छन्ताभ्यां रात्रिरधीता अथो अभ्यामदरप्यधीतमिति | अक्रियमाणे हि
शिक्करणे ऽलोऽन्त्यस्य त्रिधयो भवन्तीत्यन्त्यस्य प्रसज्येत9 ॥| 15
न वान्त्यस्य विकारवचनानर्यक्यात् ॥ ५ ॥ |
न वा कर्तव्यम् | किं कारणम् । अन्त्यस्य विकारवचनानथस्यात् | भकार-
स्याकारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृस्वान्तरेणापि शकारं सवोदेदो भविष्यति |
अर्यवत्वादेदाप्रतिषेधाथम् ॥ ६ ॥
अयेवस्वकारस्याक्रारवचनम् । कोऽथः । अदे शप्रतिषेधार्थम् | ये ऽन्ये ऽक्रा- 20
रस्यादेशाः प्रापुवन्ति तद्वाधनारथेम् । तद्यथा | मो राजि समः की [८.३.२९ |
इति मकारस्य मकारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वानुस्वारादयो वाध्यन्ते ||
तस्माच्छित्करणम् ॥ ७ ॥
तस्माष्छकारः कर्तव्यः || न कर्वव्यः | प्रिष्टनिर्ेशोऽथम् । भ अ इति |
भनेकाल्शिस्सबैस्य [ ९.१.९९ | इति सवोदेशो भविभ्यति || अथत्रा विचित्रास्त- 2
डितवृत्तयः | नान्वादेदोऽकजुत्पत्स्यते ॥
= द.४. ३४.-. ¶† ७.२. ९९३. { ९.९.५५. § १,१.५२.
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७८२ ॥} व्थाकस्नमरहामाष्यय् ॥ ` {म०२.४.९,
एतदखरतसोखतसी चानुदात्ती ॥२।४।२२. ॥
किमे त्रतसोरनुदात्तत्वमुच्यते । उदात्तौ" मा भूतामिति | त्ैतदत्ति प्रयोज-
नम् | लिस्स्वरे कृते निघात एतदोनुदात्तत्वेन सिद्धम् । हदमिह संप्रधायेम् | अ-
` नुदात्तत्वै क्रियतां लिस्स्वर इति किमत्र क्ष्यम् | परत्वाछित्स्वरः । नित्यमनु-
5 दा्तत्वम् ] कृतेऽपि लिस्स्वरे प्रामोत्यकृतेऽपि । तत्र नित्येत्वादनुदात्तत्वे कृते लि-
ति पूवे उदासभावी नास्तीति कृत्वा यथाप्राप्तः प्रत्ययस्वरः प्रसज्येत } तद्यथा |
गोष्पदभं वृष्टो देव इत्यलोपे कृतेः पव उदास्तभावी नास्तीति कृत्वा यथाप्राप्रः प
स्ययस्वरो भवति । तस्माच्रतसोरन॒दात्तत्वं वक्तव्यम् |
द्वितीयारोस्खेनः ॥ २।४।२४॥
10 कस्यायभेनो विधीयते । एतदःऽ प्राभोति । इद मोऽपि त्विष्यते तदिदमो मह-
णं कतेष्यम् । न कतैव्वम् | प्रङृतमनुवतैते | क प्रकृतम् | इदमो ञन्वारेशेऽा-
नुरात्तस्तृतीयारौ | १.४.६२ | इति || यदि तदनुवतेत एतदलरतसोलतसौ चानुदातौ
[ ३३] इतीदमभेतीदमोऽपि प्रायोति । वैष दोषः । संबन्धमनुवर्विष्यते | इदमो
ऽन्वदेशेऽशानुरात्तस्तृतीयादौ । एतदखतसोखतसौ चानुदात्तौ इदमेऽन्वादेदो ऽश
15 नुदात्तस्तृतीयादावदमवति | ततो हितीयादौस्स्वेन इदम एतदथ । तृतीयादायिति
निवृत्तम् || अथवा मण्डूकगतयो अधिकाराः | तद्यथा मण्डूका उरुतयोत्छुत्य
गच्छन्ति तददधिक्राराः ॥ अथवैकयोगः करिष्यते } इदमो ऽन्वादे शेऽशनुरात्त-
स्तृतीयादावेतदलरतसोलतसी चानुदात्तौ । ततो द्विती यारौस्स्वेन हदम एतदथ ॥
अथवोभयं निवृत्तं तदपेक्षिष्या महे ॥
0 एनदिति नपुंसकैकवचने ॥ ९ ॥
एनदिति नपुंसकैकवचने करतव्यम् | कुण्डमानय प्रक्षालथेनत्परिवतेभैनत् ॥
यद्येनक्करिवत एनो न वक्तव्यः | का सूषसिदिः अथो एनम् भयो एने अयो एना-
नीति | स्यदाद्यत्वेन सिद्धम्¶ ।| यथेवमेनन्नितको न सिध्यति } एनर्पितक इति
परामोति । यथालक्षणमप्रयुक्ते ॥
# ३,६.६१. 1 ५.३.अ; ९०; ६.९.५९३; ९५८. {२.४.१२ 9 २,४.१३. नु ५,२.६०३.
पा० २.४.३३-२५. | ॥ व्याकरनमहाभाष्वम् ॥ ६८३.
आधधातुके ॥ २ । ० ।३५ ॥
जग्ध्यादिष्कार्धधातुकाश्रयत्वस्सति तस्मिन्विधानम् ॥ ९ ॥
जग्ध्यादिष्वा षधातुकःञ्रयत्वास्सति तस्मिचाधष्प्तुके जग्ध्यादिभिभवितव्यम् ॥
किमतो यत्सति भवितव्यम् ।
तवरोत्सगलक्षणप्रतिषेधः ॥ २ ॥। | &
तत्रोत्सगेलक्षणं काये प्राभोति तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | भव्यम् प्रवेयम् आख्ये-
यमिति* | ण्यत्यवस्थिते† अनिष्टे प्रत्यय आदेशः स्यात् | ण्यतः अ्वणं प्रसज्येतः ||
षष दोषः | सामान्याश्रयत्वादिरोषस्याना्रयः । सामान्ये ह्याश्रीयमाणे विशेषो
नाभितो भवति । तत्राधेषातुकसामान्ये जग्ध्यदिषु कृतेषु यो यतः प्रत्ययः प्रामोति
स ततो भविष्यति | ' 10
सामान्याश्रयस्वाद्विशेषस्यानाश्रय इति चेदुव्णांकारान्तेभ्यो ण्यदिधिष्-
सद्धरः ॥ ३॥
` सामान्याभयत्वादिरोषस्याना्रय इति चेदुवणोकरान्तेभ्यो ण्यस्परापरोति | ल-
ध्यम् पव्यमिति । आधेषातुकस्ामान्ये गुणे कृते यि प्रत्ययक्षामान्ये च वान्तादेशे
शलन्तादिति ण्यस्मापरोति९ । हह च दित्स्यम् धित्स्यम् भाषेधातुक सामान्ये ऽकार- 15
लोपे कृते हलन्तादिति ण्यतामोति्¶ ॥
वीवाौपयीभावाच सामान्येनानुपपत्तिः ॥ ४ ॥
वर्वापर्याभावा्च सामान्येन जग्ध्यादीनामनुपपत्तिः | न हि सामान्येन पौर्वाप-
यमति ॥
सिद्धं तु सावधातुके प्रतिषेधात् | «५॥ ९0
सिद्धमेतत् । कथम् । अविरेषेग जग्ध्यादीनुक्का सावैधातुङ्ञे नेति परतिषेषं
वश्यामि । सिध्यति | सत्रं तर्हि भिद्यते ॥
= २.४.५२२९६.५४. † ३.६.५२४. ‡ ०.२.११९; ७,३.३३.
$ ०,३.८४; ६.१.७५; ३,९६.५२४. षु ६,४.४८; ३.१.१२४.
४८४ ॥ व्याकरनग्रहामाष्यय ॥ ` म° २.४९.
यथान्या षमेवास्तु | ननु चोक्तं जग्ध्यादिष्वा्धधातुकाश्रयन्यात्खति तस्मिन्वि -
धानमिति | परिहतमेत्तक्षामानम्याग्नयत्वादिङेषस्यानाञ्नय इति । ननु चोक्तं सामा-
न्या्रवत्वादिरोषस्वानाभ्नय इति चेदुब्णीकारान्तेभ्यो ण्यदिधिप्रषङ्ग इति । नैष
रोषः । वद्यति तत्राज्यहणस्य प्रयोजन मजन्तमूतपुवेमात्रादपि यथा स्यारिति॥
5 यदप्युच्यते पौवीपयोभावा्च सामान्येनानुपपत्तिरिति । अर्थसिद्धिरेवैषा यत्वामा-
न्येन पौवौपयै नास्ति । असति कफीवपर्ये विषयसप्रमी विज्ञास्यते | आर्षधत्तुिक-
विषय इति | तत्राधधातुकविषये जग्ध्यारिषु कृतेषु यो यतः प्रामोति भ्रत्ववः सक्तो
भविष्यति || अथवाैधातुकास्विति व्याम । कास्तराषेभातुकाञ । उक्तिषु युक्तिषु
ङ्डिषु प्रतीतिषु ज्रुतिषु संका ||
10 अदो जग्पियपि करिति ॥ २ । 9 । २६ ॥
ल्यग्परहणं किमथ न ति कितीत्येव सिद्धम् | ल्यपि कृते† न प्रामोति । इद-
मिह संप्रधायेम् । ल्यप्करियतामादेश हति किमत्र कतेऽ्यम् | परत्वाह्चमप् । अन्त-
रङ्ग आदेः | एव तरि सिदे सति यष्ठचन्पहणं करोति तज्ज्ञापयत्याचार्यो
ऽन्तर ङ्भगनपि विधीन्बहिरङ्गो ल्यभ्वाधत इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम् । ल्व
15 बादर उपदेशिवद चनमनादिष्टाथै बहिरङ्गलक्षणस्वादिति वक्ष्यति; तच्च वक्तव्यं भ-
वति |
जग्धिविधिल्यपि यत्तदकस्मास्सिद्धमदस्ति कितीति विधानात् |
दिप्रभृतींस्तु$ सदा बहिरङ्गो ल्यन्भरतीति कृतं तदु विड ॥
एष एवाथः |
20 जग्धी सिद्धेऽन्तर गल्वात्ति किषीति ल्यबु्यते ।
श्ञापयत्यन्तर ङ्गाणां स्यपा भवति वाधनम् ॥
लुङ्नोषेसु ॥ २ । ¢ । २.७ ॥
पसुभवे च्युपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
षञमावे ऽच्युपतं ख्यानं कतेष्यम् । प्रातीति प्रषसः ॥।
+ ३.९, ९७१, † ०,१.१५, { ०,१९.३७५, 6 ५.४, ४२.
प° २.४.२३६-४९. | ॥ व्याकरमयशभाष्यय्।। ४८५
हो वध छिडि॥ र 19 । ७२ ॥ लुडि च | २। © । ७३ ॥
किमयं वपिव्यंश्ञनान्त आहोस्विददन्तः । किं चातः | यदि ध्यश्जननान्तो
वधौ ग्यच्जनान्त उक्तम् | ९ ॥
किमुक्तम् । वध्य देहो वृद्धितत्वप्रतिषेष हद्िषिशेति' । भथादन्तो न दोषो भ-
वति | यथा न दोषस्तथास्तु ॥ . 5
इणो गा लुडि ॥ २। 9। ७५ ॥
इण्वदिकः ॥ ९ ॥
इण्वदिक इति वक्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् । अध्यगात् अध्यगाताम्
अध्यगुः ॥
णी गमिरबोधने ॥ २ । ४। ७६ ॥ 10
हण्वादेक ह्येव । भपिगमयति अभिगमयतः भपिगमयन्ति |
संनि च.॥ २1 9 9.७ ॥
इण्वदिक इस्येव | भवधिजिगमिषति अपिजिगमिषतः भभिजिगमिषन्ति |
गाड्टि ॥ २। 9। ४९ ॥
ङित्करणं किमर्थम् । 15
गाङ्चनुबन्धकरणं विरोषणायम् ॥ ९ ॥
गाउनधनुबन्धकरणं द्वियते विरोषणा्थम् | क॒ विदोषणार्थेना्थः । गाङडुटादि-
#॥ १ ०९. ५.६६ 6
४८६ ॥ भ्वाकरममरहापाष्यम् ॥ | [म ० २.४.९..
भ्योऽञ्णन्डिःत् [१. २.९ इति । गाकुगादिभ्यो अञ्णन्डिदितीयत्युच्यमान इणादे-
रास्यापि प्रसज्येत || |
जापकं वा सानुबन्धक स्यदेरावचन हस्कार्याभावस्य ॥ २ ॥
अथवेतज्ज्ञापयत्याचायैः सानुबन्धकस्यादेश्च हतका न भवतीति || किमेतस्य
5 ज्ञापने प्रयोजनम् |
प्रयोजनं चस्िङः ख्याञ्! ॥ ३ ॥
डितं‡ इत्यात्मनेपदं न भवति |
लटः रातृशानचौ ॥ ४ ॥
लटः शतृशानचौ $ प्रयोजनम् । पचमानः यजमान इति | टित इत्येत्वं न
10 भवति ॥
` युवोरन।कौ ।। ५ ॥
युवोरनाकौ** च प्रयोजनम् । नन्दनः कारकः नन्दना कारिकेति| उगिहक्षतौ
ङीष्नुमौ 11 न भवतः |
मेश्वाननुबन्धकस्याम्बवचनम् | ६ ॥
मेाननुबन्धकस्याभ्वक्तव्यः‡‡ | अचिनवम् अकरवम् अद्धनवम् ९ ९||भत्यल्प-
मिदमु्यते मेरिति | तिभ्िभ्भिपामिति वक्तव्यम्| इहापि यथा स्यात्| वेद वेत्थर¶¶।|
भस्य श्ञापकस्य सन्ति दोषाः सन्ति प्रयोजनानि । दोषाः समा भूयांसो बा |
तस्माचार्थो ऽनेन ज्ञापकेन । कथं यानि प्रयोजनामि | त्रैतानि सान्ति | इहं तावञ्च-
क्षिङः ख्याजिति भिस्करणसामध्योदिभाषास्मनेपदं भविष्यति" ** | र्टः शतृशान-
20 चाविति | वक्ष्यत्येतसङृतानामास्मनेपदानामेरवं भवतीति111 | य॒बोरनाकाविति |
बष्यवस्येतस्सिधं तु युवोरनुनासिकत्वादितिःः ॥
15
चक्षिङः ख्याञ् ॥ २ । 9 । ५४ ॥
किमयं कशादिराशोस्वित्वयारिः ।
#र.४. ४५; (६.४. ६६). † २,४.५४. { ९.१.९२. § ३.२.२२४ ¶ २.४.५९.
9१ ०.९.६. 1 ४,६.६; ७.१.००, {३.४.९०९ 6 ५३.८५ (२.२.४५९.९.५
भृथु १.४. द्द्. +++ ६.३.७९. 11 २.४, ०९०, {1 १,९.९४
क[° २.४.५४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ८७
चस्षिङः क्शाञ्ख्याजौ ॥ ९॥
चसिडः स्याञ्कदादिः खयादिथ ||
खडादिवां । २॥
भयवा खरादिमेविष्यति | केनेदानीं कञ्चादिमेविष्यति । चर्ववेन* । भथ ख-
यादिः कथम् | . ¦ 5
. असिदे शास्य यवचनं विभाषा ॥ ३ ॥
असिद्धे शस्य भिभाषा यत्वं वक्तव्यम् || कि प्रयोजनम् |
प्रयोजनं सोभरख्ये वुञ्विधिः ॥ ४ ॥
सौप्रख्य इति योपधलक्षणो‡ बुञ्विधिन भवति । सौप्रर्यीवः | बृ्ाच्छः
४.२.९९४ इति च्छो भवति || 10
| निष्ठानत्वमाख्याते || ९ ॥
आख्यात इति निष्ठानत्वं $ न भवति |
रुविधिः पुंख्याने ॥ & ॥
पुंख्यानमिति रूषिधिन॑% भवति ॥ |
णस्वं पयांख्याने ॥ ७ ॥ 15
पयौख्यानमिति गस्वं** न भवति ||
सस्थानत्वं नमःल्यत्रे ॥ ८ ॥
नमःख्याज्र इति सस्थानत्वं†† न भवति ||
वर्जने प्रतिषेधः ॥ ९ ॥
अजैने प्रतिषेधो वक्तव्यः | भवसं चकष्याः परिसंचश्याः ॥ %
असनयोश्च । ९० ॥
शभसनयोञ् प्रतिषेधो वक्तव्यः| नृचक्षा रक्षः । विषक्षण इति ॥
@ ८.४, ९९, ¶ <.२.१. ‡ ४.२. ९२९. $ «८.२. ४१. ब ८.३.६.
. --+क ८,४, २९, `“ ` ग ८२.१३५, -
छेश्ट ॥ व्खकस्गमरहाभाष्यम् ॥ | [म० २.४.९१.
बहलं तणि ॥ ९९ ॥
बहलं तणीति वक्तव्यम् | किमिदं तणीति | संज्ञान्दसोर्महणम् । कि प्रयो-
जनम् । |
अन्नवधकगावविचक्षणाभिराययम् ॥ ९९ ॥
$ अच । अन्नम् | वधक | वधकम् | यात्र | गात्रं षदय | विचक्षण । विच-
क्षणः | अजिर | आजेरे तिष्ठति" ॥
। अनेन्येषजपोः ॥ २ । ४ । ५६ ॥
घञपोः प्रतिषेधे क्यप उपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
वजे: प्रतिषेषे क्यप उपसंख्यानं कर्तव्यम् | इहापि यथा स्यात् | समजनं
10 समज्येति || ततर्द वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | अपीस्ये्र भक्ष्यति | कथम् ।
कपीति नेदं प्रस्ययप्रहणम् । किं तर्हि । प्रत्याहार परहणम् । कर संनिविष्टानां प्रत्या-
हारः | अपो ऽकारासभृत्या क्यपः पकारात्† । यदि प्रत्याहार यहणं संवीतिने
सिभ्यतिः || एवं तर्हि नाथं उपसंख्यानेन नापि घञपोः प्रतिषेधेन । इदमस्ति चस्ति
ख्याञ् वा किटि |२.४.९४;९९] इति | ततो वक्ष्यामि । भजेर्वी भवति वा व्यव-
1; स्थितथिभाषा चेति | तेनेह च भविष्यति प्रवेता प्रवेतुम् प्रवीतो रथः संवीतिरिति।
, इह च न भविष्यति समाजः उदाजः समजः उदजः समजनम् उदजनम् सम-
ज्येति । तज्नायमप्यथे इदमपि सिद्धं भवति प्राजितेति | किं च भो इष्यत एतद्रपम्।
वाढमिष्यते | एवं हि कथिदैयाकरण आह । कोऽस्य रथस्य प्रवेतेति | खत भाह ।
शायुष्मचरहं प्राजितेति | वैयाकरण भाह | भपशब्द इति । खत आह | प्राभिज्ञो
20 देवानांप्रियो न स्थि्टिज्ञ इष्यत रएतद्रुपमिति । वैयाकरण भाह | भाहो खल्वनेन
वुरूतेन वाध्यामह हति | इत भाह | न खलु वेनः खतः छवतेरेव खतो यदि इवतेः
कुत्ता प्रयोक्तव्या दुःदतेनेति वक्तष्यम् || न तर्हीदानीमिदं वा यै [ २.४.९७] इति
वक्तव्यम् । वक्कव्यं च । किं प्रयोजनम् । नेवं विभाषा । किं तर्हि । भादेशोऽवं
विधीयते | वा इत्ययमादेशो भवस्यनेर्यौ परतः । वायुरिति ॥
= ३,४.३६४२;४५; ५४५६. + ३.१३.५०-९८, ‡ ३.६.९४,
पा० २.४.५६ -५८. | ॥ व्वाकरषपराभास्ययप. ॥ ` #टर
ण्यप्षत्रियाषेयितो यूनि लुगणियोः ॥ २। ७।५८॥।
अणिजदुक्षि तद्राजाद्युवप्रस्ययस्योपसंख्यानम् ॥ ९ ॥
अणिजोरुकरि तद्राजाद्युवप्रत्यंयस्कोपसंख्यानं कतेध्यम् । बौधिः पिता बौधि
प्रः | ओदुम्बरिः पिता ओदुम्बरिः पज ॥ |
अपर आह | भगिजोर्ुकि क्षत्रि यगोत्रमात्राद्युवप्रस्ययस्योपसंख्यानं कतेव्यमिति | $
जावाकिः पिता जाबाकिः पुत्रः ||
अपर आह | अव्राह्मणगोज्रमात्राद्यवप्रत्ययस्योपसंख्यानं कर्तव्यम् | कि प्रयो-
जनम् | इदमपि सिद्धं भवति । भाण्डिजङ्धिः पिता भाष्डिजद्धिः पुत्रः | काणे-
खरकिः पिता काणखरिः पुत्रः† ॥
इति श्रीभगवत्पतद्चकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये दितीयस्याध्यायस्य चतुर्थे 10
पादे प्रथममाद्धिकम् ||
† ४.६. ९७३; १९०९. ¶ ४.९.९५;९०९.
62 भ
-४९.० ॥ व्याकरणग्रहाभाष्यम ॥ | [ मण २.४.२.
तद्राजस्य बहुषु तेनैगस्ियाम् ॥ २।४।६२॥
तद्राजादीनां ङुकि समासबहुत्वे प्रतिषेधः ॥ ९॥
तद्राजादीनां लुकि सम।(सबहुस्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | प्रिय आङ्गः एषांत हमे
प्रियाङ्गा: | भियो वाद्ग एषां त हमे प्रियवाङ्गा इति || किमुच्यते समासबहुत्वे
£ प्रतिषेध इति यावता तेनैव चेक्कृतं बहुत्वमिस्युच्यते न चात्र तेनैव कृतं बहुत्वम् |
भवति वै किंचिदाचायोः क्रियमाणमपि चोदयन्ति | तद्वा कतेव्यं तेनैव वेद्रहुत्व-
भिति समासबहूत्वे वा प्रतिषेधो वक्तव्य इति ||
अबहुस्वे च लुग्वचनम् ॥ २ ॥
भबहुत्वे च लुग्वक्तव्यः | अतिक्रान्तो ऽद्भा नत्यङ्ग इति | बहुवचने परतो य-
10 स्तद्राज इत्येवं च कृत्वा चोद्यते | अथ किमथे पुनरिदं न बहवचन इत्येव सि-
डम् | न सिध्यति | बहुवचन इस्युच्यते न चात्र बहुवचनं पयामः" | प्रत्ययलक्ष-
` णेन भविष्यति! | न लुमता तस्मि्ितिः प्रत्ययरुक्चषणस्य प्रतिषेधः | न लुमता-
ङ्गस्य [ ९,९.६३ ] हति व्याम । त्वं शाक्यम् | इह हि दोषः स्यात् | पञ्च-
मिगौर्मीभिः क्रीतः पटः पन्चगाग्यैः दशागाग्ये इतिऽ |
15 दन्दरे ऽबहूषु दुग्वचनम् || २ ॥
इन्दे ऽबहषु लुग्वक्तव्यः | गगेवत्सवाजा इति ॥ इह च लुग्वक्तव्यः | गर्गेभ्य
आगतं गगैरूप्यम् गगेमयमिति || इह च त्रय इव्युदात्तनिवृत्तिस्वरः प्रभोति ॥
सिद्धं तु प्रत्ययाथेबहुत्वे दुग्वचनात् ॥ ४ ||
सिद्धमेतत् | कथम् । प्रत्ययायेबहुस्वे लुग्वक्तव्यः || यदि प्रत्ययाथेबहुष्वे
90 लुगुच्यते ऽलियामिति वक्तव्यम् | इह मा भृत् । भङ्गयः जियः वाङ्गः जिय
इति । यस्य पुनबेहुवचने परतो लुगुच्यते तस्येकारेण व्यवहितत्वान्न भविष्यति ।
यस्यापि बहव चने परतो लुगुच्यते तेनाप्यजलियामिति वक्तव्यम् | आम्बषयाः जियः
सौवीयौः लिय हइत्येवमथम् “ | अत्रापि चापा व्यवधानम् | एकादेशो कृते नासि
व्यवधानम् । एकदेशः पुैविषौ स्थानिवद्भवतीति11† स्थानिवद्धावाद्यवधानमेव ॥
# २.४. ५६. 1†९.२. ६२, [९.९. ६२३५. §२.४. ०१५; ५.९.२८; ९.२. ४९.२.५४. ६४),
थ ४.९. ९२२; ६.१. १६५९; २० ४, ६५; (६.९. ६६१), #+* ४.१९. ९७१; ७४. + ९.९, ५७१,
प° २.४.६२. ] ॥ व्याकरणमहाभोाष्यम् ॥ ७९.९
दन्द्रे बहुषु लुग्वचनम् ॥ ५॥
इन्दे ऽवहूषु लुग्वक्तव्यः | गगेवत्सवाजा इति | .
गोत्रस्य बहुषु लोपिनो बहुवचनान्तस्य प्रवृत्तो धे कयोरलुक् ॥ ६ ॥
गोरस्य बहृषु लोपिनो बहव चनान्तस्य प्रवृत्ती व्येकयोरलुग्वक्तव्यः | विदा-
नामपत्यं माणवको वेदः | वेदौ" || किमर्थमिदं नाचीव्येवालुक्रसिडधः† | अची- $
त्युच्यते न चात्राजादिं परयामः | प्रत्ययलक्षणेन । वणोश्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणम् ॥
एकव चनद्विवचनान्तस्य प्रवृत्तो बहुषु रोपो धृनि ॥ ७ ॥
एकव्रचनद्धिव चनान्तस्य प्रवृत्तौ बहुषु लोपो युनि वक्तव्यः | वैदस्यापर्यं बहवो
माणवका विदाः | वैदयोर्वा विदाः | अञ्यो बहषु यञ्यो बहष्विस्युच्यमानो‡ लुम
प्ामरोति । मा भूदेवम् । अनन्तं यद्दृषु यजन्तं यद्वहुष्वित्येवं भविष्यति | नैवं 10
रायम् । हह हि दोषः स्यात् | कारयपप्रतिक्ृतयः कारयपा इतिऽ ||
ततोऽयमाद यस्य प्रस्ययार्थवहृत्वे लुक् । इन्द्रे ऽबहूषु लुग्वचनमित्य्य परिहारो
- न वा सर्वषां इन्द्रे बहयेत्वात् ॥ ८ ॥
न वैष दोषः | किं कारणम् | सर्वेषां इन्दे बहर्थस्वात् । सर्वाणि इन्द्रे बह-
यानि । कथम् | युगपदधिकरणविवक्षायां इन्दो मवति ॥
ततो ऽयमाह यस्य बहुतरचने प्रतो कुक् | यरि सबीणि हन्दरे बहथोन्यहमषपीद -
मचोद्यं चोदये इन्द्रे ऽबहुषु लुग चनमिति | ममापि ह्यत्र सव्र बहुवचनं परं भवति |
लुकि कते न प्रामोति | प्रत्ययलक्षणेन । न लुमता तस्मिन्निति प्रत्ययलक्षणस्य प्रति-
षेधः | न लुमता ङ्गस्येति बश्यामि । ननु चोक्तं ॑नैवं शक्यमिह हि दोषः स्यात्
प्चमिगौर्मीभिः क्रीतः पटः पचगाग्यैः ददागाग्यं हति | इष्टमेवेतत्ंगृहीतम् | 20
पञ्चगगैः दशागमे इत्येव भवितव्यम् || तथेदभपरमचोदं चोद्ये गर्गरूप्यम् ग्ग॑म-
यम् | अत्रापि बहुवचन ह्येव सिद्धम् । कथम् । समथोत्तडित उतदते सा-~
मध्ये च खबन्तेन ||
ततो यमाह यस्य प्रत्यया्थबहृत्वे लुक् | यदि समथात्तद्धित उत्पद्यते ऽहम-
पीदमचोधं चोथे गोत्रस्य बहुषु ठोपिनो बहुवचनान्तस्य प्रवृत्ती व्येकयोरलुगिति । ४४
कथम् | यस्यापि बहुवचने. परतो लुक्तेनाप्यत्रालुगवक्तव्यः | तस्यापि ह्यन्न बहुव-
15
9 ४.६, ६०४२५२४. ९८ (४) 1 ४९.८९ २.१. ६४. 3 ४,१.१०४२५.२. १६६९९.
४९९ ॥ व्याकरमगयरहाभाष्यत् ॥ | [म०-२.४.२.
चर्नं परं भवति ॥ न वक्तव्यः | भचीत्येवादुक्सिद्धः* । भवची्युच्यते न चात्रा-
जादि पदयामः । प्रत्ययलक्षणेन । ननु चोक्तं वणोभ्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणमिति ।
यदि वा कानिचिद्ृणोश्रयाण्यपि प्रत्ययलक्षणेन भवन्ति तथेदमपि भविष्यति ॥ अ-
थवाविरोषेणालुकमुकका हलि नेति वक्ष्यामि ॥ यद्यविशेषेणालुकमुकका इलि
5 नेद्युच्यते विदानामपस्यं बहवो माणवका विदाः अत्राप्यलुक्माभोति । नस्तु ।
पुनरस्य युवबहुत्वे वर्तमानस्य लुग्मविष्यति । पनरलुक्षस्मान्न भवति | सम -
यनां प्रथमस्य गो्रपस्ययान्तस्या लुगुच्यते न चैतत्समथौनां परथमं गेोत्रप्रस्यया-
न्तम् | किं ति । हितीयमथेमुपसंक्रान्तम् | अवदयं चैतदेवं विज्ञेयमतरिभरदा-
जिका वसिष्टकरयपिका मृग्वङ्जिरसिका कुत्सकुरिकिकेत्येवमर्थम्ऽ || गगभारग-
10 विकायह्णं¶ वा क्रियते” तन्नियमाथे भविष्यति । एतस्थैव द्वितीयमथैमुपसंक्रान्त-
स्यादुग्भवति नान्यस्येति || यदप्युच्यत एकव चनि व चनान्तस्य प्रवृत्तौ बहुषु लोपो
यूनि वक्तव्य इति | मा भृरेवमञ्यो बहुषु यञ्यो बहुष्विति । असन्तं यद्रहुषु
यञन्तं यद्रहुष्वित्येवं भविष्यति | ननु चोक्तं वैवं शक्यमिह हि दोषः स्यात्का-
दयपप्रतिकृतयः कारयपा इति । प्रेष दोषः | ऊौकिकस्य तत्र! गोत्रस्य हणं
15 न तैतघ्लौकिकं गोत्रम् ॥
यस्य बहुवचने परतो लुक्सछमासबहस्वे तेन प्रतिषेधो वक्तव्यस्तेनैव चेच्कृतं ब~
हृत्वमिति वा वक्तव्यम् । यस्य ॒प्रस्ययाथेबहुस्वे नुक्तेनालियामिति वक्तव्यम् ।
यस्य बहुवचने परतो लुक्तस्यायमधिको दोषो त्रय हइव्युदात्तनिवुत्तिस्वरः प्रा-
भोति । वक््मासत्ययार्थबहुस्वे लुभिर्येष एव पक्षो ज्यायान् ||
20 अथेह कथं भवितव्यम् । गारी च वात्स्यश्च वाञ्यशेति | यदि तावदली वि-
भिनाभ्रीयते स्त्यत्राश्ीति कृत्वा भवितव्यं लुका । भथ ली प्रतिषेपेनाश्रीयते
इस्त्यत्र खति कृत्वा भवितव्यं प्रतिषेधेन । किं पुनरत्राथे सतत्त्वम् | देवा एतज्जा.
तुमहन्ति ॥
अथ यो लोप्यलोपिनां समासस्तत्र कथं भवितव्यम् | उभयं हि दृरयते । श~
26 रष्च्छनकदभोद्भुगुवत्साभायणेषु |४. ९. ९०२९] नोदात्तस्वरितोदयम गाग्यैकारय-
पगारवानाम् [८.४.६७] इति ॥
# ४.९० ८९ † २.४. ६४. प ४.९. ८९; ८२. § ४.९. ९२२; (९९४); १०४; ९५;
२.४. ५८; ६५; ६४; ४.२.१२५; ७.९. १; (४.१९. ८९). 4 ४.९. ९०५; ११४; ९५;
३,४.५८; ४.६. १२.५९; ७,९.१६ २.४, ६४. (६५); ६७, ॥ २.४. ६७; प°.
पा° २.४.६४-६.| ॥ व्याकरणमहामष्यिय् ॥ ४९.३
यन बोश्च ॥ २,। 9 ।६५४ ॥
यआदीनामेकटदयोवां तच्पुरुषे षष्ठया उपसंख्यानम् ॥ ९ ॥। |
यञादीनामेकद्कयोवौ तत्पुरुषे ष्ठा उपसंख्यानं कनैव्यम् | गाग्यैस्य कुलं
गाग्यकुलं गगेक्ुलं वा । गाग्ययोः कुलं गाग्येकुलं गगेकुलं वा । वैरस्य कुल वेद
कुलं विदकुलं वा | वैदयोः कुलं बैदकुलं बिदकुलं वा || यञादीनामिति किम 5
थम् । ङ्गस्य कुलमाङ्गक्ुलम् | आङ्गयोः कुलमाङ्गकुलम्* || एकद्योरिति
किमर्थम् | गर्गाणां कुलं गगेकुलम् ॥ तस्पुरुष इति किमर्थम् | गाग्यैस्य समीप-
मुपगाग्यम्। || षष्ठया इति किमर्थम् || शोभनगाग्येः परमगाग्यैः ||
बह च इञः प्राच्यभरतेषु ॥ २। ४।६६॥
किमयं समुच्चयः । प्राज्ञ भरतेषु चेति | आहोस्विद्धरतविोषणं प्राग्महणम् ।.10
प्रश्चो ये भरता इति । कि चातः | यदि समुच्चयो भरतग्रहणमनथकं न ह्यन्यत्र
भरताः सन्ति | अथ प्राग्महणं भरतविदोषणं पराग्ब्रहणमनथेकं न प्राञ्चो भरताः
सन्ति | एवं तर्हि समुच्चयः । ननु चोक्तं भरतम्रहणमनर्थकं न छ्यन्यत्र मरताः
सन्तीति | नानथैकम् । ज्ञापकाथम् । किं ्ञाप्यते | एतज्ज्ञापयत्याचार्यो ऽन्यत्र
प्रार्महणे भरतग्रहणं न भवतीति | किमेतस्य श्ञापने प्रयोजनम् | इयः ` प्राचाम् 15
[१.४.६० | भरतमहणं न भवति । ओहरकिः पिता नीहालकावनः पुत्र हति |
न गोपवनादिभ्यः ॥ २।७।६.७ ॥
गोपवनादिप्रतिधेधः प्राण्वरितादिभ्यः ॥ ९॥
गोपवनादिभ्यः प्रतिषेधः प्राग्धरितादिभ्योः द्रष्टव्यः | हारितः हरितौ । बहुषु
हरिताः ॥ | 20
ॐ ३.४. ६२. † २.६.६. { ४.९. १०४.ग ०,
४९४ ॥ व्याकरनप्रहाभाप्यय् ॥ ॑ [भ० २.४.२.
उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामद्रन्दरे ॥ २ । 9 । ६९. ॥
किमथेमदन्ड इत्युच्यते | इन्दे मा भूदिति । नैतदस्ति प्रयोजनम् । इष्यत
एव इन्दे | भ्रष्टककपिष्ठलाः श्राष्टकिकापिष्ठलय इति || अत उत्तरं पठति |
अद्न्द्र इति दन्दाधिकारनिवृत्ययम् ॥ ९ ॥
5 अह्न इत्युच्यते इन्दाधिकारनिवृच्यथेम् । इन्हाधिकारो * निवत्येते | तस्मि-
चिवृत्ते अविशेषेण इन्दे चान्द्रे च भविष्यति ॥
आगस्त्यकोण्डिन्ययोरगस्तिकुण्डिनच् ॥ २ । 9 । ७० ॥
आगस्व्यकौण्डिन्ययोः प्रकृतिनिपातनम् ॥ ९ ॥।
भआगस्त्यकौण्डिन्ययोः प्रकृतिनिपातनं कतैव्यम् । भगस्िकुण्डिनजिव्येतो प्रज
10 स्यादेशौी भवत इति वक्तव्यम् || किं प्रयोजनम् ।
लुक्प्रतिषेधे वृद्धयथम् ॥ > ॥
लुक्मतिषेधे† वृदधिर्यथा स्यात् ॥
प्रत्ययान्तनिपातने हि वृद्धयभावः ॥ ३ ॥
परत्ययान्तनिपातने हि सति वृद्धयभावः स्थात् | आगस्तीयाः ‡ कौण्डिना$ इति ॥
15 यदि प्रकृतिनिपातनं क्रियते केनेदानीं प्रत्ययस्य लोपो भविष्यति |
अधिकारात्मत्ययलोपः।। ४ ॥
अधिकारात्मत्ययलोपो भविष्यति4 ||
ततर्ह प्रकृतिनिपातनं कतेष्यम् | न कतैव्यम् | योगविभागः करिष्यते | अ(-
गस्त्यकौण्डिन्ययोबेहुषु लुगभवति | ततोऽगस्तिकुण्डिनाजेव्येती च प्रकृत्यादौ भ-
20 घत आगस्त्यकौण्डिन्ययोरिति || एवमपि प्रत्ययान्तयोरेव प्रामोति प्रत्ययान्तादधि
भवान्ष्ठीमुञ्चारयति* | भागस्त्यङौण्डिन्ययोरिति । नैष दोषः | यथा हि परे-
# २.४.६८. † ४.१९, ८९, { ५,२,९१९४. इ ५.२.९९९. ¶ २.५.५८.
कैक १.९, ४९,
पा ० २.४.६९-७९. ॥ व्याकरणमहाभाष्य । ४९५
भाषितं प्रत्ययस्य ल् कू थुटुपो भवन्तीति प्रत्ययस्यैव भविष्यत्यवशिषटस्यादेरौ
भविष्यतः ||
यङोऽचि च ॥ २9 99 ॥
ऊतोऽचि ॥ ९ ॥
ऊतोऽचीति वक्तव्यम् | इह मा भूत् । सनीखसः दनीभ्वस इति! ॥ अथोत इ-
तयु च्यमान इह कस्मात्त भवति | योयूयः रोरूयः‡ | विहितविरोषणमुकारान्तम्रहणम्।
डकारान्ताद्यो विहित हति || तत्तर्दि वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् । इष्टमेवैतत्संगु-
हीतम् । सनीसंसः दनीध्व॑स इत्येव भवितव्यम् ||
॥ >>|
गातिस्थापुपाभूभ्यः सिचः परस्मेपदेषु ॥ २। ¢ । 9७ ॥
गापोग्रंहण हण्पिब्यो प्रणम् ॥ ९ ॥ 10
गापोभरहण इण्पिवस्योमेहणं कतेव्यम् । इणो यो गादा्दः पिवतेयैः पाशाब्द¶
इति वक्तव्यम् । इह मा भत् | भगासीच्चटः | अपासीद्धनमिति ॥ तत्तर्हि वक्त-
व्यम् | न वक्तत्यम् | इणो महणे तावद्वाततम् । निर्दे शादेवेदं व्यक्तं लुग्विकरणस्य
ग्रहणमिति । पामहणे चापि वात्तम्। वक्तव्यमेवैतत्सवैत्रैव पामदणे ऽलुग्विकरणस्य
महणमिति ॥ | 165
तनादिभ्यस्तथासोः ॥ २ । 9 | 9९ ॥
तथासोरास्मनेपदवचनम् ॥ ९॥
तथासोरारमनेषदस्य हणं कतैव्यम् । आत्मनेपदं यौ तथासाविति वक्तव्यम् ||
एकववनग्रहणं वा| ॥
अथकवैकवचने ये तथासी इति वक्तव्यम् ॥ तचाबदयमन्यतरत्कर्तव्यम् | 20
# ९.९. ६९. † ६.४. २४; ४८; ४९; २.९. ६२, { ७,४. २५, § ९.९. ६३,
4 २.४. ४५; ७.३. ७८.
७९.६ ॥ व्याकरणपरहाभावष्यप् ॥ | [ म० २.४.२.
भवचने ह्यनिष्टपरसङ्गः ॥ ३ ॥
भनुच्यमाने छेतस्मिन्ननिष्ट प्रसज्येत । अतनिष्ट यूयम् । असनिष्ट युयमिति ||
तैत्ति वक्तव्यम् । न वक्तव्यम् । यपि तावदयै तशाष्ो दृ्टापचारोऽ्स्त्या-
स्मनेपदमस्व्येव परस्मैपदमस्त्येकवचनमस्ति बहुवचनमयं खलु थास्शम्दो ऽदृष्टाप-
5 चार आत्मनेपदमेकव चनमेव तस्यास्य कोऽन्यः सशायो भवितुमहैस्यन्यदत आत्म-
नेपदादेकव चना्च | तथथा । अस्य गोर्हितीयेनार्थं इति गौरेवानीयते नाशो न
गदेभः |
आमः।॥ ९। 9 ८९ ॥
आमो केपि लुङ्लोटीरूपसंख्यानम् ॥ ९॥
10 आमो लेलेपि लुङ्लोटोरूपसंख्यानं कलेव्यम् । तां धैजवापयो विदामक्रन् ।
त्र भव्रन्तो विदांकुर्वन्तु | तस्ति वक्तव्यम् | न वक्तव्यम् | किम्रहणं* निव-
रिष्यते । यदि निवतेते प्रस्ययमा्रस्य लुक्परामोति । इष्यत एव प्रत्ययमात्रस्य ।
आतथेष्यत एवं द्याह कृश्चानुप्रयुज्यते किरि [२.१.४० | इति यदि च प्रत्यय-
मात्रस्य लुग्भवति ततं एतदुपपन्नं भवति ॥
15 आमन्तेभ्यो गलः प्रतिषेधः ॥ ‰ ॥
भआमन्तेभ्यो णलः प्रतिषेधो वक्तव्यः । शशाम तताम | वृद्धौ कृतयामाम
इति लुक्मामोति ॥ भामन्तेभ्यो ऽथे वद्रहं णाण्णलो प्रतिषेषः । आमन्तेभ्योऽ्थवद्रह-
गाण्णलोऽप्रतिषेधः । अनथकः प्रतिषेधो अप्रतिषेधः । लुकृस्माच्न भवति । श्याम
तततामेति । अर्थेवद्रहणात् । भथेवत जाम्शब्दस्य ग्रहणं म चेषोऽथैवान् ॥
20 आमन्तेभ्यो अथव द्रृहणाण्णलोऽपरतिषेध इति चेदमः प्रतिषेधः ॥ ३ ॥
आमन्तेभ्योऽथेवद्रहणाण्णलोऽप्रतिषेध इति चेदमः प्रतिषेधो वक्तव्यः । भाम ॥
उक्तं वा ॥ ४॥
किमुक्तम् । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिषातस्येति |
किं पुनरैगादेश्चानामपवाद् आहोस्विक्कृतेष्वदेशेषु ९ भवति ।
५ २.४. ८०. † ५,२. ६९६. ‡ ९.९. ६९४, § ३.४. #७,
पा० २.४.८९. ॥ व्याकल्न महाभाष्यम् ॥ ४९७
लुगादेरापवादः ॥ ९ ॥
दुगादेश्ानामपवादः ॥।
, तिङ्कुताभावस्तु ॥ & ॥
तिङतस्य स्वभावः । कस्य । पदत्वस्य || |
सुब्न्तपदत्वास्सिद्धम् ॥ ७ ॥ - | ४
छबन्तं पदमिवि पदसंश्ञा भविष्यति || कथं स्वाद्युस्पततिः ।
लकारस्य कृच्वात्प्रातिपदिकत्वे तदाश्रयं प्रत्ययविधानम् ।। ८ ॥
लकारः कृत्कृलमातिषदि कमिति प्रातिपदिकं शा तदान्रयं प्रत्ययविधानम् | प्राति-
पदिकाश्रयत्वास्स्वा्युस्पत्तिभैविष्यति। ॥ पः वणं प्रामोति । अव्ययादिति जु-
गभविष्यतिः | कथमव्ययत्वम् । 10
अव्ययत्वं मकारान्तस्वात् ॥ ९ ॥
कृदन्तं मान्तमव्ययसंजञं भवतीस्वव्ययसं्ञा भविष्यति || स्वरः कथम् । यख-
क।रयांचकार |
स्वरः कृदन्तप्रकृतिस्वरत्वात् ॥ ९० ॥
कृदन्त मुलर पदं प्रकृतिस्वरं भवतीत्येष -स्वरो भविष्यति ॥ 15
तथा च निषातानिषातसिद्धिः ॥ ९९ ॥
तथा च निषातानिषातसिद्धिभवति । चक्षुष्कामं याजयांचकार | तिङतिङः
[८.९.२१८] इति तस्य चानिषातस्तस्माञ्च निषातः सिंदधो भवति ॥
नजा तु समासप्रसङ्गः | ९२ ॥
नमा तु समासः प्राप्रोति } न कारयाम् | न हारयाम् | नञ्जबन्तेन सह 20
समस्यत इति समासः प्रामोति“ ||
उक्तं वा ॥ ९३ ॥
किमुक्तम् ] भसामर््यादिति।† | नात्र नज भामन्तेन साम्यम | केन तर्हि |
तिङन्तेन । न चकार कारयाम् | न चकार हारयामिति ॥
# २,४.६४. † ३.९. ९३; १.२.४६; ४.६.३२. ‡ २,४.८२. § ९.१ &.
॥। &,२.+ ९३९ | क २.२. ४; (६.६. ॥ 0 ॥३। २.६.९४.
63 ग
७९ ॥ व्याकस्न महाभाष्यम् ॥ | [ म० २.४.२.
+
अन्ययादाप्सुपः ॥ २९ । 9 । ८२ ॥
अबव्ययादापो दुग्वचनानर्थक्यं लिङ्गाभावात् || ९ ॥
अष्ययादापो टुग्वचनमनथेकम् । किं कारणम् । लिङ्खाभावात् । अलिङ्गमः-
व्ययम् ॥ किमिदं भवान्पो लुकं मृष्यत्यापो लुकं नः मृष्यति । यथैव लिङ्ग
¢ मव्ययमेवमसंख्यभपि । सत्यमेतत् | प्रत्यक्लक्षणंमाचायैः प्राथैयमानः इषे लुकं
मृष्यति | आपः पुनरस्य लुकि सति न किंचिदपि प्रयोजनमसि || उच्यमानेऽप्ये-
तस्मिन्स्वाशुत्पत्तिने परामेति | कि कारणम् | एकत्वादीनामभावात्, | एकत्वादि-
ववर्थेषु स्वादयो विधीयन्ते न चैषामेकत्वादयः सन्ति | भविशेषेणोसप्यन्तं उत्प-
चरानां नियमः क्रियते ॥ भथवा प्रकृतानथोनपेष्य नियमः । के च प्रकृबाः | पक-
10 स्वादयः । एकस्मि्ेवैकत्रचनं न इयोने बहुषु | इयोरेव हिव चनं तैकस्मिच्च बहुषु ।
बहुष्वेव बहुवचनं त्ैकस्मित्त योरिति ॥ अथवाचा्प्रवृत्तिज्ञौपयस्युत्पद्न्तेऽव्यये-
भ्य; स्वाद्म इति यदयमभ्ययादाष्ड्फ इति खम्ुकं शास्ति ॥
नाव्ययीभाकदतोऽम्तयज्म्याः ॥ २ ।%। ८३ ॥
नाव्ययीभावादत इति योगव्यवसानम् ॥ ९॥
15 नाव्ययीभावादत इति वोगो ्यवसेयः । नाव्ययीभावादकारान्तातित्छुपो ठुग्भवति।
ततोऽम्त्वपञ्म्या हति || किमर्थो योगविभागः ।
पञ्चम्या अम्प्रतिषेधाथंम् ॥ ‰ ॥
पचग्या जमः प्रतिषेधो यथा स्यात् ॥
एकयोगे ह्युभयोः परतिभेधः ॥ ३ ॥
20 ेकयोगे हि सल्यूभयोः प्रतिषेषः स्यादमोश्लुकश || स ति योगविभागः क-
तैष्यः | न कतैव्यः ।
तृनिर्योमकः 1
तुः क्रियते स नियामको भविष्यति । भमेवापञ्चम्या इति ॥
पा०२.४.८२-८५. | ॥ व्याकरणयमहाभष्यय् ॥ ४७९९
अमि.ृन्वमीमरतिषेधे भ्यादानम्रहणंम् ॥ ४ ॥
भमि पञ्चमीप्रतिषेपे ऽपादानम्रहणं कतेभ्यम् | अपादानपत्चम्या इति वक्त-
व्यम्” | किं प्रयोजनम् |
कर्मप्रवचनीययुक्त प्रतिषेधार्थम् || ५ ॥
कमेप्रवचनीययुक्ते मा भृत् | आपाटकिमुत। वृष्टो देवः || -
न वोत्तरपदस्य कर्मप्रवचनीययोगात्समासात्पञ्चम्यभावः ॥ ६ ॥
न वौ वक्तव्यम् । किं कारणम् । उंचरपदमत्र कर्मेपवचनीययुक्तम् | उन्तरप-
दस्यं कर्मप्रवचनीययोगात्समोसात्प्चमी न भविष्यतिं | यदा च समासः कर्मप्रवच-
नीयंयुक्तो भवति तदा प्रतिषेधः | त्था | आ उपङुम्भात् । आ उपमणिकादितिः ||
तंतीयासंप्योबेहुलम् ॥ २ । 9 । ८० ॥ 10
सपम्या ऋद्धिनदीसमाससंल्यावयवेभ्यो नित्यम् || ९ ॥
सप्रम्या इदिनदीसमाससंख्याव यवेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम् | ऋऋदि । डमं-
दरम् छमगधम् | नदीसमास | उन्मत्तगङ्गम् लोहितगङ्गम् । संख्यावयंव | एकविं -
हातिमारद्ाजम् त्रिषत्चाशङ्गौतमम ॥ |
हुटः प्रथमस्य डारौरसः ॥ २।४। ८५. ॥ . =
टितं टेरेषिधेलुटो डारौरसः पूवविभतिषिदम् ॥ ९॥
हित टेरेविषेटगे डारौरसो भवन्ति पूर्वविप्रतिषेषेन | ठेरेस्वस्यावकाशः¶ | प-
चते पचेते पचन्ते | डासैरसामवकाशः । अः कतौ अः कतीरौ शचः कतीरः | इहोभयं
भामोति | शो अध्येता शो ऽ्वेतारौ श्वो ऽध्येतार इति | डारौरसो भवन्ति पवैवि-
प्रतिषेधेन || स तर्हि पुवेवि्रतिषेधो बक्तव्यः | न बक्तव्यः | 29
आत्मनेपदानां चेति वचनास्सिदम् ॥ २ ॥
आत्मनेपदानां च डासैरसो भवन्तीति वक्तव्यम् ||
+ ३.३. २८. † २,९१.१९०. . {२.१९.६; २,३.९०. § २.६.६४ २१५१९. म ३.४. ७९,
1 ॥ हकर्नाकककाण्दाे | | (क्र
क्थ गगर्गखवा्वम् । दे ।
कातदयन्रतनेकर तरक कर्त्वो सममङ्वार्यम् | मस्याःतनुेयते" क्था स्कान |
अत्रि तगरे अरक्ते कर्ते कर स्कानिनसक जारे का : | वरेक्कान्सख्गानतनुरे ओ न
श्रतोनि |
¢ ततिति आन कताय आर्मनेदटजन्तेन | इरभिर संवष्डर्वम् | ल-
गौरम क्रियतां 2रत्कमिनि किमत्र कर्मत्वम् | करत्कररेत्वम् | नित्का खरौरलः |
कने त्ेन्ते श्तुकस्स्कङृते पि आतुवन्ि | 2ेरेन्वमकि नित्यम् | इनेप्कवि सरौरस्ख
शरितोरकङतेच्वपि श्पते(ति | अनिन्यमेत्वम् | अन्यस्य नेतु सरौरस्य क्ेत्वन्य-
स्कङृनेवु ऋष्डान्तरस्यव ऋ शऋतुकन्विविरनित्वो नि । सरोरसेञम्ककित्काः |
1८ अस्वल्त त दत्ते शऋनुत्न्स्वन्यस्याकृने खब्दान्तरस्व च शआबुवन्तेजनित्का म-
कर्ति | डमयोरनिग्ययोः ¶रत्तरारेत्वम् | एत्ते ने षुनः कस द्गति ङान्््चरौरस्ते म-
रिष्यन्ति || समनसद्वार्येन खपि नार्थं मासमनेपरग्रहनेन | स्वने ऽन्तरतमेन। व्व-
भस्था मतिच्यति | कुत भन्तर्वम् | अर्वतः | एका्थंत्वैकार्थो वयस्य यर्थो व-
हयस्य अदयः || अथयत्रादेा भवि षडेव निरदिदवन्ने । कथम् | एकरोषनिरद चात् ।
1; ककदोषतिरदद्यो ध्यम् || अयेतस्मिन्रेक शोषनिरद शो खति किमयं ऊत्रैकदोषानां इन्दः |
डाचडचडा|रौषरौचरौ | रथरथ्रः | डाचरौ च र डारी-
श्ख इनि | भागेस्िकवहम्हानाभेकशेषः | डा च रौ च रश्च डारौरसः | डारौर-
सं डारौरसथ डारौरस इति । किं चातः | वदि कृतैकदोषाणां इन्दो अनिष्टः स-
मसंख्यः प्राप्रोति । एकव्र्नदिवचनयो ड प्रामरोति बहुवचतैकवचनयो रौ प्रामोति
20 दविक तरनबनरुत्चनयोथ रस्मापरोति | अथ कृतदहन्हानामेक शेषो न दोषो भवति | वथा
न दे षस्मयास्तु || किं पुनरत्र ज्यायः | उभयमित्याह | उभयं हि दृदयते । बहु
रक्तिकिटकम् | बहूनि शक्तिकिटकानि | बहु स्थालीषिठरम् | बहूनि स्थाली-
पिडततणि ॥
डाहिरः हृते टेरे यथा दत्वं प्रसारणे{ |
2 समसंख्येन नार्थोऽस्ति सिं स्थानेऽ्थतोऽन्तराः ॥
भम्तर्येतो व्यवस्था त्रय एवेमे भवन्तु सर्वेषाम् |
टेरे च परस्वारकृतेऽपि तस्मिन्निमे सन्तु ॥
[1 ष) |) 1 यि पि
# ९,३.९०. † ९,६.५०. ‡ ६.९. ८ ९५.
पा० २.४.८५. | 1 व्याकरंणयहीभाष्वय ॥ ९०९
डाविकारस्य शित्करणं सवीदेरार्थम् ॥ ४ ॥
` डाविकारः शिस्कतेध्यः | किं प्रयोजनम्। सवौदेशार्थम् । शित्सर्वस्येति" सर्वा-
देशो यथा स्यात् । अक्रियमाणे हि शकारे ऽलो ऽन्त्यस्य विधयो भवन्तीव्यन्त्यस्य
प्रसज्येत ॥| ,
निषातप्रसङ्गस्तु ॥ ५ ॥ | °
निधातस्तु प्रामोति | चः कतो | तसेः परं ठसावेधीतुकमनुदात्तं. भवतीयेषं
स्वरः: प्राभोतिऽ ॥
` यत्तावदुच्यते डाविकारस्य दित्करणं सवोदे शाथ॑मिति |
सिद्धमलोऽन्त्यविकरात् | ६ ॥
सिद्धमेतत् । कथम् । भलोऽन्त्यविकारात् | भस्त्वयमलोऽन््यस्य । का रूप-~ 10
सिद्धिः | कतां ।
| डिति टेर्छोपाद्छोपः ॥ ७ ॥
डिति टेर्लौपेन¶् लोपों भविष्यति । अभस्वाञ्र प्रामोति | डिर्करणसामथ्वा-
विष्यति ||
अनिच्वाद्रा ॥ ८ ॥ | | ' ˆ #
अथवानिन्त्वारेतस्सिद्धम् । किमिद मनिचवादिति | अन्त्यस्यायं स्थाने भवन्तं भ्र-
स्ययः स्यात् । भसत्यां प्रत्ययसंज्नायामित्संज्ञा न । असत्यामिस्संज्ञायां लोपो न ।
असति लोपे काल् । यदानेकाल्तदा सवादेशः । यदा सवोदेशस्तदा ' प्रत्ययः |
यदा प्रस्ययस्तदेत्संज्ञा'* । यदेत्सं्ञा तदा कापः†1 |
पिष्टनिदराद्रा ।। ९ ॥ ` `
अथवा प्रचचिष्टनिर्दे शोऽयम् | डा भा डा | सोऽेकाल्स्सर्वस्य [१.१.९९ |
हति सवोदे द्यो भविष्यति ॥|
यदा तद्ययमन्त्यस्य स्थाने भवति तदा तिङ्हणेन अरहणं न प्राभोति ।
तिङ्कहणमेकदेशविकृतस्यानन्यत्वात् । ९० ॥
एकदे राविकृतमनन्यवद्् वतीति तिङ्हणेन म्रहणं भविष्यति ॥ 28
स्वरः कथम् | ` | |
९.९. ५५. † ९.९. ९२. {[६.९०.१८६. § २.४. ९९३. ¶ ६.४. ९५४३.
। कक ६,०३.० ७9 ` 11 १,०९. ९
५०१ ॥ उ्याकरणपमहाभाष्यय ॥ [मा० २.४.३२...
स्वे विप्रतिभधास्सिद्म् ॥ ९९॥
डारौरसः क्रियन्तामनुदात्तत्वमिति किमत्र कतेव्यम् | परत्वादनुदात्त-
स्वम् । निष्या डारौरसः | कृतेऽप्यनुदा्तववे परामुबन्तवकृतेऽपि परामुवन्ति | भनुरात्त-
स्वमपि नित्यम् । कृतेष्वपि डारौरस प्राभोस्यकृतेष्वपि प्रामोति ।. अंनित्यमनुदा-
४ नतस्वम् । अन्यस्य कृतेषु डरौरस्छ प्रामोरत्यन्यस्याकृैषुं शब्दान्तरस्य च प्ाभुव-
न्विधिरनिस्यो भवति | डरौरसो ऽव्वनित्याः । अन्यथास्वरस्य कृते अनुदात्तत्वे
प्राप्ुवन्त्यन्यथास्वरस्याकृते स्वरभिन्नस्य च प्राञरुवन्तो अनित्या भवन्ति | उभयो-
रनित्ययोः परत्वादनुदाचत्म् । अनुरात्तस्वे कते पुनः प्रसङ्गविन्ञानाडतैरसः ।
टिलोप उंदा्निवृतिस्वरेण सिद्धम् || न क्िभ्यति । किः कारणम् | अन्तर क्गत्वा-
10 डारौरसः । त्रान्तर ङ्ग स््राड़ारौरस्डछ कृतेष्वनुदा तत्वं क्रियतां टिलोप इति कि-
मत्र कव्यम् । परत्वािलोपेन भ॑वितव्यम् || एवं तर्द स्वरे विप्रतिषेधालत्सिद्धम् ।
न्याय्य एवायं स्वरे विप्रतिप्रेषः । इदमिह संप्रधायेम् | भनुरात्तस्वं क्रियतोमुदात्त-
निवृत्िस्वर इति किमत्र कर्तव्यम् | परत्वादनुदा्तस्वम् । अनुदासस्वे ते पुनः-
परसङ्गविज्ञानादुदात्तनिवृत्तिस्वरो भविष्यति || तदेतत्क॒सिदं भवति | यिद्रच-
15 नम्।† | यदपिङ्कचनं तत्र न सिध्यति | तत्रापि सिद्धम् | कथम् | इदमद्य लसा्वै-
धातुकानुदान्तस्वं ्रत्ययस्वरस्यापवादः‡ । न चापवादधिषय उस्सगोऽभिनिविदाते |
परव ह्यपवादा अभिनिविरन्ते पथीदुत्सगौः | भंकेसप्ये वापवादेविषयं तत उत्सर्गोऽभि-
निविश्चते | तच्नं तावंदनत्रं क दाचिसत्ययस्वरो भवंत्यंप॑वारं लसंर्वषातुकानुदात्तत्वं
परतीक्षते | तत्रानुदाचस्वं क्रियतां लोप इति यद्यपि परस्वाछठोपः सोऽस्तावविश्मानो-
9० दासत्वेऽ्नुदात्त उदात्तो लुप्यते ॥
प्रत्ययस्वरापवादो लसावैधातुकानुदात्तत्वम् |
तेन तत्र न प्रसक्तः प्रत्ययस्वरः कदाचित् |
प्रत्ययस्वर तास्ेवुंत्तिसंनियोगरिष्टः |
तिन चप्यसावुदाततो लोयप्स्यते तथा ने दषः ॥
9 इति श्रीभगंव्यत््रटिविरकिते ध्याकरणमंहाभांष्ये शितीयस्याध्यायस्य चतुर्थे
पादे दितीयमाह्धिकम् ॥| पाद समाप्तः ॥
॥ द्वितीयोऽध्यायः समाप्रः ॥
# ६.९. ६६१. ¶† ३.६.४. { ३,९१.३,
पृ
|| अथ पठिमेदः ॥
प॑र
99
पर
९, ९ एण अंथ, © श्रीगणेशाय नमः; | ९ ९५17) ^ ष्याकरणमाधि,
म्,
श्रीगणेशाय नमः ॥ शशिरवे नमः; 8 श्री-
गनगेद्ाय नमः ॥ योगेन विन्तस्य पदेन
वा्ां मलं शररिस्य हु वैद्यकेन | योऽपा-
करोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजरि प्राजलि-
` शानतोस्मि ॥ ९॥ ओं; ¢ स्वस्ति अभीगने-
शाय नमः ॥ ओम्, & 71 "श. अयेस्यतः
पूवं योगेन चित्तस्येति पद्यं कचिस्पव्यते
तच्िछष्येः प्रक्षिप्तम् ।
९ © भथ दाब्ठानुचासनं महानाष्यं लिसस्यते.
६ 0 किं यत्तहिं सा०...बाणरूपं; °वि.
षाणार्थ> ^ °विषाणाथंरूपं शब्दतः.
. 4 9 7 ^ यत्तह चुहले ; 8 यस्व (०
&ण9]7 यत्तां ) दु्धो नीलः कृल्णक-
पिलः; 8 & ०. कुणः; 4 ¢ ण, कुष्ण
कपिलः,
९ ५74 7 यत्ति मिः,
१९ © विषाणाना.
१३ © 7 ^ कर्वचुच्यते,
१९ ^ 01, ज्ञेय
९९ 0 5 षडगेषु
२०९ 4०0). च्छु
२६९ ०तस्या
९ 0 ऽभ्यवस्यति । यदि पृंपप्रङ्तिस्वरतो
ऽध्यवस्यति यदि पूव॑पठ्र.
७ © तस्मादवि्ताताथंमनर्थकं.
` 2 ^ गोना गोपोतालि.
२९ 08828 & (८ 1०09. शरणम् । वि-
षम उपन्यासः । नार्येता्याः,
२७ © एवे हि सौ.
२८ ^ 071. यो.
३, २८ © ^ 0०. गुहायां .. नेङ्गयन्ति.
्,
र,
१ त्था जाया £; 974 जायवः; ©
£ ठ तद्यथा जायेव
७0174 ॐ ०पष्ण् © विङ्णुयादि
ल्थध्येयं
१३ © परिपवनं ति तद्रा तुनवद्ना.
२ (निना सभ्य सूषिरामाभिरतः प्रविर्द- .
६ © षति.
७ 7 & ? तेभ्यस्तत्तस्स्था^.
< -करणानुप्रदान? 2119 4110911 ; 7188.
करणनादानुप्रहान
९ 9 & 2 वैदिकाः शब्दाः सिद्धा
१० £ ध्येयः सुहृडूस्वा चायं ; ¢: सुहद्भल्वा
ए गार
२९ 0 गाक्रीगोणीगोपोवलिकादयो; ¢ गा-
व्यादयो.
२७ © 7 + (स्पतिश्च वक्ते.
२८ ० चतुर्भिः प्र .
२८ 0 ` युक्तो, ^ श्युक्तोपयुक्तां
६, २ ¢ पयंवपच्चं
७,
( 4
९,
१01 .4 येन येनास्पेन.
& © विद्येषापवादंः.
१८ (¬ सिद्धः । .
६ © ०"). पयाति.
२२ 9 ^ ग्योगि तक्ति `
८ © प्रयोक्तव्ये लौकिक
१९ © 2 © ध्भस्य; 19 & (6 णव
810८ ०१४
२९ © भर्थाब्गसौ.
४074 2 यष्लोके अप्र.
९ 07 4 चाहं.
१० @ प्रयोगः खः.
९६ © -सहसल्रकाणि.
९६ ^+ कश्िदप्या््रतिं.
१९ 4 £ न चैवोप०, एन वैते उपः,
२६ © 1 ^ इस्येतावत.
१०, २ 2 यदो रेत्रैती रेवस्यात्तमूष ; ¢ सथ्यथा ।
यद्रो रेवती रेषस्यं तमूष, & 1 गणा.
सघरास्ये रेवती रेवदूष ; & तथ्या । यो
रेवती रेवस्यन्तमूष ; 8 सद्यथा । रेवस्मं
समुष.
१२ © ०८, प्रयोगै.
१७ 0 कृस्वयन्ना^.
५०२ ॥ उयाकरणयमहाभाष्यम् ॥ | [मा० २.४.२, ,.
स्वरे निप्रतिंषधास्सिदम् ।। ९९ ॥
डारौरसः क्रियन्तामनुवात्तत्वमिति किमत्र कतैव्यम् | परस्वादनुदात्त-
स्वम् | निष्या डारौरसः | कृतेऽप्यनुराततसवे पराभ बन्तयकृतेऽपि प्रामुषन्ति | भनुदात्त-
स्वमपि नित्यम् । कृतेभ्वपि डारौरस्छ प्राभोस्यकृतेष्वपि प्रामोति ।. अंनित्यमनुदा-
४ स्वम् | अन्यस्य कृतेषु डारौरस्छ प्रामो्य॑न्यस्यौक्ृतैषुं राब्दान्तरस्य च प्रापरुव-
न्विपिरनित्यो भवति । डारौरसो ऽप्यनित्याः | अन्यथास्वरस्य कृते अनुदात्तत्वे
प्रा्रुवन्त्यन्यथास्वरस्याकृते स्वरमभिच्स्य च प्रामुवन्तो अनित्या भवन्ति । उभयो-
रनित्ययोः परत्वादनुदा्स्यम् । भनुदात्तत्वे कृते पुनःप्रसङ्गविज्ञानाडतैरसः |
टिलोप उदात्तनिवृत्तिस्वरेण सिडम् || न सिध्यति । किः कारणम् | अन्तर क्गंसत्वा-
10 डारौरसः | तश्रान्तर ङ्ग ताड रौरस्छ कृतेष्वनुरात्तत्वं त्रियतां टिलोप इति कि-
मत्र करैव्यम् | परत्थाहिलोपिन भवितव्यम् || एवं तर्द स्व॑र विप्रतिषेधास्तिद्धम् |
न्याय्य एवायं स्वरे विप्रतिषेधः । इदमिह संप्रधायेम् । भनुदात्तस्वं त्रि यतोमुंदात्त-
निवृ्तिस्वर हति किमत्र कर्तव्यम् | परत्वादनुदात्तस्वम्. । अनुदा्तस्वे कृते पुनः-
प्रस द्कविज्ञानादुदात्तनिवृ्तिस्वरो भविष्यति || तदेतत्क सिद्धं भवति | यसिद्व-
15 नम्।† | यदपिङ्कचनं तत्र न सिध्यति । तत्रापि सिद्धम् । कथम् । इदमद्य लसार्व-
धातुकामुदा्त्वं रस्ययस्वरस्यापवादः‡ । न चापवादधिषय उत्सर्गो ऽभिनिविशते ।
परव ह्यपवादा अभिनिविरनते पथीदुंत्वगौः | भरंकलच्ये वापवादविषयं तंत उत्सर्गोऽभि-
निविश्यते | तत्रं तावंदच्रं कदाचिसत्ययस्वरो भवंत्यंपवारं रसोर्वपातकानुदात्तत्वं
प्रतीक्षते | तत्रानुदाचत्वं क्रियतां लोप इति यद्यपि परसराछ्ठोपः सोऽसाववि्यमानो-
90 रासस्वेऽनुरात्त उदात्तो ठुप्यते ||
प्रत्ययस्वरापवादो लसातैपातुकानुदात्तत्वम् |
तेन तश्र न प्रसक्तः प्रत्ययस्वरः कदाचित् |
प्रत्ययस्वर तासेवृत्तिसंनियोगिष्टः |
तैन चाप्यसावुरात्तो लोप्स्यते तथा ने दषः ॥
४ इति श्रीभंगंवत्पतञ्जलिविरचिते ध्याकरणं महाभाष्ये दवितीयस्याध्यायस्य चतुय
पादे द्वितीयमाह्विकम् || पादश समाप्तः |
॥ द्वितीयोऽध्यायः समाप्रः |
7 ६.९. ९.६६. ¶† ३.९.४५, { ३.९.१.
पृ
९,
म्,
॥ अथ पाढमेदः ॥
पण
पण
९ ए<017€ अभंथ, © श्रीगणेद्ाय नमः; ४।९; ९67 4 व्याकरणमाधेः
श्रीगणेशाय नमः ॥ अशिरवे नमः; 2 श्री-
गगनेशाय नमः ॥ योगेन विश्तस्यं पेन
वाचां मलं दाररिस्य दु वैद्यकेन | योऽपा-
करोत्तं प्रवरं मुनीनां पसजल प्राजलि-
` शानतोस्मि ॥ ९॥ ओं; ¢ स्वस्ति अगन.
शाय नमः ॥ ओम्, & 11108. अयेस्यत,
पूवं योगेन चित्तस्येति पद्यं कचित्पव्यते
तरिष्ये: प्रक्षिषम् । .
९ © भथ शब्दानुशासनं महानाष्यं लिख्यते.
६ © किं यत्तं सा०...्राणरूपं ; 1१.
षाणा्थर; ^ “विषाणा्थंरूपं शब्दः.
. 4 9 7 ^ यत्ति शह ; 8 यस्तहि (०-
8202115 यत्तां ) शुको नीलः कुल्णक-
पिलः; 8 & ०01, कृष्णः; 4 ¢ ण, क्ष्ण
कपिलः,
९०747 य्ह मि,
१९ © विषाणाना.
१३ 0 1 ^ ऊ्कवघ्ुच्यते,
१९ ^ 00). स्तेय.
९९ 0 8 षड्गेषु-
२९ ^ 0. च्छु,
२६ © तस्याः.
९ 0 ऽध्यवस्यति । यहि पए्र॑पदपरङ्तिस्वरतो
ऽध्यवस्याति यहि पूवपद?
१७ ¢ तस्मादवित्ताताथंमनर्थंकं.
` 2४ ^ गोना गोपोतालि०
३
्,
र,
२९ 088 & ¢ 1" "84. शरणम् वि
धम उपन्यासः । नास्यैतायाः
२७ 0 एवे हि सो.
२८ 4 ०1. यो.
२८ © 4 ००. गुहायां .. नेद्खःयन्ति.
१ त्था जाया ६; 07०4 जायवः; ¢
£ 8 तद्यथा जायेव
७ 074 & णहट्ण्शाफ © विङ्णुयादि
ल्दभ्येयं
१३ 0 परिपवनं ति तद्रा तुनवदा.
२ (निना सभ्यं सूषिरामभिरतः प्राविर्द- -
६ © परति
७ & ? तेभ्यस्तत्तस्त्था.
< °करणानुप्रकान? 81४47109; ; 7188.
करणनाशामुप्रशनः
९9 & 2 वैदिकाः शब्दाः सिद्धा
१० £ ऽध्येटभयः सुहृडूस्वा चायं ; ¢: सुहद्भल्वा
17 17847.
२९ 0 गाकीगोणीगोपोवलिकाद्यो; ¢ गा-
व्यद्यो,
२७ © 7 4 स्पतिश्च वक्तै?.
२८ © चतुर्भिः प्र -
२८ © ` युक्ती, ^ श्क्तोपयुक्तां
६, २ © पयंवपश्चं
१ ५914 येन येनास्थेन.
६ © विखेषापवादः.
१८ &। सिख | ,
७, ६ © ०). पदयाति.
२२ © 4 भ्योगि तिर.
८, < © प्रयोक्ष्ये लौकिक.
१९ © £ ¢ धर्मस्य; 10 ह (6 जणे ४
870८ ०४५ ,
२९ © गमधौश्गतौ.
# 0174 3 यल्लोके प्रः
५०74 चा
९० © प्रयोगः ख.
९६ 0 सहनलकाणि.
९६ ^ कञ्िदप्याहरति.
९९ ^ & नेवोपञ, टन वैते उपः,
२१६ © 1 ^ इव्येतावंत.
१०, २ © यदो रेत्रैती रेवस्यात्तमूष ; ¢ तद्यथा ।
यद्रो रेवती रेषस्यं तमुष, & 10 10४४४.
सपास्ये रेवती रेवदृष ; £ तदयथा । यदो
रेवती रेवस्यन्तमूष ; ठ तद्यथा । रेवस्ं
तमूष.
१२ 0 ०८, प्रयोगे.
१७ 0 कृस्वयन्ना^.
९०४
० पण
९०,९८ (@ 7 ^ ०१. वै,
२६ © ०. नतु च्छ.
९९, ९ 0 शमे एव.
४ © तहोषाय.
८67; स कोषो,
९ 0 यद्यपशाब्द
६० © ^ € भूयसागङृदयेनः
१९ )४&8&€ 10 णक, अंन्यज्रानि
यमः, २६6१ नियमः,
२९ © ०),
२६ 2 £ 8 श्याक्रियते शबल भने 0
ध्याक्रियेते अनः, & शान्डा 7\ णाह.
९२, ९ © आपिशलं ; ८ सालमिति, ८६९
10" काच क्स्स्नमिकति.
१० 0 1 यदप्यु्यते. ।
१४ (0 0, हति
९६ 0 पुनकंक्षणं लक्ष्यं च
१ 7 &£ ए एवमप्ययं दोषः समुद्यये ; 0 188
दोषः 10 081
९८ 0 °धीयमान
९९ ( 011. हि
२९ © ^ श्वेष्वपि वतैते; 7 8 केष्वपि वतेते
९३,९३ © 01. इष्टबुङषरथंश्च । |
९९ ^ 2 ©& ? ०. आकरख्युपदेशास्सिद्धभे-
सत्.
१९ 0] पदिहलिसासं.
२३ 0 ऽम्बुकरतो.
२९ 0 "मम्बुकरतं.
` २६ © संदष्ट °.. इतं ; 7 + इत.
९४,६४ 0 1) ^ £ वाक्यानि हि.
९९ 9 नाथं उप० ; ¢ ना्थमुष.
९५,९६ © 0. विवृतस्य.
६७ ? ०70. वा; 0 ख्यायते ...मानस्य विचर
वाश्चौद्तेति; 7 संृतोपदिदियमानस्य वि-
छतश्चोदेतेति ; 4 भानस्य विचतश्चोयखेते-
ति ; © ख्यायते. . स्य वा ॒विष्तोपरेदा-
चखते; £ 'ख्यायेत संङतस्य क उपदि
इयमानस्य विदत शओेतेति
६ 0 7 (हारे अकारमरहणे
१६, ह 0 कोन विश्चेषः.
३. © सव्र
६७74०00. शच्च.
< 09 ०1. संवतो.
६ 0 वक्ष्यते
९७, ९४ (> 01, 006 विषये
॥ पाठभेदः ॥
ए १
१अ,९८ 7? (~ & ? जटिलो; ^ जरी.
२३ 0 0 ^ भविभ्यतीति.
२९ ० 7? 4.8 & गणधा 8 “ङत्तिकाय
२७ 0 ^ 000. कथम्
९८, ६ 0 भव्ति 1०8४५84 ०{ संपन्नाः; ^ 2
संपन्ना मवति
२०74९8९8 प्राघ्ुवेति.
३ © शव्करोतीति; 7 4 शव्करोति इति
६० 0 1) एयक्स्वेषु ह ; ^ इग क्त्वे द”
१२ ^+ मधुराया...
१३३ 0 (ड् इत्यन
२० ५ ००, चव.
२६ 0 प्रत्याख्यायते हि तम.
६ ^+ यन्मधु.
#. 0 भन्या्मश पः.
९४ © भविष्यंतीति.
२० © “चतुद
२४ 0 ^ ॥९९९ प्रह्भृ्वाम् भप्त, प्रकु
२०, ७ © दपरिड इति । एषोपि हि श्ाफेड
+ त्फिडश्चाति । एषो
९ 07) ^ “चछब्डाः न संति यदृछाशब्ड इति.
९२ ५ 1) `दिन्न च इदं .
१९ © 2) ^ ०1. हि.
९९ 0 नेतहोषाय.
९८ © 0 ^ वेच.
२२ © पिबति.
२३ ^ यश्चैव
२७ © 01). स्यात
२८ © न्यो ऽपशब्दाथकः.
२९, ९ © भविष्यंतीति
६ ©. यवर्थमुपः
९९ 0 न च्वापरब्डेन य; 724 न चापं
शब्डःनदह्यः
२५1 ^ पिष्टा शासे प्रक.
९६ 2 0 & ? ०0. इति वक्यामि.
२० 07.428 8 ०00. व्योष.
२९०५४ ८ संप्रसारणे, =
'दराकूष्यते; 7 श्वा निकृष्बते ; ^
ष्टां नि कुष्यते.
२२०९९ © 1) सिभ्यतीति
९३ © अतःपर ; © अतपरस्वं
९८ ? वर्णो भूरिति
२६, ६ © 7 ^ १५०९ योतरतमो ४८०९ दीषंश्च
¢ 088 प6 दषा€ गाहप 0 पाथ
|| पाठभेदः ॥।
हण पं
२३.२३ © अथ ...७पि (जः.
२९ © स्यात् नवेति.
र४, ३ ( 017). कीषं इति.
१० © वङर्यतीसि,
९० © इतरथा दीषास्पदांतारिस्येव.
१९ 0 मि सेस्मावः,
६२ ७ 0 रध्वदेव न.
१८ © क्रिस्करणस्थेतस्य.
२७ © 7 4 ०४. तस्य निभिं.
२९ ३ £ नाव्यपवृक्तस्याव्रयतरस्य.
४ 0 अष्यपठः.. विधिने भवति. .
९०7 4 तैलं न विक्रेतव्यं घृतं न विक्रेत-
ष्यमिति, |
१३ © विदवखद्सिभ्यक्षरेषु.
२६, ९ 0 'भयज्र..-रण्ुतिलेर 7 'भयन्.
३ 0 ऋवण्णाचेति.
९७ इग्येत्र त्व सि.
६ £ यच रे०,
९९ © 7 + °काराण्णस्व.
१२ ७ 7 ^ ०7. स्वात्.
29, २ 0 पूतश्च परश्च.
२८.१२ © संतति हिरव चनेपि हि ने”; ? दिवं च-
नेषि हि नेः.
६८ 7? & ४ “रासुनालिक्रयमाः; © ०. °बु-
नासिक्यः; ए °ऽमानीयानुनासिक्रयमाः.
९८ ६1१११8४ 11९0६०08 (€ 7९१वाह ननुष-
दिष्टाः श्रुयन्ते, ४1१००६८ च.
२९ ४ उरकण उर^कण उर पेण उरपेनः;
0 188 इरनकण उरन्पेण 11 1१1.
२९.२३ ७ 7 ^ 8 #॥ \ उब्जः.
३ @ 07). ततो. ।
४ 0 गवति वरिवः.
# © °देव तस्सिः; ८ °केतह्सिर.
९९ 0 कतैष्यं भवति.
९ © 7 ^ संयोगंत्ता च प्र.
९८ © 7 ^ भविष्यति,
०२ © भवेतीस्यस्य सस्वर.
२४ इर्कः। उरपः; 0 उर । कः) उर€््पः
9 10 1891. उर > प्रकरः उर^पः.
२९ 07 4 स्थानिवङ्धाव्रप्रतिषेधः, ष्टि
"बेधश्च.
३० ३ ¢ अर्वतो वणौः कृतः धातु...दशंनात्
धातव एकवणा.
३ ० प्रासिपदि्षान्यवप्येकः.
५९०५) + उ अवक्रम; © 11 81. भ-
निशः । उ उात्तिष्ठोति पाठातर.
64 भ
५०५
¶१० पं०
६०, ९९ "्पंअने; 0 1" ०४. "पसंञ्जने पातर,
१२ #98. लेन मन्यामहे.
९३ © यक्रारस्य तस्मादूर्थवंतो वणां इति ;
7 यकारस्य.
९८ 7 श्यते ह्यन धै गतेरिति न साधीथीन्रा-
व्यर्थस्व ; 7 4 न साधीयो ऽज्ाध्यर्थस्व.
२० © ०11. न कंडथगतिः.
२९ ^ ०१.
३९, ९६ 598. ९९९१८ -4., करनेस्सके?.
३२ ९९ वड्यति; © 1० "87 .करिष्यति पाठातरं.
९९ ^” 0 ^ भवतीति.
९८ ¢ आ्वा्वाणाभुपदेशाव् सथा द्याचायो-
मामुपश्ारः तै; 1० 7978४. उपश्ाराव्
पत्तर.
2० 0 0,
२९ 1) ^ ०11. अप्रधानसवा्च.
९ 1) 4 ? ह 0. हस्वदीषंघरुतः
२०७ 7 4 & ०8£"8]र © पूतं एष.
९० 7? ‰+ सावस्पु्रै भः.
१८ © विभाषा कर्थं.
२२ © ;\॥ "0". निस्थेपि हि लोपे पाठंतर.
३४, २ 0 07. अनुवतते ; 0 ^ शग्धमाव्वायोणां
वतेते विभाषा न वेवि.
९५ 0 कतरस्वस्मि"; 0 कतमस्मि, ०181४
१11 र कसरस्मिः.
१८ © संदेहः स्यात्.
२४ 133. ९९९] ^, व्येव सः.
२६ 9 1 ^+ भक्ति यद्.
३९, ९ भविष्यति; © 7) १४8. भवतीति
पाठांतर,
३ ५ 7 ^ जिहीर्षति.
< £ 7 सवयैण्म्रहणं त.
१९ 9 0 4 य्वोरिस्य्रः 0 1०0 णडा
रन्यज पाठः. ।
९९ © 7 ^ प्रवस्नमाः.
२० (@ & 01&णथ$ 7 एवानुबध्यते.
३६, ९ 0 ^ सरप्रत्ययः; 1 सरः प्रत्ययः.
९६ @ ^ & 0;819811फ 7 योयम..
१७ © बेदिन्नद्यराशिः। सर्वेपुण्यः.
२० 0 800१5 पदपदा चेवम् २ परंथाप्रथ ८००;
1० 7781. पस्पच्चा नाम प्रयो जनाहि कम.
३8, १ 1 0०१. 88.87, 1 ४ ० | १&. 106, 25:
५ 0 छंहसि.
१२ एष विधिः; 0 10 पण्ड. स्थरि;
पाठातर.
३३,
&०६ || पाठभेदः ॥
प्ण पण
१७,१३ 0 भायां यस्य स ताः.
२० © प्रभोति.
२१ 0 निमितं वृखधिनिमितं कि च कः.
६८,१६ © संप्रवृत्ते; ^ 5 संवृत्ते.
१७ 0 ^ "चऋालमिसि.
२० 158. ९४०९]४ 6, वेन मन्थाः.
२२ © ००. इति.
३९, ४ © स्येवावदयु.
७ € & संता सं्तिनं प्रस्याप्य स्वथं निव-
तंते; 2 8 ४€ 80९ जाप स्वयं.
१९ ^ £ (^£ 8 प्रयत्नेन.
१९ © ^ वृद्धि.
२४ 7 & 07). लोके.
२७ ^ 2 (^ @ ए ०". यद्घ.
४०, २०4 बृद्िश्चाः.
९ © 00. इति.
१० £ ? संतताः क्रियंते.
१२ ^ शङ्क्यते ततो.
१४ 2 (^£ ए क्रतस्तत्र षूः.
६९ © ^ ००1. वृरंराभिसंबन्धः.
९६ 0 तस्याः कृत इति; © (16 शछा९ 07
81678100 ; © तस्याकृतः.
२२ £ नेतरत्राणाय.
2३ 0 ^ 0). तद्यथा.
२९ © तत्राप्यंगतः.
४९, ९ 73 चेत् न निः.
०५4 म॒नः प्रसंगे.
४२, ३ 0 स्वाख्या.
६ °हदान्मे © 1" 191. उदान्तगुणकौ
पाठात.
९ 0 |. ॥ (ैतेति युः.
९९ ¢ 4 ०011. इति.
२० © नियमात् तपरे गुणश्द्धी ननु.
४३, ८ © पररूपे.
४४, ९4 £ ८ 8 “ज्ञा प्रात्रोति.
७ ७ अरैजदेङ्क ^ £ भादेऽम.
९० ¢ ए "करणाच प्र.
१० 0 77 17१12. प्रकरृतस्यापवादो पाठातरं.
९९ व्धनाच०; 0171878. करणात पारंतरं.
९९ © ^; कथ वाय; 61" ९. च्चा पाठांतर.
९७ £ वाञ्ये ; € 5 वाक्यं तथेदं च,
२० ५ 7 ©& ? भिदिभृजिपुगर.
२२4 20 2 मिदिम्मनिपुग.
२३ ^+ ४८४ 8 १० प्राप्रोति ॥, मृजवृंचिः
इकर दति वक्तष्यम् भनंस्यस्वाद्धि न प्राप्नोनि.
४० प
४९ ६ 0 स्थाने षष्ठी
४ 0 <न्स्यस्य षष्ठ्र.
६ ८8 8 ०. क्रि तर्हि.
७ ^ 7 ¢ & 2? भिदिप्रजिपुगः.
९ ^ £ (^ 3 अर्लोर्यस्योति.
९३ ¢ हूस्वाहचेयो.
४६, ९ ५ रिति भवेदिह नियमोऽन॑स्यस्य न
स्यात.
९ 0 ०. स्यात्.
१९ © संमषो इदयीः
२९408 7 ००. विप्रतिषैधः.
२६ २९८४९ प्रापीति।नाप्राषे नियमेयं याग
भारनग्यते । यावता च नपा.
२४ ¢ (^ £ ०1. ऽतस्.
२७ © ०70. शणो भवति.
४७, ९५ 7? 0 8 2 भिदिमजिपुगः.
५०७ ^ मिह् एः; € मिद एः मिदेरिति.
९०८4 £ 8 चटच्छति भट चतम्.
९२ © प्परः; 11 187. परं इरयपि पाटः,
२२ © किस्प्रः
२३ © ^ 01). तद्ध.
२९ ¢ भत्.
४८.१९० ^ £ 8 7 ०10. परिमृजन्तु परिमानं न्त.
१४ 0 23 01. वा.
२९ © नन्वस्ति पु^.
४९, ६ 1188. ॥€7€ 8०१ ०९०, तान्तः.
१९ 2 ¢&€ 3 तट्रक्तष्यं न वक्तव्यं निर्ध
२९ © स्तीति गमयति दशयति.
२९१९०५4 8०). इपि.
२२ @ ०.
२४, २९ © स्थानेयोगात्, 10 "978. योग-
त्वात् पारतरं.
९९, २ 0 ^ ०. पञ्.
६ 0 0. इति.
७ 0476 क्रोपयति अक्रापि.
८ 1 4 070. यथेच्छसि तथास्तु.
१० भ 4. 011. इह,
९३ © 19 ज्तापकास्सिद्धे ४प्थि इति.
९९ (अ 01).
९६ 0 “क्यचवलोपे.
९६ 0 & ०181०811} ^ © मरीमृ जकः.
९७ 0 कय.
२० © 4 नुम्लोपः।.
२९ © ^ अनु्धलोपः.
५२, ५ © ज्ेममणं; ८0 € ०. जिदेः...खविक्ा,
| पटभेदः ||
१० पण
५२, ८ 0 जीवे रदानु.
९.८0 £ संप्रसारणं.
९१० 082 संप्रसारणं; ८९६४ 8११
भवति,
९६३ © अजादावपि दृयते.
१७ तस्मादिग्लक्षणयोगणव्द्धधोः प्रतिषेधः
ए 870 ^; © ४५११ तस्मादिग्लक्षणा
बुद्धिः; € £ ४ ॥४१९ छण तस्मादि-
ग्लक्षणा इद्धः.
२४ 0 तज्राप्य.
५१३, १० 0 वाभ्येत.
९४ € ए ण". प्रस्यया... सिद्धम्.
१९ ? 0 £ 8 संप्रसारणं.
९९ ^ ¢ & ए प््यन्तं किं सं .
२२ ¢ गुणो भाव्व; & गुगमावीगस्ति.
२४ 0 £ ग्वषस्य चांगस्य ; ४8 अंगस्य 1"
।, 114
९ ^ © पुगतं च.
४ £ 2 & णाष्टाण्मा) 2 अन्न प्राप्रोति.
६ ¢ त्तुषधत्वाः.
9 0न कञ्चि.
५९, ९ ^ ए ¢? स्थानिवत्परसगः.
।
- ९६ 1815०८९ : केषाचित्पाठः दुपयाप्तश्चैव
हीति.
२२ ए छंक्सः छंठस्यदी.
२३ ¢ गुणस्य दशं.
२४ ए ¢ £ ए दीधीवेष्यौ छंदोविषयो दृषटानु-
विधिश्च [£ ०. च]च्छदसि भवाति दी-
धीविव्योदछंहोविषयववादृषटानुषिस्वाच
च्ट्कद्सः.
२४ 0 वृष्टानुविधिखाछंइसः.
९६, ४ ^ 108 2 वाधेत।.
९ ९808 दीभ्यदिति च इयः; 9:
कचित्तु दाष्यत्ययेनेति पाठः.
१० & दीभ्यदिति चव इयन् एषः; » ¢ वीध्य-
दिति च इदयन्व्यः; 3 01818119 दीध्य-
दिति इयन् एष ष्यः; 81८६7803 चष
788 0६८ अ7पल 0प,
१९ 0 ^ & 8 अंतरा एषा; ¢ ६ अंतरा
येषा; 2 गण्डा अंतरा येषा,
४1४९1९१ ४० एषाः,
२९०५ ^ ए £ अंतरा एषा; ¢ ए अंतरा येषा;
8 गहाण भंतरा एषा, ९1४6760 0
वेषाः.
५४, ॐ @ ^ ग. न्ध,
। ८ @ ५9
पं.
९ © यदुच्यत
९३ 0 ^ 010. च.
९८ © & 010. चच,
९८ 0 ०7. संयोगः. ,.इति,
९९ ७ 0०. सोऽयं; 0 8 1४२९ ऽसौ 1-
७१०४१ ; ^ ग्य॑स्यासौ.
२७ © ०. कि.
५६, ६ “ 4 0. च.
७ ¢ ¢ & ४९ ०169५०० & संयोगसनज्ञा.
८ 0 इयोत्रंयोः संर; ^ हलोः संर.
१४ 0 ^ 2 ययेवं.
१४ © संज्ताथवा दू.
१७ 0 ^. यदा दूयोस्त.
९ © 4 & ए भंतत एषा; ¢ £ अंतरा
येषा०; ए 01819115 यैषा, १1४९7९0 ४०
एषाः.
९९ 0 निर्विशति; ;" पराष्ट. प्रतिनिर्दिशति
पाठातरं.
२४ 9 ^ प्राप्तोति.
२४ © संयोगि.
२६ © ^ संयोगं वि.
२७ © ‰ ०". इति.
५९, ९ 0 प्रभोति
९३ (~ 111 791. उवोख.
९४ © ^ तीयस्य ष्य.
९६ © भवति ।.
९७ © 01). इति,
२९ ७ वाटरकपरिक्षेषे.
२२, २३ © स्थंडिले.
६० २ © भवति.
९ 0 भखम्रहणं पुनः च.
१४ @ ०. ते, वे.
१५९ © ^ ०1. ते.
१८ © ए ०. € गऽ च्व.
९८ तर्हिं इतरे”; £ ए & ७१ ४1८61४०1 ४
तदेतदितरे..
९८ © ^ शख्रयाणिन च प्रकर.
२० © व्यमुक्तम्
२९ © ग). किमुक्तम्.
२९ © ००. ख दाब्देषु.
२२ ५ श्व सन्तः.
२४ © तत्तस्य सर्वै; ^ तत्र सर्वर,
२९ ७ ^. ए तस्यानेन; # तस्या अनेन.
२६ ५ ^ 8 भवति.
६९, ९ 0 भात णाह्ाण्भोड + नुप्रहयबः,
8
९७,
1
९०८
¶१० १०
६९, १९ ? 08८ सिद्धा मबाति; ^ सिद्धेति.
९६ © 10 78. -दघोषवेता पालवर.
२० & £ (£ ०१). कि कारणम्.
२९ ॥ भेके इच्ान्ति..
२७ ० कथ ताहि प्रयतनं प्रयन्नः नाथं नावसा-
धनः प्रयनः कि तहि.
६२, ४०५९ प्रयन्न इति कि ताहि प्रयतनर.
२७, २८ ० ब्टकारल्कारयोः सवणसं ्ाविधिः॥
ऋकारल्का०; + 2 00४) ४९8 इरक्रार-
स्कार; (` ४15 णाा# 101 1. 27.
६३, २८०८६४8 चति कऋवा..-दति क्वा.
४0 लकारष्ववौी ङ् भ (0 क्करि परे
ववाम; £ संकारे परतदक्रारोकषा
भ; ठ व्प्कारिषा द्द भर.
६ 0 बकारः त्स्करारो ; एकटक्रारः स्छकारो;
८8 ऋकार ककारो; €ककारष्ट्करारो.
६ 0 कट्कारस्य क्छकरारस्य अच्त्वं; एषः.
कारस्य क क्रारतस्य खाष्टट्वं; ¢ 2 ऋकार.
स्य करस्य वाश्स्वं; ह ऋकारस्य क्छ
कारस्याश्स्वं.
६ © ^ कतंष्यं ; 2 क्ष्यं.
® 9 शोढ ऋकारः होतृकारः हो ककारः
होतृकारः; ए होढ भकारः होतृकारः
शोवृलकारः; ¢ होल ककारः शोरेकारः
होटृकारः होक लक्रारः होत हकारः होतु -
कारः; £ होढ छकारः शोतृकारः शतृ ३.
कारः इति शोढ खकारः होतृकारः शतु ३-
कारः ; 8=-&» ४८४ ०1. इति, & 98 8¢
"<€ ९०१ होररेक्रार इति. `
१४ 0 कतव्यमसस्यां.
२६ © 9 ०४. इति.
३४, ७ ? ¢ £ स्पृष्टं करणं स्पश्नां.
< © स्वराणां विठतस्वं; ¢ 8 स्वराणां च
विहतं ; + ? स्वराणां च विवृतस्य.
९५ 0 गृ्धातीति.
१.७ © 0111. कुमारीहते.
२४ © ^ प्रापभरोषीसि.
२६ © वां एतदः.
६९ ९04 & गषहट्शार् एषाम भत.
२५७८५? प्रापोति,
६६, २ © किमथेमिहानीं वः.
७ (~ £ 8 यदय रुतः प्रकृ व्योति शतस्य.
९२ 0 प्रगृह्यं प्रः.
९८ 810 २० 20 :8. ^श्यते.
६७, ९६ 0 एतर्हीदांयः.
|| पाठभेदः ॥
¶ृ० पै
६७, २२ 0 7 भवति.
२३78 ॥ हीदारि न हिव्वनं; पवा११४४
70€0001,8 © ९5६ ईदाद्यन्तं च
श्रूयते.
६८; ९९ ८ “विधेः प्रवि,
६ 0 खल्वस्मिन्पक्ष ; ए खस्वच्यस्मिन्पक्ष.
१ ०७ 98 सतोहि. ।
९० ¢ भाङ्गुणापभसिद्धिः.
१० 0 7 (~ तस्मादन्राश्रः.
९३ 0 अदसः पर दहा; ए 198 परे ¡ण
षाष्ट. ; ¢ 186 परे ०0ा्टाकन्ल्पे.
२० १६६.]1०११{४६ 9880110९3 ६७६८ ९2९४१२१1
10० {€ ०48 1. 12 भयवा प्रगृद्यसंत्ताः.
अथवा योगविभागः, 1.19 अ्थवाहायमः,
15 (्णााफलाक्नह् ग ६€ भौ द्€ इव्त
ऽ व्वनसामभ्वाडा, योगविभाग,
माथोरीदाद्य्थानां वा, & ॥€ ४१०६: अन्य
स्वथवा वथनसामस्यतिस्याहि भाष्ये
भाष्यक्रत एवोक्तिरत एव साप्रतयस्तकेषु
वारि कापा इस्याहः | अन्ये स्वम्त्य उक्त
वेस्यस्य वात्तिकरषं स्वा कोरे वासिका -
पाठो भष्ट इत्याहः ॥. |
७०, ६३ 0 एक्राजित्युच्वमाने; ए एकाजिस्य॒ख्य-
मनि हि.
१८ 0 खदि श्यथान्य् ; £ हि योचखान्यश्च.
७९, ® 0 व्रिद्यार, |
१६१ प्रतिषिद्धार्था;० 1" "ह प्वेधार्यो पागंतरं.
९२ 0 बृहती ख शरहरी ष्व; £? बृहती
शङ्नरी.
९६ 0 वटस्य.
९६ ?. ^ £ » "पङो्तस्येस्येवं.
९ (© अज्रापि प्रापोति.
९८ © “संप्रत्यय हति सखम्.
9२, ९ ५नष्वउब्रेरः एन श्व उञ्मैर, भ्व ४०
नोभे; ^ 8 नोम एन उनभ्रैर.
२ ०7 प्रतिषेधार.
१२ ०ङईवायथा.
® (0 भवति,
२४ 0 ननु भूषि.
२९ & प्रणिश्यते प्रणिद्यति प्रनिधः.
१ " कर्तव्यं 07 क्रियते.
९६ ¢ रातित्वातिराातिराशतिरासतिस्षस-
विदशति. ।
९४ © तस्मात् न कर्तष्यं नेवं सकय.
२८ 7 ¢ "धोभंहणाद् ब चैर.
६९,
७३,
७४,
|| पाठभेद ॥
१० प
७९ २ £ ८ ०. प्रादबः.
२ ४९9 °संज्ता मवति
` ७ 0 भागने ह्ययं `.
९९ © प्रतीतियु^.
९६ ( उपाहस्तित्य.
२२ © न वक्तव्यं. `
२९ © देषप्तिषेधो.
७६, २ © अनेक्रातो हि अनुबंधाः; ¢ भनेकातो-
नुबेधः; ए भनुर्बधां अनेक्राताः.
४ ¢ “द्यं क्तंष्य. ॑
१२ 0 £ ष्यातिशार.
१७ ९९५६० : कचिहाश्यन्तभावादिति पठः.
२० ¢ °न्तोपदिष्टानि.
२० © च तानि स्वरिति.
9७, ६ (५ करिष्यतीति ; 7? & करिष्यति हरिष्य-
तीति.
१९. 0 स्थंडि लके.
९६ © 2 स्थंडिलके.
२० (श्येष्ठः पृली.
७८, ९ गन्तापविष्टानि ; © 11 "१४. लोप-पाठः
६ © आहिकंबकायनिः.
< ०९ ण 11€ #188. (एषा £1९९
८06 प्रक्र 198 8--1; इदृक्ाषन्टाफृ, 0
€ ४5. 4. 188 €श्ला फ़ ण))€ा€ €२९६०४
1 € ९98 9 भ, 10 & 8६0] ०८७1€
४१€ ७०१ प्रयो जनम 11) ५116 1106 (0110७.
10 € एकाय,
९७ चेत् ; € 8 दष्ट ; ए 1९११8 वेष्ट, ०४८ 8-
76978 01117811 ४० 1४९९ 16४१ दत्,
२० © 'कथनातं प्र; 1) "9. अंतवस्वे
हिव्वनातप्रगृह्यस्वे पाठः.
७९,६९ (> (निम्रहश्च.
२२ © प्रसञ्यते.
८०, ४ 2 संख्यासं्ामां संख्वाप्रहणं संख्यासं-
प्रस्ययार्थं.
९ ¢ प्रतीयते; 11 ४8. प्रतीता इति वा पाठः.
१० (; 8 क तंष्यम् । कि प्रयोजनम् । .
६६ ¢ £ कृञि कायंसंप्ररवयो.
१८ © अत्रापि 1०8४४९४१ 9? एवं तर्हिं
२२ ७००. थ,
२४ ( ०1, च्च,
८१, ४ © पांशुर०; 2.0 £ 8 पाद्धलः.
९८ @ न क्वैव्यः ४6 कर्तंष्यो ; ४ ठ ४6
9७ च्& 10 70,
१९ ते 4; (€ ०४४९ 2083. तेन.
९०९
१० प
८२, ४ 6 ए प्रकृतमनुवत्तेनादन्यार्थ.
६ © ४ वल्वन्य.
७ 0 °भंवति भर,
® @ 0. ०00€ येन.
९९ ० कि चम
८३.१३ 0 5 शहताद्यष्टनो नु.
२२ © श्यस्य इति एका०; ^ द्यल्य एकास्तां
एका इति.
८४, ९ 0 ^ श्युल्य. |
९४,१९ 0 ०1". निष्ठासंज्ञायां ; ^ 011. 11€ 14
६१ निष्ठासंन्तायां 9 1716 18.
२३ © काक उस्पताति उत्पतिते.
८९, ३ 0 सानुबधस्येः.
२ 0 काक उद्पतति उखत्तिते.
९२ 0 ^ प्राक्टेः.
<६, 9 0 ०10. इस्विज्ञः.
९६ © विधीयो.
९७ 0 श्यते.; 1० ०57६. येव पातर.
९८ © निर्त्तयतिं.
२० © ("द्थाप्रपिं च,
२२ © ष 2नि्हसेन
८७) ४ 0 ग्ना मूलो; ¢ नना लो; &8
गनाह्लोी.
९ 0 वन्तष्यः; ¢ 0ाह्ाभार कतैष्यः, 81.
{९९ ८० बक्तव्यः.
१} 0 ०१1, © शनिषखन सर्वादीनि.
६७,९८ 0 £ "मदड्वः ¢ -मबद्धावे ; £ € ग.
उतरादीनामङ्वि प्रयोजनम्;
1, 17 810 प्रयोञज्जमप्र 11, 18.
२० ‰ 070). |
<€, २ 7१४००10) ९४५६ : प्रायेन नाम्बेऽपि भका-
रादकारास्कारा्ैत्येव पाठः.
९ 0 ब्राह्मणक्रुलेन. `
७ 0 सप्तमीनिर्दिष्टे यदुच्यते ४०८ तथापि.
७ 0 तावदठङत ; ० ¢ तावदडुत; € ता-
वदडत.
< 0 स्येति स्थानषष्ठी.
€ 0 श्क्यं विभाक्ति, .
८९, २ 0 भवतीति. ` `
१० 0 ¢ 'बश्वनविषयेषु?. `
९३ 0 शशब्दोन्यन्न. |
९०, २ © ढतीयापी हीष्बते; 0 ऽपि बृदयैते.
३ 0 १९ हेतोरिति, उभस्वाप्येषा उनमा-
भ्यां हेतु*गां उभयोेस्वोरिलि.
8 ©फ).
९१० || पटभेदः ॥
१० १०
९९१,१९ प्रियविश्वाय ; 0 11 97. प्रियसवयिति
पाटातरं.
९८ ? तद्यत्र ताबृ°.
२२ 23 ण.
९२, ९ £ तद्य तादृ.
९९ £ (^ £ यथा विज्ञायेत.
९२ ०७०११.न्.
१३ © 01. सवौदीनि,
२९ © पूत्रैपागे.
२२ © पृत्रैपाठो.
२३ © यद् पृवोदिभ्यो नवप्रर
९३,६९ © 7 7६. ब्रहणानर्थक्यं पाठं ^.
९७ ० प्रेक्ष्यपू^.
६८ 0 वसंतित ; ८ £ ? श्र सति.
९९ 2 01,
९४, ९ ०). सा.
५९ © प्रसश्येत भ इव ठव ।।.
६ © एता.
९४ ¢ सर्वां विभक्तिद्यैषां भवति.
९६ © ०70. यतः.
१६ © 7 विशेष एते.
१८ © “क्तेचब्दो.
१९ 133. "च्यते.
२३ ¢ शख्रयानि कायांणि न क.
९९, २ © 7. भथवा.
९ 7 "संख्यता वा.
६ 0 07). तज्..-मेतत् .
९० ¢ सिद्धमेतत् कथं पाठात् पाठः क.
१२ © भव्ति ।.
९४ © ¢ ये खेतेभ्यो वैर.
१५९ 0 £ ए 07. इति.
९७ 0 तदेवं संर.
१८ © 07. "्वैतते?.
१८ © भवतिः
९६, २ © चापि मता.
२0७ योगः.
ह © £ "निभ्रिता; ^ “निसृता; ¢^ ४8?
गनिश्चिता.
७ 0 अस्यचैरसौ अय्य॒चेः स॒? भस्वुषैसो
भस्युधेः स,
९ 0 प्रकृतप्रतिषेध,
२९ © 0". भथ विज्ञायत,
९७, ९ 0 011. इति,
९० टः & ए तहिधातस्येति. `
९८, ९ © दी्ंस्याः?,
प° ¶०
९८,१९ तीत्वं ; ? ति किश्वं; (५.171.111
70€ा1078 ४778 एटतताणह्ु.
१९ 0 ` सृरवमनिमित्तं कस्य कीस्विधेः तिन्च०.
२० ज ष्णान्ता.
२8३ उवोष; 24001101 84{{8 17€{10085 ®
1€901£& उवौीख.
९९, & 017. क.
२२ © 010. कि कारणम,
२३ } ५2०} ०४१8; यादेद्यो कर्घस्वस्येति
.भन्थो भाष्यपुस्तकेषु ष्टः.
९००, ९ ० नरहि मगाः; ? नापि गाः.
६ ? भव्ययीभावस्याभ्ययस्वे कि प्रयोजनं
भव्ययीमावस्याव्ययस्वे प्रयोजनं कहु.
खस्वरोपचाराः । लूक ।. ~
९३ (¬ ^ भपि खल्वाहुः.
९३ @¬ यदठव्ययीः.
१९४ 0 071. इति.
१४ ० करि च पुनर
१९७, १९ £ 1 षेधश्चोश्यते.
२२ 0 (त्तत्र वायं.
१०९, ९ @ 769€ & न०र हिः सर्वैर
२ © हेः प्रतिर.
३ 7? € 8 शिप्रति.
६ © शेः प्रति,
६8 ॥ न व्यापारः.
९४ (~ 8 वाधेत.
२२ (* 011. ०1)€ अन्यज्.
१०२, ४ ¢ गतभमितिना.
७ 0 शड्दपदायंकता ; 1० 71518. पदार्थकः
वा पाठः.
९७ 0 तेनं लोके प्रसि.
२३ © ¢ भुजिना सं.
१०३, ८ 0 ~+ ०1. प्रसज्यप्रतिबषेधात्; 1" पष्ट.
किधाय 91 प्रसज्य 10 ४0€ ८४; ‰.
कथं । विधाय; ४ ० ्ण्णार् कथं
प्रसञ्यप्रतिषेधात् । विधाय, ०५५ प्रसज्य -
प्रतिषेधात॒ 8८ ०४.
१० (+ 011.
१९ © -सामथ्यौसप्रति०.
२० 0 ए षित्तायते; £ स्याद्.
१०४, ८ 7 £ ए अस्मिन् शाखे. अस्व.
१६ ¢ यस्यापि बु नि.
२० ए ए कार्येषु.
२६ ५ "चयेन यदुच्यते तस्व च बुः.
२९ © तेष दोषः ४००1९ नापि.
|| पाठभेदः ॥
१० प०
१९०९, ४ (1 °ने तद्विषयता ; 10 711. न्ने चोते पा.
ठांतरं & तद्विषयस्य; ए °नेन व तद्िषयत्व.
९५ 07 19. शीलने श्व, इत्यपि; ¢ £ ए
भायार्यद्ीलनन वेडाशीलनेन ष्च; ‰ ०11४1.
9115 शीले व," "00 ६.न देलशीलनेन.
< © पचाव ; £ पवावत्त.
९१९ £ 8 ०1. श्व; 77 £ 1४ 18 870लौः 0४,
९२ ० शप्रहणेषु च देश.
२० 0 प्रस्यायर्यति.
९०६, ६ © & ०1810115 & प्रत्याहारः, 1081684
ग प्रत्याहारम्रहणम्. ।
९५ 0 भनुवतंते.
९« © °मात्रापि.
६ © प्रव्याहारभ्र 7 ? प्रस्याहारे प्रः.
७ 7 ¢ ए ऊ्णतिर्विनाषा.
८ 3०0). षध,
३२ © 07. हि
९६ © प्रोण",
१०७, ३ & प्रस्ययांतादिति निस्ये.
१५1) प्रस्ययातानि.
८ & 17) ग. हि; ए 198 1८ 71 एषठ.
१०८,२४ © ए ¢ अपिरौग्वर इतिं वा.
१०९, ६ © 7 7 दिवस्तद्थस्योतिं हि
१७ (3 6पशाफ)161 कारमीरः 8१ तजोदन;
¢ £ ए €ष्छार्फ]\€ा€ तज्रक्नम् ; ४ यस्क-
इमीरान्गमिष्यामः यत्कदर्मरानगच्छान.
९९९, ५, ६ ए 0 £ 8 वाक्यस्य सं .
८ उवपद्यते, 7 & © 1" 78912. उपपन्नः,
९३ & 0 ०1. करायाौणे, © £ कल्प्यते
१९ 0 स्तापकरमुभः.
९६ © 72 दीघां भवतीति ष्यङः.
२३ © पिडा; 1" "४४६. पिंडी पारगः
६.१२, ६९. (+ 07). यदि.
१७ 1 ए ¢ € ए साधुस्वमन्वाख्यायते
२९ £ € 3 & ८ 71 081. वृष्टातत्यापि तपु.
२९ 9 अस्ति वेह; 8४०1०6४ 1९१8
018 80 8४8 चपाठटस्व्वयुन्त स्तस्य प्रमे
ऽयुन्त स्वात्.
२३ 0 पुनन्नित्येषु.
६१३, १६ © ) ककारटकारो च इता.
३ © ण्पस्थितं भवर.
६४८४? गमिहवबु कथं. `
१९० "© £ ए °्नोपेष्टं शक्रोति.
९२ ^ 7 £ 2 बु.
१६ ६? & ४९ 91४6९५०१) © ककटडकव्रा.
५९९१
०५०
११३,१४ 1) शाब्ठानुपदि.
९६ ¢ प्रत्ययस्य प्रः.
२४ 08 इहतु पु.
९९४, ३ 0 यत्परः स्या.
९९ © भप्रस्ययः स्यात्.
१२ © ? ०. षष्ठा अभावे.
९९ © तेन म.
९१९ ए °त्परः स्थानपरप्रत्ययस्यापवादः.
२४ 7 0 £ 1 यदयमचो.
१९९, १ 8९909119; अपवादेरित्यस्यासंभव
इदय।दिः । कचित्तथेव पाठः ।.
ह © 010. भवाति,
९ ५ ^ 1 °त्ूकवैः £ मस्जेरनिदनु.
६ ^ 0 सत्पु.
७ 9 ध्लोपा्धं च संयोगा.
१४ (¬ ¡ 011. स्यात्.
२० © ०0. स्वर.
२९ © 'त्युडन्त.,
२२ ००. च,
२४ 7 1 क्रियत एतज्या?. |
९९६, ४ ( ७९ 21161910 ण्बंधाः; 0 °रः प्रतिषेषः
९७ ¢ ०४). शीभावेन कारभतिषेधः.
२२ 0 ०१. गुः...“ ह स्वस्वम्.
२४ ¢ कते भन जंतस्वादेत.
९१७, २ © विज्ञातुमिति.
९8 एष्व इग्व्वनं सव.
६४ © निवत्ते.
९९ ७ तज्रानेनेको निवत्ते.
९९ © 7 ए ०. इकारोकारो भविष्यती ; ^
188 {17€ 0108 व पाष"
२० 7 न्तै अद्धं एकारं भोकारो ; ८ ` राव-
दकारोकारी; 9? 8 रावं एकारोद्ध
अकारो.
२९ © ०. पाषेड०...नाथः. .
९९८, ९ 1) 07). |
६ © सेयं स्थानेयो गीतिः.
९ 0 षष्ठीस्थाने.
९० 1 0 ए & & >0 पाहि. यावतो वा संतिते.
१९ (0 ०१. च.
९१९, ६ © वतीति.
९४ © भमान एत,
६९ 0 तस्प्रकृतमा
२९ © ज्लौनाश्चति, 20 "816. भोष्वाश्रैति
पाशं; + 7 लोवा चेति.
९१९
ह° पण
९2० ६ 28; मचष्न.
८ 080 & यत्रानेकमा.
९० © शेक्राराभर
९६ 2 £ ए & 01" °. प्वचनं नियमार्थम्
२४ 7 ? 0 8 उमवथा हि तुः.
२९ © यणो ये ; 7" ',४&, णां पाट.
२६ 08 8 मार्य.
१२९, ९ 0 भवतीति.
९० ‰ 011. °्तैष्यः। ण], ४० 7१. 204.19 हस्वः,
१९ ५ 00. इति ४०८ एतन्नि .
२९ 1१48०] 10१ ४१११ १९९०8: रा यि च्छा -
२९ 008 ज्रियते न्वास एव
२९ © † £ इस्यदिशतो.
२८ ¢ £ न्तरेनापि तकाः.
९२२, ३ ¢ मे निर्वेतेके सस्या? ; & °न्तरतमे नि?
? णके स्वस्थाः.
४ (£ तमेनि.
९३ © सिद्धा न भवति.
९७ 0 क्या.
१२३, < ७ 7 £ तद्यथा गावो.
९० © & 8 न्योन्बमपहय `
९९ 9 वहु"; ¬ बह.
९९ (0 £ & गा 2 नावौगः.
९९ 7 © धुप्रस्वारितं.
१९ ¢ £ नार्वांगः.
२९ 0 इमाय.
२९ © ^ मानिकद्िमा.
१२४, ६ 2 010. च्व.
१० © टि एञ्मवि.
९९ 0४८ एवप्रा
१२ 0 8 एजस्ति; 8 एनतस्ति.
९ © 07). स्वै.
१४ ¢ ०. ऋवणे°.. -प्रसङ्खुःः.
६९ 0 रेफर्वानकारो ऽन्तर; 1५ 791६. कार
एवाः पां.
२२ © सवांदेशप्रसंगस्तु.
१२९, १ © भविष्यतीति, |
९ ¢ 8 & & 7" "097९. "वस्सह संप्र.
९१९ 0 7 माकैलका "9" मालपिगवः.
१७ ४१११8 0लाप्गा8 पोत एश्व्वण् उन्
भवति रपरश्च.
१८ (7 £ श्रपरस्वमोज्रननेन.
२० (0 थेमिति चेदु.
१२६ १। १२ (४ (4 8 यड स्थानेण् स.
६0८४८ कोष दति सं इह देषो
| कादभेदः ॥
१० षण
९२१, ८ 8 5 यद्यप्यणो ऽति प्रवि".
६२ 0 8 अत एव दोषो.
९४, ९९ ^ प्रसगेण्यपर".
९८ © हितीयं स्थानं प्र०.
९२७,२ ¢^ & 0) १1४८1५०॥ & ठदाखादिष रपर-
स्वस्य. |
९० 2 श्वेदादेदोषु राः.
६६ ^£ 5 दह न प्रसभ्येत कतो.
१७ 00) यो
२२ ¢ 1) प्यते तज; ¢ दुष्यते प्र्यथविस-
अनीयो रास.
१२८,१९ 0 70. स्यात् ; 2० फ. पृवौतः स्मात्
पाटार. |
२ ५ निङेन्त.
९८ © 7 भवतीस्यजा> £ भवतीति भजा?,
२२ ~£ 5800. च.
२४ 8 & ¢ 1 "187. प्रत्यये च व्यव.
२४ & प्रकल्पेत.
९१२९. ९ (^£ 2 010. रेफत्य.
ह 0७ & ०. इति विस जंनीयः.
९ ६91१818 10९11178 (१९
कल्पपदृः. |
६ ^£ 5०. कृत्वा.
६ © 0 तीयते.
९ 0 ण्लोप ओस्वयु 1 £ ? “लोप ौस्वं पूर.
१२ @ 017. € 8९५०५०१ षरतेते.
१७ 0 यत्ति.
३८ © 0 01. च्यु.
६८ © भातो युर.
२१ 0 00. इटोऽष्यवस्था.
२३ ० 7 अभ्यासलोपश्च । भन्यसिलार,
२४ 0 ¢ ०1. अभ्यस्तस्वर.
२९ ० 08&8 @& ०हण्शाक् € नवतीरयजार,
१३०, ९ 0 (£? 010. दीर्थ॑खम् ; 0 ४१. दीर्घस््.
६ 1) 01, ष्व. ।
६ 2198. शस्य॒च्यते.
६ © 7 तन्रायमर्थो.
१३६ © 1) ६४१८ इतरथा ह्यनिष्ट प्रसङ्गः 17१९
०:४९] $ ४7 संहारः,
१६ © ऽत्यंतस्य.
(64019
६३९, ६ 0 वदेवं जार.
# © 010. एव.
१० 0 स्येर्येलद्पवा?.
१४ 0 (इविष्याति.
६६ 0 शस्यैतङ्धवति.
२३ 8 2 विशेषणार्थः शकारः.
| पाठभेदः ॥
प० पभ
९१३९,२३ © क्र विशेषगथैः.
१३३, २ ¢ श्धावि्तीर्युच्य..
९ 0 ¢ अदेशः.
१३ 0 विक्तायते.
१८ 2 -हादेदोषु.
२३ © प्पुत्र निर्हिंदयते.
१३४, ३ 1) £ इत्यादिश्च प्र.
९ © 7 नव्रति अत.
७ © स इममिति,
१४ 0 वलादि,
१६ 0 समान्याविरेशे हिवि.
२३ ०७1) 8 भप्रहीत्.
१३५९.१२ & & 723 171 एना. °वधक्रापिबा.
१४ (} & 07161911 ¢ चाषुपधाल्-
९९ ¢ 7 स्थनिषद्धावादंगसंत्ता छ्लं*च
स्वाश्रर.
२९ © करत् कर इतिरि.
२३ ५ ।) इव्येतदत्रः ¢ इत्येतत्.
२४ ० विशिष्टत्था?; 7 ०". विषिष्टं.
९३६, २ © भमादेरिन्याल्वि.
९० 0 छिल्लः.
९१९ © तु मवातं तस्मा; 0 8 ०८. तस्मादुपसं-
ख्यानम्.
२० © चेन्न ।.
२३ आश्रय इति; © 1" ण्ट. जा (0) भ्रियत
इति पातर. |
९३७, ३.1 & 0 10 "51. नित्यशब्दत्वात्.
९ © स्थानी नाम.
$ © 0). यथा; ¬ 8 ०पूर््रष्वपि.
&० (¬ 01. च.
३८ © पुत्र स्थानि श्च. स्यानिदा.
२४ ^ लि प्रसक्ता ; © ततः पश्चाकाह आधेधा-
लके अस्तमं भवतीस्यस्तिबु चा ; ^ अस्ते-
भूरिस्यनेनास्ति्ुष्या ; 7 सोस्तेभूरिव्यने-
नस्तिब्भ्या-
२१ ए इद्धधा अस्ति.
२६ © मवति बुः.
१६८,९१९,९२, © उभयै प्रतिषेधः,
९४ © माज्रभिव्येव ; ¢ माजच इस्येव.
६८ © तैलमाच्रा २ धृतमाज्ा २.
२० ? वच्वनादिदो ; ~ ४९ 911618001 बहुव्रच-
नातिदेशे.
२९ © नास्थानिः. .
९६९ ९ 6 पूवैगुत.
७ € न तर्हीदानी.
मित 010. प्रशिष्टनिर्शास्सतिद्धम्.
१.
«२६
० प `
१३९, ९ (^आ भाष,
२० © ^ णल् कितु जन्यो.
२९ ¢ ^ रुखक्रमिति.
२६ ६9#{९ : चित्त यदावधि षीति पाठः.
९४०, ४ (© भापयति.
९४ (¬ 01. करुते
१९ (¬ 01).
२० 0 आम्विधौ चतसः.
२४ © ०४. विप्रतिषेधे.
९४१ ६ 8 स्वरे च वस्वादेशे; (¢ 8११5 प्रतिषेधः
10 पाका,
९ 0 (स्वरेष प्रतिषेधः.
९८; ९९ (~ £ 2 करोतिपिबरस्योः.
९९ © पिबति; ¢ पिव इति.
१९ ¢ वद्धावाभावाह्घः.
२९ (~ उक्त श्,
२२ © 1 13 तपरनि? £ सपरकरणास्सि?.
२३६ 3 ०१. € 2880४ ०0 , 1, 57,
२४ 0 ¢^ £ प्रमो विभः यूत्वा.
२४ (८ 8 दत्वा स्युस्वा.
९६०, ९ 6 णवं तरि.
९ अभिमस्यः; भतिगस्य ; © 1198 ध18 7
178; ४ भार
२९ 7? (दिवः.
१४६, ६ © प्राभोतीति.
€ (© ०0. पूेविधिः १ ।
९ शुद्ावस्य ; 01० 70918. “डाच पटिः,
१२ © प्राभोतीति.
९४ ¢ “श्रयेत. |
९४४, ६ © 01. कुतः...“ स्थानिवडववि,
२० © नेतर. ।
२०.२९ © धारणि पारणि.
२९ © इत्यनेनापि सि.
१४९, ८ © श्यौ उदात्तः.
१७ 7 ¢ & ०". कथं श्व सिभ्यति.
९९ © तर्हिं यत्रोदात्त..
२२ © ०४. ननु चेयमपि कतेव्या-
२७ © ¢ यथेव; ¢ तथव.
१४७, ३ © 1 £ तस्मास्स्थानिवदवनम्- |
४ © असिद्धव्वं व भसिद्धस्वं च वक्तव्य.
१९ ( मादवदस्य.
९७ © 7 भवतीति एवमा.
२०;२९ ५ नकरानुदात्त; 10 0६. एक्रानतु-
शास्त पाठांतरं.
१४८,१६ ¢ £ सिभ्यंति.
९९४
० पं०
१४८, २९ ¢ ऽन्यैवरतो च्थः.
२२ © भ्रामे शुः.
२२ © निमित्तं च वसाम इति.
१४९, ४ (^ ह 0). विहयाः; 1 £ 3४ 18 श्ाप्रटौप
०४८; तिष्टिणोग7 99: रिश्च इति तु
प्रशिषं शतसह योरेव उस्ये्टस्वास्.
९६ ( यङ वङ्. |
२९ 0 गादेशेयोागैर.
१९० ९ (0 ०0. प्रतिषेधं.
१२ 1 ("काव्वनेषेधः.
९३ 08 011. यलोप.
१४ 0 उलोपः.
९६ 0 देष्वं.
९७ ( भननासिकरास्वं.
२० © राया भाव्व7; 0 (८ रायात्वः.
९५६,९४ 0 न पद्तविधि प्रति स्था.
९९ ( ०. च्छु.
२९ ५ कानि सति यानि को.
२२०) चा श्रूयतेस.
१९२, ७9 (॥ ०.न.
< © अवणंलोपविधि प्रतीसि यलो.
१४ क्िश्व.; 01 8. क्तन् पादा.
६६ ¢ “लोपे लो; & 'लोपविधिषु लो.
९९ ¢ प्रसिदीत्रः प्र. |
२३ £ प्रतिनिर्दि>.
१९३, ९ 0 भमप्राक्षीः.
# ¬ 07,
६ 0 कं्ूतिरिति.
२२ 2 शर्तेश्रः.. .शातामिः.
९९४, ९ कशब्द 0 शाड्व ; 5 कप्रत्ययः.
९ £ 2 ०४1. प्रयोजनं. `
१२; ९३ ? दध आकारलोप आदिष्व
त्वे २५७८8४८ ०.1. 12; 4 ग0०.,
८४ 88 & 8६0} णण प्रयो जनम्
10 1. 15.
६९;९६ © 7 हलो यमा यमि लोपे २;^ ८ &? |
010. 1, 15,
९८१९ 0 7 अष्टो. . -तिष २; £ ८0. 1,
18 ; 4 ण. ४५६ 1४8 8 810} ९९
प्रयोजनम् 10 1. 19.
२२ © “डीनि ख प्रयोजनानि न; ? श्डीनि च
नारब्धव्यानि भः. |
१९५९, ९४ £ भञ्प्रहणं च ता.
१९ ( गाङः प्रति.
॥ पाठभेदः ॥
¶ 9 प॒
९९९, २२ © 16 € 8०१ एलमकर, कु स्वैर.
९५६, ८ "पुसं ; 0 "8०]100914 : हवसमिति षा
ठान्तरं ठए समिति श्व.
९९७, ® 0 ओदो; & भौरौदा.
९५८, ३ 1 तदितरे".
८ 0 विभाष्यते.
२९ ^ लोपसंत्तस्वात् ।
२४ 7 भवुतीतिः षष्ठी; © भवतीस्युष्यमा
कथभवैतारिसिभ्याति को हि शाब्दस्य प्रसंगः
यत्र गम्यते चाथोंन च प्रञु्यते अस्तु
तहिं प्रसक्ताददानं लोपकज्ञं नि ष
छीनिष्किखति त मवतीनि ष
९५९, २ © 4 7 ए श्धारणे.
२ {६7 कथमिव ०५० 133. कथमेतैर.
७ हं “प्रस्यये संर; & “तानिषेर.
१० © ।॥ ०0. कंसीः.. -च्यर्थम्,
२० @ ०. ऽपि रन
९६०, २९ 00823०४. न कर्तव्यम्.
२३ 0 रायस्पोषेण संगमयेति.
१६९, २ कयं तहि; 07082 कि तहि.
< (~ & 23 "काले.
९६२, ९ 7 न चाद्^.
३ 0 क्रियते.
६ अ 0.
१० © 0). पृथक्सन्ञाक्ररणात्,
. ११ 0 नस्य सामान्या लो.
१४ 07. नवा.
९६ ( लोपसंत्ता ल~.
२४ ( भनिभित्व्वं.
९६३, ॐ ॐ 011). , कायानि.
€ ( 010. {€ 86९0114 ष्व.
. १६४, ९ 0 वष्वनान्न भवति.
१२ 2 नुभामो ; ¢ ण्डली,
९९ 0 ह अनङ्खान्- षड
२९ 0 यत्र तहिं न स्था
९६९; 4 1) (4 2 0.
१९ © सवैस्वर.
२० © इत्याद्युदत्तं.
२४ © 8 ०. प्रयोजनं; ¢ जिकि.
२९ 0 जाके प्रयोजन.
२९ ^ 8 उष्मरीवा.
९६६, ६ 7 ¢ & 8 श्स्थाने लक्षि.
४ 1 0& 8 ११6 प्रयोअनम्, कमता षे
प्रत्ययलक्षणं न भवतीति वृक्यं,
॥ ररभेदः ॥
¶ © पं ©.
९६६, ९९ © £ ? कतरस्मिन्,
९६७, २ © 7 ०. पूत
ह © ति वाक् पर.
९१९01) सा प्रातिः प्रतिः.
१६ ¢ ^ ठ वित.
९८ ५ “योरतस्येः..
२२९ 8.4 ण श्ट स्व्रादिषरत्वेन.
५ ०७००.व; ८ बह्ष्पर्वस्य च्छु {ा९6€,
००८९ 10 षाह; £ कह स्यु रंस्य बहुरपु-
वस्य च.
६६८, ६ 0 इमान
२५४२ सिचि जुसोऽप.
४. 0९ सिचि ज्ञसोऽप;£ सिचि सिङनि- |
भमित्तस्य जसः भप.
३ 0 7 श्रकरणस्वात्.
१३ 0 आत इति वतेते त्तिः.
९ © (लक्षणस्वेनः
६ © श्वाय भेदाः प्राः.
९९ © सविभक्तिकक्य म.
९२ ¢ ए ०0. जनपषो.. नो कीयते.
९६ © ¢ 8 ०,
९६९, ६0 ¢ रत्युश्यते.
९९ (` रिष्टात् शिष्टः; £ शिष्ट: शिश्वानः;
8 शिष्टः शिष्टात्ः
२० 411 2188. ९४००ु४ ए { °स्युच्यते.
९१७०, ९ ¢ £ 011.; ( ०. अन्त्यः... च्वेन्; 7
788 अन्त्यः... च्ेन् घ). वाट.
२ © अलन्व्यव्रिं, 814 ०. नानथेके...
"विकारे ; 7 095 अंन्द्यत्ििज्तानास्सिखम्
४ एषिषु, 2० ०0. इति... शविक्रारे
¢ 188 अन्त्यविः ...कारणम् 10 पाशा.
ए ०0. अन्स्यात्रिः. . “विक्रार.
९३ 0 रिन्त.
२० © इद्यज्.
९७९, ८ 7 ग. कथम् ...मविष्यति.
९७२, १९ 0 °क्कत्तद्थो.
६६ & ००. भनन्तयायैम्-.
१९ & "योगाः.
२२ ¢ ०४. इको यण्कर्वे,
२९ © इष्वतेवि; 7 इष्यते चात्रापि; ¢
इष्यते वाचि.
२९ 9 वच्चनं नियमार्थम् ; ठ ००. वखनम्. |
शदेः | 0 नाउ.
३७६; ४ ति सर्व॑जेव कः,
९९ 0 7 तजर इत्सज्ञा.
९९१५९
९० फर
९७४, २९ 3 पंवमीसघमभ्यो.
२२ © 0 इति १०; £ एषां पर. ।
२९ © उभयक्रार्य. त्ब; 0९ £ तन्न उभयो;
- कायैः
९७९ ७ 0 7 ¢ 2 भविष्यति.
& © 0.0 भण. इति.
<- © सस्संज्ञा दोषं प्रः. ,.
< 7 त्रं त खलु. ,.
९६९ ¢ भक्रापि प्रकृतौ.
१३ ¢ £ ए तावरहिको. यणिति.
९३ 0 यच्रष्वनाम.
२० © न शढ्दस्या?; ए न शब्दस्य स्वमिर्येव.
२९ ¢ ००911 स्वरूप, १६६६ ४० स्व-
सपः; £ स्वं रूप. व; 2 स्वरूपः.
२६ ¢ अय का्यस्यासं^.
६७६, ९ 0 2 थं कार्वस्यासंः.
३, © ¢ ए स्वष्टपः £ स्वं रूष वः.
९0९ ठ ०1. शड्द्पुर्वंक्ते ह्यर्थस्य स-
प्रस्ययः*
६ 8 2 & १११९९ 1.6 नाम च यः,
६.0 यदा बेन.
< 7 & ण. ४4. @. 808 10 णश, अर्थे
ऽसंभवः.
१९. ८ €? शब्दसंत्ता-
१९२ ¢ 8 शब्डसंसायां प्रतिषेधोऽनर्थकः;
8 शब्दसंक्ायाः प्रतिषेधो अनर्थकः; 7
9९818 ४0 १९४ श्डङ्संन्ताः.
१६ 4 ०1. श्व,
१९ 0 ष्णान्ता.
२९ ए श्देषाणा व वु
९७७, ६ 0 7 विद्यापोषं रेपो; & रे° धन विद्या"
अण्व° गो; ए = €, ४४ ग. अण्व ©
188 ०0०] ₹° विद्या.
१० 0८47968 2 पुष्पः; © 4 0 ०.
"वन्द्रगुष्सभा, `
१२ & 0०. करतैष्यः.
९६ © 1 मास्विकः.
९४ 0 दाष्छुलिकः.
९४ 0 वन भवतीति. `
९९ 7 हति;.© अजिया न्हति भनिमिषान्हं-
तीति ; & 8 ४106 88106 काधा०ण इति,
१७ 0 अः सौ. ` `
२९ © °लिटि इति दी; £ "लिरि दीष इति दीः.
| २६8४7 & (र पणावः सर्वैषामेष.
' ६७८, & ०108115 ¢ रि वु.
५१६ || फणटभेदः ॥
१० प०
९७८; १९४ ६। दीः सह इति
९८ ¢ & (माणहाब्दसं प्र.
२२ 8 वर्णपाटक्रम उपः.
2३ £ 28 & ¢ 1 फा, तवाटक्रम उर.
९७९, ९ € °वरकाला भवरकाला सती ; 9 ०.
“वरकाला सती; © सेषावरक्छाला उपदे-
शोक्तरकाला वणौ.
३ ए 01.
९८ 0 “नन्यस्वकारः.
१८०, ९ 0 तदद्धल्प्रः.
र ७ ००, च्छु.
५ & ०0.
१० 7) 070.
९९ 0 क्रियते इष्यः; 7 ¢ क्रियते न्या.
९८ 0 उष््स्यमु.
१९ (रं 1" पशन. तस्कोलः कलिऽ्य सो
ऽयं तस्कालः तत्कालस्येति पाठं.
२४ ? गिनज्नानाममः. |
२६ 188. स्वरितानुनासिकानां; & 1४8
ननासिक्षा 10 7088. १ 080]1018118
उदत्तानुगातस्वरितानामिस्येव पाठः; ॥
"सातुदालानुनासिकानाम्,
९८१, १० 0 सिभ्यति.
१९३ 0 € विरोष्यंते.
९४ ( -मध्यवि ९.
९५ 0 £ विषेष्यते.
२२ \ शदिशर्ति..-चिशतं कञ्िधस्वाररिंहातम
किस्पादस्वरूपम्.
२३ ८ & ? स्फोटस्तावा०.
६८२, ४ © निर्विहयते. [पाठः.
® 0 1 0187. तन्मध्यपतितानामिस्यपि
९ 0 ण. संबस्धिशब्डाः.
९९ 0 1) ‰रत इति.
९२ 0 8£ 7 र्य प्रति य आदिः.
९९ 7 € यदि चैव.
९९ 0 क्षचित् ्चै°.
९९ ^€ स्यात, ८ ब्रहत्रः अरक्षोहके, 1
पाष. ब्रह्मोदनः; 8 ब्रह ब्रह्मीदनः ; 7
न्रह्द्ः ब्रह्मोदनः.
२९ 1 ^ £ 5 ऊनशब्दमाभि..
२४ ^ चान्यस्य च विधिङ्गं भ 7 चान्यस्य
षच विधिर्भर
९८३, र 0 01. येन .."पाधिताप्रसङ्गः ; 7 न्ा-
पिप्रसगः.
१० पर
१८३.९७, १८ © समासप्रस्ययविधौ च प्रतिषेधो
२ कत्तस्यः.
९८४, ९ £ भकच्म्ः.. "पसं ख्यानं २ कर्तव्यं.
३ 8 सवैके स्वके.
® ( 0171. & (¢ ॥98 1 प. सिद्धमेतन्।
कथम् । तहन्तान्संव श्नात् +.
९२ ¢ ०1.
१८ (0 यावद्कव नति.
२२ (~ । ०". इति.
२६ ¢ स्य प्रयोगस्यप्र.
९८५, २ 7 ¢ & ए ०. सर्वनामाव्ययसंत्तायां
प्रयोजनम्.
४ (8 2300.; 7 -उारिष भः.
® ( (£ 7 ०४1.
९ (€ ए ०10४.
९९ (¬; £ 7 0\.
९३ € ०. बरधायिता दिपरमाचिता ; 23 9).
जिविस्ता.. .दिपरमाच्ताः.
१९ ~£ 2 ण).
१९ 0 8 ? सैहिकरोणः.
२९ € 9 & (~) णषु, न तदन्ताष.
२२ ¢ सिद्धं भवति के.
१८६, ९० ~ & ४ ०.; 8 रथासीता
९३ ^~ 3 010.
१४ (01. घु स्वं ; © 23 ग). सव॑.
९६ ¢ ४११ अवरपाचालकः अपरमागधकः
१९७ ¢ 8 3 ०.; 23 ऋतोतरैद्धिमदव य.
२० ¢ € 8 ०.
२९ 0 द्विषाशिकवं जिषाष्ठिक.
२२ ¢ £ 8 0).
२३ © अधम चरति अधार्मः.
२४ 0 न वक्तव्यं भशति (७1९6.
१८७, १ 7 सस्य तहु.
@ (द प्रयोजनं मह०..-१विधौ २; ¢ € 7 €
8811९ #10 ०४ २,
९ 0 भपः स्वा,
९० 1) ८ ०0. स्वस,
९२ 0 1 पद्युः.. नुम् २.
२३ ¢^ & ठ ०.; 0 "तुरतङ्चि?.
२९ 7 "पुंसो ऽदङ् गोः. |
२५.७ 7) >€ सुपन्थाः, परमपथाः; 1 2०
71918. अप्रयोगः.
२९ 7 ~€ ? ०. चुमन्थाः.
२९ © 1 € 7 ताह, पलि गोः परम-
गाः; 1) 1 8. अपप ऽय.
९८८; ३ (~ £ 73 0४,
१० १०
१८८, ४ ¢ ०11. च.
७ (1 (¬ 72 ०1.
८ ? वणंमहणं च प्रयोजनं.
९९ ¢ # ०0.
१३ ¢ ४०११३ दाक्षायणः परमदाक्षायणः.
२० £ 8 पअहणान्यर्थ; 7 चानथंकेन च
२ तद.
२९ © 0 © & ए गप. ४"€ 866०० अत्.
२२ © घपयासा ई.
२९ © & 8 ०. अल्महणेषु.
६८९, 9 7 ?3 ०0. ेतिकायनीयाः.
६३ 7 0 £ 7 ऽजेवादिरिति.
| ९९ 0 सवे प्रसंगः.
१८ ¢ अश्व आकृ.
२० 3 “विद्यमानवस्वं.
२३ ¢ 8 01.
९९०, १ £ 9 0४.
२९ ०). च्.
। % 1 071,
१० ए ला "काण्वाः, एतानि वरडसंना-
नि स्युः.
९३ ¢ ०1. माद्पुजाः.
९८ 0 निष्क्रातकांतारो भवति.
२० & ०११. एङ् प्रार्थ देच; 047 सौपु°
सौपु; ए ॥ शेषु" रेषु
१९९, २ © (हवन त.
१ ©7 तयोरङकारककारयोरमावान कि
स्वङ्िस्वयोः प्रसिखिः.
४ 0 शाक्यः क"
९०& © 11 "४१६. स ताभ्या इाडवान्या
0 ०प्ाप्शाए स एताभिः शाक्यते.
< (र 010.
९ © शश्ेप्रतिषेधो.
९ © ग्कारदेवरिद्यावितो प्रा; 7 "वादेदा-
विवी प्राः,
१६ © 1) द्िद्विदिति किस्सं.
९९ (} कसैष्यः। न कतेष्यः। न ह्य.
२० © 7 गम्यते यथा एष.
२२ © 7 किहडूवतीति गम्यते भकं कि-
दिस्याह किड्ङवतीति,
९१ 9 1) ति यथा मः.
१९ ¢ ए मधुरायामिव मधु.
॥ पाठभेदः |
९९७
० पर.
१९२, ९२ © 0 ४०१ कितीव किड्.
१९ 0 (ङ्ढ,
९९ © 7 ध्ूनवान् एव.
२९ 0 उषः उभगत्राः.
२२ 072 ध्य इति अज्रापि.
२४ © > 8 यन्न इस्यज्ा?.
१९३, २ 0 जागृयः अत्रा.
ह 7) 07.
४ © कितीटप्र.
७ 0 ~£ 5 ०). क्स्वायां ...प्रयोजनम्-
९ 0 युरिस्वा.
९० (~ £ 8 उदाहतः.
९३ 0 शरुत्वोति भ.
१९ ८ & ठ भपिन्किरिर्तीयः.
२० ¢ 8 आधधातुक; £ °कीयाः.
२६ © 1 शबेकादेदाप्र.
१९४, ४ (~ £ ठ न पिन्डिनहिति चेर.
1१ (&, "हेशप्रः.
। क, ०० आदिवस्वात्.
६ 7 दोष इति ।
ए दोष द सिद्धं घु स्थानिवर्वादुभ
९३ 0 1) वाधेतं इह.
९४ ¢ & ? वर्तिता वधिता,
२० £ ताभ्यां लिटः कि; ठ निस्यसवाक
ताभ्यां लिटः कि.
९९९, ९ 0 7) तान्यां कित्ववच्ः.
४ 0 किमुश्यते
९ © यथाजातीया ; 7 ? °ज्ञासीयो.
९० © 7 ए -ज्ञातीयश्च.
९९६, २ © नानथेक्य. ,
४ 0 द्रस्वादीनाः
ॐ ( 011. खलु,
१० © कूतद्मश्रुः पु “
९२ £ ? 9०१ तह्गोणाण+ ० शिल्पवि-
` १९ © 7) श्व यथा प
२९ © ०11. इदे तर्हि प्रयोजनं.
९९७, ९ ? प्रनिमिस्सति.
७ © वाधते.
१९८, ६ © 7 ०४. यो.
७ (© सिञवि्ेषित इति लिङ्विक्चेषितः कर्थः
१९ £ 2 &@ णाश 9 *
२९ © ०. दी्ो मा भूदिति
९९९, ९ ए ०. निष्ठायामवधारणदिः
१८ (© “हिकस्य.
२१ © 7 भयो नातिरेशिकस्य किय स्य भव.
ति प्रसिबेध भौपदेशिकस्य
९९६ ॥ पठभेदः ॥
“8, ७1 9
१७८, ९४ 0 दीः सह इति.
९८ ¢ & (माणद्चष्ठसं प्र.
२२ 8 वर्णफाटक्रम उपः.
२३ & ए & © 1 एवा "पाठक्रम उर.
१९७९, ९ £ “व्रकाला भवरकाला सती ; ए ०.
वरकाला सती; ¢ सेषावरकाला उपदे.
शोक्तरकाला वणौ.
३ 8 ०.
९८ © "नन्यस्वकारः.
१८० ९ ७ तद्र डल्प्रः.
२५००. च,
९ £ 00.
६० 7 077.
९९ 0 क्रियते इर्यः; 7 ८ क्रियते न्या.
६८ 0 दष्त्य मु.
९९ 0 10 179६. तत्कालः कलिऽस्य सो
ऽयं तस्कालः सस्कालस्यति पाटांर.
२४ 2 शमिनज्नानामम्र.
२६ 88. शस्वरितानुनासिकानां; £ 188
सनासिका 10 णाह; ररण्गु1णात1
उदत्तानुगातस्वरितानामिस्येव पाठः; ॥
"लासुवासानुनासिकानाम्.
९८१, ९० 0 सिध्यंति.
१३ 08 विरेष्यते.
१४ 0 'मध्यवि?.
९९ © & विरोष्येते.
२२ ४ दिशति. -"चिदातं कञ्ि्स्याररिंदासम
क्िस्पादस्वरूपम्,
२६१ 08 2 स्फोटस्तावार.
१८२, ४ 0 निर्दिंहयते [पाठः.
@ 0 10 78. तन्मभ्यपतितानामित्यपि
९ © 071. संबन्धिरशाब्डाः.
१९ 0 1) ^रत इति.
९२ ~“ £ 8 अप्रति य आदिः.
९९ 7 £ यदि चैव.
९९ © कचि दैः.
१९ ^€! स्यात, ¢ ब्रह्यव्रः ब्रह्मोदक्त, 10
पाट. ब्रह्मोदनः; 8 ब्रहद्रः ब्रह्मीदनः ; 7
न्रह्षव्रः ब्रह्मोद्नः.
२९ ९ ^ 82 अनवमा
२४ ^~ चान्यस्य च विधि ङ्गं >; 1) चान्यस्य
च विधिर्न. त्य
९८३, ५७ (नण - येन. .ाधित्ताप्रसङ्ः ; 7 व्पा-
९.
१० प०
९८३,९७, १८ © समासप्रस्ययविधौ च प्रतिषेधो
२ वन्तष्यः.
९८४, ९ & अकच्यः..-"पसंस्यानं २ कर्तव्यं.
३ € स्वैके स्वकरे.
७ ( 0171. & (~ 198 10 गाध. सिद्धमेतत् ।
कथम् । तकन्तान्तवशच्नान् +.
९२ ¢ ०10.
९८ ० यावङवति.
२२ 0 ॥ 07. इति.
२६ 0 स्य प्रयोगस्यव्र,
९६८९, २ 7? ¢^ € ए ०. सर्वनामाव्ययसंन्तायां
भयो ननम्.
४ (8 ए3०01.;0 -इधादिष मः.
® (¬ (^€ 7 ०४.
९६ ए ०0.
१९९ ~£ 30),
९३ £ ०. दधानिता हिपरमाचिता ; ए गण.
भिविस्ता.. .दिपरमाचता.
९९ ~ & ए 0.
१९ ^; € ए सैहिकरोणः,
२९ € & 1 पष्ट, न तदन्ताच.
२२ (~ सिद्धं भवति केर.
९८६, ९० ¢ & ४ ०. ? रथासीता>
९३ (^ 3 010.
९४ (^ ०1. घु सवं ; © 7 ०. सर्व॑.
१६ ¢ ११५७ अवरपाचालकः अपरमागधकः
१९७ (~ & .3 ००. 8 ऋतौङ्ेद्धिमदव यः.
२० ¢ £ 8 ०.
२९ 0 दविषािकं जिषा्िकं.
२२ ८ & 8 ०11).
२३ 0 अधमे चरति अधार्मियःः.
२४ 0 न वक्तव्यं भवति १५1९६.
१८७, १ ए तस्य तहु.
® 0 प्रयोजनं महर. विधो २; ¢ 8 7 ५९
881€ 1६00०४८ २.
९ 0 भाषः स्वा.
९० 0 1) (¢ 23 ०. स्वस.
१२ 0 1) पद्युः.. नुम् २.
२३ ¢ & ए ०.; 0 "वतुरतङ् चिः.
२४ 7 ` पुसो ऽर गोः.
२९.०७ 1 धट सुपन्थाः, परमपंथाः; 1 ४४
10878. अपप्रयोगः.
२९ 7 © ए ०0. मन्थाः.
२९ © 7 (7 पाशह. वल गो, परम-
गाः; 1) 10 781६. अपपगे ऽय.
१८८, ३ (^ € 7 ०.
१० पण
१९८८, ४ (~ ०17. च.
७ († ( ए ग.
८ ए वणंमहणं च प्रयोजनं.
१९ ¢ 73 070. |
९३ ¢ 8103 दाक्षायणः परमङाक्षायणः.
२० £ ए शप्रहणान्यर्थ; 09 चान्थंकेन च
२ तह.
२९ © 7 © & ए ०, ध€ 860०१ अन.
२२ © ुपयासा ई.
२९ ¢ £ ए ०71. भल्प्रहणेषु.
९८९, 9 7 8 ०9. ठेतिकायर्नायाः.
९३ 7 0 € 7 ऽज्ञेवादिरिति.
९९ © स्वैन प्रसंगः.
१८ ¢ अच अकृ
२० ए %विद्यमानवस्वं.
२३ (~ 8 01.
१९०, ९ & 8 ०1.
२ @ 00. च. |
% 7 00,
१० ए »९ "काण्वाः, एतानि इद्धसंता-
| नि स्यः.
१३ ^ ०7. माद्पुजाः.
१८ ¢ निष्क्रांतकरांतारो भवति.
२० 6. ०१. एड प्राचां देके; 07 सौोपु०
सौपु; ए ४ सोषु" दोषु
१९९, २ ७ (चन त.
१ ©7 तयोङकास्ककारयोरभावान्न कि-
च्वङिस्वयोः प्रसिचिः.
४ © शाक्यः क. |
९ © & © 1" णभ. स ताभ्या शड्कान्या
0 ण्नष्टाण्श]ए स एताभिः शक्यते
€ (3 ग.
९ © शश्चप्रतिषेधी.
९ 0 °्कारहेवदेशाविती प्रा; 7 °वादेशा-
वितो प्रा.
९३ © 7) शह्िद्धिदिति किस्सं'.
९९ ( कतेव्यः। न कतेष्यः। न ह्यः.
२० © 7 गम्यते यथा एष.
२२ © 7 दिमद्वतीति गम्यते भकितं कि-
दिरयाह किदूड वतीति,
९९२, ४ ¢ प्रसञ्यनिषे
७ 2 नति) ्वुक्रु.
७ © ]) षति इसि ङित भा.
९९ 0 7) ति ययाम.
९९ ¢ 2 मधुरायामिव मधु.
॥ पाठभेदः ॥
९९७
१० प॑र ,.
९९२, १२ © 0 ०५१ कितीव किडत्.
९९ 0 "ङक.
१९ © 7 शूनवान् णव.
२९ 0 षषः भगाः.
२२ 07 8 य इति अजाप.
२३ 0 7 ? यज्ञ इव्यत्राः.
१९३, २ ¢ जागथः भ्रा.
३ 1) 011).
४ ¢ कितीट्प्र.
७ 7 ¢ € 3 ०. क्ल्वायां . प्रयोजनम्
९ © युषित्वा.
९० ~ £ 23 उदाहतः.
१३ 0 धूत्वोति भः.
१९ © £ 8 अपिन्डकिरदितीयः
२० © 8 आर्पधातुकं; & °कीयाः.
२६ ¢ 1 °बेकादेदापः.
१९४, ४ (~ & 3 न पिन्डिनविति चेर.
४ 0 ेशप्रः.
९ © 7? आदिवस्वात्.
६ 7 दोष दति । सिद्धं नि -
ए दोष द सिद्धं तु स्थानिवस्वादुभ
१३ ¢ 1 वाधेत इह.
९४ ¢ & ? विता वधिता.
२० £ ताभ्यां लिटः कि 8 नित्यत्वा
ताभ्यां लिटः कि. .
९९९, ९ त ए ताभ्यां कित्वव्व. ~
९ © यथाजातीया ; 7 8 °जासीयो-
१० © 7 ठ -जातीयश्च.
१९६, २ © नानथेक्यं. ,
४ 0 द्रस्वादीना.
७ ( 01. खलु,
९० © कृतद्मश्रुः बु “ ।
१२ £ ए 9१ तर्णुणिप८> शिल्पि.
` ९९ © 7 वघ यथा ष.
२९ © ण. इदे तहिं प्रयोअनं.
९९७, ९ 2? प्रनिमित्सति.
७ © वाधते.
१९८, ६ © 7 ०४. यौ.
७ (3 सिञ्वि्ोषित इति लिकविदयोषितः कर्थः
१९ £ 8 & गण्डा 0 भवाप्सीत्ः
२९ © 010. हीषा मा भूरिति.
१९९, ९ ए ०. निष्ठायामवधारण
१८ © 1, क्व. िहशिस्य कित्वस्य मब
07व्याना थ ^
^^ ति प्रतिदेध भौपरेधिकस्य भवतीति.
९९८ || पटभेदः ॥
१० पं9
99 पंन
२०० ८ © € किदतिदेशात्; ? वस्वर्थं ३०८, २ © शृष्पका रए्ेर्षा पष्यकाः; 1 ? 8
तिदेशात्
१९ 0 ततुकमापित् भ.
१९ 0 (इवतीस्यषधाः; ठ -इवस्युपधा.
९३.९४ 0 निगृहीतिः रप्र; 008 ए
निगृहीतिः प्रयो जनं
९९. 0 सेण्न भवसि -
४ 0 1?) किदतिदेदाभिगहीतिः;ः ८ & ए
° किदतीदेशादहीति शहति ¢ 8
२०२, ३ 0००. हिः |
९ 2 भण०.; € गर््वणडाङ् ग.) बध्थिकशा१8
ए भप्ाश्०७ रलः क्त्वासनोः कित्वा-
रम्भः । क्स्वासनोः कित्वं वि.
६ 0 1) नन्त
२०३, ९०७7 सूत्यैतहेः.
९ 1) ¢ £ 8 भविष्यतीति,
२ 01 हिमाजिक-..जिमाजिक्ष.
३ 01) वास्य; हिमानिक ; जिमाजिक.
४ 0 7 (माज्चिकस्स्वंशक्य,
६ © भयं भरिमाजिको ; 1) अयं तावाच्चिमा-
चिकी
® ( 08011. हि
< 9 7 “सं्ैवन
१९ 0 वातो
१२ € एवमेषा.
९८ (@ मध्यः.
१९ 0 हविमाजिकस्तः,
२४ 0५78 एवा.
2६ © ०0. कि कारणम्,
२०४ ९ ५ 8 विश्षेष्यः.
६ © ००. तहि.
९ 07 भवतीषि.
१४ 0 7 ००, हस्वसंस्या ... स्यदिति.
२०९५, ११९ 0 नंस्यस्य प्रः.
९९ ¢^ 2 सृयते.
२९ © नपुसकस्याकूः.
२०६ ९07 श्यं चक्रियवे.
९४ (¬ हलः स्वः.
९८ ( (लभ्यते.
२२ © 8 ०0. इति.
२०७, १ ? "चकस्याभ्यवस्थिः.
२ © भवेदिह कै
३ ? ¢ ए यसे शनैर”
१२ 2 2 शक्रमेव
२४ ? ^ इणसंप्रः.
-२०८, २ वद्मथा; ५ 0 8 था च.
पृष्यका एषा वे पष्यकाः
२0 कालका एतेषांते
2 तद्यथा; 07& यथा
९0 बिः प्रः.
९९ (¬ ॥ & ? 1० 8४7. ज्र ते दीधः
१२ 0 7 07). अज्र
९९ 0 छदाः.
२३ ^ 8& 8" ए४१४. ग्तोक्यमगार्य-
काडदयपगालवामामिति एतदपि नास्ति
प्रयोजन संज्ञा.
२०९, २ ए 2 कथं अन्व्थग्रहणात् भन्वर्थर.
३ 0 ऊष्वेमनुडासर; 7 ऊ्वैमुगत्तः.
४ 0 ततः स्वारः
९५ 0 °हस्वोदालादशाः..मुशलानुशतस्व
९३ 0 £ वक्तव्यम्
१९ 7 ^ कर्मिद्रामः
६७ ^ इद्रागः.
९९ ( ४) 00. च्छु,
२२ ¢ 8 ०).
२९०, १९ 0 7 ०1. ज्ञायते.
९२ 0 7 071. वा वषठ्कार.
२९ & 2 0, ; (19 फडशा; 7 ०, एण
088 1) 1. 22 परादि 8. उदार.
२२ £ ००. हरिव भागच्छ
३ ©) & 23 ०00; ©. पाना.
२४ & 011. 0/८ है
२९९, ६ 0 1 ००. भवति
0 7 भमुरष्यैतः.
< (© 7? अ. भवसि
९ 0 .£ स्यातोपो?.
९० 7 (~ 8 शत्यंव्यश्च.
९२ 2 ०0.; @ 7 एषु.
६३ £ 188 देवदसस्य..-यज्ते ०1 ००९९ ;
0 देवदत्तस्य पिता यज्ते वास्सस्य पिधा
य नते हेवदत्स्य पिता यजते वारस्यतस्व
पिता यजसे.
६६ ( 011.
९९ ? ०. चेश.
२० 01 शरवे च व.
२९२, २ 0 बहववननिः.
ह वद्यथा; ०708 यथ.
९ © हरलीति.
६ 07 -हवचननिः
९२ 0 8 & ण्ाण्भा; ए शुतिम"
९३ 0 1) ननूक्त.
॥ पाठभेदः ॥ | ९१९
१० प
२६२, ९४ 0 शेषे स्व.
९६ © वीनामापि प्रा.
२३ 7 © ०. अणिः. .2हणम्
२९ © °व्येवं सिद्धम्
२९३, ७ © वैलादिषु वा षा? ¢ ए & ४९ 8167.
४० ए पेलादिष्वेवास्व षाः
< ७ 7 € भनंविष्यति.
९९ 0 ०0९ अल्प अपक्त मरहणं कर्तेष्यम्.
२० ( [ हट्वचान्यश्च.
२० (0 भस्स्वन्य
२९४, २० 1) तदयत्तादः
१९८ ५ 1 & `पसजनं भवः.
२९९५, ९ ? ¢ ? स्ततोऽन्यक्रौप.
९० © 7 £ तन्न प्रधा.
१९ 0 !) £ यरप्रति.
९४ (¬ .जंनस्वमुक्तम्
९१६ 708 8 भव्ति उप
१६ & 0 & प्रधानस्य उपस जनसं पूवे
£ प्रधानस्योपसजंनसंज्ञा न; ? ०01-
ह०४)1र पुर्वंनिपातो, 1" 71916 .^108४68
उप सजंनसंज्ञा.
९८ © °जंनस्य हस्वेति हस्वस्वं.
२४ ¢ 0 श्रतिषेध इति.
२९६, ९४ 8 ए ०५१ दश गः, > सप्तगुः"
१४ (¬ ) 230). प्रापापन्.
२९७, २ ८४४१९ वर्णनां मा, ७४ 16008
८८ 1९,;०४ वणनिं खव मा.
७ 0 1) °मेतङ्वति.
® (3 071. इति भ€ इयेनायते.
९० (0 & ० हाण्णाङ् 0 £ भवतीति,
९२ ? ¢ & ? भर्थत्रादिति प्राति.
९२ 0 0 स्यात् 0" प्रपोति.
१९ 1) १११३ 1" 081. नाम ९५८ चेदवयता.
९६ 2 £ 8 चेदवयवार्थवस्वास्समुदाया्थं-
वत्वम् अवयवैः
९७ 0 7 नगरमिव्य॒थ्यते गोम,
२२ 0 & ०"हण्भाङ् 2 तावदहं नगः,
८8 तावदाडधमिस्यकारो.
२९ 0 7 डाह्ठा दंडेन.
२९८, ३ 7 & & 1" ण. प्लस्पिस्तस्मारातिषधः.
८ (© गामभ्याज,
९088 गामेव...भनभ्याजेव,
९६ ८ ¢ 8 उवः नी चकररिति.
२९ © शघायां चान्या.
२९ ४ & ननु चावदयं प्रा.
१० ¶°
२९९, ९ 808 2 भ्मुशैयस्यौपि प्राः.
९ 67 श्े। हि कर.
६ 0 एवं तेः; 1) ८ एतज्निः.
७ © 1 ? भवतीति नाः.
२० £ कथम् । अन्वयव्यातिरकाभ्याम् । भ-
न्वयः.
२२०, ९0 इ्क्र
९ ~ 8 071. & "" पाश. पुरूहूत
१९० 0 1) भ्थंकल्वमक्तम्
२ © संघातस्यायथवसत्वात्छ; & पस्थैकारथंस्वा-
स्ह” 8 पस्य वेकाध्योस्घु ¢ श्स्यै
"वेकाथ्योरस॒°
१४ © ग्थंवच्वा्ैत॑स्य प
२० 0 2 कंषिदख
२२९. ९९ 7 अथाप्ररयय इति कि पयैदासौं
९३ ० (त्तिवेकाठेशप्रः
१७; १८ (¢ ^ङेकदेराप्र.
९८ ८\11€९ न्रह्मबन्धुः, 70 वीरबन्धूः, ” जीकव-
बन्धू.
९९ 0 ॐङ आदिवस्वात्.
२२३, ९० © 0). समासम्रहण.
१९७ ¬ ¢ 23 & ०111911 ? श््रासिषेधश्च,
९८ & 1\ 181. ख &{1€" भव्ययाना.
९९ © अधिकरणमाजार,
२२३, # © त्ैतयो°.
< (ध 011. हि; ४ ०0. ऽपि,
१९० ? (भागभ्यामेव ; £ 'भान्यामिति.
९० ब्रक्तव्यं ; © 70 कर्तव्यं
९३ ङगवरत्रायः; © 1 "878. सगवरव्रान्या-
भित्यपि पाठ
१८; १९ 0 1 उपसजनहस्वखे व २; £ ८8
8 0] ००८८ उपस जंनहस्वस्वे च.
२० © उपसजेनहस्वस्वे च २
२२४, ९ व भतिर्तभी अतिलक्ष्मीः अतिभूः अ-
२ ^ ? स्वरायिष्यते; & 07. त्र
२ 8 ° भवतीति
£ 0 .भैवति.
९० © 7 & ०€ण्शा़ & “त्यथः.
१९ (0 7) ०४. चख.
१२ ००. मोक्षीर म; ¢ ? "पालकमिति,
९३ 0 1 सेनानिद्ुः,
९६ (^ 8 ऽन्तवदाः.
२९ (~ ठ अप्रधानम्,
२९ ध 7 01. #- 0
९२० | पःठदमेदः ॥
ए० पं 9० 09
२२४, २२ ८ ए यस्यति. २६२ १९ 0 7 पृष्यपु; £ तिष्यपुणः ए तिष्य,
२३ 8०1. हि 10 178. पु? ¢ 2 यथा स्याष्यप.
२९ ¢ गण. २९३३, &; ^ वितीत्युख्यः.
९४ ( 0१. 110८ 0६ च; 7 ०. ६८ ७.
५०११ ष्ठु.
२० © तत्र नैक्रार.
२९ ^ "धाने भने.
२९ © -इस्येत दृष्टा तमवस्थाय ; 70 इस्येतदूः .
इत्येवं वृर.
२३४, १ (1 7 इस्येतद्ः £ इत्येवं इः.
२२९, ९ 8 0
७ अ 00. यावती; 2] १88. जा.
866०4 शु,
७ 0 प्रतिषेध इहा.
९ ¢ 2 भविष्यतीति.
९२ © मन्यवडवति. |
९२ © कथं ता; 7 क्थ ताः.
१२ £ प्रतीक्षते. ~ ४ £ करं मन्यते; । 01&;0१1], सुक्कं
९६; ९७ ¢ प्रतिषेधो २ वक्तव्यः; 7 ४208 मते, 917९7९५ ८० सक्ररतरक्तं मन्यते; ¢
3 का). 1, 16. हि 7 । स॒क्ररतरक्रौ मन्यते, ५०८ ०४। ८९14}
२२६, २ गोण्या नेतिन वक्तव्यं; ) गौण्या. € 10 8; @© 7 गफ.
नेति वक्तव्यं. १२ 1158. उच्यते.
९ © 010. इस्वस्वमन्र विधीयते. ९८ ( 071. श्व;
९३ ^£ 3न ब सूच्याः २९ ¢ सश्य संयो.
९६ (¢ गोण्या नेति च वक्तव्यं. २९ © सककारयोः.
२३ (^ 23 & £ 1 0091. कदुकवदया. २४ 15५, उच्यते.
२२७. ८ 0 'संख्ये ते दाक्येते अतिदेषु. अ २३९, ९ ¢ † समासांतः.
१० £ 1) 718८, कला प्राग्बरत्तेय, यत्रा १३ ¢ भमनर्थम.
प्राग्ठत्तर्यै लिङ्गुःसंख्ये ते भतिदेक््येते।
षटठी कस्मान्न भवति । सामान्यातिदेशे
विदहोषानतिदेशः; [8 $४४ 1610118
{1018 16811.
९२ ¢ £ 2 अन्यत्राभिभ्रेयस्य ग्यः.
२० © °संज्ञत्वाद्र,
२९ ए & & 1 0578. अन्यस्याद्रीनेन;
१९८ 2183. उच्यते.
२० 0 ननु चोच्येत नेव व; 71 780. चोर -
ततवेति पादाः.
२३ 0 ०7. क्षश्च वृक्षश्च वृक्षौ .
९३६ ६ ? ०71. पृथक; ध] 1188. €द्९ु)( 3
उच्यते. |
< ९ 7 विनक्तय॑तानामेक शेषे विभक्तयताना-
8 ००. च. मेकशेषे वि 0 ]) विभक्तयंतानामेकशेषे।
२२८ २ ३ ? मथुरार. मधुरे. वि; ¢&€ 1 विभक्तथतानामेकशेषे विर.
` ९७ 0 मधुरा. ९ 0 भविष्यति.
२९ 0 ? भवति. १२ ¢ 1) ६ च देहि ब्राह्मणाभ्यां च कृतम्.
२२९ ९ (^ 98०, १४ कतां;077 करणं,
9 ~£? ०1. घ; 8 व गु. २३७, ६ @ 0१.
१६ 0 सिध्यति जाः. ९0०7. सत्री.
१७ © 7 तर्हि. १० 0 रोहितस्यापि.
९८ (0 उक्तम् २. ९३ ( रूपान.
१९ 0 7 £ प्राभोति. १७ 0 £ रूपनिम्रः.
२३०, ३ 0 ०7. २२ © यानि रूपाणि,
४ £ ^~ £ 8...करोति। एको यवः सपत्नः २९ च 10 पाट, धधि कथम्, विभक्तिः सा.
खमिक्षं करोति ।. रूण्येणाश्रीयंते.
२० (0 तद्यथा, २६ 0 यानि रूपाणि. ।
२३९, ९९ © ०0. च. २९८ ६ 0 7 & ०गाण्9 ए त्ैष कोषः परिह-
९९ 2 सस्थामपि यत्तिष्यः. तमेतत् अनवकाश. `
२९ © पुनर्नैषज्रस्यैत०. < 0 £ प्रयोगसा?. ``
|| पाठभेदः ॥। ९२९
3 प9 १० ध |
२३८,१० ए क्रियां । तस्या एरकः. २४६, २० £ 00. शुह्कं वस्वम्.
९० 0 ? ह्ितीयस्य पदस्य प्रयोगेण. २० © 7 पटी.
२३९, ९ 7 यस्योत्तरषिः; 2 यस्यात्तंरः स्व, २२ @ 01. ४€ 018८ चख; © & 00. ४6
९२ © 7) एकच्चेकञ्च एकौ 8९८०प् श्च.
९२ 0०दइोवदौ च हे," 791८. चेति पीठा. २७ £ 8 युगपदादिस्य.
¬द्ाच्द्ोच द्रो चेति २४७, ४ £ ? भवेदिति.
३ © श्धक्रस्वाचानेकशः; ) श्यक्रस्वाव्ा, १३ & ८5०. ष्व.
२३ 0 € भवाति. ' ९४ (0 भिन्नार्थः.
२४ तद्यथा ; © 7? 2 यथा; £ ००: ९६ © कषौः.
२४० २8 ०). पिता. ९६ ^11 183; ९१८९]८ ए षोडदापलाश्च ; ६
९९ क्षास्तु; 01" "४. कषाः स्थुः. शोडदहफलाञ्चः; 0 संवस्थः; 7 “शंवः;
९६ 28 प्रतिचिरेकार्थः. ए: 'संवटधः, 10 1878. दी जस्; 8 शं-
२२ 0 'दाचनिकी च. वटधस्तत्र; £ 1४7. माषसंवटंघ इति, 8
२६ © श्रोति वक्तष्यम्। न वृ, -शंवटयस्तज्र; 13 ६9". माषसवध इति
२४२, ३ © तेन मन्या. स 113. ण 1.97. माषशबटथ इति ;
५ 0 7 "तं यना, 4 20०1101191{8 111 1. 0. 28 & ११
0 “कृतं यना 705 ०? 5. माषश बदा माषः घो
९९ 1 11601008 ८€ ८९११- १९ 0 वि्षेष उच्यते
1०6 बहयेता च. २० © यतः सामानाः
९३; १९ ? & ए 1: पनित शानैक्रेनानेः. २३ © ०. शब्दमंहणं वा.
९९ ५ "प्रस्य चे. २४८; ९ 61 केन ष्त् यः ०७ श्रुयते.
२३ 0 7 एकरेनोक्तत्वात्तस्यापरस्य. ८.7? €£ 2 डुलिश्च.
२७ © 071. न्यप्रोधाथं- ९ 07 शहक्षणो ह्येव वि.
२४२, ९ 1133. यिशर. ९२ © °स्येतस्सिद्धम्,
< 0 0 & ०7 पणार ४ द्ावाकमा. ९६ # इलि.
< 0 °वी संनमेते,. २० 8 ०, श्व
९९ ¢ एकशब्द | २४९.३;९ 2 पलिङ्गस्मावि"
९९ @ ०". एका. ९ © वाचकम् । [कै तहि । हस्वमपि । कर्थ
९८ £ 5 कपोतेति. ४ (¬ ङ्हवतन
२९ © 0 ०. व ९६ £ 8 & ण7€ण्भाफ £ सी सडविन,
२४३, ९ © 1 2 “लन्यतें । भंस्वीत्याह । किम |; ¢ १६6€व ४० तङ्धावेन.
९ © नैकत्मिः ५५०, ४ इय; © ० ६. इद् हयं पाठर.
९२ 8 ? °त्ंथेकलेषे बोषः. ९ ० ण अव्यक्तं रूपं.
२१ ¢ नंतु यस्याप्याकृतिस्वस्यापि. < 0 0).
२९ ५788 च समाप्यते, ९३ 0 ०1. न.. सिद्धम,
२४४,९६ © 0 £ 2 निङ्. १९ 0 शब्ठाभिनिवेशोः
६ 08४8०). श, ९१६ 0 -कारणात्सि>; £ “कारणात्वा.
१९ 0 भारम्नपोक्षः, 11 71218. आरम्भणा- २० © शद्व्रागप्षः.
लम्भनप्रोः पाठां २४ ५7) न वेष.
१९ 1 मधुरा © 10 "वा. धु पाठां २४ (00. हि.
२४९३४ © ०07. च्व २५९, १० ए भवतीति बवक्तष्यम्,.
९२ © 0 £ “कृतिरिति च प्र. २९२, ९६२6 ०१. च .
२४६, १९ 0 स्स्यायते ऽस्यां. ४ © 3 अनीरा.
१0 सुते २९ 0 7? तरुणका इमे; ए णार तरुणा
७ 0 00. यद्युभयं स्वन ङ्मे,11#९7९ ४० उरणक्रा इमे.
66 9
९२०
० पं
२२५, २२ ¢ 8 यस्पतिः
२३ 0५080. हि
२९ ¢ 0.
२२९ ९ 8 णार
७ © 0). यावती; ५1 488. 11. {16
86001 शु,
® 0 प्रतिषेध इहा.
९ (^ 7? भविष्यतीति,
९२ © °मन्यवङवति |
९२ © कथं तार; 7 क्थतांः
१२ £ प्रतीक्षते.
९६; ९७ © प्रतिषेधो २ वक्तव्यः; 0 ४८8
ए 70. 1. 16.
५
|
२२६, २५ गोण्या नेति न॒ वक्तव्यं; 1 गोण्या.
नेति वक्तथ्यं.
९ 0 00. इस्वस्वमज्र विधीयते.
९३ ~^४८नवु सूच्याः.
९६ ¢ गोण्या नेति च वक्तव्यं.
२३ 0 0 & & 10) षष्ट. कडुकवदया.
२२७, ८ © °संख्ये ते शक्येते अतिदेष्टः
१० हि 71 गा. 8९ प्राग्र्य, अथवा
प्राग्वत्तेवं लिङ्गःसंस्ये ते भतिदेश्येते ।
घ्री कस्मान्न भवति । सामान्यातिदेशे
विरोषानतिदेशः; ४१ १४६६ 16110108
11113 7९९६4108
९२ ४ 0 & ए अन्यज्राभिभेयस्य ष्य"
२० ¢ “सं्तत्वाब्ः.
२९ ए & £ 1 087&- अन्यस्यादशेनेनः
(4 000. चच
२२८, २; ३ ® मथुरा०.--मथुरे.
' ९७ 0 मधुरं.
२९ © 2 भवति.
२२९, ९ (~ 2 ००.
७ (8०1. घ; 811 गहु.
९६ 0 सिथ्यति जा.
९१७ © 7) सहि,
९८ ( उक्तम् २.
९९ 0 7 ४ € प्राभोति.
28० ३ ¢ 01\*
४ 208 ए...करौति। एको यवः सपन्नः
चघुभिक्षं करोति ।*
२० © सख्था.
२६९, १९ © ०. च,
९९ शस्थामपि यत्तिष्य.
२९ © पुनर्नशजस्येत.
|] प.ढमेदः 1
१० 4०
२१२, ९ 0 7 पष्य पु £ सिष्यपुर ए तिष्यपु?,
10 1. पः ^ > यथा स्याव्वपमर.
२११, ६; ७ ¢ पवितीस्युच्यः.
९४ ( 010. {116 08६ चं ; [ ०0. ४€ 8९-
९01" च,
2० © तम्र चैक्रार.
२९ ^ “धानं अनः.
२९ © इस्येलदृष्टातमवस्थाय ; 7 इत्येत; £
इस्येव बृ.
२३४, ९ ^ 7 इत्येत? £ इव्येवं दृ^.
४ £ घकरं मन्यते; 1 ०1911 सुक्ररक
मते, 8161604 ४० स करतरकर मन्यते; ©
2 ॥ सुक्ररतरक्रं मन्यते, ००४ ०४।६१्५८
€ 1 23; 7 0१.
९२ 215६. उण््यते.
९८ (¬ 00. श्वः;
२९ © सश्य संयो.
२९ 0 सककारयोः.
२४ 5५. उश्यते.
२३९, ९ 0 7? समासातः.
९३ © मन्थम्.
९८ 188. उच्यते.
२० ¢ नतु खोच्येत नेव व; 1512. खोस्प-
ततेवेति पार.
२४ © "70. दक्षश्च वृक्षश्च वृक्षो.
२३६, ६ £ ०7). पृथक; || 2138. ९९४
उश्यते. ।
< ९ 3 विभक्तयतनामेकशचेषे विभत्तयताना-
मेक रोषे वि? 0 1) विभक्त्यंतनमिकशेषे |
वि? 8 ^ £ }\‹ विनक्तथतानमिकरशेषे वि०.
९ 0 (भंविष्यति.
१२ 0 1? च देहि त्राह्मणान्यां च कृतम्.
९४ कर्तां; © 1 £ करणं,
२३७, ६ (अ 0४.
९0०1. स्त्री.
१० 0 रंहितस्यापि.
९३ 0 रूपानिम्रः.
९७ © £ रूपनिभ्रः
२२ ५ यानि रूपाणि.
२९ © 1" "7 9.. श्ल कथम, विभक्तिः सा.
रूप्येणाभ्रीर्यसे.
२६ © यानि रूपाणि. ।
२६८ ६ ¢ ए & णहण्णा ए नैष रोषः परिष्-
तमेतत अनवकाश,
< 0५ £ प्रयोगसाः?. `
|| पाठभेदः ॥।
¶2 १०
२३८, ९० ए क्रियां । तस्या एर्वे -
१० © ¢ हितीयस्य पदस्य प्रयोगेण.
२३९, ९ 1 यस्यो त्तरवि; £ यस्यात्र: स्व.
९२ © 7 एकश्चैकञ्च एको.
१२ ७दहौगष्वद्ौ च हे, 10 "9४. चेति पीठाः"
0द्धौषदौ च दो चेति.
१३ © ्थक्रसाचानेकशः; 7 श्यक्रस्वाबाः;
२३ © & भवाति.
२४ तद्थंथा ; © 7 8 यथा; & ०;
२४०, २ 8 ०1). पिता.
१९ क्षास्तु; © 11 91६. क्षाः स्युः.
९१६ 7? £ ? प्रतिचिरेकार्थः.
२२ © श्ट्रा्निकी च.
२६ ¢ श्चोति वक्तष्यम्। न वृ:
२४२, ३ (© तेन मन्या.
४ 07 (क्रतं यना
९ १ १20]1011॥1६8 17161108 (€ 1९9१.
1०8 बहथता च,
९३; १९ ए £ ए । 'मिवेशानैक्रेनानेः.
९९ © प्रत्ययै चे.
२३ © 7 एक्रेन्तत्वात्तस्यापरस्य.
२७ © ०71. न्य्रोधाथं.
२४२, ९ 153. यरि.
< 091) & ०गटण्णार् » दअवकक्िमाः
८ © “वी संनमेते.
९९ 0 एकशब्द
१९ ¢ 010. एका.
९८ & ठ कपोतेति.
२९ © 7 णण. च.
२४३, ९ © 7) ए °लगभ्यतिं । भस्तीस्याह । क्रिम् 1;
९ © नैकस्मिः.
९२ £ "तथैक शेषे कोषः.
२६ © ननु यस्याप्याकृतिस्तस्यापि.
२९ © 7 € ए च समाप्यते.
२४४९६ © 0 £ ठ निक.
६088०. श्व,
१५९ © भरम्भप्रोक्षः, 11 0191६. आरम्भणा-
लम्मनप्रोः पाठां.
१९ 7 मुरा; © 10 पादा. श पाठाः,
२४९३४ (1 010. षध.
१२ © 1 £ -क्रतिरिति "व प्र^.
२४६, ९ 0 स्स्यायते ऽस्या.
१ (¬ स॒तेः. |
७ (¬ 01. यद्युभयं सवन,
66 भ
९२१९
१० व4१०
२० £ ०). (3 वस्वम्.
२० © 7 पटी.
२२ @ ०111. \1"€ गण्डौ चः; © € ०0. €
8९011 च.
२७ € ? युगपदादिस्य.
२४७, ४ & ? भवेदिति.
९३ £ 2 0. श्व.
९४ © भिनरार्थ.
९६ ५ कष.
१६ ^11 1088. ९५०९८ ह बोडशपलाश्च ; £
शोडकशफलाश्चः; © 'संवस्धः; 7 (शंवः;
7; गसंवदचः, 1 "09. दी जस्; £ “यं
वटथस्तच्र; £ 1६815. माषसंवटंथ इति ; 2
°श्ंवटयस्तच; 8 7. माषसवध इति
पार 118. ° ६9. माषशबटथ इति ;
328०}1071४4४ 10 [. 0. 98. &
70 ०0 3. माषशंवदटथां माषः षोः.
९९ © विशेष उच्यते.
२० © यतः सामाना.
२३ © ०. शड्ठम्रहणं वा.
२४८, ९ © केन च य°. -शरूयते.
८ £ ? डुलिश्च.
९ © 7 'ह्वक्षणो ह्येव वि.
९२ 0 स्यतस्सिद्धम्,.
९६ # डुलिश्च.
२० 23 ०01. च्च.
२४९.३;९ ? शलिङ्कस्यावि.
९ © ग्वाचकम् । कि तहि । दस्वमपि । कर्थं
२४ (इह तन.
९१६ & ए & गशणभ £ स्री सङत्रेन,
? १६६९१ ८० तवङविन,
४५०, ४ इयं; © 1० 7918. इदं हयं पाठं -
९ पणार अव्यक्त सूपं.
€ (ध ग).
९३ © ०. न.. सिद्धम्.
१९ © शब्दाभिनिवेशोः
९६ © °कारणास्सि; £ ^कारणास्वा
२० © शदव्राग्परं .
२४ ५7 नंवेष.
२४ & ०0. हि
२५९, १० ए भवंतीति वक्तव्यम्
२९२, ९;२ 0 0. च
0 ए अनीय.
२९ © 7 तरूणका इने; £ णहार तरणा
इमे,81४९7९ ४० उस्णक्रा दमे.
९० || पाट़भटः ॥
प्ृ० 0० १० पं
२५२, २९ © वकररका हति. २५८, ९ © क्रिमियं यत्तर.
२३ {3 ता, गठ्ना श्ररन्तीति. ९० कास्यपाः,
२९६, ३ (¬ पठति. ९६ ७ 1) स्क्रिसित्पूुः.
६;७ £ "परूषक्राणि. २२ 0 € यद्यत; 1) यद्येत.
२२४, २५1 त अचि द्चधातरिति श्रुः २७ © 7 मन्यते,
६८8 यः प्राति. २५९, ४ 7? & 7 १९८ & एदाए -गव्यस्यार.
१० 1) ण. ७ 1 वहति वहतीति ; £ वहति वहयति ; 7
९२ ? & 7 भवंधहा^. वशष्यति बहयाति ; ८ 0121181 वहति
१९ 2 -जावतीयक्रा. वल्यति तीति, 811९160 ० वदति
९६ १६०11०1 १६६२ "वरदृष्टा. वहतीति.
१६ 2 > अशक्या पिंडी? 1 01810811, अ- , ९ 1 ज्ञपयिष्यामीति.
शक्या च नाम पिंडी. ९० © स्वरानुबेधा वा.
१८ £ 23 ०1, साधने. ९४ 7 किरसि.
९४ € दिरिः; 7 हिसि ; ए गहाण]? दि्चि.
२९ © करिष्यते, |
२५९ ३ निदर्शितं; © 1 ए ददीतं £ प्रदरिीतं.
३ ५ 7 £ नि्हंदयतं; } निदर्शते,.
९ £ पक्तिः; 1 0111"11‡ प्ता, १11९1६4
१] {८९ (० दसि; © ^ 7 ह हिरि,
९७ {९21९६६8 7ाल€ाप्तणाऽ (€ 1९8५198 प्रत्य
क्षमाख्यात.
८० पक्ति, १९ © £ -माख्यानमाह
१२ |? £ 7? ए गा). सिद्धं त॒. २० (+ 1) 8 “ठत मम भर.
१८ ५ ते नन्या. २९ £ ०71. किरीटी.
२० 0 ण. तद्यथा, २९ ० स्वस्य प्र.
२९ 0 शुक्र. २६०, ४ 2 & ०्टाप्णाङ ए लक्षणेनापि श्युपः;
२९ 8 01. पुरंदरः,
२३ ¢ 7 ऽयंवत्तापि न.
२२९ £ ॥ विशेषं; ४८ 0४ # 88. विज्ञेषणं.
२९५६, ९ £ 5 प्शब्ठों ; £ 01£121)$ पच्चतिश,
०।६४९॥९व ६० कृद र.
९३ 0 0 (मीहे मे मरू.
१८ ^ 2 क्रियत; ४ 76०91] क्रियते, 91.
६६९१ ६० तियत ; 11€ गलः 188,
२१ ०७7 विगप्रा्तेषिद्धाथनां. [ क्रियते
२५९ © 1 निर्हिंदयते; 7 निवृइदयते.
२७ © 0 पक्ष्यति च भर,
1 लक्षणेनाप्युपः.
४ 7 72 -क्षमव्याख्याः,
६ & 8 & १०१५५ 1 ए ° देव्रीयक्रमः.
७ (© .मारख्यानमाह, ।
९४ 8 इह अन्न.
९१६ ए देशने ऽ जनुना.
९७ ? योजनुना.
२२ © 7 न प्रायवच्वनाः.
२६९, २ ०७न कञ्चि.
५ 0 शटंते.
७ 0 सर्वोपि; 1) स्वोपि हि.
२७ @ 7 एषा वाचो.
२५१ २ © अथाप्यरन्यः; 7 अथवास्येर.
9 & 23 & १५१९५ 1" + -कौनामापि त प्रा
७ £ तं तमवर्धि कृत्वात्यो ; 1 १६०}107 ११६१
1048 सर्वो हि हलन्स्यो भवति, 8५
06111015 € 1८६त11ए5 तं तमवार्धं
९२ 1 £ 7 गवयः. प्रति ११ तं तमंवधीकुत्यै.
१२ © -त्यादिपाठनिब्ः. ह ९ © °तांतस्वात्,
१६ £ # & ४११९१ 1" 7 माविवचने धात; ९२ © °मित्संज्ञो भ.
तदर्थ,
२० © ] श्रयं भवाति,
२९ © 7 & 01&1811९ ए उपपद्यते.
२५८, २ प्राथम्यं ; 0 प्रथमं; 7) प्रथमं.
४ 0 वस्रीयाति. |
६५ } £ ०). कि तर्हि.
९९ 138. तेन; 7 £ 7 ध्यवसितानेवा
९६ ¢ ०बंधन्ञापितः.
२० ए कथम् । लक्रारनिर्देशात् । लकारः
निदेशः कर.
२३ ५ भवति.
२६२. ८ £ नावदिबेत्सं
|| पाठभेदः ॥
१० प°
२६२, ८ ©@ शत्स्वरित इति.
९788 इह तरि.
९२ © ।) इदं तरि.
९१६ 7? £ 8 भविष्यति ६०७६५९४0 ० भवति
भवति.
२९ © क प्रेप्तं दीप्यसे; 70 "19९. क्षा प्रप्सं
पाठं; 087 क्क प्रेप्सन्कीव्यसे.
२६३, ९ पप 8०110114 118 8853 ५1 1९257 ८0
कि. . त्पत्तिः, वस्तुतो ऽयमपाठः.
७ © तहि अव्वं.
१९ 11676 & एलण०्क चंश्ुर; 70 पाण्ट चः
पाठर.
१२ © ००. केशचणः.
२३ £ चेदिदिध..
२६४, ९ 0 ? 8 विज्नायते.
२७ श्रोवियपुत्र इ 10 70". श्रौत्िय
इल्युख्यते पारा.
६.1) #£ € गिस्भूः; 2 सभिव्यावेदभू.
८ 0 भिदितः.
८ © पठति,
८ © उद्करिर; ) उन; ¢ उदिर् निश्ामनें
स्कान्दिर इति, 2 बद्र.
९६ ५५९०] 11१४{१ १९७5 वैधयः (मखैः )*
१९ 8 भ्मानेपि वै; ए वै 13 ४५५९५ ; 8
'माणेपि,
२९ 7 071. & 7 १143 10 18. निष्ठा
सेण्न क्रिङडवति.
२६९. २५ णिद्धहगेन न गू? 8 न गिद्गहणेन शृ .
&े 0 & 011. |
५ ए निर्दिं्टलोपाहया सि मेतत् 1 "191.
. ९१९0 गिधिप्रति.
९३ © 1) केनाभिप्रायेण नि
२९ ए स्त्या: शाखा व्रकषेक्राता उपलभ्यते
0102 कांता उपलभ्यते; ६ "का-
न्त उपलभ्यते.
२२ 1) 0९८ & (गणम ढाप्रति `.
२६६, २ वक्तव्यम्; © 1) कत्ैव्यं.
८ ». चेप्पूर््ोत्तर.
१९ 7 £ € व्यवसितः पाः.
१२ (¢ व्यवसितः पाः; 8 9 071. ठयत्रसित-
पाठः; 10 1८ 13 ऽप्ण्टोः 0,
९४ © 0111. आक्रिय...संरेहः.
२२ ० एकरांता एतन्नाप्यं ; 7 एकता एत.
न्याय्यं.
२६७, ९ © ऽन्तरतम शत्यनेनाप्येः; 7 ऽन्तरतम
त्वव.
५०२
० प |
२६७, ९ ¢ 7 अतर्येतः.
१२ 7 £ & 7 1\€ा९ & एल०ण 'सलातुर.
२० © स्रैतोनुरेशः; £ & सव्रौनुदेशः.
२६८, ४ 7) £ सषयासःम्य.--“डशः ८५१०९.
९६ © 7 गशिलादिन्यामणओौ.
१९ & आलमनेपदनिष्ठाषिधि".
२० ¢ 8 ०10. विधि.
२९ © अनुदात्तङितो दम.
२६९ ९ ए पुत्रैरूपष्वे.
६ © 1 आतयैतः.
९० 0 तत्तहिं गक्रार.
१२ 0 7 करिति गिति.
९५ 0 धातुषु िप्रः.
१८ © 7) & 3 ०. त्र.
१९ 7? घमादिग्रह.
२२ © अक्रतेरि च क्रारक्र ४५१५९.
२१०, ४ 0 व्टृत्तौ डो.
< 0 7 ०. तन्न.
९३ © व्याख्यातो ; ४ व्याख्यात इति.
१४ 13.072.
१७ ¢ °द्मञ्खौ.
२७९, ४ ^ 071.
९ 0 अज्र संख्या.
९० 14. 01. ।
१२ ¢ अथैवं.
१४ © 0 £ स्वरितखं. [प्राता .
२२ ¢ प्रतियोगं तस्य; 10 1118. य॑.गे योगै
२२ © गतमियता.
२७२, ८ ¢ वेति ; ¢ € 7 विष्गुमिजाय कंवल इति.
८ ¢ गानि,
९९ 0० श्यैणवे;एच्यंएवर
९९ 1); 9१६. लौक्रि रोधि कार इति च-
दुक्त पाठः.
२० ¢ 1) श्यमेवं
२९ © “्ानं चेति.
२४ © तत्र वक्तव्य.
२९ 23 01, |
२६ © चनं वक्तव्यं.
२६ तत्तर्हि; © तहि.
२७३, ४ 7 }६ 'लक्षणमिनि इनुण; ॥1€ ०५४९
1188. -लक्षणमिरयुक्तम् इनुण्व .
७ 0 ए विज्ञायते.
७,८ © अधिकं कायै अधिकः कारः ज.
कारः; {10€ 8810९, 819 अपिकरर्गतिः
ए? अिकारगतिरधिकः कारः अधिकारः
९५४
९० पण
अपिकं कायं , 0४ पिकारगाति
०४; & भधिकारमातिः भंधिक्र कायं
अधिकः कारः; ए ५८ 88116, 0४४
अधिकं कायै ४16९.
२७३, ९ 0 सिया.
९० & 8 ०). प्रस्यया ; 1) 7 इप्लीः ०ण,
१९ 0 स्वरयिष्यते.
२२ @ ०10. ऽखं.
२९ © अथान्यो यो.
२९ 7 पूतैप्रतिषेः.
२७४, ७ 0 षष्ठीनि्दिंटेन.
९ 01) 0. चि 11 पाट,
१० £ द्वितीयानिरदिषट प्रथमानि च.
१९९ © "धानाश्च वि? 70 "षाष्ट. नाहितं
पाठ.
९३ (1 -धानाषशारम?; 11 णभ. 'चूषा? पा.
२६ ० ००1. परस्मैपद्.
२७९, २६ © 1 तद्धधत.
२६ ~ उच्यतनचथ.
२७६, ९ (ˆ £ तव्यकादयस्त॒ वर्हि; 3 तम्यदाए्यस्मु.
९ 0 न खल्वन्यः,
१९ 0 भवतीति.
१९ ^ 0 पर्स्मेपदमिति ना०.
२० & 8 0101.{ 71 ए हपलूर तण,
२३ 02 011. प्रकरवयर्थनियमे ; ए प्रकृव्यर्थ-
नियमपक्षे.
२७७, ९ (' चान्य न प्राः.
२ © यत्तीहि.
४ (1 भवतीति,
९५ 0 कतरि कर्मभि.
१९ ˆ रुजतीति रोग हि; 7 0111०811 ङः
जति रोग इति. |
£ (¬ मुवतीति.
९०7) & णङ्ण्शार ए कर्मणीत्यपिनि?
१९ (¬ भभाग्रास्सिर,
१२ 0 & ०महपा 2 प्रातिः शोषाशिति
सां यो.
१६ @ 010. 0€ क्षरि ४०१] 17168,
२० (" क्रियाष्यतिहरि २ इति.
२६ ( & ०" 8ण्शा ए क्रियाया ईष्सि?;
{~ क्रियेप्सि,
२७८, ९ ₹{}; ८873,
३ 0 निदृत्तिः निवृत्तौ.
६ © ष्यतीहारे,
१९१ 0 {¬ & ण &्धाङ़् ए इतरथा ह्यक्रियः.
|| पाठभेदः ॥
९०९ प
२७८, ९२ © भावकमणोरनेनाः.
२३ 8 ०.
२७९; १ £ & ०7 ण्म ए हकद्योः.
२४.701. हरि... वक्तष्यम् ; ८.
2115 इुषवर,
९ & 5 ६ ग.
` # 0 (नति,
१९ ¢ स्वादिति.
२० © 0 & गहण ए? ग्यका अनापि.
२८७, ६ ¢ माणवकं; ए € 28 माणवक भागम,
यस्व तावत्.
८ £ ०7). धनुषि शिक्षते.
९० ¢ 7 बृषो..
९९ ¢ भक्षयार्था ; 1 भिार्थी-
६९ (~ 1 3 प्ृछणे;.
९६ (^ 7 £? 7 छोर, [1. 15.
१९७;१८ 5 "85 आाशेषि...नाथते र
२४ 0 ०". विकारौ. ."छ्ते; ‰ 71 पणा,
२८६, ५६; ® (3 & {1 11.1.11, 9 "उंगाति,
९२ 1 देवपुजापसेगतकरणयोरुदाहतं.
२० & ०70.
२८२, ४ 0 1 भवतीति.
< & 0111.
९९ ? गम्यादिषु.
९९; ९२ & 23 पद्ध. |
२९ £ 0 अ्योतिषामुदढमन.
२९ ? .तलादिति; 48९10198 तलादि-
स्येव फाठः सांप्रशायिकः,.
२१८३, ९ (¢ एते ह्याहुः; 10 088 एवं वा पाठः,
९ 3 01. क्गु्कुटाः.
९८ ( संश्रतीमं, & 2 संखरसीमं.
१८ ( देवलः.
९९ @ 3 010. हि
२९ 7 ठतीयया योः श्च? ए & ? ठतोया शर,
२८४, » 7 ब्राह्मण्यै संर.
९ 0 यद्येवं तहिं ना.
१० 0 स्वशाट.
९४; १९ 0 सकमेव>, सकर्म॑परः.
२९ (@ ०८; कथं .. -भरम्न.
२८९, ९ & ए ०. शीयन्ते; 10 £ 8106 ०४
७ विज्ञायते; © 111 1097. वित्तास्यते पाठाः,
१९ त एवं; © तेन विषयं; ए गा्टाण्मा
तत एवं ; € णण त एषं, शृध्थघ्व
{० ततं एवं. ˆ
९९ 0 01. हाहेः,
|} पाठभेदः ॥
१० 19
२८२ २२ © & ०००]. 8 पर्वस्व नि,
२८६, ९ & "वद एवाडागम,
९ £ 3०. ऽपि,
१९४ ‰ 010.
९९५ ए 0). न कतेष्यम्.
९८ 7 विकरणादपि स्वड़् रग्येत ; £~ ०८
9115 विकरणास्प॒व आडति अद् ल,
४1४९1९04 ० विक्ररणादडिति अद् ल;
& विकरणास्पूत्रं भद् ल 8 ०.
[ अथापि..-कम्यम्,
२९ © शङइविष्यति.
२७ © ऋच्छिभावः प्रसभ्यत ऋच्छि; 8
००१. ऋचख्छिनाव,
२८७, ९ 0 प्राभोति, |
३ 0 & ०८ष्टाण्ाङ् 9 किव. -कञेर्ष्यं...
न्तं चापि; © 10 पश. भ्य; पाग
तश्चा पाठा.
८ £ 2881) णाह & ए फ०६४, येत्य
योगेभ्य आरमने. |
९७ 7) पृपरव्रस्सन ताभ्यामारमनेपदं भवति मा
भूषिति ; ए ०1६9] पृतैव सन इति
शादिभनियस्य्ं वग्वनं, ४५ पूवैवस्सन इति
8०१ वृचखुनं 8 प्८। ००६,
२४ © £ ०0, न भवतीति.
। २८८, ९ ६। एतदेवं, ।
। ९६ © नियते
1 १९ 7 ०7). ९शैनाव्सनन्तादास्मनेपद,
२३.२९ 1) ०. लिङ्ग. वं
२६ 7 ०. पराचिकीषेति-
२८९ २ © & गहा "भार् ? कृते,
५ © 193 कस्य ९ भवतिः 10 पाधा,
कस्य समुदायस्येति पाठांतरं,
© स्य ४१०८१ ६८८ प्रस्यय.
९९.९९ प्रकूस्म" 07 आङुस्म
१४ © आरायति.
९१६ © करते,
९७ © & ०"8ण्धार & लिगं कृतं.
२६ £ "7. दहामास.
२९०, ९ 7 उञ्जांचकार उम्भाचकार.
९ £ 801. निय; ए ०पष्ण्शा नियुक्ते
वियुक्ते, ४४४ नियुक्ते 807001८ ०८।.
६९, 0 गमादिव्येवोश्यते ; 7 ? & गमादिष्वि-
स्येवोच्येत.
१२ ? सकमंकार्थं वश्वनम्,
९५९
१० पं -
०, ९९ © वाससौ हति अजति; 7 सी इति नि
भजति.
२० तशस्मने © 7" 7181, तदैव पाठांतरं.
२९९, ९ 7 सर्वज्र प्रसगः.
४ 1 7?&£ 13 ग. कस्मान्न. . -मनुष्यिनिति.
९६ 0 ब्रुशिति.
१४ © बरूभास्मनेपशकमेकाणामुपः.
१९ 7 & 8 ०". उस्पुच्छयते पुच्छं स्वयमेव;
10 1 81706 ००४.
२२ © ०011), च,
२३ 7 070). श्व, |
२९ ए श्यां स्विदं ; ? शधार्थमिविह.
२९२, ® 7 £ ए ०. दश्यते नस्ये रजा; ), 7
8111} ०प्र४,
१२ € ऽन्यकर्व॑र्वान्.
१९ (¢ प्साति.
२० © ०. क.
२२ ७ 1 तथाजातीयाः.
२४ © कर्चा क्रिया.
२९३, ३ ० ^ भन्तकाराः; ५९ 016 188,
भक्तकराः. |
४ ऽप्यज्र; 0 ऽन्यज्ापि; £ 3 & 0 १८८४.
01 7 ऽवि
९ © कर्मकारः,
& 0 लभसे. ,.
< © & गषटाण्णा ४ गा.
९४ £ 07.
९९ 8& ०". अनुपशच्यर्थम्-
२० 7) £ ८ ०1, षराक्रिथते स्वयमेव,
२९४, ९२ 0 १विषयमास्म; £ विधावारमः.
१३ (र भा.
१९ © ०पदेनास्मनै . ,
२४ वक्तभ्यम् ; (0 1" एह कतत्यम् पारः.
२९९, ९२ 7 7 7 ०.
९३ © ] धापयते.
२९६, ९ € ०१. पुरदरः
< © कडारात् संताना.
१९ 1) ०70.
२९ ७ & गण्या 7 अंगसज्ताया; £
1.111.161 अंगसंज्ताया,
२३ © ०". धानुष्कः; & +" एश.
२९७, ४ © °सर्व॑स्थाने.
< £ ०00.
१९ © शप्रहणं कर्तव्यम.
२९८, १० ¬ ०1). कथम् । अ; 7 ०. कथम्
५५६
0० 4०
२९८,९० 0 7 एकसंसेति.
१२ ¢ ङयांदिरव०; 1 7078. ऊर्यांङन्यव-
काह इति पाठः; £ & ऊयरिख्विरवर.
९३ ( 1) 1 011, इति, `
१६ (~ सिद्धो भवति.
९८ © कमेसंत्ता भाविष्यति परः
२० (0 00. कथम्। अ; 70 ०. कथम
२० ( क्रियत
२० ¢ एकसंतेति.
२७ ¢ 'स्वास्कतृ.
२९९, ९ (+ 1 01), कथम्
१९ ( क्रियत.
२ 0 एक्रसंतेति.
४ 0 वाधीयाताम्। भनत्रकाचे नदीषिसंतते।
गार्गी,
< ^ 0 ०0. कथम्.
९ ( क्रियेत.
९२ ¢ (संत्तायाभव्िः.
९७ (+ 0 07, क्रथन्.
९८ © किथत.
१९ ५६8०). सा.
२३ € टसिवियः.
२४ © कै संतता.
२९ © कटैसं्ापि.
३००, ९ © 7 3 0. इति,
१२ £ 0111.
९४ € तत्र च व,
३०९; ९ £ 07. प्रयोजनम्,
६ (0 बहुर्रीहिप्रतिषेधः.
९ £ हेषम्रहणास्पराः.
९९ ¢ 0111. इति,
२२ © 'सं्ता.
३०२, ९ © तिङः सा? 1" 818. तिहतसार्व॑ः पाठर.
३ £ अपत्यश्चः.
५7८३ि.
९९ 11 }1589. ९० ०९}४ ९ 0 धनुषा विभ्यति
कंसपात्र्यां शङ्के गां दोग्धि धनुर्विभ्य-
तीति.
९२ ( “सज्ञा उत्तः.
९२ ¢ कांस्यपाश्या अंज; 7 ०8. कास्य.
१५९ 03 सापरा.
९९ ( & 01110119 1 कास्यषार,
२० ७ 173०0). घ.
३०३, ९ ८ £ 2 ०71. साभ्वसिमिछनत्ति.
॥ पाठभेदः ॥
१० पं०
३०३, २ †\‹ ०. धनुर्विध्यति, 9१ ॥85 साध्वसि-
हिछिनन्ति.
३ ^+11 1553. ९५ ०९[४ ए ०1. गेहं प्रविशति.
४ 0 गृह.
९ ५1 188. ९४८९ ह ०. अपिक्ररणं
कतौ स्थाली प्ति.
१० £ 01.
३०४, «९0 3 ६ 0ण1.; 1) ठककदव्योषनिवेदानी
सक्ता २ इस्येः; ^+ एकद्रव्योपनिकेद्यनी
संतता । इत्ये.
६ © 8 ववेदानी.
३०९, १२ © ०. तु,
९३ 0 हेतुभे वता व्यः.
१४ ( स तल्यस्त..
९५ 0 ०". भवता.
२० © 001, (€ १८8 च्च.
२९ ¢ प्राभोति,
२२ 0 तदेतदुपननं .
२३ (~ ०100. विप्रतिषेधे
३०६, ९ † विप्रतिषेधे परमिव्यत्का भंगाधिकारे
पूवं (1 "६1. भिति वक्तष्यं) ४७८९
३ © परेति?
६ £ 01810115 तद्यथा एण परषज्
९७ £ 0111. घस्यूषति
२ © वेक्षमाणि,
२३ © 0). ज्तोदनः; 7011 71181.
३०७,९३ 0 संप्रधारणः; 7 & गश" 9115 7: ण्णः.
९९ 0 इदमयज ; 1" "श. भयज.
१९ 1) & 13 भवय.
२० & 3 ०71. श्त इन्द्रम् ४१त इन्द्रम.
२३ © °ठेतरेणापि.
२९ @ 011. स्योनः.
३०८, ४ © श्वोच्यते,
८ 7 सों सानीयं,
९९ © 071, स्वकीधै,
९९ 0 जगगद्धाः.
२९-२३ 8 011.
३९ 7 वक्तव्यत्न । अनडगनङ्भ्यां तुम्मवत्यै-
तरंगतः। सुकृत्,
२१ रियति ; 0 पयतीति; 7 पयतीति;
01118115 पियति, ०1{€ध्व् ५० रियतिः;
8 3 रियतीति.
३०९ २ (¢ पपूत्रैखं च य; 7 प्पुवैरूपत्वं यर.
९ 9 सोटामिनी.
९५ _ 1 1; यनाहेगाच । यमादे शाति.
|| पाठभेदः ॥ ५२७
प9
8६८६ ०५६.
३९०, २ कतेष्ये ; © वक्तव्ये,
४ 0 "्य्येत. ।
९४ 1 ०. अपरैषुकामशमः.
आ
पं
३०९, २४ ¢ बहिरंगमंतरंग इति; 1” ए लक्षण | ३९९ ६२ ¢ ०१. श्वः.
९३ ( भाषा.
९१५ † ०". अन्वीः.. श्यभ्यति.
१७ 0 यस्माह्हणं किमर्थम् । यस्माद.
२९ 0 ए समुदितेन कि क्रियते.
९८ 0 क्रियते ; ए °नापहियते; & 5 नपा | ३९६, ४ 0 स्यानं कर्ब्यम्,
क्रियते. _
२० © परस्य चेति.
२२ © गनिष्त्तो न.
३९१, २ © निवर्त.
३ © ०". तर्हि.
७ 1) {£ 7 00. यवमांसियः.
७ £ 0. यवमव्यते.
९० परत्वा?; ? £ ए अंतरंगत्वा.
३९२, ३ # बहयद्र.
9 (¬ पुनर्ी; ० फण. क्रि पुनरि हीः
पाग.
९९ ( 0111. इह.
१५ ( 01. करिम्
२० 0 गा. न.
२३, २४५ 7) ततौ नेयः ..-तती वामि,
२४ ७ 007. न.
३९३, ८ © अत एवं; 171 1४. त एव पाठ.
८०७एकौ चद हस्वो.
३९४, २ ० गगौ यो.
£ £ 3 07). प्रयोजन.
१९ 7 ०. प्रध्ये ; 10 1 इप्प्८), ०४८; & 71
10812.
९४ (© 010. तस्येद... भवतः.
९६ © हप्पुव ङस्थाने; 7 ४ °यङ्व ङस्थान .
९७ ५ गय॒वङ्स्था? 0 » "यङ्वङ्स्था-
९७ ०1981": कचित्तु भाष्ये पठथते भखी-
वचन एव्र नदीसंज्ञौ भवत हति वक्त-
व्यम् | दहाकटथे अतिशकटचे ब्राह्मणाय |
क माभूत् । शकटये अतिरशकव्ये न्ना
ह्यण्ये इत्याहि । एष स्वपपाठ इत्याहुः ।.
२२ € ? अपर आह । हस्वेयुच्त्थानग्रव्रत्तो
स्रीवचने । हस्व चः.
२२ ¢^ शयुवङ्स्था.
२२ £ प्रवर्तौ खरी.
३१५, २ 0७ € ०्टाप्ाफ ? °यद्वंरस्था.
९ 0 चाल
१० ? सुभितः.
९० 0 व्वीरे
१० 0 शहिः; 7 घथि; .
ला 008 ४16 (८4108 शुधितमि?
९ 0 0 00. भभिनत् अच्छिनत.
६-१५० € ०). कि पुनः. -संचस्करः.
® ¢ व्यते । संयो.
८ करञयथेम्; © कसैव्य.
९ 0 संयोगस्येति सिर. [ एकर र.
२२ 0 सेति तत एके 7 € 2 सप्तोतित
२२ © येन नं भर,
२३ © केचिद्यावडवति,
२४ 0६88 मवति.
२४ © कूष्णमिति ; ? £ ? कपिल इति,
३९७, ७ क्रियत; © किमर्थ.
९ [) 000.
१९ £ 9 & ०161911 ए तददेस्तह?.
९७ (1 & 1 & 01181811, 1 क्रियते.
२४ 9 8 दविधिः.
३९८, ९ > स्तदेतस्यतिःप्र; 7) °स्तदंतस्य त भरः.
९; ६ 0 तव एतत्.
< © 01.
१२ © तव एतत्.
९३ © (धेः.
९३ 1448011018{{द कदणगा§ ध्ौ€ 16817
साकरुटिनम्,
१४ © “बिधिः स्वरः,
२० © “पदमेवो.
२९ © पठति.
२२ †" € 2 न्तवब्रहणमन्यत्न.
३९९, & © ०. वा; ) कृत्तद्धिताः.
९९ सूुच्यति 7170 (1,18.41 13 0), सच्यतिः;
६ वच्यति, ऽप्परटोः ०प६,
९६ © 7 वाधत.
२० £ ठ नोदयिष्यति ; 2 116 89116,
. २1४८६1८१ ८० चौदहायेष्यति,
२९ © 'रतस्येवं.
२५९ 8 धारयथः परस्ता | एतयोः; 1"
पदसन्ता 13 ६११८१ ; & ०. एतयोः.
३२० < & ? & 01181०11; ¬ स्थानिवड्विात्.
९२ 13 “श्वयोश्च.
९३ 1 € इषनिव्यतघ्य.
९९ † £ 1 07. अस्वन,
९५८ ॥ पाठभेदः ॥
१० १०
२९, ३ 91995 : (कचिदुपान ग एवं सरह य्व
स्विति । ९कवथनमिः बु मास्यं
नास्त्येव ।.
१९ € 01: & ए 185 10 1797. तन्न.
९३ £ & 8 शुद्खः पट इविः
१ 7? € वंशतरेणापिं.
६८ £ £ कमौदीनि वि.
६८ & स्वादीनि वि.
९९ &£ 8 ए कल्यैकस्य. (बहनि.
२० ०७९६ & & 0 भध्टाश्० 8 केषां
२९ 0 एतज्ज्ाः.
२६ © °कैर्निश्जितः.
२७ © 7 शयुग्न्य; £ दयुच्रौ
३२२ २ 8 (शेषेण विधानादृ्टाविप्रयोगाष.
९५ विप्रयोगाच.
१ & & ०181०811, £ चद्खुमारतरा.
& ठ विप्रयोगाच.
९४ 1.01).
१४ रस्त नियमः.
१८ © सथा तिढां संख्यां चैवार्थः कमौदयश्च.
२४ 0 ४0१8 9€ "कस्मिन्निति, अथवावि-
शोबेणोंसपद्यत उत्पन्नानां च नियमः.
३२३, ६ 0 1 शब्ठास्ते नि.
४ (> ङेवंदत्तेति; 8 & 8 ०1. पदयुरपट्यं
देवतेति,
@# 2 00. ऽपि,
८ © निष्क.
९८ © श््रधान्ये; 7? रधानं
२० © 7 श्रधान्ये.
२३ 0 प्राप्ोतीति.
२३ ०७ 7 पततीति. भवाति
३२४, ३ © & 9 ०१. ०४९ ~
९० 0 -नुस्पत्तिः.
२९ © £ वाधिकर.
६२९, ९ 0 00. [ एतत्,
६ © 8 प्रधानस्य कः; 0 0. प्रधान...
७ 0 इणेन प.
९९ 7) ए? ट? पतनदिर.
१२ ५०पि छि्येत.
१९ ठ -काषहिद्योतते विद्युत्.
२२ © ह्यैकपु^.
३२६, ९ स्वावन्ष्यं; ए 8? कठैस्वै.
३ ७ नन श्व परिवतेनं क; 7 00. च; .
ए? ग्नं व परिवतंनं च क.
४ 0 ०्यां च धारणक्रियां क.
४ 2 £ ए 011. कवेदानीं परवन्वा-
ए° प०
३२६, २० ¢ कांस.
२० (@ ०१४. इति.
२९ © £ 3 & गहण्शाङ ४ धमाद.
२९ 0 7 £ ए अभमाौनिः.
३२७. ९ इति ; 0 इह.
२0 0 8£ & ण४1811 ? इति इह ब एष.
४ £ ठ अधर्माः भधमानि.
९ 0€& 8 & 8११९ 1" 7 इह एटणिधस् च.
९९ 1 ? £ ठ ण, सिद्धम्.
२४ 7 ८ 28 चोरेर
२९ 0 ०0. & 1 0 शाट इस्डन्यस्यायत
३२८, ९ ए ्ोरि०.
२९८४ चोराः.
९३ 0 वि तहि. |
९४ £ ०0. कतुरीः..-"नथेकम्.
९९ £ 011. कैरी. वचनात्.
२२ 8 & 0 १।८८ १४०० ? शरु
३२९, ७ 0 श्युपयोग इस्युध्यते.
३६० ९ 0 तास्साग्यः.
९ © नास्यंतास्यतायाः.
९२ © & ०"्ा०8।15 7 अथाभिर्षः.
९३ © 1 00. सं.
१९ £ & 0112181 8 संनद्यति.
२९५ © ०४. प्रथंना.
३६९, ९६ © 7 तमपम्रहणे.
१९ 0 संज्ञा पुनः साधः; & ०४. वनः 1
1. 16.
२२ ए भपा्यमावायः.
२३ ¢ ८ £ प्रामादंगच्छततीति; 7? # 8 8
ण. नगरावागच्छतीति.
३३२, ९ ¢ कस्लमाधाः.
इ ७ 011. न.
७ ५ कंस्य पुनस्ता,
९२ © भवीति.
२४ © ०विशद्,
३६१, ३ © ००. कारकर्वै.
१४ 001. च्व.
२० ० 1 चामांतर ग.
१३४, ४ ५ 7 ०. नैतदस्ति
७ 0 पृच्छतीति.
१९ 0 1 .मपथिनोतिः
९२ © एते पु.
९७ £ कथिते । कथिते लादयः। ; 8 गण.
व्शषश्यः.
२९ © अकारकमक ० 2 (कथिताम्.
२९०७शद्ाया मः.
१० प
३३९ २ © (विधिरेव. ।
९ ?3 लादयो भः; © सहव्वरेण.
१३ © नयति -.नीयतां प्रामामेति.
९९ & & ण्णर् 2 कयः । बुग्धा गोः
पय इवि.
९७ 1) ‰ £ 5 010. कन्तव्यम्.
२० ८ ०1. बरष्टव्यामिति निश्चयः.
२३ © सिद्धं चाच्य 1) सिद्धत्वाप्यः.
३३६. ९ ए 8४18 : केचिदध्वगत्यन्ता इति १.
ठन्ति
- ४ उ देदाश्चाकर्मेणां २ कम 7 वेदाश्च.
कर्मणां । कर्मे; 8 ए देदाश्चाकमकाणा
कमर,
७ 0 कल्मेति.
७ £?2न वै तस्मिः. [रिति.
९० ४१8१४; क्थिनल्तु पाठो धासोर्निश्त्ति-
१९ 73 010. सवो.
१४ © यस्मात्तस्य.
९१९ @ 0011 ६1९8 खन्न ^.
२३ & & ०18०९11 ए 2 ऋ्रंदवति.
२४ & & ०1810811क ए शन्डाययते.
३३७ ९.1 "दीनामुप.
९९; ९९ 0 ? आदिः.
१९ 7 ठ आदयति.
२२ ? £ ठ वाहयति.
२४ 23 00.; & 1 गाश.
२६ ” £ 3 भक्षयति बर.
३३८, ९ ५ 7 ए भकर्मेभ्र ; 3 कालकमेणामुः.
२ © अकर्म.
४ 7 £ ४ ०1४९६४०० (कमकाणाम.
६ ८8 केचिश्पि काः; 1) ए केचिरकाः.
८ © सकमंका भक.
९ & यत्कम कचि भवि.
९ £ क्षयिङवति कृविन्न भवति.
९२ 0 श्वृशोरूपसं.
१८ 7 ०1. प्रोतं तन्लम्.
९९ 7 £ ? वितानमिवि ; वितानं दति.
2० © ०10. वरते,
३३९, ३ 0 ०1. तस्य. ।
५ £ & ०78४115 ? ववति चेः.
< © £ कृष्टा व्यवस्यति.
९ 8 € प्रेषितोपि न.
९ £ £ भवति.
९४ © 7 01. स्वतन्नस्वात् ; #.स्वतंजस्वा-
स्सिद्धमेतव्,
| पाठभेदः ||
९९
ए० पण `
३४०, दे £ & ण्ाप्भा ए भृहिति.
९ 0 7 ८ कृन्मेजंतश्चास्ति.
९१ 7 समासेष्ययीः.
९२ # समास एतः ; £ समासेष्वेत.
९४ 1 48०]1107०{{8 : प्रियं प्रोधमिति क्षाचे-
ल्पाठः; [1817808८ & 0 €080108 7018
16४0 प्रथम्,
९९ © च ततो न रजति ; ए शत्रजति; £
ततोनुत्रजंति ; ? च तावदनुत्रजेति,
९६ © वाति.
९७ 2 88 ? तत्रति.
२२०७बा ना वाधिष्यतेलति;8प्तांमा
२४ © -सन्ञायामेत अव.
३४९, ४ 2828 एवं षकृत्वा
६ © & ० 1हा"9ाई 0 "वनं नेति ; © 1"
1818. ने नेति वा पाठः; 7 “नो मेति.
९९ 1) € & णपा 8 0विनागो निषाव-
सनाथः.
२० # & उपसगांत्त हालि,
२२ 7) 00. ;.7 1177812. ; £ “ज्दस्व चोप.
३४२, २ 7 £ ६ “ब्दस्योपसंस्यानं.
५ ए ४8 पुनश्चनसौ 171 187, ; £ 1081684
1४ २; .& 01,
६ © गनिष्क्रातो; 10 "9. रु पाडा ;
“निकसो.
# 0] संज्ञा.
९० 7 & ग". प्रयोजनं ; 8 ए ०). घञ; £
188 1४ ०0्द्विापभाङ; ह क गाह्णशाङ
7? 'नस्वानि, [8]],
९११९ ए ए ०00. घञ्.. भूत् ; £ 1981६ ग
१३ © नायकाः तस्मा
९८ ¢ ४४३ २ ६९ कोषो.
१८ © 7 य उषतो.
९९ @ 10 एधा. योसि वा पाठः.
२९ ए सूर्यः ण" आचायः; ७ 7 & ग.
0811 ४ ०0. प्र णो ४०९ बर्हा
३४३, < £ & ०पहाण्भाङ © बुनंय ; 7 णण
दुनैतमिति.
१९ 0 "त्ाहितिपरं-
१६ ७ द्ौवद्त्र; 7 & & ण्टाण्भार
'्वीवदिस्यभ्रापिः
९८; १९ ५ र न प्राति ; € & ०पशण्भा फ़
2 शज्रापि प्रभाः.
२२ £ ए &‡ पधा १८०४ ए रकिः प्रतिनिः.
९६०
५० प
३४४, ९ £ 8 “व्यते प्राः.
५९ © सतीर्येव,
९ 0 भविद्यमान भाद्रे.
९३ (~ अङि. |
१८ © °क्षाहेव हि कि” ; ८ शक्षादेव स्क? ;
ए णह्ण्शार् 9, एप देव स ऽप्प्लाः
0४,
२९ 4 ९०१९५ 10 2 तन्न च खवर &
ख्टयंतस्य प्र.
३४९, ३ ए & ४९ 21679४0४ ? नित्या.
४ 0 7 तच रव्य,
९ 0 धातोः वक्तव्याः.
९२ ए शस्येतिपरप्रति.
१६ 8 00. च; 1" £ 8६९१ ०६
९७ © 1) ०, ऽपि,
२२ © यत्रा.
३९६, २ © ? स्थाय व्वनमेतद.
२8९ इषं.
३ 0 तश्र गतेः.
४ & ४१०९ दुष्करटंकराणि वीरणानि ; 1० 2
{118 18 8घ्प्टौः 0पप,
% (© 00. गतेः.
९९ © 01. 016 स्यात्.
२९ ? शाकल्यसंहि
28 1) प्रादेोषु प्रादे ; 5 010. ००९ प्रा-
हेश्चं ; 1" & ००९ प्रादेदौ इपर. ०५,
३४७, ९ © °य॒स्यमानं विमानं ; ? ` युञ्यमानं
प्रति, ०४ प्रति 8धाण्टाः ०४.
९ प्रादेशं प्रादेशं ; 0 प्रादे २; 8? 0.
6७06 प्रादे ; 10 ‰ 016 ऽध्एलौः 0
३ © °युङ्यनानं निराममिति;8 निश्र्मि प्रति
९० 7 ०11. सुर
९१९ 0 कि च वत्त.
९४ © कुता.
२३ 7 आद्मयांकाभिविध्योः\भाङ्मयोदानि-
विभ्योरिः, ०४५ जआ...ध्योः ऽध्षण्णाः
०४६.
२४ 7 7 € भाङ्मयोः; © “व्वनमिस्येव,
३४८, ६ ? € विद्योतते विद्युत् इक्षं परि वद्योत-
तेविद्युत् गृक्षमनु विद्योतते वि द्युत्.
११ सिखा ; ० 1) 2 सिद्धे तु.
९३ 7) £ ठ & 2११५१ "० ? तज्रापि चश्च.
२२ 7००१. गोमृखस्यापि स्यात्; © 10 "४8.
मधुनोपि स्यात् वा पाठः.
३४९, 9 0 011, किमुक्तम्.
॥ पाटभेदः ॥
प्रण पण
३४९, ८ 7? ठ» “वनात्तु सि.
१९ & 07). परस्मे ; ¢ 01610811 "पठ्क्न्वने.
१७ ७ 7 01. तु; £ & गण्श 2
^पठ्वचनं ज्ञापकं पुरुषसंत्तावा^.
१९८ © 7 ण. परस्मेपदेष्विति.
३९०, २ ०७ 1 ०11. समसं ख्यार्थम् ; 1 2 8धण्लुप
०४४.
६ ७ ०. वैषम्यात्,
२० 9 1 & -किटिकम्, "किटिकानि.
२९ © भमाणे आस्म; & मणेपि चात्म.
२३ 0 रान्यासृग्भ्यासुमििरुप ०) हान्वास-
गभ्यामच्निरूषः.
३५९, २३ © 7 010. ऽपि
३५२ २ © भवाति.
३ 23 00. ॥67€ & ए५ु०्न प्रथम,
१६ & 01.
२२ £ € पचसि च प, -
२४ 0 123 २ ४6 "भावस्य.
२९ £ पचसि च पर,
३५३, ९ © (^तरज्ापि.
२५7 यत्तदुक्तै.
२ © ०1. तच.
२०७8 तज्राप्येवं.
३ 7? प्वसि च प.
३ 9 8 पव्चति चेति.
३०72 पश्चामि चष.
९ © “पुथकस्वेष्वपि.
९ ए £ ०. भवतीति.
१० (9 & ०1&1811 ‰ सोप्य्बोः.
९३६ © 7 गृह्यते; £ गद्यते.
९१३-१९ 8 0". भवेत ..-गृह्यते.
९९ © 1) अन्यच.
१९२२ © 1 & ०११९१ 1.४ °ततमावापि सु न.
२४ © कनिस्यमेवमअ्.
२८ © एवोच्यते, 1 08. इस्येवो ˆ पादः ;
£ इत्येतावुच्येते ; € इस्येतावदेवोच्यते ;
? इस्येवोच्येते.
३०६, ९ 9 4 भविष्यतः. `
2 © 8 ००. चच.
४ 0 1) ठ मत्रूपः प्वामि.
७ © 7 ०1. तज; 10 2 प्ल ०ण.
१२ 1 ए ननूनभ्यो.
९६ & 3 ऽनुबभ्यते.
२० [> 010.
२९ © शुतविलेवितमप्वमाद्ध ; £ हुतमध्यावे
|| पाठभेदः ॥
ए प्र
९६
१० प०
३५४, २९ 1६91१8६४ 10601018 ४7€ 1686108 बुति ३६०, ९ 8 उपादानविकलः 02016 शङ्गला ;
विक्षेषः ; » 1088 {118 01810811.
३९९, ३ © ०1. ४४८ ११४६ ये.
६ ह विच्चेष्य.
९३ (७ 001. यो.
९९ © करिष्यति,
९१६ 0 संयोगाऽसं° ; 7 ^ “संयो गास.
९७ + 1 ¢ & ए "्वोषाणां च संयोगे.
९८ & पिष्पली; ए पिप्पकः; © चित्तमिति.
१९ © पूवापर.
२३ ‰ ए €1€ & ४५1० "व्यवेत,
३९६, ९ 7 पूवेपरा.
‰ ? दकवर्ण? ; 10 £ के शधाप०)ः ०४५; £ £
शप्रध्वंसितत्वा
९ © सन्वन्नीतिः; 91१8४19 7160६008 0018
76810.
१९ 7) & 3 & ४११९५ 1" 1 ऽभाके कावसा?.
१६ 1 01.
२२ © 7 8 भावस्तस्याप्य.
२३ © लोपीऽवसाः ; 1 एष्ट. लोपस्वतोः
वापा.
३९७, ९. © ०. विरामग्रहणं .
३ ५ 01. इति वसजनीय.
१६ ए & पपूैको विराम इति.
९७ & & 01818911 © तानि हासिमिन्जा-
ह्मणकुले ; १६१६ लाध्०8 ५१९
7९8१०४६ धनानि ण त्तानि.
९९ ए & 011०8 8 0. न.
२९ £ & ००81 2 ऽरामेण भवितुं दीः
लमस्येति भा.
२९ ए तस्वरो वा वर्णविसानं.
२६ © विरामे परो ; ०". वक्तव्यम्.
३५८, ९ 8 071. वा.
४ © £ °विहितः.
६ 1) परसंनिर; ६९ परं संनि.
६ ¢^ अपरश्चाह.
३५९, ६ © ०, प्ररीपवत् ; 1" ४ १११६१.
१२ © समासश्चासंगू.
१२ ०७ ०7. खल्वपि, च, भवन्ति.
१४ 0०). च.
१४ (¬ यावदूचाक्र°,
| १९ © समास एकस्त्वसं.
| ९९ ठ & ६०10४५५५ उस्पन्ने हि प्र .
| २९ 8 नगरभ्िर.
२२ © भथ समर्थः.
पि 48०1णा09 798 ४6 इष्णा€. ~
९ 8 0०1, किरिकाणः; गिरिः.
२ & 1०5८९४१ ° तिष्ठ...मसलेन, कि क-
रिष्यसि शंकुलया खंडो धावति उपकेनः
1) (1€ 3206, 0४ विष्णुमिज्र 7 धावति.
३ £ गोहतं वषभहितं ; 1 ०८ 881९, ६०१
गोहितं अन्व हितं.
४ 1) 23070. दस्युभयम्; 7 2 षधौर०.
५ 0 देवदत्त यत्त; 7 2 & दत्ताद्यक्तवत्तस्य.
१९ 0 सत्यमेतत्.
२९ © ०11. नैष दोषः.
२९ © भवति वे प्र^.
२२ £ ०1. ते; 7 तन्न तेन वृ.
२७ © गम्यते,
२७ 0 गुरुः स तस्य ; 0& ०, यः.
३६९, ४ 0 010. वक्तु.
७ 7 £ अगुस्पुज्राः; 1" £ 9 कुल ६१०९१.
९708 8 ऽगुरूपुज्ाः; 1 2.कृुल ४११९१.
९४ भ 010. हेवदत्तस्य गुरुकरलम्,
९८ & 8 अयमस्त्यसर; 1" ¢ यम 8११९५.
२० 0 "लञ्समासस्य चासमः...“स्वं च वक्त.
२९ 1 & ०0. अलवणभोजी ; 1० २ ४११९५;
8 अग्राद्धभोजी ब्राह्मनः अल्वन-
भोजी न्नाह्मणः.
२७ © समर्थव्युश्यते.
३६२, २९ 0 ०. राजपरुष भानीयते.
४ 8 स्वर इस्यकार्थभिषकृता विहेषाः.
९० (¬ भवान् .
९१४ 0 इति एकार्थीभावकृता वि्ेषाः अ-
ऽनाहेरात् ; ४7८ इक्षा€ 11 ‰, प
8070८ ०४८; 7 इति ए करर्थानिावकरृता
विरोषाः.
२९ 7 वर्षांद्ुचर.
२२ © £ ? स्तिष्ठति.
२६ © “दत्तश्चेति.
३६३, ८ £ 3 अथौनादेशनात्.
९० 0 निकृत्त.
९६ 7. £ ए “च्छब्देनाथंनिर्देशः.
९७ (} केनचिर्कृतस्य केन कृत ; ? कनचि-
स्करृतः तस्य केनेचिस्करृत.
१७ 7 ? (वप्या स्यात; 5 वस्था च स्यात्,
२९ £ विरदोषणं.
२२ © विरेषेवतिः.
२९ © बहवोपि श; £ 5 बहवोपि हि श.
२९ © जर्भरी तपफं>; £ उफरीतु.
९३१ || पटभेदः
० पधं9 ० पण
३६३, २८ 7 & श्तं गच्छति. ४६७, ७ ( गण. सह
३६४, ९ 7 ०0. च.
२ © वावष्यनमनथकं स्वभावसिङस्वाल् ।
वावष्वनमः ; 7 ०1. वावन... (सिं.
इस्वात् ; £ £ “वनं चानथेर.
९ © £ (जस्येति,
९ © सस्वार्थयोहिवैवनमिति हिव,
१९ © वर्तमानः.
६६ 78828 नशुहिः
९७ & तन्वसितकण्डु"; 1 £ तश्वासेवहाकि
तकण्डु'
९७ 0 7 (विरोध.
९७ 0 तस्माज हाः; 2 तस्मात्न हा.
९८ 0 010. तद्यथा.
२९ © प्रसालथितुं गंस्यते ; न 70 फट
२४ 7 & 071, (76 078४ व्रा ; 1" 8 8०१९५.
२९ 7 ४ £ 7 राञजपुरुषमानयेस्युक्ते,
२७ 010 0081. ष्यवलिन्नं पाठं
२७ 1 £ 2 यदि स्वायं जहाति
३६९, २ ¢ मानयोः स्वाः
५ © सारथौ
९६१० 0 ®घ्यपेक्षाया,
१४ 0 भविष्यति.
१९ 0 गतमियता.
९.८ ( चेह शदः क्रियावाची प्र.
२२ © संगतार्थः समर्थः ससृष्टा्थंः समथः
.. समर्थं इति ; 1" "97. सवं एव षु
दिगा
२४ 7 एए संगतं धृतं तेलेनेस्यच्यते ; ( 1"
"091. संमत संत तेलेनेति पागंतरं
२९ 0 भमरुतामिति; 711 8, इति पाटः
२७ 1 कालेन ; 0118] कीले, न
४११९१ ; £ कीलेन वा; ? "वसा कीलकेन.
३६६, ९ 0 भहानाह। वपि
२ 0 ०0. तद्यथा.
३ 0 “जातीयेषु.
४ £ 5 ००. संयोग इस्यर्थः.
६ 3 तज्र ख नाना.
८ 0 01. तेषा.
< © हरतेष्यर.
९ ए पव्योदनं तव भविष्यति मम भविष्याति
९७ ¢ संवरष्यते.
९८ > & ६१०१९५१ 1" प्रचये च सर.
२४ © आद्युतरोयं भं; 8 आश्चुसरं षर.
२७ © पिदढध्यः प
३६७, ७ 1) 7? & ए कथं तहिं
< © क्रि कास्णं ४९०८ प्रधान०, ०). त्वा
९० ( साव्ययसकारकः
१९ 0 00. सकारकः,
९३ ज सक्रिवाविपतेषणं च । सक्रियाविद्येषर्णं
९७ 7 £ £ हि ब्रूहि देवदत्त, `
२० © 1) भूव्रनिति निघाताश्य
२९ 0०71. ओदनं प्व; 7 पचचौद्नं तव
भविष्यति पश्चौदनं मम भविष्यति
२२ 1 योगेन प्रति?
२४ 7) £ & 23 यथान्थास एव ; ए यङाद्य-
न्यास एव
३६८, ४ 0 (श्यानसमयः; 2 -ख्यानसमर्थ; & म
10 शाट
६ ५8 समानाधिकरण ॥.
७ 7 £ 2 शाखाया.
< 1 7? £ ०. शा्कीना.. दहाति.
१९ 0 £ यदा घुण्घुपेति वन्ते तदा हिसमा०;
8 (16 88106, ७०४ ११९१५ न ए्ण€ तदाः;
7 यावता ुष्छुपेति वतते तदा... 8१ न
४०१९१ ०८८ तक्म; 23 या यदावता घु.
ष्पेति वतते तदा...; ए यावता सुष्डुषे
वतंते हिस.
९३ ? तरि ! इयोः समासयोः प्रसंगो हिसमा-
सप्रसंग इति । विप्रकारस्य.
१४ 0 थेवं भविष्याति ।.
१५ (0 1 शसो गोः क्षीर
९६ (तदा च कस्मा,
१६ (0 1 € नवति, असामथ्यात कथमा
सामथ्येम् सापेक्षमसमर्थं भवतीति
२० (` राज्न्यपिष्यय
२९ 0 1) 00. कि कार.. भवतीति.
३६९, ९ ^ -वग्वन..-भनंतय विर.
६ 0 “करणः क्रियते ।.
९१० 0 समानार्थाः.
९६ (¬ एवमपि विभ.
२४ © समर्थपव,
३७० द © भसामथ्यौत्.
५ € न भवाति वश सामभ्य भेदाभावात्,
६ (^ ००1. तदा.
६ © भमस्तीयता,.
९ © ऽन्यञ्च पुर.
१० © ०0. सरि.
९९ ^ भाविष्यति. ~
१२ 0 कडुस्वं.
।| पारभेदः ॥
प° पंण
३७०, ९६ 0 खद्यलः कोष्ठ इति.
९८ 0 “'्ठाः प्रयुञ्यंते
२९ © भतं शक्यो
२९ © ०. भूद्यो भरणीयो.; £ ००. भूस्यो
“भरणीय ; 7 ० भृत्यं इति
२३ © “मातेति दर
३७९, ह © कतंष्यं नवति समानाः
^ष्क्रियते अज
८५8 वंच कूत्वा समानाधिकरणेषुप-
संस्यानमसमर्थस्वात् समानाधेकरणेषु;
7 एवमसमर्थस्वात् समानाधिकरणेषूपसं-
ख्यानं । एवं च कूस्वा समाः
१९४ [) 01
१८ & ०7081] बृत्तिः सुशं; 7 4६गु-
01918 11611108 {1018 २८811
१९८ © वात्तिककारवयन^.
३७२, ९ 7 8 ए समासो दथोश्चिः.
२ £ समासो इयोश्चे>.
७ 01) & णणह्ाण्भा़ 9 किच ए८ण९
नावदयं.
११0० नच्वेवं भविः; 09 ८8४5 न ेतदेवं
भविः
१९ © करिष्यते
९३ © ए शद्वातारस्वहिं न सिः
९४ 1 खनासातस्य प्र
१९९ £. <^भ्ृषव् 1
१६ 7 & 1, 10 "051 परेण परणं
© ज, 006 परेण
१८ ए एव तंहि
१९ 0 सतेनाजि 1 पष्ठ. सुनी पाठा
२२ 0 अविरोषेण
२४ ‰ 07
३७३, ९ 8 पंचगवभिय॑ः प॑चनावप्रिय
२ ४ € 010. सौरवेतरदयम्यम् ; 10 8 8धप्ल
0४
७ © अन्तोदात्त स्वं . ..स्वर इति ४७1९९.
१० 0 निमित्तस्व
१४ 0071. तु; ए ज्ताषकं निमित्तस्वरानि
मितिः
९७ ¢ नाम संप; £ नाम तजर प.
१९ 0 9 पारो स्येतिः.
२० © 001. ऽज,
२९ © एतेनाजञेर; 11 णर. दछनताजिन
पाठार,
२४ © यस्य यस्म बु; 8 तस्य बहुः.
९२२
१० पण
३७३, २४ ¢ ए 'षस्व लक्षण.
३७४ ९ 0 8 भवति.
१९ 1 य्दा तहिं...तदा; पिण्हणुौणिष
€ ६018 "18 19010.
९३ © “ख्येयाभि? ; 7 ख्येयवार्थाभिर, एण
यवां शाध्टा्य् ४० या; £ ण्ण
-ख्ययवाभि> ४०१ थौ ०११९१ ; 8 “श्यै
याथािः; 8 -ख्येबवाथभि०, ‰१ थं
8 पल 0,
९३ (~ संख्या.
९४ 11480}1012418 कवयमधिकषष्टवम; ५
"पष्टिः; 7 2 4 || क .९ “बिव.
१६ 0 यत्तु
३७९, < 2 ००1. मगधानां राजन्.
१२ @ 8 01. वृक्तष्यम्; & ४१०5 मव्राणां
राजन्.
१७ 7) ए & ०01. अन्वेष स्वामिन;४११९१ 1" ©.
३७६, ९ & 0111,
ह £ 0).
५ ए ००, प्रति श्वा दारहिताहिंवः.
< & 071,
९ ? £ अष्ययीभावस्य नेति ; 7 अनन्य-
यीभावस्य नेति.
९७ 0 छब॑तेकांतस्वास् तस्मा? ; 0 72. तता
स्यात् पाशा ; 7 8 -कातः स्याद्
२०;२९ 0 चनम
३७७ ३ € प्राग्वनं समाससंत्तार.
४ 0 ? स्यादिति
९(त्तामा
७ © क्रियमणेपिप्रा
६० & 8008 व्यक्तं पटुः ष्यक्तप्दु
९ © तेनेव समदायः काये भवाति; 7) कामं
भवतीति ; ? भवतीति ; & भवती
९३ 01) £? एतदपि नास्ति प्रयो अनम् ४११९
व्पाणीयम् ; 1 2 श्पलुर ०,
९९ 0 ठ यदीदं नास्ति
२० © ५११8 अनुवृत्तिः क्रियेत, 7 अनुवत्ति
त्रियते, ०2 सगव
३७८, ह © ०. तद्यथा
३ 0 चायमस्ति.
४ (¬ समासिः।,
४ 0 दंडघंता |.
< © प्रयोजनं योगविभागार्थं च यो्गांगं
यथा च वि; 18 योगविभागा्ं च
गह्ाणभाङ्
९३४
¶० पर
३०८, ९ ¢ विभागो भविष्यति ।.
९० ¢ सह समस्यते.
९४ 0 “त्वं कर्ेष्यम् ; 12 £ शत्वं वक्तम्यम्.
६७९, ९ 0 कचिल्परपदा्यं".
८ © 7 यथेश्यष्ययं.
१० £ वीप्सावाचि.
९९ ¢ वीप्तावाची.
९९ 0 तस्येदं भहणं क.
९७ ?8 8 अक्षादबस्दतीयांताः परिणा पूव -
क्स्य यथा म तत् भययाययोतने ; 1)
06 87०, ४५ भलयाद्योर.
२९088६८
३८०, ९४६०४.
२ ८ भक्षेणेरं बलं शकटेन ( 07:8१७।१
शकटेन म ) अथा ; 5 अस्तणेवं तया.
४९ ( ५११०५ ॥ पमा; 0 ए ए णण
& भक्षारयस्दतीवाला परिणा पूर्वा्छस्व
ओोधेकष्नांतयोः अततत,
5६8 पेवम्बोति। ५)
कचना । तजनी "1 पन्ति
१९ 0 दजम्बलेति ; 0 & 1;
९८ ४ अलुयङ्खः शारागसी 54७८४ ००५.
ह
४७५१ दाराणस्येहे ऽ4१७८४ ९.१. १८.२७
1) *5 कारा्यसौ . >: \. हस्तिष्यवर.
२२ ५ अस्थ वा
दर ए ९; एरकराथे्कार -
द ९२1) बरस्मिहर. ८६ 0. 3,
सर्वम सरस्ते रताद
~ -- -~ - ५0) उज्थिचेलि.
काले सनिः.
धमांनान्यकये.
गम्ता ; # प्रथमांता-
"सनन्यन्नै; 28
। ५ ॥ १44८१;
॥ पाठभेदः ॥
ए पं
३८२, ९ 7 ग.
१९ 000. च.
९२ 7 ए £ “पदाय॑प्रानता न क; 8 "दायो
न प्रक.
९४ 0 भेसद्र्थमु.
९६ 08६०0. शु.
२० 0 संख्यासमा? 7 सख्या 1० णश; ए
ण. संख्यायाः.
२९ 0 "नदीतीरे.
२६ 7 ए £ ०११ ९ प्रयोजनम्, दहदिगोस्त-
स्पुरुषत्वे समासात: प्रयो जयाति ; ए ९१०8
हिगोस्तस्पुरुषो संजां समासान्ताः पयोज-
यन्ति.
२४ 0 8 ०. इदाराजम्.
३९, २ 0 ग्ण.
५ 0 हीन"
॥ ६ 0 गनयेक्यं.
१९३ 0 भ्रामं गतो प्रामगत दाति, १००४
अरण्यगत-
॥ १९९ € घ वाचना.
॥ १६ 0 वक्ष्यामीति.
१८ 0 स्वरस्वेनापि भवितव्यम्.
१९ 0 ०. हि.
९९ 0 .
२९ 0 ४ & समानार्थ.
३८४. ३ ¢ तस्पुरुषत्वे. ,
५९ 0 व्वपदृक्तेः.
६५०४६६8 अन्ययाकतीयः.
१० ४8 £ 07. जाल्मः.
९९ (1) इदानीमन्यया ; 0 77 णभ. इदा-
जीभतोन्वथा पाठो वा.
१२ 1 ६ & नतित्रसवान् 1.
९१ & ०७. क्तान्तेन चा ; 0 ्ततिनाक्ता.
९९ ]) ६ £ ? ०7. तदुच्यते 9०१ इति.
३८९. ९ 8 शंङ्लया खै" ; ¢ । किरिणा का~
1 ५ 7 ००. धान्येन धनवान्.
७ (णा. इह.
९९ (: नायंस्तद्रहणेन.
९२ © असामथ्वांत्तत्र.
९६ 0 सस्छृतप्रहणेन.
१८ (५ कतेष्यश्े.
९८ 0 दतीयार्थस्तक्कृता; 0 ठतीवा तदथ
कृतार्थेन गुणकचनेनोति । एवं तरि.
९९ 0 गनिरेशः विज्ञायते ।.
२९ © अतोयैन-
॥ पाठभेदः |
ए० पण
३८९, २२ 7 ४ ०1". वसनार्थः; 7 ए £ ४९१९ हिर-
ण्यर्थः.
३८६; ९ 8 ०.
६ 8 ०1. अहिहतः नखनिर्भि्नः.
१९ ( इति च वन्त
९८ ९ 0771.
२९ 7 £ क्रियासमर्थस्वात; 1) क्रियया साम-
्थव्वात्.
३८७, ७ © पूवप.
८ © ण्वसिक्तः भोदनः इध्युपर.
९८ 2 °संप्रस्ययात् साम.
३८८, ९ © तद्राचकानां.
२ © श्ेरमिस्युक्तेकण.
३ € क कदाब्दस्य.
% (0 “टि २ तद्रा *
७ ¢ (मात्रेति चे.
< © मात्रेण समासप्रसंगो भवति समासः
प्रापेति ; 7 ए £ 7 'माजेण सह प्रसंगो
भवति समासः प्रापोति.
९९१ ¢ तादर्थ्येन, ०००४८ २४ तदर्थेन.
९३ © योपि म.
९९ ¢ क्रियते.
९७ (श्वसू.
२९ © ऽथंशबष्देम,
२३ 9 01.
२९ £ ए 0". उच्यत ; @ 11 781.
२९ © 8 सवेर्ङिगता च व.
३८९, ९ 0 सर्वलिगता च व्र.
९ © कारणम् यावता अथदाब्डो.
£ (0 1 01). क्लव्यम्.
१९ (0 °ख्यानमिति कतश्यम् न कः; ठ °ख्य-
नमिति । न षक्तव्यम्.
९२ 0 1 तज्रापि सं; 5 तस्यामिसं.
१३ 1 £ स्वरे भेदो.
१९ ¢ (समासे सस्यपि अन्तो.
२२०7 नैवहि;ए8न चैवं.
२९ ? £ भवति चैव क° ; ए भवाति च क.
३९०, १९0 न येवं कच्चिदा; 2 न हि कश्िवा.
३ ५ चतुर्थी हबन्तेन ४५1५९; 7 2 & ०४.
चतुर्थी ।. |
ह © व्थाथेः.
३ © "्पद्षशस्दस्यार्थ.
५ 0 (घ्यत इति न ववुः.
६ © "कानां स्वसमासे,
९ ( ०01. शहद.
५९५
१० पं°
३९०, ९ 7 £ & ०. रथक्तरु; 5 रथाय शरु
रथदार.
९702828 £ वावचनंवा चवि.
९३ £ विवधः; 7 वीधः.
९३ © ००. न चेदेवम्.
९९ 0 इह तावदयं
२९ ¢ “च्यते पमी भयेनेति.
२३ © “गुष्नीतभीषिनीभिरिति.
३९१, ५ £ ०1). ध्वा. ..अह्णं,
७ © (कुल गत्वा.
१० & 8 & फ भला९(1०0 7 व्योगे य-
स्प्रव्ययेनेति व.
९२ 1) ८ £ 01. षव.
९७ 0 तव एतदिति.
१९ £ कपे उक्तम्
३९२, २ 0 परमपा०; £ परमाप ; ६9198८9 ए76-
{©18 € 1680708 परमाः पाः.
९ 0 तस्पुरुषो वा इति.
११ © (^कायेखे तनः
९३ © वक्तर््यं.
३९३, ३ 48६0]10108108 88.१8 {18६ 8070€ 76४१
पञ्चकुमारिः (दशकुमारिः).
५ © ०0. भविष्यति.
७ ©.मूलेषु ; 1० "8". निक्षिपे पूलेषु इति
पाठाः ; 0 ०). पृलेषु. |
९728 ण. जिपुरी ; © ४5 तिपुरी.
१० ¢ श््रापणे वतेसे 1 .
१२ 1१६8०11018448& एएला४०३ #6 1९80198
० |
९४ © °्नीयतामिच्छक्ते भावा.
१९ ए गौरन्बं*. `
२२ 7 ग. डिशुः...के.
२३ © 0). च.
२३ © तदेवमितरे
३९४, २ 1 07. बेमातुरः.
७ € 071. दृश्ारलिः ; 2 10 1089६.
९ 0 0)", प्रस्ययोः ..-वचनात्,
९० © प्रस्ययोत्तरपदयोर्हिंगुसंता चेर.
१३ (© 7 0. किचित्,
१६ 0 ^तद्धवति,
१८ © ्चोक्तमर्थैम चे.
२० © शारार्थं घटामहे दारां भिक्ष्यामहे ध-
नाः ; 7 कातार्थं हाराथं भिक्षामहे धनाः.
२९ 0 वतीस्ुभबते तद्धि ५ & ए .नंवतीति
सदि *
५९४
१० पण
३७८, ९ © “विभागो भविष्यति ।.
९० 0 सह समस्यते.
१४ © “श्वं कर्तव्यम् ; 7 £ स्वं वक्तष्यम्.
३७९, ९ © कश्िस्परपशाथं .
८ ¢ 7 यथेव्यव्यय.
९० £ ए वीप्सावाज्ि.
१९ 0 वीचप्सावाच्ी.
१९९ 0 तस्येदं प्रहणं क.
१९७ € ए अक्षाबस्तती याताः परिणा पूवो
त्तस्य यथा न क्व अयथाद्योतने; 7)
४१€ 8816, ७५ अतथाद्योर.
२९ ०९६२
३८०; ९ £ ©.
२ 2 अेणेदं कृशं शकटेन ( 01181181
हाकरटेन भ ) यथा; 2 अक्षेणेद् तथा.
४९ 0 8११७६ 7 पाह; 0 2 23 णा.;
£ भक्षादयस्ढतीयांसा परिणा पूर्वोक्तस्य
यथा नं सत् किसवष्यवहारे वसिहालाक-
योद्रैकवष्वनांसयोः.
® ]) ¢ £ पं्भ्योति । भअपपरिबहिरचवः
क्वभ्या । पन्चमी.
१४ 0 पंचम्यतेति ; 0 £ 8 पं्वम्येति,
९८ 7 अनुगङ्खुः वाराणसी श्रप्लौः ०५.
१९ 7 वाणस्यप्यायता हास्तिनपरमप्याय-
लम्; 1" 2 कारणस्यत्यायता 91४6769
४० हास्तिनपुरमप्यायतं.
२० © भविष्यति तकास्तिनपुरणेति न णु
न्वा? 1) न हास्तिनपुरेणेति पनवां?
न शास्तिनपरेणेति न वाराणस्येति,
४०४ वरिणस्येति शप्पलौः ०प४ एलण्क
ए 83 वाराणसी, ४४८,९१ ६० हास्तिनप॒र.
२२ © यतस्य चाया.
३८९, २ © एवकारार्थश्चकारः.
२०५7 परमतिष्ठङ्ु; 1 & ४106 4 पञ
0१९7 म श्पल 0,
8 0 ०11. ; 7 विष्ेषेति.
४ 0 .विरेषष्विति.
४ © यस्मिन्; 85 कालेसति.
५ 7 £ 8०. ; £ प्रथमांतान्यदर्यिं.
६ 08 ००1. °नि प्रथमान्ता ; 2 प्रथमाता-
न्यपद्थिं ; 7) ? ००. समस्यन्ते; 7 8 8
४११ इति वन्तव्यम्,
७ £ 010. लूयमानयवम् ; 1४18 ४११९१ "ण &;
8 ¶ृनयवं.
९३ 0 भविष्यति.
| पाठभेदः ॥
ए० प°
३८२, ९ 1 ०),
९९ (~ 00. च.
९२ 7 8 £ ०पठाथंप्रधानता न क; ए "पदाथा
न प्रक.
९४ © भेतवर्थमुर.
९६ © £ 011. सु.
२० 0 संख्यासमाः; 2 सख्या 1० एशहट.; 7
00. संख्यायाः.
२९ 7 “नदीतीरे.
२६ 7 ‰ £ 9११ ९ध्ल प्रयोजनम्, द्रिगोस्त-
स्पुरुषत्वे समास ताः प्रयो जयति ; 1 ००१४
दिगोस्तव्युरुषो संज्ञा समासान्ताः प्रयोज-
यन्ति.
२४ 7 8 ०00. इदाराजम्.
३८३, २ 7 ०71,
५९ © शहीनहि?.
६ ¢ 'नथक्यं.
१३ 0 भ्रामं गतो प्रामगत इति, 1४116४४
अरण्यगत.
१९ & ख वाचना..
९६ ¢ वक्ष्यामीति.
९८ 0 प्स्वरस्वेनापि भवितव्यम्.
९१९ (© ००. हि.
१९ 0 बहुत्रीहिनंवति.
२९ 7 £ £ समानार्थे.
३८४, ३ 0 तस्पुरुषस्वे, ,.
५ © ष्यपङृक्तेः.
६ ©78& 8 अन्यथाजातीयः.
१० 1) ¢ £ ०0. जाल्मः.
१९ © । इदानीमन्यथा ; © 1" "58. इदा-
नीमवोन्यथा पाठे वा
९२ 7 £ £ नत्तित्रतवन् ।.
९९ £ 0. क्तान्तेन चा ; 0 त्ततिनाक्ता.
९९ 7 £ 8 0. तूच्यते 8१ इवि.
३८९ ९ ए शंकुलया खं; ¢ 0 किरिणा काः.
«९ 1 00. धान्येन धनवान्.
७ (© 01). इह.
१९ 0 नाथंस्तद्रहणेन.
१२ © असाम्या त्त्र.
९३ © तस्कृतम्रहणेन.
१८ ¢ कतव्य.
९१८ 0 ठतीयार्थस्त्कूता?; © तीया तदथं
कृतार्थेन गुणथचनेनोति । एवं तर्हि.
१९ © (निदेशः विज्ञायते ।.
२९ © अवोन.
॥ पाठभेदः ॥
१० प०
३८९, २२ 1 # 010. वसनार्थः; 7 ए £ १६९९ हिर-
ण्यां.
३८६, ९ & ०1.
६ 8 01. अहिहतः नखनिर्भिन्नः.
१९ 0 इति च वक्त.
९८ | 4 77.
२९ £ £ क्रियासमर्थस्वाल; 1) क्रियया साम-
थंत्वात्.
३८९७, ७ ¢ प्पूवेपदं.
८ © - "वसिक्तः भोदनः इध्युपर.
९८ ए °संप्रत्ययात साम.
३८८, ९ © तद्वाचकाना.
२ © शवेरमिस्युक्तेक.
३ ¬ £ कदुकदाडद्स्य.
% (1 4वदरै : तदाः.
७ (¬ मात्रेति चेः.
< 0 भमात्रेण समासप्रसंगो भवतिं समासः
भ्रापोति ; 7 ? £ ? मात्रेण सह प्रसंगो
भवति समासः व्राभोति.
९९ (0 ताद््यैन, 80०९० 1४ तदर्थन.
९३ 0 योपिमः.
९९ 0 क्रियते.
१७ 0 ग्धश्ु.
२९ © ऽथंशबष्देम.
२३ 8 011.
२९ ” ए ०. उच्यत; ( 10 7.
२९ © 8 सवरिगता च वर.
३८९, ९ 0 स्वैर्लिगता च वर,
९ 0 कारणम् यावता अ्थराब्यो.
४ (¬ 1 ०1. कतैव्यम्.
९१ 0 .खयानमिति कव्यम् नक? ; ? “ख्या
नमिति । न ष्रक्तव्यम्.
९२ 01 त्रापि सं; ¬ धस्यामिसं..
१३ 7 £ स्वरे भेदो.
१५ © (समासे सत्यपि अन्तो.
२२५० नैवहि;एन चैवं.
२५ ? £ भवति चैव क? ; ए भवति च क.
३९० १ 0 न चेवं कच्चिदा? ; 8 न हि कश्चि.
३ © चतुर्थी घुबन्तेन ४५1५९ ; 7 ‰ & ०४.
चतुर्थी ।.
३ © थाथ.
३ 0 "पद्शब्वस्यार्थर.
५ © (स्यत इति न चतु.
६ © "कानां स्वसमासे,
९ (अ 01, शाहु.
९६९
० पण
३९० ९ 7) & ०. रथक्णरु; 9 रथाय शरु
रथदारु
९ 1) € 8 ए वावचनं वा चवि.
९३ € विवधः; 7 वीधः.
९१३ © ००. न चेदेवम्.
९४ © इह तावदयं
२९ ५ श्च्यते प॑चचमी भयेनेति.
२३ © शगुष्डमीतभीतिनीभिरिति.
३९१, ५ & 0)\. ध्वा. ..(प्रह्णं,
9 © "कुलं गत्वा.
९० £ 8 & ए 9169५०0 2 योगे य-
स्प्रत्ययेनेति व.
९२ 1; £ ०01. च.
९७ 0 तव एतरिति.
१९ &£ क्षेपे उन्तम्,
३९२, २ © परमपा०; £ परमापा ; 15217848 76-
{78 #1€ 16800 वरमाः पाः.
९ © तत्पुरुषो वा इति.
१९ ¢ °"कायसवे ठ न.
९३ © वक्त्यं.
३९३, ३ 42०]1011४18 88.१8 {118 8070€ 7६४१
पञ्चकुमारिः (दशक्ुमारिः)
५ © ०0. भविष्यति.
9 0 मूलेषु ; 1 091. निशिपेष पलु इति
पाठर ; 0 ०0. पलेषु. त
९] ०. जिपुरी ; © ॥४5 तिषुरी.
१० © प्रापणे वतसे । .
९२ 1१६&०11०10१११४ 16141078 ४€ 16९8010
नेवेयमि.. |
१४ © णनी यतामिस्य॒क्ते भावा.
९९ £ गौरनुबं^.
२२ 7 ग. दिगुः...केः.
२३ (0 011. च.
२३ © तदेवमितरे.
३९४, २ 7 ०7. ब्रेमातुरः.
७ £ ०11. दशारतिः ; £ 10 "181.
९ (¢ 070. प्रस्ययोः ..-वग्वनात्.
९० © प्रस्ययोत्तरपदयोदिंगुसं्ता चे.
९३ © 8 ०". किचित्.
९६ 0 तद्भवति,
१८ © च्ोक्तमर्थम चे?,
२० © शारार्थं घटामहे दारां गिक्ष्यामहे ध-
ना? ; 7 दारार्थं हाराथं भिक्षामहे धनाः.
२९ 0 वतीस्दुभ्वते तद्धि £ ? °नंवतीति
सदधि.
९५३६ || पाठभेदः ॥
ए० पण ए० पं०
३९९, २ £ ०. समाहारः..-कुतस्वान्. ४००, ७ 0 कि कद्यीर.
९ 2 ददा मूली. ९ 7 282 खल्वप्यस्मा.
६ 0 प्रतिषेधः प्राप्नुवंति. ९० © ०7). शीर,
९ 0 नान्यज्र।. ११ 0 शाक्यो ऽवस्थातुम्; 5 शक्यत आ०.
१२ 7 ०. २० 0 882 प्रकुतिप्रहणम्..
१९ © स्बाणि पुनः परिः. ४०९, ९ @ 010,
९९ & ०11. प्च गवप्रियः. २ 6०0. श्व.
१९ ( समदायन्रत्ताययवाना. ३ 0 जीवतीति.
२४ ६ कम्य :1 हो मासौ जातस्व यस्य सः ३ ४ £ द्धिशितेनेवि ।; 1 8 ह्किशितेन ।.
. ९ 1 भसम््रनप्रकरतिङृतोःऽपि ; © 8२८३
३९६, ३ 0 7? 8 नेवं मवि. ४1018 १6४4178 1० फष्ाह्ठ,
६ © संज्ञकः. १९९ £ 01, ; ( (कीनामुप.
< 0 मस्वथप्र^. २६ 7 28 ००. गतर...कर्त॑ष्यम्.
९ 0 मव्वर्थ हिगुसज्ताजाः.
१३ (0 किमनतरयोभे.
९४ 0 2 भनंतरयाग.
९६८ © इह सप्त; 7 ‰ & इदं तहिं सप्त,
२७ 7 क्रियाक्रियका.
४०२, ९९ £ 8 १6 वक्तष्यम् |, इह मा मूत हिमे.
नैतो हिमेतः ; 7 ४४० 89116 1" शाट.
एप इट 0६, ।
२० ए 01. दद्यहोतारः.
१२ © एतः शब्दो.
१९७, १ 0 दुष्सिानि शस्सनैः । पापाणके कु-
४॥.
१४ 0 अथ कतरि.
१९ 205 भन्यतर्र, 7 अवर्णस्य वा वणँ;
7? भवस्य वा वणँ वणेस्यावर्थे; € अव.
६ © इ्होपामानार्थो ; 1 इहोपनार्थो. णस्य वणं वस्य चावे; 210 910. अव-
७ © भथान्यदेवोपमेय अन्यहपमानं क इहो गैस्य वणं व्नेस्यावणें वा,
पमानायथंः; 2 अयान्यहुपमानं अन्य ४०, २0 शुकवसु; 2 07610915 श्युह्;? 8
३ © ०. वैयाकरणः.
देवो पमे. शुह्खव्रुरिति.
< 0 कचि ४ © 01. सामान्येन.
९१ है तहतिय ४ 2 वाढं सिद्ध.
९६ ४ © ०0. कथम्,
२२ © 7 खल्वपि सूः ® 3 ०7. ००€ परं,
२४ © ०. हि. १९ £ इभयुवतिःआस्व [1 "181८ .ढघ]युवतिः;
३९८, 9 © "वचनस्य प्रः. 3 इन्ययुवतिः अभभ्यंयुवतिः ; ^48०†-
७9 07). स्यात्. णाव, 110 00008 € (८क्ता१६
< 0 ए शछष्डेन संब.
१९ 0 7 ® .वचनस्वपः; &.वषनस्वस्य प्रर.
१९ £ °वचनत्वं प्रः.
१९ 0 (व चने सिः; & "वचनस्वे प्र.
१६ 0 £& 5 नावदयं,
10 € ६९६, 888 118 8011€ २९९
इभयुवतिः अण्व युवतिः ; 06 16808 दभययु-
वतिःभये [आयं?]युवाकतैः;एए भयं युवतिः.
१४ 8 & तद्गुण ग तुल्यकृष्णः ; ©
धल्यमहान्; स॒ल्यमहा् ; 7 सुन्य-
३९९, ४ £ 'दुनयविशेष्य. पृष्टन्; 2 ण.
७ © 0. कुष्णतिला इति. ९८ © इहोभयं भवति.
१९ 7 ? प्रधानस्वात्तः ; ¢ °तद्विश्ेषस्वा?. २२ © सर्वेकोशी.
२२ € ०71. गोरभृगवदरण्यम्,.
४०४, ७ (¬ कातरंगता स्यात् ।,
९९ 7 £ विशेषकस्वेन.
१८ 7 तिलानां कृष्णास्तिलकूष्णा इति.
२४ © भवतीस्यवदयं, < 0 °भँवति ॥. 1. वन
४००, ४ ] °वचनकृस्ास्वा”; © कृत्त्वा. १३ † _ 8 भल्यनाल्पेन महतो महातो; €
६ 7 ०". निर्वतक ष; © मिव्तर. अल्पेनाल्पेन यत्नेन महतो,
[च [यम ज क क द ऋ
|| पाठभेदः ॥ ९३५७
१० प9 ¶० पं०
४०४, ९४ 7 ङुदालकेनं ; ८ कुहालपदेन ; £ कुल- | ४९१, २0 भविष्यति,
केन, 1" "81. कदलिपहेन ; 2 कश- ९ © स्वाभाविकी निवृत्तिः कि.
लपद्न. ६ © ०). एवं तरि.
१९६ 0 सववैकोद्ी नद्. ७ © £ करोति.
१९ © 1 & गक्ण्नाफ ए यदा तद्यतरेण. ७ 0 निवतैयतीति,
२० 7 8 £ 8 इस्येव तदा भवति. ® © कीलकप्रतिकीलकवत् यथा कीलक...
रहै £ 00. पटुतरः. [गतमः. प्रतिकीलकं.
२४ 1) ११०8 सूङ्मवसख्रतमः 8१ तीक्ष्णं < 0 8 निहति.
२५९ © परम॒ ख्यते. < © यद्येवं नभो.
२६ 0 परच्चतिधा. १९ भनसुतेषा.
४०९, २ © अन्यपकार्यो. १२ ७ 0 £ निवतैर
५ © भवति । . १२ 1 ? €? ब्राह्मणशब्ः किमर्थ.
१९ © 1 -सबंधः क्रियत इति, १४ ¢ 7 € 2 एवै चैतत्; ८ ए एवं वैतत्.
१६ 8 तदतानिसं १९ 0 समुदाये व. `
२२८ तु क्रत्तौ कोष. १८ 1१42०}101)8{{8 ०160005 ५०९ 76४१.
२३ © भवति हि बहर. 108 पिङ्गलक पिल.
२९ 7.1 £ 8 ०". ऋत्विजः. ६८ ५ 7 इस्येताननभ्येत
२९ © प्रचरतीति. १९ 0 ०. च
४०६, ९07९ + २० £ 017. उत्तर पञ्चालाः ति
। ९३ 7 योनय २९ © समुदायेन प्रयुक्तो श्राह्मणश्चव्वोऽवय
२२ © यम्डागे मक्ष; ए £ ? यस्तिष्ठन्नक्ष.
२८ ५ 2 2 ध्लि ऽयीमति, निज्ञातं
वस्य भवति ; 07110198 1९] €८४३
{018 1९६41.
४०७, १० ( भतुरीयाण्य.
९१६ 7 विभाषप्रिकारकरणे.
१९ ५ ऽवयवव्िधाने.
४०८, ५ © उव्सगौऽपि न.
9 & ०. प्राङ्खुखा २९ © शतच.
" , २ ४९२, ४ 0 °न्निवृ्ति.
< © ? श्धाने ऽन्यत्राि. © आदय,
९७ 1 £ प्रणगुणेति. ९ © शुनो वा प्रः.
१९ ( पूरण नवति ॥. ९ ¢ भमिर्येष स्वरः.
२५९ © ०10. ऽपि. ७ भकृतेतीर्छच्य; 7 अकृते हायर.
४०९, ७ 0 अन्येषु वै चो. ९९ 0०११. च्छ नि
१० 0 स्तत्रापि प्रा. ९८;९९ © कृद्योगे.
९२ 7 7 £ ए यंमनिसमीक्ष्य षष्ठी. ९९ © दभ्मत्रश्चनः.
१६ © देवदत्तस्येति ब्रो°. २९ © "कषः क्रियते 1.
१५८ © कालः परि: ०१५९५ 108 ; 0 ०71. स. ४९३, २ 7 1 & ए ०. ष्ठीगुणेः.
१९ 0 कालः पररि. ९५४ € तीत्रो गन्धः+,
२२ © गृत्तना- ७ ए £ ए गणेन नेति.
४९०, ९ ठ एकवचनं दि". ८ ए £ 7 नेस्यच्येत ।.
२ £ 8 एकवचनांतमिति. ९77 ०. कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्.
३ © इहापि च यथा. ९९ © भव्रीत.
१० ¢ तस्समासस्य प्रा. ९२ ¢ पेक्षते ; £ पेक्षते.
१९ © अव्ययस्वस्य पृत्रप. ९९ © “धाना.
१३ © 7 पठरेनाव्यय. ९६ ( ण. च.
१९६ © ०1. तद्यथा. २९ ¢ पेक्षते.
१६ 0 भ्मानानामधीर. ४१९, २ © पेक्षते ; £ पेक्षते.
९८ © कतुम् नजः. ® (0 ०पेक्षते.
68 ष
९५८
१० प°
|| पाठभेदः ॥
¶र ७ 9
३२१, ३ 1००५५ कचित्तु चदु भाम एवं तर्हि यषवर्थे | ६२६, २० © कांस.
वति । एकव
नस्स्यिव्र |.
१९ & ०; & £ 188 10 778. तन्न.
९३ 2 £ 2 ध्युह्ः पट इतिः
१७ 7, £ तंदतरेणापिं
९८ 2 & कमौ दीनि विः.
१८ £ °स्वादीनि विर.
९९ € 8 एए कस्येकस्य. [बदनाम
२० 0७8 & & 0१ ५11९9४0) © केषा
२१९ 0 एतञ््ता.
२६ © ०केनिर्जितः.
२७ 0 1 द्युम्न्य; £ दुन
३२२, २ 8 (लेषेण विधानादृष्टविप्रयोगाचखं-
९ 8 विप्रयोगाश.
१ £ & 0181०811, ‰ ससुमारतरा.
§ ? विप्रयोगाथ.
९४ 1) 011).
१४ © रस्म नियमः.
बु भाष्यं
१८ © तथा तिङं संख्यां चैवार्थः कमौदयश्च. |
२४ © ६११8 ५९ "कस्मिन्निति, अभथवाति-
शोषेणोटप दंत उत्पन्नानां च नियमः.
३२३, है 0 7 शब्दास्ते नि.
४ (५ देवदत्तेति; 2 & 8 ००. पद्युरपध्यं
देवतोति.
® ¬ 07. स्किः
८ © निष्क.
१८ © ्रधान्य; 7 प्रधाने.
२० 07 ¶प्रधान्ये,
२३ © प्राप्नोतीति.
२३ © 1) पततीति. वात
३२४, ३ © £ 5 011. 016 *
१० © °नुर्पत्तिः.
२९ © £ वाधिकररः. ि
४२९, ९ 0 010. [एतत
६ ©? € प्रधनस्य क; 0 01". व्ररषानि...
® (0 दणेन प~.
१९ ]) ¢ ठ पतने.
९२ उपि छिद्यत.
१९ ए "काविद्योतते विद्युत्.
२२ © ह्यैकपुः.
३२६, ९ स्वातन्ष्यं; £ £ 5 करैस्वं.
३ © थ्न च परिवतेनं क 1.07. च;
ए °नं च परिवतंनं च क.
४ 0 ०्यां च धारणक्रियां क.
# 7? £ ए 01. केरानीं परतन्वा.
२० 0 ०10. इति,
२९५९ £ ए & गष्टण्णार ए क्षधर्मा्िः
२५ © 7 & ? भधमाौनि०
३२७, ९ इति ; ¢ इह.
२00) & णधण्णार ८ इतिय ण्व.
४ £ 5 भधमाोद्धिः भधमोनि?.
९ 0 £ 9 & ६००८१ 1, 2 इहं ८ य.
९९ 1 ? £ 8 01", सिद्धम्.
२९ 7 ८ 8 चोरेर.
२४ © ०0. & 2 1० पभ्ट- दस्बुभ्यस्वायत.
३२८ ९ ए चोरि.
२४ ् नि
९३ ( कि ताहि
१८ & ०0. कतर्री... प्नयैकम्,.
१९ & 070. कतरी". ..वश्चनाव्.
२२ 7 8 & 0 ६।८८ ९४०० ? शरु
३२९, ७ (0 श्युपयोग इस्युश्यते.
३३० ९ 0 तास्तान्यः.
९ 0 नास्यंवात्यतायाः.
९२ © & ०1119९15 7 भयाभि्ः.
९३ © 1 ०0. स,
९९ £ & 0181121) £ संनद्यति.
२९ © ०1". प्राथंना,
३३९, ९६ 0 1 तमप्प्रहणे.
९९ 0 संज्ञा पूनः साध, & ०. वनः 17
1. 16.
२२ ८ अपा्जमा्वार्यंः. +
२३ £ प्रामादागच्छतीति; 7 8828
०0. नगरादागच्छतीति.
३३२ ९ © कुस्लमाधा.
हं ७ 011. न्.
6 0 कंस्य पृनस्ताहि,
१२ © मवनीति.
२४ © विशद.
३६१, ३ © ०. कारकर्प्व.
१४ ¬ 0 0711. चच.
२० 9 7 चामातर गं.
६३४, ४ ७ 1) 010. नेतगास्तिं
€ 0 पृच्छतीति.
९९ ¢ 1 .मपशिनोति.
१६ 0 रते पुं.
९७ £ कथिते । कथिते लादबः। ; 8 ०,
चाद्यः.
२९ © अकारकमक; ? (कथितात्-
२९०७श्द्ायां म
३३४, ९. °दीनामुप.
३३८, ९ © 0 भकमेन्र ; 8 कालकरममेनामुः.
३३९, ३ © 01". तस्य.
|| पाठभेदः ॥। ५५९
प
३१९ २ ० विधिरेव. ।
९ ए खादयो भ; 0 सहन्वरेण.
१३ © नयंति .. नीयतां भ्ामामिति.
९९ £ & ०पष्टष्शाङ 8 पयः । दुग्धा गोः
पय इति,
९७ 17) ‰ £ 8 ०८. वक्तव्यम्.
२० ए ०1. बरष्टव्यामिति निश्चयः.
२३ © सिद्धं चाप्य 1) सिद्धस्वाप्य .
३३६, ९ ५१४१५ : केचिदध्वगत्यन्ता इति ष
ठन्ति
- ४ © देशश्चाकर्मणां २ कर्मः; 1) देषाच्ा-
कर्मणां । कमै; 7 8 2 रेशश्चाकमंकाणा
कम.
9 0 कल्मेसि.
७9४४९ वे तस्मिः. [रिति.
९० (ए५१०४: कविन्तु पाठो धातोर्निदृत्ति-
९९ ए ०0. सवौ.
९४ © यस्मात्तस्य.
९९५ @ ४०४१ ४०९8 सन्न ^.
२३ £ & ०ाप्भीक् ऋंदयति.
२९ & & णाश ०९1र 8 शअन्काययते.
९४; ९५7) 2 भादि.
९९ 7 ए आदयति.
२२ € ए वाहयति.
२४ ए 0.; & 11 7187.
२६ 7? € ८ भक्षयति ^
२ © अभकम
४ ¢ & ४ 81४68100 °कभकाणामः,
६ 8 केचिश्पि काः; 7 ? केचिस्का.
८ © सकमंका अक.
९ £ यत्कमम कचि भवति,
९ £? £ कचिदधवति चिन्न भवति.
१२ ० “इशोऽपसं .
१८ 1 ०0. प्रोतं तन्छम्,
९९ £ ए वितानमिति ; 0 वितानं इति.
२० © ०0. वुरैते.
५९ 8 & गाणार् ए ववति चेः.
< © € दृष्टा व्यवस्यति,
` ९ 2 € प्रेषितोपिन,
९ £ € भवति.
९४ © 7 00. स्वतन्नस्वात् ; # |
स्सिद्धमेतत्.
6१ 8
पं
` ३४०, ३ € & गण्ड] नृदिति.
९ 0 7 ८ कुन्मेजंतश्चास्ति.
१९ 1) समासेष्ययी.
९२ ‰ समास एतः ; £ समासेष्वेतः.
१४ 1४2०1107 9{9 : परियं प्रोथमिति काचे-
ष्पाठः; पत ४1६१४६८७ क प्ला8९)0 118
7९४१ प्रोथम्,
९९ © ^ ततो न व्रजति ; ए व्रजंति; £ "च
~ततोनुत्र जति ; 8 "च तावदनुत्रभति.
९६ 9 वातिः.
१७ }) & ए शत्रजोति,
२२०७तां ना वाधिष्मतेसि; 8 पर्तामा
२४ © °सन्ञायामंत अव.
३४९, ४ )?87? श्वे चकृत्वा
६ © & ० शः"911र ? (वनं नेति ; © 1०
10218. ने नेति वा पाठः; 7 गनो नेति.
९९ 1 £ & गशणभ ® विभागो निपात-
संज्ञां.
२० £ £ उपसगांत्त शति.
२२ 1) ०0.3.28 10 0912 . ; £ ९ब्हस्य चोप,
३४२, २ 7) £ & ६ -ब्दस्योपसंस्यान.
५ ए 95 पुनश्चनसौ 1" 7187, ; £ 17081९84
01 २; .& 010.
६ © गनिष्क्रातो; 1० ८९18. ष्क् पाः; 2
“निकृतो.
® © 7 संज्ञा.
१० 0 £ ०. प्रयोजनं ; 8 ए ०7. घञ्; ©
188 1६ ०्ष्ाशाङ; ह & गह्ाणभाङ्
? .णस्वानि. [81],
१९ ? ए ०"). घञ. भूत् ; ए 1४5 7६ णह
१३ ० नायकाः तस्मा.
१८ © 48 २ धल कोषो.
१८ © 7 ४ य उदतो.
१९ 0 7" "81. योसि वा पाठः.
२९ ए सूर्यः 01 आश्वार्यः; ७ 7 & ग्व
0811 ए ०0. प्र णो एर्ण€ ब्रह:
३४३, & 8 & गहण्शाई ४ बुनंयः ; 0 ०णाङ
दुम तमिति .
१०१९१. 9 उरी.
९९ © "त्ताहितिपरं.
. ९६ © "ट्वीवद््र ; 7 & & ०प्ण्भाङ 2
"ष्ठीवरिस्यन्रापि. , ,
९८; १९ ७ र न प्राति ; £ & गांहण्भार
£ शज्नापि प्रभाः.
२२ £ ए & $ 96४00 "क्तिः प्रतिनि.
९६०
० पर
३४४ ९ £ 3 “व्यते प्राः.
९५९ © संतीदयेव,
९ 0 भविद्यमान भाद्रे.
९.३ (^ अदिः. |
१८ © शक्षादेव हि कि? ; ८ शक्षादेव सकि? ;
1 गह्टणभार 9, एप देव स ऽध्प्लः
0४,
२९ 3 & 8०१९५ 10 तन्न ष शिविर &
'टर्यतस्य प्र.
३४९, ३ » & ४ ९1८69०० ‰ नित्या.
४ 0 70 तच ख्यः.
९ 0 धातोः वक्तव्याः.
९२ 2 शस्येतिपरप्रतिः.
१६ £ 011. च्च; 10 » 8्षप्लोः ०प
१७ © 1 ००. ऽपि.
२२ © यब्राहैः.
३९६, २ & ? स्थां व्वनमेवह.
२&£ इष,
३ 0 वज्र गतेः.
४ £ १०१३ दुष्करटंकराणि वीरणानि ; "० ¢
{118 18 इप्पठीौः 0प,
# ( 0111. गतेः.
९९ © 071. 016 स्यात्.
२९ ठ हाकल्यसंहि 7.
२३ 1) प्रादेशेषु प्रादेशं ; £ 5 010. ०6 प्रा-
देशं ; 19 £ ००८ प्रादिद्ं 8५ ०४४.
३४७, ९ © °युङख्यमानं विमानं ; ४ -डुञ्यमानं
प्रति, ००५ प्रति 8प्णटर ०प६,
९ प्रादेशं प्रादेशं ; © प्रादे २; & 8 0.
0०6 प्राहेदं ; 17 ‰ ०16 श्ल ०६,
३ ¢ °युरूयनानं निहाममिति;£ नियमि प्रति.
१० 7 ०1. पु,
९९ 0 कि च वक्त
९४ 0 कुता.
२३ ए आङूमर्यादाभिविष्योःभाङ्मयाहाभि-
विभ्योरिः, ८४५ आर..धष्योः शध्प्लौः
०४६.
२९ 7 £ £ भाङ्मयोः; 0 °वग्वनमिस्येव.
३४८, ६ 7 € विश्ोतते विद्युत इक्षं परि वद्योत-
तेविद्यु वृक्षमनु विोतते वि द्युत्.
९९ सिद्धा ; ० 7 8 सिद्धं तु,
१३ 7 £ ठ & ४००५५ 7" £ तनज्रापि चश्च.
२२ 7०0. गोमृ्रस्यापि स्यात्; 0 1 097.
मधुनोपि स्यात् वा पाटः.
३४९, 9 0 02, किमुक्तम्.
॥ पाटभेदः ॥
छ ०
३४९, ८ 7 ठ “वनात्तु सिर.
१९ € 0. परस्मे ; ए ०7810211 ¶वर्व्वने.
१७ © 70. तु; £ € ष्णा
"पठवचनं त्तापक पुरुषसंज्ञावा.
९८ ७ 7 ०1. परस्मैपदेष्विति,.
६९०, २ © † ०. समसं ख्यार्थम् ; 1 £ 5्षण्टार
०0१६.
६ ७ ०. वैषम्यात्,
२० © 7 £ -किरिकम्, किटिकानि.
२९ © भमाणे भास्मर £ 'मणेषि चाम.
२३ ० दाभ्यासृग््यासुमििरुप)) दाभ्वास-
ग्ग्यामन्निरुषः.
३९१. २३ 0 1 ०४. ऽपि
६९२ २ © भवति.
३ 23 010. 166 & ध॒ण०्क प्रथम,
१६ & 01.
२२ 8 £ पचसि ख पर,
२४ 0 123 २ ९ भावस्य.
२९ £ 8 पचसि च प,
३५३, ९ © "त्रज्रापि.
२ © 7 यत्तदुक्तै.
२ 000, तंक.
२०७8 तत्राप्येवं.
३ £ प्वसि च प.
३ © 8 पचति चेति.
३०७17 € पचामि चष.
९ © श्युथकस्वेष्वपि.
९ ४ & ०. भवतीति.
३० @ ८& 01121911 ‰ सोप्यदे?.
१३ © ] गृह्यंते; £ गृद्येते.
१३-९९५ 5 011. .भवेत् ...गृह्यते.
९९ © 1 अन्यश्च.
१९;२२ © 7 & ५११९१ 1.7 'त्तमावपि त॒ न.
२४ © परनिस्यमेवमच्र,
२८ © एवोच्यते, 1 ०1. इस्येवो- पाठः ;
इस्येतावुच्येते ; £ इस्येतावदेवोच्यते ;
? इव्येवो ध्येते.
३९४, ९ 7 £ भविष्यतः. -
2 © 08०. ष्व.
४ 01 8 मत्रुपः पचामि,
७ ७ 7 ०. तत्र; 10 2 ण्ठ} ०.
९२ 7 8 "नृबभ्यो.
१६३ £ 5 ऽनूनधभ्यते.
२० [> 01,
२९ © इुतविलंवितमध्यमादछ ; £ दुतमभ्ववि.
| ©
| पटभेदः ॥
प
९६
ए०प०
३५९४, २९ {915 ९१४ 706४018 (€ 1680108 बृ्ति- | ३६०, ९ ए उपादानविक्रलः 06016 दाङ्कला- ;
विक्ेषः ; ? 188 {118 0761081}.
३९९, ३ © ०71. 1 018४ ये.
६ ए विष्य.
९३ भ 00. यो.
९९ © करिष्यति.
१६ © 'संयोगाऽसं° ; 7? ^+ संयोगास -
९७ + 7 7? € 2 श्वोषाणां च संयोगे.
९८ € पिप्पली; ? पिप्पकः; © चित्तमिति.
१९ © पूवापर.
२३ £ ए ॥6€ & ४९० व्यवेत.
३५६, ९ 1 पूवेपराः.
४ ए एकवण? ; 10 £ कर ऽध्ाप्८]८ ०४४८; 28
०प्रध्वंसितस्वाः.
९ © तन्वन्नीतिः; 91१ १19 ०169001008 ५013
7684108.
९९ 7 £ ८ & ४११९१ 1० ४ ऽभि कवावसा?.
९६ 1 01.
२२ © 7 » °भावस्तस्याप्य.
२३ © लोपोऽवसा ; 10 ए98- लोपस्ततों
वारषाः.
३९७, ९. © ०. विरामब्रहणं .
३ © ०0. इति विखजेनीय,
१६ 7 & पूवको विराम इति.
९७ & & ०1811811 तानि हयास्मिन्त्रा-
हमणकुले ; १४११ ाला्०ा8 ५6
7९90108 धनानि ण व्रतानि.
९९ 8 & ००9] 8 ०. न.
२९ £ & ०णण्ाफ 8 रामेन भवितुं शी
लमस्येति भा.
२९ ए तत्परो वा व्णोवसाने.
२६ © विरामि परो ; ०. वक्तव्यम्,
३५८, ९ 9 ०1. वा.
४ © £ विहित.
६ 1 परसंनि°; ४८8 परं संनि.
६ 0 अपरश्चाह.
३५९, ६ © ०. प्रदीपवत् ; 1 ४ 80060.
१२ © समासश्चासग.
९२ © ००. खल्वपि, च, भवन्ति.
९४ © 0). च.
९४ (¬ यावदूयाक.
१९५ 0 समास एकस्त्वसंर.
९१९ ए & 7 982०}1019\(६ उत्पन्ने हि प्र .
२२ ठ नगरानि.
२२ © अथ समर्थः.
ए 8&०]1011818 1188 ध्6 89०१९. =“
९ ए 00). किरिकाणः; ४ गिरि.
२ £ १०६५६४१ ० तिष्ठ ...सलेन, कि क~
रिष्यसि शंक्रलया खंडो धावति उपकेनः
0 ४८ 8206, ०पविष्णुमिज्र ण धावति.
३ £ गोहतं वरषभहितं ; 1) ४06 88716, ४०१
गोहितं भ्व हितं.
४ 1 2800. दस्युभयम्; ? शोर.
५ © देवदत्त यत्त; 7 £ "दत्ताद्यत्ञदत्तस्य.
१५ © सस्यमेतत्,
२२९ (ति 01. नैष कोषः,
२९ © भवति वे प्र^.
२२ 8 ००. ते ; 7 तज्र तेन वृ.
२७ © गम्यते,
२७ 0 गुरुः स तस्य; 0& 01, यः,
३६९, ४ © 070. वक्तु.
७ 7 £ अगुरुपुचा; 19 £ 8 कुल ६१0९१.
९ 0& 2 ऽगुरुपुजा; 7० £.कुल ४११९१.
९४ ५ 07. हेवद्त्तस्य गुरक्कलम्,.
९८ & 23 अयमस्स्यस०; 1" ¢ यम ६१०९५.
२० 0 जल्ञ्तमासस्य चासमः...“स्वं च वक्त.
२९ 0 &£ ०00. अभलवणमोजी ; 1 £ 8११८५;
5 अश्राद्धनोजी ब्राह्मणः अल्वण-
भोजी न्राह्मणः.
२७ © समर्थस्युच्यते.
३६२, ९ 0 0. राजपरुष भानीयते.
४ £ स्वर इव्यकार्थनिषकरृता विशेषाः.
१९० 0 भवान् .
९४ © इति एकार्थभिावकृता विशेषाः अ-
अनादेद्यात् ; ध1€ 8धा0€ 11 2, 0१४
8 ४९। ००८; 7) इति एक्रार्थाभिावकरता
विशेषाः.
२९ 1 व्षांघुचर.
२२ 0 8 8 (स्तिष्ठति.
२६ © कत्तश्चेति.
३६३, ८ 7 £ 3 अथोनारेश्नात्,
१० 0 निठ़त्त.
९६ 7 £ ए °च्छब्देनाथंनिर्शाः.
९७ (^ केनचिर्कृतत्य कन करत ; ? कनचि-
स्करृतः तस्य केनचित्कृत.
१७ 7 7 'वत्था स्यात्; ? वस्था च स्यात्.
२९ ८ विशोषणं.
२२ © विहेषेवातिः.
२९ © बहवोपि श; £ 2 बहवोपि हि शः,
२९ © जमरी तुपफ; £ सुफरीतु.
५३२ || पटभेदः ॥
ए० पं० प० प०
३६३, २८ 7 8 & ? “स्तं गच्छति. ३६७, ७ ( 010. सह.
३६९४, ९1०00. च. < © कि कारणं ४९०1९ प्रधान>; ०. तदा.
२ © वावयनमनथेकं स्वभावसिखस्वात् ।
वाव्चनमः ; 1 ०1. बावष्वनर... ^सि-
स्वात् ; » £ “चनं धानर्थे०,
९ © 7 € “जस्येति,
९ © सस्वार्थयोहिवैवनमिति हिर्वचम,
१९ 0 वतमानः.
६६ 228 ए८नकतुहि.
९७ £ तन्वसितकण्डू"; 7 ? तच्ासेतहान्त-
तकण्डूर.
९७ 0 1 ?विरोध.
१७ ( लस्मान्रं हा; ठ तस्मात्तन्न हाः.
९८ ( 00. तद्यथा.
२९ 0 प्रभालयितुं गंस्यते; न 7 09
२४ 7 & 010, ६76 078४ त्रा ; 1४ ए 8046.
२९ 7 8 £ ? राजपरुषमानयेस्युक्ते,
२७ @ 10 197, व्यवकिन्नं पाठां र,
२७ 7 £ ¬ यदि स्वार्थं जहासि.
३६९ २ 0 “मानयोः स्वाः.
९ 0 सारथौ.
९;६० 0 शध्यपेक्षायां,
९४ ¢ भविष्यति.
९५९ © गतमियता.
९८ (0 चेह श्वः क्रियावान्वी प्रर.
२२ © संगतार्थः समर्थः सैसृष्टार्थः समथः
... समर्थं इति ; 1" "४. सर्वे एव पु-
दिगाः.
२४ 7 ए संगतं धृतं तैलनेस्युच्यते ; & ;"
"198. संमत संघृत तेलेनेति पाठंतर.
२९ 0 भूतामिति; 11 पाश्ष्ु, इति पाठः.
२७ कालिन ; 2 ०1शाण9ाङ कीले, न
४११९१ ; £ कीलेन वा; ? ग्वसा कीलकेन.
३६६, ९ 0 भहानाह(वपि
2 © ०10. तद्यथा.
३ © "जातीयेषु.
४ 2 £ 8 0". संयोग इत्यर्थः.
६ 8 त्र च नाना.
८ © ०). लेषा.
< © हरतेव्यैर.
९ ठ पथ्ोदनं तव भविष्यति मम भविष्यालि
९७ 0 संवध्यते.
१९८ 7 & ६११९१ 1" ‰ प्रचये च सर,
२४ 0 आश्युतरोयं भः ; & आश्युतरं भर.
२७ © पदव्यः वर.
३६७, ७ 1 2 £ 2 कथं तरि.
९० 0 साष्ययसकारक.
१९ 0 0. सकारकं.
९६ जसक्िवाविधेषनं च । सक्रियाविदहो ष्णं
९७ 7 £ £ श्रृहि ब्रूहि देवदत.
२० 0 ]) भुवजिति निघातादयः.
२९ 0071. षन प्व; ? पचयौदनं तव
भविश्यति प्चोदनं मम भविष्यति.
२२ 1 योगेन प्रति.
२४ 0 £ £ ठ यथान्यसि एव ; ए यदद्य
न्यास एव.
३६८, ४ 0 'ख्यनसमथः; 7 (ख्यानसमर्थम; £ म
10 717,
६ (^£ £ समानाधिकरण ॥.
७ 7 & ए चाखाया.
< 7 8 € ०). शातीर्ना.. ददाति.
१९ 0 ? यदा छष्डपेति वन्ते तश हिसमा?;
8 (116 8810९, ७००६ 8११5 न ए९ण€ तका;
0 यावता घण्डपेति वतंते तदा..., १०१न
४१०९१ ०९०€ तक्म; 7 या यशवता चु
णुपेति वतते तदा...; ए यावता सखुष्डुपे
वतते हिस.
९३ ? तहि । इयोः समासयोः प्रसंगो हिसमा-
सप्रसंग इति । तिप्रकारस्य.
१४ 0 चेवं भविष्याति ।.
१९ © 1 राज्ञो गोः क्षीर.
९६ (लदा च कस्मा.
९६ ¢ 1» 5प्लि भवाति, असामर्ध्यात कथमा
सामथ्येम् सापेक्षमसमर्थं भवतीत.
२० (` राजन्यपि ष यर.
२९ 0 }) ०0. कि कारः.. भवतीति.
३६९, ९ 0 "व्वन.. गनत विर.
६ 0 "करणः क्रियते ।.
१० © समानार्था.
९६ (¬ एवमपि विभ.
२४ © समर्थपष.
३७०, द © भसामथ्यौत्.
५ 08 न भवति तदा सामथ्यं मवाभावात्,
६ 0 ००1. तदा.
६ © भस्तीयता.
९ 09 ऽन्यश्चं पुम.
१० 0 ०10, तहि.
९१ ¢ भाविष्यति.
१२ 0 कदुस्वं,
` छक
।| पाठभेदः ॥ ५३३
पठ प9
३७०, ९६ ¢ सुदल: कोष्ठ इति.
१९८ © °ब्काः प्रयुज्यते.
२९ ५ भतुँ शक्यो. |
२९ © ०. भूद्यो भरणीयो.; & ०. सूर्यो...
^भरणीय ; 7 ०0. भृत्यो ... इति,
२३ © “मातेति द.
३७९, § ¢ कतंब्यं भवति समानाः.
< © गहिक्रियते अज्र.
८५8 एवंच करत्वा समानाधिकरणेषुष-
संस्यानमसमर्थस्वात् समानाधिकरणेषु;
7 रवमसमर्थस्वात् समानाधिकरणेषुषसं-
ख्यानं । एवं च कूस्वा समाः.
१४ 1) 0111. ।
१८ & ०्ाणए कृत्तिः सुत्र; 12९९
0108148 11611008 {1118 ८6818.
१८ © वातिक कारकचन?. `
३७२, ९ 1 £ ? समासो द्रोश्च.
२ 8 समासो इयो च्चे.
७ 01 & ०ह्वाण्मा$ + किच एणि€
नावहयं.
९९५न चेदं भवि०; 7 ४8४8 न चैतदेवं
भवि.
१९ © करिष्यते.
९३ © 7 शद्वातारत्त्हिं न सि.
१४ 1) खनासांतस्य प्र.
१९. °ब्दृषक् । ,
१० पण
३७३, २४५? षस्य लक्षणम.
३७४, ९ 0 8 भवति.
९९ 7 यक तरहिं..तशा; पिण््णुणिरष8
11601018 {1018 1€89410,
९३ ¢ 'ख्येयाभि० ; 1 'ख्येयवाथांभि, ४४
यवां श्ाध्टह्व् ८ था; 8 ००911
-ख्ययवाभिर, ४1१ यौ १११९१ ; 8 “ख्ये
यायथांभिः; ए ^ख्येमवाथभि?, ४० र्थ
8 पद 0,
९३ ¢ संख्या.
१४ 42011072418 वयमाधिकषष्टव ५
-षषटि्वं 7 2 8 1 ६ विवर.
१६ 0 यत्तु.
३७९, ८ ? ०10. मगधानां राजन्.
१२ © 8 ०1. वृक्तष्यम्; € ००१३ मत्राणां
राजन्.
१७ 2 88 071. अन्वेष स्वामिन्; १११९० ©.
३७६, ९ ०,
है £ 010.
५ 5 ००, प्रति स्वा दुहितादिवः.
< {& ०).
९ £ £ अव्ययीभावस्य नेति ; 7 अनन्य.
यीभावस्य नेति.
९७ ( इ्ब॑तेकांतस्वात् तस्मा? ; 17 781. वता
स्याव पाशं; 7 8 कांतः स्यात्.
२०;२९ 0 मेलनम्.
१६ 7 & 11० णश. परेण परेण; 0 £ | ३७७ ६ £ प्राग्वचनं समाससंज्ञा
ए ग. ०06 परेण.
१८ ए एव तहि.
१९ 0 सतेनाजि; 10 प्ण इनता पाठा `
२२ 7? ०7, अविरेषे ण.
२४ ‰ 0171.
३७३, ९ 8 पंचगवभियः पंचनावप्रियः.
२ 98 ०. रौरवेतरहाम्यम् ; 1 5 8९८
०४,
७ © अन्तोदात्तस्वं .. .स्वर इति ४७166.
९० © निमित्तस्व.
९४ 0 ०1. तु; ठ नापंकरं निमित्तस्वरानि-
मित्तिः
९७ 0 नामं सपर; & नाम तच प्र.
१९ 0 2 पादो स्येति.
२० @ 010. ऽङ्ग,
२९ © उतेनाज०; 1) "051. छनताजिन
पाठा,
२४ © यस्य यस्य बहुः; 8 सस्य बहु,
४ ¬ 2 स्याङितति,
९०तामा,
७ 0 क्रियमणिपि प्रा.
१६० & 8008 व्यक्तं पडुः ब्यक्तपटुः.
९९ 0 तेनेव समुदायः काये भवति; 7 "कायं
भवतीति ; 1 भवतीति ; 8 भव्रती.
९३ 01 82 एतदपि नास्ति प्रयो अनम् %11€ा
व्पाणी यम् ; 10 7 ऽप्रप्लाः ०प४,
९९ त 2 यदीदं नास्ति.
२० ¢ ४0०8 अनुवृत्तिः क्रियेत, 7
क्रियते, 9 संभवः. भवृति
३७८, ह © ०0. तद्यथा.
३ © चायमस्ति.
४ (¬ 'समामिः।,
४ 0 ठंडषतां |.
< © प्रयोजनं योगविभागार्थं च योगामं
यथाच वि; 2 08 योगविभागा्ं कव
गह्ाण०श्ाङृ.
९२०४
ए० प
३७८, ९ 0 शत्िनागो भविष्यति ।.
१० 0 सह समस्यते.
९४ 0 ^ववं कर्तव्यम् ; 7 £ “स्वं वक्तव्यम्.
३७९, ९ © कश्िस्परपरार्थं-.
€ © 7 ययेस्यव्यय,
१० 8 ? वीप्सावाचि.
१९ ( वीप्सावाथी.
१९ 0 तस्येदं भहणं कः.
१७ 7 £ 8 अक्षाषद्यस्टतीयाताः परिणा पूरौ
त्तस्य यथा न तव् भयथाद्योतने; 7
€ 8816, ०४५ अतथाद्योर.
२९ 0888 अक्षशलाक योधेकवग्वनांतयोः.
३८०, ३, ‰ 011.
२ 2 अक्षेनेरं वृत्तं शकटेन (07४
दाकटेन न ) यथा ; ए अक्षेणेब तथा.
४.९ © 8११९१ ण शहर; 0 © 3 ०प.;
£ भक्षादयस्टतीयांसा परिणा परोक्तस्य
यथा नं तत् कितवव्यवहारे वाक्षिदालाक-
योश्रैकवथर्नातयोः.
७ ]) 7? £ पंचम्येति । अपपरिभहिरववः
प्चम्या । पंचमी
९४ 0 पंचम्यतोति ; 0 £ 8 पचम्येति,
१८ £ अनुगङ्खः वाराणसी ऽ्रप्नौः फण.
१९ 7 वाणस्यप्यायतां शस्तिनपुरमप्याय-
तम्; 10 2 वारणस्यप्यायता 91८6160
४० शास्तिनपुरमषप्यायतं.
२० © भविष्यति तशस्तिनपुरणेति न षु-
न्वा? 1) म हास्तिनपुरेणेति पनवां र
ए न हास्तिनपरेणेति न॒ वाराणस्येति,
४४ वाराणस्येति 870९ ०प४, एनलेणण
£ 3 वाराणसी, ४1८९९९१ ४0 हास्तिनपर.
२२ © यस्य चाया.
३८९, २ © एवकारा्थंश्चकारः.
२० परमतिष्ठद्गु; 10 £ ४116 4 पऽक 8
0४९1 म श्ल 0४,
३ 0 ०10. ; 1 शविशैषेति,
४ ¢ (विदेधष्विति.
४ ¢ > यस्मिन्; £ ८ कालेसतिः.
९ 1 ४ 8०. ; £ प्रथमांतान्यदार्थ.
६ © £ ०0. गनि प्रथमान्ता; 2 प्रथममाता-
न्यपदथं ; 7 1? ००१. समस्यन्ते; 7 ए 4
४०१ इति वक्तव्यम्.
७ £ ०10, दुयमानयवम् ; 1४ 18 8११८ "0 £;
& एनय.
९६ ¢ भविष्यति.
॥ पाठभेदः ॥
१० पण
६<२, ९ 7 णा,
९९ (¬ 010. श्व.
९२ 7 8 £ पदाथंप्रधानता न क; ? "पार्थ
न प्रक.
९४ 0 "मेतद्थमु°.
९६ (£ ०1. त.
२० 0 संख्यासमाः; 7 सख्या 10 णश; ए
०10. संख्यायाः.
२९ 7 नदीतीरे.
२३ 1 £ £ ४११ ६५८7 प्रयोजनम, दिगोस्त-
स्पुरुषत्वै समासाताः प्रयो जयति ; 1 ०११३
द्विगोस्तव्युरुषो संज्ञा समासान्ताः प्रयो ज-
यन्ति.
२४ 1 2 ००0, ददाराजम्.
३८३, २ 7 ०1.
९ 0 (हीनदहवि>,
६ © 'नयथेक्यं.
१३ © भ्राम गतो मरामगत हति, 1४1) ७प४
अरण्यगत.
१९ 8 ख वाचनाः.
१६ (0 वक्ष्यामीति.
१८ © शस्वरस्वेनापि भवितव्यम्,
९९ 3 011. हि.
९९ © बहत्रीहिभवति.
२९ 7 ४ £ समानार्थे.
३८४, ३ 0 तस्पुरुषस्वे.
९ © व्यपड्क्तैः.
६ ©7 8 8 भन्यथाजतीयः.
१० 1) † £ 01. जाल्मः.
१९ 0 0 इदानीमन्यथा ; © 1 1918. इवा-
नीमतीन्यथा पाठो वा.
९२ 7 ? £ नत्तित्रतवान् ।. |
१९ £ ०). क्तान्तेन चा ; © क्ततेनाक्ताः.
१९ 1 7? £ ? 01. तषुच्यते 7१ इति.
३८९, ९ ए शंकुलया खं ; © । किरिणा काः.
«९ ] 010. धान्येन धनवान्,
७ (0 071. इह.
९९ ५ नाथस्तद्रहणेन.
९२ © भसामभ्यां त्तन्न.
९३ 0 तस्कृतम्रहणेन.
१८ © कतेव्यश्चेः.
१८ † दतीयार्थस्तस्कृता?; © हतीया तद्थं-
कृतार्थेन गुण वचनेनेति । एवं तरि.
१९ 0 (निदेशः विन्ञायते ।.
२९ 0 भवो्थन,
॥ पटभेदः: ||
९० पं
2८९, २२ 7 & ०1. वसनार्थः; ? ए 8 18१6 हिर-
व्यर्थः.
2८६; ९ 8 ०.
६ 8 01. अरितः नखनिर्भिन्नः.
९९ 0 इति च वक्त,
९८ £ 070.
२९ † £ क्रियासम्थस्वावः; 1) क्रियया साम.
थंस्वात्.
३८७, ७ ( प्पूरवेपदु,
< 0 ०्वसिन्तः भोदनः इध्युप..
१८ 2 °सप्रत्ययात् साम.
३८८, ९ 0 तदाचकाना.
२ © ण्वेरमिव्युक्तेक.
३ € (क कडाब्दस्य,
४ (¬ विहारैः तश्रा.
७ ( “माज्रणेति चेर.
< ¢ (मात्रेण समासप्रसंगो मवति समासः
प्रापोति ; 1 ? £ 7 (माच्रेण सह प्रसंगो
भवति समासः प्राप्रोति.
९९ 0 ताद््यैन, ४००१९ ८ बद्धेन.
९३ © योपि म.
९९ 0 क्रियते.
१९७ 0 श्वल.
२९ © ऽथंशब्देम,
२३ 9 011.
२९ ¢ 8 ०00. उच्यत; (1 (शाट.
२९ © 8 सवरङिगता च वर.
३८९, ९ 0 सवैकिगता च वर.
९ © कारणम् यावता अर्थशब्दो.
४ (© } 070. कर्तव्यम्.
१९ 0 .ख्यानमिति कतष्यम्न क ०; ? °ख्या-
नमिति । न वक्तव्यम्.
१२ 0 7 त्रापि संर; ठ तस्याभमिसंर.
९३ 1 £ स्वरे भेदो.
१९ ( समासे सस्यवपि अन्ती.
२२0०7 नैवहि;एन चैवं.
२५ ¢ £ भवति चैव क? ; ए भवाति च कर.
३९०, ९ 0 न चेवं कच्िश?; 2 न हि कश्िदाः.
३ 0 चतुर्थी चछूबन्तेन 1५९ ; 7 ‰ & 0०.
चतुर्थीं ।. .
३ © श्थांथः. -
३ © 'पददाब्दस्यार्थं^.
९ ¢ स्यत इति न चतुः.
£ 0 "कानां स्वसमासे,
९ ज णा. राश.
९४९
० पं |
३९०, ९ £ £ ०४. रथलर; © रथाय शरु
रथशर.
९1) & 8६ वावचनं वा च विर,
१३ 8 विवधः; 7 वीधः.
९३ 0 ००. न खेहेवम्.
१४ 0 इह तावदयं;
२९ © “च्यते पमी नयेनेति.
२२३ 0 श्गुष्डभनीतभीतिभीभिरिति.
३९९, ५ £ ०). ध्वा. .-भहणं ,
७ (0 (कुक गत्वा.
१० £ 8 & ४ भ{ला४(०ण 72 ग्योगे य-
सप्रस्ययेनेति व.
९२ 1) £ £ ०1. च्च.
१७ © तव एतशिति.
१९ £ क्षेपे उक्तम्,
३९२, २ © परमपा०; £ परभापा ; 141१848 ए16-
08 ४८ 7९९0118 बरमाः पाः.
९ © तत्पुरुषो वा इति.
१९ ¢ (कायेखे तन,
१३ ^ वक्तव्यं.
३९३, ३ १4६०] 1४1)६{१8 88४१8 1118६ 8071८ 168
पञ्चकुमारिः (कशकुमारिः).
९५९ © ०0. भविष्यति.
७ 0 मूलेषु ; 1 "0878. निसितेषु पूलेषु इति
पाठाः; 0 ०00. पृलेषु. |
९ 028०0. जरिपुरी ; © 0४8 तिपुरी.
१९० © प्रापणे वतेते । .
१२ 7१42०1101181{9 116€ध0०08 (€ 1९84198
नेवेयमि.. |
१४ © श्नीयतामिस्छक्ते भावा.
१९ ? गौरनबं ^.
२२ 7 ग. दिशुर..केः.
२३ 0 0). च.
२३ © तदेवमितरे .
३९४, २ 7 010. त्रेमातुरः.
७ & 071. दकारः ; ‰ 70 पादह.
९ © ०0. प्रत्ययोः ...वष्वनात्.
१० © प्रस्ययोत्तरपदयोरदिशसंज्ता च्चे ^
१३ © 2 00. किचित्,
१६ © तद्वति.
१८ © ोक्तमर्थन चेर.
२० © हारार्थं घटामहे शरां भिक्ष्यामहे ध-
नाः ; 7 दारार्थं शरां भिक्षामहे धनाः.
२९ © .भवतीस्युख्यते तद्धि & 2 (भंवर्तीति
तसि.
९६
० पण
३९५, २ £ ०". समाहारः. . .कृतस्वात्.
९ ¢ दशमूली.
६ ¢ प्रतिषेधः प्राघ्ुवंति.
९ 0 नान्य |.
९२ 1) 01.
१९ ¢ सर्वाणि पुनः परिः.
१९ & 010. पञ्चगवप्रियः.
१९ 0 समुशयब्र्ताययवाना.
२४ ह वकतम्यः। हो मासौ जातस्य यस्य सः
मार.
४९६, ३ 0 0? नैवं भवि.
£ © संन्तकः.
८ © मस्वथप्रः.
९ 0 मस्वर्थ दिगुससायाः.
९३ 0 किमनतरयोगे.
१४ © 2 "नंतरयाग.
९८ © इह सप्त; 7 ४ & इदं तहिं सप्त,
२० ¬ 070. बृद्यहोतारः.
३९७, \ 6 ृर्सितानि स्सनैः । पापाणके ऊ-
‡ |.
ह © ०. वैयाकरणः.
६ 0 इहोपामानार्थो ; 7 इहोपनार्थौ.
७ 0 भथान्यदेवोपमेय भन्युपमानं क इहो
पमानार्थः; ठ अथान्यहुपमानं अन्य
-हैवो पमेर.
< (© कञ्िदिर.
१९ 0 तद्यैतेनेव.
९६ 0 “लोहिनि.
२२ 0 7 खल्वपि शुः
२४ © ०. हि
३९८, ७ 0 "वच्नस्य प्र.
७ £ 01). स्यात्.
८ 0 ए शब्देन संब.
९९ 0 7? ८ -कचनस्वप्र; £ वश्वनस्वस्य प्रर
१९ £ "वचनत्वं प्रः.
१९ 0 °व चने सिः; £ “वचनत्वे प्रः.
१६ 08 2 नावदयं,
३९९, ४ £ `दुभयविशेष्य .
७ 0 07. कृष्णतिला इति.
१९ 7 ए प्रधानस्वात्तः ; 0 (त्दिशोषस्वार.
१९ 7 & विरेषकस्वेन.
१८ 1) तिलानां कष्णास्तिल कृष्णा इति.
२४ 0 भवतीव्यवदय.
४००, ४ †) -वचयनक्रुस्ास्वाः; © (कस्त्वा.
६ 7 ०71. निववे्तक व; 0 निवर्तर.
|| पाठभेदः ॥
० पंण
४००, ७ 0 कि त्यः.
९ 1 ४ 8 खल्वघ्यस्मा?.
९० (0 0". हीदे,
१९ 0 शक्यो ऽवस्थातुम्; 8 शक्यत आ.
२० 0४ & 8 प्रकृतिप्रहणम्,..
४०९, ९ 3 010.
२ ०0. च्छु,
३ © जीवतीति.
2 ? £ (द्िदितेनेति।; 0 8 (द्धिशितेन ।.
५ 0 भसमानप्रकृतिक्ृतोऽपि ; © १९
{1018 २€84108 10 फक्क.
९९ £ ०071. ; ¢ -क्ीनामुष.
२६ 7 £ £ ०01, गत०...कतेष्यम्,.
२७ 7 क्रियाक्रियका.
४०२, ११ £ 9 € वक्तव्यम् ।।, इह मा भुत हिमे-
नैतो हिनैतः ; ६५० 58716 10) 71878.
एप इ्प्ला ०४४.
२ 0 एवः शब्दो.
१४ 0 अथ कर्तरि.
१९ एण ८ भन्यतरज्र, 1) अवर्णस्य वा वणँ;
7? भवणंस्य वा वर्णं वणेस्यावर्णे; € अव.
णस्य वणं वस्य चावणें; 31" 117. अव-
नस्य वणे वणेस्याव्णं वा.
४०, २0 शकवशु; £ ०718ाणभाफ़ शयुङ्क;? &
शुङ्कवञ्जरिति.
& (0 0110. सामान्येन,
४ ^ वाटं सिं.
४ 0 0. कथम्.
७ 9 छा). 006 पुरे,
९९ £ इन युवतिःआष्व [1 1078. ]युवसिः;
8 इभ्ययुवतिः अ््यंयुवातिः ; ५4&०}1-
एष, का10 पाला्जा)8 (€ एटकवाणह
1 #6€ ६९४, 888 ६1४६ 801€ €8
इभयुवतिः अण्व युवतिः; ४९ ९४१8 इभ्ययु-
वतिःभय [भायः ]युवातैः;ए भयं वसिः.
९४ 9 & न द8०]191९4}8 तुल्यकूष्णः ; ©
शल्यमहान्; # तुल्यमहान् ; 7 सुन्य-
प्न; हि 01).
९८ © इहोभयं भवति.
२२ © सर्वकोशी.
२२ £ ०0. गोरशगववरण्यम्,
४०४, ७ 0 कातररगता स्यात् ।.
८ © °भँवति ॥.
९६ 7 8 अन्पनाल्येन महतो महातो; &
अस्पेनाल्पेनं यत्नेन महतो.
| पाठभेदः
१० प०
४०४, १४ 1) क्रुदालकेनं ; ४ कदहालपदेन ; 2 कृल-
केन, 10 "शह. कुहाकपहेन ; 9 ङुग-
लपकेन.
१६ (© सवैकोश्ी नद.
१९ ( 0 & "प९ण्णाङ ४ यवा तद्यैवरेण
२० 0८& ८ इव्येषं तवा भवति.
यदे & ०1. पटुतरः. [गतमः.
२४ 1 १००8 सूुङमवस्नतमः 81१ तीक्ष्ण
२९ © परमुच्यते.
२६ © परश्चति्चा.,
४०९, २ © अन्यपदार्थ.
९८९ © भवति । .
१९ (0 1 -सबंधः क्रियत हति,
९६ 8 तदताभिसंर.
२२ © त ठत्तो दोष.
२३ 0 भवतिहि बहर.
२४ 7. & 7? ०0. ऋटखिजः.
२९ ¢ प्रचरतीति.
४०६, ९ 0 7) 'तराद्यर्थम्,
९३ ¢ परम,
४०७, ९० (¬ ततुरीयाण्यः.
९६ ? विनाषाप्रकारकरणे.
१९ © ऽवयवविधाने.
४०८, ९ 0 उतव्सगौऽपि न.
७ & 00. प्राङा.
८ © £ श्धाने ऽन्यत्रापि.
१७ 7 £ परणगुणेति.
१९ 0 पुरणं भवति ।॥।.
२९ 0 011. ऽपि,
४०९, ७ 0 अन्येषुषै चों
१० 0 (स्तत्रापि प्रा.
१२ 7 £ & 2 श्थंमभिसमीक्ष्य षष्ठी.
९६ © देवदत्तस्येति त्रो.
१८ 0 कालः परि: ४१५९१ 18 ; 7 ०. स.
१९ ( कालः परि,
२२ 0 मृत्ताना-.
४९०; ९ 73 एकतव्रचनं हि.
२ £ 723 एकवचनतमिति.
३ © इहापि च यथा.
१० ( तस्समासस्य प्रा
१९ © अव्ययत्वस्य पृत्र॑प.
१३ ^ 1) पाठेनाष्यय.
९६ © ०11. संद्यथा.
१६ © भमाननामधी.
१८ © कतम् नञः.
68 ण
९३५७
० पण
४११, २ 0 भविष्यति.
९ © स्वाभाविकी निवृत्तिः कि.
६ © ०0). एवं तरि.
७ 0 £ करोति.
७ © निवतेयतीति.
७ ¢ कीलकप्रतिकीलकवत् यथा कीलक...
प्रतिकीलकं.
८ © ए निहति.
< 0 यद्येवं नमी.
१९ भन त्तेषां.
१२ 0 7 £ निवत,
१२ 7 282 ब्राह्मणशब्दः किमर्थं
१४ ¢ 7 £ 2 एवं चैतत्; 2 1 एवं वेतत्
१९ 0 समुदये व
९८ १0110118 {{8 17160008 € 7680.
1 पिङ्कःलक पिल.
१८ © 7 इ्येतानभ्यत.
१९ © ०0). ष्व
२० £ 0. उत्तरे पञ्चाला
२९ © समुदायेन प्रयुक्तो ब्राह्मण हाड ऽवय
२ © यण्छागं भक्षः; £ € 7 यस्तिष्ठन्भक्ष
2८ ©) 2 & 9ध्लि ऽयीमति, नित्तातं
तस्य भवति ; १५८11019 18 ६] ९५८8
(1018 1९841112.
२९ © अतश्च.
४९२, ४ © भन्निवे्सि.
४ ©? भाषाय.
९ © श्गुणो वा प्रर.
९ ¢ फमिस्येष स्वरः.
९९ © भकृतेतीद्युच्य; 7 अकृते द्युथ्य.
९९ 0 01. चच.
९८६९९ 0 कृद्योगे.
१९ (^ दभ्मव्रश्चनः'
२९ © "कषः क्रियते ।.
४९३, २.7 £ 8 ०. वष्ठीगुणेः.
५९५४ &£ तीत्रो गन्धः।.
७ £ गणन नेति
८ £ 2 नेत्यच्येत।
९7 ?£7 ०. कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्
९९ © भषति
१२ ¢ °वेक्षते ; £ पेक्षते.
१९ ( "धानाच्.
९६ 0 011). च,
२९ © पेक्षते.
„४१४, २ © पक्ष॑ते ; 8 पेक्षते.
७ ( पपेक्षते,
८४६८ 1; कारमटः ॥
+ 32 ड 33
४४, 9 0? ६६ कोरम्य. ४९६. १9 1 - ˆ=. ज सचरय्यं - (5 ०८ मासै.
८ ^; -खिय्वते चटी ।. अर्टर्थं इनि कच्छज्वय
*%४ 1) >. कग त्रः नाः. १८ `~ = --- ऊ: रागय इनि कन्छ्वय्
१ 2 ~ -ध्वकानि-न् करत्वा : ~ :0 कमा ११ 2 ८ शाट - प्रथम्म्या
अटत नवि वादा. > £ ८ नका.--उनातख.
४9 (5 गागवितकस्यव : 0 कर्मवरिटम्य ; £ 2३ 2 ~>. वसन्तः - # ह 8 एरर २६ स्स्धि
मागत्ङ्कम्व; ह 2 ऋगाक्कम्ब; कऋोक्छिरया
ह & {1८732 मागविकम्य : = ¢ 221. पया-..-चनभ्यं.
[1972.1:12 पड 102) [62 3:75 २ &@ ०2. निग-. पञ्चम्या.
नागवि्म्य & ऋगातिटम्य ६९, २ £ £ ०2- निवागणासि
0 कमान व; £ ऋम्पन वरहानि निदः
ह कमानि बष्रीवि निति
४ (; ॥2 कन-...-चवः ५१०1९ ०९: 7)
1४# 1६ ०१८८ & {टा 1६ मत्रानि; ८1.33
1४८०१८८ & 2 2.८५ गलः ८; £ 8
कुक्न..--वथः
कृर्मेरि प्रनिवेधो मवति.
५7४72५1 वृगं नसा यतरानां लावकः
। #/
६ 72 कः ; ६७ शापलः५० जकः... `
+
® 7) [, £ 01).
१२ बृद्यते ; £ 9 मन्वसे
१३ 1) ८ जातः; £ ्तात
१४ £ ददवधोनर्थक्रः,
१९ ( अनर्थक्रो व्रक्तष्वः।.
१५ £ ए ०१५ रात्तामचित इति.
१७ (‡ 07. इत्यं या ; > ००1. इत्येत.
१८ (‡ 07). कर्मनिच्,
४९१६, २ 7 01179 गार; 1 1. 3 प्रवरष्वनी-
यानां 18 ४11८7९6 ८० प्रव्रश्वुनीय, ६०५
२ ४१५९५ १८१ वक्ष्य.
९ 1) म्यपेवर.
६ 1) ध्यपेवानां.
६ € 8 07. मयुररोमनिः.
७;८ £ 07). कङ्क. .-क्थम्.
१० 7 07. भतिश्षलः.
९० £ ५106 दृदषलः.
१९ 1) ८ € प्रसेवकः ; 7 ४005 निषेवकः प्र
सेषयाः, £ परेवकः ; 0 शररीकस्यः; ©
7 8 उतीकृतं; & उरीकृव्य उर्सकृस्य
उरर।कृस्य.
१२ 1) 0111.
९९ (1 01). च.
९९ ( विस्तरेण.
१६ (1 7 ण यानित वक्तव्यम् .
१ () श्ष्कृतं
1 कजक्राम्यां धान्यतः
३ £ “०. जच्वकं प्रठ्टादामेः; ह ०
०२८६८ कच्चरं पज्डा---सम
४ ^ 00. बहिभव्रति.
^+ 7 ६ = पुनर्यत; ह ०.
४ ^ पुनःस्वरं ; ६ ०.
«५ ~ च २ वक्तव्यम् : 0 चर.
९ +€ कन्ये इव, 0 £ अस्वययमष्यवेन
समस्यत इति वक्तव्यम् । प्रप्र यक्लप-
तिम् ; 8 & ६० ० बह. जव्ययमज्येत।
अव्ययमव्ययन समस्यत इति वत्त
स्वम । प्रप्र यत्तपतिमिति; © भण
९9 मता निद्यन्वयं; ६ (मवा च
समासो वक्तव्यः|
६ अनुधाविद्त् ; 0 ६ व्याकरोति ; €
अनुव्याकरोातिः ए अनुत्याकरोत
< 0 £ 93०0. हारक्रो व्रजति,
९ £ 9०. हाः -.--तीति.
९२ 1) £ £ 9 ०). वृत्तस्य,
९६ (हारकं गतः; ८? कारको यतिः;
ह ०.
१७ (> एतटरव्य.
२० 0 समासवचनं प्राकघ्ुबत्पत्तोरिःयेषा; 2
समासो भवति प्राकदुबत्पत्तेरितव्येषा; ¢
18 प्राक्सुब्त्पतन्तेः 11 गा
४९८ ५ 7 1" 98 -समासामावाः; € ०0. नवा
-..व्रिप्रतिषपेन
७ 2 £ & 2? ०. कथम्.
< 0 £ £ ? ९रिति समासवचनात,
९ 0 07. यथा.
९ 0 श्रूत
१६ ( "गोप्यते
२० © प्ममेव तर्हि यः.
२० £ चान्येन यः.
२९ 0 श््राप्रनिषेधः समासः,
२४ © कश्च डार.
४९९, ९ 2 071.
॥ पाठभेदः ॥
9० पैर
४२९, ७ (¬ ०". स शेष.
४२०, ३ 0. पितेति छ.
< © -यतस्वापे न.
९० 1) ००. किमुक्तम्.
१० © 1) ग्रहेः प्रर.
१९ 0 -धिक्रायेपि क.
१३ 0 वाधते.
१९ 7? 8 ००. मधुनो पि स्वात्; £ ०४.
मधनो... (स्यापि स्वात्,
९७ ( ०१० सम॑तरितिरंप्रेन इयोठ़ंत्तो न
सिध्वति.
१८ © उत्तरां च । उत्तरं चाः.
१९ 0 7 न्वग्रोधधव्सदि.
२९ 09 ८ & ८ ०. अनेकस्य ष.
४२९. २ © वैतव्ययो-.
२ © ००. एक्रविेभक्तित्वात्,
४ 0 पद्यति.
® 1) £ € 2 0. यतः.
७) £& 9 "कविभक्तियोगः.
८ 7 ?& 3०. भवतति.
१९ @ 070. {16 1४७८ च.
१६ 0 इत्यव,
२२ ६ यवक्तकानीः; © यहि इदानी; ०४९ ।
१188. यदिदानीः.
२७ ¢ विशेषत्रत्तिस्तदा त॒ न.
ि तग ०,
४९ ६ 0 णण स्ास्स् ४} ४० 7. 423, 1. 8
संख्ये.
६ © सदेहानिव्रस्यर्थं; & ए ०ण.
९०७६ स्रं पर.
९ ऽस्येति ; ५1 ण. यस्येति विन
त्त्यथोते वा पाठः; ६ 0".
१९ © “संख गाभ्यां विनक्तयथं्वायं उप. ।
९३ ¢ अपरश्चाह.
१९ ( कथमजन्यस्य.
१८ © श्वुक्तम् किमुक्तम् गुणवचनानां
हि श~.
२२ © भवति.
२५ £ स्यात पर नाम चब्दः शब्दो ह्येषः शच्च
ह्यसंभ-.
२६ © यथासिधीयते.
४२३, २ ¢ प्रातिपदिक्रत्रविः.
३ ?€£ 8 'प्य॒क्तम् किमुक्तम् करमर.
& (¬ भविष्यंति.
१२ © षष्ठधयः.
१२ (^ संपन्न इति तत्रापि प्रा.
।
॥ ) क 1 ह ।
५९९
प० पं
४२३,२९ ए 7: पपृवस्योत्तर.
२२ 0 पदस्य लोपो.
२३ © ऽस्वति; 9 ४ £ कण्ठेस्थाः कराला
अस्य.
२४ © पविक्रारस्य ष; ] & ०0. {€ 110९.
४२४, २ 0 भरस्येति क.
४0 लोपोका.
६ £ थनाव.
$ (70. वा.
९९ ¢ “धिकरणेषु.
१२ ¢ शश्रयणीयम्,
१९ 0 2 उत्तपरिगिणनमपि.
१६ 0 070. कतंब्यम्.
९ॐ ) (@ 0170.
२३ 0 यदात्तिकसुज्र दति.
२४ © कर्मप्रवच.
२९ ¢ हरिति व.
¦ ४२९, ९ © कमप्रवच.
|
३ & ॥ 071.
£ (¬ किम्.
९ ¬ ०7. अथ.
< 1) £ £ ठ ऽस्तिक्षीरित्य॒पर.
९९ बैपोस्ते° 91] 38. ९२८९१ ह,
१२ 0 £८& 2 निपाता भवर.
१९ ¢ “चारी तवैतत्म?.
१९ ¢ स्वरे च दो.
२३ ¢ ०९ करवाणीति, स प्रत्याह: € स
भह.
२४ 1) £ 3 ५ ०४ 11९८५11०" ए करिष्प इति.
२६ (^ इत्युक्तेऽपि सं०...ते कट.
| ४२६, ३०). स.
१३ 1) ४2 “त्रस्परमभिसं 7 व्परस्वरसं°,
२१ ^ य॒य दात.
, - २४ (~ परचरतीति.
२९ ¢ प्रभाति.
४२७, ९ 7 } ०. उत्तरे पञ्चालाः.
१0787 नीलः कपिल इति.
२८ प्रत्नो द्रोणशब्दो.
< (~ 0 ०7. सु.
९ ( तदापि सिध्यति.
१० (¬ ०). तद्यथा.
९७ (; द्शताविति दि.
२३ 1) & ०1. सतास.
४२८, २ ¢ सुजर्थ उच्यते
९९ 0 £ 0. ; एण द 183 106 जनाण्ड. @
जशिष्यः ..ध.यिखान् (७४16.
९४० | पाठभेदः ॥
० पण १० प°
४२८, ६ £ गवाथाभनिधायित्वात्. ४२२,११९ 0 ? भेकोर्थः.
९ © ०). एषु, ९७ 0 बहूवष्वनमस्ति.
९० 1) 88 १0६ एन ९ग]8४्६् गच््णशङ
{€ 1018 11०९,
१९ 0 समीपे दशा
१२४८९8० त्रच प्रर,
१२ © कमुमशक्यम्.
९१४ ? ऽमस्वथोर्थोँ.
२९, २९०. भो.
४ (¬ व्यव्रस्थाश्ष्दः।.
९ ७.4 1 दिग; ०८४८ ४38. दिगुप,
छ 0 "शाब्द इति दिर.
९९ @ 081. लक्षेम.
१४ © 7? °ऽमद्वथौर्थो,
१९ © £ 8 ए कनभावा्थो ; ए ववार,
९९ (0 01. क्रि यमिधानाव्.
२४ © पृतं दी.
२४ (01). केशाकेशि,
४३० ९ 0 दीर्धः स्यात्,
४ © पूवयो,
९ 0 1) ए पाठेनाष्ययसंज्ाया.
१२ 0 नाना अधी.
९६ & ? यथा गुणवचनेषु <0"€ गुणव च-
नना.
९७ © कंवल इति शुष्पौ.
९८ ( 0). च,
१८ 0 भवर्तीति.
१९ ¢ भितो समा.
२९ ¢ वकृ चश्चोति £ मीमांसकश्चौति.
२३ © उपल्नात.
२४ 0 ता.
४३९, ४ £ & ए १1४९8110 7 घखय्या.
६ & € & ०1९1911} ? सरणे ह.
७ € “करणे इर.
१९ 0 “षिच चाः.
९६ ¢ यदुच्यते.
२५९;२६ (© ०११.
४३२, ९ © साथौ; 1” 77878. साथंको पाग.
९ 7? 7 शस्थित एक एकाथ.
हे ०. च,
४ (10 51. दावा क्षामेतिं पाठातर
«९ © £ 5 सन्नमेते. ॥
९ © समृशथत्वात्सि; 8 7 ०". समुदा-
यस्य.
९९ ¢ यूथं चतं.
९.७ ॥ यिका; ०४€ 88, यदा इहा,
१९ 0 श्ल नोपपद्यते, दक्षेण न्यप्राधा्-
२० 0 केन दाब्देनान्यस्य; £ 8 भश्धस्यथच
रक्ष,
२२ ¢ "केन दाब्केनान्यस्य,
२२ (¢ च्वेहेतवुच्यते.
४३१, १८ स्प्रक्षिरतीति; & तीति व्युस्पत्त्या
श्रक्षिः.
९ 0 "धो.ऽव्येतः,
२ © श्रक्षोऽन्येत,
९० 0 & ०पष्ाण्भाङ़ £ वुननिंयवम.
९३ (~¬ हित इति अन्धः.
९६ ¢ ०111. न्यग्रोधप्रयोगः; 0 7 ध्ण्टः
0४६,
२२ © भनुतावरवोन्यो.
२२ © °नूतवेवन्यो.
४६४, ९ © ¶त्किमेतो
१९ षेव अिस्विस्यमोधावेव भशो-
९ 0 प्रोधावेव.।
३ £ 2 सेयं यर.
४ 011 91. दतरा क्षामेति पागतर.
४ ^ एतदपि ; ०. तक्र.
५ © ०7. ऽपि.
७ 0 श्ट कार्यस्यासं° 7 चब्दे कायासंर
९० & ए समुचये । .
९० ? £ 73 अन्वाष्वये | ,
१९ 8 ? इतरेतरयोगे । .
९९ (3 श्॒क्षन्यम्रोधाविस्यक्ते,
१२ £ ठ इति । क्षश्च न्यमोधश्चेव्यक्ते समा-
हारे. ,
१३ © तजायमर्थो.
१६ ¢ दश्च समासः.
१९ 8 7 ०70. हुविंहतिः.
२४ 0 "करण स्व.
२९ 0 य दैतत्सम, 10 7810. यदिहिवा पाठः.
४३९, ९ 7?8€ 2 सर्वाहि द"
२ 0 (डव्रतीति.
९९ 7 £ 2 “निष्टं प्रसभ्यैत.
१८ © उताहीस्वि.
१९ © “शब्दस्य पु.
२० अथातन्वं ; © भस्त तद्यतंतम्.
४३६, ९ अस्तु तावत्त; 0 भयवा पुनरस्तु त.
३ 0 “शड्स्य पूर.
॥ पाठभेदः ॥
ए० प०५
४३६,- ६ © वरपनि०...-ङ्कन.सह स.
९२ ? £. 8 अनेकस्य प्राः;
81618४० दोषे, .
१८ & 8 & ०1181911 ‰% ०.
२९ £ ०010. लघ्व. ... 1, 22 वक्तव्यम्.
२९ © & & » #€. ° 6९८ (@०,1९६९
शरगिय; 2 शरवपिं; 1) सुरानीं जं (1);
६ दरसी यम; प९80067078 हारदही-
देम् ; 8९ [०४९ 476, 1. 1.
दे$, २ 8 23 01, न्रातुञ्च...वक्तष्यम्,
३ © & ००४11 £ अल्पीयस्याः; ४६.
78486८8 1110 8 00४0 76१0178.
४ © ०0. संस्याया अल्पीयसः.
£ ष
दा ङरजमग्धी.
२९ £ 98 ०. संवस्सरजाता; & ०". खः
जाता.
४३८, -३ ¢ पराया.
९००. तु
9&28नवा कर्त; 2 गहण्णाङ मच
कवर, ११६६९९१ (० न वा कतै.
९० © असिपाणिः मुहालोद्यतः.
१९ 0 & 01181811 1 दन्तं उनाभ्याम-
ल्पाख्तरं दि, £ 8 0. विभतिषेधेन.
१३; १८ (© उष्ट्रं.
४३९ ८ £ ? अष्टापद इति.
९१४ 7? & ठ अष्टापद इति.
६६ £ 8 प१कान्यस्य.
९८ © भवतीति,
२० © भविष्यतीति.
४९०, ४ 7? £ ए 011. अंनभिहितस्तु विर्भन्तयर्थः.
८ ए ६१०8 हि ४प्ि' अभिहिते.
९ 0 & ए तेष्वनभिरितेषु ...^त्पात्िनेविष्य;
ए गण्] तेष्वनभिरहितेषु .. -°स्पत्तिने
भविष्य; ए तेष्वभिहितेषु.. .°स्पात्तिनं
भविष्य>; प 8 ०1008{{8 1९४8 तेष्व -
भिदहितेषु.
१० 0 प्राप्रोतीसि.
१९७ &£ स्वं च करोषि.
२० © हदानीयं शौगनमिति.
२९ हि ममा; 61० "0918. स ममेति पाठः.
४४९,२;३ 00. च.
४ £ 23 000. हि
९ 7 010.
` ९० 0 विनण्वरेवाः.
९३ £ 9 071.
2२९ © भक्षिता ; ४ शभिक्षिती ; प४००१६६८६
९४१
१० प°
४९९, < 0 ०0. जु,
१९ © सामयिकी विन्तिः न नि.
२९ © दशंनीयं शोननमिति.
४४२, ३ © एनमनि?.
१० 8 ०071.; 6 & ग्ण £ न वान्यतेर-
गाभिधानात्,
९३ 0 श्धानेऽनभिहिताश्रया ; 10 ध.
ऽनभिधाना पाषा; £ ०. चानभिधाने,
२४ © यस्तिष्ठति,
४४३, ९७ (© 011. हि
२० < ^ 011.
२६ © हवितीयाभिधामे.
४४४, ९ 0 ? दितीयाभिधाने.
७ £ £ ए उनसे.
१० एर हा देवदत्तम् ०7" न... किचिष्,
९३ © कमेणीत्येवं,
९९ © भवंत्येव दती.
१९ ८ £ यद्यवाग्वार,
२० © अप्नीन् प्री.
२९ © प्रक्षेपणे वर्तेते ।.
४९ तद्यथा; 2 यथा; © णण.
२४ ¢ “शालंकायनामर.
४४९, २ 0 “शब्दो न दृष्टा
२०९४ तत्य को.
8 8 8 सहायो हितीयो.
७8९४४ स्वामाश्व,
९४ £ ? स्यादिति । लादिभिरभिहिते द्वितीया
मा भूत् । भास्यते.
१६ 28 इह हि दोषः स्यात्.
२० © ०. करोति शकटं,
२४ © सकमेकरा अक.
४४६, २ © भवतीति.
४ © स्तवथ वचनम् |.
३ © क्रियापवग्गे २ इति.
९ ए क्रियामभ्य इति ख क्रियामधभ्य इति च
वक्तव्यम्.
६९ 7 £ ए विध्यति तयोस्तन्म *
९७ ? £ ? व्रक्षं परि वि? ००. विद्युत् । वृक्षं
परि । वृक्षमनु ।
१८ £ 8 0. प्रति मातरर.
२९ © तनायम्थो.
४४७, ६९ 288
२० £ & 9 ०1. स.
२ ८ £ 2 स्ववष्वनान्तु सि.
४४८, ७ 08 801. स ; ६ 195 1४,
च *
हि.
५४१
१० प°
४४८, ८ 7? £ ? स्व वखनात्तु सिद्धमिति.
१३ (¬ 001.
६४ £ & 2 00. कवीवधं गण्छतीतिः.
९७ (¬ 01". तज.
२२ ८ (नध्वर्नाति सिये.
४९, ९ £ 9 भस्वनश्चायमनपवादुः.
६ © 2 &£ चतुभ्यां वि
९९ © -यते सोपि श्यपाभ्याया्थां भवति
९८ © भवति हि ताद
९९ © तदर्थेन शब्देन सह. ¦
| २९ £ 2? ००1. ४116 8९८० कल्पते.
२६ & & & ०7&्1०६]| ङ 9 ०,
४९०, २ ‰ 070.
९९ 3 010.
९२ © ००. अलमिति..-क तव्यम्,
१४ £ ०. मल्लाय प्रभवाति मलो.
१९ इक; £ दागालै.
९९ 0 गिष्विति सद”; इमेऽनाषाः.
२० 2 ८ ्तीणे नाव्यम्.
२० 0 स्वा भन.
२९ £ + (इुक्तं श्रा ८82 श्राद्धमिति
२९ (येप्राणिषुनेष्यतेते ऽना
४९९, ९ 17818 1760४008 (0८1९0198 प्राति
कुष्य ; ( प्रहणं कतैव्यम्
२तनस्वाठः; ए्टदणंस्वा मः.
२8 8 0,
४ (€? याज्ञिकः; वैयाकरणः.
५९ & 5 ०. जिद्रोः...'्गाति.
७ 0 इह तहि प्रक्र°.
८ 89 याज्ञिकः.
८ £ 2 वैयाकरण.
९ © तेनाहं ज्ताये.
१० 0 ण्व्य स्यान्न प्रयुर,
९९. 7 £ 23 समेन पयति ॥.
९१९ 0 क्रणातीति.
९२ 7? £ ८ ०"). जिः. ..ननातीति,
९३ 0 क्रीणाति,
९४ (¬ 011. साह ०....गातीति,.
२० © प्रधानं कतौ.
२९ © इदे तहं प्रयो ननम्.
९३, ९ 0 (वापक्राल उपस्थिते तद्°.
२ £ 7 0. भविष्यति.
३ 0 विनक्तिवंली; € भक्तबैली?; 2
“र्थकं उपपदविभक्तिः बर्लयस्त्वात भ-
नापि,
४५
॥ पाठभेदः ॥
प्० ०
४५३, ६ 0 0विभाक्तेवेलीर; ए अन्वजराप्यपपदवि-
भक्तेः कारकिनक्िवबंलीयसी भवति ।
कान्यत्र ।; 2 ०77्०४)।5 कारकविभ-
क्ति बंलीयसीति प्रथमा भविष्यति ।
अन्यचाप्डयपपदविभन्तेः कारक्र विभक्ति-
बीलीयसासि प्रथमा भवति । कार
[८९1९ ४78 । कारकविभक्तिबेलीोय
स्स्वाद्न्यत्राप्डपपदविनन्तेः कारकविभ-
क्िबेलीयसीति प्रथमा भवति । अन्राप्य-
पप भविष्यति । कष; 8 कारक-
विनक्ति बेलीयसीति प्रथमां भविष्यति ।
अन्यज्रापि उपपदविभक्तेः कारकविभ-
क्ति बेलीयसीति प्रथमा भवाति | एवमत्रापि
उपपद्तिनक्तेः कारक्र विमक्तिर्वलीयसी-
ति प्रथमा भविष्यति । क्षा, 8 कारकवि-
भक्तिबेलीयस्स्वात् । अन्यत्रापि ...1;16
€, 0 एवम भविष्यति 87ण्टु
०४६
ई भविष्यति; 0 भवाति ; 10 '791.भविष्य-
तीति इति पाठां
९० & <€ ०1६०९117 ए अंगादिकारतश्वे
९६ (1 07)
९९ ? & भतलक्ष
२१९ ¢ “ग्भूतलक्षर्णं तत्र
२१९ (~ श्रुतस्य लक्षणं पृथग्भूतं ल
२३ ¢ भूतस्य लक्षण इति
४९४, २ 0 षष्ठी भवाति विप्रति
७ & 8 शव्रिभन्तेरपप बः.
१९ 2 £ 8 071. विभक्तयः.
४५९, ९ 0 प्रासादाप्परक्षत प्रासादमारुह्य प्रेक्षत
इत्यथः.
® 09 & ०110811 ‰ ०.
१२ तज ; £ & 8 ततः.
१६ 0 मासे इति.
१७ ( 01. ८९ 18! चच.
२० © ०011, क्रि
२९ 8 ०८" भोवात्, अन्या वान्या प्रातु-
भेवति
२४ £ 8 निद्त्य
२४ £ 7 ००. कात्तिक्या...परदुश्यते
४५६, ४ £? निद्धव्य
९ £ नेषु ततः सां ८ ओष्ठ मतेषु ततः
सां
८ 0 (स्तादेषवादः.
९९ 0 भ्रामस्य |.
|] पाठभेदः ॥
¶9 पं9
४९६, ९२ © श्येन सिद्धं.
१४ © ग्योजनम् तत्रा.
९७ किमयम् ; © 1" पश. क्रिमिदेन प्रक-
तामिति पाठः.
९९ 8 7? अनधिकारः
४५७, ॐ (¬ 070. प्मीं.
७ 0 £ 8 अन्यादि.
९० £ £ ए °ग्ड्क्रश्चुतयो.
९९ 8 & 07810211 8 ०४. यथौत्वशण ...
| भविष्यतो.
| ९२ 0 °न्यविमः.
| ९३ © प्रष्त्तस्यापवादो.
१८ © स्प चमीप्रः.
२० £ ए ६ दक्ंनाइनथंकः प्रतिः.
२९ ६००१. नवा
४९८, ३ £ ए असावधाती.
£ © परिगृणीता याज्ञिके.
९ 0 भ सपमी.
६ © ०, च. .
६ असाधुः पितरि; ४ असाधुमातुकले कृष्णः,
® #॥ 0 010.
८ दरिद्रा; ए 4 & ०१6 £ मुखो.
९९ 0 सीनेषु उद्धा बद्धा; + ०121४17
°सीनष व्रा; 0 71 11४, दस्द्रिष्वा-
सीनेख ऋद्धा यजते पाठः.
९३ ^ 1, 07,
९४ मुखौ ; 0 ;० 9६. दरिद्राः पाठगातर.
९६ & ए 0,
१९ £ पुष्यलको ; £ 5 युक्रलको.
४५९, ९ प्रस्थितो; £ ? गतः 00४ ध11९8.
५ © तस्येति वक्तव्यम् ; 11 ण्ट" तज
प्रमी वक्तव्या. ,
७ (¬ खयल्वप्यवदयं.
९८ © मातरं परीति ; £ 2 मातरं प्रति.
४६०, २ £ ए ०1. ४१८ 018 इति.
४६९, २ 197४९: प्रातिपहिकायंम्रहणं किमथे.
मिति काविस्पाठः.
२ © मीचैरज्ाषि.
# ¢ प्रथमाति.
१० £ ? यज्रैतानि सवोणनि समु
१४ © ? एवमान; 010 पटः एतन्मा
एवेति पाठा.
९९ 0 “विशिष्टेषु.
२०.0७ & णपाहःण्भार £ संबोधनमामंजि.
२६ £ ए वीरः पुरुष इति ; ८ वीरः पुरुषः वी-
रपृरुष इति.
९४२
ए० 0५०
४६२,९० हष्िः 01181"811‡ 1: श्स्तीति गम्यते
१२ 7 हिते हि प्र.
१३ © 7? -हिते हि प्र.
१९ (¬ 0). किमुक्तम्,
२३ £ 2 तावच.
२३ 08 न वाप.
४६३, २५७४८ प्रकल्प्य चाष.
(0०0). का, षो.
७ £ £ 3 (निवमस्तदा य्यः.
१२ ? £ ? -ग्याञ्वया.
९१४ ( नाम विर.
१५९ 2 £ + तद्यथा, ०€०1< समुब्रः.
४६४, २ 0 भविष्यतीति,
९१९ (¬ 70. इति.
१२;९३;९७ 7: £ ? “शाब्दस्य प्रः.
१८ ६९7११६५ तद्यथेति । प्रातिपरिकाथोना-
भित्यथं : । चित्त प्रातिपरिकाथानामि-
व्येव पाठः ॥ ; ¢ & ०1११7 प्रा
तिपदिकानां.
२९ ताः कडा; 09 00). च,
२९ £ ए निमित्तस्वेन नोप.
२४ ? € 2 षष्ठी भवति एव.
२६ ¢ 00. त॒,
२७ © वाह्यार्थ°; ए बाह्यमथमपेश्येति.
४६९, ९२ © मातृशब्वासिपिटरब्ठात्.
१४ †? £ 3 भवतीति.
९१६ 8? यदा ख कर्भ.
१९ 1 £? चोर.
४६६, २ 8 गां निन्नाति; £ तिध्रति (कणा०ण्न्गा).
२ 0 प्रतिरीष्यति.
* “३ @ {‰ & 8६प९४५ न्रामर्व,
९ & £ & 3 ‰ 0).
१० ए राश्रीरिति; £ तस्ये ख्वौ जायते यां
मलकवहाससमव तिलो श्रीरिति. 8
सस्थे खर्वो जायते मलवशसं संभवति
तिस्रो राज्ीरिति,
१९ ५ या अरण्ये भठति तस्थै.
१९ 6 या परशंशी तस्यै मुख्बऽगल्भो, &
हीतः काधि ०रशः ८ 1०८; &2
^प्रगत्मो.
९२ © था ष्यभ्य्ते.
९१२ © ¢ £ प्रालेखति.
९३ © "वस्मारी.
९३ © ¢ धावति.
१४ 0 निकृति.
५४४
१० पं9
४६६, १४ ¢; कृताति
१९ © ए उन्मादको
९९ 0 मनार्यै.
४६७, २ कि कारणम् ; © खतः.
५ © धातोर्हि ये भ्र.
९ 0 भूत॒.
१० £ & 0८811 ? तकृदंतकमर. -
१९४ (© अथाक्रियः.
९६ 0 कि तर्हि.
१९ ¢ & 0111. न॒; 1० 13 1४ +8 ६०१८५.
२४ & ठ निर्वैतेते.
२६ 0 शङवतीति.
४६८, ९ 0 कटमिति ।.
८ देवदत्तस्य यत्तदत्तस्य काः.
९ £ 80). प्रयोगे.
९७ 7 011). दोष.
१९ 0 क्रि पुनः; 20 णश. कथं पुनः वा
पाठः.
२९ 0 तद्यथा ए९णिर क्षमृ्रः.
२२,२३ © छुप्तम्, सुप्तः; 11 "181. घुपानाति
स्थानचतुश्ये पाठातरं.
४६९, २ £ क्रिकिनोः प्रतिषेधार्थम् 8 ०५४.
४ 0 परिः साम.
१२ £ दिति त्तास्यते.
१९ 0 नल ङक न लोक इति; 1प पाशा.
ल ऊक लोक.
२३ & 73 & ०1&०१]फ ए नटमा.
४७०, ३ 7 £ 8 चोरस्य.
३ & 8 & गक्ाण्शाङ् £ ०. बृषलेस्य
द्विषन्.
९ ब्रस्ययग्रहणे; © प्रव्याशारम्र., ०८ प्रत्यय
ा1८६€ा) ०९१९ 1४,
६ प्रस्याहारप्रहणे ; ¢ प्रस्ययप्रहणे; £ ए प्र-
स्याहारे.
९० £ 0 070. ^
९२ 0 ०7. तत ; 1" "878. तत इन इति
पाठतरं,
९३ © ४९ गमी, कि प्रयोजनम् संख्याता-
सुदेशो मा भूदिति.
४७१, ९ 0 भवतीत वक्तव्यम् ।,
२ © शास्वा दति.
२8& 8 तरिं निषेधः प्रा,
ह ५ साघ्ना।.
३ 8 8 & 05 शाध्टऽधग £ श्रासिरेवैषा.
५ © यजोमयोयुगपस्प्रयोगो.
| पाठभेदः ॥
१० पण
४७१, ६ © कमेणीति भवति; ८ कर्मणीति भव.
तीति
3७२, ९ (ग 'भंविष्यति.
९९ © प्रर्यधिकरणम् ।*
६ © बह्थयास्य.
९३ © चानुप्रयोगो.
१९ © तसर्हाति वै.
१९ £ 8 एकदोषे च.
२२ 0 श्क्तष्यम्.
४७३, ९ 0 ताद्धेतप्राते.
६; & ए ०. समाहर कस्वात् म वैतत्.
१० £ ए 01. एको. .तस्थकत्वात्.
१० © भविष्यतीति.
१७ £ £ 8 ००. दुन्दूश्च.
४७४, ९ £ 7 01,
३ ^ ४ £? & 0.
५ £ उदगास्कोमोद० 8 उदगास्कीमोद.
® ६ ०1; 0 अनगरःर |
८ मथुरा : © 1 एष्ट मधुराः पा.
९ £ ए णार; र 2 इ्प्ल ०ण४,
९० © कौतवता च हौयक्रितवते.
९९ ए शाल्किनी -.-'्टाूकिन्यो
१६ 7? £ 3 पतति ते क्षु.
४७९, ३ © 'क्धालवना; ^ प्रागादशंनात् प्रस्यद्षाल -
वयना., 7 प्रागदच्चोत्मस्यद्धालवचनाः.
& (0 किल्किधिगदिकः, १००१८ € 11९ ष्
पा; ६ 8 -गंधिकरं; ^ किष्किधग-
ब्दिकि ; ए किष्किन्वशब्दिकिम्.
# ५ °क्रोभ्यमिति; + °क्रोव्यमिति; ए "कौ -
न्त्यामिति,
९ (© येक्तेः पाः.
९३ (© & 01121011 ‡ गवेलकम्.
९७ € ? शश्भुनिक्षुद्र.
१९ 23 ०0. बर्रामलकानि ; १5०1४
168 ७0८0 1€841118.
२९ & ? शकुनि.
४७६, ९ © 7" पण. शारहीषे शरशीषौः पागं-
द ~ यत्त्र
४ © अथवाविशे.
६ ¢ & ०&०४11$ 7 पृष्विप्रतिषेधः,
® 78 ४ इहे विरोधिनां येषा.
१९ © & ०781०911 7 भवति विप्रतिषेधेन.
९६ 0 £ लिगस्याव.
९८ © & गाषण्णा ? पच्युददे नपसक.
१८ ¢ {6 अश्ववडवम् , पशवडवं,
कर,
|| पाठभेदः
० 0०
४७६, १९ 0 वचुह्दं नपसक.
२९ ¢ ४७1८6.
३ 0 एकवदूचन
२९५ £ ए एवं विज्ञास्यामि इह
४७8, २ 0 01. स
३ © मश्ठिगस्योते,
< (¢ प्रयोगे स्यात्,
९ © ब्य॑ष्ययानां सं.
४७८, २ © अन मीति
२ © कर्मधारय
६ 0 परस्य ह्िगं
७ £ 071. यथां ; ? स्समासस्यापि स्थाः.
९०,१९ 13 010.
९३ © ०१. अलपूर्वै.
१४ 0 “समासेषु.
९६ 1485. “हिदयते.
२० 0 07),
२३ ¢ "पसजेनहस्वस्वं.
४७९, ९ ( 0111.
२ © दियते.
४ ५ ष्याठौ चनो.
६ © “ननैव शक्यं.
८ ७ परस्यैव परवदिति । कथं तर्हिं । पर.
स्यैव.
१३ 7? £ ८ रभ्यते.
९६ ” £ 8 समानाधिकरणो भः.
९९ 4 ०,.; {ए 01, {1018 ६१५ 16 01[णजा7ह
अनु.
२० £ £ 8 ग)". सुक्तवाक्र
२३ © नपुंसकस्वं २व; ^ महः । नवु
७८०, ९ ^+ & 3 £ 00.; त पर्थंस
। ¢ ^ 01,
६ © सखियां २भा- ^ सरिया ॥ ना
8 (~ ए 01,; ^ वाबंतं। स्यां
१० © नलोपश्च २ वा; ^ रलपश्च। वाच.
१० 2 0111. दद्ातक्षम् ठ रातक्षी.
१२ 0 न पाज्ादिभ्यः पाज्राहिन्यश्च प्रतिषेधो
२ व न पात्रादिभ्यः पाज्नाः; न
पात्रादिभ्यः पात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वम; ए
00. पार्जाः . वक्तव्यः.
९४ 0 अधशचांदय २ इति.
९४ & & 1" 108. 2 कषायं काय
१९ & 9 & ४९ ९1८6801 7 सारकर सारकर
69
९१९
99 प ©
४८०, १९ © वत्ति तथा निरद॑शः कर्तथ्यः । न क-
तव्यः । बहव चनः.
४८१, ९ 8 9 06९ & ०९1० नुकथितमाज्रम्,.
ह 0 °मेव यकन; £ ए °मेवानु" ,
0 रब्रुपस्य लोपे.
® 0 '्डात्तमेव व; 3 “दात्तस्वं वर.
< £ 28 & ४२ ०1४61१४० ‰. 0€76 & एलन
अचादे्ा.
९३ © ण. शिस्करणं क्रियते स्वादेशाथंम्.
१६ 2 न वास्यविः
२० © अर्थवत् अकार.
२ © चवश्नप्रयोजनं
४८२, ३ 8 5 011; क्ते; 10 2 5 प्ल ०८८
३ £ 28 & ४९ 91८० ए एतषनुडात्तः,
६ © पूर्वं उदात्त
७ ( कृते प्रत्ययः पूर्वै उदात्तः.
६६ © ऽधिक्रारा भवंति ।.
२० ‰ £ 8 00.
२९ कर्तव्यम्; ? वक्तष्यं; £ 7 वक्तव्यः.
४८३, ९ © ददिष भदेशेषु कृतेषु.
१९ ए ग). पिस्स्यम्.
२२ @ वक्ष्यामीति.
४८४, ६ ? £ ए आर्धधाठुक्रे वि;
ठव । तज्राः.
१३ 0 यदयं ल्य.
१९ © तन्न कर्तंध्यं भवति.
२४ © प्रधस इति.
४८९, ४ 0 वधादेशे.
७ 88.01
९७ 0 ननुर्ब॑ध क्रियते
९७ ¢ क्र विरेषणायेम्; ? विशेषणानयथ
४८६, ९ ए £ 2 गाकुटादिन्य इति ह्युच्य
६ © ०10. प्रयो ननं; ख्याञ.
७ ( भवतीति.
८०७४४६८ ०णा.; 0६ ‰ 078१ ६10)
९08 "€ ०14 प्रयोजनम् ०{ 11९ म.
१९९ (ण) „ `“
१२ 0 & ०&ःण्णा]> ४ कारकति
१६ © मेरितीति
९१७ 0 समा शोषा.
२० 2 प्वहानां टेरेष्व.
(~ (विषय
१६५१४ 10 106 ©।०५॥81100 068॥ 0 20#
(401४681१ 21 81101018 । 1018४
01 †0 {09
0 ग1।10॥4 2६०७।0०।४॥॥ 1180007 # 41111
8100. 400, 71600006 1810 51९४110
(101४881४ 01 (81101018
01670000, ©^ 94804-4698
0 ॥ 800५5 ^. 8£ 0६00110 ^£ 7 0445
2-70000॥ 10808 1)8# 08 1606४86 0# 0809
(415) 642-6753
1-/68/ 10808 70)8% 06 16008060 0# 01109100 00०68
{0 ॥
0606४818 8009 16008068 708 06 0806 4 688
0110 {0 0४५6 0816
01६ ^6 3170760 8£। 0४४
^ 02 8 1५५८
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५ तथः
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