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Full text of "The Vyâkaraṇa-Mahâbhâshya of Patañjali"

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१. 1.10. 


72००८ (०1९५, -2/८7८॥, 1880, 


॥ अथ राब्दानुरासनम्‌ ॥ 


अथेस्ययं शाब्दो ऽधिकारायेः प्रयुज्यते । शब्दानुशासनं शालमधिकृतं वेदि - 
तघ्यम्‌ || केषां शाम्दानाम्‌ । रीकिकानां वैदिकानां च | तत्र लौकिकास्तावत्‌ | 
गोरश्वः पुरुषो हस्ती शाकुनिर्मृगो ब्राह्मण इति | तैदिकाः खल्वपि । शं नो देवी- 
रभिष्टये | इषे त्वोजं त्वा | अभिमीके पुरोहितम्‌ | अम्र आयाहि वीतय इति || 5 


अथ गौरित्यत्र कः दाब्दः । किं यत्तत्साकलालाङ्गूलकज्ुदखुरविषाण्यथेरूपं स 
शाब्दः | नेत्याह । द्रव्यं नाम तत्‌ || यत्तर्हि वदिद्धितं चेष्टितं निमिषितं स शाब्दः | 
नेस्याह । क्रिया नाम सा || यत्तर्हि तच्छुङ्को नीलः कृष्णः कपिलः कपोत इति ख 
शाब्दः | नेत्याह । गुणो नाम सः ॥ यतर्हि तद्धिन्ेष्वभिन्नं 0िननेष्वच्छित्नं सामा- 
न्यमृतं स शब्दः | नेर्याह । आकृतिनौम सा || कस्तर्हि शाब्दः । येनोच्चारितेन 10 
साज्ालाङ्कलककुदखुरविषाणिनां संमरत्ययो भवति स शाब्दः || अथवा प्रतीतपदा- 
येकः | लोके ध्वनिः शाब्द इत्युष्यते | त्था | शाब्दं कुर । मा शाब्दं कार्षीः | 
दाब्दकाययेयं माणवक इति । ध्वनिं कुवेन्नेवमुच्यते । तस्मादूनिः शब्दः || 


कानि पुनः शब्दानुशाखनस्य प्रयोजनानि । रक्षोहागमरष्वसंदेहाः प्रयोजनम्‌ ॥ 
रक्षां बेदामामध्येयं घ्याकरणं लोपागमवणेविकारज्ञो हि सम्यग्वेदान्परिपालयि- 15 
ष्यति || रदः खल्वपि । न सर्धीरिद्केन च सवोमिर्थिभक्तिभिर्वेदे मन्त्रा निगरिताः । 
ते चाबहयं यज्गंतेन यथायथं विपरिणमयितव्याः | तात्नावैयाकरणः शाक्तोति य- 
चायं विपरिणमयितुम्‌ । तस्मादध्येयं व्याकरणम्‌ || आगमः खल्वपि | ब्राह्मणेन 
निष्कारणो धेः षडङ्खो वेदो ऽध्येयो ज्ञेयं इति । प्रधानं च षटुङ्गषु व्याकरणं प्रधाने 
च कृतो यज्ञः कलवान्भवति | लष्वरं चाध्येयं व्याकरणम्‌ । तब्राह्मणनावइयं 20 
हाष्दा जेया इति | न चान्तरेण व्याकरणं रषघुनोपायेन शब्दाः राक्या ज्ञातुम्‌ ॥ 
असंदेहाथ ध्येयं व्वाकरणम्‌ । याज्ञिक: पठन्ति । स्थुलए़षतीमाभ्निवारुणीमन- 
द्ाहीमालमेतेति । तस्यां संदेहः स्थला चासो एृषती च स्युलष्षती स्थानि 


१ भा 


२ 5: ध्यकछायहाभाष्यम॥ { म० ९.१.९१. 


` पृषन्ति यस्याः सा स्थुलपुषतीति | तां नावैयाकरणः स्वरतो ऽप्यवस्यति | यदि 
पुवैपदप्रकृतिस्वरत्वं ततो बहू व्रीहिः” । भथान्तोदात्तस्वं ततस्तत्पुरुष! इति ॥ 
इमानि च भुयः शब्दानुशासनस्य प्रयोजनानि । ते ऽद्राः । वुष्टः शब्दः । 
यदषीतम्‌ । यस्तु प्रय । अविह्ंसः । विभक्ति कुर्वन्ति | योवा इमाम्‌ । 
5 चत्वारि | उत त्वः । सक्तुमिव | सरस्वतीम्‌ । दशम्यां पुत्रस्य । देवो असि 
बरुणेति || 
ते ऽतः | ते द्राः हेलयो हेलय इति कुरवैन्तः पराबभूवुः । तस्माद्भाद्मणेन 
च म्टेच्छितत्रै नापमाषितवै । म्लेच्छो ह वा एष यदपराब्दः | म्लेष्ा मा भूमेत्य- 
ध्येयं व्याकरणम्‌ ॥ ते ऽङराः ॥ 
10 ` इष्टः शब्दः | 
दुष्टः शब्दः स्वरतो वर्णतो वा मिथ्या प्रयुक्तो न तमथेमाह | 
स वाग्वज्रो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्ररात्ुः स्वरतो ऽपराधादिति ॥ 
दुष्टाञ्दाब्दान्मा प्रयुश्महीत्यध्येवं व्याकरणम्‌ ॥ दुष्टः शब्दः | 
यदधीतम्‌ 1 
15 यदधीतमविज्ञातं निगदेनैव राग््ते | 
अनपभाविव श्ुष्कैषो न तज्ज्वरति कर्िचित्‌ ॥ 
. तस्मादनथेकं माधिगीष्मदीत्यध्येयं व्याकरणम्‌ || यदधीतम्‌ ॥ 
यस्तु प्रयु । 
यस्तु प्रयुङध करालो ` विशेषे शाब्दान्यथावव्यवहार काले । 
८ सो ऽनन्तमाभोति जयं प्रत्र वाग्योगविद्कष्यति चापदाग्देः ॥ 
कः | वाग्योगषिदेव | कुत एतत्‌ । यो हि शब्दाञ्ञानात्यपशाब्दानप्यसी जा- 
नाति । यथैव हि शब्दज्ञाने धमे एवमपदाब्दश्ञाने स्यषमेः | भथवा भुवानधमेः 
भरामोति । मुयांसो पराब्दा अल्पीयांसः शब्दाः | एकैकस्य हि शब्दस्य बहवोऽप- 
भाः । तद्यथा । गौरित्यस्य शाब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतकिकेस्येवमादयो ऽप - 
25 भाः । अथ यो ऽवाग्योगवित्‌ । अज्ञानं तस्य शरणम्‌ | नात्यन्तायाज्ञानं शरण 
भवितुमहैति । यो ह्यजानन्तर ब्रामण हन्यात्छरां वा पिवेस्सो पि मन्ये पतितः स्यात्‌ | 
एवं तार्हे सो ऽनन्तमामोति जयं परत्र वाग्योगयिहृष्यति चापरब्दै : | कः | अवा- 
ग्योगविदेव | अथ यो वाग्योगवित्‌ | विज्ञानं तस्य शरणम्‌ || क्र पुनरिदं पठितम्‌ | 


* ६.२.१२, | † ६.९. २२३, 


म० ९.९.१९] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ र 


श्राजा नाम शोकाः | किं च भोः धोका अपि प्रमाणम्‌ | किं चातः | कदि प्रमा. 
गमयमपि शोकः प्रमाणं मवितुमहैति । ` ` 
यदुदुम्बरधणानां षटीनां मण्डलं महत्‌ | 
पीतं न गमयेस्स्वगे कं तरक्रतुगतं नयेदिति ॥ 
` भ्रमल्तगीत एष तत्रभवतो यस्त्वप्रमत्तगीतस्तसमाणम्‌ ।। यस्तु प्रयुङ्के || =. 
अविहांसः | - 
अविद्वांसः प्रत्यभिवादे नाप्नो ये न श्रुतिं विदुः } 
कम॑ तेषु तु विप्रोष्य लरीष्विवायमशं वदेत्‌ ॥ 
अभिवादे खीवन्मा मूमेत्यध्येयं व्याकरणम्‌ ॥ अविहांसः ॥ 
विभर्ति कुवन्ति | याक्जिकाः पठन्ति | प्रयाजाः सविभक्तिकाः कायौ इति } न 2) 
चान्तरेण व्याकरणं प्रयाजाः सकिमिक्रिक्ाः राक्याः कतैम्‌ || विमक्ि कुवन्ति | 
योवा इमाम्‌ | यो वाः इमां पदशः स्वरश्लो अक्षरो बाच विदधाकि स 
भास्विजीनः | अस्विंजीनाः स्वामेत्यध्येवं व्याकरणम्‌ || यो बा हमाम्‌ ॥ 
चत्वारि । 
चत्वारि शुङ्गा जयो जस्य पादाः हे दर्षे सप्त हस्तासो अस्य | 75 
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो म्यं भआवियिदोति | 
चत्थारि शृङ्गाणि चल्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसगेनिपाता्च | रयो अस्व 
पादालयः काला भूतभविष्यहृतेमानाः । दे रीष हौ शाब्दात्मानी नित्यः कार्य | 
सपर हस्तासो भस्य सप्र धिभक्तयः | निधा बद्धलिषु स्थानेषु बद्ध उरसि कण्ठे शिर- 
सीवि । वृषभो वषैष्मत्‌ । रोरवीति शाब्दं करोति । कुत एतत्‌ ! रौतिः शाब्दकमो । 29 
महो देवो मत्यां आविवेशेति । महान्देवः शाब्दः । मत्यौ मरणधमौणो मनुष्याः } 
लानाविवेशच | महता देवेन नः साम्यं कथा स्यादिव्यध्येयं व्याकरणम्‌ || 
अपर आह । 
चत्वारि याक्परिमित पदानि वानि विदुब्रीह्मणा ये मनीषिणः } 
गुहा णि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति | 25 
चत्वारि वाक्परिमिता पदानि चत्वारि पदजातानि नामाख्यातोपसगेनिपाक शच | तानि 
विदुब्रोह्मणा ये मनीबिणः| मनस हैबिणो मनीषिणः } मुहा त्रीणि निदिता नेङ्गयन्ति | 
गृहणायां त्रीणि निहितानि नेङ्गयन्ति | न चेष्टन्ते | न निमिषन्तीत्यथेः | तरीयं वाची 
मनुष्या वदन्ति | तुरीयं ह वा एतद्वाचो यन्मनुष्येषु वतेते | चतुथेमिस्यथेः।| चत्वारे ॥ 


ह ॥ -कोकन्नणकरामा्य ॥ [ ब० ९.९.९१. 
श्त लः | 
डत स्वरः इटक्व उदङ ऋअचमुत स्वः अण्व सृणोत्येन्म्‌ | 
खन स्वस नर्म्वं त्रिसखखे जायेव इत्य उद्यती वासाः | 
आवि अन्तेकः कदयज्चपि न फटवनि वाचम्‌ | मपि लल्वेकः अष्यग्रवि ज 
¢ शुतेर्विनम्‌ । मतिद्राखमाहार्धम्‌ | उनो त्वस्मै न्वं तरिसञ्े | तनुं बिवणते | 
जयेत परस्व डक्चनी इत्रासाः | व्यथा जवा परत्वे कामवमान् वाखा स्वग्परस्मानं 
विवृत्त एवं वाग्वाग्विदे स्वात्मानं विवृणुते । वाङ्धो चिवृणुकादात्मानमित्वध्येवं 
व्काकरत्म्‌ || उव स्वः ॥ 
खमिव | 
# स्ृभितर विवडना पृनन्तो वत्र धीरा मनसा वाचमक्रत | 
अत्रा सजायः सख्यानि जनते मद्वैषां ठरेमीरमिहिताधि वाचि || 
शशः सयतेुधीवो मवति | कसतेर्वा विपरीतादिकसितो भवति | तित 
परिपवनं मवति ततवा तुतदा | धीरा ध्वानवन्तो मनसा प्ङ्ञानेन वाच- 
मक्रत वाचमकृषत | भत्रा सखायः उद््यानि जानते | अत्र सखायः सन्तः 
1; सस्यानि भामते । खायुज्यानि जानते | क | य एष दुर्गो मागे एकमम्ो वाग्वि- 
षयः | के पुनस्ते | वैयाकरणाः | कुत एतत्‌ । भद्रैषां तकेमीर्निहिताधि वाचि । 
एवां बाचि मद्रा रदेमीर्मिहिता मवति । लक्मीले्षणाद्ासनात्परि वृढा मवति ।। 
सक्ृमिव || 
सारस्वतीम्‌ | या्िकाः पठन्ति | आहिताभनिरपरशाम्दं॑ प्रयुज्य प्रायथित्तीयां 
90 सारस्वतीमि्टिं निवेपेदिति । प्रायभितीया मा भूमेत्यध्येयं व्याकरणम्‌ ॥ 
सारस्वतीम्‌ ॥ 
वाम्यां पुरस्य । याज्जिकाः पठन्ति । दशम्युलरकालं पुत्रस्य जातस्य नाम 
विदध्या डोषवदाद्यन्तरन्तःस्थमवृद्धं त्रेपुरषानुकमनरिरतिष्ठिनं तडि प्रतिष्ठिततमं 
भवति ग्यक्षैरं चतुरक्षरं वा नाम कृतं कुयौच् तदधितमिति | न चन्तरेण व्याकरणं 
90 हतस्तदङिता षा दाक्या विज्ञातुम्‌ || दह्चम्यां पुत्रस्य ॥ 
छदेषो भति । 
वदेवो भसि षरण यस्य ते सप्र तिन्धवरः। 
भगु्षरन्ति काकुदं सूम्ये दपिरामिव ॥ 
ठरेषो भसि बर्ण सस्यदेबो ऽसि यस्य ते सप्त सिम्धवः सप्र विभ्यो 


म ९.९.९. | ॥ .व्याकर्यवहाभाष्यय ।। ५ 


अनुक्षरन्ति काकुदम्‌ । काकुदं तालु । काङकुर्जिष्ा सास्मिन्तुणत इति काकुदम्‌ । 
सुस्थे खषिरामिव । तद्यथा दोभनामूर्मि इनिरामभ्िरन्तः भरषिरय . दहत्येवं तव 
सप्र सिन्धवः सप्र विभक्यस्ताल्वनुक्षरन्ति | तेनासि सत्यदेवः | सत्यदेत्राः स्वा- 
मेत्यध्येयं ध्याकरणम्‌ ॥ देषो भसि ॥| 


क पुनरिदं व्याकरणमेव्राधिजिगांसमानेभ्यः प्रयोजनमन्वाख्यायते न पुनरन्यदपि 
किंचित्‌ । भभित्यु क्का वृत्तान्ताः शभिस्येवमादी उशष्दान्पठन्ति || प्राकल्प एत- 
दात्‌ | संस्कारोत्तरकालं ब्राह्मणा व्याकरणं स्माधीयते | तेभ्यस्तत्र स्थानकरणा- 
नुप्रदानज्ञेभ्यो वैदिकाः शाष्दा उपदिदयन्ते | तदव्यत्वे न तथा | वेदमधीत्य 
त्वरिता वक्तारो भवन्ति | वेदान्तो वैदिकाः सिद्धा लोकाच लौकिकाः | अनर्थकं 
व्याकरणमिति । तेभ्य एवं विप्रतिपच्चवदिभ्यो ऽध्येतृभ्य भाचा्य इदं शाखमन्वा- 10 
चष्टे | इमानि प्रयोजनान्यध्येयं व्याकरणमिति || ` ` 


, उक्तः शम्दः | स्वरूपमप्युक्तम्‌ | प्रयोजनान्यप्युक्तानि | शब्दानु शासनमिदानीं 
कर्ैव्यम्‌ | तत्कथं कमैष्यम्‌ | किं शुष्दोपदेशाः करैव्य आहोस्विदपशब्रोपदेशा 
आहोस्विदुभयोपदेश इति | अन्यतरो पदेशेन कृतं स्यात्‌ | तद्यथा | भश्यनियमे- 
नाभद्यपरतिषेधो गम्यते | पञ्च पञ्चनखा मद्या इत्युक्ते गम्यत एतदतोऽन्ये 15 
भक्ष्या इति | अभल््यप्रतिषेधेन वा भश्यनियमः | तद्यथा | भमश्यी बाम्यकुह्षुटो 
भक्ष्यो ्राम्यश्ुकर इत्युक्ते गम्यत एतदारण्यो भस्य इति । एवमिहापि यदि 
तावच्छब्दो पदेदाः (करियते गौरिव्येतस्मिन्नुपदिषटे गम्यत एतद्गाव्यादयो ऽपश्म्दा इति | 
अथापदाम्दोपदेदाः क्रियते गाम्यादिषुपदिषटेषु गम्यत एतङ्गीरित्येष शाब्द इति || किं 
पुनरत्र ज्यायः | रघुस्वाच्छब्दोपदेशः । ठषीयाञ्दाग्दोपदेशो गरीयानपशब्दोप- 20 
देशः । एकैकस्य राब्दस्य बहवो ऽपभरशचाः । तद्यथा । गीरित्यस्य शब्दस्य गावी - 
गोणीगोतागोपोतलिकादयो ऽप्॑शाः । इष्टान्वाख्यानं खल्वपि भवति | 


` अभेतस्मिञ्याम्दोपदेदो. सति किं दाब्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः करैव्यः | 
गौरः पुरुषो इस्ती शकुनि्मेगो ब्राह्मण इत्येवमादयः शम्दाः पठितव्याः । नेघ्याइ | 
भनभ्युपाय एष राब्दानां प्रतिपन्तौ प्रतिपदपाठः । एवं हि भवते । बृहस्पतिरिन्त्राय % 
दिष्यं वषेखदस्तं पतिपदोन्तानां शब्दानां शाम्दपारायणं मोवाच नान्तं जगाम । बृह- 
स्पतिथ प्रवक्तेन्द्रथाध्येता दिव्यं वषेसहस्रमध्ययनकालो न चान्तं जगाम | कि 
पुनरद्यस्वे यः सवधा चिरं जीवति स वपेदातं जीवति चतुर्भिश्च प्रकारिर्थियो पयुक्ता 


& ` || व्याकरणमहाभाष्य ॥,  [म०९.९.९.. 


भवत्यागमकालेन स्वाध्यायकालेन प्रवचनकाठतेन व्यवहार कारेनेति । तत्र चागमका- 
लेनैवायुः प्रवपयुक्तं स्यात्‌ । तस्मादनभ्युपायः राम्दानां प्रतिपत्तौ प्रतिपदपाठः ॥ 
कथं तर्हमि शब्दाः प्रतिपन्तष्याः | किंचित्सामाम्यविशेषवषक्षणं प्रवस्यै येनास्पेन 
यनेन महतो महतः राब्दौघान्प्रतिपद्ेरन्‌ । किं पुनस्तत्‌ | उत्सर्गापवादौ | कथि- 
¢ दुत्छगेः कतैव्यः कथिदपयादः | कथंजातीयकः पुनरुत्सगशः कतैव्यः कथंजातीयको 
ऽपधादः | सामान्येनोत्सर्गः कतैव्यः | तद्यथा । कर्मण्यण्‌ [३.१.९ || तस्य विशे- 
बेणापवादः । तद्यथा | आतो अनुपसर्गे कः [३,५.३ | ॥ 
किं पुनराकृतिः पदाथ भआहोस्विहरव्यम्‌ | उभयमित्याह | कथं ज्ञायते । उभ- 
यथा श्याचार्येण सूत्राणि पठितानि | आकृतिं प्रदायै मत्वा जाव्याख्यायामेक- 
10 स्मिन्बहवचनमन्यतरस्याम्‌ [९. २. ९८] इत्युच्यते । द्रव्यं पदार्थं मत्वा सरू- 
पाणाम्‌ [९. २. ६४ | इत्येकदोष आरभ्यते ॥ 


किं पुनर्मित्यः शम्द आहोस्वित्कायैः । संह एतत्पाधान्येन परीतं नित्यो 

वा स्यात्कार्यो घेति | तन्रोक्ता दोषाः प्रयोजनान्यप्युक्तानि | तश्र स्वेष निर्णयो 

यथेव नित्यो अथापि कायै उभयथापि लक्षणं प्रवत्येमिति | कथं पुनरिदं भगवतः 
15 पाणिनेराचार्यस्य ठक्षणं प्रवृत्तम्‌ । 


` सिदे शान्दार्थसंबन्पे 


सिदे शब्दे ऽय संबन्धे चेति | भथ सिद शाब्दस्य कः पदाथः | नित्यपयोयवाची 
सिद्धशब्दः । कथं ज्ञायते | यत्कुटस्थेष्वविचालिषु भावेषु वतेते । तव्यथा | सिद्धा 
शोः सिद्धा पृथिवी सिदमाकादामिति । ननु च भोः कार्येष्वपि वतेते | तद्यथा | 
20 सिद्ध ओदनः सिद्धः सूपः सिद्धा यव्रागुरिति | यावता कार्येष्वपि वतेते तत्र॒ कृत 
एतन्निस्यपयोयवाचिनो ब्रहणं न पुनः कार्ये यः सिदधश्चम्द इति | संमरहे तावत्काय- 
परतिदन्डिभावान्मन्यामहे नित्यपयौयवाचिनो अहणमिति । इहापि तदेव || अथवा 
सन्स्येकपदान्यप्यवधारणानि । तद्यथाम्भक्नो वायुभक्ष इत्यप एव भक्षयति वायुमेव 
95 भक्षयतीति शस्यत एवमिहापि सिदध एव न साध्य इति ॥ अथवा पूर्वपदलोपो ऽ 
दरटव्यः । अस्यन्तसिदधः सिद्ध इति । तद्यथा । देवदत्तो दलः सत्यभामा भामेति | 
अथवा व्याख्यानतो विोषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति नित्यपयोयवाचिनो 
प्रहरणमिति व्याख्यास्यामः ॥ किं पुनरनेन वर्ण्येन किं म॒ महता कण्ठेन नित्यशब्दः 
एवोपात्तो यस्मिसुपादीयमाने संदेहः स्यात्‌ । मङ्गलाथेम्‌ । माङ्गलिक आचार्यो 


म० ९.९.१९. | ^॥ व्वाकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ॐ 


महतः शालीघस्य मङ्गलाथं सिद्धशब्दमादितः प्रयुङ्के मङ्गलादीनि हि शालाणि प्रथन्ते 
वीरपुरुषकाणि च भवन्त्यायुष्मत्पुरुषकाणि चाध्येतारथ सिद्धाथौ यथा स्युरिति । 
भयं खल्वपि नित्यशब्दो नावरवं कटस्थेष्वविचारिषु भावेषु वतेते | किं तर्हि | 
आभीष्ण्ये ऽपि वतेते | तद्यथा । नित्यप्रहसितो नित्यप्रजल्पित हति | यावताभी- 
ण्ये ऽपि वतेते तत्राप्यनेनैवाथेः स्याव्याख्यानतो विदोषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षण- 5 
मिति | परयति स्वाचारयौ मङ्गलार्थभैव सिद्धशाम्द आदितः प्रयुक्तो भविष्यति शषेयामि 
चैनं निव्यपयीयवाचिनं वणैयितुमिति । अतः सिदधहाभ्द एवोपान्तो न नित्यदाब्दः || 
अथय कं पुनः पदां मत्वैष विग्रहः क्रियते सिद्धे शब्दे ये संबन्पे वेति | आक 
तिमित्याह | कुत एतत्‌ | आकृति नित्यां दम्यमनिस्यम्‌ ॥ अथ व्रव्ये पदार्थ कथं 
विग्रहः कर्तव्यः | सिद्धे शब्दे ऽथैसंबन्धे चेति | नित्यो ह्ययैवतामर्थरमिसं बन्धः || 10 
अथवा द्रव्य एव पदाथ एष विग्रहो न्याय्यः सिद्धे शाब्दे ऽथे संबन्धे चेति | द्यं 
हि नित्यमाकृतिरनित्या । कथं ज्ञायते | एवं हि इरयते रोके | मृत्कयाचिदाकृत्या 
युक्ता पिण्डो भवति । विण्डाकृतिमुपमृद्य षटिकाः क्रियन्ते | षटिकाकृतिमुपमृव्य 
कुण्डिकाः क्रियन्ते | तथा वणे कयाचिराकृत्या युक्तं पिण्डो भवति | पिण्डा 
कृतिमुपमृद्य रुचकाः क्रियन्ते | रुचकाङृतिमुपमृ्य कटकाः क्रियन्ते | कटकाक- 15 
तिमुषमृद्य स्वस्तिका; क्रियन्ते | पुनरावृत्तः इवणेषिण्डः पुनरपरयाकृत्या युक्तः 
खदिराङ्गार सवर्ण कुण्डले भवतः | आकृतिरन्या चान्या च भवति द्रभ्यं पुनस्तदेव | 
भाक टयुपमर्देन द्रव्यमेवावश्िभ्यते || आकृतावपि पदाथ एष विग्रहो न्याय्यः किद्ध 
शब्दे अथ संबन्धे चेति । ननु चोक्तमाकृतिरानिव्येति | नैतदस्ति | नित्याकृतिः | 
कथम्‌ । न कचिदुपरतेति कृत्वा सव्रोपरता भवति द्रव्यान्तरस्था तुपरभ्यते || 20 
भथवा नेदमेव नित्यलक्षणं धरुवं॑कूटस्थमविचाल्यनपायोपजनविकायेनुत्पच्यवृद्य- 
व्यययोगि यत्तन्नित्यमिति | तदापि नित्यं यरिमस्तत््वं न॒ विहन्यते | किं पुनस्त- 
त्वम्‌ । तद्भावस्त्वम्‌ । आाकृतावपि ततत्वं न विहन्यते || भथवा किं न ॒एतेनेद्‌ 
नित्यमिदमनित्यमिति । यन्नित्यं तं परार्थं मस्यैष विरहः क्रियते सिदे शब्दे थ 
संबन्धे चेति || , 28 
कथं पुनज्जौयते सिद्धः शब्दो ऽथः संबन्धथेति । लोकतः । यष्ठोके ऽथेमयेमुपा- 
-दाय शब्दान्प्युश्ते तरैषां निर्वत्तौ यलं कुवन्ति | ये पुनः कायो भावा निवत्त 
तावत्तेषां यः क्रियते | तद्यथा | घटेन काये करिष्यन्कुम्भकारकुलं गत्वाह कुड 
षटं कार्यमनेन करिष्यामीति | न तद च्छब्दान्प्योक्यमाणो चैयाकरणकुलं मत्वाद 


८ ॥ व्याकरगमहीभष्यिय्‌ ॥  [म० ९.९.९१. 


कुरू शब्दान्प्रयोश्व इति | तावत्वेवाथेमर्थमुपौदाय शाष्दान्पयुश्जते ॥ यदि तर्हि 
सोक एषु प्रमाणं किं शाखेण क्रियते | 


लोकतो अयप्रयुक्तं शब्दप्रयोगे शाल्रेण धमेनियमो 


लोकतो अर्थप्रयक्ते शब्दपयेगे श्ालण षर्मनियमः क्रियते | किमिदं धर्मनियम 
5 इति | पमौय नियमो धमेनियमः | धमोर्थो वा नियमो धमेनियमः | धर्मेप्रयो- 
जनो वा वियमो धमनियमः | 


यथा लीकिकतरीदिकेषु ॥ ९ ॥ 


प्रियतद्धिता दाक्षिणास्या यथा लोके वेदे चेति प्रयोक्तव्ये यथा रौकिकवैदिके- 
ध्विति प्रयुश्ते | अथवा युक्त एव तद्धितार्थः ¡ यथा लोकिकेषु वैदिकेषु च कृता- 
19 न्तेषु ॥ लोके तावदभश््यो माम्यकुकटो मद्यो माम्यश्चकर इत्युच्यते | भ्यं च 
नाम कषुत्पतीषाताथमुपादीयते । शक्यं चानेन श्र्मासादिभिरपि क्षुततिहन्तुम्‌ | तत्र 
नियमः (क्रियत इदं भ््यमिदमभ्यमिति । तभा सेदास्वीषु  भवत्तिमेषति समानश 
खेदविगमो गम्यायां चागम्यायां च । तत्र नियमः क्रियत इर्य गम्येयमगम्येति ॥ 
वेदे खल्वपि पयोत्रतो ब्राह्मणो यवागृव्रतो राजन्य आमिन्षात्रतो वैदय इत्युच्यते | 
15 तरतं च नामाभ्यवहाराथेमुपादीयते | शक्यं चानेन शालिमांसादीन्यपि व्रतयितुम्‌ | 
तश्र नियमः क्रियते | तथा वैल्वः खादिरो वा यूपः स्यारिर्युच्यते | युप्च नाम 
पश्चनुबन्धायेमुपारीयते. | शक्यं चानेन किंचिदेष काष्ठमुच्छ्ित्यानुच्छित्य वा प्युरनु- 
बन्दुम्‌ | तन्न नियमः क्रियते | तथानौ कपालान्यधिभ्रित्याभिमन््रयते मृगुणाम- 
द्भिरसां घभैस्य तपसा तप्यध्वमिति | अन्तरेणापि मन्त्रममिर्दहनकमौ कपालानि 
20 संतापयति | तज्र नियमः क्रियत एवं क्रियमाणमभ्युदयकारि भवतीति || एवमिहापि 
समानायामर्थगतौ राब्देन चापदाब्देन च धर्मनियमः क्रियते शब्देतरैवार्थो अभिधेयो 
नापहाब्देनेव्येवं क्रियमाणमभ्युदथकारि भवतीति ॥ 
अस्त्यप्रयुक्तः | सन्ति वै राब्दा अप्रयुक्ताः | तव्यथा | ऊष तेर चक्र पेचेति | 
किमतो यत्सन््यप्रयुक्ताः | भ्रयोगादधि भवाञ्शाब्दानां साधुत्वमध्यवस्यति य इदा- 
2 नीमपरयुक्ता नामी साधवः स्युः ॥ इदं विप्रतिषिद्धं यदुच्यते सन्ति वै श्राब्दा अपर 
युता इति । यदि सन्ति नाप्रवुक्ता भथाप्रयुक्ता न सन्ति सन्ति चाप्रयुक्ताधेति 
विप्रतिषिद्धम्‌ । प्रयुञ्जान एव र्बलु भवानाह सन्ति शाब्दा अप्युक्ता इति | क- 
ेदानीमन्ये भवज्जातीयकः पुरूषः राब्दानां प्रयोगे साधुः स्यात्‌ ॥ वैतदिभ- 





म १.९.९. |  ॥ व्थाकरनयहाभाष्यम्‌ ॥ ९. 


तिषिदम्‌ । सन्तीति तावद्भूमो यदेताञ्ाखविदः शालेणानुविदधते । अप्युक्ता 
इति ब्रूमो यल्लोके परयुक्ता इति । बदप्युच्यते. कथेदानीमन्यो. भवल्नाततीयकः 
परुषः शब्दानां प्रयोगे साधुः स्यादिति न श्रूमो ऽस्माभिर प्रयुक्ता इति । किं ताईं | 
तोके ऽअयुक्ता इति । ननु च भवानप्वभ्यन्तरो लोके | अभ्यन्तरो ऽहं लोके न 
त्वहं लोकः ॥ | 
अस्स्यपरयुक्त इति चेन्ना्थं शब्दप्रयोगात्‌ ॥ २॥ 

अस्स्यप्रयु क्त इति चेत्तन्न | कि कारणम्‌ | अर्थ शब्दप्रयोगात्‌ । भर्थे शाब्दाः 

प्रयुज्यन्ते सन्ति तैषां शम्दानामथो येष्वर्थेषु प्रयुज्यन्ते ॥ 
अप्रयोगः प्रयोगान्यत्वात्‌ ॥ ३ ॥ 

अप्रयोगः खल्वेषां शब्दानां न्याय्यः | कुतः | प्रयोगान्यत्वात्‌ । यदेतेषां शभ्दा- 10 
नामर्थे ऽन्याञराब्दान्प्युञ्जते । तद्यथा । ऊपेत्यस्य शब्दस्यार्थे क युयमुषिताः | 
तेेत्वस्वार्थे किं वुयं तीणाः | चक्रेस्यस्यार्थै किं युयं कृतवन्तः | पेचेत्यस्ार्थे (कं 
वूयं पकृवन्त इति || 

अप्रयुक्ते दीषैसन्वत्‌ ॥ ४॥ 

यद्यप्यप्रयुक्ता अवदयं दीषैसन्ञवष्क्षणेनानुविधेयाः | तद्यथा । दीर्षसन्नाणि 15 
वाषेशतिकानि वाषैसहलिकाणि च न चाद्यत्वे कथिदपि व्यवहरति केवल मुषिसंप्रदा - 
यो धमे इति कृत्वा याश्ञिकाः शाजेणानुविदधते || 


9 


सर्वे देशान्तरे ।। ९॥ 

सर्वे खल्त्रप्येते शब्दा देशान्तरे प्रयुज्यन्ते | न वैत उपलभ्यन्ते. | उपलब्धौ 
वबः क्रियतां महान्हि शब्दस्य प्रयोगाविषयः | सपद्ीपा वमती रयो लोका- ‰ 
अलागो वेदाः साङ्गाः सरहस्या बहधा विभिन्ना एकशतमध्वर्युशाखाः सहलवत्मौ ` 
सामवेद एकर्विडातिभा बाहच्यं नवधाथवेणो वेदो वाकोवाक्यमितिहासः प्राणं 
्रैयकामित्येता वाञ्शाब्दस्य प्रयोगविषयः । एतावन्तं शाब्दस्य प्रयोगविषयमननुनि- 
शाम्य सन्त्यप्रयुक्ता इति वचनं केवलं साहसमात्रम्‌ ।| एतस्मित्तषिमहति शाब्दस्य 
भ्योगविषये ते ते शब्दास्तत्र तत्र नियतविषया दृरयन्ते | त्या | शावतिभतिकमौ 2; 
कम्बोजेष्त्रेव भाषितो भवति विक्रार एनमायोौ भाषन्ते शाव इति | हम्मतिः खर ष्टेषु 
रहतिः प्राच्वमध्येषु गमिमेव स्वायाः प्रगुज्जते | दातिलतनाथे प्राच्येषु रात्रमुदी- 


4 नद 


१० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ` `  [म० ९.९.९. 


ध्येषु || ये चाप्येते भवतो परयुक्ता अभिमताः शाब्दा एतेषामपि प्रयोगो दुदयते.। 
क्र | वेदे | यद्वो रेवती रेवत्य तदुष | यन्मे नरः भुत्यं ब्रह्म चक्र । यत्रा नक्र 
जरसं तनूनामिति || 


किं पुनः शाब्दस्य क्ञानै धम आद्ोस्विसयोगे | कथात्र विदोषः | 


४  क्षाने धमे इति चेचथाधमेः | ६ ॥ 
ज्ञाने धमै. इति चेत्तथाधर्मैः प्रामोति | यो ` हि शाब्दाश््ानास्यपराब्दानप्यसौ 
जानाति | यथेव शाम्दज्ञाने धमे एवमपहा्दज्ञाने ऽप्यधमैः | अथवा भूयानधमेः 
प्राभोति । भूयांसो ऽपराब्दा अल्पीयांसः शब्दाः | एकैकस्य शब्दस्य बहवो ऽपथंडाः । 
तद्यथा | गौरिस्यस्य गावी गोणी गोता गोपोतलिकेत्येवमादयो ऽपभ्र॑शाः ॥ 


10 | आचरि नियमः ॥ ७ || 


, आचारे पुनकषिर्नियमं वेदयते | ते ऽ्रा हेलयो हेलय इति कुवेन्तः पराव 
भूवुरिति ॥ अस्तु तर्हि प्रयोगे | 


प्रयोगे सवैरोकस्य । ८ ॥ 


यदि प्रयोगे धर्मः सर्वो लोको ऽभ्युदयेन युज्येत । कथेदा्नीं भवतो मत्सरो 

15 यदि सर्वो लोको ऽ^युदयेन युज्येत । नखलु कथिन्मत्सरः प्रयलानथेक्यं तु 

भवति | फलवता च नाम यलेन भवितव्यं न च प्रयलः फकलाद्यतिरेच्यः | नमु 

च ये कृतप्रयलास्ते साधीयः शब्दान्प्रयोक्ष्यन्ते त एव साधीयो ऽभ्युदयेन योष्यन्ते | 

व्यतिरेको अपि वै टस्यते | दृदयन्ते हि कृतप्रयलाश्ाप्रवीणा अकृतप्रयनाश्च प्रवीणाः | 

तत्र फलब्यतिरेको ऽपि स्यात्‌ || एवं तर्द नापि रान एव धर्मो नापि प्रयोग एव | 
99 क ताह | | 


दाखपुवंके भयोगे अभयुदयस्तत्तुल्यं केदराब्देन ॥ ९ ॥ 


शाखपवेकं यः राब्दान्युदधै सो ऽभ्युदयेन युज्यते | त्तुल्यं वेद ब्देन । वेद शाब्दा 
अप्येवमभिवदान्ते | यो अप्रष्टोमेन यजते य उ चैनमेवं घेद | यो रभि नाचिकेतं 
चिनुते य उ चैनमेवं वेद ॥ अपर आह | तुल्यं वेदशाब्देनेति । यथा वेदशष्दा 
# नियमपूवैमधीताः -करवन्तो भवन्त्येवं यः शाखपूवेकं राब्दान्प्युद्धुः सो ऽभयुदयेन 
युञ्यत इति || अथवा पुनरस्तु ज्ञान एव धमे इति | ननु चोक्तं शाने धमे इति 





म०९.१.९. | ॥ व्याकरणमराभष्यम्‌ ॥ ` ९९ 


चे्थाधमे इति । नैष दोषः ¡ शष्दप्रमाणका वयम्‌ | यच्छब्द गह तदस्माकं 
प्रमाणम्‌ । शब्दश्च शब्दज्ञाने पर्ममाह नापशष्दज्ञाने ऽधमेम्‌ | यश्च पनरशिप्प्र- 
तिषिद्धं नैव तहोषाय भवति नाभ्वुदयाय । तद्यथा | हिङ्षितहसितकण्डूयितानि नैव. 
रोषाय भव्न्ति नाप्यभ्युदयाय || भथवाभ्युपाय एवापश्चब्दज्ञानं शाब्दज्ञाने | यो 
भशब्दा््ञानाति राब्दानप्यस्ौ जानाति । तदेवं श्ञाने धमे इति ब्रुवतो ऽथादापचचं 5 
मवत्यपरब्दज्ञनप्वैके शाब्दज्ञाने धमे इति ।| अथवा कूपलानक वदेतद्धविष्यति | 
त्था कूपलवानकः कूपं खनन्ययपि मृदा पांभिश्वावकीर्णो भवति सो प्छ संजा- 
ताव तत एव तं गुणमासादयति येन स च दोषो निरहेण्यते भूयसा चाभ्युदयेन 
वोगो भवत्येवमिहापि यश्चप्यपशब्दज्ञाने ऽधमेस्तथापि यस्त्वसौ शाब्दज्ञाने धर्मस्तेन 
स च दोषो निषानिष्यते भूयसा चशभ्वुदयेन योगो भविष्यति || यदप्युच्यत भाचारे 10 
नियमं इति याज्ञे कमेणि स नियमः | एवं हि श्रुयते | यवौणस्तवोणो नामषेयो 
बभूवुः परत्यक्षधमौणः परापरज्ञा विदितवरेदितव्या अधिगतयाथातभ्याः | ते तत्रभ- 
वन्तो यद्वानस्तद्भान इति प्रयोक्तव्ये यवौणस्तवौण इति प्रयुञ्जते याज्ञे पुनः 
कर्मेणि नापभाषन्ते | तैः पुनर यौज्ञे करमैण्यपभाषितं ततस्ते परामृताः | 


अथ व्याकरणमित्यस्य राब्दस्य कः पदाथः | सत्रम्‌ | 15 
सत्रे व्याकरणे षष्टचर्थो अनुपपन्नः ॥ ९० ॥ 
दरे व्याकरणे बषर्थो मोपपश्यते व्याकरणस्य | सुत्रमिति | किं हि तदन्यत्सु- 
द्याकरणं यस्यादः सूत्रं स्यात्‌ || 
राब्दाप्रतिपत्तिः ॥ ९९ ॥ 


राभ्यां प्रतिपत्तिः प्रामोति व्याकरणाच्छब्दान्परतिपद्यामह इति । न हि सूत्र- 20 
त एव शब्दान्प्रतिपद्न्ते | किं ति | व्याख्यानतथ | ननु च तदेव सूत्रं विगृहीतं 
ष्याख्यानं भवति | न केवलानि चचौपदानि व्याख्यानं वृद्धिः आत्‌ रेजिति । किं 
तहि । उदाहरणं प्रत्युदाहरणं वाक्याध्याहार इत्येतत्समुदितं व्याख्यानं भवति || 
एवं तर्हि शब्दः | 


राब्दे ल्युडयंः ॥ ९२ ॥ 96 


यदि शब्दो व्याकरणं ल्यु डर्थो नोपपद्यते | व्याक्रियते नेति व्याकरणम्‌ | न 
हि शाब्देन किंचिव्याक्गियते | केन तरिं । सूत्रेण | 


९२ ॥ व्याक्षरणक्हाभव्यय्‌ ॥ - `  [म० ९.९.९; 


भवे 
भवे च तद्धितो नेपपश्यते | व्याकरणे.भवो योगो वैयाकरण इति | न हि शब्दे 
भवो योगः |. क तर्दिं | सप्रे | 
भरोक्तादयश्च तद्धिताः । १३ ॥ 
$ प्रोक्तादयशथच तद्धिता नोपपद्यन्ते | पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम्‌ | आपिशलम्‌ | 
काराकृर्क्मिति | न हि पाणिनिना शाब्दाः प्रोक्ताः | किं तर्दि। सत्रम्‌ || किमथेमि- 
दमुभयमुच्यते भवे प्रोक्तादयश्च ताडिता इति न प्रोक्तादयथ्च तद्धिता इत्येव भवे ऽपि 
तद्धितश्ोरितः स्यात्‌ | पुरस्तादिदमा चार्येण दृष्टं भवे तदित इति तत्पठितम्‌ । तत 
उ्तश्कालमिदं दृष्टं परोक्तादयशथच तद्धिता इति तदपि पठितम्‌ | न चेदानीमाचायौः 
10 सूत्राणि कृत्वा निवतेयन्ति || अवं तावददोशो यदुच्यते शब्दे ल्युडथं हति | नावदयं 
करणाधिकरणयोरेव ल्युडिधीयते | किं ताह । अन्येष्वपि कारकेषु कृत्यल्युटो बह- 
लम्‌ [३.३.१९३ | इति । तद्यथा | प्रस्कन्दनम्‌ प्रपतनमिति || अथवा शब्दैरपि राभ्दा 
व्याक्रियन्ते | त्था | गौरिस्युक्ते सर्वँ संदेहा निवतैन्ते नाशो न गभ इति | भवं 
तर्हि दोषो भवे प्रोक्तादयश्च तद्धिता इति । एवं तर्हि 


15 लक्ष्यलक्षणे व्याकरणम्‌ ॥ ९४ ॥ 


लश्यं च लक्षणे ैतत्स मुदितं व्याकरणं भवति । किं पुनर्तह्यं लक्षणं च | 
दाम्दो लश्यः खतं लक्षणम्‌ | एवमप्ययं समुदाये व्याकरणदाब्दः प्रवृत्तो ऽवयवे 
ने पपद्यते । सत्राणि चाप्यधीयान इष्यते वैयाकरण इति । नैष दोषः | समुदायेषु 
हि शब्दाः प्रत्ता अवयवेष्वपि वतेन्ते ] तद्यथा । पर्वे पचालाः । उत्तरे पश्चाठाः | 
20 तैलं मुक्तम्‌ । घृतं भुक्तम्‌ । शयक्ृः नीलः कष्ण हति । एवमयं समुदाये व्याक- 
रणदाब्दः प्रवृत्तो ऽवयवे अपि वतेते || अथवा पुनरस्तु खत्रम्‌ | नन्‌ चोक्तं सजे 
म्याकरणे षष्ठ्यर्थौ ऽनु पपन्न इति । नेष दोषः | व्यपदेशिवद्भावेन भविष्यति || 
यदप्युच्यते शब्दाप्रतिपत्तिरिति न हि छत्रत एव शाब्दान्द्रतिप्न्ते किं तर्हि व्याख्या - 
नतथेति परिहतमेतत्तदेव सुज विगृहीतं व्याख्यानं भवतीति } ननु चोक्तं न केवलानि 
25 चर्चपदानि व्याख्यानं बुद्धिः आत्‌ एेजिति किं तर्हि उदाहरणं प्रस्युदाहरणं वाक्या- 
ध्याहार इस्येतत्समुदितं व्याख्यानं भवतीति | अविजानतं एतदेवं भवति | सूत्रत एव 
हि शाब्दान्परतिपयन्ते | आतश्च सुज्रत एव यो दयुरसूत्रं कथयेत्तादो ` गृ्ेत | 


जक 





# ४.२.५३ † ४.२.९०९ 








म० १.९.९. | ॥ व्याकस्ममहत्याध्यय.1.. ९४ 


भथ किमर्थो वणौनामुपदेशः । 
 " वृत्तिसमवायाथे उपदेशः । ९९ ॥ 
वृत्तिसमवायार्थो वणोनामुपदेशाः कर्तव्यः || किमिदं वृत्तिसमवायाथे इति | 
वृतये समवायो वृत्तिसमवायः; | वृष्यर्थो ` वा समवायो ` वृत्तिसमवायः | वृत्ति- 
प्रयोजनो वा समवायो वुसिसमवायः | का पुनवेत्तिः । रालपरवृत्तिः | अथ कः ४ 
समधायः | वणोनामानुपूर्व्यण संनिवेशः ¡ भ क उपदेदाः | उच्चारणम्‌ | कृत 
एतत्‌ | दिशिरु्ारणकरियः | उश्चायै हि य्णीनाहोप्दिष्टा -इमे वणी इति || 


अनुबन्धकरणार्थश्च ॥ ९६ ॥ 
अनु बन्धकरणा्थश वणीनामुपदेद्ाः कर्तव्यः } अनुबन्धानासङ्क्यामीति । न 
नुपदिदय वणननुबन्धाः शक्या आसङ्कुम्‌ 1] सं एष वणोनामुपदेशो वृत्तिसमया 16 
याथेधानुबन्धकरणाये श्च | वृत्तिसिमवायचानुबन्धकरणं च परत्याहाराथम्‌ । प्रत्याहारो 
बृ््यथेः | 
इ्वुख्ययेथ । इष्टवबुदर्थथ वणीनामुपदेशः । इ्टान्वणौन्भोतस्य इति | न 
नुपदिदय वणोनिष्टा वणः शाक्या विज्ञातुम्‌ । 
इ्टवुययर्थश्चेति वेदुदाचानुदात्तस्वरितानुनासिकदीरधैशुतानामप्युपदेदाः 15 
॥ ९७ ॥ 
इष्ट बुद्थथेति चेदुदा्तानुदात्तस्वरितानुनासिकदीर्षशरुतानामष्युपदेशः कतेव्यः | 
एवंगुणा अपि हि 'वणो इष्यन्ते | 
आकृत्युषदेरास्सिडधम्‌ । अकृस्युपदेशास्षिद्धमेतत्‌ | अवणीङ्ृतिरूषदिश सर्व- 
मव णकुलं ्रहीष्यति | तथेवणकृतिः | तथोवर्णाङृतिः । 20 
आशृत्युपदेशास्सिद्धमिति चेत्संवृतादीनां प्रतिषेधः ॥ ९८ ॥ 
आकृद्थुपदेशास्सिद्धमिति चेत्संवृतादीनां प्रतिषेधो वक्तव्यः | के पुनः संवृता- 
दयः । संवृतः कलो ध्मात एणीकृतो सम्बूकृतो ऽधेको भस्त निरस्तः प्रगीत उ- 
पगीतः हिवण्णो रोमश इति || अपर आह | 
अस्तं निरस्तमविराम्नितं निदैतमेम्बुकृतं ध्मातमथो विकम्पितम्‌ | 5 
संदषटमेणीकृतमेकं द्रुते विकी्णैमेताः स्वरदोषभावमा इति || 
भतो ञन्ये व्यश्ञनदोषाः ॥ नैष दोषः । गगोदिविदादिपाठत्संवृतारीनां निवु- 


९४ ॥ व्याकरणय्रहाभोष्यम्‌॥. _ `  [म०९.१.९, 


न्तिभेविष्यति । भस्त्यन्यद्गोदिविदादिपाठे भरयोननम्‌ | किम्‌ । समुदायानां साधु- 
स्वं यथा स्यादिति ॥ एवं तद्येश्टादश्धा भिन्नां निवु्कलादिकामवणेस्य प्रत्यापर्ि 
वक्ष्यामि । सा तरह वक्तव्या । 


किङ्काथौ तु प्रत्यापत्तिः। 


$ लिङ्गाथौ सा तहिं भविष्यति } तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | यद्यप्येतदुच्यते अथत्रैतदयै - 
नेकमन्‌बन्धरशतं नोचायमित्संज्ञा च न वक्तव्या लोपश्च न वनक्तव्यः | थदनबन 
क्रियते तस्कलादिभिः करिष्यते | -सिभ्यव्येवमपणिनीयं तु भवति || यथान्यासमे- 
वास्तु | ननु चोक्तमाकृत्युपदेश्या स्ति भिति चेत्तंवृतादीनां प्रतिषेष इति | परिह- 
तमेत गोदिविदादिपाडास्संव॒तादीनां निवृत्तिभेविष्यति | ननु चान्वहगोदििदा- 
16 दिप प्रयोजनमुक्तम्‌ 1 किम्‌ |` समुदायानां साधुत्वं यथा स्यादिति । एवं 
तद्यभवमनेन क्रियते पाठशचैव विरोष्यते कलादयश्च निवर्त्यन्ते | कथं पुनरेकेन य- 
नेनोभयं लभ्यम्‌ | ठभ्यमित्याह | कथम्‌ । द्विगता अपि हेतवो भवन्ति | तथथा । 
` - : आन्न सिक्ताः. पितर प्रीणिता इति । 
तथा वाक्यान्यपि शिष्ठानि भवन्ति | श्वेतो धावति | भकलम्बुसानां यातेति ॥ 
15 अथेदं ` तावदयं प्रष्टव्यः | कमे संवृतादयः भ्रुयेर्चिति । भागमेषु । आगमाः 
शुद्धाः पड्यन्ते | विकारेषु तर्हि । विकाराः शदः पठ्यन्ते । प्रत्ययेषु तरि । प्- 
स्ययाः शुडाः पठचन्ते । धातुषु तर्हि } धातवो पि दद्धाः पठ्यन्ते । प्रातिपदिकेषु 
ति । प्रातिपदि कान्यपि श्युडानि पठ्यन्ते । यानि तद्येयहणानि प्रातिपदिकानि । 
एतेषामपि स्वरवणीनुपूर्वीञानाथं उपदेशः कतैव्यः । शशः | षष इति मा भूत्‌ | 
20 प्रलाश्चः । परलाष इति मा भृत्‌ । मज्वकः । मस्जकं इति मा भूत्‌ ॥ 
आगमा विकाराथ प्रत्ययाः सह धातुभिः । 
उश्चायन्ते ततस्तेषु नेमे प्राप्ताः कलादयः | 


इति ज्रीभगवत्पतश्ञङिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याभ्यायस्य प्रथमे 
पादे प्रथममाद्धिकम्‌ || 





शिबसु° ९. | ॥ .व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥¦. १५ 


अड उण्‌ ॥ १. ॥ 
अकारस्य विवृतोपदेदा आकारम्रहणाथैः ॥ ९॥ 

अकारस्य विवृतोपदेश्चः कतैव्यः | किं प्रयोजनम्‌ । आकारम्रहणायेः | अकारः 
सवणन्रहणेनाकारमपि यथा गृह्णीयात्‌ | किंच कारणं न गृह्णीयात्‌ | विवारमे- 
दात्‌ । किमुच्यते विवारभेदादिति न पुनः कालभेदादपि । यथैव छययं बिवारमिन्न 6 
एवं कालमभिन्नो अपे | सत्यमेतत्‌ | वक्ष्यति तुल्यास्यप्रयलं सवणेम्‌ [९. ९. ९| 
इत्यतरास्यम्रहणस्य प्रयोजनमास्ये येषां तुल्यो रेशः प्रयलंथ ते सवगसंज्ञका भव- 
न्तीति । बाह्य पुनरास्यात्कालः | तेन स्यादेव कालाभिन्नस्य महणं न पुनर्विवा- 
रमिन्नस्य || किं पुनरिदं विवृतस्योपदिदयमानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायत आशेस्वि- 
त्स॑वतस्यो पदिदयमानस्य वि व्रतो पदेराथोद्यते | विवृतस्योपदिरयमानस्य प्रयोजनम - 10 
न्वाख्यायते | कथं ज्ञायते | यदयम्‌ अभ भ [८. ४. ६८ | इत्यकार स्य विवृतस्य 
संवृतताप्रत्यापर्ति शास्ति | नैतदस्ति ज्ञापकम्‌ | अस्ति छन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ | 
किम्‌ | अतिखद्रुः अतिमाल हत्यत्रान्तयेतो विवृतस्य विवृतः प्राभोति संवृतः स्यादि- 
त्येवमरथौ प्रत्यापत्तिः | नैतदस्ति | तैव लोके न च वेदे ऽकारो विवृतो ऽस्ति | कस्ता्। 
संवृतः | यो अस्ति स भविष्यति | तदेतत्मत्यापान्तिवचनं ज्ञापकमेव भविष्यति विवू- 15 
तस्यो पदिरय मानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायत इति || कः पुनरत्र विदोषो विवृतस्योप - 
दिदयमानस्य प्रयोजनमन्वाख्यायेत संवृतस्यो पदिदयमानस्य वा विवृतोपदेदाथोे- 
तेति । न खलु कथिद्िशेषः | आहोपुरुषिकामात्रं तु भवानाह संवृतस्योपदि श्यमा- 
नस्य ॒विवृतोपदेशशोव्यत इति | वयं तु ब्रुमो विवृतस्योपरिदयमानस्य प्रयोजमम- 
न्वाख्यायत इति || | 20 

तस्य विवृतोपदेरादन्यत्रापि . विवृतोपदेशः सवर्णग्रहणा्थः ॥ २ ॥। 

तस्थैतस्या्षरसमाघ्रायिकस्य विवृतोपदे शादन्यत्रापि विवृतोपदेशः क्ष्यः | 
कान्यत्र । धातुप्रातिपरिकप्रत्ययनिपातस्थस्य | किं प्रयोजनम्‌ | सव्णम्रहणार्थः | 
भक्षरसमाघ्चायिकेनास्य प्रहणं यथा स्यात्‌ | करं च कारणं न स्यात्‌ | विवार- 
भेदादेव ॥ आचायेप्रवृ्तिज्ञोपयति मवत्याक्षरसमा्नायिकेन धात्वादिष्थस्य म्रहण- ४ 
मिति यदयमकः सवर्णे दीषेः [६, ९. १५०१] इति प्रस्याहारे ऽको महणं करोति | 
कथं कृत्वा श्ञापकम्‌ | न हि इयोराक्षरल्तमाप्नायिकयो युग पत्समवस्थानमस्ति | 
बैतदसि श्वापकम्‌ | भर्ति क्षन्यदेतस्य बजने प्रयोजनम्‌ | [किम्‌ | यस्याक्षरस्तमा- 





९६ ॥' ग्याकरणमहोभाच्यम्‌ ॥. [मण ९.९.२. 


च्राचिकेन सरहणमस्ि तद थेमेत्स्वात्‌ । खद्ुाकम्‌ मालाडकमिति | सति प्रयोजने न 
श्षापकं भवति | तस्मादिवुतो पदेशः कतेष्यः || क एष॒ यलथोधते विवृतोपदेशो 
नाम | विवृतो वोपदिरयेत संवृतो वा को न्वज्र व्रिरोषः | स एष सवे एवमर्थो यलो 
यान्येतानि प्रातिपदिकान्यम्रहणानि तेषामेतेनाभ्युपायेनो पदेङ्राधोद्यते | तहर भवति । 
5 तस्मादवक्तव्यं धात्वादिस्थथ विवृत इति || 
दीर्षुतवचने च संवृतनिनव्॒स्यर्थः | ३ ॥ 
दीषष्ुत्रचने च संवृतनिवृस्यर्थो विवुतोपदेहाः कतैव्यः । दीरषश्ुतौ संवृतो मा 
भूतामिति । वृक्षाभ्याम्‌” देवद्तारि इति ॥| नैव लोके न च येदे दीतौ संवृतौ 
स्तः | कै तर्हि । विवृतौ | यौ स्तस्मै भविष्यतः || 
10 स्थानी प्रकल्पयेदेतावनुस्वारो यथा यणम्‌ । 
संवृतः स्थानी संवृतौ दीषैशुतौ प्रकल्पयेत्‌ । अनुस्वारो यथा यणम्‌ । त्यया । 
सय्वन्ता सर्ैवत्सरः यक्षोकम्‌ लोकमिति | अनुस्वारः स्थानी यणमनुनासिकं प्र- 
कल्पयति; || विषम उपन्यासः । युक्तं यत्सतस्तन्र प्रकुभिभेवति सन्ति हि यणः 
सानुनासिका निरनुनासिकाथ । दीश्ुतौ पुर्व लोके न च वेदे संवृतौ स्तः | कौ 
15 तर्हि | विवृतौ | यौ स्तस्तौ भविष्वतः || एवमपि कुत एतत्तुल्यस्थानी प्रयलमिन्नौ 
भविष्यतो न पुनस्तुटयप्रयलो स्थानभिक्रौ स्यातामीकार ऊकार वेति | वह्यति स्था- 
ने ऽन्तरतमः [१.९.९५ ० | इस्यत्र स्थान इति वतेमाने पुनः स्थानम्रहणस्य प्रयोजनं 
यत्रानेकविधमान्तये तत्र स्थानत एवान्तये बलीयो यथा स्यात्‌ ॥ 


तश्रानुवृ्निनिदेदो सवणांग्रहणमनण्त्वात्‌ ॥ ४ ॥ 

20 तत्रानुवृत्तिनिरेशे सवणौनां महणं न प्राप्रोति | भस्य स्वौ [७.४.३२ यस्येति 
च [६.४.९४८] | किं कारणम्‌ । अनण्त्वात्‌ | न हते णो ये शनुवृत्तौ । के तर्द । 
ये ऽक्षरसमान्नाय उपदिदयन्ते || 

एकत्वादकारस्य सिम्‌ ॥ ९ ॥ 
एको ऽयमकारो य्ाक्षरसमात्नाये यथानुवृ्तौ वथ धात्वादिस्थः || 
%5 अनुब्रन्धसंकरस्तु ।। & ॥ 
अनुबन्धसेकरस्तु प्रामोति । कमेण्यण्‌ [२,२.२९ | आतो अनुपसर्गे कः [३.१.द | 
इति के ऽपि णिर्कृतं भामोति ॥। 


# ७.३.१०२. † ८.२.८२. | ८,४.५९. 





शिवसू° ९. | ॥ व्याकरलमहाभाष्यम्‌ ॥ ` १७ 


एकाजनेकाञग्रहणेषुः खानुपपन्तिः ॥ ७ 1} 
एकाजनेकाञ््रहणेषु चानुपपत्तिमेविष्यति । तत्रं को दोषः | किरिभा ` गिंरिणे- 
वयेकाज्लक्षणमन्तोदात्तस्वरं प्रामोति* | इह च घटेन त॑रति घटिक इति ग्यज्लक्षणक्चच्न 
प्राोति ॥ | | ` 
द्रव्यवच्चोपचाराः ॥ ८ ॥ ् 


दरव्यवचोपचाराः प्रापुवन्ति | तद्यथा | द्रव्येषु नैकेन घटेनानेको युगपत्काये 
करोति । एवमिममकारं नानेको युगपदु्ारयेत्‌ || ` ^ 


विषयेण तु नानालिङ्करणास्सिद्धम्‌ ।। ९ ॥। 

यदयं विषये विषये नानालिङ्मकारे करोति कमेण्यण्‌ आतो अनुपसर्गे क इति 
तेन ज्ञायते नानुबन्धसंकरो ऽस्तीति | यदि हि स्यान्नानालिङ्ककरणमन्थकं स्यात्‌ । 10 
एकमेवायं सवंगुणमुचयारयेत्‌ | तरैतदस्ति शापकम्‌ । इत्संजञापरकुप्त्यथमेतत्स्यात्‌ । 
न द्ययमनुबन्ैः श॒ल्यक वच्छक्य उपचेतुम्‌ । इत्संज्ञायां हि दोषः स्यात्‌ । भायम्ब 
दि इयोरिस्संजञा स्यात्‌ 1 कयोः | आद्यन्तयोः || एवं ताह विषयेण तु पुतनार्हिङ़- 
करणास्सि्धम्‌ | यदयं विषये विषये पुरनरशिङ्गमकारं करोति प्राग्दीव्यतो ऽन्‌ [४. ९. 
८३ | शिवादिभ्य। ऽण्‌ [९९२ | इति तेन ज्ञायते नानु बन्धसंकरो ऽस्तीति | यदि 1: 
हि स्यास्पुनर्छिङ्गकरणमनथेकं स्यात्‌ || अथवा पुनरस्तु विषयेण तु नानालिङ्गक- 
रणास्सिडधमिव्येव । ननु चोक्तमिस्संज्ञाप्रकुष्त्यथमेतस्स्यादिति । तेष दोषः } लोकत 
एतत्सिद्धम्‌ । तद्यथा । लोके कथिहेवद तमाह । इह मुण्डो भव । इह जटी भव | 
हह शिखी भवेति | यद्िद्धो यत्रोच्यते तचिद्धस्तत्रोपातिष्ठते । एवमयमकारो 
वाके यत्रोच्यते तदि द्गस्तत्रोपस्थास्यते || यदप्युच्यत एकाजनेकाज्महणेषु चानुप- 20 
प्र्तिरिति | | 

एकाजनेकज्ग्रहणेषु चावृत्तिसंख्यानात्‌ ॥ ९० ॥ 

एकाजनेकाज्पहणेषु चावृत्तेः संख्यानादने का च्स्वं भविष्यति | तथथा | सप्रदशा 
सामिधेन्यो भवन्तीति ज्रः प्रथमामन्वाह वरिरुत्तमाभिस्या वृत्तितः सप्रदशात्वं भवति | 
एवमिहाप्यावृक्तितो ऽेकाच्त्वं भविष्यति । भवेदावृत्तितः काये परेतम्‌ | इह तु 5 
खलु किरिणा गिरिणेव्थेकाज्लक्षणमन्तोदास्त्वं प्रामोत्येव । एतदपि सिम्‌ | 
कथम्‌ | लोकतः | तद्यथा | लोक कषिसहसमेकां कपिलामेकेकशः सहस्कृत्वो 


# ६, १, ९५८. † ४.४. 9, 





3 ॐ 





९८ ॥ व्याकत्णयहामव्यिम्‌॥ | [ म० ९.९.२. 


दत्त्वा तया सर्षे ते सहदक्षिणाः संपन्नाः | एवमिहाप्यनेकाच्त्वं भविष्यति || 
यदप्युच्यते द्रन्यबञ्योप्रचाराः परामुवन्तीति भवेद्यदसंभवि काये तच्नानेको युगपत्कु- 
यव्यत्तु खलु संभवि काथेमनेको अपि तद्युगपर्करोति । तद्यथा | घटस्य दशनं 
स्पशैनं वा | संभवि चेदं कायेमकारस्योचारणं नामनिको ऽपि तद्युगपत्करिष्यति | 


5 आन्यभान्य तु कालशाब्दग्यवायात्‌ ॥ ९९ ॥ 
आन्यभाव्यं त्वकारस्य । कतः |- काल्यष्दन्यवायात्‌ । कारव्यवायाच्छब्द्‌- 
भ्यवायाच्च | कारव्यवायात्‌ | दण्ड अग्रम्‌ । शब्दव्यवायात्‌ | दण्डः | न चेकस्या- 
मनो व्यवायेन भवितव्यम्‌ | भवति चेद्धवत्यान्यभाव्यमकारस्व || 


युगप देदापृथक्छदर्शानात्‌ ॥ ९२ ॥ 

10 युगपञ्च देशाए्थच्छददोनान्मन्यामह आन्यमाव्यमकारस्येति | यदयं युगपहेश- 
पथ च्रेषुपलभ्यते | अश्वः अकंः अथे इति | न येको देवदत्तो युगपत्छुघरे च भवति 
मथुरायां च | यदि पुनरिमि वणोः दाकुनिवस्स्युः | तद्यथा । शकुनय आद्युश- 
भित्वास्पुरस्तादुत्पतिताः पश्चाहृदयन्ते ¡ एवमयमकारो द . इत्यत्र दृष्टो ण्ड इत्यत्र 
कृरयते | वैवं राक्यम्‌ । भनिस्यत्वमेवं स्यात्‌ | नित्याश्च शाब्दाः | निव्येषु च राब्देषु 

1: कूटस्थैरविचालिमिवैर्ैभेषितव्यमनपायोपजनविकारिभिः |. यदि चायं. द इत्यत्र 
वृष्टो ण्ड हत्यत्र दृद्येत नायं कूटस्थः स्यात्‌ || `यदि पुनरिमे वणो भआदित्यव- 
स्स्युः । तद्यथा | एक आदित्यो अकाधिकरणस्यो युगपेदाष्थक्केष पलमभ्यते । वि- 
षम उपन्यासः | नैको ब्र्टादित्यमनेकाधिकरणस्यं युगपदेशाए्थल्केषु पलभते ऽकारं 
पुनरूपलभते । अकारमवपि नोपरभते । किं कारणम्‌ | भरोत्रोपलन्िबदधिनिमरोद्यः 

20 प्रयोगेणाभिज्वकछित  भाकाशदेराः शब्द एकं च पुनराकाशम्‌ | भआकाददेशा 
अपि बहवः | यावता बहवस्तस्मादान्यभाव्यमकारस्य ॥ 

आशतिग्रहणात्सिम्‌ ॥ ९३ ॥ 
अवर्णीकृतिदपदिष्टा सवैमकणेकुलं मरहीष्यति | तथेवणोकृतिः | तथोवणकृविः || 
तदच तपरकरणम्‌ ॥ ९९ ॥ 

28 . एवं च कृत्वा तपराः करियन्ते | आकङृतिव्रहणेनातिप्रसक्मिति । ननु च . स्वै 
णमहणेनातित्र सक्तमिति ` कृत्वा तपराः क्रियेरन्‌ 1 प्रत्याख्यायते तत्खवर्ण अ्च- 
इणमपरिभाष्यमाकृतिप्रहणादनन्यत्वाचचेति || 


४ द, द, ४६९, 











शिकत २. | ॥ व्याकरनमहाभाष्वमः १९ 


हल्ग्रहणेथु च ।॥ ९९ ॥ 


किम्‌ | आङृतिप्रहणास्सिदधमित्येव । श्लो क्षि [ ८.२.२१ ६ ] । भवात्ताम्‌ 
भवालम्‌ अवात | ` यत्रैतन्नास्त्यण्सवणोन्गृहातीति || 


सूपसामान्याद्ा । ९६ ॥ 


` सूपसामान्याहा सिद्धमेतत्‌ | तथंया | तानेव शाटकानाच्छादयामो ये मथुरा- $ 
वाम्‌ । तानेव रालीन्मुमहे ये मगधेषु । वदेवेदं भवतः कार्षौपणं यन्मथुरायां 
गृहीतम्‌ | अन्यरसमिभान्यस्मिथ सूपसामान्यात्तदेवेदमिति भवति | एवमिहापि सूप- 
खामान्यास्विडम्‌ ॥ 


अ लक्‌ ॥ ९२ ॥ | 


 ककारस्योपदेशः किमर्थः । क विरोषेण लकारोपदेशाथो्ते न पुनरन्ये - 
वामपि वणोनामुपदेदाथद्येत | यदि किंचिदन्येषामपि वणानामुपदेश प्रयोजनस्य 
कारोपदेशस्यापि तद्वितुमर्ति । को वा विशेषः । अयमस्ति विरोषः । अस्य 
ककारस्याल्पीथांधैव प्रयोगविषयो यथापि प्रयोगविषयः सो अपि कुपिस्थस्य 
कुषे ठत्वमिद्धम्‌* । तस्यासिद्धत्वावृकारस्थैवाच्कायोणि भविष्यन्ति नार्थं लका - 
रोपदेदोन || अत्त उत्तरे पठति | 15 


रटकारोपदेरी यदृच्छाराक्तिजानुकरणष्ुस्यादयर्थः ॥ ९॥ ` 


ककारोपदेदाः क्रियते यदृच्छाशब्दा्यो दाक्तिजानुकरणाथेः इत्याययेभ | 
यदृष्डाशष्दा्स्तावत्‌ | यदृच्छया कथिदुतको नाम तस्मिच्चच्कायोणि यथा स्वुः | 
रधयुतकाय देहि ! मध्वुतकाय देहि । उदङ्तको ऽगमत्‌ । प्रत्यङ्तको गमत्‌ । 
चतुष्टयी शब्दानां प्रवृत्तिः । जातिशब्दा गुणराब्दाः क्रियाशब्दा य दृच्छास्षष्दाथ- 
जुयोः || मदछक्तिजानकरण्पथैः } अर्या कयाचिद्रादण्या . ऋतक इति प्रबोक्त- 
व्व तक इति प्रयुक्तम्‌ । तस्यानुकरणं ब्राह्मण्युतकं इत्याह कुमायुतक इत्या- ` 
हेति ॥ शरुत्फाशचथेश्च र कारोषदेशः करैव्यः | के पुनः श्रुत्यादयः । श्ुतिदिवेचन- 
स्वरिताः । कुरशशिख। । कुप्रः‡ । प्रक्रुतः$ । श्ुल्कादिषु कार्येषु कुपेलस्वं सिदध 


* ८.२.१८, † ८.२, ८६. { <. ४. ४.७. $ ६.२.४९; ६.१. १५८; ८.४.६६. ` 








२० 1) व्याकरणयहामष्यम ॥ | [म ०९.९.३२. 


तस्य सिदत्वादव्का्यौणि न - सिध्यन्ति | तस्मादुकारोपदेशः क्रियते || नैतानि 
सन्ति प्रयोजनानि 


न्याय्यभावात्कल्यनं संज्ञादिषु ॥ २॥ 


न्याय्यस्य ऋतकशष्दस्य भावात्कल्पनं संज्ञारिषु साधु मन्यन्ते | ऋतक एवासौ 
5 न कतक इति || अपर आह । न्याय्य ऋतकराष्दः शालरान्वितो अस्ति स कल्पयितव्यः 
साधुः सं्ादिषु | ऋतक एवासौ न लतकः || अयं ति यदृच्डाश्ष्दो ऽपरिहाभिः | 
लफिडः लफिडः ] एषो ऽप्युफिडः ऋफिडथ | कथम्‌ । भर्िप्रवुत्तिैव हि लोके 
लक्ष्यते किडकिड्ावीणादिकौ प्रत्ययौ | यी च शब्दानां प्रवृत्तिः | जातिश्राब्दा 
गुणदाष्दाः क्रियाश्ष्दा इति | न सन्ति यदृच्छाशब्दाः || अन्यथा कत्वा प्रयोजन 
10 मुक्तमन्यथा कृत्वा परिहारः | सन्ति यदुच्छादाम्दा इति कृत्वा प्रयोजनमुक्तं न 
सन्तीति परिहारः । समाने चार्थे शालान्वितो ऽदालान्वितस्य निवतेको भवति | 
तद्यथा } देवदन्तशयम्दो देवरिण्णद्यब्दं निवतैयति न गाव्यादीन्‌ | च्रैष दोषः | पक्षा- 
न्तैरैरापि परिहारा भवन्ति || | 


अनुकरणं शिष्टाशिष्टाप्रतिषिदेषु यथा लोकिकवैदिकेषु ॥ ३ ॥ 

15 अनुकरणं हि शिष्टस्य साधु भवति | अश्िष्टाप्रतिषिद्धस्य वा नैव तहषाय 
व्रति नाभ्युदयाय | यथा -लौकफिकवैदिकेषु | यथा रीकरिकेषु वैदिकेषु च कृता- 
न्तेषु | रोके तावत्‌ | य एवमसौ ददाति य एवमसौ यजते य एवमसावधीत 
इति तस्यानुकुवेन्दद्याच्च यजेत चाधीयीत च सो ऽप्यभ्युदयेन युज्यते | वेदे ऽपि । 
य एवं विश्वसृजः स्राण्यध्यासत इति तेषामनुकुवैस्तदत्सक्नाण्यभ्यासीत सो ऽप्यभ्यु- 

20 दयेन युज्यते || भशिष्टापरतिषिम्धम्‌| य एवमसौ हिति य एवमसौ हसति य एवमसौ 
कण्डूयतीति तस्यानुकुवेन्दिक्षेच हसे्च कण्डुयेच नैव तहोषाय स्याच्नाभ्युदयाय || 
यस्तु खस्वेवमसौ ब्राह्मणे हन्त्येवमसी खरां पिवतीति तस्यानुक्वेन्तराद्मणं दन्या- 
त्रां वा पिबेतसो अपि मन्ये पतितः स्यात्‌ । विषम उपन्यासः | यथैवं हन्ति 
यथानुहन्त्युमौ तौ हतः ¡ यश्च पिबति यथानुपिबल्युमैौ तौ पिवतः | यस्तु खल्वेव- 

25 मसौ ब्राह्मणं हन्त्येवमसौ इरां व। पिबतीति तस्यानुकुवैन्कातानुरिपनो माल्वगुण- 
कण्ठः कदलीस्तम्भं छिन्द्यात्पयो वा पिबेन्न स मन्ये पतितः स्यात्‌ | एवमिहापि य 
एवमसावपशाग्दं परयुङ्ुः इति तस्यानुकुबेन्नपशब्दं प्रयुञ्जीत सो ऽप्यपहाब्दभाक्स्यात्‌ } 
भयं रन्यो ऽपदाष्यपदाथकः शाब्दो यदथ उपदेशः कतेव्यः | न चापहाम्दपदार्थकः 





दिवसूः २.] + व्याकरणमहाभाष्यय ॥ ९९ 


शब्दो ऽपशाबम्दो भवति| अवहयं वैतदेवं धिद्केयम्‌ [यो हि मन्यते ऽपशब्दपदाथेकः 
शब्दो ऽपाभ्टो भवतीस्यपशब्द इस्येव तस्यापराष्दः स्यात्‌ | न धचैषो ऽपदाष्दः || 
अयं खल्वपि भूयो नुकरणशब्दो ऽपरिहायी यदथे उपदेशः कतैव्यः। साध्वु कारम ीते। 
मध्वु कारमधीत इति 1 स्थस्य पुनरेतदनुकरणम्‌ । कुपिस्थस्य | यदि कुपिस्थस्य 
कुपेथ लत्वमसिदधं तस्यासिद्धस्वारकार एवाच्कायोणि भविष्यन्ति | भवे्दर्थेन नाथः $ 
स्यात्‌ | अयं त्वन्यः कुपिस्यपदाथेकः शब्दो यदथे उपदेशः कतैषव्यः| न कर्तव्यः | . 
इदमवद्यं वक्तव्यं प्रकृतिवदनुकरणं भवतीति | किं प्रयोजनम्‌ | हिः पचन्त्वि- 
त्याह } तिडतिडः [८.*१. ९८ ]इति निघातो यथा स्यात्‌ | अगरी इत्याह | शैदृरेदि- 
वचनं प्रगद्यम्‌ | ९. ९. ९९ | इति प्रगृह्यसंज्ञा यथा स्यात्‌ | यदि प्रकृतिवदनुकरणं 
भवतीत्युच्यते ऽपशब्द एवासौ भवति कूुमायूतक इत्याह ब्राद्मण्युतक इत्याह | 10 
अपररब्दो हस्य प्रकृतिः | न चापरशाब्दः प्रकृतिः । न धपदाम्दा उपदिदयन्ते न 
चानुपदिष्टा प्रकृतिरस्ति || 
एकदे दाविकृ तस्यानन्यत्वा्छुस्यादयः 1 ४ ॥ 

एकदेराविकृतमनन्यवद्भवतीति भरुत्यादयो ऽपि भविष्यन्ति | यद्येक शविक्ृतं- 
मनन्यवद्भवतीरयुच्यते राज्ञः कं च |४. ए. १४० | राजकीयम्‌ भक्ठोषो ऽनः 15 
[६. ४. १३४] इति लोपः प्रामोति । एकदे शधिंकृतमनन्यवत्वष्ठीनिर्दिष्टस्येति वश्या- 
भि | यदि ष्ीरनिर्दिटस्येद्युच्यते कु रप्रशिख इति श्रुतो न प्रामोति | न चत्र ऋकारः 
षष्ठीनिर्दिष्टः | कस्तर्हि | रेफः | ऋकारो ऽप्यत्र षष्ठीनिर्शि्टः | कथम्‌ | भविभक्तिको 
निर्देशः | कृप डः रः लः कृषो रो लः [८. २. १८| इति । अथवा पुनरस्त्ववि- 
शोषेण । ननु चोक्ष राञ्चः क च राजकीयम्‌ भष्ठोपो ऽन इति लोपः प्राभोतीति | 20 
तरैष दोषः | वषेचत्येतत्‌ । शवादीनां प्रसारणे नकारान्तमहणमनकारान्तप्रतिषेधाथे- 
भिति" | तत्पकृतमु्षरत्रानुवर्तिष्यते । अष्ठोपो ऽनो नकारान्तस्येति || इह रत 
कु देप्रशिख इत्यनृत इति प्रतिषेधः प्रमिति | | 

रबस्मतिषेधा || ९ ॥ 

रवल्मतिषेधाजैतस्सिध्यति | गुरोररवत इति वदेयामि | यद्यरवत ह्युच्यते हेत्‌ ‰5 
ऋकार होतृकार अत्र न प्रामोति । गुरोररवतो हूस्वस्येति वश्यामि || स एष 
सृज्रभेदेन र कारोपदे शः शुत्या्थः सन्परत्याख्यायते सैषा महतो वंशस्तम्बाह्- 
टरानुकूष्यते ॥ | 


> ६. ४.९२३* † ८. २, ८६. ` 


३१्‌ 1 व्याकरणमहाभाष्य ॥  ्ि० ९.९२. 
९ ओड. ॥ २ ॥.एे ओच्‌ ॥ ७ ॥ 


इदं विचायते | इमानि सं्यक्षराणि तपराणि वोपदिष्येरन्‌ । ९्‌ ओत्‌ङ्‌ | 
एत्‌ ओत्‌च्‌ इति । अतपराणि वा यथान्याखमिति । कथात्र विद्येषः | 


संध्यक्षरेषु तपरोपदेराेलपरोचारणम्‌ ।। ९ ॥ 
$ -संप्वक्षरेषु तपरोपदेशाशेन्तपरोश्ारणं कतेष्यम्‌ ॥ 
|  रस्यादिष्वज्विधिः ॥ ॥ 
` अस्यादिष्वजाअयो विधिर्म सिध्यति । गोरश्रात नौरेन्रात इत्यशाकवि च [८. ४. 
४७] इत्यच उत्तरस्य यरो हे भवत इति द्विवैचनं न प्रामोति । इह च प्रत्यद ्ति- 
कायन उदङ्कौरषगव हइत्यचि [८.३.३२] इति ङमुण्न प्रामोति ॥। 
10  . शतसंज्ञाच॥द३॥ ` . 
्ुवसंश्ञा च म विध्यति । दे रेतिकायन ओ रपगब | ऊकाल ऽज्छ्यस्यदीर्षश्चवः 
[१. २.२७] इति श्ुतसंज्ञा न प्रामोति । सन्तु तद्येतपराणि । 


अतपर एव इग्धस्वादेशे ॥ ४ ॥ 


` यद्तपराण्येव इ्प्रस्वादेशे [१.१.४८] इति वक्तव्यम्‌ } किं प्रयोजनम्‌ 

15 एषो हस्वादेशशासनेष्वभे एकारो ऽध ओकारो वा मा भूदिति | ननु च यस्यापि 
तपराणि तेनाप्वेतहक्तव्यम्‌ । इमावैचौ समाहारवर्णौ माऋवर्णेत्य मान्रेवर्णो- 
वणैयोस्तयोहैस्वादेशाशासनेषु कदाचिदवणेः स्वात्कदाचिदिवर्णोवर्णौ मा कदाचि- 
दवण भूरिति । परस्याख्यायत एतत्‌ । रेचोधो्षरभुयस्त्वादिति | दि प्रत्याख्यानपक्ष 
इदमपि प्रत्याख्यायते । सि्धमेडः सस्थानस्यादिति | ननु चैडः सस्थानतरावर्धं 

20 एकारो पै भओकारथ | न तौ स्तः | यदि हि वौ स्यातां षेवायमुपदिशेत्‌ ॥ 
ननु च भोदृन्दोगानां सात्यमुभिराणायमीया अपेमेकारमधमोकारं चाषीयते [ 
खजाति ए अथसनृते | अध्वर्यो ओ अद्रिभिः चतम्‌ । शुक्रं ते ए अन्ययजतंते पए 
न्यदिति । पाधैदकृतिरेषा तत्रभवतां तैव हि लोके नान्यस्मिन्वेदे ऽ एकारो ऽषे 
ओकारो वासि | 


25 एकाद दीषेग्रहणम्‌ ॥ ५ ॥ | 
एकादेशे दीषेमहणं कतेष्यम्‌ । भादुणो [६.१.८७] दीषैः । वृद्धिरेचि [८८] 








 भिवेसू* २.४.] ॥ व्थाकरणयहाभाष्यम्‌ ॥ ` २३ 


दीषै इति । किं प्रयोजनम्‌ । आन्तयैतखिमात्र चतुमौत्राणां स्थानिनां भरिमात्रचतुमोज्ा 
भदेज्ञा मा भूवन्निति । खद्भू इन्रः खदवन्द्रः । खटा उदकं खट्वोदकम्‌ । खटा हषा 
खटवा । खटा रुढा खदोढा । खटा एढका खद्रैलका | खटा भोदनः खट्रौदनः। खटा 
रेतिकायनः खदरतिकायनः । खटा ओौपगवः खडी पणवः ॥ तन्ति दीपद 
कतेभ्यम्‌ | न कतेव्यम्‌ } उपरिष्टादयोगविभागः करिष्यते | अकः सवण एको भवति |. 5 
ततो दीषेः | दी स मवति यः स एकः पुवंपरयोरित्येवं निर्िष्च इति* | इहापि 
तर्हि पराति | पम्मुम्‌ विद्धम्‌ पचन्तोति | मैष दोषः | इह तावत्पभुमित्यम्येक 
इतीयता सिद्धम्‌ । सो अयमेवं सिद्धे सति यत्पूवैयहणं करोति† तस्थैततप्रयोजनं 
यथाजातीयकः पूत्रैस्तथाजातीयक उभयो यथा स्यादिति । विद्धमिति पूर्व इस्ये- 
ानुवतेते‡ | अथवा चायैभरवृत्तिज्ञौपवाति नानेन संप्रसारणस्य दीर्बो भवतीति 10 
यदं हठ उत्तरस्य संप्रसारणस्य दीषेत्वं शास्ति$ | पचन्तीत्यतो गुणे पर॒ इती- ` 
यता सिद्धम्‌ । सो ऽथमेवं सिद्धे सति यद्रुप्रहणं करोति। तस्थैततत्मयोजनं 
जथाजातीयकै परस्य रूपं तथाजातीथकमुभयोयेथा स्यादिति ॥ इह तर्हि खटरदयैः 
मालदइयै इति दीधैवचनादकारो नानान्तयोदेकारौकारौ भ | तत्र को देषः | विगृही- 
तस्य श्रवणं प्रसज्येत | न ब्रूमो यत्र क्रियमाणे दोषस्तत्र कतेव्यमिति | किं तर्दि | 15 
यत्र क्रियमाणे न दोषस्तत्र कतैव्यामिति | क च क्रियमाणे न रोषः | संज्ञाविधौ | 
वृद्धिरिज्‌ [१.९.१] दीधः । अदेङ्कुणो [२] दीषे इति ॥ तर्त. दीषैचहणं 
 कतैव्यम्‌ । न कतेब्यम्‌ | कस्मादेवान्तयेतजिमात्रचतुमोत्राणां स्थानिनां त्रिमान्रच- 
तुमौत्रा आदेशा न भवन्ति | तपरे गुणवृद्धी । ननु च तः परो यस्मात्सो ऽयं तपरः | 
नेत्याह | तादपि परस्तपर इति | यदि तादपि परस्तपर . ऋदोरप्‌ [३.३.९५७] 20 
इदेहेव स्यात्‌ | यवः स्ववः | कवः पव इत्यत्र नं स्यात्‌ | नैष तकारः | कस्त- 
हह | रकारः | कि दकारे प्रयोजनम्‌ | अथ किं तकारे | यथ्स्दिशाथैस्वकारो 
दकार अपि | अथ मुखद्कलार्थस्तकारो दकारो भपि।॥। 

इदं विचार्यते | य एते वर्णेषु कौकरेशा वणोन्तरसमानाकृय एतेषामवयय- 
अहणेन ब्रहणै स्याद्वा न वेति | कुतः पुनरियं विचारणा । इह समुदाया अप्युपदि-.% 
इयन्ते ऽवयवा आपि | अभ्यन्तर समुदाये ऽषयवः । तद्यथा | वृक्षः प्रचलन्सहा- 
अयतरीः प्रचतति | नत्र समुदायस्थस्यावयवस्यावयवमरहणेन महणं स्याद्वा न वेति 
जायते विचारणा | कथात्र विशेषः | ` 
। नकन ` द [९९८५ ` इ | ९९९१५९५. 


[पीस 





। 


. १४ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥  `{म०९.९.२. 


` वणैकदेरा वणेग्रहणेन . चेत्संध्यक्षरे समानाक्षशविधिप्रतिषेधः ॥ ६ ॥ 
वर्शीकरेशा वणेप्रहणेन चेत्स॑भ्यक्षरे समानाक्षराश्रयो विधिः प्रामोति स प्रति- 
बध्यः | अग्ने इन्द्रम्‌ | वायो उदकम्‌ । भकः स्वर्णे दीपैः [ ६.१.९०९ | इति 
रीधेस्वं प्रामोति ॥ 
5 दीधे हस्वविधिपतिषेधः॥।७।॥ 
दीष हस्वाक्तरभ्नयो विभिः प्राभोति सं प्रतिषेभ्यः | मामणीः | भालूय | प्रलय | 
हस्वस्य पिति कृति तुगभवतीति तुक्परामोति* | नैष दोषः | आवा येप्वृत्तिज्ञो पयति 
न दीर्ध हस्वान्नयो विधिभेवतीति यदयं रीषौच्छे तुकं शासि | वैतदंस्ति ज्ञापकम्‌ | 
अस्ति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ | किम्‌ । पदान्ताद्वा [ ६.१.७६ | इति 
10 विभाषां वक्ष्यामीति । यस्त योगविभागं करोति | इतरथा हि दीषौर्पदान्ता- 
देसे ब्रूयात्‌ || इह ताह खटामिः मालाभिः अतो भिख देस्‌ [ ७. ९. ९ | इल्यै- 
स्मावः प्रामोति | तपरकरणसामथ्वौन्न भविष्यति || इह ताह याता बाता अतो 
लोप आधधातुके [६.४.४८] इत्यकारलोपः प्रामोति । ननु चात्रापि तपरकरण- 
 सामभ्योदेव न भविष्यति | अस्ति ह्यन्यत्तपरकरणे प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | सवस्य लो- 
15 पो मा भूरिति | अथ क्रियमाणे अपि तपरे परस्य लोपे कते पूर्वस्य कस्मान्न भवति | 
परलोपस्य स्थानिवद्धावादसिद्धस्वाञ्च | एवं तद्यो चाथपवुत्तिजञोपयति नाकारस्थस्या- 
कारस्य लोपो भवतीति यदयमातो अनुपसर्गे कः [ ३.२.२ | इति ककारमनुबन्धं 
करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | कित्करण एतसयोजन कितीत्याकारलोषो यथा 
स्यादिति; । यदि चाकारस्थस्याकारस्य लोपः. स्यास्कित्करणमनथेकं स्वात्‌ | 
20 प्ररस्याकारस्य लोपे कृते इयोरकारयोः परसूपे हि सिद्धं रूपं स्यात्‌ गोदः क- 
म्बलद हति | परयति त्वाचार्यो नाकोरस्थस्याकारस्य कोपो भवतीत्यतः ककार- 
मनुबन्धं करोति । बैतदस्ति ्षापकम्‌ | उत्तरार्थमेतत्स्यात्‌ । तुन्दशोकयोः परिमू- 
जापनुदोः [ ३.२.९ | हति | यत्तर्हि गापोष्टक्‌ [ ३.२.८ | इत्यनन्याथै ककारमनु- 
बन्धं करोति ॥ | 
9 | एकव्णवश्च | ८ | 


एकवणेवद्च दीघो भवतीति वक्तव्यम्‌ | कं प्रयोजनम्‌ । आचा तरतीति 
व्यज्लक्षणष्ठन्मा भूदिति ¡ इहं च वाचो निमिं तस्य निमित्तं संयोगोत्पातौ 


न ६.१.७१, { ६.९.७५. { ६.४.५४. $ ४.४.. 














शिवसू” ३.४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ २५ 


[९.९.३८] इति ञ्लक्षणो यन्मा भूदिति* । अन्रापि गोनौमहणो। ज्ञापकं दी- 
षोरव्यज्लक्षगो विधिमे भवतीति | भयं तु सर्वेषामेव परिहारः | 


नाव्यपवृक्तस्यावयवे तद्िधि्यथा द्रव्येषु ॥ ९ ॥ 


नाव्यपवुक्तस्यावयवस्यावयवाश्रयो विपिभवति यथा द्रव्येषु | तथथा दरष्वेषु | 
सपददा सामिपेन्यो भवन्तीति न सप्रदशारलिमारं काष्टमप्रावभ्याधीयते | 5 
विषम उपन्यासः | प्रस्य चैव हि तत्कमे चोद्यते ऽसंभवथातौ वेधां च | 
यथा तर्हि सप्रदश प्रादेशमात्रीराश्त्थीः समिधो ऽभ्याद धीतेति न सप्रदष्यपरादेशमाशर 
काष्ठमभ्वा धी यते | अत्रापि प्रतिप्रणवं वैतत्कम चोदते तुल्यथासंमवो ऽभौ वेदां 
च|| यथा तर्द श्तैलं न विक्रेतव्थं मांवं न विक्रेतव्यमिति व्यपवृक्तं च न विक्री- 
यते ऽव्यपवृक्तं च गावश्च सपा विक्रीयन्ते | तथा लोमनखं स्पृष्ट शौचं कतै- 10 
व्यमिति व्यपवृक्तं स्पृष्टा नियोगतः कतेव्यमव्यपवृक्ते कामचारः || यजत्र वर्हि 
व्यपवर्ग अस्ति | क च व्यपवर्ग ऽस्ति । संध्यक्षरेषु | 


संध्यक्षरेषु विवृतत्वात्‌ ॥ ९० ॥। 
यदज्राव्णे विवृततर तदन्यस्मादवणाय्ये अीवर्णोवर्णे विवृततरे ते भभ्याभ्या- 
मिवर्णोवणेभ्याम्‌ || 15 
अथवा पुनन गृ्न्ते | | | 


अग्रहणं चेशुद्धषिलदिशविनाभेष्वृकारग्रहणम्‌ ॥ ९९ ॥ 

जमरहणं चेचुद्धधिलादेराविनामेष्वकारस्य भहणं कतेष्यम्‌ । तस्माच ददिदलः 
[9.४.७९] ऋकारे चेति वक्तव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ । आनृधतुः आनृधुरिति । 
यस्य पृनगृद्यन्ते दविहल हव्येव तस्य सिद्धम्‌ । यस्यापि न गृ्यन्ते तस्याप्येष न 2 
रोषः | दिहल्प्रहणं न करिष्यते | तस्मान्रुदभवतीत्येव | यदि न क्रियत आटतुः 
आटुरिस्यत्रापि प्राभोति । अश्नोतिग्रहणं ; नियमाय भविष्यति | अभ्नोतेरेवावर्णोप- 
धस्य नान्यस्यावर्णोपभस्येति || लादेशे च ऋकारमहणं कतेष्यम्‌ । कृपो रो लः 
[८.२.९८ | ऋकारस्य चेति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । करुप्रः कुप्रवा- 
निति | यस्य पुनगृदयन्ते र इस्येव तस्य सिद्धम्‌ । यस्यापि न गृद्यन्ते तस्याप्येष न 2 
दोषः | ऋकारो ऽप्यत्र निरदिदयते | कथम्‌ । अविभक्तिको निर्देशः | कृप उः रः 


# ५.१.६९, ¶ ९.९.१९; ४,४.७५, यु 9-४.७२, 
4 


२६ ॥ व्याकरणमहामाष्यम्‌ ॥ ` [म०९.९.२. 


लः कृपो रो र इति | अथवोभयतः स्फोटमात्र॑निर्दिदयते । रभुतेरंभ्रुतिभव- 
तीति || विनाम कऋकारपहणं कतेव्यम्‌ | रषाभ्यां नो णः समानपदे [८.४.१९ 
ऋकाराचेति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ | मातृणाम्‌ पितृणामिति ] यस्य पुनग- 
द्यन्ते रषाभ्यामित्येव तस्य सिद्धम्‌ | न सिध्यति | यत्तद्रेफारपरं भक्तेस्तेन व्यव- 
६ हितत्वान्न प्रामोति | मा भूदेवम्‌ | भडव्यवाय' इस्येव द्धम्‌ । न सिध्यति | वर्भ- 
.कदेराः के वणेब्रहणेन गृह्यन्ते | ये व्यपवृक्ता अपि वणौ भवन्ति | यचापि 
रेफात्परं भक्तेन तत्क्राचिदापि व्यपवृक्तं दृदयते | एवं तर्द योगविभागः करिष्यते | 
रषाभ्यां नो णः समानपदे | ततो व्यवाये | व्यवाये च रषभ्यां नो णो भवतीति| 
ततो द्‌कुप्वाङुम्भिरिति । इदमिदानीं किमथेम्‌ । नियमायैम्‌ । एतैरेवाक्षर- 
10 समाञ्नायिकेव्यैवाये नान्थेरिति || यस्यापि न गृह्यन्ते तस्याप्येष न दोषः | आ- 
= वार्यप्यृ्तज्ञोपयति भव्यृकारान्नो णस्वामिति यदयं सु्ादिषु नृनमनशब्दं पठति | 
नैतदस्ति ज्ञापकम्‌ | वृ्यथैमेतर्स्यात्‌ | नानैमनिः । यत्तार्हे तुमोतिराष्दं पठति | 
यद्यापि नुनमनराब्दं पठति । ननु चोक्तं वृद्यथमेतस्स्यादिति [ बहिरङ्गा वृदिर- 
न्तर ङ्ग णत्वम्‌ | असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे || अथवोपरिष्टाद्योगविभागः करि 
15 ष्यते; | ऋतो. नो णो भवति | ततम्रडन्दस्यवम्रहात्‌ | ऋत इत्येव || 


ुतावैच इदुतोऽ || ९२॥। 


एतच वक्तव्यम्‌ | यस्य पुनगृद्यन्ते गुरोष्टेरिव्येव श्रुत्या तस्य सिद्धम्‌| | यस्यापि 
न गृह्यन्ते तस्याप्येष न दोषः | क्रियत एतन््यास एव ॥ 


१.० 


तुल्यरूपे संयोगे द्िव्य्ननविधिः ॥ ९३ ।। 

20 तुल्यरूपे संयोगे हिव्यश्जनाश्रयो विधिने सिध्यति | कुङ्कुटः पिप्पलः पित्त- 
भिति | यस्य पुनग्न्ते तस्य है ककारौ हौ पकारौ हौ तकारौ | यस्यापि न 
गृह्यन्ते तस्यापि हौ ककारौ हौ पकारौ डौ तकारौ । कथम्‌ मात्राकालो ऽर गम्यते 
न च मात्रिकं व्यञ््नमस्ति । अनुपदिष्टं सत्कथं शक्यं विज्ञातुम्‌ | यद्यपि तावद- 
्ैतच्छक्यते वक्तु यत्रैत्नास्त्यण्सवणौन्गृह्णातीतीह तु कथं सथ्यन्ता सव्वत्सरः य्ो- 

2६ कम्‌ त्ठोकमिति यत्रैतदस्त्यण्सवणोन्गृह्णातीति | अत्रापि मात्राकालो गृह्यते न च 
मात्रिकं व्यव्जञनमस्ति | अनुपदिष्टं सत्कथं शक्यं विक्ञातुमसञ्च कथं शाक्य प्रति- 
प्तम्‌ ॥ 


मै ८,४.२. † ८.४.३९. { ८.४.२६. § ८.२.६०६. || ८.२.८६. 





शिक ५. | ॥ व्याकट्णपहाभाष्यम्‌ ॥ २ 
हयवरट्‌ ॥५॥ 


स्वै वर्णः सक्दुपदिष्टाः | भयं हकारो द्िरुपदिदयते पुवेधैव पर | यदि 
एनः पुव एवोपदिदयेत पर एव वा । कथात्र विदोषः | 


हकारस्य परोपेदेरो ऽडहणेषु हम्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 
हक(रश्य परोपदेशे ऽङुदणेषु हरणं कतेष्यम्‌ | आतो अटे नित्यम्‌ [८.३.२३ | 


ण्डो अटि [ ८.४.६३ | दीषौदटि समानपदे | ८.३.९ | हकारे चेति वक्तव्यम्‌ । 
हृहपि यथा स्यात्‌ | महाह सः || 


उस्वे च| >॥ 


उत्तवे च हकारम्रहणं कतेव्यम्‌ | अतो रोरश्ुतादज्रुते [६.१.१९३] हरि च 
[१९९४ | हकारे चेति वक्तव्यम्‌ । हापि यथा स्यात्‌ । पुरषो हसति । ब्राह्मणो 1 
हसतीति || अस्तु तहि पर्वोपदेश्यः। 


ूर्वोपदेदो किच्वक्सेडधिधयो द्यल्म्रहणानि च ॥ ३ ॥। 


यदि पूर्वोपदेशः कित्वं विधेयम्‌ | ज्लिित्वा केटित्वा । तिज्ञिहिषति सिक्ते- 
हिषति | रलो व्युपधादलददेः [९.२.२६] इति किच्वं न प्रामोति | क्विषिः | 
क्सश्च विधेयः | अधुक्षत्‌ अलिक्षत्‌ । शल इगुपधादनिटः क्सः [ ३.९.४९ | 1 
इति क्सो न प्रपरोति || इङ्िधिः । इट्‌ च विधेयः | सदिहि स्वपिहि | वलादिल- 
षण इण्न प्रामोति* || इ्ल्प्रहणानि च । किम्‌ | अहकाराणि स्युः | तत्र को 
दोषः । इलो दलि [ ८.२.१६ ] इतीह न स्यात्‌ । अदाग्धाम्‌ भदाग्धम्‌ ॥। 
तस्मात्पुवैचैवोपदेष्टव्यः परथ | यादि च किचिदन्यत्राप्युपदेशे प्रयोजनेमस्ति तत्रा- 
प्युपदेशः कतेष्यः || | | 20 

इदं वित्रायते | अयं रेफो यकारवकाराभ्यां पूवे एवोपदि दयेत ह र य वाडिति 
प्र एव्र वा यथान्यासामिति । कथात्र विशेषः | 


रेफस्य परोपदेशे ऽनुनासिकद्विवं चनपरसवर्णपरतिषेधः ॥ 9. ॥ 
रेफस्य परोपदेशे ऽनुनासिक दवे चनपर सवणौनां प्रतिषेधो वक्तव्यः | अनुनासिक- ` 
स्य | स्वनेयति प्रातर्नयतीति यरो ऽनुनासिके अनुनासिको वा [८.४.४९ | इत्यनुना- २६ 





# ७, २. ७६, 


} ५3 ॥ भ्याक्षरणमहधिष्यय्‌ ॥  [म०९.९.३. 


सिकः प्राभोति ॥ हिबेचनस्य } भद्रहूदः मद्रहद इति यर इति शिवैचनं प्रामोति" ॥ 
परसवणेस्य | कुण्डे रथेन | वनं रथेन | अनुस्वारस्य ययि [ ८. ४. ९८ | इति 
परसवणीः प्रामोति || अस्तु तर्हिं पूर्वोपदेशः | 


ूर्वोपदेरो किच्वभतिषेधो व्यलापवचनं च ॥ ९॥ 

5 यदि पुर्वोपदेदाः क्वं प्रतिषेध्यम्‌ | देवित्वा दिदेविषति । रलो व्युपधात्‌ 
[९. १. २६] इतिं किरं प्रभोति । नेष दोषः । वैवं विज्ञायते रलः व्युपधादिति | 
(कं सर्हि | रलः अष्व्युपधादिति | किमिद मञ्व्युपधादिति । भवकारान्ताद्युपधा- 
दव्वयुपधादिति ]] व्यलोपयचनं च | व्यो लोपो वक्तव्यः | गौधेरः | पचेरन्‌ 
यजेरन्‌ | जीवे रदानुक्‌ जीरदानुः । षलीति रोपो।न प्राभोति | नैष दोषः | रेफो ऽप्यत्र 

10 निर्दिश्यते | ऊप व्योवैलीति रेफे च वलि चेति || अथवा पुनरस्तु परोप- 
देशः | ननु चोक्तं रेफस्थ परोपदेशे शनुनासिकदिवेचनपरसवणेप्रतिषेष इति | 
धनुनासिकपरसवर्णयोस्तावस्रतिषेधो न वक्तव्यः | रेफोष्मणां सवणो न सन्ति | 
शिवैचने अपि नेमौ रहौ कार्थिणौ द्िषैचनस्य | किं तर्दि | निभित्तमिमी रहौ 
दिवैचनस्य । तद्यथा । ब्राह्मणा भोज्यन्तां माठरकौण्डिन्यौ परिवेिश्टामिति नेदानीं 

15 ती भुश्ाते || । | 
` : इदं विचायते | इमे ऽयोगवाहा न कविदुपदिदयन्ते भ्रूयन्ते च तेषां कायाय 
उपदेशाः कतैष्यः.| के पुनरयोगवाहाः | विस्जेनीयजिहामुलीयोपध्मानी यानुस्वा- 
रानुनासिक्ययमाः । कथं पुनरयोगवाहाः । यदयुक्ता वहन्त्यनुपदिष्टा्च भयन्ते ॥ 
क ॒पुनरेषामुपदेशः कतेव्यः | 


20 अयोगवाहानामदर णत्वम्‌ ॥ & | 
भयोगवाहानामद्ुषदेशः कतैव्यः | किं प्रयोजनम्‌ | णस्वम्‌ । उरःकेण 
उरःपेण | अद्धव्यवाय इति ग्वं क्षिं भवतिः ॥ 
दाष जदभावषत्वे ॥ ७ || 


दाषैपदेशः कतैष्यः | किं प्रयोजनम्‌ | जरभावषत्वे | अयमुन्निरुपप्मा- 
४ नीयोपधः पद्यते तस्य जर्वे कृत॒ उभ्निता उभ्जितुमित्येतद्रुपं यथा स्यात्‌ऽ ॥ 

















कजिवतु" ९.] . ॥ व्याकरनब्रहाभाव्यय ॥ ५ 


दकारोपधे पुनम न्द्राः संयोगादयः [६.९.२ | इति प्रतिषेधः लिद्ध भवति | यरि 
रकारोपधः पद्यते का रूपसिद्धिः उभ्जिता उभ्जितुमिति ¡ असिडे भ उद्जेः । 
इदमस्ति स्तोः शुना शुः [८.४.४० | इति | ततो वद्यामि | भ उद्जेः | उद्जेश्ुना 
संनिपाते भो भवतीति | ततर्ह वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । निपावनदेव सिदम्‌ | 
फ निपातनम्‌ । भुजन्युब्जौ पाण्युपतापयोः [७.३.६९] हति । इशापि तर्हि 5 
प्रमति | अभ्युद्गः समुद इति | अकुत्वविषये तन्निपातनम्‌ | अथवा तैत- 
दुभने रूपं गमेरेतद द्य पसग विधीयते | अभ्युद्गतो ऽभ्युहः । समुद्रतः समुद इति ॥| 
पतव च प्रयोजनम्‌ | सर्िःषु धनुःषु | दाण्येवाय इति षत्वं सिद्धं भवति | 
 नुभ्विसजनीयदाव्येवाये ऽपि [८.३.९८] इति विसजेनीयपहणं न क्त्यं भवति | 
नुमभापि तर्हि म्रहणं शक्यमकरतुम्‌ । कथं सर्पीषि धनूंषि | अनुस्वारे कृते शा््यै- 10 
वाय इत्येव सिम्‌ । अवरयं नमो प्रहणं कतेव्यम्‌ | अन्‌स्वारविदोषणं नस्महणं 
नुमो यो ऽनुस्वारस्तत्र यथा स्यादिह मा भूत्‌ । पुंस्विति || अथवाविेोषेणोपदेश 
कतेव्यः | किं प्रयोजनम्‌ | 
अविरेषेण संयोगोपधासंज्ञालोऽन्त्यद्विवंचनस्थानिवद्धावपरतिषेषाः ॥ ८ ॥ 
अविशेषेण संयोगसंज्ञा प्रयोजनम्‌ | ऊरष्जक | हलो ऽनन्तराः संयोगः [१.९.७] 15 
इति संयोगसंश्चा संयोगे गरु [१.४.११] इति गुरुसंज्ञा गुरोरिति शरुतो भवतिः ॥| 
उप्रथासंज्ञा च प्रयोजनम्‌ 1† | दुष्कृतम्‌ निष्कृतम्‌ | निष्पीतम्‌ दृष्पीतम्‌ | इदुदुपधस्य 
चाप्रत्ययस्य [८.३.४१ | इति षतं सिद्धं भवति । नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । नेदुदुपधमह- 
णेन विसजेनीयो विहोष्यते | किं तहि | सक्रारो विशेष्यते | इदुदुपधस्य सका- 
रस्य यो विसज॑नीय इति । भथवोपधाग्रहणं न करिष्यत इदुद्धां तु परं विसजेनीयं 80 
विहेषायिष्यामः। इदुश्यामु तरस्य विसजेनीयस्येति || अले ञन्त्यविधिः प्रयोजनम्‌ +| 
वृक्षस्तरति | अक्षस्तरति | अलोऽन्त्यस्य त्रिषयो भ्रन्तीत्यलोऽन्त्यस्य सव्वं क्षिं भ- 
वति$ | एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | निर्दिरयमानस्यादेहा भवन्पीति विसजमीयस्यैव 
विष्यति |] द्ववन प्रयोजनम्‌ | उरःकः उरःपः | अनवि च [८.४.४७ 
अच उन्तरस्य यरो हे भवतं इति दिवेचनं किध भवति || स्थानिवङ्धावप्रतिषेधथ 2; 
भरयोजनम्‌ । ययेह भवस्युरःकेण उरःपेणेत्यड्व्यवाय॥ इति णत्वमेवभिशापि स्थानि- 
वद्धावादाभोति व्यूढोरस्केन महोरस्केनेति । तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधः¶ सिद्धो 
भवति ॥ , ., | 


कियाय 
> ८२, ८९. 1 ९.१.५५ {९.१.५९ ऽ ८३.३४. | ८४९. बृ ९.९.५६ 


३० ॥ ्राकरणमहाभष्यम्‌ ॥ [मण ९.९.२.. 


किं पुनरिमे वणौ अर्थवन्त आहोस्विदनथकाः । 


अर्थवन्तो वणौ धातुप्रातिपदिकमत्ययनिपातानामेकवणौनामथेदरौनात्‌।।९॥ 


धातव एकवणौ अथेवन्तो इृदयन्ते | एति अभ्येति अधीत इति | प्रातिपदिका- 

न्येक वणौन्य्थैवन्ति | भ्याम्‌ एमिः एषु । प्रत्यया एकवण अथेवन्तः | ओीप- 
5 गवः कापटवः | निपाता एकवणो अथेवन्तः | अ अपेहि | इ इन्द्र परय | उ उत्ति | 
धातुपरातिपदिकप्रस्ययनिपातानामेकवणोनामथं द दनान्मन्यामहे ऽथेवन्तो व्ण इति || 


वर्णव्यस्यये चार्थान्तरगमनात्‌ ॥ ९० ॥ 


वणेत्यत्यये चाथौन्तरगमनान्मन्यामंहे ऽथेवन्तो वणौ इति | कुपः सुपः युप 

इति । कुप इति सककारेण कथिदर्थो गम्यते । सुपर इति ककारापाये सकारोप- 

10 जने चाश्रौन्तरं गम्यते | युप इति ककारसकारापाये यकारोपजने चार्थान्तरं ग- 

म्यते | ते मन्यामहे यः कूपे कूपाथः स ककारस्य यः सुपे सूपार्थः स सका- 
रस्य यो युपे युषाथेः स यकारस्येति ॥ 


वगीनुपकुन्धो चानर्थगतेः ।। ९९ ॥ 


वणनुपकभ्यौ चानथैगते्मैन्यामंहे ऽथैवन्तो वणौ इति | वृक्षः ङ्क्तः | काण्डीरः 
75 आण्डीरः | वृक्ष इति सवकारेण कथिदर्थो गम्यत कक्ष इति वकारापाये सो ऽथो 
न गम्यते | काण्डीर इति सककारेण कथिदर्थो गम्यत आणण्डीर इति ककारापाये 
सो ऽर्थो न गस्यते | किं तद्यु्यते ऽनर्थगतेरिति | न साधीयो ह्यत्रा्थैस्य गतिर्मवति | 
एवं तर्हीदं पठितव्यं स्यात्‌ | वणोनुपलन्थौ चातदथगतेरेति | किमिदमतदर्थेगतेरिति | 
तस्याथस्तदर्थः | तदथस्य गतिस्तद्थगतिः | न तदथगतिरतदथगतिः | अतद्थग- 
20 तेरिति | अथवा सो ऽ्थ॑स्तदथः | तदर्थस्य गतिस्तद्थगत्तिः | न तदर्थगतिरतद थगतिः| 
अतदथेगतेरिति | स रताई तथा निर्देशः कतेव्यः | न कर्तव्यः | उत्तरपदलोपो जत्र 
द्रष्टव्यः | तद्यथा । उष्टूमुखमिव मुखमस्य | उष्टूमुखः | खर मुखमिव मुखमस्य | खर- 
मुखः | एवमतदर्थगतेरनर्थगतेरिति ॥ 


संघाताथवच्वा् | १२ || 


25 संघाताथेवस््राच्च मन्यामहे ऽथेवन्तो षणा इति | येषां संघाता अथैवन्तो ऽवयवा 
अपि तेषाम्थेषन्तः । येषां पुनरवयवा अनथकाः समुदाया अपि तेषामनथकाः ] 


शिवभू" ९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ | ३९ 


तद्यथा | एकथभ्षुष्मान्द शने समथस्तर्छमुदायश्च शतमपि समयम्‌ । एकच तिल- 
सतैलदाने समर्थस्तत्समुदायश्च खार्य॑पि समथो | येषां पुनरवयवा अनथकाः समु- 
राया अपि तेषामनथकाः | तद्यथा । एको ऽन्धो दरीने ऽसम्थस्ततसमुदायश्च शातम- 
प्वसमथेम्‌ | एका च सिकता तैलदाने ऽसमथौ तत्समुदायश्च खारीशयतमप्यसम्थम्‌।। 
यदि तर्हीमि वणौ अथेवन्तो ऽथेवत्कृतानि प्रामुवन्ति | कानि | अथेवत्पातिपदिकम्‌ 5 
| १, २. ४९ | इति प्रातिपदिकसंज्ञा प्रातिपदिकात्‌ | ४. ९. ९. | इति स्वादयुत्पात्ः 
छबन्तं पदम्‌ [९. ४. ९४] इति पदसंज्ञा | तत्र को दोषः | पदस्येति नलोपादीनि 
रापुवन्ति* | धनम्‌ वनमिति | 


संधातस्थेका्यात्सुबभावो वर्णात्‌ ॥ ९३ ॥ 
संयतस्थैकत्वमर्थस्तेन व्णातडबुत्पत्तिनै भविष्यति || 10 
अनर्थकास्तु प्रतिवणेमयनुपलग्येः ॥ ९४ ॥ 


अनर्थकास्तु वणोः | कुतः | प्रतिवणंमथौनुपकभ्येः | न हि प्रतिवणैमथौ उप- 
लभ्यन्ते | किमिदं प्रतिवणेमिति | बणे वणे प्रति प्रतिवणेम्‌ ॥ 


वणव्यत्ययापायोपजनविकरिष्व्थददांनात्‌ ॥ ९९ ॥ 


वर्णव्यत्ययापायोपजनविकारेष्वर्थद दौनान्मन्यामहे ऽन्थ॑का वणौ इति | वणैव्य- 1 
त्यये | कृतेस्तकुः | कसेः तिकताः । हिंसेः सिंहः । वणेव्यत्ययो नाथेव्यत्ययः || 
अपायो लोपः | घ्रन्ति घ्नन्तु अघ्नन्‌ | वणोपायो नाथोपायः || उपजन . आगमः | 
विता रवितुम्‌ | वर्णोपजने नार्थोपननः || विकार आदेः | घातयति धातकः | 
वणोविकारो नायेविकारः || यथैव हि वर्णेब्यस्ययापायोपजनविकारा भवन्ति तदद- 
यव्यत्ययांपायोपजनविक रभवितव्यम्‌ | न चेह तदत्‌ | भतो मन्यामहे नथैका 20 
बौ इति || उभयमिदं वर्णेषक्तम्‌ | अर्थवन्तो ऽनर्थेका हति च | किमत्र न्याय्यम्‌ | 
उभयमित्याह. | कुतः | स्वभावतः । तद्यथा ¡ समनमीहमानानामधीयानानां च 
केविदथयुज्यन्ते ऽपरे न । न चेदानीं कथिदथैवानिति कृता सर्वैर्थवदिः शक्यं ` 
भवितुं कशिद्वानथेक हति कृत्वा सर्वैरनथकैः । तत्र किमस्माभिः शक्यं कतुम्‌ । 
यद्धातुप्रस्ययप्रातिपदिकनिपाता एकवणो भथेवन्तो ऽतो ऽन्ये नथेका इति स्वाभाविक- 25 
मेतत्‌ ॥ कथं य एष भवता वणीनाम्थवत्तायां हेतुरुपदिष्टो अ्थैवन्तो वर्णा 


# ८. २, ७, 


६२ ॥ ग्याकरणहाभाष्य व्‌ ॥ ` [म०९.१.२्‌. 


` धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानामेकबणोना मथेदहोनाङणेव्यस्यये चाधौन्तरगमनादणौ- 
नपलमभ्शै चानथगतेः सं घातयेवस्षाचेति । संघातान्तरण्येतैतान्येवं जातीयकान्य्थौ- 
न्तरेषु शतेन्ते | कुपः सुपः यूप इति | यदि हि वणेव्यत्ययकृतमथौ न्तर गमनं 
स्याद्ूयिष्ठः कुपथः खपे स्यात्व पाये कूपे कुपथ युपे युपाथैध कूपे उपाथथ 
£ युपे यूपाथ खपे । यतस्तु खलु न कथित्कूपस्य वा द्पे खपस्य. बा कूपे कूपस्य 
वा युपे युषस्य वा कुषे पस्य वा युपे यपस्य वा सूपे ऽतो मन्यामहे संघातारेत- 
साण्येवैतान्येव॑जातीयकान्यथौन्तेरेषु वतेन्त इति । हदं खल्वपि भवता वणौना- 
मथेवत्तां ब्ुवता साधीयो ऽनथेकत्वं द्योतितम्‌ | यो हि मन्यते यः कूपे कूपाथः स 
ककारस्य यः सपे खपायेः स सकारस्य यो युपे यूपाथः स यकारस्येत्युपदाम्द- 
0 स्तस्यानथैकः स्यात्‌ || तत्रेदमपरिहतं संघाताथेवस््वा्ेति | एतस्यापि प्रातिपदि- 
कसंज्ञायां परिहारं वश्यति* || 
अइउण्‌ ऋ लक्‌ ए ओडः रे ओौव्‌ | 
प्रत्याहारे ऽनुबन्धानां कथमनञ्पहणेष न । 
य एते ऽक्ु प्रत्याहाराथौ अनुबन्धाः क्रियन्ते एतेषामज्यहणेषु चहणं कस्माच 
.15 मवति | किं च स्यात्‌ | दि णकारीयति मधु णकारीयतीतीको यणचि [६.१.७५] 
इति यणादेशः प्रसज्येत || 
आचारात्‌ 
किभिदमाचारादिति । आचायोणामुपचारात्‌ | ततेष्वाचायौ अष्कायौणि 
कृतवन्तः ॥ , 
20 अप्रधानत्वात्‌ 
अप्रधानस्वाञ्च | न खल्वष्येतेषा मक्षु प्राधान्येनो पदेशः क्रियते | क तार्हि | हल्य । 
कुत एतत्‌ एषा ्याचार्थस्व शैली लक्ष्यते यततुल्यजातीयांस्तुल्यजातीयेषुपदि शाति | 
अचो सु हलो इल्वु ॥ | 
| लोपश्च बलवत्तरः ॥ 
25 लोपः खल्वपि तावद्वति ॥ | 
रकारोऽलिति वा योगस्तत्काखानां यथा भवेत्‌ । 
अचां प्रहणमच्कायै तेनेषां न भविष्यति ॥ 
अथवा योगविभागः करिष्यते† । ऊकालो ऽच्‌ } उ ङ ऊ३ इत्येवंकालोऽज्भ- 


क ९.२. ४९. † ९.२. २७. 


कषिबसु° ५९. ] ॥ ष्वाकरनयपहाभाष्थय्‌ ।। डे 


बति | ततो हृस्वदीरषंभुतः । दस्वदीरषशुतसं्ञ थ भवस्यूकालो ऽच्‌ | एवमपि कुक्कुट 
इस्यश्रापि परामोति । वस्मौ्युर्वोक्त एंव परिकरः ॥| एष॒ एवायेः |. अपर आह. | 
स्वादीनां वंचनास्माग्यावन्तावदेव योगो सस्तु | 
भष्कायौणि यथा स्थुस्तंत्काकेष्वक्षु कायोगि | 


अय किम्थमंन्तःस्थानामण्लपदेशः क्रियते | इह सथ्यन्ता सध्वित्सरः योकम्‌ $ 
तक्षोकमिति परसवणस्यासिरस्वादनुस्वारस्मैव शिवैलमम्‌* | तत्र परस्य परल- 
वर्णे कृते तस्व बय्यद्णेन बहणास्पूर्वैस्जाषि परसवर्णो वथाः स्वात्‌ । वैतदस्ति रयो - 
जनम्‌ | वश््यत्वेतत्‌ | हिवचने परसवर्णत्वं सिदे वक्तव्यमिति† | यावता न्ि- 
दत्वंमुष्थते परसवण एव तीधद्धवति | परसवर्णे तर्हि कते तस्य यमेहणेने ` महं- 
णाहिर्वै चनं यथा स्वात्‌ | भा भृहिवैचनम्‌ । ननु च भेदो भवति | सति हवै चने 10 
त्रियकारमसति हिवैचने दियंकारम्‌ | नास्ति मेदः । सत्यपि द्विवैचने हदियकार- 
मेव | कथम्‌ | हलो यमां यमि लोपः [८.४.६४] इस्येवभेकस्य लोपेन भंवित- 
व्यम्‌ | एवमपि मेदं! | सतिं दिवैने कदाचिहियंकारं कदाचिल्ियकारम्‌ | अ 
सति हियकारमेव | सं एषं कथं मेरो नं स्यात्‌ | यदि नित्यो लोषः स्यात्‌ । विभाषा 
` च स लोपः | यंथाभेदस्तथास्तु | 1४ 

अनुकतैते विभीषौ शरौ ऽचिं यद्वौरयेत्यैय हितम । 

यदयं शरो ऽचि [८.४.४९] इति हिवैचनपरतिषेधं शास्ति तज्ज्ञपयेस्वाचार्यो 

ऽनुवतेते विभाषेति | कथं कृत्वा शपकम्‌ | 
नित्ये हि तस्यं लोपे प्रतिषेधार्थो न कथित्स्यात्‌ ॥ 

यदि नित्यो लीपः स्यास्मतिषेधव चनमन येकं स्यात्‌| भस्स्वत्र द्विवचनम्‌ | स्रो 20 
श्रि सवर्गे [८.४.६९] इति लोपो भविष्यति | परयति त्वाचायौ चिमाषा स लोप इति 
ततो द्िमैचनप्रतिषेधं दस्ति | तरैतदत्ति क्ापकम्‌ | नित्ये ऽपि तस्य लोपे स प्रतिषेधो 
वद्यं वक्तव्यं : | यदेतदचो रहाभ्याम्‌ [८.४.४६] इति दिर्वचनं लोपापवादः स 
विज्ञायते | कथम्‌ | यर हइत्युश्यत एतावन्तथ यशो यदुत छषरो वा यमो वां | यदि 
चार नित्यो लोपः स्याह्िर्वचनमनर्थकं स्यात्‌ | किं तहि तयेोर्योगयोरदाहरणम्‌ । 25 
यदकृते हडिवे चने त्रिंष्यञ्नः संयोगः | प्रत्तम्‌ भत्रस्तम्‌ आदित्य्यः | इहेदानीं कन्त 
हतेति दिवे नसोमथ्यौहयोपो न भ॑वति | एवमिह।पि लेपो न स्यास्कर्षति वर्पतीति | 








+ ८, ४, ५९; ४५१, {+ ८. २. ६.५ 
99 


` ३४ ॥ व्याकरणमहभिाष्यव्‌ ॥ = ` [म०१,१.२. 


तस्माक्निस्ये ऽपि कोषे वद्यं स प्रतिषेधो" वक्तव्यः || तरेतदत्यन्तं संदिग्धं वतेत 
शाच्रार्यणां विभाषानुवतेते न वेति || | 


रण्‌ ॥ & ॥ 
अयं णकारो ्िरनुबभ्यते पुवै्च परथ | तत्राण्महणेष्विण््रहणेषु च संदेहो भवति 
&पूरवैण वा स्युः परेण वेति | कतर स्मिस्तावदण्महणे संदेहः | दलोपे पूवस्य दीर्घो ऽणः 
[६.३.९१९] हति | असंदिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत्‌ | पराभावात्‌ | न हि इलोपे 
परे ऽणः सन्ति | ननु चायमस्ति | आतृढम्‌ आवृढमिति | एवं तई सामध्यास्पूरवैण 
न परेण | यदि हि परेण स्यादण्ब्रह्णमनर्थकं स्यात्‌ | दोपे पूवस्य दीर्घो ऽच इस्येव 
ब्रूयात्‌ | अथैतदपि न ब्रूयात्‌ । अचो हयेतदवति हूस्वो दीर्धः श्रुत इति | भर्सिमस्तदय- 
10 ण््हणे संदेहः के ऽणः [७.४.१९ र | इति | असंदिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत्‌ । 
पराभावात्‌ | न हि के परे ऽणः सन्ति| ननु चायमस्ति । गोका नौकेति | एवं तर्द 
सामध्योौत्पूर्धण न परेण | यदि हि परेण स्यादण्महणमनयेकं स्यात्‌ | के ऽच 
इत्येव चरुयात्‌ | अथवेतदपि न ब्रुयात्‌ | अचो शचेतद्धवति हृस्वो दीधेः शुत इति ॥ 
भरिंमस्तशचण््रहणे संदेहः । भणो रगृद्यस्यानुनासिकः [८.४.९७] इति । भसं 
15 दिग्धं पूर्वेण न परेण | कुत एतत्‌ | पराभावात्‌ । न हि प्शान्ताः परर ऽणः सन्ति | 
ननु चायमस्ति । कतृ हत इति । एवं तर्हिं सामध्योपपर्वेण न परेण | .यदि हि 
परेण स्यादण््रहणमनथकं स्यात्‌ | भचो ऽमगृ्यस्यानुनासिक इत्येव ब्रुयात्‌ । 
अथैतदपि न त्रूयात्‌ । अच एव्र हि प्रगृद्या भवन्ति || अस्मस्तदयण्रहणे संदेहः । 
उरण्रपरः [ १.९.५९१ | इति | भसंदिग्धं पूर्वेण न परेण । कुत एतत्‌ । परा- 
20 भावान्‌ | न द्युः स्थाने परे ऽणः सन्ति | ननु चायमस्ति | कत्रंयम्‌ हन्रेथेमिति | 
रि च स्यात्‌ | यद्यत्र रपरत्वं स्याद्यो रेफयोः अरवणं प्रसज्येत । हलो यमां 
यमि लोपः [८.४.६४ | हत्येवमेकस्यात्र लोपो भवति | विभाषा स लोपः | 
विभाषा श्रवणं प्रसज्येत | अयं ताहे नित्यो लोपो रो रि [८.३.१४] इति । पदा- 
न्तस्येत्येवं सः | न शाक्यः स पदान्तस्य विज्ञातुम्‌ | इह हि लोपो न स्यात्‌ । 
25 जगूधेलंङः अजघोः । पास्पर्भरपास्पा इति ॥ हह तर्हि मातृणाम्‌ पितृणामिति रपरत्वं 
भसज्येत । आचायमवृत्तिज्ञौपयति नान्न रपरत्वं भवतीति यदयमृत इद्धातोः 
[७.९.१० ० | इति धातुम्रहणं करोति । कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | धातुमहणस्यैत- 
स्मये ननम्‌ । इह मा भूत्‌ | मातृणाम्‌ पितृणामिति | यदि चात्र रपरत्वं स्याडा- 





क्षिवसमु° ६.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ३५ 


तुमरहणमनयेकं स्यात्‌ | रपरत्वे कृते ऽनन्त्यखादिन्वं न भविष्यति | परयति त्वा- 
चार्यो नात्र रपरसं भवतीति ततो भातुमहणं करोति । इहापि तर्द स्वं न प्रामोति | 
विकीषेति जिहीषेतीति । मा भूदेवम्‌ ¡ उपधायाश्च [७.९.९०९] हत्येवं भवि- 
स्यति । इहापि तर्हि प्रामोति | मातृणाम्‌ पितृणामिति । तस्मात्तत्र धातुबरहणं कतै- 
ष्यम्‌ | एवं तद्येण्महणसामध्योपपूर्वेण न परेण । यदि परेण स्यादण्मदणमनथर्वा 5 
स्यात्‌ | उर ञ्चपर इत्येव ब्रूयात्‌ ॥ अर्हिमस्तद्ण्यहणे संदेहः । अणुरिस्सव्भस्य 
चप्रत्ययः [९.९.६९ | इति | असंदिग्धं परेण न पूर्वेण | कुत एतत्‌ | 


सवर्गेऽण्‌ तपर युत्‌ । 


यदयमुक्रत्‌ [७.४.७]| इत्यृकरारं तपरं करोति तञ्ज्ञापयत्याचायेः परेण न 
पूर्वेणेति || हइण्महणेषु तर्हि संदेहः | असंदिग्धं परेण च पूर्वेणेति । कुत एतत्‌ | ` 10 


य्योरन्यत्रं परेणेण्‌ स्यात्‌ । 


यत्रेच्छति पूर्वेण संमृ प्रहणं तत्र करोति य्वोरिति | तच गुरु भवति | कथं 
कृत्वा ज्ञापकम्‌ | तत्र विभक्तिनिर्देशो संमृश्य महणे ऽप वतसरो मात्राः | प्रस्वाहार- 
प्रहणे पुनस्तिसरो माज्राः । सो अयमेवं लषीयसा न्यासेन सिद्धे सति यदहरीयांसं 
यल्नमारभते तजज्ञापयत्याचायेः परेण न पूर्वेणेति || किं पुनर्वर्णोत्सत्ताविष णकारो 1; 
दिरनुबध्यते | एतज्ज्ञापयत्या चार्यो भवत्येषा परिभाषा व्याख्यानतो विशेषप्रतिष- 
तिने हि संदेद।(दलक्षणमिति । अणुदित्सवणे परिहाय पूर्वेणण््रहणं परेणेण्महण- 
मिति व्याख्यास्यामः|| 


जमङ्णनम्‌॥`अ। स्न भञ्‌॥ ८॥ 


किमर्थमिमौ मुखनासिकावचनौ वणौवुभावप्यनुबध्येते न अकार एवानुबभ्येत | 20 
कथं यानि मकारेण महणानि इलो यमां यमि लोपः [८.४.६४] इति । सन्तु 
अक्रारेण हले यञां यञि लोप हति | नेवं दाक्यम्‌ | अकारभकारपर- 
योरपि हि कारभकारयोर्जोपः प्रसज्येत | न इ्कारभकारौ सकारभकारयोः 
स्तः ॥ कथं पुमः खय्यम्परे [८.२३.६| इति । एतदसप्यस्तु अकारेण पुमः 
लय्यञ्पर इति | शरेवं दशाक्यम्‌ । ्कारभकारपरे हि खयि रः प्रसज्येत | 28 
न ज्यकारभकारपरः खयस्ति || कथं ऊमो हूस्वादचि उमुण्नित्यम्‌ [ ८.३.२२] 
इति । एतदप्यस्तु मकारेण उओ हृस्वादचि ङसुण्नित्यमिति । च्रेवं शक्यम्‌ | 


1 ॥ व्थाकरगकहाभाष्यय ॥ [मि०१.९.२. 


द्कारभकारयोरपि टि पदान्तयेोद्धैकारभकारावागनौ स्याताम्‌ | न ब्लकारभकारौ 
पदान्तौ स्तः | एवमपि पञ्चाममाल्रय भागमिनेो वैषम्यास्सं ख्यातानदेश्चो* न भ्रामोति । 
सन्तु तावद्येषामागमानामागमिनः सन्ति | ब्वकारभकारौ पदान्तौ त स्तइति 
कंत्वागमावपि न भविष्यतः ॥ 
५ भथ किंमिदमक्षरमिति | 
अक्षरं न क्षरं विद्यात्‌ 
न क्षीयते न क्षरतीति वा्षरम्‌ ॥ 
अश्नोमेवौ सरो ऽक्षरय्‌ | 
भश्नोतेवो पुनरयमौणादिकः सरन्प्रत्वयः | अश्रुत इस्मक्षरम्‌ ॥ 
10 ` वर्णं वाहः पूरवैसृत्र 
अथवा पूतरेसूत्रे वणेस्याक्षरमिति संज्ञा क्रियते | 
| ` किमथमृपदिङयते ॥ 
कथ क्िमर्थमपरिरयते ॥ 
 , कंणेज्ञानं वाग्विषयो यत्र च ब्रह्म वतैते । 
15 वदर्थपिष्टवद्यथै रुच्वर्थं चोपदिश्यते ॥ 
सो ऽयमक्षरसमास्नायो वाक्समाक्तायः पभ्पितः कङितथन्द्रतारकवतपतिमण्डितो 
वेदितव्यो ब्रह्मराशिः | सवेवेदपुण्यफलावाप्निशास्य ज्ञाने भवति । मातापितरौ चास्व 
स्वग लोके महीयेते || | 
इति ज्रीभगवत्पतच््रकिविरकचिति व्याकसर्णमकामाष्वे प्रथमस्वाध्यायस्य प्र 


० थमे पादे हितीयमाङ्किकम्‌ ॥ 








# १. द, ९०, 


पा०९.९.९..| ॥ .व्याकरणमहभिष्यय ॥ ३.ॐ 


वृहि रादैच्‌ ॥ ५।९। ९. ॥ 


कुस्वं कस्मान्न भवति चोः कुः. पदस्य. | ८.९.३० ] इति । भस्वात्‌ । कथं 
भता । अयस्मयादीनि च्छन्दसि |९.४. २० | इति | न्दसीत्युच्यते न चेदं छन्दः | 
इन्दो वस्सूत्राणि भवन्ति | यदि भसंज्ञा वृद्धिरादै जदेङ्कण इति जष्त्वमपि* न प्रा 
प्ोति । उभयसंज्ञान्यपि च्छन्दांसि ढूदयन्ते | तद्यथा | सद्धष्टभा स कक्रता गणेन | 5 
पदत्वास्कस्वं भत्वाज्जभ्त्वं न भवति | एवमिक्टपि पदत्वाज्नर्त्वं भत्वात्कृत्वं न 
भविष्यति ॥ 

किं पुनरिदं वद्ाधितस्णं वृडिरिस्येषं य आकरिकारौकारा भाव्यन्ते तेषां 
प्ररणमादोसिददिञ्मात्रस्य । किं चातः | यदि तद्भाविवग्रहणं शालीयः मालीय इति 
वुदधलक्षणम्ॐो न प्रामोति। । आन्नमयम्‌ शालमयम्‌ वृद्धलक्षणो मयण्न प्रामोति{ । 10 
भाखगुपरायनिः श्ालगुप्रायनिः वृद्धलक्षणः किञ्च प्रामोति$ || भथारैञ्मात्रस्य हणं 
सवो भाषः सर्वभाव इत्यु तर पदवुद्धौ सवे च [६.२.१०९] इत्येष विधिः प्रामोति । 
इह च तावती. भार्यास्य सावद्धार्यः यावङ्वा्यैः वृद्धिनिमिश्तस्य | ६.३.३९ | 
इति पुंवद्धावप्रतिषेभः भरामोति ॥ भस्तु तद्योरेज्मात्रस्य ्रहणम्‌ । ननु चोक्तं सर्वो 
भासः सर्वभास इत्युलरपदवृदौ स्थे चेत्येष विधिः परामोतीति | त्ष दोषः | 15 
मैवं विश्ायत उस्र पदस्य वृद्धिरुत्तर पदवृद्धिरलरपदवुदधाविति । कथं तर्हि | 
उत्तरपदस्य [७.३.१०] हइस्येवं प्रकृत्य या वृदिस्तदत्यु तरपद इस्येवमेवहि- 
यते | अवदयं तैतदेवे विज्ञेयम्‌ । वद्धावितपहणे सस्यपीह प्रसज्येत स्वैः 
कारकः सवैकारक इति । यदयप्युख्यत इह तावती भायोस्य तवद्धार्यैः यावदा 
इति च वृद्धिनिमिसस्येति पुवद्धावप्रतिषेधः प्रामोतीति तरैष दोषः | तैवं विश्ञायते 20 
वुधनिमित्तं वृदिनिमिततं युडधिनिमिन्तस्येति । कथं तर्हि | वृडधर्मिमिन्तं यस्मिन्सो अयं 
बृद्धिनिभित्तो वृदिनिभिन्तस्येति । किं च वुदोनिमिन्तम्‌ | यो ऽसौ ककारो गकारो 
जकारो वा | भयव। यः कस्काया वृद्धर्मिमित्तम्‌ । कथ कृत्जाया वृद्भिमिनल्म्‌ | 
वखयाणामाकरिकारौकाराणाम्‌ || 


संज्ञाधिकारः संज्ञासंत्ययाथेः ॥ ९ ॥ 28 
अथ सहेति प्रकृत्य वृद्धादयः शब्दाः पठितव्याः | किं प्रयोजनम्‌ । संज्ञासं- 
स्वकार्यैः | बुद्धादीनां शब्दानां संजञत्येष संप्रत्ययो यथा स्यात्‌ || 


00 वा का 1 पी णीणििभििीरणाणणीीीषषणणगणणणथणिणीषीषणपषिणौ 


+ ८. १, ३९, 4 ४.२.९१४. ‡ ४.३.९४४. ` § ४. ९. ९५९७, 





३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य | ` [म०१.९.३. 


इतरथा ह्यसंप्रव्ययो यथा लोके ।। २॥ 


, क्रियमाणे हि संज्ञाधिकारे वृद्धादीनां सं्ञत्येष संप्रत्ययो न स्यात्‌ | हदमिदानीं 
बहसत्रमनथकं स्यात्‌ | अनथेकमित्याह | कथम्‌ । यथा लोके | कोके ह्यथेषन्ति चान- 
कानि च वाक्यानि बृदयन्ते | अथेवन्ति तावत्‌ | देवदत्त गामभ्याज भुङ्कां दण्डेन 

५ देवदत्त गामभ्याज कृष्णाभिति । अनथेकानि | दद्य दाडिमानि षडपूपाः कृण्ड- 
मजाजिने पललपिण्डः अधरोरुकमेततकु मायाः स्फैयक्ृतस्य पिता प्रतिशीन इति ॥ 
संज्ञासंस्यसंदेहश्य ॥ ३ ॥ 

क्रियमाणे ऽपि संज्ञाधिकारे संज्ञासंश्षिनोर संदेहो वक्तव्यः । कुतो धेतहदिरशब्दः 
संशञदिचः संक्ञिन इति न पुनरदिवः संशा वुदिशब्दः संशीति || यज्ताथदुख्यते 

1० संज्ञाभिकारः करतेव्यः संज्ञासंप्रस्ययाथे इति न करेव्यः | 

आचायोचारास्षंज्ञासिदिः | 
भावायो चारास्संज्सिदिभेविभ्यति । किमिदमाचायौचारादिति । आचायांणामु- 
पारात्‌ | 
यथा लोकिकवैदिकेषु ॥ ४ ॥ 

18 . त्था लौकिकेषु वैदिकेषु च कृतान्तेषु | जाके तावन्मातापितरौ पुत्रस्य जातस्य 
संवृते ऽवकादो नाम कुवते देवदन्तो यश्षदत्त इति | तयोरूपचारादन्थे अपि जानन्ती- 
यमस्य संज्ञेति | वेदे मर्ञिकाः संज्ञां कुवेन्ति स्प्यो यूपथषाल इति | तच्रभवता- 
मुपचारादन्ये ऽपि जानन्तीयमस्य संञ्ेति | एवमिहापि । इहैव तावत्केचिव्याचक्षाणा 
आहः । वृद्धिशब्दः संश्ञादे चः संज्ञिन इति । अपरे पुनः सिचि वृद्धिः [७.२.९] 

20 हइस्यु क कारेकारौकारानुदाहरन्ति । ते मन्यामहे यया प्रत्याय्यन्ते सा संज्ञा ये प्रती- 
यन्ते ते संज्ञिन इति ॥ यदप्युच्यते क्रियमाणे अपि संज्ञाधिकारे संश्ासंिनोरसंदेहो 
अक्तष्य इति 

संज्ञासंत्यसंदेह श्च । ५ ॥ 
संङ्गासं्चिनोथासंदेहः सिद्धः | कृतः । आवचार्याचारादेव । उक शावा्यावारः || 
४४ अनाङूतिः ॥ & ॥ 


 अथवानाकृविः संज्ञा | आकरतिभन्तः संज्ञिनः | लोके अपि शाङृतिमतो मांसपि- 
ण्डस्य देवद्त इति संज्ञा क्रियते | 


१०१.१.९. ]  ॥ व्याकरगमहाभाष्यम ॥ ` ३९ 


लिङ्गेन वा ॥ ७॥ 

अथवा किंचिधिङ्गमासनज्य वबश््यामीस्य॑लिङ्ग। संज्ञेति | वृदिराब्दे च षिद्ध 
करिष्यते नारैच्छभ्दे || इदं तावदयुक्तं यदुच्यत भ चायौचारादिति | किमत्रायुक्तम्‌ । 
तमेवोपारभ्यागमकं ते सूत्रमिति तस्यैव पुनः प्रमाणीकरणमिस्येतदयुक्तम्‌ | अप- 
रितुष्यन्खल्वपि भवाननेन परिहारेणानाकृतिर्िङ्घेन वेत्याह | तच्चापि वक्तव्यम्‌ । 5 
वद्प्येतदुच्यते ऽथतैतरहीत्संज्ञा न वक्तव्या लोपथच न वक्तव्यः* | सं्ञालिङ्गमनुब- 
 ज्ेषु करिष्यते | न च संज्ञाया निवृत्तिरुच्यते | स्वभावतः संज्ञाः संज्ञिनः प्रत्याय्य 
निवतेन्ते । तेनानुबन्धानामपि निवृत्तिभेविष्यति | सिध्यत्येवमपाणिनीयं तु भवति ॥ 
यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं संज्ञाधिकारः संज्ञासंप्रत्ययथे इतरथा द्यसंप्रत्ययो 
यथा लोक हति | न यथा लोर तथा व्याकरणे | प्रमाणभूत आचार्यो दभेपवित्र- 10 
पाणिः शुचाववकाशे प्राङ्ख उपविदय महता यलेन सत्रं प्रणयति स्म सत्राशक्यं 
वर्भेनाप्यनथेकेन भवितुं किं पुनरियता त्रेण | किमतो यदशक्यम्‌ । अतः संज्ञा- 
संज्ञिनावेव || 

कुतो नु खल्वेतरसंज्ञासंक्ञिनवेवेति न पुनः साध्वनुशासने ऽस्मिञ्शाजे साधुत्व- 
मनेन क्रियते | कृतमनयोः साधुत्वम्‌ | कथम्‌ | वृधिरस्मा अविशेषेणो परिष्टः प्रकृति- 15 
पाठे तस्मात्‌ क्तिन्प्रत्ययः | आदैचो ऽप्यक्षरसम।घ्राय उपदिष्टाः ॥ प्रयोगनियमाथे 
तर्हीदं स्यात्‌ । वृदधिशब्दात्पर आद चः प्रयोक्तव्या इति | नेह प्रयोगनियम आर- 
भ्यते । किं तर्हि | संस्कृत्य संस्कृत्य पदान्युस्सृज्यन्ते तेषां यथेष्टमभिसंबन्धो भवति | 
तद्यथा | आहर पात्रम्‌ पात्रमाहरेति || अदेश्चास्तर्षमे स्युः । वृाडराब्दस्यादि वः | 
षष्ठीनिररिष्टस्यदेशा उच्यन्ते न नात्र बष्ठीं परयामः || आगमास्तर्शीमे स्युः । वृदि- 20 
शाभ्दस्यादैच आगमाः । आगमा अपि षशीनिर्दिटस्यैवोच्यन्ते लिङ्धेन च न चात्र 
ष्ठा न खल्वप्यागमलिङ्खं पदयामः | इदं खल्वपि भूयः सामानाधिकरण्यमेक- 
` विभक्तेस्वं च इयोभैतद्धवति | कयोः । विशेषणविदोष्ययोवौ सज्ञासंश्गिनोवा | 
तत्रैतस्स्यादिशेषणविशेष्ये इति । तश्च न | हयी प्रतीतपदाथेकयो्लोके विशेषण- 
विशेष्यभावो भवति न चादेच्छब्दः प्रतीतपदार्थकः | तस्मात्संश्ासक्ञिनावेष || ४४ 
तत्र स्वेतावान्सदेहः कः संकी का संज्ञेति | स चापि क संदेहः | यज्रोमे समाना- 
, क्रे | यत्र त्वन्यतर्घु यछठषु सा संज्ञा । कुत एतत्‌ | लष्वथे हि संज्ञाकरणम्‌ | 
तत्राप्ययं नावरयं गुशूलघुतामेवोपरक्षयितुमति । कि तर्दि । अनाकृतितामपि । ` 


# १, ३. २-९. 





कि , -॥ व्वाकर्णबह्यभाष्यम्‌ || _ [मम १.९.३. 


भनाकृतिः सेज्ञ | आओङतिमन्तः संज्तिनः. [- लेके खक तिमता भां सपिण्डस्य देवदन्त 
.हति संज्ञा क्रियते | मथवावर्मिन्यः संज्ञा भवन्ति । वृदधिराष्दभ्रावतेते नदिष्डब्दः | 
तथथा । इतरत्रापि देवदत्तंशब्दं आवतेते नं मासविण्डः || अथवा पूर्व्चारितः 
संज्ञी परोच्चारिता संता | कुत एतत्‌ | संतो हि कार्यिणः कार्येण भवितव्यम्‌ | 
5 तद्यथा | इतरत्रापि सतो मांसपिण्डस्य देवदत्तं हति संका क्रियते | कथं वृद्धि- 
रादेजिति । रएतदेकमचायेस्य म॑ङ्गलाथै मृष्यताम्‌ । माङ्गलिक भाचार्यो म॑हतं 
शाखीषस्य मङ्गलायै वृदिशम्दमादितः प्रयुङ्के मङ्गलादीनि हि शाखाणि 
प्रथन्ते बीरपुद्षकाणि च भवन्त्यायुष्मंस्पुरुषकोणि चाध्येतारश्च वृद्धियुक्ता यथा 
स्युरिति | सवैत्रैव हि व्याकरणे पूर्वोचारितः सशी परोच्चारिता संज्ञा | अदेङ्गुणः 
१०[९.९.२] इति यथा || रोषवान्खत्वपि संज्ञोधिकोरः | अष्टमे अपि हि संज्ञा 
क्रियते तस्य परमाभेदितम्‌ [८.१. २] हति । ततरापीदमनुवस्यै स्यात्‌ ||. अथवा- 
स्याने ऽयं यलः क्रियते न शीदं लोकाद्धिष्यते | यदीदं लोकाद्धियेत सतो यलारै 
स्यात्‌ | तयथा | अगोज्ञाय कथिद्वा सक्थनि कर्वे वा गृहीत्वोपदिशस्ययं गैरिति। 
न चास्मा आचष्ट इयमस्य संज्ञेति मधति चास्य संप्रत्ययः | तन्ैतस्स्यार्कृतः पूर्वैरभि- 
15 सेवन्ध इति । इहापि कृतः पुरवैरमिसंबन्धः । कैः | आ(नार्थैः । तत्रैतत्स्यात्‌ । यस्मै 
तर्हि संप्रसयुपदिहाति तस्थाकृत इति | लोकेऽपि हि यस्म सं्रस्युपदिद्ति वस्याङ्गतः | 
अथं तत्र कृत इहापि कृतो द्रष्टव्यः || 


सतो वृद्धयादिषु संज्ञाभावात्तदाभ्रय इतरेतराश्रयत्वादम्रसिदिः ॥ ८ ॥ 
सतः संज्िनः संज्ञाभावात्तदान्रये संज्ञाभरवे संक्जिनि ब्र खादिष्वितरेतरान्नयस्वा - 
` 20 कत्रसिद्धिः । केतरेतराश्रयतत | सतामदिचां संज्ञया भवितभ्यं संज्ञया घादैचो भा- 
व्यन्ते तदितरेतराश्रयं भवति । हतरेतराभ्रयाणि च कायोणि न प्रकल्पस्ते | तद्यथा | 
` नौनोति बद्धा नेतरेतरत्राणाय भवति | ननु चमो इषरेतरान्नरयाण्यमि कार्याणि 
वूरयन्ते । तव्था । नोः शक्टं वहति हाकटं च नावं वहति | अन्यदपि तेत्र 
किचिद्धवति जलं स्थलं या | स्थे शकटं नावं ` वहति जले नौः शकटं बहतिः। 
, 25"यथा राई. जिविष्टन्धकम्‌ 1 तज्नाप्यन्ततः सूजत्रकं भवति | इदं पुनरिषरेतराग्रयमेत्र ॥ 


सिद्धं तु नि्यराब्दतस्वातं || ९॥ 


सिङडमेतत्‌। कथम्‌ । निव्यङाम्दस्वात्‌ | नित्याः दाब्दाः। नव्येषु शब्देषु संतामदि चां 
संज्ञा क्षियते न संञ्ञयदिचो भाव्यन्ते । यदि तर्हि नित्याः शब्दाः किमर्थँ शाखम्‌ । 














० १.१.९. | ` ॥ व्याकिरम्हामाष्वन्‌ ।॥ ४९ 


किमर्थं शाखरमिति चेनिवतैकत्वास्सिङम्‌ ॥ ९० ॥ 

निवतैकं शाखम्‌ | कर्थ॑म्‌ | मुजिरस्मा भविशेषेणोपदिष्टः | तस्यं सवत्र म॒भि- 
बुदिः प्रसक्ता | तत्रानेन निवृत्तिः क्रियते | मृजरङ्गिस्ड परस्ययेषु मृजिप्रसङ्गे माजि 
साधूभेवतीति | 
प्रत्येकं वृद्धिगुंग्े भवत इति वक्तयम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | समुदाये मा? 
भूतामिति | 
` अन्यत्र सहव वनात्समुदयि संज्ञापरतङ्ुः ।॥ ९९ ॥ 

भन्यत्र सहव चनत्तमुद् वे वृदिगुणतंशयोरपतङ्गः । यत्रेच्छति सहभूतानां कार्यं 
केरोति तत्र सहप्रह्णम्‌ । तथथा | सश पा [२.९.४| | उभे अभ्यस्तं सहेति! ॥ 

परस्यवयवें च वाक्यपरिसमपिः ॥ ९२ ॥ 10 

परत्बवयर्वं व वाक्यपरिसमापनिदुंरयते | तथ्चथा | देत्रदर्तयज्ञदत्तविष्णुमित्रा 
मौज्यन्तामिति | न चोच्यते प्रत्येकमिति प्रत्येकं च भुजिः परिसमाप्यते | नन्‌ चा- 
यमप्यस्ति इृष्टाम्तः समुदाये वाक्यपरिसमभिरिति | तद्यथा | गगा: शतं दण्डघन्ता- 
मिति | अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | स्येत- 
स्मिन्दृष्टान्ते यरि तत्र सहमहणं क्रियत इवि प्रत्ये कमिति वक्तव्यम्‌ | भय 1; 
तत्रान्तरेण सहग्रहणं सहभूतनिां कये भव तीहयपि नाये: प्रस्येकमिति वचनेन ॥ 

गथ किमथमाकारस्तपरः क्रियते | 

` भाक।रस्य तपरकरणं सवगार्थम्‌ ` 

आकारस्य तपरकरणं क्रियते । क्रि प्रयाजनम्‌ । सवगौर्थम्‌ | तपरस्तत्कालस्य 
[९.९.७०] इति तस्कालानां सवणौनां ब्रहणं य॑था स्यात्‌ | केषाम्‌ । उक क्तानुदा--20 
स्वरितानाम्‌ । किं च कारणंन स्यात्‌ | 

भेदर्कत्वास्स्वरस्य ॥ ९२३ ॥ 

भेदका उद।सादथः । कयं पुनश्ष।यते भेदका उडासादय इति | एवं हि करयते 
लोके । य उशते कतेश्ये ऽनुदा्तं करोति खण्डिक पाध्यायस्तस्मै चपेटां ददात्य- 
न्यं करोषीति | अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | किं तदीति | मेदकस््राहुणस्येति 
वछव्यम्‌ | रकि प्रयोजनम्‌ | आनुनासिक्यं नाम गुणः | तद्धिन्नस्यापि 
यथास्वात्‌ | किंच कारणं न स्यात्‌ | मेदकरत्बाद्ुगतस्य | मेदा गुणाः | 
कथं पुनहोयते मेदका गुणा इति । एवं हि वृदक्ते लेके | एको अयमारमोककं 


[व 


# ७,२. १९६४ ॥ 7 ८.२, ५ 
6 ॐ 


~ ४२ ॥ उ्याकरणप्रहाभाष्यम ॥ ॑ |म ० ९.९.३. 


नाम तस्य गुणभेदादन्यल्वं भवति | अन्यदिदं शीतमन्यदिदमुष्णमिति | ननु 
च भो अभेदका अपि गुणा दृश्यन्ते | तद्यथा | देवदत्तो मुण्डयपि जटयपि 
शिख्यपि स्वामाख्यां न जहाति | तथा बालो युवा वृद्धः वत्सो दम्यो बलीवदै 
इति ॥ उभयभिदं गुणेषुक्तं भेदका अभेदका इति | किं पुनरत्र न्याय्यम्‌ | 
5 अभेदका गुणा हत्येत्रं न्याय्यम्‌ | कुत एतत्‌ | यद यमस्थिदाधिसक्थ्यल्णामनङ्दान्तः 
[७.९.७९ | इदयुदात्त्रहणं करोति | यदि भेदका गुणाः स्युरुदात्तमेवोचारयेत्‌ | 
यदि तर्भेदका गुणा अनुदात्तादेरन्तोदात्ता्च यदुच्यते तत्स्वरितादेः स्वरितान्ता्च 
प्रामनोति | नेष दोषः | आश्रीयमाणो गुणो भेदको भवति । तद्यथा | मुक मालभेत | 
कृष्णमालमेत | तत्र यः शङ्क आलब्धव्ये कृष्णमालभते न हि तेन यथोक्तं कृतं 
10 भवति || असंदेहाथस्तर्हि तकारः । देजिस्युच्यमाने संदेहः स्याक्किमिमावैचावे- 
वाहोखिदाकारो ऽप्यत्र नि्दिरयत इति । संदेहमात्रमेतद् वति सर्वसंदेहेषु वचेदमु- 
पतिते व्याख्यानतो विश्चेषप्रतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति | चयाणां सहणमिति 
व्याख्यास्यामः । अन्यत्रापि ह्ययमेवंजाती यकेषु संदेहेषु न कंचिद्यलं करोति । 
तद्यथा | ओतो ऽम्शासोः [६. ९. ९३] इति || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । आन्तथति- 
15 मात्रचतुमात्राणां स्थानिनां ज्रिमाजचतुमेत्रा भादेशा मा भुवक्निति । खदा इन्द्रः 
खदधन्द्रः । खद्रूा उदकं खद्धोदकम्‌ । खष्रा हेषा खद्रेषा । खद्धा ऊढा खट्रोढा | 
खटा एलका ख्दरैलका | खटा भोदनः खदरौदनः । खद्रा रेतिकायनः खद्तिका- 
यनः । खद्रूा ओपगवः. खद्टौपगव इति । भथ क्रियमाणे अपि तकारे कस्मादेव 
-चिमात्रचतुमीज्राणां स्थानिनां त्रिमात्रचतुर्मात्रा आदेशा न भवन्ति | तपरस्तत्का- 
20 रस्येति नियमात्‌ । ननु तः परो यस्मात्सो ऽयं तपरः | नेत्याह । तादपि पर- 
स्तपरः | यदि तादपि परस्तपर ऋदोरप्‌ [२. ३. ५७ | इतीहैव स्यात्‌ यवः 
स्तवः | ठवः परव इत्यञ्च न स्यात्‌ | त्रैष तकारः । कस्तर्हि | दकारः | किं दकारे 
प्रयोजनम्‌ । अथ (करं तकारे | य्यसंदेहाथंस्तकारो दकारो अपि | भथ मुखद्ला्थ- 
स्तकारो दकारो भपि॥ 


६ इकां गुणवृद्धी ॥ १. ।१६।३.॥ 
इन्यहणं किमधम्‌ । 


इग्ग्रहणमास्संध्यक्षरव्यज्नननिवृत््य्थम्‌ । ९॥ 
हग््रहणं क्रियत आकारनिवृच्यथं संध्यक्षरनिवृ्यये व्यञ्जननिवुत्यथे च| 





पा० ९.९.२३ .| ॥ वयाकरणयहाभाष्यय्‌ ॥ ४३. 


भकरनिवुत्यथे तावत्‌ | याता वात | आक्यरस्य गुणः प्रामोति" | इम्महणा् 
भवति | संभ्यक्षरनिवृत्त्ययम्‌ | ग्लायति म्लायति | संभ्यक्षरस्य गुणः प्रमरोति | 
इन््रहणाञ्च भवति || व्यज्जननिवृत्यथम्‌ | उम्भिता उम्भितुम्‌ उम्मितव्यम्‌ ! व्य- 
श्जनस्य गुणः प्ररोति | इम्म्रहणात्न भत्रति || आकारनिवृच्यर्थन तात्रक्नाथेः | 
आचर्यप्रवु्िज्ञ।पयति नाकारस्य गुणो भव्रतीक्ति यदयमातो ऽनुपसर्गे कः [३.२.२३] 5 
इति ककारमनुबन्धं करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | कित्करण एतस्रयोजनं 
क्रितीव्याकारलोपे यथा स्परात्‌। । यदि चाकारस्य गृणः स्याक्किह्करणमनथैकरं 
. स्यात्‌ | गृणे कृते इयोरकारयेः पररूपेण सिद्धं सूपं स्यात्‌ गोदः कम्बलद इति | 
परयति त्वाचार्यो नाकारस्य गृणे भवतीति ततः कक्रारमनबन्पं करोति || संध्य 
क्षरिवृ्यर्थनापि नाथः | उपदेशसामभ्योस्संभ्यक्षरस्य गणो न भविष्यति || व्य- 10 
स्नननिवृ्यर्थेनापि नाथेः । आचायपरवृततिज्ञो पयति न व्यस्ननस्य गुणो भवतीति 
यदयं जनेड श स्ति‡ । कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | डित्करण एतलयोजनं. तीति 
टिलोपो यथा स्यात्‌» | यदि व्यञ्जनस्य गुणः स्याहित्करणमनथेकं स्यात्‌ | गुणे 
कृते जणामकाराणां पररूपेण तिंदधं रूपं स्यत्‌ उपस्तरजः मन्दुरज इति | 
परयति त्वाचार्यो न व्यश्नस्य गुणो भवतीति ततो जनेड शास्ति ॥ नैतानि सन्ति 15 
हापक्रानि । वत्तावदुच्यते कित्करण ज्ञापकमाकारस्य गुणो न भवतीत्युत्तरा- 
येभेतस्स्यात्‌ । तुन्दशोकयोः परिमृजापनुदोः [३.२.५९] इति । यत्ति गापोशटक्‌ 
[८ | इत्यनन्याथे ककारमनुबन्धं करोति || यदप्युच्यत उपदेश सामश्योतसंध्यक्चरस्य 
गुणो न॒ भवतीति यादि यद्यरसंध्यक्षरस्य प्रामोति तत्तदुषदेरासामभ्योदाध्यत 
आयादयो अपि तर्हिं न प्रामुवन्ति | नैष दोषः | यं विधि भ्रत्युपदेशो ऽनथेकः स 20 
विधिवोध्यते यस्य ॒तु विपेर्निमित्तमेव नाकौ वाध्यते | गुणं च प्रत्युपदेशो ऽनथक 
आयादीनां पुनर्निमित्तमेव || यदप्युच्यते जनेडकचनं ज्ञापकं न व्यञ्जनस्य गृणो भव- 
तीति सिदे विधिरारभ्यमाणो ज्ञापकार्थो भवति न च जनेगुगेन सिध्यति | कुतो 
हेतज्जनेर्गुण उच्यमानो ऽकारो भवति न पुनरेकारो वा स्यादोकारो वेति । आन्त- 
येतो ऽपमातिकरस्य व्यच्ञनस्य माज्निको ऽकारो भविष्यति | एवमप्यनुनासिकः प्राभो- ९ 
ति | पररूपेण गुद्धो भविष्यति । एवं तर्हि गमेरप्ययं डा वक्तव्यः | गमेथ गुण 
उच्यमान अन्तयैत ओकारः प्रामोति | तस्मादिग्भहणं कतेव्यम्‌ | 

यरीग्पहणं क्रियते दयौः पन्थाः सः इमाभिव्येते ऽषीकः प्राप्रवन्ति|| | 


* ७.३.८४ † ६.५.६५ ६.२.९५ § ९.५.१४२ || ७. १. ८४; ८९.७. २. ५० 


¦ , 1 ॥ ध्थाकरनणकवहाभिारच्यंम्‌ ॥  { म ९.९१. 
संज्ञया विधाने नियमः ॥ 2॥।. ` 


संक्षया ये विधीयन्त तेषु नियमः | किं वक्कभ्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं 
गंस्यते | गृणवृद्धि्रदणसामभ्यात्‌ | कशं पुनरन्तेरेण गुणवृद्धिमहणभिको गुणवृद्धी 
स्याताम्‌ । प्रकृतं गुणवुद्धग्रहणमनुवतेते | क प्रकृतम्‌ | वृद्धिरदिजदेङ्कुण इति | 
5 मदि तदनुवतेते डदद्कुणो वृद्धिभेस्यदेडां वुदधिसंजञापि भामति । संबन्धमनुवर्षिष्यते । 
वृद्धिरदिच्‌ । अदेङ्गणो वृद्धरदिच्‌ । तत इका गुणवृद्धी इति | गुणव॒द्धिमदणमनु- 
वतेते | आदे जदे ङदणं निवृत्तम्‌ | थवा मण्डुकगतयोऽधिकाराः | यथा मण्डूका 
दरछ्ुत्योसुत्य गच्छन्ति तद्वदधिकाराः || भथतैकयोगः करिष्यते | वृद्धिरदि जद ङ्कुणः। 
तत इको गुणवृद्धी इति | न चैकयोगे अनुवृत्तिर्भवति ॥ अथवान्यवचनाधकारा- 
10 करणास्पकृतापवादो विज्ञायते यथोत्सर्गण प्रसक्तस्यापवारो बाधको भवति | अ. 
न्यस्याः संक्ञाया -वचनाञ्चकरस्य चानुकर्षणारथस्याकरणासकृताया वृद्धिसंश्ञाया गुण- 
संज्ञा बाधिका भविष्यति यथोत्सर्भेण प्रसक्तस्यापवादो वाधको भवति || जथवा 
वक्ष्यत्येतत्‌ | अनुवतैन्ते च नाम धिधयो न चानुवतेनादेव भवन्ति | किं तर्हि | 
यलाद्धवन्तीति* | भथवोभयं निवृ सं तदपेक्षिष्यामहे || 
: रिं पुनरयमलो ज््यरदेष आाहोस्विद्रल) ऽन्त्यापवादः। | कथं चार्यं तच्छेषः स्या- 
त्कथं वा तदपवादः | यद्येकं वाकम तच्चेदं घ न्नलो न्त्रस्य विधयो भवन्ति इको 
गुणवृद्धी अलो ऽन्स्य्येति ततो अयं तच्छेषः | अथ नाना वाक्रचम्‌ अलो <न्त्वस्व 
त्रिधयो भवन्ति इको गुणवृद्धी अन्त्यस्य चानन्त्यस्य चेति ततो अयं तदपवादः | 
क्रथात्र विदोषः | | 


बृद्धि गुणावलो जन्त्यस्येति चेन्मिदिपुगन्तल पूपधच्छिदृर्िक्लिप्रलयुदेष्विग्भ्रह- 

णम्‌ ॥ २॥ 

बुद्धिगुगावलो न्त्यस्येति चेन्मिरिषुगन्तलधूपधर््डिदृहिल्िप्रुदेष्विग्यक्णं कते- 

ध्यम्‌ | भिविर्गुणः [७.३.८२] इक इति वक्तव्यम्‌ | भनन्स्यत्वादि न प्रामोति ॥ 

वुगन्तलघूपधस्य गुण हक इति वच्कव्यम्‌ । शनन्त्यखाडधि न प्राभोति । ऋष्डे- 

98 रिटि गुण इक इति वन्कम्यम्‌ | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति || ऋदृरो अडः गुणः 

[७.४.१६ | इक हति वक्तव्यम्‌ | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रारोति ॥ क्िपषद्रयो गण॥ इक 
इति वक्तव्यम्‌ | अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति ॥ 


तरै ९, २, ५.* † २. २. ५२. ‡+ ७, २. ८६. § ७, ४,९९, || ६. ४. ९५६. 








पा०९.९.३. ] ॥ व्वाकश्णयमहाभाष्यन्ः | + १ 


सर्वादि शपसङ्श्चानिमन्तस्य ॥ ४.॥ 


सवोदेशशथच गणो अनिगन्तस्य प्राप्रोति । याता वाता | किं कारणम्‌ | अलो न्त्य- 
स्येति षष्टी चैव यन्स्यभिकमुपसंक्रान्ता | अङ्गस्येति च स्थानषष्ठी । तथ्यदिदानी- 
मनिगन्तमङ्गँ तप्य गुणः सवौदे शः प्राति | नैष दोषः | यथैव यलो ऽन्त्यस्येति षष्टध- 
न्त्वमिकम्‌पसंक्रान्तेवमङ्कस्येत्यपि स्थानषष्ठी | तद्यदि दानीमनिगन्तमङ्गं तजर षष्ठचेव 5 
नास्ति कुतो गुणः कुतः सर्वदिशः || एवं तर्हि नायं दोषसमुश्चयः । किं वर्हि | 
पृरवापि्षो अयं दोषः | र्थे चायं चः पठितः | मिदि पुगन्तलषुपधर््छिदृिकिप्रश- 
दरेष्विग्महणं सर्वारेशप्रसंद्गो धनिगन्तस्येति । मिदेगुण इक इति वचनादन्त्यस्य न | 
अन्त्व्येति वचनादिकी न | उच्यते च गुणः } स सवादेशः प्रामोति | एव सवैत्र ॥ 
धस्तु तर्हिं तदपवादः | 10 


इग्मात्रस्थेति चेज्जिसिसावेधातुकाधधातुकट्रस्वायोर्गुणेष्वनन्स्यपरतिषेधः 
॥ ९ ॥ 


` इग्मात्रस्येति चेज्जुसिंसविधातुका्पधातुकटस्वा्ोगुणेष्वनन्त्यस्य प्रतिषेधो व- 
ष्यः | जुसि गुणः* । स यथेह भवति अजुहवुः भविभयुरिति एवमनेनिजुः 
पर्यवेविषुः अत्रापि प्रामोति || सार्वधातुका्पषातुकयोैणः† । स यथेह भवति कतौ 15 
हतो नयति तरति भवति एवमीहिता हहितुभिस्यत्रापि प्रामोति || हृस्वस्य गुणः 

| ७. ३, १०८ || स यथेह भव्रति हे ने हे वायो इति एवं हे भिचित्‌ हे सोम- 
इदिस्यज्रापि परामोति ।| जति गुणः; | स यथेह भवति अप्रयः वायव इति एव- 
मभिचितः सोमञ्त इत्यत्रापि प्रामोति | ऋतो 'ङखवैनामस्थानयो गणः$ । स 
यथेह भवति कर्वेरि कतीरौ कतीर इति एवं छकृति छक्तौ कृत इत्यत्रापि % 
भ्राप्रोति || बेडिति [७. ३. ११९] गुणः| स यथेह भवति अम्रये वायवे एवमभिषिते 
सोमङत इत्यत्रापि प्राप्रोति ॥| ओगणः [६. ४. १४६] | स यथेह भवति बाभव्यः 
माण्डव्य इति एवं भत्‌ सौभ्ुत इत्यत्रापि भ्राभोति ॥ तरैष दाषः | 


पुगन्तरुपूपधग्रहणमनन्त्यानियमार्यम्‌ ॥ ६ ॥ 


पृगन्तलघु पप्रहणमनन्स्वनियमाये भविष्यति| .| पुगन्तलषुपभस्यैवानन्स्यस्य 
नान्वस्यानन्स्यस्येति || प्रकृतस्यैष नियमः स्यात्‌ | किं च प्रकृतम्‌ । सार्वधातुक 


~ = न क --- -=-- 





= ७. २. ८३. † ७, २. ८४. { 9. २, १०९. 6 ७9. ३. १९०, || ७. ३, ८४. 


४६ ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम्‌ ॥ | [म० ९,९१.३. 


धातुक्रयोरिति | तेन भवेदिह नियमान्न स्यात्‌ हहिता हेहितुम्‌ हेहितव्यमिति | हस्वा- 
चोगुगस्त्वनियतः सो ऽनन्त्यस्यापि प्रामोति | अथाप्येवं नियमः स्यात्‌ । पुगन्तलषू- 
पथस्य सवैधातुकापधातुकयेोरेवेति | एवमपि सावेधातुकाषषातुकयोयुंणो अनियतः 
सो ऽनन्त्यस्यापि प्रापोति | हेहिता हैहितुम्‌ ईहितभ्यमिति | अथाप्युभयतो नियमः 
5 स्यात्‌ | पुगन्तककपधस्थैव सावैधातुकापेधातुकयोः सावेधातुकापेधातुकयोरेव पग- 
न्तठघुपधस्येति |. एवमप्ययं जुसि गणो अनियतः सो ऽनन्त्यस्यापि प्रामोति । 
अनेनिजुः पयषेविषुरिति || एवं तर्हि नायं तच्छेषो नापि तदपवादः | अन्यदेवेदं परि- 
भाषान्तरमसं बद्धमनया परिभाषया । प्रिभाषान्तरमिति च मत्वा क्रोष्रयाः पठन्ति| 
नियमादिको गुणवृद्धी भवतो विप्रतिषेभेनेति | यदि चायं तच्छेषः स्यात्तेनैव तस्यायुक्तो 
10 विप्रतिषेधः | अथापि तदपवाद्‌ उत्तगौपवादयोरभ्ययुक्तो विप्रतिषेधः | तत्र नियम- 
स्यावकाशः । रात्तः क च [४.२.१४०] राजकीयम्‌ । हको गुणवृद्धी इत्यस्याव- 
काराः | चयनम्‌ चायकः कवनम्‌ ावक इति | इहोभयं प्राप्रोति । मेद्यति मार्टीति | 
इको गुणवृद्धी हत्येतद्वति विप्रतिषेधेन | नैष युक्तो विप्रतिषेधः | विप्रतिषेभे हि 
परमित्युच्यते पूर्थभायं योगः परो नियमः । हृष्टवाची परशब्दः । धिप्रतिषेे परर 
15 यदिष्टं तद्भवतीति | एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेधः | हि का्ययोगो हि विप्रतिषेधो न चात्र - 
को हिकायेयुक्तः । नावश्यं हिकायैयोग एष विप्रतिषेधः | किं तर | भसंभषो ऽपि | 
स चास्त्यत्रासभवः | को ऽसावसंभवः | इह तावदृक्िभ्यः अरक्तेभ्य हत्येकः स्थानी 
हवावदेश्चौ† | न चास्ति संभवो यदेकस्य स्थानिनो दवावादेदौ स्याताम्‌ ¦ इहेदानीं 
मेद्यति मेद्यतः मेद्यन्तीति दवौ स्थानिनातेक आदेः । न चास्ति संभवो यद्योः स्थानि- 
20 नेरेक आदेयः स्यादित्येषो ऽतंभवः । सत्येतस्मि्संभवे युक्ता विप्रतिषेधः | 
एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेधः | हयो सावकादायोः समवस्थितयोर्िप्रतिषेधो मवत्य- 
नवकाडचायं योगः | ननु चेदानीमेवरास्यावक। दः प्रकुमरः | चयनम्‌ चायकः लवनम्‌ 
लावक इति | अत्रापि नियमः प्रापोति । यावता नाप्रात्ने नियमे अयं योग आरभ्यते 
ऽतस्तदपवादो ऽये योगो भवति । उत्सगोपव।दयोधायुक्तो विप्रतिषेधः | अथापि 
25 कथंचिदिको गुणवृद्धी इत्यस्यावकाडाः स्यादेवमपि यथेह विप्रतिषेधादिको गुण्य 
भवति मेश्चति मेद्यतः मेद्यन्ति एवमिहापि स्यात्‌ अनेनिजुः पयवेविषुरिति ॥ एवं 
तर्हि वृद्धिभवति गृणो भवतीति यत्र च्रूयादिक इस्येतत्ततरे पास्थितं द्रष्टव्यम्‌ | कि कृतं 
भवति | द्वितीया षष्ठी प्रादुभोव्यते | तत्र कामचारो गृह्यमाणेन वेकं विशेषवि- 


१,५४.२. 7 ०. ३.२९०२; ५०२. 





प०९.१.३. | ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ; + 


तृमिका वा गृह्यमाणम्‌ | यावता कामचार हह तावन्मिदिपुगन्तलवुपधाच्छदृराक्ति- 
पुदरेषु गृ्यमाणेनेकं विशेषयिष्यामः | एतेषां य इगिति । इहेदानीं जु्सिसवेधा- 
तुकार्भधातुकटस्वाद्योरगुणेष्विका गृद्यमाणं विशेषयिष्यामः | एतेषां गुणो भवतीकः | 
इगन्तानामिति | अथवा स्वैत्रैवात्र स्थानी निर्दिरयते | हह तावन्मिरैरित्यविभ- 
क्तिको निर्देशः | भिद एः भिदेः मिदेरिति । अथवा षठीसमासो भविष्यति | 3 
मिद इः मिरिः भिदेरिति || पगन्तठघपधस्येति नैवं विक्ञायते पृगन्तस्याङ्कस्य 
षुपधस्य चेति | कथं ताह | पुक्यन्तः पुगन्तः | रुष््युपधा लघुपधा | पुगन्तश्च रषु- 
पधा च पुगन्तलधूपधं पुगन्तलघुपधस्येति । अवद्यं चेतेदेवे विज्ञेयम्‌ । अङ्कविदोषणे 
हि सतीह प्रसज्येत भिनत्ति छिनत्तीति || कच्डेरपि प्रशिष्टनिरदंशो ऽयम्‌ । ऋच्छति 
क ऋ ऋताम्‌ ऋच्छस्यृतामिति | दृदोरपि योगत्रिभागः करिष्यते | उराङे गुणः | 10 
उरङिः गुणो भवति | ततो दुदोः | दृदोधाडः गुणो भवति । उरिव्येव | क्षिग्रकषुद्र- 
योरपि यणादिपरे गुण इतीयता ्िद्धम्‌ | सो ऽयमेवं सिद्धे सति यत्पूवैरहणं करोति 
तस्थैतत्पयोजनमिको यथा स्यादनिको मा भूदिति ॥ 

भथ वृद्धिग्रहणं कि मथेम्‌ | कै विरेषेण वृद्धिम्रहणं चोद्यते न पुनथणय्हणमपि | 
यदि किचिद्कणग्रहणस्य प्रयोजनमस्ति वृद्धिम्रहणस्यापि तद्कवितुमरेति | को वा 15 
विशेषः | अयमस्ति विरोषः | गुणविधौ न कनिर्स्थानी निर्दिरयते । तत्रावदयं स्था- 
निनि शाथे गृणमहणं करैव्यम्‌ । वृद्धिविषी पुनः सर्वत्व स्थानी निर्दिरयते || भचो 
ञ्णिति [ ७.२.११९ | । अत उपधायाः | १९१६ | । तद्धितेष्वचामादेः [१९७] 
इति ॥| अत उत्तरं पठति | 

वृद्धिग्रहणमुत्तरायेम्‌ ॥ ७।। 20 

वृद्धिग्रहणं क्रियत उन्तराथंम्‌ | किति [ १.१.९ | इति प्रतिषेधं वक्ष्यति स 
वृद्धेरपि यथा स्यात्‌ | कथेदानीं क्रसत्ययेषु वृद्धः प्रसङ्गो यावता ज्णितील्युच्यते | 
तञ्च मृज्यथेम्‌ । मृजेवृंद्धिरविदहोषेणोच्यते सा बति मा मृत्‌ । मृष्टः मृष्टवानिति | 
` इहाथ चापि मृज्यथे वृद्धिप्रहणं कतेष्यम्‌ । मृजेवैद्धिरविरशेषेणोच्यते सेको यथा 
स्यादनिको मा भूदिति । 9 

मृञ्ययथमिति चेद्योगविभागास्िद्धम्‌ ॥ ८ ॥ 
मुज्यथेमिति चेश्योगविभागः करिष्यते | मृजेवद्धिर चः | ततो ज्णिति | भिति 


# ७, २, ९१४, 











(~, 1 ॥ इषाकरन पहटाभाष्यय्‌ ॥ | [मण०९.९.३. 


मिति च वृद्धिभेवति । भच इत्येव । वद्यचो वृद्धिरुच्यते म्यमादे भटो ऽपि वृद्धिः 
धरामोति । 


अटि चोक्तम्‌ ॥ ९ ॥ 
किमुक्तम्‌ | अनन्त्यविकारे उन्त्यसदेशस्य कायै भवतीति || 
४ वृद्धिप्रतिषेधानुपपत्तिस्त्वक्भरकरणात्‌ ॥ ९० ॥ 


वृदेस्तु प्रतिषेधो नोपप्यते | किं कारणम्‌ । इक्परकरणात्‌ । इग्लक्षणयोर्गुण- 
वृद्योः प्रतिषेधो न चैवं सति मृजरिग्लक्षेणा वृद्धिर्भवति | वस्मान्मृजेरिग्लक्षणा 
वुद्धिरोषितव्या ॥ 
एवं तर्हीहान्ये ्ैयाकरणा मृजेरजादौ संक्रमे विभाषा वृद्धिमारभन्ते | परि मृजन्ति 
10 परिमाजैन्ति । परिमृजन्तु परिमाजैन्तु | परिममृजतुः परिममाजेतुरिव्या्थेम्‌ | तदि- 
हापि साध्यम्‌| तस्मिन्साध्ये योगविभागः करिष्यते | मृजेवैडिरचो भवति | ततो अवि 
करिति | अजादौ च कति मृजेवडधिभेवति | परिमार्जन्ति परिमाजैन्तु | किमथेमिदम्‌ | 
नियमार्थम्‌ । अजादावेव कति नान्यत्र । क्वान्यत्र मा मुत्‌ । मृष्टः मृष्टवानिति | 
ततो वा | वाचि (क्ति मृजेवद्धिभेवति । परिमृजन्ति परिमाजेन्ति | परिममृजतुः 
15 परिममार्जतुरिति ॥ इकार्थमेव तर्हि सिजथे वुदधियहणं कतेष्यम्‌ । सिचि वृदिरवि- 
हेभेणोभ्यते† सेको यथा स्यादानिको मा भूरिति । कस्य पुनरनिकः प्रामोति । अका- 
रस्य । भविकीर्षीत्‌ भजिदीर्षीत्‌ । नैतदस्ति | लोपो त्र वाधको भविष्यति; || 
आकारस्य तर्हि प्रभोति | भयासीत्‌ अवासीत्‌ | नास्त्यत्र विशेषः सत्यां वृ डावसस्वां 
वा| संभ्यक्षरस्य तर्हि प्रामोति | श्रव संध्यक्षरमन्त्यमासति । ननु चेदमस्ति हलोपे कृत 
20 उदबोडाम्‌ उदवोढम्‌ उदवेडेति? । नैतदस्ति । भिद्धो डरो पस्तस्यासिदस्वाैत- 
दन्स्यं भवति || व्यञ्जनस्य तरिं प्रभोति | अतरैस्वीत्‌ अच्छैत्सीत्‌ | शलन्वलक्षण। 
वृद्धिवोपधिका भविष्यति| || यत्र ताह सा प्रतिषिध्यते¶ | भकोषीत्‌ भमोषीत्‌ । सिचि 
वद्धेरप्येष प्रतिषेधः | कथम्‌ । लक्षणं हि नाम ध्वनति भमति मुहतैमपि नावतिष्ठते । 
अथवा सिचि वृद्धिः परस्तैपदेष्विति सिधि वृद्धिः परामरोति | तस्या हलन्तलक्षणा वृदधि- 
25 बवैधिका । तस्या अपि नेटीति प्रतिषेधः | अस्ति पुनः कचिदन्यत्राप्वपवादे प्रतिषिद्ध 
उस्सभा अपि न मवति | भस्तीत्याह । जति अश्क्नृते | अध्वर्यो अद्रिभिः छतम्‌ । 
शक्तं ते अन्यदिति । पुवैरूपत्वे प्रतिषिद्धे ऽयादयो ऽपि न भवन्ति“ ॥ 


# ६, ९, ९४ पि † ७,२.२९. { ६.४.४८. .$ ८. ३. ९३; ६. १. ९९.२० 
|| ७.२. ३ ¶ु १.२.५४. ^* ६. ६. ७८; ९०९; ६६५. 








फ०,९..१. ३.| ॥'व्वाङूरणप्रभाष्वय्‌ ॥ । +: 


उन्तरार्थमे% तर्हि सिजथै वृदधिप्रहणं कतेव्यम्‌ | सिचि वृद्धिरविशेषेणोच्यते स 
क्किति मा भत्‌ | न्वनुवीत्‌ न्य पुवीत्‌* । नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । अन्तरे क्रत्वादत्रोव- 
उदेशे कृते ऽनन्त्यत्वा्रदधिन भविष्यति || यदि तर्हि सिच्यन्तरङ्गं भवति अकार्षीन्‌ 
हार्षीत्‌ गुणे कृते रपरत्वे चानन्त्यत्वाहृदिने प्राोति | मा भूदेवम्‌ | .दलन्तस्ये- 
येवं भविष्यति || इह तहं न्यस्तारीत्‌ व्यदारीत्‌ गुणे रपरत्वे . चानन्त्यत्वाहू- | 
डने प्रापनोति हलन्तलक्षणायाश्च नेटीति प्रतिषेधः | मा भृदेवम्‌ | लोन्तस्व ` 
[७.१.२ | इत्येवं भविष्यति || इह तर्हि अलावीत्‌ अपावीत्‌ गुणे कृते अवादेशे चा- 
नन्त्यत्वाहूद्धिने प्रा परोति हंठन्तलक्षणायाओ नेदीति प्रतिषेधः | मा भूदेवम्‌ । कीन्त- 
स्येत्येवं भविष्यति | लोन्तस्येत्य॒च्यते न चेदं ठोन्तम्‌ । लोन्तस्येस्यत्र वकारो 
अपि निर्दिरयते | क्क वकारो न ्रुयते | लुपरनिर्दि्टो वकारः || ययेवं मा भवा- 10 
नवीत्‌ मा भवांन्मवीत्‌ अत्रापि प्रामोति | अविमव्यो्नेतिः वद्यामि । तहक्तव्यम्‌ । 
| गिभ्विभ्यां तै निमातव्यो । | 

यद्यप्येतदुच्यते ऽथेति णिष्टव्योः प्रतिषेधो म वक्तःग्रो.भव्रति | गुणे कृते 
ऽ्यादेशे. च यान्तानां नेत्येव प्रतिषेधो भविष्यति1 | . एवं तद्यो चायेपरवृत्तिज्ञा- 
प्यति न स्ििच्यन्तर ङ्गं मवतीति यदयमतो हलादेषोः | ७.१.७ | इत्यकारम्र- 15 
हणं करोति । कथं कत्वा शापकम्‌ । . भकार परहणस्थैतलयो जनमि मा . भूत्‌ 
भकोषीत्‌ अमोषीत्‌ | यदि सिच्यन्तर ङ्ग स्यादकार प्रहणमनथेकं स्यात्‌ | गुणे कृते ऽल~ ` 
ुत्वाहृदिने भविष्यति [परयति स्वाचार्यो न सिच्यन्तरङ्गं भवतीति ततो ऽकारम्रहणं 
करोति | तैतदत्ति ज्ञापकम्‌ | अस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ | यत्र गुणः 
प्रतिषिध्यते तदथेमेतस्स्यात्‌ न्यकुटीत्‌ न्यपुटीदिति | यत्ति गिग्व्योः प्रतिषेधं शास्ति 20 
तेन नेशान्तरङ्कमस्तीति रैश्येयति | यचच करोत्यकारम्रहणं रषोरिति कृते ऽपि || 


तस्मादिग्लक्षणा वृद्धिः ॥ ९९ ॥ 
तस्मादिग्लक्षणा वृद्धिरास्थेया ॥ 
षष्ठयाः स्थनियोगत्वादिधिवृिः ॥ ९२ ॥ 


बटयाः स्थानेयोगस्वातस्सर्वेषामिकां निवृत्तिः प्रामोति । अस्यापि प्रामोति | दपि 
मधु । पुनर्व चनमिदानीं किमथे स्वात्‌ | 


# ९,२.१५. † ० २.५. 


= 1 


7 9 


५4० ॥ व्याकरणमहाभाष्यमः ॥  [म० ९. ९.३ 


| अन्यतरार्थं पुनवंचनम्‌ ॥ ९३ ॥ 
` भन्यतराथंमेतत्स्यात्‌ | सावेधातुकाधधातुकयोगुण एवेति ॥| 
| प्रसारणे च ॥ ९४॥ | 
 . प्रसारणे च सर्वेषां यणां निवृत्तिः प्रामोति" | भस्यापि प्रापमरोति | याता वाता | 
£ पुनबेचनमिदानीं किमथे स्यात्‌ | 
विषयार्थं पुनवचनम्‌ ॥ ९५ ॥ 
विषयाथमेतसस्यात्‌ | वचिस्वपियजादीनां किव्येवेति। | 
उर्रपरे च ॥ ९६॥ | 
उरथ्रपरे च सवेकोराणां निवृत्तिः प्राभोति; । अस्यापि प्रामोति | कते हते ॥ । 
। सिद तु षष्ठ्यधिकारे वचनात्‌ ॥ ९४७॥ | 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | धष्ठ्यधिकार इमे योगाः कर्वव्याः । एकस्तावस्कियते 
तत्रैव | इमावपि योगौ षक्यधिकार मनुवरषिष्येते || अथवा बष्टयधिकार इमौ 
योगावपेक्षिष्यामहे | अथवेदं तावदयं प्रष्टव्यः | सावेधातुकाषधातुकयोगणो भ- 
वतीतीह कस्माच्च भवति | याता वाता | हदं तत्रापेक्िप्यत इको गुणवृद्धी इति । 
16 यथैव तर्हीदं तच्रापेक्िष्यत एबमिहापि तदपेक्षिष्यामहे । सावैषातुकाषेधातुकयोरि- 
को गुणवृदी इति ॥ 
इति श्रीमगवस्पतच्ञरलिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य. प्रथमे 
पादे तती यमाह्किकम्‌ ॥। 


# १, १, ४९. † ६. \. ५. { ६. ९.५९. 


10 


१०९.९.४. ॥ व्याकल्णमहाभावष्यम्‌ ॥ `` ५९ 


न धातुलोप आधधातुके ॥ १. । १ 1 ४॥ 


धातुमह्णं किमथम्‌ । इह मा भूत्‌ । टूञ्‌ रविता लवितुम्‌ । पूञ्‌ पविता 
पवितुम्‌ ।। भषेधातुक इति किमयम्‌ । त्रेधा बद्धो वृषभो रोरवीति ।| किं पुन- 
रिरमाषेषातुकमरहणं लोपविदेषणम्‌ | आधेधातुकनिमित्ते लोपे सति ये गुणवृदी 
राुतस्से न भवत इति । आोस्विद्धगवृद्िविदोषणमाधभातुकमहणम्‌ । धातुलोपे $ 
सत्याधधातुकनिमित्ते ये गुणवृद्धी ्रा्ुतस्ते न भवत इति | किं चातः | यदि लोष- 
विरशेषणमुपेद्धः प्ेडधः अत्रापि प्रामोति | अथ गुणवुद्धिविरोष्णं क्रोपमतीत्यज्ापि 
्रमोति | यथेच्छसि तथास्तु | अस्तु लोपविद्रोषणम्‌ | कथमुपेद्धः प्रेद इति । 
बहिरङ्गो गणो ऽन्तरङ्गः प्रतिषेधः | असि बहिरङ्गमन्तरङ्गे | यथेवं नार्था धा- 
तुमहणेन । इह कस्मान्न भवति । लूञ्‌ रुषिता लवितुम्‌ । आ्धातुकनिमित्ते लोपे 10 
प्रतिषेधो न चैष आर्धधातुकनिमित्तो लोपः || भथवा पुनरस्त॒ गुणवद्धिविदोषणम्‌ | 
नन्‌ चोक्तं क्रोपयतीस्यत्रापि प्रामोतीति | नैष दोषः | भिपातनास्सिद्धम्‌ ! किः निष 
तनम्‌ । चेले क्रपेः [२.४.३२ | इति || 

परिगणनं कतेव्यम्‌ | 

यङ्यक्क्यवलोपे प्रतिषेधः ॥ ९॥ ` 15 

यडनयक्क्यवलोपे प्रतिषेषो नक्व्यः | यङ्‌ | बेभिदिता मरीमृजः! | यक्‌ | 
कु षुमिता मगधकः | क्य | समिधिता दृषदकः‡ । वरोषपे | जीर दानुः$ | किं 
प्रयोजनम्‌ | 

जुम्लोपलिव्यनुबन्धलोपे ऽप्रतिचेधायेम्‌ ॥ २ 

नुम्लोपे क्िव्यनुबन्धलोपे च प्रतिषेधो मा भूदिति | नुम्लोपे । भभाजि। रागः4 20 
उपवदेणम्‌** | कवेः भलेमाणम्‌ । भनुबन्धलोपे | लूञ्‌ लविता लवितुम्‌ ॥ 
यदि परिगणनं क्रियते स्यदः प्रञ्रथः हिमभ्रथ इत्यत्रापि प्राभोति | वश्यत्मेतत्‌ । 
निपातनास्स्यदादिभ्विति ॥ तत्तर्हि परिगणनं कतैव्यम्‌ | न॒ कतैष्यम्‌ | नुम्लोपे 
कस्मान्न भवति | | 

इक्प्रकरणान्चुम्लोपे वृद्धिः ॥ ३ ॥ 25 
इ्लक्षणयोगगुणवृद्ोः प्रतिषेधो न चैषेग्लक्षणा वृद्धिः || यदीग्लक्षणयोरगैण- 


*६. ४, ३९, † २,४.०४. [ ६.४.५०. { ६.१.६९. | ६.२.२३. गु ६.४.२५. 
॥ ^ ६..४.२४.४ 








५२ ॥ व्याकरणमहापाच्यप  - म० ९.९.४, 


द्योः प्रतिषेधः स्यदः प्रन्रथः हिमश्रथ इत्यन्न म प्रभोति | इह च प्राभोति | 

भवोदः एधः ओश्र इति | | 

| ` ` निपातनात्स्यदादिषु ॥ ४ ।| 

` निालनार्दादिु प्रतिवेषो भविष्यति न च भविष्यति || यदीग्लकषणयोण- 
.5 बृद्धोः प्रतिषेषः क्िग्यनुबन्धलोषे कथम्‌ | जिवेः आज्ञेमाणम्‌ । ट्‌ लविता । 


प्रतयय।श्रयत्वादन्यत्र सिडम || ^4॥. 


| आधातुकनिमितत लोपे प्रतिषेधो न त्रैष आर्धधातुकनिमिन्तो लोपः || यद्ार्प- 
धातुकनिभित्ते लोपे प्रतिषेष्मे जीरदानुः अन्न न प्रपोति। | | 


| रकि ज्यः प्रसारणम्‌ ।|.६ ।।. 

10 तरैतञ्जीवे रूपम्‌ | रक्येतच््यः प्रसारणम्‌ | यावता चेदानीं रकि . जीवेरपि 
सिद्धं भवति || कथमुपवहेणम्‌ | वहिः प्रकृत्यम्तरम्‌ । कथं श्षायेते वृहिः भ्रङ्त्य- 
न्तरभिति | भचीति हि लोप उच्यते | भनजादावपि दृयते | .निवृद्यते । अनि- 
रीति चोच्यते । इृडादावपि दृदयते । निवर्हिता निवर्हितुमिति .1 अजादावपि 

न दृयते । वृंहयति धृंहकंः || तस्मान्नाथेः परिगणनेन || यदि परिगणनं न क्रियते 

15 मेद्यते डेष्यते अत्रापि प्रामरोति । नैष दोषः | धातुलोप इति तरैवं विज्ञायते धातोर्लोपो 
धातुलोपो धातुोष इति । कथं ताह । धातोर्लोपो ऽरिमस्तदिदं धातुलोपं धातुलोप 
इति ॥ तस्मादिग्लक्षणयोगुणवृद्धोः भरतिषेधः || यदि तर्हीग्लक्षणयोगुुणवुद्धोः प्रतिः 
बेधः पापचकः. पापठकः मगधकः दृषदकः अन्न न प्रामोति | 


अद्धोपस्य स्थानिव्वात्‌ 
20 ककारलोपे कृते तस्य स्थानिवतत्वाहुणवृदधी न भविष्यतः ॥ . 
 . अनारम्भो वा ॥ ७ ॥ | 
अनारम्भो वा पुनरस्य योगस्य न्याय्यः । कथं बेभिदिता मरीमृजकः 
कुषुभिता समिधितेति । .भच्राप््रकारलोपे कृते तस्य स्थानिवद्धावाहुणवृद्धौ न भ- 
-विष्यतः || यत्र तर्हि स्थानिवद्भावो नास्ति तदभमयं योगो वक्तव्यः | क च स्था- 
25 निवद्धावो नास्ति | यत्र हलचोरादेशः । लोलुवः पोपुवः मरीमृजः सरीसृप हति | 


~ याणका क [कि मोर शि मे प णण ग 
[द 4 ] रिरि 


# ६, ४. ८८, २९. † ६.४. ४८. 





ध्र ९.९.५. | ` 1 व्याकरनमहाभाष्वत्र ॥ ५५ 


मत्राष्यक्ारलोपि कृते तस्य ` स्थानिवद्धावाद्ुणवृदधी न भविष्वतः | लुकि कृतेः ब 
शआाभोति | इदमिह संप्रधार्यैम्‌ । टुद्धियवामष्ठोप इति किमत्र कतेव्यम्‌ | परस्वाद- 
दोषः । निस्यो लुक्‌ | कृते ऽप्यह्ोषे.प्रामोत्यकृतेऽप्नि प्राप्रोति । लुगप्यनिस्यः | कथम्‌ | 
भन्यस्व कृते शोषे परागोस्यन्यस्याकृते शब्दान्तरस्य च प्रापुवन्षिधिरनित्यो भवति । 
भनवकारास्तर्िं लुक्‌ । षावकाश लुक्‌ । को अवक्राशः | अवशिष्टः | अथापि ४ 
कयविदनवकाशो लुक्स्यादेवमपि न दोषः । अल्लोपे योगविभागः करिष्यते | 
भतो लोपः | ततो यस्य | यस्य च लोपो भवति | अत इत्येव | किमथमिदम्‌ | 
ठकं वक्ष्यति तद्वाधनार्थम्‌ | ततो हलः.। हल उन्तरस्य च यस्य रोपो भवतीति । 
इहापि तई परत्वाद्योगविभागाहा लोपो लुकं वधेत | कृष्णो नोनाव वृषमो . यदी- 
दम्‌ | नोनूयतेनोनाव | समानाभ्रयो लुग्लोपेन वाध्यते । कथ समानाभयः | यः 10 
प्रत्ययाश्रयः | अत्र च प्रागेव प्रत्ययोरत्तेगभवति || कथं स्यदः प्रश्रयः हिमन्नथः 
जीरदानुः निकुचित इति । 
उक्तं शोषे ॥ ८ ॥| 

किमुक्तम्‌ | निपातनास्स्यदादिषु | प्रस्ययाभ्रय्वारन्यत्र सिद्धम्‌ । रकं ज्यः 

भसारणामिति । निकुचिते प्युक्तं संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तङिषातस्येति†|| 18 


किति च ॥ १।१।५ ॥ 


किति प्रतिषेधे तन्निमित्तग्रहणम्‌ ।॥ ९॥ 
क्ति प्रसतिषेषे तत्निमित्तम्रहणं करतेष्यम्‌ | कत्तिमित्ते ये गुणवृद्धी प्राभुतस्ते न 
भवत इति वक्तव्यम्‌ ॥| किं भरयोजनम्‌ | | 
उपधारोरवीव्य्थेम्‌ ॥ २॥ . 20 
उपरभथे रोरवीत्यथे च | उपधाथे तावत्‌ | भिक्तः भवानिति | किं पनः 
कारणं न स्तिभ्यति | कती्युच्यते । तेन यत्र कत्यनन्तरो गुणम्भाव्यस्ति तत्रैव . 
स्यात्‌ | चितम्‌ स्तुतम्‌ । इह तु न स्वात्‌ | मित्तः भिन्नवानिति || ननु च यस्यं शृण 
रच्यते तत्कित्पंरत्वेन विशेषयिष्यामः । पुगन्तलघुपधस्य च गुण उच्यते ' तश्मत्र 
करिखरम्‌ । पुगम्तकघुपधस्थेति नैवं विज्ञायते पुगन्तस्वाङ्गस्य लघुपधस्य चेति | कथं 5 


* २.४. ४. ` ¶†\. ९. ३९, । { *. ३, ८६. 





५४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥  [म०९.९. ४ 


तर्हि | पुक्यन्तः पुगन्तः । रष्व्युपधा ठषुपधा | पुगन्तथ लघुपधा च पुगन्तलघुपधं पुग- 
म्तकघुपधस्येति। भवद्यं वैतदेवं विज्ञेयम्‌ । अङ्गविहोषणे हि सतीह प्रसज्येत ] भिनत्ति 
शिनन्ीति |} रोरवीत्यथे च | ्रिधा बद्धो वृषभो रोर वीति || यदि तत्चिमित्त्रहणं क्रि- 
मते शचडन्ते दोषः | रियति पियति धियति | प्रादुदरुवत्‌ प्राखसुवत्‌ । अत्र प्रामोति। 


ॐ वावङन्तस्यान्तरङ्गलक्षणत्वात्‌ ॥ ३ ॥ 
अन्तर द्ःलक्षणत्वावत्रेयङ्वडोः कृतयोरनुपात्वाहुणो न॒ भविष्यति | शवं 
क्रियते चेदं तन्निमित्तप्रहणे न च कथिहोषो भवति || इमानि च भूयस्तच्चिमित्तम्रहण- 
स्य प्रयोजनानि | हतः हथः उपोयते ओौयत लोयमानिः - वैयमानिः नेनिक्त इति | 
त्रैतानि सन्ति प्रयोजनानि । इह तावत्‌ हवः हथ इति प्रसक्तस्यानमिनिर्व- 
10 स्य प्रतिषेधेन निवृत्तिः हाक्या कतुमन्र च धातुपदेशावस्थायामेवाकारः ॥ 
इह चोपोयते ओयत लौयमानिः पीयमानिरिति बहिरङ्गे गुणवदधी अन्तरङ्गः 
प्रतिषेधः | असिद्धं बहिरद्गमन्तर द्ग || नेनिक्त हति परेण रूपेण व्यवहितत्वाच्र 
भविष्यति || उपधार्थन तावन्नार्थः | धातोरिति वतेते | धातुं कत्परत्वेन विशेषयि- ` 
भ्वामः | यदि धातुर्धिशेष्यते विकरणस्य न प्रामोति । चिनुतः छनुतः लुनीतः पु- 
१5 नीत इति । पैष दोषः | विहितविशेषणं धातुग्रहणम्‌ | धातोर्यो विहित इति । धातो- 
रेव तरि न प्रामोति | वैवं विज्ञायते धातो्विितस्य कितीति । कथं ताहि | धातोरिति 
ङ्केतीति || भथवा कार्यकालं हि संज्ञापरिभाषं यत्र कायै तत्र द्रष्टव्यम्‌] पुगन्तलघूप- 
धस्य गुणो भवतीद्युपस्थितमिदं भवति क्ति नेति || अथवा धदेतस्मिन्योगे कद्हणं 
तदनवकाशं तस्यानवकारास्वादुणवृद्धी न भविष्यतः || अथवाचायेपरवृत्तिज्ञोपयति भ- 
20 वत्युपधालक्षणस्य गुणस्य प्रतिषेध इति यदयं ्रसिगधिधुषिक्िपिः क्रुः | ३.२.१९४ ०| 
इको ्ल्दलन्ता्च [ १. २. ९; ९०] इति क्रुसनौ कित करोति । कथं 
कृत्वा ज्ञापकम्‌ | कित्करण एतत्पयोजनं गुणः कथं न स्यादिति | यदि चान्न 
गुणप्रतिषेधो न ॒स्यात्कित्करणमनर्थकं स्यात्‌ | परयति त्वाचार्यो भवस्युष- 
धालक्षणस्य प्रतिषेध इति ततः क्तु सनौ कितौ करोति || रोरवीस्यर्थनापि नार्थः | 
5 कितीस्युच्यते न चात्र कतं पररयामः | प्रत्ययलक्षणेन प्रामोति† | न लुमता तस्मि- 
शिति प्रत्यवरक्षणपरतिषेधः | अथापि न लुमताङ्गस्येस्युच्यते । एवमपि न रोषः ] 
कथम्‌ | न लुमता लुपरऽङ्गाभिकारः प्रतिर्निदिरयते | किं तई | यो ऽसौ लुमता लुप्यते 
तस्मिन्यद्गे तस्य यत्कार्यं तच्च भवतीति | भयाप्यङ्काधभिकारः परतिनिर्दिरयते 1 एव- 


# ७, ४, ७५, † ९.९. ६३; -६३. 








पाज ९, ९. ६. । ॥ ष्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ५५ 


मपि न दोषः | कथम्‌ | कार्यकारं हि संज्ञापरिभाषं यत्र कयि तत्र ब्रटव्यम्‌ | 
स्रर्वधातुका्षातुकयो गुणो भवतीस्युपस्थितमिदं भवति कति नेति || अथवा 
शन्दसमेतदृष्टानुविधिथ च्छन्दसि भवति || अथवा बहिरङ्ग गुणो ऽन्तर ङ्गः प्रतिषेषः। 
भसिद्धे बहिरङ्गमन्तरङ्गे || अथवा पूवैस्मिन्योगे यदाषधातुकम्रहणं तदनवकाङं ` 
तस्यानवकाश्चस्वाद्ुणो भविष्यति ॥ ° 
इह कस्मान्न भवति | ऊेगवायनः* कामयते | 
तद्धितकाम्योरिक्परकरणात्‌ ।। ४ ॥ 
इग्लक्षणयोर्गुणवृद्योः प्रतिषेधो नं चैते इग्लक्षणे | 
लकारस्य डन्वादादेशेषु स्थानिवद्धावप्रसङ्कः | लकारस्य डिन्वादादेशेषु स्था- 
निवद्धावः प्राभोति | अचिनवम्‌ अदनवम्‌ अकरवम्‌ । 10 
लक्रारस्य डिच््वादादेशेषु स्थानिवद्धावभसङ इति वेद्यासुटो डिद्रवना- 
| स्सिद्म्‌ । ९॥ 
यदयं याटो उिहचनं शास्ति तजक्ञापयरयाचार्यो न डिदादेशा ङितो भवन्ती- 
ति } यद्येतञज्ञाप्यते कथं नित्यं डतः [३.४.९९] इतथ [१००] इति | डि 
तो यत्काय तद्वति डिति यत्कायै तन्न ` भवतीति| किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | 15 
कथमनुच्यमानं गंस्यते | याट एव डिह चनात्‌ | भपर्याप्रथैव हि याट्‌ समु- 
दायस्य छिव छितं वैनं करोति । तस्थैतस्मयोजनं रितो यत्काय तद्यथा स्यात्‌ | 
डिति यत्काय तन्मा भूदिति.॥ | 


दीधीवेवीटाम्‌ ॥ १.।१।६ ॥ ` 


कि मथेमिदमुस्यते । गुणवृद्धी मा भूतामिति | भादीभ्यनम्‌ भादीध्यकः | 9 
.भावेन्यनम्‌ भआवेव्यक इति ।| भवं योगः शाक्यो ऽकरम्‌ । कथम्‌ | 
दीधीवेव्योगछन्दोविषयस्वादष्टानुविधित्वा्च च्छन्दसो ऽदीधेददीधयुरिति 
च गुणदरानादपतिषेधः ॥ ९ ॥ 
रीधीवेव्योरढन्दोविषयत्वात्‌ | दीधीवेष्यौ छन्दोविषयैौ | शृ्टानुविधिखाच च्छ- 
ण्रसः | दृष्टानुविधिश्च च्छन्दसि भवति । भदीषेददीधयुरिति च गुणस्य ददोनादम-.2ः 





# , 8१ ९, ९९३ । इ ४. १,४६.५ १ २. ९,० २० > छ» ४९ ९९६० * ` 4 (4 ढै. ६,०२० 





4. ॥ व्याकरभ पहामाच्यय ॥ ` [म०९.९१.४. 


तिषेधः | अनेकः प्रतिषेपो प्रतिषेधः । प्रजापतिर्वै यत्किचन मनसादीषेत्‌ । होत्राय 
:वतः कृपयच्रदीधेत्‌ ] अदीधयुदौश्राज्ञे वृतासः ॥ . भवेदिदं युक्तमुदाहरणम्‌ 
अदीधेदिति | हदं त्वयुक्तम्‌ अदीधयुरिति । भयं जुसि गुणः* प्रतिषेधविषय 
आरभ्यते | स यथैव कति नेव्येतं प्रतिषेधं वाधत एवमिममपि वाधते । नैष दोषः । 
` 5 जुसि गुणः प्रतिषेधविषय आरभ्यमाणस्तुल्यजातीयं प्रतिषेधं वाधते । कथ तुल्यः 
जातीयः प्रतिषेधः । यः प्रत्ययान्नयः । प्रकृस्याश्रयभ्रायम्‌ |. अथवा येन नापर 
तस्य वाधनं भवति | न चाप्रापरे कति नेव्येतस्मिन्प्रतिषेषे- जुति गुण आरभ्यते । 
अस्मिन्पुनः प्राप्रे चाप्राप्रे च || यदि तद्येयं योगो नारभ्यते कथं दीध्यदिति |. 


दीध्यदिति रयन्व्यतव्ययेन ॥ २॥ 


10 दीध्यदिति इयन्नेष व्यत्यग्रेन भविष्यति ॥ 
हृटसापि महणं शक्यमकर्तुम्‌ । कथमकणिषम्‌ अरणिषम्‌ कणिता च; रणिता 
श्च इति । आर्पधातुकस्येडुलादेः [७.२.३९] इस्यत्डिति वैमानि पुनरि इहणस्व 
प्रयोननमिंडेव यथा स्याश्दन्यत्राभोति तन्मा. भूदिति । किं चान्यतमा्रोतिः । गुणः । 
यारि नियमः क्रियते पिपरिष्तेरभत्ययः. पिपदीः दीर्षव्वं‡ न प्राणोति । तष 
15 दोषः | आङ्गं यत्काय तन्नियम्यते न चैतदाङ्गम्‌ । भथवासिदधं दीर्घत्वं वस्याधिड- 
त्वा्ियमो न भवति ॥ 


हरो ऽनन्तराः संयोगः ॥ १५ । १ । अ ॥ 


भनन्तरा इति कथमिदं . विज्ञाते | अविश्यमानमन्तरमेषामिति । भाहोस्विर- 
विद्यमाना भन्तरैषाभिति । किं चातः । यदि विज्ञायते अविद्यमानमन्तरमेषाभित्य- 
-20.वम्रहे संयोगसंज्ञा न प्राभोवि | अप्‌ स्वित्यस्स्विति | विते हयक्रान्तरम्‌ | अथ विज्ञा- 
यते अविद्यमाना अन्करेषामिति न दोषो भवति । यथा न दोषस्तथास्तु ¡ अथक 
पुत्तरस्त्वविद्यमानमन्तरमेषाभिति |. नन्‌ चोक्तमवमरहे संयोगसंज्ञा न प्राप्रोति. जप्‌ 
स्वित्यस्स्विति विद्यते छत्रान्लरमिति | नैव दोषो न प्रयोननम्‌ | 


संयोगसंज्ञायां सह क्वनं यथान्यत्र ॥ ९ ॥ 
25 संयोगसंश्चायां सहग्रहणं कतेव्वम्‌ | दलो ऽनन्तराः संयोगः सहेति वक्तव्यम्‌ | 


५ क ५ ढे, <दे. * “ + 4 4 | ५, २.०.८११ = 4 ८०, ॐ ६, 9 + 





म ° ९२.९...] ॥ व्याकरणप्हाभाष्यय्‌ ॥ ५७ 


किं प्रयोजनम्‌ | .सह भूतानां संयोगसंज्ञा यथा स्यादेकैकस्य मा भूदिति । यथान्यत्र | 
तयथान्यज्रापि यत्रेच्छति सभूतानां कथि करोति तत्र सहम्रहणम्‌ । त्या | सद 
छपा [२.१.४] | उमे भभ्यस्तं सहेति" । किं च स्वाद्यथेकैकस्य हलः संयोगसंज्ञा 
स्रात्‌ | इह निर्यायात्‌ निवौयात्‌ वान्यस्य संयेगादेः [६.४.६८] हत्येस्वं प्रस- 
ञ्धेत | इह च संहषीरेव्य॒तथ संयोगादेः [७. २.४३] इतीट्‌ प्रसज्येत । हह च स॑हि- & 
यत इति गुणे ऽर्विघंयोगा्योः [७.४.२९ | इति गुणः प्रसज्येत | इह च दृषत्करोति 
सभित्करोतीति संयोगान्तस्य लोपः प्रसज्येत | इह च शक्ता वस्तेति स्कोः संयो- 
गादोः [८.२.२९] इति लोपः प्रसज्येत | इह च नि्यौतः नि्वतः संयोगदि - 
रातो धातोर्यण्वतः [८.२.४३] हति निष्ठानत्वं प्रतज्येत || वैष दोषः | यलावदु- 
स्यत इह तावन्नियौयात्‌ नि्वीयात्‌ घ्रान्यस्य संयोभादेरिव्येत्वं प्रसज्येतेति नैवं वि- 10 
श्ञायते संयोग आदिर्यस्य सो ऽयं संयोगादिः संयोगादेरिति | कथं ताह | संयोगा- 
वादी यस्य सो अयं संयोगादिः संयोगादेरिति । एवं तावत्सवमाङ्ग परितम्‌ ॥ 
चरप्युच्यत इह॒ च दृषत्करोति समित्करो तीति संयोगान्तस्य लोपः प्रसज्येतेति 
नैतं विज्ञाते संयोगो ऽन्तो यस्य तदिदं संयोगान्तं संयोगान्तस्येति } कथं- तर्हि | 
संयोगावन्तावस्व तदिदं संयोगान्तं संयोगान्तस्येति | यदप्युच्यत हह च शक्ता 15 
वस्तेति स्कोः संयोगाथोरन्ते चेनि लोपः प्रसज्येतेति नैवं विक्च।यते संयोगावादी 
संयरोगादी संयोगाद्योरिति | कथं तई | संयोगयोरादी संयोगादी संयेगद्ोरिति | 
यद्युच्यत इह च नियतः निवोत इति संयोगदेरातो भातोर्यण्वत इति निष्ठानत्वं 
प्रतज्येतेति नैवं विज्ञायते संयोग अगियेष्य सो ऽय॑ संयोगादिः संयोगारेरिवि | 
कथं ताईं । संप्रोगःवादी यस्यः से ऽयं संयोगादिः संयेगदेरिति || कथं कृत्वैफै- 20 
कस्य संये।गसंज्ञा प्रामोति । प्रत्येकं वाक्यपरिसमापिदृष्टेति । तथ्थथा । वृद्धिनुणसंत 
पव्येकं भवतः | ननु चायमप्यस्ति दृष्टान्तः समुदाये वाक्य परिखमाप्रिरिति | तथथा | 
गगौः दातं दण्डच्न्तामिति । अर्थिनश्च राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं 
दण्डयन्ति । सत्येतस्मिन्दृष्टान्ते यदि तत्र प्रत्येकमित्युच्यत इहापि सहम्रह्ण॑कर्व- 
अयम्‌ | अथ तत्रान्तरेण प्रत्येकमिति वचने प्रस्येकं वृद्धिगुणसंन्ने भवत इहापि नार्थः ‰ 
सहमदणेन ॥ 

अथ यत्र बहूनामानन्तये क तत्र इयोदयोः संयेगसे स्ता भवस्याह्येस्विदविशेषेण | 


कथात विक्रोषः | 


8 शि 


भवः "1. व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ । ` मि००९.९.४. 


समुदये संयोगादिखोपो मस्जेः ।। ५॥ 
समुदाये संयोगादिलोपो मस्जेने सिध्यति । मङ्गा मङ्म्‌* | इह च निर्ग्ेयात्‌ 


नती "चतौ 
= । 


निग्लोयात्‌ निर्यात्‌ निम्लोयात्‌ वान्यस्य संयोगादेरिस्येत्वं न प्रभोति | इह च 
 संस्वरिषीष्ेत्यतथ संयोगादेरितीण्न प्राभोति । इह च संस्वयेत इति गुणो अर्विसंयो- 
 &गाद्योरिति गुणो न प्रामोति | इह च गोमान्करोति यवमान्करोतीति संयोगान्तस्य 

लोप इति लोपो न प्राप्रोति । इश च निग्कोनः निम्लोन इति संयोगादेरातो धातो- 

यैण्वत इति निष्ठानत्वे न प्राभोति ॥ अस्तु तर्हि हयोदेयोः संयोगः | 
| दयोर्हलोः संग्रोग इति चेद्धर्वचनम्‌ || ३ | 
हयोरेलोः संयोग इति चेद्धिवैचनं न सिध्यति | इन्द्रमिच्छति इन्द्रीयति । 
10 इन्द्रीयतेः सन्‌ इन्दिद्रीयिषति | न न्द्राः संयोगादयः [६.९.३२] इति दकारस्य 
दिव॑चनं न प्रामोति || 
न वाज्विधेः ॥ ४॥ 
न वैष दोषः | कि कारणम्‌ | अज्विभेः | न्द्राः संयोगादयो न द्िरुच्यन्ते | 
अजादेरिति वतेते† ॥ अथ यद्येव बहूनां संयोगसंज्ञाथापि इयेदैयोः किं गतमेत- 
15 दियता ` दुतरेणाह्यंस्विदन्यतरस्मिन्प्षे भूयः खत्रं कतेव्यम्‌ | गतमित्याह | कथम्‌ | 
यदा तावद्वहूनां संयोगसंज्ञा तदैवं विमरहः करिष्यते । अविद्यमानमन्तरमेषा- 
भिति । यदा इयोद्वयोस्तेेवं विमदः करिष्यते | अविद्यमाना अन्तरैषामिति | 
हयोैवान्तरा कथिदिद्यते वा न वा| एवमपि बहूनामेव प्रामोति | यान्हि भवानत्र 
पश्या प्रतिनिर्देशाव्येतेषामन्येन व्यवाये न भवितव्यम्‌ | अस्तु तर्हिं समुदाये संज्ञा | 
20 ननु चोक्तं समुदाये संयोगादिलोपो मस्जेरिति | त्रैष देषः । वश्यव्येतत्‌ । अन्त्या- 
सपव मस्जेर्भिदनपषदङ्गसंयोगादिलोपायेमिति; || अथवाविरेषेण संयोगसंज्ञा विज्ञास्यते 
हयोरपि बहुनामपि । तत्र योयो संयोगसंज्ञा तदाश्रयो रोपो भविष्यति || यदप्यु- 
च्यत इह च निर्ग्लेयात्‌ निग्लौयात्‌ निरम्तेयात्‌ निम्लौयात्‌ वान्यस्य संयोगादेरिव्येस्वं 
न प्रापरोतीत्यद्भेन संयोगादिं विशेषयिष्यामः । अङ्गस्य संयोगदेरिति | एवं 
25 तावत्सर्वमाद्खं परिहतम्‌ | यद्युच्यत इह च गोमान्करोति यवमान्करोतीति 
संगोगान्तस्य लोप इति लोपो न प्रातीति पदेन संयोगान्तं विशेषयिष्यामः | 
पदस्य संयोगान्तस्येति || यदप्युच्यत इह च निर्लानः निर्न इति संयोगादेरातो 
# ७. 2. ६०; ८, २. ८९, † ६.१. २, 





‡ १.९. ४७९.४ 











पा०१.९.८. | ॥ व्वाकरणमहभिाष्यम्‌ ॥ ५/९ 


धातोयेण्वत इति निष्ठानत्वं न॒ भ्रामोतीति धातुना संयोगादिं विदरोषयिष्यामः | 
धातोः संयोगादेरिति ॥ 
स्वरानन्ताहितवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 
स्वहैरनन्तर्दिता दलः संयोगसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | व्यव- 


हितानां मा भूत्‌ | पचति पनसम्‌ | ननु चानन्तरा इत्युच्यते तेन व्यवहितानां न ॐ 
भविष्यति | 
दृष्टमानन्तयै व्यवहिते अपि । & ॥ 
व्यवहिते ऽप्यनन्तर शब्दो दृदयते । तद्यथा । अनन्तराविमौ प्रामावित्युच्यते 
तयोभैवान्तरा नद्य पवेताश्च भवन्ति | यदि त व्यवहिते ऽप्यनन्तर ब्दो भव- 


त्यानन्त्यैवचनमिदानीं किमर्थं स्यात्‌ | 19 


आनन्तर्यवचनं किमर्थमिति चेदेक प्रतिषेधार्थम्‌ ॥ ७ ॥ 
एकस्य दलः संयोगसंज्ञा मा भूदिति | किं. च स्याद्यश्चेकस्य हलः संयोगसंश्चा 
स्यात्‌ | इयेष उवोष | इजादे गुङमतो अनृच्छः [३.१.३६ | इव्याम्परसज्येत || 


न वातज्जातीयनव्यवायात्‌ | ८ ॥ 


न तरैष दोषः | किं कारणम्‌ | अतज्नातींयस्य व्यवायात्‌ | अतज्नातीयर्कै हिं 15 
तोके व्यवधायकं भवति | कथं पुनज्ञीयते ऽतज्नातीयकं लोके व्यव धायकं भवतीति। 
एवं हि कंचित्कित्पृच्छति | अनन्तरे एते ब्राह्मणकुले इति । स आह | नानन्तरे 
वृषलकु लमनयोरन्तरेति | किं पुनः कारणं कचिदतज्जातीयकं व्यवधायकं भवति 
कचिच्न | सवैत्रैव ह्यतञ्जातीयकं व्यवधायकं भवति । कथमनन्तराविमी भामाविति | 
ग्रामशब्दो ऽयं बहर्थः | अस्त्येव शालासमुदाये वतेते. । तद्यथा | भामो दग्ध हति | 20 
भस्ति वाटपरिसेषे वतैते | तद्यथा । सामं प्रविष्ट इति | अस्ति मनुष्येषु वतेते | तद्यथा | 
यामो गंतो माम आगत इति | असि सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके वतेते | तद्यथा | 
ग्रामो रब्ध इति | तद्यः सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके वतैते तमभिसमीकष्थैतस- 
युज्यते ऽनन्तरा विभी मामाविति | सर्वत्रैव ्यतज्जाीयकं व्यवधायकं भवति || 


मुखनासिकावचनो ऽनुनासिकः ॥ ९.।१। ८॥ ९ 
किमिदं मुखनासिकावचन इति । मुखं च नासिका च मुखनासिकम्‌ | मुख- 





४ ॥ व्याकरगमहबाच्यम्‌ | | । म ० ९.९.४. 


नासिकं वचनमस्य सो ऽय॑ मुखनासिकावचनः | यद्येवं मुखनासिकवचन इति 
भामति | निपातनाहीर्ैत्वं भविष्यति || अथवा मुखनासिकमाव चनमस्य सो ऽवं मुख- 
नाक्िकावचनः | भथ किमिदमावचनभमेति | हषहचनमावचनं किचिन्मुखवचनं 
किंचिन्नासिकावचनम्‌ || मुखदहितीय। वा नासिका वचनमस्य सो ऽयं मुखनासिका- 
5 वचनः | मुखोपसंहिता वा नासिका वचनमस्य सोऽयं मुखनासिकावचनः || अय 
मुखग्रहणं किमथेम्‌ । नासिकावचनो अनुनासिकं इतीयत्युच्यमाने यमानुस्वाराणाभेव 
प्रसज्येत | मुखग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || अथ नासिक(भ्रहणं किमयेम्‌। 
मुखवचनो अनुनासिक इतीयरयुच्यमाने कनचटतपानामेव प्रसज्येत | नासिकाभ्रहणे 
पुनः क्रियमणे न दोषो भवति || मुखम्रदणं शक्यमकतुम्‌ | केनेदानीमुभयवचनानां 
10 भाविष्यति । प्रासादवासिन्यायेन | तद्यथा । केचिसासाद वासिनः केचिदध[मिवासिनः 
केचिदुभयवासिनः | ये प्रासादवासिनो गृद्यन्ते ते प्रासादवासिम्रहणेन । ये भूमि- 
यासिनो गृद्यन्ते ते भूमिवासिब्रहणेन | य उभयवासिनो गृद्यन्ते ते प्रासादवासिग्रहणेन 
भूमिवासिम्रहणेन च | एवमिहापि के चिन्मुखवचनाः केचिन्नातिकवचनाः केचिदुभ- 
यवचनाः | तत्र ये मुखवचना शृयन्ते ते मुखम्रहणेन । ये नाक्षिकावचना-गृ्यन्ते ते 
15 नासिकाम्रहणेन | च॒ उभववचना गृद्यन्त एव ते मुखमरहणेन नासिकाग्रहणेन च | 
भवेदुभयवचनानां तिद्धं यमानुस्वाराणामपि प्राभोति । नैव दोषो न. प्रयोजनम्‌ || 
इतरेतराश्रयं तु भवति । केतरेषराभ्रयता | सतो अनुनासिकस्य संज्ञया भधितव्यं संज्ञया 
च नामानुनासिको भाव्यते तदितरेतराश्रयं भवाति | इतरेतरान्रयाणि च कायोागि 
न प्रकल्पन्ते । ` 


20 अनुनासिकसंज्ञायाभितरेतराभ्रय उक्तम्‌ ॥ ९॥ 


किमुक्तम्‌ | सिद्धं तु निस्यशम्दत्वादिति' । नित्याः शम्दा निस्येषु च शब्देषु 

सतो अनुनासिकस्य संज्ञा क्रियते न संज्ञयानुनासिको भाव्यते | यदि तार्हि निष्यः 

राब्दाः किमथे. राखम्‌ | किमथे शाखमिति वेन्निवतेकत्षास्सिडधम्‌ | निवतैकं 

राखम्‌ । कथम्‌ । आङस्मा अविषेषेणोपदिष्टो ऽननुनासिकः । तस्य सवैत्राननुना- 

९ तिकबुद्धिः प्रसक्ता | तत्रानेन निवृत्तिः (क्रियते | छन्दस्यचि परत आडो ऽननुना- 
सिकस्य प्रसङ्गे अनुनासिकः साधुभवतीति। | 





॥ 


०९.९.११ † ९. ९. १२६. 





पाण ९.९.९. | ॥ व्याकरणहाभाष्यम्‌ ॥ ६९ 


तुस्यास्यप्रयलं सवर्णम्‌ ॥१६।१।९.॥ 


तुल्या संमितं तुल्यम्‌ । आस्यं च परयलथास्यप्रयलम्‌ । तुल्यास्यं तुल्यप्रयलं 
घ सवणे भवति || (कै पुनरास्यम्‌ | रीकिकमास्यमीष्ठाखभृति पराङ्काकलकात्‌ | 
कथं पुनरास्यम्‌ | अस्यन्त्यनेन वणोनित्यास्यम्‌। मत्तमेतदास्यन्दत इति वास्यम्‌ ॥ 
अथ कः प्रयलः | प्रयतनं प्रयलः | प्रपवौद्यततेभोवसाधनो नउप्रत्ययः || यदि 5 
ककिकमास्वं किमास्योपादाने प्रयोजनं सर्वेषां हि तत्तुल्यं भवति | वक्ष्यत्येतत्‌ | 
प्रयत्रविरोषणमास्योपादानमिति ॥ 

सवणेसंज्ञायां भिन्नदेदोष्वतिप्रसङ्गः प्रयलसामान्यात्‌ ॥ ९ ॥ 

सवणेसंज्ञायां भित्रदे शेष्वतिप्रसद्धो भवति | ज बग ड दशाम्‌। किं कारणम्‌| 

प्रयल्रसामान्यात्‌ | एतेषां हि समानः प्रयलः ॥ 19 


सिद्धं त्वास्ये तुल्यदेद्राप्रयलं सवणेम्‌ ॥ २॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । शस्ये येषां तुल्यो देशः प्रयल्लशं ते सत्रणसंज्ञा भव- 
नीति वक्तव्यम्‌ | एवमपि किमास्योपादाने प्रयोजनं सर्वेषां हि तत्तुल्यम्‌ | प्रय- 
लविदोषणमास्योपादानम्‌ । सन्ति ्यास्याद्वाद्याः प्रयलाः । ते हापिता भवन्ति | 
तेषु सत्स्वसस्स्वपि सवणेसंज्ञा सिध्यति | के पुनस्ते | धिवारसंवारौ | श्वासनादौ | 1 
षोषवदघोषता । अल्पप्राणता महाप्राणतेति । तश्र वगोणां प्रथमदितीया विवृत- 
कण्ठाः श्वासानुप्रदाना अघोषाः | एके ऽल्पप्राणा अपरे महाप्राणाः | तृतीयचतुथौः 
संवृतकण्डा नादानुप्रदाना घोषवन्तः । एके ऽल्पप्राणा अपरे महाप्राणाः | यथा तृती- 
यास्तथा पत्चमा भआनुनासिक्यवजम्‌ । आनुनासिक्ये तेषामधिको गुणः ॥ एवम - . 
प्यवणैस्य सवणेसंज्ञा न प्रामोति । किं कारणम्‌ | बाद्यं॑द्यास्यास्स्थानमवणैस्य | 20 
सवैमुखस्थानमवणेमेक इच्छन्ति | एवमपि भ्यपदेश्ो न प्रकल्पत आस्ये येषां 
तुल्यो देश इति । व्यपदेशिवद्भावेन व्यपदेशो भविष्यति । िभ्यति | खतं ताह 
भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं सवणेसंज्ञायां भित्तदेरोष्वतिप्रसङ्धः प्रय- 
सामान्यादिति । नैष दोषः | न हि रीकिकमास्यम्‌ | किं तरि | तडधितान्त- » 
मास्यम्‌ | आस्ये भवमास्यम्‌ । शरीरावयवाद्यत्‌ [ ९.१.६ | | किं पुमरास्ये 
भवम्‌ । स्थानं करणं च | एवमपि प्रयतो अविषेषितो भवति | प्रयलश्च विशे- 
पितः | कथम्‌ | न हि प्रयतनं प्रयलः | किं तर्हिं | प्रारम्भो यलस्य प्रयः | 


६२ ॥ व्याकरणय्हाभाष्यम्‌ | [म ९.९.५४. 


यदि प्रारम्भो यलस्य प्रयत्न एवमप्यवणेस्य एडोश्च सवणेसंज्ञा प्रामोति । प्रधिश- 
व्णीवेती । भव्णस्य तर्धैचो् सवणेसंज्ञा प्रामोति । विवृततरावणौवितौ | एतये।रेव 
तई मिथः सवणैसंज्ञा परामोति । नेती तुल्यस्थानी | उदात्तादीनां ताहे सवणेसंज्ञा न 
प्राप्रोति । अभेदका उदात्तादयः || अथवा किंन एतेन प्रारम्भो यलस्य प्रय इति। 
5 प्रयतनमेव प्रयलस्तदेव च तद्धितान्तमास्यम्‌ | यत्समानं तदाश्रयिष्यामः | ई 
सति भेदे. । सतीत्याह । सत्येव हि भेदे सवणेसंश्ञया भवितव्यम्‌ । कुत॒ एतत्‌ । 
मेदाधिष्टाना हि सवणेसंज्ञा | यदि हि यत्र सवे समानं तत्र स्यात्स वणेसंज्ञावचन- 
मनथकं स्यात्‌ | यदि तर्हि सति भेदे किचिस्समानमिति कृत्वा सवणेसंज्ञा भवि- 
ष्यति हाकारछकारयोः षकारठकारयोः सकारथकारयोः सवणेसंज्ञा प्राभाति | 
10 एतेषां हि सर्वेमन्यत्समानं करणवजैम्‌ || एवं ताहि प्रयतनमेव प्रयलस्तदेषव च त- 
दितान्तमास्यं न स्वयं इन्द्र भास्यं, च प्रयलशचास्यप्रयलमिति । किं तई । त्रिपदो 
ऽयं बहृत्रीहिः । तुल्य आस्थे . प्रयल एषामिति || भथवा पूवैस्तस्पुरुषस्ततो बह - 
व्रीहिः । तुल्य आस्ये तुल्यास्यः | तुल्यास्यः भ्रयल एषामिति 1 अथवा परस्त- 
सपुहषस्ततो बहू्रीहिः | आस्ये प्रयल आस्यप्रयललः | तुल्य आस्यप्रयल एषामिति ॥ 


15 ` . वस्य | तस्येति. तु वक्तध्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | यो यस्य ॒तुल्यास्यप्रयलः स 


तस्य सवणेसंश्ञो. यथा स्यात्‌ | अन्यस्य तुल्यास्यप्रयल्लो ऽन्यस्य सवणसंज्ञो मा भूत्‌ | 
तस्यावचनं वचनप्रामाण्यात्‌ ॥ ३ || 
तस्येति न वक्तव्यम्‌ } अन्यस्य तुल्यास्यप्रयलो ऽन्यस्य सवणेसंज्ञः कस्मान्न 
भवति | वचनभामाण्यात्‌ ¡ सबणैसंज्ञावचनसामथ्यात्‌ । यरि ह्यन्यस्य तुल्यास्यप्र- 
0 यलो ऽन्यस्य सव्णेसंज्ञः स्यात्सवणेसंज्ञावचनमनयकं स्यात्‌ ॥ 
संबन्धि रद्वा तुल्यम्‌ ।। ४ ॥ 


सं बन्धिशब्दैवौ पुनस्तुल्यमेतत्‌ । तद्यथा सं बन्धिराब्दाः । मातरि वर्तितव्यं पि- 


तरि भुभरूषितव्यमिति । न चोच्यते स्वस्यां मातरि स्वास्मिन्वा वितरीति संबन्धा- 
देतहस्यते या यस्य माता यश्च॒ यस्य पितेति | एवमिहापि तुल्यास्यप्रयलं सवणै- 
25 मित्यत्र संबन्धिहाम्दायेती । तत्र संबन्धादेतहन्तव्यं यत्ति यन्तुल्यास्यप्रयलं तस- 
ति तत्सवणेसंज्ञं भवतीति ।| 
ककारलकारयोः सवणविधिः ॥ ९ ॥ 
ककारक्कारयोः सवणेसंज्ञा विपेया । होतृ लकारः होतृकारः | किं भरयो- 








पा० १,१.९०. | ।। व्याकरणम्रहाभाष्यपर ॥| ` ६३ 


ननम्‌ | अकः सवर्णे दीः [६. ९. १०९] इति दीधेष्वं यथा स्यात्‌ । नैतदस्ति 
प्रयोजनम्‌ | वक््यत्येतत्‌* | सवणैदीधेत्व ऋति क्रवावचनमुति क्षुवावचनमिति | तस्स- 
वै यथा स्यात्‌ | हह मा भूत्‌ दध्य॒कारः मध्व कार इति | यदेतस्सवणेदीधत्व ऋ- 
तीव्येतदरत इतिं वक्ष्यामि | तत कति | चकारे च वा छु भवति| करत इत्येव | तत्न वक्त- 
व्यं भवति । अवरयं तद्क्तव्यम्‌ | ऊकालो ऽज्यस्वदीषेश्ुतसं ज्ञो भवती त्युच्यते† न ॐ 
च ऋकार हृकारो वाजस्ति | ऋकारस्य ष्व कारस्य चाच्त्वं वक्ष्यामि । तच्ावरयं व क्त- 
व्यं श्रुतो यथा स्यत्‌ | होतृ ऋकारः होतृक्रारः होतृकारः होत लकारः होतुकारः 
हो त॒रेकारः | किं पुनरत्र ज्यायः | सवणैसंज्ञावचनमेव ज्यायः | दीधस्वं चैव हि 
सिद्धं भवति | अपि च ऋकारम्रहण ठकारम्रहणे संनिहितं भवति | यथेह मवति | 
ऋत्यकः [६. ९. ९२८ | खट ऋदयः माल ऋदयः | इदमपि संगृहीतं भवति | 10 
खदु ककारः माल ककार इति | वा खप्यापिहारेः [६. ९. ९२] उपकोरीयति ` 
उपाकरीयति । इदमपि सिद्धं भवति | उपल्कारीयति उपाल्कारीयति | यदि 
त्धुकार्हण लकारयहणं संनिहितं भवल्युरप्रपरः [१. ९. ५१] लकारस्यापि 
रपरत्वं प्रामोति | छकारस्य ऊपर त्वं वक्ष्यामि | तच्चावदयै वक्तध्यमसल्यां सव- 
णैसंज्ञायां विधभ्यथेम्‌ । तदेव सरयां रेफवाधना्थे भविष्यति ॥| इह तरं रषाभ्यां 15 
नो णः समानपदे |८. ४. ९ | इत्यृकार ग्रहणं चोदितं मातृणाम्‌ वितृणामित्येवम- 
थेम्‌ | तदिहापि प्रामोति । कुप्यमानं पर्येति । अथासत्यामपि सवणेसंज्ञायामिह 
कस्मान्न भवति | प्रकुप्यमानं परयेति । चुदुतुलव्यैवाये नेति वक्ष्यामि । अपर 
आह | | | 
त्रिभिश्च मध्यनेवैर्गैंशतैशच व्यवायेन ` २७ 
इति वदेयामीति । वर्णकदेशाथ्च वणग्रहणेन गृद्यन्त इति यो ऽसावृकारे ठका- 
रस्तदाभ्रयः प्रतिषेधो भविष्यति । यदेवं नार्थो रषाभ्यां णत्व कऋकारमहणेन । 
वर्श कदे शाश्च वणेमहणेन गृह्यन्त इति यो ऽसावृकारे रेफस्तदाभ्रयं णत्वं भविष्यति || 


नाज्यटी ॥२।१।१०॥।। 


अञ्चछरोः प्रतिषेधे शाकारपतिषेपो उद्मल्त्वात्‌ ॥ १॥ ` % 
भज्छलोः प्रतिषेषे दकारस्य शकारेण सव्णसंज्ञायाः प्रतिषेधः प्राप्रोति | कि 


# ६, १, ९०३१. †+ १,,२. २७. | { ८, ५.२९, 





६४ ॥ व्याकरणपहाभाष्यम्‌ 7  : [म०९.१.४. 


कारणम्‌ | भज्छल्स्वात्‌ | अश्चैव हि हकारो हल्व | कथं तावद्स्त्वम्‌ | इकार 
स वणेमहणेन हाकारमपि गृह्णातीत्यच्त्वम्‌ | हल्षु पदे दा डल्त्वम्‌ || तत्र को दोषः | 


तत्र सवणखोपे दोषः ॥ ।। 


तत्र लवणैतोपे दोषो भवति | परदशातानि* कायौणि | चरो चरि स्वर्ण 
ऽ [८.४.६९ | इति लोपो न प्रामोति | 


सिङ्मनच्छ्वात्‌ | ३ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । अनच्त्वात्‌ | कथमनश्त्वम्‌ । स्पष्टं स्पश्चोनां करणम्‌ | 
हेष ससप्टमन्तः स्थानाम्‌ । विवृमृष्मणाम्‌ हैषदित्येवानुषतेते । स्वराणां विवृतम्‌ 
हेषदिति निवृत्तम्‌ | 
10 वा क्यापरिसमाधिर्वां | ४ ।। 


वाक्यापरिसमापेवौ पुनः सिद्धमेतत्‌ । किमिदं व(क्यापरिसमापतेरिति | बणोनामु 
पदेदास्तावत्‌ | उपदे शो्तरकालेत्संज्ञा | इत्संज्ञोत्तरकाल भादिरन्स्येन सहेता 
[१. १.७९] इति प्रत्याहारः । प्रस्याहारो्तर काका सवणैसंज्ञा | सवणेसं्ोन्तरकाल- 
मणुदित्सवणैस्य वाप्रत्ययः [१.९.६९] इति सवर्ण्रहणम्‌ | एतेन सर्वेण समु- 
15 दितेन वाक्येनान्यत्र सवणोनां ब्रहणं भवति | न चात्रेकारः शकारं गृह्णाति || यथैव 
तर्हीकारः शकारं न गृह्णास्येवमीकारमपि म गृह्णीयात्‌ | तत्र को दोषः | कुमारी 
हदते कमारीहते | अकः सवणेदीषत्वं न प्राप्रोति । नैष दोषः | यदेतदकः स- 
वर्णे दीधे इति प्रस्याहार पहणं तत्रैकार हकारं गृह्णाति दाकारं न गृह्णाति ॥ 


अपर आह" भज्छलोः प्रतिषेष दाकार प्रतिषेधो ऽज्छल्त्वात्‌ | अज्जछलोः प्रतिषेधे 

20 शकारस्य शकारेण सवर्ण॑संज्ञायाः प्रतिषेधः प्रापोति | किं कारणम्‌ । भञ्ज 
ल्स्वात्‌ । अदैव हि शकारो हल्च | कथं तावदच्त्वम्‌ | इकारः सवणै्रहणेन 
दाकारमपि गृह्णातीस्येवमस्त्वम्‌ । शत्पूपदेशादल्लम्‌ [| तत्र को दोषः | तत्र सव- 
गलोपे दोषः || तत्र सवणैलोपे दोषो भवति । पररशतानि कायौणि | रो द्रि 
सवणे इति लोपे न प्रामोति || सिद्धमनच्त्वात्‌ || तिडधमेतत्‌ । कथम्‌ | अन- 
25 "त्वात्‌ ॥ कथमनच्त्वम्‌ । वाक्यापरिसमाप्रेषौ || उक्ता वाक्यापरिसमापनिः ॥ 
अस्मिन्पक्षे वेत्येतदसमर्थितं भवति । एतश्च समर्थितम्‌ । कथम्‌ । अस्तु वा शच 


## ८, ४, ४, † ६. १. १०९, 





९ १.९.१०. ॥ व्वाकरणग्हाधाष्यय्‌ ॥ ९५ 


कारस्व शकारेण सवणंसंक्ञा मावा मृत्‌ | ननु चोक्तं परदशातानि कायौणि चरो 
हरि सवणे इति लोपो नृ प्रामोतीति | मा भृह्धोपः । ननु च मेदो भवति । सति 
रोपे हिशकारमसति रेपे त्रिशाकारम्‌ | नास्ति भेदः । असत्यपि लोपे हिशका- 
रमेष । कथम्‌ । विभाषा हिषैवनम्‌* । एवमपि भेदः । भसति लेपे कदाचिद्धि- 
छकारं कदाचिन्लिराकारं सति लोपे शिक्षंकारमेव । स एष कथं मेरो न स्यात्‌ | ऽ 
यदि नित्यो लोपः स्यात्‌ । विभाषा तु स लोपः | यथाभेदस्तथास्तु ॥ ` 

इति श्रीमगवत्पतक्नलिकिरिचिते व्याकरणमशामाष्मे प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे 
पदे चतुयेमाह्धिकम्‌ ।॥ . 


#८. ४, ४७, 





जे 


- ६६ ॥ व्याकरणमटामाष्यप्‌ ॥.* ` ` पःमम१.१.५. 
,. ` . -. द्दूदेद्धिव्चनं प्रगृह्यम्‌ ॥ १ ।१ 1११. .॥ ... 
 किमथमी दादीनां तपराणां प्रगृद्यसं्ञोस्यते | तप्रस्तरकालस्य | ९. ९. ७० | 

~ ` इति तत्कालानां सवणोनां अरहणं यथा स्यात्‌ | केषाम्‌ | उदात्तानुरा्तस्वरितनाम्‌ । 
भसति प्रयोजनमेतत्‌ । किं तर्हीति । भुतानां तु प्रगृद्यसंज्ता न प्राप्नोति | कि कार- 
४भम्‌ । जतरकालत्वात्‌ । न॒हि श्रुतास्तस्कालाः | भसिडः हइुतस्तघ्यासिडसरात्त- 
स्काला एव भवन्ति | सिद्धः श्रुतः स्वरसंधिष्‌ । कथं क्षावते सिः हुतः स्वरसत 
धभिस्विति । यदयं श्ुतभगृद्या भवि [६. १. ९२९] इति हुतस्य प्रकृतिभावं शास्ति | 
कथं कृत्वा क्ञापकम्‌ | सतो हि कार्यिणः कार्येण भवितव्यम्‌ | किमेतस्य शापन 
प्रयोजनम्‌ | अश्जुतादश्ुत इत्येतत वक्तव्यं भवति" | किमतो यस्सिदधः भुतः स्वर- 
10 संपिषु | संज्ञाविधावसि दस्तस्यासिडत्वान्तत्फाला एव भवन्ति | संज्ञाविपौ च 
सिः | कथम्‌ | कायकालं हि संहापरिभाषम्‌ । यत्र काये तज्रोपर्थितं द्रव्यम्‌ | 
पगृद्यः प्रकृत्येत्युपस्थितामिदं भवति इहदुदेद्धिवचनं परगृद्यमिति || किं पुनः भुतस्व 
भरगृधसं श्षावचने प्रयोजनम्‌ | परगृदयाश्नयः प्रकृतिभावो यथा स्यात्‌ | मा भूदेवम्‌. | 
गुलः प्रकृस्येत्येवं भविष्यति । यैवं शक्यम्‌ । उपस्थिते हि दोषः स्यात्‌ | अश्घतवदु- 
15 पस्थिते [६. ९. ९२९] इत्यत्र परिष्यति द्याघार्यः । वडचनं श्ुतकार्यप्रतिषेधाथे 


ुतपरतिषेषे हि प्रगृ्यज्चतप्रतिषेधभसङ्गो ऽन्येन विहितस्ादिति | तस्माल्ुतस्य भरगृद्य- 
संजञेषितव्या प्रगृह्याश्रयः प्रकृतिभावो यथा स्यात्‌ ॥ 
यदि पुनर्दीोणामतपराणां प्रगृ्यसंञोच्येत | एवमप्येकार एषैकः सवणोन्गृहणीवा- 
दीकारोकारौ न गृह्णीयाताम्‌। किं कारणम्‌ | अनण्त्वात्‌ || यदि पुनहैस्वानामतपराणां 
20 प्रगृह्यसं जञेच्येत | वैवं शक्यम्‌ । इहापि प्रसज्येत | भकुवेहि त्र भकुवद्यत्रेति || 
तस्मारीषीणामेव तपराणां प्रगृद्यसंज्ञा वक्तव्या । दीषोणां चोध्यमाना शुकानां न 
भाति || एषं तर्द कि न एतेन यलेन यस्सिडधः श्रुतः स्वरसंभिष्विति | भसिद्धः 
भुषस्तस्यासिद्धस्वात्तत्काला एव भवन्तीति | कथं यत्तञ्जापकमुक्तं शुतप्गृद्या भवीलि। 
ुवभावी प्रकृत्येस्येवमेतदिक्ञायते | कथं थल्तलयोजनमुक्तम्‌ | क्रेयते तञ्याख एवाज्जू- 
25 तादञ्जत इति || एवमपि यास्सिदध प्रगृद्यकाये तर्ुवस्य न प्राभोति | भणो अगु 
स्यामुभासिकः [८. ४. ५७] इति । एवं ति किं म एतेन कायकालं संज्ञापरिभा- 


# ६.९. ५१३. † ९. ९. ५९. 











प०१.१.९९.| ॥ .व्वाकरणमरहाभाष्यम्‌ ॥.. ` 89 
मिति 1 ययोहेशमेव संज्ञापरिभाषम्‌ | वत्र ` चास्ावसिदड्स्तस्यासिदत्वालत्कालाः 
कव भषन्ति || : |  - । 
कथं पुनरिदं विज्ञायते } हेरादयो वद्िवचनमिति  भारोस्विरीदाद्न्तं यद्िवि-' 
धनमिति | कथान्र विदोषः | . 
दंदादयो द्विवचनं प्रगृह्या इति चेदन्त्यस्य विधिः ॥ ९॥ | ४ 
हेदादयो हि वचनं प्रगृद्या इति चेदन्त्यस्व प्रगृद्यसंश। विधेया | पचेते इति | प्रचेथे 
इति | वचनाद्भविष्यति | अस्ति वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ । खट इति | माले इति ॥ 
भस्तु तरहीदादयन्तं ध्िवचनमिति |. । 
ईंदा्यन्तमिति चेदेकस्य विधिः ॥ २॥) 
$दाद्यन्तमिति चेदेकस्य परगृ्यसंज्ञा विधेया । खट इति | मति इति ॥ 10 
न वाद्यन्तवत्वात्‌ ॥ ३ ॥ _ 
ने चैष दोषः | किं कारणम्‌ । अग्यन्तवस्वात्‌ | अश्यन्तवदेकस्मिन्काये मंब- 
तील्येकस्यापि भविष्यति” || भथवैवं वद्यामि ।. ईदाद्यन्तं यद्धिवचनान्तमितिं । 


 . ईदाद्यन्तं द्विवचनान्तमिति चेष्टुकि प्रतिषेधः || ४ ॥ 
, शदाग्यन्तं दिवचनान्वमिति चे्घुकि प्रतिपेपो . वक्तव्यः. | कुमार्योरगारं कुमा- 1४ 
यैगारम्‌ । वध्योरगारं वभ्वगारम्‌ | एतडीदाशन्तं च नूयते हिवचनान्तं च भवति 
प्रत्ययलक्षणेन ॥ | 
स्रम्यामथग्रहण ` ज्ञापकं परत्ययलक्षणप्रतिषेधस्य ॥ ५ ॥ 
` यदयमीदुतौ च सप्तम्य् [९.१.९९ | इत्ययेभहणं करोति तज्जापयत्याज्रार्यो 
न श्रमृद्छसंज्ञायां प्रत्ययलक्षणं भवतीति ॥ तर्हि शापकाये मर्थग्रहणे कनेष्यम्‌ | न 20 
कर्तेव्वम्‌ | हैदारिमिर्िवचनं विशेषविष्याम हेदारिविरिषटेन च हिव चनेन तदन्त- 
चिधिमविम्यति । हेदाद्यन्तं यद्धिवचनं तदन्तमीदाद्यन्तमिति || एवमप्यभङ्गे वले 
शङ्के खमपञ्चेतां भुङ्कधास्तां बले हृत्यत्र प्रामोति | अत्र हीदारि श्रिवचनं तदन्तं -च 
मवति प्रत्ययलक्षणेन । अत्राप्यकृते शीभावे. लुग्भविष्यति | इदमिह संप्रधायै 
हुक्ियकां दीव इति किमत्र कतेव्यम्‌ | परत्वाच्छीमावः | निस्यो लुक्‌ | कृते ऽपि £ 
| ९.९.२९. 1१.९६९. १.९.९९ | {+म्‌  §२१५म् 


ट ॥ घ्याकरणहाभाष्यम्‌ ॥ `  [म०९.९.५ 
कीभावे प्राभोत्यज्घते अपि भोति | धनिस्यो लुक्‌ } भन्यस्य कते क्षीभावे-प्रामोरवम्ब- 
स्याकृते शब्दान्तरस्य च प्रा्ुवन्विधिरनिस्यो भवति । शीभावो ऽप्यानिस्यो न -हि 
कृते लुकि भावति | उभयोरनित्वयोः परस्वाष्छीमावः हीभाषे कृते टुक्‌ | अथापि 
कथंचिच्तित्यो लुक्स्यदेवमपि दोषः । वदेयस्येतत्‌ । षदसंशायामन्तवचनभन्यक 

5 संज्ञाविभौ प्रत्यययहणे वदम्तविधिप्रतिषेधाथेमिति' | इदं चापि प्रत्ययत्रहणमयं चावि 
संश्ञाविधिः | भवरयं खल्वस्मिच्चपि पक्ष भाद्न्तवद्धाव एदितव्यः | तस्मादस्त॒ स 
एव मध्यमः पकः | 


अदसो मात्‌ ॥ १।१. ।१२॥ 


मात्मगष्यसंज्ञायां तस्यासिडदस्वादयविकदे हशप्रतिषधः ॥ ९ ॥ 


10 मासगृद्यसंश्ञायां तस्य हैर्वस्य ऊर्वस्य चासिदधत्वादयावेकदिशयाः प्राप्ुवन्ति। 
, तेषां प्रतिषेधो वच्छष्यः | अमी अत्र | भमी भासते । अमू अत्र | भमु आसते ॥| 
ननु च प्रगृद्यसंज्ञावनचसरामभ्योदयादयो न भविष्यन्ति | 
 । वथनार्थाहि सिद्धे॥९॥ | 
नेदं वचनाह्ठभ्यम्‌ | अस्ति ्न्यदेलस्य वचने प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | यस्सिद्धे 
15 प्रगृद्यसंज्ञाकाथै तदर्थमेतस्स्यात्‌ | अणो अपगृदयस्यानुनासिकः [८.४.९७] इति । 
रैकं पयोजनं योगारम्भं प्रयोजयति | यद्येतावस्योजनं स्यानत्रैवायं ब्रूयादगो ऽ- 
गृ्यस्वानुनासिको ऽदसो नेति ॥ . , 


विप्रतिषेध ॥ ३ ॥ 


अथवा प्रगृदयसेजञा क्रियतामयादयो वा प्रगृषयसं्ञा मविभ्याति विप्रतिषेधेन | तष 

0 युको विप्रतिषेधः [ विप्रतिषेधे परमिस्युख्यते पवौ च प्रगृ्सं्ञा परे वादयः ] 
परा प्गृद्यसंश्ञा करिष्यते | खश्रविपयोखः कतो भवति | एवं तर्हि परैव प्रगृदयसंजञा | 
कथम्‌ । कायैकारुं हि संज्ञापरिभाषम्‌ | यत्र कायै तत्रोपस्थितं ब्र्टव्यम्‌ | पगृ 
्रकृव्येस्युपस्थितमिदं भवति अदक्षो मादिति || एवमप्ययुक्तो विप्रतिषेभः । कथम्‌ । 
हिकायैयोगो हि विप्रतिषेधो न चाश्रैको दिकायेयुक्तः | एचामयादयः । हेवृतेेः 

25 ्रगृद्यसंज्ञा † नावश्यं िकायंयोग एव विप्रतिषेभः । किं तर्हि | असंभगो ऽपि | 


॥॥ ह. द, ९४. ॥। ८, २, ८०, ८१.००६, १.१ ७८ १ ०२. १५ ६, १ द्‌. $ ६, १. ९२५९. 





पा ९.९.१२] ॥ व्वकिरनयहामाव्वम ॥ ६द 
स चास्स्वत्रासंमवः | को-ऽतावसंभवः | भरगृ्यसंजाभिनिषेतेमानायारीम्बाधते | अया- 
दयो अभिनि्ैर्तमानाः प्रगृष्यसंञ्ञानिमिन्तं॑विघ्रन्तीस्वेषो संभवः । सस्यसंभवे 
युक्तो विप्रतिषेधः || एवमप्ययुक्को विप्रतिेषः | सतो विपतिषेषो भवति म्र चक्रे 
स्वोस्वे स्तोः नापि मकारः । उभयमसिदधम्‌ । 


आश्रयास्सिद्धस्वं च यथा रीरुत्वे ॥ ४ ॥ ४ 
भभ्रियास्सि्धत्वं भविष्यति त्था सद्व आभ्रयास्सिद्धो भवति" | किं पुनः 
कारणं रुसुस्व आभ्रयास्सिद्धो भवति न पुनयत्रैव सः तिडधस्तश्रैवोश्वमप्युख्यते । 
नैवं शक्यम्‌ । | | 


असिद्धे युच्च आ हूणापरसिदिः || ९ ॥ 

भवषिद्धे शस्व आह्ुणस्याप्रसिडिः स्यात्‌। । वृक्षो ऽत्र । रक्षौ ऽत । वस्मात्त- 10 
्राभ्रयास्सिद स्वमेभितव्यम्‌ । तत्र यथान्रयास्सिदधस्वं भवत्येवमिहापि भविष्यति ॥ 

अथवा प्रगृद्यसंज्ावचनसामथ्योदयादयो न भविष्यन्ति || भथवा योगविभागः 
करिष्यते | अदसः | अदर ईदादयः प्रगृद्यसंश्ञा भवन्ति } ततो मात्‌ | माञ्च प्र 
हेदादयः प्रगृद्यसंश्ञा भवन्ति | अदस इत्येव | किमर्थो योगविभागः । एको य्त- 
स्वदे प्रगृषकायै तदथः । भपरो यदसिद्धे । हापि ताहि प्रामोति । भमुया भ- 15 
मुयोरिति । कि च स्याद्यदि प्रगृद्यर्सज्ञा स्यात्‌ । प्रगृद्यान्नयः प्रकृतिभावः प्रस- 
ज्येत । नैष दोषः | पदान्तप्रकरणे भरङृतिमावो न चैष पदान्तः | एवंमप्यमुके अ 
अत्रापि प्राप्रोति | वचनमिति वतेते | यदि हविवचनमिति वतेते अमी अत्रेति न प्रा- ` 
भोति | एर्व तर्चदन्तमिति निवृत्तम्‌ || अथवाकशयमदसो मादिति । न चेश्वोस्वे 
स्तो नापि मकारः | त एवं विश्ास्यामः । माथोदीदादयर्थानामिति ॥ 2 


उक्तवा ||. & ॥ 
किमुक्तम्‌ | भदस हैरवोस्वे स्वरे बदिष्यदलक्षणे प्रगृचचसंश्ञायां च सिदे ब्त ` 
ये इति! | | . 
|  . ` शत्र सकि दोपः ॥ ७ ॥ ` 
` सत्र सककारे दोषो भवति । अमुके च |  . ` - ~, 


जियाये माणिका ययिना णण), 


ॐ ॥ श्प्राकस्नव्रहयभाष्व ब्‌. 1 - -. ` -[मर१९ ५ 


म वा ब्रह्णविरीषणस्वात्‌ ॥| & ॥ ` ˆ ` 


` जैव दोषः. | किं कारणम्‌ | परह्णविरशेषणस्वात्‌ | न. माद्हणेनेदाथन्सं 


-विक्तिष्यते | किं तर्द | दादयो विशेष्यन्ते | भार्परे ब हैदादय इतिं || 


शे ॥ १।१।१२ ॥ 


$ इह कस्माच्च भवति काशे कुशे वंशे इति । ` 
| रो ऽरवद्हणात्‌ ॥ ९।। 


भयैवतः शेशम्दस्य प्रहणं न चायमथवान्‌ । एवमपि हरिरो बेभुशे हस्यश्र 


प्रामोति* | एवं तर्हि लक्षणप्रतिपदोक्छयोः प्रतिषदोक्तस्यैवेत्येषं न॒ भविष्वति । 
अथवा पूनरस्स्वथेवदूहणे नानथेकस्येति | कथं हरिरे बभुरो हति | एको ऽ 
10 विमक्चर्थेनायेवानपर स्तदितार्थेन समुदायो ऽनयेकः ॥ 


निपात एकाजनाङ्‌ ॥ १. । १. । १४ ॥ .. 
निपात इति किमर्थम्‌ । चकारात्र } जहारात्र | एकाजिति किमथेम्‌ | प्रेदं ब्रहम | 
रेदं क्त्रम्‌ | एकाजिस्यप्युष्यमाने त्रापि प्रामोति । एषो अपि धेकाच्‌ । . एकाजिति 
जराय बहूव्रीहिः | एको ऽमस्मिन्तो ऽयमेकाजिति । किं तर्हि । तस्पुरषो ऽयं समा- 
1; माधिकरणः । एको ऽष्‌ एकाजिति । वदि तदयुहषः खमानाभिकरग्रो नाये एकब्- 
हनेनः | इह कर्माच्च भवतिः | प्रेदं बरह्म | प्रदं क्षत्रम्‌ । अजेव यो निपात इत्येवं 
विश्ञास्यते | कि वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुष्यमानं गंस्यते | भज्प्रहणसामभ्वोत्‌ | 
यदि हि यत्रा्ान्यश्च तत्र स्यादज्महणमनर्थकं स्यात्‌ | भस्त्यन्यदज्पहणस्य प्रयो- 
जनम्‌ । किम्‌ । भजन्तस्य यथा स्याडतन्तस्य मा भूत्‌ । त्रैव दोषो न प्रयोजनम्‌ ॥ 
20 एवमपि बुव एतद्यो प्ररिभाषथोः सावकाशयोः समवस्थितयोराद्न्तवदेकस्मिन्‌ 
[१९.९.९९] इति च येन विधिस्तदन्तस्य [९.१.७१] इति वेयमिह परिभाषा 
भविष्यस्यादयन्तवदे कस्मिचितीयं न भक्ष्यति येन विधिस्तदन्तस्येति । आचायेपरवु- 


िज्गीपयतीयमिह परिभाषां भवस्थायम्तबदेकस्मिन्नितीयं न भवति येन विधिस्तद- 
न्तस्थेति यदयमनाडिति प्रतिषेधं चास्ति. || एवं तर्हि सिरे सति यदज्यषछो क्िय- 


एयावावयायककककक ण "ग्ण षर र षद 
~~ = ` = णायन ज, 





9. ५१ द्‌ ड १ ०9, 


[व करः 





क १,१.१३-१८.] = ॥ ध्याकरनमराभाष्वम्‌ ॥ .. 44 


माण एकमदणं करोति `तञ्जञाप्त्यात्रायो ऽन्यत्र बर्णभहणे जातिश्णं भव्ति । 
किमेतस्य. क्ापने प्रयोजनम्‌ | दम्मेहैस्पदणस्य जातिकाचकत्यास्ि डमिति - यदन्त + 
सदुपपत्नं भवति ॥ अनारिति किमर्थम्‌ | भा उदकान्तात्‌ ओदकान्तात्‌ | इद क~ 
स्मात्र भवति | भा एवं नु मन्यसे .| आ एर्व किल तदिति । सानुवन्धकस्वेदमा- 
(करस्य यहणमननुबन्धकथात्राकारः | कर पुनरयं सानुबन्धकः क निरनुबन्धकः | -5 
ईषदर्थे क्रियायोगे मर्यादामिविषौ च यः | 
एतमातं कित विद्ाहाक्यस्मरणयोररिन्‌ ॥ 


ओत्‌ ॥ १. ।१. । १५ ॥ 


किमुदाहरणम्‌ | आहो .इति । उताहो इति | नेतदस्ि प्रयोजनम्‌ | निपातसमा- 
हरो ऽयम्‌ | भाह ड आहो इति | उत आह उ उताहो इति । त्र निपात ए- 10 
 काजनाङ्‌ [१.१.९४] इत्येव सिद्धम्‌ 1 एवं तद्धकनिपाता इमे ॥ अथवा प्रति- 
बिद्धा्था ऽयमारम्भः । ओ षु यातं मरतः | भ षु यातं बृहती शरी च | भ 
चित्सखाथं सद्या ववृत्याम्‌ ॥| । 
~ ओतश्िवपरतिषेधः ॥. ९.॥ .. - 
ओदन्तो निपात हत्यत्र च््यन्तस्व1 प्रतिषेधो वक्ष्य: | भर्नदः` अदः अभमवत्‌-15 
अदोऽभवत्‌ । तिरोऽभवत्‌ || न वक्तव्यः । लक्षणप्रतिपदोक्तवोः प्रतिपदोक्तस्यैव 
स्येव न भाविष्यति ॥ एवमप्यनौर्गीः समपद्यत गोऽभवत्‌ भ्र प्रामोति । एवं 
ताह ओणमुख्यकवो मुख्ये कायंसंपरस्यय इति | तद्यथा | गौर नुबन्ध्यो अजो ऽभीषो+ 
जीय इति न. बादीको ऽनुबभ्यते | कथं तर्हि कदीके वुद्यास्वे भवतः! । गौसि 
हति । गामानयेति । अथां श्रय एतदेवं भवति । वदि दाष्दाभयं शब्दमात्रे तद्ध- 20 
वति | छम्डान्रवे ब्र बृष्याश्वे | 


उञ ॐ॥१॥।१।१५.-१.८ ॥ 


„ इह कस्माच्च भवति | आदो इति | उताशे इति । म इस्वुष्यते न -चात्रों 
 परथामः ] उंमी ऽयमन्नेन ` संदेकादेश रञ्पदणेन गृद्यते | भवचार्यपवृत्ति्ौपवति ` 


+ ६, ६,६०.४  †९. ४.६९ {‡ ०.९.९०; ६.९.९द्‌ 


) ॥ ॥ व्याकरनकहागव्वय्‌ |  [भर९.१.५ 


मो जकारे च उञ्गरङणेन गज्लन इति कंदथमोत्‌ [ १,१.१९ |-इस्योदन्तस्व निपवस्व 
भगृ्छसंजञां शास्ति । वैतदस्ति ज्ञापकम्‌ । ख्छमेतत्‌ । परतिभ्रिडार्थो ऽवमारम्म इति । 
रोषः खल्वपि स्वायथुनेकारेख उञ्महणेन न बुबधेत | जानु ड अस्व दंजति 
जन भस्व इजति जान्वस्व रजति | मव उमोबो वा [८. ३.२२] इति षत्वं 
ऽन स्वकात्‌ | एव वर कनिपाता इमे || थवा हावुकाराबिमौ । एको ननुबन्धकः | 
अपरः सानुबन्धकः | तयो ऽननुबन्धकस्तत्वैष एकादेशः ॥ 
उअ इति योगविभागः ॥ ९ ॥ 
उम इति योगुविमागः करतेव्यः | उनः शाकल्यस्याचार्वैस्य मतेन प्रगृद्यसंश्ा 
भवति | उ इति विति || तत ॐ | उख ॐ इत्ययमादेशो भवति शाकल्वस्वा- 
10 चायस्य मतेन दीर्घो अनुनासिकः प्रगृ्संहकथ ॐ इति || किमर्थो योगविभागः । 


ॐ वा शाकल्यस्य । २॥ 


` श्चाकल्यस्याचाथस्य मतेन डँ विभाषा यथा स्यात्‌ | ड हति उ इति | भन्ये- 
वाममचायौणां मतेन विति | 


ईेदूती च सपतम्यं ॥ १.।९.।१९.॥ 


15 ईदुतो सप्तमीत्येव 
हती सप्रमीत्येव सिद नार्थो ऽयैमहणेन | 
लुते र्थ॑ग्रहणा्वेत्‌ । 
लुपायां सपम्या प्रगृह्यसंज्ञा न प्रामोति | क | सोमे गौरी भि भ्रितः| इष्यते 
चआत्रापि- स्यादिति तथान्वरेण यलं न सिध्यतीस्येवमर्थमथरहणम्‌ || नात्र॒स्रमी 
20 लुष्यते | कं तर्हि । पुवैसवर्णो ऽत्र भवति" | 
पूवस्य चेत्सवर्नो ऽसावाडाम्भावः प्रसस्यते ॥ ९ ॥ 
यरि पूषैखवणं आद्‌ भाम्भाव्च भामोति† || एवं तद्यादायमीदूतौ सप्रमीति न 
चास्ति सप्रमीदुी; तत्र. वचनाद्रविष्यति.।., ˆ. . ` 
 , कयना दीर्ष॑त्वम्‌ | 
28 . वदं वचनाहभ्यम्‌ | भस्ति चयन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ | यत्र सप्स्भा 


* ०, १.२९ , +° १. ९२ १९. 








पा ९,९१.१९ २०.| ॥ व्याकरनवहाभाष्यय्‌ ॥ . ७डे 


` शष्सवमुख्वते* | दर्तिं न शयुष्कं सरसी शयानमिति । सति प्रयोजन इह न प्राभोति । 
लोमे गौरी अषि भरित इति ॥ 
लत्रापि सरसीं यरि । | । 
तज्रापि सिद्धम्‌ | कथम्‌ । यदि सरसीशब्दस्य प्रवृत्तिरस्ति | अस्ति च लोके 
सरसीशम्दस्य प्रवृत्तिः | कथम्‌ । दक्षिणापथे हि महान्ति सरां ति सरस्व हत्युश्यम्ते || $ 
ज्ञापकं स्यात्तदन्तत्वे 
एवं तर्हि श्ापयत्याचार्यो न प्रगृद्धसंज्ञायां प्रत्ययलक्षणं भवतीति | किमेतस्य 
ञापने प्रयोजनम्‌ | कुमार्योरगारं कुमायगारम्‌ वध्वोरगारं वध्वगारम्‌ प्रस्ययल- 
शणेन प्रगृह्यसंज्ञा न भवति | 
मावा पूर्वपदस्य भूत्‌ ॥२॥ 10 
अथवा प्ैपदस्य मा भूदित्येवमर्थं मर्थ्रहणम्‌ । वाप्यामशो वाप्यश्वः नया- 
मातिनेथातिः | अथ क्रियमाणे ऽप्यथे्रहणे कस्मादेवात्र न भवति । जहस्स्वा्था 
वृत्तिरिति । अथाजदत्स्वायीयां वृकी दोष एव । अजहस्स्वाथोयां च न शोषः | 
घमुदायार्थो ऽभिधीयते | 
ई्दूतो सप्तमीत्येव लुततेऽथंग्रहणास्नवेन्‌ । 15 
पूवस्य चेत्सवणौ ऽसावाडाम्भावः प्रसज्यते ॥ ९ ॥ 


वचनादज दीर्धत्व व्नापि सरसी यदि । 
ज्ञापक स्या्तदन्तले मा वा पुवैपदस्य भत्‌ ॥ २ ॥ 


दाधा घ्वदाप्‌ ॥१।९१९ ।२९०॥ 


घसंज्ञायां प्रकृतिग्रहणं शिदर्थम्‌ ॥ ९ ॥ 0 
घसंज्ञायां परकृतिमर्टणं कतेष्यम्‌ | दाधाप्रकृतथो धुसंश्ञा भवन्तीति वच्कथ्यम्‌ | 
किं प्रयोजनम्‌ । आस्वभृतानाभियं संज्ञा क्रियते | सास्वभूतानामेव स्मादनास्वभूतानां 
न स्वात्‌ | ननु च भूविष्ठानि षुसंङ्ञाकायोण्या षभातुके तत्र वेत भास्वभूृता .शृरय- 
न्ते | श्चिदथेम्‌ । शिद्थे प्रकृतिमरहणं कतेष्यम्‌ । शिस्यास्वं प्रतिषिध्यते तदथेम्‌ | 
प्रणिदयते प्रणिधयतीतिः || ४ 
मारद्ाजीयाः पठन्ति | धुसंशञायां भरकृतिमहंणं िदिकृतार्थम्‌ । बुसंशायां 


@ ७,९.९१. † ६. ९. ४५. ` ‡ <, ४.९७, 
209 


अध ॥ व्याकरणमहाभाव्यब ॥ ` , (म० १,९५.५. 


 भकृतिग्रहणं. क्रियते | (क प्रयोजनम्‌ । शिदथ विकृताथै च । शिस्युदाहर्तम्‌ | धिकः 
ताथे खल्वपि | प्रणिदाता प्रणिधाता | किं पुनः कारणं न सिध्यति | लक्षणप्रति- 
पदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति प्रतिपदं य आच्वभूतास्तेषामेव स्याह्वक्षणेन य भस्व- 
भूतास्तेषां न स्थात्‌ || 
$ नथ क्रियमाणे ऽपि प्रकृतिमरहणे कथमिदं विज्ञायते | दाधाः प्रकृतय -इति | आहो- 
स्विह्यधां प्रकृतय इति | किं चातः | यदि विज्ञायते दाधाः प्रकृतय इति स एव 
दोषः | भाच्वभुतानामेव स्यादनात्वभूतानां न स्यात्‌ | अथ विज्ञायते दापां. प्रक्- 
तय इत्यनात्वभृतानामेव स्यादान््वभुतानां न स्यात्‌ | `एवं तरदं नैवं विक्ञायते 
दाधाः प्रकृतय इति नपि दारां प्रकृतय इति | कथं तहिं | दापा घुसंज्ञा भवन्ति 
10 प्रकृतयशचेषामिति ॥ 
तत्तहि प्रकृतिग्रहणं कर्तव्यम्‌ | न कतेव्यम्‌ | इदं प्रकृतमर्थं महणमनुवतेते | क 
प्रकृतम्‌ | दूतौ च सप्नम्यर्थे [१.१.१९] इति | ततो वक्ष्यामि । दाधा ष्वदाप्‌ अथे 
इति | तेवं राक्यम्‌ | ददातिना समानाथौन्रातिरासतिदाङतिमंहतिप्रीणातिपरभृती नाहः । 
एतेषामपि घुसंज्ञा प्रामोति | तस्मान्नैवं शक्यम्‌ | न चेदेवं प्रकृतिग्रहणं कतैव्यमेव || 
15 हिदर्थेन तावन्नार्थः प्रकृतिग्रहणेन । अवद्यं तत्र" माथे प्रकृतिम्रहणं करतैष्यं प्रणि- 
मयते प्ण्यमयतेत्येवमथेम्‌ । तस्पुरस्तादपक्रकष्यते । घुप्रकृती माप्रकृती चेति | यदि 
भरकृतिग्रहणं क्रियते प्रनिमिनोति प्रनिमीनाति। अन्रापि प्रामोति | अथाक्रियमणे अपि 
प्रकृतिमदहण इह कस्मान्न भवति प्रनिमाता प्रनिमातुम्‌ प्रनिमातव्यामेति | आकारान्तस्य 
डतो ग्रहणं विज्ञास्यते | यथैव तद्यक्रेयमाणे प्रकृतिन्रहण आकारान्तस्य डतो महण 
20 विज्ञायत एवं क्रियमाणे ऽपि प्रकृति्रहम भ।कारान्तस्य डतो म्रहणं विज्ञास्यते || 
विकृतार्थन चापि नार्थः | दोष एवैतस्याः परिभाषाया लक्षणप्रतिपदोक्त योः प्रतिपदो- 
्तस्थेवेति गामादाम्रहणेष्ववि शेष इति | 
| ` समानराब्दप्रतिषेधः ॥ २ ॥ 
 समानङाष्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | परनिदारयति प्रनिधारयति.| दाधा षु- 
25 संज्ञा भवन्तीति घुसंज्ञा पामोति ॥ 
समानराब्दाप्रतिषेधो अ्थवदहणात्‌ ॥ ३ ।। 
समानशब्दानामपरतिषेधः | अनथकः प्रतिषेषो ऽपरतिषेषः | घुसंज्ञा कस्मो त्र भ 
वति | भथेवदुहणात्‌ । अथवतोदाधोमरेहणं न चैतावर्थेवन्तौ || 


#* ८, ४. ९७, † ६ ९, ५०. 











फ्र° १.९.२०. ] । ष्याकत्णपंहामाष्यय ॥ "ज 


अनुपसर्गाद्वा ।॥ ४ ॥। 
भथव। यकि यायुक्ताः प्रादयस्तं प्रति म्युपसेसंञे भवतः | न चैतौ -दापौ 
प्रति क्रियायोगः || यद्येवमिहापि तर्द न प्रामोति | प्रणिदापयति प्रणिघापयति। 
अवापि नैतौ दाधावयैवन्ती नाप्येतौ दाषौ प्रति क्रियायोगः || 


न वार्थवतो हयागमस्तहुणीभूतस्तदुहणेन गृह्यते यथान्यत्र || < ॥ 5 
न वैष रोषः | किं कारणम्‌ । अथवत आगमस्तदुणीमृतो -ऽथेवद्रहणेन गृद्यते | 
वथान्यन्न | तद्यथा । अन्यत्राप्यर्थवत आगमो अऽथेवदुह्णेन गृद्यते | कान्यत्र | 
रविता चिकीर्षितेति ॥ युक्तं पुनय॑क्चिस्येषु नाम दखष्देष्वागमहासनं स्यान्न नव्येषु 
नाम राब्देषु कुटस्थेरविचारिभिवेर्णेभवितघ्यमनपायो पजनविकारिभिः } आगमश्च 
त्रामापृत्रैः शब्दोपजनः | अय युक्तं यत्निव्येषु राब्देष्वादे शाः स्युः | वाढं युक्तम्‌ | 10 
शब्दान्तररेह भवितव्येम्‌ । तत्र शब्दान्तराच्छम्दान्तर स्य प्रतिपत्तियुक्ता । अआदे- 
शास्तर्टेमे भविष्यन्त्यनागमकानां सागमकाः | तत्कथम्‌ । ` 
स्वे सर्वैपदादेशा दाक्षीपुत्रस्य पाणिनेः । ` 
पकदेकाविकारे हि नित्यत्वं नोपपद्यते ॥ 


दीङः प्रतिषेधः स्थाध्वोरिचे ॥ ६ ॥ 15 

दीङः प्रतिषेषः स्थाष्वोरिस्वे वक्तव्यः | उपादास्तास्य स्वरः शिक्षकष्येति | 
मीनातिमिनोति [६,९.९०] इत्या कृते स्थाप्वोरिच [१.२.९७] इतीत्वं पराभोति | 
कृतः पुनर यं दोषो जायते किं भरकृतिम्रहणा दाहोस्विद्रूपम्रहणात्‌ | रूपग्रहणादित्याह | 
हहे खलु प्रकृतिहणाहेषो जायते | उपदिदीषते ] सनि मीमाघुरभरम [७.४.९४ | 
हति । नैष दोषः | दाप्रकृतिरित्युच्यते न चेयं -दाप्रकृतिः | जाकारान्तानामेजन्ताः % 
प्रकृतय एजन्तानामषीकारान्ता न च प्कृतिप्रकृतिः प्रकृति्रहणेन गृद्यते || स तर्हि 
प्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः| वुसंज्ञा कस्माच्च मवति | संनिपतिलक्षणये |. 
विधिरनिमित्तं तदिषातस्येत्येवं न भविष्यति || ` 

दाप्परतिषेधे न दैष्यनेजन्तत्वात्‌ ॥ ७ ॥ 

दाप्प्तिषेपे दपि प्रतिषेधो न परामोति | अवदातं मुखम्‌ ] ननु चावे कृते भवि- 25 

ध्वति | वद्यच्तवं न प्रामोति | किं कारणम्‌ | अनेजन्तत्वत्‌ ॥ 


धि ॥ व्याक र्नणयहाभाष्यत | :  1[ ० ९.९.५६ 


सिदमनुबन्धस्यनिकान्तस्वात्‌ ॥ ८ 
सिडमेवत्‌ । कथम्‌ | भनुवन्धस्यानेकान्तत्वरात्‌ । अनेकान्ता अनुबन्धाः. || 
| पिस्पतिषेधाद्वा ॥ ९ ॥ 
अथवा दाधा श्रपिदिति वश्यामि | तथावदयं षक्तव्यम्‌ | अदाबिति श्ुख्य- 
, 5 मान इहापि प्रसज्येत । प्रणिदापयतीति । शक्यं तावदनेनादाभिति ब्रुवता बान्तस्य 
प्रतिषेधो विश्षातुम्‌ । सत्रं तर्हि भिद्यते | बथान्यासमेवास्तु । ननु ` चोक्षं दाप्पसि- 
वेषे न दैपीति | परिहतमेतस्सिडमनुबन्धस्यानेकान्तस्वादिति । अथैकान्तेषु रोषं 
एव । एकान्तेषु च न दोषः | आसवे कृते भविभ्वति । ननु चोन्तं तद्याक्व न 
भ्राप्रोति किं कारणम्‌ अनेजन्तस्रादिति । पकारलोपे कते भविष्यति | न श्यं तदा 
10 काम्भवति । भूतपवेगस्या भविष्यति । एकाज्र युक्तं यस्सर्वेष्येव सानुबन्धकम्रह- 
गेषु भृतपु्वेगतिरविज्ञायते | अतैभित्तिको द्यनुबन्धलोपस्तावस्येव भवति ॥ अथवा- 
चार्यप्रवृलिज्ञो पयति नानुबन्धकृलमनेजन्तस्वमिति यदयमुदीषां माङो व्यतीहारे 
| ३.४.१९] इति मेङः सानुबन्धकस्यास्वमूतस्य ब्रहणं करोति ॥ अथवा दावे- 
वाय॑ न हेवस्ति | कथमबडायतीति । इयन्विकरणो भविष्यति || 


15. आद्यन्तवदेकस्मिन्‌ ॥ ९. । १. । २९१. ॥ 


किमथेमिदमुच्यते | 


सस्यन्यस्मिन्नाद्यन्तवद्रावदेकस्मिन्नायन्तवदयनम्‌ | ९ ॥ 


सस्यन्यस्मिम्स्मास्पू्ै नास्ति परमस्ति स आदिरित्युस्यते | सस्यन्यस्मिन्य- 
स्मास्पर' नास्ति पृवमस्ति सो ऽन्व ह्युच्यते । सस्यम्यस्मिच्चान्तवद्धावादेवस्मा - 
90 स्कारणादेकास्मिन्नायन्तापदिष्टानि कार्याणि न सिध्यन्ति } इष्यन्ते च स्युरिति | 
तान्यन्तरेण यलं न सिध्यन्तीस्येकस्मिचादयम्तवडचनम्‌ । एवमर्थमिदमुष्वते ॥ 
अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | किं तर्श॑ति | 


तकर व्यपदोरेवग्रयमम्‌ || ९ ॥ 


त्र व्यपदेशिषड्धावो -वकष्यः | व्य पदोशिवदे कस्मिन्कायेः मवतीनि वक्षस्वम्‌ | 
2४ किं प्रयोजनम्‌ | 





फौ० १,१.२९. | ॥ व्वाङरनयहाभाष्वम्‌ 1 ॐॐ 


श्काचो दे. प्रथमार्थम्‌ ॥ & ॥ - 
वेभस्वेकाचो हे प्रथमस्मेति बहत्ीदिनिरदेश इति* | तस्मिन्क्रियमाण देहेव 
त्वात्‌ पपाच पपाठ | इयाय आरेस्यत्र न स्यात्‌ | श्यपदेशिषरेकस्मिन्कायै 
भवतीष्यत्रापि सिडधं भवति ॥ 
 , षत्वे चदेशासंभरस्ययार्थम्‌ ॥.४॥ . . . ४ 
वदेयत्यारेशप्रत्यययोरित्यवयवषश्थेवेति। | एतस्मिन्क्रियमाण हंहेष स्यात्‌ क- 
रिष्यति हरिष्यति | इह न स्थात्‌. | इन्द्रो मा वक्षत्‌ | ख रेबान्यक्षत्‌ | ष्यपदेशि- 
वदेकरस्मिन्का्मै भवतीस्यश्रापि विद्धं भवति || स तर्हिं व्यपदेरिवद्धा वो वक्तव्यः 
न वक्म्यः | 
अवचनाह्कोकविज्ञानास्सिदम्‌ ॥ ५ ॥ 10 
अन्तरेशेव वचनं लोकविश्चानास्सि्धमेतत्‌ । तद्यथा | लोके शालासमुदायो चाम 
इत्युच्यते । मवति वैतदेकलस्मिन्नप्येक शालो भाम इति । विषम उपन्यासः | म्ाम- 
शब्दो ऽयं बहथेः | भस्त्येव शालासमुदाये वतेते । तद्यथा । मामो दग्ध इति । 
अस्ति वाटपरिक्षेपे वतैते | तयथा । भामं प्रथिष्ट इति | अस्ति मनुष्येषु वतेते । 
तयथा । सामो गतो माम भगत इति | असि सारण्यके ससीमके सस्थण्डिलके 1४ 
वतैते | तद्यथा । मामो लम्ध इति | तथः सारण्यके. ससीमके सस्थण्डिलके वतैते 
तमामिखमीषथैतस्मयुञ्यत एकशालो भ्राम इति ॥ यथा वर्हि वर्णसमुदायः पदं पद- 
खमुदाय ऋगृक्मुदा यः द क्तभिद्युश्यते । भवति बैतदेकस्मि्तप्येकवण  पदमे- 
कपदर्गेकयवै दक्तमितिं | अत्राप्यर्थन युक्तो व्यपदेशः | पदं नामार्थं ऋडः नामार्थः 
दकं नामाथः || यथा तर्हि बहूषु पुररष्येतदुपपच्रं भवस्वयं मे ज्येष्ठो अयं मे मध्व 20 
मो अयं मे कनीयानिति | भवति वैतदेकस्मिनच्नप्ययमेव मे ज्येष्ठो ऽयमेव मे मध्य 
मो ऽवमेव मे कनीयानिति । तथाखतायामसोष्यमाणायां च भवति प्रथमगर्भेण 
इतेति । तथानेस्यानाभजिगभिषुराहेदं मे पभथममायमनमिति ॥ 
आद्यन्तवद्धावश शक्यो वक्तुम्‌ । कथम्‌ | 
अपूर्वानुचररप्षणस्वादाशन्तयोः सिङमेकस्मिन्‌ ॥ & ॥ ४ 
अपुरवैलस्षण आदिरनु्तरलक्षणो ऽन्तः | एतजचैकस्मिचपि भवति| अपूर्वालु्तरल- 


# ६, ९.९, # .¶ ८, ३. ५९. 


“अट ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ` . [१०.९.९.५ 
क्षणत्वादेतस्मात्कारणादेकस्मिचप्या्न्तापदि शानि कायौणि भविष्यन्ति नाथे आ्य- 
न्तव दावेन || गोनदींयस्त्वाह । सत्यमेतत्सति त्वन्यस्मि्तिति | 

कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि | 


आदिवच्वे प्रयोजनं प्रत्ययस्निदाद्युदात्तत्वे ॥ ५७॥ 

5 प्रत्ययस्यादिसदान्नो भवतीतीहिव स्यात्‌ कतेव्यम्‌ तैत्तिरीयः | ओपगवः काप- 
टव इत्यत्र न स्यात्‌ || छनत्यादिर्मित्यम्‌ |६.९.९९७] इतीहैव स्यात्‌ अहिचुम्ब- ` 
कायनिः आभ्िवेदयः । गाग्येः कृतिरित्यत्र न स्यात्‌|| 

वलदिराधेधातुकस्येट्‌ ।॥ ८ ॥ 
वलादेरार्धधातुकस्येद्‌ प्रयोजनम्‌ | भाधेधातुकस्येडरदिः [७.२.३५९] हैवं 
10 स्वात्‌ करिष्यति हरिष्यति | जोषिषत्‌ मन्दिषदिस्यत्र न स्यात्‌ ॥ 
यस्मिन्विधिस्तदादित्वे ।। ९ ॥ 
यस्मिन्विधिस्तदादित्वे प्रयोजनम्‌ | व्यति यस्मिन्विधिस्तदादावल्परहण इति! | 
तस्मिन्क्रियमणि अचि भरुषातुभरुवां य्वोरियङ्वङौ [६.४.७७] इहैव स्यात्‌ न्निः 
भ्रुवः | भ्रियौ भुवौ इत्यत्र न स्यात्‌ ॥ 
15 अजादयादस्वे | ९० ॥ 


अजाश्चादृत्वे प्रयोजनम्‌ । आडजादीनाम्‌ [६.४.७२] इहैव स्वात्‌ देरिष्ट 
देक्षिष्ट । फेत्‌ अध्यैष्टेत्यत्र न स्यात्‌ ॥ 


अथान्तवच्वे कानि प्रयोजनानि | 
| अन्तवद्िवचनान्तप्रगृह्यत्वे ।। ९९ ॥ 
20 अन्तवह्भिष चनान्तप्रगृद्यत्वे प्रयोजनम्‌ | हेदुदेद्धिवचनं प्रगृषम्‌ [९.९.९९] इहेव 
स्यात्‌ पचेते इति पचेथे इति | खट इति मारे इतीस्यत्र न स्यात्‌ ॥ 
[ मिदचो ञन्त्यास्यरः ।| ९. ॥ | 


भिदो ज=्त्यात्परः [९.९.४७] प्रयोजनम्‌ । इहैव स्यात्‌ कुण्डानि वनानि । 
तानि यानीस्यत्र न स्यात्‌+ | 


३.६.२३. न ६* ६. ७२.४१  ‡०.९. द्‌ 








ए०९.१.२२। | ॥ व्वाकरणम्रहाभाष्वप्‌ ॥ ७९. 


अचो =न्त्यादि टि ॥ ९६ ॥ 

भवो जन्त्यारि रि [९. ९.६४] प्रयोजनम्‌ | टित आत्मनेपदानां टेरे [३.४.७९] 

इतीहैव स्यात्‌ कुवौति कुवाय । कुरूते कर्वे इत्यत्र न स्यात्‌ || 
अले =्त्थस्य ॥ ९४ ॥ 

भतो न्त्यस्य [१.९.९२] प्रयोजनम्‌ } अतो दीर्घो यञि [७. ६३.१०१] 5 
सुपि च [९.०२] इहैव स्यात्‌ घटाभ्याम्‌ पटाभ्याम्‌ । आभ्याभित्यत्र न स्यात्‌ ॥ , 
| येन विधिस्तदन्ततवे ॥ १९ ॥ 

येन विधिस्तदन्तस्वे* प्रयोजनम्‌ । अचो यत्‌ [३.९.९७] इहेव स्यात्‌ चेयम्‌ 
जेयम्‌ | एयम्‌ अध्येयमित्यत्र न स्यात्‌ || 

आद्यन्तवदेकस्मिन्काथ भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति ॥ 10 


तरप्तमपौ षः ॥ ९ ।१ ।२२॥ 


घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेषो वक्तव्यः | नव्यास्तरो† नदीतर इति ॥ 
घसंज्ञायां नदीतरे प्रतिषेधः ॥ २ ॥ 
अनर्थकः प्रतिषेधो अप्रतिषेधः | षसंज्ञा कस्मान्न भवति | 15 


तरग्प्रहणै ह्योपेदेरिकम्‌ ॥ ३ ॥ 

ओौपदेशिकस्य तरपो महणं न चैष उपदेशे तरप्वाब्दः | कि वक्तभ्यमेतत्‌ | 
न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | इह हि व्याकरणे सर्वेष्वेव सानुबन्धकयमहणेषु 
रुपमाभ्रीयते यत्रास्थैतद्रूपमिति । रूपनिर्यहथच राष्दस्य नान्तरेण लौकिकं प्रयो- 
गम्‌ | तस्मिंश लौकिके प्रयोगे सानुषन्धकानां प्रयोगो नास्तीति कृत्वा हितीयः भ्- 20 
योग उपास्यते | को ऽसौ | उपदेशो नाम | न चैष उपदेदो तरण्डाब्दः || अथवा- 
स्त्वस्य घसंज्या को दोषः | घादिषु नद्या हूस्वो भवतीति इस्वत्वं प्रसज्येत | स- 
मानाधिकरणेषु घादिष्वित्थेवं तत्‌ । यदा तरि तव नदी स एव तरस्तदा परामोति । 


# ९, ९,, ७२. ‡ ६. ३, ५७, { ६. ३. ४३. 


ही ॥ व्वाकरममहाभाष्यक् ॥' | [बर १.९१. 


ीलिङ्केषु धादिष्िस्वेवं ` तत्‌ | अवदय वैतदेवं विज्ञेजम्‌ । समानाधिकरणेषु धारि. 
ध्वित्मुष्यमान इह प्रसज्येत | महिषी ङूपमिव ब्राह्मणी रूपमिवेति ॥ 


नहूुगणवतुडति संख्या ॥ ९. । २. । रद. ॥ 


संल्यासज्ञायां संख्याग्रहणम्‌ । ९ ॥ 


४ ` संख्यासंज्ञायां संख्या्हणै कतेव्यम्‌ । बहूगणवतुडतयः संख्यासंज्ञा भवन्ति 1 
संख्या च संख्यासंज्ञा भवीति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ | 


संख्यासंपरस्यथा्थंम्‌ ॥ २॥ , 
एकादिकायाः संख्यायाः संख्यापदेशेषु संख्येत्येष संप्रत्ययो यथा स्यात्‌ | 


नमु चैकादिका संख्या लोके संख्येति प्रतीता तेनास्याः संख्यापदेशेषु संख्यासंप्र- 
10 ह्ययो भविष्यति । एवमपि कव्यम्‌ । 
इतरया यसपरस्ययो अहृविमस्वाद्यथा शोके ॥ ३ ॥ 
अक्रिथमाणे हि संख्याग्रहण एकारिकभाः संख्यायाः संख्येव्येष संमस्ययो म 
स्यात्‌ | किं कारणम्‌. | अङ्त्रिमत्वात्‌ | बहवादीनां कृजिमा संज्ञा | कृतरिमाङ्जि- 
मयोः कृत्रिमे कायैसंपत्ययो भवति यथां रोके । तद्यथा | रोफे गोपालकमानय 
15 कटजकमानयेति यस्थैषा संज्ञा भवति सं आनीयते नयो गाः पाठयतियो बा 
कटे जातः | थदि तरि कृत्चिमाकत्रिमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवति नदीपीर्णमास्या- 
महायणीभ्यः [९.४.१९ ०] अत्रापि प्रसज्येत । षीणमास्याम्रहाथणी महण सामभ्योच् 
भविष्यति | तदिशोषेभ्यस्तरि प्रामोति गङ्गा यमुनेति । एवै तद्योचार्यभरवृ्तज्ञोपयति 
न सदिहोषेभ्यो भवतीति यदं विपाट्शष्दं शारत्मभृतिषु पठति" || इह तरिं परामो- 
20 ति नदीभिथ [२.१.२०] इति । बहूव चननिर्देशात्च भविष्यति | स्वरूपविधिस्तररिं 
पराभोति | बहवचननिर्देशादेव न भविष्यति || एवं न चेदमकृतं भवति कृनिमा- 
कृभरिमयोः कृत्रिमे संपरत्यव इति न च कथिहोषो भवति || 


उन्तरा्थं च | ४ 


उन्तराथै च सेख्याय्रहणं कर्तव्यम्‌ । ष्णान्ता षट्‌ [१.१.२४] पकारनकारा- 
25 न्तायाः संख्यायाः षद्संश्ा यथा स्यात्‌ । हह मा भूत्‌ । पामानः विभुष इति ॥ 


## ५. ४. ९.०७, †+ ५, ९, २३. 





पर ९.९.२२ | ॥ न्याकरनसहाभार्यम्‌ ` 1 


` 'इहाथेन ताचैक्नाथः- संस्वापरह्णेन |-मनु चोक्तमितरथा हसंप्रस्ययो ऽक्रत्रिमस्का- 
शथा लोक इतिः । नैष दोषः | अथोखकर णाह लोके कृत्निमाङृत्रिमयोः कृजिमे 
सैप्रस्ययो मवति । अर्थो वास्यथेवंसंज्ञकेन भवति प्रकृतं वा तत्र भववीदमेवंसं्षक्रेन 
कतैष्यभिति | आतथा्थासकरणादा | अङ्गः हि भवान्व्राम्यं पांखुरपादमप्रकरणन्न- 
मागतं ब्रवीतु गोपालकमानय कटजकमानयेति | उभयगतिस्तस्य भवति साधीयो 5 
वा यष्िस्तं गमिष्यति || यथैव तद्यैथौसकरणाद्। लोकते फृतिमाकृत्रिमयोः कृत्रिमे 
संपरस्यये भवत्येवमिहापि प्रमोति | जानाति ह्यसौ बहमारीनामियं संज्ञा कृतेति | न 
यथा ठेके तथा व्याकश्णे | उभयगतिः पुनरिह भवति | अन्यत्रापि नावरयमिहैक | 
तथथ। | कतुरीप्सितवमं कमे [१. ४. ४९| इति कृत्रिमा कमेसंज्ता | करमेप्रदेदोषु 
चोभवगतिभेवति | कमणि द्वितीया [२.२३.२] इति कृत्रिमस्य महणं कतरि 10 
कर्मव्यतिहारे [१.३.१४] इत्यङृतिमस्य | तथा साधकतमं करणम्‌ |१.४.४२ 
इति कृजिमा करणसंज्ञा | करणप्रदेशेषु चोभयगतिभेवति | कर्तृकरणयोस्तृतीया 
[२.३.९८ | इति कृत्रिमस्य महणं शब्दतैरकलहाभ्रकण्वमेघेभ्यः करणे [३.१.१७] 
इत्मक्राङ्ृ जरिमस्य | बथाधारो अधिकरणम्‌ |१.४.४९५ | इति कृति माधिकरु्णसंज्ञा | 
अभिकरण्परदेदोषु चोभयगतिभेवति । सप्नम्यधिकरणे च [२.३.३६ | हति कृि- 15 
मस्य ग्ण विप्रतिबिद्धं चानधिकरणवाचि २.४.९३] इस्यकृत्रिमस्य | अथवा 
मेदं संकष(कररणं तदढतिदेशो ऽयम्‌ | बह गणवतुडतयः संख्यावद्ध वन्तीति |. स तर्हि 
वतिनिर्देशाः कतेष्यो न ह्यन्तरेण वतिमतिदेशो गम्यते | अन्तरेणापि वतिमतिदेशो 
गम्यते | त्यथा | एष ब्रह्मदत्तः | अब्रह्मदत्तं ब्रह्मत इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्म- 
दत्ततव्रदयं भवतीति | एवमिषशप्यसंख्यां संख्येर्याह संख्यावदिति गम्यते || अथव।- 20 
चार्यभरवृ्तिजञोपयति भवत्येकादिकायाः संख्यायाः संख्याप्रदेदषु संख्यासंप्रत्यय इति 
कदयं संख्प्राया अतिरादन्तायाः कन्‌ [९.९.२२] इति तिरादन्तायाः प्रतिषेधं 
शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञपरकम्‌ | नहि कृज्िमा स्यन्ता शदन्ता वा संख्यासि । 
नन चेयमस्ति डतिः । यत्तं शदन्तायाः प्रतिषेधं शास्ति | यच्चापि त्यन्ता्याः प्र 
तिबेषं शास्ति । ननु चोक्तं डत्यथमेतत्स्यादिति | अये वदुहणे नानथेकस्येस्य्थेथ 25 
तस्ति्ब्दस्य ग्रहणं न च उतेस्तिश्ष्दो अथेवान्‌ ॥ अथवा महतीयै संज्ञा क्रियते 
संशा च नाम यतो न रषीयः | कुत एतत्‌ । रष्वं हि संज्ञाकरणम्‌ । तत्र म- 
इत्याः संज्ञायाः करण एतस्पयोजनमन्वर्थ संज्ञ यथा तरिज्ञयेत । संख्यायते ऽनया 
संख्येति । एकारिकया चापि संख्यायते || | 
11 ५ 


८२ ॥ व्याकरणपहाभाष्यम ॥ [०९.९.५८ 


उत्तरार्थेन चापि नार्थः संख्यामहणेन | इदं प्रकृसमुत्तरत्रानुवर्तिष्यते || इदं व्र 
संक्षा्थमुत्तरत्र च संज्ञिविदोषणेनार्थं: | न चान्यायै प्रकृतमन्याै भवति | न खल्व- 
प्यन्थत्पकरतमनुवतेनादन्यद्भवति न हि गोधा सपेन्ती सपैणादहिभेवति ॥| य्ताबतु- 
च्यते न चान्यार्थं प्रकृतमन्याथै भवतीत्यन्याथेमपि प्रकृवमन्या्थै भवति | तद्यथा | 
& शाल्यथे कुल्याः प्रणीयन्ते ताभ्यश्च पानीयं पीयत उपस्पृदयते च शारयथ भाव्बन्ते | 
यदप्युच्यते न खल्वप्यन्यत्पमङृतमनुवतेनादन्यद्धवति न हि गोधा सपेन्ती सपेणादहि- 
भवतीति भवेदव्येष्वेतदेवं स्यात्‌ । शाब्दस्तु खलु येन येन विहोषेणाभिसं बध्यते तस्य 
तस्य विशेषको भवति || अथवा सापेक्षो ऽयं निर्देशः क्रियते न चान्र्हिकिचिदषे- 
श्यमस्ति ते संख्यामेवापेक्षिष्यामहे ॥ 


10 अध्यर्धग्रहणं च समासकन्विध्य्थम्‌ ।॥ ९॥ 
अध्यरषव्रहणं च क्ष्यम्‌ | कै प्रयोजनम्‌ | समासकन्विभ्य्थेम्‌ | समास- 


विभ्वे कन्विध्यथै च | समासविध्यये तावत्‌ | भध्य्षद्युपेम्‌* | कन्विभ्य्म्‌ । 
भध्यधेकम्‌। || 


लुकि चाग्रहणम्‌ ॥ £ ॥ 


इति | हिगोरिष्येव सिद्धम्‌ ॥ | | 


अरपपृत्ैपदश्च पूरणपस्ययान्तः ॥ ७॥ 


अरधपृवेपदश्च पुरणप्रत्ययान्तः संख्यासंज्ञो भवतीति वक्तष्यम्‌ | क प्रयोजनम्‌ । 
समासकन्विध्यथेमेव | समाघ्विभ्यये कन्विभ्यये च |. समासविभ्यथै. तावत्‌ | 
2० अर्धपञ्चमद्यूपेम्‌ | कन्विध्यर्थम्‌ । भर्षपञ्चमकम्‌ ॥ 


अधिकग्रहणं चालुकि समासोनरपदव्र खयम्‌ ॥ ८ ॥ ` 


अपिकयक्णं चालुकि कवैभ्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ +. समासोत्तरपदवृद्र्थम्‌ । 

समासविभ्यर्थमु ततर पदवुखय्थं च । समासविधष्यथः तावत्‌ । अधिकषाष्टिकः अधे 

कसाप्रतिकः ‡ । उलरपदवृ यथम्‌ | भधिकषाष्टिकः अधिकसाप्रविकःऽ | . अनु- 
25 कीति किमर्थम्‌ | अधिकषाष्टिकः अधिकसाप्रतिकः 4 ॥ 


= २.९.५९५.९.२८२८. 1 ५.९.९२, {२९५१९९९८ इ 5.३.१९५. गं ९.९.२८ 


षुण १.१.२४. , ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ८३ 


बहुव्रीहो वाग्रहणम्‌ || ९।। 

बहूब्रीहै चाधिकशभ्दस्य महणं न कतैव्यं भवति | संख्ययाव्ययासन्नादुराध- 

कसंख्याः संख्येये [२.२.२५९] इति । संख्येदयेव लिदम्‌ ॥ 
 बदादीनामग्रहणम्‌ | ९० ॥ | 

बह्वादीनां महणं शास्थमकतुम्‌ । केनेदानीं संख्याप्रदेशषु संख्यासंप्रत्ययो भवि- 5 
प्यति | ज्ञपकस्षिदडधम्‌ | किं ज्ञापकम्‌ | यदयं वतोरिडु |९.९.२३] इति 
संख्याया विहितस्य कनो वत्वन्तादिटं शास्ति | वतोरेव तज्ज्ञापकं स्यात्‌ | 
नेत्याह | योगापेक्षं ज्ञापकम्‌ ॥ 


ष्णान्ता .षट्‌ ॥ १. ।९१ । ९४ ॥. 


षट्‌ संज्ञायामुपदेरावचनम्‌ ॥ ५ ॥ 10 
शट्संज्ायामुपदेकामहणं कतेव्यम्‌ । उपदेशे षकारनक्रारान्ता संख्या षट्संश्षा 
भवतीति वक्तव्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | 


दताद्य्टनेर्नुषुडर्थम्‌ ।॥ २९॥ 

तानि सहल्लाणि । नमि कृते ष्णान्ता षडिति षट्का प्रामेति* । उपदेश- 
अहणाज्न भवति | अष्टानामिर्यत्रास्वे कृते षट्ेज्ञ। न प्रामोति† | उपदेग्राभरहणा- 15 
वति || 

उक्तं वा| २॥ 

` किमुक्तम्‌ । इह तसावच्छतानि सहस्र णीति संनिपातलन्षगो विधिरनिमित्तं तहि- 
धातस्येति‡ | अशटनोऽ्प्युक्तम्‌ । किमुक्तम्‌ । अशनो दीर्षपहणं षट्‌संज्ाज्ञापकमा- 
कारान्तस्व नुडथंमितिऽ ॥ ४0 

अथवाकारो ऽप्यत्र .निरदिदयते । षकागान्ता नकारान्ताकारान्ता च संख्या षद्‌- 
संञा भवतीति | इहापि तर्हि प्रामोति | सधमादो दुर एकास्ता एका इति4 | वेष 
कोषः | एकशब्दो अयं बहथः । भस्स्येव  संख्यापदम्‌ 1 तद्यथा | एको हौ बहवं 
कवि । अस्स्यसहायवाची | तद्यथ | एकाम्रयः एकहलानि एकाकिमिः क्षु द्रकभि 
हमिति । मतदावैरिस्यथः | अंस्स्यन्या्थै वतेते † तथा | प्रजामेका रकषस्ु्जमे- 25 


[कक "रीगागमः 
# ७.९. णद्‌; देर्‌, 1 भन्‌, ८४; ७१.८५. द ९.१.३९१ $ ६.१.१०१ नु ७.१२ 


१4. ॥ व्याकरणयहाभाष्यय्‌ ॥  , [मण ६.६५ 


केक्रि| अन्येत्यथेः । सधमादो द्यत्र एकास्ताः | अन्या हृस्य्थः । तद्यो ऽन्यार्थे व - 
मैते. तस्थेष भरयोगः || इह तर्हि प्रामोति । हाभ्यानिष्टये विशस्य चेति" || एवं ता 
सप्रमे योगविभागः करिष्यते | अष्टाभ्य ओश्‌ | ततः षड्भ्यः | षडभ्यथ यदुन्क - 
मष्टाभ्योऽपि तद्भवति । ततो लुक्‌ । लुक्‌ च भवति षड्भ्य इति }| अथवोपरि्टाशो- 
¢ गविभागः करिष्यते‡ | अष्टन आ विभक्तौ | ततो रायः | रायश्च विभक्तावा- 
` कारादेशो भवति | हरील्युभयोः देषः || ` ययेवं प्रियाष्टी प्रियाष्टा- इति न सिध्यति 
पियाष्टानौ प्रियाष्टान इति च प्राप्रोति | यथालक्षणमप्रयुक्ते | 


इति च| १९ ।१ । २५ ॥ 


इदं डतिगव्रहणं दिः क्रियते संख्यासंश्षायां षट्संज्ञायां म | एकं शक्यमक्ुम्‌ | 

10 कथम्‌ | यदि तावत्संख्यासंज्ञायां क्रियते षट्संज्ञायां न करिष्यते | कथम्‌ । ष्णान्ता 

कडित्यत्र उतीत्यनुवार्तिभ्यते | अथ षट्संज्ञायां (क्रियते संख्यासंज्ञायां न करिभ्यते| 
डति चेस्यत्र संख्या संज्ञप्यनुवर्षिष्यते ॥ 


क्तवत्‌ निष्ठा ॥ १ । १. । २६ ॥ 


निष्ठासंज्ञायां समान गब्दपरतिषेधः ॥ ९॥ 
15 निष्ठासंज्ञायां समानश्ञष्दानां प्रतिषेधो बक्तव्यः | ठोतः गतै इति | 
निष्टासंज्ञायां समानराब्दाप्रतिषेधः ॥ २ ॥ 
निश्ठासंशायां समानरदाभ्दानामप्रतिषेधः | अनथकः प्रतिषेपो प्रतिषेधः | नि- 
क्संक्ष। कस्मान्न भवति | अनुबन्धो ऽन्यत्वकरः | भनुबन्धः क्रियते सो ऽन्यस्वं 
करिष्यति ॥ 
20 अनूचन्धो ऽन्यत्वकर हति चेन्न लोपातं | ३॥ 


अनुबन्धो ऽन्यत्वकर हति चेत्तन्न | किं कारणम्‌ । लोपात्‌ । लुप्यते अत्रानुबन्धः| 
लुप ऽत्रानुबन्धे नाम्यत्वं भविष्यति | तद्यथा | कतरषेवदन्तस्य गृहम्‌ । भदो यद्चा- 
सौ काक इति | उत्पतिते काके नष्टं तद्ुहं भवति | एवमिहापि लुम ऽनुबन्षे . नष्टः 














# ६, १. १७०. ‡ ७.९. २२. ` ‡ 9, २.८५. 


वऽ १.१.२५-२६. ] ॥ वकाकरणमहाभाष्वयं ॥ | ८५५ 


्रस्यवो भवति || यष्यपि कुप्यते जानाति त्वसौ सानुबन्धकस्येयं संज्ञा कृतेति | 
तेथथा | इतरत्रापि ` कतरहेवद सस्य गृहम्‌ । अदो यत्रासौ काक इति | उत्पतिते 
काके यद्यपि नष्टं तद्गृहं भवस्यन्ततस्तमुहेदां जानाति ॥ 


सिद्धविपयासश्च ॥ ४॥। 
सिडथ विपयोसः | वद्यपि जानाति संदे्स्तस्य भवत्ययं स तशब्दो लोतैः 5 
मतं इत्ययं स ताष्यो लूनः गीणै इति | तद्यथा | इतरञ्पि कतरहेवदतस्य 
गृहम्‌ । अदो यत्रासौ काक इति | उत्पतिते काके यद्यपि तमुहेशं जानाति संदेहस्तु 
तस्य भवतीदं तद्ृहमिदं तदृहमिति || एवं तर्हि 


कारककालविरोषास्सिद्धम्‌ || ९ ॥ ` 
कारककारविदोषावुपादेयौ । भूते यस्तराब्दः कर्तरि कमेगि भावे चेति |. तथ~ 10 
था | इतरत्रापि य एष मनुष्यः प्क्षापुरवैकारी भवति सो ऽ्ुवेण निमित्तेन धुवं 
निमित्तमुपादते वेदिकां पुण्डरीकं वा || एवमपि पाकी स्यत्र प्राप्रोति | 


लुडि सिजादिददोनात्‌ ।। ६ ॥। 


लुङि सिजादिददहौनाच्न भविष्यति | यत्र तार्ह सिजादयो न शृदयन्ते प्राभि- 
तेति । बृदयन्ते ऽ त्रापि सिजादयः | किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि । कथमनुष्यमानं 15 
ग॑स्वते | यथेवायमनुगदिष्टान्कारककाठविरोषानवगच्छत्येवमेतदप्यवगन्तुमहीति यञ्ज 
सजादयो नेति | 

इति श्रीभगवत्पतश्चकलिनिरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे 


पारे पञ्चममाद्धिकम ॥ 


८६ ॥ भ्याकरणमहामाष्यम्‌ ॥ = - [म०६.१.६. 


` :सवोदीनि सवेनामानि ॥ १. । १. । २७ ॥ 

` सवौदीनीति कोऽयं समासः | बहुव्रीहिरिस्याह 1 कोऽस्य विग्रहः ` | स्व शाग्द 
आदिर्येषां तानीमानीति । यथेवं सवेकशष्दस्य सवेनामसंज्ञा न भरामोति | (क कार- 
णम्‌ | अन्यपदा्थस्वाद्भहुव्रीहे | बहुव्रीहि रयमन्यपदार्थे वर्तते | तेन . यदन्यत्स- 
2 वैराभ्दा्तस्य सवैनामसंज्ा - प्रामोति | तद्यथा | चिच्रगुरानीयतामिस्युक्ते यस्य ता 
गावो भवन्ति स आनीयते न गाबः | नैष दोषः | भवति बहूव्रीहौ तहुणसंधिज्ञाः 
नमपि । तदथा | चि्रवाससमानय | लोहितीष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्ति | तहुण 

भानीयते तहुणा भचरन्ति | ` | 
इह सर्वेनामानीति पूवैषदास्संश्ञायामणः [ ८. ४. १. ] इति णत्वं प्ाभोति तस्व 

10 प्रतिषेधो वक्तव्यः | | 


 . सवंनामसंज्ञायां निपातनाण्णस्वाभावः ॥ ९ ॥ ` 


सवैभामसं्ञा्यां निपातनाण्णत्वं न भविष्यति | किमेतत्निपातनं नाम | अथ कः 
प्रतिषेधो नाम | अविरोषेण किंचिदुंक्का विरोषेण नेस्युर्थते | तत्र व्यक्तमाचार्यं- 
स्याभिपरायो मस्यत्‌ इदं न॒ भवतीति | निपातेनमप्येवंजाती्ंकमेव । अविषोषेण 
15 मस्वमुकका विरोषेभ निपातनं (करियते | तत्र व्यक्तमाचार्यस्याभिप्रायो गम्यत इदं म 
भवतीति | ननु च निषतनाश्चाणस्वं स्याद्यथाप्रापते च णत्वम्‌ | किमन्येऽप्येषं विधयो 
भगन्ति | रेको बणचि [दे .९.७७ | इति वचनाच यण्स्याशथामरापरेकम्रयेत | तेष 
दोषः अस्त्यत्र विदोषः | षष्ठद्ात्र निर्दराः क्रियते षष्टी च पुनः स्थानिनं निवतैयति || 
हष तार्हि कतरि शप्‌ [३.९.६८ | दि वारिभ्यः रयन्‌ [६९ | इति षचनाश्च इयन्स्या- 
20 अथापरा राप्भरुयेत | नैषः दोषः | हाबारेराः दर्मन्नादयः करिष्यन्ते | ततर्द 
शपो प्रहणे कतेव्यम्‌ । न फतैव्यम्‌ | प्रकृतभनुवतेते | कृ प्रकृतम्‌ । कमैरि 
शानिति | तहे प्रथमानिर्दिष्टं षर्निर्दि्टेन चेशायेः । दिवादिभ्य इत्येषा पञ्चमी 
शाबिति प्रथमायाः परध प्रकल्पयिष्यति तस्मादित्युत्तरस्य [९.१.६७ इति| प्रत्य - 
यविधिरयं न च प्रत्थयविपौ पञ्चम्यः प्रकल्पिका भवन्ति | नाथं प्रस्ययविधिः | 
25 विहितः प्रत्ययः प्रकृतथानुवतेते ॥ इह तद्यवष्ययसवेनाप्नामकच्पराक्टेः [९.३.७९] 
इति वचनाशाकश्स्याद्यथाप्राप्रथ कः ूयेत | वैष दोषः | नाप्राप्ते हि के ऽकजार- 


जै ब. ब, >.४. ~ 


प° २.१.२०. ॥ व्या ङरगमहामाप्यम्‌ ॥ ८ 


भ्यते स वाधको भविष्यत | निपातनमप्येवंजातीयकमेव | नापरा णस्वे निपाव- 
मारभ्यते तद्वाधकं भविश्यति || यदि तर्हिं निपातनोन्यप्येवंजातीयकानि भवन्ति 
समस्तते दोषो भवति । इहान्ये त्रैयाकरणाः समस्तते विभाषा रलोपमारभन्ते -समो 
हितक्ततयोर्वेति ` |` सततम्‌ संततम्‌ सहितम्‌ संहितमिति । इह पुनभेवा्तिपातनाशच 
मलोपमिच्छत्य परस्परा क्रियासातव्ये [६.१.१४४] इति यथापराप्रं चालोपं संतत- 5 
भित्वेतच्च सिध्यति | कतैष्को त्र यल: । वाधकान्येव हि निपातनानि भवन्ति 


 संज्ञोपसजनप्रतिषेधः || २॥ 
सं्ञोपसओनीमूतानां सवादीनां परापिषेधो वक्तष्यः | सर्वौ नाम कथित्त्त 
सवाव देहि | अतिसबौय देहि ॥ स कथं कतेव्यः | | 
पाठाप्प्युदासः पठितानां संज्ञाकरणम्‌ ॥ ६ ॥ . 210 
पाठादेव पर्ुदासः कतेत्यः | शुद्धानां पठितानां संज्ञा कतैव्या | सर्वादीनि 
सवेनामसंज्ञानि भवन्ति | संज्ञोपसजेनीमुतानि न सवौरीनि । किमविशेषेण | 
नेत्याह | विदोषेण च | किं प्रयोजनम्‌ | 
सर्वाद्यानन्तर्यकायोीर्थम्‌ || ४ ॥ 
सवौदीनामानन्तर्येण यदुच्यते कारे तदपि संशोपसजनीभूतानां मा भूदिति | 15 
किं प्रयोजनम्‌ | [र 
प्रयोजनं डतरादीनामद्धाषे ॥ ५९॥ , | 
डतरादीनामङ्धाषे प्रयोजनम्‌ * | अतिक्रान्तमिद॑ ब्राह्मणकुलं - कतरत्‌ अतिकतरं ` 
ब्राह्मणकुलमिति | ` ` ~. 


स्यदादिषिधौ च ॥ ६ ॥ | |  # 
त्यदादिविपौ च प्रयोजनम्‌ । अतिक्राम्तोऽयं ब्राक्मणस्तम्‌ अतितद्भाक्मण इति | 
संङ्ाप्रतिषेषस्तावच्चः वक्तव्यः | उपरिशब्योगविभागः करिष्यते; | पूवेषरा- 
बरदस्िणो्रापराधराणि व्यवस्थायाम्‌ । वतोऽसंज्ञायामिति । सर्बादीनी्येर्व 
-बान्वनुक्रान्तान्यसंज्ञावां तानि द्रष्टव्यानि | उपसर्जनप्रतिषेधथ्च न  कतेध्यः 
अनुपरसजैनात्‌ [४.९.९४] ह्येष योगः प्रत्याख्यायते तमेवममिसंमन्टस्वामः । 25 
अनुपसर्जन अ अदिति | किमिदम भरिति । भकारास्कारौ शिष्वमाणावनुप्रसजैनस्य 


+ ७,१,. २५. ¶ ७.२, ९०२. 4 ९.९.१३४. 


द ॥ उयाकरणमहाथष्यम्‌ ॥ = [म० ९.१.६९. 


द्रष्टव्यौ । यद्येव मतियुष्मत्‌ अस्यस्मदिति न सिभ्यति* | भरचिष्टनिरेरो अयम्‌ | 
भनुपसजेन भ अ भिति | भकारान्तादकारात्कारौ (शेष्यमाणाषनुपसजैनस्व द्रष्टः 
न्यौ || अथवाङ्गाभिकारे यदुच्यते गृष्यमाणविभक्तेस्तद्भबति | यथेव परमपश्च 
परमसप्र षड्भ्यो लुक्‌ (७.९. २२] इति लुम प्रामोति । वैष दोषः | षटप्रधान एष 

5 समासः || इह तर्हि प्रियसक्थ्ना ब्राहमणेनानङ्‌.न प्रामोति। | सप्रमीनिर्दिषटे यदुच्यते 
्रकृतविभक्तौ तङ्बति | यद्येवमतितत्‌ अतितदौ अवितद हत्यत्वं ्रामोतिः | 
तश्चापि वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । इह तावदद्‌डतरादिभ्यः पर्चभ्यः ७.९.२९] इति 
पश्छस्यङ्क स्येति ष्ठी तव्राश्चक्षयं विविभक्तित्वाडतरादिभ्य इति पन्चम्याङ्ख विशे- 
पयितुम्‌ । तत्र किमन्यच्छकयं विशेषयितुमन्यदतो विहितास्रस्ययात्‌ | डतरादिभ्यो 
10 यो त्रिहित इति । इहे दानी मस्थिदधिसक्थ्यदेणामनङ्दात्त इति स्यदादीनामो भवती- 
- व्वस्थ्वादीनामिव्येषा षश्च ङ्कस्येत्यपि स्यदादीनामित्यपि ष्ठश्चद्धस्येस्यपि | तश्र काम- 
चारो गृद्यमाणेन वा विभक्ति विरोषयितुमद्धेन वा | यात्ता कामचार इह तावद- 
स्थिदपिसक्थ्यश्ेणामनङ्दात्त हत्यद्गेन विभक्ति विशोषयिष्यामो ऽस्थ्यादिमिरनङम्‌ । 
अङ्गस्व विभक्तायनङ्‌ भवस्यस्थ्यादीनामिति | इहेदानीं स्यदादीनामो . भवतीति 
15 गृह्यमाणेन विभक्छि विशेश्रयिभ्यामो ङ्गेनाकारम्‌ । त्यदादीनां विभक्तावो भवस्य- 
ङ्गस्येति । यथेवमतिक्तः अत्वं न प्रामोति | तरैष दोषः | व्यदादिप्रधान एष समासः ॥ 
अथवा नेदं स्॑ञाकरणं पाठविशेषणमिदम्‌ । सर्वेषां यानि नामानि तानि खवोदीनि। 
संशोपसर्जने च विशेषे ऽवतिषठेते | वेवं संज्ञाभ्रयं यस्कायै त्च सिध्यति | सवेनास्नः 
स्मै [७.९.९४] आमि सर्वेनाघ्रः खट्‌ [५२] इति । अन्वथैमहणं तत्र विज्ञास्यते | 
20 सर्वेषां यज्ञाम तस्सवैनाम सवेनान्न उत्तरस्य ङेः स्मै भवति सवैनाघ् उन्तरस्वामः 
चङ्भवति । यथेव सकं कृत्कं जगदिव्यत्रापि प्रामोति । एतेषां चापि राग्दाना- 
मेकैकस्य स स जिषयस्तस्मिस्तस्मिन्विषये यो यः शाब्दो वतेते तस्य तस्य तस्मि- 
स्तस्मिन्वर्तमानस्य स्वैनामकाये प्रामोति ।| एवं तद्युभयमनेन क्रियते पाठेव विश्य 
ष्यते संज्ञा च | कथं पुनरेकेन यन्ेनोभयं लभ्यम्‌ | ठभ्यमित्वाह | कथम्‌ | 
2६ एकदोषनिर्देशात्‌ । एकशेषनिर्देशो भयम्‌ । सवौदीनि च सधौरीनि च सर्वादीनि | 
सथैनामानि च सर्वनामानि च सयैनामानि | सर्वादीति स्थनामतंज्ञानिः भवन्ति 
सर्वेषां यानि च नामानि तानि सर्वादीनि | संज्ञोपसजने च विशेषे ऽवरतिषठेते || अथवा 
मतीयं संशा क्रियते संज्ञाच नाम यतो न लघीयः | कुत. एतत्‌ | कष्य हि 


०.६, ३९. † ०.९. ०९. ०२. २०्र 





१०८१. १.२५. | ॥ ्याकस्नमहाभाच्यय्‌ ॥ (नै 


संज्ञाकरणम्‌ | तत्र महस्याः संज्ञायाः करण एतलयोजनमन्वथसंज्ञा यथा विज्ञा- ` 
येत | सवीरीनि सर्वनामसंज्ञानि भवन्ति सर्वेषां नामानीति चातः" सर्वनामानि | 
संश्ञोपसजेने च विदोषे ऽवतिठिते ॥ 
भथोभस्य सर्वनामन्वे को ऽथः | 
उभस्य सर्वनामत्वे ऽकजर्थः ॥ ७ ॥ $ 
उभ्य स्वनामस्े ऽक जयेः * पाठः क्रियते | उभकौ | किमच्यते ऽकज्थ इति 
नै पुनरन्यान्यपि स्मैनामकायौगि | ` 


अन्याभावो द्विव चनटान्विषयत्वात्‌ ॥ ८ ॥ 
अन्येषां सत्रैनामक्ायोणामभावः | किं कारणम्‌ | हिवचनटाभ्विषयत्वात्‌ | 
उभशब्दो ऽयं हिव वनराभ्थिपरयो ऽन्यानि च सर्वनामकायौण्येकवचनबहुव चनेषू- 10 
ष्यन्ते || यंदा पुनरयमुमशब्दो हिवचनटाभ्विषयः क इदानीमस्यान्यत्र भवति । 


उभयो ऽन्यत्र ॥ ९ || | 
उभय शश्दो ऽस्यान्यत्र भवति | उभये देवमनुष्याः | उभयो मणिरिति.।। किं च. 
स्याथथ्त्रा्रज्न स्यात्‌ | कः प्रसज्येत । कशेदानीं काकचोर्विशेषः ।. उभशब्दो अवं 

हविवचनटान्तरिषय इत्युक्तम्‌ । तजाकत्रि सत्यक चस्वन्मध्यपतितस्वाच्छक्यत एत-.15 
दक्तु हिवचनपरो ऽयमिति | के पुनः सति नायं हिव चनपरः स्यात्‌ | तत्र दवचन - 
प्ता वक्तव्या | यवैत्र ता के सति नायं हिवचनपर एव्रमाप्यपि सति नायं 
दित्रचनपरः स्यात्‌ | तज्रापि शिव्रचनपरता वक्तव्या | अत्रचनादापि तत्परविज्ञानम्‌ | 

अन्तरेणापि वचनमापि हिव चनपरो ऽयं भविष्यति | किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि । 

कथमनुच्यमानं गंस्यते | एकादेशे कृते हित्रचनपरो अयमन्तादिवद्धावेन | .20 

अवचनादापि तत्परविज्ञानमिति चेस्वे अपि तुल्यम्‌ ॥ ९० ॥। 

अवचनीदापि तत्परविज्ञानमिति चेत्के ऽप्यन्तरेण वचनं हिवचनपरो भविष्यति| 
कथम्‌ । स्यार्थिकाः प्रत्ययाः पकृतितो अविशिष्टा भवन्तीति प्रकृतिग्रहणेन स्वार्थिका- 
नामपि ब्रहणं भवति || - ~ 

अथ भवतः सवेनामत्वे कानि प्रयोजनानि | 28 

भवतो ऽ च्छेषास्वानि ॥ ९९ ॥ 
भवतो ऽकच्ेषात्त्रानि प्रयोजनानि | भकच्‌* | भवकान्‌ | दोषः† | सच 


*#* ५.२३. ७१. ` ¶† ९.२. ७२. 
14 तव 


९.० ॥ भ्याकरणमहाभाष्यय्‌ । ` ` [ म०९.१.६. 


भवां भवन्ती | भाखम्‌* | भवादुगिति || किं पुनरिदं परिगणनमाहोखिदु- 
दाहरणमात्रम्‌ | उदाहरणमाश्रमित्याह |वृतीयादयो ऽपि हष्यन्ते | सवेनाप्नस्ततीया 
च [ १.२.२१७ | | भवता हेतुना | भवतो हेतोरिति ॥ 


विभाषा दिक्समासे बहुत्रीहौ ॥ ९. ।१.।२८ ॥ 


5 दिग्रहणं किमथेम्‌ | न बहूव्रीही [९.१.२९] इति प्रतिषेधं वक्ष्यति | तत्र 
न ज्ञायते क्र विभ्वा क्र -प्रतिषेध इति | दिग्ग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति| 
दिगुपदिष्टे विभाषान्यत्र प्रतिषेधः || कथ समासम्रहणं किमयम्‌ | समास एव 

„यो बडूत्रीहिस्तत्र यथा स्याद्रहृनीहिषद्धवेन यो बहृत्रीदिस्तत्र मा भूदिति । दक्ष- 
णदक्षिणस्मै देहीति ॥ अथ बहृव्रीहिग्रहणं किमथेम्‌ । हन्दरे मा भूत्‌ | दक्षिणोत्तर - 

10 पूवौणामिति । तैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । इन्दे च [ ९.१.३९ ] इति प्रतिषेधो भति- 
ष्यति | नाप्रापरे प्रतिषेध इयं विभाषारभ्यते सा यथैव न बहूव्रीहाविस्येतं प्रतिषेधं 
वाधत एवं इन्दे चेत्येतमपि वाधेत | न वाधते | किं कारणम्‌ } येन नाप्राप्ने तस्व 
वाधनं भवति | न चाप्राप्ते न बहूव्रीहाविव्येतस्मिन्प्रतिषेध इयं विभाषारभ्यते इन्द 

` चेव्येतस्मिन्पुनः प्राप्रे चाप्रापे च || अथवा पुरस्तादपवादा अनन्तरान्विधीन्वाधन्त 

15 इव्येवमियं विभाषा न बहूव्रीहावित्येतं प्रतिषेधं वाधिष्यते इन्द्रे चेव्येतं प्रतिषेधं न 
वापिष्यते || अथवेदं तावदयं प्रष्टव्यः | इह कस्मान्न भवति | या पुवो सोत्तरा 
स्योन्मुगधस्य सोऽयं पूर्वोत्तर उन्मुग्धः । तस्मे पूर्वोत्तराय देहीति | लक्षणप्रतिपदो- 
क्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति । यद्येवं नार्थो बहृत्रीहिमहणेन | इन्द्रे कस्माच्च भवति| 

 लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति ॥ उत्तराये तर्द बहत्रीिमरहणं कव्यम्‌ । 

20 न कमैव्यम्‌ | क्रियते त्रैव न बहुत्रीहाविति | हितीयं कतेत्यम्‌ | बहूव्रीहिरेव यो 
बहृव्रीदिस्तत्र यथा स्याद्र त्रीहिवद्भावेन यो बहृत्रीदिस्त्र मा भृत्‌ | एकैकस्मि 
देहि§ । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | समास इति वतेते तेन बहुब्रीहि विशेषयिष्या- 
मः | समासो यो बद्व्रीिरिति ॥ इदं ताद प्रयोजनम्‌ । अवयवभुतस्यापि बह- 

` ब्रीहिः प्रतिषेधो यथा स्यात्‌ | इह मा मृत्‌ | वखमन्तरमेषां त इमे वखरान्तराः । 

2; वसनमन्तरमेषां त इमे वसनान्तराः | वलरान्तरा्च वसनान्तराश्च वलान्तर वसना- 
न्तराः ॥ 





~~ ----~-~ ० = न 


# ६. ३. ९१. + २. २. २६. ‡ ८,२.१०. § ८.१. ९. 





पर १,१.२८-२९. | ॥ उवकरन प्रहामोष्य क्‌ ॥ . श 


न बहुत्रीहौ ॥ ९. । १. । २९. ॥ 


कमुदाहरणम्‌ | प्रियविश्वाय | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | सर्वाधन्तस्य बहुब्रीहिः 
प्रतिपेषेन भवितव्यम्‌ | बरकष्यति चैतत्‌" । बह्व्रीहौ स्वैनामसंख्ययोरुपसंख्यान - 
मिति | तत्र विच्वप्ियायेति भवितव्यम्‌ || इदं तर्हि | द्यन्याय श्यन्याय | ननु चात्रापि 
सर्वनाप्न एव पूर्वनिपातेन भवितव्यम्‌ । त्ष रोषः | वक्ष्यत्येतत्‌ * | संख्यासवै - 
नाघ्नोर्यो बहुव्रीहिः परत्वा्तत्र संख्यायाः पुवेनिपातो भवतीति || इदं बाप्युदाहर 
णम्‌ | प्रियविश्वाय । ननु चोक्तं विश्चभ्रिवायेति भवितव्यमिति | वक्ष्यव्येतत्‌* | वा 
भिवस्येति || न खल्वप्यवदयं स वोयन्तस्येव बहुतरी हेः प्रतिषेधेन भावितव्यम्‌ | किं 
तर्हि | भसवाद्यन्तस्यापि भवितव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ | अकज्मा भिति | कि च स्या- 


यदत्राकच्स्यात्‌ | को न स्यात्‌ | कथेदार्नीं काकचोर्षिोषः | व्यश्नान्तेष विदोषः| 10 


भहकं पितास्य मकत्पितृकः स्वकं पितास्य त्वकतिपितुक इति प्रामोति | मत्कपि - 
तकः स्वत्कपित॒क इति चेष्यते | कर्थं पुनारेच्छतापि भवता बहिरद्भैःण प्रतिषेषेना- 
न्तरङ्गो विभिः शक्यो बाधितुम्‌ | अन्तरङ्गानपि विधीन्बहिरङ्गो विधिवौधते गोम- 
सिय इति यथा | क्रियते तत्र यलः प्रत्ययोत्तरपदयो्च [७.१.९८ | इति | ननु 


चेहापि क्रियते न बतुत्रीहाविति । भस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | प्रिय- 1४ 


विश्वाय | उपसरजैनप्रतिषेभेनाप्येतस्सिद्धम्‌ ॥ अयं खल्वपि बहुव्रीहिरस्त्येव प्राथ- 
मकल्पिको यस्मि्ैकपद्यतरैकस्वयेमेकविभक्तिकत्वं च | अस्ति तादथ्यौन्ताच्छब्ड्यं 


बह्रीह्यथानि पदानि बहु तरीहिरिति । तद्यत्तादथ्यां्ाच्छग्थं तस्येदं हणम्‌ || मोन- 
रयि आद | 
; भकच्स्रौं तु कतेव्वौ प्रत्यद्गं मुक्तसंरायौ | 
स््रकसिपितुकः मकद्पितृक हत्येव॒ भवितव्यमिति ॥ 
प्रतिषेधे भूतपूवेस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
प्रतिषेधे भुतपुवैस्यो पसंख्यानं कंतेव्यम्‌ । आद्यो भूतपुवै आदयपुर्वः | आ- 
बयपुवोाय देहीति ॥ 


# २. २, २५. # 


20 


९२ ॥ व्याक रणमराभाष्यम्‌ ॥ ` [म० ९.९.६. 


परतिघेपे भूतपूवैस्योपसंख्यानानर्थक्यं पकादीनां व्यवस्थायामिति 
वचनात्‌ ॥ > ॥ 


भरतिषेषे मुतपूर्वस्यो पसंख्यानमनयकम्‌ । कै कारणम्‌ । पूवौदीनां व्यवस्थाया- 


भिति वचनात्‌* | पूवादीनां व्यवस्थायां सथैनामसंज्ञोच्यते न चात्र व्यवस्था ग- 
5 म्यते ॥ 


तृतीयासमासे ॥ १. । १. ।२.० ॥ 


समास इति यतमाने पनः सम।समहणं किमर्थम्‌ | भयं तृतीयासमासो ऽस्त्येव 
प्राथमकल्यिको यस्मित्तेकपद्यप्रैकस्वयैमेकविमक्तिकत्वं च | अस्ति तादर््यात्ताच्छ- 
न्धं तुतीयासमासाथनि पदानि तृतीयासमास इति । तद्न्तादथ्या्ताच्छन्ं तस्येदं 
10 चहणम्‌ || अथवा समास इति वतैमाने पुनः समासम्रहणस्थैतस्रयोजनं योगाङ्ग 
यथोपजायेत | सति योगाङ्ग योगविभागः करिष्यते | तृतीया | तृतीयासमासे 
सर्वादीनि सर्वनामसं्ञानि न भवन्ति | मासपूर्वाय देहि | संवत्सरपूर्वाय देहि । 
ततो ऽसमासे | भसमभासे चं तृतीयायाः सवौदीनि सर्वनामसंज्ञानि न भवन्ति | मा- 
सेन पुर्वाय देहि ॥। | 


13 विभाषा जसि ॥ ९, ।९। ३२ ॥ 
` जसः कायै भ्रति विमाषाकज्न्ि न भवति | 


परावर दक्षिणोत्तरापराधराणि व्यवस्थायामसंज्ञायाम्‌ 
॥ १. ।१.।२.० ॥ 


अवरादीनां च पुनः सूत्रपाठे ्रहणान्थक्यं गणे पठितत्वात्‌ ॥ ९ ॥। 


20 अवरादीनां च पुनः सूत्रपाठे भरहणमनथेकम्‌ । किं कारणम्‌ । गणे पठितत्यात्‌। 
गणे ह्येतानि पद्यन्ते । कथं पुनश्षयते स पूर्वः पाठो ऽयं पुनःपाठ इति | तानि हि पूवौ- 
शैनीमान्यवरादीनि । इमान्यपि पवौदीनि । एवं तद्याचार्यमवृ्तिशीपयति ख पूरवः 
पाठो ऽयं पुनःपाढ इति यदयं पूर्वादिभ्यो नवभ्यो वा [७.१.१६ | इति नवम्रहणं 

* ६.९. ३४. 


प” १,१.२०-३६. | ॥ व्याकरग्हामाष्यव्‌ ॥ ९.४ 


केरोति । नवैव हि पुतादीमि || इदं तहिं प्रयोजने व्यवस्थावासतंज्ञावामिति 
वक्यामीति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । एवंविशिष्टान्येवैतानि गणे पद्यन्ते || इदं 
ताह प्रयोजनं व्यादिपर्युदासेन* पयुदासो मा मुदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । 
भाचायपरवृत्तिज्ञापयति तैषां व्यादिपयदासेन परवदासो भवतीति यदयं पुवेत्रासिडम्‌ 
[८.३.१९] इति निपातनं करोति | वार्सिककारथ पठति जदभावारिति वचेदुत्तर- 5 
्राभावादपवादम्रकषद्गः इति† || हदं तर्हिं प्रयेजनं जसि विभाषां कशष्यामीति ॥ 


स्वमज्ञातिधनाख्यायाम्‌ ॥ १.।२१ ।२५ ॥ 


आख्यामहणं किमर्थम्‌ । शातिधनपयौीयवाची यः स्वश्मब्दस्तस्य यथा स्यादिह 
मा भृत्‌ | स्वे पत्राः स्वाः पुत्राः | स्वे गावः स्वा गावः || 


अन्तरं बहि्येगिपसंन्पानयोः ॥ १. ।१.। ३.६ ॥ ` " 


उपसंव्यानग्रहणमनयंकः बहिर्योगेण हइतस्वात्‌ ॥ ९॥। 
उपसंव्यानम्रकणमनयेकम्‌ । किं कारणम्‌ | भहिर्योगेण कृतत्वात्‌ | बहिर्योग 
इत्येव सिद्धम्‌ || 
न वा शाटकयुगाय्थम्‌ || २॥ 

न वान्थैकम्‌ | किं. कारणम्‌ । शाटकयुगाद्ययेम्‌ ।. शाटकयुगाश्थे तर्हीदं व- 15 
तव्यं यत्रैतच्च ज्ञायते किमन्तरीयं (केमुल्तरीयमिति | अत्रापि य एष मनुष्यः 
रक्लापूतैकारौ भवति निज्गातं तस्व मव्रषीदमन्तरीयमिदमुत्तरीयमिति ॥ . 

अपुरीति वक्तव्यम्‌ |] इ मा भूत्‌ । अन्तरायां पुरि वसतीति ॥ 


वाप्रकरणे तीयस्य डिन्सूपसंख्यानम्‌ ॥ ३॥ 
वाप्रकरणे तीयस्य डिल्दपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ । तीया दितीयस्यै | तृती- %0. 
यातरै तृतीयस्यै | विभाषा द्ितीयातृतीयान्याम्‌ [७.३.९१९] इत्येतत वक्तव्य 
मृवति | किं प्नरत्र ज्यायः । उपसंख्यानमेवात्र ज्यायः । हदमपि सिदध भवति। 
हितीयाय हितीयस्मै | तृतीयाय तुतीयस्मै. ॥| 


* ५.२. २. † <. ३. १२. 


९४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ , [मम ९.९.६ 
सखरादिनिपातमन्ययम्‌ ॥ १ । १. । २.७ ॥ 


किमथे पथग्परहणं स्वरादीनां क्रियते न चादिष्वेव प्येरन्‌* | चादीनां वा 
असन्त्ववचनानां निपातसंन्ा स्वरादीनां पनः स्वव चनानामसच्ववचनानां च ॥ 
अथ किमर्थमुमे संज्ञे क्रियेते न निषातसंशैव स्यात्‌ | त्वं शक्यम्‌ | निपात एका- 
5 जनाङ्‌ [९.९.९४ | इति प्रगृ्यसंज्ञोक्ता सा स्वरादीनामप्येकाचां पसज्येत ॥ एवं त- 
ह्ेव्ययसंजञैवास्तु । तचा शक्यम्‌ । वक्ष्यत्येतत्‌ । अव्यये नञ्कुनिपातानामिति † । 
तद्ररीयसा न्यासेन परि णणनं कतैव्यं स्यात्‌ || तस्मार्थग्बहणं कतेव्यम्‌ | उभे 
च सज्ञे कर्तव्ये || ` | 


तदवितश्वासवविभक्तिः ॥ १।१९।२८ ॥ 


10 असवेविभक्तावतिभक्तिनिमितस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
भसवेविभक्तावविभकतिंनिमि त्तस्योपतलंख्यानं कतेभ्यम्‌ । नाना विना | किं पुनः 
कारणं न सिध्यति. | 


सवेविभक्तेर्यविरोषात्‌ ॥. २॥ 


सर्वविभक्तेर्धैष भवति | कि कारणम्‌ । अविरोषेण विहितत्वात्‌ | 
1 ` त्रलादीनां चोपसख्यानम्‌ ॥ ६ ॥ 
रलादीनां . चोपसंख्यानं कतेव्यम्‌ | तच्र यत्र | ततः यतः | ननु च विंशषेषणेते 
विधीयन्ते | प्रश्चम्यास्तसिल्‌ [ ९.३.७ | समप्रम्याखल्‌ [९०] इति । वक्ष्यत्येतत्‌ | 
इतराभ्यो अपिं इृदयन्ते [९४] इति || यदि. पुनरविभक्तिः शाब्दो ऽष्ययसंञ्ञो भव- 
तीव्युख्येत | | | 
20 | अविभक्तावितरेतराभयस्वादपरसिदिः ॥ *॥ 
अविभक्तावितरेतराश्रयत्वादप्रसिदिः संज्ञायाः | केतरेतरा्रयता |. सत्य्ि- 
भक्तित्वे संज्ञया. भाषितव्वं संज्ञया चाविभक्तिस्वं भाव्यते तदितरेतराश्रयं भवति | 
इतरेतराश्रयाणि च कार्याणि न प्रकल्पन्ते | | 





## ९,४.५७. † ६.२.२.१ | { ९.२.२३७. 








पा० ९.१.३.०-२८.| ॥ व्याकरणकहाभाच्यम्‌ ॥ ९५ 
अलिद्गमसंख्यभिति वा ॥ ५1. 


भथवानिङ्गमसंख्यमव्ययसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम्‌ | एवमपीतरेतराश्चयमेव 
भवति | केतरेतराञ्नयता | सत्यलिद्धासंख्यत्वे संज्ञया भवितव्यं संज्ञया चालि- 
द संख्यत्वं . भाव्यते तदितरेतराभयं भवति | इतरेतराञ्रयाणि च कार्याणि न प्र- . 
कल्पन्ते || नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंख्यता च । कं ताहे | स्वाभाविकमेतत्‌ | 5 
त्था | समानमीहमानानां चाधीयानानां च केचिदधैयज्यन्ते ऽपरे न | तत्र 
क्ेमस्माभिः कु शक्यम्‌ | स्वाभाविकमेतत्‌ || तत्तर्हि वक्तव्यमालिङ्गमसंख्यमिति | 
ने वक्तव्यम्‌ | 

सिद्धं त॒ पाठात्‌ ।। £ ॥ 

पाठाङ्का सिद्धमेतत्‌ } कथं पाठः कतेव्यः | तसिलादयः प्राक्पाश्चपः | कास्पर- 10 
भृतयः प्राक्समासान्तेभ्यः | मान्तः | कृत्वोऽथेः | तसिवती | नानाञाविति ॥ 

अथवा वपुनरस्त्वविभक्तिः शब्दो ऽव्ययसंज्ञो भवतीत्येव | ननु चोक्तमवि- 
भक्तावितरेतराञ्यत्वाद प्रसिद्धिरिति । नैष दोषः | इदं तावदयं प्रष्टव्यः | यद्यपि 
तावदेयाकरणा विभक्तेलोपमारभमाणा अविभक्तेकाञ्डशाब्दान्पयुश्रते ये त्वेते ध 
याकरणेभ्यो ऽन्ये मनुष्याः कथं ते ऽवेभक्तिकाञ्शब्दान्प्रयुष्त इति । अभिज्ञा 15 
पुनर्लीकिका एकत्वादीनामथौनाम्‌ | आतथाभिज्ञा अन्येन हि षङ्ञनेकं गां क्रीण- 
न्त्यन्येन हावन्येन त्रीन्‌ | अभिज्ञा न च प्रयुञ्जते | तदेतदेवं संकृदयतामथरू- 
पमेत्रैतदेव॑जार्तःयकं येनात्र विभाक्तिने भवतीति | तथाप्येतदेवमनुगग्यमानं दृदय- 
ताम्‌ | किंनिरव्ययै विभक्तयथप्रधानं किचिच्करियाप्रधानम्‌ | उच्चैनीचैरेति विभ- 
त््यथ॑प्रधानं हिरक्पथगिति |क्रियाप्रधानम्‌ | तद्धितश्चापि कथिदिभक्तयथप्रभानः 20 
कञथिक्करियाप्रधानः | तन्न यत्रेति विभक्तययेप्रधानो नाना विनेति क्रियाप्रधानः | न 
बैतयोरथयोर्सिङ्गसंख्याभ्यां योगो अक्ति | 

अथाप्यसवविभक्तिरि स्युच्यत एवमपि न दोषः | कथम्‌ | इदं चाप्यद्यत्वे 
अतिबहु क्रियत एकस्मिन्नकवचनं इयोर्िव चनं बहूषु बहुवचनमिति | कथं तर्हि | 
एकव चनमुत्सशः करिष्यते तस्य दवेबहेोरथयोर्दिव चनबहूवचने वाधके भविष्यतः || ४ 
न चाप्येवं विमदः करिष्यते | न सवौ भसवोः | भसवो विभक्तयो स्मादिति | 
कर्थं तार्हि | न सवासर्वा | असवा विभक्तिरस्मादिति | त्रिकं पुनर्विभक्तिसंजञम्‌ || 


# ४. ई, २१. ११. 


९६ ॥ भ्याकरणमहाभष्यम्‌ ॥  [भ०१.९.६. 


` एवं गते कृत्यपि तुव्यमेतन्मान्तस्य कय ग्रहण न तत्र । 
ततः परे चामिमता न का्यौस्त्रयः कृरथा ग्रहणेन योभाः ॥ 
कृत्तदितानां ग्रहणं तु कायै संख्याविशेष ध्यभिनिश्िता ये । 
तेषां प्रतिषेधो भवतीति वक्तव्यम्‌ | इह मा भृत्‌ | एको द बहव इति । 
नस्मासस्वरादिग्रहणं च कायै कृत्तद्धितानां ग्रहणं च पदि ॥ 
पाठेनेयमव्ययसंज्ञा कियते सेह न प्रापमोति | परमोचैः परमनीत्रैरिति | तदन्त- 
विधिना भविष्यति* | इहापि तर्हि प्राप्रोति | भव्युचचैः अत्यु्चैसौ अस्युञ्चेस इति | 
ङपसजैनस्य नेति प्रतिगेपो भविष्यति | स तर्हि प्रतिषेषो वक्तव्यः | न बक्तव्यः. | 
सपैनामसंज्ञायां प्रकृतः प्रतिषेध† इहानुवर्षिष्यते | स वै तत्र प्रत्याख्यायते | यथा 
10 स त्न प्रत्याख्यायत इहापि तथा श्यः प्रत्याख्यातुम्‌ | कथं स तत्र प्रत्याख्या - 
यते | महतीयं संज्ञा क्रियत इति | इयमपि ` च महती संज्ञा क्रियते संज्ञा च 
नाम यतो न ठषघीयः | कुत एतत्‌ । रष्वं हि संज्ञाकरणम्‌ | तत्र॒ महत्या 
संज्ञायाः करण. एतत्यो जनमन्वरथसंज्ञा यथा विज्ञायेत | न व्येतीत्यभ्ययमिति| 
कर पुनने व्येति | जीपुंनपुंसकानि सस्वरगुणा एकस्वदिस्व बहुत्वानि च | एतानयो ˆ 
15 न्केचिद्धि यन्ति केचिच्च वियन्ति | ये न वियन्ति तदव्ययम्‌ || 


सदृशं त्रिषु लिङ्गेषु सवो च विभक्तेषु | 
वचनेषु च सर्वेषु यत्र भ्येति तदव्ययम्‌ ॥| 


कृन्मेजन्तः ॥ १. । १. । २९ ॥ 


कथमिदं तिज्ञायते | कथो मान्त इति । आहोस्वित्कृ दन्तं यन्मान्तमिति | कि 

20 चातः | यदि विज्ञायते कृद्यो मान्त इति कारयांचकार हार यांचकारेत्यत्र न प्रामोति। 
अथ विज्ञायते कृदन्तं यन्मान्तमिति प्रतामौ प्रतामः अत्रापि प्रामोति | यथेच्छसि तथा- 
स्त || भस्त ताव्रत्कृथो मान्त हति | कथं कारयां चकार हारयां चकारेति | किं पनर 
्राव्ययसंज्ञया प्राध्येते | अव्ययात्‌ [२.४.८२] इति लुग्यथा स्यात्‌ | मा मदेवम्‌ । 
भामः [२.४.८१ | इत्येतं भविष्यति | न सिध्यति | लिम्रहणं ‡ तत्रानुषतेते । किय- 
25 हणं निवर्तिष्यते | यदि निवतेते प्रत्ययमात्रस्य दुक्पाभोति | इष्यते च प्रत्ययमा- 
रस्य | आतेष्यत एवं द्याह कृभ्चानु प्रयुज्यते रिटि [३.१.४०] इति | यदि 
च प्रत्ययमात्रस्य लुग्भवति तत॒ एतदुपपन्लं भ्रति || अभयवा पुनरस्तु कृदन्तं 

# ९, १. ७. ¶ ९.९. २९. # { २. ४,८१०. 





०९.१.३९. | ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यय्‌ ॥ ९9 


बम्मान्तमिति । कथं प्रतामौ प्रताम इति । भआवचार्यपरवृ्िज्ञोपवति न प्रस्ययलक्ष- 
गेनाग्वबसंज्ञा मवतीति यदयं प्रश्ान्दाब्दं स्वरादिषु पठति ॥ 
हन्मेजन्तश्चानिकारोकारपकतिः ॥ ९ ॥ 
कृन्मेजन्तथानिकारोकारपरृतिरिति वक्तव्यम्‌ । इद मा भूत्‌ | भाषये भाषैः | 
विङीषेवे निकीर्षोरिति ॥ 5 
अनन्यप्रकृतिरिति वा ॥ २ ॥ | 
अभवानन्वप्रकृतिः कृदव्ययसंश्जो भवतीति वक्तव्यम्‌ || किं पनरब्र ज्यायः ॥ 
अनन्यप्रकृतिव चनमेव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भव्रति | कुस्भकारेभ्वः कारक्परेभ्व 
हति ॥ तनह वक्तव्यम्‌ | 
न वा संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिपातस्य | ६ ॥ 10 
न वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । संनिपातलक्षणो विधिरनिमितं तदिषावस्ये- 
येषा परिभाषा कतेव्या || कः पुनरत्र विशेष एषा वा परिभाषा क्रियेतानन्वप्रक्ृ- 
तिरिति बोध्येत | अवइयमेषा परिभाषा कतैव्या | बहुन्येतस्याः परिभाषायाः 
प्रयोजनानि | कानि पुनस्तानि | | 
प्रयोजनं हस्वतवं तुग्विधेग्रमणिक्‌लम्‌॥ ४ ॥ 15 
प्ामणिङ्ुलम्‌ सेनानिकुलमिस्यत्र हस्वस््े कृते ° हृस्वस्य पिति कति तुग्भव- 
तीति। तुक्पामोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिषातस्येति न दोषो भवति | 
त्ैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । बहिरङ्ग हस्त्रतलमन्तरङ्गस्तुक्‌ । असि बहिरङ्गमन्तरङ्गे || 
नलोपो वृत्रहभिः ॥ ९॥ 
वृत्रहभिः भ्रुणहमिरित्यत्र नठोषे कृते‡ हृस्वस्य पिति कृति तुगभवतीति. तुक्‌ 20 
प्राप्नोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तरिघातस्येति न. दोषो भवति || एतदपि 
नास्ति प्रयोजनम्‌ | असिद्धो नङोपः$ । तस्यासिदडत्वाच्र भविष्यति ॥| 


डदुपधत्वमक्षि स्वस्य निकुचिते ॥ & ॥ 
उदु पथत्वमकिस्वस्यानिभित्तम्‌ | क्र | निकुचिते | निङ्ुनित इत्यत्र नलोपे 
कृत¶ उदुपधाद्ावारिकर्मणोरन्यतरस्याम्‌ [९.२.२९] हइत्यकिश्वं प्रामोति | ४६ 


= ६.६. ६९. † ६.९. ७१. = { ८.२७. 9 ८.२.२० ¶ ९.१.२४. 
13 








९८ ॥ व्याकरणगहाभाष्यम्‌ ।  . [म०१.९.६. 
संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्येति न दोषो भवति || एतदपि नालति 


प्रयोजनम्‌ । अस्त्वक्रकिर्वम्‌ | न धातुलोप आर्षधातुके [९.९.४ ] इति प्रतिषेष 
भविभ्यति ॥ | 


नाभावो यञि दीर्षस्वस्यामुना । ७ ॥ 


$ नाभावो यनि. दीर्षत्वस्यानिमित्तम्‌ । क | अमुना [ नाभाषै कृते*ऽतो ` दीं 
यथि इषि च [७.३.१०९;१०२]| इति दीषेस्वं प्रामोति । संनिपातलक्षणो निधि- 
रनिमिन्तं त्िषातस्येति न दोषो भवति ॥ एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । वक्ष्यस्ये- 
तत्‌ | न मु टादेश इति† | 


| | आच्वं किच्स्योपादास्त ।। € ॥ 

10 आस्व कितत्वस्यानिमित्तम्‌ । क । उपादास्तास्य स्वरः शिक्षकस्येति | आच्ते 
कृते स्थाध्वोरिच्च [९.२.१७] इती च्वं प्रामोति । संनिपातलक्षणो विधिर निमितं 
तद्िषातस्येति नं दोषो भवति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । उक्तमेतत्‌ । रीड 
प्रतिषेधः स्थाष्वोरि स्व इति, || 


तिसृचतसृत्वं डीव्विधेः | ९॥ 


15 तिसृचतसृत्वं ॐोभ्विभेरनिमित्तम्‌ | क | तिस्लस्तष्ठन्ति | चतसरस्तिष्ठन्ति | तिसृ- 
चतसृभावे कृत्‌॥ ऋन्नेभ्यो डीप्‌ |४.९.९| इति ङीप्मापरोति । संनिपातलक्षणो 
-विभिरनिमिततं तद्विषातस्येति न दोषो भवति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | आचा- 
यपरवृ्ति्ञोपयति न तिसूचतसुभावे कृते डीभ्भवतीति यदयं न तिसृचतसृ [६.४.४| 
इति .नामि दीर्षस्वप्रतिषेधं शास्ति ॥ 

20 इमानि ` तर प्रयोजनानि । शतानि सहस्राणि । नुमि कृते¶ृ ष्णान्ता षट्‌ 
[१.१.२४] इति षट्संज्ञा प्राभोति । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विघातस्येति 
न दोषो भ॑वति || शकटौ पद्धतौ । भवे कृते** ऽतः [४.९.४ | इति टापरामोति | 
संनिगतलक्षणो विधिरनिमित्तं तादिषातस्येति न दोषो भवति [| इयेष उवोष | गुणे 
कृत।† इजादे गुरुमतोऽनृच्छः [३.१.३६ | श्याम्भामोति | संनिपातलक्षणो विभि- 

25 रनिमित्तं तदिषातस्येति न दोषो भवति ॥ 


# ७.३. ९२० | ८.२ ३.४ { ६.९.५०. , § १.९.२०. 


. . ॥ *.२.९९. 
ष्‌] 9,१.७२. #* ७,३.९६.९.. +† ५,३.८६. 











०९.१.३९] ! ॥ व्याकरनहाभाष्यम्‌.॥ ८९९ 


तस्य दोषो वणौश्रयः भरस्ययो व्णविचालस्य.॥ ९० ॥ , . 
तस्यैतस्य लक्षणस्व रोषो वणौन्रयः प्रत्ययो वर्णविचालस्यानिमित्तं. स्थात्‌ | 
क | अत इञ्‌ [ ४.९.९९ ]* | दाक्षिः आकिः | न प्रत्ययः संनिप्रातरक्षगः | भङ्ग- 
घज्ञा तद्यनिमित्तं स्यात्‌ ॥ ) 
अच पुण्विधेः क्रापयति ॥ ९९ ॥ £ 
आच्ं पुण्विधेरनिमित्तं स्यात्‌{ | क | क्रपियतीति ॥ ` ` 
पुग्धरस्वत्वस्यादीदपत्‌ ।। ९२ ॥ 
पुरप्रस्वत्वस्थानिमिनत्तं स्यात्‌ | क | अदीदपदिति ॥ 
व्यदाद्यकारष्टाल्विधेः ।। ९६ ॥ 
त्यदाद्यकार्टभ्विधेरनिमितचं स्यात्‌॥ | क । यासा. ` - 10 
इड्पिराकारलोपस्य पपिवान्‌ ॥.९४॥ 
, इद्िधिराकारलोपस्यानिमितं स्यात्‌4 । क्र | पपिवान्‌ तस्थिवानिति || 


मतुन्विभक्तयुदात्तत्वं पूर्वनिषातस्य ॥ ९५ 
 भतुष्विभक्तयुदा त्तत्वं पूवनिषातस्यानिमित्तं स्यात्‌ । क | अभिमान्‌ वावु- 
मान्‌ । परमवाचा परमवाचे || , , .. . , 15 


नदीहस्वत्वं -संबुदिलोपस्य ॥ ९६ ।| 

नदीहस्वत्वं संबुद्धिलोपस्यानिमित्त स्यात्‌।† | क | नदि कुमारि. किशोरि 
ब्राह्मणि ब्रह्मबन्धु | हस्वत्वे कृत ॒एड्हस्वास्सं बुद्धेरिति लोपो न. परामोति ।-- मा 
मृदेवम्‌ | म्यन्तादिल्येवं ‡‡ भविष्यति | न सिध्यति । दीरषौदित्युच्यते हस्वान्ता्च 
न प्रामोति | इदमिह संप्रधार्य । हस्वस्वं॒॑क्रियतां संबुद्धिलोप इति किमत्र कतै- 20 
म्बम्‌ | परत्वाद्धस्वस्वम्‌ । नित्यः संबदधिलोपः । कृतेऽपि हस्वत्वे प्रामोत्यंकृते 
अपि । अनित्यः संबुद्धिलोपः 1 न हि कृते. हस्वस्वे प्रामोति । किं. कारणम्‌ | 
सैनिपातलद्षषणो विधिरनिमित्तं तद्िषातस्येति ॥ । 

एते . दोषाः समा भूयांसो वा -तस्माच्चार्थो -ऽनया परिभाषया | न हि . रोषा 
सन्तीति -परिभाषा न कतैव्या लक्षणं वा .न प्रणेयम्‌ |-न हि भिकषुक्राः. सन्तीति 25 


ॐ ६.०४. ९४८. 2 ९.४.९३. { ५,९.४८; ०.२.२६. $ ७.३.३६; ०.४.९. || ७.२.९०२; ४.९.४. 
ष .०म.५० ५.४.६४. . >+ ५.६.१०६; १६९१ ५८. 11 ०.२.९००; ६.१.६२. {{-६.१.६८. 





१.८०  ॥ व्याकरणकहाभोष्यपःः ॥ [मण ९.९. 


स्थाल्यो नाचिश्रीयन्ते न च मृगाः सन्तीति यवा-गोप्यन्ते | दोषाः खल्वपि साकल्येन 
परिगणिताः प्रयोजनानामुदाहरणमात्रम्‌ | कुत एतत्‌ | न हि दीकषणां र्षणेमस्ि 1 
तस्माान्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि तदथेमेषा परिभाषा कंतेष्या प्रतिविभेवं 
दोषेषु | 


६ अव्ययीभावश्च ॥ १ । १। ४१ ॥ 


अभ्ययीभावस्याव्ययतवे प्रयोजनं लुग्मुखस्वरोपवाराः ॥ ९ ॥ 
भव्ययीमावस्याव्ययत्वे प्रयोजनं किम्‌ | लुमुखस्वरोपचाराः ॥ लुक्‌ | उपरि 
प्रत्याभि । अव्ययात्‌ [२.४.८२] इति ठुकसिद्धो भवति | मुखस्वरः | उपाभिमुखः 
प्रस्यक्निमुखः । नाव्ययदिक्डाब्दगो महस्स्थुलमुषटिष्रथुषस्तेभ्यः [ ६.२.१६८ ] इति 
10 प्रतिबेधः सिद्धो भवति || उपचारः | उपपयःकारः उपपयःकम इति | अवतः 
कृकमिकंसकुम्भपात्रकु शाकर्णीष्वनव्ययस्य [ ८.३.४६ | इति प्रतिषेधः सिद्धो 
भवति || किं पुनरिदं परिगणनमाहोख्िदुदाहरणमात्रम्‌ । परिगणनमित्याद ॥ 
भपि खल्वप्याहूः | धरन्यदव्ययीभोवस्याव्ययकृतं प्राप्रोति तस्य प्रतिषेधो वन्त्य 
इति । किं पुनस्तत्‌ † पराङ्गवद्भावः | परा ङ्गवद्भवि ्ययप्रतिषेधथोदित - उश्चैरधीयान 
15 नीैरषीयानेस्येवमर्थेम्‌ | स॒ इहापि परामोति | उपाम्पधीयान प्रस्यभ्यषीयान ॥ 
भकध्यव्ययप्रहणं क्रियत उच्चकैः नी वकैरिस्येवमथेम्‌ । तदिष्ापि प्रामोति । 
उपाभिकम्‌ प्रस्यभ्रिकमिति || मुस्वव्ययप्रतिषेध उच्यते{ रोषामन्यमहः दिवामन्या 
रात्रिरित्येवमथम्‌ । स इहापि प्रामोति | उपकुम्भंमन्यः उपमणिकंमन्यः || भस्य 
स्यावव्ययप्रतिषेध उच्यतेऽ रोषामुतमहः दिवाभूता राभरिरिव्येवमयेम्‌ । स इहापि 
90 प्रामोति । खपकुम्भीभूतम्‌. उपमणिकीभूतम्‌ ॥ 
अदि. परिगणनं क्रियते नार्थो ऽव्ययीभाषस्यास्ययसंशया | कथं यान्यम्यकी- 
भावस्याध्ययस्वे श्रयोजनानि | वैतानि सन्ति | यत्तावदुच्यते लुभिव्याचाययैमव्‌- 
िज्ञौपयति भवस्यव्ययीभावाह्लुभिति यदयं नाव्ययीभावादतः [२.४.८३] इति 
प्रतिषेधं शास्ति | खपषारः | अमु्तरपदस्थस्येति वतैते। | तन्न मुखस्वर एक 


25 भ्रयोजवति न अकं प्रयोजनं योगारम्भं प्रयोजयति । ययेतावल्मयोजमं स्याने वायं 
जरुयाच्चाव्ययादव्ययीभावाचेति ॥ 


*२.६.९१ † ९.२.७१ { ९.२.६६-६५, $ ०,४.३२. || ८.३.४५९. 


नके ० 





पाज ९,१.४१-४४.] ॥ व्याकरनबहामाध्यम्‌ ॥..; ~ :.. ::-:::-: शै 
शि सवेनामस्यानम्‌ ॥१।१।४२॥ सुडनपंसकस्य ।॥१.।१।४२॥ 

शि सवैनामस्यानं सुडनपुंसकस्येति चेज्जसि दिप्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 

शि सवैनामस्थानं छडनपंसकंस्येति चेज्जसि दोः प्रतिषेधः प्राभोति } कुण्डानि 
तिष्ठन्ति | वनानि तिष्ठन्ति ॥ 

भसमर्थसमसथायं श्रष्टभ्यो ऽन्सकस्येति | न हि नञो नपुंसकेन साम्यम्‌ | 5 
ढेन तर्हि | मवतिना | न भवति नपुंसकस्येति ॥। 

यत्तावदुच्यते शि सथैनामस्थानं छडनपुंसकस्थेति चेज्जसि शिप्रतिषेध इति । 

नाप्रतिषेधात्‌ || नाय॑ प्रसज्यप्रतिषेधो नपुंसकस्य मेति । किं तरदं | पयुदासो ऽवं 
यदन्यश्नपुंसकादिति | न॑ सके व्यापारः | यदि केनचितपामोति तेन भविष्यति | 
पर्वेण च प्राभोति ॥ 10 

अप्राप्रेवा | भथवानन्तरा या प्रात्निः सा भरतिषिध्यते | कते एतत्‌ | अनन्तरस्य 
विधिश्रौ भवति प्रतिषेधो वेति । पूर्वा प्राप्निरभरतिषिद्धा तया भविष्यति । ननु चैयं ` 
परापनिः पूर्वा पानि वाधते । नोस्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम्‌ | 

यदप्युच्यते ऽखमर्थसमासथावं द्रष्य इति यद्यपि वक्तव्यो अथकरैतर्दि बहनि 
परयो जनानि । कानि | भदर्यैपदयानि मुखानि । अपुनर्गेयाः शोकाः | अभ्नाङडभोजी 15 
ब्राह्मण इति || 


। न वेति विभाषा ॥ ९. ।.९. । ४४ ॥ 


न वेति विभाषायामथेसंज्ञाकरणम्‌ ॥ ९ ॥ 
न वेति विभाषायामथेस्य संज्ञा कतैव्या | नवाश्ब्दस्य यो अथस्तस्य ` संज्ञा 
भवतीति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ ) | 
शब्दसंज्ञायां श्यथोसंभरत्ययो यथान्यत्र ॥ २ ॥ | 


छम्दसंश्चायं &ि सत्यामथेस्यालपरत्ययः स्याद्मथान्मन्र | अन्यत्रापि शब्दसं्ञावां 
शष्दस्य संप्रस्ययो भवति नाथस्य । कान्यत्र | दापा ष्वम्‌ [९.९..०]- तर- 


* ७,९.७द्‌ 


१०९६: :::27:7:;; : ~ ॥ पककरनमहाभष्वम्‌ ॥ . ` ~र म० १.१.६. 
परमौ घः [२२९] इति धुमहणेषु षम्रहणेषु च शाब्दस्य संप्रत्ययो भवति नाथस्य ॥ 
तृत म्रक्रष्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | | 


इतिकरणो अयैनिर्देशार्थः ॥ ३ ॥ ` 


„ इतिकरणः. क्रियते सो. ऽथविर्दशार्थो भविष्यति | किं गतमेतदितिनाहोसि्विच्छब्दा- 

5 धिक्यादर्थपिक्यम्‌ । गतमित्याह । कुतः | लोकतः | तथा | लोके गौरित्यय- 

' मादेति गोशब्दादितिकरणः प्रः प्रयुज्यमानो गी शब्दं स्वस्मात्पदायोत्मच्यावयति | 

सो ऽसौ स्वस्मात्पदाथौलध्युतो यासाव्थेषदाथेकता तस्याः शष्दपदाथेकः संपद्यते | 

एवमिहापि नवाश्चब्दादितिकरणः परः प्रयुज्यमानो नवाशब्द स्वस्मासराथोखच्या- 

वयति । सोऽसौ स्वस्मात्पदाथौलच्युतो यासौ शब्दपदाथैकता तस्या रीकिकमर्थं 
10 संप्रत्याययति | न वेति यद्कम्यते न वेति. यलतीयत इति ॥ 


समानरान्दप्रतिषेधः | ४॥ 


` समानाम्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | नवा कुण्डिका | नवा षटिकेति । किं च 
स्या्ययेतेषामपि विभाषासंज्ा. स्यात्‌ | विभाषा दिक्समासे बहव्रीहौ [१.१.२८] । 
दक्षिणपुतैस्यां शालायाम्‌ । अविरकृतायां संप्रत्ययः स्यात्‌ ॥ 


1४ न वा विधिपूर्वकत्वास्मतिषेधसंप्रस्ययो यथा लोके ॥ ५ ॥ 


न वैष दोषः | किं कारणम्‌ | विधिपूवैकल्यात्‌ | विधाय किंचिन्च वेद्युच्यते | 

तेन प्रतिषेधवाचिनः संप्रत्ययो भवति. । तद्यथा रेके । भामो भवता गन्तव्यो न 
वा | नेति गस्यते || अस्ति कारणं येन लोके प्रतिषेधवाचिनः संप्रत्ययो भवति | 
किं कारणम्‌ । विरद हि भवाङ्षीके निर्देशं करोति । अङुः हि समानलिङ्को निर्देशः 
20 क्रियतां प्रत्यमरधाचिबः संप्रत्ययो भविष्यति । तद्यथा | भामो भवता गन्तव्यो नवः | 
प्रस्यम्र इति गम्यते || एतथैव न जामीमः क्रचिग्याकरणे समानलिङो निर्देशः क्रियत 
हति | अपि च कामचारः प्रयोक्तुः शब्दानाममिसेबन्धे | तद्यथा | यवागूमैवता 
भोक्तव्या नवा । `यदा यवामुराष्दो भुजिनाभिसंबध्यते भुजिनैवादाब्देन तदा प्रति- 
देषवाचिनः संभरस्ययो मवति | यवागुभेवता . मोक्तव्या नवा {. नेति गम्यते | 
25 वंदा यवागृशम्दो नवाशम्देनामिसंबभ्यते न भुजिना . तदा -परत्यमवाचिनः . संप्रत्ययो 
भवति | यवागुनैवा भवता भोक्तव्या .। प्र्वग्रेति गम्यते | न वेह वयं विभाषा- 








पा०.९.१.४४. 1 व्याकरनप्रदापावष्येय्‌ १०३६ 


प्रहणेन सवौदीन्यभिसंबधमः | दिक्समासे बहूवीरौ सकौदीनि विभाषा भवन्तीति। 
किं तरि | भवतिरमिसं बध्यते | दिक्समासे बहूव्रीशै सवादीनि भवन्ति विभाषेति | 


विध्यनित्यत्वमनुपपन्नं प्रतिषेधसंज्ञाकरणात्‌ ।। & ॥ 


विधेरनित्यत्वं नोपपद्यते । शुशाव द्ुशुवतुः शुशुवुः । शिश्वाय शिधियतुः 
शिधियुः° | किं कारणम्‌ । प्रतिषेषसंज्ञाकरणात्‌ । प्रतिषेधस्येयं संज्ञा क्रियते | 5 
.तेन .विभाषपप्रदेहेषु प्रतिषे धत्यैव संप्रत्ययः स्यात्‌ || 


सिद्धं तु प्रसज्यप्रतिषेधात्‌ ॥ ७॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | प्रसज्यप्रतिषेधात्‌ | प्रसज्य किचित्च वेर्युच्यते | तेनोभयं 
भविष्यति | | 


१० 


विप्रतिषिद्धं तु ।॥ ८॥ 
विप्रतिषिद्धं तु भवति | अज्र न ज्ञायते केनाभिप्रायेण प्रसजति केन निवृत्ति 
करोतीति || 
न वा प्रसद्गसामय्यौदन्यत्र प्रतिषेधविषयात्‌ | ९॥ 


न व्रैष दोषः | किं कारणम्‌ । प्रसङ्गखामभ्यौत्‌ | प्रसङ्गसाम््याश्च विधि्म- 
विष्यव्यन्यत्र प्रतिषेधविषयात्‌ । प्रतिषेधसा मथ्य प्रतिषेधो भविष्यत्यन्यन्र विधि- 15 
विषयात्‌ |] तदेतत्क सिद्धं भवति | यापरापरे विभाषा | या हि प्राप्रे कृतसामथ्यैस्तत्र 
प्रेण विधिरेति कृस्त्रा प्रतिषेधस्यैव संप्रस्ययः स्थात्‌ | एतदपि सिद्धम्‌ । कथम्‌ | 
विभाषेति महती संज्ञा क्रियते । संज्ञा च नाम यतो न रुषीयः | कत एतत्‌ | 
रष्वर्थं॑हि संज्ञाकरणम्‌ | तत्र महत्याः संज्ञायाः करण एतत्प्रयोजनमुभयो 
संज्ञा यथा विज्ञायेत नेति-च वेति च | तत्र या तावदप्रातरे विभाषा त्र प्रतिषध्य 20 
नास्तीति कृत्वा वेत्यनेन विकल्पो भविध्यति | या हि प्राते विभाषा तत्रोभयमप- 
` स्थितं भवति नेति च वेति च | तत्र नेत्यनेन प्रतिषिद्धे वेत्यनेन विकल्पो भविष्य 
ति || एवमपि 


विधिप्रतिंषेधयोर्युगपद चनानुपपत्तिः | ९० ॥ 


` -विधिप्रतिषेधयोयुंगपदचनं नोपपद्यते । शुशाव शुशुवतुः. शुशुवुः । दिशाय 5 
शिश्वियतुः क्षिशिवुः । किं कारणम्‌ । 


* ६.९.१० 











१८५४ ॥ व्याकरगद्हाभाषयय ॥ [भम ९.१.६. 


भवतीति चेन्न प्रतिषेधः ॥ ९९ ॥ 
भवतीति चेततिषेषो न प्रामोति ॥ 


 भेतिचेन्न विधिः ॥ ९२॥ 
नेति चेदहिधिने सिध्यति ॥ 
5 | सिद तु पूर्वस्योग्षरेण वाधितत्वात्‌ ॥ ९६ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । पूषैविभिमु सरो विधिव धते | हतिकरणो ऽथेनिद जाथ 
इत्युक्तम्‌ ।। 
साष्वनुदासने ऽस्मिन्यस्य विभाषा तस्य साधुस्वम्‌ ॥ १४ ॥ 
साध्वनुशासने अस्मि उशाखे यस्य विभाषा क्रियते स विभाषा साधुः स्यात्‌ । 
. १० समासश्चैव हि विभाषा तेन समासस्यैव विभाषा साधुत्वं स्यात्‌ । अस्तु | यः साधुः 
स प्रयोश्यते ऽसाधुन प्रयोक्ष्यते | न चैव हि कदाचिद्राजपुरुष हइत्यस्यामषस्वावा- 
मसा धुस्वमिष्यते | अपि च 


देधाप्रतिपत्तिः ॥ ९५ ॥ 
हषं दामब्दानामप्रतिपत्तिः | इष्छामथ पुनर्विभाषाप्रदेशेषु हेधं शाब्दानां प्रतिपत्तिः 
15 स्यादिति तश्च न सिभ्यति || यस्य पुनः कायोः शाब्दा विभाषासौ समासं निवे- 
तयति | यस्यापि नित्याः शष्दास्स्याप्येष न दोषः | कथम्‌ | न विभाषाग्रहणेन 
साधुस्वमभिसंबध्यते | किं तर्द । समाससंज्ञाभिसंबध्यते | समास इत्येषा संश 
विभाषा भवतीति । व्यथा । मेध्यः पद्युर्विभाषितः | मेध्यो अनदान्विभावित इति । 
तैति नायैते ऽनङ्ा्चानङ्कानिति | किं ताईं । आलम्धव्यो नाकन्धव्य इति | 
90 कायै युगपदन्वाचययीगपद्यम्‌ ॥ ९६ ॥ 
कार्येषु शब्देषु युगपदन्वाचयेन च यदुच्यते तस्य युगपद्चनता प्राभोति | तव्य- 
सथ्यानीयरः [२.१.९६] इक्‌ च मण्डूकात्‌ [४.९.९९९] इति || यस्व पुरनार्निस्याः 
शाम्दाः भरयुक्तानामसौ सापुरषमन्वाचष्टे | ननु च यस्वापि कायोस्तस्वाप्येष न 
दोषः । कथम्‌ । प्रत्ययः परो भवतीत्युच्यते” न चैकस्याः परकृतेरनेकस्य॒पत्यय- 
2, स्य युगपत्परस्वेन संभवो अस्ति । नापि ब्रूमः परस्ययमाला प्रामोतीति | कि ताह | | 


[वकण कषप 





#३,९.३, 


पां०१.१.४४. ] ॥ व्यकरणमहाभाष्यय्‌ ॥ १९०५ 

क्यमिति प्रयोक्तव्ये युगपद्धितीयस्य तृतीयस्य च प्रयोगः प्रामोतीति | नैष दोषः | 
अषेगत्यर्धः शब्दप्रयोगः । अथे संप्रस्याययिष्याभीति शब्दः प्रयुज्यते | तत्रैकेन. 

क्तत्वात्स्यार्थस्य द्वितीयस्य प्रयोगेण न भवित्व्यमुक्ताथोनामप्रयोग इति ॥ 


आचार्यदेशशीलने च तद्विषयता ॥ ९७॥ 
आत्राचैरेशरीःलनेन यदुस्यते तस्य तदिषयता प्राप्रोति | इको हृस्वो ऽउन्यो ऽ 
 गारवस्य [६.३.६९] प्राचामवृद्धकिफिन्बहलम्‌ [४.९.१६०] इति गालवा एव 
ह्वान्यु स्नीरन्प्राकषु तैव हि भिन्स्यात्‌ । तथथा | जमदभिषो एतत्पश्चममव- 
रानमव्राधत्तस्मान्नाजामदम्यः प्चावत्तं जुहोति ॥ यस्य पुननिस्थाः रभ्वा गाल- 
वम्रहणं तस्य पजा देशयकणं च कीत्वैयेम्‌ ! ननु च यस्यापि कौस्तस्यापि पजा 
गारवम्रहणं स्यहेशापरहणं च कीत्यर्थम्‌ || ` ` - 10 
तत्कीर्तने च देधाप्रतिपत्तिः ॥ ९८ ॥ 
 तस्कीने च हषं शाब्दानामप्रतिपत्तिः स्यात्‌ | इष्डामथ पुनराचार्यमहणेषु देशाम- 
हणेषु च दषं शम्दानां प्रतिपत्तिः स्यादिति तञ्च न सिध्यति ॥ - 
अशिष्यो वा विदितत्वात्‌ ॥ ९९ ॥ . 
अशिष्यो वा पुनरयं. योगः | फ कारणम्‌ | विदितत्वात्‌ । यदनेन योगेन प्रा- 15 
ध्यते तस्यार्थ स्य त्रिदितस्वात्‌ | वे ऽपि येतां संज्ञां नारभन्ते ते ऽपि विभाष्य क्ते भनि- 
त्यखमत्र गच्छन्ति | याज्ञिकाः खल्वरापि संज्ञमनारभमाणा विभाषेत्युक्ते ऽतिव्यस्र- 
मवगच्छन्ति | तद्यथा । मेध्यः पश््विभाषितः । मेभ्यो ऽनङ्धान्विमाषित इति । भाल- 
ग्पष्यो नालब्धव्य इति गम्यते || आचायः खल्वपि संज्ञामारभमाणो भूविष्ठमन्यैरपि 
श्यैरेतमथे संप्रत्याययति । बहूलम्‌ अन्यतरस्याम्‌ उभयथा वा एकेषामिति || 2 


अपरमि त्रिस्त॑शायाः ॥ २० ॥ 
हत उत्तरं या विभाषा अनुक्रमिष्यामो ऽपरा वां द्रष्टव्याः | त्रिसंशयास्तु भवन्ति 
प्राप्ते पराप्र उभयत्र वेति ॥ 
इन्द्रे च विभाषा जसि [९.९.२१६] ॥। 
प्रापे पाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापि कथं त्रप्राप्रे कथं वोभयत्र | 2; 
उभयदम्दः सवौदिषु पद्यते तयपशायजादेराः क्रियते" तेन वा निव्ये प्राप्रे भ्न्यत्र 


- नना 





-----=--------~- ~~~ 





॥॥ ५.७ र 87) 
14 + 





९०६ ॥ ्याकरणपहाभाष्यसम्‌ ॥ ` म० ९.९.६. 


वाप्राप्त उभयत्र वेति । प्रापने | अयश्प्रत्ययान्तरम्‌ । यदि प्रत्ययान्तर मुभयीती- 
कारो नप्रामोति | मा भुदेवम्‌ | मात्रच इत्येवं भविष्यति* | कथम्‌ । मा्रजिति 
नेदं प्रस्यययहणम्‌ । किं तार । प्रत्याहार ग्रहणम्‌ । क संनिविष्टानां - प्रस्याहारः । 
मा्रदाम्दात्ममत्यायचधकारात्‌† । यदि प्रतव्याहारमहणं कति तिष्ठन्ति भश्रापि 

5 भरामोति | भत इति वतेते‡ । एवमपि तैलमात्रा घृतमाज्ा अत्रापि प्रभोति । सद्‌ - 
शास्याप्यसंनिविषटस्य न भविष्यति प्रत्याहारेण बहणम्‌ ॥ 


ऊर्णोर्विभाषा [५.२.३६] 


प्राने ऽप्राप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रप्त कथं वाप्राप्ति कथं वोभयन्न | 


असंयोगाद्धिट कित्‌ |१.२.९ | इति वा नित्ये प्राप्ते ऽन्यत्र वाप्राप्न उभवनत्र वेति । 
10 अप्राते || अन्यद्धि किन्वमन्यन्डिस्वम्‌ | 


एकं चेन्डित्कितो ॥ 
यद्येकं डिर्कितौ ततो ऽस्ति संदेहः | अथ हि नाना नास्ति संदेहः । यद्यपि 
नानैवमपि संदेहः । कथम्‌ । प्रौणवीति । स्वैधातुकमपित्‌ [१.२.४] इति वा 
नित्ये प्रति ऽन्यजर वाप्राप्र उभयन्न वेति । अप्राते ॥ 
15 विभाषोपयमने [५.२.९६] ॥ 
प्राप्ते ऽप्राप्न उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वापा कथं वोमयत्र | 


गन्धने [९.२.९९] इति वा निस्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र ढेति | अप्राते | 
गन्धन इति निवृसम्‌ | 


अनुपसगोद्रा [९.३.४३] 

2 प्रापे आप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्रापे कथं वोभयच्र । 
वृत्तिसगेतायनेषु क्रमः [९.३.३८] इति वा नित्ये प्राम ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र 
वेति | अप्राते | वृ ्यादिष्विति निवृत्तम्‌ ॥| 

विभाषा वृक्षमृगादीनाम्‌ [२.४.९२] ॥ 
प्राप्रे ऽपराप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रपि कथं वाप्राप्रे कथं वोभयत्र | 


25 जातिरप्राणिनाम्‌ |२.४.६| इति या नित्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयज्र वेति | 
भप्राप्ने | जातिर प्राणिनामिति निवृत्तम्‌ || 


#* ४.१.१९५. † ५.२.३७-४३. { ४.९.४, 





पा० १.९.४४. | ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम्‌ ॥। ९०७ 


उषविद जागृभ्यो ऽन्यतरस्याम्‌ [६.१.३८] ॥ 
प्राने ऽप्राप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्राप्रे कथं वोभयन्र | 
्रत्ययान्तादिति' वा नित्ये प्रपि ञन्यज्र वाभराप्र उभयन्न वेति | अप्रप्ि | प्रस्ययान्तां 
धात्वन्तराणि | 
दीपादीनां विभाषा [३.९.६१९ ॥ 5 
प्रते ऽपराप्र उभयत्र वेदि संदेष्ः | कथं च प्राप्रे कथं वाप्रत्नि कथं वोभयत्र | 
भावकमेणोः [३.१.६६] इति वा निस्ये प्रापने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयज्न वेति | 
प्राप्रे | कतैरीति हि वतेते | एवमपि संदेहो न्याय्ये वा कर्तरि कर्मक्मरि 
वेति | नास्ति सदेहः । सकर्मकस्य कतौ क्मवद्वत्यक्मैकाथ दीपादयः | 
अकर्मका अपि वै सोपसगौः सकर्मका भवन्ति | कमीपदिष्टा विधयः कर्मस्थभा- 10 
वकानां कममेस्थक्रियाणां वा भवन्ति कतृस्थभाव्रकाश्च दीपादयः ॥ 
विभाषाग्रेप्रथमपूर्वेषु [३.४.२४] ॥ 
प्रापे ऽराप्र उभयन्र वेति संदेहः । कथं च प्रप्र कथं षाप्राप्रि कथं वोभयन्र | 
भाभीश्ण्ये [३.४.२२] हति वा नित्ये प्राप्ने ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयनत्र वेति | अप्रा ॥ 
भाभीषण्य इति निवृत्तम्‌ || 15 
तृनादीनां विभाषा [६.२.१६९ | ॥ 
प्राप्रे ऽपाप्र उभयन्र वेति संदेहः | कथं च प्राते कथं वाप्राप्रे कथं वोभयन्र | 
भाक्रोश्े [६.२.१५८] हति वा नित्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्न उभयन्र वेति | भप्रापे | 
भा क्रोशा इति निवृत्तम्‌ ॥ 
एकहलादौ पूरयितव्ये अ्यतरस्याम्‌ [६.६.५९] ॥ 0 
रत्नि प्राप्न उभयत्र वेति संदेहः ¡ कथं च प्राप्रे कथं वाप्राप्े कथं वोभयन्र | 
उदकस्योदः संज्ञायाम्‌ [६.३.९७] इति वा नित्ये पर्ति <न्यन्र षापराप्त उभयत्र 
वेति । अप्राते | संज्ञायामिति निवृत्तम्‌ | 
ग्धादेरिजि पदान्तस्यान्यतरस्याम्‌ [७.३.८,९] ॥ 
परकि ऽपाप्न डभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्राप्ते कथं योभयन्र | 25 
इसीति या निस्ये प्रापने ऽन्य वापराप्र उभयत्र वेति | अप्रा । इति निवृ म्‌ | 





न ३.९.३५. . † ३.१.४८. 


९०८ ॥ व्वाकरणमरभष्यय्‌ ॥ ` "[म०९.१.६. 


सपूवोयाः परथमाया विभाषा [ ८.९.१६] ॥ 
प्राते ऽप्राप्र उभयत्र घेति संदेहः | कथं च प्रापने कथं वाप्रप्ति कथं .वोभयनत्र | 
चादिभिर्योय" इति वा नित्ये प्रपि ऽन्यन्न वाप्राप्र उभयत्र वेति | अप्राप्ते | चादि- 
भिर्योग इति निवृत्तम्‌ | 
& ग्रो यङ्धघचि विभाषा [८.२.२०,५९१| ॥ 
प्राप्रे ऽपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्रे कथं वाप्रात्नि कथं बवोभयत्र | 
यङीति वा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | अप्राप्ते | यङीति निवृत्तम्‌ | 
प्राम च ॥ ०९. 


` इत उन्तरं या विभाषा अनुक्रमिष्यामः प्रपते ता द्रष्टव्याः | न्रिसेक्चयास्तु 
10 भवन्ति प्राप्रे ऽपर. उभयत्र घेति ॥ 


विभाषा विभरलपि [९.६.५०] ॥ 
प्रपि ऽपाप्न उभयज्र वेति सदेहः | कथं च प्राप्ने कथं वाप्राते कथं बवोभयत्र । 


यन्तवाचाम्‌ [९.३. ४८] .हति वा नित्ये प्राप्न ऽन्यन्न वाप्राप्न उभयत्र वेति । प्रपर | 
्यक्तवाचाभिति हि वतेते | 


15 विभाषोपपदेन प्रतीयमाने [५.३.७७] ॥ | 


प्राते ऽपाप्र उभयन्न वेति संदेहः । कथं च प्राते कथं वप्रा कथं वोभयत्र | 
स्वरितञितः [९.३.७२] इति वा निस्ये प्राने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | प्रपर । 
स्वरितानित इति हि वतेते || 
तिरो =न्तर्धौ विभाषा कामि [९.४.७१,७२] ॥ 
20 प्राप्रे पराप्त उभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्राते कथं वापरापने कथं वोभय । 
अन्तधौविति वा निस्ये प्राते ऽन्यत्र वाप्राप् उभयत्र वेति | प्राते | अन्तर्पाकिति हि वते।। 
अधिरीश्वरे विभाषा इनि [१.४.९५७,९८] ॥ 


प्राति अपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राते कथं वापरापे कथं योभयज्र । 
हैश्र हति वा नित्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्त उभयत्र वेति | प्रापने | शर इति हि वसते ॥ 


यच्ििििहयाियोिििििेभयायययणयोदयाेिियिियायोकदोययाणयियनिकिधिय 








¶* ९.१.४४. ॥ ध्वाकरमयहाभाष्यङ्‌ | १९०९ 
दिवस्तदर्थस्य विभाषोपसर्गे [२.६.५८,५९]॥ 


प्रापे अप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्ते कथं वाप्रप्ति कथं वोभयन्र| 
तदथस्येति वा निव्ये प्राप्रे ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | प्रापे | तदर्थस्येति हि वतेते | 


उभयत्र च ॥ २ ॥ 


हत उत्तरं या विभाषा भनुक्रमिष्याम उभयत्र ता इष्ट्याः | तरिसंरायास्तु 5 
भवन्ति प्राप्रे ऽपराप्र उभयत्र वेति || - 


हकर रन्यतरस्याम्‌ [९.४.५६३ | ॥ 


प्राप्ने आप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्राप्ने कथं वाप्रात्रे कर्थं वोभयत्र | 
गतिबुद्धिमत्यवसानायं शम्दकमोकमेकाणाम्‌ [१.४.९२ | इति वा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र 
वाप्राप्र उभयत्र वेति । उमयनत्र | प्राप्ने तावत्‌ | भभ्यवहारयति स्ेन्धवान्‌ अभ्यव- 10 
हारयति सैन्धवैः | विकारयति वन्धवान्‌ विकारयति तैन्धतैः | अप्राते | इरति 
भारं देवदत्तः हारयति भारं देवदत्तम्‌ हारयति भारं देवदत्तेन | करोति कट 
देवदत्तः कारयति कटं देवदत्तम्‌ कारयति कटं देवदत्तेन || 


न यदि विभाषा साकद्धं [३.२.९१३,११४]॥ 


प्रापे मापन उभयश्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्रामे कथं वोभयत्र | 15 
यदीति वा नित्ये भाप ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र वेति | उभयत्र | भामे तावत्‌ | अभि- 
जानासि देवदत्त यत्कदमीरेषु वत्स्यामः । यत्करमीरेष्ववसाम । यनत्त्ीदनान्भो- 
कष्यामहे । यत्त्रीदनानमुञ्ज्महि । अप्राते | अभिजानाति देवदत्त करमीरान्गमि- 
प्यामः । करमीरानगच्छाम | तजरौदनान्मोशष्यामहे । तत्रौदनानभुञज्महि || 


विभाषा श्वेः [६.१.३०] ॥ 20 


पाने ऽपाप्र उभयत्र वेति संदेहः | कथं च प्रापे कथं वाप्रापे कथं वोभयनत्र | 
कितीति" वा नित्ये भाप ऽन्यत्र वामप उभयत्र वेति | उमयत्र | परते तावत्‌ । 
सुश्रुवतुः भुभुवः । शिश्वियतुः शिश्ियुः । अप्राप्ते । भुशाव भुशधिथ | शे्ाय 
शिश्वयिथ || 


~~~ ~~~ ~ ~ _ 
॥॥ ६ # १ [| 8 ५९ * 





१९१० ॥ व्याकरगमहाभाष्वम्‌ ॥ ` [म०९.१.६. 


विभाषा संघषास्वनाम्‌ [७.२.२८] ॥ 


संपुवोहुषेः प्राते ऽपर उभयत्र वेति संदेहः । कथं च प्रापने कथं वाप्रप्नि कथं 

बोभयत्र | घुषिरविशब्दने |७. २.२३ | इति वा नस्ये प्रापने ऽन्यत्र वाप्राप्र उभयत्र 

वेति | उभयत्र । प्रापे तावत्‌ । संबुष्टा रज्जुः संघुबिता रज्जुः । अप्राते । संपुषटं 

५ वाक्यम्‌ संधुषितं वाक्यम्‌ || भाङ्पुवोत्स्वनेः प्राने प्राप्न उभयत्र वेति संदेहः । 

कथं च प्रापे कथं वापरापने कथं कोभयज्र | मनसीति त्रा निस्ये प्रापे ऽन्यत्र वाप्राप् 

उभयत्र वेति । उभयत्र | प्राप्रे तावत्‌ । आस्वान्तं मनः आस्वनितं मनः । भप्राप्ने | 
भआस्वन्तो देवदतः आस्वनितो देवदत्त इति | 

इति शओरीमगवत्पतश्जकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य प्रथमे 

10 पादे षष्टमाद्धिकम्‌ ॥ 


8 7) 


# ७,२.९८, 














१।०९.१.४५. ] ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम्‌ ९९१ 


इग्यणः संप्रसारणम्‌ ॥ १ । १. । ४५९ ॥ 


किमियं वाक्यस्य संप्रसारणसंज्ञा क्रियते | इग्यण इत्येतदाक्यं संप्रसारणसंजं 
भवतीति | भहोस्विहणेस्य | इग्यो यणः स्थने वर्णः स संप्रसारणसंञ्नो भवतीति| 
कथात्र विदोषः | 
संप्रसारणसंज्ञायां वाक्यसंज्ञा चेहणेविभिः ॥ ९॥ 5 
संप्रसारणसंज्ञायां वास्यसंज्ञा चेदणेविधिने सिध्यति | संप्रसारणास्परः पूर्वो भवति" 
संप्रसारणस्य दीर्घो भवतीति | न हि वाक्यस्य संरसारणसं्ञायां सत्वामेष निर्देहय 
उपपद्यते नाप्येतयोः कार्वयोः संभवोऽस्ति ॥ भस्तु तर्हि वणेस्य | 


वर्णसंज्ञा चेन्निवृत्तिः || २॥ 
वणैसंज्ञा चेचधिर्वृत्तिन सिध्यति ध्वङः संप्रसारणम्‌ [६.९.१२] इति । स॒ एष 10 
हि तावदिग्दुलंभो यस्य संज्ञा क्रियते | अथापि कथंचिह्ठभ्येत केनासौ यणः स्थाने 
स्यात्‌ | अनेत्ैव द्यसौ व्यवस्थाप्यते | तदेतदितरेतरान्नयं भवति । इतरेतरान्रयाणि 
च कायोणि न प्रकल्पन्ते || 


विभक्तिविदोषनिरदरास्तु ज्ञापक उभयसंज्ञात्वस्य ॥ ३ ॥ 

यदयं विभक्तिविदेषर्भिरदां करोति संप्रसारणास्परः पूर्वो भवति संप्रसारणस्य 15 
दीर्घो भवति ष्यडः संप्रसारणमिति तेन ज्ञायत उभयोः संज्ञा भवतीति | यत्ता 
वदाह संप्रसारणात्परः पूर्वौ भवति सप्रसारणस्य दीषो भवरपीति तेन ज्ञायते वर्णस्य 
भवतीति | यदप्यह ष्यङः संप्रसौरणमिति तेन ज्ञायते वाक्यस्यापि संभ्षा भवतीति| 

अथवा पुनरस्तु वाक्यस्यैव । ननु चोक्तं संप्रसारणसंज्ञायां वाक्यसंज्ञा चेहणैवि- 
भिरिति । नैष दोषः | यथा काकाञ्नातः काकः इयेनाज्नातः इयेन एवं सप्रसा- 20 
रणाज्नातं संप्रसारणम्‌ । यत्तत्संमसारणाज्जातं संप्रसारणं तस्मात्परः पुर््ो भवति 
तस्य दीर्घो भवतीति ॥ अथवा दृदयन्ते हि वाक्येषु वाक्यैकदेरान्पयु्तनानाः पदेषु 
च पिकदेदान्‌ | वाक्येषु तावद्वाक्यैकदेशान्‌। प्रविहा पिण्डीम्‌ प्रविहा तपेणम्‌ | पदेषु 
पदेकदे शान्‌ । देवदत्तो दत्तः सत्यभामा भामेति | एवमिहापि संप्रसारणनिवैत्तात्सं- 
परसारणनिरवृन्तस्येस्येतस्य वाक्यस्यार्थे सं्रसारणास्संप्रसारणस्येत्येष वाक्नैकदे शः 25 


# ६.१.९०८. ` ‡ ६.३. १३९. 


१९२ ॥ व्याकरणपहाभोष्यश्ं ॥ [मण ९.९... 


प्रयुज्यते | तेन निवृत्तस्य विधिं विज्ञास्यामः | संभरसारणनिर्वृ सात्संभरसारणनिवै्तस्ये- ` 
ति || अथवाहाय॑ संप्रसारणात्परः "पूर्वो भवति संप्रसारणस्य दीर्घां भवतीति न 
च वाक्यस्य संप्रसारणंज्ञायां सत्यामेष निर्देश उपपन्नो नाप्येतयोः कार्ययोः संभ- 
बो अस्ति तत्न वचनाद विष्यति || 
$ अथवा पुनरस्तु वणस्य | ननु वोक्तं वणैसंज्ञा चेच्निवत्तिरिति | नेष दोष 
इतरेतराभ्रयमाश्रमेतद्योदितम्‌ । सवोणि वचेतरेतराभ्रयाण्येकस्वेन परिहतानि सिद्धं 
तु निस्यदाम्दत्वादिति' । नेदं बुल्यमन्धैरितरेतराभ्रयैः | न हि तन्न किंचिदुच्यते 
ऽस्य स्थाने य आकरिकारौकारा भाव्यन्ते ते वृद्धिसंज्ञा भवन्तीति | इह पुनरध्यत 
इग्यो यणः स्थाने वणैः स संप्रसारणसंजञो भवतीति || एवं तर्हिं भाविनीयं संज्ञा 
10 विज्ञास्यते | तद्यथा । कशित्कीचित्तन्तुवायमाह | भस्य सूत्रस्य शाटकं वयेति । स 
परयति यदि शाटको न वातव्यो ऽथ यातव्यो न शाटकः शाटको वातष्यथेति 
विप्रतिषिद्धम्‌ | भाविनी खल्वस्य संज्ञाभिप्रेता स मन्थे वातव्यो यस्मिन्ुते शाटक 
इर्येतद्धवतीति | एवमिहापि सं यणः स्थाने भवति यस्याभिनिवृत्तस्य संपरसारण- 
भिस्येषा संज्ञा भविष्यति ॥ अथवेजादियजादिप्रवृिशरैव हि रोके ठ्यते यजा- 
15 श्युपदे शास्विजादिनिवात्तिः प्रसक्ता | प्रयुश्जते च पुनर्लाका इष्टम्‌ उप्तमिति ] ते 
मन्यामहे ऽस्य यणः स्थान इममिकं प्रयु्ेत इति | तत्र तस्यासाप्वभिमतस्य 
शाजेण साधुत्व मवस्थाप्यते किति साधुभैवति डिति साधुभेषतीति। || 


आद्यन्ती टकिती ॥ ९. । १. । ४६ ॥ 


समासनिर्देशलो यं तश्र न ज्ञायते क भादिः को ऽन्त इति | वश्था | भजा- 
20 विधन देवदत्तयज्ञदल्तावित्युक्ते तत्र न ज्ञायते कस्याजा धनं कस्यावय इति । 
यद्यपि ताव्रह्योक एष्र दृष्टान्तो दृष्टान्तस्यापि पुरुषारम्भो निवतैको भवति | अस्ति 
चेह कशचित्पुरुष्रारम्भः । अस्तीत्याह | कः । संख्यातानुदेशो नामः || 
को पुन्टकितावाद्यन्तौ भवतः | भआगमावित्याह | युक्तं पुनयेक्षिस्येषु नाम शाब्दे - 
ष्वागमशासनं स्यान्न नित्येषु नाम शब्देषु कूटस्थैरतरिचारिमिर्ेर्भैभेवितव्यमनपायो- 
25 पजनविकारिभिः । आगम नामापूवः शब्दोपजनः | अथ गुक्तं यत्निव्येषु शब्दे 
ष्वादेशाः स्युः । वाढं युक्तम्‌ | शब्दान्तरेरिह भवितभ्यम्‌ | तन्न राब्दान्तराच्छ- 
ब्दान्तरस्य प्रतिपत्तिर्युक्ता | आरे शास्तर्हीमे भविष्यन्ययनागमकानां सागमकाः | 
` ५९.१९.१९. † ६.१.९५. = ‡ १,३.९० 





फण ९.९.४६.] ॥ ष्याकरभयरहाभाष्यम्‌ ॥ १९३ ` 


तत्कथम्‌ | संज्ञाधिकारोऽयम्‌ | आद्यन्तौ बे संकीर्त्यते टकारककाराचितावुदाहियेते| 
तश्राशन्तयोष्टकारककारावितौ संज्ञे भविष्यतः | तत्राषिधातुकस्येडरदेः [७.२.२९ 
इस्युपस्थितभिदं भवस्यादिरिति । तेनेकारादिरादेशो भविष्यति | एतावदिह सृत्रमि- 
डिति । कथं पुनरियता सृत्रेणेकारादिरादेशो ठभ्यः | ठभ्य इत्याह ।. कथम्‌ 
बहतरीहिनिर्देशात्‌ | बहृव्रीरिनिरशो ऽयम्‌ । इकार आदिरस्येति | यथपि तावदश्रैत -ऽ 
च्डक्यते वन्तुमिह कथं लुङ्लङःलडह्वडुदा्ः [ ६.४.७९] इति यत्राशक्यमुद्रा- 
तग्रहणेनाकारो विशेषयितुम्‌ । त्र को दोषः | भङ्गस्योदा्तस्वं प्रसज्येत | नैष 
दोषः | रिपदोऽयं बहूधीहिः । तश्र वाक्व एवोदास्षग्रहणेनाकारो विशेष्यते | 
अकार उदात भादिरस्येति | यत्र तदयनुवृ च्थैवदवत्याडजादीनाम्‌ [ ६.४.७२ | ` 
इति | बदेयव्येतत्‌ | अजादीन(मटा सिद्धमिति” | अथमा यत्ावदयं सामान्येन 10 
शकरोत्युपदेषटं तावदु पदिदाति प्रकृतिं ततो वलाद्याधेधातुकं ततः पथादिकारम्‌ | 
तेनायं त्रिरोषेण शब्दान्तरं समुदायं प्रतिपद्यते । तद्यथा । खदिरबुवुरयोः। खदिरवुर्षुरौ 
गौरकाण्डौ खकमपर्णी | ततः पथादाह कण्टक वान्खदिर हति | तेनासौ ` िश्षेषेण 
्रष्यान्तरं खमुदायं॑ प्रतिपद्यते || भथवैतयानुपुष्योयं शाष्दाम्तरमुपदिदहाति प्रकृतिं 
ततो बलाद्याषेधातुकं ततः पथादिकारं यरिमस्तस्यागमबुद्धिमंक्रति || ` 15 


टकितोराद्यन्तविधाने प्रत्ययप्रतिषेधः॥ ९॥ 
टकिलोरा्यन्तविधाने प्रस्ययस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | प्रस्यय आदिरन्तो वा मा 
भृत्‌ | चरेष्टः [ ३.२.१६ | आतो सुपस कः | द | इति || परव चनास्सिडम्‌ | 
पररवचनास्पस्यय आदिरन्तो घा न भविष्यति। | ` 
परव चनास्सिदधमिति चेन्नापवादस्वात्‌ ॥ २ ॥ 20 
परषचनास्सिद्धमिति चेतत | किं कारणम्‌| अपवारस्वात्‌ | अपवादो ऽयं योगः 
तद्यथा | भिद चो ऽन्स्यास्परः [९.१.४५७ इस्येष योगः स्थानेयोगत्वस्य! प्रत्ययपरस्व- 
स्थ चापवादः । विषम उपन्यासः | युक्तं तत्र यदनवकाशं मित्करणं स्थानेयोगस्वं 
्रस्यवपरस्वं च वाधत इह पुनरुभयं सावकाशम्‌ | को ऽवकाश्चः | टिस्करणस्या - 
वकादाः | टित इतीकारो यथा स्यात्‌$ | कित्करणस्यावकाडाः | कितीस्या- % 
कारकोपो यथा स्यात्‌| | प्रयोजनं नाम तहक्तव्यं यन्नियोगतः स्यात्‌ | यदि चायं 
नियोगतः परः स्यालत एतत्योजनं स्यात्‌ । कुतो नु खल्वेतिित्करणादयं परो 


# ६.४.७४. † २.९.२९. ‡ ९.९.४९. § ४,१.९५. || ६.४.६४. 
15 त 





१९४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य `  म०१९.९.. 


भविष्यति न पुनरादिरिति किर्करणाच्च परो भविष्यति न पुनरन्त इति । टितः 

खल्बय्येष परिषह्टारो यत्र नास्ति संभव्रो यत्परथ स्यादादिञ्च ¡ कितस्स्व्रपरिहारः। 

अस्ति हि संभवो यत्परश्च स्यादन्तथ | तत्र को रोषः | उपमर्गे धोः किः 

[३.३.९२ | । आध्योः प्रध्योः | नोङ्धात्वोः [६.१.९७९ | इति प्रतिषेधः 
४ प्रसज्येत | टितशाप्यपरिहारः । स्यादेव द्यं €टित्करणादादिने पुनः परः | क 

तर्हीदानीमिदं ॒स्याह्ित हकारो भवीति । य उभयवान्‌ । गापोष्टक्‌ | २.२.८| 

इति ॥ 

सिद्धं तु षष्ठ्यधिकारे वचनात्‌ ।| ३ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | प्ठचधिकरारे अयं योगः कतेव्यः | आयन्त टकितौ 
10 प्ठीनिर्दिषटप्येति | 


आद्यन्तयोर्वा षष्टयर्थत्वात्तदभावे ऽसंपत्ययः | ४ ॥ 
आब्यन्तयोबौ षष्ठद्य भेस्वासदभावे ष्ट्या अभावे ऽसंप्रत्ययः स्यात्‌ । आदिर- 
न्तो वा न भविष्यति || युक्तं पुनयैच्छब्दनिमिचको नामार्थः स्यान्नार्थनिभिन्तकेन 
भाम शाब्देन भवितव्यम्‌ । अर्थनिमित्तक एव शाब्दः । तत्कथम्‌ । आब्यन्तौ षष्ठ. 
16 थी | न चात्र वर्षी पदयामः | ते मन्यामह भद्यन्तावेवात्र न स्तस्तयोरभावे ष- 
क्यपि न भवतीति ॥ 


मिदचो ऽन्वयायरः ॥ १ । १ । 9७७ ॥ 
किमथेमिदमुच्यते । 


॥ि मिदचो ऽन्त्यात्परं इति स्थानपरप्रत्ययापवादः ॥ ९ ॥ 


20- मिदचो न्त्यात्पर इत्युच्यते स्थानेयोगत्वस्य प्रत्ययपरत्वस्य चापवादः* | स्था- 
नेयोगत्वस्य तावत्‌ । कुण्डानि वनानि । पयांसि यशांसि | प्रत्ययपरत्वस्य } भि- 
नत्ति गिनत्ति‡ | मवेदिदं युक्तमुदाहरणं कुण्डानि धनानि यत्न नासि संभवो यदव 
मचो -ञन्त्यात्पर थ स्यात्स्थाने चेति | इदं त्वयुक्तं पयांसि यशांसीति | अस्ति हि 
संभवोः यदचो ऽन्त्याखर ञ्च स्या्स्थाने च | एतदापि युक्तम्‌ । कथम्‌ | तेवेधर आाज्ञा- 


+ ९,९.४९;३.९.२, † ७,२.०२. ‡ ३.९.७४, 

















प° १.१.४०. ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥ ९९५ 


पयति नापि धर्महत्रक्राराः पडन्त्यपवादैरुत्सगा वाध्यन्तामिति | किं ताह | लोकि- 
को अयं दृष्टान्तः | लोके हि सत्यपि संभवे वाधनं भवति | तद्यथा | दधि ` ब्राह्म- 
नेभ्यो दीयतां तक्रं कौण्डिन्यायेति सत्यपि संभवे दधिदानस्य तक्रदानं निवर्तकं भ- 
वति | एवमिहापि सत्यपि संभवे ऽवामन्त्यात्परत्वं वष्टीस्थानेयोगत्वं बाधिष्यते || 


अन्स्यापपूर्वो मस्जेरनुषङ्कसंयोगादिकोपाथम्‌ ॥ २॥ $ 


भन्त्वालपूवौ मस्जेर्भ्क्तत्यः | किं प्रयोजनम्‌ । अनुषङ्गसंयोगादिलोपा्थम्‌ । 
अनुषङ्कलोपा्थ संयोगादिलोपे च | अनृषद्कलोप्ये तावत्‌ । ममः मवान्‌ | संयो- 
गादिलोपारथम्‌ । मङ्गा मङ्म्‌ मङ्कष्यम्‌ ।| 
भजिमर्च्योश्च ॥ ३ ॥ 


मिमर्व्योधान्त्यात्पर्वो मिहक्तव्यः | भरूजा मरीचय इति || स तर्हि वक्तष्यः | 10 
न वक्तव्यः । निपातनात्सिद्धम्‌ । कं निपातनम्‌ । भरूजाश्चभ्दो ऽङ्ल्यादिषु पद्यते 
मरोचिशष्दो बाहादिषु | 

किं पुनरयं पूवोन्त आहोस्वित्परादिराहोस्विदभक्तः । कर्थं चार्यं पवन्त 
स्यात्कथं वा परादिः कथं वाभक्तः | यद्यन्त इति वतेते ततः पूवोन्तः | भथादिरिति 
वतैते ततः परादिः | अथोभयं निवृत्तं ततो भक्तः | कथात्र विद्येषः | 15 


अभक्ते दीषैनरोपस्वरणस्वानुस्वाररीभावाः ।। ४ ॥ 


यद्यमक्तो दीषैत्वं न प्रामोति । कुण्डानि वनानि | नोपधायाः [६.४.७] सर्थ- 
नामस्थाने चासंबृडौ [८] इति दी्त्वं न प्रामोति । शेषै || नलोप | नलोप न 
तिष्यति | अभर त्री ते वाजिना श्री षधस्था | ताता पिण्डानाम्‌। | नलोपः प्राति- 
पदिकान्तस्य [८.२.७] इति नलोपो न प्रामोति । नलोप | स्वर | स्वरथ न 20 
विध्यति । सर्वाणि ज्योतीषि | सतेस्य उपि [६.९.१९९] हइन्याश्युदासस्वं॑न 
्राभोति | स्वर || णत्व | णत्वं च न सिध्यति | माषवापाणि व्रीहिवापाणि। 
पृवोन्ते प्रातिपदि कान्तनकारस्येति सिद्धम्‌ | परादौ विभक्तिनकरारस्येति | अभक्ते नुमो 
हणं कतेव्यम्‌ | न कतेव्यम्‌ | क्रियते न्यास एव | प्रतिपरिकान्तनुम्विभक्तिषु च 
[८.४.९९] हति । णत्व || अनुस्वार । अनुस्वार न सिध्यति | दिषंतपः परंतपः | ४४ 
मो अनुस्वारो हठीस्यनुस्वारो भन प्रामोति।मा भूदेवम्‌ | न्ापदान्तस्व ्षलि [८.३.२४ 


# ७.९.६०-६.४.२४८.२.२९. ¶ ६.९.७०, ‡ ६.३.६७. § ८.३.२१. 





१९६ ॥ व्याकरणयप्हाभाष्यत्‌ ॥ | | भ०९.९.५. 


इस्येव भाधिष्यति । यस्तर्हि न शअल्परः । वहंलिहो गौः । अश्रंलिहो वायुः । भनु- 
स्वार | शीभाव । हीभावश्च न सिध्यति | त्रपुणी जतुनी तुम्बुरुणीः | नपुंखका- 
दलरस्यौडःः दीभावो भवतीति" शीभावो न प्रामोति || एवं ताह परादिः करिष्यते | 


परादौ गुणवृ्यौत्वदीषंनलोपानुस्वारक्तीभावेनकारमतिषेधः ॥ ९॥ 


& यदि परादिगुणः प्रतिषेध्यः | ब्रपुणे जतुने तुग्बुरुणे । बेडिति [७.३.१११] 
इति गुणः प्राभोति । गुण ॥ वृद्धि । वृद्धिः प्रतिषेध्या | अतिसलखीनि ब्राह्मणकुलानि | 
सख्युरसंबुदौ [७.१.९१] इति णगिस््वे ऽचो न्णिति [७.२.९१५] ¦ इति वृद्धिः 
भामोति । वृदि ॥ ओव । जैस्वं च प्रतिषेध्यम्‌ । श्रपुणि जतुनि तुम्बुदणि | 
इदुख्यामोदश्च वेः [७.६.९९७-९१९] इत्यौरवं प्ाभोति । भौस्व || दीव । 

10 दीषैस्वं च न सिध्यति । कुण्डानि वनानि | नोपधायाः सर्वनामस्थान इति दीर्घत्वं 
न प्रामोति | मा मुदेवम्‌ । अतो शर्वो यञि पि च [७.३.९०९-१०२] इत्येष 
भविष्यति | इह तरि । अस्थीनि दधीनि भ्रियसखीनि ब्राह्मणकुलानि । दीष ॥ 
नलोप | नलोपश्च न सिध्यति । अमे श्री ते वाजिना त्री षधत्या | ताता पिण्डा 
नाम्‌ । नलोपः प्रातिपदिकान्तस्येति नलोपो न प्राति । नलोप | अनुस्वार । 
15 अनुस्वार न सिध्यति | हिषंवपः परेतपः | मो अनुस्वारो दलीत्वनुस्वारो न 
भामति । मा भूदेवम्‌ । नश्चापदान्तस्य श्चरीस्येवं भविष्यति । यस्तर्दि न ज्ल्परः| 
हलि गीः । अभ्र॑लिहो वायुः | अनुस्वार || शीभवेनकार प्रतिषेषः | शीभावे 
नकारस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्रपुणी जतुनी तुम्बुदणी । सनुम्कस्य हीमावः प्रा 
भति | वैष दोषः | निरदिरयमानस्यादे शा मवन्तीस्येवं न मविभ्यति | यस्ता निर्दिदयते 
20 तस्य न प्राभोति | कस्मात्‌ | नुमा व्वव्रहितत्वात्‌ || एवं तर्हि पृ वन्तः करिष्यते | 


पूवान्ते नपुंसकोपसजन स्वत्वं दिगुस्वरश्च ॥। ६ ॥ 
यदि पृवौन्तः करियते नपुंघठकोपसजेनहस्वत्वं ्िगुस्वर थ न सिध्यति । नपुंसको- 


पलजैनहस्वत्वम्‌ । भारारालिणी धानाशष्कुलिनी | निष्कौशाम्बिनी निवोराणसिनी1। 
दिगुस्वरः। पञ्चारलिनी दशारलिनीः । नुमि कृतेऽनन्स्यत्वादेते विधयो न प्ापुवन्ति | 


% | न वा बहिरङ्गलक्षणस्वात्‌ ॥ ७॥ 
न चैष दोषः | किं कारणम्‌ | बहिरङ्गलस्षणस्वात्‌। बहिरङ्गो नुमन्तरद्भन एते 


# ७.१५, १९; ७. ¶† ०.९. ह; ९,,२.४७-४८. | ‡ ७,९. ७३; ६,२.२९. 


क०९.९.४८. ] ॥ व्थोकरभममहायोव्यय्‌ | ९१९७ 


विषयः । असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥ हिगुस्षरे मुयान्परिहारः । संषातभक्तो 
घौ नोत्सहते ऽवयवस्येगन्ततां विहम्तुमिति कत्वा हिगुस्वरो भविष्यति || 


एच दग्सखदेो ।॥ १. । २. । ७८ ॥ 
किमयोभिदमुच्यते | 
एव इक्सवणोकारनिवत््यथम्‌ | ९ ॥ ९ 

एच इग्भवतीर्युध्यते संवणैनिवुस्यर्थमकारनिवृस्यथे च । सवणैनिवृस्यथै ता - 
षत्‌ | एडो हस्व शासनेष्वषे एकारो ऽषे ओकारो वा मा भूदिति | भकारनिवृ- 
स्ये च | इमात्रैचौ समाहारवर्णौ | मात्रावणेस्य मात्रेवर्णोवणयोः | वयोहैस्व- 
शासनेषु कदाचिदवणैः स्यात्कदाविदिवर्णोवर्णी | मा कदाचिदषणे भूदिष्येवम्थमिद- 
मृश्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ । किं वर्हीति । रीषेपरसङ्गः | रीषास्स्िविकः प्राभु- 10 
बन्ति | किं कारणम्‌ | स्थानेऽन्तरतमो भवतीति" | ननु च हस्वारेश इस्युच्यते 
तेन दीषौ न भविष्यन्ति | विषया्थमेतत्स्यात्‌ । एचो हस्वपरसङ्ग इग्भवतीति | 

दीषोपसङ्गस्तु निवर्तकत्वात्‌ ॥ २ ॥ | 

दीषोणां स्विकामप्रसङ्गः । किं कारणम्‌ । निवतैकल्वात्‌ | नानेनेके नि्स्यन्ते | 
कि तर्हि | भनिको निवस्येन्ते | सिद्धा शत्र स्वा हकर्थानिकथ तत्रनिनानिको 1 
निवर्त्यन्ते || ` | | 

सवणेनिवु्यर्थेन तावन्नायेः | 

सिदमेढः सस्थानत्वात्‌ ॥ ३ ॥ | 

सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | एङः सस्थानव्वादिकारोकारौ मविष्यतो ऽप एकारो ऽप 
ओकारो षा न भविष्यति | ननु बैड सस्थानतरावर्धैकारार्षीकारौ | न तौ स्वः | 20 
यदि हि तौ स्यातां ताभेवायमुपरिशेत्‌ । ननु च भोग्न्दोगानां सास्यमुभ्रराणायनीगा 
भवेमेकारमभमोकारं चाधीयते | जाते ए अश्नृते । अध्वर्यो ओ अद्धिभिः 


छतम्‌ । शुक्रं ते ए अन्यथजतं ते ए अन्यदिति । पा्षदकृतिरेषा तत्रभवतां त्रैव 
लेके नान्यस्मिन्येदे ऽध एकारो ऽध ओकारो वास्ति || भकोरनियस्वर्थैनापि नाथः 


मै १६० ६. ५०. 


९१८ ॥ व्वोकरणमहाभष्ययप ॥ (मण ९.९.अ. 
टेखोश्वोत्तरभुयस्त्वात्‌ ॥ ४ ॥ 


रेचोधोत्तरभूयस्स्वादवर्णो न भविष्यति । भूयसी मात्रेवर्णोवणयोरल्पीयस्य- 
बणेस्य | भूयस एव म्रहणानि भविष्यन्ति | तद्यथा | ब्रा्मण्राम आनी यता- 
मित्युच्यते तत्र घावरतः प॑श्चकारूकी भवति ॥ 


६ षष्ठ स्थानेयोगा ॥ ९ । १ । ७९. ॥ 


किमिदं स्थानेयोगेति | स्थाने योगो ऽस्याः सेयं स्थानेयोगा | सप्म्यलोगे निपा- 
तनात्‌ ॥| तृतीयाया धैस्वम्‌ । स्थानेन योगो ऽस्याः सेयं स्थानेयोगा ॥| 
किमथे पुनरिदमुच्यते । 


षष्ठाः स्थानेयोगवचनं नियमाथम्‌ ॥ ९ ॥ 


10 नियमार्थो ऽयमारम्भः | एकदातं षषटयथ यावन्तो षा ते सर्वै षष्ठयामुश्चारि- 
तायां प्रा्ुवन्ति | इष्यते च व्याकरणे या षष्ठी सा स्थानेयोधैव स्यादिति तथा- 
न्तरेण यलं न सिध्यतीति षष्ठयाः स्थानेयोगवचनं नियमथेम्‌ | एवमथेभिरमु- 
ष्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ । किं तर्हीति | 


अवयवषष्टथादिष्वतिभसङ्गः गासो गोह इति ॥ २ ॥ 
15 अभवयवभष्यादयस्तु न सिध्यन्ति । त्र कों दोषः | शास इदङ्हलोः [३.४.३४] 
इति रासेान्त्यस्य स्यादुपधामात्रस्य च । रदुपधाया गोहः [६.४.८९] इति 
गोहेशान्त्यस्य स्यादुपधामात्रस्य च || 


 अवयवभष्टयादीनां चामाभियौगस्यासंदिग्धस्वात्‌ ॥ ३ ॥ 


अवयवषषयादीनां च नियमस्याप्राप्निः । किं कारणम्‌ | योगस्यासंदिग्भत्वात्‌। 

90 संदेहे नियमो न चावयवषष्ठयादिषु संदेहः । किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथम- 

नुष्यमान गंस्यते | लौकिको ऽयं॑दृष्टान्तः ¡ तद्यथा. । लोके कंचित्कधिस्छख्छति 

म्रामान्तरं गमिष्यामि पन्थानं मे भवानुपदिश्लिति । स तस्मा भाचष्टे | अमुष्मि 

वकाश हस्तदक्षिणो प्रहीतव्यो अमुष्मिन्नवकाशे हस्तवाम इति | यस्तत्र तियैक्पथो 

भवति न तस्मिन्संदे् इति कृत्वा नासावुपदिदयते | एवमिहापि संदेहे नियमो न 
25 चावयवषष्चयादिषु संदेहः ॥ 


फण १.१.४९. | ॥ व्याकरगग्रहमिष्यय ॥ १९९. 


अथवा स्थाने ऽयोगा स्थानेयोगा । किमिदमयोगेति । अष्यक्तयो गायोगा ॥ 
भथवा योगवती योगा । को वुनर्योगवती | यस्या बहवो योगाः | कुत एतत्‌ । 
भृति हि मतुम्भवति ॥ 

विशिष्टा वा षष्ठी स्थानेयोगा ॥ ४॥ 

भथवा किंचििङ्गमासज्य वश्यामी्त्थलिङ्गा षष्ठी स्थानेयोगा भवतीति | न 5 
च तदि ङ्गमवयवषश्ठच्यादिषु करिष्यते || यद्येवं रास हदङ्हलोः शा है [६.४.२३९] 
दासिन्रहणं कतेव्यं स्थानेयोगा लिङ्ग मासङ्क्यामीति | न कतैव्यम्‌ | यदेवादः 
पुरस्तादवयवषश्ययं प्रकृतमेतदु त्तर त्रानुवृत्तं सत्स्थानेयोगाये भविष्यति । कथम्‌ । 
अधिकारो नाम त्रिप्रकारः कथिदेकदेशास्थः सवै शाखमभिज्वलयति यथा प्रदीपः 
इवपरज्वरितः सर्वं वेरयाभिज्वलयति | अपरो अधिकारो यथा रज्ज्यायसा वा बर 0 
काष्ठ मनुकृष्यते तद्द नुकृष्यते चकारेण । अपरो ऽधिकारः प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ 
इति योगे योग उपतिशते | तद्यरैष पक्षो अधिकारः प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ इति 
तदा हि यदेवादः पुरस्तादइवयवषष्यथेमेतदु सरघ्रानुवृ्ं सस्स्थानेयोगार्थ भवि- 
प्यति | संपरस्ययमत्रमेतद्भवति । न धनुधाये शब्दं लि ङ्ग दाक्यमासङ््‌म्‌ । एवं तद्या - 
देशे तलिङ्खः करिष्यते तत्पमकृतिमास्कन्त्स्यति || 18 

यदि नियमः क्रियते यत्रैका षषटयनेकं च विभ्वं तत्र न सिध्यति | अङ्गस्य 
हलः भणः संप्रसारणस्येति। | हलपि विशेष्यो ऽणपि विक्ष्य संप्रसारणमपि 
विरोभ्यम्‌ । भखति पुनरिमे कामचार एकया ष्टयानेकं विशेषयितुम्‌ । 
तद्यथा । देवदत्तस्य पुत्रः पाणिः कम्बल इति | तस्मात्रार्थो नियमेन | ननु चोक्तमे- 
कशतं ष्ठ्यथौ यावन्तो वा ते स्वे षष्ठ्ामुश्वारितायां प्रामुवन्तीति | शरैष दोषः | 0 
यथपि लोके बहवो अभिसंबन्धा आथां यौना मौखाः लौवाश्च शाब्दस्य तु राष्देन 
को ऽन्यो भिसंबन्धो भवितु महैत्यन्यदतः स्थानात्‌ | शब्दस्यापि राब्देनानन्तरा- 
रयो अभिसं बन्धाः । भस्तेभूमेवतीतिः संदेहः स्थाने ऽनन्तरे समीप इति | सदेह- 
मातरमेतद्भवति सवेस्दिहेषु चेदमुपतिष्ठते व्याख्यानतो धिदोषप्रतिपत्तिम हि सरेहा- 
रक्षणमिति । स्थान इति व्याख्यास्यामः || न तर्शदानीमयं योगो वक्तव्यः | 8 
वष्कव्य्च | किं भयोजनम्‌ । वषठयन्तं स्थानेन यथा युज्येत यतः षष्ुखा- 
रिता । किं कृतं भवति | निर्रिदयमानस्यादेशा भवन्पीस्येषा परिभाषा न कतैष्यां 
भवति ॥ 


# ९.२.९४१, † ६.४.६२; ६.२.१९१; ९३९. २.४.५३. 








६२१० ॥ व्याकर्णयहभिष्यम ॥ | [म० ९.९.५, 


स्थानेऽन्तरतमः ॥ १ ।१।५०॥ 


किमुदाहरणम्‌ | इको यणचि [ ६.९.७७ || दध्यज्न | मध्वत्र | ताठुस्थानस्य 
तालुस्थान ओ्टस्थानस्वौषठस्यानो यथा स्यात्‌ । तरैतदस्ति | संखू्यातानुदे शेनाव्येत- 
स्सिडम्‌* | इदं तरिं | तस्थस्थमिपां ताम्तम्तामः [ ३.४.९०९ ] इत्येकाथेस्थैकाथी 
व्यवस्य व्यर्थो बहथस्य बह््था यथ स्यात्‌ | ननु तरैतदपि संख्यातानुदे ेतैव सिद्धम्‌| 
हदं तरि । अकः सवर्णे दीषैः [६.१.१०९] इति दण्डाम्‌ क्षपाम्‌ दधीन्द्रः मधृषट 
इति कण्ठस्थानयोः कण्ठस्थानस्तालुस्थानयोस्तालुस्थान गोष्ठस्थानयोरोष्ठस्थानो य्था 
स्थादिति || अथ स्थान इति वतेमाने पुनः स्थानग्रहणं कमथम्‌ | यत्रानेकविध- 
मान्तमै तञ्च स्थानत एवान्तयै बलीयो यथा स्यात्‌ | किं पुनस्तत्‌ | चेता स्तोता | 
10 प्रमाणतो ऽकारो गुणः प्राभोति स्थानत एकारौकारौ | पुनः स्थानब्रहणादेकारौका- 
रौ मवतः || अथ तमन्द्रह्णं किमथेम्‌ | यो हो ऽन्यतरस्याम्‌ [ ८.४.६२ | इस्वत्र 
सोष्मणः सोष्माण इति द्वितीयाः प्रसक्ता नादवतो नादवन्त इति तृतीयाः | तम- 
भ्रहणाथे सोष्माणो मादवन्त्च ते भवन्ति चतुथौः | वाग्घसति श्रष्टुम्मसतीति | 
किमथे पुनरिदमुष्यते | | 

25 स्थानिन एकस्वनिर्देशादनेकादेदानिर्देशाच्च सवेपरसङ्गस्तस्मास्स्थाने 

ऽन्तरतमवचनम्‌ ।। ९ ॥ 
स्थान्येकस्मेन निर्दिरयते | अक इति । अनेकश्च पुनरादेशः प्रतिनिर्दिरयते । दीषै 
हति । स्थानिन एकत्वनिर्देशाश्नेकादेशनिर्देशचाञ्च सवैप्रसङ्गः । सर्वे सर्वत्र प्रापु 
वन्ति | इष्ते चान्तरतमा एव स्युरिति तच्चान्तरेण यलं न सिध्यति तस्मास्स्था- 
20 नेऽन्तरल्षम इति वचनं नियमाथेम्‌ | एवमथेमिदमुष्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ । 
किं तर्हीति | 

यथा पुनरियमन्तरतमनियततिः सा किं प्रकृतितो भवति | स्थानिन्यन्तरतमे षी- 
लि | आहोस्विदादेशतः | स्याने प्राप्यमाणानामन्तरतम अदेद्यो भवतीति | कुतः 
पुनरियं विचारणा । उभयथापि तुल्या संहिता | स्थाने ऽन्तरतम उर्रषर इति ॥ 
2६ किं चातः | यदि प्रकृतित इको यणचि [ ६.९.७७ | वणां ये ऽम्तरतमा इक- 
सश्र ष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात्‌ । दध्यज्र मध्वत्र । कुमाभच् 
अहयवन्ध्व्थामित्यत्र म स्यात्‌ | आदेशहातः पुनरन्तरतमनिवौ सस्वां सचैश्र षी 


€ 


# १.३.९०. 





१६० ९.१.५०. | ॥ व्याकरणमहाभाव्यम्‌ ॥ १२९ 


वत्र पष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र सिद्धं भवति || तथेकी गुणवृद्धी [१.१.३] 
गुणवृ्योर्ये ऽन्तरतमा हकस्तश्र ष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात्‌ | 
नेवा रविता नायकः लावकः | चेता स्तोता चायकः स्ताव क इत्यत्र न स्यात्‌ | आदे- 
दातः पुनरन्तरतमनिर्युत्तौ स्यां सर्वत्र षष्ठी यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र 
सिद्ध भवति || तथा कऋवणेस्य गुणवृदिप्रसङ्गे गणय द्धो यैदन्तर तममुवणै तत्र 
पष्ठी यत्र षी तत्रादेशा भवन्तीतीहैव स्यात्‌ | कतौ इतौ आस्तारकः निपारकः। 
भस्तरितः निपरिता कारकः दार्क ह्यत्र न स्यात्‌ | अदिक्तः पुनरन्तरतम- 
न्तो खत्यां सर्वेत्र ष्ठी यत्र पष्ठी तत्रादेशा भवन्तीति सर्वत्र सिद्धं भवति ॥ 
अथादेदातो ऽन्तरतमनिवै त्त सत्यामय॑ दोषः | वान्तो वि प्रत्यये [६.९.७९] | 
स्थानिनिर्दे्ाः कतेव्यः | ओकारौक्रारयोरिति वक्तभ्यम्‌ | एकारैक(र योमौ भूदिति । 10 
कृतितः पुनरन्तरतमनिरवत्तैः सत्यां षान्तददे शस्थेश्ु यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र षष्ठी 
वत्र पष्ठी वत्रदेश्ा भवन्ती व्यन्तरेण स्थानिनिर्ददं सिद्धं भवति । आदेशतो ऽप्य- 
म्तरतमनित तौ सत्यां न दोषः । कथम्‌ | ान्तप्रह्णं न करिष्यते | यि प्रत्यय 
एचो ऽयादयौ भव्रन्तीष्येव | यादि न क्रियते चेयम्‌ जेयमिस्यत्रापि प्रामोति | 
शषय्यजय्वौ शश्व [६.१.८९] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । सिज्येरे पच इति | 15 
तयोस्तर्हि शाक्याथीदम्यत्रापिं परामोति | क्षिय पापंम्‌ जेयो वृषल ` इति' | उभयतो 
निवमो विश्वस्यते | क्षिज्योरेतरैचः | अनयो शक्यार्थ एवैति | इहापि तरि 
नियमान्न प्राप्रोति }। कव्यम्‌ पव्यम्‌ | भवदयलाव्यम्‌ अवरेयपाव्यभिति | 
तुल्यजातीयस्य नियमः | कथ तुल्यजातीयः } यथाजातीयकः क्षिज्योरेच्‌ | कथं- 
जातीयकः किज्योरेच्‌ । एकारः | एवमपि रायमिच्छति हेयति अत्रापि भरुपोति | 0 
रायिदछान्दसो दृष्टानुविधिरश्न्दसि भवति || उ्दुपभाया गोदः [६.४.८९] | 
आदेकतो ऽन्तरतमनि् सौ सस्यामुपधाग्रहणं कर्तभ्यम्‌ | प्रकृतितः पुनरन्तरतमनिर्ै्तौ 
सत्यामुकारस्य गोदो यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र धी. यत्र षष्ठी तत्रादेशा भवन्ती - 
त्वन्तरेणोपधाम्रहणं सिद्धं भवति | भदेदातो ऽप्यन्तरतमनिवृ्तौ सत्यां न. दोषः | 
क्रियत एतञ्यास एव || रदाभ्यां निष्ठातो नः पू्वैस्य च दः [८.२.४२ ] | आदे- 5 
शतो -ऽन्तरतमनिर्व्तौ सस्यां तकार पणं कर्तष्यम्‌ | प्रकृतितः पुनरन्तरतमनिर्बु चौ 
सत्यां नकारस्य निष्ठायां यान्तरतमा प्रकृतिस्तत्र पक्षी यत्र षष्ठी तश्रादेश्रा भवन्ती - 
व्यन्तरेण तकार ब्रहणं द्धं भवति | आदेहातो ऽप्यन्तैरतमनिर्वृततौ सस्यां न दोषः | 


क्रियत एतन्यास एव | 
16 


५ | । 


१२२ ॥ ध्याकरणपहाभाष्यय्‌ ॥  - [म०९.९.५, 


किं पनरिदं निर्वतैकम्‌ | अन्तरतमा अनेन निवैस्ैन्ते | आहोस्वित्पमतिषाद कम्‌ | 
अन्येन निवृ्तानामनेन प्रतिपत्तिः | कथात्र विरोषः | 


स्थनेऽन्तरतमनि्व॑त॑के स्थानिनिवृत्तिः ॥ २॥ 


स्थानेऽम्तरतमनिवतंके सवेस्थानिनां निवृत्तिः प्रामोति | भस्यापि प्रामोति | 

5 दाधि मधु | अस्तु | न कथिदन्य आदेशः प्रतिमिर्दिहयते तश्रान्तयेतो दधिशब्दस्य 

दधिशाब्द एव मधुशब्दस्य मधु शाब्द एवादेशो भविष्यति | यदि चैवं कचिदैरूप्यं 

तत्र दोषः स्यात्‌ | बिसं बिलम्‌ मुसलं मुसरमिति । इण्कोरिति षत्वं प्रामोति* || 

अपि चेष्टा व्यवस्था न प्रकल्येत | तद्यथा ते ्रष्टे तिलाः क्षिप्रा मुहूतेमपि नाव~ 

तिष्ठन्त एवमिमे वणौ मुहतैमपि नावतिष्ठेरन्‌ || अस्तु ताईं प्रतिपादकम्‌ | अन्येन 
10 निव्तानामनेन प्रसिप्तिः | 


निवत्तपरतिपन्ती निवृतिः || ३ ॥ 


निर्वृ लप्रतिपलतौ नि्वैत्तिने सिभ्यति | सर्वे सर्वत्र ्ामुवन्ति | किं तदयुच्यते नि ~ 

वत्ति सिध्यतीति | न साधीयो निवृत्तिः सिद्धा भवति | न ब्रूमो निवृत्ति िध्य- 

तीति | किं तर्हि | इष्टा व्यवस्था न प्रकल्पेत | न सर्वे सवत्रेष्यन्ते || इदमिदानीं 
15 किमथे स्यात्‌ | 


अनर्थकं च ॥ ४ ॥ 
अन्थैकमेतस्स्यात्‌ । यो हि भुष्कवन्तं त्ुयान्मा भुक्था इति किं तेन कृतं स्यात्‌ ॥ 


१ 


उक्तं वा|| ९॥ 


किम्॒म्‌ | सिद्धं तु षक्ष्यधिकारे वचनादिति † | षछ्थधिकरि ऽयं योगः 
20 कतैष्वः | स्थाने ऽन्तरतमः षष्ठीरनिरिषटस्येति ॥ 


प्रव्यात्मवयनं ख || ६.॥ 


प्रस्यास्माभिति च वक्तव्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ । यो यस्यान्तरतमः स तस्व 
स्थाने यश्य स्यादन्यस्यान्तरतमो ऽन्यस्य स्थाने मा भूरिति ॥ | 
* ८३.५७, ५९, † \..१ ^ 


॥ 





प° १.१.५०. | ॥ व्थौकरणम्हामाष्यय ॥ ९२१ 


परस्यात्मवचनमरिष्यं स्वभावसिद्त्वात्‌ । ७ ॥ 
परस्यारमवचनमशिष्यम्‌ । कं कारणम्‌ | स्वभाव्रसिडधस्वात्‌ | स्वभावत पएत- 
स्सिद्धम्‌ । तद्यथा । समाजेषु समाशेषु समवायेषु चास्य ताभित्युक्ते न चोच्यते प्र- 
त्यारममिति प्रत्यात्मं चासते || 


अन्तरतमववनं च ॥ ८ ॥ | $ 

कन्तरतमवचनं चाशेष्यम्‌ | योगथाप्थयमाशिष्यः `| कुतः | स्वषभावसिदत्था- 
देव । तद्यथा । समाजेषु समाशेषु समवायेषु चास्यतामिस्युकते तैव कृदाः कृशैः 
सहासते न पाण्डवः पाण्डुभिः | येषामेव किंचिदयैकृत माम्बयै तेरेव सशंसते || तथ 
गावो दिवसं चरितवस्यो यो यस्याः प्रसवो भवति तेन सह शेरते `] तथा यान्ये- 
तानि गोयुक्तकानि संघुष्टकानि भवन्ति तान्यन्योन्यं परयन्ति शाथ्दं कूुषैन्ति || एषं 10 
तावैेतनावत्छ | अवरेतनेष्यपि | तथथा | जोष्टः ल्िपो बाहवेगं गस्वा तैव तियै- 
ग्ग्छति नो्षमरोहति पृथिवीविकारः पृथिवीमेव गच्डत्यान्तयैतः | तथा या एता 
आन्तरिक्यः खश्मा आपस्तासां तिकारो धूमः स आकाङ्रादेदो निवाते तैव तिये- 
ग्मच्छति नावागवरोहत्यभ्विकारो ऽप एव गच्छत्यान्तयेतः | तथा ज्योतिषो 
विकारो अर्विराकारदेशे निवाते छमज्वकितो त्रैव तियैग्गच्डति नावागव्ररोहति 15; ` 
ज्योतिषो धिकारो ज्योतिरेव गच्छत्थान्तयेतः ॥ 

व्यञ्जनस्वरष्यतिक्रमे च तत्कालप्रसङ्‌ः || ९ ।| 

व्यञ्ज्जनव्वविक्रमे स्वररत्यतिक्रमे च तत्कालता प्रामोति । व्यस्जनव्यतिक्रमे | 
इष्टम्‌ उपरम्‌ । आन्तर्यतो ऽधैमात्रिकस्य व्यस््रनस्यार्धमातिक हक्पामोति | नैक 
लोकेन च वेदे ऽप्रमात्रिक इगस्ति | कस्तर्हि | माज्निकः | यो ऽस्ति स भविष्यति || 20 
स्वरव्यतिक्रमे | दध्यत्र मध्वत्र कुमायेत्र बरह्मबन्ध्वथेमिति | अन्ततो मान्ैकस्य 
हिमाजिकस्येको मत्रिको ह्िमान्निको वाः यण्प्रापरोति || नैव रोके न च वेदे मात्रिको 
हिमाज्निको वा यणस्ति । कस्त । अषमान्िकः | यो ऽस्ति स भविष्यति || 


अक्षु चानेकवणोदेोषु ।। ९० ॥ , 


अक्षु चानेकवणौरेरोषु तस्कारता प्राप्रोति । इदम हश [५.३.२३] । आन्तमैतो 2४ 
ऽर्षतृतीयसाभ्रस्येदमः स्थाने ऽधैतृतीयमात्रमिकणे प्राप्रोति } नैष दोषः | भाव्यमानेन 
 खवणोनां प्रहणं नेव्यवं न भविष्यति | 


१२४ ॥ व्याकरष्यहाभाष्यप्‌ ॥ ` [मण १.१.५. 


गुणवृदेज्णावेषु च ॥ ९९ ॥। ` 

गुणवृ ज्मविषु च तत्कालता प्रामोति । खटा इन्द्रः खद्नद्रः । द्रा उदकं खद 

दकम्‌ | खदु हेषा खद्रेषा | खटा ऊढा खद्रोढा | खदा एलका खदटटैलका । 
खट्रा ओदनः खङ्लौदनः | खटा रेतिकायनः खदटतिकायनः | खदा ओपगवः 
$ खदटटौपयव इति । आन्तयेतल्िमाज्रेचतुमोत्राणां स्थानिनां त्रिमात्रचतुमाज्रा आदेशाः 
्रामुवन्ति ॥ वरेष रोषः | तपरे गुणवृद्धी । ननु च तः परो यस्मास्सो ऽवं तपरः । 
नेत्याह } तादपि परस्तपरः | वदि तादपि परस्तपर शटदोरप्‌ [ ३.३.५७ ] इहैव 
स्यात्‌ | यथः स्तवः | ठवः पत्र इत्यत्र न स्यात्‌ । नैष तकारः | कस्तर्हि | 
दकारः | किं दकारे प्रयोजनम्‌ | अथ कि तकारे | यदथसदेहाथेस्तकारो दकारो 
10 ऽवि | अथ मुख लाथेस्सकारो दकारो ऽपि || एञ्भावे* |. कुवोते कुवोये । ान्तयेतो 


ऽधेतृ तीयमांत्रस्य टिसं्ञकस्यार्धलृतीयमात्र एः प्राभोति || नैव रोके न च वेदे ऽप- 
त तीयमान एरस्ि || 


ऋवर्णस्य गाणवृद्धिमसङ्गे सवंभसङ्गो ऽविदोषात्‌ ॥। ९२ ॥ 
 ऋवणैस्य गुणवृदधिप्सङ्गे सर्वप्रसङ्गः । सर्वै गुणवृद्धिसंश्ञका कऋवणेस्य स्थाने 
15 भ्राप्ुवन्ति | किं कारणम्‌ | भविश्षोषात्‌ | न हि कथिद्विश्ोष उपादीयत एवंजाती - 
यको गृणवृदिसंज्ञक वणेस्य स्थाने भवतीति | अनुपादीयमाने विरोषे सवेभसङ्गः|। 
न व ऋव्णंस्य स्थाने रपरप्रसङ्गदवणस्यान्तर्यम्‌ ।। ९६ ॥ 
न वैष दोषः | किं कारणम्‌ | ऋवणैस्य स्थाने रपरप्रसङ्गात्‌ । उः स्थाने ऽण्‌ 
प्रसज्यमान एव रपरो भवतीस्युच्यते† तक्र श्वणैस्यान्तयेतो रेफवतो रेफवानकार 
20 एवान्तरतमो भवति ॥ 
सर्वादेशापरसङ्गस्त्वनेकाल्स्वात्‌ ।। ९४ ॥ 
सवौदेरास्तु गुणवृदधिसंशषकं ऋवणैस्य प्रामोति । किं कारणम्‌ । भनेकास्स्वात्‌ | 
अनेकाल्दरन्सषेस्य [९.१.५९९] इति ॥ 


न वानेकाल्स्वस्य तदाश्रयव्वादृवणदेरास्याविषातः ॥ १५ ॥ 


पा १.१.५१. ] ॥ ध्याकरणयहाभाष्यय्‌ः॥ १२५ 


तदानेकाल्‌ | अनेकाल्त्वस्य तदाश्च वस्वादृवणोदेहास्य विषातो न भविष्यति | अयवा- 
नान्तवमेतैतयोरान्स्यम्‌ । एकस्याप्यन्तरतमा प्रकृतिनौस्त्यपर स्याच्यन्तरतम आदेशो 
नासि | एतदेवैतयोरन्तयेम्‌ ॥ ` | 


संप्रयोगो वा न्टाशदग्धरथवत्‌ ॥ ९६ ॥।. 
भथवा नष्टाश्वदग्धरथवस्संभरयोगो भवति | तदथथा | तवाश्चो नष्टो ममापि $ 
रथो दग्ध उमो संमबुञ्यावक्ा इति | एवमिहापि तवाप्यन्तरतमा प्रकृतिनोस्ति 
ममाप्यन्तरतम आदेशो नास्स्यस्तु नौ संप्रयोग इति | विषम उपन्यासः | तेतना- 
वस्स्वथासकरणाहया ठीके संप्रयोगो भवति वणौश्च पुनरचेतनास्तत्र किंङृषः 
संप्रयोगः । यद्यपि वर्णो अचेतना  यस्त्वसौ प्रयुङ्के स चेतनावान्‌ ॥ 
एजवणेयोरादेदो व्ण स्थानिनो ऽवणेमधानत्वात्‌ ॥ ९७ ॥ 10 
एजवणेयोरादेशे अवर्ण प्रभोति । ख्टैलका मालौपगवः | किं कारणम्‌ | स्थानिनो 
भमर धानत्वात्‌ | स्थानी धत्राधणैत्रधानः | | 
सिद्धं तूमयान्तयांत्‌ ॥ ९८ ॥ 


तिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | उभवोर्यो ऽन्तरतमस्तेन भावितन्बं न॒ चाबणमुभयोर- 
न्तरतमम्‌ ॥ - -  .,,  -“ 18 


उरष्पपरः ॥ १ ।२ ।५१ ॥ 


` किमिदमुर प्रपर वचनमन्यनिधृषहययेम्‌ | उ, स्थाने ऽणेव भवति रपरथेति | आहो- 
स्विद्र परस्वमनेन विधीयते । डः स्थाने ऽण्चनण्व अण्तु रपर इति । कथात 
विशेषः | 


उरणपरवचनमन्यनिवृच्यथं चेदुदाचादिषुं दोषः ॥ ९॥ 20 


उर प्रपरवचनमन्यनिवृस्यथं चेदुदालादिषु दोषो भवति । के पुमरुदात्तादयः। 
उदान्तानुदान्तस्वरि तौनुनासिकाः | कृतिः हतिः" | कतम्‌ हतम्‌। | प्रकृतम्‌ प्रह- 
तम । तः पाहि९ । भसु तयः स्थाने ऽण्चानण्ब भण्तु रपर इति । 


# ६.२.६९४, + १.१.३; ६.१.९५८. ‡ ६.२.४९; ६.९.९५८; ८.४.६६. $ ८,४.९०; २. 





१९६ ॥ भ्याकरणकहामाष्यय्‌ ॥ ` [म०९.९.५ 


य उः स्थाने स रपर इति चेदुणवृद्योरवनो तिपः ॥ २ ॥ 


य रः स्थाने स रपर इति चेद्कुणवुग्योरवर्णस्याप्रतिपत्तिः | कतां हतौ वा- 
मन्यः | किं हि साधीय ऋवणैस्वासवणे यदवणे स्याच्च पुनरेडवौ | पूर्यैस्मिच्तपि 
पक्ष एष दोषः । किं हि साधीयस्तत्राप्यवणेस्यासव्णे यदवे स्याच्च यपुनरिवर्ण 

$ वर्णी । अथ मतमेतदुः स्थाने ऽणथानणथ्च प्रसङ्धे गेव भवति रपरथेति तिरा 
पुवैस्मिन्पक्षे ऽवर्णस्य प्रतिपत्तिः । यन्तु तदुक्तमुदालादिषु दोषो भवतीतीह स रोषो 
जायते | न जायते ¡ जायते स दोषः | कथम्‌ । उदात्त इत्यनेनाणो पि 
परतिनिर्दिश्यन्ते ऽनणो अपि | यद्यपि प्रतिनिर्दिदयन्ते न तु प्रापुवन्ति । किं कारणम्‌| 
स्थाने ऽम्तरतमो भवतीति । कुतो नु खल्वेतह्योः परिभाषयोः साबकाञ्चयोः 
10 समवस्थितयोः स्थाने अन्तरतम हइत्युर पर इति च स्थने ऽन्तरतम इत्वनबा 
परिभाषया व्यवस्था भविष्यति न पुनरुरभरपर इति । अतः किम्‌ । अत एष दोषो 
जयत ददान्तादिषु दोष हति || ये चाप्येत श्रवणस्य स्थाने प्रतिपदमादेशा उच्यन्ते 
तेषु रपरस्वं न प्रामोति । ऋत इद्धातोः [७.९.९० ०] उदोष्ठश्चपवैस्य [१०२] इति ॥ 


सिद्धं तु प्रसङ्गे रपरस्वात्‌ ॥ ३ ।। 


15 सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । प्रसङ्गे रपरत्वात्‌ । उः स्थाने ऽष्पसज्यमान एव रपरो 
भवतीति । किं वक्कव्वमेतत्‌ | न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते | स्थान इति बतेते 
स्थानशब्दथ प्रसज्जगवाची | यथेवमादेडो विरोधिता भवति | आदेश्च विदशेषितः 
कथम्‌ | हितीयं स्थानम्रहणं प्रकृतमनुवतैते तत्ैश्रममिसंबन्धः करिष्यते | उः स्थाने 
स्थान इति । डः प्रसङ्गे प्रसज्यमान एव रपरो भवति || 

20 अथाण््रहण किमर्थे न ऊ रपर हस्येवोष्येव | ऊ रपर इतीयत्युच्यमाने क 
इदानीं रपरः स्यात्‌ | य उः स्थाने भवति | फथोः स्थाने भवति । भादेशुः | 


आदेशो रपर इति येद्रीरिविधिषु रपरमतिषेधः ॥ ४ ॥ 
अआदेश्यो रपर इति चेदरीरिविधिषु रपरस्वस्य प्रतिषेधो वव्यः | के पूना 
रीरिविधयः | अकङलोपानडनडरीररिड देशाः अकडः | सौधातकिः1 } लोपः 
४४ वैषृष्वतेयः‡ | भानर्‌ । होकपोतारौ$ । भन्‌ | कतौ इता ¶ । रीर. | मात्रीवति 
पिश्रीबलि** | शिः | क्रियते हियते†1 ॥ । 


| । ~ # 
# । 


पा०. ६.९.५१. | ॥ व्याकरनग्रहामाष्यम्‌ ॥ १२ॐ 


., उदान्तादिषु च ॥ ९ ॥ 
किम्‌ | रपरत्थस्व प्रतिषेधो वक्तव्वः | कृतिः इतिः | कृतम्‌ इतम्‌ | प्रकृतम्‌ 
प्रहतम्‌ | नः पाहि | तस्मादण्प्रदणं कतेम्वम्‌ ॥। 


` एकादेशास्योपसंस्यानम्‌ । ६ ॥ 
एकादेश स्योपसं स्वान कतेव्यम्‌ । खदटूरयेः माठदयेः" | किं पुनः कारणं न 5 
विध्यति | उः स्थाने ्पसज्यमान एव रपरो भवतीस्युष्वते म॒ चायमुरेव स्थाने 
ऽण्डिष्यते | किं तरि । उधाम्यस्य च | अषयवप्रहनास्सिदडधम्‌ | वद्र ऋवण तदा- 
श्रयं रपरत्वं भविष्यति | तद्यथा | माषा न भोक्तव्या हस्युक्ते मिश्रा अपिन भुज्यन्ते | 


अवयवग्रहणास्सिडमिति चेदादेदो रान्तप्रातिषेधः ॥ ७ ॥ 


अवयवग्रहणास्सिडमिति चेदादेशे रान्तस्य प्रतिषेधो वक्ष्यः | होतापोतासै। | 10 
यथेवोथान्यस्य च स्थाने ऽपरो भवस्वेवं य ङः स्याने ऽ्वानण्व सो अपि 
रपरः स्वात्‌ ॥ यदि पुनर्वणोन्तस्व स्थानिनो रपरस्वमुध्येत । खट्द्यः माल्यैः | 
तरैवं शक्वम्‌ [ इड हि दोषः स्यात्‌ । कतौ हतौ | किरति गिरति‡ । ऋवणान्तस्मे- 
ववुस्यते न वैतदृवणान्तम्‌ । ननु चैतदपि व्यपदेशिषङ्गावेन ऋषणौन्तम्‌ | अर्थैवता 
व्यपदेशिवद्भावो न चेषो ऽथेवान्‌ । तस्मान्नैवं शाक्यम्‌ || न वेदेवमुपसंख्यानं कते - 15 
व्वम्‌ | इह च रपरल्वस्य प्रतिषेधो वक्तष्यः । मातुः पितुरिति$ || उभय॑ न 
वक्कव्यम्‌ । कथम्‌ | इह यो इयोः षष्ठीनिर्दिष्टयोः प्रसङ्गे भवति लमतते ऽसावम्ब- 
तरतो व्यपदेशम्‌ | तथथा । देवदत्तस्य पुत्रः देवदत्तायाः पुत्र इति || कथं मातुः 
पितुरिति | भस्स्वत्र रपरस्वम्‌ | का शूपसिदिः | रात्सस्य [ ८.२.२४ | इति 
सकारस्य लोपो रेफस्य विसर्जनीय ः¶ | नैवं शाक्यम्‌ | इह हि मातुः करोति 20 
पितुः करोतीत्यपस्ययाविसजेनीयस्येति षस्वं॑प्रसज्येत**| अमरत्ययविसनीवस्ये- 
स्वुख्वते प्रस्ययविसजैनीयथायम्‌ | लुप्यते त्र प्रस्ययो रात्सस्येति | एवं वर्हि 
भरातुष्पुत्र्हणं ज्ञापकमेकादेशानिमितास्पस्वप्रतिषिधस्य1 | यदयं कस्कादिषु श्रातु- 
्यत्रहाष्दं पठति तज्जापयस्याचार्वो तैकादेदानिमिन्तास्यत्वं भवतीति ॥ 


कि पुनरव॑ पृत्रान्त आहोस्वित्परादिराहोस्विदभक्तः | कथं चायं पूत्रौन्तः 25 


= ६.९.८७. ¶ ९.३.२५. { ०३.८४; ०.९.९००. § ९.९. ९१ ८२. ९९ ८३. ९५; ६.१.९९९. 
¶ ८.१.९५. ** ८.३.४९. 1 ८.३.४६५. 


९९८ ॥ व्याकरनमराभाष्यम्‌ ॥  (अण९.९.. 


स्यात्कथं वा परादिः कथं वाभक्तः । यद्यन्त इति वतेते" ततः पुवान्तः । भया- 
दिरिति वतेते ततः प्रादिः | अथोभयं निवृत्तं ततो ऽमक्तः | कथात्र विशेषः | 


अभक्ते दीषरस्वयगमयस्तस्वरह रादिरोषविसजजंनीय प्रतिषेधः प्रत्यया- 
ध्यवस्था च || ८ ॥ 


5 यद्थभक्तो दी्ैत्थं म प्रामोति | गीः पूः† | रेफवकारान्तस्य धातोरिति दीषैत्वं 
न प्रामोति। किं पुनः कारणं रेफवकाराभ्यां धातुर्थिरोभ्यते न पुनः पदं विशेष्यते 
रेफवकारान्तस्य पदस्येति । वैवं शक्यम्‌ | इहापि प्रसज्येत । अमि्वीयुरिति | एवं 
तर्हि रेफथकाराभ्यां पदं विशोषयिष्यामो धातुनेकम्‌ रेफवकारान्तस्य पदस्येको 
धातोरिति | एवमपि प्रियं भामणि क्ुलमेस्य भ्रियमरामणिः प्रियसेनानिः अत्रापि 

10 प्राति । तस्मादधातुरेव विशेष्यते धातौ च धिशेभ्यमाण इह दीधेत्वं न प्रभोति | 
गीः पुः | दीधे || रत्व | कत्व च न सिध्यति | निजेगिल्यते | भो याड [८.२.२० | 
इति लत्वं नं प्राप्रीति || तेष दोषः | प इस्यनन्तरयोभेषा षष्टी | ९एषमवपि स्वर्ज- 
गिल्यत इत्यज्रापि प्रामोति | एवं सरि यडानन्तथै विदोषयिष्यामः † अथवा भ इति 
पथ्चमी | रत्व || यक्स्वर । यक्स्वर न ध्यति | गीथेते स्व्यमेव | पूथेते 

15 स्वयमेव | भवः करतैयकि [६.१.१९९] इत्येष स्वरो न प्रभोति रेफेण 
व्यवहितत्वात्‌ ॥ वैष दोषः । स्वरवि पौ व्य्ञनमविथमानवदिति नालि व्यवधानम्‌ [*. | 
यक्स्वर || अभ्यस्तस्वर .|.भभ्यस्तस्वरश्च न तिध्यति | माहि स्म ते पिपसः । 
माहिस्मते बिभरः$ | भभ्यस्तानामादिश्दात्ती भवत्यजादौ लेसापैधातुक्¶ 
इत्येष स्वरो न प्रामोति रेफेण प्यवदितत्वात्‌ ॥ तरैष दोषः । स्वरविपौ व्वश्ञेनम- 

20 विष्यमानवदिति नासि व्यवधानम्‌ | भभ्यस्तस्वरं ॥ दलादिरेष । `दलादे- 
रोषं न सिध्यति! ववृते ववृधे" | भभ्यासस्येति हलादिशोषो न प्रामोति†1। हलादि-' 
शेष ॥ विसंजेनीय | विसजनी यस्य च प्रतिषेषो वक्तव्यः | नाकुटः नार्पत्यः } 

+ खरबसानयोर्धिसजनीयः [८.३.९९] इति विंसजैनीयः प्राप्रोति । बिसजनीय || 
प्रत्ययाव्यवस्था च | प्रस्यये भ्यवस्था न प्रकल्पते [| किरतः गिरतः | रेफो ऽप्यम्तः 
 परस्ययोऽपि तत्र व्यवस्था न प्रकल्पते || एवं तरह पृवौन्तः करिष्यते | 


पूर्वान्त वैवधारणं विसजनी यपतिभेभो यक्स्वरश्च ॥ ९ ।। 
यदि पूवौन्तो रोरवधारणं कतेष्यम्‌ । रोः छेपि [८.३.९६] | रोरेव ऋषि 


*९.९.४६. †७,९.९००;.९०द्‌, ‡{८.२.७६.. §७.३.८३. ¶६.१.९८९. **०.४.६६. †1१७.४.२०. 





पर ९.१.५९. ॥ ्याकरणपहाभाष्वप । ` १२९ 


नान्यस्य रेफस्य । सर्पिष्षु धनुष्पु । इह मा मृत्‌ । गीषु पुष || परादपि सस्य 
वधारणं कतैव्यं चतुर्षविव्येव मथेम्‌ || विसजैनीयप्रतिषेधः | विसजेनीयस्य च प्रति- 
षैषो वक्तव्यः | नाकटः नापेत्यः | खरवसानयोर्विंसजेनीयः [८.३.१९] इति 
विसजजनीयः प्रामोति || परादावपि विसजनीयस्य प्रतिषेधो वक्तव्यो नार्कल्मपिरि- 
त्येवम्थम्‌ | कल्पिपदसंघातभक्तो ऽसौ नोत्सहते ऽवयवस्य पदान्ततां विहन्तुमिति $ 
कृत्वा विसजेनीयः प्रापोति || थक्स्वरः | यक्स्वरथ न सिध्यति | गीयते स्वयमेव |. 
पूयने स्वयमेव । अचः कर्तृयकि [६.९.१९९] इत्येष स्वरो न प्रभोति || नैष 
दोषः | उपदेशा इति यतेते" || अथवा पुनरस्तु परादिः । 
परादावकारलोपीत्वपुक्पतिषेधश्ङ्युपधाहूस्वत्वभिटो व्व्यवस्याभ्याश्षलोपो 
ऽभ्यस्ततादिस्वरो दीर्घत्वं च ॥ ९० ॥ .. , 10 
यदि परादिरकारलोपः प्रतिषेध्यः ¡ कतौ हतौ | अतो लोप आधधासुकर1 इत्य- 
कारलोपः प्राप्रोति || नैष दोषः | उपरेदा इति वतते | वद्युपदेशा इतिं . वतैते 
धिनुंतः कृणुतः§ अत्र लोपो न प्राभोति । नोपदे शाभहणेन प्रकृतिरभिसर॑ बध्यते । कि 
तर्हि । आधधातुकमभिसंबध्यते । भआधधातुकोपदेशे यदकारान्तमिति । अकार- 
रोप || ओत्व | ओत्वं च प्रतिषेध्यम्‌ | चकार जहार | आत भौ णलः [७.९.३४] 15 
इस्वौत्वं परामोति | तेष दोषः | निर्दिरयमानस्यादेशा भवन्तीत्येवं न॒ भविष्यति । 
यस्ता निर्दिरयते तस्य कस्मान्न भवति | रेफेण व्यवहितत्वात्‌ | ओर्व | पृक 
तिषेधः | पुक्‌ च प्रतिषेध्यः | कारयति हारयति | आतां पुगिति¶ पुक्पाभोति | 
पुक्परतिषेधः || चडन्युपधाहृस्वत्वम्‌ | चडन्युपधाृस्वत्वं च न सिध्यति | अचीक- 
रत्‌ अजीहरत्‌ | णौ चडुपधाया हस्वः [७.४.१९] इति हस्वस्वं न ॒प्रामोति | 20 
चडनयुपधाहृस्वत्वम्‌ || इटो ऽयवस्था | इटश्च व्यवस्था न प्रकल्पते | आस्तरिता 
निपरिता । इडपि परादी रेफोऽपि । तंत्र व्यवस्था नं प्रकल्पते | इटो ऽव्यवस्था || 
अभ्यासलोपः | अभ्यासलोपश्च ब्कव्यः | ववृते ववृधे [ अभ्यासस्येति हलादि- .. 
शोषो न प्रामोति** | अभ्यासलोपः | अभ्यस्तस्वर | अभ्यस्तस्वर न सिध्यति । 
मारहिस्मते पिषर्ः | माहि स्म ते बिभरः | अभ्यस्तानामादिरुदान्तो भवस्य 25 
जादौ लसार्वधातुक11† इल्येष स्वरो न प्रामोति । अभ्यस्तस्वर ।| तारिस्वरः | 
तादिस्वर न सिध्यति | प्रकतौ प्रकरतूम्‌ | प्रहतौ प्रहतुंम्‌ { तादौ च निति कृस्यतौ 
[६.२.९०] इत्येष स्वरो न प्राभोति || नैष दोषः | उक्तमेतत्‌ । कृदुपदेशे 


+ ६.१.९८६. † ६.४.४८. { ६.४.३०, § ३.९.८०. भू ०.२.१६. +^ ०.४.६०. 11 ६.९.९८९. 
17 ४ 





९३० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥।.  1[ मन ९.१९. 


छम ताश्थयमिडवेमिति* | तादिस्वरः ॥ दीषैत्वम्‌ । दीघत्वं च च सिध्यति | गीः 
पुः | रेफवकारान्तस्य धातोरिति! दीषेस्वं न प्राभोति ॥। 


लो ऽन्यस्य ॥ १ । १५ । ५२ ॥ 


किमिदमल्पहणमन्त्यविहेषणमाहोस्विदादेदाविदेषणम्‌ | क चात :| यद्यन्ल- 

६ विश्चेषणमारेश्षो ऽवि दोषितो भवति | तत्र को दोषः | अनेकारुप्यदि सो ऽन्त्यस्य प्रष- 

ज्येव || यदि पुनरलन्त्यस्येत्युच्येत । तत्रायमप्यथी ेकाल्शिस्सवेस्य [१.१.९९ 

हव्येतश्न वक्तव्यं भवति | इदः नियमार्थं भविष्यति | अले वान्स्यस्य भवति नान्य 

` इति | एवमप्यन्त्यो विशेषितो भवति | तत्र को दोषः | बाक्यघ्यापि पदस्याप्य- 

न्त्यस्य प्रसज्येत |] यदि खत्वप्येषो ऽभिप्रयस्तश्च क्रियेतेत्यन्स्यविदोषणे अपि सति 

10 वच करिष्यते | कथम्‌ | डङचालो <न्त्यस्येव्येतन्नियमाथै भविष्यति! | डिदेवाने 
कारुन्व्यस्य भवति नान्य इति || ` 


किमर्थं पूनरिदमच्यते | 

अरो =्त्यस्येति स्याने विज्ञातस्यानुसंहारः ॥ ९ ॥ 
भलो =न्त्यस्यरत्यु च्यते स्थाने विज्ञातस्यानुसंहारः क्रियते स्याने प्रसक्तस्य ॥ 
15 इतरथा क्यनिष्टप्रसङ्गः | २॥ 


इतरथा द्यनिष्टं प्रसज्येत । टिक्किन्मितो ऽप्यन्त्यस्य स्युः || यदि पुनरषं 
` योगरेषो विज्ञायेत | ` 


 योगरेषे च || ३ 
किम्‌ । अनिष्टं प्रसज्येत | टिष्किन्मितो ऽप्यन्त्यस्य स्युः | तस्मास्ष्ुस्यते 
20 ऽलो ऽन्त्यस्येति स्थनिं विज्ञातस्यानुसंहार इतरथा श्याने्टप्रसद्गः इति ॥ 


डिश्च ॥ १ । १. । ५२ ॥ 


तातङन्त्यंस्य स्थाने कस्मान्न भषति | नसिश्चालो जन्त्यस्येति प्रामरोति । 


६.२.५०५. { ८.२.७५. , +१,१.५६. , § *-१.३.९. 


फ" १,९१.९ -५५. ]  ॥ व्याकट्णमहाभाष्यम्‌ ॥ १३१ 


तातङि .डिस्करणस्य सावकारात्वाद्विपतिषेधात्सवंदिशः ॥ १ ॥ . ` 

तातङि डित्करणं सावकडाम्‌ | कोऽत्रकाशः | गुणवृद्धिभतिषे धार्थो ङकारः * | 

तातङि डिस्करणस्य सावकाशात्वाद्विमतिषेधास्त्वादेरो भविष्यति || प्रयोजनं नेम 

तदक्त्यं यक्नियोगतः स्यात्‌ । यदि चायं नियोगतः सवादेशः स्यात्तत एतत्मयो- 
जनं स्यात्‌ | कुतो नु खल्ेतन्डित्करणादयं सव्रौदेशो भविष्यति न पुनरन्त्यस्य स्या - 

दिति || एवं तर््तदेव ज्ञापयति न तातडनन्त्यस्य स्थाने भवतीति यदेतं @डितं क- 

रोति | इतरथा हि लोट एरप्रकरण; एव त्रुयत्तिधोस्तादाशिभ्यन्यतरस्यामिति ॥ 


अदेः परस्य ॥ १. । १. । ५४ ॥ 


अलोऽन््यस्यदिः परस्यानेकाल्ास्सर्वस्येत्यपवादविपतिपेधात्सवदेदाः॥९॥ 

अलोऽन्त्यस्येस्युरतगेः | तस्यदिः परस्यानेकाल्शित्सवैस्येस्यपवादौ | भपवा - 19 
दविप्रतिषेधात्तु सवोदेशो भविष्यति । आदेः प्ररस्येत्यस्यावकाश्चः | व्यन्तरुपसर्गे- 
भ्यो ऽप हत्‌ [ ६.३.९७ | दीपम्‌ अन्तरीपम्‌ | अनेकाल्दिस्सवैस्येत्यस्याव - 
काराः | अस्तेभुः [ २.४.९२ ] भविता भवितुम्‌ | इहोभयं प्रामोति | अतो भिस 
एस्‌ [ ७.१.९ || अनेकाटिशस्सवस्येस्येतद्धवति विप्रतिषेधेन || शिस्सर्वस्येत्यस्या- 
वकाः | इदम हश्‌ | ९.३.२३ | इतः इह । आदेः परस्वेत्यस्यावकषिः | स 15 
एव | इहोभयं प्रामोति । अष्टाभ्य ओग [ ७.१.२९ | । हित्सवेस्येत्येतद् वति वि - 
परतिषेपेन ॥ 


अनेकाटिशिस्सवेस्य ॥ १. । १. । ५५ ॥ 


शित्सर्वस्येति किमुदाहरणम्‌ | हदम हश [९.३.२३] हतः इह | वैतदति प्रयोज. 
नम्‌ | शिस्करणदेवान्र सवोदेश्ो भविष्यति | इदं तरि | अष्टाभ्य ओक [७.१.२९ || 20 
ननु चाश्रापि शित्करणादेव सवीदेशो भविष्यति | इदं वार्ह | जसः शी 
[७.९.९७] | जदशासोः शोः [२०|| ननु चत्रापि शित्करणादेव सवदे शो भवि- 
ष्यति | अस्त्यन्यद्शत्करणे प्रयोजनम्‌ | किम्‌ । विदोषणथः | क्र विशेषणार्थं - 
नार्थः} हि सर्वनामस्थानम्‌ [ १.९.४२ | विभाषा डिदयोः | ६.४.१३६ | इति| 


क १,,१..५., ॥॥ ३ 1 क ८ ६, 


९३२ ॥ व्याकरणप्हाभाष्यम ॥ [मण १.९. 


श्चित्सवेस्येति शक्यमकनम्‌। कथम्‌ | अन्त्यस्यायं स्थाने भवन्न प्रत्ययः स्यात्‌ । 
असत्यां प्रत्ययसंज्ञायामिस्संश्ञा न स्यात्‌ ¡ असत्यामित्संज्नायां लोपो न स्यात्‌ | असति 
लोपे जेकाल्‌ | यदानेकाल्तदा सवादेशः | यदा स वौदेश्चस्तदा प्रत्ययः | यदा 
प्रत्ययस्तदेत्संज्ञा* | यदेत्संत्ञा तद। लोपः || एवं तरिं सिद्धे सति यच्दात्सर्वस्येत्याह 

5 तज्ज्ञापयत्याचार्यो ऽस्त्येषा परिभाषा नानुबन्धकृतमनेकाल्त्वं भवतीति | किमेतस्य 
ज्ञापने प्रयोजनम्‌ । तत्रासरूपसवादे शादाप्परतिषेषेषु पथच्क निर्देशो ऽनाकारान्तत्वा- 
दित्थुक्तं* तच्च वक्तव्यं भवतीति | 


इति शभगवत्पतश्ङिविरनिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमत्याध्यायस्य प्रथमे 
पदे सप्रममादहिकम्‌ ॥ 


~~ ~ -~- 





# १.३.८. † ९.३.९.  { ९.३.९.* 


१५ ९.१.५६. | ॥ उ्यव्छरषद्छटाभस्यम ॥ १ददे 


, स्थानिवदादेशो ऽबव्विधो .॥। १. । १ । ५६ ॥ 

वत्करणं किमर्थम्‌ | स्थान्यादेशो ऽनल्विधावितीयद्युच्यमाने संज्ञाभिकारो अयं 
ततर स्थान्यादेशस्य संज्ञा स्यात्‌ । तत्र को दोषः | आङो यमहन आत्मनेपदं मव- 
तीति* वपेरेव स्यादन्ते्म स्यात्‌ | वत्करणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | स्था- | 
निकाय मादेशो ऽतिदिदयते गुरुवहुरुपुत्र इति यथा | भथादे शम्रहणं किमर्थम्‌ | स्थामि- 
बदनल्विधावितीयस्युच्यमाने क इदानीं स्थानिवत्स्यात्‌ | यः स्थाने भवति | कथ 
स्थाने मवति | अदेशः | इदं तर्हिं प्रयोजनमदेदामात्रं स्थानिवद्यथा स्यात्‌ । एकदे - 
राविकृतस्योपसंख्यानं चोदयिभ्यति† तन्न वक्तव्यं भवति ॥ भथ विधि्रहणं किम- 
थेम्‌ | सवैविभक्तयन्तः समासो यथा विज्ञायेत । अलः प्रस्य विधिरल्विधिः | अलो 
विधिरल्विधिः । अलि विधिरल्विधिः | अला धिधिरल्विधिरिति | तरैतदस्ति प्रयो- 10 
जनम्‌ । प्रातिपदिकनिर्देशो ऽयम्‌ । प्रातिपरिकनिरे शाथार्थतन्ता भवन्ति न कांचि- 
ल्ाधान्येन विभक्तिमाभ्रयन्ति | तत्र प्रातिपदिकार्थे निरि यां यां विमक्तिमान्नथितुं 
बुद्धिरुपजायते खा साश्रयितश्या || इदं ताहि प्रयोजनमुत्तरपदलोपो यथा विश्ञायेत | 
अरमाभ्रयते ऽलाश्रयः | अकान्रयो विधिरल्विधिरिति | यत्र प्राधान्येनालाभ्रीयते 
तन्नैव प्रतिरथः स्यात्‌ । यत्र बिदोषणस्वेनालाश्रीयते तन्न प्रतिषेषो न स्यात्‌ | कि 15 
प्रयोजनम्‌ | प्रदीव्य प्रसीव्येति वलादिलक्षण इषमा मूदितिः | 

किमर्थे पुनरिदमुष्यते | 


॥ = + 


स्थान्यादेशप्रथक्तादादेो स्थानिवदनुदेशो गुरुवदुरुपुत्र इति यथा ॥ ९ ॥ 
अन्यः स्थान्यन्य आदे शः | स्थान्यादेशाए्रथच्कादेतस्मात्कारणात्स्थानिकार्यमादेश्षे ` 
न प्रामोति |तत्र को दोषः | भजो यमहन आत्मनेपदं मवतीति, हन्तेरेव स्याक्पे्म ‰। 
स्वात्‌ । इष्यते च वभेरपि स्यादिति तश्चान्तरेण यलं न सिध्यति | तस्मास्स्थानिवदनु- 
देशः | एवमथमिद मुच्यते । गुखुवद्ुरपुत्र इति यथा । तद्यथा | गुरुवदस्मिन्गुरपुत 
बर्मितव्यमिति मुरौ वत्काये त्ुरपुत्रे ऽतिदिश्यते । एवमिहापि स्थानिकार्यमादेश्े ` 
अतिदिदयते ॥ तैतदास्ति प्रयोजनम्‌ । लोकत एतस्षिद्धम्‌ । तथथा | लोके यो यस्व ` 
भङ्गे भवति लभते ऽतौ तत्कायोणि | तद्यथा | उपाध्यायस्य शिष्यो याज्यकुलानि 9 
गत्वापराखनादीनि लभते | यदपि तावल्लोक एष दृष्टान्तो दृष्टान्तस्यापि तु पुरुषारम्भो 
| (म्रद ~ नैस्९८८८  पर्स्स्र 





१३४ ॥ व्याकरनयशाोद्रव्यप्‌ ५. `  , मि०९.९.८ 


निवतेको भवति | अस्ति चेह कथित्परुषारम्भः । भस्तीस्याह | कः | स्वरूपवि- 
भिर्नाम* | इंन्तरास्ममैपंमुख्यंमानं हन्तेरेव स्याहपेने स्यात्‌ ॥ एवं तरया चार्यपरवृसिः 
जञा पयति स्थानिवदादेशो भवतीति यदयं युष्मदस्मदोरनादेशे [७. १.८६ | हत्यादे श- 
भ्रतिषेषं शासि | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | युष्मदस्मरोर्पिभक्तौ कायमुच्यमानं कः प्र- 
5 सङ्गो यदादेशे स्यात्‌ | परवति स्वाचांर्यः स्थानिवदादेशो भवतीत्यत आदेशो प्रति- 
पेषं शास्ति || इदं ताई प्रयोजनम्‌ | अनल्विधाविति प्रतिषेधं वदेमामीति | इह मा 
भृत्‌ । यीः पन्थाः सं इति। | एतदपि नासि प्रयोजनम्‌ । आचार्यपरवृत्तिज्गौपरयत्य- 
ल्वि धौ" स्थानिवद्धावो न भवतीति यदयमदो जग्धिल्येति किति [२.४.३६ | इतिति 
कितीत्येव सिद्धे ल्यम्प्रहणे करोति || तस्माच्रार््रो जेन योगेन ॥ ` 
10 आरभ्यमाणे ऽप्येतस्मिन्योगे ` | 
अल्विधौ प्रतिषेधे अविदरोषणे ऽपराभिस्तस्यादरानात्‌ । २।। 
अल्विधौ प्रतिषेधे ऽसस्वपि विरोषणे समाज्रींयमाणे ऽतति तस्मिन्किशोषणे ऽप्रा- 
पिर्विषेः. । प्रदीव्य प्रसीष्य | (क कारणम्‌ | तस्याददनात्‌ | त्रारेरित्यु च्यते न चात्र 
वलादि पयायः || ननु चैवमथे एवायं . बलेः प्रियते अन्यस्य कार्यमुच्यमानम- 
15 न्यस्य यथा स्यादिति | सस्यमेवमर्थो न .तु प्राप्रोति |. विर कारणम्‌ । 
सामान्यासिदेरो विंेषानतिदेशः ॥ ३.॥ 
सामान्ये ्तिदि श्यमाने विशेषो नातिदिष्टो भवति | तद्यथा । ब्राह्मणवदस्मि- 
न्षज्रिये वर्तितव्यमिति सामान्यं यद्ाद्ममकायं तत्सत्रिये ऽतिदिदयते यदिष्टं माठरे 
कौण्डिन्ये वा न तदतिदिश्यते | एवमिहापि सामान्यं यसखत्ययकायै तदतिदिदयते 
20 यद्विदिष्टं वलादेरिति न तदतिदिदयते |} यद्येवमम्रहीत्‌$ इट हैटि [८.२.२९८ | इति 
सिचो लोग न प्राभोति | अनल्विधाविति पुनरुच्यमान इहापि प्रतिषेधो भविष्यति | 
~ प्रदीव्य भरसीग्येति । विशिष्टं देषो ऽउलमाभ्रंयते वलं नाम| इह च प्रतिषेधो न भवि- 
ष्यति | भयदहीरिति । विशिष्टं देषो ऽनरठमाभ्रयंत इटं नाम || यरि तर्हि सामान्य- 
मप्यतिरिरयते विद्रोषथ | 
8 ` सस्याश्रये विधिरे्टः ॥ ४ | 
 , सति च वलादित्व हटा भवितव्यम्‌ | अरुदिताम्‌ अरूदितम्‌ भरुदित ¶ | किमत्र 
` यत्सति भावितव्यम्‌ | 


# ६.९. ६८. † ०.९, ८५४; ८८ ०.२.१०२; ९.१.६८. [०.२.३५ § १.२.३२५. ¶ ०.२.५६. 








पाण ९,९.५६. | ॥। व्याकरणमहाभाष्यम्‌.। १.३५; 


प्रतिषेघस्तु प्रभेत्यल्विधित्वात्‌ ॥ ९ ॥ 
प्रतिषेधस्तु परामोति । किं कारणम्‌ | आल्विधिस्वात्‌ | अल्विधिरयं भवति 
तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधः प्राति | 


न वानुदेशिकस्य प्रतिषेधादितरेण भावः ॥ ६ ॥ 

न तष दोषः | किं कारणम्‌ | आनुदेशिकस्य प्रतिषेधात्‌ | अस्त्वश्रानुदेशिकस्य ` 
वलादित्वस्य प्रतिषेधः स्वाञ्रयमत्र वलादित्वं भविष्यति || तैतदिवदामहे धलादिरम 
वकारदिरिति | विं तर्हि स्थानिवद्धावात्सावैधातुकल्वमेषितव्यं  तत्रानस्विधाविति 
प्रतिषेधः प्रामोति | | 

किं पुनरादेशिन्यल्याभ्रीयमाणे प्रतिषेधो मभवव्याहोस्िदविरेषेणादेश आरेदानि 
ख | कथात्र विदेषः| । ` 10 


अदेदयल्विधिप्रतिषेधे रुवधपिबां गुणवृद्धिभतिषेधः ॥ ७ ॥ ` 


अदिश्यन्विधिप्रतिषेधे कुरुवधपिबां गुणवृद्योः प्रतिषेष वक्तव्यः | कुर्विस्यत्र 
स्थानिवद्भा वादङ्गसंज्ञा स्वाभ्रयं च लघृपधत्वं तत्र रुधुपधगुणः प्रामोति* | वधक- 
मित्यत्र स्थानिवद्धावादङ्गतंज्ञा स्वाभ्रयं चादुपधत्वं तत्र वद्धिः प्रामोति† | विवेस्यत 
स्थानिवद्धावादङ्गसंश्ना स्वात्रयं च कषुपधस्वं ' तत्रं गुणः प्रामोति{ || अस्त तद्यैवि- 15 
दोषेणारेरा जदोश्ञिनि च | 


` अदेरैयदेरा इति चेत्पुषिङ्दतिदिशेषुपसंख्यानम्‌ ॥ ८ ॥ 


क क, क, 


भआदेशयादेश इति चेत्सुपिङ्दा। तेदिषटेषुपसख्यानं कतेभ्यम्‌ | छप्‌ । वृक्षाय 
अक्षाय | स्थानिवद्धावाल्डम्संन्ञा स्वाप्नरयं च यञादितवं त्र प्रतिषेषः प्रामोति$ | इष्‌ ॥ 
तिडः | भररिताम्‌ भसदितम्‌ अर्दित | स्थानिव द्गावास्सावेषातुकसंज्ञा स्वाभ्रग्रं च 
वादित्वं तन्न प्रतिषेधः प्रभोति | तिडः || कृदतिदिष्टम्‌ । भुवनम्‌ खवनम्‌ 
धुवनम्‌ । त्ानिवङ्गवासत्ययसंज्ञा स्वाश्रयं चाजादिस्वं तज प्रतिषेधः. भ्रामोति!"| 
किं पुनरत्र ज्यायः | भंदेशिन्यल्याश्री वमाणे प्रतिषेध इत्येतदेव ज्यायः | कुत एतत्‌। 
तथा ह्ययं विशिष्टं स्यानिकायेमादेशो ऽतिदि राति गुरुवद्ररपुत्र इति यथा | तद्यथा ] 
गुरुवदस्मिन्गुरुपुते वर्तितव्यमन्यत्रोच्छिष्टभोजनास्पारोपसंम्रहणाचचेति | यदि च गुर- 


+ ६४.९१० ; ०.३.८६. † २.४ ५४५; ०.२. ९१९६. { ०.३.०८; ८६. $ ०.९.२१; ०.३.९०२. 
थ्‌ २.४. ९०९. ; ७.२. ७६, ## ७.१.१९ ; ६.४. ७७, । 


१३६ ॥-व्वाकरस्ममहाभच्विम्‌ ॥ ` ` मि०९.६.८. 


पुरोऽपि गुरु्भवति तदपि कर्तेव्वं भक्ति || अस्तु तद्योदेशिन्यर्यश्रीयमाणे प्रवि- 

बेधः | ननु चोक्त मादेश्यल्विधिभ्रतिषेषे कुरव धपिवां  गुणवृदधि्रतिभेध इति । तेष 

रोषः । करोतौ तपरकरणनिर्द शात्सि्धम्‌ | पिभिरदन्तः | बधकमिति नायं ण्वुल्‌ 
भन्यो ऽयमकराष्दः किदौणारिको रुचक इति यथा || 


& रकदेदानिकृतस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥. 


एकदे दीविकृतस्योपसं ख्यानं कतेव्यम्‌ । किं भरयोजनम्‌ । पचतु पचन्तु" | तिङ्- 
हणेन ब्रहणं यथा स्यात्‌ | 


एकदेराविकृतस्यानन्यत्वास्सिद्म्‌ ॥ ९० ॥ 


एकदे शाविक्ृतमनन्यवद्भवतीति तिङ्हणेन अहर्णं भविष्यति | तद्यथा | श्चा कणे 
10 वा यच्छे वा छिन्ने श्चैव भवति नाञ्रो न गदभ इति || 


अनित्यविज्ञानं त॒ तस्मादुपसंख्यानम्‌ ॥ ९९ ॥ 


अनित्यविज्ञानं तु भवति । नित्याः शब्दाः | नित्येषु नाम शब्देषु कूटस्थैरविचालि 
मिवेर्शैभवितव्यमनपायोपजनविकारिभिः | तत्र स एवायं विक्रृतथेत्येतन्निव्येषु नो- 
षपर्ते | तस्मादुपसंख्यानं कतन्यम्‌ || ¦ 
1 भारद्वाजीयाः पठन्ति || एकरेशाविकृतेषुपसंख्यानम्‌ | एकर दाविकृतेषुपसं- 
ख्यानं कतेव्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | पचतु पचन्तु | तिङ्हणेन ग्रहणं यथा स्यात्‌ | किं 
च कारणं न स्यात्‌ || अनादेशत्वात्‌ | आदेः स्थानिवदित्युच्यते न चेम आ- 
देशाः |} रूपान्यस्वाञच || अन्यरखल्धपि रूपं पचतीत्यन्यत्प चध्विति | इमे ऽव्यादे शाः | 
कथम्‌ | आरिदयते यः स आदेश इमे चाप्यादिरदयन्ते || भदेशाः स्थानिवदिति 
20 चेन्नानाभितस्वात्‌ || आदेशः स्थानिवदिति चेत्तत । किं कारणम्‌ | अनाभितत्वात्‌ | 
बोऽतरदेदो नासावाभ्रीयते यथाश्रीयते नासावादेहाः | तरषन्मन्तव्यं समुदाय 
आश्रीयमाणे ऽवयवो नाश्रीयत इति | अभ्यन्तरो हि समुदायस्यावयवः | तद्यथा | 
वृक्षः प्रचलन्सहावयवैः प्रचरति || आश्रय इति चेदस्विधिप्रसङ्गः || आश्रय इति 
चेदल्विधिरयं भवति तश्रानल्विधाबिति प्रतिषेधः प्रामोति । प्रैष दोषः | तरैवं सति 
४ कथिदप्यनल्विधिः स्यात्‌ | रच्यते चेदमनल्विधाविति तत्र प्रकगतिज्ञास्यते 
साधीयो योऽल्विधिरिति । कञ्च साधीयः | यत्र प्राधान्येनालाभ्रीयते | वत्र नान्त- 


# ३.४, ८६, 








फण १..१. ५६. ` ॥ व्थाकरगमहामव्यम्‌ ॥ १.३४ 
रीयको ऽलाभ्रीयतेः नास्ताअस्विधिरिति | बथवोक्तमादेदापहणस्व प्रयोजनमादे- 
दामानं स्यानिवथयो स्यादिति ।| 


अनुपपन्नं स्थान्यादेदास्वं नित्यलात्‌ ॥ ९२ ॥! 
स्थान्यादेश इव्येतच्िस्येषु राग्देषु नोपपद्यते । किं कारणम्‌ | निस्यस्वात्‌ | 


स्थानी हि नाम यो भुत्वा न भवति | आदेशो हि नाम यो भूत्वा मवति | एतश्च ; ` 
नित्येषु दाब्देषु नो पपद्यते यत्खतो नाम विनाश्यः स्यादसतो वा प्रादुभोव इति ॥ 


सिद्धं तु यथा लोकिकवैदिकेष्वभृतपूरवेऽपि स्थानशब्द भयोगात्‌ ॥ ९३ ॥ 

तिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । यथां लौकिकेषु वैदिकेषु च क तान्तेष्वभुतपूर्वेऽपि स्थान- 
चाष्दो वतेते | लोके तावदुपाध्यायस्य स्याने ्िष्य इस्युच्थते न चः तज्रोषाध्यायो 
मृवपूर्वो भवति | वेदेऽपि सोमस्य स्थनि पतीकतृणान्यभिषुणुयादित्युष्यते म. चः तश्र 10 
लोमे भूतपूर्वो भवति ॥ 


कार्यविपरिणामादया सिम्‌ ॥ ९४॥ 

भवा कायैविपरिणामास्सिद्धमेतत्‌ । किमिदं कायैविपरिणामादिति | कायौ 
बुदिः सा विपरिणम्यते | ननु च का्याविपरिणामादिति भवितव्यम्‌ | सन्ति 
चैव ह्ीत्तरपदिकानि हस्वस्वानि | अपि च बुद्धिः संप्रत्यय इत्यनथान्तरम्‌ । कायां 15 
बुद्धिः कार्यः संमत्ययः कार्यस्य संप्रत्ययस्य विपरिणामः कायैविपरिणामः का्यैवि- 
परिणामादिति || परिहारान्तरमेवेदं मत्वा पठितं कथं चेदं परिहारान्तरं स्वात्‌ । 
यदि भूतपूर्वे स्थानशब्दो वतेते 1 भूतपूर्वे चापि स्यानराष्दो वतेते । कथम्‌ | बुग्या | 
तद्यथा । कथित्कस्तीौचिदुपदि शति प्राचीनं मामादाश्ना इति । तस्य सवेत्रा्नवुदडधिः 
प्रसक्ता । ततः परथादाह ये. क्षीरिणो ऽवरोहवन्तः एथुपणास्ते न्यग्रोधा ईति । स 20 
तत्रानबुदखया न्यमो धबु प्रतिपद्यते । स ततः पदयति बुद्याज्ांथापकृष्यमाणान्वमो- 
धांधाधीयमानान्‌ | नित्या एव च स्वस्मिन्विषय भान्ना नित्याश्च न्यमोधा बुदिस्स्व 
स्य विपरिणम्यते । एवमिहाप्यस्तिरस्मा अविशेषेणोपदिष्टः । तस्य स्ैग्रास्तिबुदिः 
पस्ा | सोऽस्तेभू्मवतीत्यस्तिबुख्ा भवतिबुद्धि परतिपते, । स ततः परयति बुद्या- 
स्ति चापकृष्यमाणं भवतिं चाधीयमानम्‌ । नित्य . एव च स्वस्मिन्विषये ऽस्तिर्गित्यो ‰ 
भवतिबुद्धिस्त्वस्य विपरिणम्यते || 


--- = -क----~--> ~ = ~~~ ० = क = =-भ- 





† भै ब्‌, (१ ५२, 
18 





१.३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ` [म०२९.९.८ 


.. अपवादग्रसङ्गस्तु. स्थानिवस्वात्‌ ॥ ९९.॥ ` 
अपवाद उत्सगेकृतं च प्रामोति । कर्मण्यण्‌ [२.२.९१] आतोऽनुपसर्गे कः [६] 
इति के ऽप्यणि कृतं प्रामोति । किं कारणम्‌ | स्थानिषस्वात्‌ || 


. उक्तवा ॥ ९१९॥ 
किमुक्तम्‌ | विषयेण तु नानालिङ्गकरणास्सिद्धमिति || अथर्वा 


सिद्धं तु षष्ठीनिर्दिष्टस्य स्थानिवदचनात्‌ 1 ९७॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌} षष्ठीनिर्दिष्टस्यादेश्चः स्थानिवदिति वक्तव्यम्‌ । तत्ता ष्टी- 

निर्दि्टमहणं कतेव्यम्‌ | न कतेव्यम्‌ | प्रकृतमनुवदेते । क प्रकृतम्‌ । षष्ठी स्थानेयोगा 

[९.९.४९] इति |} अथवाचययेप्रवृत्ति्वो पयति - नापवाद उत्सगेकृतं भवतीति 
10 यद्यं  दयनादीनां कयशिच्डितः करोति । दयन्‌ न्नम्‌ भा दाः श्रुरिति ॥. 


तस्य दोषस्तयादेष्रा उभयप्रतिषेधः ॥ १८ ॥ 


तस्यैतस्य लक्षणस्य दोषः | तयादेश्च उभयप्रतिषेषो वक्तव्यः† | उभये देव- 
मनुष्याः | तयपे च्रहणेन म्रहणाज्जसि विभाषा प्रामोति‡ || नैष रोषः | अयचख- 
त्ययान्तरम्‌ । यदि प्रत्ययान्वरमुभयीतीकारो न प्रापोति | मा भूदेवम्‌ | मात्र 
15 जिस्येवं भविष्यतिऽ | कथम्‌ | मात्रजिति नेदं प्रत्ययग्रहणम्‌ । कि तर्हि | प्रत्या- 
 हारम्रहणम्‌ | क संनिविष्टानां प्रत्याहारः | मत्र शाब्दास्भृत्यायचथकारात्‌4 | 
` यदि प्रत्याहारमरहणं कति तिष्ठन्ति अत्रापि प्रामोतति | अत इति. वतैते** | एवमपि 
तैरमाजा. घतमत्रा अत्रापि पभरामोति | सदृ श्यस्याप्यसंनिविष्टस्य न भवति प्रत्याह्मरम- 
हेन प्रहणम्‌ | 


2 जस्याष्यायां बचबातिदेदर स्थानिवद्विप्रसिषेधः । ९९ ॥ 


जात्याख्यायां वच्रनातिदेशे1† स्थानिवद्भावस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्रीदिभ्य 
भागतं हत्यत्र षेति [७.३.११९] इति मुणः परामोति || नैष दोषः | उक्तमेतस्‌ | 
भथौतिरेशास्तिडधमितिःः || 


्याञ्प्रहणि ऽदीषेः || २० ॥ 
25 उन्ान्परहणे ऽदीषे आदेशो न स्थानिवदिति वक्तव्यम्‌ | कं प्रयोजनम्‌ | 


* शिवस्‌ ९.* † ५.२.४४. {र.९.३२. § ४.१.९५. नु ९.२.३०२. ++ ४.१.४. 
11 १,,२. ५८. 44 १,०२.५ ५८, 

















फ० १,१.५६ .] ॥ शांकर गयहाभाष्यम | ९३९ 


निष्कौशाम्बिः भतिखदटुः । उन्यान्प्रहमेन बहणास्छ॒लोषो ` मा भूदिति+ । ननु चं 
रीषादिस्युच्यते | तच्च वक्तव्यं भवति | किं पुनर्न ज्यायः | स्थानिवत्पतिषेध 
एव ज्यायान्‌ । इदमपि सिद्धं भवति । अतिखदट्राय भतिमालाय | खडापः | 9. 
३.१९३ | इति याण्न भवति | भयेदानीमसत्यपि स्थानिवद्भावे दीधत्वे ृते। 
पिदचासौ भूतपूव इति कृत्वा याडाप इति याट्‌ कस्माच्च भवति | रक्षणप्रतिपदोक्तयोः 5 
प्रतिपदोक्तस्थैवेति | ननु चेदानीं सत्यपि स्थानिवद्भाव एतया परिभाषया शक्य 
मिहोपस्थातुम्‌ । नेत्याह | न हीदानीं क्रचिदपि स्थानिवद्भावः स्यात्‌ | तत्रि 
बक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । प्रधिष्टनिरदेरास्सिडम्‌ । प्रशचिषटनिर्देशोऽयम्‌. | डी ट 
हैकारान्तात्‌ आ आप्‌ आक्रारान्तादिति ॥ 


 आहिभुवोरीद प्रतिषेधः ।। २९ ॥। ४ 
भआहिभुवोरीटः प्रतिषेधो वक्तव्यः | भात्थ भभूत्‌; | अल्िब्रूभहणेन ्रहणा- ` 
दीट्‌ प्रामोति9 || आहेस्तावन्र वव्यः। आचायेभवृत्तिज्ञो पयति नाहेरीड भवतीति 
यदयमाहस्थः | ८.२.३९ | इति कलादिप्रकरणे स्वं शास्ति | नैतदस्ति ज्ञापकम्‌ । 
भसति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ } भूतपुवेगतियेथा विज्ञायेत । इला- 
दिर््रो भूतपूवै हति | ययेवं थव चनमनथंकं स्यात्‌ । आथिमेवायमु्चारयेत्‌ | 15 
ब्रुवः पत्चानामादित जाथो न्रुव इति | भवतेथापि न वक्तव्यः| भस्तिसिचो 
ऽधृक्ते | ७.३.९६ | इति हिसकारको निर्देशः | भस्तेः सकारान्तारिति ॥ 
वध्यादेशे वृद्धितस्वम्रतिषेषः ॥ २२ ॥। 
वध्यादेशे वृद्धितस्वयोः प्रतिषेषो वक्तव्यः | वधकं पुष्करमिति॥ | स्थानिवद्धए- 
बाहृडधितत्वे प्रमुतः*“ || तैष दोषः । उक्तमेतत्‌, | नायं णबुल्‌ अन्यो ऽयमक- 20 
शब्दः किदौणादिको ङचक इति यथा |. ॑ 
इद्धिश्च ॥ २३ ॥ 
इद्िपियः। आवधिषीषट 11 | एकाच उपदेशे ऽनुदा्तात्‌ [ ७.२.९० | इति प्रति - | 
बेधः प्राभोति ॥ नैष दोषः | आद्युदात्तनिपातन करिष्यते । स निपातनस्वरः 
प्रकृतिस्वरस्य वाधको भविष्यति | एवमप्युपदेशिवद्धावो बक्तव्यः | यथैव हि 25 
निपावनस्वरः प्रकृतिष्वर वाधत एवं प्रत्ययस्वरमपि वधत | आवधिषीषटेति | तैष 


_ __-------- - 
१.२. ४८; ९.९. ६८. ¶ 9द. ०२ ३.४.८४ र.४द्र्‌ः 9 ७.२.०९ सद. १ २.५. ५. 
** ७.९. ११६ ७.२. २२. 11 २.८. द्‌ 


४० ॥ व्याकवयहामाष्यय्‌ 4 . {० ९,९. 4 
दोषः ] आर्धधातुकियाः सामान्येन भवन्स्यनबस्थितेषु प्रत्ययेषु । त्रार्पधातुकसा- 
प्मान्ये. वधिभ्मने कृते सति शिष्टत्वालसत्ययस्वरो भविष्यति ॥ 

| ` आकारन्ताल्खक्क्प्रतिषेधः ॥ २४ | 


, . आकारान्ताचुल्षुकः प्रतिषेधो वक्तव्यः .| विकापरयति भापयते" । ठीभी्हणेन्‌ 
5 ब्रहणाजुसुकौ प्ाप्रुतः† . || लीभियोः प्रशिष्टनिर्देशास्सिडधम्‌ । ीमियोः प्रशिष्टनिरं 
शओऽयम्‌ | ठी है हेकारान्तस्य । भी ई हैकारान्तस्य चेति ॥। 


लोडादेरोः राभावजभावधित्वहिलोपैच्वपतिषेधः ।| २५ ॥ : ` 


लोडदेशहा एषां प्रतिषेधो वक्तव्यः | शिष्टात्‌ हतात्‌ भिन्लात्‌ कुरुतात्‌ स्तात्‌ ॥ 

,` लोडादेशे कृते शाभावोः जभावो धित्वं हिलोप एत्वभिव्येते विधयः प्राप्मुवन्तिऽ || 

10 त्ैष दोषः । इदमिह संप्रधायम्‌ । लोडादेदाः क्रिवतामेते विधय इति किमत्र क 

कैव्वम्‌ । परस्वाछ्ठोडादेशः । अथेदानीं लोडादेशे कृते पुनःप्रसङ्गविश्चानात्कस्मादेते 
विभयो न भवन्ति । सकृढतौ विप्रतिषेधे यद्वाधितं तद्वाधितमेवेति कृत्वा | 


अयादेशे लन्तप्रतिषेधः ॥ २६ ॥ 


अयादेदो जन्तस्थ प्रतिषेधो वक्तव्यः । ति्धणाम्‌ । तिखभावे कृते ब्ेलयः 

15 [७.९.९३] इति ्रयादेशः प्रामोति || नैष दोषः} इदमिह संप्रधायैम्‌ । तिखभावः 

क्रियतां चयादेश इति किमत्र कतेष्यम्‌ | परस्वात्तिख्भावः । अथेदानीं तिखभावे 

कृते पुनःप्रसङ्गयिह्णानाशल्लयादेशाः कस्माच्च भवति | सकृहतौ विपरतिषेपे यद्वाधितं 
तद्वाधितमेवेति || 


आम्विधौ च | २७॥ 


20 भग्विधौ च लन्तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | चतस्रस्तिश्न्ति । चतखमावे कते 
चतुरनड्होरामुदा्तः [७.१.९८] इस्याम्भामोति | नैष रोषः | इदमिह संरधा- 
यम्‌ । चतद्भावंः क्रियतां चतुरनडुहोरामुदास्त हत्यामिति केमन्र कर्तव्यम्‌ । 
परत्वा्चतखभावः । .भयेदानीं चतद्भावे कृते पुनःप्रसङ्गविक्ञानादाम्कस्माच 
भवति | सकृङतौ विप्रतिषेधे यद्वाधितं तद्धाभितमेषेति ॥ 


ज 


५ ६. ९. ५९; ५६. † ७.१.३९; ४०, { ०० २.३५. { ६, ४.१२५.१२६. १०९६; ९०६; ९२९९. ` 
भं ७,२.९९, 





पा» १.१.५०. | ॥ म्याकरनेयहायाष्यय +. . ६४१. 


स्वरे वस्वादेदौ ।॥ २८ ॥ 

स्वरे वस्वादेशे प्रतिषेधो वक्कष्यः | विदुषः पद्य । शुरनुमो नथजादी 
अन्तोदात्तारिव्येष स्वरः† प्रामोति || वैष दोषः | अनुम इति प्रतिषेभो भविष्यति | 
अनुम इत्युच्यते न चात्र नुम पयामः । भनुम इति नेदमागममहणम्‌ | किं वार्ह । 
भरत्वादारयदणम्‌ । क संनिविष्टानां प्रत्याहारः । उकाराख्भृ्या नुमो मकारात्‌‡ | 5 
वदि परत्याहारप्रहणं लुनता पुनता अत्रापि प्रामोत्तिऽ | अनुम्प्र्णेन न रात्रन्तं विहो- 
प्यते | किं तर्दि । शतैव विरे्यते श॒ता यो अनुम्क इति । भवरयं वैतदेवं 
चिज्धेयम्‌ | आगमगहणे. हि सतीङ -पसंज्येत । मुष्बता मुभ्वव इति¶ }+. 

गोः पूर्वणिच्वात्वस्वरेषु ॥ २९ ॥ 

मोः पूरमैणित्वास्वस्वरेषु प्रतिषेधो वक्तव्यः । तित्रग्वयम्‌ रावलग्वमम्‌** ! 10 
सर्वत्र विभाषा गे: [६.१.९२२] हति विभाष्रा पूर्थस्वं प्रामोति ॥ ्रैष दोषः | 
दडः इति कतेते1† तत्रानल्विधाविति प्रतिषेधो भविष्यति | एवमपि हे विच्रगो भगम्‌ 
भवर प्रामोति ॥ णित्वम्‌ । चित्रगुः चित्रगु चित्रगवः | गोतो णित्‌ [७.९.९०] 
इति णित्त्वं प्राति || आत्वम्‌] चि्रगुं परय । शावलगुं परय । आ ओत इत्यात्वं 
्ामोति‡ || नेष दोषः | तपरकरणास्सिद्धम्‌ । तपरकरणसामभ्यौण्णि्टवास्वे न 1४ 
भविष्यतः ॥ स्वर । बहुगुमान्‌ । न गोदवन्साववणे [६.१.९८२] इति प्रतिषेषः 
प्राप्रोति ॥ 

रोतिपिन्योः प्रतिषेधः ॥ ३० ॥ 

करोतिपिभ्योः प्रतिषेधो वक्तव्यः | कुङ पिबेति । स्थानिवद्भावाहछषुपधगुण 

प्रामोति$5 ॥ 20 
उक्तवा | ३९ ॥ 
. किमुक्तम्‌ । करोतौ तप्रकरणनिर्देशास्सिदधं पिविरदन्तं इति¶¶ ।। 


अचः प्रस्मन्पू्ैविधी ॥ १. । १. । ५७ ॥ 


अच इति किमर्थम्‌ | प्रः | शूस्वा | आक्राष्टाम्‌ | आगत्य ॥ रभः विश्न ह्यत्र 
छकारस्य शकारः*** परनिमित्तकः । तस्व स्यानिवद्धावाच्छे च [६.१.७३ | इसि 9 
० ७.९.१६. † ६.६.९५१. [ १.१९.०९-०.१. ५८. $ १.९. ८९. ¶ ०,९.५९. **९.२, ४८ 


1 ६.९. ९०९. {‡ ६.९. ९९ $¢ ६.४. ६९०; ७.१. ०८; ८६ भुर ९.६. ५६.* 
कक्षै ।। ९ 


९४२ ॥ व्याकरणमहभाष्यम्‌। । `  मि०९.९.६ 


लृक्पामोति । भव इति वचनाच भवति । तैतदस्ि प्रयोजनम्‌ । क्रि यमाणे अपि वा 
अज्ग्रहणे ऽवदयमत्र तुगभावे यलः करतैष्यः | अन्तरङ्स्वाद्धि तुक्पापोति |] इदं 
तर्हि | शूत्वा स्यूत्वा | वकारस्य ऊद्‌ परनिमिसकः | तस्य स्यानिवद्धावादचीतिं 
यणादेशो न प्रामोति | भच हति क्चनाद्वति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | 
- स्वाश्रयमत्राच्त्वं भविष्यति | अथवा यो ऽक्रदेशो नासावाश्रीयते यथाश्रीयतें 
नासावादे राः. ॥ इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । भाक्राष्ठाम्‌ । सिचो लोपः† पर निमिसकः | 
तस्य स्थानिवद्ावात्षढोः कः सि [८.२.४९ इति कत्वं परामोति | अच इति 
वचनाच्च भवति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | वस्यत्येतत्‌ । पुयै्रासिडे न स्यानि- 
यदिति || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ | आगत्य अभिगव्य } अनुनाक्तिकलोपः परनिमित्तकः | 
10 तस्य स्थानिवद्भावाद्भस्वस्येति तुम्र प्रामोति$ | अच इति वचनाद्वति | 
भथ परस्मिन्निति किमर्थम्‌ | युवनानिः। दिपदिका | वैयाप्रपथः | आदीभ्वे || 
युवजानिः वधुजानिरिति जायाया निर्‌ | ९.४.१२४ | न परनिमित्तकः | तस्य 
स्थानिवद्भावादरीति यलोपो4 न प्रामरोति | परस्मिश्चिति वश्चनाङ्वति | नैतदस्ि 
प्रयोजनम्‌ । स्वान्रयमत्र॒वल्त्वं भविष्यति | भथवा योज्त्रादेदो नासावाश्रीयते 
15 यथाभ्रीयते नासावादेशः | हदं तहि प्रयोजनम्‌ | ह्िपदिका जििपदिका | पादस्य 
लोपो न परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्धावात्पद्धावो न पराभोति** | परस्मिन्निति 
ष चनाद्भवति | एतदपि नासि प्रयोजनम्‌ } पुनर्लोपवचनसामथ्यौस्स्थानिवद्भावो नं 
भविष्यति † || इदं ताहि प्रयोजनम्‌ | वेयान्नपद्यः‡‡ । ननु चात्रापि पुनव्रेचनसाम- 
थ्यदेव न भविष्यति | अस्ति हन्यस्पुनर्लो पव चने प्रयोजनम्‌ । किम्‌. | यत्र .भसेश्षा 
४0 न | व्याघ्रपात्‌ इयेनपादिति | इदं चाप्युदाहरणम्‌ | आदीध्ये भवेष्ये | इकारस्थै- 
कारोऽ न .पश्निमित्तकः | तस्य स्थानिवद्रावाश्थीवणयोर्दीधीवेव्योः [७.४.९३ | 
इति लोपः प्रामोति | परस्मिन्निति वचनान्न भवति || 
अथ पृवैविधाविति किमथंम्‌ । हे गैः | बाभ्रवीयाः | नैपेयः || हे गौरित्यौ- 
कारः¶¶ परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्भावादेङ्हस्वात्संबुदेः [ ६.९.६९ | इति 
8 लोपः परामोति । पूर्वविधाविति वचनान्त भक्ति | तेतदस्ति प्रयोजनम्‌ । आचार्य 
पवृत्तिर्शा पयति न संबुदधिलोपे स्थानिवद्धावो . भवतीति यदयमेङःस्वास्संवुद्दस्स्थि- 
कणं करोति । श्रैतदस्ति श्षापकम्‌ । गोऽयमेतस्स्यात्‌ | यत्ति प्रत्याहारयहणं 


क ६.४. १९; ६.९. ०4. † ८.२.२६. { ९. ६ ५८१. $ ६.४. २८; ६.९. ७५. ¶ ६.९. ६६. 
9 *.५,४.९; ६.०.१६०. 11 ६.४. ९४८ ९.४.६९. {{ ९.४.१३८ .४.९. १०५९; ६.४. ९२०; ७.३. 
§§ ३.४.५९ - भृथ १.६. ९० 


[ फर १.१.५५. | ॥ व्याकरमयहाभाष्वम्‌ ॥ १४३ 


करोति | इतरथा द्योहस्वारिस्येष ब्रूयात्‌ || इदं तर्हिं परमेजनम्‌ | बाधवीयाः माधवी- 
याः*| वान्तादेशः परनिमित्तकः | तस्य स्थानिवद्भावाद़लस्तङधितस्य [ ६.४.१५० | 
इति यलोपो न प्रामोति । पुवंविभाविति वचनाङ्वति | एतदपि नास्ति प्रयोजमम्‌ । 
स्वाग्रयमत्र हर्स्वं भविष्यति । अथना यो उरंदेशो नासावाभ्रीयते याभ्रीयते 
नाब्नावादेशः || इदं तर प्रयोजनम्‌ | नेषेयः† । आकारलोपः परनिमित्तकः । तस्य 5 
स्थानिवद्भा वादव्यञ्लक्षणो ढम्न प्रामोति | पृवेविधाविति वचनादवति | 
अथ विधि्रहणं किमथम्‌ । सर्वंत्रिभक्त्यन्तः समासो यथा विज्ञायेत | पुत्रस्य 
विधिः पुवेविधिः | पुवेस्माद्विधिः प्वेविधिरिति । कानि पुनः पूव॑स्मादिषी स्थानिवै- 
दावस्य प्रयोजनानि | बेभिदिता | माथितिकः | अपी पचन्‌ || बेमिदिता चेच्छिदिते- 
स्यकारलोपे कृत एकाज्लक्षण हट्‌प्रतिषेधः प्रातिः | स्थानिवद्धावाच्च भवति || 19 
माथितिक इत्यकारलेपि कृतेऽ तान्तात्क¶। इति कदि शः प्रापोति । स्थानिवद्गावाच्र 
भति .॥ अपीपघन्नस्येकादेशे कृते ऽभ्यस्ताञ्ेजुस्भवतीति जुस्भावः प्रामरोति** | 
प्यानिवद्धा वात्न मवति || नैतानि सन्ति प्रयोजनानि | कुतः | प्रातिपदिकनिदेशो 
ऽं प्रातिपदिकनिर्द शाधाप्थतन्त्रा भवन्ति न कांचिस्पाधान्येन विभक्तिमाभ्रयन्ति | 
ततर प्रातिपदिकार्थ निर्दिष्टे यां यां विभक्तिमाश्रयितुं बुद्धिरुपजायते सा साज्रयितव्या || 15 
इदं तर्द प्रयोजनं विधिमात्रे स्थानिवद्यथा स्यादनाश्रीयमाणायामपि प्रकृतौ | 
वाय्वोः भध्वर्य्थोः†1 लोपो व्वोवीकि [६.९.६६ | इति यलोपो मा भूदिति || मस्ति 
प्रयोजनमेतत्‌ | कँ तर्हीति | 

भपरविधाविति तु वक्तव्यम्‌| किं प्रयो जनम्‌ । स्वविधावपि स्थानिवद्धावो यथा 
स्यात्‌ | कानि पुनः स्वविधौ स्थानिवद्गावस्य प्रयोजनानि | भयन्‌ आसन्‌ | धिन्वन्ति 29 
कृण्वन्ति | दध्यत्र मध्वत्र | चक्रतुः चक्रुः || इह तावदायन्‌ आस्धितीणस्त्योयै- 
ण्लोपयोःः‡ कृतयोरनजादिन्वादाडजादीनाम्‌ ६.४.७२ | हत्याण्नं प्रामोति । स्था- 
निवद्धावाद्धवति || धिन्वन्ति कण्वन्तीति यणादेरो कृते वलादिलक्षण इट्‌ प्रामोतिऽ | 
प्यानिवद्धावान्न भवति || दध्यत्र मध्व्रतरेति यणादेशो कृते संयोगान्तलोपः प्रामोति¶¶ | 
स्थानिवद्भावान्न मवति || चक्रतुः चक्रुरित्यत्र यणादेशो कृते ऽनच्त्वाहिवेचनं न 9& 
भराभोति*” | स्थानिवद्भावाद्भ वति || ` यादे तरि स्ववि धावपि स्थानिवद्भावो भवति 

` † ३.३. ९२; ५.४. ६४; २.२.९८; ४.१.९२२. {4 ६.४. ४८; ७.२.९०, 


§ ४.४.५१; ५.२. ५०; ६.४. ९४८. - ¶ ७.३. ५१. कक ६.९. ९७; २.४. ९०९. †¶† ६.९.००७. 
{4 ९.४. ८१; ५१९. $ ६.१. ००; ०.२.२९. वृष्‌ ६.९. ० दद्‌. + ६६.०१ ६. 





९७४ ॥ ध्याकरणप्हाभाष्येन ॥  [मम०-११.८ 


दाभ्भाम्‌ देयम्‌ लवनम्‌ अत्रायि प्रणिति । हभ्यामिंस्यत्रास्वस्य स्थानिषद्धावारीरषस्वं नं 
प्रामोति ˆ | देयमितीश्वस्य स्थानिंवद्धाबाद्ुणो न पराभोति। | ऊबनमिति गुणस्य स्था. 
निवद्धावारवादेदो न परामोति || वैष शोषः | स्थाश्नया अत्रैते विभयो मावेध्यन्ति | 
त्वं वक्तव्यमपरजिषाजिति | न वक्तभ्यम्‌ | पूवैषिधावित्येव सिद्धम्‌ । कथम्‌ | 
5 न पूवैम्रहभेनारेशो अभिसंबध्यते | भजारेशः परनिमित्तकः पूवस्य विधिं परति स्था- 
निवडूवति । कुतः पूवस्य । आङेशादिति। किं तर्हि | निमित्तममिसं बध्यते । अजादेशः 
परनिमित्तकः पूरवैस्य बिपि परति स्थानिवद्भवति । कुतः पुत्रस्य । निमित्तादिति [ अ 
निमित्ते अभिसेबध्यमाने यत्तदस्व योगस्य मूषोभिषिक्तमुदाहरणं तदपि संगृहीते 
भवति | किं पुनस्तत्‌ । पटूया मृब्येतिरे | वाढं संगृहीतम्‌ ननु वेकारयणा ध्यव- 
10 हितत्वात्नासौ निमिचासपूर्वो भवति । व्यवहिते ऽपि पूर्वशब्दो वतते । तशथथा | पूर 
मथुरायाः पाटकिपुत्रभिति || भथवा पुनरस्त्वादेश एवाभि बध्यते । कथं यानि 
स्वविधौ स्थानिवद्भावस्य प्रयोजनानि | त्रैतानि सन्ति | हष तावदायन्‌ भासन्‌ भिन्व- 
न्ति कष्वन्तीति | अयं विधिशब्दो ऽस्त्येव कमेसाधनो विधीयते विधिरिति | अस्ति 
मावसाधनो विधानं विधिरिति | तत्र कमेसाधनस्य विधिश्चभ्दस्यो पादाने न सवेमिषठ 
॥5 सै गहीतमिति कृत्वा भावसाधनस्य विधिद्यम्दस्यो पादानं विन्नास्यते | पुवेस्य विधानं 
प्रति पुवेस्य भावं प्रति पुवः स्यादिति स्थानिवद्वतीस्येवमाड्‌ भविष्यतीट्‌ च न 
भविष्यति || दध्यज्न मध्वत्र चक्रतुः चक्रुरिति परिहारं वक्यति¶ृ ॥ 
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि । 


स्तोष्याम्यहं पादिक मोदवाहि ततः श्वोभूते शातनीं पालनीं च । 
20 नेतारावागच्छतं धारणि रावि ख ततः पश्वात्लंस्यते ध्वंस्यते च ॥ 


इह तावत्पादिकम्‌ ओदवाहिम्‌ शातनीम्‌ पातनीम्‌ भारणिम्‌ रावणिमिस्यकार- 

लोपे कृते"* पडाव ॐडह्टोपरिलोप इत्येते विधयः11 प्रामुषन्ति । स्थानिवद्भावान्न 
भवन्ति | सस्ये ध्वंस्यते | णिलोपे कृते ‡ { अनिदितां हल उपधायाः करति [६.४.२५] 
इति नलोपः प्रामोति | स्थानिवद्भावान्न भवति || त्ैतानि सन्ति प्रयोजनानि । असिः 
25 इबदनश्रा भात्‌ [६.४.२२| इस्यनेनाप्येतानि सिद्धानि | इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । 
याज्यते वाप्यते । णिलोपे कृते‡‡ यजादीनां किति [६.१.९९] हति संप्रसारणं प्रः 
पोति । स्थानिवद्भावान्न भवति । एतदपि नासि प्रयोजनम्‌ | यजादिभिरत्र किवं ि- 


# ७,द. ६०२; ०.२.६०२. † ६.४.६५; ०.३. ८४. { °.३. <; ६.९.०८. ¶¢ ६.९. ७, 
न «द्‌. रेद्‌; १.१. ५९. ++ ६.५.९४८. 1 ९.४.९१० ररर ३४.६४४. { इ४.९९. 


पा०१.१.५.. |] ॥ व्याकर लजहाभाष्यम्‌ ॥ १४५ 


सेषयिष्यामो यजादीनां यः .किडिति |,कथ यजादीन्प्ं कित्‌ | यजादिभ्यो यो विदित. 
इति | न चायं यजादिभ्यो विहितः || इदं तरि प्रयोजनम्‌ | प्रया मृद्येति | परस्व 
बृणादेशेः कृते* पूवस्य न भरामोतीकार व्रणा व्ववहितस्वात्‌ । स्थानिवद्धावाडवति | किः 
पुनः कारणं परस्य तावङ्कवति न पुनः. पुवेस्य | निध्यल्वात्‌ 1 नित्यः परयणादेशः 
हृते ऽपि प्रवैयणादेशे प्रामोत्यक्ृते ऽपि प्राभोति | -निस्वस्वात्पर यणादेशे कृते पूषैस्य ४ 
न.परपरोति | स्थानिवद्भावाद्‌ व्रति || एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । भसिद्धं बदिरङ्ग- 
ठक्षणमन्तर द्भःलक्षण हत्यसिद्धत्वाद्रहिर ङ्गलक्षणस्य परयणादेसस्यान्तरङ्गलकषणः पूवे 
वणारेशो भाविष्यति `|. अवद्यं चेष! परिमापा्रयितव्या स्मरार्थम्‌ | कष्या हर््य- 
सुदात्तयणो हल्पूर्वात्‌ [ ६.९. १.७४ ] इत्येष स्वरो यथा स्यात्‌ | अनेनापि सिद्धः 
स्वरः | कथम्‌ | | | , ~" ~" ` 10 

| आरभ्यमाणे नित्यो ज्सो ` ~ ` 

आरभ्यमाणे त्व्मिन्येगि नित्यः पुत्रयणदेशः- | कृते ऽपि परयणादेशे प्रामो- 
यकृते ऽपि +|. परयणादे श्लो अपि नित्यः । कृते ऽपि पूर्वयणादेशे भ्रामोच्यज्तेऽपि | 

परश्वासो व्यवस्थया । 
व्ववस्थयः चासौ परः || । ~ 1 
युगपत्संभवो नास्ति 
न चाति वौगपेन संभवः | | कथं च सिध्यति | 
। वहिरङकण सिध्यति ॥ 

, असिद्ध बहिर ङ्लन्षणमन्तरङ्कलक्षण इत्यनेन क्िष्यति || एवं तर्हि यो ज्रोरा- 

यण्तदान्यः स्वरो भविष्यति | हेकारयणा व्यवहितत्वाच् ,प्रामोति | स्वरविधौ 20 
व्वञ्जनमविद्यमान्‌त्रद्वतीति नास्ति व्यवधानम्‌ । सा तर्षा ` परिभाषा कतैम्या | 
ननु चेयमपि कतेव्याकषिद्धं बहिर ङ्गःलक्षणमन्तरङ्गरुक्षण इति| बह प्रयोजनेषा परि- 
माषा | अवरयमेषा कर्तव्याः | सा चाप्येषा लोकतः सिद्धा| कथम्‌ | प्रत्यङ्गवर्ती 
शको. ठक्ष्यते | तदथथा | परुषो ऽयं प्रातस्त्थाय यान्यस्य प्रति शरीरं का्वौणि 
तानि तावत्करोति ततः उहदां ततः संबन्धिनाम्‌ । प्रातिपदिकं चप्युपदिष्टं सामा- 2 
न्रभूते अय वतेते । सामान्ये वतैमानस्य व्यक्तिरपनायते | व्यक्तस्य सनो -रिङ्ग- 
संख्याभ्यामन्वितस्य वद्येनार्थेन योगो. मवति. | ययैव चानुपूञ्यौथौनां प्राहुभौवस्त- 
केयं ऋब्दानामपि तहत्कर्यिरपि भवितव्यम्‌. || इमानि तई प्रयोजनानि | पटयति 


--~ ~ - --~----- ~~~ ~~ --- ---+- -----~ ~~~ ~~ - -- 





# ६.१, ५. 


19 भ 


९७६ ॥ ध्वकरणमेहाभिष्यम्‌ ॥ ` (मर ९.९४ 


अवधीत्‌ बहलदरूकः || पटयति रषयतीति विपे कृते* ऽत ठपधायाः [७.२.९९६ 
इति वृद्धिः प्रामोति | स्थानिवद्भावान्न भवति | अवधीदित्यकारलोपे कृते! भतो 
हलादेलेषोः [७.२.७] इति विभाषा वृद्धिः प्रापोति | स्थानित्रद्ावान्न भवति ॥ 
बहुखटरुक इत्यापो ऽन्यतरस्याम्‌ [७.४.९५९] इति हस्वस्वे कृते हूस्वान्ते उन्र्या- 
¢. स्पर्वम्‌ [६.२.९७४] इत्येष स्वरः प्रामोतिं | स्थानिवङ्कावान्न भवति ॥ 
हह वैयाकरणः सौवश्व हति य्वोः$ स्थानिवद्धावादायावौ¶ृ प्राप्तस्तयो 
प्रतिषेषो वक्तव्यः | 


अचः पूर्वविक्ञानादैचीः सिद्धम्‌ ॥ ९॥ 


यो अनादिष्टादचः पूर्वस्तस्य विधि प्रति स्थानिवद्भाव आदिष्टाचैषो ऽचः पूवैः कि 

10 वक्तव्यमेतत्‌ । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | अचर इति पश्चमी | अचः पवेस्य | 
युश्चेवमदेशो अविदेषितो भवति । आदेश विरोषितः । कथम्‌ | न ब्रूमो यत्पष्ठी- 
निर्दष्टमज्परहणं तत्पभ्चमीनिर्दिष्टं कतैव्यमिति | किं त्यन्यत्कतेन्यम्‌ | अम्यश्च न 
कतैव्यम्‌ | यदेवादः. षष्ठीनिर्दिष्टमज्यदणं तस्य दिकदाष्दैयगे ** पञ्चमी भवति । 
भजादेदाः परनिमित्तकः पुैस्य विधिं प्रति स्थानिवद्कवति । कुतः पथैस्य | अच 
15 हति । तद्यथा । अदेशः प्रथमानिर्ि्टः | तस्य दिक्दाग्दैर्योगि पत्चमी भवति ] अजा- 
देशः परनिमित्तकः पूवस्य विधि प्रति स्थानिवद्भवति | कुतः पवस्य | आदेरादिति ॥ 


तत्रदिशरक्षणप्रतिषेधः | २॥ 
` ` तक्रदेशालक्षणं काय प्रामोति तस्य ` प्रतिषेधो वक्तव्यः| वाय्बोः अधभ्वर्य्वोःऽ| 
लोपो भ्योवैकि [६.९.६६] हति यलोपः प्रामोति || भसिद्धवचन्नत्सिदडधम्‌। अना- 
20 देशः परनिभे्कः पुधैस्य विधिं प्रत्यसिद्धो भवतीति वक्तव्यम्‌ | ` 
असिद्धवचनास्सिद्धमिति चेदुत्सर्गलक्षणानामनुदेराः ॥ ३ ॥ 
असिद्धव चनात्सिधमिति चेदुत्सभलक्षणानामनुदे शः कैष्यः । पटू्ा मुब्येति ॥ 
नन चैवदंप्यसिद्धवचनास्सि म्‌ । . 
असिद्धववनास्सिडमिति चेन्नान्यस्यासिङडवचनादन्यस्य भावः 1} # | 
१ अतिदवचनास्सिद्धमिति चेत्तत | किं कारणम्‌ | नान्यस्यासिडवचनादन्यस्व 


# ६.४. १५५ † ६.४. ४८. { ७,२३.३. ९ ६.९. ७७ नभ ६.९. ७८. 
## २.३. २९. | 





प्र०९. १. ५५. | ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥ ९४७ 


भावः | भ न्यस्य लिद्धस्वादन्यस्य प्रादुभोवो भवति | नृ हि देवदत्तस्य हन्तरि 
शते देवदत्तस्य प्रादुभौवो भवति ॥ 


 तस्मास्स्थानिवदचनमसिद्धवं च । ५॥ 


तस्मास्स्यानिवद्धावो वक्तव्यो ऽसिद्धस्वं च । पटरूया मच्येत्यत्र स्थानिवद्भावः | 
वाय्वोः भध्व्वोरित्यसिडत्वम्‌ | | 5 


उक्तवा | ६ ॥ 


किमुक्तम्‌ । स्थानिवद्भचनानर्थक्यं शाख्रासि दस्वादिति' ` | विषम उपन्यासः । 
युक्तं तत्र ये कादेशशालं तुक्राखे ऽसि स्यात्‌ | अन्यदन्यस्मिन्‌ । इह पुनर- 
युक्तम्‌ । कथं हि तदेव नाम तस्मिन्नसिद्धं स्यात्‌ | तदेव चापि तस्मिन्नसिद्धं 
भवति | बश्यति श्रचा्यैः | चिणो हुकि तम्रहणानथ्यं संघातस्यापरव्ययत्वात्तलो- 10 
शस्व चासि इस्वारिवि† । चिणो लुक्‌ चिणो लुक्येवासिद्धो भवति ॥. . 


कायपतिरिदयतां वा सखासखापि नेह भारो ऽस्ति । 
कल्प्यो हि वाक्यशेषो वाकयं वक्तर्यधीनं हि ॥ 


अथवा वतिनिर्दशो ऽयं कामचार वतिनिर्देशे धाक्यरोषं समथवितुम्‌ । तद्यथा | 
उशीनरवन्मद्रेषु ववाः | सन्ति न सन्तीति | मातृषदस्याः कलाः | सन्ति न स~ 15 
न्तीति | एवमिहापि स्थानिवडवति स्थानिवन्न भवतीति वाक्यशेषं समर्थविष्यामहे | 
इड तावत्पटूचा मृश्येति यथा स्थानिनि यणादेशो भवस्येवमारेश्ेऽपि भवति । इहेदानीं 
वास्वोः अध्वर्वोरिलि यथा स्थानिनि यलोपो न मवत्येवमादेश्े ऽपि न भवति ॥| 

किं पुनरनन्तरस्यं विधिं प्रति स्थानिवद्भाव आहोसित्पूवेमाभ्रस्य | कथात्र विदोषः। 


अनन्तरस्य चेदेकाननुदासदिगुस्वरगतिनिषातिषूपसंख्यानम्‌ ॥ ७ ॥ % 


अनन्तरस्येति चेदेकाननु दासहिगुस्वरमतिनिषातेषुपसंख्यानं करतैव्यम्‌ ॥ एकान- 
गृदात्त | लुनीद्यत्र पुनीद्यत्र {| अनुदात्तं पदमेकवजैम्‌ [ ६.९.१९८ | इत्येष स्वरो 
ने प्रभोति || डिगुस्वर | पश्चारणल्यः दशारल्यः | इगन्तकाल | ६.२.२९ ] इस्येष 
स्वरो न प्रामोति || सतिनिषात | यललुनीद्यत्र यल्यपुनीद्यत्र | तिडः चोदात्तवति 
[८.९.७९] इस्येष स्वरो न प्रामोति | अस्तु तर्हि पूवैमत्रस्य । ` 25 


== ~~ -०-- न  -ध => ~> क-म, 


* ६. १, ८६५. † ६. ४. १०४५, ‡ ३.१. ४; ६, ९. ७, 


२७८ ॥ व्याकरणक्हाभोष्यब ॥  - [म०९.९.८ 
` पूर्वमात्रस्येति चेदुपधाहूस्वस्वम्‌ ।| ८ ॥ 


पृवेमा्रस्येति चेदु पधादूस्वत्वं वक्तव्यम्‌ । वादितन्रन्तं प्रथोजितवान्‌ भवषीवद्‌- 
हीणा परिवादकेन | कि पचः कारणं न सिध्यति यो ऽतौ. णौ णिर्प्यते* तस्य 
स्थानिवद्धावाद्भप्वस्वं† न प्राप्रोति ॥ 


5 । गुरुसंज्ञा च ॥ ९ ॥ 


गृरुसंज्ञा च न सिध्यति । सेष्माश्च वित्तश्च दाश््यश्च माश्ध्वश्वः | हलोज- 
-न्तराः संयोगः [१.९.७] इति संयोगसंज्ञा संयोगे गुरु [९.४.१९ | इति गुरुसंशा 
गुरोरिति. श्रुतो न प्रामोतिऽ | ननु च यस्याप्यनन्तरस्य विधिं प्रति स्थानिकद्ाव- 
स्तस्याप्यनन्तरलक्षणो विधिः संयोगसंज्ञा विधेया ॥ 


10 न वा संयोगस्थापूर्वंविपिष्वात्‌ ॥ १० ॥ 


न वैष तोषः | किं कारणम्‌ । संयोगस्याप्वैविपित्वात | न पर्मविषिः संयोगः | 
किं तरि | पूवैपरविधिः संयोगः ॥ 


एकदेशास्योपसंख्यानम्‌ ॥ ९९ ॥ 
` एकादेशस्योपसंख्यानं कतेव्यम्‌ } श्रायसौ गौमतौ चातुरौ भानडहौ पादे उद- 
15वाहे. | एकादेशे कृते¶ नुमामौ पद्भाव ऊडिस्येते विधयः प्रामुवन्तिः* || किं पुन 
कारणं न सिध्यति | 


उभयनिमित्तत्वात्‌ ॥ ९२ ॥ 
अजादेशः परनिमित्तक इत्युच्यत उभयनिमित्तथायम्‌ || 


“ . . उभयादेदावाद्च ।। ९३ ॥ 


20. अच आदेश हत्युच्यते ऽचोधायमादेशाः || नैष दोषः । यत्तावद्च्यतं उमय- 
निमित्तत्वादिति । इह यस्य भामे नगरे वानेकं काये भवति शक्रोत्यसौ ततो ऽन्व 
तर द्यपदेषटुम्‌ । तद्यथा | गुसानिमित्तं वसामः | अध्ययननिमित्तं वसाम इति ॥ 
यद्प्युच्यत उभयादेशत्वाचेति | इद यो इयोः षष्ठीनिर्दि्टयोः भरसद्खे भवति लम 
ऽसाषन्यतरतो भ्यपदे शम्‌ । तद्यथा । देवर्तस्य पुत्रः | देवदत्तायाः पुत्र इति | 


9 ६.४. ९१, † ७.४.१. { ६,१.९८; ६.१.७७. § <.२,८५. म ६.१, ८८; ८५, 
+* ०.१.८५०; ९८; ६.४. ९३०; ९३ । | 











पण १.९.५७. ॥ व्याकस्नमरहमाष्यम्‌ ¶ "` ४९ 
अथ शलचोरदेशः स्थानिवद्भवस्युताहो न । कात्र विरोषः | 
हसरूखोरादेदाः स्थानिवदिति वचेदिदातेस्तिलोप एकादेशः । ९४ ॥ 
हलचोरादेदाः स्थानिवदिति चेर्िशतेस्तिलोप' एकादेशो† वक्तव्यः | विंशकः 
विशं कतम्‌ विहः ॥ | 
स्थूलादीनां यणादिलोपे अवादेशः । ९९ ॥ ४ 
स्थुलादीनां यणादिलोपे कृते‡ ऽवादेशोऽ वक्तव्यः | स्थवीयान्‌ दवीयान्‌ ॥ 
केकयमित्रय्वोरियादेदा एत्वम्‌ ॥ ९६॥ 
केकयमिन्नय्वोरियाेश्च% एत्वं न सिध्यति | केकेयः तनत्रेयः | अचीव्येत्वं** 
न सिध्यति ॥ | | 
| उतसरपदकोपे च ॥ ९७ ॥ 10 
उन्तर पदलोपे च दोषो भवति | दध्यु पसिक्ताः सक्तवो दधिसक्तवः††|अचीति 
यणादेशः प्रामोति‡‡ ॥ | 
यङ्लोपे यणियङ्वङः ॥ ९८ || 
यङ्लोपे 9 यणियङकवडो न सिध्यन्ति । चेच्यः नेन्यः चेक्षियः चेक्रियः लोलुवः 
पोपुवः | अचीति यणियङ्कुवडो1¶ न सिध्यन्ति ॥ भस्तु तर्हिं न स्थानिवत्‌ ॥| 
अस्थानिवंच्वे यङ्लोपे गृणवृदिमरतिषेधः ॥ ९९॥ 
अस्थानिच्वे यङ्लोपे गुणवुग्योः" “° प्रतिषेधो वक्तव्यः | लोलुवः पोपुवः स- 
रीखपः मरीमूृज इति ॥ तेष दोषः । न धातुलोप आार्षषासुके [ ९.९.४ | इति 
प्रतिषेधो भविष्यति ॥ 
किं पुनराभ्रीयमाणायां प्रकृतौ स्थानिषद्वत्याहोस्विदविशेषेण | कथात्र विदोषः] 20 
अविशेषेण स्थानिवदिति चेष्ोपयणादेदो गुरुविधिः | २० ॥ 
अविशेषेण स्थानिवदिति बेष्ठोपयणारे शयोगु रविधिने सिध्यति। बष्मादघ्र पिन्ता३- 
. घ दाश्ष्यश्च मारश्ष्वश्च111 | हलो न्तराः संयोगः [ १.१.७ | इति संयोगसंज्ञा 
संयोगे गुर [ ९.४.९९ | इतिं गुरुसंश्चा गुरोरिति श्रुतो न प्रामोतिः‡ || 


= ९.९. २४ ९.२. ४६९ ४८; ९.४.९४२. 1 ६.९. ७. { ६४. १५६९. § ९.९.७८ कर्य 
@9 ६.१. ८७, +1† २.१.३४१, {{ ६.९.७७, §§ २.४.४४. णृ ६.४. ८२; ७९, 
#+## ७.३. ८४ ; ८६; ७.२. ९९४. 111 ६.४. ९८ ; ६.९. ७७, ‡{‡‡{ <.२. ८६. 


१९५० ॥ व्ाढरनग्रहाम्राष्यन्ः॥ . (०९.९१. ८ 


दिकंचनादयश्च -प्रतिचेषे ॥ २९.॥ 
` शिवैचनादधश्च प्रतिषेधे वक्तव्याः | हिर्वचनवरेयलोपेतिः 1 


क्सलोपे लुग्वचनम्‌ ॥ २२ ॥ 
क्सलोपे लुग्वक्तव्यः | अदुग्ध अदुग्धाः | दुग्वा दुहदिहलिहगुहामात्मनेपदे 
४ दन्त्ये [७.३.७३] इति ॥ 
हन्तेर्घत्वम्‌ ॥ ९३ ॥ 
हन्ते घत्वं क्क्तभ्यम्‌ । परन्ति न्तु अघ्रन्‌ः | अस्तु तद्यौभ्रीयमाणायां प्रकृ 
ताविति | | 
ग्रहणेषु स्यानिवादिति चेज्जश्ध्यादिष्वादेराप्रतिषेधः ॥ २४ ॥ 
10 बहणेषु स्थानिवरिति चेज्जग्ध्यादिष्वादेश्चस्य प्रतिषेधो ष॑क्तव्यः| निराद्य स- 
म्य$ | अदो जग्धिल्येप्नि किति [९.४.२६९] इति जग्धिमावः भरामोति ॥ 
यणे युलेपित्वानुनासिकाच्परतिषेधः ॥। २५ ॥ 
यणादेशे¶ युलेोपेत्वानुनासिकाष्ट्वानां प्रतिषेधो वक्तव्यः || यलोप | वाय्वोः 
अध्वय्क्रीः | रोपो व्योवैकि [६.१.६६] इति यलोपः प्रामोति || उलोप | अकुर्वि 
15 आद्राम्‌ अकुव्यौशाम्‌ । निर्यं करोतेर्ये च [६.४.१९०८,१०९] इत्युकारलोर्षः 
प्ामोति | हस्व । अल्नि आशाम्‌ अलुन्यादाम्‌ । & हल्यघोः [६.४.१९३] 
इतीत्वं प्रामोति || अनुनासिका्व । अजङ्गि भाशाम्‌ अजत्याशाम्‌ । ये विभ्प्रषा 
[६.४.४२] इत्यनु न।सिकास्वं प्रामोति || 
| | रायात्वम्रतिषेधश्च ।। २६ ॥ 
20 . राय आ्विस्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः | रावि भाश्याम्‌ राय्याश्चाम्‌ । रायो शि 
[७.९.८९] इत्यात्वं पामोति ॥ 
दीधे यरोपपरतिषेषः ॥ २७ ॥ 


दै यलोपस्य प्रतिषेपो बक्तभ्यः । यैर्वै नाम हिमवतः शृङ्गे तहान्तीर्यो हिम- 
धानिति साविनाश्रये दीर्घस्ते कृत°* हेति यलोपः प्राभोति1+ || | 





+ १.१९. ५८. † ०.२.७२; ८.२. ८५. { ६.४. ९८; ०.३.५४, § ६.४. ५१. ¶ु ६.९.७०. 
** ६,४.१९. +1† ६.४. १४९. | 








पो० ९.१.५८. ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम ॥ १.५९ 


अचोः दीव यलोपवचनम्‌ ॥..२८ ॥ ` 

भतो दीं यलोपो वध्यः ] गागौभ्याम्‌ वास्साभ्याम्‌ । दीष कृत" आपत्यस्य 
च तद्धिते ऽनाति [ ६.४.१९९ ] इति प्रतिषेधः प्रामोति ॥ वैष दोषः | भाश्रीयते तत्र 
प्रकृतिस्तद्धित इति || सर्वेषामेष परिहारः । उक्तं विधि्रहणस्य प्रयोजनं विधि- 
मातरे स्थानिवद्यथा स्यादनाश्रीयमाणायामपि प्रकृताविति || अथवा पुनरस्त्वविशे- 
वेण स्थानिवदिति । ननु चोक्तमविशेषेण स्थानिवदिति चेहछोपयणदेशे गुरुविधि- 
िवैचनादयथ क्सलोपे लुग्वचनं हन्तेधैत्वमिति । नैष दोषः | यत्तावदुच्यते 
उत्रिरोषेण स्थानिवदिति चेष्ठो पयणादेशे गृरुविधिरिति । उक्तमेतत्‌ } न बा संयोग - 
स्यापुरवीविधिस्वादिति | यदप्युच्यते दिवेचनादय्च प्रतिषेष वक्तव्या इति | उच्यन्ते 
न्यास एव ॥} क्सलोपे दुग्वचनमिति | क्रियते न्यास एव || हन्तेषैस्वमिति } सप्तमे 10 
परिहारं वदेयति! || 


॥- 1 


न पदान्तद्विवेचनवेरेयलोषस्वरसवणोनुस्वारदीषैजश्च- ` 
विधिषु ॥ १ ।१ ।५८ ॥ 
, पदान्तविधिं प्रति न स्थानिवदि्युच्यते तत्र वेतस्वानिति दः प्रामोति{ | तरैष 
रोषः | भसंज्ञात्र बाधिका भविष्याति तसौ मत्वर्थे [ १.४.१९ | इति] भकारान्तमे- 15 
तद्ग सज्ञां प्रति | पदसं प्रति सकारान्तम्‌ । ननु चैवं विज्ञायते यः संप्रतिपदान्त इति। 
कमेसाधनस्व विधिरम्दस्योपादान एतदेवं स्यात्‌ । अयं च विधिद्ाब्दो सत्येव कमे- 
साधनो विधीयते विधिरेति | अत्ति भावसाधनो विधानं विधिरिति | तत्र भावसा- 
धनस्य विधिशचब्दस्योपादान एष दोषो भवति । इद च ब्रह्मबन्ध्ा बरह्मबन्ध्रे धकारस्य 
जत्वं प्रामोति$ || भसति पुनः किंचिद्धावसाधनस्य विधिराब्दस्योपादाने सतीष्टं ‰0 
खंगृहीनमाहोसिङेषान्तमेव । अस्तीत्याह । इह कानि सन्ति यानि सन्ति कौ स्तः वौ 
स्त इति यो ऽसौ पदान्तो यकारो वकारो वा भ्रयेत¶ सन श्रूयते | षडिकथापि 
सिद्धो भवति ^} वातिकस्तु न सिध्यति†† | अस्तु तार्दि कर्मसाधनः ] यदि कर्मसाधनः 
वडिको म सिध्यति | अस्तु तर्हि भावसाधनः | वाचिको न सिध्यति | वाचिक- 
दधिकं न संवदेते | कतैव्य्रो ऽत्र यलः{‡ || कथं ब्रह्मबन्ध्वा ब्रह्मबन्धव | .उभयत 5 


- > ८. ३. १०२. ¶† ७.३. ५४५४, ‡ ४.२. ८७; ६.५. ९४३ ; ९.४. ९७; ८.२, ६६, 
$ ४.९ ६६; ६.१. ६.०१ ; १.४. १०.८२. ३९. ¶ृ ६.४. ११९ ; ६.९. ७७; ७८, 
+# ९.३. ०८; ९; ६.५. १४८ ; ९.४. १७; ८.२.२९. 11 ८२. ३०. {| ९.३. <५.* 


१९५९ . 1 व्करकच्रटत्कष्वत  ([म०.९.८ 


अत्रये नान्तादिकदेति || कथं वेतस्वान्‌ 1. वैवेः त्रिञ्ञायते प्दस्यान्तः पदान्तः, 
पदान्त्िधिं प्रवीसि । कथं तर्हि |. परे ऽन्व; पसन्तः पदान्तविधिं प्रतीति +|-भथवा, 
यथेवान्यान्यपि पदकायोण्युपशचवन्ते दत्वं जदु्वं चेवमिदमपि पदकायैमुप्चोष्वते ।. 
किम्‌ । भसंज्ञा नाम || 

४ वरे यलोपविधिं प्रति न स्थानिवद्ूवतीत्युच्यते तत्र ते प्छ यायावंरः* प्रवपेत 
विण्डान्‌ अवणलोपनिरधि प्रति। स्थानिवस्स्यात्‌ | नैष दोषः | वैवं विज्ञायते षरे 
यलोपविपि प्रति न स्थानिवद्वतीति | कथं तर्द । वरे यलोपविधिं प्रीति । 
किभिदमयलो पावि धिं प्रतीति । अवणेलो पविपिं प्रति यलोपविषिं च प्रतीति | भथकवा 
योयविभागः करिष्यते । वरे लुपं न स्थानिवत्‌। ततो यलोपभिधिं च प्रवि न 

10 स्थानिबदिति || यलोपे किमुदादरणम्‌ । कण्डूयतेरमत्ययः कण्डूरिति‡ । नैतद- 
स्ति | कौ लुपं न स्थानिवत्‌ || हदं तर्हि । सौरी 9 बलाका | नैतदस्ति | उपधात्व- 
विधिं प्रति न स्थानिवत्‌ || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । आदित्यः¶ । नैतदस्ति । पुरम 
चासिदधे न स्थामिवत्‌ || इं तर्द । कण्डूतिः वल्गृतिः” । तरैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | 

कण्डूया वल्गूयेति भवितव्यम्‌ ।| इदं तर्हिं । कण्डूयतेः क्तेन्‌ । ब्राहमणकण्डूतिः 
15 क्षत्रियकण्डुतिः || ` ॥ि 

पतिषघेषे स्वरदीषेयकोपेषु रोपाजादेशो न स्थानिवत्‌ ॥ ९॥ ` 


प्रतिषेधे स्वरदीधयलोपविधिषु लोपाजदेशो न स्थानिव वतीति वक्तव्यम्‌ | 

स्वर | आकर्पिकः चिकीर्षकः जिदीर्षकः11 | यो ह्यन्य आदेशः स्थानिवदेवासौ 
भवति | पत्चारल्यः दशारल्यः+‡ । स्वर || दीषे | प्रतिरीतरा प्रतिदीत्रे$$ | यो ह्यन्य 
20 आदेशः स्थानिवदेवासौ भवति | किर्योः गियेः¶ृर्¶ं | दीवै || यरोष | ब्राह्मणक 
ण्डूतिः क्षज्रियकण्डूतिः । यो ह्यन्य अदेशः स्थानिवदेवासौ भवति | वाय्वोः अध्व- 
सरवोरिति ]| ततर्द वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | इह हि ठोपो अपि प्रकृत आदेशो 
अपि विपिम्रहणमपि प्रकृतमनुत्रपैते दीषौदयो ऽपि निर्श्दियन्ते | केवलं तत्राभिसं- 
बन्धमानरै कर्ैष्यम्‌ | स्वरदीषेयलोपविधिषु रोपाजादेश्चो न स्थानिवदिति । आनु- 

५, पर्ववैेण संनिविष्टानां यये्टमभिसंबन्धः राक्येते कँ न॒चैतान्यानुपू्व्येण सनिवि 
` छाति | अनानपर्व्यैेणापि संनिविष्टानां ययेष्टमभिसंबन्धो भवति | तद्यथा | अन- 


३.२. १५; ६.४. ४८; ६.६. ६६ † ६.४. ६४ { ६४. ४८; ६.२. ६६ 
§ ५.४. ९४८९५४९ 4 ४.२. २४; ४.३. ५३; ८.४. ६४ + ६.४. ४८; ६.९. ६६. 
11 ४.४. ९; ३.९. १२; ६.४. १४८; ४८; ६.९. ६९२ {4 ५.९. *९; ६.२. २९. 


§§ ५.४. ९२४; ८.२. ७७ 44 ६.१. ७५, 


फेण ९.२.५८. न व्याकरणक ॥ १.५३ 
हैमुदेहारि भा स्थं हरति शिरसः क्म गिनि साषीनममिषाषन्तमद्राभ्ीरिवि। 
तस्य धयेष्टमभिद्धवन्धो मवति | उदाद्यरि मगरिनि वाः सरं.कम्भं हरसि शिरसानतः 
कषे साधीनमभिधावम्तमद्राक्षीरिति-॥ | 


किटुगुपधास्वचङ्परनिद्रासकुस्वेधूपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 


क्िलुगुपधास्वचङ्परनिहीसकुस्वेषुपसं ख्यानं कतेव्यम्‌. [| कौ किमुदाहरणम्‌ । 5 
कण्डूयतेर प्रत्ययः कण्डूरिति । तैतदस्ति । यलोपविधिं प्रति न स्थानिवत्‌ || इदं 
ताह | पिपठिषतेरप्रत्ययः पिषटीः^ नैवदस्ि | दीधैविर्पि. पति न स्थानिवत्‌ ॥ इदं ` 
तर्हि | लावयतेर्ती, पात्रयतेः .पौः† | तरेतदस्ति |. भक्त्वा वृद्धा वादे ती णिलोपः । 
भरत्ववरक्षणेन वृदिर्भविष्यति || इदं त्रि ¡ जवमाच्टे रवयति | कवयतेरप्रत्थयो लीः 
पौः | स्थानिवद्ावाण्णेरूण्न पाति । को लुपं न स्थानिवदिति भवति || एवमपि न 10 
सिध्यति | कथम्‌ | हौ गिलो णावकारलोपरदतस्यु स्थानिवदधावादुण्न प्रामोति | ` 
पेष दोषः | त्रैवं विक्षामेते ज्ञौ ठुप न स्थानिवदिति । क्रम ताह | कौ विपि प्रहि ब: 
स्ानिवरिति || लकि.किमुदाहरणम्‌ । बिम्बम्‌ बदरम्‌; | नैतदस्ति | पुंवद्धावेनाप्येत- 
स्सिदधम्‌9 || इदं तरदि। भामलकम्‌र् | एतदपि नास्ति | वद््यस्येतत्‌ | फले लुग्वचनान- 
चैक्यं प्रकृत्यन्तरस्वादित्रि** || इदं तर्द । पश्चभिः पटीभिः क्रीः फपटः द शपट- 15 
शिति1 | ननु तेतदपि पुंवद्धावेत्रैव सिडम्‌ । कथं पुंबद्धावः. | भस्वाढे तरिके पुंव- 
वतीति | भस्येस्युच्यते -यजादौ च भं भवति‡‡ न चात्र यजादि परयामः । प्रस्य- 
यलक्षणेन यजारिः | वर्णाश्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणम्‌ | एवं तर्द उक्डसोधेत्येवं 
भविष्यति$5§ | ठक्डसोभेत्युच्यते न चात्र उक्कसौं परयामः | प्रत्ययलक्षणेन | न 
दुम वस्मिचितिर्ृ¶ृ प्रत्य यलक्षणस्य प्रतिषेधः || न खल्वप्यवदयं उव क्ीवपरस्ययेः 20 
्ीताथर्थ एव-वा तद्धिताः |. किं ताईं | अन्येऽपि ताडिता येः लके मरयोजयन्ति | 
पन्चन्त्राण्योः देवता भस्येति परेन्द्रः दशेन्दः पश्चोभिः ददापिः+** || उपधास्वे 
किमुदाहरणम्‌ । पिपठिषतेरप्रस्ययः पिष्ठीरिति | वैबदस्ति | दीषैविर्पिःप्रति न स्था 
निवत्‌ || इदः तर्हि । सौरी. बलाका | तरैतदत्ति ] यलोपविधिं प्रति न स्थानिवत्‌ || 
इदं ताहि | पारिखीय:111 ।| चङ्परनिष्से चोपसंख्यांनं कर्तव्यम्‌ | वादितवन्तं प्रयो - 25 








क ६.४० ४८; ८.२. ६६; ® ६.४. ५९ ; ९९ ; ६.९. ८९ 
‡ ४.३. ९४० ; ९६३ ; ९.२. ४९; ( ६.४. ९४८) § ६. ३.१५ ष ४२.२४४. 


+° ४.३.९६३. †† ५.९.९९; २८ ९.२. ४९; (६.९. ००). { ९.५.१९८. §§ ६.६. २.१ 
¶¶९.९. ६द.४* ++ ५.२.२४; ४.९. ८८; १.२.४९; (४.१.४५; २७; ६ ४,१४८) 
111 ४.२.२५; ८.५ १४८; ४.२.१४. ` 

५0 ॐ 


" १.५४ ह व्याकरणपहापाष्यय + [०९.९४ 
जितवान्‌ भवीषददीणां परिवादकेड* } जि पुनः कारणं न सिप्यति | यो ऽसौभै 
` गिरलप्बते तस्य स्थानिवङ्धावाद्स्वत्वं च प्रामोति । लनु चैषदप्युपघात्यविंपि अति न 
स्थानिवदिव्येय सिद्धम्‌ । विशेष एतदक्तष्यंम्‌ | क 1 प्रत्ययतिधाविति |. इह भा 
भूत्‌ | पटयति ठषय॒तीति† ॥ कर्वे चो पसत॑ख्यानं कर्वव्यम्‌ | अर्चैयतेर कः मचेव- 
 तेमैकः‡ | वैतडयन्तम्‌ । मणारिक एष कराष्दस्तरिमिचाष्टमिकं कुत्वम्‌ऽ । एत- 
‡ दपि गिच। ध्यवहितस्वाघ प्रभोति ॥ | 
पूवंवाकिदे च 12 ॥ 
पुवत्रासिदधे च न स्थानिवदिति वक्षयम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ । 


पयोजनं कसरोपः सलोपे 1 ४ ॥ 
10: क्सलोपः सलोपे प्रयोगनम्‌५ | .अहुध ब्ुग्धाः 1. लुरवः दुढरि दतिदगुहामा- 
स्मनेपदे दन्त्ये [७.२.७३] इति लुग्रहणं न कैष्यं भवति ॥ 
| | दध आकारलोप आदिषतुर्थत्वे 1 ९ ॥ 
दध आकारलोष “ भारिवतुर्थतवे भ्रयोजनम्‌ । धस्ते धद धड्ुमिति । दधस्तबोष 
[८.२.३८] इति चकारो न कतेष्यो भक्ति ॥ 
1. ` हली यमां यमि लोपि 1 ६ ॥ 
हलो मां दमि लोपे प्रयोजनम्‌ | आदित्यः | हलो यमां यमि लोपः. सिरो 
भवति ॥ | 
अद्धोपणिरोषी संयोगान्तलोपप्रभूतिषु }। ७ | । . - 
भकछलोपणिलोपौ संयोगान्तलेएपरभृतिषु प्रयोजनम्‌ । पपय्यतेः पापक्तिः | याव- 
ज्वतेखोवहिः | पाचयतेः पाकः । याजयतेर्या्टिः‡‡ ॥ 
20 
दिवखनादीनि च ॥ ८ ॥ 


दिवे चनादीनि च न पठितव्यानि भवन्ति | पर्वैत्रासिद्धेमैव सिद्धनि भवन्ति ॥ 
किमबिशेषेण । नेत्याह । 


* ७,४५.६... † ६.४ ९५५; (०.२. ६९६) †‡ ३.३.९९; ६.४. ५१; ९, ३.-५३. §. <.२. ३०. 
4 ८.२. २६. >> ६.४. ९१२. 11 ८.४. ५४. 1.९. ४. ४८; ५९; ८.२.२०; ३६. 





¶़०,१.१.५९..] „# व्वाकरणह्याच्ययं. | ६५५ 


| बरेयलोपस्वरवजंम्‌ ॥ ९ 4 
, ` बरेयलोयं स्वरं क कर्मयिस्वा । 
तस्य दोषः संयोगादिरोपलस्वणव्वेषु ॥ ९० ॥ 
तस्यैतस्य लक्षण॑स्य दोषः संयोगादिलोपलस्वणव्वेषु ॥| संयोगादिलोप | काक्यर्थम्‌ 
वास्यम्‌” । स्कोः संयोगायोारन्ते च [ ८. २.२९ ] इति लोषः -प्ामोति || लस्वम्‌ | ४, 
नियते निगाल्यते। | भवि विभाष [ <. २. २९ | हति लस्वं न प्रामोति || गस्वम्‌- | 
माषवपनी व्रीहिवफनी; | प्रातिपदिकान्तस्येति$ गत्वं भाकरोति. | 


दविषचने ऽचि ॥१।१.।.५९.॥. 


अदिरौ स्थानिवदनुरेरालदतो द्विवचनम्‌ || ९॥ 
| श्रारेखे स्थानिवदनदेश्चालदतः | किंवतः | भादेशथतो हवे चनं परापोति ॥ त्र 10 
को रोः | । 
.. , तेत्राभ्यासरूपम्‌ः। २ ॥ 
बत्राभ्यासङ्पं न तिध्यतिः | चक्रतुः चक्ुरिति॥ ॥ 
अञ्प्रह्णं तु ज्ञापकं रूपस्थानिवद्धावस्य ॥ ६॥ 
. यदयमज्महणं करोति तज्जापयत्याचायो रूपं स्थानिवङ्वतीति | कथं कृत्वा 15. 
ज्ञापकम्‌ । ज्पहणस्यैतसयोजनमिह मा भूत्‌ | जेत्रीयते दे^्वीयत इति"” । यदि रूपं | 
स्थानिव वति ततो ऽञ्प्रहणमयेवदवति ! भय € कायु नार्थो ऽज्पहणेन | भव- 
व्येवात्र द्विवचनम्‌ || ` | 
| तत्र गाङ्प्रतिषेधः ॥ ४ ॥ 
तज गाडः प्रतिषेषो वक्तव्यः | अधिजगे | हवणोभ्यासता प्रापोति | न व्क- 
व्यः | शड्‌ लिटि [२.४.४९ | इतिः हिलकारको निर्दश्चः |` लिरि लकाराकाविति ॥ 
कृत्येजन्तदिवादिनांमधातुष्वभ्यासरूषम्‌ ॥ ९ ॥ ` ` 
 कृस्येजन्तरिवारिनामधातष्वभ्याससरूपं न सिध्यति [केति | अनिकीर्तेत्‌11|कति॥ 


४ ६.९, ७९ { ६.४. ५९ { ९.४. ९४८ €$ ८.४.९९ ¶| ६.९. ७९, ९ 
। + ७.५, ३९ 1|..१. ९५०१. 


ण ॥ 
1.५६ ॥ ववाकर्णयहाभाव्यच #  {[क०-९.२.८६ 
९एजन्व । जग्डे मम्ले* | एजन्न ॥| द्विकारि । दुशूषति खस्युषति। | दिवादि | नाम- 


धातु | भवनमिच्छति ` भबनीयति भवनीयतेः . सत्‌ : बित्रतंनीविषतिः. |}; एवं वरद 
भरस्यय इति वह््यामिः | 


परस्यय इति चेस्कृष्येजन्तनामधातुष्वभ्यासरूषपम्‌. 11 & +; 

्र्यय ` हेति चेस्कृत्येजन्तनार्मपातुप्वभ्यासरूथं न सिध्यति | दिवादय एके परि: 
ताः |] एषं ताहि दिर्वचननिभिन्त्‌ ऽच्यजदिरः स्थातिवंदिति . वक्ष्यमि | स तः 
. निभित्तरदाब्द उपादेयो न न्तरेण निभिश्लशञष्दं विभित्तर्थौः ` मम्यते | अन्तरेणापि. 
निमित्तशब्दं निमित्तार्थो गम्बते | तद्यथा | दधित्रपुसं भत्यक्षो ज्वरः | ज्वरनि- 

मि्तमिति गम्यते | नङुलोदे लोदकं कदरोमः । पादरोगनिभित्तमिति यम्यते । भायुष 
10 तम्‌ | आयुषो निमित्तमिति गम्बतं | १ अथवांकांरो मत्वर्थीयः `| दिवैचनम- 
स्मिच्स्ति सो ऽवं हिव चनो हिवैचन इति ॥ एवमपि न ज्ञायते. कियन्तमसौ कालं 
स्थानिवङ्कवतीति } यः पुनराह हिवेचने कतेष्य इति कृते तस्यं (देवे खने स्थानिवज्च 
 * ` भविष्यति 1] एवं ताह प्रतिकेधः प्रकृतः सो शनुषर्विष्यते । क प्रकृतः. | नै पदान्न- 
हिवेचन [१.१.५८] इति | हिवैचननिभिन्ते ऽख्वजादेश्यो न भवतीति | एवमपि न 
15 कयते केयन्तमसौ कालमदिश्लौ म भवतीति | यः बुनराह शहिवैचने कतैन्य इति 
कृते तस्य दिवे चने ऽजादे शो सविष्वति || एवं तक्ठैभग्रमनेम क्रि यते प्रसयथ. किरे- 
प्यते शिवेचनं च । कथं पुनरेकेन यलेनोभयं . लभ्यम्‌ । रभ्यमित्याह } कथम्‌ । 
एकशेषनिर्देशात्‌ । एकशेषनिर्देशो ऽबम्‌ । हियैयनं च श्िवैचनं च -हिमै चनम्‌ 1 
दिवेषने च कतेव्ये हिव चने अचि प्रस्यय हति हिव च॑ननिमित्ते अनि स्यानिवेदवति ॥ 


20 द्धिव॑चन्‌निमिकते ऽचि स्थानिवदिति चेण्णो स्थानिकव्दवनम्‌ ॥ ७ ॥ 
द्िवैचनमिमित्ते अचे स्थानिचदिति चेण्णौ स्थानिवद्ावो वक्तव्यः .| अचनुन्पव्‌- 
विषति अव चुक्षावथिषति ॥ न वक्तव्यः | , 
.-.. .ओः पुयण्जिषु वचनं शपकं णौ स्थानिवद्भावस्य ॥ ८ ॥ 


चद कमेः -पुवण्म्यपरे [७.४.८०] स्वाह तञउङ्ञापथस्थाचार्थो मवति. ण्डे. स्था 

2 निवदिति । यद्येतज्कषाभ्यते अव्रिकीसेत्‌ भक्रापि प्रामोति | तुल्यजातीयस्य ज्ञापकम्‌ ] 
कथ तुल्यजातीयः | यथाजातीयकाः पुयण्जयः | कथयंजातीय काते । अवणेषरः ॥ 
कथं जग्ले मम्ते | अनैनितिकमारवं दिति तु प्रतिबेधः 1. `` कथं जण्ते मम्ते | अनैनित्तिकमारवं शिति शु प्रतिषेधः ।| . ,_ _, . .. 


* ६.९. ४५. ‡ ६.४.१९; ४.६. 49 -` ०.६. ८४; ६.६. ०८, 











पर २.२.५९. ॥ धवाकरनप्टान्वपषीः ६५9 


कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि | पपतुः पपुः तस्थतुः तस्थुः | जंग्मतु 
जग्मुः | आटिटत्‌ शज्चिक्रात्‌ । जेक्रवुः-चक्षीरिति .। -भालोपोचलोपणिलोपयणा- 
देशेषु कृतेष्वनचस्कत्वाद्धिवैवनं न प्रामोति† | स्थानिवङ्धावाङधति || तैषाधभि सन्ति 
प्रयोजनानि .। पृर्वजिभरतिकेेनपयकाति सिद्धानि । कथम्‌ 1 व्रदेजंति द्या्ायैः [ दिवै- 
चनं .कणयवायावदे गोपी पधाढोषर्णिकोपक्िकिगोरच्वेम्त्र .इतिः 1 स -पूतैविप्रकिःः 5 
पेणो न पडितस्यो भवति || किं पनरष अ्याथः  स्थाभिवङ्रा् एवःज्जामराव्‌ | पवेविध्र~ 
तिषेे हि सतीदं वक्तष्यं स्यात्‌ । ओरैद्मदेश्षस्योडधति वचुदुतुशारादेरभ्यासस्थेति । 
ननु च स्वयापीस्वं वक्रव्वरम्‌१ | पराथ मम्‌ भविष्यति सन्यत इद्धवतीति¶ृ । ममापि 
तद्य पराये भविष्यस्वुत्परस्यातस्ति खं [७ ८८,८९] इति । इन्टमयि स्वर्या 
वत्तर््यं यत्स॑मानाभयं तदर्थम्‌ | .उप्पिपंविषते संवियविषंतीस्येवमर्थम्‌ ]| तैस्मास्स्था. 10 
निवदिर्येष एत्र पक्षो ज्यायान्‌ ॥ ` 


, इति िभगवस्पतश््रङिविरनिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्वायस्य प्रथमे 
पदे ्टममाह्िकम्‌ ॥. ` ' ` `` ~“ 1. 


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( २,९.१.-५४१.९८५६ ९.९.०० 1 ५.९.९२ य ९९, ११ ०१.८०, १०.०९. 


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॥॥ ॐ 


६4८ ॥ ध्याकरनबहाभाव्यम्‌ ॥ [मर १.१.९. 
` अदनं कोपः ॥ १. । १. 1 ६० ॥ 


| र्यस्य संज्ञा कष्या शृष्दस्य भा भूदिति ] इतरे्राभ्रयं च भवति | केनरे- 
` वराभरयता | सतो दीनस्य संश्ञवा भवितव्यं संज्चेया चाद द्ौनं भाष्यते तदेतदि- 
तरेतराश्रयं भवति | इतरेकराभ्रयाणि च न प्रकल्पन्ते 


& `  रोपसंज्ञायामर्थसतीरक्तम्‌ ॥ ९ ॥ 
किग॒क्तम्‌ । . अथस्य तावदुक्तम्‌ |. इतिकरणो अथेनिर्दे शाय इति* |. सतो 
स्युक्कम्‌ । किदं तु नित्यदाम्दस्वादिति। । नित्याः शाब्दाः । निस्येषु च शब्देषु 
खतो उददोनस्व संज्ञा क्रियते न -संशषवारर्शानं भाष्यते |॥ - ` 


सर्व्रसङ्गस्तु सरव॑स्यान्यत्रादृष्टस्वात्‌ ॥ २ ॥ 
10 सवेभरसङ्गस्तुः भवति । सर्वस्वादर्हौनस्य खोपसंश्ा प्रामोति ॥ किं कारणम्‌ [ सथै- 
स्यान्यत्रादृष्टस्वात्‌ । सर्वो हि. छष्दो यो यस्व प्रयोगविषयः स ततो ञन्य॒त्र न दृश्यते | 
रपु जल्वित्वन्राणों ऽदद्योनं तश्राददीम लोप इति लोपसंज्ञा प्ामोति । वत्र को दोषः;। 


तत्र प्रस्ययलस्षणप्रतिषेधः | ३ ॥ 


तश्र प्रत्ययलक्षणं कार्यं प्राति तस्य प्रतिषेषो व्कव्यः | भवो णिति 

15 [७. ९. ९१९ ] इति वृद्धः प्रामोति ॥ तेष दोषः | उणवस्यङ्गस्याचो वृद्धिरुच्यते | 

यस्मास्पत्ययविधिस्तदारि प्रत्यये ऽङ्गं भवतिः । यस्माशाज प्रस्यत्रधिभिने तसत्यये 

परतः | यख प्रस्यये परतो न तस्मास्पस्ययविधिः || किपस्तद्येददोनं वज्रा चेनं खोए 

इति लोपसंज्ञा फपोति | तजर को दोषः | तञ्च प्रत्ययलक्षणप्रतिषेधः | बब प्रस्यय- 

लक्षणं काव प्रामोति तस्य परतिषेषो . बक्छध्वः । दस्वस्व पिति हृति सुग्भवतीवि 
20 तुक्मामोति$ || | 


सिदे तु परसक्तादशनस्थ रोपसंिस्वात्‌ । ४ ॥ 


सिडमेतन्‌ | कथम्‌ । प्रसक्कादहोनं लोपसंश्ं . भवतीति वक्तव्यम्‌ | यदि अरल- 
कादरोनं लोपसंञ्ं भवतीष्वुष्वते प्रामनीः सेनानीः अत्र वृद्धिः प्रामोतिषू | प्रल- 
ताद दनं लोपसंज्ञं भवति षष्ठर्निर्ि्स्य .। यदि वीनिर्दि्टस्येव्युष्वते ऋशलोभ्र 


# ९.९. ४४.४ 1 ६.९.२.४ { ९.४. ९8३. इ ५.१.७१. . ¶ ३.१. ९; ७,२३.१९९. 





० ९.९.६१.६९.] ;41 श्याकरणयहामाच्यम्‌ ॥ ९५९ 


एवेत्यवधारणे [ ८.९.६२ ] चाद्विके भाषा [६३ | इत्यत्र लोपसंज्ञा न प्रामोति। 
अश्र प्रसक्ताद शनं लोपसेज्ञं भवतीर्युस्यमाने कथमिवैतस्सिभ्यति } को हि दाष्दस्य 
प्रसङ्गः | यत्र गम्यते चार्थो नर च प्रयुज्यते | अस्तु तर्हिं प्रसक्तादशेनं लोपसं 
भवतीस्येव | कथं मामणीः तेनानीः | योऽत्राणः प्रसङ्गः किपासौ वाप्यते* || 


प्रत्ययस्य टुकशुटुषः 1 १.१.1६९. ॥ ४ 


. . प्रस्यवमहणं किम्रथम्‌ ].  ... 
मति :पस्ययग्रंहणमप्रस्ययसं्तापतिकेधभिम्‌ । ९॥) 
लुमति प्र॑त्ययमह णे (करेयते मत्ययस्थैताः स्म. मा भूवनिति || किं प्रयोजनम्‌ । 
प्रयोजनं तद्धितलुकि कंसीयपरवाष्ययोककि ख्‌ भोपकृततिनिवृच्यरथंम्‌ ॥ ९॥ 
` तद्धितलुकि गोनिवृ्वथे कंसीय द्वयो लुकि -पकृदिनिवृस्य्ेम्‌ । लु्छ- 10 
द्दितलुकि [ १.२.४९ ] इति गोरपि† लुक्मामोति | प्रस्ययमहणाच्च भवति } कंसी- 
यपर शाव्ययोयेगगौ लुक्च [ ४.३.९६८ | हति प्रकृतेरपि `'लुक्मामोति । प्रत्वयम्रह- 
णाच भवति || गोनिवृस्यर्थन तावतार्थैः] ` | 
' - , योगविभागाष्छिदम्‌.॥ ३) . 
` बोगविभागः करिष्यते । गोरपस्जैनस्य । भोऽन्तस्य॒प्रातिपदिकस्योपसजनस्य 18 
हृस्वो भवति | ततः जयाः | खीप्रस्ययाम्तस्य  प्रातिपदिकस्वोयस जनस्य ,द्रस्वों 
भवति ] ततो टुक्तदधितलुकीति श्चैया इति वतेते गोरिति निवृत्तम्‌ | 
के सीयपादाव्ययोर्विशिष्टनिदैरास्सिदम्‌ ॥ ४ ॥ 


कंसीयपरशाव्ययोरपि विशिषटनिर्देशाः कर्तव्यः |` कंसी्यपरशव्ययोर्यमथो 
-आअवतन्छयतोख लुग्भवतीति | सं चावदयं विशिष्टनिर्दशाः कनैब्यः क्रियम्णे ऽपि तै 20 
प्रत्थयग्रहण उकारसंशम्दयोम भूदिति | कमेः सः कंसः | पराञ्शृणातीति परदु- 
शिति । त्रैष दोषः | उणादयो उव्युत्पञ्चानि प्रानिपदिक्रानि | स एषो नन्यार्थो 
िशि्टनिरेदाः ` कतैव्यः प्रत्ययमरहणं वा कतेव्यम्‌ || | 


` + ३२.६९. _ .- 1 ९.२.४८ 


.९६० १ -स्व्रणनदाभिष्विम्‌ ॥। [.; ` १ ९.९. 


{7 रक्तैः वा।).९॥ 
किमुक्तम्‌ } उन्धा आातिपदिकमहणमरङ्गमपवसंश्ञाये भष्डयोधं रुगर्थमितिः 


2 ५, , ` | वष्टीनिरैार्थं त ॥ ६ || ˆ“ ॥ि 1 ॥ ; ~ 
धछठीनिरेशायै ता प्रस्ययमहणे करैष्वम्‌ | पषीनिरदेहो यथा प्रकल्पेत ॥ 


5 अनिर्देदो हि षष्टयथापरसिद्धः ॥ ७ ॥ 
भाक्षियमाणै रि म्यम वयर्स्याभविदधिः स्यात्‌ | कस्थ | स्थानेयोगस्वस्य || 
क पुनरिह वष्ठीनैरेशा्थैना्ेः प्रस्यययरह्णेन यावता सवत्व षष्टद्यु्ायते अणिमोस्त 
जस्य यञः शाप इति। । इह न कािस्वधी जनषे लुप्‌ [४.२.८९] इति । 
अत्रापि प्रकतं पर्तथयपहणमनंवतेते ।:. क शरकरृतम्‌ । पर्वकः प्रथः [३.९.९,१) 
10.हति | तहे प्रथमानिर्दिष्टं षीनिर्दि्टेन चेहाभेः | उन्धाप्मातिपदिकात्‌ [४.१.१ ] इत्येषा 
पश्चमी प्रत्यय इति प्रथमायाः बरी प्रकल्पयिष्यति तस्मादिस्वु तरस्य [१.१.६७] 
हति ॥ भ्रत्थयविपिररयं ' न च प्रस्थयधिषौ पतचम्यः प्रकल्पिका ` भवन्ति | नायं प्रत्य- 

( -अपिधभिः | विहितः प्रस्वः प्रहृतभानुवतेते | 


। स्वदेशार्थं वा वचनभामाण्यात्‌ ॥ ८ ॥ 

 सवौदेदा्थे ताहि प्स्ययम्रहणं कतेव्यम्‌ | लुकटलुदुपः सवोदेरा. यथा स्युः| 
अथ क्रियमाणे अपि प्रस्ययमहणे कथमिव लुक्‌भ्लुटुपः सर्वादेशा ठभ्याः | वचन- 
प्रामाण्यात्‌ । भरस्ययमहणसामथ्यौत्‌-. || एतदपि नास्ति- प्रयोजनम्‌ | भाचार्येपरवृत्ति 
` -्मैषयति ` लुर्भ्लुतुपः. सवोदेशा भवन्तीति यदयं सुगा. इहदिहरिहगुहाभातमनेपरे 

सन्ये ७,३.७३] इति लोपे प्रकृते तुकं शास्नि ॥ . 

‰0 - ` . ` ` - उत्तराथ-दु॥९॥ 

उत्तरायै वा प्रष्यवप्रश्णं कव्यम्‌ | न कव्यम्‌ । क्रियते ' तत्रैव प्रत्ययलोपि 
भरत्य्थलक्तिणम्‌ [१.१.६२] इति | हितीयं कतैम्बम्‌ । कृतङ्मप्रत्ययलोपे पर्त्वयकलक्षिणं 
` यथा स्यात्‌ | एकदेदालोपे मा भूदिति । आक्नीत । सँ शय्पोषेण ग्मीयेति‡ ॥ 


परतययलोपे प्रत्ययरक्षणम्‌ ॥ २.। ९. । ६२ ॥ . . 
28 भरत्यवमरणं किमर्थम्‌ । कपे प्रत्ययलक्षेणमिती यस्युच्यमाने सौरथी वैदतीतिऽ 


# ४.९. ९.१ 1 २.४. ५८; ५२; ६४; ७२, { ७.२. ८९; (६.४. ३९), § ६.४.३२५. 











पार ९.५.५२1 । ` ॥व्याक्ररणपहमिष्यप्‌ ॥ १६९ 


गस्मो्तमलक्षणः ष्यञ्‌ प्रसज्येत* । तेष दोषः । मेवे विज्ञायते कोपे प्रत्ययलक्षण 
मवति प्रत्वमस्यः प्रादुभोत्र. हति | कथं तुहि | प्रत्ययो क्षणं यस्य. क्रायैस्य तहुमेऽपि 
मर्वरहीति || इदं . तर्हि प्रयोजनम्‌ |: सति प्रस्थये यल्पापोति तस्पस्ययलक्णेन श्च 
स्यात्‌ | लोपोत्तरकालं यत्मापरोति तसत्ययलक्षणेन म। भूदिति । किं प्रयोजनम्‌ | 
मामणिकृलम्‌ सेनानिकुलम्‌ 1 ओत्तरपादिके स्वस्ते कृते† हृस्वस्य पिति कृति तुक्‌ 5 
[ ६. १.७९ ] इति तक्मारोति स मा मुदिति । यदि तर्हि यस्सति प्रत्यये प्राति 
तलत्वयरुक्षणेन भवति लोचोतैरकोरं -यस्ामोति क्च -मव्रक्ति जगत्‌ जनगरित्यत्रः 
तुर प्ामोति ।लोपोचरकालो न्न तुयागमः. | नस्माच्चाथं -इवमर्थेष - पल्ययग्रहणेन |, 
कस्माच्च मवति मामणिकुलम्‌ सेनानिकुलम्‌ | बदिर द्ग हस्त्रतम्‌  भस्तर ङ्कस्तुक्‌ 4 
अविद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्गे ||. इदं तर्हिं प्रयोजनम्‌ । $^ ज्ञपम्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षण 1, 
यख स्कदेकृदेरालेये मा भूरिति । आप्रीव । सं रायस्पोषेण ग्मीय |. पुतस्मि्षपि 
योगि सवबङ्रणसतरैतत्यवो जन मुक्तम्‌ | भन्यतरस्छक्यमकर्तम्‌ || अंय हितीयं प्रत्य ` 
चम्रहणं सभियम्‌ | प्रत्ययलक्षणं यथा स्याहणैलक्षणे मा भृदिति | गत्रे हितं गोदहि- 
तम्‌ | रायः कुलं रैकलमितिऽ || 
किमथ पुनरिदमुच्यते । ` 15 


प्रत्ययषछोपे प्रत्ययरख्स्षणव्रचनं सदन्वाल्यानाच्छाखरस्यं || ९॥ 


परत्यत्रलोपे प्रत्ययलक्षणमिन्यु ज्यते सदन्त्राख्यानाच्जलस्य | सच्छासरेणान्वाख्या- 
यते सतो वा. श्ालमन्वाख्यायर्क भवति सदन्वाख्यानाच्छालस्प्र. | उगिदचां सवै- 
नामस्थान ऽधातोः [ ७. ९.७० | इतीहैव स्यात्‌ । गोमन्तौ यवमन्त | गोमान्‌ यवमा- 
नित्यत्र न स्यात्‌॥ | इष्यते च स्यादिति तच्चान्तरेण यल न सिध्यति | अतः प्रत्य- 20 
गलोपे प्रत्ययलन्षेणव चनम्‌ | एव्रमथेमिद मुच्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | किं तर्हीति | 


| लुक्युपसंल्यानम्‌।। ९ ॥। 
लु स्युपसंख्यानं क्त्यम्‌ | पञ्च सप्त" ॥ किं पुनः कारणं भ सिध्यति | 
रोपे हि विधानम्‌ ॥२३॥ | | 
तषे दि प्रत्ययलक्षणं विधीयते तेन लुकि न प्राप्रोति || . `. | नि 





(0 1 + ~> --- = ~~ यौ 








= #% ट त¶ ५.३. ५१. । २.२. १७ भि, ` ९.४, 4, {६५ ७९) 


॥॥ = * # + ष 
& ˆ ~ ५ ॥ ## 2 3 २ . * 


* ¶ | १. 
१ ॥ १4 


१६९ - ~प व्याकरणगहामाष्यतच् ॥  " [म०९.९९ 


` न वादर्शनस्य लोपसंजचिस्वात्‌ ॥ ४ ॥ 
नवा कव्यम्‌ । कि कारणम्‌ } भदश्चनस्य लोपसं्गित्वात्‌ | भद दौनं लोपश 
भवतीर्युच्यते लुमत्संज्ञा्ाप्यददौनस्य क्रियन्ते | तेन लुक्यपि भाविष्यति ॥ ययेवं 
| ' प्रत्येयादर्दानं तु लुमत्संज्ञम्‌.11 ५ ॥। | 
४ अ्रत्ययादशीनं सु लुमत्संक्ञमपि प्रामोति | सत्र को दोषः । 
| तत्र लुकि श्ुविधिप्रतिषेधः ॥ & ॥ 
तत्र ठुकि श्ुविधिरपि प्रामोति स प्रतिषेभ्यः  आत्ति हन्ति" । च [६.१.१०] 
इति द्विर्वचनं प्राप्रोति }| 
न वा प्रथक्संज्ञाकरणात्‌ ।॥ ७॥ 


10 नरै दोषः | किं कारणम्‌ | प्रथक्संशाकरणात्‌ | शरथक्संज्ञाकरणसामध्वौ- 
हुक दुविधिनै भविष्यति || तस्माददद्ेनसामान्याह्योपसंज्ञा लुमत्संज्ञा अवगाहते | 
यथैव तद्दरनसामान्याद्योपसंज्ञा लुमत्संज्ञा अवगाहत एवं लु मस्संज्ञा अपि लोपसंज्ञा 

; भवगाहेरन्‌ । तत्र को दोषः | अगोमती गोमती संपच्चा गोमतीभुता। | लुक्तद्धितलुकि 
[१.९.४९] हति ङीपो लुक्पखज्येत । ननु चात्रापि न वा एथक्संजञाकरणादित्येव 

15 सिद्धम्‌ | यथैव तार्हि एषक्संक्ञाकरणसामथ्यांलु मत्संज्ञा लोपसंज्ञं नावगाहन्त एवं 
लोपसंज्ञापि लुमस्वंश्चा नावगाहेत । त्र स एव दोषो लुक्युपसंख्यानमिति | भस्त्व- 
न्यष्ठोपसंज्ञायाः एथक्संक्ञाकरणे प्रयोजनम्‌ । किम्‌ । लु मस्संज्ञा यदुच्यते तह्लो- - 
पमात्रे मा भूदिति ॥ 


` हुमति प्रतिषेधाद्वा ।। ८ ॥ 
20 ` अथक यदयं न लुमताङ्गस्य | ९.९.६६ | हति प्रतिषेधं श स्ति तज्ज्ञापयत्या- 
चायो भवति लुकि प्रस्वयलक्षनमिति "|| 
सतो मिमिलाभावात्यदसंज्ञाभावः ॥ ९॥ 


सन्प्रत्ययो येषां का्याणामनिमित्तं; राज्ञः पुरुष हति स मोर ऽप्यनिमितं 
स्यात्‌ राजपुरूष हति } अस्तु तस्या निमिं या- स्वादौ पदमिति¶ पदसंक्ञा आ 
28 तु श्बन्तै पदमिति" पदसंज्ञा सा भविष्यति | सस्येतसरस्यय भसीदनया भविष्यत्य; 


* २,४.०२. † ९.४, ५० ; ६.९. ६०. { २.७, § २०४. 5). ¶ ९,४.९७, #१ ९.४.९५४. 





प२९.१.६२. | #श्य्करणयहाभिाष्यवः॥ ९६३ 


नक न भविष्यतीति । ठुप्र हरनी व्यये यवत एवावधेः स्कादो पदमिति पदसंज्ञा 
तावत एवावधेः शबन्तं पदमिति । अस्ति च प्रत्ययलक्षणेन यजादिपरतेति कृतवा 
भसा प्मरोति ॥ 


तुग्दीरषस्वयोश्च विप्रतिषधानुपपत्तिरिकयोगलश्षणत्वास्परिवीरिति ॥ १० ॥ 


तुग्दीषेत्वयोश्च विप्रतिषेधो नोपपद्यते | क । परिवीरिति । किं कारणम्‌| 
एकयोगलक्षेणत्वात्‌ | एकयोगलक्षणे तुग्दीरषत्वे | इह लु प्रत्यये सर्वाणि भ्रत्यया- 
भ्रकणि कायोणि पयेवपत्नानि भवन्ति । तान्येतेन प्ररयुरथाप्यन्ते | अनेनैव तुगने- 
परैव च दीैत्बमिति | तदेकयोगरलक्षणं भवति | एकयोगलन्षणानि च न प्रकल्पन्ते | 


।- + 1 


सिद्धं तु स्थानिसंज्ञानुदे शादान्यभध्यस्य ॥ ९९ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्य भवतीति वन्तस्यम्‌ | किं कतं भवति | 10 
सन्तामात्रमनेन क्रियते | यथाप्रापने तुम्दीषेस्वे भविष्यतः || तद्क्त्यं भवति | यद्य- 
प्येतदुच्यते ऽधवेता्हि स्थानिवद्भावो नारभ्यते | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्यानल्वि धाविति 
वश्यामि | यद्चैवमाङो यमहन भात्मनेपदं भवतीति हन्तेरेव स्याधेने स्यात्‌ | न 
हि काचिदन्तेः स॑ज्ञास्ति या वधेरतिदिदयेत । दन्तेरपि संज्ञस्ि | का | हन्तिरिव । 
कथम्‌ { स्वं रूपं दराब्दस्यराष्दसंज्ञा [९.९.६८ | हति व वनास्स्वं कूपं शभ्डस्य संञा 1 
भवतीति हन्तेरपि हन्तिः संक भविभ्यवीति ॥ 


भसंज्ाङीष्डफ गोरास्वेषु च सिम्‌ ॥ ९९ 


मंज्ञाङीपष्फगोरात्वेषु च सिद्धं भकति || भसंक्ञा | राज्ञः पुदषो राजपुरुषः | 
प्स्ययलकषषणेन यचि भम्‌ [१.४.१८] इति भसंज्ञा प्रामोति । स्थानिसंन्नान्यमुत- 
स्वानल्विष्छतिति वचनाच्च भवति | डीप्‌ | चित्रायां जाता वित्रा | प्रत्यवलक्षणे- ९७ 
नागन्तादिनीकारः प्रामोति । स्थानिसेज्ञन्यभुक्स्यानस्वि धाविति कचना भवि- 
प्वति || प्फ | वतण्डी“ | प्रस्यक्लक्षणेन यमन्तादिति प्फः प्रामोति1†1† | स्थानि- 
संञान्यनुतस्यानल्विधाविति वचन््रन्च भवति || गोरात्कम्‌ | गामिच्छति गव्यतिः† | 
प्रष्वयलक्षणेनाम्यौतोऽम्शसोः [६.१.९३] हइत्यास्वं प्रपोति ! स्थानिसश्ान्यमत- 





स्भानल्विधाविति क्चनोश्च भवति || 95 
= ६.४. ६.८. { ६.१.६५; ५९ ;५.४.२. { ९.१. २८. § ५.३.१९६; 8४ +; १.२.४९. 


भू ०.९. ९५९ , +* ४.९. ६०८; ६०९, 11 ३.९. ९७. {{ २. ४.०६. 


६४. , ॥ त्पाक्ररपर भतम्‌ ॥  :\भ ५३. 


नस्य देषो डोनकाररोपेभ्विधयः ॥ ५३ ॥ 
तस्थेतस्य लक्षणस्य दोषो ॐ नकारलोपः | भादर चर्मन्‌ रोहिते चर्मन्‌" | प्रलय- 
यलक्षणेन याचि मम्‌ [ १.४.१९८ | इति भसंज्ञा सिद्धा भवति । स्थानिसंश्ञान्यमुत- 
ङंयाबस्विधितिति वचनाच प्रापरोति | इन्वम्‌ | भारीः? | प्रत्यथलक्षणेन दही- 
¢ तीतत्वै सिद्धं भव्ति । स्थानिसंज्ञान्यभुतप्यानल्विधाक्रिति वचनान्न प्रामोतिः || इम्‌ | 
अतृणेट्‌ ९ | प्रत्ययलक्षणेन हरीतीम्सिद्धो- भवति | स्थानिसंज्ञान्यभूतस्यानल्विधाविति 
वचनाच्च भरामोति || सूत्रं च भिद्यते || यथान्यासमेास्तु | ननु नोक्तं सतो निभित्ता- 
भावात्पंदसं ज्ञाभावस्तुग्दीर्ैत्वयो ध विप्रतिषेधानुपपत्तिरेकयोयलक्षणस्वात्परि वीरिति । 
बैपदौषः | बक्ष्यत्थत्र परिहारम्‌ | इहापि परिवीरिति शाखपरविप्रतिषेभेन पर- 
0 न्वाहीधैश्वं भविष्ति | 
, : . कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि 


्योजनमपृक्तशिोपि नुमभामो गुणवृदिदीर्धतवेमडाटखम्विधयः ॥ ९४ ॥ 


 .भष्टक्तलोपे शिरीषे च कते” नुममामौ गुणवृधी दीषैत्वभिमडाटी भग्वि- 
भिरिति प्रयोजनानि ॥ मम्‌ । अभ्रे जरी ते वाजिना त्री षधस्था | ताता पिण्डा 
5 नाम्‌।1 | नुम्‌ ॥ भमामौ | हे ऽनङ्खुन्‌ भनङान्‌; || गणः | अधोक्‌ भलेद्‌ऽ | 
बुद्धिः | न्यमादै¶¶्‌ || दीर्घत्वम्‌ । प्न च्री ते वाजिना ब्री षधस्था | ता ता पिण्डा 
नाम्‌***|| इम्‌ । भतृणेय्‌ || भडाटौ | भपोक्‌ भरेट्‌ | पेयः ओनः111 |[अस्विधिः | 
अभिनोऽक्रं अच्छिर्मोऽक्र{ || भष्रकशिलोपयोः कृतयेसति विधयो न प्रामुवन्ति | 
पृत्ययलक्षणेन भवन्ति॥। नैतानि. सन्ति प्रयोजनानि | स्थानिवद्ध वेनाव्येताति सिद्धानि। 
20 न. सिप्यन्ति | आदेशः स्थानिवदित्युच्यते न च. रोष भादेशः । लोपो . ऽप्वादेशाः | 
कथम्‌ | भाविदयते यः स आदेश्षः। लोपो .ऽप्याहिरयते । दोषः स्ल्यपि स्यादि 
, ओषो : नादेशः स्यात्‌ । हहाचः पर स्मिन्पूवेविषी [९.९.९७] ह्येतस्य भूयिक्षानि 
तेप उदाहरणानि तानि न स्युः || यन्‌ तर्हि स्थानिवद्ातो नास्ति तद श्ैवयं ` श्रेगो 
बक्तव्यः | क्र च स्थानिवद्भावो नास्वि| यो अल्विधिः | किं प्रयोजनम्‌ | प्रयोजनं 
98 ऊनकारलोपेच्छेम्नधयः | 


४ “६ ^ 
ाणयमनननायन क कनम ___ र 
 # ८१.३५. † ६५९, ४५ ‡ ६.४.३४. ई ५.१.९८. नू ५,२.८९. “^+ ६.१ १६८६८ 
{† ५.९ ५२. ††‡ ७.१. ५९ ९& ७३.८६. बकः < २.२५. 


नैक ६.१ ८. ` ५ {11 द) ५२, ७२... `` {५.३ ^ ५८, 
| | ¢ 8 ४ ॥ त “ 


५ 


पाठ ९.१.६३.| . ॥ व्याकरणअहाफाप्यम ॥ 1) 


|  भसक्ञाडीप्हफमोराव्वेत्रु च देषः ॥ ५९ ॥ 
भसेक्ञाङीपूर्फगोरास्त्रेषु दोषो भवति ॥ भसंज्ञायां .ताव्न्न दोषः | आचायैष- 
वृत्तिङ्गोपयति न प्रत्ययलक्ञेणेनः भसंज्ञा भवतीति यदय न उिसंबुद्धः [ ८.१.८ | 
ति ङ प्रतिषेधं हास्ति || डीप्यपि तवं विज्ञायते ऽणन्तादकारान्तादिति | कथं 
तर्द । अण्या ऽकार इति ॥ भफे अपि नैवं विज्ञायते यञन्तादकारान्तादिति | कथं 5 
ताईं | यञ्यो ऽकार इति ॥ गोरास्वे अपि बयं चिज्ञायते ऽम्यचीति | कथं तर्हि | ` 
भच्यमीति || प्रयोजनान्यपि तार्दि तानि म सान्ति | यत्तावदुच्यते ॐ नकारलोप इति 
क्रियत एतश्यास एव न डिनसेवुद्धोरिंति ॥। हइस्वमपि | षरेयस्येतत्‌ । चास इं्वं 
भाशाखः काविति || हस्विभिरपि । हलीति नियु लम्‌ | .येदि हलीति निवृत्तं तृणहानिः 
त्रापि प्रामोति | एवं व्यचि मेस्वव्यनुवर्षिष्यते† || न तर्हीदानीमयं योगो वक्तव्यः] 10 
, वक्तव्यश्च | किं प्रयोजनम्‌ । प्रत्ययं गृहीस्वा यदुच्यते बसमत्ययलक्षणेन यथा स्यात्‌| 
दुष्दं गृहीत्वा यदुच्यते तत्यत्ययलक्षणेन मा भूदिति | क प्रयोजनम्‌ | शोभना शृषदो 
स्य छदषद्भाणः.‡ । सोमेनसी अलोममषरसी [६.२.५१७] इत्येष स्वरो मा भूदिति।। 


न लुमताङ्गस्य ॥ १.।१।६२३ ॥ 
लमति. प्रतिषेध एकपदस्वरस्योपसंख्यांनम्‌ | ९॥ - 1४ 


 छुमति प्रतिषेष ` एकपदस्वरस्योपसंख्यान -कतेष्यम्‌ | एकपदस्वरे च लुमता 
टुपरे प्रत्ययलस्षणं न भवतीति वक्तव्यम्‌ || -किमविरेषेण । नेत्याह । 


सवामन्डितसिंज्लुक्स्वरवर्जम्‌ 11९ ॥ 
, सर्वैस्वरमा मन्तिलिस्वरं सिज्जुकस्वरः च वजेित्वा ॥ सवैस्वर | सवैस्तोमः 
सर्वशः $. ।. सवस्य .सपि [६.१. १९९] इव्याश्युरास्व॑ यथा स्यात्‌ || भामन्ति- 20 
तस्वर | सार्पिरागच्छ । सप्रागच्छत | भामन्तरितस्य च [ ६.९. १९८ | हर्याद्युदात्तत्व॑ 
षरा स्यात्‌ ॥ शिर्छुक्स्वर | मा' हि दाताम्‌ | मा हि धाताम्‌ | आदिः सिचो 
ज््रवरस्याम्‌ [ ६.१.१८७ | हस्येषर स्वरो अथा. स्यात्‌ | किं प्रयोजनम्‌ |. ` 


प्रयीजनं भिनिकिद्ुकि स्वरः ॥ ३ ॥ 
अिनिकिस्स्वरा लुक्रि प्रयोजयन्ति | गगः वत्साः | विदाः उवौःृ | उ्मीवाः 25 





~~~“ क 
£ ‰ % = भम , † ५३. ८ #॥ ९.४ १. । $ २-४. ७९१ ६.२. १ 4 २.४. ६४ 


१६१ ॥ द्याकरनयहाभ्वं्‌ ॥ [म० १.९१.९. 


वामरज्जुः' | भ्नितीत्वग्यु दालत्वं मा भुदिति। | इद च भत्व: कितः[.६९.९६९ 
इत्यन्तोदात्तखं मा भृरिति ॥ 


पथिमथोः सर्वनामस्थाने' + 


पथिभथोः स्वैनमस्थाने लुकि प्रयोजनम्‌ | पथिभ्रियः मथिप्रियः९ | पथिमयो 
5 सवेनामस्थाने [६.९.१६९ ९| इत्येष स्वरो मा भूदिति ॥ 


न.  . अहो रविधी॥५॥ | 

! अङ्को रविधाने लुमत्रा हे प्रस्वयलक्षणं न भवतीति वक्तन्दम्‌-। अहरेदावि । 

भदरुद्े¶ । रोषि [८,२.६९] इति परस्वबरुक्चनेन भतिवेषो मा भूदिति ॥ 

-  उशरष॑दत्वे चापदादिविधौ ॥ ६ ॥ ` 
10 ` ्षरपदत्े चापदारिविषौ लुमता लुम प्रत्ययलक्षणं न भवतीति वक्तव्वम्‌ | ` 
परमवाचा परमवाचे । परमगोदुहा पर मगोदुे । परमंरिदा परमश्वलिरे | पदस्य 
[८.९.९६] इति प्रत्ययलक्षणेन कूत्वादीनि** मा भूवन्निति | अपदादिकिषावि- 
ति किमर्थम्‌ | दधिसेची दधिसेचः | सात्पदाद्योः [८.३.९९.९] इति प्रतिषेधो यथा 
स्यात्‌ || यश्यपदादिविधाविस्युच्यत उत्तरपदाधिकारो न प्रकल्पेत ! तत्र को रोषः | 
15 कर्णो वणेलक्षणात्‌ [६.२.९१२] इत्येवमादिविभिनै सिध्यति ।| यदि पननैलोपा- 
` दिविषौ रुस्यन्ते।† लुमता लुत प्रत्ययलक्षणं न भवतीवुच्येत । तेवं शाक्यम्‌ । इह 
हि राजकुमा्यौ राजकुमायै इति शाकलं ‡ ‡ प्रसज्येत । तैव दोषः | यदेतस्सिति 
शाकलं नेस्थेतत्पस्यये शाकलं मेति वद्यामि$§ | यदि प्रत्यये शाकले नेत्युच्यते 
दपि पुना मधु अपुना्‌¶्‌ अश्रापि न प्रसज्येत | पस्केवे शाकलं न मवति | कस्मिन्‌ | 
20 यस्माद्यः प्रत्ययो विहित इति || इह ताह परमदिवा परमदिये दिव उल्‌ [६.१.९३ ९| 
इत्युस्वं प्रा्ोतीति ॥ भस्तु तद्विशेषेण । ननु षोक्त मुत्तर पदाधभिकारो न प्रकल्पेतेति। 
वखनादुन्तरपदाधिकारो भविष्यते | 

तन्ति बन्कव्वम्‌ । न वक्तव्यम्‌ । अनुवृत्तिः करिष्यते | इदमस्ति यस्माव्मत्यव~ 
विभिस्दादि प्रत्यये अङ्गम्‌ |१.४.१२ | दपिङन्तं पदम्‌ [१४] | यस्मात्दपिङधिषि+ 
25 स्वदारि छबन्तं च | नः क्ये [९९] | नान्तं क्ये पदसंज्ञं भवति यस्मात्क्यविधिस्तदादि 
छबन्तं च । सिति च [९६] | सिति च पूवे पदसंश्ं भवति यस्माल्सिदिधिस्तदादि 


९.६.००. ¶ ६.९. ९९.७५, { २.४. ६५. § २.४. १; ६.२. ९, 4 ०.९.२२. 
*न ८.२.३०, - 14 ८२.०८२, ‡{ ६.९.९२५. 5 ६.९. ९२७५. ` बुष ९.३१. १७. 


९६७ 





कण १,९.६२. | 


हबन्तं च । स्यादिष्वसषैभाभस्थातर [१७] । स्वादिष्वसर्वनामस्थाने पतै षदसंशं मवति 
वस्मासस्वादिविधिस्तदादि छबन्तं च | यचि भम्‌ [९८] । यजादिपरस्यये पूव भ॑ मव- 

ति यस्मा्यजादिविधिस्तदादि छवन्तं च +` इह॒ ताह परमवाक्‌ भसवेनामस्यान 
इति शरतिषेधः परामोति | अस्तु तस्याः प्रतिषेधो या स्वादौ पदमिति पदसंज्ञाया तु 
वन्तं पदमिति पदसंज्ञा सा भविष्यति | सत्येवसत्यय भासीदनया भविष्यत्यनया 5 
न भविष्यतीति । नुप्र इदानीं भत्यये यावत एवाषभेः स्वादौ पदमिति पदसंश्ञा तावत 
एवावधेः छबन्तं पदमिति । भेस्ति च परस्वयलक्षणेन सर्वनामस्थानपरतेति कृत्या 
धतिषेपाथ बलीयांसो भवन्तीति प्रतिषेधः प्राभोति || नाप्रतिषेधात्‌ | नायं प्रसंज्यप्र- 
तिषेषः सर्वनामस्थाने नेति । किं ताहि । पर्युासो ऽयं यदन्यस्सवैनामस्थानादिति । 
सर्वनामस्थाने ऽव्यापारः | यदि केनचित्पामोति तेन भविष्यति | पूर्वेण च प्रामोति | 10 
सप्रापरवौ | अथवानन्तरा या प्रापनिः सा प्रतिषिध्यते । कुत एतत्‌ | अनन्तरस्य विधिव 
भवति प्रतिषेधो वेति । पूवा प्ाप्निरप्रतिषिद्धा तया भविष्यति | भनु. चेयं प्ात्निः पूव 
पिं वाधते | नोस्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम्‌ || यद्येवं परमकाचौ परमवाच 
इति प्रिडन्तं पदमिति पदसंज्ञा प्रामोति | एवं तर्हि योगविभागः करिष्यते | स्वादिषु 
पव पदसंज्ञं भवति| ततः सर्वनामस्थाने ऽयचि | पूर पदलूक्ं भवति | ततो भम्‌ | मसं +; 
भवति यजादावसवैनामस्थान इति || यरि तार्हि सावपि पदं भवस्येचः श्रुतविकारे 
पदान्तम्रहणं चोदयिष्यति" हह मा भूत्‌ भद्रं करोषि गीरिति तस्मिन्क्रियमाणे अपि 
भामति । वाक्यपदथोरन्त्यस्येव्येवं तत्‌ || इह तर्हि दंषिसेचौ दधिषेचः सास्पदा- 
ोरिति पदारिरुक्षणः षस्वपरतिषेभो न प्रामोति । मा भूदेवं पदस्यादिः पदादिः 
पदादेनैति । कथं ता | पदादादिः पदादि : पदादेननस्येवं भविष्यति | तरैवं शक्यम्‌. | 29 
इहापि प्रसज्येत ¡ ऋक्षु वाक्षु स्वक्ष कुमारीषु कि शोरीष्विति | सालतिषेधो श्ापकः 
स्वादिषु पदस्वेन येषां पदसंज्ञा न तेभ्यः प्रतिषेपो भवसीति || इह तर्द बट्से्ै 
वहसेचः । बहूजयं प्रस्ययः । अत्र पदादाष्किः पदादिः पदादिनेस्युष्यमाने अपि न 
सिध्यति | एवं तश्यु्रपदत्वे च पदादिविषी लुमता लुम प्रत्ययलक्षणं भवतीति 
वक्ष्यामि | ततियमाथ भविष्यति पदादिविधावेव न पदान्तविधाविति | कथं 2; 
महुसेचौ बहूसेचः | बहष्पुकस्य ख पदादिविधावेव न परदान्तविधाविति ॥ 


| इन्दे ऽ्स्यस्य ॥ 9 ॥ 
इन्दे जन्स्यस्य लुमता लुप प्रस्थयलक्तिणं न भवतीति वक्तव्यम्‌ } वाक्लनकजम्‌ || 


८.२, ९०७ 


१६६ ' प व्यकररणभरभव्यिम्‌॥ . मि०१.१.९ 
हदं अभवलिति" प्रत्ययलक्षणेम जस्भावः. प्रामोति। | 


सिच उसी भप्रसंङ्‌ आकांरपभकरणात्‌ ॥ ८ ॥ , 

सिच उसो ऽपरसङ्ः. | किं कारणम्‌ | आकारप्रकरणात्‌ | आत्तः [३.४.१९०] 

हर्येतद्धियमाथे भविभ्यति | आत्‌ एव च सिज्छुमन्ताच्चाम्यस्मास्सिञ्लुमन्तादिति ॥ 

६.इह इति युष्मल्पुत्रो ददाति इत्यस्मत्पुत्रो ददातीत्यत्र परत्ययलन्षिगेन वुष्मदस्मदो; 
प्ीचतुर्थीद्ितीयास्थयोवौ नावौ ` [८.१.२० | हति वाप्नावादयः प्रापुवन्ति | 


| युष्मदस्मदोः स्थग्रहणात्‌ ॥ ९ ॥ | 
` स्थम्रहणं तजर क्रियते त्छूयमाणविमक्तिविशेषणं विज्ञास्यते ¡ अस्त्यन्यर्स्थय- 
णस्य. प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | सविभक्तिकस्य वास्नावादयो यथा स्युरिति । नैतदसि 
10 प्रयोजनम्‌ | पदस्य [१६] इति वतेते विभक्यम्तं च पदं तत्रान्तरेणापि. स्थग्रहणं 
सविभाक्तेकस्थैव भविष्यति । प्रवेस्सिद्धं यश्र धविभतयन्तं पर्दे यत्र तु.खलु विभक्तौ 
पदं तत्र. न सिध्यति | यामो वों दीयते | मामो नौ दीयते | जनपदो वां दीयते। 
जनपदो नी दीयते। सथैमहणमपि परकृतमनुवतेतेः तेन सविभकतिकस्थैव भविष्यति | 
इह च्षुष्कामं याजयांचकारेति$ तिङ्तिडः [८,१.२८ | इति तस्य च निषातस्त- 
1; स्माच्यानिघातः प्रामोति । 


आमि छिलोपात्तस्यं वानिधोतस्वस्माच निघातः || ९० ॥ 
जामि किलोपा्तस्य चानिघातस्तंस्माथ निघातः सिद्धो भविष्यति | 


अङ्गाधिकार इटो विधिप्रतिषधी ॥ ९९ ॥ 
५ अङ्गाभिकार हठो विभिप्रतिषेषौ न सिध्यतः | जिगमिष संविवृत्स¶ | भङ्‌ 
“० स्येवीटोः विधिप्रतिषेषौ न प्राप्तः“ ॥ 


्रमेर्दधित्ं च | ९२ ।। 


 किं.च.| इट विधिप्रतिषेषौ 1 नेव्याह | धरेश भ्यं चः पाठितः | क्रमे शीर्ष 
स्वम्‌ | उक्क्राम संक्रामेति11 | 


इह किंचिदडापिकारे लमता लप्र प्रस्ययलक्षेनं भव्ति किचिचान्यत्र न भवति, 





6 भा ~ 








२.४. 9 ¶ ३.४.१८९ { ८.१.२८ . & २.४. ८२ वु ६.४. १५९ 
++ ७,२.५८ ; ९९. ` ` 1† 9 ६. ७६, 





पा ९.१.६५. | ॥ व्याकरगयहभिष्यम ॥ ९९९ 


यदि पुनने लुमता तस्मिन्निव्युच्येत | भथ न लुमता वस्मिन्निव्युख्यमाने किः सिद- 

मेवदवतीटो विधिप्रतिषेषौ क्रमेर्दधित्वं च | वाड निदम्‌ | नेटो विधिप्रतिषेषी 

पर्मैपदेध्वित्युच्यते | कथं ताहि | सकारादाविति तद्िशेषणं परस्मैपदग्रहणम्‌ | न 

लल्वपि क्रमर्दधित्वं परस्मैपदोष्विस्यु्यते | कथं तार्हि | शितीति तद्िशेणं परस्मै- 

पमदणम्‌ ॥ ४ 
न समता तस्मिन्निति. चेडनिणिढदेदास्तलषि ॥ ९२ ॥ 


न लुमता तस्मिनिति चेदनिणिडदेशास्तलोपे न सिध्यन्ति | भवि भवता 
दस्युः । अगाचि मवता भामः | अध्वगायि भववानुषाकः | तरोपे कृते*  लुङीति 
श्निणिङदेश्चा न प्रामुन्ति। | तैष रोषः | न लृडीति हनिणिङादेशा उभ्यन्ते | 
किं तिं | आर्पधातुक इति वद्धिरोषणं लृङ्हणम्‌ || इह च सवेस्तोमः सर्वपृष्ठः 10 
सर्व॑स्य दषीस्याद्युदालस्वं न प्रामोति । तापि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | न लुम- 
तद्गस्येस्येव सिद्धम्‌ । कथम्‌ | न लुमता ठुपरे ऽङ्गापिकारः प्रति्िंश्दयते | कि 
ति | यो ऽतौ कुमा ठुप्यते तस्मिन्यदङ्गं तस्य यत्काय तच्च भवति | एवमपि 
सर्वस्वरो नं सिध्यति | कतैव्यो ऽ यलः | ` 


अरो =न्त्यातपूवै उपधा ॥ ९. । ९. ।६५॥ ` ४ 


किमिदमस्प्रहणमन्स्यनिदोषणम्‌- | एवं मवितुमहैति । 


उपधासंज्ञायामल्ग्रहणमन्स्यनिरदेदाश्वेस्संवातभतिषेधः । ९ ॥ 

उपषासंश्चाय।मल्महणमन्स्यनिर्द शा भेस्तषातस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | संबातस्यो- 
पपासा प्राम्ोति । तत्र को दोषः । रास हद डहलोः [६.४.३४] शिष्टा शिष्टः । 
संणतस्येश्वं॑प्रामोति | यदि पुनरलन्स्यादिव्युच्येत । एवमप्यन्स्यो ऽविदोषितो 20 
शति | त्र को दोषः | संवातादपि पूत्रैस्योपधासंज्ञा प्रसज्येत | तत्र को दोषः | 
शास इदङ्हलोः शिष्टः शिष्टवान्‌ । शकारस्येस्वं भसज्येव | खत्रं॑ च भिश्षते || 
बथान्यासमेनास्तु । ननु चोक्तमुपधासंश्ायामल्यहणमन्त्यनिर्े शभेस्संवातप्रतिषेष 
हति | वैष रोषः. | अन्त्यविज्ञानास्िदधम्‌ । तिद्धभमेतत्‌ । कथम्‌ । अलोऽन्त्यस्य 
बिषयो भवन्तीत्यन्स्मस्य भविष्यतिः | ४६ 








# ६.४. १,०४. ¶ २.४, ४२; ४९; ५०. | ‡ ९.९. ५२. 
२ 


->ॐ० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥  { म०१.९६.९. 


अन्त्यविज्ञानात्सिदधिमति चेन्नानयके ऽछोऽन्स्यविधिरनभ्यासविकोरे ॥ २॥ 
अन्त्यविज्ञानास्सिद्धमिति चेन्न | किं कारणम्‌ | नानर्थके ऽलेऽन्त्यविधिरनम्क- 
साविकारे | अनथेके ऽलोऽन्त्यविधिर्नेव्येषा परिभाषा कवेव्या | किमधिरोषेण | नेत्याह | 
अनभ्यासाविकारे | अभ्यासविकारान्वजेधिस्वा | भृखामित्‌ | ७.४.७६ | अर्विपि- 
४ पर््योश्च [ ७७ ] इति |} कान्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि । - 


प्रयोजनमव्यक्तानुकरणस्यात इतो” ॥ ३ ॥ 


अन्त्यस्य प्राभोति | अनथकेऽलोऽन्त्यविधिने भवतीति न .दोषो भवति ॥ त्रेतद- 
स्ति प्रयोजनम्‌ । आचायेपयृत्तिज्नौपयति नान्त्यस्य पररूपं भक्तीति यदयं नानेरि- 
तस्यान्स्यस्य तृ वा [६.९.९९ | इत्याह ॥ 


10 ष्वसोरेदावभ्यासलोपश्च ॥ ४ ॥ 


 ष्वसोरेदाबभ्यासलोपथ [६.४.१९९] इत्यन्त्यस्य प्रामोति । अनर्थके ऽलो ऽन्स्य- 
विधिरनेति न दोषो भवति |] एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । पुनर्तो पवचनसामथ्यौस्सयैस्य 
भविष्यति ॥ अथवा शिद्लोपः कारेभ्यते ख शित्सर्वस्येति सवौदेशो भविष्यति | 
स तर्हि राकारः कतैव्यः| न कतैवष्यः | क्रियते न्यास एव | दिशाकारको निर्दशः | 
15 ष्वसोरेद्धावभ्यासलोपट्थेति | | 


आपि लोपो ऽको नवि | ९॥ 
तिष्ठति सुत्रम्‌ ‡ | अन्यथा व्याश्यायते | भाषि हंलि लोप इत्यन्त्यस्य प्रभोति । 
भनथके ऽलो ऽन्त्यविधिर्नेति न दोषो भवति ॥ एवदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | अन 
एव लोपं वक्ष्यामि । तदनो प्रहणं कर्तव्यम्‌ | न कतेष्यम्‌ | प्रकृतमनु वसते । क 
20 प्रकृतम्‌ | अनाप्यकः [७.२.१९२] इति । तैः प्रथमानिर्श्टं षष्ठीनिरश्टिन ` वेशाः | 
हलीव्येषा सप्नम्यन्निति प्रथमायाः षर्षीं प्रकल्पयिभ्यति तस्मिलिति निर्दिरे वर्षस्व 
[९.१.६६ | हति ॥ 


अत्र रोपो ऽभ्यासस्य ॥ ६ ॥ 


अत्र रोपो ऽभ्यासस्य [७.४.५ ८ | इत्यन्त्यस्य प्रामोति | नान्थेके ऽतेऽन्त्ववि- 
६ धिरिति न दोषो भवति ॥ एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | आत्रम्रहणसामभ्यास्सर्वस्व 








. ,न ६.९. ९८. ¶ १,,९, ९९. + ७.२, १९२, 








पाठ ९.९.६६ -६५.| ॥ व्वाकरणपहाभष्यद्‌ ॥ १५७२ 


भविष्यति ||. अस्स्यन्यदज्रधशणस्व प्रयोजनम्‌ । किम्‌ । सच्तधिकासो पेश्यते | इह 
मा मुत्‌ | दकौ दरौ |. अन्तरेणाप्यत्रबरहणं सचपिकारमपेक्िष्यामहे || संस्तर्हि 
सकभरादिरपेश्ष्यते सनि सकारादाविति | हह मा भूत्‌ । जिक्ञापयिषति ¦ अन्तरेणा- 
ध्वैक्रयहणं सनं सकारादिम॑पेकषिष्यामहे || प्रकृतयस्तद्येपेश्यन्ते | एतासां प्रकृतीनां 
लोपो यथा स्यात्‌ | इह मा भूत्‌ } पिपक्षति यियक्षति । अन्तरेणाप्यत्रमहणमेताः $ 
्रकृतीरपेक्षिष्यामहे || विषयस्तद्येपेश्यते | मुचोऽकर्मकस्य गुणो वा [७.४.९५७] 
हति । हह मा भूत्‌ । मुमुक्षति गामिति । अन्तरेणाप्यक्रसहणमेत विषयमपेिष्या- 
महे । कथम्‌ | अकर्मैकस्येत्युच्यते तेन यत्रैवायं मुचिरकमेकस्तकेवः भविष्यति || 
तस्माचार्थो ऽनया परिभाषया नानथैके ऽलो ञन्त्यधिधिरिति ॥ 


अलो ज्त्याद्पूवो ऽलुपधेति. वा ॥ *७ ॥ | 10 
अथया व्यक्तमेव पटठितव्यमलो न्स्यातपूर्वो उलुपधासं्ञो भवतीति ॥ वर्हि 
बन्कव्यम्‌ | नः कक्छव्यम्‌ | 
अववनाष्ठोकविक्ञानास्सिम्‌ ॥ < ॥} 
भम्तरेणापि वचनं लोक्रचिश्ानास्सिद्धमेतत्‌ | क्यथा । लोके ऽमीषां ब्राह्मणा- 


नामन्स्यास्पूवे भानीयता मित्युक्ते यथाजातीवकोः रन््यस्तथाजातीयको न्त्यास्पूव 1: 
भानीयते || 


तस्मिनिति निर्दिष्टे पूवस्य ॥ १ ।९। ६६ ॥ 
 तस्मादिव्युत्तरस्य ॥ १. ।१.।६.७॥ ` 


किमुदाहरणम्‌ | इह तावस्तस्मिन्निति निरि पवैस्येति | हको यणचि [६.१.७७] 
रभ्व् मध्वत्र | इह तस्मादित्युशरस्येति । व्यन्तरुपसरभैभ्यो ऽप हैत्‌ [६.३.९७] 20 
हीपम्‌ अन्तरीपम्‌ समीपम्‌ || अन्यथाजातीयकेन शब्देन निर्देशः क्रियते ऽन्यथा 
जातीयथक उदाह्यते । किं वष्यीदादरणम्‌ | इह तायन्तस्मिन्निति निरि पूर्वस्येति 
तस्मिन्नणि च युष्माकास्माकौ [४.६.२] इति । तस्मादिस्यु सरस्वेति क्स्माष्डसो 
भृः वसि [६.९.९०३] इति ।| हदं चाप्वुदाहरणमिको यणचि व्यन्तरपसर्गेभ्वौ ऽप 
ईैरिति । कथम्‌ । सर्वेनान्नायं निर्देशः क्रियते सर्वनाम च सामान्ययाचि | तज्र 2 
सामान्े निर्रिष्टे विशेषा अध्युदाहरणानि भवन्ति | कि पुनः साभान्यं कोवा 


९७२्‌ ॥ व्याकरगमहामाष्यम्‌ ॥ ` [म०र.९.९. 


विशेषः | गौः सामान्यं कृष्णो विशेषः | न वर्शदानीं कृष्णः सामान्थ भवति 
गैौर्विरषो भबति | भवति च | यदि तर्हिं सामान्यमपि विष्ोषो विदोषो अपि 
सामान्यं सामान्यविशेषौ न प्रकल्पेते | प्रकल्येते च | कथम्‌ । विवन्षातः | यदास्व गौः 
सामान्येन विवक्षितो भवति कृष्णो विदोषत्वेन तदा गीः सामान्यं कृष्णो विशेषः | 
५ यदा कृष्णः सामान्येन विवक्षितो भवति गर्विशेषत्वेन विवक्षितस्तदा कृष्णः 
सामान्यं गोर्विहोषः | अपर आह | प्रकल्पेते च | कथम्‌ | वितापु्रषत्‌ | 
तद्यथा । स एव कंचित्प्रति पिता भवति कंचिसखति पुत्रो भवति । एवमिष्टापि स एब 
कंचित्मति सामान्यं कंचित्मति विषः || एते खल्वपि नेर्देशिकानां बात्तेतरका 
भवन्ति ये सवेनान्ना निर्देशाः क्रियन्ते | एति बहूतरके व्याप्यते || अथ किमथे- 

10 मुपसर्गेण निर्देशः क्रियते । शब्दे सपम्या निर्दिष्टे पूर्वस्य काय यथा स्यादर्थे मा 
भूत्‌ । जनपदे अतिद्रायन इति* । किं गतमेतदुपसर्गेणाहोखिच्छम्दाधिश्यादथा- 
पिक्यम्‌ | गतमित्याह | कथम्‌ | निर्यं बहिभीवे वतेते | तद्यथ | निष्क्रान्तो 
देशानिर्देशः । बहिरदेश इति गम्यते | शाष्दथ राब्दाद्रहिभूतो ऽयो ऽबहिभूतः ॥ 
भथ निर्दि्टमहणं किमर्थम्‌ । 


15 निर्दिष्ट प्रहणमानन्तयायम्‌ | ९ ॥ 
निर्दिष्टं क्रियत आनन्तयोर्थम्‌ | आनन्तर्येमान्ने कायै यथा स्वात्‌ | इको 


यणचि । दध्यत्र मध्वत्र | इह मा भूत्‌ | समिधौ समिधः । दृषदौ दृषदः ॥| 
किमथे पुनरिदमुध्यते | 


तस्मिस्तस्मादिति पूर्वोत्तरयोर्योगयोरविरशषान्नियमार्थं वचनं दध्युदकं 
20 पचत्योदनम्‌ ॥ २ ॥ 


तरिमस्तस्मादिति पूर्वो सर योर्योगयोरिहोभान्नियमा्ी ऽयमारम्भः । मामे देव- 

दत्तः । पूर्वैः पर इति संदेहः । भामादेवदन्तः । पूथैः पर इति संदेदः । एवमिहापीको 

यणचि । दध्युदकं प्रचत्योदनम्‌ । उभाविकावुभावचो । भवि पूवेस्याचि परस्येति 

संदिहः । तिङतिडः [८.१.२८] इत्यतिङः पुैस्यातिङः परस्येति संदे! । इष्यते 

४ धाज्राचि पूर्वस्य स्यादतिडः परस्येति तश्चान्तरेण यलं न सिष्यीति नियमाथे वच- 

नम्‌ । एवमथमिदमुष्यते |. भत्ति प्रयोजनमेतत्‌ । ङि तर्शति | भथ - थजोभवं 
निर्दिरयते किं तन्न पतरस्यं काये भवत्याहोस्वित्पर स्येति ॥। 


षय क । स 








कैः ४.८. ८९; ९.३ , ५९५, 


वा०१.१.६९-६.] ॥ द्याकरगय्हाभाच्यद्‌ ।। | {१८७द 


उभयमिर्देशे विभ्रतिषेधास्पम्जमीनिर्देराः ॥ ३ ॥ 
डमवनिदं्े निप्रतिबेधाखन्चमीनिर्देशो भविभ्वति || किं प्रयोजनम्‌ | -- 
भयोजनमती लसावंधातुकानुदा्षत्वे ॥ * ॥ 
वश्वति तास्यादिभ्बो अनुदा स्वे सप्रमीिरदेरो ऽवस्तसिज्थं इति । तस्मिन्‌ 


क्रियमाणे तास्यादिभ्यः परस्य लसार्वधातुकस्य लसार्वधातुके परतस्तास्यादीमामिति 5 
सदेहः । तास्यादिभ्यः परस्य रुसर्वधातुकस्य ॥ 


` बहोरिष्ठादीनमिदिरोपे ॥ ९ ॥ 
बहोर तरोषामिष्ठेमेयसामिष्ठेमेयःसु परतो बहोरिति देहः । बहोरत्तरषा- 
 जिष्ठेमेयसाम्‌ ॥ | 
मोतो णित्‌; ॥ & ॥ 10 
गोतः परस्य सर्वमामस्थानस्य सर्वनामस्थाने परतो गोत इति संदेहः । -गोतः 
परस्य सवेनामस्थानस्य ॥ 
रुदादिभ्यः सार्वधातुके ॥ ७ ॥ | 
रुदादिभ्यः परस्य सार्वधालुकस्य सार्वधातुके परतो कदादीनाभिति संदेहः 
रदादिभ्यः परस्य सार्वधातुकस्य ॥ 15 
अनि भुगीदासः¶ ॥ ८ | 
आख उन्तरस्यानस्थाने परत भास इति संदेहः । आसं उत्तरस्यानस्य ॥ 


आमे सर्व॑नाघः सुद्‌** || ९ ॥ 
सर्वनान्न उत्तरस्याम भामि परतः संवेनान्न इति संदेहः | सवैनाच्न उलरस्वामः।। 
षेित्याण्नद्याः†† ॥ ९० ॥ ` % 
नव्या उ्तरेषां ङितां डल्छ परतो नश्या इति सदेः | नथ्या उत्तरेषां सिताम्‌ ॥ 
याडापः ॥ ९९. ॥ | 
आप उलरस्य ङितो डिति प्रतं भष इति संदेहः । भाप उत्तरस्य ङितः ॥ 


न्प्र 1१९८ ११९९० {र - बृ र्२२,९ 
* ०.९. ५३. 11 ०.६. ९९९; ९९२. {1 ७.६. ९९९६. 


६५४ | ॥ व्याकरभमहाभोष्वचः |  [ब०९.९९. 


कमो दस्वादचि मुण्निस्यम' |[ ९२ || ` 
` डम उलतरस्वाचो अचि परतो उम इति संदेहः | ङम उलरस्वाचः ॥ 
विभक्तिविशेषनिर्देशावनकारास्वादविभरतिषेभः ।}. ९३ ॥ 


विभक्तिविरोषनिर्देशस्यामवकाशस्वादयुक्तो ऽयं विप्रतिषेषः ¦ सर्वत्रैवात्र कत- 
5 सामभ्यो सप्स्वङ्तसामथ्या . पच्चमीति कुस्वा पञ्चमीनिर्देशो मविष्वति || ` 


यथार्थे वा षष्ठीनिर्देदाः ।॥ १४ ॥ ` 
यथाथ वा षष्ठीनिर्देशः कतेष्यः | यत्र पुर्वस्य कार्यमिष्यते तत्र पर्वस्व षष्ठी 
कतेव्या | यत्र परस्य कार्यमिष्यते तत्र॒ परस्य शठी कतेष्यां ॥ खर्वा तथ 
निर्देशः कर्तष्वः | न कर्तष्यः | अनेनैव प्रकुप्िर्मविष्यति । तस्मिधिति निरि 
19 पूर्वस्य षक्षी | तस्मादि्युत्तरस्य षष्ठी ॥ तन्तर्टि बषठीमहणं कर्तेष्वम्‌ । न कर्त्वम्‌ | 
प्रकृतमनुवर्तते | क प्रकृतम्‌ । षी स्थानेवोगा [ ९,१.४९ ] इति | 
प्रकल्पकमिति चेन्नियमाभावः ॥ ९९ ॥ 
प्रकल्पकमिति चेक्िथमस्वाभावः | उक्तं धैतन्नियमार्थो ऽवमारम्भ इति || प्रस्य- 
वविषौ खल्वपि पन्डम्यः प्रकल्पिकाः स्युः | वत्र को दोषः | गुपिभ्कि्यः सन्‌ 
15 [ ३.१.९ ] | गुपिभ्किश्य इस्येषा पश्चमी सिति प्रथमायाः षष्ठीं परकस्यये्तस्मादि- 
स्युलरस्येति । अस्तु । न कथिदन्य आदेशः मतिनिर्दिशयते तजरान्त यैतः सनः सजे 
भविष्यति | तरैवं हाक्यम्‌ । इस्संज्ञा न प्रकल्पेत | उपदेशा इतीस्संजोष्यते† || 


प्ररृतिविकाराव्यवस्था च ॥ ९६ ॥ 


प्रकृविविकारयोथ व्यवस्था. न प्रकल्पते । इको यणचि | भचीस्येषा सप्रमी अणिति 
90 प्रथमायाः वरटी प्रकल्पये्तस्मिकनिति निर्दिष्टे पूर्वस्येति ॥ 
स्षमीपश्चम्योश्च भावादुभयत्र षष्ठीपरकृभिस्तत्रोभयकार्यपरसङ्गः | ९७ ॥ 
सप्रमीपश्बम्यो भावादुभवन्रेव वष्ठी प्रामोति | तास्यादिभ्य इत्येषा पञ्चमी 
लसावेभातुक इत्यस्याः सप्तम्याः षष्ठी पकल्पवेलस्मादिस्युत्तरस्येति | तथा लसार्व- 
धातुक इस्येभ्ा-सप्तमी तास्यादिभ्य इति पञ्चम्याः ष्ठी अकल्पयेनस्मिश्निति निर्दि 
2 पर्वस्वेति। तत्र को दोषः | तग्रोमयकार्येमखङ्गः । खभवोः कायै स्च आगति + तव 


# ८.६.३३, ` . , । † ९.३. २ 





0० ९.९.६८. | ॥ व्याकरनपरायाष्यम । ९.७५ 


रोषः| वत्तावदुख्वते प्रकल्यकमिति चेचियमाभाव इति मा भुचिवमः | सप्रमीनिर्िटे 
पर्वस्व पष्ठी भरकस्प्मते पञ्चमीनिर्दिष्टे परस्य । जायता सप्रमीनिर्दि्े पवस्व वी 
भकल्प्यव एवं ए्चमीनिर्दिष्टे प्रस्य गोत्सहते सप्रमीनिर्िष्े परस्य कायै भवितुं नापि 
प्चमीनिरिषटे पूवस्य || यदप्युच्यते प्रत्ययविषौ खल्वपि पश्चम्यः प्रकल्पिकाः स्युरिति 
वन्तु प्रकल्पिकाः 1 ननु चोक्तं गुपरिज्किश्यः स्धित्येषा पश्चमी सच्धिति प्रथमायाः $ 
षष्ठी प्रकल्पयेन्लस्मादिस्यु चरस्थेति । परिहवमेतच्च कथिदन्य आदे शाः प्रतिनिर्दिंदयते 
तत्रान्तयैतः सनः सन्नेव भविष्यतीति | ननु चोक्तं वैवं शाक्यभिस्संज्ञा न प्रकस्ये- 
तोपदेहा हती स्संश्ञोष्यत इति । स्यादेष दोषो यदीस्संश्चादेदं प्रतीक्षेत | तत्र॒ खलु 
कृतावामिस्वज्ञायां लोपे च कत आदेशो भविष्वति | उपदेश इति दीस्तंश्ञोष्यते | 
भथवा नानुस्पत्रे सनि प्रकुभ्या मवितस्यं यदा चोत्पच्चः संस्तदा कृतसामथ्यो पर्च- 10 
मीति कृत्वा प्रकुत्निने मविष्यति ॥ यदय्युध्यते परकृतिविकाराग्यवस्था चेति तन्नापि 
कृता प्रकृतौ षष्ठीक इति निकृतौ प्रथमा यणिति जत्र च नाम सौग्री ब्ठी नासि 
वत्र प्रक्ष्स्या मवितस्वम्‌ । भषवास्तु तावदिको वणथीति यत्र नाम सौत्री षष्ठी | 
वरि बेशनीमवीस्वेषा सप्रजी गिति प्रथमायाः ष्टी प्रकल्पवेन्स्मिचिति तिर्दिे 
पर्वस्वेस्वस्तु | न कथिदन्य भादेहाः प्रतिनिररिदयते तज्ान्तर्येतो यणो यणेष भवि- 15 
प्वति | यदप्युच्यते सप्रमीपश्चस्बो् भावादुभयत्र षष्ठीप्रकुतनिस्तत्रोभवका्मप्रसङ्ग 
इस्वाचथार्यपरवु्तिश्चीपवनि नोभे युगपस्मकल्पिके मवत इति यदयमेकः वेष 
दबोः [६.९.८४] इति पृ्वपरमरहणं करोति || 








स्वं स्पं चाब्दस्याश्ब्दसंज्ञा ॥ १. । १. । ६८ ॥ 


रूपग्रहणं किमे न स्वं दाग्दस्याराग्दसंश्चा भवतीस्मेव रूपं शाम्दस्य संश्ञा भषि- 20 
प्वति | न न्वस्स्वं दाग्द स्वास्स्यन्य दतो सूपात्‌ । एब तरि सिदे खति यद्रुषम्रहणं करोति 
वञ्ज्ञापयस्या चार्यो ऽस्स्वन्यड्ूपास्स्वे दाष्दस्वेति | किं पुनस्तत्‌। भर्थः | किमेतस्य 
ज्ञापने भयोजनम्‌ | अयेवद्हणे मानर्थकस्येस्येषा परिभाषा न कर्तव्वा भषति | 

किम पुनरिदमुच्यते | 


कग्देनार्थगतेर्यस्यासंभकासद्वाचिगः संशापरतिधेधार्थं स्व॑रूपक्यनम्‌ ॥ ९॥ 8 
` श्देभोरितेमार्थो गस्मते | गामामय र्यंशानिस्यथे भानीगते ऽष मुख्यत । 
अ्ेस्वासंभवात्‌ । इह व्याकरणे अब कावस्वासंभवः | भपरेडेक्‌ [४.१.१द] इति 


१७६. ॥ व्याकरगयहाभाष्यम ॥| [० ९.९.९; 


न॒ शक्यते ऽद्गपरेभ्यः परो डहतुम्‌ । शाब्देनार्थगतेर थस्यासंभवा शत्िन्तस्तद्याचिनः 
दाष्डास्तावश्यः सर्वेभ्य उस्पक्िः प्रामोति | हृष्यते अ तस्मादेव स्यादिति तथान्तरेग 
यल न सिध्यतीति तदाचिनः. संज्ञाप्रतिषे धार्ये स्वंरूपवचनम्‌ । एवमथमिशमुच्वते | 


| न वा शब्दपूर्वको ह्यथ संमरत्ययस्तस्मादर्थनिवृत्तिः ॥ २ ॥ 

5 न वैतत्पयोजनमल्ति | किं कारणम्‌ । शम्दपुवैको धरथे संमस्ययः । श्दपर्वको 
दस्य संपरस्ययः | आत शब्दपुवैको यो अपि छ्सावाहूयते नात्वा नाम॒ यदानेन 
नोपकम्धं भवति तदा पृच्छति किं भवानाहेति । शाम्दपृूवैकथायेस्य सैप्रस्यय इह च 
याकरणे शाब्दे कायस्य संभवो अये ऽतभवस्तस्मादथेनिवृत्तिः | तस्मादथनियुक्ति- 

भविष्यति || हदे तर्हि प्रयोजनमशम्दसंजञेति वद्यामीति । हह मा भूत्‌ | शधा ण- 

10 दाप्‌ [९.१.२०] तरप्रमषी घः [२९] इति । 

संज्ञाप्रतिषेधानर्थक्यं वखनपामाण्यात्‌ ॥ ३ ॥ 
संज्ञाप्रतिषेषधानथकः | शाब्दसं्ञायां ` स्वरूपबिधिः कस्मान भवति | वघन- 
भामाग्यात्‌ । .शब्दसंज्ञावचनसामथ्योत्‌ || ननु च वचनप्रामाण्यास्संक्ञिनां संप्रत्ययः 

. स्वास्स्वक्पग्रहणा्च संज्ञायाः | एतदपि नासि भयोजनम्‌ -। भावार्येभवृ्तिज्ञपयति 

15 शम्दतंज्ञायां न स्वरूपविधिभेवतीति यदयं ष्णान्ता षद्‌ [९.१.२४] इति पकारा- 
म्तायाः संख्यायाः बटसंज्ञां सास्ति | इतरथा हि वचनप्रामाग्योञ्च नकारान्तायाः 
संख्यायाः संप्रत्ययः स्यत्स्व्ररूपयहणा्च षकारान्तयाः | चैतदस्ति श्चापकं .न हि 
षकारान्ता संज्ञा । का तरिं | डकारान्ता | असिद्धं जश्त्वं तस्यासिदस्वास्वका- 
रान्ता | मन्ना तर्हीदं व्छव्यम्‌ | मन्त्र ऋचि यजुषीति यदुध्यते तन्मन्सरदाब्द 

20 ऋक्दाम्दे च यजुरदाम्दे च मा भूत्‌ | 


` मन्लाद्य्थीमिति येच्छासखरसामर्ध्यादर्थगतेः सिम्‌ ॥ ४ ॥ 
`  मन्त्राथर्थामिति चेत्न । किं कारणम्‌| शलस्य सामभ्यंदर्थस्य गति्मकिभ्यति | 
मन्त ऋचि यजुषीति यदुष्यते मन्तरदाग्द ऋक्दाभ्दे च यजुःदाब्दे च तस्य कावस्य 
संभवो नास्तीति कृत्वा मन्तारिसङ्चरितो यो अ्थस्तस्य गतिमविष्यति साह वयात्‌ ॥ 
9 ` सिशद्िरोषाणां वृ्ताथर्थम्‌ ॥ ५ ॥ 
लिजिर्देदः कतव्य | वसे त्रक्रम्यं तदिद्धेषाणां पदणं भवतीति . | किं ब्रगो- 


+ ६ “ 9 ०२. ३५, 














पा १.१.६९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ १७७ 


जनम्‌ | वृक्षाद्यथंम्‌ | विभाषा वृक्तमृग | २.४.९२ | इति । शक्षन्यमोधम्‌ शक्ष- 
न्यम्रोधाः | 
पित्पयायवचनस्य च स्वाद्यर्थम्‌ ॥ & ॥ 
पििर्देशः कर्तव्यः | ततो वक्तव्यं पयायव चनस्य तदिशेषाणां च प्रहणं भवति 
स्वस्य च रूपस्येति | किं प्रयोजनम्‌ । स्वाद्यथेम्‌ । स्वे पुषः [ ३.४.४० || स्व- ४ 
पोष पुष्यति | रैपोषम्‌ विद्यापोषम्‌ गोपोषम्‌ अश्वपोषम्‌ | 
जित्पयायवचनस्थेव राजादर्थम्‌ ॥ ५७ ॥ 
जि्चिर्देदाः कर्दः । ततो वक्तष्यं पयौयवचनस्थैव प्रहणं भवति | किं प्रयो- ` 
जनम्‌ | राजाद्यर्थम्‌ | सभा राजामनुभ्यपवौ [२.४.२३ | । इनसभम्‌ ईश्वरसभम्‌ । 
तस्यैव न भवति | राजसमा | विशेषाणां च न भवति | पुष्यमित्रसभा चन्द्रगु- 10 
प्रसभा || 


द्चित्तस्य च तद्टिरोषागां च मस्स्यादयर्थम्‌ । ८ ॥ 


सिचिर्देशः कनैव्यः | ततो वक्तव्यं तस्य च प्रहणं भ्रति तदिशोषाणां चेति | 
किं प्रयोजनम्‌ । मस्स्या्यथेम्‌ । पक्षिमस्स्यमुगान्हन्ति [४.४.३९ | | मास्स्यिकः | 
तदि शेषाणाम्‌ । शाफरिकः शाकुलिकः | पयोयवचनानां न भवति | भनिद्मा- 1; 
न्हन्तीति || अस्थैकस्य पयौयव चनस्येभ्यते | मीनान्हन्ति मेनिकः || 


अणुदित्सवणैस्य चाप्रत्ययः ॥ ९. । १ । ६९, ॥ 


अप्रत्यय इति किमर्थम्‌ | सनाशंसभिक्ष उः [ ३.२.९६८ | | अ सांप्रतिके 
| ४.३.९ | || अव्यल्पमिद मुच्यते प्रत्यय इति | अप्रत्ययादे शरिस्किन्मित इति 
वक्तव्यम्‌ | प्रत्यय उदाहृतम्‌ | आदे | इदम इद्य्‌ | ९.३.२३ || इतः इह | टिति| 20 
लविता लवितुम्‌* | किति । बभुव | मिति । हे नदन्‌ || ठितः परिहारः । 
भाचार्यप्रवृत्तिज्ञौपयति न टिता सव गानां महणं भवतीति यदयं रहो ऽङिरि दीर्ध 
शास्ति | तरैतदस्ति श्षापकम्‌ | नियमार्थमेतत्स्यात्‌ | यहो ऽङिटि दीष एवेति | 
यत्तर्हि वृतो वा | ७.२.३८ | इति विभाषां शास्ति ॥ सर्वेषामेव परिहारः | भाव्यमा - 
नेन सवणोनां प्रहणं नेत्येवं न भविष्यति || प्रत्यये भूयान्परिहारः | अनभिधाना- 25 


# ७.२, ३५. ¶ ६.४. ८८. ‡ ७,१., ९.९., § ५.२. ६७. 
23 क्ष 


९७८ ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥  [म०९.९.९. 


सत्ययः सवर्णान्न भरहीष्यति । यान्हि प्रत्ययः सवणै्रहणेन गृह्णीयान्न तैरथेस्यामि- 
धानं स्यात्‌ | अनभिधानान्न भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ | इह केचित्पवीयन्ते 
केचित्पत्याय्यन्ते | हस्याः प्रतीयन्ते दीषोः प्रत्याय्यन्ते | याबद्भूयासत्याय्यमानेन सव- 
णीनां ब्रहणं नेति तावदपरस्यय इति | कं पुनर्द्षिः सवर्णमहणेन गृह्णीयात्‌ | हस्वम्‌। 

5 यलापिक्यान्न ब्रहीप्यति | श्रुतं तर्द गृह्णीयात्‌ । भनण्त्यान्न अहीभ्यति । एवं तरह 
सिद्धे सति यदप्रत्यय इति प्रतिषेधं शास्ति तजञ्ज्ञापयस्याचार्यो भवस्येषा परिभाष 
भाव्यमानेन सवणोनां महणं नेति | 


किमथे पुनरिदमुच्यते । 


अण्सवणेस्थेति स्वरानुनासिक्यकारभेदात्‌ ॥ ९ ॥ 


10 अण्सवर्णस्येव्युच्यते | स्वरभेदादानुनासिक्यमेदार्कालमेदा घाण्सवर्णा च गृह्णीयात्‌ | 
इष्यते च सवणेप्रहणं स्यादिति तच्चान्तरेण यलं न सिभ्यतीत्येवमयेमिदमुच्यते | 
अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | किं वर्शीति। 


तत्र प्रस्याहारग्रहणे सवर्णाग्रहणमनुपदेरात्‌ | २ ॥ 


तन्न प्रत्याहार परहणे सवणोनां म्रहणं न प्राप्रोति | अकः सवर्ण दीधः [६.९.९०१ 

15 इति । किं कारणम्‌ । अनुपदेशात्‌ | यथाजातीयकानां संज्ञा कृता तथाजातीयकाना 

संप्रत्यायिका स्यात्‌ | हस्वानां च क्रियते हस्वानामेषव संप्रत्यायिका स्याहमीषोशां न 
स्यात्‌ || ननु च स्वाः प्रतीयमाना दीधोन्संपरत्याययिष्यन्ति | 


दरस्वसंभस्ययादिति चेद्‌ चायमाणसंप्रस्यायकत्वाच्छब्दस्यावचनम्‌ ॥ ३॥ 


हस्वसंप्रस्ययादिति चेदञ्चयैमाणः शब्दः संप्रस्यायको भवति न संप्रतीयमनः।| 
20 तद्यथा | ऋगिस्युक्ते संपाठमात्रं गम्यते नास्या अर्थो गम्यते || एवं तर्द वर्ण॑पा 
एवोपदेशः करिष्यते | 


वर्णपाठ उपदेश इति चेदवरकालत्वात्परिभाषाया अनुपदेशः ॥ * ॥ 


वणेपाठ उपदेशा इति चेदवरकालत्वास्परिभाषाया अनुपदेशः | किं परा खतरा 
त्करियत इत्यतो ऽवरकाला | नेत्याह | सर्वथावरकाडैव | वणौना मुपदेश्ास्तावत्‌ | 

८ उपदेशो लर काठेत्संश्ञा | इत्संक्ञोलरकाल आदिरन्त्येन सहेता [९.१.७९] हति 
्रस्याहारः । प्रत्याहारोच्रकाला सवर्णसंज्ञा | सवणैसंज्ञोत्तरकालमणुदित्सवर्णस्व 











पा ° १.१.६९. | ॥ व्याकरगम्रहामोष्यय्‌ ॥ १९७९ 


चाप्रत्यय इति | चैषोपदेशोत्तरकालावरकाला सती वणौनामुर्पतौ निमित्तत्वाय 
कल्पयिष्यत हस्येतच्च || 
तस्मादुपदेराः ॥ ९ ॥ 
तस्मादुपदेशः कतेव्यः || 
तत्रानुवृत्तिनिदेरो सवर्णाग्रहणमनण्त्वात्‌ || ६ ॥ ६ 
तत्रानुवृत्तिनिरेशे सवणीनां महणं न प्रामोति } भस्य च्वौ [७.४.२३२] यस्येति 
च [६.४.१४८] | किं कारणम्‌ । अनण्त्वात्‌ | न देते ऽणो ये ऽनुवृत्तिनिदेे । 
के तर्हि । ये क्षरसमान्नाय उपदिरयन्ते ॥ एवं तर्धनण्त्वादनुवृन्तौ नानुपदेशाच 
प्रत्याहारे न । उच्यते चेदमण्सवगोन्गृह्णातीति | तत्र वचनाद्विष्यति ॥ 
कचनाग॒ज तनास्ति । 10 


नेदं वचनाद्वभ्यम्‌ | अस्ति छयन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | य एते 
्रत्याहाराण्यमादितो वणौस्तैः सवणोनां महणं यथा स्यात्‌ || एवं ताद 


सवर्णे ऽण्य्रहणमपरिभाष्यमाकृैग्रहणात्‌ । 


सवर्णे अग्रहणमपरिभाष्यम्‌ | कुतः | भाकृतिमरहणात्‌ | अवणीकृतिरपदिष्टा सा 
सवेमव्णकुं प्रहीष्यति | तथेवणोकृतिः | तथोवणीकृतिः ॥| ननु चान्याकृतिरका- 15 
रस्याकारस्य च | 
अनन्यत्वाच ॥ € | 
भनन्याकृतिरकारस्याकारस्य च | 
अनेकान्तो श्यनन्यस्वकरः ॥ 
यो नेकान्तेन भेदो नासवन्यस्वं करोति । तद्यथा । न यो गोध गो भेदः 20 
सो जन्यस्य करोति । यस्तु खलु गोथाश्वस्य च भेदः सो ऽन्यस्वं करोति | 
अपर आहं | संवर्णेऽभ््रहणमपरिभाष्यमाकृतिमरहंणादनन्यस्वम्‌ | सवर्गेऽण््रह- 
गमपरिमाष्यम्‌ | आकृ तिग्रहणादनन्यस्वं भविष्यति | अनन्याकृतिरकारस्वाकारस्य 
च | अनेक्रान्तो ्नन्यत्वकर' | यो द्यने कान्तेन भेदो नासायन्यत्वं करोति | त्था | 
नयो गो गो मेदः सो ऽन्यं करोति| यस्तु खलु गोाश्चस्यचमेदः सो 
न्यस्वं करोति | | 


९८० ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम्‌ ॥  [म०९.९.९. 


तदच हल्ग्रहणेषु । ९०.॥ 

एवं च कृत्वा हल्महणेषु सिद्धं भवति | ज्षलो दलि | ८.२.२६ | अवात्ताम्‌ 
अवात्तम्‌ अवात्त | यत्रैतन्नास्त्यण्सवणोन्गृक्णातीति | अनेकान्तो ह्यनन्यत्वकर इत्यु - 
्तायेम्‌ | 

४ हुतविलम्बितयोश्वानुपदेशात्‌ ॥ ९९ ॥ 

द्र तविलम्बितयोथानुपदेश्ञान्मन्यामह आकृतिब्रहणास्सिद्धमिति । यदयं कस्यां - 

चितौ वणोनुपदिरय सवत्र कृती भवति ।| अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | किं तर्हीति | 
वृत्तिपृथक्कं तु नोपपद्यते ॥ ९२ ॥ | 
वृत्तेस्तु एथक्छं नोपपद्यते ॥ 


10 तस्मात्त तपर्निर्देरास्सिदम्‌ ॥ ९३ ॥ 
तस्मात्तत्र तपरमनिर्देहाः कतेव्यः | न कतैव्यः | क्रियत ९तन्यास एव | अतो 
भिस रेत्‌ (७.१.९ | इति || 


तपरस्तव्कारस्य ॥ ९ ।९ । ७9० ॥ 


अयुक्तो अयं निर्देशः | तादिस्यनेन कालः प्रतिनिर्दिरयते तदिस्ययं च वणः | 
15 तत्रायुक्तं वणेस्य काठेन सह सामानाधिकरण्यम्‌ || कथं तर्हि निर्दश्चः कतेव्यः | 
तत्कालकालस्येति | किमिदं तत्काठककाठष्येति | तस्य कालस्तत्कालः | तत्कालः 
कालो यस्य सो अवं तत्कालकालः | तत्काठकालस्येति | स तर्हि तथा निर्ददाः 
कतेव्यः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो तर द्रष्टव्यः | तद्यथा | उष्ूमुखभिव मुख- 
मस्य सो अयमुष्ूमुखः | खर मुखः | एवं तत्कालकालस्तत्कालः | तत्कालस्येति ॥ 
20 अथवा साहचया ्ताच्छष्डयं भविष्यति | कालसहचरितो वर्णो अपि काठ एव ॥ 
किं पुनरिदं नियमा्थमाहोस्विसखरापकम्‌ | कथं च नियमार्थं स्यात्कथं वा 
प्रापकम्‌ । यद्यत्राण्महणमनुवसेते ततो नियमार्थम्‌ | अथ निवृत्ते ततः प्रापकम्‌ ॥ 
कथात्र विदोषः | ` 


तपरस्तत्कालस्येति नियमार्थमिति चेहीर्षग्रहणे स्वराभिन्नाग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 


25 तपर स्तत्कालस्येति नियमार्थमिति चेदीर्षयहणे स्वरभिन्नानां महणं न प्रामोति । 
केष(म्‌ । उदातानु दात्तस्वरितानाम्‌ | अस्तु ताहि प्रापकम्‌ ॥। 








पा० १,१.७०. | ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम्‌ ॥ ९८१ 


पापकमिति चेद्धस्व प्रहणे दीर्षशतपरतिषेधः ॥ > ॥ 
प्रापकमिति वेद्ध स्वग्रहणे दीरधश्चतयोस्तु प्रतिषेधो वक्तव्यः ॥ 


विप्रतिषेधास्सिद्धम्‌ 11 ३ ॥ 


अण्सवर्णान्गृह्णातीस्येतदस्तु तपरस्तत्कालस्येति वा तपर स्तत्कालस्येत्येतद्भवति 
विप्रतिषेधेन । भण्सवणोन्गृह्णातीत्यस्यावकाडाः । हृस्वा अतपरा अणः | तपरस्त- 5 
व्कालस्येत्यस्यावकाशचः | दीषास्तपराः । हृस्वेषु तपरेषूभयं प्राभोति | तपर स्तत्का- 
लस्येत्येतद्भवति विप्रतिषेधेन ॥ यद्येवं 


दुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरूपसंख्यानं कालभेदात्‌ ॥ ४ ॥ 


द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरपसंख्यानं कतेव्यं तथा मध्यमायां 
दुतविलसम्बितयोस्तथा विलम्बितायां दुतमध्यमयोः | किं पुनः कारणं न सिध्यति | 10 
कालभेदात्‌ । ये हि द्रुतायां वृत्तौ वणोज्ञिभागाधिकास्ते मध्यमायां ये मध्यमायां 
वणाजिभागाषिकास्ते विरम्बितायाम्‌ | 


सिद्धं त्ववस्थिता वणां वक्तश्िराचिरवचनादृत्यो विशिष्यन्ते ॥ ५॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । अवस्थिता वणो द्ुतमध्यमविलस्बिताद्ध | किंकृतस्तर्ि 

वृत्तिविरोषः | वक्तुधिराचिरवचनादूतयो विशेष्यन्ते | वक्ता कथिदाशमिधायी 15 
भवति । आद्य वणानभिधन्ते | कथिचिरेण कथिधिरतरेण | तद्यथा | तमेवाध्वानं 
कथिदाश्चु गच्छति कथिधिरेण गच्छति कथिचिरतरेण गच्छति | रथिक भाद्यु 
गच्छल्याधिकथिरेण पदातिधिरतरेण || विषम उपन्यासः । अधिकरणमक्राभ्वा 
व्रजतिक्रियायाः । तत्रायुक्तं यदधिकरणस्य वृद्धिहासौ स्याताम्‌ || एवं तार्हि स्फोटः 
शाब्दो ध्वनिः शब्दगुणः | कथम्‌ । भेयोषातवत्‌ । तद्यथा भेयोघातः | भेरीम।इत्य 2 
कथिर्हिश्ाति पदानि गच्छति कथिक्निरहात्कथिचत्वारिंशत्‌ । स्फोटशथ्च तावानेव 
भवति ध्वनिकृता वृद्धिः ॥ | | 

ध्वनिः स्फोट शब्दानां ध्वनिस्तु खलु रक्ष्यते । 

भल्पो महां केर्षाचिवुभयं तस्स्वभावतः || 


१८२९ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ [०९.९९ 


आदिरन्येन सहेता ।॥ १. । ९ । 9९ ॥ 


आदिरन्त्येन संहेतेत्यसेभव्ययः संज्ञिनो अनिर्देशात्‌ ॥ ९ ॥ 
आदिरन्त्येन सहेतेत्यसंप्रस्ययः | किं कारणम्‌ । संश्जिनो ऽनिर्देशात्‌ | न हि 
संज्ञिनो निंिदयन्ते || 
९ सिद्धं त्वादिरिता सह तन्मध्यस्थेति वचनात्‌ ॥ २॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । भादिरन्त्येन सकेता गृद्यमाणः स्वस्य च रूपस्य माह- 
कस्तन्मध्यानां चेति वक्तव्यम्‌ ॥ 
संबन्धिदराब्देरवा तुल्यम्‌ ।। ३ ॥ 
संबन्धिशन्दैवा तुल्यमेतत्‌ । तद्यथा संबन्धिराब्दाः | मातरि वर्तितव्यं पितरि 
10 शयुभ्रूषितव्यमिति. | न चोच्यते स्वस्यां मातरि स्वस्मिन्पितरीति संबन्धाश्च गम्यते 
या यस्य माता यथ यस्य पितेति । एवमिहाप्यादिरन्त्य इति संबन्धिदाब्दावेती । 


तत्र संबन्धादेतद्नन्त््यं यं प्रत्यादिरन्त्य इति च भवति तस्य महणं भवति स्वस्व 


येन विधिस्तदन्तस्य ॥ १. । १ । ७२ ॥ 


15 इह कस्मान्न भवति | इको यणचि [६.१.७७] दध्यत्र मध्वत्र | भस्तु | अलो 
ऽन्त्यस्य विधयो भवन्तीस्यन्त्यस्य भविष्यति" | तवं शक्यम्‌ | ये जकार अदे- 
शास्तेषु दोषः स्यात्‌ । एचो ऽयषायावः [६.१.७८] इति । नैष दोषः । यथैव 
प्रकृतितस्तदन्तविधिभेबत्येवमादेश्तो ऽपि भविष्यति | तत्रैजन्तस्यायाद्यन्ता आ- 
देश्शा भविष्यन्ति ॥ यदि चैवं कचिदैरूप्यं तत्र दोषः स्यात्‌ | अपि चान्तर डुबहि- 

0 रङे न प्रकल्येयाताम्‌ । तत्र को दोषः | स्योनः स्वोना | अन्तरङ्रक्षणस्य यणा- 
देशस्य बहिरङ्लक्षणो गुणो‡ वाधकः प्रसज्येत | ऊनशब्दं ध्याभ्रित्य यणादेशो 
नशब्दमाभनिस्य गुणः ॥ अल्विधि न प्रकल्पेत | शोः पन्थाः स ` इतिश ॥ 
तस्मात्मरकृते तदन्तविधिरिति वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | येनेति करण एषा तृतीया । 
भन्येन चान्यस्य विधिभेवति | तद्यथा । देवदत्तस्य खमा शारावैरोदनेन च यञ्च- 





# ९.९. ५२. ¶† ६.९. ७७. { ७.३. ८६. ९,६.५३. ¶ ०.९. ८४; ८५; ०.२० ९०द्‌ 





प° ९.१.०९-५२.] ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥ १८६ 


दत्तः प्रतिविधत्ते | तथा संपामं हस्स्यश्चरथपदातिभिः । एवमिहाप्यचा धातोयतं 
विधत्ते* | अकारेण प्रातिपदिकस्येञं विधत्ते | 

येन विधिस्तदन्तस्येति चेदुहणोपाधीनां तदन्तोपाधिपरसङ्गः ॥ ९॥ 

येन विधिस्तदन्तस्येति चेद्रहणोपाधीनां तदन्तोपाधिताप्रसङ्गः | ये म्रहणोपाधयस्ते 
पि तदन्तोपाधयः स्युः | तत्र को दोषः | उतश्च भरत्ययादसंयोगपुवौत्‌ [६.४.१०६] 5 
इत्यसं योगपूवैमरहण मुकारान्तविदोषणं स्यात्‌ । तत्र को दोषः। असं योगपुवैम्रहणेनेह त्र 
पयुदासः स्यात्‌ | भक्ष्णुहि तश्ष्णुहीति | इह न स्यात्‌ | आमहि श्नुहीति । तथोदो- 
पूवस्य [७.९.९०१] इत्यो्टधपूवेम्रहणमृकारान्तविदोषणं स्यात्‌ | तन्न को दोषः। 
ओश्यपूवैमहणेनेह च प्रसज्येत । संकीणेमिति | इह च नस्यात्‌ | निपतीः 
बिण्डा इति ॥ | । 10 

सिद्धं तु विदोषणविरोष्ययोर्ययेष्टत्वात्‌ ॥ ‰ ॥ 

सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | यथेष्टं धिरोषणविशेष्ययोर्योगो भवति | यावता यथेष्ट 
भिह तावदुतश्च प्रस्ययादसंयोगपुवं दिति नासंयोगपवे्हणेनोकारान्तं विशोष्यते । 
ररि तरि | उकार एव विशेष्यते | उकारो यो ऽसंयोगपवैस्तदन्तासख्स्ययादिति ।| 
तथोदोष्ठघपूर्वस्येति नौषठचपूर्वमहणेन ऋएकरान्तं विशोष्यते | किं तर्द । ऋकार 15 
एव विद्येष्यते | ऋकारो य ओष्ट्पुवेस्तदन्तस्य धातोरिति ॥ 


समासप्रस्ययविधो प्रतिषेधः ॥ ३ ॥ 


समासविधौ प्रत्ययविधौ च प्रतिषेधो वक्तव्यः || समासविधौ तावत्‌ | हितीया 
भ्रितादिभिः समस्यते{ । कष्ट्नितः नरकभ्नितः | कष्टं परमश्रित इत्यत्र मा भूत्‌ ॥ 
प्रत्ययविग्ौ | नडस्यापत्यं नाडायनः९ | इष्ट न भवति | सखूजरनडस्यापत्यं तौज्रना- 20 
डिः || केमविशोषेण । नेत्याह । | 

उगिदर्णंग्रहणवजम्‌ ॥ ४ ॥ 

उगिद्भहणे वणग्रहणं च वजेविस्वा | उगिद्रहणम्‌ । भवती अति्मवती महती 
अतिमहती | वणम्रहणम्‌ ¡ अत इञ्‌ [४.१.९९ | दाक्षिः आकिः || अस्ति चेदानीं 
कशित्केवलो ऽकारः प्रातिपदिकं यदर्थो विधेः स्यात्‌ । अस्तीत्याह । अततेडः 2 
अः तस्यापत्यम्‌ अत इञ्‌ इः ॥ 


#* ३.९. ९५. † ४.९. ९५. ‡ २.९. २४. $ ४.६९. ९९. व ४.९६. ९. 





८ । घ्याकरगमहाभाष्यम्‌ ॥  [ म०९.९.९. 
अकच््मम्बतः सवैनामाग्ययधातुविधावुपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 


अकज्वतः सवैनामाव्ययविपौ श्रम्बतो धातुविधावुपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । भक- 

ज्वतः | सर्वके विश्वके" । अव्ययविषौ । उद्यकैः नीचकैः† | शम्बतः | मिनि 

छिनन्ति{ || किं पुनः कारणं न सिध्यति | इह तस्य वा ब्रहणं भवति तदन्तस्य 
४वा न चेदं तच्चापि तदन्तम्‌ ॥ 


सिद्धं तु तदन्तान्तवचनात्‌ |} & ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । तदन्तान्तवचनात्‌ । तदन्तान्तस्येति वक्तव्यम्‌ । किमिदं 
तदन्तान्तस्येति । तस्यान्तस्तदन्तः | तदन्तो ऽन्तो यस्य तदिईं तदन्तान्तम्‌ | तदन्ता- 
न्त्येति | स तर्हिं तथा निर्देशः कतैव्यः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो जत्र द्रशटव्यः। 
10 तद्यथा | उष्ूमुखमिव मुखमस्योष्रमुखः | खरमुखः | एवमिहापि तदन्तो न्तो 
यस्य. तदन्तस्येति || 


तदेकदेशाविज्ञानाद्रा सिद्धम्‌ ।। ७ ॥ 


तदेकदेशविज्ञानाद्वा पुनः सिद्धमेतत्‌ | तदेकदे शभुतस्तद्रहणेन गृह्यते । तद्थधा | 
गङ्गा यमुना देवदत्तेति । भनेका नदी गङां यमुनां च प्रविष्टा गङ्गायमुनाग्रहणेन 
15 गृह्यते । तथा देवदन्तास्थो गर्भो देवदत्ता्रहणेन गृ्यते || विषम उपन्यासः | इह 
केचिच्छब्दा अक्तपरिमाणानामथोनां वाचका भवन्ति य एते संख्याशब्दाः परि- 
माणक्रब्दाथ | पञ्च सप्ते्येकेनाप्यपाये न भवन्ति | द्रोणः खायौढकमिति नैवा- 
धिके मवन्ति न न्युने | केचिद्या वदेव तद्भवति तावदेवाहु्यं एते जातिराब्दा गुण- 
शाब्दा | तैलं घृतमिति खायौमपि भवन्ति द्रोणे ऽपि | शङ्को नीरः कृष्ण इति 
20 हिम्रवत्यपि भवति वटकणिकामात्रे अपि द्रव्ये | इमाथापि संज्ञा अक्तपारिमाणाना- 
मथौनां क्रियन्ते ताः केनाधिकस्य स्युः || एवं तद्यौचाथप्रवृत्तिज्गौपयति तदेकदे श- 
भूतं तद्रहणेन गुद्यत इति यदयं नेदमदसोरकोः [७.९.११] इति सककारयोरि- 
दमदसोः प्रतिषेधं शासि | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ । इदमदसोः कायैमुच्यमानं कः 
प्रसङ्गो यस्सककारयोः स्यात्‌ । परयति स्वाचार्यस्तदे कदे शभूतं तद्रहणेन गृद्यत इति 
‰ ततः सककारयोः प्रतिषेधं शास्ति || 
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि | 


भै ७.९, १.७१ † २.४० ८२१ १ ६.९. १६२. 





पा* १.९.७२. ] ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम्‌ ॥ १८५ . 


प्रयो जनं स्बनामाव्ययसंज्ञायाम्‌ | ८ ॥ 
स्वनामाव्ययसंज्ञायां प्रयोजनम्‌* | सर्वे परमसर्वे विशे परमविश्वे | उचैः पर- 
मोचैः नीशचैः परमनीचैरिति ॥ 
उपपदविधौ भयादचादिग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥। 
उपपदविधौ मयाद्यादिग्रहणं प्रयोजनम्‌† | भयंकरः . जमयंकरः | भाद्यं- $ 
करणम्‌ स्वाद्यकरणम्‌ ॥ 
डीव्विधावुगिद्रहणम्‌ ॥ ९० ॥ 
डीम्विधावुगिद्रहणं प्रयोजनम्‌ । भवती अतिभवती । महती अतिमहती ॥ 
प्रतिषेधे स्व्लादि ग्रहणम्‌ ॥ ९९ ॥ 
प्रतिषेभे स्वल्लादि महणं प्रयोजनम्‌९ | स्वसौ परमस्वसा | दुहिता परमदुहिता |} 10 


अपरिमाणविस्तादिग्रहणं च प्रतिषेधे ॥ ९२ ॥ 
 अपरिमाणविस्तादिमरहणं च प्रतिषेधे प्रयोजनम्‌ | भपरिमाणविस्ताचितकम्बल्ये - 
भ्यो न तदितलुकि [४.१.२२] । हिविस्ता हिपरमविस्तां । त्रिविस्ता त्रिपरम- 
विस्ता । द्याचिता ईिषपरमाचिता ॥ | 
दिति ॥.९३॥ 15 
दितिग्रहर्णं च प्रयोजनम्‌ | दितेरपद्यं दैत्यः | अदितेरपत्यमादिव्यः | दित्य- 
हित्यादित्य [४,१.८९ | इत्यदितिमहणं न करतष्यं भवति ॥ 


रोण्या अण्‌ ॥ ९४ ॥ 
रोण्या अण्पहणं च प्रयोजनम्‌¶ । आजकरोणः सँहकरोणः ॥ 


तस्य च ॥ ९९ ॥ %0 
तस्य चेति वक्तव्यम्‌ | रौणः || किं पुनः कारणं न सिध्यति | तदन्ताच्च तदन्द- 
विधिना स्सिद्धं केवलाच्च व्यपदेशिवद्भावेन | व्यपदेशिवद्भावो प्रातिपदिकेन | किं 
पुनः कार्णं व्यपदेशिवद्भावो पातिपदिकेन ।. इह दुत्रान्ताइग्भवति दशान्ताङ़ो 


* २.९. २७; १७, † २.३, ४२; ५९.  ‡ ४.९. ६. $ ५,२९.१२० ¶ृ ५.२.०८. 
24 4 


१८६. ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥  [म०९.९.९. 


भवतीति केवलादुल्पत्तिमौ भूदिति । नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । सिद्धमध्र तदन्ताच 
तदन्तविधिना केवलाच्च व्यपदेशिवद्भावेन | सो अयमेवं सिद्धे सति यदन्तम्रहणं 
करोति तज्ज्ञापयत्याचायैः खान्तादेव द शान्तादेवेति | नात्र तदन्तादुत्पत्तिः प्रामोति । 
इदानीमेव युक्तं समासपरस्ययविषौ प्रतिषेष इति ॥ सा तर्चेषा परिभाषा कतेव्या | 
5 न कतैव्या । आ चार्यभरवृत्तिज्ञापयति व्यपदेशिवद्धावो अ्ातिपदिकेनेति यदयं पुवो- 
दिनिः सपूर्वाच्च -[९.२.८ ६१८७] इत्याह । नैतदस्ति ज्ञापकम्‌ । भस्ति घ्यन्यदे- 
तस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ । स्पूवौत्पुवोदिनिं वक्ष्यामीति । . यत्ति योगवि- 
भागं करोति । इतरथा हि पृबौत्सपुवोदिनिरित्येव त्यात्‌ ॥ किं पुनर यमस्यैव शोष - 
स्तस्य चेति | नेत्याह । यचानुक्रान्तं यचानुत्र स्यते सरवैस्थैव शेषस्तस्य चेति ॥ 


10 रथसीताहखेभ्यो यद्विधो ॥ ९६ ॥ 


, रथसीताहलेभ्यो यद्विधौ प्रयोजनम्‌। | रथ्यः पंरमरथ्यः | सीत्यम्‌ परमसीत्यम्‌ | 
हल्या परमहल्या ॥ 


सुसर्वाधदिक्राब्देभ्यो जनपदस्य ॥ ९७ ॥ 


डसवो्दिकदाब्देभ्यो जनपदस्य प्रयोजनम्‌‡ | उपात्चालकः खमागधकः | इ || 
15 सवे | सवेपात्चाठकः सवैमागधकः | स्वं | अधे | अपपात्चालकः अधमागषकः। 
अधं ॥ दिकदाब्द । पुर्वैपाञ्चालकः पूर्वमागधकः || 


ऋतोवृदधिमदिधाववयवानाम्‌ । ९८ ॥ 
ऋतो वृदधिमद्विधाववयवानां प्रयोजनम्‌ । पूवेशारदम्‌ भपर शारदम्‌ । पुवेनैदाषम्‌ 
जपरनेदाषम्‌ ॥ 


20 , . ठञ्विधो संख्यायाः ॥ ९९ ॥ 
ठञ्विपौ संख्याया; प्रयोजनम्‌¶ । दिषाष्टिकम्‌ पतचषािकम्‌ ॥ 


धमान्नजः || २० ॥ 


धमीन्नञः प्रयोजनम्‌" | धमै चरति धार्मिकः | अधर्म चरत्यापर्मिकः | अष- 
मोचेति1† न वक्तव्यं भवति | 





# ४. २. ६०; ९.२.४५. † ४.३. २१ ४.४. ७६; ९१; ९०. ` ‡ ४.२. ९२५; ७,२३.२२; ९३. 
†+ ४.२. ९६; ९.३. १२२. व्‌] ९.९, ५७; ५८; ९८; १९. #**# ४.४. ४९१, 11 ४.४. ४९४, 





पा० ९.९.७२. | ॥. व्याकरणमहाभाष्य प्र ॥ - १८७ 


पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुत्तरपदस्य च ॥ २९॥ 
पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुत्तरपदस्य चेति वक्तव्यम्‌ || पदाधिकारे किं 
प्रयोजनम्‌ | 


प्रयोजनमिष्टके षीकामालानां विततुल्भारिष्‌* ॥ ९२ ॥ 


इष्टकचितं चिन्वीत पक्र्टकचितं चिन्वीत | इषीकतूलेन मुक््ेषीकतृेन | $ 

माठमारिणी कन्या उत्पलमाठभारिणी कन्या || अद्धाधिकारे कि प्रयोजनम्‌ । 
महदप्स्वसूनपरृणां दीर्घविधौ ॥ ९३ ॥ 

महदप्स्वल्‌नघ्रणां दीषविधौ† प्रयोजनम्‌ || महान्‌ परममहान्‌ । महत्‌ | भप्‌ | 
आपस्तिष्ठन्ति स्वापसिष्ठन्ति । अप्‌ || स्वसृ | स्वसा स्वसारौ स्वसारः परमस्वसा 
प्रमस्वसारौ परमस्वसारः | स्वसृ || नप्र | नपा नारौ नघरारः | एवं पर मनप्रः10 
परमनपारौ परमनपरारः ॥ 

१दुष्मदस्मदस्थ्याद्यनङ्हो नुम्‌ ॥ ५४ ॥ 

पद्भावः प्रयोजनम्‌+ | हिपदः पद्य | अस्ति चेदानीं कथित्के वलः पाच्छष्दो यदर्थो 
त्रिधिः स्यात्‌ | नास्तीव्याश् | एवं तद्यङ्काधिकारे प्रयो जनं नास्तीति कृत्वा पदयधि- 
कारस्थेदं प्रयोजनमुक्तम्‌ | हिमकाषिहतिषु च [ ६.३.९४ | | यथा पत्काषिणौ 15 
पत्काषिण एवं परमपत्काषिणी परमपत्काषिणः | यदि तर्द पद्यापिक्टे पादस्य 
तदन्तविधिभेवति पादस्य पदाज्यातिगो पडतेषु [६.३.९५ १] यथेह भति । पादेनोपहतं 
पदोपहतम्‌ | अत्रापि स्यात्‌| दिग्धपादेनो पहतं दिग्ध्रदोपहतमिति ] एवं तद्यद्गधिकार 
एव प्रयोजनम्‌ | ननु चोक्तं नास्ति केवलः पाच्छब्दः इति | अयमस्ति. पादयतेरप- 
त्ययः पात्‌ | प्रदा पदे | पद्‌ || युष्मद्‌ भस्मद्‌ । युयम्‌ वयम्‌ अतियूयम्‌ 2 
अतिवयम्‌ | अस्थ्यादि॥ | भस्थ्ना दका सक्थ्ना परमास्थ्ना प्रमदधा परमस- 
 क्थ्ना || अनडुहो नुम्‌ ˆ । अनान्‌ परमानद्धान्‌ ॥ 

दयुपथिमयिपुंगोसखिवतुरनडननिग्रहणम्‌ ॥ ५९ ॥ 

श पथिमथिपुंगोसविचतुरनडुन्निमहणं प्रयोजनम्‌ 11 । थीः खशः | पन्थाः खप- 

न्थाः | मन्थाः मन्थाः परममन्थाः | पुमान्‌ परमपुमान्‌ । गौ: खगः | सखा सखायौ 25 


~ # ६.३.६५. + ६.४.९०; १९.  { ६.४.९२०, § 9.२. ८६;९द. 4 ७,९.७५, 
.' ## ७.१.८द्‌. ¶1† ७.६. ८४ ; ८५ ; ८९ ; ९० ; ९२३९८ ; ५३. 


९८८ ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥ [०९.१९ 


सखायः सखा सखायौ सखायः परमसखा परमसखायौ परमसखायः । 
चत्वारः पर मचत्वारः । अनद्धाहः परमानङ्ाहः । त्रयाणाम्‌ परमच्रयाणाम्‌ ॥ 


त्यदादिविधिभस्त्ादिस्त्ीग्रहणं च || २६ ॥ 


त्यदारिविधिभरखादिखी महण च प्रयोजनम्‌ | सः भतिसः° | मलका भलिका 
£ निभेखका निभजिका बहभलका बहुभलिका† | लीपहणं च प्रयोजनम्‌ | लिवौ 
जियः राजजियौ राजलियः || 


 बणेग्रहणं च सषैत्र ॥ २७ | 
` र्णग्रहणं च सवत्र प्रयोजनम्‌ | क सयैत्र | अङ्गाधिकारे चान्यत्र च | भन्य- 
श्रोदाहतम्‌ । अङ्गाधिकारे | भतो दीर्घो याञ पि च [७,३.९०९.-१०२| इहेव 
10 स्यात्‌ भाग्याम्‌ | षटान्यामित्यत्र न स्यात्‌ | 


प्रत्ययग्रहणं चापश्चम्याः ॥ २८ |. 
प्रत्ययम्रहणं चापश्चम्याः प्रयोजनम्‌ | यिनः फकग्मवतिऽ | गाग्योयणः वा- 
सस्यायनः प्ररमगाग्योयणः प्रमवास्स्यायनः | भपभ्चम्या इति किमथम्‌ | दृष - 
सीणौ परिषन्तीणो || 


15 अङैवानथैकेन नान्थेनानर्थकेनेति वच्कव्यम्‌ | ककि प्रयोजमम्‌ | हन्प्रहणे ्ी- 
इन्पहणं मा भूत्‌ | उद्हणे11 गमुद्हणम्‌ | खीभदणेः‡ शालीम्रहणम्‌ | संमरहणे$ 
पायसं करोतीति भा भूत्‌ ॥ किमथेमिदमुच्यते न पदाङ्गाधिकारे तस्य च तदुरषर- 
पदस्य चेत्येव सिद्धं न. चेदं तच्ापि तदुत्तर पदम्‌ । तत्त वक्छव्यं भवति | किं पुनरब्र 
्यायः | तदन्तविधिरेव ज्यायान्‌ | इदमपि सिदध भवति । परमातिमहान्‌ | एतडधि 
90 त्रैव तन्नापि तदुन्तरपदम्‌ || अनिनस्मन्प्रहणानि चाथेवता चानथेकेन च तदन्तविधि 
प्रयोजयन्ति | अन्‌ । राक्तेत्यथेवता सापनेत्यन्थकेन ¶¶ | भन्‌ ॥ इन्‌ । दण्डीस्यथे- 
वता वाग्मीत्यनथेकेन+** | हन्‌ || अत्‌ | पया इत्यथेवता छसरोता इत्यनये- 
केन††† | अस्‌ | मन्‌ । छरशामैत्यथैवता इभ्रधिमेत्यनर्थकेन{‡ {| भन्‌ ॥ 
यस्मिभ्विधिस्तदादावल्प्रहणे ॥ २९ ॥ 
2 अल्पहणेषुं यस्मिन्विधिस्तदादाविति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ | भवि श्चुषातु- 
म का मा तमा 


+# ६.४. ९१. †† ८.४. ६१ युं ६.४. ०९. §8§ ६.९.९३७. ` बून ६.४.९१४. 
+*# ६.४. ६२; १३. 4111 ६,४.९४. {{{ ४.९. ९६. 


प्रा०९.१.५२. ] ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम्‌ ॥ १८२. 


भुवां य्वोरियदुवडौ [ ६.५,७७ ] इतीहैव स्यात्‌ भ्रियौ भुवौ | प्रियः भुव 
इत्यत्र न स्यात्‌ ॥ 


वृदियस्याचामादिस्तदरधम्‌ ॥ १. । १.1 9३. ॥ 


बृद्धि्रहणं किमयेम्‌ । यस्याचामादिस्तद्ृडमितीयस्युच्यमाने दात्ताः राक्षिताः 
भव्रापि प्रसज्येत । वृद्धिमहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || भथ यस्यम्रहणं & 
किमर्थम्‌ | यस्येति ब्यपदेशाय ॥ अथाज्पहणं किमयेम्‌ | वृद्धियैस्यादिस्त- 
हृदमितीय्युच्यमान इहैव स्यात्‌ । ेतिकायनीयाः ओपगवीयाः । इह न स्यात्‌ | 
गार्गीयाः वास्सीया इति | अञ्ग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || अथादिय- 
हणं किमर्थम्‌ | वृद्धियस्याचां तदृडमितीयस्युच्यमाने सभासंनयने भवः साभासंनयन 
इत्यत्र प्रसज्येत | आदिग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || 
वृदरसज्ञायामजसंनिवेशादनादिस्वम्‌ ॥ ९ ॥ 
वृद्धसंश्ञायामजसंनिवेशादादिरिष्येतच्रोपपद्यते | न चां संनिवेदो ऽस्ति || ननु 
वैवं विज्ञायते ऽजेवादिरजादेरिति । त्रैवं शक्यम्‌ | इरैव प्रसज्येत -। ओपगवीयाः | 
इह न स्यात्‌ | गार्गीया इति || एकान्तादित्वं तर्हि विज्ञायते | 
ए्कान्तादितवे ब सवपरसङ्गः॥ ९॥ . 18 
इहापि प्रसज्येत | सभासंनयने भवः साभासंनयन इति || 
सिद्धमजाकृतिनिर्देात ॥ ३।। 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । भजाङृतिर्मिर्दिरयते || एवमपि व्यश्जतरर्यैवहितस्वान्न 
प्रामोति | 


10 


व्यश्जनस्यावि मानत्वं यथान्यव ॥ ४ ॥ 20 
वयश्च्रनस्याविश्यमानवद्धावो वक्तव्यो यथान्यत्रापि व्यस्ञनस्याविशमानवद्धावो 
भवति | कान्यत्र | स्वरे ॥ - 

वा नामधेयस्य ।। ५ ॥ 
या नामधेयस्य वृद्धसंज्ञा वक्तव्या । देवदन्तीयाः* दैवदत्ताः | यक्ञरत्तीयाः 


. याञ्चदसाः ॥ . 25 
। क ४.२. ९९४. 


१९० ॥ व्याकरणमहाभाष्य य्‌॥ ` [मण ९.१९ 


गोत्रोत्तरपदस्य च ॥ ६ ॥ 


गोत्रोत्तरपदस्य च वृद्धसंज्ञा वक्तव्या | कम्बलचारायणीयाः ओदनपाणिनीयाः 
घृतरौढीयाः ॥ 
गोचान्तादासमस्तवत्‌ ॥ ७ ॥ 


$ गोजान्ताद्वासमस्तवतत्ययो भवतीति वक्तव्यम्‌ | एतान्येवोदाहरणानि || किम- 
विज्लोषेण । नेत्याह । | 
जिद्ाकास्यहरितिकात्यवजंम्‌ ॥ ८ ॥ 
जिहाकात्यं हरितकात्यं च वजेवित्वा । जेहयाकाताः हारितकाताः ॥ किं पुनर 
ज्यायः | गोत्रान्ताद्वासमस्तवदित्येव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भवति | पिङ्गलका- 
10 ण्वस्य च्छान्लाः वैद्धलकाण्वाः" || 


त्यदादीनि च ॥ ९ । १ । 99 ॥ 


यस्याचामादिग्रहणमनुवतैत उताहो न [किं चातः | यद्यनुवतेत इह च प्रस- 

ज्येत तस्वद्पुत्रस्य च्छन्नास्स्वात्पुत्राः मात्पुज्राः | इह च न स्यात्‌ त्वदीयः मदीय इति| 
अथ निवृत्तमेड प्राचां देर [ ९.९.७९ ] यस्याचामादिम्रहगं कतेष्यम्‌ | एवं तद्चै- 
15 नुवतैते | कथं स्वास्पुत्राः मास्पुत्रा इति । संबन्धमनुवर्तिष्यते । वृद्िर्यस्याचामादि- 
स्ह दम्‌ । त्यदादीनि च वृद्धसंज्ञानि भवन्ति । वृद्धियैस्याचामादिस्तह्द्धम्‌ | एङ्‌ 
भ्राचां देशे | यस्याचामादिग्रहण मनु वतेते वृडिब्रहणं निवृत्तम्‌ | तद्यथा | कित्का- 
न्तारे समुपस्थिते सा्थमुपादत्ते। स यदा निष्कान्तारीभूतो भवति तदा साथै जहाति॥ 


एङ्‌ प्राचां देशे ॥ १ ।१ । -9^ ॥ 


20 एङ्‌ प्राचां देशे दैषिकेध्विति वक्तव्यम्‌ । तपुरिकी चेपुरिका | स्कौनगरिकी 
स्वौनगरिकेति। ॥ 
इति श्रीभगवत्पतच्जञालिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याभ्यायस्य प्रथमे पारे 
नवममाद्धिकम्‌ || पादथ समाप्तः ॥ 
`  -*५,२९९९. † ४.२.९९५. 


गाङ्कखादिभ्यो ऽञ्णिन्ङित्‌ ॥ १. । २।९.॥ 


कित्किदहचने तयोरभावादप्रसिद्धिः ॥ ९ ॥ 


डिच्किङ्क चने तयोरभावान्डगकारककारयोरभा वान्डित्त्वङि च्व योरपरसिद्धिः | सता 
दयभिसंबन्धः शाक्यते कर न चात्र ङकारककाराविती पयामः । तद्यथा | चित्- 
गद वदत्त इति यस्य ता गावो भवन्ति स एव ताभ्यां शब्दाभ्यां शाक्यते ऽभिसं- 
बन्दुम्‌ ॥ भाव्येते तद्येनेन । गाङटादिभ्यो अञ्णिन्डिद्भवतीति । भसंयोगािद्‌ 
किङ्धवतीति । 


भवतीति चेदादेगप्रतिषेधः ॥ ५ ॥ 


भवतीति ेदादेशस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः| ङकारककारावितावदिकौ प्रामुतः | 
कथं पुनरित्संज्ञो नामादेदाः स्यात्‌ । किं हि वचनान्न भवति || एवं तर्हि षीनि- 10 
िष्टस्यादेशा उच्यन्ते न चात्र षष्ठीं प्रयामः । गाङ्टादिभ्य इत्येषा पञ्चम्यञ्णि- 
दिति प्रथमायाः बरी प्रकल्पयिष्यति तस्मादिस्युत्तरस्य [९.१.६७] इति ॥ संज्ञा- 
करणं तर्हीदम्‌ । गाङ्टादिभ्यो ऽञ्णिन्ङित्संज्ञो भवतीति | असंयोगाधिटित्संज्ञ 
मवतीति । 


संज्ञाकरणे कि द्रहणे असंम्त्ययः गाब्दभदात्‌ ॥ ३ | ` 15 
संज्ञाकरणे क्द्रहणे ऽखंप्रत्ययः स्यात्‌ । किं कारणम्‌ । शब्दभेदात्‌ । नन्यो 
हि शब्दः क्तीत्यन्यः कितीति डिम्तीति च | तथा किद्रदणेषु डिदद्रहणेषु चानयो- 
रेव संप्रत्ययः स्यात्‌ ॥ तद्दतिदेरास्तह्येयम्‌ । गाङ्कटादिभ्यो अञ्णिन्डिङद वतीति । 
संयोगादि दृद्धवतीति । स तार्है वतिनिर्देशः कतैव्यो न ह्यन्तरेण वतिमति- 
देशो गम्यते । भन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते | तद्यथा | एष ब्रह्मदत्तः | 20 
अब्रह्मदत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति | एवमिषशष्य- 
रितं डिरित्याह _डिङदिति गम्यते | भकितं किदित्याह कि्कदिति गम्यते । 


॥ "शिषे पम 


^ * ६० २, ९ 


१९२ ॥ ध्याकर्णमहभाष्यभ्‌ ॥  [म०९.२.९. 


तद्दतिदेो ऽकिद्विधिपमरसङ्गः । ४ ॥ 
तृदतिदेरे अकिदिषिरपि भरामोति । खजिदृशोकषैल्यमकिति [६.९.५८] । ति- 
सृ्षति दिदृक्षते | भकिलक्षणो ऽमागमः प्रामोति ॥ 
सिद्धं तु प्रसज्यपरतिषेधात्‌ ॥ ५ ॥ 
$ सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । प्रसञ्यायं प्रतिषेधः क्रियते किति नेति ॥ 
सरव॑त्र सनन्तादात्मनेपदप्रतिषेधः ॥ ६ ॥ 
सर्वेषु पक्षेषु सनन्तादात्मनेपदं प्रामोति । उशुकुटिषति निचुकुटिषति | डितं 
इत्यात्मनेपदं प्राभोति† तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः || 
सिद्धं तु पूर्वस्य का्यातिदेरात्‌ ॥ ७॥ 

10 कसिदधमेतत्‌ । कथम्‌ । पूवस्य यत्काय तदतिदिदयते । किं वक्तव्यमेतत्‌ | न €ि | 
कथमनुच्यमाने गस्यते । सम्नम्यर्थेऽपि वतिभेवति | तद्यथा । मथुरायामिव मथुरा. 
वत्‌ | पाटलिपुञ्र इव .पाटलिपुत्रवत्‌ । एवं छतीव डित्‌ || 
अथ किमथे ृथङ्धित्किती क्रियेते न स्वै किदेव वा स्यान्डिदेव धा । 

पृथगनुबन्धत्वे प्रयोजनं वधिस्वपियजादीनामसंप्रसारणं सार्वधातु- 

15 कषडादिषु || ८ ॥ 

पथगनुबन्धस्वे प्रयोजनं वचिस्वपियजादीनामसंप्रसारणं सार्वधातुके चादिषु 

च{ | सार्वधातुके प्रयोजनम्‌ । यथेह भवति छपरः उपरवानिस्येवं स्वपितः स्वपिथः 
भतरापि प्रामोति || चडादिषु प्रयोजनम्‌ । के पुनडदयः | चङ्ड्जिङ्ङनिवथ- 
 उनडः| चङ्‌ | यथेह भवति श्यनः द्यूनवानित्येवमिश्ियत्‌ अत्रापि प्राभोति । अङ्‌ | 

20 यथेह भवति द्यून: उक्त इत्येवमश्वत्‌ अवोचत्‌ अत्रापि प्राभोति | भजिञ्‌ | यथेह 

भवति छपर इत्येवं स्वमक्‌ अत्रापि प्रामोति  ङनिप्‌ । यथेह भवतीष्ट इत्येवं यज्वा 
अत्रापि प्राभोति | अथडः | यथेह भवस्युषित इत्येवमावसथः त्रापि प्रामरोति | 
भङः | यथेह भवतीष्टमिव्येवं यज्ञः अक्रापि प्रामोति ॥ 

| जाग्रो गुणविधिः ॥ ९॥ 

25 जागर्तेर गुणविधिः प्रयोजनम्‌ । यथेह भवति जागृतः जागृथ इस्यञितीति प- 
यदास एवं जागरितः जागरितवानित्यत्रापि प्रामोति ॥| 


* ९.२.९०. ९.२.९२. † ९.९.९९ , §१२.८९ 





¶०. ६.२.४.| ॥ भ्याकरणमहामाध्यम्‌ ॥ १९१४ 


अपर भह | जामो गुणविधिः | जागर्तेगणविंधिः प्रयोजनम्‌ | ययेह भवतिं 

जागरितः जागरितवानिव्येवं नागतः जागृथ इत्यत्रापि प्रामोति ॥ 
कुटादीनामिट्‌भतिषेधः || ९० ॥ 

कुटादीमामिट्‌ प्रतिषेधः प्रयोजनम्‌ । यथे भवति ठुत्वा पुस्वा ब्युकः किति 

[७.२.११] इतीट्‌ भतिषेथ एवं मुषिता धूषिता अत्रापि प्रामोति ॥ 
च्ायां कित्मरतिषेधश्च ॥ ९९ ॥ 

रायां कित्परतिषेधशच प्रयोजनम्‌ | किं च | हट प्रतिषेध | नेत्याह | भदेदोऽवं चः 
पठितः | ऋायां च किततिषेध इति | यथेह भवाति देवित्वा सेवित्वा न ्का सेट्‌ 
| १,२.९८ | इति प्रतिषेध एवं कुटित्वा पुटित्वा अत्रापि प्राभरोति ॥ अथवा देद्य 
एवायं चः पठितः | रायां किलतिमेधशेटुप्रतिषे धश्च | कित्मतिषेध उदाहतम्‌ | इद्प्र-10 
तिषेषः | यथेह भवति लत्वा पुत्वा भयुकः कितीतीयूप्रतिषेध एवं नुवित्वा धुवित्वा 
मत्रापि प्राति | स्यदेतलसयोजनं मद्यस्य नियोगत आतिदेशिकेन रिम्तेनीपदे शिक 
किरं बाध्येत | सत्यपि तु डिन्वे किदेधैष, । तस्मान्ूत्वा धूस्वेतस्येव भवितष्यम्‌ | 


सार्वधातुकमपित्‌ ॥ ९.।२। ४ ॥ 


खावेधातुकमहणं किमथेम्‌ । अपिदितीयस्युष्यमान भापेधातुकस्याप्यनेनापितो 1 
डस प्रसज्येत । कतौ हतौ | वैष दोषः । आचायेप्रृत्तिज्ञोपयति नानेनापेधातु- 
कस्यापितो छिव भत्रतीति यदयमाधेधातुकीयान्कां्िन्डितः करोति चङ्ङ्जि 

ङ्‌ डनिबथ ड नडः | सावेधातुके ऽप्येतज्ज्ञापकं स्यात्‌. | नेत्याह । तुल्यजातीयस्य 
इपकम्‌ । कथ तुल्यजातीयः | यथाजातीयकाशथङङुजिर्‌डःनिबथडःनडः | कथ॑ना- 
तीयका्ेते । भधेभधातुकाः || यद्येतदस्ति तुल्यजातीयस्य श्ञापकमिति चङ्डौ 20 
दुग्विकरणानां श्ञापकौ स्यातां नजिङ्तैमानकालानां इुनिम्भूत कालानामथङःशब्द 
भोणादिकानां नरःशब्दो घञथौनाम्‌ । तस्मात्सार्यधातुकम्णै कतैव्यम्‌ ॥| 

कि पुनरयं पयुदासो यदन्यत्पित इति । भाहोस्वितससज्यायं प्रतिषेधः पित्तेति | 


कात्र विदोषः | 


अपपिन्ङिदिति वेच्छबेकादे दाभातिषेध आदिवच्वात्‌ ॥ ९ ॥ 2६ 
भपिन्डिगदिति चेच्छवेकादेशे प्रतिषेधो वरकव्यः | च्यवन्ते वन्ते | किं कारणम्‌| 


१5 


९९७ ॥ ग्याकरणमरहाभाष्यय्‌ ॥  [भ०९.२.९ 


कादिवस्वात्‌ | पिदपितोरेकारेशो ऽपित आदिषस्स्यात्‌ । अस्त्यन्यत्पित इति कृत्वा 
डिस्वं प्रामोति ॥ अस्तु तर्हि प्रसज्यप्रतिषेधः पिच्नेति | 
न पिन्डिदिति चेदुत्तमेकादे रापतिषेधः ॥ २॥ 
` पित्तेति वेदुन्तत्रैकादेदो प्रतिषेधः प्रामोति । तुदानि लिखानि" । किं कारणम्‌ । 
5 आदिवस्स्वादेव । पिदपितोरेकादेशः पित भदिवस्स्यान्त्र पित्तेति प्रतिषेधः प्राभरोति ॥ 
यथेच्छसि तथास्तु | ननु चो्तमुभवयापि दोष इति । उभयथापि न दोषः | एक।- 
देशः पृवैविषौ स्थानिवदिति स्थानिवद्धावाव्यब धानम्‌ ॥ 


असंयोगाल्लिट्‌ कित्‌ ॥ १ ।२।५॥ 


ऋदुपधेभ्यो लिटः कित्वं गुणादिप्रातिषेधेन ॥ ९ ॥ 
10 कदुपपेभ्यो लिटः किञ्वं गुणादवति विप्रतिषेधेन । ववृते ववृधे ॥ 
| उक्तवा ।२॥ 
किमुक्तम्‌ | न वा क्सस्यानवकारात्वादपवादो गुणस्येतिः || विषम उपन्यासः| 
युन्तं तत्र यदनवकादां कित्करणं गुणं वाधत इह पुनरुभयं सावकाशम्‌ । कित्कर- 
गस्यावकाहाः | हैजतुः हेजुः | गुणस्यावकाहाः | वर्वित्वा वर्धित्वा ¶ | इहोभयं प्रा 
15 रोति । ववृते ववृ | परस्वाहुणः प्रामोति ॥ हदं तदयक्तमिष्टवाची परराभ्दो विपर- 
तिषेषे परः यदिष्टं तद्वतीति ° || 


इन्धिभवतिभ्यां च ॥१।२।६॥ 


कि मथेमिदमुच्यते | इन्धेः संयोगाथै वचनं भवतेः पिद्थम्‌ || अर्य योगः 
शक्यो ऽवन्तम्‌ | कथम्‌ । 
20 इन्धेग्छन्दोविषयस्वाड्कुवो युको निस्यस्वालाभ्यां किद्वनानर्थक्यम्‌ ॥ ९॥ 
इन्धेन्छन्दोविषयो लिद्‌ | न ह्यन्तरेण च्छन्द इन्धेरनन्तरो किड्‌ भ्यः } आमा 
भाषायां भवितव्यम्‌1† | भुतो वुको नित्यत्वात्‌ | भवतेरपि नित्यो वुक्‌ | हते 


९५. § ६.१९. ९५. बु ९.२.६८ 
६० 


9 ६,४.९२, † ०.३. ८६. ‡ ३. 
9१ † {{ ६.४, ८८, 


९.४. २१, नै 


प १.२.५-९.| ॥ व्याकरणयहामाष्यम्‌ ॥ ६९५ 


ऽ पि प्रामोस्वङ्वेऽपि । वाभ्यां किडवनानयेक्यम्‌ { ताभ्वामिन्षिमवतिन्यां किदचन- 
अनयेकम्‌ ॥ 


मृडमृदगुधकुषङ्किशवदवसः क्ता ॥ १. । २। `9 ॥ 


किमथे मृडादिभ्यः परस्य त्कः किश्वमुष्यते किदेव हिक्का | नक्रा सेद्‌ ` 

[१.२.१८] इति प्रतिषेधः प्राति तद्वाधनाथेम्‌ || यदि तर्दि मृडादिभ्यः परस्य $ 
कः रिस्वमुच्यते नार्थो न रका सेडित्यनेन कि स्तप्रतिषेषेन । हदं नियमाय भवि- 
प्यति | मृडादिभ्य एव प्रस्य हकः कि रवं भवति. नान्येभ्य इति | यदि नियमः 
क्रियत इहापि तरि नियमाच्न भरामोतिः | दत्वा पृत्वा । भत्राप्यकिश्वं प्रायेति | 
नुल्यजातीयस्य नियमः । कथ वुल्यजातीयः | यथाजातीयको मृडादिभ्यः परः 
च्छा | कथंजातीयकथ मृडादिभ्यः परः चछा | सेट्‌ || एवमध्यस्स्यश्र कथिहिभावि- 10 
वेद्‌ सोऽनिटं नियामकः स्यात्‌ | अस्तु ताके सेटस्तेवां महणं नियमाथे य 
इदानी विभावितेद्‌ तस्य महणं विध्यथे भविष्यति ।| 


रूदविदभुषग्रहिखपिप्रच्छः संश्च ॥ १ ।२.। ८ ॥ 
स्वपिप्रष्छ्ोः सन्थ महणं किदेव हि चका|| 


इको इट्‌ ॥९६।२।९, ॥ 18 


किमथमिकः परस्य सनः किश्वमुच्यते | 
शकः कित्वं गुणो मा भरत 

इकः किस्वमुच्यते गुणो† मा भूदिति । चिचीषति तुष्टषति ॥ तरैवदस्ति परयो- 

भनम्‌ ] ` ` ` | | । .. 
दीर्फीरम्भात्‌ | 2 
दीषेस्वमन्र वाधकं भविष्यति; ॥ 
कते भवेत्‌ । 

कृते खलु दीषैत्वे गुणः प्रापरोति || 


* ७.२.९०. ` ¶ ७.३. ८४. प ६.४. १६. 


१९९ ॥ भ्वाकरणबहाभाच्घ ॥ ` {मम १.१५ 


भनर्थकः त्‌ 
शअनथैकमेवं सति दीधैस्वं स्यात्‌ || नानयथेकम्‌ | 
` शस्वा्थेम्‌ 
स्वानां दीर्षवचनसामथ्यादुणो न भविष्यति | भवेदुस्वानां दीर्घवघनसाम- 
5 श्यद्कुणो न स्वात्‌ 
दीघोणां तु प्रसज्यते ॥ ९॥ 
दीषौणां तु खलु गुणः प्राति । ननु च रीषौणामपि दी्ैवचनसामथ्यौहुौ 
म भविष्यति । न दी्ौणां दीघोः परामुवन्ति | किं कारणम्‌ । न हि मुक्तवास्पुन- 
` र्मुङधे न च कतरमभ्रुः पुनः रमश्रूणि कारयति | ननु च पुन्रवृत्तिरपि इष्टा | 
10 मृक्छवांथ पुनद कृतरमश्रु थ पुनः रमश्रूणि कारयति | 
सामथ्यादि पुनभोष्यम्‌ 
सामथ्यं। सत्रं पुनः परवृत्तिभेवति भोजनविशोषाच्छिल्मिविरेषाहा । दीषोणां पुम- 
रधत्वव्रचने न किचित्मयोजनमसि | अङृतकारि खल्वपि शाखमभिवत्‌ | तयथा । 
अमिर्यददर्धै तृहति | दीर्षौणामपि दीधेवचन एनसयोजनं बुणो मा भूदिति । 
15 कृतकारि खस्वपि शाखं पजन्यवत्‌ | तद्यथा । पञजैम्यो यावदूनं पूणं च ` सवैमभि- 
वर्षति | यथैव तं दीधैवचनसामभ्यो हणो . न भवस्येवमृदिस्वमपि" न पराषोति । 
चिकीति जिहीर्षतीति | 
| कटदित्वं दीस श्रयम्‌ । 
नाकृते दीषै ऋरदिच्वं प्राभोति । किं कारणम्‌ | ऋत इरयुष्यते || भवेद्भस्वानां 
20 नाङ्कते दीर्घं ऋरदिर्वं स्यारीधाणां तु खल्वेते ऽपि दीर्घत्व ऋटादित्त्वं भ्रामोति । 
दीघाणां नाकृते दीर्घे 
दीबौणामपि नाकृते दीष ऋदित्वं प्रामोति । यदा दीैत्वेन गुणो वाधितस्ततं 
उत्तरकालमृदिच्वं भवति ॥ 
णिलोपस्तु प्रयोलनम्‌ ॥ २॥ 
2६ इदं तर प्रयोजनं गिठोपो यथा स्प्रादिति!। ज्ञीन्सति || क्रास्ताः क्र निपतिताः। 
क्त किरवं क्र णिलोपः | को वाभिसंबन्धो यत्सति किन णिलोपः स्यादखवि न 


~~~ 














भर १.२.१०.९९. ॥ व्याकरणयहाभाष्परम्‌ ॥ ११९७ 


स्यात्‌ | एषो अभिसंबन्धो यत्सति किस्वे साधका दीरषत्वं परस्याण्णिरोपो बाधते 
स्ति पुनः किर ऽनवकारां दीैस्वं यथेव गुणं वाधत एवं गिरोपमपि बाधेत | 
धर णिठोपस्यावका्चः । कारणा हारणा | दीषेव्वस्यावकाराः | चिचीषति तुष्टूषति । 
हहयेभयं प्रामोति । श्षीप्सति । प्रस्वाण्णिलोपः ॥ असत्यपि किच्वे साबकाद्यं दीष 
त्वम्‌ ! कोऽवकाशः | हस्भावः | निमित्सति परमिस्सति । मीनातिमिनोत्योर्दषिस्वे कृते ऽ 
मीचङ्गेन ब्रहणं यथा स्यात्‌* || यथैव तद्यैतति किचे पावकाद दीर्षत्वं परस्वा- 
ण्गिजोषे धाधत एवं गुणोऽपि वापेत | तस्माक्किस्वं वक्तव्यम्‌ ॥ 

शकः किन्त गुणो मा मुहीघोरम्भात्कृते भवेत्‌ । 

अनथकं तु हस्ताय दीर्घाणां त्‌ प्रसज्यते ॥ ९॥ 

सायथ्यादि पुनभाव्यमृदिस्वं दीघसश्रयम्‌ । 19 

दीर्घाणां नाकृते दीर्घे णिलोपस्तु प्रयोलनम्‌ ॥ २॥ 


हटन्ताञ्च ॥ १. ।२९।२.०॥ 

भयु कोऽयं निदंशः | कथं हीको नाम हलन्तः स्यादन्यस्यान्यः | कथं ताह 
निर्देशाः कतेव्यः | हग्वतो हर इति | यदेवं यियक्षति अत्रापि प्राभोवि† । एवं ` 
तगु पधाडलन्तादिति बह््यामि । एवमपि वम्मेनै प्रामोति । सूत्रं व भिद्यते | 15 
बथान्यासंमेवास्तु । ननु चोक्तमयुक्तोऽयं निर्दे श इति | नायुक्तः । अन्तशष्दोऽयम- 
सतयेवावयववाची | तद्यथा । वखान्तः वसनान्तः | षल्रावयवो वसनावयव इति 
गस्यते | अस्ति सामीप्ये घतते } तद्या | उदकान्तं गत इति । उदकसंमीपं गत 
इति गम्यते | तदथः सामीप्ये वतेते तस्येदं हणम्‌ || एवमपि दम्भेम सिध्यति; | 
योजक मीपे हल्न तस्मादु्तरः सन्‌ । यस्मादुत्तरः सन्नासाविक्समीपे हल्‌ । एवं तरद 0 


दम्भेहंल्ग्रहणस्य जातिवाचकत्वास्सिद्धम्‌ ॥ ९ ॥ 
हस्जातिर्भिर्ददयते । इक उत्तरा या हल्जातिरिति ॥ 


लिङ्चावात्मनेपदेषु ॥ ९. । २।१९ ॥ 
कथमिदं ॑विक्ञायते | आत्मनेपदं यौ रिदिचाविति । भाहोस्िदास्मेषदेषु ` 


ॐ ४, ४, ५४, । क ६, ९.९९, | ‡ 9.४. ५६; ६.४.९४. 








९९८ ` ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ - [मण्र्र्र्‌. 


परतो यौ लिङ््िवाविति | किं चातः | यदि धिज्ञायत भत्मनेपदं यौ रिङ्किवा 
चिति लिङदोषितः सिजविदोपितः । भथ विज्ञायत भात्मनेपदेषु परतो वौ 
लिङिबाविति सिन्विदोषितो ऊिङविशोबितः || यथेच्छसि तथास्तु । अस 
तावदास्मनेपदं यौ लिङ्धिचाविति । ननु चोक्तं लिङकिङोषितः तिजविशोषित इति | 
.४ पिच विशेषितः | कथम्‌ | आरमनेपदं सिज्नास्तीति कृत्वात्मनेपदपरे सिचि काये 
विज्ञास्यते | थवा पुनरस्सवात्मनेपदेषु परतो यौ लिङ्धिचाधिति । ननु चोक्तं सिञ्वि- 
शेषितो किडवि शोषित इति । लिङः विरोषितः | कथम्‌ | भास्मनेपदेषु परतो तिङ्क 
स्तीति कृत्वात्मनेपदे लिङि कायै विज्ञास्यते || नैव वा पुनरथा लिङ्दिषणेनासम- 
नेपदपह्णेन | कि. कारणम्‌ । किति वतेते“ | आत्मनेपदेषु चैव किङ्‌ श्षलादिने 
10 परस्मैपदेषु । तदेतस्सिभ्विशोषणमारमनेपदम्रहणम्‌ || अथ सिज्विदोषण. आत्मनेष- 
दम्रहणे सति किं प्रयोजनम्‌ । इह मा भूत्‌ | अयाक्षीत्‌ अवात्तीत्‌1† । नैवदल्ति । 
इक इति वतैते* ||. एवमप्यतरैषीत्‌ अचैषीत्‌ अत्रापि प्रभोति । एतदपि नस्ति परयो- 
जनम्‌ | हलन्तादिति वतेते 1| एवमप्यकोषीत्‌ अमोषीत्‌ अत्रापि प्रामोति । तैतदसि | 
श्षलिति वतेते || एवमप्यतरत्सीत्‌ अच्छैत्सीत्‌ अत्रापि प्रापनोति । परैतदस्ति । इग्लक्षण- 
15 योर्गुणवुद्धोः परतिषेधो‡ न चेषेग्लक्षणा वद्धिः | इदं ताहि प्रयोजनम्‌ । इह मा भूत्‌! 
. भद्राक्षीत्‌ भल्लाीत्‌ | कं च स्यात्‌ | अकिष्ठक्षणो मागमो न स्यात्‌ -॥ 


स्थाध्वोरिश्च ।। १. । २. । १७ ॥ 


इं कस्य तकारेरवम्‌ 
कस्य हेतोरिकारस्तपरः क्रियते | 
20 दीर्घो माभुत्‌ 
दीर्घो मा भूदिति | 
ऋतेऽपि क्तः 
भन्तरेणाप्यारम्भं सिदधोऽत्र दीपो धुमीस्थागापाजहाति [६.४.६६] इति ॥ 
भमन्तरे चुतो मा भूत्‌ 
28 इदं तर्हि प्रयोजनमनन्तरे शतो मा भूदिति । कुतो नु खल्वेतदनन्तरार्थं आरम्भे 
हस्वो भविष्यति न पुनः शुत इति ॥ 


@ ९, २, ९. ¶ ६. ९. ९५. { ९. ९. ५, § ७, २. ३.. | ॥। ६९. ५९८० 


फर १.२.९१५-९८. ] ॥ व्याकरणग्रहाभाष्यय्‌ ॥ १९९, 


शुनश्च विषये स्मृतः ॥ ९ ॥ 
विषये श्चुत उच्यते+ यदा च स विषयो भवितव्यमेव तदा श्रुतेन ॥ 


श्चं कस्य तकारेत्वं दीघो मा भृदते अपि सः । 
अनन्तरे श्रुतो मा भुल्छुतश्च विषये स्मृतः ॥ ९ ॥ 


नक्लासेट्‌ ॥१।२।२१८॥ ४ 


| न सेडिति कृते ऽकित्वे 

न सेडिस्येव सिद्धं नार्थः चामरहणेन || निष्ठायामपि तर्हि परामोति | गृषित 

गुधितवानिति । 
निद्ठायामवधारणात्‌ । 

निष्टायामवधारणाच भविष्यति | किमवधारणम्‌ । निष्ठा शीङ्स्विदिभिदिर्वि- 10 
रिधुषः [ १.२.९९ | इति ॥ परोक्षायां तर्हि प्राभोति । किं च स्यात्‌ । पपिव पपिम | 
्ितीत्याकारलोषो न स्यात्‌ | मा भूदेवम्‌ । इटीव्येवं मविष्यति। ॥ इदं तर्हि | 
जग्मिव जध्निव | कतील्युपधालोषो न स्यात्‌ | 

ज्ञापकान्न परोक्षायाम्‌ 
ज्ञापकात्परोक्षायां न भविष्यति | किं ज्ञापकम्‌ | 1४ 
सनि सस्प्रहणं विदुः ॥ ९॥ 

यदयमिको श्यल्‌ [ १.२.९ | इति सल्यहणं करोति तज्ज्ञापयत्याचायै ओपदे- 
शिकस्य किसू्वस्य प्रतिदेधो नातिदेशिकस्येति | कथं कत्वा ज्ञापकम्‌ | सल्प्रहण- 
स्थैतत्पयोजनमिह मा भूत्‌ | शिदायिषत इति | यदि चात्रातिदेशिकस्यापि किस्व- 
स्य प्रतिषेधः स्याज्छल्यहणमनथेकं स्यात्‌ | भस्स्वत्र किरस्वं न सेडिति प्रतिषेधो 90 
भविष्यति | परयति स्त्राचार्यं ओ परेशिकस्य किर्वस्य प्रतिषेपो नातिदेशिकस्येति 
ततो इ्ल्महणं करोति | तैतदस्ति श्ञापकम्‌ | उत्तरार्थमेतत्स्यात्‌ । स्याष्थोरि् 
[ १.२.९७ ] कषलादौ यथा स्यादिह मा भूत्‌ | उपास्थायिषाताम्‌ उपास्थायिषतः 

द्वं कित्संनियोगेन 
- किश््वसंनियोभेनेच्वमुच्यते । तेनासति किस्व इचस्वं न भविष्यति | 25 


@ ८.२, १०५. † ६.४. ६४ ‡{ ६.४.९८. .. 3 ६.४, ५२; ७. ३.३१. 





०७ ॥ व्याकरणमहामा्यंय ॥  [भ०९.२.९, ` 


रेण तस्यं सुधीवनि । 


तद्यथा | धीवा पीवेति । डीप्तंनियोगेन र उच्यमानो ऽसति डीपि न मवति*॥। 
अयवास्त्यत्रेरवम्‌ | का कूपसिद्धिः । वृद्धो कृतायामायादेशो भविष्यति ॥ 


वस्वर्थं य्‌ 
$ वस्वथे तरि श्छाम्रह्णं कतेव्यम्‌ । वसौ ज्लौपदेशिकं किस्यम्‌ । कं च स्वात्‌ | 
पपिवान्‌ तत्थिवान्‌ । कितीत्याकारलोपो न स्वात्‌ | मा मृदेवम्‌ । इरि चेत्येवं 
भविष्यति || इदं तर्ईि जग्मिवान्‌ जधधिवान्‌ । किती्युपधारोपो न स्यात्‌| 


किदतीदेशात्‌ 
शस्त्वक्रौपदेशिकस्व क्षि स्वस्य प्रतिषेषः | भातिरेशिकमनत्र किच्त्व भधिष्यतिऽ॥ 
19 यञ्र तर्हिं तस्मतिषिध्यते । भश्ेराजिवानिति | एवं तर्हि च्छान्दसः कषः | किद्‌ 


च श्छन्दसि सार्वैधातुकमपि भववि | तन्न सावेधातुकमविन्डिद्वतीति¶ जिन्युप - 
धारोपो भविष्यति ॥ 


| निगृहीतिः . 
निगृहीतिः प्रयोजनम्‌ । इदं तर्हि भरयोजनम्‌ । इह भा भूत्‌ । निगृहीतिः उप. 
१६ जिदितिः निकुचितिः” | तत्तां छऋायदणै कतैव्यम्‌ | न कमैव्यम्‌ | 
| चा च विग्रहात्‌ ॥ २॥ 
 उपरिं्टाद्योगविमागः करिष्यते11| न सेट्‌ । निष्ठा शीङ्‌स्विरिमिदिरिविरिधृषः 
[९९] । मृषस्तितिक्षायाम्‌ [२०] । उदुपधाद्गावादिकर्मेणोरन्यतरस्याम्‌ [२९१] 


ततः पृडः । पृडकचं निष्ठा सेण्न किद्धवति | ततः च्राच। का च सेण्न किड़- 
20 वतिं । पूडः इति निवृत्तम्‌ ॥ 


न सेटिति कृते ऽ किते निष्ठायामवधारणात्‌ । 
त्ापकान्न परोक्षायां सानि शम्प्रहणं विषुः ॥ ९॥ 
श्वं कित्सैनियोगेन रेण तुभ्यं सुधीवनि । 


वस्वथै किदतीरेशानिगहीतिः छो चं विग्रहात्‌ ॥ ९॥ 





= ४.६.०६९. 4 ६.४. ६४, ६.४, ९८, § ९.२. ५. कु १.२. ४; 
ॐ ७. द, ९१. †† ९.२. २द, 


पा०.१.२.२९१२२५.] ॥ व्याकरणरहाभाष्यय ॥ २०९ 


उदुषधादुवादिकमेणोरन्यतर स्याम्‌ ॥ ९.1 २ । २९. ॥ 


इह कस्मान्न भवति | गुधितः गृधितवानिति । 
उदुपधाच्छेपः ॥ ९ ॥ 
दाभ्विकरणेभ्य इष्यते ॥ 


पूडः क्ला च ॥१.।२।२२॥ | 


पूडः च्ानिष्टयोरिटि वा प्रसङ्गः सेटप्रकरणात्‌ ॥ ९ ॥ 
पुडः कानिष्टयोरिटि विभाषा प्रप्रीति | किं कारणम्‌ । सेटूप्रकरणाते । सेडिति 
वतेते* || 
न वा सेट्त्वस्याकिदाश्रयत्वादनिटि वा कित्वम्‌ ॥ २॥ 
न त्ष दोषः | कै कारणम्‌ । सेट्त्व्याङ्िराश्रयस्वात्‌ । अकिदाभ्रयं सेट्‌- 10 
त्वम्‌ | यदाकित्वं तदेटा भवितव्यम्‌ । सेटस्वस्याकि दाश्रयत्वादनिरयेव विभाषा 
किवं भविष्यति || इद्धिषौ पडो भरहणं क्रियते! तेन वचनादिट्‌ सेदप्रकरणादे- 
र्येव विभाषा किच्वं प्रभोति । 
दड्धौ ्यग्रहणम्‌ ।। र ॥ 
हड़्िपो हि पडो ्रहणं न करव्यं भवति ॥ 
भार दाजीयाः पठन्ति || नित्यमकित््वमिडाद्योः ्करामरहणमुत्तराथम्‌ || निस्यम- 
किन््वमिडाथोः सिद्धम्‌! कथम्‌ | विभाषामध्ये ऽयं योगः क्रियते विभाषामध्ये चये 
विधयस्ते नित्या भवन्ति | किमथे तर्हि च्कर्रहणम्‌ | ्रामरहणमुत्तराथेम्‌ | उत्तरा 
त्कामरहणं क्रियते | नोपधात्थफान्ताहा [२३] वभ्चिलुश्च्यतथ [२४] इति ॥ 


15 


तृषिमृषिकृरोः कारयपस्य ॥ ९. । २ । २५ ॥ 20 
काश्यपग्रहणं किमर्थम्‌ । कारयपग्रहणं पूजाथैम्‌ । वेत्येव हि वरते! ॥। 
^ ९.१. ९८. † 9, २. ९९. { ९.१. २३. 


6 व 


२०द्‌ ॥ व्याकरगमहाभाष्थम्‌ ॥ ` {मण०१.२.१. 


रचे ग्युपधादखदेः संश्च ॥ ९. ।२। २६ ॥ 


किमिदं रलः सनः किवं विधीयत भाहोस्विखतिषिध्यते | किं चतः | 
यदि विधीयते चकाय्रहणमनथंकम्‌ । किदेव हि त्का | भथ प्रतिषिध्यते सन्महण- 
मनर्थकम्‌ | किदेव हि सन्‌ ॥ भत उत्तरं पठति | 
४ ररः च्कासनोः कित्वम्‌ ॥ ९॥ 
रलः ऋासनोः किर्वं- विधीयते । ननु चोक्तं चऋाव्रहणमन्थेकं किदेव हि छ्छेति | 
नानर्थकम्‌ | न क्का सेट्‌ [९.२.९८] हति प्रतिषेधः प्रामोति तदाधना्थम्‌ || 


ऊकाठो ऽज्छ्मस्वदीषेपुतः ॥ १. । २ 1 २.७ ॥ 


भयुक्तो ऽयं निर्देशाः |. ऊ इत्यनेन कालः प्रतिनिर्दिरयत ऊ इत्ययं च वणेैः| 
10 तत्रायुक्तं वर्णस्य कालेन सह सामानाधिकरण्यम्‌ || कथं ताह निर्देशः कतैव्यः | 
ऊकालकाल इति | किभिदमृकालकाठ इति । ऊ इत्येतस्य काल ऊकारः | 
ऊकालः कालो ऽस्य ऊकालकाल हति || स ताहि तथा निर्देशः कतेव्यः | न 
कतैव्यः } उत्तरपदलोपो अर द्रष्टव्यः | तद्यथा | उष्रूमुखमिव मुखमस्यो््मुखः। 
खरमुखः | एवमुकालकाल ऊकाल इति || अथवा -साहचयोत्ताच्छब्दयं भविष्यति | 
15 कालसहचरितो वणेः । वर्णो ऽपि काल एव | 
हस्वादिषु समसंख्यापरसिंडिर्भरदेरावेषम्यात्‌ ॥- ९ ॥ 
स्वादिषु समसंख्यस्वस्यामसिद्धिः । कं कारणम्‌ | निरदशतरैषम्यात्‌ । तिजः 
संज्ञा एकः संज्ञी घ्रैषम्यात्संख्यातानुदे शो" न प्रामोति ॥ 
सिं तु समसंख्यत्वात्‌ ॥ -२ ॥ 
20 सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । समसंख्यस्वात्‌ | कथं समसंख्यत्वम्‌ । ` 
 . त्रयाणां हि विकारनिरददाः ॥ ३ ॥ 
बयाणामयं प्रशिषटनिर्देराः | कथं ॒पुनज्ञोयते. अरय्याणामयं प्रधिषटनिर्देश इति | 
तिखणां संज्ञानां करणसामथ्योत्‌ || यच्यपि तावात्ति णां संज्ञानां करणसामभ्यीज्छा- 


@ ९.२. १०. 








-पा+. ९.२.२६-२७.| ॥ व्या्करममहमोष्यम्‌ २०३ 


यते ्रयाणामयं प्रिष्टनिदेशा इति कृतस्स्वेतदेतेनानुपूर्व्येण संनिविष्टानां संज्ञा भवि- 
प्यन्तीति । आदौ मानत्निकस्ततो द्विमात्रस्ततलिमात्र इति । न पुनमोज्िको मध्ये 
वान्ते वा स्यात्तथा द्विमात्र आदौ वान्ते धा स्यात्तथा त्रिमात्र आदौ वा मध्ये वा 
स्वात्‌ || अयं तावन्ञिमात्रो ऽद्य आदौ वा मध्ये वा करम्‌ | कुतः | ताभ्रयो 
हि प्रकृतिभावः प्रसज्येत | माश्रिकष्टिमात्रिकयोरपि ध्यन्तं पुव निपततीति। मातरि- $ 
कस्व पूर्थनिपातो भविष्यति || यत्तावदुच्यते ऽयं ताव्निमात्रो ऽदाक्य आदौ बा मध्ये 
वा कँ रुताञ्रयो हि प्रकृतिभावः प्रसज्येतेति ताञ्रयः प्रकृतिभावः अतसा 
चानेनैव | यदि च त्रिमात्र आदौ वा मध्ये वा स्याख्छुतसंज्ैवास्य न स्यात्कुतः 
्कृतिभावः || यदप्युच्यते मात्रिकद्विमात्रिकयोरपि ध्यन्तं पूवे निपततीति माि- 
कस्य पवानिपातो भाविष्यतीति हस्वा्नया हि पिस हृस्वसंजञा चानेनैव । यदि च 10 
मात्रिको मध्ये वान्ते वा स्याद्भ स्वसंज्ञैवास्य न स्यात्कुतो पिसंज्ञा कुतः पूवेनिपातः ]| 
एवमेषा व्यवस्था न प्रकल्पते || एवं त्यो चार्यपरवृत्तिज्ञोपयति न मात्रिकोऽन्ते भव- 
तीति यदयं विभाषा पृष्टप्रतिवचने हेः |८.२.९ ३] इति मात्रिकस्य शरुतं शास्ति । 
कर्थं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | योऽन्ते स श्ुतसंज्ञकः | यदि च माति कोऽन्ते स्याल्छुतसंज्ञास्व 
स्यात्‌ । तत्र मात्राकालस्य मात्राकालवचनमनयेकं स्यात्‌ || मध्ये तांहं स्यादिति ] 1: 
भव्राप्याचायप्रवृत्तिज्गोपयति न मान्निको मध्ये भवतीति यदयभतो दीर्घो यञि षि 
च [७.३.९१९०१-९०२] इति दीधत्वं शास्ति । कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | यो मध्ये 
स दीधेसंज्ञकः | यदि च मात्रिको मध्ये स्यादीधेसंज्ञास्य स्यात्‌ | तत्र मात्राकाठस्य 
मात्राक्रालवचनमन्थकं स्यात्‌ || हिमात्रस्तदयन्ते स्यादिति । अत्राप्याचायेप्रवृत्ति> 
कञौपयति न हिमात्रो ऽन्ते भवतीति यदयमोमभ्यादाने [८.२.८७] इति हिमात्रि- 2 
कस्य शतं शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | योऽन्ते स शरुतरसं्नकः | यदि च दहिमा- 
्रोऽन्ते स्यास्छतसंज्ञास्य स्यात्‌ | तत्र हिमात्राकालस्य हिभात्राकालवचनमनयेकं 
स्यात्‌ |] मात्रिकेण चास्य पुवेनिपातो वाधित इति कृत्तरा क्रान्यत्रोत्सहते भवितु- 
मन्यदतो मध्यात्‌ ॥ एवमेषा व्यवस्था प्रकरुप्रा | भवेद्यवस्या प्रकरुप्रा 


दीर्ष्ुतयेोस्तु पूर्वसंज्ञाप्रसङ्कः ।। ४ ॥ 25 


दीधेश्ुतयोरपि पूवेसंज्ञा प्रामोति । का | स्वसंज्ञा । किं कारणम्‌ । भण्त- 
वणौन्ग्ञातीतिऽ || 


* ५. ९. १२९. † २.२.३२. ग ९.४.५. $ ९. \, ६९. 








2५४ ५ व्वाकर्णजहामात्यम्‌ ॥ ` , ([१,.१.२५६. 


=. ~ सिद्धं तु सपरनिदैदात्‌ ॥ ५॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । तपर निर्देशः कतव्यः । उदुकाल इति | यद्येवं द्रुताया 
तपरकरणे मध्यावेलम्बितयो रपसं ख्यानं कालभेदात्‌ || 
ुतादिषु चोक्तम्‌ ॥ ६॥ 

5. किमुक्तम्‌ | सिदध त्ववस्थिता वणौ वक्तु धिराचिरवचनाहशयो विशिष्यन्त इति| 
ख तरदं तपरनिर्दशः कतेव्यः | न कतैव्यः | इह काठमहणं क्रियते यावच्च तपर- 
करणं तावल्तालम्रहणम्‌ । प्रत्येकं च कालद्यब्दः परिसमाप्यते | उकाठ . ऊकाठ 
ऊश्काल इति | अथवैक संज्ञाधिकारेऽयं योगः करतैव्यः। | तत्रैका संज्ञा भवति या 
परानवकाद्या चेप्येव्रं हि दीषेष्ुतयोः पूपरैसंज्ञा न भविष्यति || अथवा स्वं रूपं ब्द 

10 स्याश्ब्दसंज्ञा [९.१.६८] इत्ययं योगः भत्याख्यायते । तत्र यदेतद दाग्दसं्ेत्येतदया 
विभक्त्या निर्दिदयमानम्थेवद्वति तया निर्दिष्टमुत्तर्रानुवर्षिष्यते | भणुदित्सव्णस्य 
चाप्रत्ययः [१.१. ६९] अशष्दसंत्ञायामिति || अथवा हस्वसंज्ञावचनसा मथ्यौरीषै- 
तयोः पुवसंज्ञा न भविष्यति | ननु चेदं प्रयोजनं स्यार्घंज्ञयां विधाने नियमं व्या 
मीति; हस्वसंज्ञया यदुच्यते तदचः स्थाने यथा स्यादिति | स्यादेतस्मयोजनं यदि 

15 किंचित्कराणि हृस्पशासनानि स्युः । यतस्तु खदु यावदज्महणं तावद््‌स्वमरहणम- 
तो ऽरकिचित्कराणि हृस्व शासनानि | इदं ताह प्रयो जनमेच इग््रस्वारेशे |९.९.४८] 
ति वद्यामीति । अनुच्यमाने दयेतस्मिखिहस्वपरदे शेष्वे च इग्भवतीति वक्तव्यं स्यात्‌| 
हस्यो नपुंखके प्रातिपदिकस्य [९.२.४७] एच हइग्भवतीति | णौ चङ्युपधाया हस्वः 
{७.४.९] एच इग्भवतीति | हस्वः हलादिः शेषः [७. ४.९९,६ ० | एच इग्भवतीति ॥ 

` 20 संज्ञा च नाम यतो न लघीयः | कुत एतत्‌ | लष्वथे हि संज्ञाकरणम्‌ | कषीयभ 

जिहैस्वप्रदेशेष्वेच इग्भवतीति न पुनः संज्ञाकरणम्‌ । चिहस्वपरदेोष्वेच इग्भवतीति 
षडुढणानि । संज्ञाकरणे पुनरष्टौ । दस्वसंज्ञा वक्तव्या | चिहैस्वप्रदेशेषु दस्वम्रहणं 
कंतैव्यं दस्वो हस्वो दस्व हति | एच इगप्रस्वादे श इति । सोऽयमेवं कषीयसा न्यासेन 
सिद्धे यद्वरीयांसं यलमारभते तस्थैतसयोजनं दीषश्चुतयोस्तु पुवैसंज्ञा मा भदिति ॥ 


४ अचश्च ॥१।२।२८॥ 


किमयमसखेऽन्त्यदोष आशोस्विदलोऽन्त्यापवादः° | कथं चायं तच्छेषः स्वा- 


# २,६.७०. † ९. ४.१. † ९.२. २८५. § १. ९. ५२. 


धा» ९.२..२८.] ` ` च्यकल्णमहामाच्वम | १०५ 


त्कथं धा तदपवादः | ग्रचेकं वाक्यं तचेदं च अलो ऽन्त्यस्य विधयो भवन्ति भको 
इस्वरीषैश्चुता भन्त्यस्येति ततोऽयं तच्छेषः | अथ नाना वाक्यम्‌ अलोऽन्त्यस्य वि- 
धयो भवन्ति अचो दूस्वदीधेश्चुता भन्त्यस्यानन्त्यस्य चेति ततोऽयं तदपबादः. | क- 
अत्र विद्रोषः | 


हस्वादिविधिरलोऽ्न्यस्येति चेदचिभ्रच्छिदामादिपभृतिहनिगमिदयवै- :5 
ष्वञग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ त 


हस्वादिविधिरलोऽन्त्यस्येति चेद्रविप्रस्डिदामादिपरभृतिहनिगमिदीर्पैष्वज्यहणं क- 
तैव्यम्‌ । वचिपरच्छ्योदीर्घो ऽच इति वक्तव्यम्‌ । अनन्त्यत्वाद्धि न ॒प्रामोति ॥ 
शमारीनां दीर्घौ! ऽच इति वक्तव्यम्‌ | अनन्स्यत्वाद्धि न प्रामोति | दनिगम्योर्दीर्षो 
ऽच इति वक्तव्यम्‌ । अनन्त्यत्वाद्धि न प्रामोति ।| अस्तु तर्हिं तदपवादः | ` 19 


अचथ्येन्नपुंसकहस्वाकृत्सावधातुकनामिदीर्धष्वनन्त्यप्रतिषेधः || २ ॥ 


भचधेन्नपंसकटस्वाकृत्सावेधातुकनाभिदीर्धष्वनन्त्यस्य प्रतिषेधो बक्तव्यः | हृस्वो 
नपुंसके भाविपदिकस्य [१.२.४७] यथेह भवति । रे अतिरि । नौ भतिनु । वं 
ंवाग्त्राद्यणकुठमित्यतरांपि परामोति ॥ भङ्ृत्सार्वधातुंकयोर्दषिः [७.४.२९] यथेह 
भवति | चीयते स्तृयते | एवं भिद्यते अत्रापि भरामोति || नामि [६.४.३| दीर्घो यथेह 15 
भवति| अभ्रीनाम्‌ वायुमाम्‌ । एवमत्रापि पराभोति | षण्णाम्‌ ॥ नैष दोषः | नोपधाया 
[६.४.७] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । प्रकृतस्थैष नियमः स्यात्‌ | किं च प्रकृतम्‌ | 
नामीति । वेन भवेदिह नियमान्न स्यात्‌| षण्णाम्‌ । अन्यते तन्यते अत्रापि श्राभोति | 
अथाप्येवं निवमः स्याक्चोपधाया नाम्येवेति | एवमपि भवेदिह नियमान्न स्यात्‌ । भ- 
न्यते तन्यत इति | षण्णामित्यत्र प्रामोति | अथाप्युभयतो नियमः स्यान्नोपधाया एव 0 
नामि नाम्येव नोपधाया इति । एवमपि भिद्यते इवाग््राह्मणकुलमित्यज्रापि प्रभोति || .. 
एवं ताईं हृस्वो दीधः श्त इति यत्र ॒ब्रूयादच इत्येतत्तत्रोपस्थितं द्रष्टव्यम्‌ | किं 
कृतं भवति । हितीया षष्ठी प्रादुभौव्यते } तत्र कामचारो गृह्यमाणेन वाचं विक्ञे- 
षयितुमचा वा गरद्यमाणम्‌ । यावता कामचार इह तावद्वचिप्रच्छिकरामादिप्रमभतिहनि- 
यमिदीर्षेषु गृद्यमाणेनाचं विरोषयिष्यामः | एतेषामचो दीर्घो भवतीति । इहेदानीं नपु 2 
सकटस्वाकृत्सावेधातुकनामिरीर्घप्वचा गृह्यमाणं विद्दोषविष्यामः | नपुंखकस्य हस्वो .. 


+ (३.२. ९०७८५, ` †०३ ७४, । ‡ ८५.१९६. 


१०६ | ष्याक्ररणपरहाभाष्वम्‌।  [ [मर्९.२.९. 


भवत्यचः |. अजन्तस्येति .| अक्स्सार्रातुकयोरदीर्षो ऽः -। : अजन्तस्येति | नामि 
शर्षो भवत्यचः | भजन्तस्येति ॥ . 
इह कस्माच्च भवति शचः प्रन्थाः स. इति* |. 


संज्ञया विधाने नियमः | ३ ॥ 

.‡ संज्ञया ये विधीयन्ते तेषु नियमः | कि वक्तव्यमेतत्‌ | भ हि | कथमनुच्यमानं 
गंस्यते | अनजिति† हि वतैते | तत्रै वमभिसंबन्धः करिष्यते | अचो ऽज्भवति हृस्वो 
दीषेः शुत इल्येवं भाव्यमान इति | अथ पूवस्मिन्योगे ऽज्महणे सति किः प्रयोजनम्‌ 

, . अञ्ग्रहणं संयोगाच्समुदायनिवृच्यर्थम्‌ ॥ ४ ॥ 
भञ्यदणं क्रियते संयोगनिवृष्त्यर्थमच्समुदायनिवृश्यथे च | संयोगनिवृस्यै 

10 तावत्‌ + प्रतश्य भ्रश्य | हृस्वस्य पिति कृति तुक्‌ [६.९.७९] हति तुग्मा भू- 
दिति । भच्समुदायनिवृच्यथेम्‌ । तितउच्छन्नम्‌ । तितडष्छाया । दीषौ त्पदान्तादया 
[६.९.७९,७६| इति विभाषा मा भूदिति ॥ 


उचचरुदात्तः ॥ ९।२।२९.॥ नीचैरनुदात्तः ॥ १। २।३०॥ 


किं षशीनिर्दि्टमञ्यहणममुवषैत उताहो नः | किं चातः | यदनुवतैते दल्स्व- 
15 रपरात्री व्यद्ञनमविद्यमानवदिस्येषा परिभाषा न प्रकल्पते | कथं हलो नाम स्वर 
प्राप्न स्यात्‌ | एवं तर्हि निवृत्तम्‌ । बहुन्येतस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि || भथ 
प्रथमानिर्दिष्टमज्चहणमनुवतेत उताहो ना । किं चार्थोञ्नुवृस्या | वाढमर्थो यद्येते 
व्यश्चनस्यापि गुणा रक्यन्ते | ननु च `रस्यक्षमुपरलभ्यन्ते । इषे खोज स्वा । नैते 
व्यञ्जनस्य गुणाः । भच एते गुणास्तत्सामीप्यात्तु व्यञ्जञनमयपि तह गमुपलभ्यते । 
20 तद्यथा | इयो रक्तयोवैलयोमेष्ये शङ्कं वख तद्कुणमु पररभ्यते | बदरपिटके रक्तको 
लोष्टकं सस्तद्कुण उपलभ्यते ।| कुतो नु खल्वेतद च एते गुणास्तस्सामीप्यात्तु व्यश्चन- 
मपि तद्ुणमुपलमभ्यत इति न पुनव्यश्जञनस्थैते गुणाः स्युस्तत्सामीप्याच्वजपि तहुण 
उपलभ्यत इति | अन्तरेणापि व्यश्जनमच एवैते गुणा रष्यन्ते न पुनरन्तरेणाचं 
` ष्यघ्ञनस्योद्यारणमपि भवति | अन्वथे खल्वपि निवैचनम्‌ | स्वयं राजन्ते स्वरा 
25 अन्वग्भवति व्यश््रनमितिः | 


+ ०,९.८४ ८५०. १०्द्‌ ` ` 1९२२९ ‡ ९२. २८. 


पा० ९.२.२९-२९. | 1; ॥ व्याकरणमहाभाष्वप्‌ ॥ २.०9 


` ` ` उखनीचस्यानवस्थितत्वास्सन्ञाप्रसिदिः ॥ .१॥ ` _. 

इदमु खनीचमनवस्थितपदाथेकम्‌ | तदेव हि कंचिसमस्युशर्भवति कंचित्मति नीचैः | 
एवं कंचिस्कभिदधीयानमाह किमु रोरूग्रसे ऽय नीैवै्ततामिति | तमेव तथाषी- 
यानमपर आह किमन्तरैन्तकेना धीष -उचैवैततामितिः | एवमु चनीचमनवरस्थितपदा- 
येकं तस्यानवस्थानास्स॑ज्ञाया अपरसिद्धिः || एवं तर्दि लक्षणं करिष्यते | आयामो $ 
दारुण्यमणुता खस्थेस्युश्चैःकराणि -राब्दस्य | भायामो गात्राणां निम्रहः | दारुण्यं 
स्वरस्य दारुणता रूक्षता | अणुता खस्य कण्ठस्य संवृतता | उच्चैःकराणि शब्दस्य ॥ 
भय नीतैःकरांणि शम्दस्य | अन्ववसर्गो मादेवमुरुता खस्येति नीवैःकराणि शब्द- 
स्य | अन्ववसर्गो. गात्राणां शिथिलता । मादेवं स्वरस्य मृदुता. ज्षिगधतां |. उरुता 
लस्य महत्ता कण्ठस्य । ति नीचैःकराणि शष्दस्य || एतदप्यतैकान्तिकम्‌ | यदल्प- 10 
पराणस्य सर्वोचचिस्तन्महाप्राणस्य सर्वीचैः || 


सिद्धं तु समानप्रक्रमवचनात्‌ ॥ २॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । समाने प्रक्रम इति वक्तव्यम्‌ | कः पनः प्रक्रमः | उर 
कण्ठः शिर इति ॥| 


समाहारः सखरितः ॥ १ ।२।३९.॥ 


समाहारः स्वरित इत्युच्यते | कस्य समाहारः स्वरितसंज्ञो भवति | अ- 

चोरिव्याह । । | 
समाहारोऽचोश्ेन्नाभावात्‌ | ९ ॥ 

समाहारोऽचोे्तन्च | किं कारणम्‌ । अभावात्‌ । न चोः . समाहारोभसि ] 

न्वयमस्ति गाद्खेऽनू प इति । नैषोऽचोः समाहारः | अन्योऽयमुदात्तानुदात्तयोः 20 

स्थान एक आदिश्यते || एवं ताह गुणयोः । 

| गुणयोश्चेन्नाच्पकंरणात्‌ ॥ ‰ ॥ 

, गुणयोः समाहार इति चेत्तच | किं कारणम्‌ | अच्पकरणात्‌ | भजिति वतते || 

सिद्धं स्वच्समुदायस्याभावात्तदुणे संप्रत्ययः ।} ३ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | अच्समुदाथो नास्तीति कत्वा तहुणस्याचः समाहारगु- 2४ 


२५ .॥.व्याकरनयपरमाष्यम्‌ ॥  -ि° ९.२.५१. 


गस्य संप्रत्ययो विभ्यति || कथं पुनः समाहार हइत्यनेनाच्शक्यः प्रतिनिर्दष्टुम्‌ । 

भतुन्कीपोऽत द्रष्टव्यः | तद्यथा | पुष्पका एषां ते पुष्पकाः | कालका एषां ते का- 

लका इति | एवं समाहारवान्समाहारः || भथवाकारो मत्वर्थीयः | तद्या । तुन्दः 

शाट इति || यंथेवं त्रैस्वथं न प्रकल्पते | तत्र को दोषः | त्रैष्वर्येणाधीमह इत्ये- 
ॐ तन्नोपपद्यते | तैतह्ुणापेक्षम्‌ । किं तरिं । अजपेक्षम्‌ | वरैस्वर्येणाधीमहे तरिप्रकारै- 
रज्भिर धीमहे केधिदुदात्तगुणैः कैधिदनुदात्तगुणैः केथिदुभयगुणेः । तद्यथा | भुङ- 
गुणः शुङ्कः | कृष्णगुणः कृष्णः | य इदानीमुभवगुणः स ' तृतीयामाख्यां लभते क- 
ल्माष इति वा सारङ्ग इति वा | एवमिहाप्युदालगुण उदात्तः । अनुदात्तगृणो 
ऽनुदात्तः 1 य हदानीमुभयवान्स त॒तीयामाख्यां ठभते स्वरित इति ॥ 


10 तस्यादित उदात्तमपेहुस्वम्‌ ॥ ९ ।२।२२॥ ` 


अषेहस्वमिव्युच्यते तत्र दीधेश्ुतयोने प्रामोति । कन्या | शक्तिके शक्तिके* 
नैष दोषः | मात्रचोऽत्र रोपो द्रष्टव्यः | अधेहस्वमात्रमधेहस्वमिति | किमर्थमि- 
द्मच्यते । आमिश्रीमूतमिवेदं भवति । तद्यथा । क्षीरोदके संप्रक्त आनिन्रीभूत- 
त्वान्न ज्ञायते कियल्शीरं कियदुदकं कस्मिन्नवकादो क्षीरं कस्मिन्नवकाद् उदक- 
15 भिति | एवमिहाप्याममिभ्रीभृतत्वान्न क्षयते किंयदुदात्तं कियदनदात्तं कस्मिन्नवकाश 
उदात्तं कस्मित्नवकारोऽनुदात्तमिति । तदाचायेः उहद्ुत्वान्वाचष्ट इयदुदात्तमिय- 
दनुदा्तमस्मिन्नवकाद्य उदात्तमस्मित्तवकादोऽनुदा मिति 1| यद्ययभेवं छहक्किम- 
न्यान्यप्येवंजाती यकानि नोपदिकाति । कानि पुनस्तानि । स्थानकरणानुप्रदानानि । 
व्याकरणं नामेयमुत्तरा वि्ा | सोऽसौ छन्दः दाजेष्वभिविनीत उपलब्ध्यावगन्तु- 
20 मुत्छहते | यद्येवं नार्थोऽनेन ` | इदमप्युपलब्ध्या गमिष्यति || संश्ञाकरणं तर्धेदम्‌ | 
तस्य स्वरितस्यादितोऽषेहस्वमुदाच्संश्ञमिति । किं कृतं भवति । रिरुराप्रदेशेषु 
स्वरितप्रहणं न कतेव्यं भवति | उदात्तस्वरितपरस्य सन्नतरः [१.२.४०] उदा" 
तस्वरितयो्येणः स्वरितो .नुदान्नस्य [८. २. ४ | नोदात्तस्वरितोदयम्‌ [८.४.६७] 
इति || संज्ञाकरणं हि नाम यतो न रधीयः । कुत एतत्‌ | रष्वे हि संज्ञाकर- 
25 णम्‌ | लघीयथ तिरुरात्तप्रदेरषु स्वरितमहणं न पुनः संज्ञाकरणम्‌ । तिरुदात्तप- 
देशेषु स्वरितम्रहणे नवाक्षराणि संज्ञाकरणे पुनरेकादरा ॥ एवं तद्युभयमनेन क्रियते 





# ८, २. ९८१ 





१० १.२.३३. | ॥ व्यारकरणयहाभाष्यय्‌ ॥ २०९ 


जन्वाख्यानं च संज्ञा च | कथं पुनरेकेन यलेनोभयं ` रभ्यम्‌ । ठभ्यमित्याह | 
कथम्‌ | अन्वर्थग्रहणं विज्ञास्यते | तस्य स्वरितस्यादितोऽ्षहस्वमुरा्तसंश्ञे भव- 
तीति | उर्वमान्तमिति चात उदात्तम्‌ ।| यदि तर्हि संज्ञाकरणमुदात्तादेयेदुच्यते 
तत्स्वरितादेरपि प्राति } अन्वाख्यानमेव तर्हीदं मन्दबुद्धेः || 


स्वरितस्या्धहस्वोदात्तदोदान्तस्वरितपरस्य सन्नतरादृष्वैमुदाच्दनुदाचस्य 
स्वरितात्कार्यं स्वरितादिति सिद्धयर्थम्‌ ।॥ ९ ॥ 
स्वरितस्यार्धहस्वोदात्तारा उदा ्तस्वरितपरस्य सन्नतरः ९. २.४ ० | इत्येतस्मा- 
त्व्रादिदं उतकाण्डमुर्वमुदात्तादनुदा्स्य स्वरितः [८.४.६६ | इत्यतः कतैव्यम्‌ | 
किं प्रयोजनम्‌ | स्वरितादिति सिद्यथेम्‌ | स्वरितादिति सिदियेथा स्यात्‌ | स्वरिता - 
त्संहितायामनुदा्तानाम्‌ [१.२.३९] इति । इमं मे गङ्गे यमुने सरस्वति द्ुतुद्रि | 10 
क तरि स्यात्‌ | यः सिद्धः स्वरितः । कायै" देवदत्तयज्षदत्ती || - 


स्वरितोदासा्थे च || २॥ 


स्वरितोदा्लाथे च तत्रैव कतैव्यम्‌ । न उन्रहमण्यायां स्वरितस्य तूदात्तः 
१.२.२३७] |. इन्द्र आगच्छ | क्र तर्हि स्यात्‌ | यः सिद्धः स्वरितः । ब्रह्मण्यो *- 
मिन्द्र आगच्छ || 


॥ ¬ / | 


19 


स्वरितोदात्ता्ास्वरितार्थम्‌ ॥ ३ ।। 
स्वरितोदात्ता्ास्वरिताथ तत्रैव कनैव्यम्‌ | इन्द्र आगच्छ | हरिश्र भागच्छ || 


स्वरितपरसन्नतराथे च ॥ ४ || 
स्वरितपरसन्नतराथै च तत्रैव कमैव्यम्‌ | उदाच्तस्वरितपरस्य सक्चतरः [१.२. 
४०|| माणवक जटिककाध्यापक न्यड्‌† | क्र तर्हि स्यात्‌ | यः सिद्धः स्वरितः 20 
माणवक जटिलकाभिरूपकं क्र ‡ || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | 


देवब्रह्मणोारनुदात्तवचनं ज्ञापकं स्वरितादिति सिडदत्वस्य | ५॥ 


देवनब्रक्मणोरनुदात्तवचनं क्ञापकं सिद्ध हह स्वरित इति || यद्येतञ्ज्ञाप्यते 
स्वरिवोदान्तात्परस्यानुदात्तस्य स्वरितत्वं प्रामोति । न ब्रूमो देवत्रह्मणोरनुरान्तव चनं 
्नापकं सिद्ध इह स्वरित इति | किं तर्हि | परमेतत्काण्डमिति ॥ 
‡ ९.३. १२; ६.१. १८५. $ २.२. ३८. 


29 





= ६.९. ९६,८५., † ६.२, ५३; ८.२. ४. 
2५. 


, २९० ॥.व्याकरणमहामाष्यम्‌ ॥ ` पि१६९९ 


एकश्चुति दरात्संबुद्ौ ॥ १. । २। २.२. ॥ 
किमिदं पारिभाषिक्याः संबुदधभरहणमेकवचनं संबुदधिः [२.३.४९] । भे. 
स्विदन्वथेग्रहणं संबोधनं संबुद्धिरिति । किं चातः | अदि पारिभाषिक्या देव 
ब्रह्माणः * अत्र न प्रापनोति | अथान्वर्थम्रहणं न दोषः | यथा न दोषस्तसतु॥ 
किं पुनरियमेकभ्चुतिरुदान्ताहोस्िदनुदाच्ता । नोदान्ता | कथं त्ञायते | यदय- 
मुचचैस्तरां वा वषद्भारः [१.९.३९ | इत्याह । कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | भतन्तं तः 
निर्देशः । यावदुचचैस्ताबदुचैस्तरामिति | यदि तर्हि नोदात्तानुरात्ता । अनुदात्ता 
न | कथं ज्ञायते | यदयमुदात्तस्वरितपरस्य सच्चतरः [९.२.४०] हत्याह | क्य 
कृत्वा ज्ञापकम्‌ } अतन्त्रं तरनिर्देशः । यावस्सन्नस्तावरसत्ततर हति | सैषा शप 
10 काभ्यामुदात्तानुदात्तयोमेध्यभेकभ्रुतिरन्तरालं हियते ॥ 
| भपर आह | किमियमेकभ्ुतिरुदात्तोतानुदात्ता | उदात्ता । कथं क्ञायते | यदव- 
मुबस्तरां वा वषट्वार इत्याह | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | तन्तं तर निदेशः । चेश 
चस्तरामिस्थेतद्भवति | यदि तद्यीदात्ता . नानुरात्ता । अनुदात्ता च | कथं शयत | 
यदयमुरात्तस्वरितपरस्य सन्नतर इत्याह | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ । तन्त्रं तरनिरदशः। 
15 सन्नं दृष्टवा सन्नतर इत्येतद्भवति || त एते तन्त्रे तरनिर्दैशे सप्र . स्वरा भवनि । 


उदासः । उदात्ततरः | अनुदात्तः । अनुदात्ततरः । स्वरितः | स्वरिते य उदात्त 
सोऽन्येन विशिष्टः | एकम्युतिः सप्तमः ॥ 


५ 





न सुब्रह्मण्यायां खरितस्य तूदात्तः ॥ ९. । २।२.७॥ 


सुब्रह्मण्यायामोकार उदन्तः || ९ ॥ 
0 शब्रह्मण्यायामोकार उदात्तो भवति | सुब्रह्मण्योम्‌ | 
आकार आष्याते परादिश् ॥ २॥ 
आकार आख्याते परादिश्चोदात्तो भवति । इन्द्र आगच्छ | हरिव आगच्छ ॥ 


| वाक्यादौ चद्ेदे॥३॥ 
वाक्यादौ च हे हे उदात्ते भवतः | इन्द्र आगच्छ | हरिव आगच्छ || 





# ९ * ब्‌ ॥, द्‌ ८* 


पा १.२.३२-३९.] ॥ व्या्करणमहामाष्यम्‌॥ ` २१९. 


मषवन्वर्जम्‌ ॥ ४ ॥ ` 
आगच्छ मधवन्‌ | 
सुत्यापराणामन्तः ॥ ९ ॥ | 
त्यापराण्णमन्त उदात्तो भवति । ब्य त्याम्‌ | तये इत्याम्‌ ॥ ‡ 
असाविस्यन्तः ॥ ६ ॥ | ४ 


भसावित्यन्त उदात्तो भवति | गार्ग्यो यजते | वात्स्यो यजते || 


अमुष्येस्यन्तः ॥ ४७ ॥ 
अमुष्येत्यन्त उदात्तो भवति । दाक्षिः पिता यजते ॥ 


स्यान्तस्योपीत्तमं च ॥ ८ || 


स्यान्तस्योपोत्तममुदयान्तं मवत्यन्तश् । गाग्येस्य पिता यजते | वास्स्यस्य 10 
पिता यजते ॥ 


वा नामधेयस्य | ९ 


वा नामधेयस्य स्यान्तस्योपोत्तममदाततं भवति | देवदत्तस्य पिता यजत | देव- 
दत्तस्य पिता यजते || 


देवन्रह्यणोरनुदात्तः ॥ १।२।२३८॥ ` 18 
देवब्रह्मणोरनुदात्तत्वमेके ।. ९ ॥ 


देवत्रह्मणोरनुदात्तत्वमेक इच्छन्ति | देवा ब्रह्मणः | देवा ब्रह्माणः || 


सखरितास्संहितायामनुदात्तानाम्‌ ।! १. । २।२९॥ 


स्वरितात्संहितायामनुदाच्तानामिति चेद्रयेकयेोरेकश्रुस्यव चनेम्‌ ॥ ९ ॥ 

` स्वरितास्संहितायामनुरात्तानामिति वेद्वयेकयोरैकभरुत्यं वक्तव्यम्‌ | आभिवे- 20 
रयः । पचति. | किं पनः कार्णं न सिध्यति | बहवचनेन निर्देशः क्रियते तेन 
बहूनातरैकभ्ुस्यं स्याद्चेकयोन स्यात्‌ ॥ तरैष दोषः । नात्र निर्देशस्तन््रम्‌ | कथं ` 


१२ ॥ स्याकरणमरहाभाव्यम्‌ ॥ ` “ [म० ६.१९. 


पुनस्तेनैव नाम निर्देशाः क्रियते तच्चातन्तरं स्यात्‌ । तत्कारी च भवांस्तदकेवी च| 
नान्तरीयकस्वादत्र बहुवचनेन निर्देहः क्रियते ऽवदयं कयाचिद्िभन्त्या केनचिह- 
चनेन निर्देशः कतेव्य इति | तथथथा । कथिदशार्थी शारिककापं सपलालं सतुष- 
माहरति नान्तरीयकत्वात्‌ | स यावदादेयं तावदादाय तुषपलालान्युत्डजति | तथा 
¢ कथिन्मां सार्थ मह्स्यान्सकण्टकान्सशकलानाहरति नान्तरीयकत्वात्‌ | स॒ याव- 
दादेयं तावदादाय हाकरलकण्टकानुत्छजति | एवमिहापि नान्तरी यक त्वाद्रहूवचनेन 
निर्देशाः क्रियते अषिरेषेणेक ग्चत्यम्‌ ॥ 


अवि रोषेभक श्युत्यामिति चेद्यवहितानामप्रसिदिः ॥ २ ॥ 


अविशेषेण कश्चुत्यमिति चेव्यवहितानातरैकञ्ुस्यं न प्राभोति । इमं मे गङ्गे यमुने 
10 सरस्वति भुतुद्रि ॥ 


अंनेकमपीति तु वचनास्सिद्धम्‌ ॥ ३ ॥ 


अनेकमप्येकमपि स्वरितास्परं संहितायामेकञ्चुति भवतीति वक्तव्यम्‌ | सिध्यति। 

सूत्रं तर्हि भिद्यते ॥ यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं ॑स्वरितात्संहितायामनुदात्ताना- 

मिति चेद्येकयेरेकञचुत्यवचनमविहोषेण ` ध्यवहितानामप्रसिडिरिति । त्रैष दोषः | 

1 कथम्‌ | एकरेषनिरदँशोऽयम्‌ । अनुदात्तस्य चानुदान्तयोधानुदात्तानां चानुदात्ताना- 

मिति | एवमपि षटुप्रभृतीनामेव प्राभोति । षटभभृतिष्येकेषः परिसमाप्यते । 
्रस्येकं वाक्यपरिसमापिदृष्टेति व्येकयोरपि भविष्यति ॥ 


अपृक्तं एकाद्प्रययः ॥ १. । २४१ ॥ 


अपृक्त संज्ञायां हल्ग्रहणं स्वादिकेपे इलो अग्रहणार्थम्‌ ॥ ९॥ 


20 अभृक्तसंज्ञयां हल्व्रहणे कतेव्यम्‌ । एकहत्प्रत्ययो पृक्तसं शो भवतीति वक्त- 
व्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ | स्वादिकोपे हलो अग्रहणाथेम्‌ | स्वादिकोपे हलो ब्रहणं न 
कतेव्यं भवति । हट्उन्याम्भ्यो रीषोत्छतिस्यपृरक्तं दल्‌ [६.१.६८] इत्यपृक्त स्येत्येव 
सिद्धम्‌ ।। अगिओटुगथेमल्पहणम्‌ | अणिञोर्लग्थमल्महणं कतेव्यम्‌ । किं प्रयोज 
नम्‌ । अणिञोलकि बहणे न कतेव्यं भवति | ण्यक्षन्निया्षीनितो युनि लुगणिमो 

25 [२.४.५८] इत्यग्क्तस्येत्येव सिद्धम्‌ । 





. जरं° ९.२.४१. ॥ भ्यव्करननरानाच्यम्‌ ॥ ` २९३ 


अणिजोरलुग्थमिति चेण्णेऽतिप्रसङ्गः ॥ ० ॥। , 


अणिटैगर्थमिति वचेण्णेऽतिप्रसङ्गो भवति | इहापि प्राभोति । फाण्टाहतेरपत्यं 
माणवकः फाण्टाहइत इति* || णवचनसामथ्योच्च भविष्यति | 


वखनप्रामाण्यादिति शेत्फग्रिवृत्ययं वचनम्‌ ॥ ३ ॥ 
वचनप्रामाण्यादिति चेर्फभिवृत्त्य्थमेतस्यात्‌ | फगतो मा भूदिति। | ४ 


वेलादिषु वचनास्सिद्धम्‌ । ४।। 


यद्येतावत्मयोजनं स्याखैलादिष्वेवः पाठं कुर्वति | तत्र पाठादन्येषामपि एको 
निवृत्तिभेवति । एवं सिद्धे सति यदयं. गं शास्ति तज्ज्ञापयत्याचार्यो नास्य लुग्भ- ` 
वतीति || 

तान्येतानि श्रीणि म्रहणानि भवन्ति | अपृक्त संज्ञायां हल्महणं कतेव्यम्‌ | स्वा- 10 
दिलीपे इलो महणं न कतेव्यम्‌ | भणिओङकि हणं कतैव्यम्‌ | अनल्पहणेऽपि 
रै क्रियमाणे तान्येव त्रीणि चहणानि भवन्ति | अप्रकसंश्ायामल्मदणं कर्तव्यम्‌ | 
स्वादिकोपे हठो महणं कतेव्वम्‌ | भणिओलुकि भ्रहणं न कतैव्वं भवत्यप्क्त्रहणं 
कतेव्यम्‌ । तत्र नास्ति लाषवकृतो विशेषः || भयमस्ति विशेषः | अल्महणे 
क्रियमाण एकग्रहणं न करिष्यते } कस्माच्च भवति | दर्विः जागृचिः$ | अकेव 15 
यः प्रत्ययः | किं वच्तध्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुस्यमानं गंस्यते | अल्यहणसा- 
मथ्यौत्‌ | यदि यो ऽल्‌ चान्यथ तत्र स्यादल्यहणमनथेकं स्यात्‌ || शल्महणेऽपि प्रिय 
माण एकमहणं न करिष्यते । कस्माच्च भवति । दर्विः जागुविः | हलेव यः 
्रस्ययः । किं वक्तव्यमेतत्‌ । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | हल्प्ररणसामथ्यीत्‌। 
यदि यो शल्‌ चान्य तश्र स्याद्धल्प्रहणमनथेकं स्यात्‌ | अस्त्यन्यडल्पहणस्य प्रयो - 20 
जनम्‌ | किम्‌ | हलन्तस्य यथा स्यादजन्तस्य मा भूदिति | एवं तर्हि सिदे सति 
यदल्त्रहणे क्रियमाण एकग्रहणं करोति वज्ज्ञापयत्या चार्यो ऽन्यत्र वणैमहणे जाति- 
महणं भवतीति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ । दम्मेदैल्प्रहणस्य जातिवाचकत्का- 
ल्खिदडधमिस्युक्तं 4 तदपपत्तं भवति ॥ 


+ ४. ९०९५०, ¶ ४.९.९०९, {२.०.८८८ ३६.१.६७ भृ ९.२.१०५. 


१९४ ॥ धफकरषकहाभाष्यम्‌ ॥ ` ¦ [म०६.२.६ 
तदयुरुषः समानषिकरणः कमेधारयः ॥ १।२। ४२ ॥ 


ततयुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारय इति चेत्समामिकार्थत्वादभसिदिः।।९॥ 
तत्पुरुषः समानाधिकरणः कर्मधारयं इति चेत्समासंस्थैकार्थत्वास्संजञाया जप्- 
सिद्धिः | एको ऽयमथेस्तत्पुरुषो नामानेकाथोश्नयं च सामानाधिकरण्यम्‌ ॥ 


ॐ .. सिद्धं तु पदसामानाधिकरण्यात्‌ ॥>॥ | 

| सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । तत्पुरुषः समानाधिकरणपदः कर्मधारयसेश्ञो भवतीति 
वक्तव्यम्‌ | सिध्यति | खश तर्हि भिदते || यथान्यासमेवास्तु | ननु चोक्त तस्पु- 
रुषः समानाधिकरणः कर्मधारय इति चेत्समाचचैका्थत्वादप्रसिद्धिरिति । नैष दोषः। 

अर्यं. तत्पुरुषो स्स्स्येव प्राथमकल्पिको ` यस्मि्चैकप्यमेकस्व्यमेकविभक्तित्वं च| 

10 भसि तादभ्योत्ताच्छम्यं त्पुरुषा यौनि पदानि ` तत्पुरुष इति । ` तद्यस्तादथ्यौत्ताच्छम्दं 
तस्येदं ब्रहणम्‌ ॥ 


प्रथमानि समास उपसजैनम्‌॥ १।२।४२ ॥ 
 अयमानिरदिष्टं समास उपसर्जनमिति चेदनिरईदात्मथमायाः समासे 


| संज्ञाभसिदधि : ॥ ९ ॥ 
15 प्रथमानिर्रिष्ठं समास उपसजैनमिति वेदनिर्देशासथमायाः समास उपसर्जनसं 
ज्ञाया अप्रसिद्धिः | न हि कष्टादीनां समासे" प्रथमां परयामः | 
सिद्ध तु संमासविधाने वचनात्‌ || २॥। 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । समासविधाने प्रथमानिर्दिष्टभुपसर्जनसंन्ञं भवतीति वक्त- 
व्यम्‌ ॥| तत्ता वक्तव्यम्‌ | 
20 ` नवां तादध्यौचाच्छन्यम्‌ ॥३॥ 


न धा वन्कव्यम्‌ । किं कारणम्‌ । तादथ्या्ताख्डग्धं भवति | समासार्थं शालं 
समास इति ॥| "* ` ` ` ` ^ 


# द.९. २४, 














प° ६.२.४२-४४.] {. , ॥ व्वाकरनमहाप्रषष्वम्‌ ॥ २१० 
य॑स्य विपी प्रथमारनिरददास्ततोऽन्यलाप्धुपसर्जनसंज्ञाभसङ्ः ॥४ ॥ ` 
यस्य विषौ प्रथमानिरदेदाः क्रियते ततोऽन्यत्रापि तस्योपसओनसंज्ञा प्रामोति | 


राज्ञः कुमारीं राजकुमारीं श्रितः । भ्रिवादिसमासे हितीयान्तं प्रथमानिर्दिष्टं तस्व 
षष्टी समासे ऽप्युपसजनसंश्ञा प्राभोति | 
सिद्धं तु यस्य विधो तं भतीति वचनात्‌ ॥ ९ ॥ $ 

सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । यस्थ विषौ यस्थमानिर्दि्टं तं प्रति तदुपसजैनसंज्ं भव- 
तीति वक्तष्यम्‌ || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | उपसर्जनेमिति महती संज्ञा 
क्रियते | संज्ञा च नाम यतो न लघीयः | कुत एतत्‌ । रष्वथे हिं संज्ञाकरणम्‌ | 
तत्र महत्याः संज्ायाः करण एतस््योजनमन्वरथं संज्ञा यथा विज्ञायेत | अप्रधानमु- 
पसर्जनमिति | प्रपान मुपसजैनमिति च सं बन्धिहाम्दाभेती | तन्न संबन्धादेतद्न्त्यं 10 
य प्रति यदप्रधानं तं प्रति तदुपसजेनसंज्ञं भवतीति ॥ 

अथ यत्र हे षष्ठ्यन्ते कस्मान्तत्र प्रधानस्योपसजैनसंज्ञा न. भवति ] राज्ञः 
पुरुषस्य राजपुरषस्येति 


 -षष्ठयन्तयोश्चोपस्जनत्व उक्तम्‌ ॥ ६ ॥ 
किमुच्छम्‌ । षचन्तयोः समासे ऽयोमेदात्मधानस्यापूवेनिपात इति | एव॑ न 15 
चेदमकरृतं भवेदुपस्जनं पु्वैमित्यर्थशाभिन्च इतिं कृत्वा प्रधानस्य पृवनिपातो न. भवि- 
प्यति ॥ यद्यपि तावदेतदुपसजैनकायै परिहतमिदमपरं प्रापोति | राज्ञः कुमायौः 
राजकेमायौः । गोज्ञियोरपसजेनस्य [९.२.४८] हति स्वत्वं प्राप्रोति । 
उक्त वा ॥ ७ ॥ 


किमुक्तम्‌ | पर वलि ङ्गमिति शम्दशब्दायौविति§ । तत्नौपदेश्िकस्य हस्वत्वमा- 20 
तिदेशचिकस्व अवणं भविष्यति ॥ 


एकविभक्ति चापुवेनिपाते ॥ १ । २ । ४४ ॥ 


कितीयादीनामप्यनेनोपसजेमसंज्ञा ब्राभोति | ततर कौ रोषः | तत्रापूवैनिषात 
इति प्रतिषेधः प्रसज्येत || नाप्रतिषेधात्‌ } नायं प्रसज्यप्रतिषेधः पू्ैनिपाते नेति । 


# ९,२.४८; २.२.३०. † २.२.८. ` ‡ २.२.२०५. { २.४. २३६१. 


२६६ ॥ व्यच्करनगलभर्व्वम्‌-॥. `  म०९.२.६. 

किं तर्हिं । पर्युदासोऽयं यदन्यत्पुवेनिपातादिति । पूरैनिपाते ्यापारः | यदि 

केनचित्पामोति तेन भविष्यति । पूर्वेण च प्रापरोति तेन भविप्यति || अप्रपरेवौ | 

अथवानन्तरा या प्राप्तिः सा प्रतिषिध्यते | कुत एतत्‌ । अनन्तरस्य विधिव भवति 

प्रतिषेधो वेति | पवी प्राप्निरप्रतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं भरातः पवौ 
$ प्रा्धिं वाधते | नोत्सहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम्‌ || 


एकविभक्तावषष्टयन्तवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 


एकविभक्तावषष्टध्न्तानामिति वक्तव्यम्‌ । इह मा भूत्‌“ । अपै पिप्पल्या 
भर्पिप्पली इति 1. | | 


उक्तवा | >॥ 


10 किमुक्तम्‌ । परवलिङ्कमिति शब्दशब्दाथोवितिः । तज्रौपदेशिकस्ये हस्वस्व- 
मातिदेद्कस्य श्रवणं भविष्यति ॥ 
कानि पुनरस्वं योगस्य प्रयोजनानि । ` 


प्रयोजनं द्विगुपरासापन्नारूपूरवोपसगौः क्ते | | | द ॥ 
दिगुःऽ । पञ्चभिर्गोभिः क्रीतः पञ्चगुः || प्राप्रापश्च¶ | प्राप्तो जीविकां पराप्रजी- 
15 विकः | आपन्नो जीविकामापच्तजीविकः | भकंपुवं “| अलं कुमायौ भरुकुमारिः। 


उपसगीः क्तार्थ** | निष्वौङाम्बिः ] निर्वाराणसिः ॥ 
इति शआ्भगवत्पवश््रलिषिरचिते व्याकरणमहाभष्ये प्रथमस्याध्यायस्य हितीये 


पादे प्रथममाद्धिकम्‌ ॥ 


* १.२.४८, 1२.९.९२. {२.५.२९५ ऽ २९.५९. ¶ृ २.२.१४. ++ २.२.६८५. 





पा९१.२.४५. | । व्याकरण मङाफष्यय ॥ २९७; 


अथवदधातुरप्रत्पयः प्रातिपदिकम्‌ ॥ १. । २ । ४८५ ॥ 


 अथेवदिति व्यपदेशाय वणीनां च मा भूदिति | किं च स्यात्‌ | वनम्‌ धनमिति 
नल।पः प्रातिपदिकान्तस्य [८.२,७| इति नलोपः प्रसज्येत || अधातुरिति किम- 
यम्‌ । अहन्वृ्रमिति || भधतुरिति शक्यमकर्तुम्‌ | कस्मान्न भवति अहन्वृत्र- 
मिति | आचायेप्रवृत्तिज्ञापयःते न धातोः प्रातिपदिकसंज्ञा भवतीति यदयं पो 
धातुप्रातिपदिकयोः [२.४.७९ | इति धातुम्रहणं करोति } वैतदस्ति ज्ञापकम्‌ | 
प्रतिषिद्धाथमेतस्स्यात्‌ | अपि काकः दयेनायत* इति || अप्रत्यय इति किमर्थम्‌ । 
काण्डे कु्ये† || अप्रत्यय हति हाक्यमकर्तुम्‌ । कस्मान्न भवति काण्डे कुदे इति । 
कृ तद्धितयहणं { नियमार्थे भविष्यति | कृ त्द्धितान्तस्यैव प्रत्ययान्तस्य प्रातिपदिकसंज्ञा 
भवति नान्यस्येति | 0 


अथवत्यनेकपदप्रसद्भः ॥ ९ ॥ 
अथवति प्रातिपदिकसंज्ञायामनेकस्यापि पदस्य प्रातिपदिकसंज्ञा प्राप्रोति | दा 
दाडिमानि षडपपाः कुण्डमजाजिनं पलकपिण्डः भधरोरुकमेतत्कमायौः स्मैयकृ- 
तस्यं पिता प्रतिङीन इति || समुदायोऽत्रानथेकः | 


समुदायोऽनर्थक डति चेदवयवार्थवच्वास्समुदायाथेवच्वं यया लोके । २॥ 18 


समुदायोऽन्थक इति चेदवयतरैरथेवङ्धिः समुदाया . अप्यथेवन्तो भवन्ति यथा 
लोके | तद्यथा | लोक अद्यमिदं नगरं गोमदिदं नगरमिव्युच्यते न च तत्र सव 
आद्या भवन्ति सर्वे वा गोमन्तः || यथा रोक इत्युच्यते लोके चावयवा एवाथ- 
वन्तः न समुदायाः । आतश्चावयवा एवाथेवन्तो न समुदाया यस्य॒ हि तद्व्वं 
भवति स तेन काये करोति यस्य चता गावः सन्तिसरतासां क्षीरं धृतं चोपभुडः 20 
अनत्रैरेतदृषटुमप्य राक्यम्‌ | का तर्दीयं वाचोयुक्तेराद्यमिदं नगरं गोमदिदाभेति | 
एवैषा व्राचोयुक्तिः | इह तावदाद्यमिदं नगरमित्यकारो मव्वर्थीवः । अद्या अ- 
स्मिन्सन्ति तदिदमाद्यमिति | गोमदिदमिति म्वन्तान्मत्वर्थीयो ठुप्यते | एवमपि 


बाक्यप्रतिबेधोऽ्थवचात्‌ । ३.॥ 
वाक्यस्य प्रातिपदिकसंज्ञायाः प्रतिषेधो वक्तव्यः | देवदसल गामभ्याज भुज्ञाम्‌ ‰& 


* ३, ९. १६. † १.२. ४०, { २. २. ४६. 


+ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ | िग-र्र्क 


देवदत्त मामभ्याज कृष्णामिति | किं कारणम्‌ । अर्थवन्वात्‌ | अे्षद्ये तलक 
भवति || न तै प्रदाथादन्यस्यार्थस्योपलग्धि्मैवति वाक्वे | 


पदाथोदन्यस्यानुपरन्धिरिति  चेत्पदायथीभिखबन्धस्योपरून्धिः ॥ ४ ॥ . 


पदाथोदन्यस्यानुषभ्धिरिति चेदेवमुच्यते |  पदाथीभिसंबन्धस्योपलग्धिर्भकति 

5 वाक्ये | हह देवदत्त इत्युक्ते कतौ निर्दिष्टः कमं क्रियागुणौ चानि । गामिस्युक्ते 

कमेः निर्दिष्टं कतौ क्रियागुणौ चानि्दिष्टौ । अभ्याजेस्युक्ते क्रिया निर्दिष्टा कतै" 

क्मेणी गृणधानि्दिष्टः | भुङ्काभिस्युक्ते गुणो निर्श््टिः कर्ैकर्मैणी (क्रिया चानिर्दिष्ा | 

इहेदानीं देवदत्त गामभ्याज शुक्तामिस्युक्ते सभ निरिं भवति | -देवदनत्त एवः कर्ता 

नान्यः | गौरेव कमे नान्यत्‌ । भभ्याजिरेव क्रिया नान्या | मुद्ञमेव न कृष्फ- 
10 भिति | एतेषां पदानां सामान्ये वतेमानानां यदिशेषेऽवस्थानं स वाक्यार्थः | 


तस्मात्मतिषेधः || ५ ॥ 


तस्मायतिषेषो वक्तव्यः || न वक्तव्यः. 


अयथवत्समुदायानां समासग्रहणं नियम्थम्‌ ।[ ६ ॥ 


 अर्थेवत्समुदायानां समासग्रहणं नियमाथे भविष्यति | समास एवायैवतां 
समदायानां प्रातिपदिकसंज्ञो भवति नान्य इति || यदि नियमः क्रियते प्रकृतिप्रस्य- 
यसमुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञा न प्राति | बहुपटवः" उच्चक्ररेति† | किं पुनरत्र 
प्रातिपदिकसज्ञया प्रा्यते | प्रातिपदिकादिति स्वाद्युत्पत्तियथ। स्यात्‌+ ] नेष दोषः | 
यथैवात्राप्रातिपदिकत्वार्स्वरादय्पत्तिने भवत्येवं लुगपि§$ न भविष्यति | तत्र॒ वैवा- 
सावन्तवैर्पिनी तविभक्तिस्तस्या एव श्रवणं भविष्यति | नैवं शक्यम्‌ । स्वरे हिं दोषः 
0 स्यात्‌ | बहुपटव इत्येवं स्वरः प्रसञ्येत बहृपटव इति चेष्यते | परिष्यति द्या- 
चार्यः | चितः सप्रकृतेबह कजथंमिति4 | तस्यां पुनदुप्रायां यान्या विभक्तिरुत्प- 
द्यते तस्याः प्रकृत्यनेकदेरास्वादन्तोदात्तत्वं न भविष्यति || एवं तद्यो चायप्रवृचिः 
ज्चोपयति. भवति प्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञेति यदयमपरत्यय इति 
प्रतिषेधं शास्ति । स च तदन्तप्रतिषेधः | स ताह ज्ञापकार्थः प्रत्ययप्रतिषेधौ 
2 वक्तव्यः | ननु चायं प्राप्य्यौ ऽपि वक्तव्यः | नार्थः प्राप्यर्थेन | कृलदधितग्रहणं 
नियमाय भविष्यति | कन दितान्तस्थैव प्रत्ययान्तस्य प्रातिपदिकसंशा मविभ्यति 





# ५. ३. ६८. † ५. ३. ५९. { ४.९.९२३. § २.४. ७६, थु ६.९. १६१५. 





फं५ १.२.४५. | ५ म्पाकतस्मवहापाष्यम्‌॥. रर्थः 


कल्कस्य - पत्ययान्तस्येति । - स एषोऽनन्याथः प्रस्ययप्रतिषेणो वक्तव्यः प्रकृतिप्रत्ययः 

समदायस्व वा प्रातिपदिकसंज्ञा वक्तव्या || उभयं न. वक्तष्यम्‌ | तुल्यजातीयस्यः 

निवमः | कथ तुल्यजातीयः । यथाजातीयकानां समासः | कथंजातीयकानां 

समासः । खबन्तानाम्‌ {1 पि मुदायस्य तर्हि प्रातिपदिकसंज्ञा प्रामोति । खभिङ्- 

मुदायस्व प्रातिपदिकसंक्ञारमभ्यते । जहि कमणा बहुरुमामीर्ण्ये कतारं चाभिद- 5 
धातीति* | तश्भियमा्थे भविष्यति । रुतस्यैव खप्निङमुदायस्य `भाविपदिकसंज्ञा 

भषति नान्यस्येति || तिङ्मुदायस्व तर्हिं प्रातिपदिकसंज्ञा प्राभि | तिङ्मुदाय- 

स्यापि भातिपदिकसंज्ञारभ्यते | आख्यातमाख्यतिन क्गियासातस्य इषि" | तक्षियमायैः 

भविष्यति । एतस्येत्र तिङमदायस्य प्रातिपदिकसंज्ञा भवति नान्यस्येति ॥ 


अथव्रत्ता नोपपद्यते केवलेनावचनात्‌ | ७ || 10 


अर्थवत्ता नोपपश्यते वृक्षराब्दस्य । किं कारणम्‌ | केव्रलेनत्रिचनात्‌ | न केव- 

तेन वृक्षशब्दे नाथे गस्यते | केन तर्हिं | सम्रध्ययकेन || 
न वरा प्रत्ययेन निव्यसंबन्धात्केवरस्याप्रयोमः ॥ ८ ॥ 

न वैष दोषः | क्ंकारणम्‌ । प्रत्ययेन नित्यतंबन्धात्‌ । नित्य॒ संबन्धाबेवावर्थे 
परकृतिः प्रत्यय इति | प्रत्ययेन निव्यसंबन्धस्किवलस्य प्रयोगो न भविष्यति || 15 
भन्यद्भवन्पुष्टो ऽन्यदाचष्टे | आज्रान्प्रष्टः कोविदारानाचष्टे | भथवन्ता नोपपद्यते 
केवठेना वचनादिति भवानस्माभिशचोदितः केवलस्याप्रयोगे हेतुमाह । एवं च किल 
नाम कृत्वा चोद्यते समृदायस्यार्थे प्रयोगादवयवानामप्रसिदधिरिति ॥ 


सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम्‌ || २ ॥ 

ज्िद्धभमेतत्‌ | कथम्‌ | भन्वयाद्यतिरेकाच्च | कोऽसावन्वयो व्यतिरेको भा | इह 20 
वृक्छ इत्युक्ते कथिच्छब्दः भयते वृक्षशब्दो. ऽकारान्तः सकार प्रत्ययः । अर्थों 
ऽपि कथिद्गम्यते मूलस्कन्धफलपलादावानेकत्वं च | वृक्षाविव्युक्ते कथिच्छम्दो हीयते 
काथिदुपजायते कथिदन्वयी | सकारो हीग्रत ओकार उपजायते वृक्षदाष्दो ऽकारा- 
न्तेऽन्वयी | अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते कथिद पजायते कथिदन्वयी | एकत्वं हीयते हिस्व- 
म॒पजायते मुलस्कन्धफलपलादावानन्वयी | ते मन्यामहे यः शाब्दो हीयते तस्यासा- 2 
वर्यो योऽर्थो कयते ग्रः , शाब्द उपजायते . तस्यासावर्थो . योऽथ उपजायते यः हाम्त् 
अन्वय तस्यसपवर्थो योऽयेऽन्वयी || विषम उपन्यासः | वहवो हि राश्दा प्रकार्य 


~~~ ~~ ---ङस्का = 





* २.२, ७२, ग. 








` ९९० ॥ व्याकरणपहाभाष्य॑व्‌ ॥ . ˆ [ ममर-रदः 


` भवन्ति | तद्यथा | इन्द्रः शाक्रः पुरुहूतः पुरंदरः । कन्दुः कोठः कुशुलः इति । 
एकञथ शाब्दो बहयेः | तद्यथा । अक्षाः पादाः माषा इति | अतः कि न साषीयो 
्थवत्ता सिद्धा भवति ] भ च्रूमोऽयेवन्ता म सिध्यतीति | वार्गिताथेव तान्व यत्यतिरे- 
काभ्यामेव | तत्न कुत एतदयं भरकृत्य्थो ऽयं प्रत्ययाय हति न पुनः प्रकृतिरोवोभाव्ौ 

$ ब्रूयासत्यय एव वा | सामान्यराम्दा एत एवं स्युः । सामान्यशम्दाथ नान्तरेण 
विरोषं प्रकरणं वा वि्ोषेभ्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगनो वृक्षि इत्युक्ते स्वभावतः 
करिमिधिदर्थे भरतीति रुपजायते ऽतो मन्या महे नेमे सामन्यद्ब्दा इति । न चेत्सामा- 
न्यदाब्दाः प्रकृतिः प्रकृत्यर्थ धेत प्रस्ययः प्रत्ययार्थ | 

किं पुनरिमे वणौ भ्थेवन्त आहोस्विदनर्थकाः | 


1  वर्ण॑स्यार्थवदनर्थकत्व उक्तम्‌ | ९० ॥ 


किम॒क्तम्‌ | अर्थवन्तो वणो धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानामेकवणानामर्थदरौ- 
नाद्रणेव्यत्यये चार्थान्तर गमनादणानुपलम्पौ चानथगतेः संघाताथैवत्वाञ्च | संघात- 
स्थैकाथ्यात्दबमावो वणौत्‌ | अनर्थकास्तु प्रतिवणैमर्थानुपरम्पेवैर्णव्यत्ययापायोपजन- 
विकारेष्वथददौनादिति* ॥ तत्रैदमपरिहतं संधाताथवत््वाशचेति | तस्य परिहारः | 


15 संघातार्थवत््वाश्वेति चेदृष्टो ह्यतदर्थेन गुणेन गुणिनोऽ्थभावः ॥ ९५ ॥ 


संघाताथव चेति चेदृदयते हि पुनरतदर्थेन गुणेन गुणिनोऽथैमावः । तद्यथा । 
एकस्तन्तुस्स्वक्तराणे ऽखमथेस्तत्समुदायथ कम्बलः समथः | एकच तण्डुलः ्षुल- 
तिषाते ऽपमथेस्तत्समुदायश्च वर्थितकंः समथेम्‌ | एकश्च यल्वजो ` बन्धने ऽसमं- 
स्तस्वमुदायश्च रज्जुः समथा भवति | विषम उपन्यासः । भवति हितत्र याच 
90 यावती चाथेमाज्रा | भवति हि किंचित्मत्येकस्तन्तुस्त्वक्त्राणे समये एकश्च तण्डुलः 
षुखतिषाते समथ एकथ वल्वजो बन्धने समथः | इमे पुनरवैणा अत्यन्ताैवा- 
नैकाः || यथा तर्हि रथाङ्गानि विहतानि प्रव्येकं व्रजिक्रियां परतयसमर्थानि भवन्ति 
तस्समुदाय्च रथः समथ एवमेषां वणोनां समुदाया अर्थवन्तो ऽवयवा अनर्थका 
इति ॥ 


25 निपातस्यानर्थकस्य प्रातिपदिकस्वम्‌ ॥ ९२॥ 
` निपातस्यानथेकस्य प्रातिपदिकसंज्ञा षक्त्या | खश्त्रति निखञ्चति | रम्बते 





# हवत्‌ ९*. 








¶१ १.२.४५. | ॥ स्वाकर्नक्रहाभाच्वम्‌ ॥ ररर 


प्रतम्बते || किं पुनरत्र प्रातिषदिकसंञ्ञया प्राध्येते | प्रातिपदिकादिति स्वग्युत्पत्तिः* 
षन्तं पदमिति षपदसंज्ञा† पदस्य पदात्‌ [८.१.९६ ~९.७| इति . निघातो ` यथा 
स्वरात्‌{ || त्रैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | सत्यामपि प्रातिपदिक संज्ञायां स्व्राद्युस्पत्तिने प्राोति। 
किं कारणम्‌ | न हि प्रातिपदिकसं्ञायामेब स्वाद्युखस्िः प्रतिबद्धा | किं वर्हि । 
एकत्वादिष्वर्थेवु स्वादयो विधीयन्तेऽ न चेषमिकत्षादयः सन्ति || नैष दोषः. 5 
भविरेषेणोत्पद्यन्त उस्पन्नानां नियमः क्रियते || अथवा प्रकृतानयोनपेल्व नियमः । 
के च प्रकृताः | एकत्वादयः | एकस्मिच्ेवाथं एकवचनं न इयोने वहुषु | इयोरे- 
वायोरिव चनं नेकल्मिच्च बहुषु | बहुष्वेवार्थेषु बहुवचनं त्रैकस्मिन्न इयोरिति ॥ 
भयवाचा्यपरवृसिर्गापयत्यनथकानामप्येतेषां भवत्यथेवत्कृतमिति यदयमधिपरी भ- 
नयको [९.४.९३ | हत्यनथेकयोगेत्युपसतगसंज्ञावाधिकां कर्मेप्वचनीयसंज्ञां शालि ॥ 10 


किं पुनरयं पयुदासो यदन्यसत्वयादिति | आहोस्विससज्यायं प्रतिषेधः प्रत्ययो 
नेति | कथात्र विरोषः | 


अप्रत्यय इति चेत्तिेकादेदो भरतिषेधोऽन्तवच्वात्‌ ॥ १३ ॥ 
भप्ररयय इति वेत्तिवेकादेदो प्रतिषेधो वक्तव्यः | काण्डे कुशे | किं कारणम्‌ | 
भन्तवस्वात्‌ | तिबतिपोरेक देशोऽतिपोऽन्तवस्स्यात्‌ | अस्त्यग्यसिप इति कृत्वा 15 
प्रातिपरिकसंज्ञा प्रामोति¶ ॥ अस्तु तरि परसञयप्रतिषेधः प्रत्ययो नेति | 


न प्रस्यय इति चेदुङेकादेदो प्रतिषेध भादिवस्सात्‌ ॥ १४॥ 


न प्रत्यय हति चेदृडकादेशे प्रतिषेषः प्रामोति । ब्रह्मबन्धूः“ | किं कारणम्‌| 
आदिवच्वात्‌ | प्रस्ययाप्रस्यययोरेक देशः प्रत्ययस्यादिवस्स्यात्‌ । वत्र प्रत्ययो नेति 
प्रतिषेधः प्रामोति | नैष दोषः | भावचार्यप्रवृत्तिज्गपयव्युत्पद्यन्त ऊडनन्तास्स्तरादय इति 20 
यदयं नोङ्धात्वोः [६.९.१७९ | इति विभक्तिस्वरस्य प्रतिषेधं शास्ति || अथवा दै 
त्र भ्रातिपदिकसंज्ञे भवयवस्यापि समुदायस्यापि । शत्रावयवस्य या प्रातिपदिक- 
संज्ञा तयान्त्द्धावारस्वाद्युखत्तिभंषिष्यति ॥| 


सुन्छोपे च प्रस्ययलक्षणस्वात्‌ ।॥ ९९ ॥ 


सुम्लोपे च धरत्ययलक्षणेन प्रतिषेधः भरामोवि । राजा तन्ला†1 | प्रत्ययलक्षणेन प्रत्ययो 25 


* ४.१. १६२. † ९.४. ९४. ‡ ८.९. २८. § १.४. २२२, भृ ६.२, ४७, 
99 ४, ९, ६६. ` ¶1 ६ ६. ६८; (८, २. 9), 


नरक ॥ न्याकर्णद्रहाभाऽ्वम्‌ `  [म०र्.रर 
नेति प्रतिषेधः भराभोति || नैष दोषः ।. भाजायेप्रवृत्तिज्ञापयति न प्रस्ययलक्षेणेन 
प्रतिषेधो भवतीति यदयं न डिसंबु्ोः [८.२. ८ | इति प्रतिषेधं शास्ति ॥ 
अथवा पृनरस्तु पयुदासः | ननु चोक्तमप्रस्यय हति चेत्तिबेकादेो प्रतिषेधो 
ऽन्तव्रस्वादिति | प्रसज्यप्रतिषेधेऽप्येष दोषः । ह ह्यत्र प्रातिपदिकसंज्ञे अत्रयत्रश्यापि 
४ समुदायस्यापि । गृह्यते च प्रातिपदिकाप्रातिपदिकयोरेकादे शाः प्रातिपदिकम्रहणेन | 
तस्मादुभाभ्यामपि. वक्तव्यं स्याद्भस्वो नपुंसके यत्तस्येति | किं च नपुंसके | नपुसकं 
यस्य गृण : | कस्य च नपुंसकं गुणः, | प्रातिपदिकस्य | 


 - कृत्तादेतसमासाश्च ॥ १.।२ । ४६ ॥ 


` समासमहणं किमयम्‌ | 


10 समास ग्रहण उक्तम्‌ । ९॥ 
किमुक्तम्‌ | भेवतसमुदायानां समासयदणं नियमार्थमिति | 


हूस्वो नपुंसके प्रातिपदिकस्य ॥ ९. । २ । 9.9 ॥ 
पराति पदिकब्रहणं किमयम्‌ | 


नपुंसक हृस्वसत्वे प्रातिपदिकग्रहणं तिभिषरच्यर्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
1५ नपुंसकहस्वत्वे प्रातिपदिकम्रहणं क्रियते ति्निवृत्यथम्‌ | तिबन्तस्य स्वत्वं मा 
भूत्‌ । काण्डे कुख्े | रमते ब्राह्मणकुलमिति ॥ 


भष्ययप्रतिषेधः । २॥ 


अव्ययानां प्रतिषेपो वक्तव्यः | दोषा ब्राह्मणकुलम्‌ | दिवा ब्राक्षणक्ुरमिति | 

स ताह वन्तव्यः | न वक्तव्यः | नात्राध्ययं नपुंसके वतेते | किं तर्हि | भधिक- 

20 रणम्रव्ययं न्ुसकस्य || इष तर्हि प्राभोति | काण्डीभूतं वृषलकुलम्‌ । कुीमतं 
वृषरकुलमित्ति ॥ 





नै ६०२१ ४९१, # :* ५ . + # 1, 


प०- ९.२.४६ -४८.] ॥ व्याक्टभमरहाभ्यम्‌ ॥ गरड 
न वा लिद्भाभावात्‌ | २ ॥ 

ने वा वक्तभ्यम्‌ | क कारणम्‌ | लिङ्गाभावात्‌ | भलिङ्गमव्ययम्‌ || किं पुनर य - 
म्ययस्मैव परिहार आहोस्वित्तिबन्तस्यापि । तिबन्तस्यापीस्याह | कथम्‌ | अश्ययं 
हि किंचिदहिभक्तयर्थप्रधानं किचिक्करियाप्रधानम्‌ | उचचर्नविरिति विमक्तयथपरधानं 
हिरक्टथगिति क्रियाप्रधानम्‌ । तिबन्तं चापि किंविहिमक्त्यप्रधानं किंचिक्किया- $ 
प्रधानम्‌ | काण्डे के इति विभक््यथप्रथानं रमते ब्राह्मणकुलमिति क्रियाप्रधानम्‌ | 
न चैतयोरर्थयोरछिद्गसंख्याभ्यां योगोऽस्ति || भवयं चैतदेवं विज्ञेयम्‌ | क्रियमा- 
णेऽपि हि प्रातिपदिकम्रहण इ प्रसज्येत | काण्डे कुखे | हे यत्र प्रातिपदिकसंे 
अवरयवस्यापि समुदायस्यापि | गृष्यते च प्रातिपर्दिंकाप्रातिपदिकंयोरेकादेराः प्रातिष- 
दिके महणेन | तस्मादुभाग्यामपि वक्तव्यं स्या द्रस्वो नपुंसके यत्तस्येति | किं च 10 
नपुसके । नपुंसकं यस्य गुणः | कस्य च मूपुंसकं गुणः | प्रातिपदिकस्य || 


यकादेदादीवैचखेषु प्रतिषेधः ॥.४ ॥ 
यंओकादेशदी्ैचेषु प्रतिषेधो वक्तध्यः । युगवर्राय' युगवर परार्थम्‌ युगवर- 
बेभयः || 
यञओकादे रादीर्धैेषु बहिरद्र लक्षणत्वास्सिदम्‌ ।! ५ ॥ 15 
 बहिरद्भा एते विधयः" | भन्तर ङ्ग दस्वस्वम्‌ | सिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्ग ॥ | 


गोखियोरूपसजेनस्य ॥.१. ।,२ । ४८ ॥ 


उपसर्जनहस्वत्वे च ॥ ९॥ ` 
उपस जेनहस्वस्वे च | किम्‌ । यञकादेशदीरधे्वेषु प्रतिषेष वक्तव्यः | अतिखटाय 
भतिखटराथम्‌ अतिखद्रभ्यः || उपसजेनहस्थत्वे च| किम्‌ । बहिर ्गलक्षणस्वास्िद- 20 
मित्येव | बहिर ङ्घ एते विधयः | अन्तर ङ्ग हस्वस्वम्‌ | असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे ॥ 
गीटाङ्हणं कुन्निवृच्यथंम्‌ ।। २.॥ 
गोटाङ्णं कतेव्यम्‌ । किमिदं यञ्वति । प्रत्याहारमरहणम्‌ | क संनिविष्टानां 
भत्याहारः | टापः प्रभृत्या प्यडो ऊकारात्‌। । कं प्रयोजनम्‌ । कृतिषु स्ययेम्‌ | 


@ ६.९. ९०६; ०.६. ९०३; ९०३. ` ` + ४.९. ४.७८. 


२२४ ॥ व्यौ करणमहाभाव्वम्‌ ॥  [मम९.२््श 


कृस्लिया धातुखियाश्च हस्त्रतत्रं मा भूदिति | अतितन्त्रीः अतिश्रीः अतिठक्ष्मीरिति"॥ 
तत्त वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | खी ग्रहणं स्वर्यते तत्र स्वरितेनाधिकार गतिर्भवति, | 
ज्ञियाम्‌ |४.९. ३ | इत्येवं कृत्य ये विहितास्तेषां महणं विज्ञास्यते । स्वरितेनाधि- 
कार गतिभेवतीति न दोषो भवति || यद्येवं प्रत्ययम्रहणमिदं भवति तत्र प्रत्ययग्रहणे 

यस्मात्स तदादेभैहणं भवतीवीह न प्रभोति | अतिराजक्‌मारिः भतिसेनानीकुमरि- 
रिति | अलीप्रत्ययेनेत्येवं तत्‌ || 


देयसो बहुव्रीहौ ववद्षनम्‌ ॥ २ ॥ 
हेयसो बहत्रीरौ पुंवद्भावो वक्तव्यः| बह्यः यस्व ऽस्य बहुश्रेयसी । विद्यमा- 
नभ्रेयसी ॥ | 
10 . प्रूवैपदस्य च प्रतिषेधो गोसमासनिवृच्थथेम्‌ ॥ ४ || 


पृेपदस्य च भरतिषेधो वक्तव्यः| किं प्रयोजनम्‌ | मो समासनिवृन््यथेम्‌ | गोनिवृत्त्व- 
थे समासनिवृ स्यथ च || गोमिवृत््यथे तायत्‌ | गोकुलम्‌ गोक्षीरम्‌ गोपालक इति|| 
समासनिवृर्वथेम्‌ | राजकरुमारीपुत्रः सेनानीकुमारीपुत्र इति | किमुच्यते समास- 
निवृ स्यथोमिति न पुनरसमासाऽपि किंचि्पुवेपदं यदर्थः प्रतिषेधः स्यात्‌ । ख्यन्तस्व 
15 प्रातिपरिकस्योपस जनस्य ह्मो भवती व्युख्यते न बान्तरेण समासं क्यन्तं प्रातिपदि- 
कमुपरसजजनमस्ि | ननु चेदमस्ति । खट्रापादः मालापाद इति | एकदे कृते भ्नता- 
दिवद्धावास्माभोति । उभयत भश्रये नान्तादिवत्‌ ॥ 
मोनिवृयर्थेन तावच्नाथः । गोऽन्तस्यर प्रातिपदिकस्योपसजेनस्व (स्वो भवती- 
त्युष्यते न धेतद्गोऽन्तम्‌ | ननु चैतदपि व्यपदोशिवद्धावेन गोऽन्तम्‌ | व्यपदेशेवद्धा- 
20 बोऽप्रातिपदिकेन || तमातनिवृस्यर्थन चापि नार्थः | स्व्यन्तस्य प्रातिपदिकस्योपसजैनस्य 
हस्यो भवतीरयुच्यते भधान मुपसजेनमिति च संबन्धिद्याम्दायेती | तत्र संबन्धादेतह- 
न्त्यं य॑ प्रतिं यदप्रधानं तस्य चेस्सो ऽन्तो भवतीति | अबवदयं चैतदेवं विज्ञेयम्‌ | 
उच्यमाने ऽपि हि प्रतिषेध इह प्रसज्येत | परश्च कुमायः भरिया भस्य पश्बकुमारी- 
भरिवः | दहाक्मारीप्रिय इति ॥ | 


| कपि च ॥ ९ ॥ 
% कपि थ प्रतिषेधो वक्तव्यः | बहुकुमारीकः बहवुषलीकः† || ` 


# ९.३.६१५. † ५.४, १५३. 


प्० १.२.४९. | ॥ व्थाखटगव्रहाभाष्वत्र ॥ ११९ 


|  इन्देव॥६॥ 
बन्दे च प्रतिषेधो वक्तव्यः | कुकषुटमयूरयी ॥ ` 


उक्तं वा ॥ ७ ॥ 

किभुक्तम्‌ | कपि तवदुक्तं न कपि [७.४.१४] इति प्रतिषेध इति । तैतद- 
सुक्तम्‌ । केऽणः [७.४.९२ | इति या ह्वप्राप्निस्तस्याः प्रतिषेधः | कुत एतत्‌ । $ 
अनन्तरस्य विधिवौ भवति प्रतिषेधो वेति | भवदयं तदेवं विज्ञेयम्‌ | यो हि मन्यते 
या च यावती च हृस्वप्रात्निस्तस्याः * सवैस्याः प्रतिषेध इतीहापि तस्य प्रतिषेषः प्रस- 
ज्येत | प्रियं म्रामणि" ब्राह्मणकुमस्य प्रियमामणिकः | प्रियसेनानिकः || इदं तद्य 
क्तम्‌ | कपि कृते ऽनन्त्यस्वा द्रस्वत्व॑ न भविष्यति | हदमिह संपधार्येम्‌। कच्कि- 
यतां हृस्वसमिति किमन्र कर्तव्यम्‌ । परत्वात्कप्‌ | अन्तरङ्गं हस्वत्वम्‌ | भन्तर- 10 
क्गवरः कप्‌ । ननु चायं कम्तंमासान्त ह्युच्यते | तादथ्यो साच्छभ्धं भविष्यति | 
वेषां पदानां समासो न तावत्तेष(मन्यद्धवति कपं वावलवीक्षते || इन्दे ऽप्यु्तम्‌ | 
किमुक्तम्‌ | परवचिङ्गमिति हाम्द शष्शाथोविति। । नेतरौ षदेशिकस्य हैस्वस्भमातिदे- 
शिकस्य श्रवणं भविष्यति ॥ 





लृक्तडितलकरि । ९ । २। ९. ॥। 15 


तदितदुक्यवन्त्यादीनां प्रतिषेधः ॥ ५ ॥ ` 
तद्धितलुक्यवन्त्यादीनां प्रतिषेषो वक्तव्यः | अवन्ती कुन्ती कुरूः‡ || 
तदधितद्ुक्यवन्स्यादीनामपतिषेधो ऽलुक्यरंस्वात्‌ ॥ > ॥ 

तदितलुक्यवन्त्यादीनामगप्रतिषेषः । अनर्थकः: प्रतिषेधो ऽप्रतिषेधः । लुक्स्मात् 
भवति | अलुक्परस्वात्‌ | दु कीदयुष्यते न चात्र लुकं पयामः ॥ लुकीति वैष] 20 
परसप्रमी शक्या विक्षातुं न हि लका पौवोपर्यमस्ति | का तरि । सस्सप्रमी | 
लुकि सतीति । सस्सप्रमी चेत्पाभोति ॥ एवं तर्हीदमिह व्यपदेदवं सदाचार्यो न 
भ्यपदिदाति । किम्‌ । उपस जेनप्येति क्तैते9 । न च जातिरपलजेनम्‌ ||. 


ॐ ९.२, ४९, †द.४.२५१, ४.९. ९५६; ९०२; १७६; ६९; ६६. $ ९.२. ४८. 
29 नवि 


२६ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥  [म०.२१. 


दूदरोण्याः ॥ १ ।२।५९५०॥ 


इततोण्या नेति वक्तव्यम्‌ 
गोण्या नेर्येव सिंडम्‌ | नार्थं इवेन || का रूपसिद्धिः | प्चगोणिः दश्यगोणिः.| 
स्वता हि विषीयते । 


5 हस्वत्वमनत्र विधीयते गोल्ियोरूपजेनस्य ९.२.४८ | इति ॥ 
इति वा वचने तावत्‌ 
इदिति बोध्येत नेति वा को न्वत्र विशेषः ॥ 
मार्थं वा कृतं भवेत्‌ ॥ \॥ 
. अथवा मान्राथमिदं वक्तव्यम्‌ । गोणीमात्रमिदं गोगिः! ॥ 
10 अपर आक | 
गोण्या इं प्रकरणात्‌ 
अशिष्यं गोण्या इवम्‌ | किं कारणम्‌ | प्रकरणात्‌ | प्रकृतं हस्वत्वम्‌ | हस्व 
इति वतेतेः,|| ननु खच्याः | 
सूुच्याद्यथमथापि वा॥ 
15 स्ूव्याश्यथेमिदं अष्टव्यम्‌ | पश्चसुचिः दङ्रास्‌चिः | 
 श्दोण्या नेति वक्तव्यं शूस्वता हि विधीयते । 


हति वा वचने तावन्पा्ाथं वा कुतं भवेत्‌ ॥ ९ ॥ 
गोण्या शत्वं प्रकरणात्सुष्यादयर्थमथापि वा ॥ 


लुपि युक्तवदूधक्तिवचने ॥ १. ।२। ५१ ॥ 


20 ष्यक्तिवचने इति किमर्थम्‌ । शिरीषाणामदूरभवो भामः शिरीषाः$ | तख 
भामस्य वनं शिरीषवनम्‌ | किं च स्यात्‌ | विभावषौषधिवनस्पतिभ्यः [८.४.६। 
श्ति णत्वं प्रसज्येत | 
“ अपर आह | कटुबदयौ अदूरभवो भामः कटुबदरी । षष्ठी युक्तवद्धविन भा 
भूरिति || अथ व्यक्तिवचने हत्यप्युच्यमाने कस्मादेवात्र न॒ भवति षष्ठचचपि हि 


# ५.९, ३७; २.८. † ५.२. २७४. { ९.२. ४७. § ४.२. ०; ८२. 


पा ९.२.५० -५९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ ॥ ९७ 


वचनम्‌ । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य म्रहणम्‌ । किं तर्द | अन्वथेमहणम्‌ । 
उच्यते वचनमिति | एवमपि षक्षी प्रामोति षष्ठ यपि द्युच्यते | लुपक्तत्वा्स्या- 
थस्य हितीयस्य प्रयोगेण न भवितव्यमृक्ताथौनामप्रयोग इति | आतिदेशिकी तर्हि 
भराभोति | एवं तर्हि 
प्रागपि व॒त्तेर्युक्त वृत्तं चापीह यावता युक्तम्‌। 
वक्तुश्च कामचारः प्राण्वत्तेरिङ्गसंख्ये ये ॥ 
प्रागपि वृत्तगुक्तं वनस्पतिमिर्नगर वृत्तं चापि युक्तं वनस्पतिमि्नेगरम्‌ । वृत्ते च 
युक्तवद्भावो विधीयते | कामचार प्रयोक्तुः प्राग्वृततर्यै किङ्गसंख्ये ते अतिदेषं 
वृत्तस्य वा ये लिङ्गसंख्ये ते | यावता कामचारो वृत्तस्य ये लिङ्गसंख्ये ते अति- 
देद्येते न प्राग्वृत्तेर्ये | 10 
किमर्थं पुनरिदमुच्यते | 


अन्यत्राभिधेयव्यक्तिवचनभावष्कुपि युक्त वदनुदेदाः ॥ ९ ॥ 
अन्यज्राभिपेयवदि ङ्गव चनानि भवन्ति | कन्यत्र | लुकि । ठवणः कूपः | 
तवणा यवागूः | लवणं शाकमिति" | अन्यत्राभिपेयवव्यक्तिवचनानि भवन्ति 
ठुकि। इहाप्यभिषेयवद्धिङ्ख चनानि पराम ्रन्ति | इष्यन्ते चामिधानवस्स्युरिति तच्चा- 15 
न्तरेग॒ यलं न सिध्यतीति लुपि युक्तत्रदनुदेशः | एवमयमिदमुच्यते ॥ भसि 
प्रयोजनमेतत्‌ । किं तर्हीति | 
लुपो ऽददौनसंन्ञित्वाद्थगतिननोपपद्यते ॥ २॥ 
लुज्ञामेयमदरेनस्य संज्ञा क्रियते न चादशहोनस्य लिङ्गसंख्ये शक्येते अतिदे- 
टुम्‌ । ल्पो ऽदरोनसं्ञित्वादथेगतिर्नोपपद्यते ॥ 
न वादरौनस्यादाक्यत्वादर्थगतिः साहचर्यात्‌ ॥ ३ ॥ 
न वैष दोषः | किं कारणम्‌ । अदशेनस्याशक्यत्वात्‌ | अद दैन्य लिङ्गसंख्ये 
अशक्ये अतिरेषूमिति कृत्वादशौनसह चरितो योऽर्थस्तस्य गतिभविष्याति साह चर्यात्‌ || 


20 


यो गाभावाचन्यस्य ॥ ४॥ 
अदरानेन च योगो नास्तीति कृतत्रादरौनसड बरितो योऽथैस्तस्यं गतिर्मविष्याति 25 
साह चयोत्‌ ॥ 


~ -~~ == ~ ~ -~-~-----~- 


# ४.४. २२; २४. † ९.१. ६९. 





१ ॥ व्याकरनगपहामाच्छयम्‌ ॥ [सिर ९.२. 


समास उत्तरपदस्य बहूक्वनस्य लुपः ॥ ९ ॥ 
समास उ्लरपदस्य बहुवचनस्य लुपो युक्तवद्भावो वक्तव्यः | मधुरापश्चालाः' | 
कि प्रयोजनम्‌ । नियमार्थम्‌ । समास उत्तर पदस्यैव | क मा मृत्‌ | पचचालमधुरे इति ॥ 


विरोषणानां चाज्ञातेः ॥ ९. । २।५२ ॥ 


$ कथमिदं बिङ्खायते | जातियैदिरोषणमिति | आोस्विज्जतियानि विशेषणा- 
नीति | फं चातः | यदि विश्चायते जातियैदिदोषणमिति समिद्धं पश्चाला जनपद 
इति छमिक्षः संपच्चपानीयो बहुमाल्यफल इति न सिध्यति । अथ विज्ञायते जते- 
यानि विक्ोषणानीति सिद्धं छभिक्षः संपच्तपानीयो बहुमाल्यफल इति पञ्चोला 
जनपद इति न सिध्यति || एवं तर्द नैवं विज्ञायते जातिरयहि शेषणमिति नापि जतिय- 
10 नि विदहोषणानीति | कथं तार्हि | त्रि्ोषणानां युक्तवद्भावो भवत्या जातिप्रयोगान्‌ | 
किमथे पुनरिदमुच्यते | 


विद्रीषणानां वचनं जातिनिव्रच्यर्थम्‌ ॥ ९॥ 


जातिनिवुृश्यर्थोऽवमारम्भः ॥ कि मुष्यते जातिनिवृत्यये हति न पुनर्विेषणा- 
नामपि युक्तवद्भावो यथा स्यादिति | 


15 समानाधिकरणत्वात्सिद्धम्‌ ॥ २ ॥ 


समानाधिकरणस्त्राहिशेषणानां युक्तवद्भावो भवष्यति || ययेवं नार्थो जेन। 

लुपो ऽन्यत्रापि जातिवुक्तवद्धाभो न भवति | कान्यत्र | बदरी खदेमकण्टका मधुरा 

युषे हति । किं पुनः कारणमन्यत्र(पि जातेयं क्तश्रद्धानो न भवति । आविष्ठलिङ्क 

जातियेधिङ्गमुषादाय प्रवतैत उत्पन्तिप्रभुत्या विनाशा तदिङ्गं जहाति || न वर्ह 

20 दानीमयं योगा वक्तव्यः | वक्तव्य | किं प्रयोजनम्‌ । इदं तत्र तत्रोच्यते गुभ- 
ववनानां शब्दानामाभ्रयतो लिङ्गवचमानि भवन्तीति | तदनेन क्रियते || ` 


हरतक्यादिषु व्यक्तिः | ३॥ 


इरीतक्यादिषु भ्यक्तिभैवति युक्तवद्धाकेन | हरीतक्याः फलानि हरीतक्यः 
फलानि || । 





* ५.२. ८१. ` त ४.३. १४०; ९६५. 





पीर ६.२.५२३-५८.| ॥ व्थाकरण्ररोपष्ष्यम्‌ ॥ ९१९ 


` खलतिकादिषु वचनम्‌ ॥ % ॥ 
खलतिकादिषु वचनं भवति युक्तवद्भावेन | खकतिकस्य पवेतस्यादुरभवानि 
वनानि खलतिकै" वनानि || 
मनुष्यदुपि प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
मनुष्यलुपि प्रतिषे वक्तंश्यः | च्चामिरूपः | वभिका ददहीनीयः† | $ 


तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणलात्‌ ॥ १. । २।५३.॥ 


किं या एताः हत्रिमाष्टिषुषभादिसंज्ञास्तसामाण्यादशिष्यम्‌ | नेत्याह | संज्ञानं 
संज्ञा || 


नायाख्यायामेकस्मन्बहुवचनमन्यतरस्याम्‌ ॥ १।२।५८ ॥ 


इदमयुक्तं यतेते | केमत्रायुक्तम्‌ । बहवस्तेऽथौस्तत्र युक्तं . बहुवचनम्‌ | तद्यदे- 10 
कवचने श्यातितव्ये बहुवचनं शिष्यत एतदयुक्तम्‌ । बहुभ्वेकवचनमिति नाम वक्त- 
ष्यम्‌ || अत उन्तरं पठति | 

जात्याख्यायां सामान्याभिधानादेकार्थ्यम्‌ ॥ ९ ॥ 

जात्याख्यायां सामान्याभिधानारैकार्थ्यं भविष्यति | यन्तद्कि व्रीहित्वं यते यवस्वं 
` ाग्वे गाग्यत्वं तदेकं त्च विवक्षितम्‌ | तस्थैकस्वादेकव चनमेव प्रामोति । इष्यते च 15 
बहुवचनं स्यादिति तञ्चान्तरेग यलं न सिध्यतीति जात्याख्यायामेकस्मिन्बहुवचनम्‌ | 
एवमथेभिदमुध्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ । किं तर्हीति | 

तत्रैकवयनादेदा उक्तम्‌ || २॥ | 
किमुक्तम्‌ | त्रीदिभ्य भगत इत्यत्र वति [७.३.९९९] इति गुणः भामो - 
तीति‡ || नैष दोषः | 20 
 अथौतिदेशास्सिदधम्‌ ॥ ३.॥ 
अथौतिरेशोऽयम्‌ । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य ब्रहणम्‌ । किं तरि | अन्वर्थ- 


= ४,२. ७०; ८२, † ५.३. ९७; ९८.  ‡ ९.९. ५६. 








९५३० ॥ व्याकरणमरहामाष्यम्‌ ॥ ` [बण ९,२.३. 


ग्रहणम्‌ | उच्यते वचनम्‌ | बहूनामथानां वचनं बहुव चनामिति | यावद्भूयादेकोऽ्या 
बहुवद्भवतीति तावदे कस्मिन्वहु वचनमिति ॥ 


संख्याप्रयोगे प्रतिषेधः ।। ४ || 
संख्याप्रयोगे प्रतिषेधो वक्तव्यः | एको व्रीहिः संपन्नः खमिक्तं करोति ॥ 


$ ` ` अस्मदो नामयुवप्रत्यययोश्च ॥ ५ ॥ 
अस्मदो नामप्रयोगे युवमप्रत्ययप्रयोगे च प्रतिभेषो वक्तव्यः || नामप्रयोगे | भहं 
देवदत्तो ब्रवीमि । भहं यज्ञदत्तो ब्रवीमि ॥ युवप्रत्ययप्रयोगे | अहं  गाग्यौयणो 
ब्रवीमि । अहं वात्स्यायनो ब्रवीमि ॥ युव्रहणेन नाथैः | अस्मदो नामप्रत्यय- 
प्रयोगे नेत्येव | हदमपि सिद्धं भवति | भहं गार्ग्यो ्रवीमि । अहं वात्स्यो ब्रवीमि | 
10 भपर आह | अस्मदः सविशेषणस्य प्रयोगे नेत्येव } इदमपि सिद्धं भवति । 
अहं पटुत्रैवीमि । अहं पण्डितो ब्रवीमि ॥ 


अरिष्यं वा बहूवत्पृथक्काभिधानात्‌ | & ॥ 
अशिष्यो वा बहुवद्धावः | किं कारणम्‌ | परथत्कतामिषानात्‌ । पथश्छेन दि 
द्रव्याण्यभिधीयन्ते | बहवस्तेऽर्थास्तत्र युक्तं बहुवचनम्‌ | किमुच्यते परथच्काभि- 
15 धानादिति यावतेदानीमेवोक्तं जाव्याख्यायां सामान्याभिधानादैकार्थ्यमिति । 


जातिरराम्देन हि दव्याभिधानम्‌ ॥ ७ ॥ 
जातिराब्देन हि द्र्यमप्यमिषीयते. जातिरपि । कथं पुनर्ञायते जातिराब्दे 
द्रव्यमप्यभिधीयत इति | एवं हि कथिन्महति गोमण्डले गोपालकमासीनं एच्छति | 
अस्त्यत्र कांिदवां पदयसीति | स परयति परयति चायं गाः प्रच्छति च कांवि- 
20 दत्र गां पदयसीति नूनमस्य द्रभ्यं विवक्षितमिति । तद्यदा द्रव्यामिधानं तदा बहु- 
वचनं भविष्यति यदा सामान्याभिधानं तंदैकवचनं भविष्यति ॥ 


| अस्मदो दयोश्च ॥ ९. । २।५९.॥ 


अयमपि योगः शाश्योऽवक्तम्‌ | कथम्‌ अहं ब्रवीमि आवां त्रूवः बयं ब्रूमः | 
इमानीन्द्रियाणि कदाचि्स्वातन्त्येण विवक्षितानि भवन्ति । तद्यथा | हृदं मे अकि 
5 छु प्रयति | भयं ने कणेः इषु शृणोतीति । कदाचित्पारतन्श्येण । अनेनाषेणा इष्ट 





श १.२,५९-६३, | ॥ ध्याकरणयमरहाभाष्यय्‌ ॥ ०३९ 


कटयामि | अनेन कर्णेन इक्षु मृणोमीति । तद्यदा स्वातन्व्येण विवन्ता तदा बहुव- 
्रनं भविष्यति यदा पारतन्ध्येण तरैकवचनदिव चने भविष्यतः || 


फल्गुनी परोष्ठपदानां च नक्षत्रे ॥ १. । २।६० ॥ 
अयमपि योगः शक्योऽवक्तुम्‌ | कथम्‌ उदिते पूर्वे फल्गुन्यौ उदिताः पवः 
फल्गुन्यः उदिते पूर्वै प्रोष्ठपदे उदिताः पुवः प्रोष्ठपदाः । फन्गुनीसमीपगते .चन्द्र- ¢ 
मसि फल्गुनीश्म्दो वतेते | बहवस्तेऽथौस्तत्र युक्तं बहुवचनम्‌ | यदा तयोरेषाभि- 
धानं तदा हिषचनं भविष्यति | 


छन्दसि पुनवेस्वोरे कवचनम्‌ ॥ ९. । २।६१. ॥ 
विशाखयोश्च ॥ १. ।२।६२ ॥ 


हमावपि योगौ शचक्षयाववक्तुम्‌ । कथम्‌ । 10 
पुनवसुविशाखयोः सुपां सुटुक्पूर्वंसवणति सिद्धम्‌ ॥ ९ ॥ 
पुनर्व॑द्विश्ाखयोः षां खलुक्पुवसवणे [७.९.३९] इत्येव सिडम्‌ || 


तिष्यपुनवेस्वोनेक्षत्रदनदरे बहुवचनस्य द्विवचनं नित्यम्‌।॥१।२।६३॥ 


तिष्यपुनवेस्वोरिति किमथम्‌ । कृत्तिकारोदहिण्यः || नक्षत्र हति कमथम्‌ । तिष्य 
माणवकः पुनर्वसर च माणवकौ" तिष्यपुनवैसवः || भथ नक्षत्र हति वर्तमाने पुन- 15 
नक्षत्रयहणं किमथम्‌ | भयं तिष्यपुनवेखदाब्दोऽस्त्येव ज्योतिषि वतेते | स्ति च 
कालवाची | तद्यथा | बहवस्तिष्यपुनवेसवोऽतिक्रान्ताः | कतरेण तिष्येण गत इति| 
त्यो ज्योतिषि यतेते तस्येदं हणम्‌ || अथवा नक्षत्र इति वतमाने पुननैक्षत्रमह- 
णस्यैतल्मयोजनं विदेशस्थमपि तिष्यपुनर्वस्वोः कायै तदपि.नह्क्नस्वैव यथा स्यात्‌ ] ` 
तिष्यपुष्ययोर्मक्षत्राणि यलोपो वक्तव्य हति नक्षत्र ्रहणं न कर्तव्य भवति || अथवा 20 
नक्षत्र इति वतमाने पुननेक्षत्रम्रशट्णस्थैतखयोजनं तिष्यपुनवैद्धपयायवाचिनामपि यथा 


> ४.२.२३; ४; ४.२. ९६; २४. ¶ ९.२, ४०, 4 ६.४. ९४९, 








२३९ ॥ न्याकरणमहाभाष्यम ॥  [म०१.२.१. 


स्यात्‌ } पुष्यपुनर्वद सिध्यपुनवैङ | अथ इन्द इति किमर्थम्‌ । यस्तिष्यस्तौ पुन- 
वख येषां त हमे तिष्यपुनर्वसव उन्मुग्धाः | बहुवचनस्येति किमथैम्‌ | उदितं तिप्व- 
पुनवेद्ध । कथं चात्रैकवचनम्‌ | जातिन््र एकवद्धवतीति | अप्राणिनामिति प्रतिषेषः 
धामोतिः | एवं तर्हि सिद्धे सति यद्रहुवचनभरहणं करोति तञक्ञापयत्याचायेः सर्वो 
६ इन्दो विभाषैकवद्भवतीति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ | त्राभ्रवश्लालद्कयनम्‌ 
बाश्रवदालङ्कयना .इत्येतस्सिद्धं भवति ॥ अथवा नात्रभवन्तः पराणिनः प्राणा एवा- 
भवन्तः | 
इति ओरभगवत्पतञ्जञकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य दहितीवे 
पादे डितीयमाद्धिकम्‌ ॥ 


# २.४.६९. 





फर १.२.६४. | ॥ व्याकरण पहाभाष्यम्‌ ॥ २३३ 


सरूपाणामेकरोष एकविभक्तौ ॥ १।२।६४७॥ 


` सूपरहणं किमर्थम्‌ | समानानामेकदोष एकविभक्तावितीयस्युच्यमाने यत्रैव 
स्व समानं दाब्दोऽथेथ तत्रैव स्यात्‌ | वृक्षाः क्षा इति । इह न स्यात्‌ । भक्षाः 
पादः माषा इति | रूपमहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | रूपं निमित्तते- 
नाश्रीयते मरुतौ च रूपय्रहणम्‌ ॥ अयेकमरहणं किमथेम्‌ | सरूपाणां शेष एकवि- 5 
भक्तावितीयद्युच्यमाने क्िबह्मोरपि रोषः प्रसज्येत | एकम्रहणे पुनः क्रियमणि न 
दोषो भवति ॥| अथ रोषम्रहणं किमर्थम्‌ । सरूपाणामेक एकविभक्तत्रितीयत्युच्य- 
मान आदेश्योऽयं विज्ञायेन | तत्र को दोषः | अश्थाश्वश्च अश्री | आन्तर्यतो द्युदा - 
लवतः स्थानिनो ब्युदात्तवानादेशः प्रसज्येत | लोप्यलोपिता च न प्रकल्पेत | तत्र 
को दोषः | गगौः वत्साः | विदाः उग्रः. | अञ्यो बहुषु यञ्यो बहुष्वित्युच्यमानो 10 
तुप्र प्रामरोति" । मा भुरेवम्‌ | अयन्त यद्रहुषु यजन्तं यद्हुविितस्येषं भविष्यति | नैवं 
दायम्‌ । इह हि दोषः स्यात्‌ । कादयपप्रतिकृतयः कादयपा इति† || एकविभ- 
ताविति किंमथम्‌ | पयः पयो जरयति | वासो वासम्ढादयति | ब्राह्मणाभ्यां 
च कृतं ब्राह्मणाभ्यां च देहीति ॥ 
किमर्थे पुनरिदमुच्यते | 18 


प्रत्ययं शाव्दनिवेरान्नेकेनानेकस्याभिधानम्‌ ॥ ९॥ 

पर्ययं शाष्दा अभिनिविशन्ते | किमिदं प्रत्यथमिति | अथेमथे प्रति प्रत्यर्थम्‌ | 
प्रत्यथै शब्दनि शादेतस्मात्कारगल्निकेन राग्देननेकस्याथस्याभिधानं प्राति | 
तत्र कोदैःषः | 

तत्रानेका्थाभिधनि अनेकरान्दत्वम्‌ || > ॥ 20 

तत्रानेक्राथ।भिधने जेकश्चष्यसं प्राप्रोति । इष्यते चैकेनाप्यनेकस्यामि पानं 

स्यादिति तचान्तरेण यलं न सिध्यति | 
तस्मादेकशेषः || २॥ 


एवमथेमिदमुच्यते || भसति प्रयोजनमेतत्‌ | किं तर्हीति | किमिदं प्रत्यर्थं 
शाष्दा अभिनिविशन्त इत्येतं दृष्टान्तमास्थाय सरूपाणामेकशेष भारभ्यते न पुनर- 2 





#* २, ४. ६४. † ४.९, १०४) ५. ३. ०.६; ९९. 
30 ध 


२३४ ॥ व्याकरणयरहाधाष्य ॥ | भ० ९.२.३.. 


परत्यथे शाम्दा अभिनिविश्चन्त इत्येतं दृषशटन्तमास्थाय विरूपाणमनेकदोष आरभ्यते | 
तत्रैतस्स्याह्वधीयसी सरूपनिवृत्तिगरीयस्षी विरूपप्रतिपत्तिरिति | तच्च न | ठधीयसी 
विरूपप्रतिपत्तिः । किं करणम्‌ | यत्र हि बहूनां सूपाणामेकः रिष्यते. तत्रावरतो 
इयोः ससूपयोर्मिवुत्तितरेक्तव्या स्यात्‌ | एवमप्येतस्मिन्सति किंचिदा चायः इकर- 
5 तरकं मन्यते छकरतर कं चैक शोषारम्भं मन्यते ॥ 
किं पुनरयमेकविभक्तावेकरोषो भषति । एवं भवितुमहैति | 


एकविभक्ताविति चेन्नाभावाद्विभक्तेः ॥ ४॥। 
एकविभक्ताविति चेत्तत्र | किं कारणम्‌ | अभावाद्िभक्तेः | न हि सम॒दाया- 
त्परा विभक्तिरस्ति । किं कारणम्‌ | अप्रातिपदिकस्तरात्‌ | ननु चार्थं बतभातिपदिक- 
10 मिति” प्रातिपदिकसंज्ञा भविष्यति | नियमान्न प्रामोति | अर्थघरत्समुदायानां समा- 
सग्रहणं नियमायेमिति। || 


यदि पुनः एथक्सर्वेषां विभक्तिपराणामेकशेष उच्येत | 


परयक्सर्वैषामिति चेदेकरोषे पथग्विभक्तयुपरुभ्धिस्तदाश्रयस्वात्‌ ॥ «९ ॥। 
पथक्सर्वेषामिति चेदेकदोषे एरथग्विभक्त्युपलम्धिः भरामरोति | किमुच्यत एक- 
15 शोषे प्रथग्विभक्युपलग्पिरिति यावता समयः कृतो न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या 
न केवलः प्रत्यय इति । तदान्रयत्वा्मामोति । यत्र हि प्रकृतिनिमित्ता प्रत्ययनि- 
वृ्तिस्तत्राप्स्ययिकायाः प्रकृतेः प्रयोगो भवति । अभिचित्‌ सोमखरिति यथा । 
यत्र च प्रत्ययनिमित्ता प्रकृतिनिवृत्तिस्तत्राप्रकृतिकस्य प्रत्ययस्य प्रयोगो भवति । 
अधुना हयानिति यथा$ | भस्तु | संयोगान्तरोपेन सिद्धम्‌¶ | कुतो नु खस्त्रेत- 
20 परयो वृक्षशब्दो मिवृत्तिभेविष्यति न पुनः पूर्वयोरिति | तत्रैतस्स्यास्पूर्वैनिवु तातपि 
सत्यां संयोगादिकलेषेन तसिद्धमिति** | न सिभ्यति । तज्रात्ररतो इयोः सकारयोः 
अव्रणं प्रसज्येत | यत्र च संयोगान्तलोपो नास्ति तत्र चन सिध्यति | क च 
संयोगान्तलोपो नास्ति | द्विवचनवहुवचनयोः | 
यदि पुनः समास एकदोष उच्येत । किं कृतं भव्ति | कथिह चनलोपः परि- 
४ हतो भवति | तत्तर्हि समासमरहणं कतेव्यम्‌ | न कर्तव्यम्‌ | प्रकृतमनुवतेते | क 
प्रकृतम्‌ | तिष्यपुनवैस्वोनक्षत्रहन्डे बहुवचनस्य द्विव चनं नित्यम्‌ [९.२.६२] इति ॥ 


~ --~ ~ ---~---~---~-- 








9 ९.२, ४५. 1 १. २. ४५. ‡ ६. ९. ६८. $ ५.३.९०; द; ६. ४. ९४८.-- ९.२.४० 
६. २. ९०; ६. ४.१४८. थ्‌ ८. २. २२. *# ८,२.२९. 


पा० ९.२.६४. | ॥ व्याकरनमहामिच्यय्‌ ॥ २३५ 


समास इति वेत्स्वरसमासान्तेषु दोषः ॥ & ॥ 
समास इति चेत्स्वरसमासान्तेषु दोषो भवति । स्वर | भश्थाश्वश्च भो | 
तमासान्तोदात्तस्वे* कृत एक शोषः प्र परोति । इदमिह संप्रधार्यम्‌ | समासान्तोदा- 
तत्वं क्रियतामेकशोष इति किमत्र ककेव्यम्‌ | परत्वात्सृमासान्तोदात्तत्वम्‌ | समा- 
सान्तोदा्तत्वे च दोषो भवति | स्वर || समासान्त । क्कु शकु कचौ । समा- 
वान्ते कृतेऽसारूप्यादेक रोषो न प्राति | इदमिह संमधार्यम्‌। समासान्तः कक्रियता- 
मेकोष इति किमत्र कतेव्यम्‌ | परस्वात्समासान्तः । समासान्ते च दोषो भवति || 


अद्गाश्रये चेकरोषवचनम्‌ ॥ ७ ॥ 
भद्गाश्रये च कायं एकशेषो वक्तव्यः | स्वसा च स्वसारौ च स्वसारः | 
भङ्गाभ्रये‡ कृते ऽसारूप्यादेकशोषो न ॒प्रामोति । इदमिह संप्रधारयम्‌ । अङ्गान्य ] 
क्रियतामेक दोष इति किमन्न कतेव्यम्‌ | परत्वादङ्गाश्रयम्‌ ॥ ` 
तिङ्कमासे तिङ्मासवचनम्‌ ॥ ८ ॥ 
तिङ्मासे तिङ्मासो वक्तव्यः || एकं ॒तिदुःहणमनर्थेकम्‌ । समासे तिङ्माख 
इत्वेव | नानर्थकम्‌ | तिङ्मासे प्रकृते तिङ्मासो वक्तव्यः || 
तिद्धिधिपरतिषेधश्च ॥ ९॥ 15 
तिङः कथिरिधेयः किखतिषेभ्यः | पचति च पचति च ¶चतः | तशब्दो 
विभेयस्ति्ब्दः प्रतिषेध्यः | 
यदि पनरसमास एकशेष उच्येत | 


असमासे वचनलोपः ॥ १०॥ 
यद्यसमासे वचनलोपो वक्तव्यः | नन्‌ चोत्पततैव वचनलोपं चोरिताः स्मः 1 20 
हिवचनवहूवचनविर्धिं इन्दप्रतिषेषं च व्यति तदथ पन्ोद्ते ॥ 


दविववनव्रहुवचनविधिः ॥ ९९ ॥ 
हिव चनबहु वचनानि विधेयानि । वृक्तिथ वृक्षथ वृक्षौ | वृ्तथ वृक्षच वृक्षश्च 
वृत्ता इति ॥ | 


# ६.१. २२३. † ५.४. ७४. ‡ (२.४. ७९; ६.१. २५.) ७.३.९९० ६.४.९९. 
§ २.१. °२, ग९, 


२३६ ॥ व्याकरण महाभाष्यम्‌ ॥  [म०९.२.३ 
. इन्द्रप्रतिषेधश्च ॥ ९ ॥ 


हन््स्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः । वृक्षथ वृक्ष वृष्तो | वृक्ष वृक्षश्च वृक्ष 
वृक्षा इति । वार्थे इन्दः [२.२.२९] इति इन्दः प्रामोति | नैष दोषः | भनव- 
काह एकरोषो हन्डं वाधिष्यते | सावकाश एकरोषः | कोऽवकाराः | तिड- 
5 न्तान्यवकाडाः ॥ 


यदि पुनः पृथक्सर्वेषां विभक्त्यन्तानामेकदोष उच्येत | किं कृतं भवति | कथि- 
इचनलोपः परितो भवति । 
विभक््यन्तानामेकदोषे 
विभक्तयन्तानामेकदोषे विमक्तयन्तानामेव तु निवृत्तिभेवति । 


10 एकविभक्तयन्तानामिति तु पृथग्विभक्तिम्रतिषेधायम्‌ ।॥ ९३ ॥ 
एकविभक्त्यन्तानामिति तु वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ । पृथग्विभक्तेप्रतिषे- 
धायम्‌ । पृथग्विभक्त्यन्तानां मा भूत्‌ । ब्राह्मणाभ्यां च कृतं ब्राह्मणाभ्यां च देहि ॥ 
न वायथविप्रतिषेधादयुगपद्चनाभावः॥ १४॥ 
न वैष दोषः | किं कारणम्‌ | भथेविप्रतिषेधात्‌ | विभरतिविद्धधेतावर्थौ कतौ 
15 संप्रदानभित्यश्चक्यी युगपिर्दष्टुम्‌ | तयोविप्रातिषिद्धत्वादयुगपदकचनं न भविष्यति | 
अनेका्थाश्रयश्च पुनरेकदोषः ॥ १९ ॥ 
भनेकमथे संप्रत्याययिष्यामीत्येक दोष आरभ्यते । 
तस्मान्नैकदाब्दत्वम्‌ | ९६ ॥ 


तस्मादेक शब्दत्वं न भविष्यति || अयं तर्द दोषः | कथिहृचनरोषो हिवचन- 
20 बहुवचनविधिदन््प्रतिषेधशेति ॥ 


यदि पुनः ` प्रातिपदिकानामेकञ्येष उच्येत | किं कृतं भवति | वचनठोपः 
परितो भवति । 
प्रातिपदिकानामेकरोषे मातृमात्रोः भरतिषेधः स्रूपत्वात्‌ ॥ ९७ ॥ 


प्रातिपदिकानामेकदोषे मातुमात्रोः प्रतिषेधो वक्ष्य | माता च जनयित्री 
25 मातारौ च धान्यस्य मातृमातारः । किं कारणम्‌ । सरूपत्वात्‌ । ससूपाणि देतानि 





पाण ९.२.६४. | ॥ व्याकरणमहामाष्यय्‌ ॥ २३७ 


प्रातिपदिकानि | किमुच्यते प्रातिपदिकानामेकरषे मातुमात्रोः प्रतिषेधो. वक्तव्य 
हति न पुनर्यैस्यापि. विभक्त्यन्तानामेकरोषस्तेनापि मात॒मात्रोः भतिषेधो वक्तव्यः 
स्यात्‌ । तस्यापि लयेतानि क्चिद्िमक्त्यन्तानि सरूपाणि | मातुभ्यां च मातृभ्यां चेति | 
भथ मतमेतद्विभक्त्यन्तानां सारूप्ये भवितव्यमेवैकशेषेणेति प्रातिपदि कानामेधैकरशेषे 
रोषो भवति | एवं च कृत्वा चोदते ॥ .5 


हरितहरिणरयतदयनरोहितरोहिणानां खियामुपसंख्यानम्‌ ॥ *५८ ॥ 
 हरितहरिणदयेतदयेनरोहितरोहिणानां ज्ियामुपसंख्यानं कमैष्यम्‌ | हरितस्य 
त्री हरिणी | हरिणस्यापि हरिणी । हरिणी च हरिणी च हरिण्यी | इयेतस्य ली 
रयेनी | दयेनस्यापि इयेनी । स्येनी च दयेनी च इयेन्यौ | रोहितस्य खी रोहिणी | .. 
रोदिणस्यापि रोहिणी । रोहिणी च रोहिणी च रोहिण्यो || 10 


न वा पदस्यार्थ प्रयोगात्‌ ॥ ५९॥ 

न वैष दोषः | किं कारणम्‌ । पदस्यार्थे ` प्रयोगात्‌ । पदमर्थे प्रयुज्यते विभ- 
त्यन्तं च पदम्‌ | रूपं वेहाभ्रीयते रूपनिर्महथ ` दाष्दस्य नान्तेण दैौकिक॑ प्रयो- 
गम्‌ | तस्मिंथ ठऊौकिके प्रयोगे सरूपाण्येतानि | 

भपर्‌ भह | म वा पदस्यार्थे प्रयोगात्‌ | न वैष प्त एवास्ति प्रातिपदिकानाभेक- 15 
दोष इति | किं कारणम्‌ | पदस्यार्थ प्रयोगात्‌ । पदमर्थं प्रयुज्यते . बिभक्तयन्तं 
च पदम्‌ । रूपं चेहाभ्रीयते रूपनिर्थहथ शाब्दस्य नान्तरेण लोकिकं प्रयोगम्‌ | 
तस्मि री किके प्रयोगे प्रातिपदिकानां प्रयोगो नास्ति || 

थानेन पक्षिणाथेः स्यात्रातिपदिकानामेकशेष इति । वाढमर्थः | किं वक्तव्य 
मेतत्‌ । न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते । एतेनेवाभिहितं सत्रेण सरूपाणामेकशेष 20 
एकविभक्ताविति | कथम्‌ | विभक्तिः सारूप्येणाश्रीयते | अनैमित्तिक एकशोषः। 
एकविभक्तौ यानि सरूपाणि तेषामेकङेषो भवति | क्र | यत्र वा तत्र वेति || 

अथनिन पक्तिणथंः स्यादिभक्त्यन्तानाभेकशेष इति । वाढमर्थः | किं वक्त- 
म्यमेतत्‌ । न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते । एतदप्येतेतरैवाभिदितं त्रेण सरूपा- .. 
णामेकराष एकविभक्ताविति | कथम्‌ | नेदं पारिभाभिक्या विभक्तेमहणम्‌* | ४ 
किं तर्द । अन्वर्थम्रहणम्‌ । विभागो विभक्तिरिति । एकविभागे यानि सरूपाणि 
तेषामेकदोषो भवतीति || ननु चोक्तं कश्िद्रचनलोपो हिवचनबहुवचनविपिरन्धपरति- 


# ९.४. ९०४ 





३८ ॥ व्याकरयद्हाभाष्वय्‌. ५. `  [ मण. 


बेषशेति | तेष दोषः | यत्ताषदुच्यते कथिङ्चनलोपो हिव चनबहुवचनविधिरिति । 
सहविवक्षायामेकरोषः | युगपदिवक्षषायाभेकडोषेण भवितव्यम्‌ | न तर्हीदानीमिदं 
भवति वृक्षच वृक्षथ वृक्षौ वृक्षं वृक्षच वृक्षथ वृक्षा इति | नैतत्सहविवक्षायां 
मवति | अथापि निदर्शयितुं बुद्धिरेवं निददहोयितव्यम्‌ | वृक्षौ च वृक्षी च वृक्षो | 
` 5 वृक्षा वृक्षा वृक्षा वृक्षा इति || यदप्युच्यते इन्द प्रतिषेधश्च वक्तव्य इति | 
नैष . दोषः | .भनवकाडा एकरेषो इन्दं वाधिष्यते | ननु चोक्तं.सावक्यशा.एकशेषः 
कोऽवकाङाः तिङन्तान्यवकाश्च इति | न तिडन्तान्येकदेषारम्भं प्रयोजयन्ति । 
किं कारणम्‌ | यथाजातीयकानां हितीयस्य पदस्य प्रयोगे सामथ्यमस्ति तथाजाती- 
यकानामेकरेषः | न च तिङन्तानां द्वितीयस्य पदस्य भयोगे सामथ्येमस्ति | किं 
10 कारणम्‌ | एका हि श्रिया | एकेनोक्तत्वास्स्यार्थस्य द्वितीयस्य प्रयोगेण न भवित- 
` व्यमुक्ताथोनामप्रयोग इति | यदि तैका किया दिवचनवबहुवचनानि न सिध्यन्ति | 
पचतः पचन्ति | तनैतानि क्रियायेक्षाणि | किं तर्हिं | साधनापेक्षाणि ॥। 
' अथवा पुनरस्त्वेकविमक्ताविति । ननु चोक्तमेकविमक्ताविति चेत्नाभावादिभक्ते- 
रिति । नैष दोषः | परिहतमेतत्‌ ।. अर्थवत्पातिपदिकमिति प्रातिपदिकसंश्ञा भवि- 
15 भ्यतीति । ननु चोक्तं नियमान्न प्रामोति अर्थवत्समुदायानां समासयहणं नियमा्थं- 
? ` मिति । तष दोषः। तुल्यजातीयस्य नियमः | कथ तुल्यजातीवः | यथाजातीयकानां 
खमासः | कथंजातीयकानां समासः | छबन्तानाम्‌ ॥ .. 
। - - स्व॑त्रापत्यादिषूपसंख्यानम्‌ ॥ २० ॥ 
सर्वेषु पक्ेष्वपत्यादिषुपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | भिक्षाणां समृजे भैक्षमिति" || स्व॑ 
20 ब्रेस्युच्यते प्राविपदिकानां वैकरेषे सिद्धम्‌ । भपत्यादिष्वित्युच्यते बहवशापत्या- 
' दयः. | गरथैस्यापत्यंः बहवो ग्मः† | एका प्रकृतिर्हवथ् यञः | असारूप्वादेक- 
देषो. न भामति. ननु च यथैव बहवो यञ एवं प्रकृतयोऽपि बहथ्यः स्युः । वैवं 
शक्यम्‌ । इह हि. दोषः स्यात्‌ | गगोः वत्साः विदाः उवौ इति । भञ्यो बहुषु 
यञ्यो बहुखिद्युच्यमानो लुभ. ामोति.] मा भूदेवम्‌ ।. अयन्त यद्वक्षु यजन्तं यदह 
५5 च्विल्येत्रं भविष्यति |.ननु चोक्तं तेवं ` राक्यमिह . हि दोषः ` स्यास्कादयपप्रतिकृतकः 
` कारयपा इति .| तेष. दोषः. । तौकिकस्य तच्र‡ गोत्रस्य --महणं .न चैतक्षोकिकं 
गोत्रम्‌ ।| अथवा पुनरस्त्वेका प्रकृति्बेह्व ध यञः | ननु चोक्तमसारूप्यादेकदेषो ब 
परामोतीति । 


# ४.२. ३८. † ४,९. ९०५; २.४. ६४. ‡ २.४, ६४. 








फण ९.२.६४. ] ॥ व्याकंरणमहाभाष्यम॥ ` २३९ 


सिद्धं तु समानाथानामेकरोषवचनात्‌ ॥ २९ ॥ ` ॑ 


सिद्धमेतत्‌. | कथम्‌ | समानाथौनामेकरोषो भवतीति व्कव्यम्‌ | यदि लमा- 
नाथौनामेकङोष उच्यते कथमन्ताः पादाः माषा इति | 


नानाभानामपि सरूपाणाम्‌ ॥ २२ ॥ 
नानाथानामपि सरूपाणामेकशेषो वक्तव्यः | 


एकाथीनामपि विरूपाणाम्‌ || २६३ ॥' 
एकाथौनामपि विरूपाणामेकशोषो वक्तव्यः | वक्रदण्डथ कुटिलदण्डथ षक्र 
रण्डौ कुटिलदण्डातिति वा || 


स्वरभिन्नानां यस्योत्तरस्वरविधिः ॥ २४ ॥ 


स्वरभिन्वानां यस्यो तरस्वरविधिस्तस्थैकश्चेषो वक्कव्यः | अक्षथान्षथ अह्ली* | 10 
मीमांसकथ मीमांसकथ मीमांसकौ। | 
इह कस्मान्न मवति | एक्थेक्थद्ौच दौ चेति। 


संख्याया अथौसंप्रस्ययादन्यपदार्थत्वा्ानेकदोषः ॥ २५ ॥ 

संख्याया अथोसंप्रत्ययादेकरोषो न भषिष्यति | न द्येकाविव्यनेनार्थो गम्यते | 
अन्यपदार्थत्वाच संख्याया एक शेषो न भविष्यति | एकथचैकथेत्यस्व शविस्यर्थः | 15 
हौ च दौ चेत्यस्य चत्वार इत्यथः ॥ तैत स्तः परिहारौ । यत्तावदुच्यते संख्या- 
या जथोसंप्रत्ययादिति | अथौसंप्रस्ययेभ्प्येकदोषो भवति | त्था | गार्ग्य गार्या- 
यणञ्च गार्ग्यौ | न चोच्यते वृद्धयुवानाविति भवति चैकशोषः | यरप्युष्यतेऽन्य- 
पदार्थत्वाचेति । भअन्यपदार्थेऽप्येकशोषो भवति } तद्यथा | तिति विद्यति 
विदाती हति | तयोश्वत्वारिंश्चरित्यः || एवं तर्हि नेमौ पूथक्परिदारौ | एक- 0 
परिहारोऽयम्‌ । संख्याया अथोसंपरत्ययादन्यपदायेत्वाचेति । यत्र धथौसंपरस्यय 
एव. वान्यपदायेतैव वा भवति तत्रैकरोषो गार्य विदाती हति यथा || अथवा 
नेम एक दोष शब्दाः | यदे तरिं नेम एकशोषशचम्दाः समुदायशब्दास्तरि भवन्ति | 
तत्र को दोषः † एकवचनं प्रामोति | एकाथ हि समुदाया भवन्ति । तद्यथा | यथम्‌ 
ङातम्‌ वनमिति || सन्तु तरहक शेषशाब्दाः । किकृतं सारूप्यम्‌ । भन्योऽन्यंकृतं 25 


> ३.५. ३; ३.१. १९७, 4 ६.९. ९९२; ६९७, ‡ ९.२. ६९. 


२४० ॥ व्यकिरणमहाभाच्य य ॥  [ मण ९.२२. 


सारूप्यम्‌ । सत्ति -पुनः केचिदन्येऽपि शब्दा येषामन्यो ऽन्यकृतो भावः । सन्ती- 
स्या | तद्यथा | माता पिता भ्रातेति || विषम उपन्यासः | सक्रदेते शाभ्दा प्रवृत्ता 
अपायेष्वपि वतन्ते | इह पुनरोकेनाप्यपाये न भवति चत्वार इति ॥| भन्यदिदा- 
नीमेतदुच्यते सङृदेते दा्दाः प्रवृ त्ता अपयेष्वपि वतेन्त इति | यत्तु भवानस्मांधो- 

दयति सन्ति पुनः केचिदन्ये ऽपि शाब्दा येषामन्योऽन्यकृतो भाय इति तत्रैते ऽस्ना- 
भिरूपन्यस्ताः | तत्रैतद्ध बानाह सक्ृदेते शाब्दाः प्रवृत्ता अपायेभ्वपि वतेन्त इति | 
एतश्च वातम्‌ | 


एकैको नोदयन्तुं भारं शक्रोति यत्कथं तत्र | 
एकैकः कतौ स्यात्सर्वे वा स्युः कथं युक्तम्‌ || 
10 कारणमु्यमनं वेन्नो्च्छति चान्तरेण तत्तुल्यम्‌ | 
तस्मास्पृथक्प्रथक्ते कतरः सम्यपेक्षास्तु ॥ 
प्रथममध्यमेात्तमानमिकराषो ऽसरूपत्वात्‌ ॥ २६ ॥ 
प्रथममध्यमोत्तमानामेक रोषो वक्तव्यः | प्रचति च पचसि च पचथः | पचति 
च पचामि चर पचावः | पचति च पचसि च पचामि च पचामः | किं पुनः कारणं 
15 न सिध्यति. | असरूपरखत्‌ ॥ 
श्चेकार्थत्वात्‌ 
द्विवचनबहुव चनाप्रसिदि ॥ ५७ ॥ 
हिव चनबहुव चनयो धाप्रसिदधिः | किं कारणम्‌ | एकार्थत्वात्‌ | एको ऽय मवशिष्यते 


` तेननेन तदर्थेन भवितव्यम्‌ | किमर्थेन | यदथ एकः | किमथथैकः | एक एका- 
थैः || तेक्यैम्‌ | नायमेकाथेः | क तर्हि | व्यर्थो बहथैथ | 


20 नैका््यभिति चदारम्भानर्थक्यम्‌ ॥ २८ ॥ 
 नैकाभ्यमिति चेदेकशेषारम्भोऽनथेकः स्यात्‌ ॥ इह हि हाभ्दस्य स्वामातरिकी 
वाने का्थत। स्याहाचनिकी वा | तद्यदि तावत्स्वाभाविकीं 
अशिष्य एकरोष एकेनोक्तस्वात्‌ || ९ ॥ 


आशिष्य एक दोषः | किं कारणम्‌ । एकेनो क्तस्वात्तस्याथस्य दिती यस्य प्रयोगेण 

25 न भवितत्यमुक्तथौनामप्रयोग इति || भथ वाचनिकी तदक्तव्यमेकोऽय मवरशिष्यते 
स च व्यर्थो भवति बहथशेति | न वक्तभ्यम्‌ | तिडधमेकदोष इत्येव | कथं पृनरेको 
ऽयमवाशिष्यत इत्यनेन व्यर्थता बहर्थता वा शक्या ठब्धुम्‌ । तश्चैक शेषकृतम्‌ ॥| 


फो० १.२.६४. | ॥ व्थाकरणमहामाष्यमे ॥ २७४९ 


न ह्यन्तरेण तद्वाचिनः शब्दस्य प्रयोगं तस्याथस्य गतिभेवति | परयामश पुनरन्तरे- 
णापि तद्वाचिनः शश्रस्य प्रयोगं तस्यार्थस्य गतिभेवतीति भभिपित्‌ सोमखुदिति 
यथा | ते मन्यामहे क पकृतमेतशेमत्रिन्तरेणापि तद्वापिनः शाब्दस्य प्रयोगं तस्या- 
थ्य गतिम त्रतीति | एत्रमिहाप्येक हो षकृतमेतयेनज्रैकोऽयमव {रिष्यत इत्यनेन द्यथे- 

ता बहथैता वा मव्रति || उच्येत तर्हि न तु गस्येत | यो हि गामश्च इति ब्रूयाद- 5 
भ्रं वा गौरिति न जातुरित्संप्रत्ययः स्यात्‌ || तेननेकार्थाभिधाने यलं कुरवैतावदय 
तोकः पृष्ठतो ऽनुगन्तव्यः | केष्वर्थेषु ठीकिकाः काञ्शब्दान्प्युख्त इति | लो चे- 
कस्मिन्वृक्ष इति भुञ्जते हयोवृक्षाभिति बहुषु वृक्षा इति | यदि तर्द लोकोऽवदयं 
शाष्देषु प्रमाणं किमथेमेकशेष आरभ्यते | अथ किमथे रेप आरभ्यते | प्रत्यय- 
लक्षगमाचायेः प्राथयमानेो लोपमारभत एक शोषारम्भे पुनरस्य न किंपित्रयोजन- 10 
मसि || ननु चोक्तं पभरत्यथे हाब्दनिवरेशान्नेकेनानेकस्याभिधा नमिति | यदि चैकेन 
शाब्देनानेकस्याथेस्याभिधानं स्यान्न प्रत्यये शाब्दनिवेदाः कृतः स्यात्‌ | 


प्रत्यर्थं रान्दनिधेदादेकेननेकस्यराभिधानादप्रत्ययेमिति चेत्तदपि 
परत्यथभेव ॥ ३० ॥ 
रत्य शाब्दनित्रेशादेकेनानेकस्यामिधानःदपत्यर्थमिति वेदे वरमुच्यते | यदष्येके- :: 
नानेकस्याभिधानं भवति तदपि प्रव्यर्थमेव । यदपि द्यथौवर्थौ प्रति तदपि प्रत्यर्थ 
मेव | यदपि द्यर्थानथीन्प्रति तदपि प्रत्यर्थमेव || यावनामभिधानं तावतां प्रयोगो 
न्याय्यः | यावतामथौनामभिषानं भवति तावतां शब्दानां प्रयोग इत्येष पन्नो न्याय्यः | 


यावतामभिधानं तावतां प्रयोगो न्याय्य इति चेदेकैनाप्यनेकस्या- 
भिधानम्‌ ।। ३१५ ॥ | 20 
यावतामभिधानं तावतां प्रयोगो न्याय्य इति चेदेवमुच्यते | एषोऽपि न्याय्य 
एव यदप्येकेनानेकस्यामिधानं भवति || यदि तर्धकेनानेकपस्याभिधानं भवति षक्ष- 
न्यमोषौ एकेना क्तत्वादपरस्य प्रयोगोऽनुपपन्नः । एकेनोक्तसवरात्तस्यार्थस्यापरस्य 
योगेण न मनितव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | उक्तार्थानामप्योग इति । 


एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगो ऽनुपपन्न इति चदनुक्तत्वा््ेण न्यग्रो- 


धस्य न्यग्रोधप्रयोगः || ३२ ॥। 


एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगोऽनुपपन्च इति चेदनुक्तः क्षेण न्यप्रोधाथ इतिक्रला 
31 5 


२९४२ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ ॥ 1 म० ९.२.२३; 


न्यो धङब्दः प्रयुज्यते । कथमनुक्तो यावतेदानीमेवोक्तमेकेनाप्यनेकस्यामिषानं 
भवतीति । सरूपाणामेकेनाप्यनेकस्याभिधानं भवति न॒विरूपाणाम्‌ ॥ किं पुनः 
कारणं सरूपाणामेकेनाप्यनेकस्याभिधानं भवति न पुनर्विरूपाणाम्‌ | 

अभिधानं पुनः स्वाभाविकम्‌ | ३३ ॥। 
$ स्वाभाविकमभिधानम्‌ || 


उभयददांनाच ॥ ३४ ।| 


उभयं खल्वपि दृदयते । विरू्पाणामप्येकेनानेकस्यामिधानं भवति । तद्यथा | 
शवा ह क्षामा | यावा चिदस्मै प्रथिवी नमेते इति । विरूपाणां किक नानेकेनाने- 
कस्यराभिधानं स्यात्कं पुनः सरूपाणाम्‌ || 


10 आकृस्याभिधानद्दिकं विभक्तो वाजप्यायनः ॥ ३५ ॥। 
आक्त्यभिधानादैकं शब्दं विभन्तौ वाजप्यायन नाचार्यो न्याय्यं मन्यते | 
 एकाकृतिः सा चाभिधीयत इति || कथं. पुनज्ञोयत एकाकृतिः सा चाभिधीयत इति। 
प्रस्याविरोषात्‌ । ३६ ॥ 
न हि गैरिस्युक्ते विशेषः प्रख्यायते शुङ्का नीला कपिला कपोतिकेति || यद्यपि 
15 तावत्मख्याविदोषाज्ज्ञायत एकाकृतिरिति कुतस्त्वेतत्साभिधीयत इति । 
अव्यपवगंगतेश्च ॥ ३५७ | 
` भव्यपवर्गैगतेथ्च मन्यामह आकृतिरभिधीयत हति । न हि गौरिव्युक्ते व्यपवर्गो 
गम्यते भुङ्का नीला कषिला कपोतिकति || 
ज्ञायते चेकोपदिषटम्‌ ।। ३८ ॥ 


20 ज्ञायते खल्वप्येकोपरिष्टम्‌ | गौरस्य क दाचिदुपदिष्टो भवति । स तमन्यस्मिन्दे- 
शे ऽन्यस्मिन्काके ऽन्यस्यां च वयोऽवस्थायां दृष्ट जानात्ययं गोरिति || कः पुनरस्य 
विशेषः प्रख्याविशेषादित्यतः । तस्यैषरोपोद्रककमभेतत्‌ । प्रख्यावि शेषाज्ज्ञायते चेको- 
पदिष्टमिति ॥ 


धर्मराखरं च तथा ॥ ३९ | 
४ ` एवं च कृत्वा पमेशालं प्रवृत्तम्‌ । ब्राह्मणो न हन्तव्यः रा न पेयेति ब्राह्मेण- 





पा० ९.२.६४.| ॥ व्याकरणमहाभार्यम्‌ ॥ ४५४३ 


मारं न हन्यते खरामात्रं च न पीयते | यदि दव्य पदाथः स्यदेकं ब्राह्मणमह- 
तैकां च द्रामपीस्वान्यत्र कामचारः स्यात्‌ || कः पुनरस्य विदोषो ऽव्यपवगेग- 
तेथेत्यतः । तस्थैवोपोदलकमेतत्‌ । अव्यपवगेगतेथ धर्मश्चालं च तथेति ॥ 


अस्ति वैकमनेकाधिकरणस्थं युगपत्‌ 


भस्ति खस्वरप्येकमनेकाषिकरणस्थं युगपदुपठभ्यते | किम्‌ । आदित्यः | तद्यथा | : 
एक भदिष्यऽनेकाधिकरणस्थो यु गपढुपरभ्यते || विषम उपन्यासः | नैको बष्टा- 
दित्यमनेकाधिकरणस्थं युगपदुपभते || एवं ताह 


इतीन्द्रवदिषयः ॥ ४० ॥ 


तथथा। | एक इन्द्रो जेकस्मिन्क्रतु शात आहूतो युगपत्सवेत्र भवति | एवमा- 
कृतिरपि युगपत्सर्वत्र भविष्यति || भवदरयं चेतदेवं विज्ञेयमेक मनेकाधिकरणस्थं 10 
युगपदुपलभ्यत इति । 


नैकमनेकाधिकरणस्थं युगपदिति चेत्तथेकरोषे ॥ ४९ ॥। 


योहि मन्यते नैकमनेकाधिकरणस्थं युगपदुपलमभ्यत इत्येकदेषे तस्य दोषः 
प्यात्‌ | एकदेषेऽपि नैको वृक्षश्ब्दोऽनेकमथं युगपदभिदषीत || अवद्यं चैतदेवं 
विज्ञेयमाक्रतिरमिधीयत इति । ` | 15 


द्रव्याभिधान ह्याकृत्यसंभत्ययः ॥ ४९ ॥ 
द्रव्याभिधान सत्याक्ृतेरसंप्रत्ययः स्यात्‌ || तत्र को दोषः । 
तत्रासवैद्रव्यगतिः ॥ ४३ ॥ 


तत्रासवैद्रव्यगतिः प्रामरोति | असवैद्रभ्यगतैः को दोषः । गौरनुबन्ध्यो ऽजो प्री- 
षोमीय इति । एकः शालोक्तं कुर्वातापरो ऽशालोक्तम्‌ । अशालीक्ते च क्रियमा- ‰ 
णे विगुणं कमे भव्रति विगुणे च कमणि फलानवात्निः || ननु च यस्याप्याकृतिः 
पदाथेश्तस्यापि यथनवयवेन चोद्यते न चानुबध्यते विगुणं कम भवति विगुणे च 
कर्मणि फलानवापनिः | एकाकृतिरिति च प्रतिज्ञा हीयेत | यच्चास्य ॒पक्षस्यो पादाने 
प्रयो जनमेकदोषो न वक्तव्य हति स चेदानीं वक्तव्यो भवति | एवं तद्यैनवयवेन 
चोद्यते प्रस्येकं च परिसमाप्यते यथादित्यः | ननु च यस्यापि दर्यं पदार्थस्तस्या- 








२७० - ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥  [म०९.२.३. 
प्यनवयवेन चोद्यते प्रत्येकं च परेसमाप्यते | एकरोषस्त्रय। बक्तव्यः | स्यापि 
तर्हि दविवचनबहुवचनानि साध्यानि ॥ 


चोदनायां चेकस्योपाधिवृत्तेः ॥ ४४॥ 
चोदनायां चेकस्योपाधिवृत्तेमेन्यामह आकृतिरभिधीयत इति | भाग्नेयम्टाक - 
¢ पालं निवेपेत्‌ । एकं निरुप्य द्वितीयस्तृतीयञ्च निरुप्यते | यदि च द्रव्यं पदाथः 
स्यादेकं निरुप्य द्वितीयस्य तृतीयस्य च निवेपणं न प्रकल्पेत || कः पुनरेतयोजी - 
तिचोदनयो्वि दोषः | एका निवृत्तेनापरा नितरर््यन ॥ 
द्रव्याभिधानं व्याडिः ॥ ४९॥ 
द्रव्याभिधानं व्याडिराचायो न्याय्यं मन्यते | द्रव्यमभिधीयत इति ॥ 
10 तथा च लिङ्गवचनसिद्धिः || ४६ ॥ 
एवं च कृत्वा लिङ्क वचनात सिद्धानि भवन्ति | ब्राह्मणी ब्राह्मणः ब्राह्मणौ त्रा- 
ह्मणा इति || 
चोदरनासु च तस्यारम्भात्‌ ॥ ४७।। 


चोदना च तस्यारम्भान्मन्यामहे द्रव्यमभिषीयत इति । गैरनुबन्ध्यो ऽजो 
15 ऽन्नीषोमीय इति | आङ्तौ चोदितायां रभ्य आरम्भणालम्मनपरोक्षणविश्यसनारीनि 
क्रियन्ते || 
न चेकमनेकाधिकरणस्यं युगपत्‌ ॥ ४८ ॥ 


न खल्वप्येकमनेकाधिकरणस्थं युगपद्पलभ्यते | न श्चेको देवदत्तो युगपत्ुर 
भवति मथुरायां च || 


20 विनारो प्रादुरभावि च स्वै तथा स्थात्‌ ॥ ५९ ॥ 
किम्‌ | विनरयेच प्ादुःघ्या्च | श्वा मृत इति श्वा नाम लोके न प्रचरेत्‌ | 
गोजौत इति सवै गोभूतमनवकाशं स्यात्‌ ॥ 
अस्ति च वेरूभ्यम्‌ ॥ ५० ॥ 
अस्ति खल्वपि वैरूप्यम्‌ | नीथ गोश खण्डो मुण्ड इति ॥ 











१० ९.२.६४. ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यम्‌ ॥ २७५ 


| तथा च विग्रहः ॥ ५९॥ 
एतं च कृत्वा विग्रह उपपन्नो भवति | गोश्च मोभेति || 
व्यर्थेषु च मुक्तसंदायम्‌ ॥ ९२ ॥ 


व्यर्थेषु च मुक्तसंशय भवति । भाकृृतावपि पदाथे ९कदषो वक्तव्यः | अन्ताः 

पादाः मषा इति | 5 
लिङ्गवचनसिद्धिशुणस्यानिव्यत्वात्‌ ॥ ५३ ॥ 

लिङ्गवचनानि सिद्धानि भवन्ति | कुतः | गुणस्यानित्यत्वात्‌ | अनित्या गुणा 
अपायिन उपायिनश्च | किं य एते शुङ्गादयः । नेत्याह | लीपुंनपुंसकानि सत्त्वगुणा 
एकत्वद्धिस्व बहुत्वानि च | कदाचिदाकृतिरेकत्वेन युज्यते कदाचिद्धित्वेन कदाचिद्र- 
हुत्वेन कदाचित्लीव्वेन कदाचित्पुस्त्वेन कदाचिच्नपुंसकत्वेन || भवे्िङ्गपरिहार 10 
उपपन्नो वचनपरिहारस्तु नोपपद्यते | यदि हि कदाचिदाकृतिरेकस्तरेन युज्यते कदा- 
चिद्वित्वेन क दाचिद्रहुत्वेनैका कृतिरिति प्रतिज्ञा हीयेत यच्चास्य पक्षस्योपादाने प्रया- 
जनमुक्तमेकशेषो न वक्तव्य हति स ॒चेदार्नीं वक्तव्यो भवति || एवं तर्द लिङ्ग- 
वचनसिद्धिगुणविवक्षानित्यस्वात्‌ । लिङ्गवचनानि सिद्धानि भवन्ति | कुतः । गुण- 
विवक्षाया अनित्यत्वात्‌ | अनित्या गुणविवक्षा | कदाचिदाकृतिरेकत्वेन विवक्षिता 15 
भवाति कदाचिद्ित्वेन कदाचिद्रहुत्वेन कदाचित्लीत्वेन कदाचिषप॑स्त्वेन कराचि- 
त्रपुंसकत्वेन | मवेहि द्ग परिहार उपपन्नो वचनपरिहारस्तु नेपपद्यते | यरि कदा- 
विदाकृतिरेकत्वेन विवक्षिता भवति कदाचिदिस्वेन कदाचिद्रहुत्वेनैकाश्ृतिरिति 
परतिज्ञा हीयेत यञ्चास्य पक्षस्योपादाने प्रयोजनमुक्तमेकदोषो न वक्तव्य इति स 
चेदानीं वक्तव्यो भवति || लिङ्गपरिहारश्चापि नोपपद्यते | किं कारणम्‌ । जावरिष्ट- 20 
लिङ्गा जातियैचिङ्गमुपादाय प्रवतेत उस्पत्तिप्रमृत्या विनाशात्त्धिङ्गः न जहाति | त- 
स्मान्न वैयाकरणैः शक्यं तोकिकं लिङ्गमास्थातुम्‌ । अवदयं काथितस्वकृतान्त 
आस्थेयः | कोऽसौ स्वकृतान्तः | 

सस्त्यानप्रसवो लिङ्गम्‌। 
संस्त्यानप्रसवौ लिङ्कमास्थेयौ । किमिदं संस्त्यानप्रसवाविति | ९5 


संस्त्याने स्ययतेडंटस्त्री सुतिः सप््रसवे पुमान्‌ ॥ 
ननु च सोकेअपि स्त्यायतेरेवर ज्ञी खतेश्च पुमान्‌ । भधिकरणस्ष(धना रोके ली | 


४६ ॥ व्याकरणयरहाभाष्यम्‌ ।  [म०९.२.३, 


स््यायत्यस्स्यां गभे इति | कर्तृसाधन पुमान्‌ । सते पुमानिति | इह पुनरुभयं माव- 
साधनम्‌ | स्त्यानं प्रवृत्तिश्च | कस्य पुनः स्त्यानं खरी प्रवृत्तिवो पुमान्‌ । गुणानाम्‌ । 
केषाम्‌ । शब्दस्पशोरूपरसगन्धानाम्‌। सवो पुनभूतेय एवभास्मिकाः संस्त्यानपरस- 
वगुणाः शब्दस्पद्रोरूपर सगन्धवत्यः । यत्राल्पीयांसो गुणास्तत्रावरतखरयः शब्दः 

ऽ स्पा रूपमिति । रसगन्पौ न सर्वन्र । प्रवृत्तिः खल्वपि नित्या | न हीह कथि- 
दपि स्वस्मिन्न(त्मानि मुहुतेमप्यवतिष्ठते । वधते यावदनेन वर्धितव्यमपचयेन वा 
युज्यते | तचोभयं सवेत्र | यद्युभयं सवैर कुतो व्यवस्था | विवक्षातः | संस्त्या- 
नविवक्षायां खी प्रसवविवक्षायां पुमानुभयोरप्यविवक्षायां नपुंसकम्‌ | तत्र॒ लिङ्ग 
वचनसिदधिगणविवन्षानित्यस्वादिति लिङ्ग परिहार उपपन्नः ॥ वचनपरिहारस्तु नो- 

10 प्रपद्यते | वचनपरिहारथाप्युपपन्नः | इदं तावदयं प्र्टव्यः | अथ यस्य द्रव्य 
पदाथः कथं तस्थैकवचनहिव चनबहुव चनानि भवन्तीति | एवं स वक्ष्यति | एक- 
स्मिन्नेकवचनं इयोिवचनं बहुषु बहुव चनमिति | यदि तस्यापि वाचनिकानि न 
स्वाभाविकान्यहमप्येवं वक्ष्याम्येकस्मिन्नेकषचनं इयोर्डिवचनं बहुषु बहुवचन- 
मिति | न द्याकृतिपदार्थिकस्य द्रष्यं न पदार्थो द्रव्यपदार्थिकस्य वाकृतिनै पदाथः । 

15 उभयोरुभयं पदाथेः कस्यचित्तु किंचित्रधानभूतं (किं चिद्ुणमूतम्‌ । आकृतिपदा- 
धिकस्याकृतिः प्रधानमूता द्रव्यं गुणभूतम्‌ । द्रव्यपशर्थिकस्व द्रव्यं प्रधानभूतमाकृ- 
तिगणभृता ॥ 


गुणवचनवद्वा ।। ५४॥ 
गुणवचनवद्वा लिङ्गवचनानि भविष्यन्ति | तद्यथा | गुणवचनानां शब्दानामा- 
२0 श्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | भुङक वलम्‌ मुङ्का शादी भुङ्कः कम्बलः मुक 
कम्बलौ गुङ्ाः कम्बला इति | यदसौ द्रव्यं श्रितो भवति गुणस्तस्य यिद्ध वचनं 
च तहुणस्यापि भवति | एवाभिषापि यदसौ द्रव्य भ्रिताकृति्तस्य यिद्ध वचनं च 
तदाकृतेरपि भविष्यति | 
अधिकरणगतिः साहचयोत्‌ ॥ ५५॥ 
25 आकरतावारस्भणादरीनां संभवो नास्तीति कृत्वाकतिसह चरिते द्रव्य आरम्भणा- 
दीनि भविष्यन्ति | | 
न चेकमनेकाधिकरणस्थं युगपदित्यादित्थवदरिषयः ।। ५६ ॥ 
न खल्वप्येक मनेक।धिकरणस्थं युगपदुपरभ्यत इत्यादिव्थ्षहिषवो भविष्यति | 





पा० १.२.६५.-६६. | ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ २४७ 


तदथा | एक आदित्यो ेकाधिकररणस्थो युगपदुपलभ्यते || विषम उपन्यासः । 
नैको द्र्टानेकाधिकरणस्थमादि्यं युगपदुपलभते || एवं तर्हीतीन्द्रवद्धिषयः । 
तथथ। | एक इन्द्रो जनेकस्मिन्क्रतुशत आहूतो युशपस्सर्वश्र भवति | एवमाकृतिर्यु- 
गपत्सवेन्न भविष्यति | 


अविनाशो ऽनाश्रितत्वात्‌ ।॥ «९४७ || 8 
व्रव्यविनाश आक्ृतेरविनारः । कुतः । अनाश्रितत्वात्‌ | अनाभनितकृतिद्र- 
व्यम्‌ || किमुच्यते ऽनाश्नितत्वादिति यदिदानीमेवोक्तमपिकरणगतिः साहचयौ- 
दिति || एवं तद्येविनाश्ो अनैकास्म्यात्‌ | द्रव्यविनाश्च भाकृतेरविनाश्चः । कुतः | 
भनैकास्म्यात्‌ | अनेक आस्माकृतेद्ेष्यस्य च । तद्चथा | वुक्षस्थोऽवतानो वृक्षे छिन्न 
ऽपि न विनयति || 10 


वैरूप्यवि ग्रहौ दव्यभेदात्‌ ॥ ५८ ॥ 
वैरूप्यविम्रहावपि दरव्यमेद।द्रविष्यतः || 


व्ययेषु च सामान्यास्सिद्धम्‌ ॥ ५९ ॥ 


विभित्नर्थेषु च सामान्यास्सिद्धं सवेम्‌ । भश्रोतेरक्षः | पद्यतेः पादः । मिमी- 
तेमौषः | तत्र ॒क्रियासामान्यास्सिद्धम्‌ || भपरस्त्वाह | पुराकल्प एतदासीस्षोडश्रा 15 
माषाः काषोपणं शोडदाफलाथ माषराम्बरयः । तत्र संख्यासामान्यास्सिद्धम्‌ ॥ 


वृद्धो युना तलक्षणश्वेदेव विोषः ॥ १.। २। ६.५ ॥ 


इह कस्माच्च भवति | भजथ वर्करथ | अश्व किशोर | उष्टथ करभयेति । 
तश्चक्षणथेदेव विरोष इत्युच्यते न चात्र तल्लक्षण एव विदोषः । तद्ठक्षण एव विोषो 
यत्स मानायामाकृनी राम्दभेदः ॥ 20 


स्री पुंवच्च ॥ १ ।२।६६॥ 


इदं सर्वेष्वेव खीम्रहणेषु विचायते खीग्रहणे सखीप्रस्ययम्रहणं वा स्यार्स्ठ्य- 
येज्रदणं क शीद्यम्दमहणं वेति । किं चातः | यदि प्रत्ययम्रहणं वा शब्दमरहणं वा 


१4 ॥ व्वाकग्मप्रहामाष्यम्‌ ॥ [मण १.२.२.; 


गार्यी च गाग्यौयमै च गोः केन यदाब्दो न भ्रूयेत | भजियाभिति हि ठुगु 

च्यते" | हह च गार्गी च गाग्योयणौ च गगोन्प्रदय तस्माच्छसो नः पुंसि [६.९.१०३] 

इति नस्तं न प्राभोति || भथायेप्रहणं न दोषो भवति । यथा न दोषस्तथास्तु ॥ 

हह कस्मान्न भवति । भजः च वकंरथ्च | वडवा च किशोर | उद्व 

5 करभशेति | तदछछक्षण चेदेव त्रिशेष ह्युच्यते. न चत्र तघ्वल्षण एत्र विदोषः | तठ- 
क्षण एव विशेषो यत्समानायामाकृती हाष्दभेदः || 


पुमान्सिया ॥ २. । २ । ६.७ ॥ 


इद कस्मान्न भवति } हंसश्च वरटा च | कच्छप इुटी च | ऋदय रोरि- 
येति । तछक्षगथेदेव त्रिशेष हस्युच्यते न चात्र त्ठक्षग एव विशेषः | त्क्षण एव 
10 विहोषो यत्समानायामाकृतौ शब्दभेदः || 


भातृपूत्ो स्वसुदुहितृभ्याम्‌ ॥ २. । २ । ६८ ॥ 


किमर्थमिदमुच्यते | न पुमान्लियेव्येत्र सिद्धम्‌ | न सिध्यति | त्क्ष गधेदेव 
त्रिशोष इत्युच्यते न चात्र तह्वक्षण एव्र विशेषः | तल्लक्षण एव त्रिशेषो यत्समा- 
नायामाकृतौ शाब्दमेदः ॥ एव तर्द सिद्धे सति यदिमं योगं शास्ति तञ्ज्ञापयत्या- 
15 चार्यो यत्रोप परकृतेस्त्वस्षण एव विशोषस्तत्रैकदोषो भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने 
प्रयोजनम्‌ । दंस वरटा च कच्छपश्च डली च ऋदय श्च रोहिेस्यश्नैकशोषो न भ- 
वति | पुर्बयेोर्योगयोभूयान्परिहारः । यावद्रूयाद्गोतर यूनेति तावदृद्ध यूनेति । 
पुवेखतरे गोत्रस्य वृद्धमिति संज्ञा क्रियते | 


असरूपाणां युवस्यविरखरीपुंसानां विरोषस्याविवक्षितत्वास्सामान्यस्य 
20 च विवस्षितत्वास्सिद्धम्‌ ॥. ९ ॥ 


असरूपाणां युवस्थविरखीपुंसानां विदोषश्चाधि वक्षितः सामान्यं च विवत्तितम्‌ | 
वरिशेषस्याविषस्सितत्वार्सामान्यस्य च विवक्षितत्वास्सरूपाणामेकरोष एकविमक्तौ 
[९.२.६४] इत्येव सिद्धम्‌ ॥ 





#* २. ४.६४, 





१० ९.२.६.-६९.| ॥ व्याकरणयहयभाष्यम्‌ ॥ गर 


पुमान्र्ल्िया |९.२.६७| इह कस्माच्च भवति । ब्राह्मणवस्सा च ब्राह्मगीव- 
त्सति | 


 बाह्मणवत्साब्राह्यणीवत्सयोरखि ङ्गस्य विभक्तिपरस्य विदेषवाचकत्वादने- 
करोषः ॥ २॥ 


ब्राह्मणवत्साब्राह्मणीवत्सयोरिङ्गस्य विभक्तिपरस्य विदोषव(वकत्वदिकदोषो न 
भविष्यति | यत्र॒ लिद्घः विभक्तिपरमेव विष्ोषवाचकं तन्रैकदोभो भवति | नात्र 
लिङ्गं विभक्ति परमेव विशेषवाचकम्‌ ॥ यदि तर्हि यत्न ठिङ्ं विभक्तिपरमेव वि- 
रोषवाचकं तत्रैकशेषो भवतीह न प्रामोति | कारकथ.कारेकाच कारकौ | न 
यत्र लिङ्क विभक्तिपरमेव विदोषवाचकम्‌ || कथं पुनरिदं विज्ञायते । शब्दो या 


(५4 + 1 


ली तद्क्षणथदेव विरोष इति । आहोस्विदर्थो या खी तद्ठक्षणथेदेव विशेष इति | 10 


कि चातः | यदि विज्ञायते शब्दो या खी तष्छक्षणथेदेव विंदोष इति सिद्धं कारकश्च 
कारिका* च कारकौ | इदं तु न सिध्यति गोमांथ गोमती च गोमन्त | अथ 
विज्ञायते ऽर्थो या ली तद्वक्षणथेदेव विरोष इति सिद्धं गो मांथ गोमती च गोमन्त | 


हदं तु न सिध्यति कारकथ्च कारिका च कारकौ | उभयथापि पटुश्चषटरीःचपदू 


इत्येतन्न सिध्यति ॥ एवं तर नैवं विज्ञायते शब्दो याची तद्धक्षणशेदेव विशेष इति 15 


नाप्यर्थो या ञ्जी तष्टक्षणथेदेव विशेष इति | कथं ताह | शब्दार्थौ मा खरी तत्स- 
दावेन च तद्वक्षणो विशेष आश्रीयते | एवं च कृर्वेहापि प्राप्िः | ब्राह्मणवस्सा च 
ब्राह्मणीवत्सति || एवं तर्हीदमिह व्यपदेरयं सदाचार्यो न व्यपदिशति । किम्‌ | 
तदित्यनुवतैते | तदित्यनेन प्रकृतौ खीपुंसौ प्रतिनिर्दिरयेते । को च प्रकृतौ | प्रधाने । 
प्रधानं या हाष्यखी प्रधानं याथेलीति ॥ 


नपुंसकमनपुंसकेनेकवच्चास्यान्यतरस्याम्‌ ॥ १. । २ । ६९. ॥ 


भयं योगः शक्यो ऽवक्तुम्‌ ] कथं भुङ्कथ कम्बलः मुष्कं च वलं तदिदं भुङ्कते 


20 


इमे भुके । भुङकथ कम्बलः भुङ्ख च बृहतिका गुङ्कं च वलं तदिदं शुदं तानीमानि , 


शुदि | 


~~~ ~~ --- ~~ -~~-~ = ~ ~~ 





* ७.३.४४. # ६.९. ७७, 


32 ऋष 


२५० ॥ व्याकरणमहाभाष्यम ॥  (मण०१.२.३. 


प्रधाने कायैसंभत्ययाच्छेषः ॥ ९ ॥। 
भरधाने कायसंभत्ययाच्छेषो भविष्यति | किं च प्रधानम्‌ | नपुंसकम्‌ } कथं 
पुनज्ञोयते नपुंसकं प्रधानमिति । एवं हि दृयते लोके | अनिज्ञोतेऽ्ये गुणसंदेहे च 
नपुंसकलिङ्ग प्रयुज्यते । किं जातमित्युच्यते इयं चैव हि जायते सरी वा पुमान्वा | 
5 तथा विद्रे ऽव्यक्त मारूपं दृष्टा वक्तारो भवन्ति महिषी रूपमिव ब्राह्मणी रूपमिव | 
प्रधाने कायैसप्रस्ययान्नपृंसकस्य हेषो भविष्यति || इदं तर्द प्रयोजनमेक वचास्या- 
न्यतर स्यामिति वश््यामीति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | 


आशृतिवाचित्वदेकवचनम्‌ | २॥ 


आकृतिषाचित्वारेकव चनं भविष्यति । यदा द्रव्याभिधानं तदा हिवचनबहूव- 
10 चने भविष्यतः || 


भातृपुत्रो खसृदुहितृभ्याम्‌ ॥ १।२।६८ । । पिता मत्रा 
॥ १.।२९। ७० ॥ शवदुरः श्वा ॥१.।२९।.अ१ 


किमथेमिदमुच्यते न पुमान्स्तिया |९१.२.६७] इत्येव सिद्धम्‌ । श्रातृपुत्र- 
वितशवश्युराणां कारणाद्व्ये शब्दनिवेशः । भ्रातृपुत्रपितश्वभुराणां कारणादरव्ये शब्द- 
15 निवेद भवति । 
भरातुपुत्रपितृश्वरुराणां कारणाष्रव्ये राब्दनिवेरा इति चेन्तुल्यकारणत्वा- 
स्सिद्धम्‌ ।॥ ९ ॥ 
यदि तावद्धिभर्तीति भ्राता स्वसर्यप्येतद्वति । तथा यदि पुनाति प्रीणातीति वा 
पुत्रो दुहि तयेप्येतद्भवति । तथा यदि पाति पालयतीति वा पिता मातयैप्येतद्धवति । 
20 तथा यद्याश्चाप्रव्यः शवद्युरः श्वञ्वामप्येतद्भवति | ददनं वै हेतुः | न हि स्वसारे 
भातहाष्दो ददयते | 


ददोनं हेतुरिति चेन्त॒ल्यम्‌ ॥ २ ॥ 


ददन हेतरिति चेन्तल्यमेतद्भवति | स्वसर्यपि भ्रातशष्दो दृदयतां तल्यं हि 
कारणम्‌ || न वा एष लोके संप्रस्ययः| न हि रोके भ्रातानीयतामिव्युक्ते स्व- 
25 सानीयते । 











पा०१,२.६८-७२. | ॥ व्याकरण महाभाष्यम्‌ ॥ २५९ 


तदिषयं च ॥ ३ ॥ 
तद्विषयं चेतद्ृष्टव्यं भवति स्वसरि भरातृत्वम्‌ | किंविषयम्‌ | एकशोषविष- 
यम्‌ ॥ युक्तं पुनयैन्नियतविषया नाम शब्दाः स्युः । वाढं युक्तम्‌ | 
अन्यत्रापि तदिषयदर्शनात्‌ ॥ ४॥ 
अन्यत्रापि नियतविषयाः शाबष्दा दृरयन्ते | तद्यथा | समाने रक्ते वर्गे गौ- 5 
सहित इति भवव्यश्वः शोण इति | समाने च काले वर्णे मीः कृष्ण इति भव- 
व्यश्वो हेम इति | समाने च भुङ्के वर्णे गैः चेत इति भवस्यश्चः ककं इति ॥ 


त्यदादीनि सनिम्‌ ॥ १ । २ । ७२ ॥ 


त्यदादितः रोषे पुंनपुंसकतो लिङ्गवचनानि ॥ ९ ॥ 
स्यदादितः शेषे पुंनपुंसकतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | सा च देवदस्थ ती | सा 10 
घ कुण्डे च तानि| 
अद्रन््तत्पुरुषविदोषणानाम्‌ । ५ ॥ 
अन्द तस्पुरुषविरोषणनामिति वक्तव्यम्‌ | इह मा भूत्‌ । सच कुङ्ुटः सा 
च मयूरी कु्ुटमयुर्यी ते | अधे पिप्पल्यास्तदधेपिप्पली च सा अर्पपिप्पल्यौ ते || 
भयमपि योगः दायो वक्तम्‌ | कथम्‌ | 
त्यदादीनां सामान्यार्थत्वात्‌ | ३ ॥ 
त्यदादीनां सामान्यमथेः | आतथ साम्यं देवदत्तेऽपि हि स ` इष्येतद्धषति 
यज्ञदत्तेऽपि | त्यदादीनां सामान्या्थलाच्छेषो भविभ्यति || इदं तां प्रयोजनं 
प्रस्य रोषं वक्ष्यामीति | 
परस्य चभयवाचित्वात्‌ ॥ ४॥ 20 


15 


उभयवानचि परम्‌ ॥ 


र्वरोषदर्रानाश्च || ५ ॥ 
र्यस्य खस्त्रपि शोषो दृरयते | स॒ च यथ तावानय यावानयेति | इदं तर्द 
पयो जनं इन्दो मा भूदिति | एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | 


>५२ \ स्याकम्नयरामाच्यम \:  [ब०१.२.३. 


॥ 1 


सामान्यविद्राषवाचिनोश्च इन्द्राभावात्सिद्धम्‌ ॥ £ ॥ 


खामान्वविदरोषवाविनोञ् इन्दो न मवदीति व्छव्वम्‌ |} चदि सामान्यविङ्ेष- 
वाचिनेोद्न्द्रो न भवनीत्वुच्यने मुद्रामीरम्‌ गोबरीवदेम्‌ तृणो ठपपभिति न सिध्यति । 
तैषर दोषः | इद तावच्छद्रामीरमिति | आभीरा जात्वन्तराणि । मोबरीवदमिति | 

5 गाव उत्काटितपुंस्का वाहाव च विक्रयाय च | (लिय एवावांशिष्वन्ते | तृणोतप- 
मिति | अपामुलपमिति नामधेयम्‌ || वत्ता वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्वम्‌ | सामा- 
न्येन क्तत्तराद्ि दोषस्य प्रयोगो न भविष्यति | खामान्येनो्छत्वात्तस्या यस्व विरेषस्व 
प्रयोगेण न भवितव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | उ्छार्थानामप्रयोग इति || न तर्द दानीभिरं 
मवति तं ब्राह्मणमानय गाग्येमिति | भवति यडा नियोगतस्तस्थैवानयनं मवति | 
10 एवं तई येत्ैव खल्वपि देतुतैतद्वाक्यं मवति तं ब्राह्मणमानव गा््यामिति तेनैव है- 
तना वृत्तिरपि भरामोति । तस्मात्सामान्यविश्चेषवाचिनो दन्दो न मवतीति वक्तव्यम्‌ ॥ 


ग्राम्यपदुसंघेष्वतसूणषु खी ॥ १. । २ । ७२. ॥ 


भयमपि योगः शाश्यो क्तम्‌ | कथं गाव इमाश्रन्ति गजा इमाथरन्त | 
गाव उत्कालितपुंस्का वाहाय च विक्रयाय च | लिव एवावश्िष्यन्ते || ददं त 
15 प्रयोजनं प्ाम्येष्विति वद्या मीति | इह मा भूत्‌ | न्यद्धव इमे शकरा इम इति । 
कः पुनरहैत्यमाम्याणां पुस उत्कारयितुं ये म्रहीतुमदाक्याः कुत एव वहाय व 
विक्रयाय च || इदं तर्हि प्रयोजनं परुषिति वक्ष्यामीति । इह मा भूत्‌ । त्राह 
णा हमे वृषला हमे | कः पृनरहत्यपभरूनां पंस उत्कालयितुं ये ऽस्या वहाय च 
चिक्रयाय च || इदं तर प्रयोजनं संघेष्विति वश्यामीति | इह भा मुत्‌ | एतौ 
20 गाग चरतः | कः पुनरैति निज्गंति अ ऽन्यथा प्रयोक्तम्‌ || इदं ताहि प्रयोजनम- 
तरुगेव्विति वक्ष्यामीति | इह मा भूत्‌ | उरणका इमे वकंरा इम इति । कः 
पुनरेति तरूणानां पंस उत्कालयितुं ये ऽहाक्या वाहाय च विक्रयाय च ॥ 
अनेकङाफेप्विति वक्तव्यम्‌ | इह मा भूत्‌ | अथा्रन्ति | गदेमाअर न्तीति ॥ 
इति श्रीमगवत्पतच्लिविरनिते व्याकरणमहाभाप्ये प्रथमस्याध्या यस्य हिरव 
४5 पदि तृतीयमाह्विकम्‌ || पादथ समाप्तः | 





भूवादयो धातवः ॥ १. ।२. । २. ॥ 


कुतो ऽयं वकारः | यदि तावस्संहितया निर्देश : क्रियते भ्वादय इति भवित- 
ष्यम्‌ । अथासंहितया भूभादय इति भवितव्यम्‌ ॥ अत उत्तरं पठति । ॥ि 
भृवादीना वकारोऽयं मङ्ःलार्थः प्रयुज्यते । 
` भाद्गकिक भा्ार्यो महतः शाखीषस्य मङ्कलाथे . वकारमागमं प्रयुङधे, । मङ्ग 5 
लादीनि मङ्गलमध्यानि मङ्गलान्तानि हि शालाणि प्रथन्ते वीरपुरषाणि च भव- 
न्त्यायुष्मत्पुरुषाणि चाध्येतारथ्च मङ्गलयुक्ता थथा. स्युरिति || अथादिपहणं किम- 
थेम्‌ | यदि तावत्पद्यन्ते नाथे आदिभ्रहणेन | अन्यत्रापि ह्ययं पठन्नादिप्रहणं न 
करोति । कान्यत्र | मृडमृदगुधकुषद्धिशवदवसः छा [ ९. २. ७ | इति | भथ 
न पद्यन्ते नतरामथे आदिन्रहणेन | न ह्यपडटिताः इक्या अआदिमक्णेन विरोषयि- 10 
तुम्‌ । एवं तर्हि सिद्धे सति यदादिग्रहणं करोति तज्क्षपयत्याचार्यो अस्ति च षरे 
ब्यश्च खूज।दिति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ | पाठेन धातुसंज्ञेत्येवदुपपन्तं भवति || 


पदेन पातुसंज्ञायां समानराब्द प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 


पाठेन धतुसंज्ञायां समानद्रान्दानां प्रतिषेधो वक्तव्यः | या इति धातुयौ इत्या- 
बन्तः | वा इति भातुवौ इति निपातः । नु इति धातुनु इति प्रत्ययश्च निपातश्च | 15 
दिविति धातुर्दिविति प्रातिपदिकम्‌ || किं च स्याश्द्येतेषामपि धातुसंज्ञा स्यात्‌ | धातोः 
[३.९.९१] इति तव्यदादीना मृत्पत्तिः प्रसज्येत" । नैष दोषः | साधने तव्यदादयों 
वि धीयन्ते साधनं च क्रियायाः | क्रियाभावात्साधनाभावः | साधनाभावात्सत्या- 
मपि धातुसंश्ायां तव्यदादयो न भविष्यन्ति ||. इह तर्हि याः परय भातो भातोः 
[६.४.९४०] इति लोपः प्रसज्येत | नैष दोषः | भनाप इत्येवं सः† || अस्य 20 
तर्द वाशा्दस्य निपातस्याधातुरिति‡ प्रातिपदिकसंज्नायाः प्रतिषेधः प्रसज्येत । 
भपातिपदिकत्वास्स्वाद्युत्पत्तिने स्यात्‌ | नैष दोषः । निपातस्यानथेकस्य प्रातिपदि- 
कत्वं चोदित॑ऽ$ तत्रानर्थकम्रहणं न करिष्यते | निपातः प्रातिपदिकमित्येव || इह तर्हि 


# ३.९. ९.५. ¶† ६.४. ९५४०. ‡ १,२.४५. § ९.२. ४५१. 


२५४ ॥ व्याकरणमहाभाव्यम्‌ ॥ [ म०१.२.१. 


चलू इत्यवि भुधातुभरुवां य्वोरियङ्वड [६.४. ७७| इत्युवडादे शः प्रसज्येत | 
नैष दोषः । आचार्यपरवृत्निज्ञौपयति न प्रस्ययस्योवङदेशो भवतीति यदयं त्र 
भुमरहणं करोति || अस्य ताद दिव्शा्दस्याधातुरेति प्रातिपदिकसंज्ञायाः प्रतिषेधः 
प्रसज्येत | अप्रातिपदिकल्वास्स्वादयुत्पत्तिम स्यात्‌ | नैष दोषः | आचार्यमवृत्िजञौ - 
5 पयत्युत्पद्यन्ते दिडाभ्दारस्वादय इति यदयं दिवः सावौत््वं शास्ति* | तैतदासि 
ज्ञापकम्‌ | अस्ति न्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ | किम्‌ | दिष्डराब्दो यत्मातिषदिकं 
तदथमेतत्स्यात्‌ । अक्षद्यूरिति । न वा अत्रेष्यते | अनिष्टं च प्रापरोतीष्टंच नसि- 
ध्यति | एवं तद्येननुंबन्धकपरदणे न॒ सानुबन्धकस्येत्येवमेतस्य न भविष्यति | 
` एव मप्यननुबन्धको दिष्डाब्दो नास्तीति कृत्वा सनुबन्धकस्य पदणं विज्ञास्यते | 


10 परिमणग्रहणं च ।| २॥ 
परिमाणग्रहणं च कतेग्यम्‌ | इयानवधिषोतुसंज्ञो भवतीति वक्तव्यम्‌ | कुतो 
दयतद्भञ्चष्दो धातुसंज्ञो भविष्यति न पुनरभ्वेष्‌ शाब्द इति || 
यदि पुनः क्रियावचनो धातुरिव्येतहक्षणं क्रियेत | का पुनः क्रिया । ईहा | 
कपू पुनरीहा | वेष्टा । का पुनधे्टा | व्यापारः || स्वेथा भवाञ्शब्देनैव राब्दा- 
15 नाचष्टे न किंचिदथेजातं निद दौयत्येवंजातीयिका क्रियेति | क्रिया नामेयमत्यन्ता- 
परिदृष्टा । अङ्स्या क्रिया पिण्डीभूता निददोयितुं यथा गर्भो निलुञितिः | सासाव- 
नुमानगम्या | कोऽसावनुमानः | इह सर्वेषु साधनेषु संनिदितेषु कदाचित्पचतीय्ये- 
तद्वति कदाचिन्न भवति । यस्मिन्साधने संनिहिते प्रचतीव्येतद्भवति सा नूनं 
क्रिया | अथवा यया देवदत्त इह भृत्वा पाटरिपृत्रे भवति सा नूनं क्रिया|| 
20 कथं पुनज्ञोयते क्रियावचनाः पचादय इति | यदेषां करोतिना सामानाधिकरण्यम्‌ | 
किं करोति पचति | कं करिष्यति पश्यति । [किमकार्षीत्‌ अपाक्षीदिति ॥ तत्र 


क्रियावचन उपसगेभरत्ययप्रातिषेधः ।। ३ || 
क्रियावचने धातावुपसगेप्रत्यययोः प्रतिषेधो वक्तव्यः | पचति प्रपचति ॥ किं 
पुनः कारणं प्रमति |` 


९४ संघातेनाथंगतेः ॥ ४ ॥ 
संघ्रातेन र्थो गम्यते सप्रकृतिकेन सप्रत्ययकेन सोपसर्भण च | 


जक, क 


ऋ ७.९. ८४, 





पा० ९.३.९. | ` 1 न्याकरणमहाभाष्यप्‌ ॥ २५५ 


अस्तिभवतिविद्यतीनां धातुत्वम्‌ ।। ५॥। 


भस्तिभवतिविंद्यतीनां धातुसंज्ञा वक्तव्या | यथा हि भवता करोतिना पचादीनां 
सामानाधिकरण्यं निदाशितं न तथास्त्यादीनां निददर्यते | न हि भवति किं करोति 
अस्तीति ॥ 


प्रत्ययाथस्याव्यतिरेकास्रकृव्यन्तरेषु 
रत्यया्थस्यात्यतिरेकालक्व्यन्तरेषु मन्यामहे धातुरेव क्रियामाहेति | पचति 
पठति | प्रकृत्यर्थो ऽन्यधान्यश्च प्रत्ययाथेः स एव || 


धातोश्वाथाभिदात्पत्ययान्तरेषु 


धातोश्वाथौमेदायत्ययान्तरेषु मन्यामहे धातुरेव त्रियामाहिति | पक्ता पचनम्‌ ` 
पाक इति | प्रत्ययार्थो ऽन्यान्यथ्च भवति ्रङृत्यथेः स एव ॥ कथं पुनज्ञौयते 1 


ऽयं प्रक व्यर्थो ऽयं प्रत्ययां इति । 


सिद्धं त्वन्वयव्यतिरेकाभ्याम्‌ | ६ ॥ 


अन्वयाच्च व्यतिरेक | को ऽसावन्वयो व्यतिरेको वा | इह प्रचतीत्युक्ते 
क्िच्छब्दः भ्रुयते पच्दाब्दधकारान्तो तिशब्दश्च प्रत्ययः | अ्थाऽपि कथिद्धम्यते 
विङ्धित्तिः कनत्वमेकस्वं च | पठतीत्युक्ते कथिच्छब्दो हीयते कथिदुपजायते 1: 
कथिदन्वयी | पच्डाष्दो हीयते पट्शष्द उपजायते ऽतिशब्दो ऽन्वयी | अर्थोऽपि 
कथिद्धीयते किदुपजायते कथिदन्वयी | वि्कित्तिहीयते पञिक्रियोपजायते करत्वं 
चैकत्वं चास्बयि | ते मन्यामहे यः शाश्दो हीयते तस्यासावर्थो योऽर्थो हीयते यः 
खान्द उपजायते तस्यासावर्थो योऽर्थं उपजायते यः राब्दोऽन्वयी तस्यासावर्थो यो 
ऽर्थाऽन्वयी || विषम उपन्यासः । बहवो हि शम्दा एकाथौ भवन्ति | तद्यथा | 20 
इन्द्रः शक्रः पुरुहूतः पुरंदरः । कन्दुः कोः कुल हति | एकथ शा्दो बहथेः। 
तद्यथा । अक्ताः पादाः माषा इति | अतः किं न साधीयो ऽर्थवन्ता सिद्धा भवति | 
नापि त्रुमो ऽथेवत्ता न क्षिभ्यतीति | वर्णिताथेवत्तान्वयव्यतिरेकाभ्यामेव | तत्र कुत 
एतदयं प्रकृत्यर्थो ऽयं प्रत्ययां इति न पुनः प्कृतिरेवोभावर्ी त्रूयासल्यय एव वा | 
सामान्यश्चब्दा एत एवं स्युः । सामान्यद्राब्दा् मान्तरेण प्रकरणं विरोषं वा 25 
वि दोषेष्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगतः पचतीत्युक्ते स्वभावतः करिमिधिदि शेषे 


२५६ ॥ व्याक्रणप्रहाभाष्यमर. ॥  [म०९.३.९. 


पचतिदाष्दो वतेते ऽतो मन्यामहे नेमे सामान्यकाष्दा इयति | -न चेत्तामान्यश्चभ्य 
प्रकृतिः प्रक्गव्यर्थे वतेते प्रत्ययः प्रत्ययार्थे || 


क्रियाविरोषक उपसर्गः । ७ ॥ 


पचतीति क्रिया गम्यतेतां भो विशिनष्टि || यद्यपि तावदनरैतच्छक्यते वक्तं 
5 यत्र धातुरुपस्ं व्यमिचरति यत्र न खलु तं भ्यमिचरति तत्र कथम्‌ | अध्येति 
अधीत इति | यद्यप्यत्र धातुरुपसभे न ॒व्यमिचरद्युपसगेस्तु धातुं व्यमिचरति | 
ते मन्यामहे य एवास्याधेरन्यत्राथेः स इहापीति । कः पुनरन्यत्रापेरथः । अधि- 
रुपरिभावे वतैते || इह तर्हि व्यक्तमथोन्तरं गम्यते । तिष्ठति प्रतिष्ठत इति । ति्ठ- 
तीति व्रजिक्रियाया निवत्तिः प्रतिष्ठत इति व्रजिक्रिया गम्यते | ते मन्यामह उप- 
10 सर्गकृतमेतथेनात्र व्रजिक्रिया गम्यत इति | प्रो ऽयं कृ्टापचार आदिकमेणि वतेते | 
न वेदं नास्ति बहथौ अपि धातवो भवन्तीति | तद्यथा | विः प्रकिरणे दृष्ट्छे- 
दने चापि वतैते | केशदमभ्रु वपतीति | हडः स्तुतिचोदनायान्च् इष्टः प्रेरणे 
चापि वैते | अभिर्वा इतो वृष्टिमीट्रे मरुतो अमुतश्याव्रयन्तीति | करोतिरभूतपा- 
दुरमौवि दृष्टो निमेलीकरणे चापि वतैते । प्ट कुरु | पादौ कुर । उन्मृदानेति गम्यते | 
15 निक्षेपगे चापि वतते | कटे कुरू | घटे कुर | भरमानमितः कुरू | स्थापयेति गम्यते | 
एवमिहापि तिष्ठतिरेव व्रजिक्रियामाह तिष्ठतिरेव त्रजिक्रि याया निवृत्तिम्‌ ॥| अमं 
ताईं दोषः | भस्तिभवतिविद्यतीनां धातुत्वमिति ॥ 
यदि पनभौववचनो घातुरिस्येवं लक्षणं क्रियेत । कथं पुनज्ञायते भाववचनाः 
पचादय इति | यदेषां भवतिना सामानाधिकरण्यम्‌ | भवति पचति । भवति प- 
2० कषयति | भवस्यपाक्षीदिति || कः पुनभौवः । भवतेः स्वपदार्थ भवनं भाव इति । 
यदि भवतेः स्वपदार्थो भवनं भावो विप्रतिषिद्धानां धातुसंज्ञा न प्रामोत्ति। भेदः 
ढदः | अन्यो हि भावो ऽन्यो ऽभावः | आतशान्यो भावो ऽन्यो ऽभाव इति यी 
हि यस्य भावमिच्छति स न तस्याभावं यस्य चाभावं-न तस्य भावम्‌ || पचादीनां 
च धातसंज्ञा न प्रामोति | यथा हि भवदा क्रियावचने धाती करोतिना पचादीनां 
„ सामानाधिकरण्यं निदश्चितं न तथा भाववचन धातौ निददयेते । करोतिः प्रादीनां 
सर्वौन्काकान्सर्वान्प्रुषान्सवीणि वचनान्यनुवतैते भवतिः -पुनवेतमानकालं चैवैकत्वं 
च || का तर्डीवं वाचोयक्तिर्मवति पचति भवति पष्यति भवस्यपाक्षीदिति | एवैषा 
वाचोयुक्तिः | पचादयः क्रिया भवतिक्रियायाः कन्या भवन्तीति । यद्यपि ताव- 








पा०९.२.९.| ॥ श्याकरणपहाभाष्यम्‌ ॥ २५७ 


दप्रेतच्छक्यते वक्तं यत्रान्या चान्या च क्रिया यञ्रखलु सैव क्रिया तत्र कथम्‌| 
भवेदपि भरेत्‌ | स्यददवि ध्यादिति| अत्रप्यन्यतस्वमस्ि | कुतः | कालमेदात्ताध- 
नभेदाच ) एकध्यत्र मवरतेर्भवतिः साधनं सर्वकालश्च प्रत्ययः | अपरस्य बाय 
साधनं वर्वभानक्राथ प्रत्ययः || यावतात्राप्यन्यलखमस्ति पचादयश क्रिया भव- 
विक्षियायाः कयौ मवन्तीत्यस्त्वयं कतृ्ाधनः | भत्रतीति भाव इति | किं कृतं 5 
भवति | विप्रतिषिद्धानां धातसंज्ञा सिद्धा भव्रति | भवेदधिप्रतिषिद्धानां धतुसंज्ञा 
विद्धा स्यसितिपदिकानामपि प्रामोति | वक्तिः ष्क इति | किं कारणम्‌ । एतान्यपि 
दि भवन्ति | एवं तहिं कमक्ताधनो भविष्यति | भाव्यते यः स भावइति | क्रिया 
चेत्र हि भाव्यते स्वभावसिद्धंतु द्रभ्यम्‌ | एवमपि भवेत्के्षाचिन्न ` स्यत्यानि म 
भत्यन्ते | ये स्पते संबन्धिशष्दास्तेषां प्रमिति | माता पिता भातेत्तिः। सवथा वयं 10 
भ्रातिपदिकपवुँदा सान्न मुच्यामहे || पठिष्यति ` द्याचार्यो भूवादि पाठः प्रातिपदिका- 
णपयत्यादिनिवुस्यर्थं इति | यावता पठिष्यति पचादय क्रिया-मवतिक्रियायाः कर्यो 
भवन्तीत्यस्त्वयं क्ैसाधनः | मवरतीति भाव इति | किः वक्तव्यमेतत्‌ | न॑ हि । 
कथमनुच्यमानं गंस्यते | एतेनैवाभिहितं सत्रेण भुकादयोः धातव इति । कथम्‌ | . 
नेदमादरिप्रहणगम्‌ | वदेर्यगरीणारिक्र इञ्कनृंसाधनः | भुवं वदन्तीति मूतव्रादयः इति || 15 


भाववचने तदयथप्रत्ययप्रतिषेधः ॥ < | 


भ्रातरत्रत्रने घातौ तद्यस्य प्रत्ययस्य प्रतिषेधो वक्तभ्यः | शिश्य इति } किच 
स्यात्‌ । अशितीव्यात्त्वं प्रसज्येत" | तदि धातोधिहितम्‌। || ` 


इतरेतराश्रयं च प्रत्यये भावव वनत्वं तस्माच्च प्रत्ययः ॥ ९२. ॥ 


डतरेतराश्रयं च भवति | केतरेतराश्रयता | प्रत्यये भाववचनत्वं तस्माच्च 20 
प्रत्ययः | उत्पन्ने हि प्रस्यये भाववचनत्वं गम्यते स च तावद्धाववचनादुत्पाद्यः | 
तदेतादितरेतरात्रयं भवति } इतरेतराञ्नयाणि च न प्रकल्पन्ते || 


सिद तु निव्यगब्दत्वादनाभित्य भाववचनत्वं प्रत्ययः ॥ ९० ॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | नित्याः शब्दः | नव्येषु च राब्देष्वनाननित्य भाववच्‌- 
नृस्वं प्रस्यय उत्पद्यते || 2: 





+ ६.१.४५. † ६.२.६५५. 
ॐ3 भा 


णर 1 व्याकरणमहाभाष्य ॥  [म०१.२३.९. 


प्रथमभावम्रहण च ॥ ९९ ॥ 


प्रथमभावम्रहणं च कतेष्यम्‌ । प्रथमं यो भावमाहेति | कुतः पुनः प्राथम्यं 
किं शब्दत आहोस्विदथेतः । किं चातः | यदि शब्दतः सनादीनां धातुसंज्ञा न 
प्राभोति | पुत्रीयति वलीयतीति । अथार्थतः सिद्धा सनादीनां धातुसंज्ञा स एव 
४ तु दोषो भाववचने तदथेप्रस्ययप्रतिषेध इति | एवं तर्हि तैवाथेतो नामि शब्दतः | 
रकि तर्हिं | अमिधानतः | छमध्यमे अभिधाने यः प्रथमं भावमाह || 
इ य एव भाववचने धाती दोषास्त एव क्रियावचने ऽपि | तत्र त एव परि- 
हाराः । तत्रेदमपरिहतमस्तिभवतिवि तीनां धातुत्वमिति ।- तस्य परिहारः | कां 
पुनः क्रियां भवान्मत्वाहास्तिभवतिविद्यतीनां धातुसंज्ञा न प्रामोतीति | किं यत्तहेव- 
10 दन्तः कंसपात्र्यां पाणिनीदनं भुङ्‌ इति | न च्रुमः कारकाणि क्रियेति | कं तर्हि । 
कारकाणां प्रवृत्तिविशेषः क्रिया | अन्यथा च कारकाणि श्ुष्कोदने प्रवतैन्ते ऽन्यथा 
च मांसौदने । ययेवं सिद्धास्तिभवतिदिद्यतीनां धातुसंज्ञा | अन्यथा हि कारका- 
ण्युस्तौ प्रषतेन्ते ऽन्यथा हि भ्ियती || षड्ावविकारा हति ह स्माह . भगवान्वाष्यौ 
गणिः | जायते ऽस्ति विपरिणमते वधते ऽपश्चीयते विनरयतीति | सवेथा स्थित 
15 इत्यत्र धातुसंज्ञा न प्रामोति | बाह्यो द्येतेभ्यसितष्ठतिः | एवं ॒तर्दि क्रियायाः क्रिया 
निवर्तिका भवति द्रव्यं द्रव्यस्य निवतेकम्‌ | एवं हि कथित्कंचित्प॒च्छति | किम- 
वस्थो देवदत्तस्य व्याधिरिति | स आह | वधेत इति । अपर भह | अपक्षीयत 
इति । भपर आह | स्थित इति | स्थित इत्युक्ते वरषतेापक्षीयतेश निवृत्तिसेवति | 
अथवा नान्तरेण क्रियां भूतभविष्यद्तेमानाः काला व्यज्यन्ते | भस्त्यादिमिशचाषपि 
20 भूतभविष्यदतेमानाः काला ध्यज्यन्ते ||. .अथवा नान्यत्पष्टेान्यदाख््येयम्‌ । तेन 
न भविष्यति किं करोति अस्तीति ॥ 
अथ य्येव क्रियावचनो धातुरिव्येष पक्षो ऽथापि भाववचनो धातुरिति किं 
गतमेतदियता सूतरेणाहोस्विदन्यतरस्मिन्पक्षे भुयः सूत्रं कर्तव्यम्‌ | गतमित्याह । 
कथम्‌ । जयमादि शब्दो सस्त्येव व्यवस्थायां वतैते | तद्यथा । देवदत्तादीन्छमुप- 
9 विष्टाकह देवदश्तादय आनीयन्तामिति | त उत्थाप्यानीयन्ते | अस्ति प्रकारे वतेते । 
तद्यथा । देवदन्तादय द्या अभिरूपा दशंनीयाः पक्वन्तः । देवदन्तप्रकारा इति 
गम्यते । प्रस्येषं चारिशम्दः परिसमाप्यते । भ्वादय इति च वादय हति च | तथ्यरा 
तावच्कियावचनो धातुरिव्येष पक्षस्तदा भू इत्यत्र य आदिशब्दः स भ्यवस्यायां 
यतेते वा त्यत्र य॒ आदिरान्दः स प्रकारे | भू हत्येवम्दयो वा इत्येव॑भरकारा 





पा० ९.३.२. |] ॥ अ्ाकर्णयहाभाष्यम्‌ ॥ २५५९ 


हति | यदा तु भाववचनो धातुरिव्येष पल्षस्तदा वा इत्यत्र य॒ भादिदाष्दः स 
व्यवस्थायां भू इत्यत्र य आदिशब्दः स पभरकारे | वा इत्येवमादयो भु इत्येवंप्रकारा 
इति || यदि तरि लक्षणं क्रियते नेदानीं पाठः क्तव्यः | कर्तव्यथ | किं प्रयोजनम्‌ । 


भूवादिपाठटः भरातिपदिकाणपयत्यादिनिवृत््यथैः || ९२ ॥ 
भूवादिपाठः कतैष्यः | किं प्रयोजनम्‌ | प्रातिपदिकाणपयत्यादिनिवुच्यथेः | 5 
प्रातिपदिकनिवृ्यथै आणपयस्यादिनिवृच्य्थथ | के पुनराणपयल्यादयः । भाण- 
पयति वटति वडतीति ॥ 


स्वरानुबन्धनज्ञापनाय च| ९३ ॥ 


 स्वरानुबन्धन्ञापनाय च पाठः कर्तंघ्यः | स्वराननुबन्धांथ ज्ञास्यामीति | न 
ह्यन्तरेण पावं॑स्वरा अनुबन्धा वा शाक्या विज्नातुम्‌ || यें त्वेते न्याय्यविकरणां 10 
उदात्ता अननुबन्धकाः पद्यन्तं एतेषां पाठः शक्यो ऽकतैम्‌ | एतेषामप्यवरय- 
माणपयत्यादिनिवृत्त्यथेः पाठः कतेव्यः ॥ न कतैव्यः | शिष्टप्रयोगाराणेपयत्या- 
दीनां निवृ्तिभविष्यति | स चावरयं शिष्टप्रयोग उपास्यो येऽपि पद्यन्ते तेषामपि 
वि पयांसनिवृत्त्यथेः । लोके हि कृष्यर्थे कसिं प्रयुच्जते दुदयथ च दिशिम्‌ ॥ 


उपदेशे ऽजनुनासिक इत्‌ ॥ १. । ३ ।.२॥ 1६ 


उपदेश हति किमथेम्‌ | अभ्र आँ अपः | उषशे यो शुनासिकस्तस्य मा 
भूदिति ॥ कः पुनरहेशोपदेशयोर्धिरोषः । प्रस्यक्षमाख्यानमुपदेश्ो गणिः प्रापणमु- 
हेदाः। प्रस्यक्ष तावदाख्यानमुषदेशः । तद्यथा । अगोज्ञाय कं्िदवां सक्थनि कर्ण 
वा गृहीत्वोपदिशाति | अयं नौरिति । स भव्यक्षमाख्यातमाह “| उपदिष्टो अ ` 
गौरिति । गुणैः प्रापणमुहेदाः । तदथा | क्ितकंचिदाह 1 देवदत्तं मे भवानुहि- 20 
शास्विति | स इहस्थः पाटलिुत्रस्थं दे वदत्तमुदिदाति । अङ्गदी कुण्डली किरीटी 
व्युद्धोरस्को वृत्तबाहुर्लोहिताक्षस्तुङ्गनासो विचित्रामरण ददृशो देवदत्त इति | स 
` गुणै  भराप्यंमाणमाह | उदहशे मे देवदत्त इति || 


| इत्संज्ञायां सवरसङ्गो अविरोषात्‌ ॥ १॥ 
 इत्संशायां सवेप्रसङ्गः । सवेस्यानुनासिकस्येत्संजञा प्रामोति । अस्यापि प्राति ‰ 


, + ६.९.६२६. . ; 


६० ॥ व्थौकरणपायीष्थिये ॥  [मण० ९.३.१९. 


अभर भं भपः | किं कारणम्‌ | अवि दरोषात्‌ | न हि कथिदि शेष उपादीयत एषं 
जातीयकस्यानुनासिकस्येत्संज्ञा भवतीति | जनुपादीयमाने विशेषे सवप्रसङ्कः || 
किमुच्यते अनुपादीयमाने विद्षोष इति । कथं न नामोपादीयते यदोपदेश्च इत्युच्यते | 
लक्षणेन 'दयुपदेराः । संकीणोवुहेशो पदे रौ । प्रत्यक्षमाख्यानमुहेशो गुणे प्रापण- 
.£ मुपदेशः । प्रत्यक्षं तावदाख्यानमुदहेशः | तद्यथा । कधित्कविदाह | अनुवाकं ने 
भवानुदिद्यत्विति । स तस्मा आचष्टे | इषेस्वकमधीष्व | शंनेदिवीयम धीष्वेति | 
स प्रत्यक्षमाख्यातमाह । उिटो मे ञनुवाकस्तमध्येष्य इति | गुणैश्च प्रापणमुपदे शः। 
तद्यथा | कथिरत्केचिदाह | सामान्तरं गमिष्यामि पन्थानं मे भवानुपदिदास्विति। 
स तस्मा आचष्टे | अमुष्मिन्नवकाशे हस्तदक्षिणो महीतव्यो ऽमुस्मिन्स्तवाम इति | 
10 स गुणैः प्राप्यमाणमाह | उपदिष्टो मे पन्था इति| एवमेतौ संकीर्णा वुषदोषरेस्ौ 
एवं तर्हत्कायौभावादत्रेत्संज्ञा न भविष्यति | ननु च ऊोप फएवेत्कार्यं स्यात्‌ | 
भका केपः ] इद हि शाब्दस्य व्यथं उपदेशः । कायर्थो वा भवल्युपदे शः अ्रव- 
गार्थो वा| कायै चेह नासि | कार्य चासति यदि श्रवणमपि न स्वादुप्देशो 
-ऽनथैकः स्यात्‌ || इदभस्तीत्कायेम्‌ | अभ ओं अरितः | अनम्तररक्षिणायाभिस्सं- 
15 ज्ञायां सत्यामा्दितेथ ७.२. ९६] इतीटूप्रतिषेधः ` प्रसज्येत ॥ 


सिद्धं तुपदेराने शनुनासिकव चनात्‌ ॥ > ॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | उपदेशने यो ऽनुनाक्षिकः स इत्संज्ञो भवतीति वक्तव्यम्‌ | 

किं पुनरुपदेशनम्‌ } दाखम्‌ | सिध्यति । छतं तई भिद्यते || यथान्यासंमेवास्तु | 
ननु -चोक्तमिस्संज्ञायां सवेभ्रसङ्खो ऽविरोषादिति । नैष दोषः | उपदेरा इति घअयं 
20 करणस।धनः | न सिध्यति | परत्वाछछचुट्‌ प्रामोति† | न तरूमो ऽकर्तीरि च कारके 
संज्ञायाम्‌ [३,२, ९९] इति । किं तर्हि । हलथ [३.३.९२९ | इति | तत्रापि 
संज्ञायामिति वैते न चैषा संज्ञा | परायवचनादसेज्ञायामपि भाविष्यति | प्रयवः 
चनास्संश्ञायांमेव स्याह न वा न द्युपाधेरपापिर्भवति विरोषणस्य वा विदोषणम्‌ | यदि 
नोपापेरपाधिर्मैवति विशेषणस्य वा विद्रेषणं कल्याण्यादीनामिनङ्‌ [४. ९.९२१६। 

25 कुलटाया वा [१९७] इनङ््भाषा न प्राभोति । इनडेवात्र प्रधानम्‌ | विहितः 
प्रत्ययः प्रकृतशानुवतेते९ | इह तर्हि वाकिनादीनां कक्‌ [४.१.१९८] पुजान्ताद्‌- 
न्यतरस्याम्‌ . [९९.९] इति कुग्विभाषा -न प्रामोति । सत्रापि कुभेव. भधानम्‌ । 


क-म कन 


† ९.३. ९. † २.३. ६९५, ‡ ३.३. ९६८. $ ४.९. ९२०. 








पा० ९.३.३. | ॥ श्वाकरनचहाष्ष्यत्र ॥ २६९. 


विहितः ` प्रत्ययः भरकृ तश्वानुवतेते* | एवं. न. चेदमकृतं भत्ति नो पपेहपाधिभेवति 
विशेषणस्य वा विदोषणमिति न च कथिहेषो भवति| एषं च कृत्वा षञ्न प्रा- 
रोति || एवं तार्हि कृत्यल्युटो बहुलम्‌ [३.३.११३] इत्येवमत्र घञ्भविष्यति || 


 हरन्त्यम्‌ ॥ १,।२।२. ॥ 


` हलन्स्ये स्व॑प्रसङ्गः. सर्वान्त्यत्वात्‌ | ९ ।। 5 
हलन्त्ये स्चप्रसङ्कः | सवैस्य हल हत्संज्ञा प्रामोति । कि कारणम्‌ | सवौ- 
न्त्यत्वरात्‌ । सर्वो हि हठ तं तमव प्रत्यन्त्यो भवति || 


सिद्धं तु व्यवसितान्त्यत्वात्‌ || > ॥ 


सिद्धमेतत्‌ कथम्‌| ष्यवसितान्स्यरवात्‌ | व्यवसितान्त्यो हरिर्संश्ञो भवती ` 
 धक्तव्यम्‌ | के पुनव्यवसिताः | धातुप्रातिपदिकप्रस्ययनिपातागमादेश्ाः । सिध्यति } 10 
सूत्रं तहि भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु | ननु चोक्त हलन्त्ये सवेप्रसङ्गः स्बान्त्य- 
त्वादिति । नैष दोषः । आहायं हठन्त्यमित्संश्चं भवतीति सवे हस्‌ तं तमव्धि 
परत्यन्त्यो भव्ति तत्र प्रकषगतिर्धिज्ञास्यते | साधीयो योऽन्त्य इति | कथ साधीयः | 
यो व्यवसितान्त्यः || अथचा सापेक्षो ऽयं निर्देशः क्रियते न ॒चान्यक्किचिदपेक्ष्य- ` 
मस्ति ते व्यवतितमेवापेक्षिष्यामहे || 15 


लक रिस्यानुबन्धाज्ञापितत्वा इल्ग्रहणाप्रसिदददिः।। ३ ॥ 


लकारस्यानुबन्धत्वेनाज्ञापितत्वा द्ल्त्रहणस्याप्रसिदिः | दरन्त्यमित्सं्गं भवती- 
त्युच्यते कारस्यैव तावदित्संज्ञा न प्रापमोति। || 


` सिद्धः तु लकारनिदेशात्‌ ॥ ४ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | लकारनिर्देशाः कमैव्यः | दलन्त्यमित्सेकञं भवति लका- ‰0 
` रथेति वक्तव्यम्‌ ॥ ,. [ि 
. | एकरशेषनिदैशादया ।॥ < ॥ 
', ` आथवेकदोषनिर्दजोऽयम्‌ | दल्‌ च हल्‌ च हल्‌ | हलन्स्यमिस्सैश्गं भवतीति ॥ 


यरि ~~~ ~ न 


# ४.९.१५७. ` † ९.९.७१. 





%२६२ ॥ ध्याकरणप्हाभाष्यम ॥ ¦ [म० १.३.९, 


अथवा ककार स्थेवेदं गुणभूतस्य पहणं तत्रीपदेद्ोऽजनुनासिक इत्‌ [१,३.२] इती- 
 स्तज्ञा भविष्यति || अथवाचायेप्रवृत्तिज्ञापयति भवंति लकारस्येस्संज्ञेति यदयं णलं 
कितं करोति | 


परातिपदिकमतिषेधो त्ताेते ॥ ६ ॥ 


8 भकृ्तदधितान्तस्य प्रातिपदिकस्य प्रतिषेधो धक्तव्यः | उदश्वित्‌ शकृदिति । 
भक्ृत्तदधितान्तस्थेति किमथम्‌ | कुम्भकारः नगरकारः । ओपगवः कापटव इति|| 


इदर्थाभावात्सिदम्‌ ॥ ७ ॥ 


इत्कायोभावादन्ेत्संज्ञा न भविष्यति || इदमस्तीत्काये तित्स्वरितम्‌ [६.१.९८९ | 
इति स्वरितत्वं यथा स्यात्‌ | नैतदस्ति | प्रत्ययम्रहणं त्न चोदायिभ्यति। || इदं 
10 तर्हि | राजा तक्ता | उिनितीत्यादयुदात्तत्वं यथा स्यात्‌; | डिनतीर्युच्यते तत्र ध्यपव- 
गौभावाच्त भविष्यति || इदं तर्द | स्वर्‌ । उप्तम रिति [६.९.५९७] इत्येष स्वरो 
यथा स्यात्‌ | स्वारितकरणतामर्यान्न भविष्यति | न्यङ्स्वरौ स्वरिताविति || इह 
त । अन्तर्‌ । उत्तमशाब्दलिपरमृतिषु वतैते न चान्न तिप्रभृतयः सन्ति || इह 
त सनुतर्‌ उपोत्तमं रितीर्येष स्वरो यथा स्यात्‌ । अन्तोदात्तनिपातनं करिष्यते 
15 स निपातनस्वरो रित्स्वरस्य वाधको भविष्यति || एतचत्र युक्तं यदित्कायाभा- 
वादित्संज्ञा न स्यात्‌| यत्रेर्कायै भवति भवति तत्रेत्संज्ञा | तद्यथा । आगस्त्यकी 
ण्डिन्ययोर गसिकुण्डिनच्‌ [२.४.७०] इतिऽ ॥ 


न विभक्त तुस्माः ॥ १. ।३.। 8 ॥ 


विभक्तौ -तवर्गपरतिषेधो ऽतद्धितेः ॥ ९ ॥ 


20 विभक्तौ तवगेप्रतिषेषो ऽतदधित इति वक्तव्यम्‌ | इह मा मृत्‌ । किमोन्‌ 
[९.३.९२] । क परेप्सन्दीष्यसे | कापेमासा इति || स तरद प्रतिषेधो वक्तष्यः | म 
वक्तव्यः | भावचार्यप्रवृत्तिञोपंयति न विभक्तौ तद्धिते भरतिषेधो भवतीति यदय- 
भिदमस्थमुः [९.२.२४] इति मकारस्वेस्संजापरिक्रणाथमु कार मनुबन्धं करोति ॥| 
यथेतञ्जञाप्यत इदानीमिस्यक्रापि प्रामोति4 । इत्कार्याभावादत्रेस्संज्ञा न भविष्यति || 


ॐ २,२.९; ४.९. ८३; ९२. † ६.९. ९८५१, | ‡ ६.९. ९९७. .§ -६.९, ९६३. बृ ९.२.६८ 








फ १.३.४-०. | - , ॥ न्याकर्णयहाभाष्यष्‌ ॥ २६३ 


इदमस्तीत्का्थै भिस्वोऽन्स्थात्परः [९.९.४७ | इत्यचामन्त्यास्परो यथा. स्यात्‌ | 
हरमावे कृते *. नालि विशेषो भिद चोऽन्त्यात्परं हति वा. परत्वे प्रत्ययः पर. इति 
वा | स एव तांवदिरभावो न प्रामोति | किं कारणम्‌| प्राण्दिदाः प्रत्ययेष्विस्युच्यतेः | 
कः पुनरतीदभावं प्राग्दिशः परस्ययेषु वक्तुम्‌ 1 किं ताह । प्राग्दिदोऽथैष्विर्भावः 
किंसवैनामबहृभ्यो ऽद्यादिभ्यः प्रत्ययोस्पत्तिः‡ || एवं ताहि तदोऽप्ययं वक्तव्यः§ | 5 
तदश्च भिदचोऽन्त्यात्परत्वेन न सिध्यति | ननु चात्राप्यत्वे कृते 4 नास्ति. विशेषो 
मिदचो ञन्त्यात्पर इति बा परत्वे प्रत्ययः पर इति वा । तद्थत्वं न प्रामोति | किं 
कारणम्‌ । विभक्ताविल्युच्यते || एवं तर्हि यकारान्तो दानीं करिष्यते | किं यकारो 
न श्रूयते | लुप्रनिर्दि्टो वकारः ॥ 


चुटू ॥ १. ।२. । `9 ॥ 10 


युन्ुप्णपोश्चकारमतिभेधः ।। ९ ॥ 
चुन्चुधूणपोधकारस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः** | केशचुन्तुः केशचणः || 
 इदथीभावास्सिडम्‌ |  ।। | 
इत्कायौभावादत्रेत्संज्ञा न भविष्यति || इदमस्तीत्कायै चितो ऽन्त उदानो 
भवतीत्यन्तोदात्तत्वं यथा स्यात्‌1†1 | पित्करणमिदानीं किमथ स्यात्‌ । 15 
| पित्करणं किमर्थमिति चेत्प्यायार्थम्‌ ॥ ३॥ 
पित्करणं किमथेमिति वेत्पंयायार्थमेतस्स्यात्‌!‡ ॥ एवं तर्हि यकारादी चु्बु- 
पणौ । किं यकारो न श्रूयते | लुपरनिररि्टो यकारः ॥ 
इर उपसंख्यानम्‌ ॥ ४ ॥ 
इर उपसंख्यानं कतैव्वम्‌ | राधिर्‌ । भरुधत्‌ भरौत्सीत्‌$$ ॥ भवयवद्नहणा- 20 
स्षि्धम्‌ | -रेफस्यात्र हलन्त्यम्‌ [१-३.३] इतीत्संश्ञा भविष्यतीकारस्योपरेशेऽज- 
नुनासिकः | २९. इति । 
अवयवग्रहणादिति. चेदिदिदिपिप्रसङ्गः ॥ ९ ॥ 
` ` ` अवथवंमहणादिति ` वेदिदिदिषिरपि प्रामोति । मेत र्ता | हदितो नम्धातोः 


__ =*५. १.३.  1†२.९.२. {९.३.२, ` ` § ९ ` ` ¶ ०.२.९०१ 
~ ५ ५.२.३९... 41 ९९.६९२ , {२९.४.५4 २,९.५०  ; 


२१६४ ॥ व्याक रग ग्रराभाष्यन्र ॥ [म० ९.३५१. 


[७.१.९८] इति नुम्परामोति ॥ यदि पुनरयमिदिदिधिः कुम्भी धान्यन्यायेन विज्ञा - 
येत | तद्यथा | कुम्भीधान्यः श्रोज्रिय हस्युच्यते | यस्य कुम्*यामेव धान्वं स कुम्भी- 
धान्यः | यस्य पुनः कुम्भ्यां चान्यत्र च नासौ कुम्भीधान्यः | नायमिदिहियिः 
कु स्भीधान्यन्यायेन शक्यो विज्ञातुम्‌ । हह हि दोषः स्यात्‌ | टुनदि । नन्दथु- 
5 रिति || एवं तर्हि तवं विज्ञायत इकार इदस्य सेऽयमिदित्‌ तस्येदित इति | कथं 
तर्हि । इकार एवेत्‌ हदित्‌ हदिदन्तस्येति || अथवा ऋटकारस्थैवेदमित्वेभूतस्य मह- 
णम्‌* ] तन्नो पदेरोऽजनुनासिक इतीस्संज्ञा भविष्यति ॥ अथवाचार्यप्रवृत्तिज्ञी पयति 
तरैवंजातीयकानामिदिरिषिभवतीति यदयमिरितः कां चिन्रुमनुषक्तान्पठति | उवृन्दिर्‌ 
निरामने । स्कन्दिर्‌ गविश्ोषणयोः || अथवा चा्ैभरवृत्ति्ौपयती शौष्दस्येस्संज्ञा 
10 भवतीति यदवामिरितो वा [३.१.९७] इत्याह | भथवान्त इति वैते | 


तस्य टोपः॥ १।३।९॥ 


तस्यय्हणं किमर्थम्‌ । इत्संज्ञकः प्रतिरनििरयते | त्रैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | परकृत- 
मिदिति वतेते | क्र प्रकृतम्‌ | उपदेशे ऽजनुनासिक इत्‌ |१.३.२] इति ¡ तदे प्रथ- 
मानिर्िष्टं षष्ठीनिर्दिष्टेन वेहार्थः | अथोद्विमक्तिविपरिणामो भविष्यति | तद्यथा | 
15 उच्चानि देवदत्तस्य गृहाणि । भामन्त्रयस्तरैनम्‌ । देवदन्तमिति गम्यते । देवद लस्य 
मावो ऽा हिरण्यं च | भद्यो वैधवेयः | देवदत इति गम्यते । पुरस्तात्ष्टीनि- 
रिष्टं सदथादहितीयानिर्रिष्टं प्रथमानिर्दिष्टं च भवति । एवमिहापि पुरस्तासथमानि- 
ष्टं सदथात्यष्ठीनिर्दटं भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । ये ऽनेकाल इत्संत्ञा- 
स्तेषां ठोपः स्वीदेश्यो यथा स्यात्‌ | भथ क्रियमाणे अपि च तस्यसहणे कथमिव लोपः 
90 सर्वादेशो लभ्यः | भ्य ` इत्याह | कुतः | वचनप्रामाण्यात्‌ | तस्यमहणसामथ्यात्‌ | 


इतो छपे गल्च्कानिष्ठाषूपसंख्यानमिस्मतिषेधात्‌ ॥ ९॥ | 


इतो रोपे गल््कानिष्ठासुपसं ख्यानं कतैव्यम्‌ | णल्‌ । अहं पपच | चका | 

देवित्वा सेवित्वा | निष्ठा ¡ शयितः शायितवान्‌ | किं पुनः कारणं न सिध्यति । 

इसतिषेधात्‌ । प्रतिषिध्यते जतरेस्संत्ता | णलुत्तमो णिहया भवति | क्का सेण्न 
2 किद्भवति | निष्ठा सेण्न किडवत्ीति; 1 


# ७,१६.९००; ९,९.५६. ˆ ` † ०,९.९७, ` . ०,९.९९; १.२.६८; १९. 





पा ९.३.९.] ॥ व्याकरनमहाभाष्यम ॥ २६५, 
सिद्धं तु णलादीनां ग्रहणमरतिषेधात्‌ ॥ २॥ 
सिद्धमेवत्‌ | कथम्‌ | गकारैनां चहणानि प्रतिषिध्यन्ते | गु मो वा णिद्रह- . 


णेन गृह्यते | त्का सेण्न किद्भहणेन गृह्यते । निष्ठा सेण्न किद्रहणेन गृद्यत इति 


निर्दिष्टलोपाद्वा || ३ 
निरदिशटलो पाहा सिद्धमेतत्‌ | अयवा निर्शि्टस्यायं लोपः क्रियते तस्मास्मि द्मेतत्‌ || $ 


तेत्र तुस्मानां प्रतिषेधः ॥ ४॥ 
तत्र तुस्मानां प्रतिप्रेषो वक्तव्यः | तस्मात्‌ तसिमिन्‌ | यस्मात्‌ यस्मिन्‌ । वृक्षा 
बरल्षाः | अचिनवम्‌ अद्नत्रम्‌ अकरवम्‌ || 
न वोचारणसामयथ्योत्‌ ॥ ^ ॥ 
नवा वक्तञयः | किं कारणम्‌ | उच्यारणस्ामथ्योदत्र रोपो न भविष्यति || 10 


अनुजन्धलोपे भावाभावयोर्विप्रतिषरेषादप्रसिद्िः ॥ ६ ॥ 
अनुन्धलोपे भावाभाषयो्धिसेधादप्रसिदिः | न ज्ञायते केनाभिप्रायेण प्रस- 
जति केन निवृति करोतीति ॥ 
सिद्ध त्वपवादन्यायेन ॥ ७ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | भपवादन्यायेन || किं पुनरिह तथा यथोस्सगौपव्रादौ 115 


भावो हि कायौर्यो नन्यार्थो लोपः । ८ ॥ 
कायै करिष्यामी्यनुन्ध भास्यते कायौदन्यन्मा मृदिति लोपः | 
अथ यस्यानुबन्ध आसज्यते किं स तस्थैकान्तो मवत्याहोलिदनेकन्तः | 
एकान्तस्तत्रोपलन्धेः ॥ ९॥। 
एकान्त इत्याह | कुतः | तज्रोपलञ्धेः | तत्र्थो द्यसावुपठलभ्यते | तथथा | 20 
वृक्षस्था शाखा वृक्षिकान्त उपकभ्यते | 
तत्रासरूपसवदिशदाप्पतिषेभे पृथक्छनिदैरोऽनाकरान्तत्वात्‌ ॥ ९०॥ 
तज्ाखरूपविषौ रोषो. भवति | कर्मण्यण्‌ [३.२.९| आतो श्नुपसभ कः [३] हति 


34 # 


8६ ॥  व्याकरणयमहाभाप्यम ॥ [म० १.३.९; 


काविषये ऽणपि प्रा्ोवि* || सववादेश्चे च दोषो भवति | दिव ओस्सवौदेश्ः प्रामोति। | 
राप्पतिषेधे पृथच्छनिर्देशः कर्वेष्यः ¡ अदाभ्डैपायिति वक्तव्यम्‌‡ | किं पुनः कारणं 
न सिध्यति | अनाकाराम्तत्वात्‌ | ननु चान्ये कृते भविष्थतिं | तद्याच्छं न प्रामोवि 1 
किं कारणम्‌ | अनेजन्तत्वात्‌$ ॥ अस्तु तदयेनेकान्तः | 


$ अनेकान्ते वृत्तिविदोषः ॥ ९९॥ 


यद्यनेकान्तो वृत्तिषि दोषो न सिध्यति । किति णितीति कायोणि न िभ्यन्ति | 
किं हि स तस्येद्धवति येनेत्कृतं स्यात्‌ ।| एवं तह्यैनन्तरः |. 


अनन्तर इति चेत्पूवपरयोरित्कृतभसङ्गः ॥ ९२ ॥ 
अतन्तर इति चेत्पवैपरयोरित्कृतं प्राभोति । वुज्छण्‌१ ॥ 


10 सिद्धं तु व्यवसितपाठात्‌ ॥ ९३॥ 


सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । व्यवसितपाठः कतैष्यः | वञ्‌ छण्‌ | स चावदवं 
व्यवक्षितपाठः कतेन्यः | 


इतरथा ्येकान्तेऽपि संदेहः ॥ ९४॥ 
अक्रियमाणे व्यवसितपाठ एकान्तेऽपि संदेहः स्यात्‌ | तत्र न ज्ञायते किमव 
15 पूर्वैस्य भवस्थाहोस्वित्पर स्येति ॥ संदेहमातरमेतद्भवति स्ैसदेहेषु चेद मुपतिष्ठत 
व्याख्यानतो विहोषभरतिपत्तिने हि संदेहादलक्षणामिति पूर्वस्येति व्याख्यास्यामः ॥ 


| | वृचादा ।। ९९ ॥ 
वृत्ताया पुनः सिद्धमेतत्‌ । बुद्धिमन्तमाद्युदात्तं॑दृष्टरा जिदिति व्यवसेयम्‌ | अ- 
न्तोदात्तं दृष्टा किदिति** ॥ युक्तं पुनर्यहतनिमि्षको नामानुबन्धः स्याचचानुबन्ध- 
20 निमिलतकेन नाम वृत्तेन भवितव्यम्‌ | वृत्तनिमित्तक एषानुबन्धः । वृत्तज्ञो ह्याचा 
नुबन्धानासजति ॥ 
उभयमिदमनुबन्धेषुक्तमेकान्ता अनेकान्ता इति | किमत्र न्याय्यम्‌ | एकान्ता 
इत्येव न्याय्यम्‌ । कुत एतत्‌ । अज्र हि हेतुग्यपदिष्टो यञ्च नाम सहेतुकं तङ्याय्यम्‌। 
ननु चोक्तं तजासरूपसकीदेरादाप्प्रतिषेषे पथक्छनिर्देशोऽनाकारान्तत्वादिति -| अस 


9 द. ९.९४. ¶ ९,१.८४; ९.९०५५. [९.९.२० § ६.९, ४५. भु ४.२, ८०. 
भ# ७, २. १९७; ९१८; ६. ६०१९०; २६५. 





पार -९.२.९.०. ] 11. व्याकररणम्रहाभाष्यय ॥ ११७ 


कूपविधौ तावत्न दोषः | आचायप्रतरृसिज्ौपयति नानुबन्धकृतमस्मरूप्यं भवतीति यदयं 
र्दातिदधास्येपविभाषा [३.१.१३९] हति विभाषा शं शासि | यदप्युक्तं सर्वादेशा 
इति | अत्राप्याचायैप्रवृततिर्खापयति नानुबन्धकृतमनेकाल्त्वं भवतीति यदयं शिस्समैस्य 
[१.९.९९] इत्याह | यदप्युक्तं दाप्मतिषेषे पथत्छनिर्ईशः क्ैव्य इति | न 
कतैष्यः | जाचार्यप्रवृसिज्गौ पयति नानुषन्धङृतमनेजन्तस्व॑ भवतीति यदयमुदीचां 5 
माडो व्यतीहारे [३.४.१९] इति मेङः सानुबन्धकस्याच्वभूतस्य ग्रहणं करोति ॥। 


यथासंख्यमलुदेशः समानाम्‌ ॥ १. + २ । १.० ॥ 


किमिहोदाहरणम्‌ | इको यणचि | ६.१. ७७] 1 दध्यत्र मध्वत्र | तैतदासि | स्था- 
नेऽन्तरतमेन्प्प्येतर्मिद्धम्‌* । कुतं भान्तयेम्‌ । वालुस्थानस्य तादुस्थान भस्थान- 
स्यो्ठस्थानो भविष्यतीति || इदं तरिं । तस्थस्थमिपां साम्तम्तामः [३.४.१०९] 10 
इति । ननु चेतङ्पि स्थानेऽन्तरतभेनेव सिद्धम्‌ । कुत आन्तयेम्‌ ॥ एकाथेस्थैका्थौ 
व्यस्य व्यर्थो बहर्थस्य बहर्यो भविष्यतीति || इदं तर्हि । तूदीशलातुर बरमैतीकू चवा- 
राङ्क्‌षृण्डञ्यकः [४.३.९४] इति. || 
मये पुनरिदमुच्यतेः। 


संज्ञासभासनिर्देशात्सवंप्रसङ्गो ऽनुदेरास्य तत्रै यथासंख्यव खनं 1 
नियमार्थम्‌ ॥ ९ ॥ | ` 


संज्ञया समासैथ निर्देश्याः क्रियन्ते | संश्ञया तावत्‌ । परस्मैपदानां गलतुसुस्थ- 
लथु सणल्वमाः [३.४.८२] इति | समासैः । तुदीहालातुश्वर्म॑तीक्‌ चवाराड करण्ड - 
ञ्यकः [४.३.९४] इति | सं्ञासमासनिरदे श्चादेतस्मात्कारणात्सर्वप्रसङ्गः | सर्व- 
स्येहिं दास्य सर्वो नुदेशः प्रापनोति । इष्यते च समसंख्यं यथा स्यादिति तञ्चान्तरेण 20 
यल न सिध्यतीति तत्र यथासंख्यवचनं नियमार्थम्‌ । एवमथंमिदमुच्यते || किं 
पुनः कारणं संज्ञया च समसैश निर्देशाः क्रियन्ते | 


संज्ञासमासनिर्देराः प्रथग्विभक्तिसस्यनुचारणा्थः ॥ २ ॥ 
संशया च समावैथ निर्दे्लाः क्रियन्ते पृथग्विमक्तीः संशिनथ मोद्धीचरभिति ॥ 


[षरि णण षिभिः म 


९६८ ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यभ.॥ [ म० ९.२.४. 


प्रकरणे च सवेसंप्रत्ययाथः ।। ६ ॥ 
प्रकरणे च सर्वेषा संप्रत्ययो यथा स्यात्‌ । विदो लटो वा [३.४.८३] इति 
कं पुनः शाष्दतः साम्ये संख्यातानुदेशे भवत्याहोस्विदथेतः | कथा विरोषः। 


संख्यासाम्यं राब्दंतश्चेण्णलादयः परस्मैपदानां डारोरसः पथमस्या- 
5: ` ` यवायाव एच इव्यनिददाः ॥ ४ ।| ` 
भगमको निर्देडो अनिर्देशः | परस्मैपदानां णठतुसुस्थलथुक्षणल्वमाः [३.४.८२] 
इति णलादयो बहवः परस्मेपदानाभिस्येकः दाब्दः. | वैषम्यात्संख्यातानुदेरो न 
भरामोति | डारौरसः प्रथमस्य | डारौरस बहवः प्रथमस्येव्येकः दाब्दः | वैषम्या- 
स्संख्यातानुदेशो न प्राभोति || एचो ऽयवायावः [६.५.७८] | भयवायावो बहव 
10 एच इत्येकः शाब्दः | वैषम्यात्संख्यातानुदेरो न प्रमेति ॥ अस्तु तदर्थतः । 


अर्थतश्वेल्कखटोनेन्दययरीहणसिन्धुतक्षरिखादिषु दोषः ॥ ५ ॥ 


` अर्थतधल्ललुटोनैन्थरीहणसिन्धुतक्षिकादिषु दोषो भवति || स्यतासी ठललगे 
[३.९.३३] । स्यतासी हौ लृुटोरित्यस्य ` चयोऽथोः । वैषम्यात्संख्यातानुदेशो न 
प्रापरोति || नन्दिम्रहिपचादिभ्यो ल्युणिन्यचः [३.१.९३४] | नन्दादयो बहवो 
15 ल्युणिन्यचल्रयः । वैषम्यास्संख्यातानुदेशो न ॒प्रामोति ॥ भरीहणादयों बहवो 
वुञादयः सप्रददा† | वैषम्यास्संख्यातानुदेशो न भ्रामोति ॥ सिन्धुतक्षशिलादिभ्यो 
ऽणजौ [४.३.९३] । तिन्धुतक्षिलादयो बहवो ऽणजो दौ । वैषम्यात्संख्याता- 
सुदेशो न प्रामोति ॥ 


आत्मनेपदविधिनिष्ठासावेधातुकद्धिग्रहणेषु ॥ £ ॥ 


20 अआरमनेपदविधिनिष्टासावेषातुकिमरहणेषु च दोषो भवति || आतमनेपदविधिथ न 
सिध्यति | अनुदातच्तडित आस्मनेपदम्‌ [१.३.१२] । अनुदात्तौ हावास्मनेपदमि- 
व्यस्य हव ‡ | त्र संख्यातानुदेशः प्रामोतिं || निषा | रदाभ्यां निश्नतो नः पूर्वस्य 
च दः [८.२.४२] इति | रेफदकारौ शै निषठेत्यस्य दहाव्थौ $ | तत्र संख्यातानुदेशः 
प्ामोति ॥ सा्वैधातुकद्विमहणेषु च दोषो भवति । भरसोरहोपः [६.४.९१९] 

०5; अमस्ती डौ सार्वधातुकमिस्यस्य हावर्थो¶ | तत्र संख्यातानुदेशः प्रापोति ॥ 


=-= = 9 0 9 णो 


# २.४. ८९. ¶ ४.२. ८०. ‡ ९.४, ९००. $ ९.९, २.६. 4 ३,४. ६६९. 





पा० ९.२.९०. ] ॥व्याकरणमहापाष्यम्‌।। . २६९. 


` एङः पूर्वेतवे प्रतिषेधः | ७ ॥ 
एङः पूैस्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | एङः पदान्तादति ङसि ङसो [६.१. ९०९; 
९९०] | उाक्तेङसौ हवेडित्यस्य हावर्थौ | तज्र संख्यातानुदेशः भ्रामोति ॥ भस्तु तशि 
दाब्दतः | ननु चोक्तं संख्यासाम्यं शब्दतथेण्णलादयः परस्मैपदानां डारौरसः प्रथ- 
मस्यायेवायाव एच ` इत्यानिर्देदा इति | नष दोषः | स्थानेऽन्तरतमः [१.९.९०] इत्य- 5 
नेन व्यवस्था भविष्यति | कुत आन्तर्यम्‌ | एकाथैस्थेकार्थो च्यथेस्य व्यर्थो वहर्थस्य 
बहथेः | संवृतावणैस्य संवृतावर्णो विवृताषणेस्य विवुतावणेः |. 


अतिप्रसङ्गो . गुणवृद्िप्रतिषेधे किति ॥ ८ ॥ 

अतिप्रसद्खो भवति गुणवृद्धिम्रतिषेषे क्विति" | गुणवृद्धी डे कितौ द्रौ | तत्र 
संख्यातानुदेशः प्रामोति || तरैष दोषः| गकारोऽप्यत्र निरदिरयते | तद्रकार ग्रहणं 10 
कतेव्यम्‌ | न कतेव्यम्‌ | क्रियते न्यास एष | ककारे गकारशत्वेभूतो। निरि 
इयते | गिति [कति रितीति ॥ . 

उदि कुले राजिवहोःः ॥ ९ ॥ 

उदिकृले हे राजेव दौ । तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति ॥ नेष दोषः | नोदिरूप- 

पदम्‌ । किं तरि । विदोषणं रुजिवहोः | उत्पुवौभ्यां साजेवहिभ्यां कूर उपपद हति | 15 
तच्छीलादिषु धातुतरिग्रहणेषु ॥ ९० ॥ 

तच्छीलादिषु धातुत्रिभहणेषु दोषो भवति | बिदिभिदिष्ठ्दिः कुरच्‌|३.२.९९ २ 

विदिभिदिच्छिदयलयस्तच्छीलादयज्ञयः$ | तत्र संख्यातानुदेदाः प्रामोति ॥ ` ` 


घञादिषु द्विग्रहणेषु ॥ ९९ ॥ 
घादिषु दि्हणेषु दोषो भवति । निरभ्योः `पल्वोः [३.३.२८] | निरभी ही % 
पूल्वी हौ । तत्र संख्यातानुदेशः भरामोति ॥ नैष दोषः । इष्यते चात्र संख्याता- 
नदेाः । निष्पावः भभिलाव हति | एवं तद्यैकतैरि च कारके मावे चेति¶ है ` 
पुल्वौ च दौ । तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति || 
 . अवे दृखलोः करणाधिकरणयोः.॥ ९२॥ ` . 
तृखौ हौ करणाधिकरणे दै** | तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति || ˆ . . ४ 


भः ९.६५ ९९, ¶ ८०४, ९५, “ ४ . ०२. १९६. $ १.२. ९२४. ¶ ३.१ ९९५ ९, ८ 
॥ ** ३.२. ६२०; ९६०, | 


१७० ॥ व्याकरनग्हाभाष्यय ५. , [म०१्.४ 


कतैकमेणोश् भृरूओः* ॥।: ९३ 
कतैकभणी हे मूक जी हौ । तत्र संखूयातानुदेशः प्रामोति ॥ 
अनवकुप््यमषेयोरकिवृत्तेऽपि। ॥ ९४ ॥ 
अनवकुम्यमर्शौ दौ किंवृं्तार्िवृत्ते हे | तत्र संख्यातानुदेाः प्राभोति ॥ 


° कृभ्वोः चकाणमुलौ ।। १९ ॥ 
कृभ्वौ डौ चाणमुलौ डौः । तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति || 
अधीयानविदुषोदछृम्दोव्राह्मणानि ॥ ९६ ॥ 
छन्दोब्राह्मणानीति हे भषीते वेदेति च हौ$ | तत्र संख्यातानुदेदाः प्राभोति ॥ 
रोपधेतोः पथिदूतयोः ॥ ९५७ ॥ 
10 रोपधेतोः प्राचाम्‌ [४.२.९२३] तदच्छति पथिदुतयोः [४.३.८९ | । रोपष- 
तौ हौ पथिदूतौ दौ | तत्र संख्यातानुदेशः प्रामोति | 
तत्र भवस्तस्य म्याख्यानः क्रतुयज्ञेभ्यश्च ॥ ९८ ॥ 
 तत्रमवंस्तस्य व्याख्यानौ डौ क्रतुयज्ौ दौ ¶ | तत्र संख्यातानुदेशः प्राोति ॥ 


संघादिष्वञ्पभृतयः ॥ १९ ॥ 
15 संबारिष्वञ्परमृतयः** संख्यातानुदेदोेन न सिध्यन्ति || तैष दोषः । षोषमहण- 
मपि तत्र कतेष्यम्‌ || 
वेंशोयशमदेभगाद्यल्खी ॥ ५० ॥ 
ेशोयदशाभादी शै यल्खौ हौ | तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति | 
हसिढसोः ख्यत्यात्परस्य ॥ ५९ ॥ .. 
20. . डसिङसै कै ख्यत्यौ है; । तत्र संख्यातानुदेशः प्राभोति ॥ 
न वा सभानयोगवथनात्‌ ।॥ ०० ॥ 
नं चैष दोषः | किं करणम्‌ । समानयोगवचनात्‌ । समानयोगे संख्यातानुदेधं 
वश्यामि ॥ 


1 + इ.१.९२७. 1 १,१,९४९. 1 ९.४, ६९; ५९. § ०,२.९६) ५९. 
थु ५.२.५६; ६९६८. ++ ४.१.६२०. , †† ४.४, ९९९; ९३२. {{ ६.९. ९९०; ९९६. 








प° ९.२.१९. ॥ व्याकरनमहाभाच्यम्‌-॥ २9१ 


तस्य दोषो विदो-लटो वा ॥ ५६३॥ 
तस्यैतस्य लक्षणस्य दोषो विदो र्ट वा [३.४.८२] इति संख्यातानुदेशो न 
भ्रामोति ॥  __ 
ध्नाधेटोः नाडीमुषटयोच ॥ ५४॥ 
ध्मापेटोनाडीमुष्टचचोथ' संख्यातानुदेशो न प्रामोति || ४ 
खलगोरथात्‌ इनित्रकट्यचश्च! ॥ २९५ ॥ 
संख्यातानदेशो न परामेति ॥ 
सिन्ध्वपकराभ्यां कन्‌ अण चः ॥ २६॥ 
संख्यातानुदेशो न प्रामोति ॥ 
युष्मदस्मदोश्वदेकाः ॥ ७ ॥ 10 
युष्मदस्मदोधादेशाः $ संख्यातानुदेशेन न सिध्यन्ति | 
तस्माग्यास्मिन्पन्ति ऽल्वीयांसो रोषास्तमास्थाय प्रतिविषेयं दोषेषु | अथवैषं 
वष्ट्यामि | यथासंख्यमनुदेशः समानां स्वरितेन । ततो अधिकारः । अधिकारथ 
भवति स्वरितिनेति । एवमपि स्वरितं दृष्टा संदेहः स्यात्‌ | न श्ञायते किमयं 
समसंख्या्थ आहोस्विदधिकारा्थं इति । संदेहमात्रमेतद्भवति सवसंदेहेषु चेदमुपति- 15 
छते व्याख्यानतो तरिशेषप्रतिपत्तिन हि संदेहादलक्षणमिति समसंख्यथे इति ग्या- 
ख्यास्यामः ॥ | | 


स्वरितेनाधिकारः ॥ १।२।११ ॥ 


किमयेमिदमुच्यते । 
अधिकारः प्रतियोगं तस्यानिदेार्थः ॥ ९ ॥ 20 
अधिकारः क्रियते प्रतियोगं तस्यानिर्देशार्थ हति । किमदं प्रतियोगमिति | योगं 
येगं प्रति प्रतियोगम्‌ । योगे योगे तस्य यहणं मा काषमिति || किं गतमेतदियता 
द्त्रेण | गतमित्याह | क्रुतः । लोकतः । तद्यथा | लोके ऽधिक्ृतोऽसौ मामेऽधिक्- 
तोऽसौ नगर इस्यु च्यते यो यत्र व्यापारं गच्छति | शाब्देन चाप्याभिकृतेन कोऽन्यो 
व्यापारः शक्योऽवगन्तुमन्यदतो योगे योग उपस्थानात्‌ ॥ % 


2.७२ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌॥ [म० ९.२.९१; 


, नवा निरिरयमानापिशृतत्वाद्यथा लोके ॥ ९॥ 

न वैतसयोजनमस्ति | किं कारणम्‌ | निर्दिरयमानाधिकृतत्वाश्था सोके | 
निरि रयमानमधिक्ृतं गम्यते | तद्यथा | देवदत्ताय गौर्दीयतां यज्ञदत्ताय विष्णुमि- 
जायेति | गौरिति गम्यते ।. एवमिहापि पदरुजविशस्पृशो धञ्‌ [३.३.९६] ब 

5 स्थिरे |९७| भावे |९८ | घाञिति गम्यते | 
अन्यनिर्देशस्तु निवतैकस्तस्मात्यरिभाषा ॥ ३ ॥ 
अन्यनिर्देश्तु रोके निवर्तको भवति । तद्यथा | देवदत्त।य गौर्दीयतां यक्ञ- 
दसाय कम्बलो विष्णुमित्राय चेति | कम्बलो गोर्भिवतेको भवति | एवमिहा- 
प्यमिविषौ भाव इनुण्‌ [३.३.४४ | घञो निवतेकः स्यात्‌ । तस्माससरिभाषा । 
10 तस्मात्पारेभाषा कतेष्या || 
| अधिकारपरिमाणाज्ञानं तु ॥ ४ ॥ 
अधिकारपरिमाणाज्ञानं तु भवति | न ज्ञायते क्रियन्तमवाधिमधिकारोऽनुषतैत 
इति || 
| अधिकारपरिमाणज्ञानाये तु 
15 . अधिक्रारपरिमाणज्ञानाथमेव तद्यैयं योगो वक्तव्यः | अपिकारपरिमाणं ज्ञा 
स्यामीति | कथं पुनः स्वरितेनाधिकार इत्यनेनाधिकारपरिमाणं हाक्यं विज्तुम्‌ | 
एवं वक्ष्यामि | स्वरिते नाधिकार इति | स्वरितं दृष्राधिकारो न भवतीति| केने- 
दानी मधिकारो भविष्यति | लोकिकेऽधिकारः । 
नाधिकार हति वेदुक्तम्‌ ॥ ९॥ 
20 किमुक्तम्‌ | अन्यनिर्दशस्तु निवतैकस्तस्मात्परिभाषेति || अधिकारार्थमेव तर्य 
योगो वक्तव्यः | `ननु चोक्तमधिकारपरिमाणान्ञानं त्विति | 
यावतिथो ऽलनुबन्धस्तावतो योगानिति वचनास्सिद्धम्‌ ॥ ६ ॥ ` 
 यावतिथो ऽलनुबध्यते तावतो योगानधिकारोऽनुवरषैत इति वक्तष्यम्‌ || भये- 
दानीं यज्नाल्पीयांसोऽलो भूयस योगाना्धंकारोऽनुषतेते कथं तत्र कतैव्यम्‌ | 
2 ` भूयसि प्राग्वचनम्‌ ।। ७ ॥ 

भूयसि प्राग्वचनं कतेन्यम्‌ । प्रागमुतं इति वक्तभ्यम्‌ ॥ तर्त वक्तव्यम्‌ | न 

वक्तव्यम्‌ । संदेहमात्रमेतदवति सवसंदेहेषु नेदमुपति्ते व्याख्यानतो विदोषप्रति. 








पा० १.३.९९. ॥ व्याकरण प्ाभानब ॥ नि भ 


पत्तिने हि संदेहादलक्षणमिति प्रागमुत इति. व्याख्यास्यामः | यथेवं नार्थोऽनेन । 
केनेदानीमधिकारो भविष्यति । रोकिको अधिकारः | ननु चोक्त नाधिकार हति 
चेवुक्तम्‌ किमुक्तम्‌ भन्यनिर्देशस्तु निवतेकस्तस्मात्परिभाष। |. संदेहमाज्रमेतद्वति 
सवसंदेहेषु नेदमुपतिष्ठते व्याख्यानतो विदोषप्रतिपरत्तिने हि संदेहादलक्षणमिवी- 
` नुण्वभिति संदेहे षमिति व्याख्यास्यामः || । 5 


न तर्हीदानीमयं योगो वक्तव्यः । वक्तव्यश्च | किं प्रयोजनम्‌ । स्वरितेनाभि- 
कारगतिर्येथा विज्ञायेत | अधिकं कायेम्‌ । अधिकः कारः || 
अधिकारगतिः । गोजियोरुपसजेनस्य १.२.४८ | इत्यत्र गोटाङ्हणं चोदितं 
तच्च कतेव्यं भवति । ओीम्रहणं स्वरयिष्यते. | स्वरितेनाधिकारगतिमेउतीति जियाम्‌ 
[४.९.२३ | हत्येवं प्रकृत्य ये प्रत्यया विहिवास्तेषां ब्रहणं विक्षास्यते ! . तश स्वरिते - 10 
नाधिकारगतिभेवतीति न दोषो भवति ॥ 
अधिकं कायम्‌ । अपादानमा चायः कि न्याय्यं मन्यते यत्र प्राप्य निवृत्तिः | 
तेनेहैव स्यात्‌ भामादानच्डति नगरादागस्डति । सांकादयकेभ्यः पाटलिपुत्रका 
भभिरूपतरा इत्यत्र न स्यात्‌ | स्वरितेनाधिकं काये भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति | 
लधापिकरणमाचायैः कि न्याय्यं मन्यते यक कृत्स्न आपारात्मा व्याप्रो भवति | 18 
तेनेहैव स्यात्‌ तिलेषु शम्‌ दभि सर्िरिति । गङ्गायां गावः कुषे गर्कुलभित्यत्र' 
न स्यात्‌ । स्वरितेनाभिकं कार्य भवतीत्यत्रापि सिद्धं भवति । अधिकं कायम्‌ ॥ 
धिकः कारः । पृवेविप्रतिपेधा न पठितव्या भवन्ति । ` गुणवृद्ौर्वतृज्वद्गा- 
वेभ्यो नम्युवैविप्रतिषिद्धं नुमचिरतृज्वद्गावेभ्यो नुडिति" । न्रौ स्वरयिष्येते । 
तज्र स्वरितेनाधिकः कारो भवतीति नुपधुटौ भविष्यतः || कथं पुनरधिकः कार 2 
इस्यनेन पूवेविप्रतिचेधाः शक्या न पठितुम्‌ । लोकतः । तद्यथा । लोकि अपिकमयं 
कारं करोतीर्युच्यते योऽयं बुबेलः सन्बलवद्गिः सह भारं वहति । एवमिहाप्व- 
 धिकमर्यं कार करोतीत्युच्यते योऽयं पु्वैः सन्परं वाधते || ` | 
अधिकारगतिः ल्यथा विेषायापिकं कायम्‌ | 
` भष यो लयो अधिकः कारः पुवंतव्िप्रतिषेषाथेः सः || . : 
हवि श्रीभगवस्पतश्डलिविरजिते ध्वाकरणमहाभाष्ये प्रथमस्वाध्यायस्य तृतीये 
वरे प्रथममाह्िकम्‌॥ 


ॐ 


- से ॥ भ्थाकरक्महाभाष्यन्र्‌ ॥ (र्दद. 


हि 1 


| अनुदात्तङित आस्मनेषदम्‌ ॥१।३। १२ ॥ 


विकरणेभ्यः प्रतिषेधो वक्तण्यः । चिनुतः नुतः लुनीतः पुनीतः | डित 
शस्यात्मनेपदं प्रामोति+ || तैष दोषः । तैव विज्ञायते ऊकार हृदस्य सोऽयं डित्‌ 
डित इति | कथं तर्हि । उकार एषेत्‌ डित्‌ डित इति || भथवोपदेश इति वतैते1॥| 
४ भयवोक्तमेतत्सिदधं त्‌ पूर्वस्य कायौतिदेशादिति{ ॥ सर्वथा चङ्ङ्भ्यां प्रापनोति | 
एवं तर्हि धातोरिति वतेते | कर प्रकृतम्‌ | भूवादयो धातवः [१.३.१९] इति । कै 
प्रथमानिर्दिष्टं पन्चमीनिर्दिरेन वे्हाथेः | अथौदहिभक्तिविपरिणामो भविष्वति | 
तथथा । उथ्ानि देवदत्तस्य गृहाणि । आमन्त्रयस्यैनम्‌ । देवदत्तमिति गम्यते | 
देवदतस्य गावो अवा हिरण्यं च | आद्यो वैवेयः | देवदग्ल इति गम्यते | पुरः 
10 स्तात््ठीनिर्दि्टं सदथतथमार्निर्िष्टं दितीयानिर्ि्टं च भवति । एवमिहापि पुरस्ता- 
स्भमाभिरदिषटं सदथोस्पश्चमीनिर्शि्टं भविष्यति ॥| 
किमे पुनरिदमुच्यते। 
आस्मनेपदवखनं नियमार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
नियमार्थोऽयमारम्भः | किमुच्यते नियमार्थो ऽयमिति न पुर्विध्यर्थो अपि स्वत्‌ 


15 लविधानाद्िहितम्‌ | > ॥ 
छविषानाद्यास्मनेपदं परस्मैपदं च विहितम्‌ || असिति प्रयोजनमेतत्‌ | किं 
तर्हीति | विकरणैस्तु ्यवदहितस्वान्नियमेो न प्राभोति । इदमिह संप्रधार्यम्‌ | विकरणाः 
क्रियन्तां नियम्‌ इति किमत्र कतेष्यम्‌ । परत्वाहिकरणाः¶ | नित्याः खल्वपि 
विकरणाः 1. कृतेऽपि नियमे प्रामुवन्त्यकृतेऽपि प्रापुवन्ति । नित्यस्वात्परत्वा्च 
90 विकरणेषु कृतेषु विकरणेव्यैवहितस्वा्नियमो न प्रामोति || त्रैष रोषः | भनबकाद्चो 
नियमः | सावकाशाः ] कोऽवक्राहाः । च एते लुभ्विकरणाः द्ुविकरणा किङ्‌- 
श्ट च | य॒दि पुनरियं परिभाषा विश्ञायेत । किं कृतं भवति | कायैकातं 
संक्ञापरिमाषं यत्र कायै तत्र दषटव्यम्‌ । लस्य तिबादयो ` मवन्तीत्युपस्थितमिरं 
-- भषंत्यनुदात्तडित आत्मनेपदं शोषास्कवैरि परस्मैपदम्‌ [१.३.७८] इति 1| एवमपी- 
तरेषरा्रयं मधति । केतरेतराश्रयता । भभितिवन्तानत ठस्य स्थाने ` तिनादीन्भो- 
र्मनेपदपरस्मैपदसंश्ञया भवितर््य'* संश्ञया चं तिवादयो भाष्यन्ते ! तदि्रेलैराभं 


# ९.४ † ९.१.२. ‡ ९.२.९*. § १.४.०८. ¶ृ ३.९.३६१. ®* ९.४. ९९; ९०९ 


. आर  १.२.९.२.] ॥ भ्वाकरयकलमाच्यन # + 9) 
भवति | इतरेतरसियाणि च ने प्रकल्पन्ते || परस्मैपहेषु ताकचवेतरेतराभ्रयं भ्रति | 
परस्मैपदानुक्रमणं न करिष्यते | अवयं कतैव्यमनुपराभ्यां कृगः [१,२.७९] 
इत्येवमथेम्‌ | ननु वैतदप्यात्मनेपदानुक्रमण एव करिष्यते | स्वरितञितः करतभिप्राये 
क्रियाफले [१.३.७२ | आत्मनेपदं भवति कतैथनुपराभ्यां कमो नेति || आत्मनेपदेषु 
चापि नेतरेतराभ्रयं भवति | कथम्‌ ।. भाविनी संज्ञा विज्ञास्यते स्व्रश्ाटकषत्‌ । 
तद्यथा | कथित्क॑चित्तन्तुवायमाह | भस्य इतरस्य दाटकं वयेति | स पदयाति यदि 
शाटको न वातव्यो ऽथ वातव्यो न शाटकः शाटको वातव्यभेति विप्रतिषिद्धम्‌ | 
भाविनी खल्वस्य संश्ञामिप्रेता स मन्ये वातव्यो यस्मिन्नुते शाटक इत्येतद्‌ वतीति 1 
एवमिहापि. ख ठस्य स्थाने कतेव्यो यस्याभिनिवन्तस्यात्मनेपदमित्येषा संज्ञा भवि- 
भ्यति || अथवा पुनरस्तु नियमः | ननु चोक्तं विकरणैव्यैवहितव्वान्नियमो न 10 
भ्ामोतीति । त्रैष रोषः | आचार्यभवृततिज्ञौपयति विकरणेभ्यो नियमो बलीयानिति . ` 
यदयं विकरणविभावात्मनेपद परस्मैपदान्याश्रयति । पुषादिद्ुताद्युदितः परस्मै- 
पदेषु [३.९.९९] आठमनेपदेष्वन्यतरस्याम्‌ [५४] इति । नैतदस्ति ापकम्‌ । 
भभिनिवत्तानि हि रस्य स्थान आत्मनेपदानि प्रस्मैपदानि च । यत्त्यनुपसगोदा 
[१.३.४२] इति विभाषां शास्ति | | + 

किं पुनरयं प्रस्ययनियमः | भनुदा्षङित एवात्मनेपदं भवति भावकर्मणो 
रेवात्मनेपदं भवतीति | आहोस्विदयङ्ृत्यथनियमः | भन्‌ दराचडित आत्मनेपदमेव 
भाककमेणोरात्मनेपदमेवेति | कथात्र विदोषः } 


तत्र प्रत्ययनियमे रोषवचनं परस्मैपदस्यानिवृन्तस्वात्‌ || ३ ॥ 
तच्च प्रत्ययनियमे शोषग्रहणं कर्तव्यं पर स्तरप्दनियमार्थम्‌ ¡ शोषात्कतैरि परस्मै- 20 
पदम्‌ [१.२.७८] इति । किं कारणम्‌ । परस्मैपदस्यानिव तत्वात्‌ | प्रत्यया 
नियताः परकृत्यथावनियतीं तत्र परस्मैपदमपि प्रामोति | तत्र शोषणं कर्ैव्यं 
परस्मरैपदनियमा्थम्‌ । शेषादेव परस्मैपदं भवति सन्यत इति ॥| | 


क्यष आत्मनेषदबवनं तस्यान्यत्र नियमात्‌ ।॥ ४॥ 


कयष आत्मनेपदं बक्तव्यम्‌- | लोहितायति लोहितयते |. कि. वनः कारण न £, 
खिध्वति |  तस्वान्य्च नियमात्‌ .} कद्यन्यत्र भियस्यते ।{-ऊच्यते चन च प्रामोति 


अद्धचन्यहसत्रिष्यति | स्तु तर्हि प्रकृस्मथेनियमः 


क~~ -- ~ 
न्न ५ 


, *#१,,.३,.९द्‌ ४ "वर. २.९० ,- . £ ^“ 





3 ॥३ \॥ श्प्रकरनयहाभाष्यय्‌ ॥ [म २१.३२ 


' .“ “: - . -"प्कृष्यर्थनियमे ञन्याभावः ॥ ५ ॥ 

पकृ त्ययेनिवमे उन्मेषं प्रत्ययानामभावः 1 भनृदा्ङिलस्तृजादयो न प्रामुवन्ति | 

नैष दोषः 1 भनवंकारशास्तृजादय उच्यन्ते" च ते वचनादविष्वान्ति | सावकाराः 
स्तृजादयः ] को ऽबकाराः | परस्मेपदिनो ऽवकाशाः | त्रापि नियमाच्च परामुवन्ति॥ 

६ तव्यदादयस्ताहि भावकमेणोमियमाचच परामुष्न्ति | तव्वेदादयोऽप्यनबकाहाः | ते 
वचनाद्ध्िष्यन्ति† || चिण्ति भावकर्मेणोर्मिवमाच्च परायोति । चिणपि वचनाद्- 
विष्यति ॥ षञ्ल्ि भावकर्मेणोभियमाच्च प्रामोतिऽ । त्रापि प्रकृतं कर्मप्रहणमनु- 
यतेते | कः प्रकृतम्‌ । अण्कर्मणि च [२.३.९२] इति || तहे तज्रोपपदविदोषण- 
मभिधेयचिशोषणेन चेहाथैः | न चान्याथे प्रकृतमन्यायै भवति | न खल्वप्यन्यसङ़- 
10 समनुवतेनादन्यद्कवति नं हि गोधा सपैन्ती सपेणाददहिभवति || यन्ताबडुख्यते नान्याये 
पकृतमन्याये भवतीस्यन्याथंमपि प्रकृतमन्या्थै भवति । तथंथा । शाल्यर्थे कुल्याः 
प्रणीयन्ते ताभ्य पानीयं पीयत रुपश्यश्यते च शालयश्च भाग्यन्ते | यदप्युच्यने न 
खल्वप्यन्यतङ्ृतमनुतरतैनादन्यडूत्रतिं न हि गोधा सर्पन्ती सर्पणादहि्ग्रतीति 
भवरेदर्येष्वेतदेवं स्वात्‌ | शाब्दस्तु खलु येन येनाभिसंबध्यते बस्य तस्य विशेषको 

15 भवति || 


गेषवचनं च ॥ ६ || . | 

होषम्रहणं च करतेष्वम्‌ । शेषात्कर्तरि ` परस्मैपदम्‌ ` [१.३.७८] इति । किं 

प्रयोजनम्‌ | शेषनियमार्थेम्‌ । प्रक्ृव्यर्थी नियतौ प्रत्यया आनियतास्ते देषेऽपि 
प्ाुवन्ति | तत्र रोषयहणं कतेव्यम्‌ | शेषात्कतैरि परस्मैपदमेव नान्यदिति ॥ 


20 कर्तरि चात्मनेपदविषये परस्मैपदम्रतिषेधार्थम्‌ ।। ७ ॥ 
कर्ैरि चात्मनेपदविषये - परस्मैपदप्रतिषेधा्थं द्वितीयं रोषग्रहणं कतैव्यम्‌ | 
होषाष्डेष हति वक्कष्यम्‌ | इद मा मृत्‌ | -भिथ्ते कु शूलः स्वयमेवेति4 || कतर 
स्मिन्पसे ऽय॑ दोषः | प्रकृत्यथानियमे । प्रकृत्यथनियमे तावन्न दोषः | प्रकृत्यौ 
नियतौ प्रत्यया अनियतास्तेज्र नाथैः कतैमहणेन कर्वृमहणाज्ैष दोषः | प्रन्यय- 
% नियमे तद्येयं दोषः । प्रत्यया नियताः प्रङ्ृत्यथावानियतौ तत्र॒ कर्तृग्रहणं करयं 
भावक्मेणोर्गिवु य्यम्‌ | कतेग्रहणाथैष दोषः || प्रकृत्यथेनियमे रे मदणे- सक्यय- 
कर्तैम्‌ । कथम्‌ | प्रकृत्य्यी निवकतौ प्रर्बया अनियताः । क्तोः वस्यामि प्ररस्मेपरर 


जायका 





* ६.९.९३३. 1३.४.७०. ‡३.९. ५६. १३.१.९८. ०२.९- <८* 





पा०९.२.९ ४. : भन्थकरनगहमाष्वय्‌॥ क 


भवतीति | ताश्नैवमारे.भविष्यति | बज्र परस्मैपदं चान्वल ध्राओोति. वच परस्मैपदमेव 
भवतीति ।| तनां पत्वयनिवमे द्विती जं - दोषंयहणं कतेष्वम्‌ | न कतैव्यम्‌ | वोग- 
विभागः करिष्यते" | .अनुदालरिम्त आत्मनेपदम्‌ | ततो भावकमेणोः ] ततः कतैरि । 
कवैरि चास्मनेषदं भवति भावकर्मणोः | ततः कमेष्यतिहरे । कतेरीत्येव | भाव- 
कर्मणोरिति निवृलम्‌ || यथैव तर्हि कर्मणि कतरि भत्रस्मेवं मात्रेऽपि करीरि $ 
प्ामोति । एति. जीबन्तमानन्दः† । -नास्व किलि जतीतिः || हितीयो योगविभागः 
करिष्यते$ | अनुदा्डित आत्मनेपदम्‌ | ततो भ॑वरे | ततः कमेणि | कर्मणि 
चात्मनेपदं ` भव्ति । वतः कतेरि । कतैरि चारमनेपदं भवति । कर्मणीत्यनुवतेति 
भाव इति निवृत्तम्‌ । ततः कमेन्वतिहारे | कतंरीस्येत्र | कमेणीति निवृ लम्‌ ।| एक्र- 
मपि दोषपरहणं कतेव्यमनुपराभ्यां कृ जः |१.२.७९] इत्वेत्रमभेम्‌ । इह मा भूत्‌ | 1) 
अनुक्रियते स्वयमेव । पराक्रि बते स्वलमेत्र | नन्‌ त्रैतदपि योगतरिभागादेवर सिद्धम्‌ 

न सिध्यति । अनन्तरा या प्रापनिः सा बोगिभागेन राक्ता बाधितुम्‌ | कृत एतत्‌ | 
अनन्तरस्य व्रिधिवौ भत्रति प्रतिषेधो तवेति | परा प्राप्निरप्रतिकिडधा तया प्रामोति | 
मनु चेयं प्राप्तिः परां प्रापिं बाधते | नोत्सहते प्रतिबिडधा सती वाधितुम्‌ ॥ एवं तरि 
कतैरि कर्मव्यतिहारे [९.२.९४] इत्यत्र कनुप्रहणं प्रस्यारूतरावते तत्कृ वमु ल्तरत्रा- 15 
न॒व्र्मिष्यते | शोषात्कतैरि कमैरीतिग ! किजभंजेदं कतरि क्तेति | कर्त्र य 
कतो तत्र यथा स्यात्‌ | कता चान्वच बः कता तत्र मा भृदिति ] ततो जुपरा्भ्यां 
कृञः | कतरि कवरीत्येष । 


कतरि कमत्यतिहारे ॥ ९।२३।१४॥ 


क्रियाग्यतिहार हति वक्तववम्‌ । कमत्वतिहार इट्युन्वमानं इष्ट प्रसज्यत | 20 
देवदत्तस्य धान्यं व्यतिलुनन्तीति | इह चन स्वात्‌ | व्यतिलुनते उ्यतिपुनत 
इति || वत्ति वक्तव्नम्‌ | न वक्छत्यम्‌ | क्रियां हि रोके कर्मेट्युपचरन्ति | 
कां क्रियां करिष्यसि । कि कमे करिष्यसीति || एवमपि कनेत्वम्‌ । कृतिमाकृि- 
मयोः कतरिमे संप्रत्ययो भवति. || क्रियापि कृत्रिमं कम | न सिध्यति | कर्तृरी- 
स्थिततमं कम [९.४.४९] इल्युच्यते कथं च क्रिया नाम क्रियधेभ्सिततमा स्यात्‌ । ९5 
क्रियापि, क्रिययेप्सिततमा भवति | कवा क्रियवा | संपरवतिक्रियया प्राथैयसि- ` 








* ९.३.९४. † ३.३.१९८ . ` ‡ २.२.५५. ई. ९.६.९६. ष ९.२. ७८, 


>, ४ ब्याकरनप्रहनष्डयत्‌ ॥ ` [म० १,३२.१. 


क्रिय पराभ्यवस्यतिक्रियया वा | इष य एष मनुष्व पे्सयूवेकारी भक्ति स बुदा 
तप्मवत्कंचिद्टये संपद्यति संदृष्टे भाथना प्रार्थिते ऽवक्सायो यवसाय . आरम्भ 
आरम्मे निवृत्तिर्निवैचौ फलावाग्निः ।. एवं क्रियापि किनं क्रमे | एत्रमप्युभग्रोः 
कृभिमयोरभयगतिः प्रसज्येत | स्माक्कियाव्यतिहार इति ब्तव्यम्‌ || न वक्तव्यम्‌| 
$ इह कतरे व्यतिहार हतीयत्रा सिद्धम्‌ \। शोऽयमेषं चिदे सति यत्कर्मप्रहणं करोति 
तस्थैतल्मयोजनं क्रि याव्यतिहारे बथा स्यात्कमेम्यिहारे मा भूदिति || 
भग कैतेम्रहणं किमयम्‌ 1 
' ` ` कर्मव्यतिहारारिषु करव॑ग्रहणं भावक्मनिवृच्वर्थम्‌ । *९।। ` 
कर्मव्यतिहारादिषु कर्त्रहणं क्रियते `भावकमैणोरनेनार्मनेपदं* मा मृदिति ॥ 
10 इतरथा हि तत्र प्रतिषेधे भावकर्मणोः प्रतिषेधः || ॥ 
अक्रियमणि कर्तृ्रहणे भांवकर्मणोरप्यनेनात्मनेपदं प्रसज्येत । तत्र को रोषः | 
तत्र प्रतिषेधे भावकर्मणोः प्रतिषेधः | तत्र प्रतिषेधे† भावकर्मणोरप्यने्पत्मनेषडस्व 
प्रतिषेधः प्रसज्येत । ष्यतिगम्यन्ते रामाः | ध्यतिहन्वन्ते इस्यव इति ॥ 


न वानन्तरस्य प्रतिषेधात्‌ ॥ ३॥ 


15 न वैष दोषः | कि कारणम्‌ | भनन्तरस्य अरतिबेधात्‌ ¡ अनन्तरं वदास्मनेष- 
बविधानं तस्य परतिभेधात्‌ । कत एतत्‌ | भनन्तरस्य विधिवो भवति प्रतिषेधो वेति | 
पुरवा प्रापरिरमतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं प्राप्न; पूर्वा परां वाघते | नोस्स- 
इते प्रतिषिद्धा सती बाधितुम्‌ | उत्तरार्थं तार्हे करग्रहणं कतेव्वम्‌ । न करेष्यम्‌ | 
क्रियते तत्रैव शेषास्करैरि परस्मैपदम्‌ [९.२.७८] इति । हितीवं कर्रहणं कतं- 

20 व्यम्‌ | कि प्रयोजनम्‌ | कर्व यः कतौ तत्र यथा स्वात्‌ | कतो चान्यथयः 
कतो तत्न मा भूदिति || 


न मतिरहिसारथेभ्यः॥ १. ।३ ९५ ॥ 


प्रतिषेधे हसादीनामुपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ ` 
प्रतिषेधे दसादीनामुपसंख्यान कतेव्यम्‌ । व्यतिहसन्ति व्यतिजल्पन्ति स्यति 
% प्रान्ति ॥ | 


„ ॐ १.३.१३. | , ि ¶ ९.३. ९५६. 








षार १,३.९५-२०. | ॥ व्याक्णतहाभाण्यप्र ३ 
हरिवह्योरपरतिषेधः ॥ ९ ॥ 


हरिवद्योरम्रतिपेधो भवतीति वक्तष्यम्‌ । संप्रहरन्ते राजानः । संविवहन्ते गगै- 
रिति || न बरहिगेव्यर्थः | देशान्वरप्रापणक्रियो वहिः | `` 


` इतेरेतरान्योऽन्योपषदाश्च ॥ २. 1 २, । १६. ॥। ` 


परस्परोपपदाथ ॥ ९॥ $ 
पर स्परोपपश्चति वक्तव्यम्‌ । परस्परस््र व्यतिलुनन्ति | परस्यरस्व व्वति- 
वुनन्ति | 


विपराभ्यां जेः॥ ९।२।१९,॥ 


` उपसर्गमरहणं कर्तव्यम्‌ 1 इह मा भूत्‌ । परा जयति सेनेति ॥ त्ता धक्तव्यम्‌ । 
न वक्तव्यम्‌ | यद्यपि तावदयं परादाब्ो दृष्टापचार ` उपसगेथानुपस्येधायं तु 'खलु 10 
विशब्दो उदृष्टापचार उपसगे. एव । तस्कास्य को ऽन्यो द्वितीयः सहायो भवितुमहै- 
स्वन्यदव रखपसगौत्‌ । तद्यथा | अस्व गेोर्दितीजेनायं इति गौरेवोषादीयते नाशो 
न ॒गदेम इति ॥ 


आडो दो अनास्यविहरणे ॥ १ ।२।२०॥। 


आो दो ऽ्यसनंक्रियस्य ॥ ९ ॥ 15 
आड दो ऽव्यसनाक्रियस्येति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । विपादिकां व्या- 
दाति । कूरं ष्याददातीति | तन्ति वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | इहा दो 
ऽनास्थ इतीयता सिद्धम्‌ । सोऽयमेवं सिद्धे सति यद्विहरणग्रहणं करोति तस्थैतसय- 
योजनमास्यविदृरणत्तमानक्रि कद पि यथा स्यात्‌ | यथाजाततीयका चास्यविहरणक्किया 
वथाजातीयकात्रापि || , , . ५ 


, -- | स्वाङ्गकमेकाच | २ || | 
 स्याङ्गकमकाथयेति व्कव्यम्‌ । इह मा भूत्‌ । भ्याददते पिपीकिकाः 


मुस्वभिति ॥ 


८० | ॥.ब्याक्ररनमहाभाष्यम्‌ ॥ [ मण ९.१.२. 


की डोऽनुसंपरिभ्यश्च ॥ ९. । २. । २९ || 


उपसर्गग्रहणं कर्मैठ्वम्‌ | इह मा भूत्‌ | अनु क्रीडति माणवकमिति ॥ 


खमो ऽक्रुजने || ९॥ 
समो ऽकूजन हनि वक्तव्यम्‌ । हह मा भत्‌ । संक्री डन्ति शाकटानि ॥| 
, $ आगमेः समायाम्‌ ॥ ५ ॥ 


मागमेः क्षमायामुपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ । जागमयस्व तावन्माणवक || 
शिक्षेजिज्ञासायाम्‌ ॥ २ | | 
 रिक्षजिङ्ञासायामुपशंख्यानं कर्तव्यम्‌ } जि दिकषते । षनुवि शिक्षते | 
किरतेहषेजीविक्राकुखायकरणेषु ।। * ॥ 


10 किरतेहैषेजीविकाकुलायकरणेषु पसंख्यानं कतेव्यम्‌ । भपस्किरते वृषमो ष्टः 
भपस्किरते कुटो मक्षार्था । अपस्किरते चाजवार्ी | 


हरतेर्गववाच्छीम्ये ।। ^ ॥ 
 हरतेर्गतताच्शील्य उपसंख्मानं कतेव्यम्‌ । पेतृकमथा अनुहरन्ते । मातृकं गा- 
वो जनुहरन्ते | | 
15 आङि नुप्रच्छच्ोः ॥ & ॥ 
भाङिः नप्च्वधो रपसंख्यानं करैवयम्‌ । भानुते सृगालः । भाएच्छते गुरुमिति ॥। 
 आरिषि नाथः ॥ ७ ॥ 
 आश्ठिषि नाथ उपसंख्यानं कर्वव्यम्‌ । सर्पिषो नाते । मधुनो नायते || 
तराप उपलम्भे ।। ८ ॥ 
शाप उपलम्भन उपसंख्यानं कतेव्वम्‌ । देवदताय शपते । यज्दत्षाय दापते || 


समवप्रविभ्यः स्थः ॥ १।२. 1 २२ ॥ 


आङः स्यः प्रतिज्ञाने ।। ९॥ ` 
भाङः स्थः प्रतिज्ञान इति वक्तव्यम्‌ । अस्ति सकारमातिष्ठते । आगमौ मृणवृदी 
लातिष्ठते | विकारौ गुणवृद्धी भातिष्ठते || | 


@ ९.४. ८९ 


%0 . 





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पा० १.३.२१-२०.] ॥ व्थाकरणमहामोष्यम्‌ ॥  च०९ 
उदोऽनूरष्वकमेणि ॥१.।२.।२४ ॥ 


उद इहायाम्‌ ॥ ९ ॥। 
उद हइंहायाभिति वक्तव्यम्‌ | इह मा भूत्‌ । उत्तिष्ठति सेनेति ॥ 


उपान्मन्लकरणे ॥१.।२ । २५॥ ` 


उपाहेवपूजासंगतकरणयोः ॥ ९ ॥ 5 
उपिवपुजासंगतकरणयोरिति वक्तव्यम्‌ । भादित्यमुपतिष्षते । चन््रमसमुप- 
तिष्ठते || संगतकरणे | रथिकानुपतिष्ठते । अश्ारोहानुपतिष्ठते ॥ 
बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चित्तवान्‌ । 
परय वानरसैन्ये ऽस्मिन्यद कैमु पतिते || 
नवं मंस्थाः सिसो ऽयमेषोऽपि हि यथा वयम्‌ | 10 
एतदप्यस्य कापेयं यदकं मुपतिष्ठति || 
अपर आह | उपदेवपूजासंगतकरणमित्रकरणपथिष्विति वक्तव्यम्‌ | संगत- 
करण उदाहतम्‌ | मित्रकरणे । रथिकानुषति्ते | भश्वारोदानुपतिष्ठते || परथि | 
भयं पन्थाः सुप्रमुपतिष्ठते । अयं पन्थाः साकेतमुपति्ठते || 
वा लिप्सायाम्‌ ॥ २ ॥ 15 
वारिप्सायामिति वक्तव्यम्‌ | भिश्चुको ब्राह्मणकुलमुपतिष्ते । भिक्षुको ब्राहम- 
णक्ुलमुपतिष्टतीति वा || 


उद्विभ्यां तपः ॥ १.।२। २.७ ॥ 


अकमैकारिस्येव* । उन्तपति इवणै इवणेकारः ॥ 
| स्वाङ्गकमंकाच || ९॥ 20 
स्वाङ्गकमेकाचेति वक्तव्यम्‌ | उत्तपते पाणी | वितपते पाणी । उत्तपते पृष्ठम्‌ 
वितपते पृष्ठम्‌ ॥ 
अथेदिभ्यामित्यन्र किं प्रत्थुदाहियते 1 निष्टप्यंत हति | कक पुनः कारणमास्म- 


# ९. द, २.६. 
36 7 


. ¶्<र्‌ ॥ .व्याकरणमहमाष्यम.॥ ` , -.[मि०१.२.२ 


नेपदमेवोदाह्ियते न परस्मैपदं प्रस्युदाहार्यं स्यात्‌ । तपिरयमकर्मकः | अकमैका- 

थापि सोपसगोः सकर्मका भवन्ति | न चान्तरेण कर्मकतौरं सकर्मका अकर्मका 

भवन्ति | यदुच्यते न चान्तरेण कमैकर्तारं सकर्मका अकर्मका भवन्तीत्यन्तरेणापि 

क्मेकतौरं स्षकमेका अकमेका भवन्ति | तद्यथा | नदी वहतीत्यकरमकः | भारं 
६ वहतीति सकर्मकः | तस्मान्निष्टपतीति प्रत्युदाहार्यम्‌ || 


आडो यमहनः ॥ १.।२.।२८ ॥ 
भकममकादिष्येव* | आयच्छति रज्जुं कूपात्‌ | भन्ति वृषलं पादेन ॥ 


 स्वाङ्गकमेकाच | ९॥ 
स्वाङ्गकर्मेकाचेति क्त्यम्‌ | आयच्छते पाणी | भत उदरभिति ।| 


16 समो गम्यृच्छिभ्याम्‌ ॥ १।३। २९ ॥ 


समो गमादिषु विदिप्रच्छिस्वरतीनामुपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥ 


समो गमादिषु विदिप्रच्छिस्वरतीनामुपरसंख्यानं कतेव्यम्‌ | संवित्ते । संप्रच्छते | 
संस्वरते || 


अर्तिश्वुदरिभ्यथ । २॥ 


15 अर्तिभुदृहिभ्येति वक्तव्यम्‌ । मा समृत । मा समृषाताम्‌ | मा समृषत । 
अर्ति || श्रु | संभृण॒ते ॥ दरि । संप्ररयते ॥ 


 'उपसगोदस्यत्दूह्योवोवचनमम्‌ 1} ३ ॥ 
उपसगोदस्यत्युह्योेति वक्तव्यम्‌ | निरस्यति निरस्यते । समूहति समूहते ॥। 


आङ ठद्रमने॥ ९ ।२।४०॥ 


20 ज्योतिषामुद्रमने । ९॥ 
ज्योतिरद्मन इति वक्तव्यम्‌ । इह भा भृत्‌ | आक्रामति पुमो हसम्येतलमिति ॥ 


* ९. ३. २६. 





पा० ९.२.२८-५४. | ॥ ध्याकरगमहाभाष्यंय्‌ ॥ २८३ 


व्यक्तवाचां समुद्यारणे ॥ १. । २, । ४८ ॥ 


व्यक्तवाचामिति किमयम्‌ | 
वरतनु संप्रवदन्ति कुकुटाः । 


व्यक्तवा सामित्युच्यमानेऽप्यन्न प्रामोति | एतेऽपि हि व्यक्तवाचः । आत व्य- 
वाचः कुक्ुटेनोदित उच्यते कुटो वदतीति || एवं तरदं व्यक्ता चामिस्युच्यते & 
सर्व॑ एव हि ग्यक्तवाचस्तत्र प्रक्वेगतिर्भिज्ञास्यते | साधीयो ये व्यक्तवाच इति | 
के च साधीयः | येषां वच्यकारादयो षणौ भ्यज्यन्ते ] न चेतेषां वाच्यकारादयो 
वणां व्यज्यन्ते | एतेषामपि वाच्यकारादयो वणा व्यज्यन्ते | आतश्च ध्यज्यन्त 
एवं द्याहुः कुङ्टाः कुङ्कडिति । मैवं त आहः | अनुकरणमेतत्तेषाम्‌ || अथवा तरषं 
विज्ञायते व्यक्ता याग्येषां त इमे व्यक्तवाच इति | कथं तर्हि | व्यक्ता वानि 10 
वणो येषां त इमे व्यक्तवाच इति | 


अवाद्ः ॥ १ 1 ३।५९१ ॥ 
अवाद्गौ गिरतेः ॥ ९॥ 


अवाद्र इत्यत्र गिरतेरिति वक्तव्यम्‌ | गृणातेमौ भूत्‌ | ताह वक्तव्वम्‌ | म 
वक्तव्यं प्रयोगाभावात्‌ । अवाद ह्युच्यते न चावपुवैस्य गृणातेः प्रयोगो ऽस्ति || 15 


समसतृतीयायुक्तात ॥ १. । ३.। ५४ ॥ 


तृतीयायुक्तादिति किम्थम्‌ | 
उग्रौ लोकौ संचरसि इम ॑चामुं च देवल | 
तृतीयायुक्तारि्युच्यमाने ऽप्यत्र प्रभोति | अत्रापि हि तृतीयया योगः ॥ 
एवं तर्हि तृतीयायुक्तादित्युच्यते स्वैश्र च तृतीयया योगस्तत्र प्रकर्षगतिर्धि्ा- 20 
स्यते | साधीयो क्र तृतीयया योग इति | क्र च साधीयः | यत्र तृतीयया 
योगः भूयते ॥ 


न्नी 


षप , ॥ व्याकरण महाभाष्यम्‌ ॥ [ म० ९.३.२. 


दाणश्च सा चेद्यतुथ्यंथं ।॥ १।२.।५५ ॥ 


सा चेत्तृतीया चतुथ्यैथे इत्युच्यते | कथं नाम तृतीया चतुथ्यरथे स्यात्‌ ] एवं 
तदयीरिष्टव्यवहारेऽनेन तततीया च विधीयत आत्मनेपदं च | दास्या संप्रयच्छते| 
वृषल्या संप्रयच्छते | यो हि शिष्टड्यवहारो ब्राह्मणीभ्यः संप्रयच्छतीस्येव तत्र भवित- 
६ व्यम्‌ | -य्येवैः नार्थोऽनेन योगेन । केनेदानीं तृतीया भविष्यत्यात्मनेपदं च | 
सहयुक्ते तृतीया स्थाटूवतिषहारे तड विधिः । 
सहयु कतेऽप्रधनि | ०. ३. ९९ | इत्येव तृतीया भविष्यति कतैरि कर्मन्यतिहारे 
| १. द, ९४ | इत्यात्मनेपदम्‌ | 


उपाद्यमः स्वकरणे ॥ १५।२। ५६ ॥ 


10 इह कस्मान्न भवति | स्वं शाटकान्तमुपयच्छतीति | अस्वं यदा स्वं करोति 
तदा भवितव्यम्‌ | यथेवं स्वीकरण इति प्रामोति* । विचित्रास्तद्धितवृश्तयः | नात- 
स्तद्धित उत्पदथते || 


नानोज्ञः ॥ ९ ।२।५८ ॥ 


अनोज्ञः प्रतिषेधे सकर्मकवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 
15 अनेोश्गः प्रतिषेभे सकमेकम्रहणं कतेव्यम्‌ । इह मा मृत्‌ | भौषपस्यानजिश्ला- 
सत इति || . ˆ, ` 
न वाकर्मकस्योत्तरेण विधानात्‌ ॥ २ ॥ 
न वा कतेव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | भकर्मकस्योत्तरेण विधानात्‌ | अकर्मका- 
ज्नानातेरत्तरेण योगेनास्मनेपदं विधीयते पूवैवत्नः [ ९. ३. ६२ ] इति! || 
90 प्रतिषेधः पूर्वस्य च ॥ ३॥ 
पुवेस्य{ चायं प्रतिषेधः | स च सकर्मकार्थं आरम्भः | कथं पनर्ञायते पर्व 
स्यायं प्रतिषेध इति | अनन्तरस्य विधिर्या भवति प्रतिषेधो वेति | कथ परनज्ञायते 


कर ५.४ ५० ॥। १.६. ४५ { १.३. ५७ 








पा० ९.२.५५६ ०. | ॥ व्याकरगमहायाष्वम्‌ ॥ २८५ 


सकर्मकार्थं आरम्भ इति । अकर्मकाञ्जानातेः सन आत्मनेपदवचने प्रयोजनं 
नास्तीति कृत्वा सकमकार्थो विज्ञायते || 


रादेः रितः ॥ १. । ३. । ६० ॥ 


वादेः शितः परस्मेपदाश्रयत्वादात्मनेषदाभावः ॥ ९ ॥ 

शरेः शितः परस्मैपदाश्रयत्वादात्मनेपदस्याभावः | रीयते स्येते शीयन्ते || & 
किं च भोः शदेः शिस्परस्तमरैपदेष्विव्युच्यते | न खलु परस्मैपदेषवित्युच्यते परस्मै- 
पदेषु तु धिज्ञायते | कथम्‌ | अनुदात्तङित आत्मनेपदं भावकमेणोरात्मनेपदमि- 
स्थेती* डौ योगावु्का शेषार्करत॑रि परस्मेपदमुध्यते। | एवं न च परस्मैपदेषुध्यंते 
परस्तीपदेषु च विश्चायते || कः पुनरहेस्येती योगावु्का शोषत्कतीरे प्रस्मैपदं 
वक्तम्‌ | क तर्हि | भविशेषेण सर्वैमात्मनेपदप्रकरणमनुक्रम्य रोषात्कतरि परस्मे- 10 
पदमिस्यु च्यते | एवमपि परस्मैपदाभ्रयो भवति । कथम्‌ | इदं तावदयं प्रष्टव्यः 
यदीदं नोच्येत किमिह स्यादिति | पर स्मैपदमिरयाह | परस्मैपदमिति चेत्परस्मैप- 
दाञ्रयो भवति || 


सिद्धं तु लडादीनामात्मनेपदवचनात्‌ ॥ २॥ 

सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । शादेलेडादीनामात्मनेपदं मवतीति वक्तष्यम्‌ || सिध्यति | 15 
सुज तरि भिद्यते | यथान्यासंमेवास्तु | ननु चोक्तं शदेः शितः परस्तमैपदाम्रयत्वा - 
दात्सनेपदाभाव इति | नैष दोषः | शित हति तरैषा पन्चमी । का तार्हे | संबन्ध- 
ष्टी । शितो यः शदिः | कथं शितः हारिः | प्रकृतिः । दादेः िव्पकृतेरिति ॥ 
अथमब्राहायं शदेः शोत इति न च दादिः शिदस्ति त एवं विश्षास्यामः दारैः शि- 
हिषयादिति ॥ अथवा यद्यपि तावदेतदन्यत्र भवति विकरणेभ्यो नियमो बीया- 20 
नितीशेतच्रास्ि | विकरणो हीहाभ्रीयंते शित इति | 


उपसगैपुवंनियमे ऽङ्यवाय उपसंख्यानम्‌ ॥ ३ ॥ 
उषसगेपुवैस्य नियमे ऽङुधवाय उपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । न्यविराच श्यक्रीणीतः | 
किं पुनः कारणं न सिध्यति | भटा भ्यवहिवस्वात्‌ | ननु चायमड्‌ धातुभन्कौ 
भरातुम्रहणेन .महीष्यते | न सिध्यति | भङ्गस्य शङुष्यते$ विकरणान्तं बाङ्गम्‌ | 2 


 # ९.१, ६२; ९२.  ¶ २,३०.५८, . { ९.२.९०; ९८. , § ९.४.०९. ` 


भत 1 व्याकरणमरभिाष्यय्‌ ॥ {म० ९.३.१ 
मेपदं न भवत्येवमिहापि श्दिभियत्तिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपद न भवतीति || यरि 
ताहि रादिभियत्ययौऽयमारम्भों विधिने प्रकल्पते | आसिपिषते शिशयिषते | भथ 
विधभ्यथेः शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामास्मनेपदं प्रमति ॥ यथेच्छति तथास्तु | अस्तु 
वस्रतिषैधाथेः । ननु चोक्तं विधिने पर्कल्पत हति । विधिथ प्रकुपरः | कथम्‌ 1 
& एतदेव श्चापयाति सनन्तादात्मनेपदं भवसीति यदयं शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामा- 
स्मनेपदस्य प्रतिषेष रास्ति ।| अथवा पुनरस्तु विधभ्यथेः | ननु चोक्तं शादिश्निय 
तिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपरं प्रामोतीति |" तैष दोषः | प्रकृतं सने नेत्यनुवार्विष्येते | 
क प्रकृतम्‌ । ज्ञाभुस्मृद्‌ शां सनः [९.३.५७] । ननोश्चैः [९८] | सकर्मकास्सनो 
न । प्रत्याङ्भ्यां जुवः [९९] खनो न । शदेः शितः [६ ०| सनो न | न्नियतेलङि- 
10 डं [६९ सनो नेति | इहेदानीं पुवेवत्सन इति सन हत्यनुवतैते नेति निवृत्तम्‌ | 
एवं च कृत्वा सोऽप्यदोषो भवति यदुक्त निमिन्तमविश्रोषितं भवतीति || नैव वा 
पुनरत्र शादिन्नियतिभ्यां सनन्ताभ्यामात्मनेपदं प्रामोति | किं कारणम्‌ । शदेः (शिव 
इत्युच्यते न च शादिरेवात्मनेपदस्य निमित्तम्‌ । किं तर्हि | शिदपि निमित्तम्‌ | 
अथापि शादिरेव शित्परस्तु निमित्तम्‌ | न चायं सन्परः शित्परो भवति | यत्र 
15 तर्हि शिक्ताभ्रीयते नियतेदङडोशेति | भव्रापि न न्नियतिरेवात्मनेषदस्य निमित्तम्‌। 
किं तर्हि । ुङ्िडिवपि निमिचम्‌ | अथापि ज्ियतिरेव लुङ्धिडःपरस्तु निमित्तम्‌ | 

न चायं सन्परः लुडिङ्परो भवति ॥ ` ` 
किं पुनः पूवस्य यदारमनेपदद दोनं तत्सनन्तस्याप्यतिदिदयते | एषं भवितुमरैति।| 


ूर्वस्यास्मनेप ददर्दानास्सनन्तादात्मनेपदभाव इति चेहुपादिष्वप्रसिद्धिः ।॥। ३॥ 


20 पूर्वस्यास्मनेषदद दीनास्सनन्तादास्मनेषदं भवतीति येह्कुपादिष्वम्रसिद्धिः | गुपादी- 
नां न प्रपिति । जुगुप्सते मीमांसत इति | न तेभ्यः प्राक्खन आरेमनेपदं नापि 


परस्मैपदं पयामः ॥ 
सिद्धं तु पुवेस्य लिङ्तिदेदात्‌ ॥ ४॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | पूवस्य यदास्मनेपदणिङ्गं तस्सनन्तस्याप्यतिदिरददयते ॥ 
2 . . हृआदिषु तु लिङ्परतिषेधः | ९॥ 


कृगादिषु तु छिङ्स्य प्रतिभेपो वक्तव्यः । आनुचिकीषेति पराविकीषतीति। ॥। 
अस्तु रि प्राक्सनो येभ्य आस्मनेपदं दृष्टं तेभ्यः सनन्तेभ्योपे भवतीति 1 नलु 


* ६,९.५६, † ६.३. 9२; ७९. 





पार ९.२.६३. | . ॥ ष्थादरणदयशायाष्वम्‌॥ गह्‌ 


चत्त पुवैस्यारमनेपदद हौनास्नन्तादात्मनेपदम्प्रव. इति - चेहुपादिष्वप्रसिद्धिरिवि । 
तरैष. दोषः । भनुबन्धकरणसामथ्योद्धविष्यति || -अथवावयके. कृतं लिङ्गं .` समुदा- 
बस्य विशेषकं भवति। तदथा | गोः सक्थनि कर्णवा कृतं लिङ्गं: समुदायस्य 
विशेषकं भवति|| यद्यवयवे कृतं लिङ्गं सम॒र्दाथस्य विशेषकं भवति -जुगुप्सयति 
मीमांसयवीत्यश्रापि प्राति | वैष दोषः | भवयवे कृतं लिङ्गः कस्य समुदायस्य -४ 
विद्चेषकं भवति | यं समृदायं यो ऽवयवो. न व्यभिचरति । सन च न व्यभिचरति 
निच पनर्व्यभिचरति | तद्यथा । गोः सक्थनि कर्णे वा कृतं लिङ्ग. गोरेव विशेषकं 
भवति न गोमण्डलस्य | 


प्रत्ययग्रहणं णियगथेम्‌ ॥ & ॥ 
प्रत्ययस्य भहणं कर्व्यम्‌ । पुवैवलस्ययादिति वक्तव्यम्‌ | किं प्रयोजनम । 10 
णियगर्थ॑म्‌ । णिकगन्तादपि यथा स्यादिति 1 ` आङ्गस्मयेते विकस्यते |  हभीयते 
महीयत इति || तत्र को दोषः | | | 


तत्र हेतुमण्णिचः प्रतिषेधः ॥ ७ ॥ 


तत्र हेतुमण्णिचः प्रतिषेधो वक्तव्यः† | आसयति शाययतीति ! सत्रं च भ्त्थिते।। 
यथान्यासमेवास्तु | कथमाकुस्मयते . विकुस्मयते हणीयतेः ` महीयत इति | अनुब- 15 
न्धकरणसाम्यां भविष्यति || भथयावयवे कृतं किङ्ग समुदायस्य विशेषकं भवति| 
तदयथा | गोः सक्यानि कर्णे ऋ कृतं लिङ्गं समुदायस्य विदहेषकं भवति । यद्व- 
यवे कतं लिङ्गं समुदायस्य विदोषकं भवति हणी ययति महीययति अत्रापि परो 

| अवयवे कृतं लिङ्ग कस्य समुदायस्य विदोषकं भवति । य समदाय यो 
ऽकवयवो न व्यभिचरति | यकं च न व्यभिचरति णिचं त॒ व्यभिचरेति। तथा| 20 
गोः सक्थनि कर्णे षा कृतं लिङ्गं गोरेव विरोषकं भवति न गोमण्डलस्ष | 


आम््रत्ययवत्कृजो ऽनुग्रयोगस्य ॥ ९. । ३, । ६२. ॥ 


कृञ्यदणं किमथेम्‌ | इह मा -भूत्‌ । इहामास हैहामासतुंः हहामाखः । कथं 
चात्रास्तेरनुभरयोगो भवति- | प्र्याहारब्रहणं तत्र; विज्ञायते | .कथं पुनक्षोयते तत्र 
प्रस्याहारबहणमिति । इद कृञ्व्रहणात्‌ | शह कस्मासत्याहारग्रहणं न. भवति | ८5 





# ३.९.२५; २.५. † २.९, २६. { ३.६. ४०. 
37 न 


2९० प व्याकरगमहामाध्यम्‌॥ |  [म०१.३.२. 


हृदेव $ृञमहणात्‌ | अथेह कस्माच भवति । उवुम्मांचकार उदुष्ांचकार्‌ ।. नन्‌ 
चाम्पस्ययर्वदिस्युऽ्यते न चात्राम्भत्यय्ादास्मनेपदे प्रदयामः. | न ब्रूमो जेनेति| जिं 
हदि | स्वरितवितः ` कर््रभिप्राचे क्रियाफल आत्मनेपदं भवतीति ||. वैष दोषः | 
हदं नियमार्थं भविष्यति । आम्परस्ययवदेबेतिं | यदि नियमार्थे विधिने प्रकल्पते | 

£ हृहांचक्रो छऊर्हांचक्र इति । विधिश्च प्रकुपः । कथम्‌ | पुवेवदिति वतेते। । आ- 
त्मत्ययवत्पववचेति ॥ 


प्रोपाभ्यां युजञेरयज्ञपात्नेषु ॥ ९. । २ । ६४ ॥ 
स्वराद्युपसृष्टादिति वक्तव्यम्‌ | उदयु ङ्‌ अनुयुडध 

अपर .आह । स्वराद्यन्तोपसूष्टादिवि वक्तव्यम्‌ । प्रयु, नियुङ, विनियुङ्क || 
10 समः द्णुवः ॥ ९. । २. । ६५ ॥ 

-. किमथ विदेशस्थस्य महणं क्रियते न समो गमारिष्वेवोच्येतः | 

| समः .क््णुवः सकममकार्थम्‌ । ९ ॥ 

, , सकर्मकार्थोऽयमारम्भः | अकमेकादिति हि वत्रानुवतेते ॥ 

भुजोऽनवने ॥ १. ।. २ । ६६ ॥ 


15 . अनवनकौटिल्ययोरिति वक्तव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ । प्रभुजति वाससी | 
निभृजति जानुशिरसी इति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | यस्य भुनेरव-: 
नमनवनं चा्थस्तस्य महणं न चास्य भुजेरवनमनवनं चाथेः || 


गेरणौ यत्कर्म णौ वेस्स -कतौनाध्थाने ॥ ९. ।.२ ।.६७ ॥ 


गेरात्मनेपदविधाने ऽण्यन्तस्य कमेणस्तत्रोपलन्धिः । ९ ।।. 
नेरास्मनेपदाथिधाने. ण्यन्तस्य यत्कर्म यदा ण्यन्ते वदेव कम भवति तदास्मने- 
पदं भवतीति वक्तव्यम्‌ | | - 
* १.६.०१. † ९.६. ६३. ‡ ९.१.२९. ` 


20 








फ १.२.६४;६७.] ॥ व्वाकर्ण प्रह भष्यम्‌ ॥ ९.१ 


; इतरथा हि सवेप्रसङ्गः. ॥;: २ ॥। . 
“ ` इतरथा हि सरथ प्रसङ्गः स्यात्‌ । इहापि प्रसज्येत । आरोहन्ति हलिनं ह- 
स्तिपका; । आरोहयमाणो हस्ती ` स्थलमारोहयति मनुष्यान्‌ || तत्तर्दिं वक्तव्यम्‌ | 
न वक्तव्यम्‌ | कस्मान्न भवति भरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः भारोहयमाणो 
हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यानिति | एवं वक्ष्यामि । गेरात्मनेपरं ` भवति 1 ततो ` 
ऽगौ यत्कर्म णौ चेत्‌ | अण्यन्ते यत्कर्म णौ चेण्णौ यदि तदेव कर्मं भवति | ततः 
स कतौ | कर्ती तरेरस भवति णाविति ॥ ययेवं कर्मकतौयं मवति तत्र कर्मकरु- 
त्वास्सिद्धम्‌* | | | | 


कर्मैकर्वस्वास्सिद्धामिति ेव्यक णोर्भिवृ यर्थ वचनम्‌ ॥ ३॥। 

कर्मक्त्वास्सिद्धमिति वेदयङ्किणोर्भवृर्यथमिदं वक्तव्यम्‌ । कर्मापदिष्टौ यङि- 16 
भै† मा भूतामिति || | | 

न.वा यङ्किणोः प्रतिषेधात्‌ | ४ ॥ 

न वैष दोषः | किं कारणम्‌ । यककुणोः प्रतिषेधात्‌ । प्रतिषिध्येते अत्र य- 
किणौ । यङ्किणोः ्रतिषेषे हेतुमण्णिननिनब्रुखामुपसं ख्यानमिति{ || यस्तर्हि न हेतु- 
मण्णिञ्तदथमिदं वक्छव्यम्‌ | तस्य क्मापरिष्टौ यङ्किणौ मा भूतामिति । उत्पुच्छ- 15 
यते पुच्छं स्वयमेत्र | उदपुपुच्छत पुच्छं स्वयमेव | अत्रापि यथा भारद्वाजीयाः 
पठन्ति तथा भवितव्यं प्रतिषेधेन । यङ्किणोः प्रतिषेधे शिभ्नन्यिमन्धित्रूजात्मनेपदा- 
कमे काणामुपसंख्यानमितिः || स चाव इयं प्रतिषेध आभ्रवितव्यः | 


इतरथा हि यत्र नियमस्ततो ज्यत प्रतिषेधः ॥ ९॥ 
अनु्यमाने दछेतस्मिन्यत्र नियमस्ततो न्यत्र तेन यङ्किणोः प्रतिषेधो वक्तव्य 20 
स्यात्‌ | गणयति गणं गोपालकः | गणयति गणः स्वयमेव | 
आत्मनेपदस्य च || ६ ॥ 
आत्मनेपदस्य च प्रतिषेपो वक्तव्यः | गणयति गणः स्वयमेव . | 
आत्मनेपदप्रतिषेधार्थं तु ॥ ७ ॥ ` 


आत्मनेपदप्रतिषेधाथेमिदं बक्तव्यम्‌ | गणयति गणः स्वयमेव || इष्यत एवा- 2४ 
अत्मिनेषंदम्‌ । किमिभ्यत एवाहोस्वित्रपित्यपि | हृष्यते च प्राति च | कथम्‌ 


१ "गगण णण ककय ० 


# २.९. ८$; १.२.१२. ¶ २.५. ६७; ६६. { ३.९. ८९१५. 


+: ॥ न्वौक्स्भकहीभोष्यय्‌ [.म॑ं० ९.२. . 


भणाविति कस्येदं गेर्भक्णम्‌ । यस्माण्णेः प्राम ` क्ता वा विते न चेतस्माण्णेः 
श्राक्षमे कती वा विद्यते || इदं ताहि प्रयोजनमनाभ्यान इति - वश्ट्यामीति । इह मा 
भूत्‌ -। स्मरति वनगुल्मस्य कोकिलः. | स्मरयत्येनं वनगुल्मः स्वयमेवेति ।। एतः 
दपि-नास्ति प्रयोजनम्‌ | कमौपदिष्टा विधयः कर्मस्थभावकानां - कर्मस्थक्रियाणां क 

5 भवन्ति -कतैस्थमावकथायम्‌ ||. एवं ताह सिद्धे सति यदनाध्यान इति प्रतिषेधं शास्वि 
तज्ज्ञापयस्याचार्यो भवस्येवंजातीयकानामास्मनेपदमिति । किमेवस्य- ज्ञापने प्रयो - 
जनम्‌ | परदयन्ति भृत्या राजानम्‌ | दक्ौवते भृस्थाजाजा । ददौयते मृत्य रान 4 
भत्रात्मनेपदं सिद्धं भवति || 


आत्मनः कमेत प्रतिषेधः | ८ ॥ 


10 जात्मनः कमत्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | हन्त्यात्मानम्‌ | षातयत्यत्मिति ॥ स 
तरि वक्तव्यः | 


न वा ण्यन्ते ऽन्यस्य करवैस्वात्‌ ॥ ९.॥ 


न वां वक्तव्यः | किं कारणम्‌ | ण्यन्ते ऽम्यस्य कतेत्वात्‌ | अन्यदव्राण्यन्ते 

कमौन्यो ण्यन्तस्य कतौ | कथम्‌ | दवावात्मानाबन्तरात्मा शरीरात्मा च | अन्त- 

15 रात्मा तत्कर्म करोति येन शरीरात्मा सुखदुःखे अनुभवति । शरीरास्मा तत्कमे 
करोति येनान्तरास्मा सुखदुःखे अनुभवतीति ॥ 


स्वरितसितः कनेभिप्राये क्रियाफरे ॥ १ । ३ । *७२ ॥ 


स्वरितञित इति किमर्थम्‌ । याति वाति द्राति प्साति | स्वरितनित इति 
दाक्यमकतुम्‌ । कस्मान्न भवति याति वाति द्राति व्सातीति | क्रभिराये क्रिया- 
20 फल इत्युच्यते सर्वेषां च कनैमिपरायं क्रियाफरमस्ति । त एवं धिन्ञास्यामः । येषां 
क्भिप्रायमकर्रभिपरायं च क्रियाफलमस्ति तेभ्य . भस्मनेपदं भवतीति | न चैतेषां 
कतरेभिपायमकंजरभिपरायं च (क्रेयाफलमस्ति | तथाजतीवकाः खल्वाधार्येण स्वरि- 

. सथितः पठिता यं उमयबन्तो येषां कञ्मिप्रा्य चाकर्रैमिप्रायं च क्रियाफलमस्ति ॥ 
अधाभिप्रमहणं किमयम्‌ । -स्करितथितः कत्रीये क्रिथाफल इतीयस्युच्वमाने यमेव 
2 संपरत्येति क्रियाफलं तत्रैव स्यात्‌ | लूञ्‌ लुनीते | पय्‌ पुनीते' । हह न ` स्यात्‌ | 
यञ यजते | षम्‌ वपते | अभिपरसहणे. पुनः क्रियमाणे न दोश भवति | भमिरा- 


प° ९.३.५२-७८.] ॥ व्याकर्नपशामाच्यप ॥. ९९३ 
भिमुखूबे वतेते प्र भादिकमणि । तेत्र यं चाम्िति यं चामित्रैष्यति यं चामिप्रामात्त्र 
सयेक्राभिमुख्यमात्रे सिद्धं भवति || कञ्रेभिपराये क्रियाफल इति कि मथंम्‌ । पचन्ति 
मन्तकाराः ] कुवन्ति कमेकराः । यजन्ति याजकाः | कत्रेभिपराये क्रिथाफरं इत्यु 
च्यमाने ऽप्यत्र प्रामोति । अत्रापि हि क्रियाकलं कतोरमम्प्रिति | याजका यजन्ति 
शा रष्स्यामहः इति. | कमेकराः कुवन्ति पारिकम्ंप्स्वामह इति । एवं तर्हिं कत्ै- 5 
भिधाये क्रियाफर इत्युच्यते सर्वत्र ल कीर क्रिवाफरममित्रेति तत्र अरफषेगतिर्थि- 
हास्यते । साधीयो यत्र कतौर (क्रेयाफकमभ्प्रिति । न चान्तरेण यजिं यजिफखं 
वपि वां वपिफलं लभन्ते | याजकाः पुनरन्तरेणापि वजि गा. लभन्ते भृतक 
पादिकमिति | | 


शेषात्कतैरि परस्मैपदम्‌ ॥१॥। ३ । 9८ ॥ 10 


दोषवचनं पश्चम्था वेदर्थे प्रतिषेधः ॥ ९॥ 
दोषवचनं पञ्चम्या चेदर्थे प्रतिषेधो वक्तव्यः | भिद्यते कु दालः स्वयमेव | 
छिद्यते रज्जुः स्वयमेवेति" || एवं तर्हि शेष इति वयामि | 
ि सपम्या चेश्पकृतेः ॥ २ ॥ 
सप्रम्या चेव्यङृतेः प्रतिषेधो वक्तव्यः | आस्ते देते च्यवन्ते भवन्ते || ` 16 
सिद्धं तूभयनिर्देशात्‌ ॥ ३ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | उभयनिर्देशाः कर्तष्यः | शोषाष्डेष इति वक्तव्यम्‌ ॥ 
कनेमहणामिदानीं किमथे स्यात्‌ | 
| करृग्रहणमतुपरादर्थम्‌ ॥ ४ ॥ 
अनुपरा्थमेतस्स्थात्‌{ । इह मा मृत्‌ । भनुक्रियते स्क्यमेवै | पराक्रियते 20 
स्वयमेनेति || सिध्यति । खतं तहि भिद्यते । यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं शेष- 
वचनं पत्चंम्या वेदर्थ प्रतिषेध इति । नैष दोषः । कतरि कर्मव्यतिारे [९.३.९४ 
इत्यत्र कंतृ्रहणं प्रस्याख्यायते तत्पकृतमिहानुवतिष्य्ते । रोषात्कतेरि कपैरीति | 
किमिद कर्तरि कर्तरीति । ककव यः कता तत्र यशा स्यात्‌ | कर्ता घान्यथ -कः 
क्रतो तत्र मा भदिति।| | 25 


# ३, ९.८७; ९.३. ९३. क ९८३. ९२. { ९.३.७९. ` 


2९४ ॥ व्याकरणगहाभाष्यम्‌ ॥ [. .. [म१.१.२.९. 
अनुपरभ्यां कृञः ॥ २.।२।७९) ॥ . ` 
किमथोमिदमुष्वते । 
परस्मैपदप्रतिषेधात्शजोदिषु विधानम्‌ ॥ ९ ॥। 
„ परस्मैपदप्रतिषेधाव्कृयादिषु परस्पैपदं विधीयते । प्रतिषिध्यते तत्र॒ परस्मैपदं 
¢ स्वरिताथितः कजभिपराये क्रियाफलं भास्मनेपं भवीति" || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ | 
किं तर्दति | ¦ 
तत्राप्मनेपदग्रतिधेधो प्रतिषिद्ध त्वास्‌ ॥ २॥ 
तत्रास्मनेपदस्थ प्रतिषेधो वन्कभ्यः | किं कारणम्‌ | भप्रतिषिदत्वात्‌ | न द्यातमं- 
नेदं प्रतिषिध्यते | किं तर्हि | परस्मरपदमनेन विधीयते || 
10 -: - . म धा दुततादिभयो वावचनात्‌ ॥. ३ ॥ 
भ वैष दोषः.| क्रि कारणम्‌ः। द्युतादिभ्यो वावचनात्‌ । यदव. धयुतारिभ्यो वाव- 
चनं क्ररोति† तज्ज्ञापयत्याचार्थो न परस्मेपदविषय आस्मनेपदं भवतीति ॥ 
 आस्मिनेपदनिथमे धा प्रतिषेधः. ॥ ४ ॥ 
भास्मनेपदनियमे घा प्रतिषेधो ब्रक्तव्यः | स्थरितयितः कत्रभिप्राये क्रियाफलठ आ- 
15 स्मनेपदद भवति करतैर्थनूपराभ्यां कृ जो नेति || सिध्यति | सज तर्हि भिद्यते | यथान्या- 
समेवास्त | नतु चोन्तं तज्रात्मनेपदप्रतिषेधो ` ऽप्रतिषिद्धत्वादिति | परिहतमेतन्न .वा 
द्युतादिभ्यो वावचनादिति || अथवेदं षावदयं प्रष्टव्यः | स्वरितानितः कतरैभिप्राये 


क्रियाफल आत्मनेषर भव्रतीति, परस्मैपदं कस्मान्न. भवति | भात्मनेपरेन वाध्यते | 
यथैव तद्योस्मनेपदेन परस्मैपदं बाध्यत एवं परस्मैपदेनाप्यात्मनेपदं बाधिष्यते ॥ 


. चषयुधनराजनेङ्दृख्भ्यो णेः ॥ ९.।३ । ८६ ॥ 
लुधादिषु ग्रे कमेकास्तेषां महणं किमथेम्‌ । सकमेकार्थमविश्तवत्करतैकाये वाः 


 अणावकमैकाित्तवः कतृकात्‌ ॥ १. ।३. । ८८ ॥ 


अणावर्कर्मकादिति चुरादिणिचो ण्यन्वात्परस्पैपदषवचनम्‌ ।॥ \॥ 
भणावकमेकादिति चुरादिणिचो गण्वन्तास्परस्मैषदं वक्तत्थम्‌ । इहापि यथा 
. ५१.३.७२. † ९. १. ९९. { ९. ६, <<. ि 





पा० ९.३.५९-९३.| ॥ व्वाकरणग्हाभोष्यम्‌ ॥ २९.५ 


स्यात्‌ | चेतयमानं प्रयोजयति चेतयतीति || यदि वद्यत्रापीष्यते अणिब्रहणमिदानीं 
किमथे स्यात्‌ | अकमकम्रहणमण्यत्तविशेषणं यथा विज्ञायेत । अथाक्रियमाणे 
ऽणिम्रहगे कस्याकर्मकमरदणं विदोषणं स्यात्‌ । णेरिति वर्ते ण्यन्तविशेषणम्‌ । तत्र 
को दोषः | इटैव स्यात्‌ | चेतयमानं प्रयोजयति चेतयतीति । इह न स्यात्‌ | 
आसयति चाययतीति ॥ 5 


| सिद्धं स्वतस्मिष्णाविति वचनात्‌ ॥ २॥ | 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | अतस्मिण्णौ यो ऽक्मैकस्तत्रेति बक्तत्यम्‌ || सिध्यति | 
सूत्रं ताहि भिद्यते | यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तमणावकमेकादिति चुरादिणिचो 
ण्यन्तात्परस्मैपदवचनमिति | त्ष दोषः | अणाविति कस्येदं गेग्रेहणम्‌ | यस्माण्णे 
पराकृ्म कतो वा विद्यते न वैतस्माण्णेः प्राक्षमे कतौ वा विद्यते || ` 10 


न पादम्याङचमाङयसपरिमुहरुचिनृतिवदवसः ॥ १. । २.।८९॥ ` 


। पादिषु धेट उपक्षंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥. । 
ˆ पादिषु भेट उपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । धाप्येते शिद्युमकं समीची || ` ` 


ट्ट च कुपः ॥ १. ।२.। ९२ ॥ 


किमथेथकारः । स्यसनोरिस्येतदनुकृष्यते। । यरि ताहि नान्तरेण चकारमनु- 15 
वृत्तिभेवति शुद्धो लुडि [२.३.९९] हत्यत्रापि चकारः कतेव्यो विभाषेत्यनुकरषे- 
गार्थः ‡ । अयेदानीमन्तरेणापि चकारमत्रानुवृत्तिभेवतीहापि नार्थथकारेण || एवं 
सर्वे चकाराः प्रत्याख्यायन्ते ॥ | 

हति रीभगवत्यतच्ञलिविरचिते ष्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्वाध्यायस्य तृतीये ` 
पादे दितीयमादहधिकम्‌ ॥ पाद समाप्तः | - 20 


% ६.३, ८६. †{ ९.३. ९२. ‡ ९३, ९५०. 


न मि ण भो 


आ कडारदेका संज्ञा ॥१.।४।९.॥' 
किमथेभिरदमुच्यते | | 


अन्यत्र संज्ञासमावेदान्ियमथं वचनम्‌ ।॥ ९ ॥ 
अन्यत्र संज्ञासमावेशो भषति | कान्यत्र | लोके व्याकरणे च | लोके तावत्‌ | 
¢ इन्द्रः दाक्रः पृखहुतः पुरंदरः | कन्दुः कोठः कुल हति | एकस्य द्रव्यस्य बहचः 
संज्ञा भवन्ति | व्याकरणेऽपि कर्वव्यम्‌ हकैव्यमिष्यन्न प्रत्ययज्ृककृत्यसंक्ञानां समा- 
वेदो भवति | पालः वैदेहः त्रैदमं इत्यत्र प्रत्ययतद्धिततद्राजसंज्ञानां समावेशो 
भवति | अन्यत्र संज्नासमावेशादेतस्मात्कारणादा कडारादपि संज्ञानां समावेशः 
प्राभोति | इष्यते वैकैव संज्ञा स्यादिति त्ान्तरेण यज्ञै न सिध्यतीति नियमा 
10 वचनम्‌ । एवम्थैमिदमुच्यते || अस्ति प्रयोजनमेतत्‌ । किं तीति | 
कथं त्वेतत्सत्रं पठितव्यम्‌ | किमा कडारादेका संज्ञेति | आहोसििस्माङ्गडारा- 
स्मरं कार्यमिति । कुतः पुनरवं संदेहः | उभयथा श्याचर्यैण शिष्याः बजरं परतिपा- 
रिताः । केचिदा कडारादेका संशेति । केचिसाक्षडारात्परं कायमिति }. कथात्र 
वि्ेषः | 


15 तत्रैकसंज्ञाधिकारे तद्वनम्‌ .। २ ॥ 
तत्रैकसंश्ञाधिकारे तहक्तव्यम्‌ | किम्‌ एका संज्ञा भवतीति | | ननु च यस्यापि 
परंकार्यत्वं तेनापि परम्रहणं कतैव्यम्‌ । पराथ मम भविष्यति | विप्रतिषेधे चेति | 
ममापि त्धैकमहणं पराथ भविष्यति । सरूपाणामेकदोष एकविभक्तौ [९. २.६ ४ | 
इति | सं्ञाधिकारथायम्‌ । ततर किमन्यच्छक्यं विज्ञातुमन्यदतः संश्ययाः । तत्रै 
20 तावद्माच्यम्‌ | आ कडारादेका । किम्‌ । एका संज्ञ भवतीति || 


अङ्गसंजया भपदसंक्ञयोरसमावेराः ॥ ३ ॥ 


अङ्गसंश्चया भपदसंज्ञयोः† समावेशो न प्रामोति | सार्षिष्कः बार्हिष्कः याजुष्कः 
धानुष्कः‡ | बाभ्रव्यः माण्डव्य$ इति । अनवकाश भपदवंजञे अङ्गसंज्ञं वाधेवा- 


# ९.४.२. 1 ९.४.९२; ९४;९८ { ४,४.५९; (५.९. ६३); ७.१. ९९; ८.१. १९; ०.२. ९६८. 
§ ४.९० ९.०६; (६०५); ६.४. ९४६. ७,२. ९९७, 








पा०९.४.९. | ॥ वयाकरणमटभाष्यय्‌ ॥ २९७ 


ताम्‌ | पर वचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः || यस्य पुनः परंकायैत्वं निय- 
मामुपपत्तेस्तस्योभयोः संज्ञयोभांवः सिद्धः | कथम्‌ । पूर्वे तस्य॒ भपषदसंजञे पराङ्- 
संज्ञा । कथम्‌ | एवं स वक्ष्यति | यस्माखत्ययविधिस्तदादि खम्रिडन्तं पदम्‌ | 
नः क्ये | सिति च | स्वादिष्वसवेनामस्थाने | यत्ति भम्‌ | तस्यान्ते प्रत्यये ऽङ्मिति । 
तत्रारम्भसामथ्यौचच भपदसंज्ते परंकार्यत्वाञ्चाङसंज्ञा भविष्यति || ननु च यस्याप्ये- 
कसंज्ञाधिकारस्तस्याप्य ङ्संज्ञपूविके भपदसंज्ञे । कथम्‌ । अनुवृत्तिः क्रियते | पयोगः 
प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगपद्येन संभवः || 


कर्मधारयस्वे तत्युरुषग्रहणम्‌ ॥ ४ ॥। 


क्मधारयस्वे तस्परुषपरहणं कर्तव्यम्‌ । तद्पुरूषः समानाधिकरणः क्मेषा- . 


रयः |९.२.४२| . हति । एकसंज्ञाधिकार इति चोदितम्‌ | अक्रियमाणे ह्यनवकाशा 10 


कमेधारयसंज्ञा त्पुरुषसंश्ञां षाधेत | प्रवचने. हि नियमानुपपत्तेरमयसंज्ञामावः ॥ 
यस्य पुनः परंकार्यत्व नियमानुपपततेस्तस्योभयोः संज्ञयोभोवः सिद्धः । कथम्‌ | पृं 


तस्य कमषरयंज्ञा परा तत्परषसंज्ञा | कथम्‌ | एवं स॒ वल्यति | पर्वैकाकेकसवै- ` 


जरत्पराणनवकेव्रलाः समानाधिकरणेन कमधारय इति] एवं सवे कर्मपारयप्रकर- 


गमनुक्रम्य तस्यान्ते . भितदिस्तत्पुरुष . इति† । तत्रारम्भसामर्थ्याब्च कर्मधारयसंज्ञा 
परं कायेत्वा्च तस्पुरुषसंज्ञा भविष्यति ॥ ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि 


तद्पुरुषसंज्ञापूर्वैका क्मेधारयसंज्ञा । कथम्‌ | अनुवृत्तिः क्रियते | पयोयः प्रस- 
ज्येत | एका संज्ञेति वचनात्नास्ि यीगपद्येन संभवः |} ` 


तव्युरुषस्वे द्विगुचग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 


तस्पुरुषत्वे द्विगु चयहणं कतैव्यम्‌ | तत्पुरुषः [१.९.२२] दगु [५३] हति % 


च कारः कतैव्यः | अक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाश्ा द्विगुसंज्ञा तस्पुरुषसंशनां वाधेत | 
पर वचने दि नियमानुपपत्तेरभयसंज्ञामावः || यस्य पुनः परं कार्यत्वं नियमानुपप- 
सेस्तस्योभयोः संक्तयोभोवः सिद्धः | कथम्‌ 1 पूवो तस्य द्िगुसं्ञा परा तत्पुस- 
षसंज्ञा । कथम्‌ । एवं स वक्ष्यति | तद्धितार्थोत्तरपदसख्मर्करे. च [२.९.९९ | सं- 


सट्यापूर्वो द्विगुः [९२] इति | एवं सवै दिगुप्रकरणमनुक्र म्य तस्यान्ते श्रितादिस्तत्पु- 2 


रुष इति! | तत्रारम्मसामथ्यो्च दिगुसं्ञा परंकायत्वाश्च तत्ुरुषसं जा भावि- 
ध्याति || ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि तस्पुरुषसंज्ञापर्विका हिगुसंज्ञा । 





+ २.१. ४९, ` ¶ २.१.२५, 
38 श्च 


२९८ ॥ व्यौकरनमरहाभाष्यम्‌ ॥ (भ०९.४.९ 


कथम्‌ [ अनुवृत्तिः क्रियते | पर्यायः प्रसज्येत । एका संज्ञेति वचनात्नास्ति 
यौगपद्येन संभवः ॥ ` ` 


गतिदिवःकमेहेतुमस्सु चग्रहणम्‌ ॥ & ॥ 


गतिदिवःकमेहेतुमस्ु चमहणं. कतेन्यम्‌ |] उपसगौः क्रियायोगे [१.४.९९ | 

£ गतिश्च [६०] इति चकारः कतेव्यः | आक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाञ्चोपसगेसंज्ञा 
गरतिसंज्ञां वापेत | प्रवचने हि - नियमनुपपत्तेरुभयसंज्ञामावः || यस्य पुनः परं - 
कार्य्वं नियमानुपपत्तस्तस्योभयोः संज्ञयोभावः सिद्धः | कथम्‌ । पवो तस्योपसगे- 
संज्ञा परा गतिसंज्ञा । तक्नारम्भसामथ्योचोपसगसंज्ञा परं कार्यरवाच्च ग्रतिसज्ञा भावि- 
ष्यति ॥ ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्याप्युपसगसंज्ञापूर्दिका गतिसंज्ञा | 
10 कथम्‌ | अनुवृत्तिः क्रियते | पर्यायः प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नासि यीग- 
पद्येन संभवः || गतिसंज्ञाप्यनवकादा सा वचनादविष्यति | सावकाडा गतिसंज्ञा | 

, को ऽवकाशः | ऊयोशेन्यवकाश्चः* | प्रादीनां या गतिसंज्ञा सानवकाशा | गति ॥ 
दिवः कमे । साधकतमं करणम्‌ [१.४.४२] दिवः कमे च [४२] इति चकारः 
 कतैष्यः | अक्रियमाणे हि चकारे ऽनवकाश्चा कर्मसंज्ञा करणसंज्ञं वाधेत | पर- 
15 वचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः ॥| यस्य॒ पुनः परं कायेस्वं नियमानुपपत्ते- 
स्तस्योमयोः संश्नयोभोवः सिद्धः | कथम्‌ | पुव तस्य कर्मसंज्ञा परा करणसंज्ञा | 
कथम्‌ | एवं स वक्यति | दिवः साधकतमं कर्म | ततः करणम्‌ | करणसंज्ं 
च भवति साधकतमम्‌ । दिवं इति निवृत्तम्‌ | तन्रारम्भसामथ्याच कर्मसंज्ञा परका- 
यैस्वा्च करणसंज्ञा भविष्यति ॥ ¶नु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि करणसं- 
20 ज्ञापुरविका कर्मसंज्ञा । कथम्‌ । भनुवृत्तिः क्रियते | प्यायः प्रसज्येत | एका 
सक्तेति वचनान्नास्ति यौगपयथेम संभवः | दिवः कर्म ॥ हतुमत्‌ । स्वतन्त्रः क्तौ 
[१,४.९४] तखयोजको हेतु | ९५] हति चकारः कमैव्यः | आक्रियमाणे हि चकारे 
ऽजवकाद्रा हेतुसंज्ञा कतृसंज्ञां बाधेत | परवचने हि नियमानुपपत्तेरुभयसंज्ञाभावः ॥ 
यस्य पुनः परंकायेत्वं नियमानुपपत्तेस्तस्योभयोः संशयोभोवः सदः | कथम्‌ | 
पवौ तस्य हेतुसंजञा परा कतृंसं्ञा | कथम्‌ | एवं स व्यति ] स्वतन्त्रः प्रयोजको 
हेतुरिति । ततः कतौ । करसखंजञश्च भवति स्वतन्त्रः | प्रयोजक इति निवृ्लम्‌ । 
25 तत्रारम्मसामथ्याच हैतुसंज्ञा परं कायैत्वाञ्च कतसंज्ञा भेष्यति ॥ ननु भ यस्या- 


# ९.४, ६९, 








पा०९.४.९.॥ ॥ व्याकरगपहामाष्यय्‌ ॥ २९९. 


प्येक संज्ञाधिकारस्तस्तरापि कर्तृसंजञापुर्विका हेतुसंज्ञ | कथम्‌ | भनु वृत्तिः क्रियते| 
पयोयः प्रसज्येत । एका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगप्येन संभवः || 


गुरुखषु संते नदीधिसन्ञे | ७ ॥ 

गुरलघुसंज्ञे नदीधिसंजे वाधेयाताम्‌' । गार्जीबन्धुः वात्सीबन्धुः{ । वेनन्‌; 
विविनय्य$ | परवचने हि नियमानुपपत्तेरभयसंज्ञाभावः || यस्य पुनः परंकार्यत्व ४ 
नियमानुपपत्तेस्तस्योभयोः संज्ञयोभोवः सिद्धः । कथम्‌ । पूर्वै तस्य नदीषिसंज्ञे परे | 
गुरुलयुसंज्न | तत्रारम्भसामथ्याच नरीधिसंजञे परंकायत्वाच गुरुल घुसंज्ञे भविष्यतः ॥ 
ननु च यस्याप्येकसंज्ञाधिकारस्तस्यापि नदीषिसंजञापूर्विके गुरुलघुसंज्ञे | कथम्‌ | 
अनुवृत्तिः क्रियते | पयायः प्रसज्येत । एक। संज्ञेति वचनात्नासि योगपदथेन 
संभवः ॥ | | 10 


परस्मेपदसंज्ञां पुरुषसंज्ञा ॥ ८।। 

परस्मैपदसंज्ञा पुरुषसंज्ञा वाधेत¶ | परवचने हि नियमानुपरपत्तेरभयसंज्ञाभावः ॥ 
यस्य पुनः पर्कायेच्वं नियमानुपपत्तस्तस्योभयोः संज्ञयोभावः सिद्धः | कथम्‌ | 
पुत्रौ तस्य पुरुषसंज्ञा परा परस्मैपदसंज्ञा । कथम्‌ । एवं स वक्ष्यति | तिङखीगि 
त्रीणि प्रथममध्यमोत्तमा इति | एवं सवै पुरुषनियममनुक्रम्य तस्यान्ते तः परस्मै- 1; 
पदमिति । तत्रारम्भसामथ्यौच पुरुषसंज्ञा परंकायत्वाञ्च परस्मैपदसंज्ञ। भधरष्यति । 
ननु च यस्याप्येकसंजञापिकारस्तस्यापि परस्मैपदसंज्ञापूर्विका पुरुषसंज्ञा | कथम्‌ । 
सनुवृत्तिः क्रियते | प्रयोयः प्रसज्येत | एका संज्ञेति वचनान्नासिि योगप्येन संभवः।| 
पर स्मैपदसंज्ञाप्यनवकाशा सा वचनाद्भविष्यति | सावकाशा परस्मेपदरून्ना | को ऽव- 
कादाः | दातृकष अवकाशः ॥ | 20 


परवचने सिति पदं भम्‌ ॥ ९॥ 


पर वचने सिति पदं भसंज्ञमपि प्रामोति{1† । अयं ते योनिक्रैलियः ‡‡{ । प्रजां 
तरिन्दाम कल्वियाम्‌ । भारम्भस्तमध्योचच पदसंज्ञा परंकायेत्वाच भसंज्ञा परामेति । 


गतिबुद्यादीनां ण्यन्तानां कमं कवरसंज्ञम्‌ ॥ ९० ॥ 
गातिबुद्धादीनां ण्यन्तानां कर्म कतृसंज्ञमपि प्रामोतिऽ | आरम्भसामभ्यौचच 25 


~न ~ ~~ ---- --- ~~ ~~ -~-----~-~ ~--*--~ 


# ९.४.२-९२. † ६.२.१०८ ८.२.८६. {२.२.१२ ५.९.९३९. 9 ६.४.५६. 
थ्‌ २.४. २२; २०१९. +भ २.२.१२८; १०७. 11 १.४.१६ १८. दु ५.१.१०६ (६.४.१४). 
§§ ९,४ ५२; ५४, 


३०० ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम्‌ | [ म० ९.४.९१. 


कर्मसंज्ञा परंकायैत्वाच कत॑सज्ञा प्रामोति 1] नैषः दोषः । आचार्यप्वृत्तिज्ञौपयति 
म कमेसंज्ञायां कनुसंज्ञा भवतीति यदयं हक्रोरन्यतरस्याम्‌ [९.४.५२ | इत्यन्यतर- 
स्यांभह्णं करोति ॥ 
दोषवचनं च धिसंज्ञानिवृच्यर्थम्‌ || ९९ ॥ 

४ होषम्र्णं च कतैव्यम्‌ | देषो ष्यसखि |१.४.७] इति । किं प्रयोजनम्‌ । 
निसंज्ञानिवृत््यथेम्‌ । नदीसंज्ञायां धिसंज्ञा मा भूदिति । -शकटचै पद्त्यै बु 
धेन्वै" । इतरथा हि परं कायव्वा् विसंज्ञारम्भसामथ्यौ च डिति स्वश्च [१.४.६ 
इति नदीसंज्ञा. || 

न वासंभवात्‌ ९ ॥ 

10 नवा कर्तव्यम्‌ । नरीसंज्ञायां पिसंज्ञा कस्मान्न भवति | असंभवात्‌ । को 

ऽसावसभवः | | 


हस्वलश्षणा हि नदीसंज्ञा विसंसायां च गुणः ॥ ९३ ॥ 
स्वलक्षणा हि नदीसंज्ञा धिसंश्ञायां च गुणेन भवितव्यम्‌ | 
तत्र वचनप्रामाण्याज्नदीसंत्ञायां पिसंज्ञाभावः ।। ९४ ॥ 
15 तत्र वचनप्ामाण्याश्नदीसंज्ञायां तिजा न भविष्यति । किं कारणम्‌ | भत्र 
याभावात्‌ । 
आश्रयाभावान्नदीसंज्ञायां पिसंज्ञानिवृत्तिरिति चेद्यणादेराभावः ॥ १९५॥ 
का्रयाभावान्नदीसं्ञायां धिसंज्ञानि वृत्तिरिति चेदेवमुच्यते | यणादेशो अपिन 
प्रामोति ॥ वैष दोषः | 


20 नद्याश्रयत्वाद्यणदेदास्य स्वस्य नदीसंत्ताभावेः ॥१६ ॥। 
नद्यान्रयो यणादेश्चः । यदा नदीसंज्ञया विसंज्ञा वाधिती तते उत्तरकालं यणा- 
देशेन भवितव्यम्‌ । नद्याभ्रयत्वाद्यणादेशस्य हस्वस्य नदीसंज्ञा भविष्यति || 
बहुत्रीह्यथे तु ॥ ९७ ॥ ` 
बहुव्रीदिपरतिपेधायै तु रोषग्रहणं कर्तन्यम्‌ । रेषो बहुत्रीहिः [२.२.२३] इति ॥ 
25 किं प्रयोजनम्‌ | 


# ७.३. १९२; (२६९). † ७,२,११९. 





फ० १.४.९. | ॥ व्याकट्णप्रहाभाष्यम्‌ ॥ ३०१ 


प्रयोजनमव्ययीभावोपमानदिगुकृ द्योपेषु .॥ ९.८.॥ 
अव्ययीभावे | उन्मत्तङ्गम्‌ लोहितगङ्गम्‌" | उपमने । शखीदयामा कुमुद- 
दयेनी† । द्विगु | पञ्चगवम्‌ दशगवम्‌ । कृद्ेपि | निष्कौशाम्बिः निर्वाराणसिः§ ॥ 


तच रोषवचनादोषः संख्यासमानाधिकरणनञ्समासेषु बहुव्रहै- 
प्रतिषेधः ।॥ ९९ ॥ । ६ 
तत्र शेषवचनाहेषो भवति । संख्थासमानाधिकरणनञ्समासेषु बहुत्रीहेः प्रतिषेधः 
्रामोति | संख्या | दीरावतीको देशः । बीरावतीको देशाः¶ | समानाधिकरण । 
वीरपुरुषको भरामः” * । नञ्समाते । अत्राढ्मणको देशः । अवृषलको देशाः1† | 


कृदोपे च दोषवचनात्मादिभिनं बहुत्रीहिः ॥ २८ | 
कृट्धोपे च शेषवचनास्ादिभिवहु््रीहिनं प्रामोति | प्रपतितपणीः प्रपणीकः | प्रप- 10 
तितपकलाशचः प्रपलादहाक हतिः || अधैकसं्ञाधिकारे कथं सिध्यति | पएकर्सज्न[- 
धिकरारे विप्रतिषेधाद्रहुवरीहिः । एकसंज्ञाधिक्ारे विप्रतिषेधाद्रहुव्रीहिभ॑विष्यति ॥ 


 एकतज्ञायिकरि विपरतिगरेधाद्रहुर्रहैरिति चेत्‌ क्त्ये प्रतिषेषः ॥ २९॥ 
एकसंज्ञाधिकारे विप्रतिषेष।दवहु व्रीहिरिति चेत्‌ क्तार्थ प्रतिषेधो वक्तव्यः| निष्कौ- 
्ाम्बिः निवौराणसिः ॥ तत्पुरुषोऽत्र वाधको भविष्यति | 15 


तत्पुरुष इति चेदन्यत्र क्तायोत्मतिषेधः | २२ ॥ 
तस्पुरुष्र इति चेदन्यत्र क्ाथोलतिपेपो वक्तव्यः | प्रपतितपणैः प्रपणकः | 
प्रपतितपलाशः प्रपलाशकं इति ॥| 


सिद्धं तु प्रादीनां क्त्ये ततपुरुषवचनात्‌ ॥ २३ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । प्र दीनां क्त्ये तत्पुरुषो भवतीति वक्तव्यम्‌ ॥ 20 
कानि पुनरस्य योगस्य प्रयोजनानि । 
पयोजनं हस्वसंज्ञां दीेष्नी ।॥ २४ ॥ 
स्वसंज्ञा दीर्षश्चतर्सज्ञे बाधेतेऽ9 ॥ 


# २.९. २९; (६.२.२१; ५.४. ६.४). † २.१. ५५; (५.४, २५४; १५३). { २.१. ५९; ५१; (६.२.१५). 
$ २.१. ८४; (५.४, ९५६), ¶ृ (१.९. २०). +* (२.१९. ५८). †† (२.१.६). {‡ (२.२.९८४). 
। 6९ ९.१. २७. 


२०१ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [म० ९.४.१९ 


तिङ्ावेधातुकं लिङ्टोरार्धधातुकम्‌ ॥ २९ ॥ 
तिडः सार्वधातुकसंज्ञां लिङ्खिटिराधेधातुकसंज्ञा वाधते" ॥ 


अपत्यं वृद्धं युवा ॥ २६ ॥ | 


अपत्यं वृधं युवसंज्ञा वाधते! ॥ 


5 पि नदी २७॥ 
धिसंज्ञां नदीसज्ञा वाधते | 


लघु गुर्‌ ॥ १८ ॥ 
लघुेज्ञां गुरुसंज्ञा वाधते || 


पदं भम्‌ । ५९॥ 
10 पदसंज्ञं भसंज्ञा वाधते¶ || 


अपादानमुत्तराणि धनुषा विध्यति कंसपाध्यां भुङ्के गां दोग 

धनुर्विष्यतीति ॥ २० ॥ 

भपादानसंज्ञामु चराणि कारकाणि षाधन्ते | क | धनुषा विध्यति | कंसपात्र्यां 

भुङे । गां दोग्धि | धनुर्भिभ्यति | धनुषा विध्यतीत्यपाययुक्तत्वा्च धुव्रमपाये 

15 ऽपादानम्‌ [१.४.९४ | इत्यपादानसंन्ञा प्रभोति साधकतमं करणम्‌ [४२] इति च 

करणसंज्ञा । करणसंज्ञा परा. सा भवति || कंसपात्र्यां भुद्गः इत्यत्रापाययु क्तत्वा- 

च पु वमपायेऽपादानमित्यपादानसंज्ञा प्रामोत्याधारोऽधिकरणम्‌ [४९]. इति चाभि- 

करणसंज्ञा | अधिकरणसंज्ञा परा सा भवति ॥ गां दोग्धीत्यत्रपाययुक्तत्वाचापा- 

दानसंज्ञा प्रामोति कतुरीस्िततमं क्म [४९] इति च कर्मसंज्ञा | कर्मसंज्ञा परा 

20 सा मवति || धनुर्विभ्यतीत्यत्रापाययु्छत्वाचचपादानसंज्ञा पभ्रामोति स्वतन्तः ` कतौ 
[९४] इति च कर्मसंज्ञा । कर्वृसंज्ञा परा सा मवति | 


क्ुधहुहोरुपसृष्टयोः कमं संप्रदानम्‌ 1 ३९ ॥ 


्रुयद्रुरोरुपसृष्टयोः कमता संप्रदानसंज्ञं वाधते.“ || 


* ३.४.१९३; ९६५; ९१६. ¶† ४.२. ९६२; १६३ { \.४.३-० $ १८८४. १०; ११. 
4 २.४. ५४६९८. २८; २७ 


पा०९.४.९. | ॥ व्याकरेणयहामाष्यम ॥ ६०३ 


करणं पराणि साष्वासिरिछनत्ति ॥ ३२॥ 
करणसंज्ञं ` पराणि कारकाणि वाधन्ते | क्र | धनुर्विध्यति । असिरिक्नत्तीति | 


अधिकरणं कम॑ गेहं परविराति ॥ ३३ ॥ 
भधिकरणसंज्ञां कर्मसंज्ञा वाधते। | क्र । गेहं प्रधिदातीति | 


| अधिकरणं कतो स्थाली प्ति ।। ३४ ॥| £ 
भधिकरणसंज्ञां कतृसंज्ञा वाधते‡ । क | स्थाठी पचतीति | 
अध्युपसृष्टं कम । ३५९ ॥ 

अध्युपसुषटं कमोधिकरणसंज्ञां वाधते$ ॥। 

गल्युपसगेसंजञे कमेप्रवचनीयसंज्ञा ॥ ३६ ॥ 
गत्युपसगेसं जे कमेप्रवचनीयसंज्ञा वाधते¶ || 10 

परस्मेपदमात्मनेपदम्‌ ॥ ३५७ ॥ 

परस्मैपदसंज्ञामातमनेपदसंश्ञा वाधते“ || 


. समाससंज्ञा ॥ ३८ ॥ | 
, समाससंज्ञा या याः परां अनवकाशाश्च तास्ताः पुवोः सावकाराथ्च वाधन्ते | 


अ्थवत्मातिपदिकम्‌ ।। ३९॥। 15 
अथेवत्पातिपदिकसं्चं भवति ॥ | 
गुणवचनं च ॥ ४० ॥ 
गुणव चनसं्ते च भवत्ययैवत्‌ || | 
समासकृत्तदधिताव्ययसवैनामासर्वलिङ्गा जातिः ॥ ४९॥ 
समास | समाससंत्ञा च वक्तव्या | कृत्‌ । कृत्संज्ञा च वक्तव्या | तद्धित | ९0 


तद्धितसंज्ञा च वक्तव्या | व्यय | भव्ययसंज्ञा च वक्तव्या । सर्वनाम | सर्व- 
नामसंज्ञा च वक्तव्या | असवेलिङ्गा जातिरिस्येतच्च वष्कष्यम्‌ | 





# ९.४. ४२. -† ९.४. ४९; ४९. { ९.४, ४९९; ५८,  § १.५. ४६; ४५. ¶ ९.४, ५९९; ४.०; ८दे 
@# ६.४.९९; ६००, 


३०४ | ॥ व्वाकरत्रपरहामाष्वम्‌ ॥ [म० ९.४.९. 


संख्या ॥ ४२ ॥। 
संख्यासंज्ञा. च वक्तव्या ॥ . 
ड्‌ च| ४३॥। 
इसंज्ञा' च वक्तव्या ॥ का पुनडुसंज्ञा । षट्संज्ञा ॥ 
£  एकद्रव्योपनिवेरिनी संतता ॥ ४४ ॥ 
एक द्रव्योपनिवेद्षिनी सं्ञेरयेतच वक्तव्यम्‌ || 
किमथैमिदमु च्यते | यथान्यास एव भूयिष्ठाः संज्ञाः क्रियन्ते | सन्ति चैवात्र 
काथिदपृर्वाः संज्ञाः | अपि चेतेनानुपूर्व्येण संनिविष्टानां वाधनं यथा स्यात्‌ । गुणः 
वचनसंज्ञायाश्चैतामिवं।धनं यथा स्यादिति ॥ 


0 विप्रतिषेधे परं कायम्‌ ॥१।४।२॥ 


विप्रतिषेध इति कोऽयं शब्दः | विप्रतिपरवास्सिभेः कर्मव्यतिहारे घञ | इतरेत- 
रप्रतिषेपो विप्रतिषेधः । अन्योऽन्यप्रतिषेषो विप्रतिषेषः ॥ कः पृनर्विप्रतिषेषः | 


दरो प्रसङगवन्यायाेकस्मिन्स विप्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
दौ प्रसङ्गौ यदान्यार्थी भवत एकरस्मिथ युगपत्पराप्नुतः स विप्रतिषेधः | क पन- 
15 रन्याथौ क चैकस्मिन्युगप्या्ुतः । वृक्षाभ्याम्‌ वृक्षेष्वित्यन्या्ौ वृक्षेभ्य इत्यत्र 
युगपदरामुतः ॥| किं च स्यात्‌ | ` 


एकस्मिन्युगपदसंभवात्युवेपरमापेरुभयभसडः ॥ २ ॥ 
एकस्मिन्युगपदसंभवात्पुवेस्याश्च परस्या प्राप्रेरुभयप्रसङ्गः || इदं विप्रतिषिडं 
यदुच्यत एकस्मिन्युगपद संभवात्पुवेपर प्रापरभयप्रसङ्ग इति } कथं ` हेकर्सिमिख नाम 
20 युगपदसंभवृः स्यात्पूवेस्या्च परस्याथ प्रापेरुभयप्रसङ्गथ स्यात्‌ | तेतद्िभरतिषिद्धम्‌ । 
यदुच्यत एकस्मिन्युगपद संभवादिति कायेयो यगपदसंभवः शाखयोरुभयप्रसङ्कः ॥ 


तृजादिभिस्तुल्यम्‌ ॥ ३ ॥ 


तृजादिमिस्तुल्यं प्रयोयः परामेति । तद्यथा । तुजादयः† पर्यायेण भवन्ति ॥ 
किं पुनः कारणं तृजादयः पययेण भवन्ति | ` 





# ७.२.१०; ९०३. † २.६. ६२३. 





फ? १.४.२३. । व्याकरणयरहाभष्पिम्‌ 11 भिः 


-अनवयवप्रखङ्गासतिपदं विधेश्च || ४ ॥. 
अनवयत्रेन प्रसज्यन्ते प्रतिपदं च विधीयन्ते | 


अप्रतिपत्तिवाभयोस्तुल्यबलत्वात्‌ ॥ ९ ॥ 


भप्रतिपत्तियो पनरुभयोः शालयोः स्वात्‌ | किं कारणम्‌ } वल्यबलस्त्रात्‌ | 
तुल्यबले ह्युभे शाले । तद्यथा । द योस्तुल्यवलयोरेकः परेभ्यो भवति | स वयोः. 
पर्यायेण कायै करोति | यदा तमुभी युगपस्मेषयतो नानादिक्ष च कर्वे भवतस्तदा 
यश्थसावविरोभार्थी भवति तत उभयोने करोति । किं पुनः कारणमुभयोर्न करोति| 
यै गपद्यासं मवात्‌ | नास्ति यौगप्येन संभवः ॥ 


तत्र प्रतिपस्यथं क्वनम्‌ || ६ ॥ 
तत्र प्रतिपस्यथमिदं वक्तव्यम्‌ || . | 19 
तव्यदादीनां स्वप्रसिडधिः ॥ ७ ॥ 


ततव्र्यदादीनां' तु कायेस्याप्रसिद्धिः | न हि किंचित्तव्यदारिषु नियमक्रारि.शा- 
श मारभ्यते येन तव्यदादयः स्युः | यञ्च मवतां हेतुव्येपदिष्टो ऽपतिपरत्ति्वीभयोस्तु- 
ल्य बलत्वादिति त॒ल्यः सः सन्यदादिषु || वेष दोषः | अनवकाहास्तत्यदादय ड 1 
च्यन्ते च ते .वचनाद्विष्यन्ति | यञ्च भवता हेतुष्येपदिष्स्तृजादिभिस्वुस्यं पयोयः 15 
प्रामोतीति तल्यः स तव्यदादिषु || | | 

एतावदिह सत्रं विप्रतिषेषे परमिति | पटिष्यति द्याचा्यैः | घङहती विप्रतिरेषे 
यङाधितं तद्वापितमेवेति। | पनथ पटिष्यति | पुनःप्रसङ्कविज्ञानास्सिद्धमितिः } किं 
फनरियता सतरेणोभयं लभ्यम्‌ | ठभ्यभित्याह | कथम्‌ | इह भवता ही हेत व्यपदिष्ै। 
तुजादिमिस्तुल्य षयोयः प्रामोतीति च | भप्रतिपत्तिवभियोस्तुल्यवललवादिति वादितिं च .| % 
तच्यदा तावदेष हेतुस्तजादिभिस्तुल्यं प्रवयौयः प्रामोतीति तदा ` विप्रतिषेषेः परमिस्थ- 
नेन किं क्रियंते | नियमः | विग्रतिषेषे- परमेव भवतीति } तदैतदपपन्तं भवति 
सकर द्भतौ विप्रतिषेपेः यद्वाधितं वह्ाधिकमेवेतिः | यदा स्वेषः हेतुरपरतिपत्तिर्वोभयोस्त्‌- 
ल्यबटस्वादिति तदा विप्रतिषेधे परमित्यनेन किं क्रियते । हारम्‌ । यिप्रतिषेषे परं 
लाय द्भवति तस्मिन्कृते . यदि -पूवैमपि प्राभोति तदपि भवति । तरैतदुपपन्नं भबति 25 
पन्‌ःप्रसद्भविज्चानास्विद्धमिति ॥ । 





= इ.९.९९. 1 २.२.०२१ २१०१ ५,१.६० ११२९१. ०१.८२० ०.२.९१ ०.२.९१२ २०५. 
39 # 


३०६८ ॥ म्थाकरभणमहाभाष्यम्‌ ॥ [मे० ६.४.९7 


विप्रतिषेषे परमिस्यु क्क ङ्गाभिकरि पृश्रमिति वक्तव्यम्‌ | किं कृतं भषति । पू- 
वविप्रतिषेषा नः पाठितव्या भवन्ति | गुणवृद्धौस्वतृज्वद्भाेभ्यो नुसम्पूवैविग्रतिषिदम्‌ । 
नुमचिरतुज्य विभ्यो नुडिति* । कथं ये परविभ्रतिषेभाः । इच्वोतवाभ्यां गुणवृद्धी. 
भवतो विपरतिपेधेनेति। | सत्रं ष भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु | कथं ये पुैविप्र- 
5 विषेधाः । विपतिषेधे परमित्येव सिद्धम्‌ । कथम्‌ । परशाम्दोऽवं बहर्थः | अस्त्येव 
- व्यवस्थायां वरते । तथथा | पूर्वः पर इति | अस्त्यन्यार्थे वर्ते । परपुश्रः पर 
भायो | अन्वपुग्र ; अन्यभार्योति गम्यते | अस्ति प्राधान्ये वतते | तद्यथा । पर- 
मियं. ्राद्म्यस्मिन्कुटुम्बे । भरधानमिति गम्यते । भस्तीष्टवाची परशब्दः । तद्यथा | 
परं धाम गत इति । हृष्टं धामेति गम्यते | तय इष्टवाची परशब्दस्तस्येदं हणम्‌ | 
10 विभ्रतिषेपे प्ररं यदिष्टं त्डवति | 


अन्तरङ्ग च| ८॥ 
भन्तरङ्गं च बतीयो भवतीति. वक्तव्यम्‌ || किं प्रयोजनम्‌ । । 

--. योजनं यणेकादेरोच्वोस्वानि गुणवृदधिदधिवेचनाछ्लोपस्वरेभयः ॥ ९ ॥ 

` गुणाश्गारेशाः | स्योनः स्योना | गुणश प्रमति यणदेद्चथः | परत्त्राहुणः स्यात्‌ 
15 बणादे रो भवस्यन्तर ङ्गतः | वदे वंणादेशः | थोकामिः स्थोकामिः | बृदिश प्रामोति 
` शणारेशथं$ | परत्वादृदधिः स्यात्‌ । यणादेकयो भवस्यन्तर ङ्गतः | दिवेचनाद्ण्छ- 
देशः । दुद्युषति सुस्यूषति । हिवै चमं च प्ामोति , यणादेशथ¶ । निस्यत्वाद्वचनं 
स्यात्‌ } यणादेशो भवस्यन्तर ङ्गतः || भक्लोपस्य च यणादेशस्य च नास्ति संप्रधारणा ॥ 
स्वरा्यणादेशषः | शौकामिः स्यीकाभिः | स्वर भामति यणादे दाथ" “| परत्वात्स्वरः 

२० स्यात्‌ | यणादेशो मवत्यन्तरङ्तः | गृणादेकादेशाः । काद्रवेयो मन्त्रमपरयत्‌ । 
गुणथ प्रामोस्येकादेराथ!† | परत्वाङ्ुणः स्यात्‌ | एकादेशो भवस्यन्तरङ्तः || व॒दे- 
रेकादेशः | वै्षमाणिः .सीस्थितिः । वृदिथ भामोययेकादेशाथः‡ | परत्वाहृदधिः 
स्यात्‌ । एकादेशो भवस्यन्तर ङ्कतः || हिवेचनादेकादेशाः। क्षाया भोादनो शौदनः । 
शौदनमिच्छति ्ौदनीयति.। शौदनीयतेः सन्‌ जुश्चौदनीयिषति । हि्षचनं च प्रामो- 
४६स्येकादेशथऽ । निस्यत्वा्र्वचनं स्यात्‌ | एकादेशो भवत्यन्तरङ्तः | अ्ोपा- 
देकादेशाः । श्यना शुने । अलोप परामोत्येकादे थ? । परत्वादघलोपः स्यात्‌ । 








9 ७.१.९९४. 1 ७.९.१०१. द १२, ८९१९.६.०७. § ०२,९६०६.२.००. वू ६.१.९६० 
=+ ५.९.६५७; ७७, 1 4.४,९०६;६.१.१०९. {प ०२. ९६०; ६.१.१६०९. 55§ ९.६.५८८ 
- धषु ६.०.९द२.९.६.९०८ ` | 





पा०९.४.२.] ॥ व्याक्ररनप्रहामाष्यम्‌.॥ १०७ 


एकादेशो भत्रव्यन्तरङ्गतः | तैतदस्ति प्रयो जनस्‌ | नास्त्यत्र विशेषो . ऽल्लोषेन 
वा नित्रसौ सत्याः पूर्वस्वेन वा ।.भयमस्ति विशेषः । भ्ोपेन `निवृत्ती सदयामु- 
दा्चनिवृ्तिस्वरः प्रसज्येत" । नात्रो दा्तनिवृत्तिस्वरः प्रामोति । किं , कारणम्‌ । 

न गो न्साववणं [६.१.१८०] इति प्रतिषेधात्‌ | नैष उदात्तनिवृत्तिस्वरस्य. भ्र- 
तिषेधः । कस्य तर्हि | तृतीयादिस्वरस्य । यत्र॒ तहिं तृतीयादिस्वरो. नात्ति. | :5 
शुनः पर्येति एवं तरिं न लाक्षणिकस्य प्रतिषेधं शिष्मः । किं वर्हि | येन केनधि- 
छक्षणेन प्राप्रस्य विभक्तिस्वरस्य प्रतिषेधः | यत्र तर्हि विभक्ति नास्ति | बहृद्यनीतिः । 
यदि प्नरयमुदासनिवृत्तिस्वरस्यापि प्रतिषेधो विज्ञायेत | तेवं . शक्यम्‌ । इहा 
प्रसज्येत | कुमारीति । एवं तष्य चार्यप्रवृततिज्ञौपयति नो दाच्निवृत्तिस्वरः शुन्यव> 
तरतीति यदयं चन्शष्दं गौरादिषु पठतिऽ। भन्तोदाताथें यलं करोति । सिद्धं हि 10 
स्यान्डीवैष || स्वरादेकादेशः । सौस्थितिः वक्षमाणिः । स्वरथ प्राभोत्मेकादेदाथ¶ं | ` 
परत्वास्स्वरः स्यात्‌ | एक्देद्ो भवस्यन्तरङ्गतः || गुणस्य चेच्वोर्यो् नारित 
संप्रधारणा ॥ वृदेरिच्छोन्खे । स्तिः वीर्तिः | वृडिष प्रामोतीत्तवोवे च** | पर 
स्वाहृदिः स्यात्‌ । हस्वोरवे भषतो ऽन्तर ङ्गतः | दिर्वचनादिस्वोस्वे | धातिस्तीयते 
आरोप्यते | दिर्व॑चनं च भरामोतीत्त्वोर्वे च1† | नित्यंस्वाद्विवैचनं स्यात्‌ । हस्तत त्तवे 15 
भवतो ऽन्तरङ्गतः || अष्लोपस्य चेश््ोख्वयोथ नास्ति संप्रधारणा ॥ स्वरे ` नस्ति 
बिदोषः || - 

दण्डि शीनामादुणः सवगदीर्षस्वात्‌ ॥ १० || 

हण्किङहीनामाद्भुगः सवणैदीषैत्वाखयो जनम्‌ | भयज इन्द्रम्‌ भत्रप हन्द्रम्‌| 
खष्ष इन्द्रम्‌ क्ष इन्त्रम्‌ | य इन्द्रम्‌ त हन्द्रम्‌ | आद्ुशशथ प्रामोति सत्र दीर्ध 20 
च ‡‡ | परस्वात्सबगर्दी्षतवं श्यात्‌ । आद्रुणो भवत्यन्तरङ्गतंः | | 

| न वा पवर्णदीर्धष्वस्यानवकागास्वात्‌ ॥ ९१ ॥ 

न त्रैवदन्तर ङ्केणापि सिध्यति । किं कारणम्‌ | सवणेदीषत्वस्यानक्काशत्वाव | 
नवका सवणेदीषत्वमाद्वुणं वाधेत ॥ तरैतंदन्तर डः ऽस्त्यनव्रकरार परमिति | इ- 
हापि स्योनः स्परोनेति श्ाक्यै वक्तु न वा परस््राहणस्येति || 

ऊढपोरेकादेदा ईस्वलोपान्याम्‌ ॥ ९२॥ ॐ 

ऊ डापोरेकादेश हत्वलोपाभ्यां भवरत्यन्तर ्गंतः प्रयोजनम्‌ | हैव्यादेकादेशः 


+ ६.१.१६१. † ६.१.१६८... { ५.२.६९९. 6 ४.९. ४१. 4. ६.९. ९९.७; ३०१. ` 
#१.७,२., ९६९; ०.५. ६०० ०२. 11 ६.९. ९; 9१; १००; १०२. द] २.१.८३०. 


. + ॥ व्याकारभप्हामोष्कय ।४: ` [म ०१.४१; 


खटरीयति मालीयति । हैष्वं च प्रामरोत्येकदिकाध । परल्छ्कीस्वं स्वात्‌ | क्कादेशो 

भवतप्न्तरङ्तः || लोपरादेकादेराः | कामण्डकेय; भाद्रवाहियः | लोपश्च प्राभत्ये- 

कषादेराथ† | परत्वालोपः स्यात्‌ | एकादेशो भबत्यन्तरङ्गतः | भथ किम्थेमी- 

स्क्लोपाभ्यामिव्युच्यते न लोपेत्वाभ्यामिव्येवोच्येव । संख्यातानुदेशो मा भूदिति । 
४ भाषो ऽप्येकादेश्चो लोपि भ्रयोजयति । चौडिः बालाकिः; | 


आच्वनपुंसकोपसजनहस्वत्वान्ययवायविकादेरातुग्विधिभ्यः ॥ ९३ ॥ 
भन्खखनपुंसकोपस्जनहस्वस्वान्ययवायावेक दे शातुग्विधिभ्यो भवन्त्यन्तरङ्गतः ॥ 
वेन्‌ वानीयम्‌। शो शानीयम्‌ | ग्छै ग्लानीयम्‌ । म्न स्लानीयम्‌ | ग्लाच्छक्लम्‌ म्लाच्छ- 
त्म्‌। आत्वे च प्रामोव्येते च विधयः4 | परत्वदिते विधयः स्युः । जच्॑भववत्यन्त- 
10 रङ्न्तः || नप॑सकोपसजनहस्वत्वं च प्रयोजनम्‌ । अतिर्यत्र अतिन्वत्र | अतिरिच्छन्तम्‌ 
भतिनुच्छन्तम्‌ | आराशखीदम्‌ धानाश्यष्कुटीदम्‌ । निष्को शाम्बीदम्‌ निवोराणसी 
दम्‌ | निष्कौशास्निच्छक्चम्‌ निवाराणसिच्छत्नम्‌ | नपुंसकोपसर्जनहस्वस्वं च प्राभोस्येते 
च विधयः**| परत्वादेते विधयः स्युः | नपंसकोपसजजनहस्वतवं भवत्यन्तरङ्गतः ॥ 
 बुग्यणेकादेशगुण वृ व्यै खदीधेत्वमुमेच्वरीविधिभ्यः ॥ ९४ | 
1 ` यगेकादेश गुणवृद्धी! दी षेत्वेत्वमुमे्वरीविपिभ्यस्तुगभवत्यन्तरङ्गतः || यणा- 
देशात्‌ । भभिविदत्र सोमछदत्र | एकादेशात्‌ । अभिचिदिदम्‌ तोमछदुदकम्‌ ॥ 
गुणात्‌ } अम्निचिते सोमद्ठते ॥ वृद्धेः | भ्र ऋच्छकः प्राच्छकः || भौच्वात्‌ | भभिचिति 
सोमद्धति || दोर्षत्वात्‌ । जगद्याम्‌ अनगद्याम्‌ || हेत्वात्‌ | जगस्यति जनगत्यति || 
मुमः | अभिचिन्मन्यः सोमद्न्मन्यः || एत्वात्‌ | जगद्यः जनगद्ः || रीविधेः | 
9० घुक्रत्यति पापकृत्यति ॥ | 
भनडनङ्भ्यां चेति वक्तञ्यम्‌ । उकृत्‌ | षछङ्ृदृष्कतौ ॥ + 
तुक्‌ प्रामोत्येते च विधयः11 | परत्वदिते विधयः स्युः । तुगभवत्यन्तरङ्तः || 
| हयडादेरो गुणात्‌ ॥ ९९ ॥ | 
हय डादरेशो गुणाद्धवत्यन्तरङ्तः प्रयोजनम्‌ | पियति रिविति | श्वडदे श 


% प्रजोति गृणञ्चः‡ | परत्व्रह्वुगः स्यान्‌ | इय डदेशो मवत्यन्तरङ्तः ॥ 
. "+ ०,४, ३; ६.९.९०१. क. ६.४. ४७; ६.९. ९०९. { ९.३.१९०, 6 ६.४.१५८, 


थ ६.९. ४५; ६.९. ८; ७६ ## १.२. ४७; ४८; ६.९.७८; अ; ९०१. 
11 ६.९. ७१; ०२; 8.१. ०७; ५०९; ७.२. ९९१; ६.९. ५१; ७.३, ९९९; ९०२; ७,४. देर; ६.९.६७. 
1 ७.२.१०३; ७.४ 9 २७; ७,९. ९४; ६.३.२५. 7 {4 ४.४. 9 ७.० ८६, # 


क्रि ९.४.२.] ॥ व्वाकरणमरलभान्यय-॥ ॐ 


~ उवडादे दशेति वक्तव्यम्‌ । दहरुव॑त्‌ भाङ्धलुवत्‌ || 
| श्वेः संप्सारणपूैत्वं यणादेदात्‌ ॥ ९६॥ 
श्वेः संप्रसारणपवैस्वं यणादेशादवस्यन्तरङ्गतः प्रयोजनम्‌ | दयुश्ुवतुः शुगुवुः | 
परवेततरं च प्राप्रोति यणादेश |. पर स्वाद्यणादे शः स्यात्‌ । पूवस भवत्यन्तरङ्गतः || 
ह आकारलोपात्‌ ॥ ९४७ ॥ | 
ह. आकारलोपास्पूवेस्वं, भवत्यन्तरङ्गतः प्रयोजनम्‌ । ज्‌हुवतुः जुहुवुः | पर्व 
स्वै च प्रापरोत्याकारलोपथ | परत्वादाकारलोपः स्यात्‌ | पृयैस्वं भवत्यन्तरङ्गतः || 
स्वरो - लोपात्‌ | ९८ ॥ 
स्वरो लोपाद्वत्यन्तर द्कतः प्रयोजनम्‌ । भीपगवी सौदामनी ] स्वरथ प्रामोति 
लोपः | परत्वाह्ठोपः स्यात्‌ | स्वरो भवत्यन्तरङ्गतः || ` : 10 
| परत्ययविधिरेकादेदात्‌ ॥ ९९ ॥ 
` प्रस्ययनिधिरेकादे शाद्वत्यन्तर ङगवः प्रयोजनम्‌ | भभिरिन््रः ] वायुरूदकम्‌ | 
परस्ययविधिथ प्राभोस्येकदेदाथ | परस्वादेकादेशाः स्यात्‌ | प्रत्ययविधिभेवबत्यन्तर- 
इःतः ॥ | 
यणादेशायेति वक्तष्यम्‌¶ । अभिरत्र । वायुरत्र ॥ 15 
खदिरो वणेविधेः | २० ॥ 


लादेशो बणेविपेभेवत्यन्तर ङ्गतः प्रयोजनम्‌ | पचत्वत्न | पठत्वत्र ¡ लदि काच 
धाप्रोति यणादेश । परस्वाद्यणादेशः स्यात्‌ | लादेशो भवत्यन्तरङ्गतः || 


तद्युरुषान्तोदान्तष्वं पृर्वपदभरकृतिस्वरात्‌ ॥ २९ ॥ 
तस्पुरषान्तोदा त्तत्वं पुत्रपदग्रकृतिस्वराद्वस्यन्तर ङ्गतः प्रयोजनम्‌ । पूर्वश्चाला- 20 
प्रियः अपरद्ालाप्ियः । तत्परषान्तो दात्तत्वं च प्राभोति पर्वपदप्रकृतिस्वरस्वं च++ | 
पर स्न त्पुवेपदप्रकृतिस्वरत्वं स्यात्‌ । ततपुरषान्तोदात्तस्वं भवव्यन्तरङ्गतः || 
एतान्यस्याः परिभाषायाः प्रयोजमामि यदयैमेषा परिभाषा कर्वध्या || धरि 
सन्ति प्रयोजनानीस्येषा परिभाषा क्रियते ननु चेयमपि कतैब्यासिद्धं अहिरङ्गल- ` 


 ।  । ९.१; १०८} ६.४. ८२. + ६.९, ९०८; ६.४. ६४. ‡ २.९. १; ४; ६.४.१४८. 
6 ४.९. २; ९.९.९०९. ¶ ९.१. ७७. +न ३.४. ६ ६.६. ०७, ¶ ९.१.२२३; ९२.१९. 








६९० ॥ न्याकरमरामाच्वय्द्‌ ॥ ६ म० ९.४.१६ 


लषणमन्तर र्षण इति । किं प्रयोजनम्‌ । परचावेदंम्‌ † ककामेदम्‌ । भसिदधत्वा- 
दहिर ङग लक्षणस्य गुणस्यान्तर ्गलक्षणननैस्वं * मा भूदिति । उमे तर्हिं कतेष्ये | नेत्याह | 
अनयैव सिद्धम्‌ | इहापि स्योन स्वोनेत्यासिदत्वाद्रहिरङ्गलक्षणस्य गृणस्यान्तर ङ- 
लल्षणो यणादेशो भविष्यति || यथसिदधं बहिरङ्गलक्षणमन्तरङ्गलक्षण इत्युच्यते 

5 ऽ्तथः हिरण्यद्यः असिदव्वाद्हिर ङ्गलक्षणस्योढो ऽन्तर ङ्गलक्षणो यणादेशो न प्रा- 
भरोति। | त्ष दोषः | असिद्धं बहिर ङ्गरक्षिगमन्तर ङलक्षण इत्यु च्छा ततो वदेयाभमि 
नाजानन्तर्ये बहिषटुभकुभिरिति । सा तर्षा परिभाषा -करैव्या । न कतेव्या | भा- ,. 
सार्यपरवृत्तिज्ञीपयति .मवत्येषा परिभाषेति यदव षस्वतुक्तोरलिडधः [६.९.८६] £“ 
स्थाह || इयं तर्हि परिभाषा कतैव्यासिदधं बहिर ङुलक्षिणमन्तरङ्लक्षण इति । एषा 
10 च न कतैव्या । आवचार्यप्रवृततिर्शापयति भवस्येषा परिभाषेति यदयं वाह रव 
, . [६.४.९३ २| इत्यु रास्ति ॥ | 


तस्य दोषः पवैपदोतच्तरपदयोवृंडिस्वरावेकदिशात ।। २२ ॥ 


तस्यैतस्य तक्षणस्य दोषः ` पर्वो्तश्पदयो व दिस्वरावेकादेशादन्तर ङुतोऽमिनि- 
तान्त प्रापुः । पु्वषुकामशामः अपरेषुकामदामः‡ । गुडोदकम्‌ तिलोदकम्‌ । उ- 
35 दकेऽकेवठे [६.२.९६] इति पूर्वो रपद योष्येपवगोमावाच्च स्यात्‌ || नेष दोषः ) 
' ¦ आआावारयपवृत्तिक्ञीपयति पुर्ोल्रपद योस्तावेत्काये भवति नैकादेहा इति यदयं नन्तर- 
स्य परस्य [७.३.२२] इति प्रतिषेधं शास्ति | कथं कृत्वा ्ञापकम्‌ । इन्द्रे डाव- 
चौ | तत्रैको यस्येति च [६.४.१४८ | इति लोपेन हियते ऽपर एकादेदोन | ततो 
ऽनस्कर इन्द्रः संपक्चः | तत्र कः प्रस ङो वृद्धः | परयति स्वाचार्यैः पूवेषदोत्तरपदयो- 
2 स्तावस्कायथे भवति भैकारेश हति ततो नेन्द्रस्य परस्येति प्रतिषेधं दासि | 


यणादेरादियुवो । २६ ॥ 


 अणादे शादिथुवावन्तरङ़तोऽभिनिरवु लाच प्रामुतः | वैयाकरणः सौवश्व इति । 
रक्षणं हि मवति य्वोमैदधिप्रसङ्‌ हयुवौ भवत इति || नैष दोषः | अनवकाशा- 
` विञुवौ । अचीस्युस्यते | किं पुनः कारणमचीव्युष्यते । इह मा भूताम्‌ । रेति- 
४ क्रायनः ओपगव इति । स्तमत्रयुवी लोपो भ्वोवेलि [६.९.९६] इति लोपो भ- 
विष्यति | यत्र तर्हि ऊोपो नासि | व्ैयमेधः प्रियंगव इति ॥ | 


ˆ . क ३.४. ९. ` त „४, १९; ६.९,७७, “ ˆ `{ १.३. ९४ ६.२,२३.०५. 





पो०.१.४.२. | ॥ . व्याकरणग्रह्ानास्यव ॥ ' ३६१ 
उसि .षरदूपाच || २४.॥ 


उसि पररूपाशचान्तरङ्गतो ऽभिनिवत्तादियादेशो न प्रामोति. | पचेयुः यजेयुः ॥। 
प्रेष दोषः | नैवं विज्ञायते या इ्येतस्येय्मवतीति । कथं तर्हि | यास्‌ इत्येतस्येव्‌ 
भवतीति || 


लग्छोपयणयवायविकदिदेभ्वः | २९ ॥ _ ` £ 

लोपयणयवायाबेक देशेभ्यो लुम्बलीयानिति वक्तव्यम्‌ | सोकात्‌ | मान्ियो 
घ्य `गोमसियः । वमलसियः | गो मानिवाचरति गो म्यते । यवमत्यते- || यणा- 
देशात्‌ | चामेण्यः कुलं ब्रामणिकुलम्‌ | सेनान्यः कुर सेनानिकुलम्‌ || अयवा- 
याौवेकारेशभ्यःः | गवे हितं मोहितम्‌. ] रावः कुलं रैकुरम्‌ | नात्रः. कुठे नीकु- 
लम्‌ | वृकाद्यं वृकमवम्‌ ॥ लुक प्रामोस्येते च विधयः। |-पर्ल्वारेते चिधयः स्युः | 10 
लग्बली यानिति वक्तव्यं लुग्यथा स्यात्‌ | ` : 

इति श्रीभगवत्पतस्लिषिरंचिते ध्याकरणमंहामाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थ 
पारे ` प्रथममदधिकम्‌ ॥ | 


* ६.९, ९६; ७.३. ८० † २.४. ७१५ ६.९. ९८ ०७; ०८; ६०९. 





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३१४ ।॥ ष्थाक्गगयहाभाष्यम्‌ ॥  [भ०९.४.२ 


यू ख्याख्यौ नदी ॥ १। ४ ।२. ॥ 


यू इति किम्थेम्‌ । खटा माला | किं च स्यात्‌ | खट्ाबन्धुः मालावन्धुः | 
नदी बन्धुनि [ ६. ९. १०९ ] इत्येष स्वरः प्रसज्येत । इह च वहुखटुक इति नथु- 
तथच [९.४.९९ दे [हति नित्यः कप्मसज्येत || नैष दोषः | शाचायेप्रवृ्तिर्ापयति 
5 नापो नदीसंज्ञा भवतीति यदयं उराघ्नश्याप्नीभ्यः | ७.३.९९६ | इति परथगान्बरहणं 
करोति || इह तरिं मात्रे मातुरित्याण्नद्ाः [ ९९२ | इत्याट्‌ प्रसज्येव || 
किं पुनरिदं दीधयोभ्हणमादहोस्विद्धस्वयोः । किं चातः | यदि दीषेयोयेहणै यु 
हति निदंशो नोपपद्यते | दीदि पूर्वैसवणेः प्रतिषिध्यते" ॥ उत्तरत्र च विशोषणं 
न प्रकल्पेत यू हस्वाबिति | यदिव न हस्वी | अथ हस्वौनयु.| यु हृस्वौ चेति 
90 विप्रतिषिद्धम्‌ || भथ हस्वयेर्है . शाकटे अत्रापि प्रसज्येतः | नेष दोषः | अवदव- 
मन्र विभाषा नदीसं्ैषितव्या | उभयं दीप्यते | हे शकटि हे शकट इति ॥ इह 
तर्हिं शाकटिबन्धुरिति नदी बन्धुनीस्येष स्वरः प्रसज्येत | हह च बहृश्ाकटिरिति 
नश्यतति नित्यः कप्रसज्येत || नैष दषः | डति हस्वश्च [ १.४.९६ | इत्यव॑ | 
नियमार्थो भविष्यति | छिस्येव यु हृस्वौ नदीसंज्ञौ भवतो नान्यत्रेति || कैमर्थ- 
15 क्याच्नियमो भवति | विधेयं नास्तीति कत्वा । इह चास्ति विधेयम्‌ | किम्‌ | नि- 
व्या नदीसंज्ञा प्रप्रा सा विभाषा विधेया | तन्नापूर्वाो विधिरस्तु नियमो अस्त्वत्व 
पुवं एव विधिर्भविष्यति न नियमः || अथायं नित्यो योगः स्यासकल्पेत निय- 
मः | वाढं प्रकल्पेत | निव्यस्तर्ि भविष्यति | तत्कथम्‌ । योगविभागः करिष्य- 
ते$ | इदमतसि । यू ख्याख्यौ नदी | नेयङुबङ्स्थानावस्जी [४| } वामि [९] 
20 ततो डति | छिगति चेयड्वङ्स्थानी यू वाली नदीसंज्ञौ न भवतः | ततो हस्व । द्स्वौ 
चयु ख्याख्यौ डिति नदीसंज्ञौ भवतः । इयङुवङ्स्थानौ वा नेति च निवृत्तम्‌ ॥ 
यद्येवं श॒कटये अत्र गुणो न प्रामोति | द्वितीयो योगविमागः करिष्यते दोषमहणं 
न करिष्यते * । कथम्‌ । इदमस्ति | यू ङ्याख्यौ नदी | नेयङुवङ्खस्थानाषसी । 
वामि | ततो डिति | डिति चेयङ्कवङ्स्थानौ यू वाखी नदीसंज्ञौ न भवतः | ततो 
%दस्वौ । हष्वौ च यू ख्याख्यौ डिति नदीसंज्ञौ भवतः | हयङ्वङ्स्थानौ वा नेवि. 
च निवृतम्‌ | ततो षि | धिसंज्ञौ च भवतः ख्याख्यौ यु हस्वौ डति | ततो 
ऽखखि | सखिव्जिती च यू स्वी विसं भवतः । क्याख्वौ डितीवि च निवृत्तम्‌ ॥ 











फा ९.४३. | ॥ उधाकर्णंहोयष्यिंय ॥ १९३. 


यदि तहि शेषग्रहणं न क्घेग्रते. नार्थं एकेनापि योगविभागेन | अविशेषेण नदीसं- 
ज्ोरसगैः । तस्या हस्वयोर्धिसंज्ा वाधिका | तस्यां नित्यायां प्राप्रायामियं डिति वि- 
माषारभ्यते || अथवा पुनरस्तु दीधयोः । ननु चोक्तं॒निर्दशो नोपपद्यत इति दी- 
वदि पूर्वसवर्णः प्रतिषिध्यत इति | वा छन्दसि [३.९.९०६] इत्येवं भविष्यति | 
न्दसीय्युच्यते न चेदं छन्दः | छन्दो वत्सतरा गि भवन्तीति ॥ यदप्युच्यत उत्तरत्र ४ 
विशेषणं न प्रकल्पेत यु ह्रस्वाविति यहि यून दृस्तौ अथहस्वौनयु वु हस्वा- 
विति विप्रतिषिद्धमिति । वैतद्िमतिषिद्धम्‌ | आहायं यु, हृस्वाविति । यादिष नं 
स्वौ | अयह्स्वौनयु | त एवं विज्ञास्यामः य्वोर्यौ हृष्वाविति । कौ च य्वो- 
हैस्वो | सवर्णौ || 
भथ छयाख्य(विति कोऽयं शब्दः 1 लियमाचक्षति ख्याख्यौ | यद्येवं ख्या- 10 
खय्रायातरिति प्रभोति । अनुपसर्गे हि को विधीयते | न सर्हीदानीभिद्‌ भवत्ति 
यस्मिन्दर सहस्राणि पुत्रे जति गवां ददी] ` 
ब्राह्मणेभ्यः प्रियाख्येभ्यः सोऽयमुञ्छेन जीवति ॥ 
न्दोवत्कवयः कुवन्ति | न हयेषेिः ॥ एवं तर्हि कमैसाघनो मूक्िष्यतिः | 
लियामाख्यायेते छ्याख्यौ | यदि कर्मसाधनः कृस्लिया धातुखियाश्च न स्सिभ्यति | 1४ 
तन्ल्यै लदेम्ये भ्रव भत्रे ॥ एवं तर्हि बहुत्रीहिभेविष्यति । जियामाख्यानयोः ख्या- 
ख्यौ । एवमपि कूल्लिया, धातुलियाथच न सिध्यति | तन्व्ये -लकम्ये त्रिध भुत || 
एवं तर्हिं त्रिज्मविप्यतिर || अथत्रा पुनरस्तु क एव | जियमाचक्षाते र्याख्यावि- 
ति | ननु चोक्तं ठ्यख्यायाविति प्रामोति भनुपसर्गे हि को विधीयत इति । मूल- 
विमुजादिपाठस्को भविष्यति¶ । एवं च कृत्वा सोऽप्यदोषो भवति यदुक्तं . "0 
` यस्मिन्दरा सदनानि पुत्रे जति गवां ददौ | 
बाहमणेभ्यः भ्रियाख्येभ्यः सोऽ्यमुञ्छेन जीवतीति ॥| 


` अथाख्याभ्रहणं किमथंम्‌ | 


नद्रीसंज्ञायामाल्याग्रहणं खीविषयाथम्‌ | ९ ॥ 
` . नदीसंज्ञायामाख्या महणं क्रियते खीविषयाथेम्‌ | लीनिषयावेव य नित्यं तयोरेव 2 
नदीसंज्ञा यथा स्यात्‌ । इड -मा भूत्‌ }` ब्रामप्ये सेनान्ये खिया इति ॥ ` 


> ३.२.१५. 1 २.२. ३. { २.२.५८१, - § ३.३ ४५, १ दे.दे. ५५. 
40 । 


३९०८ ॥ व्याकस्णपहाभाष्यय ॥ 1 म० ९.४.९. 


प्रथमलिङ्ग्रहणं च ।॥ २ ॥ 


प्रथमलिङ्परहणं च कव्यम्‌ | प्रथमलिङ्के यौ कयाख्याविति वक्तव्यम्‌ || किं 
प्रयोजनम्‌ | 


प्रयोजनं किब्डुप्समासाः ।। ३ ॥ 
४ क्ष्‌ | कुर्वः ब्राह्मणाय | दुप्‌। खरकुट्चै† त्राह्मणाय | समास | अतित- 
नद्यै ब्राह्मणाय | अतिरुकम्यै ब्राह्मणाय || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | अवय- 
वख्रीविषयल्ास्सिद्धम्‌ । अवयवोऽत्र खीविषयस्तदा्रया नदीसंज्ञा भविष्यति| 


अवयवसख्रीविषयत्वास्सिद्धभिति चेदियङ्वडस्थानप्रतिषेधे यण्स्थान- 
प्रतिषेधप्रसङ़ी ऽवयवस्येड्वडस्थानत्वात्‌ ॥ ४ ॥ 
10 अवयवसल्ीविषयत्वास्सि द्धमिति चेरियङुवडस्थानप्रतिषेपेः यण्स्थानयोरपि य्वोः 
प्रतिषेषः प्रसज्येत | ध्ये प्रभ्ये$ ब्राह्मण्यै | किं कारणम्‌ | अवयवस्येयङुवड- 
स्थानस्वात्‌ | भवयवो अत्यङुवडस्थानः4 | 


सिद्धं स्वङ्रूपग्रहणाद्यस्यङ्स्येयुवो तत्पतिषेधात्‌ ॥ ५ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । अङकरूपं गृह्यते । यस्याङ्स्येयुबौ भवतस्तस्येदं महणं न 
15 चैतस्याङ्स्येयुबौ भवतः || 


हस्वेयुष्स्यानप्रवृत्तौ च खीवचने ॥ ६ ॥ 


स्वौ चेयु्स्थानी च प्रवृत्तौ च प्रकु . प्रवृत्तेः खीवचनावेव नदीसंज्ञौ भवत 

इति वक्तव्यम्‌ । शकटे" अतिशकट्यै ब्राह्मण्ये | क मा मृत्‌ । दाकटये* भति- 

दाकटये ब्राह्मणाय । पेन्वै अतिषेन्वे ब्राह्मण्ये | क मा भूत्‌ | घेनवे अतिषेनवे 

0 ब्राह्मणाय | भ्रियै अतिभय ब्राह्मण्ये | क मा भूत्‌ । श्रिये अतिभ्िये ब्राह्मणाय । 
भवै अतिभ ब्राह्मण्यै | क मा भूत्‌ | भुवे अतिभुवे ब्राह्मणाय ॥ 

अपर आह । हस्वौ चेयु्स्थानी च प्रवृत्तावपि सख्रीवचनावेव नदीसंज्ञो भवत 

इति वक्तव्यम्‌ । शाकटचै अतिदाकण्ये ब्राह्मण्यै | क मा भूत्‌ | शकटये अतिरा- 

कटये ब्राह्मणाय | धेन्वै भतिषेन्वे ब्राह्मण्यै | क मा भूत्‌ । धेनवे अतिधेनवे ्ा- 

2४ ह्यणाय | भ्रिधै अतिभरिवे ब्राह्मण्ये | क मा मुत्‌ | भिये अतिभ्रिये ब्राह्मणाव | 
भवै अतिभुवे ब्राह्मण्ये । क मा भूत्‌ । भुवे अतिभुवे ब्राह्मणाय || 


* ३.१. ८; ३.२. ५७८. † ५.३. ९८, { १.४. ४. § ६.४.८२. षु ६.४, ७७, #क ९.६. ९८. 











पा० ९.४.९.९२.] ` ॥ व्याकरणमहाभध्यम्‌ ॥ ` ३९५ 


किमर्थे पुनरिदमुच्यते । प्रधमलिङ्कप्रहणं चोदितम्‌ | तदैष्यं विजानीयात्सर्व 
मेतदिकल्पत इति । तदाचार्यः सुह हूतवान्वाचष्टे हस्वौ चेयुर्स्थानौ च प्रवृत्तौ च 
प्रकु प्रव॒त्तेः सख्रीवचनावेवेति || 


्ीयुक्त “छन्दसि बा ॥१।४।९॥ 


योगविभागः कतेव्यः | षष्टीयुक्त प्डन्दसि । षष्ीयुक्तः पतिशब्द्डन्दसि वि~ 5 
संज्ञो भवति | ततो वा | वा छन्दति सर्वै त्रैषयो भवन्ति | सुपां व्यत्ययः | 
तिडं व्यत्ययः | वणेव्यत्ययः | लिङ्गव्यत्ययः | कार्व्यत्ययः | पुरूषध्यत्ययः | 
भात्मनेपदव्यस्ययः । परस्मैपदव्यत्ययः ॥ ` सुपां व्यत्ययः | युक्ता मातासीद्धुरि 
दक्षिणायाः | दक्षिणायामिति प्राप्रे || तिडनं व्यत्ययः । चषाठं ये अश्वयूपाय 
तक्षति । तक्षन्तीति प्राप || वणेव्यत्ययः | च्रिष्टुभौजः शुभितमुम्रवीरम्‌ । सुहितमिति 10 
प्ररे ॥ रिङ्व्यत्ययः | मधोगृह्णाति । मधोस्तृप्रा इवासते | मधुन इति प्राप्रे ॥ 
कालव्यस्ययः । शऽप्रीनाधास्यमानेन । श्वः सोमेन यदेयमाणेन | शर. आधाता शो 
यष्टेति प्रापे" ॥ पुरूषव्यत्ययः । अधा स वीरैदेश्चभिर्षियूयाः । वियुयादिति प्रते || 
, आत्मनेपदव्यत्ययः । ब्रह्मचारिणाभिच्छते | इच्छतीति प्रापे | परस्मैपदव्यत्ययः | 
प्रतीपमन्य ऊर्भियभ्यति । अन्वीपमन्य ऊर्मियुभ्यति | युध्यत इति प्रपरे || 15 


यस्माखव्ययविपिस्तदादि प्रस्यये ऽङ्म्‌ ॥ १. । ४ । १२ ॥ 


यस्मादिति व्यपरेश्चाय ॥ भथ प्रत्ययभ्रदणं किमथेम्‌ । यस्मादिपिस्तदांदि पर 
स्ययेऽद्कमिती यस्युच्यमाने खी हयती† खीयतीत्यत्रापि प्रसज्येतः | प्रत्ययम्रह्णे पुनः 
क्रियमाणे न दोषो भवति || भथ विधिपहणं किमथेम्‌ | यत्मासत्ययस्तदारि प्र 
त्ययेऽङ्भितीयस्युच्यमाने दधि अधुना मधु अधुना अत्रापि प्रसज्येत¶ | विधि- 20 
हणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || तदेतत्मत्ययम्रहणेन विधिमरहणेन च समु- 
दितेन क्रियते संनियोगः।| यस्माच्यः प्रत्ययो विधीयते तदादि तस्मिन्न ङ्संज्ञं भवतीति। 
भथ तदादिव्रहणं किमथम्‌ | 


# ३२,३, १५. † ५.२. ४०;७.२.२; ६.३.९०; ६.४. १४८. { ६.४. ९४८. 
§ ५.१. ९७, थु ६.४. २४८; ७.१. ७३, 





२१९.६ ` ॥ च्याकरनहाभास्यय ॥  [ म०९.४.२. 


अङ्गखनज्ञायां तदादिवचनं स्यादिनुमथेम्‌ । ९ ॥ 


अङ संज्ञायां तदादिब्रहणं क्रियते ्याद्यथं नमथ च || स्यद्यये तावत्‌ | करि- 
प्यावः करिष्यामः" || नुमर्थम्‌ | कुण्डानि वनानि ॥ 


मित्डटोरूपसंख्यानम्‌ ।। २ ॥ 
$ भित्वतः छद्धुतथोपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | मित्वतः | भिनत्ति छिनत्ति | अभिनत्‌ 
भच्छिनत्‌ | खङतः । संचस्करतुः सं चस्करुः§ || किं पुनः कःरणं न सिध्यति | टो 
बहिर ङ्त्वात्‌ । बहिर ङः सुद्‌ । अन्तरङ्गो गुणः | भसिद्धं बहिर ङ्ग मन्तर ख । वश्य - 
तयेतत्‌ । संयोगादेगुणविधाने संयोगोपधग्रहणं कृअर्थम्‌रगृ । यदि संयोगोपधम्रहणं 
क्रियते नाथः संयोगारिग्रहणेन | इहापि सस्मरतुः सस्वरूरिति संयोगोपस्येत्येव 
10 सिद्धम्‌ । भवेदेवमर्थन नाथेः | हदं तु न सिध्यति सं चस्करतुः संचस्कषः || कि पुनः 
कारणं न भ्वति | इह तस्य वा ग्रहणं भवति तदादे न चेदं तन्नापि तदादि । 


| । सिद्ध तु तदाद्यादिवचनात्‌ ॥ २ ॥ 

 तलिदधमेतत्‌ | कथम्‌ | तदाद्ा्ङ्संजञं भवतीति वक्तव्यम्‌ । किमिदं तदाया- 

दीति । तस्यादिस्तदादिः | तदादिरादियैस्य तदिदं तदाव्यादीति || ख तर्हि तया 
15 निर्देशः कतेग्वः | न कतेव्यः | उत्तरपदलोपो ऽअ द्रष्टव्यः | तव्यथा | उष्टूमुखमिष 

मुखमस्वोष्टमुखः 1 खर सुखः । एवं तदाश्यादि तदादीति | 


तदेकदे राविन्ञानाद्रा सिद्धम्‌ ॥ ४॥ 

तरेकदेशविज्ञानादा सिद्धमेतत्‌ । तदेकदेराभूतं तद्वदणेन गृह्यते | तद्यथा । 

गड यमुना देवदत्तेति | अनेका नदी गड यमुनां च प्रविष्टा गङययमुनाभ्रहणेन 
20 गृह्यते । तथा देवदत्तास्थो गर्भो देवदत्ता्णेन गुद्यते || विषमं उपन्यासः | इह 
केविच्छब्दा अक्तपरिमाणानामथौनां वाचका भवन्ति य एते संख्याशब्दाः परि- 
माणराब्दा्च | पर्व सतेत्येकेनाप्यपाये नं भवन्ति | द्रोणः खार्याहकमिति नैवाधिके 
भवन्ति न च न्यूने । केचिच्यावदेय तद्वति तावदे वाहूयं एते जातिशब्दा गुण- 
दाब्दाश्च | तैलं घृतमिति खायोमपि भवन्ति द्रोणे अपि } भुक्को नीलः कृष्ण इति 
95 हिमवत्यपि भवति वटकभिकामात्रे ऽपि द्ये । अङ्कसंन्चा चाप्यक्तपरिमाणानां 
क्रियते सा केनाधिकस्य स्यात्‌ | एवं तद्यचायेप्रवृत्तिज्ञोपयति तदेकरेशभूतं तद्र 


* ०.२.९०९. † ६.५.८. ‡ २.९.०८; ९.४.७६५. § ६१.९३६; ०,४.९०. बु ७,४.९०५. 





पार १.४.१३. ] ॥ उ्वाकरणयहाभाध्यम्‌ ॥ ३१६. 


हणेन मृश्चत इति यदयं नेदमदसोरकोः [७.९.९९] इति सककारयोः प्रतिषेधं 
शास्ति | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ । इदमदसोः कायेमुच्यमानं कः प्रसङ्को यत्सक- 
कारयोः स्यात्‌ । पदयति त्वाचयेस्तदेकदेशभूतं तद्भहणेन गृह्यत इति ततः सक- 
कारयोः प्रतिषेधं शास्ति ॥ | _ | 

अथ द्वितीयं प्रत्ययग्रहणं कमथम्‌ । 


परस्ययग्रहणं पदादावभसङर्थम्‌ ॥ ५ ॥ 


रत्ययम्रहणं क्रियते पदादावङ्सज्ञा मा भूदिति | किं च स्वात्‌ | व्यर्थम्‌ 

श्यर्थम्‌ भ्व्थम्‌ | अङ्गस्येतीयदडुवड स्याताम्‌! || 
परिमाणार्थं च ॥ £ ॥ 

परिमाणा च द्वितीयं प्रत्ययग्रहणं क्रियते | यस्मात्पत्ययविधिस्तदा्ङ्गमिती- 10 
यस्युच्यमाने दाशतयस्याप्यङगसेज्ञा प्रसज्येत | 

तत्ता्दि कतैव्यम्‌ । न कतेव्यम्‌ । केनेदानीमङ्का्यै भविष्यति | प्रत्यय इति 
प्रकृत्याङ्कायेमध्येष्ये | यदि प्रत्यय इति प्रकृत्याङ्ककायेमधीषे पराकरोत्‌ उपदिष्ट 
उपसमौस्पवौवडादी प्रामुतः† | | 


सिद्धं तु रत्ययग्रहणे यस्मात्स तदादितदन्तविन्ञानात्‌ ॥ ७ ॥ . ` 15 
ज्तिद्धमेतत्‌ } कथम्‌ । प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स प्रत्ययो विहितस्तदादेस्तदन्तस्य च 
ग्रहणं भवतीव्येषा परिभाषा कतेव्या ||. कः पुनरत्र विदोष एषा परिभाषा क्रियेत 
प्रत्ययमहणं वा | अवरयमेषा परिभाषा कतेव्या । बहृन्येतस्याः परिभाषाया 
प्रयो जनानि । 
प्रयोजनं धातुप्रातिपदिकमरत्ययसमासतादितविधिस्वराः ॥ ८ ॥ % 
धातु | देवदत्तथिकीषंति । संघातस्य धातुसंज्ञा प्रामोतिः || प्रातिपदिक | देवदत्तो | 
गार्ग्यः | संघातस्य प्रातिपदिकसं्ता पामोति | भस्यय | महान्तं पुतामिच्छति | संघाता- 
सत्ययोत्पत्तिः प्राभोति्ण || समास । ऋद्धस्य राज्ञः पुरुषः | संघातस्य समाससंज्ञा 
प्रामोत्ति+**.|| ताद्धितविधि | देवदत्तो गाग्योयणः । संघातात्तद्धितो त्पत्तिः प्रामोति।†1 || 
स्वर । देवदन्तो गाग्यैः | संघातस्य 6नित्यादिर्नित्यम्‌ [६.१.९९७] इत्यादयुदान्तत्वं 2 


क 








ॐ ६.४, =; ७९. † ६.४. अ; य्‌ 1 २.९. २) २.४. ७९. § ९.२. ४६; २.४.७६. 
¶ ३.९. <. ५२ २.९.८. 1} ४.९. ९०९ २.४.५६. 


९१७ ॥ व्याकरणयहाभाष्यय्‌ ॥ , „ [म९.४.२. 


भ्रामोति ॥ प्रस्ययब्रहणे यस्मार्घ तदादेस्तदन्तस्य महणं भवतीति न दोषो भक्ति || 
सा तर्षा परिभाषा क्ैव्या | न कपैव्या | एवं वश््यामि | यस्मासस्ययविधिस्तरादि 
भत्यये गृह्यमाणे गृ्यते | ततोऽङगम्‌ । अङुसं्ं च भवति यस्मासस्ययविधिस्तदादि 
प्रत्यये || 
5 यदि प्रत्ययग्रहणे यस्मात्स त दादेभरणं भवतीत्युच्यते अवतप्रनकुलस्थितं त ९- 
तत्‌ उदकेविर्षीे त एतत्‌ सगतिकेन सनकुलेन च समासो" न प्रामोति । एवं 
ति प्रस्ययमहणे यस्मात्स तदादेभ्रेहणं भवतीच्युत्का ततो वश्यामि 
कृद्रहणे गतिकारकपूवैस्यापि । ९ ॥ 
कृ हणे गतिकारक पुवैस्यापि प्रहणे भवतीरयेषा परिभाषा कतेव्या || कान्य - 
10 तस्याः परिभाषायाः प्रयोजनानि । 
प्रयोजनं समासतद्धितविधिस्वराः || १० ॥ 
समास | अवतपेनक्ुरस्थितं त एतत्‌ । उदकेविश्शीणै त एतत्‌ । सगतिकेन 
सनकुठेन च समासः सिद्धो भवति | समास || तद्धितविधि | सांकूटिनम्‌ व्याव 
करोरी । संघातात्तद्धितोत्यन्तिः सिद्धा भवति । तदडधिताविधि || स्वर | दरात्‌ 
15 जायतः दुरादायत इतिः | अन्तस्थाथषञ्क्ताजवित्रकाणाम्‌ | ६.२.९४३१४४| 
इत्येष स्वरः सिद्धो भवति ॥ कृ द्रहणे गतिकारकपवैस्यापि ब्रहणं भवतीति न दोषो 
भ॑वति || सा तर्षा परिभाषा कतेध्या । न कतैव्या | जा चार्यपरवृत्तिज्ञोपयति भ- 
वस्येषा परिभाषेति यदयं गतिरनन्तरः [६.२.४९] इत्यननतरमहणं करोति ॥ 


सुप्तिङन्तं पदम्‌ ॥१।४।९४॥ 
20 भन्तग्रहणं किमथ न षिडः पदभिव्येबोच्येत | केनेदानीं तदन्तानां भविष्यति| 
तदन्तविधिना || अत उत्तरं पठति | 
पदसंज्ञायामन्तवचनमन्यत्र संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्त- 
विधिप्रतिषेधाथेम्‌ ॥ ९ ॥ 


पदसं ्ञायामन्तम्रहणं क्रियते क्षापका्येम्‌ । किं ज्ञाप्यम्‌ | एतजक्ञ!पयस्याचा्य 
25 ऽन्यत्र संज्ञाविधौ प्रत्ययग्रहणे तदन्तविधिनै भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोज- 


9 २.९.४०. † ९.४.९५ ९४. | २,५५.२९ ६.२.३२ §१.५.२. 





पा० ९.४.९४.१९७.] ॥ व्याकररणमरहाभाष्यम्‌ ॥ - ` ६९१९ 


नम्‌ | तरप्रमपी वः [९.९.२२] तरप्रमबन्तस्य षसंज्ञा न भवति | कि च स्यात्‌ । 
कुमारी गौरितरा । धारिषु न्या हृस्वो भवतीति" स्वत्वं प्रसज्येत ॥ यथेतञ्जा- 
प्यते सनाद्यन्ता धातयः [३.९.३२ | हत्यन्तम्रहणं कतेव्यम्‌ । कत्तदधितसमासाश्च 

[ ९.२.४६ | इत्यन्तमरहणं कतेव्यम्‌ | इदं तृतीयं ज्ञापकार्थम्‌ || दे तावक्क्रियेते 
न्यास एव । यदप्युच्यते कृत्तदितसमासाधेस्यन्तम्रहणं कतेव्यमिति । न कतेव्वम्‌ । ऽ 
भर्यैवदिति वतेते† कृत्तद्धितान्तं चेवा्थैवन्न केवलाः कृतस्तद्धिता वा ॥ 


नः क्ये ॥१।४७।१५ ॥ 


किमथेमिदमुच्यते न सुबन्तं पदमित्येव सिद्धम्‌, । नियमार्थोऽयमारम्भः | 
नान्तमेव क्ये पदसंज्ञं भव्ति नान्यत्‌ | क मा भूत्‌ | वाच्यति सुच्यति* ॥ 


स्वादिष्वसर्वनामस्थाने ॥ ९ । 9 । १.७ | 10 


असवैनामस्थान इव्युच्यते तत्र ते राजा तल्ञा¶ अस्वैनामस्थान इति पदसंज्नायाः 
प्रतिषेषः प्रसज्येत | नाप्रतिषेधात्‌ | नायं प्रसज्यप्रतिषेधः सवेनामस्थाने नेति | किं 
तदि | पर्युदासोऽयं यदन्यस्सर्वनामस्थानादिति । सर्वनामस्थाने अव्यापारः | यदि ` 
केनचि्पाभोति तेन भविष्यति | पूर्वेण च प्रामोति ॥ अप्राप्वौ | अथवानन्तरा 
या पाभिः सरा प्रतिषिध्यते | कुत एतत्‌ | अनन्तरस्य विधिव भवति प्रतिषेधो 15 
वेति । पुवौ प्ापिरमरतिषिद्धा तया भविष्यति | ननु चेयं प्राक्निः पूर्वौ प्रानं वाधते | 
नोरसहते प्रतिषिद्धा सती वाधितुम्‌ || अथवा योगविभागः करिष्यते | स्वादिषु पूवे 
पद संज्ञं भवति | ततः सवेनामस्थाने ऽयचि । पुवे पदसंज्ञं भवति | ततो भम्‌ । भसंज्ं 
च भवति यजादावसर्वनामस्थान इति || यदि तर्हि सावपि पदं भवव्येचः श्ुतविकारे 
पदान्तमदहणं चोदितम्‌+* इह मा भूत्‌ भद्रं करोषि गीरिति तस्मिन्क्रियमाणेऽपि 0 
प्रामोति । वाक्यपदयोरन्त्यस्येव्येवं तत्‌ ॥ 


भुवदद्यः धारयद्ृज्यः एतयोः पदसंज्ञा वक्तव्या । मुवदृद्यः धारयद श्यः ॥ 


# ६.३. ४२. † २.२, ४९. व ९.४.९४; २.४. ७९; ९.९६. ६२. § ८.२. ३०; ३९०. . 
ग ६,६.६८ १.९.६२ ` + ८.२. ९०७४, 





३२५ ॥ व्याकर्णम्रहामाच्यम्‌ ॥ ` : [०९४ 


यचि भम्‌ ॥ १।४।१८ ॥ 


भसंज्ञायामुत्तरपदलोपे षषः प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
, भसंज्ञायामुकत्तर पषलोपरे षषः प्रतिषेधो वक्तव्यः | अनुकम्पितः षडङ्ङिः ¶- 
डिक 
£ सिद्धमचः स्थानिवत्वात्‌ ॥ २॥ 

सिद्धमेतत्‌ ।.कथम्‌ । भचः स्थानिवद्धावाद्सं ज्ञा न भविष्यति | इहापि तर्हि ्- 
भोति । वागाहीरैत्तो वाचिक इति | वश््यस्येतत्‌ | सिडधमेकाक्षरपूर्वपदानामत्तरपद- 
लोपव चनादिति† | इहापि तर्हि भरामोति | षडङ्लिः षडिक इति | वक्ष्यत्येतत्‌ | ९एष- 
कषाजादिवचनास्सिद्धमिति! ॥ | 


10 नमोऽङ्किरोभनुषां वत्युपसंख्यानम्‌ ॥ ३ ॥ 
नमोऽङ्किरोमनुषां वसयुपसंख्यानं कतेष्यम्‌ | नभस्वत्‌ भङ्किरस्वत्‌ मनुष्वत्‌ | 
घृष्रण्वस्वश्रयोः. || ४ ॥ 
वृषणिस्येतस्य वस्वश्वयोभेसंज्ञा वक्तव्याः । वृषण्वञ्चः | वृषणश्वस्य यच्छिरः | 
वृषणश्वस्य मेने ॥ 


5 . .., तकौ मलं ॥१९।७।१९॥ 


अथेव्रहणं किमथे न तसौ मतावित्येबोच्येत । तसौ मतावितीयव्युच्यमान `इरैव 
स्यात्‌ पयस्वान्‌ यरास्वान्‌ । इह न ्यात्‌ ` पयस्वी ` यशस्वी | अर्थैसहणे पुनः 
क्रियमाणे मतुपि च सिद्ध भवति यथान्यस्तेन समानार्थस्तस्मिश्च | ययं रहण 
क्रियते पयस्वान्‌ यशस्वान्‌ अत्र न प्रामोति | किं कारणम्‌ | न हि मतुम्मतवये 
20 वतैते | मतुपि मस्वर्थै वतेते | तद्यथा । देवदत्तशालाया ब्राह्मणा भानीयन्तामि- 
युक्ते यदि देवदत्तोऽपि ब्राह्मणो भवति सोऽप्यानीयते ॥ 


अयस्मयादीनि च्छन्दसि .।॥ १.।४।२९०॥ 
उभयसज्ञान्यपीति वक्तव्यम्‌ । स सुष्टुभा स कऋक्रता¶ गणेन ॥ 


-ग्द्रम्न न्य्नज्मन्दप्द पफ न्न रए न्र्ज्र ५.३.०८ ८२;६.४, ४८.८.१.२९. ` ` -¶ ५.२.८४१ ` फ <. ९५; १९ 
6 ८.४. २.३७; (८.२.७9). . .¶ ६२.३०; (३९), 


फ० ६.४.१८९. ] ॥ व्याकरणयहाभाष्यम्‌ ॥ ३९१ 


बहुषु बहुव्वनम्‌ ॥ २.।०।९९.॥ 
बहुषु वहुवचनमित्युच्यते । केषु बहुषु । अर्थेषु | यथ्येवं वृक्षः रक्षः अत्रापि 
पाभोति । बहवस्ते ऽ्थौ मुरं स्कन्धः कलं पलाशमिति ॥ एवं तर्कव चनं हिव- 
चनं बहुवचनमिति शब्दसंज्ञा एताः । येष्वर्थेषु स्वादयो तिधीयन्ते तेषु बहुषु | 
केषु चार्थेषु स्वादयो विधीयन्ते | कमौदिषु | न वै कमोदयो विभक्त्ययौः | के तारि | 5 
एकल्वादयः । एकस्वादिष्वपि वै विभक्तयर्थेष्ववरयं क मोदयो निभितस्वेनो पदेयाः । 
कर्मेण एकस्वे कर्मणो श्वित्रे कर्मणो बहुत्व इति || स तदि तथा निर्देशाः कतैव्यो न 
न्तरेण भावप्रत्ययं गुणपरधानो मवति निर्देशः | इह चेत्येके मन्यन्ते तदेके मन्यन्त 
इति परत्तरादेकव चनं प्रामोति" || बहुषु बहुवचनमिष्येष योगः परः करिष्यते || सूत्र- 
विषयो सः कृतो भवति । इह च बहुरोदनः बहुः खुप इति परत्वाद्रङ्वचनं पामरोति || 10 
नैष दोषः । यत्तावदुच्यते न ह्यन्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रभानो भवति निर्देश इति तन्न | 
अन्तरेणापि भावप्रत्ययं गुणप्रधानो भवति निर्देशः | कथम्‌ । हह कदाचिदुणो 
गुणिविशेषको भवति | तद्यथा । पटः शुक इति । कदाचि बुणिना गुणो व्यप- 
दिदयते | पटस्य श्युङ्क इति । तद्यदा तावहणो गुणितिोषको भवति पटः शुक 
इति तदा सामानाधिकरण्यं गृणगुणिनोः । तदा नान्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रषानो 15 
भवति निर्दहाः | यदा तु गुणिना गुणो व्यपदिहयते पटस्य श्युक्क हति स्वप्रधानस्तदा 
मुणो भव्रति | तदा द्रष्ये षष्ठी | तदान्तरेण भावप्रत्ययं गुणप्रथानो भवति निशः | 
न नेह वयमेकत्वादिभिः क मौदीन्विशेषयिष्यामः | किं तरि | कमौदिभिरेकत्वादीन्वि- 
रोषयिष्यामः | कथम्‌ | एकस्मिन्नैकवचनम्‌ | कस्थैकस्मिन्‌ | कर्मणः | इयोर्हिवच- 
नम्‌ | कयोर्ईयोः | कर्मणोः | बहुषु बहुवचनम्‌ | केषां बहुषु | कर्मणामिति ॥ कथं 20 
बहुषु बहुवचनमिति । एतदेव ज्ञ।पयव्याचार्यो नानाधिकरणवाची यो बहु शब्दस्तस्येदं 
ग्रहण न धैपुल्यवानिन इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ । यदुक्त बहुरोदनः बहुः सप 
इति पर त्वाद्रहुवचनं भ्रामोतीति स दोषो न भवति ॥ यदप्युच्यत हस्येफे मन्यन्ते तदेके ` 
मन्यन्त इति परस्वादेकव चनं परामोतीति नैष दोषः । एकराब्दोऽयं बहर्थः । अस्त्येव 
संख्यावाची | तद्यथा | एको हौ बहव इति । अस्त्यसहायवाची | तद्यथा | एकाप्रयः 25 
एकदानि एकाकिमिः क्षुद्रकरैरभितमिवि । अस्त्यन्यार्थे वतते | तद्यथा | सधमादो 
धयु एकास्ताः | अन्या इत्यर्थः | तथो =न्यार्थै वतैते तस्वैष प्रयोगः | 


# १.४. २२. 
41 9 


३२१ ॥ व्थाकरणपहाभप्यम ए  मिज०्९.४.२. 
किमथे पुनरिदमुच्यते | 

सुषिडामविोषविधानाहृष्टविप्रयोगत्वाच्च नियमाय वचनम्‌ ॥ ९ ॥। 

डषो अविकेषेण प्रातिपदिक मात्राहिधीयन्ते* । तिङो अविोपेण धातुमात्राहिषी- 

यन्ते† | तत्रैतत्स्या्श्यप्यविरेषेण विधीयन्ते नैव विप्रयोगो ठश्यत इति । वृष्ट- 

£ विप्रयो गत्वाच्च | दृरयते खल्वपि विप्रयोगः } तद्यथा | अक्षीणि भे ददहोनीयानि | 

पादामे खकूुमारा इति | खप्रिडोरचहोषविधानादृष्टविप्रयोगत्वाञ्च व्यतिकरः 

परामोति | इष्यते चाव्यतिकरः स्यादिति तचान्तरेण यलं न सिध्यतीति नियमाय 

वचनम्‌ । एवमथमिदमुच्यते || भधेतस्मिन्नियमार्थे सति किं पुनरयं प्रत्ययनियमः । 

, एकस्मिच्ेत्ैकव चनं इयोरेव द्विवचनं बहृष्वेव बहूवचनमिति | आदोस्िदथनियमः । 
10 एकस्मिन्नैकवचनमेव हयोर्दिवचनमेव बहुषु बहुवचनमेवेति | कथात्र विदोषः | 


तत्र प्रत्ययनियमे ऽव्ययानां पदसंज्ञाभावों ऽसुबन्तत्वात्‌ ॥ २ ॥ 


तत्र प्रत्ययनियमे ऽव्ययानां पदसंज्ञा न प्रामोति । उचैः नीचैरिति । किं कार- 
ग॑म्‌ । अष्ुबन्तत्वात्‌ || 
अथनियमे सिद्धम्‌ ॥ २। 
15 भथनियमे सिद्धं भवति | अस्त्व्थनियमः || अथवा पुनरस्तु प्रत्ययनियमः | 
ननु चोक्तं तत्र प्रत्ययनियमे ऽष्ययानां पदसंज्ञाभावो ऽखबन्तत्वादिति । नैष दोषः । 
सुपां कर्मादयोऽप्यथौः संख्या चेव तथ। तिडाम्‌। 
दषां संख्या चैवाथेः कमदयथ । तथा तिडम्‌ || 
प्रसिद्धो नियमस्तत्र 
20 प्रसिद्धस्तत्र नियमः | 
नियमः प्रकृतेषु वा ॥ ` 
अथवा प्रकृतानथौनपेक्ष्य नियमः | के च प्रकृताः । एकत्वादयः | एकस्मिक्े- 
वैकवचनं न हयोने बहुषु | हयेरिव द्विवचनं त्ैकस्मिन्न बहुषु । बहष्वेव बदु- 
वचनं न ह्योर्ैकस्मिच्निति || भथवाचार्यप्रवृततिक्ञपयरयुत्पद्यन्ते ऽव्ययेभ्यः स्वादय 
25 इति यदयमभ्ययादाष्डपः [२.४.८२] इत्यत्ययाह्लुकं शास्ति ॥ 
इति श्रीभगवत्पतच्रकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चतुर्थ 
पादे द्ितीयमाद्भिकम्‌ ॥ 


+^ ४.९. द, + ३.४.७८, 











११० १.४.२२. ॥ ध्वोकरनप्रराभाष्यय्‌ । १8 


कारके ॥२९।०2।२२॥ 


किमिदं कारक इति | सं्ञानिर्देशः । किं वक्तत्यमेतत्‌ | न हि | कथमनु- 
स्यमानं गंस्यते | इह हि व्याकरणे ये चैते लोके प्रतीतपदार्थकाः दाब्दासैर्वरदशचाः 
क्रियन्ते पड्युरपत्यं देवतेति या वेताः कृत्रिमाशटिघुषभसंज्ञास्तामिः | न चाय 
लोके धरुवादीनां प्रतीतपदार्थकः दाभ्टो न खल्वपि कृत्रिमा . संजञान्यत्राविधानात्‌ | 8 
संक्नाधिकारथायं तत्न किमन्यच्छक्यं विज्ञतुमन्यदतः संज्ायाः | 


कारक इति संज्ञानिदेराश्वेत्संज्ञिनो ऽपि निर्दराः । ९॥) 


कारक इति संज्ञानिर्देराथेत्सं्ञिनो ऽपि निर्देशः कतैव्यः | साधकं निर्वर्तकं कार- 
कसंञ्चं भवतीति वक्तव्यम्‌ || 


इतरथा ह्यनिष्टप्रसद्भौ भ्रामस्य समीपादागच्छतीत्यकारकस्य || २॥ 1 

इतरथा ह्यनिष्टं प्रसज्येत | अकारकस्याप्यपादानतंज्ञा प्रसज्येत | क | पराम- 
प्य* समीपादागच्छतीति || नेष दोषः | नात्र मामो ऽपाययुक्तः | किं तर्हि | समी- 
पम्‌ | यदा च भ्रामोऽपाययुक्तो भवति भवति तद।पादानसंज्ञा | तद्यथा | ्रामादा- 
गच्छतीति | | 


` कर्मसंज्ञापसङ़ो ऽकयितस्य ब्राह्मणस्य. पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति ॥ ३ ॥ . 1: 

कर्मसंज्ञा च प्रामोत्यकथितस्य | क । ब्राह्मणस्य पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति || 
तैष दोषः | अयमकथितष्दो ऽप्त्येवासंकीर्तिते वतैते | तद्यथा | कथित्कंचित्संच- 
क्याह । असावत्राकथितः । असंकीर्तित इति गम्यते | भस्त्यप्राधान्ये तेते | 
तद्यथा | भकथितो ऽदौ मामे भकथितो ऽसौ नगर हल्युच्यते यो यत्राप्रानो 
भवति || तद्यदाप्राधान्ये ऽकथितदाम्दो . वतेते तदैष दोषः कर्मसं श्षाप्रसङ्ोऽकथितस्य 0 
ब्राह्यणस्य पुत्रं पन्थानं पृच्छतीति || 


अपादानं च वृक्लस्य पणं पततीति ॥ ४ ॥ 


धभपादानसंज्ञा च प्राप्रोति | कै | वृक्षस्य" पणे पतति । कुयस्य पिण्डः 
पततीति ॥ | 





९,४.२४, † १.४.५१. 





दे ॥ ह्योक्ररणमहाथाष्य्च ॥ . [ मर १.६३, 


` न व्रापयस्थाविवक्षितत्वांत्‌ ।। «९ ॥ ` 
न वैष दोषः | किं कारणम्‌ । अपायस्याविवक्षितत्वात्‌ | नाज्रापायो विवितः। 
किं तर्हि | संबन्धः| यदा चापायो त्रिव्रकषितों भवति भवति तदापादानसंज्ञा | त- 
द्यथा | वुक्षात्पणै पततीति । संबन्धस्तु तदा न. किवक्ितो भवति | न ज्ञायते क- 
४ ङस्य वा कुररस्य वेति ॥ | | 
भयं ताहि दोषः कर्मसंज्ञाभसङ्ा कथितस्य ब्राह्मणस्य पुरं पन्थानं एच्छतीति | 
नैष दोषः | कारक इति महती संज्ञा क्रियते | संज्ञा च नाम यतो न लघीयः। 
कुत एतत्‌ । लप्त्रथ हि संज्ञाकरणम्‌ । वत्र महत्याः संज्ञायाः करण एतत्रयोन- 
नमन्वथेसंज्ञा यथा विज्ञायेत | करोतीति कारकमिति | 


10 अन्वर्थमिति चेदकतरि कर्रैराब्दानुपपक्तिः || & ॥ 


अन्वथोभिति. चेदकर्तैरि कतशाब्दो नोपपश्चते | करणं कारकम्‌ | आधिकरणं 
कारकमिति ॥ 


सिद्धं तु प्रतिकारकं क्रि याभेदात्यादीनां करणाधिकरणयोः कतेभावः।। ७॥ 


सिद्धः करणाधिकरणयोः -करतभावः । कुतः | प्रतिकारकं क्रिमाभेरात्पचादी- 
15 नाम्‌ । पचादीनां हि प्रतिकारकं क्रिया भिश्यते | किमिदं प्रतिकारकमिति । का- 
रकं कारकं प्रति प्रतिकारकम्‌ || कोभ्लौ प्रतिकारकं क्रियामेदः पचादीनाम्‌ । 


अधिश्रयणोदकासेवनतण्डलावपतरैधोपकषणक्रियाः प्रानस्य 
| | कुः पाकः ॥ ८ ॥ 
अधपिश्रयणोदकासेचनतण्डुलावपनैधो पकर्षणादिक्रियाः कुर्वन्नेव देवदसः पवती- 
0 स्युच्यते | तत्र तदा पचिकेतेते | एष प्रधानकलैः पाकः । एतत्पधानकतुः कतेलम्‌ ॥ 


क्रोणं पवत्याहटकं पथतीति संभवनक्रिया धारणक्रिया वाधिकर- 
णस्य पाकः ॥ ९ ॥ 


~ दोणं पचल्याढकं प्रचतीति संभवनक्रियां धारणक्रियां च कुर्वती स्थाली पती 
स्यच्यते | तत्र तदा परचिवैतेते | एषो ऽधिकरणस्य पाकः | एतदधिकरणस्ं 
2४ कर्तृत्वम्‌ | 





पी ५९.४;२३ म] ॥ व्यकिरनमहाभष्यम्‌ ॥ १२६ 
एधाः पषट्यन्स्या विक्ित्तेञ्वैखिध्यन्तीति ज्वलनक्रिया करणस्य पाकः ॥*९०॥। 


एधाः. परश्ष्यन्त्या चिक्धि त्तेज्वेकिभ्वन्तीति ज्वलनक्रियां कु वेन्ति काष्ठानि पचन्ती. 
रु च्यन्ते | तत्र तदा पचिवतेते । एष. करणस्य पाकः । एतत्करणस्य कतृर्वम्‌ || 


उद्यमननिपातनानि कतेम्डिदिक्रिया ॥ ९९ 


उद्यमननिपातनानि कृवेन्देवदत्तम्रछिन तीरयुच्यते | तत्र तदा शिदिर्वंतेते | एष $ 

प्रथानकतर्डेदः | एतसधानकरौः कतेत्वम्‌ ॥ 
यत्तन्न तृणेन तत्पररोग्केदनम्‌ ॥ ९२ ॥ 

यत्तत्समान उद्यमने निपातने च. परञ्युना शिद्चते न तृणेन तत्पर शोण्डेदनम्‌ + 

अवयं वैतदेवं विज्ञेयम्‌ | 
इतरथा ह्यसितृणयोग्छेदने ऽविदोषः स्यात्‌ || ९३ ॥ 10 

यो हि मन्यत उद्यमननिपातनारेषैतद्ध वति च्छिनततीत्यसितणयोग्ेदने न तस्य 

विरोषः स्यात्‌ | यदसिनां शिश्यते तणेनापि तच्छ्थित ॥ 


अपादानादीनां स्वप्रसिदहधिः ॥ ९४॥ 


` अपारानादीनां कतेत्वस्याप्रतिद्धिः | यथा हि भवता करणाधिकरणयोः कर्तृत्वं 
निदितं न तथापादानादीनां कतृस्वं निददयेते ॥ 15 
न वा स्वतन्लपरतन्बस्वासयोः पययेण वचनं वचनाश्रया च संज्ञा।। ५९॥। 

न त्रैष दोषः | किं कारणम्‌ | स्वतन्त्रपरतन्त्स्वात्‌ | सर्वतरैवा्च स्वातन्व्ये 
पारतन्स्यं च विवक्षितम्‌ | तयोः पयोयेण वचनम्‌ | तयोः स्वातन््यपारतन्ल्ययोः 
पयौयेण वचनं भविष्यति | वचनाञ्रया च संज्ञा भविष्यति | तद्यथा | बलाह कादिद्यो- 
तते | बलाहके विद्योतते | बलाहको विद्योतत इति || किं तदयेच्यते ऽपादानादीनां ९ 
स्वप्रसिद्धिरिति । एवं तर्द न त्रुमो ऽपारानादीनां कवैत्वस्याप्रसिदिरिति । पयीपतं 
करणाधिकरणयोः कर्तस्वं निदाशितमपादानादीनां कर्ैस्वनिदरनाय | पर्यापरो देकः 
पुलाकः स्थाल्या निदरदौनाय | किं तर्हि | संज्ञाया अप्रसिद्धिः । यावता सर्वत्रैवात्र 
स्वातन्ल्यं विन्धते. पारतन्ल्यं च तत्र परत्वात्कतेसंज्ञैव प्रामोति* |.अत्रापिन वा 
स्ववन्त्रपरतन्तत्वास्तयोः पययेण वचनं वचनाश्रया च संज्ञेत्येव || ` - . . ~ 


कै १, # |, # ५९ 1 क 








६१६ 1. व्यकरणमहमिष्यय ॥ [म० ९.४. 


यथा पुनरिदं भवता स्थाल्याः स्वातन्श्यं निर्दाशितं संमबनक्रियां धारणक्कियां 

च कुवैती स्थाली स्वतन्त्रेति कैदानीं परतन्त्रा स्यात्‌ | यत्तत्मक्षालनं परिषतैनं 
धा] न वा एवमथ स्थाल्युपादी रते प्रक्षालनं परिवतैनं च करिष्यामीति | किं तर्। 
संभवनक्रियां धारणक्रियां च करिष्यतीति | तत्र चासौ स्वतन्त्रा | केदानीं पर- 

5 तन्त्रा || एवं तर्द स्थालीस्ये यते कथ्यमाने स्थारी स्वतन्त्रा करस्थे यले कथ्यमाने 
परतन्ला | नन्‌ च भोः कतेस्थेऽपि वरै यले कथ्यमाने स्थाठी संभवनक्रियां धारण- 
क्रियां च करोति । तज्रातौ स्वतन्ल्ा | केदानीं परतन्ता || एवं तर्हि प्रधानेन समवाये 
स्थाली परतन्ल्ला व्यवाये स्वतन्ला | तद्यथा | अमात्यादीनां राज्ञा सह समवाये 
पारतन्ट्यं व्यवाये स्वातन्क्यम्‌ | किं पुनः प्रधानम्‌ | कतौ | कथं पुनर्ञायते कर्ता 
10 प्रधानमिति । यस्सर्वेषु साधनेषु संनिहितेषु कतौ प्रवतेयिता भवति || ननु च भोः 
परधानेनापि वै समवाये स्थाल्या अनेनार्थो अधिकरणं कारकमिति | न हि कारक- 
मित्यनेनाधिकरणत्वमुक्तमधिकरणमिति वा कारकत्वम्‌ | उभौ चान्योऽन्यविदे- 
पकौ भवतः | कथम्‌ | एकद्रव्यसमवायिसात्‌ | तद्यथा | गार्ग्यो देवदत्त इति | 
न हि गाग्यै हत्यनेन देवदत्तस्वर मुक्तं देवदत इत्यनेन वा गाग्यैस्वम्‌ । उभी चान्यो - 
15 ऽन्यविशेषकौ भवत एकद्रव्यलमवायित्वात्‌ || एवं तर्हि सामान्यभूता क्रिया वतैते 
तस्या निवैरतैकं कारकम्‌ || भथवा यावद्रूयाक्कियायामिति तावत्कारक इति । एवं 
च कत्वा निर्देश उपपन्नो भवति कारक इति | इतरथा हि कारकेल्विति नुयात्‌ || 


भरुवमभपायेऽपादानम्‌ ॥ १. । ४ । २४ ॥ 


 श्रुवभिति किमथेम्‌ | मामादागच्छति राकटेन । नैतदस्ति । करणसंक्षात्र वा- 
%0 धिका भविष्यति" || इदं तर्हि । मामादागच्छन्कंसपात्रयां। पाणिनीदनं भङ इति | 
भत्राप्यभिकरणसंज्ञा वाधिका भविष्यति || इदं तरि । वृक्षस्य पणे पतति । सुद्स्य 
पिण्डः पततीति ॥ 
जुगुप्साविरामप्रमादाथोनामुपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
जुगुप्साविरामप्रमादाथोनामुपसं ख्यानं कर्तव्यम्‌ | जुगुप्ता । भधरमौञजुगुष्सते। 
9; कधमीद्वीभत्छते || विराम । धमौहिरमति | धर्मा्धिवतेते || प्रमाद | धर्माद्मु - 
ति | धमाोन्मुष्यति ||, 





ॐ ९.४. ४द, ¶ ९.४, ४९५. 


प° ९.४.२४.२५.] ॥ ध्यीकस्नयहाभाष्यम्‌ ॥ ३२. 


इह चोपसं ख्यानं कतेभ्यम्‌ | सांकादयकेभ्यः पाटकिपुत्रका जभिरूपतरा इति | 

तत्तरदीदं वक्तव्यम्‌| न वक्तव्यम्‌| इह तावदधमान्नुगुण्सते अधमोद्रीभस्सत इति 
य एष मनुष्यः प्रेक्षापुवेकारी भवति स परयति दुःखो ऽधर्मो नामिन कृत्यमस्तीति | 
स वुद्या संप्राप्य निवनेते | तत्र धरुवमपाय ऽपादानमिस्येव सिद्धम्‌ || इह च ध- 
मोहिरमति धमीाश्निवतेत इनि धमाखमाद्यति धर्मान्मुद्यतीति य एष मनुष्यः संभिन्न- 
बुद्धिमैवति स पदयति नेदं किंचिद्धर्मो नामनैनं करिष्यामीति |स बुद्धा संप्राप्य 
निवतेते | तत्र ध्रुवमपाये ऽपादानमित्येत्र स्सिडम्‌ || इह च सांक्रादरयकेभ्यः पाट- 
लिपुत्रका अभिरूपतरा हति यस्तैः साम्यं गतवरान्भवति स एततलयुङ्क || 


गतियुक्तेष्वप(दानसंज्ञा नोपपद्यते ुवत्वात्‌ ॥ २. ॥ 
गतियुक्तंष्वपादानसंज्ञा नोपपद्यते | अश्वान्नस्तात्पतितः | रथालसव्रीतात्पतिनः | 
सथोहच्छतो हीन हति | किं कारणम्‌ | अध्रुतरस््रात्‌ || 


नः वाप्रौव्यस्याविवक्षितत्वात्‌ ॥. ३ ॥ 


न वेष दोषः | किं कारणम्‌| अप्रौऽ्यस्यातिवक्षितखरात्‌ | नात्राभरौग्यं विवाति 
तम्‌ । किं तर्हि | ध्रौव्यम्‌ | इह तावदश्वा च्लस्तात्पतित इति यत्तदश्वे ऽशत्वमाुगामित्वर 
तैद्धुवं तश्च विवक्षितम्‌ | रथातपरवीतास्पतित इति यत्तद्रथे रथतवं रमन्ते ऽस्मिज्रथ 
इति तद्धवं तञ्च विवक्षितम्‌ | साथोद्रच्छतो हीन हति यत्तत्सार्थे सार्थत्वं सहार्थी- 
मावस्तद्भुवं तच्च विवक्षितम्‌ || यद्यपि तावदत्रेतच्छक्यते वक्तं ये स्येते ऽव्यन्तगति- 
युक्तास्तत्र कथम्‌ | धावतः पतितः | स्वरमाणात्पतित इति | अत्रापि न वाप्रीष्य- 
स्याविवक्ितत्वादिस्येव सिद्धम्‌ || कथं पुनः सतो नाम।धिवक्ता स्यात्‌ | सतोऽप्य- 
विवक्षा भवति | तद्यथा | अलोभिक्तेडका | अनुदरा कन्येति | असत विवक्षा 
भवति | समुद्रः कुण्डिका | जिन्ध्यो बर्थितकमिति ॥ 


भीन्राथानां भयहेतुः ॥ १ । ४ । २५ ॥ 


१) 


10 


19 


20 


अयं योगः शाक्यो क्तुम्‌ | कथं वृकेभ्यो बिभेति दस्युभ्यो निभेति चीरेभ्य- ' 


ख्कायते दस्युभ्यल्लायत इति । इह तावद्ूकेभ्यो विभेति दस्युभ्यो बिभेतीति च -एष 


मनुप्यः प्रे्षापुवैकारी भवति स परयति यदि मां वृकाः परयन्ति. धुधो मे 2 


मृस्युरिति । स बुद्धा संराप्य निवतेते | तत्र ध्रुवमपाये ऽपादानम्‌ [९.४.२४ | इत्येव 


९२८ ॥ व्या करणमहाभाय्कय्‌ ।| ` [| म०.९.४.. 


सिद्धम्‌ || इद चैरेभ्यलायते दस्युभ्यल्ायत इति य एष .मनुष्यः वेक्षपर्वकारी 
उक वति स परयति यदीमं चौराः परयन्ति प्रु ्रमस्य वधवबन्धनपरिङ्केशा इति | 
स बुद्या संप्राप्य निवतेय्ति | तत्र भ्रुवमपाये ऽपादानभिस्येव सिद्धम्‌ || 


पराजेरसोढः ॥ १. । 9 1 २६ ॥ 


$ अयमपि योगः शक्यो ऽवक्तुम्‌ | कथम्‌ अध्ययनात्पराजयत इति । य एष 
मनुष्यः प्रक्षापूवैकारी भव्रति स परयति दुःखमधभ्ययनं दुधेरं च गुरवथ दुरुपचारा 
इति । स बुद्धा संराप्य निवतैते | तश्र ध्रुवमपाये ऽपादानम्‌ [ ९.४.९४ | इत्येव 
सिद्धम्‌ ॥ 


वारणाथानामीष्सितः ॥ ९ । ४ । २७ ॥ 


10 किमुदाहरणम्‌ | माषेभ्यो गा वारयति । भवेद्यस्य माषा न गावस्तस्य मापा 
हेष्सिताः स्युः | यस्य तु खलु गवो न माषाः कथं तस्य माषा हैष्सिताः स्युः | 
तस्यापि माषा एषेष्सिताः ] आतश्रेप्तिता यदेभ्यो गा वारयति ॥ इह कूपादन्धं 
वारयतीति कूपे ऽपादानंज्ञा न प्रामोति | न हि तस्य कूप हष्तितः । कस्तर्हि । 
अन्धः] तस्यापि कूप एव्रेम्ितः | परयत्ययमन्धः कूपं मा प्रापदिति । अथवा यथै- 

15 बास्यान्यत्रापदयत इप्तेवं कूपे ऽपि | इष्ट अपन माणवकं वारयतीति माणवके ऽपरा 
दानसंज्ञा प्रामोति | क्मेधज्ञा्र वाधिका भविष्यति* | अस्नावपि तर्हि वाधिका 
स्यात्‌ | तस्माक्तव्यं कमणो यदीप्तितमिति । श्ष्सितेष्सितमिति वा | 


वारणर्येषु कमेग्रहणानयथक्यं कर्तुरीप्सिततमं कर्मेति वचनात्‌ ॥। ९ ॥ 


वारणार्थेषु कमेय्टणमनथैकम्‌ । किं कारणम्‌ । कलतुरीष्सिततमं कमं 
० [१.४.४९] इति वचनात्‌ । क्रीप्सिततमं कर्मत्येव सिद्धम्‌ | 
अयमपि योगः शक्यो अवक्तुम्‌ | कथं माषेभ्यो गा वारयतीति | परयत्ययं 
यदीमा गावस्तत्र गच्छन्ति भ्रुवं सस्यविनाश्ः सस्यविनाश्चे ऽषर्म॑ेव राजमयं 
च | स बुद्धा संराप्य निवतेयति | तत्र पुवरमपाये ऽपादानम्‌ [९.४.२४] इत्येव 
सिद्धम्‌ ॥ 


` * १.४. ९. 








प५।०६१.४.२६.३०. |] ॥ व्यौकरणपंहाभष्यय्‌ ॥ ३२९. 
अन्त येनादर्नमिच्छति ॥ १ । ७।२८॥ ` ` 
अयमपि योगः शाक्यो ऽवक्तुम्‌ | कैथम्‌ उपाध्यायादन्तर्षत्त इति | पदयत्ययं 


यदि मामुपाध्यायः परयति धुवं प्रेषणमुपालम्भो वेति | स बुद्धया संप्राप्य निवत्ते | 
तत्र भुवमपाये ऽपादानम्‌ [९.४.२४] इत्यैव सिद्धम्‌| 


आख्यातोपयोगे ॥ ९. । ¢ । २९.॥ ` ¢ 


उपयोगं हति किमर्थम्‌ । नटस्य शृणोति | म्रन्थिकस्य शुणोति || उपयोग इ- 
स्युच्यमाने ऽप्यत्र प्रामोति | एषोऽपि ह्युपयोगः | आतशोपयोगो यदारम्भका रु 
गच्छन्ति नदस्य भोप्यामो मरन्थिकस्य श्रोष्याम इति ॥ एवं तद्युपयोग इत्युच्यते 
सर्वोपयोगस्तत्र प्रकर्पगतिर्थिन्नास्यते | साधीयो य उपयोग इति | कथ साधीयः | 
यो ब्रन्धार्थयोः || अथवोपयोगः को भविुमहैति | यो नियमपुवैकः | तद्यथा | 10 
उपयुक्ता माणत्रका इत्युच्यन्ते य एते निय मपूवेक मधीतवन्तो भवन्ति || . 

किं पुनराख्यातानुपयोगे कारकमाहोखिदकारकम्‌ | कथात्र विशेषः | 

आङ्यातानुपयोगे कारकमिति चेदकयितत्वात्कभेसंज्ञापसङ्ः । ९ ।। ` 

आख्यातानु पयोगे. कारकमिति चेदकथितत्वास्कर्मसंज्ञा परामोति' || -अस्तु तद्य 
- कारकम्‌ | 15 
अकारकमिति चेदुपयीगवखनान्थक्यम्‌ ॥.२ ॥ 
 यद्यकारकमुपयोगवचनमनभेकम्‌ ॥ अस्तु तर्हि कारकम्‌ | ननु चोक्तमाख्या- 
तानुपयोगे कारकमिति चेदकथितत्वात्फम॑संज्ञाप्रसङ् इति | तरैष दोषः | परिगणनं 
तक्र क्रियते । दुहियाचिराधिप्रहिभिष्षिचिनामिति। | `: ˆ 7. 

अयमपि योगः शक्यो वक्तुम्‌ | कथम्‌ उपाध्यायादधीत इति ।. अपक्रामति 20 
तस्मन्तदध्ययनम्‌ । यश्यपक्रामति विं नात्यन्तायाप्क्रामति | संततस्वात्‌ ॥ भवा 
स्योतिवैज्ज्ञानानि भवन्ति ॥ 


जनिकतुः प्रकृतिः ॥ १.।४।३० ॥ 
अयमपि योगः राक्थो ऽवक्तुम्‌ | कथं गोमयादुधिको जायते| गोरो मातिंठी- 


# ९.४, ५१ ` “ ` † ६.४. ५ 
42 जव 


३३०. ॥ व्वाकरणयमरहाभाष्यमय्‌ ॥. [ म० ९.४.२५. 


मभ्यो दुवो जायन्त इति | भपक्रामन्ति तास्तेभ्यः | यद्यपक्रामन्ति किं नास्यन्ताया- 
पक्रामन्ति | संततत्वात्‌ || अथवान्याधान्याश्च प्रादुभेवन्ति ॥ 


भुवः प्रभवः ॥ ९19७ । २९ ॥ 


अयमपि योगः शाक्यो वक्तुम्‌ । कथं हिमवतो गड प्रभवतीति | अपक्रा- 
४ मन्ति तास्तस्मादापः | यद्यपक्रामन्ति किं नत्यन्तायापिक्रामन्ति | संततत्वात्‌ || 
लथवान्याथान्याशच प्रादुभवन्ति ॥ 


कर्मणा यमभिगेति स संप्रदानम्‌ ॥ ९. । ७।२२॥ 


कर्मग्रहणं किमथेम्‌ | यमभिप्रैति स संप्रदानभितीयत्युच्यमानि कर्मण एव संप्र 
दानसंज्ञा प्रसज्येत | कर्मग्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | कमे निभित्तत्वे- 
10 नाश्रीयते || अथ यंसच्रहणं किमर्थम्‌ | कर्मेणाभिप्रेति संप्रदानमितीयत्युच्यमाने 
अभिप्रयत एव संप्रदानसंज्ञा प्रसज्येत | यंसम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति । 
यंस प्रहणादभिप्रयतः संप्रदानसंज्ञा निभेज्यते || अथाभिप्रमरहणं किमर्थम्‌ | कर्मणा 
यमेति स. संप्रदानमितीयस्युच्यमाने यमेव संप्रत्येति ` तत्रैव स्यात्‌ | उपाध्यायाय गां 
ददातीति । इह न स्यात्‌ | उपाध्यायाय गामदात्‌ । उपाध्यायाय गां दास्यतीति । 
15 अभिपरम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति | .अभिराभिमुख्ये वर्ते. प्रशब्द आदिक- 
मणि | तेन यं चाभितरैति य॑ चाग््रष्यति यं चामिप्रागादाभिमुख्यमात्रे सवत्र सिद 
भवति ॥ | „ . 
क्रियाम्रहणमपि कतेव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ | ..्रद्धायः निगहेते | - युद्धाय ` 
संनष्यते । पत्ये शेत इति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तभ्यम्‌ । कथम्‌ | क्रियां 
20 हि लोके कर्मेत्युपचरन्ति | कां क्रियां करिष्यसि । किं कमे. करिष्यसीति | एव- ` 
मपि कतेभ्यम्‌ | कृत्चिमाक़ृत्निमयोः कृत्रिमे संप्रत्ययो भवति || क्रियापि कृजिमं 
क्म | न सिध्यति | क्रीप्िततमं क्म [१.४.४९] इस्युच्यते कथं च नाम 
क्रियया क्रियेस्तितत्तमा स्यात्‌ | क्रियापि क्रिययेप्सिततमा भवति । कया क्रियया | 
संददानक्रियया वा -प्राथेयतिक्रियया वाध्यवस्यतिक्रियया वा| इह य एष मनुष्व, 
25 परक्षापुवेकारीं भवति स बुद्धया ताव्कचिदये संपरयति संदृष्टे प्राथेना प्राथनायाम - 











पा० १.४.२१-४२. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ३३१ 


ध्यवसायो ऽध्यवसय आरम्भ आरम्भे निववत्तिर्निवृत्तो फकावाप्निः | एवं क्रियापि 

कृत्रिमं कमं ॥ ` ` 
एवमपि .क्मेणः करणसंज्ञा वक्तव्या संप्रदानस्य च कर्मसंज्ञा । पडुना स्रं यजते| 

पश्यं सद्राय ददानीत्यथः । भभौ किल पद्ुः प्रक्षिप्यते तद्रुद्रायोपदियत इति ॥ 


कुधटटहष्यौसू्रा्ानां यं प्रति कोपः ॥१।४।३७॥ 


किमेत एकाथौ भहोखित्नानाथोः । क्रं चातः । यदयेकाथोः किमर्थे प्रथङ्ि- 
िदयन्ते । अथ ननाथौः कथं कपिना शक्यन्ते विश्षयितुम्‌ | एवं तर्हि 
नानायौः कुषौ त्वेषां सामान्यमस्ति । न ह्यकरुषितः क्रुष्यति न वाकुपितो दुष्यति 
न वाकुपित हैष्वति न धाक्रुषितो ऽख्यति ॥ 
साधकतमं करणम्‌ ॥ ९ । 9 ४९ ॥ 10 
` तमय्रहणं किमे न साधकं करणमित्येवोच्येत | साधकं करणमितीयस्य॒च्य- ` 
माने सर््रषां कारकाणां करणसंज्ञा प्रसज्येत | सवौणि हि कारकाणि साधकानि । 
तमम्रहणे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति || नैतदि प्रयोजनम्‌ । पृवौस्तावस्तंश्ञा 
अपवादत्वाद्ाधिका भविष्यन्ति पराः परत्वाञ्यानवकाशत्वाश्च || इह तर्द 
धनुषा विध्यति अपाययुक्तत्वाञ्चापादानसंज्ञा साधकत्वाश्च करणसंज्ञा प्रामोति |15 
तमय्रङ्णे पुनः क्रियमाणे न दोषो भवति ।| एवं तर्हि ` लोकत एतस्सिद्धम्‌ । 
तश्थथा । ठकि ऽभिरूपायोदकमानेयमभिरूपाय कन्या देयेति न चानभिरूपे 
प्रवृत्तिरस्ति तत्रभिरूपतमायेति गम्यते । एवमिष्टापि साधकं करणमित्युच्यते 
सर्वणि च कारकाणि साधकानि न चासाधके भवृत्तिरस्ति तत्र `साध- 
कतममिति ` विज्ञास्यते || एवं तर्द सिद्धे सति यत्तमप्रहण करोति तञ्ज्ा- 20 
पयव्याचार्यः कारकसंज्ञायां तरतमयोगो न भवतीति | किमेतस्य ज्ञापमे प्रयो- 
जनम्‌ । अपादानमाचायैः किं न्याय्यं मन्यते यत्र संप्राप्य निवृतिः | तेनेहैव 
स्यात्‌ म्रामादागच्छति नगरादागच्छतीति | सांकारयकेभ्यः पाटकिपुत्रका अभिरूपता 
इत्यत्र न स्यात्‌ । कारकसंश्ञायां तरतमयोगो न भवतीत्यत्रापि सिडं भवति ॥ 





## १, ` `  >*१.५.२* र २४. 


३३१ , ;, | -च्वाकश्यप्रहाधास्वय्‌ ॥ - - | बम १.४.३१, 


तथाधारमाचयेः. क्रि न्याय्यं मन्यवे यत्र कृस्ल् -आधारारमा -व्याप्नो भवाति | तेने- 
हेव स्यात्‌ तिकेषु तैलम्‌ दति सर्पिरिति | मङ्कायां गावः कूपे ग्गैकुभमिस्यन्न न 
स्यात्‌ | कारकसंज्ञायां तरतमयोगो. न भवतीस्यत्रापि सिद्धं भवति .॥ 


चपान्वभ्याङ्सः, ॥ १, । ४। ४८ ॥ 


5 '' . ˆ “ ` वसिररयर्थस्य भतिषेधः ॥ ९॥ ` | 
बसेरदयर्थस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । माम उपवसतीति ॥ स तरि वक्तव्यः| 
म वक्तव्यः | नात्रोपपुवैस्य वसेयौमोऽधिकरणम्‌ । कस्य तर्हि | अनुपसरैस्य | 
मामे ऽतौ वसंखिरात्रमुपवसतीति ॥ 


कतुरीप्सिततमं कम ॥ १. । ४ । ५९ ॥ 


10 तमम्रहणं किमथैम्‌ । कतुरीष्सितं कर्मेतीयत्युच्यमान हह अपनेमौणवकं वारयतीति 
माणवके ऽपादानसं्चा प्रसज्येत" । नैष दोषः | कर्मसंज्ञा तत्र बाधिका भविष्यति| 
अ्बपि तर्हिं वाधिका -स्यात्‌ |. हृष पुनस्तमयहणे क्रियमाणे तदुपपन्नं भवाति -यदु- 
कतै .वारणार्थेषु कमेमरहणानधैक्यं कतैरीप्सिततमं कर्मेति वचनादिति. ॥ ` .. 

 इहोष्यत ओदमं परवतीतिः। यश्चोदनः पच्येत द्रन्यान्तरमभिगिर्व्तेत । वैष रोषः । 

15 ताङ्थ्यौन्ताच्छब्धं भविष्यति । ` ओदनाथास्तण्डुला दन इत्ति || अथेह कथं भवे- 
तव्यम्‌ | तण्डुलरनोदनं पचतीति | आहोस्वित्तण्डुलानामोदनं पचतीति । उभयश्षपि 
भवितव्यम्‌ | कथम्‌ | हह हि तण्डुलानोदनं पचतीति व्यथे ः पचिः | तण्डुलान्पच- 
तोरम निवैतैयतीति || इहेदानीं तण्ड्ूलानामोदनं पचतीति -व्य्थशचैवः पचिर्विकारयो- 
गे च षष्ठी | तण्डुलयिक्र मोदनं निवर्तयतीति `| 

20 -इह. कथित्वविदामन्छथते सिद्धं भुज्यतामिति | ख आमन्दयभाण आह | प्रभूत 
भुक्त मस्मौभिरिति | जामन्तवमाण आह | दधि खलु भविष्यति पयः खलु भविष्यति | 
कामन्यमाण भह | दघरा खलु भुष््ीय पयंसा खलु भुख्छीयेति । अत्र कमेखं्ञा 
प्राप्रोति । तद्धि तस्येप्सिततमं भवति ॥| तस्याप्योदन एवेम्सिततमो न तु मुणेष्व- 
स्यानुरोधः । तद्यथा । मुश्छरीयाहमोदनं यदि मृदुविद्चदः स्यादिति । एवमिहापि 

25 दधिगुणमोदनं भुञ्जीय पयोगुणमोदनं मुश्जीयेति ॥ 


॥पणरकषषिीषििपपीषोरषीषषिषयषिषषषष ४४४ ४99४9 ममम ११११११११ १११ सि 


` # ९.५. २५. † ९.४, २०२, 








पा? ९.४.४८-५.९. | ॥ व्वाकरणदहाभाध्यम .॥ | रदे 


ईैष्सिलस्थ कर्मसंज्ञाथां निरवंतचस्य कारकत्वे कमैसंज्ञामसङ्गः क्रिये- 
प्सितस्वात्‌ ॥। ९ ॥ 

हैष्सितस्य कमसंज्ञायां निवृत्तस्य कारकस्वे कमैसंज्ञां न प्रामोति | गुडं मक्ष- 

यतीति | कं कारणम्‌ | क्रियेप्ठितत्वात्‌ । क्रिया तस्येष्सिता || 
न वौोभयेप्सितत्वात्‌ ॥ २ ॥ & 

न तैषः दोषः । किं कारणम्‌ । उभयेस्सितत्वात्‌. |. उभयं हि तस्येम्सितम्‌ । 
ध्रातञोभयं यस्य हि गृडभक्षणे बदिः. प्रसक्ता भवति नासौ. रोष्टे भक्षयिता कृती 
मवति ॥ यद्यपि तावदश्नैतच्छक्यते वक्तु ये त्वेते राजकर्िणो मनुष्यास्तेषां कथिं- 
स्कंचिदाह | कटं कुर्विति । स आह । नाहं कटं करिष्यामि. षदो मग्राहत्‌ं इति । 
तस्य क्रियामात्र मीम्सितम्‌ ॥ यद्यपि तस्य क्रेयामात्रमीय्सिते यस्त्वसो प्रेषयति 19 
तस्योभयमीस्सितमिति ॥ 


तथायुक्तं चानीप्वितम्‌ ॥ १. । ४ ।५० ॥, 


किमुदाहरणम्‌ | विषं भक्षयतीति | तैतदस्ति | पूर्वैणप्यितस्सिभ्यति | न सिध्य॑ति | ` 
कतरीप्सिततमं कमे [९.४.४९] इत्युच्यते कस्य च नाम विषभक्षणमीष्वितं स्यात्‌ | 
विषमक्षणमपि कस्यचिदीप्ितं भवति । कथम्‌ | इह य एष मनुष्यो दुःखार्तो मवति 15 
सोऽन्यानि दुःखान्यनुनिद्यम्य विषभक्षणमेव ज्यायो मन्यते | आतधेस्तितं यत्तद्- 
क्षयति | यत्त्यन्यत्करिष्यामीत्यन्यत्करोति तदुदाहरणम्‌ । क पुनस्तत्‌ | भामा- 
न्तर मयं गच्छंश्चौरान्पदयत्य्िं लद्रुयति कण्टकान्मृद्राति ॥ 

इदेव्वितस्यापि कर्मसंज्ञारभ्वते ऽनीप्मितस्यापि । यदिदानीं नेवेष्सिते नाप्यनी- ` 
त्सिते तत्र कथं भवितव्यम्‌ । मामन्तरमयं गच्छन्वृत्तमृलान्युपसपेति कुदमला- 20 
न्युपसपेतीति | अत्रापि सिद्धम्‌ । कथम्‌ | अनीस्सितमिति नायं प्रसज्यप्रतिषेध 
हैस्सितं नेति । किं तर्हि. पयुदासोऽयं यदन्यदीप्सितात्तदनीप्सितमिति । अन्यक्चै- 
तदीप्सितादयद्निषेष्वितं नाप्यनीप्सितमिति ॥ 


अ य 


अकथित ध ॥२१ ।४।५९ ॥ | 
केनाकथितम्‌ | अपादानादिभिर्विशचेषकथाभिः ॥ किमुदाहरणम्‌ | ` % 





६९४ ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम्‌ ॥ [०१४ 


इाहियाचिरुधिप्रिभिक्षिचिजापुपथोगनिमित्तमपूर्वविधौ । 
ब्रुविशासिगुणेन ख यत्सचते तदकपीर्मितमराचरितं कविना ॥ 


दुहि । गां दोश्धि पयः ॥ तैतदस्ति | कथितात्र पुर्वापादानसंज्ञा* । इहि॥ 
याचि । इदं तर्हि | पौरवं गां याचत इति || नैतदस्ति | कथितात्ापि पूर्व पादानतं्ञा' | 
` 5न याचनदिवापायो भवति | याचितो ऽसौ यरि ददाति ततो ऽपायेन युज्यते | याचि 
रुषि | अन्ववरुणद्धि गां व्रजम्‌ || नैतदस्ति | कथितात्र प्वौपिकरणसंज्ञां | 
रुधि ।| प्रच्छि | माणवकं पन्थानं पृच्छति || बैतदस्ति | कथिताच्र पूवौपादान- 
संज्ञा || न प्रश्रादेवापायो भवति | पृष्टो ऽसौ यद्याचष्टे ततो ऽपायेन युज्यते | 
मच्छि || भिक्षि | षीरवं गां भिक्षते | नैतदस्ति | कथितात्र पुवौपादानसंज्ञा* || न 
10 भिन्ञणादेवापायो भवति | भिक्षितोऽसौ यदि ददाति ततो ऽपायेन युज्यते | मिति | 
चिञ्‌ । वृक्षमवचिनोति फलानि || नैतदस्ति । कथिताश्च पूर्ापादानसंज्ञा* ॥ 
तुविश्चासिगुणेन च यत्सचते तदकीर्तितमाचरितं कविना | त्रुविश्चासिगुणेन च 
यत्सचते संबध्यते. तचयोदाहरणम्‌ । किं पुनस्तत्‌ । पुत्रं ब्रृते धर्मम्‌ | पुत्रमनुशासिं 
धर्ममिति || तैतदस्ति | कथितात्र पूवा संप्रदानसंज्ञा || तस्मान्नीण्येवो दाहरणानि | 
15 कौरवं गां याचते | माणवकं पन्थानं पृच्छति | वीरवं गां भिक्षत इति ॥ 
अथ ये धातूनां हिकर्मैकास्तेषां किं कथिते लादयो9 भवन्त्याहोस्विदकथिते | 


कथिते लादयः || कथिते लादिभिरभिदहिते गुणकमेणि का कतेव्या | 
कथिते लादयशश्वेस्स्युः षष्ठीं कुयात्तदा गुणे । 
कथिते लादयधेस्स्युः षष्ठी गुणकर्मणि तदा कतेव्या | दुह्यते गोः पयः । य- 
20 च्यते पौरवस्य कम्ब इति. || कथम्‌ | 
भकारकं दयकथितत्वात्‌ 
कारकं द्येतद्धवति । किं कारणम्‌ । भकयथितत्वात्‌ ॥ 


कारकं चन्त नाकथा । 
अथ कारकं नाकथितम्‌ | अथ कारके सति का कतैव्या | 
2४ कारकं चेद्धिलानीयादा यां मन्येत सा भवेत्‌ ॥ 


कारकं चेद्दिजानीयाद्या या भ्रामोति सा सा कतिष्या | दुद्यते गोः पयः । या- 
च्यते पौरवात्कम्बल हति || 


# ९.४.२४. † १.४.४५. { ९.४.२२. § ३.४.६९ 








पा०. ९.४.५९. | ॥ भ्थाक्ररणमहाभाष्यम ।। ३३५ 


कथिते ऽभिहिते त्वविधिस्वमति्गुगकमंणि खारिविषि.्षपरे । 
कथिते लारिमिरभिरहिते त्वविधिरेष भवति | किमिदं त्वविधिरिति | तव वि- 
पिष्त्वविधिः | स्वमतिः | किमिदं च्वमतिरिति | तव॒ मतिस्त्वमतिः | त्रैवम- 
न्ये मन्यन्ते || कथं तर्हन्ये मन्यन्ते | गुणकमेणि कादिविधिः सपरे | गुणकमेणि 
लादिविधयो भवन्ति सह परेण योगेन | गतिबुद्धिप्रत्यवसानाथशब्दकमाकर्मकाणा- 
मणिक्रतौ स णौ [ १.४.५२९ ] इति ॥ | 
धुवचेदितयुक्तिषु चाप्यगुणे तदनस्पमतेर्व चनं स्मरत ॥ 
धु्रयुक्तिषु चेशितयुक्तिषु चाप्यगुणे कमणि लादयो भवन्ति | एतदनल्पमतेरा- 
चायैस्य वचनं स्मयताम्‌ || 
अपर आह |. | 10. 
प्रधानकर्मण्याख्येये लादीनाहर्दिकर्मणाम्‌ । ` 
प्रपानकममेण्यभिेये हिक्मणां धातूनां कर्मणि कादयो भवन्तीति वक्तव्यम्‌ | 
अजां नयति च्रामम्‌ | भजा नीयते भामम्‌ | अजा नीता याममिति || 
अप्रधने दुहादीनाम्‌ 
अप्रधाने दुहादीनां क्मेणि कादयो भवन्तीति वक्तव्यम्‌ | दुह्यते गौः प्रयः ॥ 15 
| ण्यन्ते कश्च कर्मणः ॥ 
कादयो भवन्तीति वक्तव्यम्‌ | गम्यते देवदत्तो मामं यज्ञदत्तेन || 
के पुनधीतुनां हिकमेकाः | 
` नीवद्योहरतेश्वापि गत्यर्थानां तथैव च । ` 
दिकमेकेषु ग्रहणं तरषटव्यामिति निश्वयः॥ 20 
जां नयति चामम्‌ | भारं वहति भ्रामम्‌ | भारं हरति सामम्‌ | गत्यथ- 
नाम्‌ | गमयति देवदत्तं मामम्‌.। यापयति ` देवदत्तं पामम्‌ ॥ 


छ 


सिद वाप्यन्यकर्मणः। 
सिद्धं वा पुनरेतद्भवति | कुतः । अन्यकमेगः । अन्यस्यात्राना कमौन्यस्य 
मामः । भजामसौ गृहीत्वा भ्रामं नयति | 5 
अन्यकर्ति चेद्रुयालादीनामविधिर्मवेत्‌ ॥ 


अन्यकमति चेद्भूयाष्टादीनामविधिरयं भवेत्‌ । अजा नीयते ब्राममिति । परसा- 
धन उत्पश्यमानेन लेनाजाया अभिधानं न प्रामोति | 


३३ ॥ व्याकरणयहाधाष्यय्‌ ॥ [मण ९.५.. 


कारभावाध्वगन्वन्याः. कयंसंज्ञा दयंकर्मणायः-।. 
कालभावाध्वगन्तव्या अकर्मकाणां धातूनां कर्मसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम्‌ | 
काल | माखभास्ते | मासं स्वपिति | भाव | गोदोहमास्ते । गोदोहं स्वपिति | 
अध्वगन्तव्य | क्रोशमास्ते | क्रोशं स्वपिति | देराधाकर्मणां कमेसंक्नो भवतीति 
5 वक्तव्यम्‌ | कुरून्स्वपिति । पत्चालान्स्वपिति ॥ 
विपरीतं व यत्कमं तत्कल्मे कवयो विदुः ॥ 
किमिदं कल्मेति | अपरिक्षमाप्रं कमै कल्म | न वा अस्मिन्सवोणि कर्मका- 
याणि क्रियन्ते | कि तर्हिं | हितीयैव ॥ 
यध्मिस्तु कमेण्युपजायते ऽन्यद्धास्वथेयोगापि च यत्र ष्ठी | 
10 तत्कर्म कल्मेति च कल्म नोक्तं धातोर्दि वृत्तिने रवक्वतो अत्ति || 
एतेन क्बसंजञा सवौ तिद्धा भवस्यकयितेन । ` 
तत्रेप्ितस्य किं स्याखयोजनं कर्मसंज्ञायाः | 
यत्त॒ कथितं पुरस्तादीत्सितयुक्तं च तस्य सिद्यर्थम्‌ | 
हैप्तितमेव तु यद्स्यात्तस्य भ॑विष्यत्यकथितेन ॥ 
75 अथेह कथं भवितव्यम्‌ । नेताश्वस्य सुप्रमिति | आहोस्विच्तेताश्वस्य सुप्रस्येति । 
उभयथा गोणिकापृ्रः ॥ 


गतिबुटि प्र्यवंसानार्थशब्दकंमौकमेकणामणिकर्तौ 
सणो॥९।४।५२॥ 


हाम्दकार्मेति कथमिदं विज्ञायते | शाब्दो येषां क्रिमरेति [ आहोस्विच्छब्दो येषां 
20 कर्मेति । कथचात्र विद्धोषः | 


दाब्दकर्मनिर्दशो शब्दक्रियाणामिति चेदूयस्थीदीमां प्रतिषेधः ॥ ९॥ 
शभ्दकमेनिर्द शे शब्दक्रियाणामिति चेद्धुयत्यादीनां प्रतिषेधो वक्तैध्यः | कै 
पनहेयत्यादयः | हयति क्रन्दति शब्दायते ॥ इयति देवदन्तः । हाययति देवद 
न्तेन ।॥। क्रन्दति देवदत्तः । क्रन्दयति देवदत्तेन ॥ दाभ्दायते देवदत्तः | शब्दाय तति 
४ देवदत्तेनेति ॥ | ,. 





फ़ १,४.५२. ] ` ॥ ष्वाक्रणमहाभाष्वम्‌ ॥ ३ ३७ 


गृणोत्यादीनां चोपरसंख्यानमराब्दक्रि यत्वात्‌ ॥ ‰ ॥ 

. शुणोत्यादीनां चोपलंख्यनं करतैव्यम्‌ । के पुनः श्यृणोत्यादयः | शुणोति विजा- 
नाति उपलभते || शृणोति देवदतः | भ्रावयति देवदत्तम्‌ | विजानाति रेत्रदत्त। 
विज्ञापयति देवदत्तम्‌ || उपलभते देवदत्तः | उपलम्भयति देवदतम्‌ ॥ किं पुनः 
कारणं न सिध्यति । अश्चब्दक्रियत्वात्‌ || 5 
अस्तु तरि शब्दो येषां कर्मेति | | । 

शब्दकमेण इति चेज्जल्पतिपभृतीनामुपसंख्यानम्‌ ॥ ३ ॥ ` .. 
शम्दकमेण इति चेज्जल्पतिप्रभृतीनामुपसं ख्यानं कतेष्यम्‌ | के पुनजैर्पतिप्रभू- 
तयः ¡ जल्पति विलपति भाभाषते || जल्पति देवदतः । जल्पयति देवदत्तम्‌ || विक- 
पाति देवदत्तः | विलापयति देवदत्तम्‌ || आभाषते देवदत्तः | आभाषयति देवदतम्‌ ।| 10 
दृः सर्वत्र ॥ ४ ॥ 
कृदोः स्त्रोपसंख्यानं कतैष्यम्‌ । परदयति रूपतर्कः काषौपणम्‌ । ददौयति 
रूपतर्कं कार्षापणम्‌ || 
 अदिखादिनीवहीनां प्रतिषेधः | ९«॥ 
अदिखादिनीवहीनां प्रतिषेषो वक्तव्यः || अत्ति देवदत्तः | दयते देवदत्तेन ||1; 
अपर आह । सर्वमेव प्रत्यवसानकार्यमदेभै भवतीति वक्तव्यं परस्मैपदमपि" । हद- 
मेकमिष्यते क्तो अधिकरणे च प्रौव्यगतिप्रत्यवसानार्थभ्यः | ३.४.७६ | । इदमेषां 
जग्धम्‌ | खादि । खादति देवदत्तः । खादयति देवदत्तेन || नी | नयति देवद- 
तः | नाययति देवदत्तेन ॥ 
वहेरनियन्तृकर्तृकस्य || ६ ॥। 20 
वदेरमियन्तृकर्तृकस्येति वक्तव्यम्‌ | वहति भारं देवदत्तः | वाहयति भारं दे- 
वदत्तेन || अनियन्तुकरमकस्येति किमर्थम्‌ | वहन्ति यवान्बलीवदौः `| वाहयन्ति 
बली वर्दान्यषान्‌ ॥ 





भक्षेरहिंसा्थस्य ॥ ७ ॥ 
भक्षेरर्हिसाथस्येति वक्तव्यम्‌ । भक्षयति पिण्डीं देवदन्तः } मक्षयति पिण्डीं दे: 
वद्रसेन | अर्हिसार्थस्येति किमर्थम्‌ | भक्षयन्ति यवान्बलीवर्दाः | भक्षयन्ति ब- 
लीवदोन्यवान्‌ | 


.* ९,२.८५. 
43 ज 





३३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥  [म० ९.५.३. 


अक्मकग्रहणे कालकमैकाणामुचसंख्यानम्‌ ॥ ८ ॥ 


भकमेक प्रहणे कालकमेकाणामुपसंख्यानं कतेष्यम्‌ ]| मासमास्ते देवदत्तः | मा- 
समासयति देवदत्तम्‌ ॥| मासं शेते देवदत्तः | भासं शाययति देवदत्तम्‌ ॥ 
सिद्धं तु कालकर्मणामकर्मकवदचनात्‌ ॥ ९ ॥ 

५ सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | कालकर्मका अकर्मकवद्भवन्तीति वक्तव्यम्‌ || त्तर व 
क्तष्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | अकमेकाणाभिस्युच्यते न च केचित्कदाचित्कालभावाध्व- 
भिरकर्मेकाः | त एवं विज्ञास्यामः | कचिथे ऽकर्मका इति || अथवा येन कर्मणा 
सक्मकाथाकमेकाथ भवन्ति वेनाकमेकाणां न. चैतेन कमणा क्चिदव्यकर्मकः || 
मथवा यत्कर्म भवति न च भववि तेनाकर्मकाणां न चेतत्कमे क्रानिदपि न भवति | 


10 हक्रोरन्यतरस्याम्‌ ॥ १. । ¢ । ५२. ॥ 


हक्रोवावचने अभव दिदृरोरस्मिनेषद उपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥ 
हक्रोषोवेचने अभिवादेदखोरात्मने१द उपसंख्यानं कतेव्यम्‌ || अभिवदति गुरं 
देवदन्तः | भाभिवादयते गुरं देवदत्तम्‌ | भमिवादयते गुर देवदत्तेन || परयन्ति 
भृत्या राजानम्‌ | रशोयते मृत्यान्नाजा | ददहौयते भूत्यै राजा || कथं बनत्रास्मने१- 
15 दम्‌ । एकस्य गेर्णी. [९.३.६७] इति । भफ्रस्य णिच्श्च. [१.३.७४ | इति ॥ 


स्वतन्वः कता ॥ १ । 9 । ५४ ॥ 


, .क्रिं. चस्य स्व तन्त्रं स स्वतन्तः | फ चातः | तन्तुवाये प्राभोति | नैष रोषः | 
अयं तन्त्राष्दो ऽस्स्येव विताने वर्तते | तश्चथा । जास्ती तन्त्रम्‌ । प्रोतं तन्त्रम्‌ |. 
वितान इति गम्यते | अस्ति प्राधान्ये बतते | त्यया | स्वतन्त्रो. ऽसौ ब्राह्मण ई- 

20 त्युच्यते स्वभरधान इति गम्यते | -तद्यः प्राधान्ये वर्तते तन्तशभ्दस्तस्येदं हणम्‌ ॥ 


 - ` .स्वतन्स्य कर्तसंन्ायां हेतुमव्युपसंख्यानमस्वतन्त्त्वात्‌ ॥ ९॥ : 


स्वतन्त्रस्य कत संज्ञायां हेतुमल्युपसं ख्यानं, कतैव्यम्‌ | पाचयत्योदनं रेषदसो 
यश्ञदत्तेनेति* | किं पुनः कारणं न ध्यति । अस्वतन्तरस्वात्‌ ॥ 





#२. ३. ९८० 














पौ ° ९. ४.५३-५५. | ॥ व्याकरणयह भाष्यय्‌ ॥ -३३९ 


न वा स्वातन्ल्यादितरया ह्यङु वेत्यपि कारयतीति स्यात्‌ ॥ २ ॥ 

न वा कर्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | स्वातन्त्यात्‌ । स्वतन्त्रोऽतौ भवति | इतरथा 
दयक्‌ वैस्यपि कारयतीति स्यात्‌ | यो हि म॒न्यते न्सौ स्वतन्त्र ऽकवैत्यपि तस्व 
कार यतीव्येतस्स्यात्‌ || | 
| नाकु वतीति चेत्स्वतन्लः ॥ ३ ॥ ` | ४ 

न चेदकुरवति तस्मिन्कारयतीस्येतद्वति स्वतन्त्रोऽपतौ भवति | शक्यं तावदने- 
नोपसंख्यानं कुवेता वक्त कु वेन्स्थतन्त््रे ऽकुवेत्तेति । साधीयो ज्ञापकं भवति | प्रेषिते 
च किलायं क्रियां चाक्रियां च दृषटाध्यवस्यति कुवैन्स्ववन्तरो -करुयेननेति यदि -च 
प्रेषितो ऽतौ न करोति. स्वतन्त्रोऽतौ भवतीति ॥ 


तसयोजको हेतुश्च ॥ १. । ४ 1 ५५ ॥ 0 


प्रेषे ऽस्वतन्लप्रयोजकस्वादेतुसंज्ञाप्रसिदिः॥ ९॥. ` 

त्रेषे ऽप्वतन्त्रप्रये जकस्वाद्धेतुसंञ्चया भप्रसिडिः | -स्वतन्तप्रयोजको देतुसंशो 
भवतीस्युच्यते न चासी स्वतन्त्रं प्रयोजयति || स्वतन््त्रास्सिद्धम्‌ । सिडधमेतत्‌ । 
कथम्‌ | स्वतन्त्रत्वात्‌ | स्वतन्त्रमसौ प्रयोजयति । | 

स्वतन्लत्वास्सिद्मिति चेत्स्वतन्बरपरतन्त्त्वं विम्रतिषिद्धम्‌ ॥ २॥ 5 

यरि स्वतन्त्रो न प्रयोज्यो ऽय प्रयोज्यो न स्वतन्त्रः प्रयोज्यः स्वतन्तलधेति 
विप्रतिषिडम्‌ ॥ | 

उक्तं वा ॥ ३॥ 

किमुक्तम्‌ | एकं तावदुक्तं न वा स्व्रातन्स्यादितरथा द्यकुवेत्यपि कारयतीति 
स्यादिति । अपरमुक्तं न वा सामान्यङृतत्वादेतुतो द्यविशिष्टं स्वतन्तप्रयोजक~- 20 
त्वादप्रयोजक इतिं चेन्मुक्तर्सद्रायेन तुल्यमिति! || 
`इति अ्रीमगवत्पतञ्जटिविरविते ` व्याकरणमहामाष्ये प्रथमस्याध्यायस्वं चतुय 
पादे तुतीयमाद्धिकम्‌ | ` 





# ५.४.५४५. ¶ ३.१. २६९५. 


` ६४० ॥ ध्याकरनपरहामाष्वम्‌ ॥ `  [म०९.४.४ै. 


प्रा्रीश्चराननिपाताः ॥ ९ ।४।५६ ॥ 


` ` " किमथे रेफापिक हैश्वरशब्दो गृष्यते | 
री-्वराद्रीश्वरान्मा भत्‌ 
रीशरादि्युच्यते वीशरान्मा भूत्‌ । हाकि णमुल्कमुलावीश्वरे तो ्न्कखनौ 
£ [३.४.९२;९ दे | हति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | जा चा यैप्रवृ्िर्ञापयत्यनन्तरो य 
हेर शब्दस्तस्य महणमिति* यदयं कृन्मेजन्तः [९.१.३९] इति कतो भान्तस्यै - 
-जन्तस्य चाव्ययसंज्तां शास्ति ॥ - _ 
कुन्मेबन्तः परो ऽपि सः । 
परो ऽप्येतस्मात्कृन्मान्त एजन्तास्ति। तदर्थमेतस्स्यात्‌ || यत्तद्व्ययीभावस्या- 
10 व्ययसंज्ञां शासि तज्ज्ापयत्यानार्यो ऽनन्तरो य दश्वरद्म्दस्तस्य महणमिति || 
समासेष्वव्ययीभावः 
समासस्थैतञ्ज्ञापकं स्यात्‌ | अव्ययीभाव एव॒ समासो व्ययसंश्ञो भवति 
मान्य इति || एव॑ तर्हि लोकत एतस्सिदधम्‌ । तद्यथा । लोक 
आ वनान्तादोरकान्तासियं पान्थमनुव्रजेरिति ` 
15 य एव प्रथमो वनान्त उदकान्तंथा ततो भुव्रजति || 
लोकिकं चातिवतते ॥ 
हितीयं च तृतीयं च वनान्तमुदकान्तं वानुत्रनति ॥ तस्माद्रेफाधिक हैश्वर- 
राम्दो भ्रहीतव्यः || 
अथ प्राग्वचनं किमथम्‌ | 
20 प्राग्वचनं संज्ञानिवृत्यर्थम्‌ || ९ ॥ 
भागव चनं क्रियते निपातसंज्ञाया अनिवृत्तियेथा स्यात्‌ | अक्रियमाणे हि प्राग्ब- 
चने ऽनवकाशा गस्युपसगेकमेप्रवचनीयसंज्ञा निपातसंज्ञा वाधेरन्‌ । ता मा वाभि- 
धतेति प्राग्वचनं क्रियते || अथ क्रियमाणेऽपि प्राग्वचने यावतानवकादा एताः संज्ञाः 
कस्मादेव न वाधन्ते | क्रियमाणे हि प्राग्वचने सत्यां निपातसंज्ञायामेता भवयवसंश्ा 
25 भारभ्यन्ते त्र वचनात्समावेश्चो भवति || 


~ 


# ९.४. ९७, † ३.५.९४; २५. { १.१, ४९, 








१० ९.४.५६-५९.] ॥ व्याकरणमहामाष्वयं 1 . ४९ 


चादयो ऽसे ।॥। १ । 91 ५.॥ 


भयं सद्वदाष्यो ऽस्वयेव उव्यपदायकः ] तद्यथा | सत्वमथं ब्रह्मणः | सत्व 
भियं ब्राह्मणीति | भसति क्रियापदाथेकः | सदावः सश्वमिति | कस्ये हणम्‌ | 
व्यपदाथेकस्य | कत एतत्‌ | एवं हि कृत्वा विधिश सिद्धो भवति प्रतिषेधश्च || 
किं पुनरयं पयुदासः । यदन्यत्सस्ववचनादिति | आहोस्ित्मसज्यायं प्रतिषेषः | -5 
सतत्ववचने नेति | किं चातः | यदि पयदासो विप्र॒ त्यत्रापि प्रामोति | क्रिया- 
द्रभ्यवचनो ऽयं संघातो दव्यादन्यश्च विधिनाभ्रीयते | अस्ति च प्रादिभिः सामा- 
न्यमिति कृत्वा तदन्तविधिना * निपातसंन्ना प्रामोति ॥ अथ प्रसज्यप्रतिषेधो न 
दोषो भवति || यथा न दोषस्तथास्तु | 


प्रादय उपसगाः क्रियायोगे ॥ १ । 9 । ५८-५५९, ॥ 10 


प्रादय इति योगविभागः ॥ ९ ॥ 
प्रादय इति योगविभागः कतेव्यः | प्रादयो ऽघह्ववचना निपातसंज्ञा भषन्ति | 
तत उपसर्गाः क्रियायोग हति ॥ किमर्थो योगविभागः | 
निपातसंज्ञाथः | २ ॥ 
निपातसंशा यथा स्यात्‌ ॥ 15 
एकयोगे हि निपातसंज्ञाभावः ॥ ३ ॥ 
एकयोगे हि सति निपातसंज्ञाया अभावः स्यात्‌ | यस्मिन्नेव विदोषे. गव्युपस- 
गैकर्मप्रव चनीयसंज्ञास्तस्मिन्नेव विशेषे निपातसंज्ञा स्यात्‌ ॥ ऊ 
मरच्छब्दस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ४ ॥ 
मरुच्छब्दस्योपसंख्यानं कर्तष्यम्‌ । मरुतो मरुत्तः । भच उपसगात्‌ 9 
[ ७.४.४७ | इति तत्वं यथा स्यात्‌ || 


अच्छन्दस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ५ ॥ 
अ्रच्छम्दस्योपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । ज्रदधा† || 





* ९,,६. ७२. . † ३.३.९०६. -. 


+ ॥ व्याकरणप्रहाभाष्वय ॥... ` , ` [मम ९.४.४ 


, गतिश्च ॥ ९.।४७।६० ॥ 


कारिकादाब्दस्य ॥ ९ ॥ 
कारिकाराब्दस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ । कारिकाकृत्य" ॥ 
पुनश्नसो छन्दसि ॥ २॥। 
5 पुनथनतौ छन्दसि गतिसंजञौ भवतं इति वक्त्यम्‌ | पुनरत्स्य॒तं† वासो देयम्‌ । 
पुनर्मिष्कृतोः रथः । उश्िग्दूतथनोहितः $ ॥। 
गव्युपसगसंज्ञाः क्रियायोगे यक्करियायुक्तास्तं प्रतीति वचनम्‌ | ३॥ 
गत्युपसगे संज्ञाः (क्रियायोगे यक्करियायुक्तास्तं प्रति गस्युपसभसंज्ञा भवन्तीति वक्त- 
घ्यम्‌ || किं प्रयोजनम्‌ | | 
10 . . भ्रयोजनं घञ्चस्वणत्वे ।|. ४ ॥ 
घञ्‌ | प्रवृद्धो भावः प्रभावः | भनुपंसे इति प्रतिषेधो मा भृत्‌4 || षत्वम्‌ | 
विगताः सेचका भस्माद्भामाद्िसेचको याभः | उपसरगांरिति षत्वं मा भृत्‌ ` || णत्वम्‌ | 
प्रयता नायका भस्माद्रामालनायको भरामः | उपसर्गारिति णवं मा भत्‌†1 ॥ 
वृद्धिविधौ च धातुग्रहणानथैक्यम्‌ ॥ ५ ॥ 
15 वृद्धिविषौ च धातुमरहणमन्थंकम्‌ । उपसलगौदूति धातौ [ ६.१.९९ ] इति | तत्र 
धातम्रहणस्थैतस्मयोजनामिह मा भूत्‌ प्रषभं वनमिति | (क्रियमाणे चापि धातुग्रहणे 
` प्रच्छैक इत्यत्र प्राभोति | यक्कियायुक्तास्तं प्रतीति वचनाच्च भवति || ` 
बहिधिनस्मावाबीत््वस्वाङ्गादिस्वरणत्वेषु दोषो भवति | वदिधि‡* | यदुदतो 
निवतो याति. बप्तत्‌ । बिधि || नस्माव$9 | प्रणसं मुखम्‌ । उच्रसं मुखम्‌ | 
20 नस्भाव || भवीत्त्व¶¶. | प्रेपम्‌ परेपम्‌ | भवीत्त्व || प्वाङ्गादिस्वर*°* | प्रस्िक्‌ 
मरोदरः । स्वाङ्गादिस्वर || णत्व111 । प्र गः भूद्रः प्र ण भाव्यैः प्रणो राजाप्र 
णो वृत्रहा || उपघ्गौरित्येते विधयो न परापुवन्ति ॥ 
वदिधिनस्भावाबीच्वस्वाङ्गादिस्वरणववेषु वचनपामाण्यास्सिद्धम्‌ ॥ ६ ॥ 
अनवकादा एते विधयस्ते वचनपरामाण्यादविष्यन्ति || ` ` 
, # १,२.१८ ०.१.३०. †२.२,१८.. [८.१.७० § ६.२. नकर ९५१२. ७ 1२.९८. [९.०  इस्र् ५ बस्य ब २.२.२५. 


(नन ८.३.६५. 1 ८.४.९४, {{ ५.९.९९८. 55 ९.४.९९९. बृषु ६.२.९१ 
# क ६.१, १,७७. - 411 <.*.२<८. 











प° ९.४.६९ ०-६२. ] ॥ व्यौकरणपहायाष्यम ¶# `" १७९३ 


सुदुरोः प्रतिषेधो नुम्विधितत्वषस्वणस्वेषु ॥| ७ 1 ` 

उदुरोः प्रतिषेधो नुर्विधितस्वषत्वणस्वेषु वक्तव्यः || नुम्विधि | छरभम्‌ दुरं ~ 
भम्‌ | 9 समौदिति नुम्मां भूदिति । न छदुभ्यौ केवलाभ्याम्‌ [७.१.६८ | हव्ये 
तन्न वक्तीव्यं भवति || नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । क्रियत एतन्रयास एव || तत्वम्‌ | 
सुदत्तम्‌ | अच उपक्चगात्तः | ७.४.४७ | हति तत्वं मा भूदिति ॥ षत्वम्‌ । सिक्तं 5 
घट शतेन । खस्तुतं धोक शतेन | उपसगीदिति षत्वं मा भूदिति | जः पुजायाम्‌ 

| १.४.९४ | इत्येतन्न वक्तव्य भवति || तैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । क्रियत एतञ्यास 
एव || णत्वम्‌ | दु्ैेयम्‌ दुर्नीतमिति । उपसगोदिति णत्व मा भूदिति ॥ 


ऊयादिचिडाचश्च ॥ २. । ७। ६९. ॥ 


कभ्वस्तियो ग इति वक्तव्यम्‌ | इहैव यथा स्यात्‌ | ऊरीकृत्य उरीभूय । इह 10 
मा भूत्‌ | ऊरी प्ता || तन्तं वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । क्रियायोग इत्यनु- 
वतेते न चान्यया क्रिययोयादिच्चिडाचां योगो स्ति ॥ 


अनुकरणं चानितिपरम्‌ ॥ १. । 9 । ६२ ॥ 


कथमिदं विज्ञायते | इतेः परमितिपरम्‌ न इतिपर मनितिपरमिति | आहेस्विदितिः 
चरो यस्मान्तदिदमितिपरम्‌ न इतिपर मनितिपरमिति || किं चातः | यदि विज्ञायत 15 
हतेः परमितिपरम्‌ न इतिपरमनितिपरमिति खाडिति कृत्वा निरष्षीवदिर्यन्र प्रभोति | 
अथ विज्ञायत इतिः परो यस्मात्षदिदमितिषरम्‌ म. हतिपरमनितिपरमिति ज्रौषडौष- 
डिति कृत्वा निरक्षी वदिव्यत्र प्राभोति || अस्तु तावदितिः परो यस्मा्षदिदमितिपरः 
म्‌ न इतिपरमनितिपरमिति । ननु चोक्तं भ्रौषङौषडिति कत्वा निरष्ठीवदिस्यन्र पा- 
मओोतीति | नैष दोषः | इदं तावदयं प्रष्टव्यः ¡ अथेह ते प्राग्धातोः [ १.४.८० | 20 
इति कथं गतिमात्रस्य पूर्वप्रयोगो भवति | उपोद्धरतीति | गत्याकृतिः प्रतिनिर्दि- 
इयते | इहापि तद्यनुकरणाकृतिर्िर्दिरयते ॥ 

किमथेमिदमुच्यते | 

अनुकरणस्येतिकरणपरस्वपतिषेषो अनिषटशभ्दनिवृत््यर्थः ॥ ९ ॥ 

अनुकरणस्येतिकरणपरस्वप्रतिषेध उश्यते | द्रि भरयोजनम्‌ | अनिष्टज्म्दभिवु- 25 


# ०,९.६०. - ‡ ८.३.६९. {८.४, 2४, ९९.४.५९. . 





३४४ ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ ।॥ ` ` [०१.४४ 


स्यथेः | अनिषटदाष्दतां मा भूदिति `| हदं विचारयिष्यति तेप्राग्धातुवचनं प्रयोग- 
नियमाय . वा स्यास्संज्ञानियमा्थे वेति“ | तद्यदा प्रयोगनियमे तदानिषटशम्दनि- 
वृत्त्यथेमिदं वक्त भ्यम्‌ । यदा हि संज्ञानियमाये तदा न दोषो भवति ॥ 


आदरानादरयोः सदसती ॥ १. । ¢ 1 ६२३ ॥ 


४ इदमतिबहू क्रियते आदरे अनादरे सत्‌ असदिति । भआदरे सदित्येव सिद्धम्‌| 
कथमसककृत्येति । तदन्तविधिना भविष्यति! | केनेदानीमनादरे भविष्यति | नबा- 
दरप्रतिषेधं विज्ञास्यामः | नादरे ऽनादर इति || नैवं शक्यम्‌ । भआादरमसद्गः 
एव हि स्यादनादरप्रसङ्गे न स्यात्‌ | अनादर यणे पुनः क्रियमाणे बह व्रीहिरयं विज्गा- 
यते । अविद्यमानादरे ऽनादर इति । तस्मादनादर महणं कतेव्यमखतस्तु॒तदन्त- 

10 विधिना तिद्धम्‌ ॥ | | 


अन्तरपरिय्रहे ॥ १.। 9 । ६५५ ॥ ` 
अन्तः शाब्दस्याह्िविषिसमाखणव्वेषूपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥ 
. भन्तः शब्दस्याह्धिविधिसम।सणस्वेषुपसंख्यानं कतेध्वम्‌† | अङ्‌ | अन्तथो ॥ 
~ किविषिः । अन्तर्धिः || समासः । भन्तरैस्य || गस्वम्‌ । अन्तदैण्या भ्यो गाः ॥ 


15 - घाक्षाव्मभृतीनि च ॥ २. । © । ॐ ॥ 


साक्षास्मभृतिषु च्व्यर्थवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 
खाक्षाखमृतिषु॒च्वयर्थग्रहणं कर्तष्यम्‌ । भसाक्षात्साक्षात्कृत्वा साक्षाकृत्य । 
यदा हि. सक्ादेव किंचित्क्रियते तदा मा भूदिति ॥ 
मकारान्तत्वं च गतिसज्ञासंनियुक्तम्‌ | ५॥ 
20 मकारान्तत्वं च गतिसंज्ञासंनियोगेन वक्तव्यम्‌ । लवणंकृत्य || 
तंत्र च्विपरततिषिधः॥ ३॥ 
तग्र श््यन्तस्यः प्रतिषेषो भक्तव्यः | ठंवणीकृत्य ॥ 
--ग्पण्व्म कर्म करर स्प.पस्छरस् ८२.१५१ 








पा०.१.४.६३-८०,] ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ , २३८४५. 


न वा पूर्वेण कृतत्वात्‌ ॥ ४ | 


नं वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | पूर्वेण कृतत्वात्‌ । अस्त्वनेन विभाषा पुर्वे - 
ण^+ निरयो भविष्यति ॥ इदं ता प्रयोजनम्‌ | मकारान्तत्वं च गतिसंज्ञासंनियक्त- 
मित्युक्तं तू्यन्तस्य मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | रवणशब्दस्यायं 
विभाषा लवणंशब्द आदेशः क्रियते । यदि च रवणीराब्दस्यापि विभाषा .कवणं- 5 
शब्द आदेशो भवति न रकिचिहुष्यति | तरैशम्थं वेह साध्यम्‌ । तच्चैवं सति सिद्धं 
भवतीति | | 


ते प्राग्धातोः ॥९।। ८० ॥ 


किमिदं प्रागधातुवचनं प्रयोगनियमाथम्‌ | एते प्रागेव धातोः प्रयोक्तव्याः । 
आहोस्विस्संज्ञानियमा्थम्‌ | एते प्रक्ाप्राकरु भयोक्तव्याः प्राक्मयुज्यमानानां गति- 10 
संज्ञा भवतीति | कात्र विदोषः । 


भराग्धातुवचनं प्रयोगनियमायभिति चेदनुकरणस्येतिकरणपरमरतिषेधो 
निष्टकाब्दनिवृत्ययेः || ९॥ 


प्रागधालुवचनं प्रयोगनियमाथेमिति चेदनुकरणस्येतिकरणपरप्रतिषेधो वक्तव्यः! | 
कि प्रयोजनम्‌ । अनिष्ट शाष्दानिवुच्यथेः | अनिष्ट शब्दता मा मृदिति || 15 


छन्दसि परव्यवहितवचनं च | ‰॥ 
छन्द्ति परेऽपि व्यवहिता [१.४.८९८ ९] इति वक्तव्यम्‌ | 
संज्ञानियमे सिद्धम्‌ | २ ।। 
सं्ञानियमे सिद्धमेतद्धव्रति । अस्तु तर्हि संज्ञानियमः || 
उभयोरनर्थकं वचनमनिष्टादरोनात्‌ |॥ ४ ॥ 20 
उभयोरपि पक्षयोर्वैचनमनर्थकम्‌ । किं कारणम्‌| अनिषददीनात्‌ | न हि कथि- 


[१ क 


त्पमपचतीति प्रयो क्त्ये पचतिपरेति प्रयुङ्के । यदि चानिशं दृदयेत ततो यलाहं स्यात्‌ || 


, , # १,५४.६१. { २.४.६२. 
44 ता 


६४६ ॥ व्याकरणयरहाभाष्यपः॥ [ म०९.४.४. 


उपसजेनसंनिपाते तु पवपरण्यवस्थाथम्‌ ॥ ५ ॥ 


` उपखजेनसंनिपाते तु पृवेपरब्यवस्थाथमेतदक्तव्यम्‌ | क्षभं कूलमुद्रुजम्‌ | ऋष 
कूलमुद्रहम्‌* | अत्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगे यथा स्यात्‌ || यद्युपसर्जनसंनिपाते 
पुैपरव्य॒वस्थाथामिदमुच्यते कटंकराणि † वीरणानीत्यत्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगः 
5 परामोति | आचयेप्रवृत्तिज्ञौ पयति नात्र गतेः प्राक्भयोगो भवतीति यदयमीषहःसुषु 
कच्छराङ्च्छरार्थेषु खल्‌ [३.३.१२६] इति खकारमनुबन्परं करोति । कथं त्तर 
ज्ञापकम्‌ | वित्करण एतत्योजनं खितीः; मुम्यथा स्यादिति; | यदि चात्र गतेः 
पराक्मयोगः प्यास्वित्करणमनथेकं स्यात्‌ । अस्त्वत्र मुम्‌ | अनग्ययस्येति प्रतिषेधो 
भविष्यति | परयति त्वाचार्यो नात्र गतेः प्राग्धातोः प्रयोगो भवतीति ततः खका- 
10 रमनुबन्धं करोति ॥ नैतदस्ति ज्ञापकम्‌ | यद्यप्यत्र गतेः प्राक्मयोगः स्यात्स्यादेवात्र 
मुमागमः । कथम्‌ | $द्भहणे गतिकारकपूवेस्यापि ब्रहणै भवतीति | तस्मान्ना 
एवमर्थेन प्रारधातुवचनेन || कथम्‌ ऋषभं कुलमुद्रुजम्‌ ऋषभं कूठ मुदम्‌ । नेष 
दोषः । नेष उदिरपपदम्‌ | किं तई | विङेषणम्‌ | उरि कूले रुजिवहोः [३.२.३१ 
उल्यूर्वाभ्यां सुजिवहिभ्यां कूल उपपद इति ॥ 


॥ कर्मप्रवचनीयाः ॥ १. । ¢ । ८२ ॥ 


किमथे महती संज्ञा क्रियते | भन्वथसंज्ञा यथा विज्ञायेत | कम प्रोक्तवन्तः 
कर्मप्रवचनीया इति || के पुनः कमे प्रोक्तवन्तः । ये संमति क्रियां नाहुः | के च 
संप्रति क्रियां नाहुः | ये पयुज्यमानस्य क्रियामाहुस्ते कर्मप्रवचनीयाः || 


अनुरुक्षणे ॥ १. । ४ । ८४ ॥ ` 


20 किमर्थमिदमुच्यते । कर्मभरवचनीयसंज्ञा यथा स्यह्युपसगंसंे मा मूतामिति | 
किं च स्यात्‌ | शाकल्यस्य संहितामनु भरावरष॑त्‌ | गतिगैती [८.१.७०] हति निषा- 
तः प्रसज्येत || यथ्येवं वेरपि कर्मप्रवचनीयसं ज्ञ वक्कव्या | वेरपि निधातो नेष्य- 
ते | प्रादेशं प्रादेशं वि परिलिखति | अस्त्यत्र विदोषः | माश्र वेरं प्रति क्रिवा- 


» ३.२.३९. † ३.३.९११. 1 ९.२.९६६. 





पा० १.४.८२-८९.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ३४७ . 


योगः | किं तर्द | भप्रयुज्यमानम्‌ | प्रादेशं प्रादेशं व्रिमाय धपरिलिखवीति || य्ये- 
वमनोरपि कमे्रतरचनीयसंज्ञया नाथः | अनोरपि हि न वुर्षिं प्रति क्रियायोगः. कि 
तर्द | अभयुञ्यमनम्‌ । शाकल्येन छङृतां संहितामनुनिशम्य देवः प्रावषत्‌ | इदं , 
तर्हि प्रयोजनं दितीया यथा स्यत्कमेप्रवचनीययुक्ते हितीया [२.३.८] इति | भत 
उत्तरं पठति । | ४ 


` अनुलक्षणेवचनानथक्यं सामान्यकृतस्वात्‌ ॥ ९ ॥ 
भनुर्क्षगेत्रचनानथक्यम्‌ । कं कारणम्‌ । सामान्यकृतत्वात्‌ | सामान्ये- 


नैवात्र कमेप्रवचनीयसंज्ञा भविष्यति लक्षणे््थ॑भृताख्यानभागवीप्साञ्च प्रतिपर्यनवः 
[१.४.९० इति ॥ [र _ 
हेत्वथं तु वचनम्‌ ॥ २॥ | 10 

` हेत्वथमिदं वक्तयम्‌. | हेतुः - शाकल्यस्य संहिता वर्षस्य न ठक्षगम्‌ | किं 
वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | लक्षणं हि नाम स भवति येन 
पुनः पुनरेक्ष्यते न यः सङृदपि निभिसत्वाय कर्पते । सकृघासौ शाकल्येन 
खक्ृतां संहितामनुनिराम्य देवः प्रावभैत्‌ || स तर्हि तथा निर्देशः करतैव्यो लुरहेता- 
विति ॥ अथेदार्मी लक्षणेन हेतुरपि श्याप्रो नार्थो न । रक्षणेन हेतुरपि व्याप्तः | 1४ 
न द्य्ररयं तदेव लक्षणं भवति येन पुनः पुनरठश््यते | किं तरद । यत्सकृदपि निमि- 
न्तत्वाय कल्पते तदपि लक्षणं भवति | तद्यथा । अपि भवान्कमण्डलुपाणि शन्त- 
मद्र(तीदिति | सकृदसौ कमण्डलु पणिग्डान्तो दृष्टस्तस्य तदेव लक्षणं भवति || तदेव 
त प्रयोजनं हितीया यथा स्यात्कमेप्रघचनीय युक्ते हितीयेति । एतदपि नास्ति प्रयो- 
जनम्‌ | सिद्धात्र हितीया कमेप्रवचनीययुक्त इत्येव | न सिध्यति | परल्वाद्धेत्वा- 20 
सया तृतीया प्रामोति ॥ 


आङ्यांदावचने ॥ ९. । 9 । ८९ ॥ 


` भाङ्कयांदाभिविभ्योरिति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ | भाकुमार। यश 
पाणिनेरिति ॥ वत्तं वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | मयौदावचन इत्येव सिद्धम्‌ | 
एषास्य यरासो मयादा ॥ ॐ 


= २.३, २३. ¶ २.१. ९०; २,६.९३. 





13 1 व्याकरणमराभाष्यम्‌ ॥ ` [मण १.४.४. 


सक्षणेत्यंभूताख्यानभागवीप्सासु प्रतिपयैनवः ॥ १. । ४.। ९।० ॥ 


कस्य लक्षणादयो ऽथा निर्दिरयन्ते । वृक्षादीनाम्‌ ।| किमथे पुनरिदमुच्यते । 
कर्मप्रवचनीयसंज्ञा यथा स्यादत्युपसरगेसन्े मा भूतामिति । नैतदत्ति प्रयोजनम्‌ । 
यक्कियायुक्तास्तं प्रति ग्युपसगेसंज्ञे भवतो न च वृक्तादीन्प्रति क्रियायोगः || इदं 
5 तर्दि प्रयोजनं द्वितीया . यथा स्वात्कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीया [१.३.८] इति। 
वृकं प्रति विद्योतते । वृक्षमनु विद्योतत इति || 


अपिपरी अनर्थको ।॥ १ । 9 । ९३ ॥ 


 किमथेमपिपर्योरनर्थकयोः कर्मप्रवचनीयसंज्ञोच्यते | कर्मेप्रचनीयसंज्ञा यथा 
स्याह्त्युपसर्गसं्ने मा भूतामिति । तैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । यच्कियायुक्तौ तं भ्रति 
19 गद्युपसर्गसं्चै भवतो ऽनयेकौ वेमी || इदं तर्द प्रयोजनं पञ्चमी यथा स्यात्‌ । 
पञ्चम्यपाङ्रिभिः [२.३.९०] इति । कुतः पयागम्यत इति ।] सिद्धात्र पञ्च- 
म्यपादान इव्यव । आतथापादानपन्चम्येषा यत्राप्यधिराब्देन योगे पन्चमी न 
विधीयते तत्रापि श्रूयते । कुतो ऽध्यागम्यत इति || एवं तरि सिद्धे सति यदन- 
यकयोर्मस्युपलगेसंक्ञावाभिकां कर्मप्रवचनीयसंज्ञां शास्ति तज्ज्ञापयस्याचार्यो यथे 
15 कानामप्येषां भवत्यर्थ वलकृतमिति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ | निपातस्यानथं- 
कस्य प्रातिपदिकस्वं चोदिवं† तत्त वक्तव्यं भवति || अथवा ैवेमावनर्थकौ | किं 
त्लनर्थकाविस्युस्मते | अनथौन्तरथाचिनावनथैकौ | धातुनोक्तां क्रियामाहतुः | तद- 
वि्िष्टं मवति यथा श्रद्ध पयः || येकं धातुनोक्तत्वात्तस्याथस्योपसगेरयोगो न 
भ्रामोष्युक्ताथोनामप्रयोग इति | उक्ताथोनामपि प्रयोगो दृयते । तद्यथा | भपप 
९० इावानय । ब्राह्मणी दावानयेति | 


अपिः पदा्थसंभावनान्ववसगेगहासमुद्चयेषु ॥ १.।० । ९६ ॥ 


इह कस्मान्न भवति | सर्पिषोऽपि स्यात्‌ । गोमूत्रस्यापि स्वात्‌ किं च स्वात्‌ । 
द्वितीयापि प्रसज्येत कमप्रवचनीययुक्ते हितीया [ २.३.८ | इति । नेष रोषः । 





* २.३.२८. † ९.२. ४९५. 

















प° ९.४. ९०-९९.] ॥ ठ्वोकरणमहाया्थय्‌ ॥ ` ३५९. 


नेमेऽप्यथौ निर्दि रयन्ते | किं तर्हि | परपदार्था इमे निर्दिरयन्ते । एतेष्वर्थेषु यत्पदं 
वतेते तदपत्यपिः करमेप्रवचनीयसंज्ञो भवतीति |} अथवा यदत्र करमेप्रवचनीयथुक्तं 
नादः प्रयुज्यते | किं पृनस्तत्‌ | विन्दुः | विन्दोस्तर्दिं कस्मान्न भवति | उपपद- 
विभक्तेः कारकविभक्तिबंली यसीति प्रथमा भविष्यतीति | ` 


अधिरीश्वरे ॥१।४।९७॥ ४ 


अधिरीभ्वरवचन उक्तम्‌ ॥ ९॥ 


किमुक्तम्‌ । यस्य ॒चेश्वरवचनमिति कतैनिर्देशेदवचनात्सिदम्‌ । प्रथमा- 
नुपपत्तस्तु | स्ववचनास्सिदधमिति* । अभिः स्प प्रति कर्मप्रवचनीवसं्ञो भव- 
तीति वक्तव्यम्‌ ॥ 


लः परस्मेषदम्‌ ॥ १. । ¢ । ९९. ॥ "0 


देर परस्मैपद ग्रहणं पुरुषवाधितत्वात्‌ ॥ ९ ॥ 
उादेो† प्रस्मैपदय्रहणं कतेव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । पुरुषवाधिततत्‌ | 


इह वचने हि संज्ञावाधनम्‌ । २॥ 
हृह हि क्रियमाणे ऽनवकाशा पुरुषसंज्ञा परस्मैपदसंज्ञा वाधेत || परस्मेपद- 
संञ्ाप्यनवकाङ्चा सा वचनाद्वाविभ्यति | सावकाशा परस्मपदसंज्ञा | कोऽवकाश्चः | 15 
खतृक्षसु$ अवकाशः || 


सिचि वृद्धौ तु परस्मेषद ग्रहणं ज्ञापकं पुरुषावाधकत्वस्य ॥ ३ ॥ 


` . यद्यं तिचि वृद्धिः परस्प पदेषु [७.२.१] इति परस्मेपदमरहणं करोति तज्जञा- 
पयत्याचार्यौ न पुरुषसंज्ञा परस्मेपदसंजञां वाधत इति ॥ 


[ररि णी ण णि 
भिकयोणयोनयाानवाछ 


# २.२.९.४ † ३.४.०८. 4 १.४. ६०९. § ३.२. ९२४; ९०७. 


३५० ` ॥ व्याकरणयपहाभाष्यचः ॥ ` ` ˆ [म०९.४.४, 


तिडखीणि जीणि प्रथममध्यमोत्तमाः।९ 191१०९२ ॥ 


` प्रथममध्यमोत्तमसंज्ञायामात्मनेपद ग्रहणं समसंल्याथंम्‌ ॥ ९ ॥। 


प्रथममध्यमो्मसंज्ञायामात्मनेपद महणं कतैव्यम्‌ । जास्मनेपरानां च प्रथम- 

मध्यमोत्तमसंज्ञा भवन्तीति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ | तमसंख्यार्थम्‌ | संख्वातान्‌- 

5 देशो" यथा स्यात्‌ | भक्रियमाणे ह्यारमनेपदब्रह्णे तिस्रः संज्ञाः षट सं्िनः | 
वेषम्यात्संख्यातानुरेश्यो न प्रामोति ॥| (क्रि वमाणेऽपि चात्मनेपदम्रहण 


` आनुपृव्येवचनं च | २॥ 


 आनुपुष्यैवचनं च क्तैव्यम्‌ | भक्रियमाणे हि कस्यचिदेव त्रिकस्य प्रथमसं्ञा 
स्यात्कस्यचिदेव मध्यमसंज्ञा कस्यविदेवोत्तमसंन्ना || | 


10 न त्रैकरोषनिदेदात्‌ ॥ ३॥ 


यत्तावद्ष्यत भारमनेपदप्रहणं कतेष्यं समसंखूयाथेमिति तत्न कतेन्यम्‌ | संजा 
भपि षडेव निर्दिरयन्ते | कथम्‌ । एकशेषनिर्देशात्‌ । एकशेषनिर् शोऽयम्‌ ॥ 
शथेतस्मिन्नेकशोषनिर्दशे सति किमयं कृतैक दोषाणां इन्दः | प्रथमश्च प्रथम प्रथमौ | 
मध्यमश्च मध्यम मध्यमौ | उत्तमथओसमथोत्तमी | प्रथमौ च मध्यमौ चोत्तमी च 
15 प्रथममध्यमोत्तमा इति | आहोस्वित्कृतदन्दानामिकशेषः ] प्रथम मध्यमथोत्तमञ्च 
प्रथममध्यमोन्तमाः . | प्रथममध्यमोत्तमाथ प्रथममध्यमोत्तमश्ि प्रथममध्वमोत्तमा 
इति । किं चातः | यदि कृतैक्र रोषाणां इन्दः भथममध्यमयोः प्रथमसंश्ञा प्राभोत्युत्तम- 
प्रथमयोर्मध्यमसंज्ञा परामोति मध्यमोत्तमयोरुत्तमसंज्ा प्रामोति । अथ कृतहन्दानामे- 
कोषो न दोषो भवति | यथा न दोषस्तथास्तु | किं पुनरत्र न्याय्यम्‌ | उभवमि- 
20 त्याह | उभयं हि दृदयते । तद्यथा । बहु राक्तिकिटकम्‌ | बहूनि शक्तिकिटकानि। 
बहु स्थालीपिटरम्‌ । बहुनि -स्थालीपिठराणि ॥ यदप्युच्यते क्रियमाणे ऽप्यास्मनेषद- 
हण आनुपु्य वचनं कर्तव्यमिति | न करेष्यम्‌ | लोकत एतस्िद्धम्‌ । त॑द्यथा । 
लोके विह्यस्य शाभ्यां हाभ्यामभिरुपस्थेय इति न चोच्यत भानुपूर्व्यगेत्यानुपु्बण 
चोपस्थीयत इति ॥ 





क ९,३.९०. 











प°. ५.४.१०१-१९०८.] ॥ व्यौकर्गयशभाष्यप्‌ | ३५५१. 


विभक्तिश्च ॥ १ । 1१.०४ ॥ ` 


रीणि ब्रीणीत्यनुवतेत' उताहो न । किं चातः | यशनुवतैते ऽ्टन आ विभक्तौ 
[७.२.८४] इत्यात्वं न प्रामोति | भथ निवृत्त प्रथमयोः पूर्वैसवणैः [६.१.१०२] 
इत्यन्न प्रत्यययोरेव परहणं प्रामोति । यथेच्छसि तथ।स्त || अस्त तावदनवतेत इति | 
ननु चोक्तमष्टन भा विभक्तातित्यात्वं च प्रामोतीति | वचनाद्विष्यति || अथवा 5 
पुनरस्तु निवृत्तम्‌ । ननु चेक्तं प्रथमयोः पूवेसरवणे इत्यत्र प्रस्यययोरेव ग्रहणं भरामो- 
तीति । नैष दोषः । अचीत्यनुवर्तेते न चाजादी प्रथमौ प्रययौ स्तः | ननु चैव 
विज्ञायते ऽजादी यै प्रथमावजादीनां वा यौ -प्रथमाविति | यत्तर्हि तस्माच्छसो नः 
पुंसि [६.१.१०६] इरयनुक्रान्तं पृथैसवणेदीधे प्रतिनिरिश्चति तज्ज्ञापयत्याचार्यो 
विभक्तयोर्महणमिति ॥ अथवा वचनग्रहणमेव कृयीत्‌ | ओजसः पृवैसवणं इति|| 10 


युष्मद्युपपदे समानाधिकरणे स्थानिन्थपि मध्यमः ॥ १।४।२१.०५ । 
अस्सदयुत्तमः।। ९.1 ४।१.०.७॥ रोषे प्रथमः ॥ १.।४।२.०८॥ 


किमथंमिदमुच्यते । 
युष्मदस्मच्छेषवचनं नियमार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 


नियमा ऽयमारम्भः || अचेतस्मित्नियमारथे विज्ञायमाने किंमयमुपपदनिथमः | 18 
युष्मदि मध्यम एव | अस्म्युत्तम एव | भहोखिष्युरुषनिथमः | युष्मयेव मध्यमः | 
भस्मद्येवोत्तम इति | करं चातः | यदि पुरुषनियमः दोषम्रहणं क्ष्यं शोषे प्रथम 
इति । किं कारणम्‌ । मध्यमोत्तमौ नियतौ युष्मदस्मदी अनियते तत्र॒ प्रथमो अपि 
प्रामोति । त्र रेषमहणं कतेव्यं प्रथमनियमा्थंम्‌ | शेष एव प्रथमो भवति नान्य- 
ति | अथप्युपपदनियम एवमपि शोषप्रहणं करतैव्यं दषे प्रथम इति | युष्मद- 20 
स्मदी नियते मध्यमोत्तमावनियतौ तौ ेषेऽपि प्ामुतः । तत्र शेषग्रहणं -कर्ैव्यं 
कसेषनियमार्थम्‌ | दोषे प्रथम एव भवति मान्य इति || उपपदनियमे शेषग्रहणं 
च्ाक्यमकरुम्‌ । कथम्‌ । युष्मदस्मदी नियते मध्यमोत्तमावनियतौ वौ -लेषे ऽपि प्रा- 





१ ष 1 त 


३५२ | ॥ व्याकरणमरहाभाष्वम्‌ ॥  - ` [म०९.४.४, 
भुतः | ततो वक्ष्यामि प्रथमो भवतीति | तक्नियमाथे भबिष्यति । यत प्रथमथा- 
न्य प्राति तत्न प्रथम एव भवतीति ॥ 
. तत्र युष्मदस्मदन्येषु प्रथमप्रतिषेधः दोषत्वात्‌ ।। २ ॥ 
त्र युष्मदस्मदन्येषु प्रथमस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | त्वं च देवदसथ पचथः। 
5 अहं च देवदत्त पचावः | किं कारणम्‌ | दोषत्वात्‌ | दोषे प्रथमं इति प्रथम 
प्रामोति || 
सिद्धं तु युष्मदस्मदोः प्रतिषेधात्‌ ॥ ३।। 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | युष्मदस्मदोः प्रतिषेधात्‌ । शेषे प्रथमो युप्मदस्मदोनति 
कक्तत्यम्‌ ॥ 
10 युष्मदि मध्यमादस्मद्युत्तमो विप्रतिषेधेन ।। ४॥ 


युष्मदि मध्यमारस्मश्ु्म इव्येतद वति विप्रतिषेधेन | युष्मदि मध्यम इत्य- 
स्यावकाश्चः | त्वं पचसि | अस्मद्युत्तम इत्यस्यावकाशः | अहं पचामि | इहोभयं 
प्राभ्रोति | सवरं चाहं च पचावः | अस्मद्युत्तम इत्येतद्ध वति विप्रतिषेधेन || स ई 
विप्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः | त्यदादीनां यद्यत्परं तक्तच्छिष्यत इत्येवमस्मदः 
15 शेषो भविष्यति । तत्रास्मश्युत्तम इत्येव सिद्धम्‌ ॥ | 


अनेकरोषभावाये तु ॥ ५ 


अनेकदोषभावाथे तु स विप्रतिषेधो वक्तष्यो यदा चैकरोषो न | कदा चैकेन 
न | सहविवक्षायामेकशेषः | यदा न सहविवक्षा तदैक रेषो नात्ति || 


नवा युष्मदस्मदोरनेकरोकभावात्तदधिकरणानामप्यने- 
20.  .:. .. . कशेषभावादविप्रतिषेधः। ६॥ 


न वार्थो विप्रतिषेधेन ! किं . कारणम्‌ | युष्मदस्मदोरनेकशरोषभावात्तदधिकर- 
गानामपि युष्मदस्मदधिकरणानामप्येकदोषेण न भवितव्यम्‌ | स्वं चाहं च पचसि 
पचामि चति || - 

क्रियापृथक्के च द्रव्यपृयक्तदरदा नमनुमानमुत्तरव्रानेकरोषभावस्य ॥ ७ ॥ 
28 क्रियाप्रथक्के च द्व्यपृथत्कं दृयते । तदथा । पचसि पचामि च त्वं चाहं 





पा० १.४.९०५-९०८. ] ॥ व्याक्ररणमहाभ्राष्यम्‌ ॥ ३५३ 


चेत्नि (- वदु भानमुत्तरयोरपि क्रिययोरेकशोषो न भ्रवतीति | ..एवं च ङ्त्व सो 
ऽप्यदोषो भवति यदुक्तं तन्न युष्मदस्मदन्येषु परथमप्रतिषेधः. दोषत्वादिति । तज्ापि 
छेतर भव्रितभ्यम्‌ | त्वं. च देवदत्त पचसि पचति च | अहं च देवदत्तथ पचामि 


पचति चेते ॥ 


यत्तावदुच्यते न वा युष्मदस्मदोरनेकशेषभावात्तदधिकरणानामप्यनेकरोषभावा- $ 
दविप्रतिषेध इति दुइयते हि युष्मदस्मदोश्चनेकरोषस्तदपिकरणानां चैकदोषः | त- 
द्यथा | त्वं चाहं च वृत्रहज्तुभा संप्रयुज्यावहा इति || | 


यदप्युच्यते क्रियाप्रथत्के च द्रव्यपृथक्करदरोनमनुमानमुत्तरत्रानेकर दोषभावस्येति 
्रियापृथक्के खल्वपि द्रन्यैक शोषो भवतीति दृरयते | तव्यथा | अन्षा भज्यन्तां 
भद्यन्तां दीभ्यन्तामिंति | एवं च कृत्वा सोऽपि दोषो भवति यदुक्तं तत्र युष्मद- 10 
स्मदन्येषु प्रथमप्रतियेधः रोषस्वादिति || नेष दोषः । परिहतमेतस्सिद्धं तु युष्मद- 
स्मदोः प्रतिषेधादिति | स तरह प्रतिषेधो . वक्तव्यः | न वक्तव्यः | दोषे. प्रथमो 
विधीयते न हि रोषधान्यथ दोषग्रहणेन गृह्यते | भवेखथमो न स्यान्मध्यमोत्तमा- 
वपिन प्राप्तः | किं कारणम्‌ | युष्मदस्मदोरूपपदयो मैध्यमोत्तमावुच्येते न च युप्म- 
दस्मदी अन्य युष्मदस्मद्भहणेन गृह्यते | यदत्र युष्मद्यवास्मत्तदाश्रयौ मध्यमोत्तमौ 15 
भत्रिष्यतः | यथेव तहिं यदत्र युष्मद्यचास्मत्तदाश्रयौ मध्यमोत्तमी भवत एवं योऽत्र 
दोषस्तदाश्रयः प्रथमः प्रामोति || एवं तर्हि रेष उपपदे प्रथमो विधीयते. । उपोच्ारि 
पदमुपपदम्‌ । यचत्रोपोचारि न स रेषो यथ दोषो न तदुपोचारि | भत्रेखथमो 
न स्यन्मध्यमोत्तमावपि. न प्राप्ुतः | किं कारणम्‌ | युष्मदस्मदोरुपपरदयो मेध्यमो- 
तमावुच्येते | उपोचारि पदमुपपदम्‌. | यच्यात्रोपोचारि न,ते युष्मदस्मदीये च यु- 
ऽ्मदस्मदी न तदुपोज्चारि || एवं तर्द रोषेण सामानाधिकरण्ये प्रथमो विधीयते 
न चाक्र रोषेणेवर सामानाधिकरण्यम्‌ | भवेखमथमो न स्यान्मध्वमोत्तमावपि न प्रात्र 
: | करं कारणम्‌ | युष्मदस्मद्यां सामानाधिकरण्ये मध्यमोत्तमावुच्येते न चत्र 
युऽ्मरस्मद्यामेव सामानाधिकरण्यम्‌ || एवं तरदं -व्यदारैनि सर्वैर्नित्यम्‌ [ ९.२. 
७२ | इत्येवमत्र युष्मदस्मदोः दोषो भविष्यति | तत्न युष्मदि मध्यमो ऽप्मदयुत्तम ४ 
इत्प्रेव सिद्धम्‌ || न सिध्यति. | स्थानिन्यपीति प्रथमः प्राप्रोति | व्यर्सदीनां 
खल्त्रपि यद्यत्परं तत्तच्छिष्यत इति यदा भवतः दोषस्तदा प्रथमः प्रभोति || 
युप्मदि मध्यमो सस्मयुत्तम इस्येब्रोच्यते | ताविह न प्रामुनः | परमस्य पचमि | 
45 आव 


३५४ ॥ म्याकरगयहामाप्यदच््‌ ॥ { म० ९.४.४. 


पर माहं पचामीति. | तदन्ततिधिना+. भविष्यति । इद्यपि तहि तदन्तविधिना प्राप्ुतः | 
भतित्वं पचति । भत्यहं पचतीति । ये चाप्येते समानापिकरणवुत्तयस्तद्धितास्तत्र 
भ मध्यमोत्तमौ न प्रापुतः | स्वत्तरः पचसि मत्तरः पचामीति | त्वनबरूपः पचति 
मद्रपः पचामीति | त्वत्कल्पः पचति मस्कल्यः पचामीति || एवं तहिं युष्महत्य- 

४ स्मदतीव्येवं भविष्यति । हापि तहं प्राभुतः | अतित्वं पचति । त्यहं एचतीति ॥ 
एवं तर्हि युष्मदि साधने ऽप्मदि साधन हत्येवं भविष्यति | एवं च कृत्वा 
सोऽप्यदोषो भवति यदुक्तं तत्र॒ युष्मदस्मदन्येषु प्रथमप्रतिषेधः . दोषत्वादिति ॥ 
अथवा प्रथम उत्सः करिष्यते तस्य॒ युष्मदस्मदोरपपदयोर्मध्यमोत्तमावपतरारो 
भविष्यतः | तत्र युष्महन्धथास्महन्धथास्तीति कृत्वा मध्यमोतमौ भविष्यतः ॥ 


10 भयेह कथं भवितम्यम्‌ । अत्वं त्वं संपद्यते त्वद्भवति मद्भवतीति । भहोस्वि- 
श्वद्भवसि मद्रवामीति | स्वदवति मद्धवतीव्येवं भवितव्यम्‌ | मध्यमोत्तम कस्मान्न 
भवतः | गौणमुख्ययेोरजुख्ये संप्रत्ययो भवति । तथथा । गीरनुबन्ध्यो . ऽजो ऽओी- 
पीमीय इति न बाहीको अनुबध्यते | कथं ता बाहीके. वृद्यास्वे भवतः† | नौ 
स्तिष्ठति । गामानयेति । अर्थाश्रय एतदेवं भवति । यद्धि शब्दा्रयं शब्दमात्रे 

15 तद्वति | राब्दात्रये च वृद्धात्वे || 


परः संनिकषैः संहिता ॥ १. । 9 । २.०९, ॥ 


परः संनिकर्षः संहिता चेदद्रुतायामसंहितम्‌ ॥ ९ ॥ ` 


परः संनिकषेः संहिता वचेदहरुतायां धर चौ संहितासंज्ञा न प्रामोति । दुतावामेव 
हि परः; संनिकर्षो षणौनां नाद्रतायाम्‌ ॥ 


20 तुल्यः संनिकपषेः ॥ ‰ ॥ 
तुल्यः संनिकर्षो वणानां दुतमध्यमविलम्बिताद वृत्तिषु || किकृतस्ता्दि विशेषः । 
वणकालभूयस्स्वं तु ॥ ३ ॥ 


वणोनां तु कालमूयस्त्वम्‌ । त्चथा । दस्तिमशकयोस्तुल्यः संनिकषेः प्राणि 
भूयस्त्वं तु || यद्येवं 





* ९.९.७२१ † ०,९.९०; ६. १.९६. ` 





पा, १.४.९०९. ॥ व्याकरणमहाभाष्य ५ ३५५ 


दुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्योनं कालभेदात्‌ ॥ ४ ॥ ` 

द्रुतायां तपरकरणे मध्यमविलम्बितयोरपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । किं कारणम्‌ । 

कालमेदात्‌ | ये क्रुतायां वृत्तौ वणाज्निभागाधिकास्ते मध्यमायां ये मध्यमायां वृत्तो 
बणालिभागाधिकास्ते विलम्बितायाम्‌ ॥ 


उक्तं वा ॥ ९५९॥ | 6 


किमुक्तम्‌ 1 सिद्धं त्ववस्थिता वणी वक्तुधिराचिरवचनाद्रृत्तयो विशिष्यम्त 
इति" ॥ | | 
अथवा दाब्दाविरामः संहितेत्येतद्वक्षणं करिष्यते | 


राब्दाविरमि प्रतिवणंमवसानम्‌।॥ £& ॥ 


हाष्दाविरामि प्रतिवणेमवसानसंज्ञा प्रामोति† | किमिदं प्रतिवणैमिति | वणे वणे 10 
प्रति प्रतिवणैम्‌ । येनैव यनेतैको वणे उयते विच्छिन्ने वणे उपतंहत्य तमन्यमु- 
पादाय द्वितीयः प्रयुज्यते तथा तृतीयस्तथा चतुथः || एव्वं तद्यनवकाशा संहितासं- 
ज्ञावसानसंज्ञां वापिष्यते | अथवावसानसंज्ञायां प्रकर्षगतिर्िज्ञस्यते साधीयो यो 
विराम इति | कथ साधीयः | यः शब्दाथैयेर्विरामः | ` 


अथवा हःदाविरामः संहितेव्येतष्टक्षणं करिष्यते । | 15 


हादाविरमे स्परापोषसंयोगे ऽसंनिधानादसंहितम्‌ ॥ ७ ॥ 


हादाचिरामि ` स्पश्यौनामवोषाणां संयोगे ऽसंनिधानारंसंहितासंज्ञा न प्राभोति | 
कुक्कुटः पिप्पका पित्तमिति || किमुच्यते संयोग इति | अथ यत्रैकः पचतीस्येकः 
ूर्वैपरयोहौदेन प्रच्छाद्यते 1 तद्यथा । हयो रक्तयोवेखलयोमेभ्ये शुङ्क वल्ल तदुण- 
मुपलभ्यते | बदरपिटके रिक्तको लोहकंसस्तहुण उपलभ्यते ॥| 20 


एकेन तुल्यः संनिधिः ॥। ८ ॥ 


धयेको वर्णो हदिन प्रच्छाद्यत एवमनेकोऽपि ॥ 
थवा कौर्वापर्यमकोलम्यपेतं संहितेस्येतद्यक्षणं करिष्यते । ` 


एकाक ० क क गिणगीणगगीगिणणिणणिणीणणणणरणगणगीषषकिषणीयष णी 


+ ९,६.७०. ¶† २.४.६१०, 


९५६ ॥ व्छाकरणम्रराभाव्यन्र्‌ ५  [ म०९.४४. 


वोर्वापर्यमकालव्यपेतं संहिता चेप्पूवपराभावादसंहिसम्‌'॥ ९ ॥ ` 
. पौव।पर्यमकालम्यपेतं संहिता चेत्पूवापर भाव, त्संहितासंज्ञा न प्रामोति, नदि 
वर्णानां पौवापयेमस्ति | किं कारणम्‌ | 


एकैकवर्णवर्ित्वाद्राच उचरितपध्वैसिस्वाच वर्णानाम्‌ ॥ १०॥ 
एक्ैकवणेवर्विनी वाक्‌ | न द्वौ युगपद्चारयति । गौरिति यावह्ूकारे वाग्बतेत 

नीकांरे न विसजेनीये यावदौकारे न गकारे न विसजेनीये यावद्धिस जनीय न गकारे 
नीकारे । उचारेतप्रध्वेसितस्वात्‌ । उचरितप्रध्वंसिनः खल्वपि वणः | उच्चरितः 
प्र्वस्तः | अथापरः प्रयुज्यते न वर्णो वणेस्य सहायः | एवं तर्द 

बुद्धौ कृत्वा सर्वाश्चेष्टाः कतौ धीरस्तत्वन्नीतिः । 

शब्देनार्थान्वाच्यान्दरषएा बुद्धो ुर्यात्पोवौपरयम्‌ ॥ 
बुद्धिविषयमेव शाढ्डानां पौर्वापयेम्‌ । इह य एष मनुष्यः प्रेक्षापर्वकारी मवति 
स परयत्यस्मन्नर्थे अयं दाब्दः प्रयोक्तव्यो ऽरिमस्तावच्छ्दे ऽयं तावद्कणस्ततो यं 
ततो ऽयमिति || 


% 


विरामो अवसानम्‌ ॥ १। ७।११० ॥ 


15 इदं त्रिचायते ऽभावो ऽवसानलक्षणं स्याहिरामो वेति | कात्र विदोषः | 


अभावे जसानलक्षण .उप्यभाववचनम्‌ | ९॥। 
अभावे ऽवसानलक्षण उप्येभावमरहणै कतैभ्यम्‌ | उपरि यो ऽभाव इति 
वक्तव्यम्‌ |. पुरस्तादपि हि शब्दस्याभावस्तत्र म। भूदिति। किं च स्यात्‌ | रसः 
रथः | खरवसानयोर्धि सजनीयः [८.३.९९] इति विसजनीयः प्रसज्येत ॥ भसु 
2५ तर्हि विरामः | | 
विरामे विरामवंचनेम्‌ ॥ ‰॥ 


य्य विरामो विरामग्रहणं तेन कतेग्यम्‌ | ननु च यस्याप्यभावस्तेनाप्यभाव- 
्रहणं कतव्यम्‌ | पराथ मम भविष्यति | अभावो लोपः! | ततो त्रप्तानं चेति| 





~ -*-~ --=--=- - --- ~~ 


#९,, ९. ६०, 








पा० ९.४.५२०. ॥ व्याकल्णमदाभाष्यप ॥ ६५७ 


ममापि तहि विरामग्रहणं परार्थं भविष्यति | विरामो रेपो ऽवसानं चेति | उपरि 
यो विराम इति वक्तव्यम्‌ । पुरस्तादपि शाब्दस्य विरामस्तत्र माभूत्‌ | किं र 
स्यात्‌ | रसः रथः | खरवसामयोर्विसजेनीय इति वसजनीयः प्रसज्येत | भआर- 
म्भपवको मम निरामः ॥ 


अथवा नेदमवसानलन्षणं विचार्यते | कि तरि | सं्नी | अभावो ऽवसानस्ी $ 
स्याद्िराम वेति | कथात विश्येषः| 


अभावे भवसानसंससिन्युपयैभाववचनम्‌ ॥ ३ ॥ 


अभावे ऽवसानसंज्ञिन्युप्यभावम्रहणं कतेष्यम्‌ | उपरि यो ऽभाव इति वक्त- 
ध्यम्‌ | पुरस्तादपि हि शब्दस्याभावस्तत्र मा भूदिति | किं च स्यात्‌ | रसः 
रथः । खरवसानयोविसजेनीय इति विसजेनीयः प्रसज्येत || स्तु तहि विरामो 10 
ऽवस्रानम्‌ | 

विरामे विरामवचनम्‌ || ४.॥ 

यस्य विरामस्तेन विरामय्रहणं कतेव्यम्‌ | ननु च यस्याप्यभावस्तेनाप्यभावभ- 
हणं कतेव्यम्‌ | पराथ मम भाविष्यति | अभावों लोपः | ततो ऽवसानं चेति | 
ममापि तहि विरामयहणं पराथं भाविष्यति । विरामो रेपो ऽवक्तानं चेति | उपरि 15 
यो विराम इति वक्तव्यम्‌ | ननु चोक्तमारम्भपुवैक इति | नावदयमयं रमिः 
परवृत्तावेव वर्तेते | किं तहि । अप्रवृत्तावपि | तश्चथा | उपरतान्यस्मिन्कुके व्रता- 
न्युपरतः स्वाध्याय इति न च तत्र स्वाध्यायो भूतपूर्वो भवति नापि व्रतानि || 


भावाविरामभाविव्वाच्छब्दस्यावसानलक्षणं न ॥ ५॥ 


भावाविरामभावित्वाच्छब्दस्यावसानलक्षणं नोपपद्यते | किमिदं भावाविरामभा- 20 
विस्वादिति | भावस्याविरामो भावाविरामः | भावाविरामेण भवतीति भावाविरा- 
मभावी | भावाविरामभाविनेा भावो भावाविराममावित्वम्‌ | 

अपर भाह । भावभाविलादविरामभाविघ्वाच शष्दस्यावसानरक्षणं नोपपश्यत 
इति || 

तदयर इति वा वर्णस्यावसानम्‌ ॥ ६ ॥ ` ॐ 


विरामपरो वर्णो भवसानसंज्ञो मत्रतीति वक्तव्यम्‌ || 





३५९ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ [बण ९.१.४, 


वर्णोऽन्स्यो वावसानम्‌ | ४७ ॥ 


अथवा ध्यक्तमेव पठितव्यमन्त्यो वर्णो ऽव खानसं्ो भवतीति | तन्तर्दिं वक्ष 
प्यम्‌ | न षक्तव्यम्‌ | 
संहितावसानयीर्खोकविदितस्वास्सिद्धम्‌ ॥ ८ ॥ 

५ संहितावसानमिति लोकविदितावेतावथौ | एवं हि ` कथित्कचिदधीयानमाह | 
हानोदेवीयं संहितयाधीष्वेति | स सत्र परमसंनिकषंमषीते | भपर आह | केग. 
वस्यसीति | ख आह । भकारेणेकारेणो करणेति । एवमेत लोकविदितावर्थौ तयोः 
लोंकविदितस्वास्सिद्धमिति ॥ 

इति भ्रीभगवस्पतच्ञकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये प्रथमस्याध्यायस्य चुं 
10 पादे चतुथेमाह्धिकम्‌ ॥ पाथ समापनः ॥ 
--॥| प्रथमो ऽध्यायः समाप्तः |. 











समथः पदविधिः ॥२।१।१॥ 


विधिरिति कोभ्यं शब्दः | विपुर्ीदामः कमसाधन इकारः | विधीयते निधि- 
शिति | किं पुनधिधीयते | समासो बिभक्तेविधानं पराङ्गवद्धावभ' || 


किं पुनरयमधिकार भाहोस्विस्परिभाषा | कः पुनरधिकारपरिभाषयोविशोषः । 
भधिकारः प्रवियोगं तस्यानिर्दश्चाथं इति योगे योग हपतिष्ठते | परिभाषा पुनरे- 
कदेशास्था सती सवै शाखलरमभिज्वखयति प्रदीपवत्‌ | तद्यथा | प्रदीपः प्रज्व- 
कित एकरेदस्थः स्वे वेदमाभिज्वलयति | कः पुनरत्र प्रयलविदोषः | अधिकारे 
सति स्वरयितव्यं परिभाषामां पुनः सत्यां सवैमपेषष्यम्‌ || तथेदमपरं हैतं भव- 
व्येकार्थीभावो वा सामथ्यै स्याद्यपेक्षा वेति । तश्रैकार्थीभावे सामर्थ्ये ऽभिकारे 
च सति समास एकः संगृहीतो भवति विभक्तेिविधानं पराङ्गवद्धावासंगृहीतः | 10 
ध्यपेक्षायां पुनः सामर्थ्ये अधिकारे च सति विभक्तिविधानं पराङ्गवद्भाव संगृहीतः 
खमासस्त्वेको ऽसंगृहीतः । अन्यत्र खल्वपि समर्थमहणानि युक्तप्रहणानि च कते- 
व्यानि भवन्ति | कान्यत्र | इठसोः सामर्थ्ये [८.३.४४] न चवाहाहैवयुक्ते 
[८.९.९४] इति । व्यपेक्षायां पुनः सामर्थ्य परिभाषायां च सत्यां यावान्ब्याकरणे 
पदगन्धो अस्ति स सवैः संगृहीतो भवाति समासस्त्वेको ऽतंगृहीतः । तत्रैकार्थाीभावः 15 
सामथ्यै परिमाषा वेस्येवं सुश्रमभिच्रतरकं भवति || एवमपि कचिदकतेग्यं समथ- 
परहणं क्रियते कचिश्च कतेव्यं न क्रियते | अकर्तव्यं तावच्कियते समथोनां प्रथमाहया 
[४.१.८१] इति | कर्तव्यं न क्रियते कर्मण्यण्‌ [३.२.१९ | समथोरिति | ननु च गम्यते 
तजर सामथ्यंम्‌ | कुम्भकारः नगरकार इति | सस्यं गम्यत उस्पन्ने तु प्रत्यये | घ 
एव तावत्समयादुत्पा्ः || 20 


अथ समथेमहणं किमथेम्‌ | वशयति हितीया भरितारिभिः समस्यते | कष्टिः 
नरकञ्चित इति । समथेग्रहणं किमयेम्‌ | परय देवदत्त कष्टं त्रितो विष्णुमित्रो 


# >.६.,३; २,३.६; २,९६.२. ¶† २. ९. २४. 


॥ / | 














३६० ॥ त्याकस्मपटाभाष्यय्‌ ॥  [म०-२.१.९. 


गुरुकुलम्‌ || तूया तक्कृतार्थेन गुणव चनेन [२.१.२०] शङ्कलाल डः किरि काणः। 
समथ महणं क्रिमधेम्‌ । तिष्ठ त्वरं शाङ्कलया खण्डो धावति मुसलेन । चतुर्थी तद- 
धाथ बरिहितङखर्तितेः [२६] गोहितम्‌ अश्वहितम्‌ | समथंमहणं कमथम्‌ । एलं 
गोभ्यो हितं देवदत्ताय || पन्चमी भयेन [३७] वृकभयम्‌ दस्युभयम्‌ चोरभयम्‌ । 
5 समयेदणं किमथेम्‌ | गच्छ स्वं मा बृकेभ्यो भयं देवदतस्य यज्ञदत्तात्‌ ॥ षी 
उबन्तेन समस्यते* | राजपुरुषः ब्राह्मणकम्बलः | समर्थग्रहणं किमर्थम्‌ | भायां 
राज्ञः पुरुषो देवदत्तस्य || सपमी श्रौण्डैः [४ ०] भक्षक्ौण्डः लीह्लौण्डः | समर्थमर्हणं 
किमर्थम्‌ | कु दारो देवद तोऽ्ेषु शौण्डः पिबति पानागरे ॥ 
अथ क्रियमणिऽपि सम्थप्रहण इह कस्मान्न भवाति । महत्क्ं भ्नित इति | 
10 न वा भवति महाकष्टश्नित इति | भवति यदैतहाक्यं भवति महत्कष्टं महाकष्टम्‌ 
महाकष्टं भ्नितो महाकष्टसित हति | यदा त्वेतदाक्यं , भवति महस्कष्टं भित. इव 
त-न भवितव्यं तदा च प्राप्रोति | तदा कस्मान्न भवति | कस्य कस्मात्त भवति 
किं हयोराहो्वद्वहूनाम्‌ { बहुनां कस्मान्न भवति | इष्डपोति वतेते! | ननुच 
भो आकृतौ हालराणि प्रवर्वन्ते | तद्यथा । प्रातिपदिकादिति बतेमाने =न्यस्म्ा- 
15 ्ान्यस्माच प्राति पदिकादुत्प्तिमेवति । सत्यमेवमेतत्‌ | आकृतिस्तु प्रत्येकं परि- 
समाप्यते | यावत्येतत्परिस्‌माप्यते प्रातिपदिक।दिति तावत उत्यस्या भवितष्ं 
प्रस्येकं चैतस्परिसमाप्यते न समुदाये । एवमिहापि यावव्येतत्परिसमाप्यते ष्डुपेति 
तावतः समासेन भावितव्यं इ योभ्चैतस्परिसमाप्यते न बहषु || इयोस्तर्हि कस्मान्न 
भवति | असामर्थ्यात्‌ | कथमसामर््यम्‌ | सापेक्षमसमयै भवतीति ।| 
20 ` यदि सपेक्षमस्मथे भवतीत्युच्यते राजपुरूषो ऽभिरूपः राजपुरुषो द दोनीयः भ 
वृत्तिनै प्रामोति । नैष दोषः | प्रधानमत्र सापेक्षं भवति च प्रधानस्य सपिक्षप्यापि 
समासः || यत्र तद्येभधानं सापेक्षं भवति तत्र ते वृत्ति परामोति | देवदत्तस्य गरकु- 
लम्‌ देवदत्तस्य गुरुपुललः देवदत्तस्य दासभार्येति | नैष दोषः । समुदायापिकषाब्र 
षष्ठी सवे गुरुकुल मपेक्षते || यत्र तां न समुदायापेक्षा षष्ठी तत्र वृतिने प्रामोति | 
25 किमोदनः शालीनाम्‌ । सक्कराहकमापणीयानाम्‌ | कुतो भवान्प्रटलिपुत्रकञ इति| 
` इह त्रापि देवदत्तस्य गुरुकुलम्‌ देवदत्तस्य गुरुपुत्रः देवदं ततस्य दासभार्येति यथेषा 
समुदायापेक्षा षी स्यान्चैतन्नियोगतो मम्येत देवदत्तस्य यो गुकस्तस्य यः पुल हइति। 
किं तर्द | अन्यस्यापि गुरुपुत्रो देवदत्तस्य किंचिदिस्येषो ऽर्था गम्येत । यतस्तु नि- 


२.२.८० .- {२.५८८.२८४ - {५.१९.९. . , §४.२. २२३. 

















फ्०२.९.९. | ॥ ग्छकस्ममहसभाष्वम्‌ ।। ३६९ 


योगतो देधदत्तस्य यो गुरस्वस्य यः पुत्र इत्येषो ऽथा मम्यते ऽतो मन्यामहे नैषा 
समुदायापेक्षा षष्टीति || अन्यत्र खस्थपि समथे्हणे सपेक्षस्यापि काये भक्ति 1 
कान्यत्र | इष्डसोः सामर्थ्ये [८.३.४४] ब्राह्मणस्य सर्पिष्करोतीति || तस्मातैतच्छ- 
क्यं वक्तु सापेक्षमसमर्थं भवतीति | वृत्तिस्तार्दि कस्माच्च भवति महत्कष्टं भरित 
इति । सवि होषणगानां वृत्तिने वृत्तस्य वा वैदोषणं न प्रयुज्यत इति वक्तव्यम्‌ || ४ 
यदि सविदोषभानां वृत्तिर्न वृत्तस्य वा विदहोषणं न प्रयुज्यत ह्युच्यते देवदत्तस्य 
गुरुकुलम्‌ रेवदन्तस्य गुरुपुत्रः देवदन्तस्य दासभार्येस्यत्र वृतिने प्राभोति 1 अग्‌- 
दकुलपुलादीनामिति वक्तष्यम्‌ ॥ 


तत्तर्हि वक्तव्यं सविशेषणानां विने वृत्तस्य वा विशेषणं न प्रयुज्यते ऽगुस- 
कुठपुत्रादीनाभिति | न वक्तश्यम्‌ | वृत्तिस्तार्हि कस्माच्च भवति | अगमकस्वात्‌ ] 10 
इड समानार्थेन वाक्येन भवितव्यं समासेन चं | यथहा्थौ वाक्येन गम्यते महत्कष्टं 
श्रित इति न जातुचित्समासेनासी गम्यते मदत्कष्टभिष इति | एतस्माद्धतो््रुमो 
ऽमकस्वादिति न ब्रूमो ऽपश्चष्दः स्यादिति | यत्र गमको भवति भवति तंत्र 
वृत्तिः | तद्यथा | देवदत्तस्य गुरुकुलम्‌ देवदत्तस्य शृर्पुत्रः देवदत्तस्य दास- 
भार्येति ॥ यद्थगमकस्वं हेतुनथेः समर्थम्रहणेन । इहापि भाया राकः परषो 15 
देवदन्तस्येति यो अर्थो वाक्येन गम्यते नासौ जातुचिस्समासेन शम्यते भायौ राज- 
पुरुषौ देवदत्तस्येति । तस्माच्नायैः ख मथेमहणेन || 


इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ । भस्त्यमयैसमासो नञ्घमासो गमकस्तस्य साधुस्वं मा 
भूत्‌ | भर्किचिस्कुवोणम्‌ अमाष॑हरमाणम्‌ अगाधादुस्छष्टमिति ॥ एतदपि नास्ति 
भयोजनम्‌ । भवदयं कस्यवित्नञ्समासस्यासमथ समासस्य गमकस्य साधुत्वं वक्त. 20 
व्वम्‌ | अस्यपरयानि मुखानि । अपुनगयाः शाकाः । अश्राद्धभोजी अलवणभोजी 
ब्राह्मणः | छडनपुंसकस्य [१.१. ४३] इत्येतन्नियमार्थ भविष्यति । एतस्यैवास- 
मर्धसमासस्य नञ्समासघ्य गमकस्य॒साधुस्वं भवति नान्यस्येति || तस्मान्नार्थ 
समयेषहणेन | 


कथ क्रियमाणे ऽपि समथेग्रहणे समथमिव्युव्यते किं समथ नाम| ४ 
पृथगर्थानामिकार्थीभावः समर्थवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 


पृथगथौनां पदानामेकार्थामावः समर्थमित्युच्यते ॥ क पुनः प्रथगर्थानि कका- 


योनि । वाक्ये एथगथोनि । राज्ञः पुरुष हति | समासे पनरेकाथोनि | राजपुरुष 
46 श 


३६९ ॥ ग्याकरनमहामाच्यमः॥। `  [मण०९.१.१ 


हति || किमुच्यते प्रथगर्थानीति यावता' राज्ञः पुरुष आनीयतामिव्युक्ते राजपुरुष 
आनीयते राजपुरूष इति च स एव | नापि न्रुमो ऽन्यस्यामयनं भवतीति | कस्त 
कार्थीभावकृतो विदोषः | 


सुबरोपो व्यवधानं यथेषमरन्थतरेगाभिरसंबन्धः स्वर 


` इति ।| छपोऽलोपो भवति वाक्ये | राज्ञः पुरुष हति । समासे पुजन भवति | 

राजपुरुष इति || व्यवधानं च भवति वाक्ये | राज्ञ ऋद्धस्य पुरुष इति| 
मासे न. भवति । राजपुरुष इति ॥ यथेष्ट मन्यतरेण।मिसंबन्पो भवति वाके । 
राक्षः पुरुषः पुरुषो राज्ञ इति | समासे न भवति । राजपुरुष हति ॥ हौ स्वरौ 
भवतो वाक्ये | राज्ञः पुरुष इति । समसि पुनरेक एव | राजपुरुष इति || नैत 
10 एकार्थभिावकृता विदेषाः | कं तर्द | वाचनिकान्येतानि | आह हि भगवान्‌ ¡ पो 
धातुप्रातिपदिकयोः [२.४.७१]|। उपस्जेनं पूवम्‌ [२.२.३०] । समासस्यान्त 
उदात्तो भवतीति" ॥ इमे तर्हकार्थीभावङ्ता विषाः | | 


संख्याविशेषो व्यक्ताभिधानयुपसलं नविरोषणं चयोग 


इति :॥| संख्यावि दोषो भवति वाक्ये | राज्ञः" पुरुषः राज्ञोः .पुरुषः राज्ञां पुरुष 

15 इति | समासे न भवति। राजपुरूष इति || अस्ति कारणं येनैतदेत्रं भवति 4 कं कार, 
णम्‌ | योऽसौ विशेषवाची शब्दस्तदसांनिष्यात्‌ | अङ्ग हि मवास्तमुच्ारयतु मंस्वद्े 
स निशोषः ॥ ननु च चैतेनैवं भवितव्यम्‌ | म-हि दा्दकृतेन नमार्थेन भवितव्यम्‌ | 
अधैकृतेन नाम -राष्देन भवितश्यम्‌ | -तदेतदेवं -दृदयतामथस््पमेवैतदे वं जातीयकं 
येनात्र - विशेषो न गम्यत इति | भवदयं चैतदेवं विक्ञेयम्‌ | .यो हि मन्थते वो 
९0 ज्सौ . विशेषवाची - शब्दस्वदसांनिध्यादन्र -विदोषो न .गस्यत इतीह तस्य विश्चेषो 
नस्ये | अष्डचरः गोषुच्ररः वशोद्धज इति | व्यक्तामिधानं भवति वाक्मे | त्रा- 
ह्मणस्य कम्बलस्ति्ठतीति । समासे -पुनरव्यक्तम्‌ । ब्राह्मणकम्बलस्तिषठतीते । सं- 
देहो भवति संबुदधिवौ स्माखष्ठीसमासो वेति | एषोऽप्यविशोषः | भवति हि 

` किचिदाक्ये ऽच्यग्कं तञ्च समासे व्यक्तम्‌ | वाक्ये तावदव्यक्तम्‌ | अपे षोर्देवर- 
2 स्वेति । संदेहो भवति पद्युगुणक्य वा देवदत्तस्य यदेथमथवा- योऽसौ संज्ञीमुतः 
वशुमीम तस्य , यदपम्मिति. | तश्च. समासे. व्यक्त. भवति । गैपशयुदवदचस्येवि ॥ 
उपसभेनविशोकणं भवति. चम्क्ये - ( -ऋ्ट्दरस्य -राज्तः पुरष हति । समासे. भवति । 


+= 1 


५ #ि ॥। # १ * ब रहे 9 


पा१२.१.९. ॥ व्यकर्गयहयभाष्ययः ॥ ३एडे 


राजपुरुष हति ॥ एभोऽप्यविरोषः.| खमासे ऽप्युपसजेनविशरोषणं भवति । तद्यथा | 
देवदतस्य गुरुकुलम्‌ देवदत्तस्य गुरुपुत्रः देवदत्तस्य दासभार्येति | चयोगो भव्ति 
वाज्य | स््रचयोगः स्वमिचयोगथ | स्वचयोगः | राज्ञो गौश्च परूषथेति | 
समसि न भव्राति | राज्ञो गवराशपुरुषा इति | स्वामिचयोगः | देव्रदत्तस्य च यज्ञ- 
दत्तस्य च विष्णुमित्रस्य च भैरिति । समति न भवति । देवदयज्ञदत्विष्णुमि- ४ 
त्राणां गौरिति ॥ 


भधैतस्सित्नेकार्थाभावजते विशेषे किं स्त्राभाविकं शब्दैरथोमिधानमाहोस्विहा- 
चनिकम्‌ | स््राभाविकामिस्याह | कुत॒ एतत्‌ । अथीनादेशात्‌ । न यथौ भादि- 
यन्ते | कथं पुनरर्थानादेशतेवं ब्रुयाच्चाथौ आदिदयन्त इति । यदाह भगवान्‌ ] 
भअनेकमन्यपद्थं [ २,२.२४ ] चार्थे शन्डः [| ५९ | भपव्ये रक्ते निवत्त हति" | 10 
नैतान्वथंदशानानि | स्वभावत एतेषां शाब्दानामेतेष्वर्थष्वभिनिषिष्ठानां निमित 
त्वेनान्ाख्गरानं क्रियते | तथथा | कुपे हस्तदस्षिणः पन्थाः | अघे चन्द्रमसं प 
दयेति । स्वभावतस्तत्रस्थस्य पथश्चन्द्रमसथ निभित्तत्वेनान्वाख्यानं क्रियते | 
एवमिहापि चार्थे यः स दन्द्रतमासौ ज््प्रपदर्थे यः स बहूत्रीहिरिति ॥ किं 
पुनः कारणमयौ नारिदयन्ते | तच रुध्व्रथम्‌ | रष्वे यथो नादिदयन्ते | भैवरयं 1 
द्यनेनार्थानादिदाता केनचिच्छब्देन निदेशः कतैव्यः स्यात्‌ | तस्य च तावत्केन कृतो 
येनासौ क्रियते | भथ तस्य केनचिक्कृतस्वस्य केन कृत इत्यनवस्था | असंभवः 
खस्तरप्यथोदेशनस्य । को हि नाम समर्थो धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानाम्थाना- 
देष्टेम्‌ । ने चैतन्मन्पष्यं प्रत्ययार्थे निर्दिष्टे पङस्यर्थो निरिष्ट इति | भवति हि गुणा- 
भिधाने गुणिनः संप्रत्ययः | तद्यथा | शुङ्कः कृष्ण `इति । विषम उपन्यासः | 20 
सामान्यशब्दा एत एवं स्युः | सामान्यशब्दाश्च नान्तरेण विरोषं प्रकरणं वा ` 
वि रहोषेष्ववतिष्ठन्ते | यतस्तु खलु नियोगतो वृक्ष हद्युक्ते स्वभात्रतः कर्समिथिदेव 
विशेषे वृक्षश्टो वतेते ऽतो मन्यामहे नेमे सामान्यशन्दा हति 1 न चेरसामान्य- 
दाब्दाः प्रकृतिः प्रकृत्यर्थे वतेते प्रत्ययः प्रत्ययार्थे वतैते ॥ भप्रवृत्तिः खल्वप्यथा- 
देशानस्य | बहवो हि दाब्दा येप्रामथौ न त्रिज्ञायन्ते | जभैरीं तुफरीतु || अन्तरेण 2४ 
खल्वपि हौष्दप्रयोगं कहत्रो ऽथो गम्यन्ते ऽक्षिनिकोतैः पाणिविहरिशथ |] म खल्वपि ` 
निज्लौतस्यार्थस्यान्वाख्याने किंचिदपि प्रयोजनमस्ि | यो हिः ब्रूया्पुरस्तादादित्य 
उदेति पथादस्तमेति मधुरो गुडः कटुकं शङ्गवेरमिति किं तेन कृतं स्यात्‌ || 


# ४.१. ९१; ४.२. १; ६८; ९.१. ७९ ६.४. ९७०; ९.४. २२; ४.४. २९. 


३६४ ॥ व्याकश्णम्रहाभाच्यम्‌ ॥  {म०२.९९. 


` वावंचनानथंक्यं च स्वभावसिंदव्वात्‌ ॥ ॥ 
 चावचनमनथेकम्‌ । किं कारणम्‌ । स्वभावसिद्धस्वात्‌ । इह दौ पर्षौ वृत्ति- 
पक्षथावृत्तिप्रक्षथ | स्वभावतधतद्वति वाक्यं च समासश्च | तत्र स्वाभाविके 
वृत्तिविषये नित्ये समासे प्रापे वाकचनेन किमन्यच्छक्यमभिसंबन्दुमन्यदतः सं- 
४ ज्ञायाः | म च संज्ञाया भावाभावाविष्येते | तस्मान्नार्थ वाषचनेन ॥ ` 


अथ ये वृत्ति वतेयन्ति किं त बहू: | पराथोभिधानं वृतिरित्याहृः | भथ तेषामेवं 
बुवतां कि जहत्स्वाथो पृत्तिभ॑वत्याहोस्विदजहत्स्वाथा । कं चातः । यदि नदस्स्वाथौ 
वृत्ती राजपुरुषमानयेस्युक्ते पुरुषमाज्स्यानयनं प्रामोत्यौपगवमानयेस्युक्ते ऽपत्यमा- 
रस्य | भथाजहस्स्वाथौ वृत्तिसभयोर्विद्यमानस्वार्थयोदयो्दिव चनमिति* (दिवचनं 
10 ्रामोति ॥ का पुनवत्तिन्योय्या । जहत्स्वाथौ । युक्तं पुनर्यैज्जहस्स्वाथौ नाम वृत्ति 
स्यात्‌ | वाढं युक्तम्‌ | एषं हि दरयते लोके | पुरुषो ऽय॑ परकमेणि प्रवतैमानः स्वं क्म 
जहाति । तद्यथा । तक्षा राजकमेणि प्रवतेमानः स्वं कर्मं जहाति। एवं युक्तं यद्राजा 
पुरुषार्थे वतैमानः स्वमये जद्यादुपगु धापत्यारथे वतमानः स्वमर्थ जघ्यात्‌ | ननु चोक्तं 
 , राजयपुरुषमानयेल्युक्ते पुरुषमात्रस्यानयनं प्रामोस्यौ पगवमानयेस्युक्ते ऽपत्यमातरस्थेति | 
15 ्रैष दोषः । जहदप्यसौ स्वाथे नात्यन्ताय जहाति | यः परार्थविरोधी स्वा- 
यस्तं जहाति । तद्यथा | तक्षा राजकमीाणि प्रवतेमानः स्वं तक्षके जहाति न हिक्षि- 
तहतसितकण्डूयितानि । न चायमथेः पराथविरोधी विशेषणं नाम तस्माच्च हास्यति ॥ 
अथवान्वंयाद्वं शोषणं भविष्यति । तद्यथा | घृतषटसतैलषट हति निषिक्ते धुते वैते 
वान्वयादिशेषणं भवत्ययं घुतधटो अय तैरुषट इतिं | विषम उपन्यासः | भवति 
20 हि तत्रं या च यावती चाथेमात्रा | ङ्ग हि भवानत्र निष्टप्य धृतषटं तृणंकूर्वेन 
प्रल्षालयतु न गंस्यते स विदोषः । यथा ताहे मधिकापुटशम्पकयुट इति निष्की- 
गोस्वपि डमनःस्वन्वयाद्विशोषणं भवत्ययं मलिकापुटो भयं चर्पकपुट इति ॥ 
थवा समर्थाधिकारोऽयं वृत्तौ (क्रियते | सामथ्यै नाम्‌ भेदः संसर्गो वा || अपर 
आह | भेदसंसर्गौ वा सामथ्यमिति || कः पुनभेदः संसर्गो वा | इह राज्ञ इर्युक्ते सव 
2 स्वं प्रसक्तं पुरुष इस्युक्ते स्वैः स्वामी प्रसक्तः । इहेदानीं राजपुरुष इत्युक्ते राजा 
पुरुषं नित्रतेयत्यंन्येभ्यः स्वामिभ्यः पुरुषोऽपि राजानमन्येभ्यः स्वेभ्यः | एवमतः 
स्मन्नुभयतेो व्यवच्छिन्ने यदि जहाति काम जहातु न जातुचित्पुर्षम्नस्यानयनं मवि- 
ष्यति || अथवा पुनरस्त्वजहत्स्वाथो वृत्तिः | युक्तं पनयद जहस्स्वा्था नाम वृति 





 # ९.४.२२ 








वा० २.९.९.] 1 व्वाकरणवहाभाष्यम्‌॥ ३६५ 


स्यात्‌ | वाढं युक्तम्‌ | एवं हि. दृरयते लोके । भिक्षुकोऽयं हितीयां भिक्षामासाद्य 
पवौ न जहाति संचयाय प्रवतेते { ननु चोक्तमुभयोर्वि ्मानस्वार्थयोहेयोर्िव चन- 
मिति दिव चनं प्रामोतीति | कस्याः पुतनर्दिव चनं पामोति | प्रथमायाः | न प्रथमासमर्थो 
राजा | ष्ठधास्तर्दि प्रामोति । न षष्ठीसमर्थः पुरूषः | प्रथमाया एव तर्द प्रामोति । 
ननु चोक्तं न प्रथमासमर्थो राजेति | भभिहितः सोऽर्थो ऽन्तभूतः प्रातिषदिकाथेः सं- ऽ 
पन्नस्तश्र प्रातिपदिकार्थे प्रथमेति" प्रथमाया एव द्विवचनं प्रामोति | 


संषातस्यैकाथ्योन्नावयवसंख्यातः सुजुत्पत्तिः ॥ ३ ॥। 
. संघातस्यैकत्वमयस्तेनावयवसंख्यातः सुबुत्पत्तिने भविष्यति | . 
परस्परव्ययेक्तां सामथ्यंमेके ।। ४ | 


परस्परव्यपेक्ां सामध्यैमेक इष्ठन्ति || का पुनः शब्दयोव्येपेकषा | न ब्रुमः 10 
शम्दयोरिति | किं ताईं | अर्थयोः । इड राज्ञः प्रुष हत्य के राजा पुरुषमपेक्षते 
ममायमिति पुरुषो भि राजानमपेक्षते ऽहमस्येति | तयोरभिसंबन्धस्य पक्षी वाचिक्रा 
भवति | तथा कष्टं भरित इति क्रियाकारकयोरभितसंबन्धस्य हितीया वाचनिका 
भवति ` | 


. अथ यथयेवैकार्थाभावः सामथ्यैमथापि व्यपेक्षा सामर्थ्यं किं गतमेतदियता सुतर 15 
गाहोखिविदन्यतरस्मिन्पन्े भूयः खतं कतेव्यम्‌ | गतभित्याह | कथम्‌ । समो अग्रमथे+ 
स्ष्देन सह समासः । सं चोपखगेः । उपसग पुनरेवमात्मका यत्र कथिक्किया- 
वाची शाब्दः प्रयुज्यते तत्र क्रियाविहहोषमाहुः | न चेह. कंचिक्क्रियावाची शाब्दः 
प्रयुज्यते येन समः सामथ्यै स्यात्‌ | तत्र प्रयोगादेतद्गन्तव्यं नृनमच्र कथिलयो- 
गाहैः दाम्दो न प्रयुज्यते येन समः सामर्थ्यमिति | तद्यथा । धूमं दृष्टाभिरत्रेति 20 
ग्यते जििष्टम्धकं च दृषा परिव्राजक इति | कः पुनरसौ प्रयोगाहैः शाब्दः. | 
उच्यते | संगतार्थ समर्थं संख्टार्थं समर्थं स्तरि्ितार्थं समर्थं संबद्धार्थ समर्थं - 
मितिः] तदा तावदेकार्थभिावः सामथ्यै तदैवं विहः करिष्यते संगतार्थैः 
समथः संखष्टाथेः समथ इति । तद्यथा । संगतं घृतं. संगतं तेतमिस्युच्यत 
एकीमूतमिति गस्यते | संखष्टो ऽभिरिस्युच्यत एकीभूत इति गम्यते || यदा व्यपेक्षा 25 
सामर्थ्यं. तदैवं - विमदः करिष्यते संपेकितार्थः समर्थः संबद्धार्थ समर्थ. हति || 
कः पुनरिह बध्रात्यथः | संबद्ध हस्युच्यते यो रज्जञ्वायसा वा. कीले व्यति- 


# २.द. ४६. 





३६६ ॥ व्याकरभमहाभाप्यम्‌ ॥ [मि २.९५ 


क्तो भवति | नावदयं व्नातिष्यैतिषङ्ग एव वतेते । किं तर्हि | अहानावपि वतैे। 

तथा | संबद्धातिमौ दम्याविर्युच्येते यावन्योऽन्यं म ज्ीतः |] अथवा भवति 

चैवंातीयकेषं बघ्ातिर्वषेते | व्यथा | अस्ति नो ग्भः संबन्धः | अस्तिनो वतते 

खंबन्ध हति । संयोग इत्यथः || अथैतस्मिन्व्यपेक्षायां सामर्थ्ये योऽसावेकार्थभिा- 
४ वकरब्ो विदोषः स क्कञ्यः. || 


तत्र॒ नानाकारकात्निधातयुष्मदस्मदादेराप्रतिषेधः ॥ «९ ॥ 


ततरैतस्मिन्व्यपेक्षायां सामर्थ्य. नानाकारकान्निषातयुष्मदस्मदारेशाः प्रायुवन्ति 
तेषां प्रतिषेषो वक्तव्यः || निषातः | अयं दण्डो हरानेन | अस्ति दण्डस्य दरे 
व्यपेक्षेति कृत्वा निघातः प्रापरोति ॥। युष्मदस्मदादेशाः । ओदनं पच तव भवि. 
10 ध्यति | ओदनं प्रच मम भविष्यति । भस्त्योदनस्य युष्मदस्मदोश्च व्यपेक्षेति कृत्वा 
वाघ्नावादयः प्राप्ुवन्तिं तेषां प्रतिषेधो वक्तव्यः || किमुच्यते नानाकारकादिति 
यदा तेनैवासज्य हियते | नापि त्ुमोऽन्येनासज्य (हियत इति । किं तर्हि | शब्द 
प्माणका वयम्‌ | यच्छब्द आह तदस्माकं प्रमाणम्‌ । शब्दशेह सत्तामाह । बयं 
रण्डः | अस्तीति गम्यते | स दण्डः कतो भृत्वान्येनं शब्देनामिसं बध्यमानः करणं 
15 संपद्यते | तद्यथा | कथित्कंचिदपृच्छति | क देवदत्त हति | स तस्मा आचष्टे । 
भसौ वृक्ष इति | कतरस्मिन्‌ । यत्तिष्ठतीति । स वृक्षो अधिकरणं भुत्वान्येन शद 
नाभिसंबभ्यमानः कतौ संपश्यते ॥| 


प्रचये समासभतिषेधः ॥ ६ ॥ 


+ - । | 


प्रचये समासप्रतिषेषो वक्तश्यः | राज्ञे मौधश्चथ्च पुरुषश्च राजंगव।च- 
20 पुरुषा इति || | 
सम्थतराणां वा ॥ \७ | 


` समथेतराणां वा पदानां समासो भविभ्यति | कानि गुनः सभ्थ्तराभि | 
यानि इन्दभावीनि | कुत एतत्‌ । रएषां द्याद्युतसा वृत्तिः प्रामोति । तद्यथा 1 
समथेतरोऽयं माणवको ऽध्ययनाग्रेत्युच्यत अआंद्चुतर मन्थ इति गम्यते ॥ 
ॐ अपर भाह | समर्थतराणां घा पदानां खमासो भविष्यति | कानि पुनः समथ 
तराणि । यानि इन्दभावीनि । कुत एतत्‌ । एतानि समानविभक्तीन्यन्यविभक्ती 
राजा | भवति विशोः स्वस्मिन्भ्रतरि पितृव्यपुत्र च ॥ 


# ८.९, २८. † ८.९. २०, 





फा० २,९१.९. ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ | ' ३६७ 


समुदायसामर्थ्याद्वा सिद्धम्‌ ॥ ८ ॥ 
समुदायक्ममभ्योदा पुनः - सिद्धमेतत्‌ । समुदायेन रज्ञः साम्यं भवति 
नावयवेन || 
अपर आह । समर्थतराणां वा समुदायसामध्यौत्‌ | सम्थेतरणां वा पदानां 
समासो भवति | कत.एतत्‌ । संमुदायसामय्यदिष | . स्मिन्फ्े वेत्येतदस्तमथितं ४ 
भवति ।. एतश्च समर्थितम्‌ । कथम्‌ । नेव वा पुनरत्र राज्ञो .ऽपुरुषावयेक्षमाणस्य 
शवा सह समासो भ्रति | किं तर्हि | गो राजानमपेक्षमाणस्याश्वपुरषाभ्यां सह 


समसो भवाति | प्रधानमत्र तदा गौर्भवति भवति च प्रधानस्य सावेक्षस्यापि 
समासः || 


आख्यातं साव्ययकारकविरैषणं वाक्यम्‌ ॥ ९॥ 10 


भा ल्यातं सव्ययं सक्रारकं सकोरकतरिदोषणं वास्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम्‌ || 
सव्ययम्‌ । उज्चैः पठति । नीरैः पठति || सकारकम्‌ भदनं पचति || सकारक- 
विशोषणम्‌ } ओदनं मृदुविदादं पचति ॥| सक्रियाविशेषणं चेति वक्तव्यम्‌ | धु 
पचति | दुधु पचति ॥ 


भपर आङ्‌ । आख्यातं सतरिदोषणमित्येव । सर्वणि हतानि करियाचिरेषगानि ॥ ४ 
` एकतिङ्‌ ॥ १०.॥ = ` 
एकतिङुगक्यसंजञ भवतीति वक्तव्यम्‌ | ब्रुहि | ब्रूहि ॥ 
समानवाक्ये निषातयुष्मदस्मदादेशाः ॥ ९९ ॥ 


खमानवाक्य इति प्रकृत्य निघातयुष्मदस्मदादेशा वक्तव्याः | किं प्रयोजनम्‌ | 
नाववाम््ये मा मवक्िघातादय इति । अयं. दण्डो हरानेन | ओदनं -पच तव 20 
भविष्यति | ओदनं पचमम भकिष्यृति.| 


योगे प्रतिषेधश्चादिभिः ॥ ९२॥ 


चादिभिर्योगे प्रतिषेधो वक्तव्यः | भामस्तव च स्वं मम. च स्वम्‌ | किमर्थ 
मिदमुच्यते । यथान्यासमेव चादिभिर्योगे प्रतिषेध. उच्यते ।| इदमथ्यापुदै त्रियते 


# ८२, २४. 


8 फः ॥ .ठ्कस्नमराभरव्वव्‌ +.  [भ०२.९.४ 


वाक्यसंज्ञा समानवाक्याधिकारशथ | तदेष्यं विजानी यात्सर्वमेतहिकल्पत इति । 
तदाचायेः खहदत्वान्वाचष्टे चादिभिर्योगे यथान्यासमेव भवतीति ॥ 


सा चावदयं वाक्यसंज्ञा वक्तव्या समानवाक्याधिकारश्च वक्तव्यः | 


समथनिघाते हि समानाधिकरणयुक्तयुक्तेषुपसंख्यानमसमथत्वात्‌ | ९३ ॥ 


5 समथनिधाते हि समानाधिकरणयुक्तयुक्तेषुपसंख्यानं . कतैव्यं स्यात्‌. ॥ .षमा- 
नाभिकरणे | परटवे ते दास्यामि । मृदवे ते दास्यामि । समानाधिकरणे ॥ युक- 
युक्तै | नच्यास्तिष्ठति कुले । वृक्षस्य लम्बते दाखा । शालीनां त ओदनं ददामि । 
शारीनां म ओदनं ददाति || किं पुनः कारणं न सिभ्यति | भसम्थ॑त्यवात्‌ ॥ 


राजगवीक्षीरे दिसमासप्रसद्गो द्विषष्ठीभावात्‌ || ९४ ॥ 


10 राजगवीक्षीरे” हिसमासप्रसङ्गः । कं कारणम्‌ । दविषक्षीभावात्‌ । दे ह्यत्र षष्ठौ | 
राज्ञो गोः क्षीरमिति ॥ कि मुष्यते हिसमासप्रसङ्ग इति यावता इष्डधपेति। वतेते | 
हिक्षमासप्रसङ्गः इति तेषं विज्ञायते इयोः उबन्तयोः .समासप्रसङ्गो हिसमासप्रसङ्ग 
इति । कथं तर्हि | हिभकारस्य समासस्य प्रसङ्गो हिसमासप्रसङ्गः इति ।. राज- 
गोक्षीरमित्यापि प्रापोति न चैवं भावितव्यम्‌ | भवितष्यं च यदेतहयाक्यं भवति गोः 

15 क्षीरं गोक्षीरम्‌ राशो गोक्षीरं राजगोक्षीरमिति | यदा त्वेतदाक्यं भवति राश्चो गोः 

क्षीरमिति तदा न भवितव्यं तदा च प्राप्रोति | तदा कस्मान्न भवति ॥ 


सिद्धं तु राजविशिष्टाया गोः क्षीरेण सामध्यात्‌ । १५ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । राजविशिष्टाया गोः क्षीरेण सह समासो भवति न केव- 
लायाः | किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | यथैवायं गवि यतते न 
४0 क्षीरमात्रेण संतोषं करोत्येवं राजन्यपि यतते | राज्ञो या गौस्तस्या यत्श्षीरमिति | 
नैव वा पुनरत्र गो रांजनमयेक्षमाणायाः क्षीरेण सह समासः प्राप्रोति | किं का- 
रणम्‌ । असामथ्यौत्‌ | कथमसामर्थ्यम्‌ | सापेक्षमसमयथे भवतीति | कथं तारं 
गोः क्षीर मपेक्षमाणाया राज्ा.सह समासो भवति | प्रधानर्मत्र तदा भीभेवति भवति 
च प्रधानस्य सापेक्षस्यापि समासः || । | 


9 अथ किमथ पदविषौ चमथांधिकारः (क्रियते | 





= ५.४०९द्‌; ४,६.६५. † २.९ २; ४. 





षु(० २.६.९१. | ॥ सौकर्णग्रहमोरकय ३६९ 


पदविधौ समर्थवथनं वणांश्रये दाख आनन्तयंविज्ञानात्‌ ॥ ९६ ॥ 


पदविपौ समथाभिकारः क्रियते व्णा्रये शाल भानन्तर्यमात्रे काये यथा 
विज्ञयितेति । तिष्ठतु दध्यशान स्वं शयकेन । तिष्ठतु कुमारी च्छ्ल इर 
देवदत्तेति ॥ 


समथाधिकारस्य विधेयसामानापिकरण्यान्निर्देशानर्थक्यम्‌ || ९७ | ¢ 


समथोधिकारोऽयं विपेयेन समानाधिकरणः । किः च विधेयम्‌. |. समासः | 
यावह्ूुयास्समथेः सम्प्रस हति . तावत्समथेः पदविधिरिति । न च राजपुरूष इस्येत- 
स्छमवस्थायां समथोधिकारेणः किंचिदपि शक्यं प्रवतेयितुं निवतेयितुं वा । समथः 
(विकारस्य त्रिभेयसामानाधिकरण्याच्निर शो जनर्थकः | 


सिद तु समथीनामिति वचनात्‌ || १८ || ` ` _ _ 10 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । समर्थानां पदानां विधिभेवतीतिः वक्तश्यम्‌ || एवमपि 
व्येकयोनै प्रामोति ॥ 


एकशेषनिर्दैरादा ॥ ९९ ॥ 


आथतैकदोषनिरदेशो ऽयम्‌ | समस्य च समथेयोश्च समर्थानां च समथौनामिति || 
स्वमपि षटप्मृतीनामेव प्राति षटपरभृतिषु दयक शेषः परिसमाप्यते | वैष रोषः | 15 
लत्येकं॑वाक्यपरिसमोपिदृ्ेति व्येकयोरपि भविष्यति | एवमपि विविभक्तीनां न 
भामति | सपरथौतसमर्थे पद्धत्पद इति || एवं तर्हिं समथेप्दयोरयं विधिशब्देन 
सख्ैविभकस्थन्कः समसः । समयैस्व विधिः समथेविधिः । समर्थयोर्विपिः सम~ 
विधिः| समथ्यनां विधिः सम्थविषिः । समथौहिधिः समथविधिः | समथ चिषिः 
ख मभविधिः । पदस्य धिभिः पदविधिः | पदयोधिधिः पदविधिः । पदानां विधिः 20 
यदुविधिः { पडादिधिः पदविधिः | पदे बिधिः पदविधिः | सम्थविधिथ समयंके- 
धि समयेविषिश्व समर्थविपिथः समयेविधिश्च समथेविधयः {- पदविधिश्च पदवि- 
विथ पदविधि पद्विधिथ पदविधिश्च पदविधयः | समथेविपयथ पदविधयश्च 
खमयेः पदविधिः । पुवः सम्रपत उत्तरपदलोषी यादृष्डिकी विभक्तिः ]| 


9 ६.९, ५७, † ६.१९. ५; ७६, 
7 वै 


३७०. ॥ व्याकररणमहाभष्यये ॥ (मण २.९. 


संमानाधिकरणेषृपसंख्यानमसम्थ्वात्‌ ॥ २० ॥। 


समानाधिकरणेषुपसंख्यानं कतेम्यम्‌ । वीरः पुरषो वीरपुरूषः । किं . पुनः 
कारणं न सिध्यति । भसमथेत्वात्‌ | कथमसामथ्यम्‌ । 


दरव्यं पदार्थं इति चेत्‌ ॥ २६॥। 


5 यदि व्रष्वं पदार्थो न भवति तदा साम्यम्‌ | अथ हि गुणः पदार्थो भवति 
तदा सामर्थ्यम्‌ । अन्यो हि वीरत्वं गुणो जन्यो हि पुरुषत्वम्‌ | नान्यत्वमस्तीती- 
यता सामर्ध्यं भवति | भन्यो हि देवदलो गोभ्याश्ेभ्यश्च न च तस्थैतावद्य 
सामर्थ्यं भवति । को वा विशेषो यद्वुणे परार्थ सामर्थ्यं स्याष्व्ये च न स्वात्‌ | 
एष विदोषः | एकं तयोरधिकरणमन्यश्च वीरत्वं गणो ऽन्यः पुरुषत्वम्‌ ॥ व्रव्ब- 

10 पदार्धिकस्यापि ताहि गृणभेरात्सामथ्यै भविष्यति । अद्यो द्ष्यपदार्थिकेन 
द्रव्यस्य गुणकृत उपकारः प्रतिज्ञातुम्‌ । मनु चाभ्यन्तरोऽसौ भवति । यद्यप्वभ्य- 
न्तरो नतु गम्यते | न हि गड हत्युक्ते मधुरस्वं गम्यते शृङ्कधेरमिति वा कंदुक- 
स्वम्‌ । गुणपदार्थिकेनापि तद्यैशाक्यो गुणस्य दर्यकृत उपकारः प्रतिश्षातुम्‌ । भ 
गुणपदार्थिकः प्रतिजानीते दव्यपदार्धकोऽपि कस्माच्च प्रतिजानीते | एवमनयोः 

15 तामथ्यै स्याह न वा|| क्र च तावदिदं स्यात्समानाधिकरणेनेति। | यत्र सवै स- 
मानम्‌ | इन्द्रः शाक्रः पुरुहूतः पृरदरः । कन्दुः कोष्ठः कुशूल इति | ैषंजातीयकानां 
समासेन भवितव्यं प्रत्ययेन वोत्पत्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | अर्थगत्यर्थः शाब्द- 
प्रयोगः | अथ संप्रत्याययिष्यामीति शाब्दः प्रयुज्यते | तत्रैकेनोक्तत्यात्तस्यार्थस्व 
हितीयस्य प्रयोगेण न भवितव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | उष्का्थानामप्रयोग इति | न 

0 तर्हीदानीमिदं भवति भुत्यभरणीय इति । तैत समानार्था । एकोऽत्र शाक्वार्थे 

कृत्यो ऽपरो ऽहीर्थे | शक्यो भतं भृत्यः । अहेति भृतिं भरणीयः | भृत्यो भरणीयो 
भृस्यभरणीयं इति || यदि ता यत्र किंचित्समानं कथि विशेषस्तत्र भवितव्य- 
भिहापि तर्हि प्राभोति | ददोनीयाया भाता ददौनीयामतिति । अश्रापि किचित्समानं 
कथि विदोषः | किं पुनस्तत्‌ | सद्धावान्यभावौ | म कचिस्सद्धावान्यभावौ न स्त 

2४ उच्यते चेदं समानाधिकरणेनेति तत्र प्रकर्षगति्धिज्ञाप्यते । यज्र साधीयः सामान- 

धिकरण्यम्‌ । क्र च साधीयः सामानाधिकरण्यम्‌ । यत्रे सै समानं ` सद्ायान्थमानौ 


क ` २,.१- ५८. ¶† २.९, ४९.५७, 





पं०२.९.९. ४ व्याकरगग्रहाभाष्यम्‌ ॥ ३७१ 


द्रष्य च || अथवा समानाधिकरणेनेति तत्समानमाभ्रीयते यत्समानं भवति न च 
भवति न चैतत्समानं कवचिदपि न भवति || अथवा यावद्भूयास्समानद्रव्येणेति 
तावत्स मानाधिकरणेनेति । द्रभ्यं हि लोके ऽधिकरणमिर्युपचयेते | तद्यथा । एक- 
स्मिन्द्रभ्ये व्युदितम्‌ | एकस्मिन्नधिकरणे व्युदितामिति | तथा व्याकरणे विप्रतिषिद्धं 
चानधिकरणवाचि [२,४.९३] इत्यद्रव्यवाचीति गम्यते ॥ एवमपीदमवदयं $ 
` -करतैव्यं समानाधिकरणमस्मर्थवद्वतीति । किं प्रयोजनम्‌ | सर्पिः कालकम्‌ यजुः 
कीतकमिव्येवमर्थम्‌* | यदि समानाधिकरणमसम्थैवद्गवतीस्युच्यते सर्पिष्यीयते 
यजुष्क्रियत इत्यत्र षस्वं न प्रामोति । भधात्वमिहितमिव्येव॑ तत्‌ । एवं च कृत्वा 
समानाधिकरणेषुपपंख्यानं कतेव्यम्‌ | वीरः पुरुषो वीरपुरुषः । किं कारणम्‌ः | 
भसमयंत्वात्‌ | 10 
| न वा वचन प्रामाण्यात्‌ ॥ २२ ॥ 


न वा कतेव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | वचनप्रामाण्यात्‌ । वचनप्रामाण्यादन्न समासो 
भविष्यति | किं वचनप्रामाण्यम्‌ | समानमध्यमध्यमवीराधेति। || 


दुपरख्यातेषु च ॥ ५२ ॥। 


टु्ाख्यातेषु चोपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ । निष्कौशाम्बिः निवीराणसिः ॥ लुपार्या- 1 
तेषु च | किम्‌ | वचनप्रामाण्यादिस्येव | किं वचनप्रामाण्यम्‌ | कुगतिप्रारयः 
[२.९.१८] इति | अस्त्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ । सुराजा भतिरा, 
जेति । न ब्रूमो वृत्तिसुञ्रवचनप्रामाण्यादिति | किं तर्हिं | वाक्षिकवचनप्रामाण्या- 
दिति | सिद्धं तु क्राडस्वतिदुगेतिवचनास्रादयः क्तार्थ हति{ || 


तदर्थगतेर्वा ॥ २४.॥ 20 
शद थ गतेर्वा पुनः सिद्धभेतत्‌ । किमिदं तदर्थगतेरिति । तस्यार्थस्वदथैः.1 तद- 
यस्य गतिस्तदर्थगतिः | तदर्थगनेरिति | यस्यार्थस्य कौशाम्भ्या सामथ्यै स निसो- 
श्यते | भथवा सोऽयेस्तद्थः | तदर्थस्य गतिस्तदथगतिः | तदर्थगतेरिति । योऽयं 
कौशाम्म्या समर्थः स निसोध्यते || 


अथ यत्र बहूनां समासप्रसङ्गः किं तत्र इयोहैयोः समासो भवत्याहोस्विदधि- 2 
 ओषरेण. | कथचात्र विशेषः | 








४ ८ण्द. ८४, ^ ¶ २.०९. ५८ ५ २.२. ९८१० 


१७९ . ॥ व्याक्रनवहाम्मष्वच्‌ ।  {म०२.९.६. 


` समासो द्रयोर्दयोशेशन्दे जेकग्रहणम्‌ 1] २९१ 
समासो इयोदेयोचेद्न्दे ऽनेकयदणं कर्वैव्यम्‌ । चार्थ इन्रः [२.२.२९] अने- 
कमिति वक्तव्यम्‌ । हहापि यथा श्यात्‌ } शक्षन्यमोधखदिरपलाशा इति ।| नैष 
दोषः 1 अत्रापि इयो्ेयोः समासो भविष्यति | 
६ दयोईयोः समास इति चेन्न बहुषु दित्वाभावात्‌ 1 ०६ ॥ 
इयोदेयोः समास इति चेच | किं कारणम्‌ । बहुषु हित्थाभावात्‌ | न बहुषु 
दित्वमस्ति.॥| नावद यमेवं विहः कतेव्यः रक्ष न्यमोधश्च खदिरथ प्रताराथेति १ 
कि ता । एवं विहः करिष्यते | अक्षश्च न्यमोधशथ शक्षन्वमोषौ | खरिरथ परला- 
चाथ लंदिरपलाश्षौ | छनल्षन्ययोषौ च खदिरपलाश्चौ च अक्षन्यमोषखदिरपलश्छ 
10 इति ॥ होतुपोतुमिष्टो द्वाबारस्तर्ि न सिध्यन्ति | होतापोताने्टोहातार इति प्रामोति 
न चैवं भवितव्यम्‌ | भवितभ्यं ध अदैवं विम्रहः क्रियते । होता च पोता व 
हेतापोतारौ । नेष्टा चोद्धता च नेशोद्तारौ | होतापोतारौ च नेशोद्कवारौ च 
. ओतायोनानेषटो दातारः । हतत पोतुनेषटोद्ातारस्तु न सिध्यन्ति | 
समासान्तपरतिषेधश्च ॥ २७ || 
15 ` संभासान्ेस्थ च प्रतिषेधो वक्कव्यः ¡ वाक्छक्लुग्डषदमिति। । वाक चर्ुग्दष- 
हमिति प्रामोति ॥ तरैष दोषः | अन्नापि परेण परेण संह समासो भविष्यति| 
शुकः दृषश्च शुग्द्षदम्‌ | त्वक सुग्दूषदं च रवक्सुग्दषदम्‌ । वाकु त्यक्सुग्दुषदं च 
वाच्कक्सुग्दुषदमिति | शोतृपोतृनेष्टोद्रातार एवं तहि न सिध्यन्ति | इह व 
सुसुकेमजटकेदहोन इनताजिनवाससा । 
४0 समन्तदितिरन्भरेण योवै न सिध्यति ॥ 
शस्तु तद्येविशेषेण | । 
` अविरोषेण बहुत्रीहावनेंकपदप्रसङ्गः ॥ ५८ ॥ 
यद्यविशेषेण बहुत्रीहा वनेकपदप्रसङ्गः | तत्र को दोषः | 
, सत्र .स्वरसमासान्वपंबद्रावेषु दौषः ॥ १९. ॥ 
४ तत्र श्वरसमासान्तपंषद्वावेषु दोषो भवति || स्वर । पुवेशालापियः अपर श~ 





४ ६.१.२५. ¶ ५.४, ९०६, 








पम २.९.९. | ॥ व्याकस्नवहाभाध्यम्‌ 1. + 


लाभियः । स्थर || समासाल्त । पर्गवप्रियः* । समासान्त ॥ पुंवद्ाव । खादिरे- 
तरश्यम्बम्‌ रौरवेतरशम्यम्‌। ॥ 


न वाचयक्तद्युरुषत्वात्‌ ।। २० ॥ 


न त्रैष दोषः | किं कारणम्‌ | अवयवतद्पुरुषत्वात्‌ । अवयवोऽत्र त्युरुष- 
संजञस्तदाश्रयौ समासान्तपुंवद्धावैौ -भविष्यतः || स्वरः कथम्‌ | 


॥ ~ 


तस्यान्तोदाचरवं विप्रतिषेधात्‌ । ३१ ॥ 


अन्तोदात्स्वं क्रियतां पूर्व पदप्रकृतिस्वरः इत्यन्तोदा त्वं भवति विपरतिषेधेन | 
नेष युक्तो विप्रतिषेधः । विप्रतिषेधे परमिस्युच्यतेऽ पै चान्तोदाततत्थं परं 
परवैपदप्रकृतिस्वरत्वम्‌ । न परविप्रतिषेधं ब्रूमः | किं ता । अन्तरङ्गविप्रतिषेधम्‌ | 


निमिचिस्वरबली यस्त्वादा ॥ २.२ ॥ 10 


अथवा" निभिचस्वरा्निमिततिस्वरो बरीयानिति वक्तव्यम्‌ । किं पुनर्मिभिन्तं 
को वा निमिसी | बहू व्रीहि्गिमित्तं तत्पुरुषो निमित्ती 4 || तत्तर्हि वक्तव्यं निभि- 
तस्वरान्निमिसिस्वरो बलीयानिति । न वक्तव्यम्‌ ~| 


एकरितिपास्स्वरवचनं तु जापकं निमिन्तिस्वरबस्ठीयस्त्वस्य ॥ ३३ | 


यदयं युक्तारोद्यादिष्वेकशितिपाच्छब्दं पठति" तञ्ज्ञापयस्याचार्यो निमिलस्वरा- 15 
स्निमित्तिस्वरो बलीयानिति 1 कः पुनरहैति युक्तारोद्यादिष्वेकरितिंपाच्छब्दं प१ठि- 
जुम्‌ । एवं किल नाम पद्यत एकः शिपिरेकशितिः एकशितिः पादो यस्थेति | तञ्च 
न | एवं विग्रहः करिष्यते | एकः शितिरेषु त इम एकशितयः एकशितयः पादा 
यस्येति । अथाप्येवं विग्रहः क्रियत एकः शितिरेकशितिः एकरितिः पादो यस्ये- 
स्येवमपि नाथैः पाठेन । इगन्ते हिगाविव्येष स्वरोऽत्र वाधको भविष्यति! || 20 


भस्य तर्हिं बहृव्रीश्चवयवस्य तत्पुरषसं शा प्रामोति । सुसुश्मजटकेशेन खनता- 
जिनवाससा समन्तशितिरन्परेणेति | तत्र को दोषः । तस्यान्तोदात्तत्वं विप्रतिषेधा- 
दिव्यन्तोदान्तत्वं स्याहिप्रतिषेधेन ॥ त्रैष दोषः । नेदं बहुव्रीह्यवयवस्य तत्पुरुषस्य 
रुक्षणमारभ्यते | किं तर्हिं । यस्य॒ बहुव्रीह्यवयवस्य त्युरुषस्व तष्ठक्षणमस्ति 


+ ५.४.९२. † ६९.३.६४. { ६.९.२२२. ६.२.९. 3 ९.४.३६. ¶ २,६९.५१९ 
9# ९.३, ८१ †† ६.२. २९. 


६.७७ ॥;भ्वाकर्ण महाभाष्यम्‌ ॥ [मण २.९.१६. 


स्यान्तोद्रासस्वं भविष्यति विपरकतविषेन । ननुं चांस्थाध्यस्ति | किंम्‌ । विदोषणं 
विशेष्येण बहुलम्‌ [२.१.९७] हति | बहुलवचनात्न भविभ्यति || 


भस्य तरि बहु वीद्यवयवस्य तत्पुरुषसंश्ञा प्रामोति । भधिकषष्टिवषे हाति * । 


तत्र को दोषः । त्यान्तोदात्तत्व विप्रति षादिव्यन्सोदात्तत्वं स्यादि परतिषेपेन | त्रैव ` 


5 दोषः | इगन्ते द्विगाविव्येष स्वरो ` भविष्यति ।| यस्तर्दि. नेगन्तः । अधिकशातवर 
हति ॥| इह चप्यधिकषष्टिवर्ष इति समासान्तः प्रामोति । डच्यकरणे संख्या- 
यास्तदपुदषस्योपसंख्यानं निशिश्ाधर्यमिति{ । त्ष दोषः । अग्ययादेरित्येवं 
तत्‌ | कं पुनः कारणमव्ययादेरिस्येवं तत्‌ । हह मा भत्‌ | गो्रिशात्‌ गोचत्वारि- 
हादिति || बहुव्रीहिसंज्ञा ताईं प्रामोति । संख्ययाव्ययासन्रादुराभिकंसंख्याः संख्येवे 

10 [२.२.२९] इतिऽ || न संख्यां संख्येये वतेयिष्यामः. | कथम्‌ । एवं विग्रहः 
करिष्यते अधिका षष्टिर्वषौणामस्येति ॥ यथा तर्द स योगः प्रत्याख्यायते तथा 
पर्वेण्भृ प्राप्रोति । कथं च स योगः प्रत्याख्यायते | अरिष्यः संख्योत्तरपदः स॑- 
ख्येयवाभिषायित्वादिति* ॥ भ्त्याखूयाते तस्मिन्योगे संख्यां संख्येये वर्तयिष्यामः | 
तत्वं विग्रहः करिष्यते अधिका षषटिर्वेषौण्यस्येति ॥ सर्वथा वयमधिकषटटिवर्भा्र 

15 मुष्यामहे | कथम्‌ | यावता स च योगः प्रस्याख्यायते ऽयं च विगरहोऽस्ति भिका 
षष्टिवेषौणामस्येति || यत्तु तदुक्तमधिकषष्टिवर्भो न सिध्यतीति ख सिद्धो भवति | 
कथम्‌ | यावता स च योगः प्रत्याख्यायते ऽयं च विहोऽस्ति अधिका षष्टि 
वंषौभ्यस्येति || अधिकशहातवर्षस्तु न तिध्यति | कर्तैव्योऽ यलः || 


इति श्रीभगवत्यतञ्जारषिरथिते व्याकरणमहाभाष्ये हितीयस्याध्यायस्य प्रथमे 
20 पादे प्रथममाद्धिकम्‌ ॥| | 


# २.१. ९१. ¶† ६.२. २९. ५.४. ७३१; ६.९. १६३. § ५.४. ७३; ६.९. ९६३. 
| 4 २.२.२४; ५.४.०३. #+# २.२. २.५१. 





प्रण २.९.२.] ॥ व्याकरभनय्रहाभाव्यम्‌ ॥ ४१७५ 


सुत्रामन्लिते पराङ्वर्खरे ।॥२।१।२ ॥ 


सुबिति किमर्थम्‌ | करोभ्यटन्‌ । नैतदस्ति | भसामभ्योदत्र न भविष्यति । 
कथमसामर्थ्यम्‌ | समानाधिकरणमसमथवद्भवतीति || इदं तरि । पीथे पीड्यमान || 
हदं चाप्युदाहरणम्‌ । करोष्यटन्‌ । मनु चोक्तमसामथ्योदत्र न भविष्यति कथम- 
सामभ्यै समानापिकरणमसम्थवद्धवतीति | नैष दोषः | अ धात्वभिहितमिव्येवं तत्‌| 5 


आमन्तस्य पराङ्गवद्रावे बष्टयामान्लितकारकवचनम्‌ ॥ ९. ||. 


आमन्तितस्य पराङ्गवद्ावे षष्ठचन्तमामन्तितकारकं च परस्याङ्गवद्वतीति 
वक्तव्यम्‌ || षष्ट्यन्तं तावत्‌ । मद्राणां राजन्‌ । मगधानां राजन्‌ ॥ भामन्त्रित- 
कारकम्‌ | कुण्डेनाटन्‌ । नास्त्यत्र विदोषः सति पराङ्कवद्धाबे ऽसति वा | इदं 
तर्हि | पर दना वृधन्‌ ॥ 10 


तन्निमित्तग्रहणं वा | २॥ 
तक्निमित्तव्रहणं वा कतेभ्यम्‌ | आमन्तितनिमित्तं परस्याङ्गवद्धवतीति वक्तव्यम्‌ ॥ 
तचावदयमन्यतरदक्तव्यम्‌ | 
अवचने हि सुबन्तमात्रप्रसङ्गः | २ ॥ 


भनुच्यमाने दयेतस्मिन्छुबन्तमात्रस्य पराङ्गबदावः प्रामोति | अस्यापि प्रसज्येत | 15 
हषत्रेणामने स्वायुः संरभस्व मित्रेणान्ने मित्रधेये यतस्व || किं पुनरत्र ज्यायः | 
तक्चिमित्तप्रहणमेव ज्यायः | इदमपि सिद्धं भवति | गोषु स्वामिन्‌ । भशवेषु 
स्वामिन्‌ | एतद नैव षष्ठ्यन्तं नाप्यामन्तितकारकम्‌ || 


सुबन्तस्य पराङ्गवद्रावे समानाधिकरणस्योपसख्यानमननन्तरत्वात्‌ ॥ ४ ॥ 


दवन्तस्य पराङ्गवद्भावे समानाधिकरणस्योपसंख्यानं कतैष्यम्‌ । तीश्गया ष्या 20 
सीव्यन्‌ | तीश्णेन परद्युना वन्‌ | किं पुनः कारणं न सिध्यति | अननन्त- 
रत्वात्‌ || ननु च प्रस्य पराङ्गवद्ाषे कृते पूषैस्यापि भविष्यति | 





# २, ३, ३९. 


द्द ॥ व्य्करेण्पराभ्छथ्यःप 1 [मन्ड 


स्वरे ऽवधारणाश्च || ९ ॥ 
स्वरेऽबधारणाञ्च न सिध्यति । स्वरेऽवधाररणं क्रियते नानन्तर्ये ॥ 


परमपि च्छन्दसि ॥. ६ ॥ 
परमपि च्छन्दसि पुरेस्याङ्गवड वतीति | वक्तव्यम्‌ | भा ते पितर्मरुतां सक्चमेदु ॥ 
¢ भ्रति. त्वा दुहितार्दिवः, । वृणीष्व दुहितार्दिषः ॥। ` 
` . . अव्ययप्रतिषेधश्च ॥ ७.॥ ` ` 
अव्ययानां च प्रतिरेपो वक्तव्यः | उद्ैरधोयान । नीचैरीयान || 


अनव्ययीभावस्य | ८ ॥ 


अनव्ययीमावस्थेति वक्तव्यम्‌ । इह मा भूत्‌ । उपागन्यधीयान प्रत्यगन्य भीयान ॥ 
10 अथ किमथ स्वरेऽवधारणं क्रियते । 


स्वरेऽवधारणं सुबलोपाथम्‌ ।। ९ ॥ 
 स्वरेऽवभारणं क्रियते सुम्लोफो* मा भूदिति । परद्यना वृथन्‌ | 


न वा सुबन्तैेकान्सत्वात्‌ । ९० ॥ | 


न वा करैव्म्‌ | किं कारणम्‌ | इभन्तैकीन्तस्वात्‌ | ञबन्तैकान्तः पराङ्ग- 

15 बद्धावो भवति ॥ ॥ ` 

| _ , . परातिपादिकेकान्तस्तु सुम्लोपे ॥. ९५ ॥ . , 

प्रातिपदिक्ैकान्तस्तु ः- भक्ति कम्लोपिः कृते। ||. परस्ययलक्षणेन डवन्तैकान्तचद 
व्यासस्मासस्वरेऽवधारणं न क्ैव्यं बलोपाथंम्‌ । प्रातिपदिकस्थायाः गो तुमु- 
च्यते | तस्मात्स्वरग्रहणेन नार्थः || इदं तर्हि प्रयोजनं पत्वणत्वे$ मा भूतामिति | 
0 कये सिभ्चन्‌ | चमे नमन्निति ।| एतदपि नासत प्रयोजनम्‌ । इह तावत्कूपे सिभ्च्तिति 
स्वाश्रयं पदादित्वं मविष्यति¶ । चम नमननिति पूवैपदाल्वंशञायामनः [८.४.३। 
इत्येतस्मान्नियमाच्च भविष्यति | ननु च समास एतङ्गवति पुयैपदरमुं्तरपदमिति । 
नेत्याह । अविरोषेभेतद्धवति । पूर्वं पदं पुेपदम्‌ । उत्तरं पदमुर पमिति ॥ 





„~ __ --------~~ ~~~ ~ कानानानि = = ~ 
क २.४. ७६. ¶ ६.६. ६८. { ९.१.९२ - § ८.१, ५०; ८.४.२. 4 ८.२.२९९. 








पा००२.९.३-४. | ॥ व्याकरमरमहामाष्यष्ट-॥: ३७ 


प्रक्षडारारषमासः ॥.२।१६।३२॥ 


प्राग्वचनं किमथेम्‌ । 
भाग्वचनं संज्ञानिवृच्यर्थम्‌ ॥ ९ ॥ 

प्राग्वचनं क्रियते समाससंज्ञाया अनिवृत्तिर्यया स्यात्‌ | अक्रियमाणे हि प्रावचने 
ऽनवकादा अव्ययीभावारयः संज्ञाः समाससंज्ञां बाधेरन्‌ । ता मा वापिषतेति ऽ 
परागवचनं क्रियते || अथ क्रियमाणेऽपि प्राग्वचने यावत्तानवकाश्चा अनव्ययीभावादयः 
संज्ञाः कस्मादेव न“वाधन्ते | क्रियमाणे हि प्रावचने सत्यां समास्रसंज्ञायामेता अवब- 
वसंज्ञा आरभ्यन्ते तत्र वचनात्समावेश्यो भविष्यति ॥ समाससंज्ञाप्यनवकादा सा 
वचनाद्धविष्यनि | सावकादा समाससंज्ञा | कोऽवकादाः | विस्पष्टादीन्यवकाशः | 
विस्पष्टं पदुर्धिस्पष्ट पटुः । नैषो ऽस्त्यवकाराः | एषा ाचा्यस्य हौली लक्ष्यते येत्नैवा- 10 
वयवकारये भवति तेनैव समुदायकायैमपि भवति । येनैवात्रावयवकायै स्वरस्तेमैव 
समुदायकायेमपि समासो भविभ्यति । विस्पष्टादीनि गुणवचनेषु [६.२.२४ | इति ॥ 
दं तर्हि ¡ काकताठीयम्‌ अजाकृपाणीयम्‌ । अत्रापि येनैवावयवका्ै प्रस्ययो- 
स्पत्तिः क्रियते तेतरैव समुदायकायै समाससंज्ञा भविष्यति । समासाच्च तदिषयात्‌ 
[९.३.१०६] इति ॥ हदं तर्दि । पुनाराजः पुनर्गेवः । अत्राप्यवदयं तस्पुरुषतंश्ञा 15 
कनक्तव्या तत्ुरुषाश्रयः समासान्तो यथा स्यान्‌” || इदं ति । पुनराधेयम्‌ । अत्राध्य- 
करयं गतिसंज्ञा वक्तश्या† गतिकार कोपपदात्कृत्‌ [६.२.९३९ | इत्येष स्वरो. यथा 
स्यात्‌ || इदं तार्हि | पुनरस्स्यूतं वासो देयम्‌ । भत्राप्यवदयं गतिसंज्ञा वक्तव्या गति- 
गतौ [८.१.७०] इति निषातो यथा स्यात्‌ | वदि तन्नासि पुनश्चनसौ छन्दसीतिः | 
सति तस्मिस्तेतैव सिद्धम्‌ ॥ एवमप्येका संज्ञेति वचनान्नास्ति यौगपद्येन संभवः | 20 
पयौयः प्रसज्येत | तस्मास्राग्वचनं कर्तव्यम्‌ ॥ 


सह सुपा ॥ ९।१।५४५॥ 
सदव चनं किमर्थम्‌ | ` 
1 सहवचनं पृथगसमासार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
सहमदणं क्रिवते सदमुतयेः समाससंज्ञा यथा स्यादेकैकस्य मा भूदिति | कि 2; 


गयि मि म 


०० "्णायपमषिषाषषगिणिरिररषयषरिगीणणणिणष्यीं 
 । ५,४.९१; ९२. ॥। २.२.९८. ‡ ९.४ ०६० क, $ २.४.९१, 
468 


३७८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ {मिन २२९.२. 


च स्यात्‌ | यद्येकैकस्य समाससंज्ञा स्यादिह ऋक्पाद इति समासान्तः प्रसज्येत* | 
इह च राजाच इति द्वौ स्वरौ स्याताम्‌। || कथं च कृतयैकै कस्य संज्ञा प्रामोति । 
प्रयेकं वाक्यपरिसमामिदृष्टेति । तद्यथा । वृद्धिगुणसंज्ञे प्रत्येकं भवतः | ननु चाय- 
मप्यस्ति दृष्टान्तः समुदाये वाक्यपरिसमाप्निरिति । तद्यथा । गगोः शातं दण्डयन्ता- 
£ मिति | अधिनथ राजानो हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मि- 
दृष्टान्ते यदि तत्र प्रव्येकमि्युच्यत हृहापि सहग्रहणं कतेभ्यम्‌ | अथ तत्रान्तरेण 
` भ्रस्येकमिति वचनं प्रस्येकं गुणवृदधिसंज्ञे भवत इहापि नाथेः सहम्रहणेन || एवं तर्हि 
सिद्धे सति यत्सहम्रहणं करोति तस्येतसयोजनं योगाद्धं यथा विज्ञायेत | सति च 
योगाङ्ग योगविभागः करिष्यते | सह खप्समप्यते | केन सह | समर्थेन | अनुव्य- 
10 चलत्‌ अनुप्राविदात्‌ | ततः छपा | डपा च सह इष्समस्यते | अधिकार 
लक्षणं च | यस्य समासस्यान्य्टक्षेणं नास्तीदं तस्य ठक्षणं भविष्यति | पनस 
सस्युतं वासो देयम्‌ । पननिष्कृतो रथ इति || 


इवेन विभक्त्यलोपः पूवेपदप्रकृतिस्वरस्व॑ च ॥ २॥ 


, इवेन सह समासो विभक्तयरोपः पूवेपदप्रकृतिस्वरस्वं घ वक्तव्यम्‌ | षाससी 
15.इव | कन्ये इव ॥ 


अन्ययीभावः॥ २।१९।५॥ 


किमथे महती संज्ञा क्रियते | अन्वर्थसंज्ञा यथा विज्ञायेत | अनव्ययमव्ययं 


भवतीत्यव्ययीभावः | अव्ययीभावश्च समासो ऽत्ययसंज्ञो भमवतीस्येतन्न वन्कव्यं 
भवतिः | 


४ अव्ययं वरिभक्तिसमीपसमृदिव्यृद्बयोभावास्ययासंप्रतिशब्द- 
प्रादुभावपश्चायथानुपूरव्ययीगपदयसादृर्यसंपत्ति- 
साकल्यान्तवचनेषु ॥ २ । १. । ६ ॥ 


इह कस्मान्न भवति । छमद्राः डमगधाः । सपुत्रः सच्छा इति । समृदौ 
साकल्य इति च प्राभोति |] मेष दोषः इह कथिस्वमासः पूर्वपदाथेभरधानः 


+ ९.५.०४. † ६.६.२२२. ‡ ९५.५९. 





पा० २,१९.५९०. | ॥ व्याकरभमबहामष्यम्‌ ॥' ३९. 


कथिदुत्तरवदाथप्रधानःः कथिदन्यपदार्प्रधानः कथिदुभयपदायंप्रधानः । पुवेपदार्थ- 
प्रपानो ऽव्ययीभावः | उत्तरपदायेप्रधानस्तव्पुरुषः | अन्यपदायेप्रधानो बहृव्रीहिः | 
उभयपदाथप्रधानो इन्दः | न चात्र पुवेपदाथेप्राधान्यं गम्यते || शथवा नेमे 
समासार्था निर्दिरयन्ते | किं तई । अव्यया निर्दिरयन्त इमे । एतेष्वर्थेषु यद- 
व्ययं वतैते तर्डबन्तेन सह समस्यत इति ॥ ¢ 


यथासादृश्य ॥ २।१.। ७ ॥ 


असादृदय इति किमर्थम्‌ | यथा देवदन्तस्तथा यज्ञदत्त हति ॥ असादृदय 
इद्युच्यते तज्रेदं न सिध्यति | यथाशक्ति यथाबलमिति | किं कारणम्‌| यथेत्ययं 
प्रकारवचने थाल्‌ स च सादये वतैते“ | त्रैष दोषः | भयं यथारब्दोऽस्त्येवा- 
व्युत्पन्नं प्रातिपदिकं वीप्सावाचीं | अस्ति प्रकारवचने थाल्‌ । तश्यदव्युत्पन्नं प्रातिपदिकं 10 
वीप्सावाचि तस्येदं ब्रहणम्‌ || अथ यः प्रकारवचने थाल्‌ तस्य प्रहणं कस्मान्न 
भवति | पूर्वेण प्रामोति सादृरयसंपत्तीति। । प्रतिषेधवचनसामध्यौच्च भविष्यति || , 


सुप्प्रतिना मात्रं ॥ २।१.।९.॥ 


उजिति वतेमाने{ पुनः उन्प्रहणं किमथेम्‌ । भव्ययमिस्येवं तदभृत्खम्मात्र 
यथा स्यात्‌ । माषप्रति सुपप्रति ओदनप्रति | 15 


अक्षरराकासंख्याः परेणा ॥ २ ।१।१९०॥ 


अन्षादयस्तृतीयान्ताः पूर्वोक्तस्य यथा न तेत्‌ । 


अक्षादयस्तृतीयान्ताः परिणा सह समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ । पूर्वोक्तस्य यथा 
न तत्‌ | भयथाजातीयके दयोस्ये । अक्षिणदं न तथा वृत्तं यथा पूर्वमिति । अक्षपरि 
शलाकापरि ॥ | | 20 


रकत्वेऽश्चदालाकयोः 
अल्षशलाकयोचैकथचनान्तयोरितिः वक्तव्यम्‌ ` | इह मा भृत्‌ | अन्ताभ्यां 
वृत्तम्‌ अकषिवृत्तम्‌ ॥ | 


भै ५९.३.२३. ॥ ॥॥ २.६.६६. ‡ २,.६०२. 


३८० ॥ व्याकरणहापोप्वम्‌ ॥ ~ [मन २.९ 
कितवभ्यवहारि च ॥ ९॥ 


कितवव्यवहार इति वक्तव्यम्‌ । इह मा मूत्‌ [` अदं न तथा वृत्तं शकटेन 
यथा पुवेमिति ॥ 
` भक्षादयस्तृतीयान्ताः पूर्वोक्तस्य यथा न तत्‌ । 
॥ कितवव्यवहारे च रकल्येऽक्षद्रालाकयोः ॥ ९ ॥ 


विभाषापपरिबहिरञ्चवः पञ्चम्या ॥ २।१ । ११-१२॥ 


, योगविभागः कतैव्यः । विभाषेत्ययमधिकारः | ततो ऽपपरि बहिर्चवः पभ्च- 
म्येति ॥ पत्चमीग्रहणं शक्यमकतैम्‌ । कथम्‌ । खबन्तेनेति' वतत एतैश्च कममपरव- 
चनीचैर्योगि पल्चमी विधीयते† । तत्रान्तरेणापि पश्चमी ग्रहणं पञ्चम्यन्तेनैव समासो 
10 भविष्यति | इदं तार्हि प्रयोजनम्‌ । बहिः शाब्देन योगे पञ्चमी न विधीयते तत्रापि यथा 
स्यात्‌ । बहिग्रौमम्‌ बहिम्रीमात्‌ || भथ क्रियमाणेऽपि पश््रमीम्रहणे यावता बहिः- 
शब्देन योगे पश्चमी न विधीयते कथमेत्रैतस्सिष्यति | पथ्चमीग्ररणसामर्थ्यात्‌ ॥ 


आङ्यदामिविष्योः ॥ २।१.।१२ ॥ 


मयोदामिविधिन्रहणं शक्यमकतुम्‌ । कथम्‌ । पञ्चम्यन्तेनेति; वतेत आ च 
15 क्मभ्रवचनीययुक्ते पचमी विधीयत$ एतयोश्चैवाथेयोरा इ्मेप्रवचनीयसंज्ञो भवति 
नान्यत्र4 ॥ 


यस्य चायामः ॥ ९।१.।१& ॥ 


किमुदाहरणम्‌ । भनुगद्धं शास्तिनपुरम्‌ । अनुगङ्गं वाराणसी । भनुश्चोणं 
पाटरिपुत्रम्‌ || यस्य चायाम ह्युच्यते द्धा चाप्यायता वाराणस्यप्वायता तत्र कुत 
90 एतदङ्गया सह समासो भविष्यति न॒ पनवाराणस्येति । एवं तर्हि लक्षणेनेति** 
वकते गङ्गा चैव हि लक्षणं न वाराणसी || अथवा यस्य चायाम इत्युच्यते गङ्गा 
 चाप्यायता वाराणस्वप्यायता तत्र प्रकषेयतिर्धिज्ञास्यते साधीयो यस्यायाम्‌ इति । 
साधीय गद्धया न वारणस्याः ॥ 


[कय क 1 


# २.९.४. † २.६.९० (२९). ` २,६.९२. § २,३.९०. बू १,४.८९, अक २,६.६४. 





भा० २.१.१.९.-९८. | 4॥-व्वाकरणमहाभाष्यम्‌॥ ३८९ 


 ,. तिष्ठरप्रमृतीनि च ॥ २।१.।१.७॥ 


किमथेधकारः | एवकाराथेः । तिष्ठहुपरभृतीन्येव । क मा भूत्‌ | परमं `तिष्ठ || 


तिष्ट कांलविदोषे ॥ ९ ॥ 
तिह कालविशेष इति वक्तव्यम्‌ । तिष्ठन्ति गावो अस्मिन्काले तिषठह | बहदु || 


खलेयवादीनि प्रथमान्तान्यन्यपदार्थ ॥ ‰ ॥ $ 
` खलेयवादीनि प्रथमान्तान्यन्यपदा्थ समस्यन्ते | खलेयवम्‌ खलेबुसम्‌ लूमय- 
वम्‌ लूयमानयवम्‌ पतयवम्‌ पूयमानयवम्‌ ॥ ` | 


`. परे मध्ये षष्ठ्ावा॥२।१।१८॥. 


वावचनं किमथेम्‌ । विभाषा समासो यथा स्यात्समासेन मुक्ते धाक्यमपि यथा 
स्यात्‌ | पारं गङ्गया इति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । प्रकृता महाविमाषा तया 10 
वाक्यमपि भविष्यति | हदं तर्हि प्रयोजममव्ययीभावेन मुक्ते षष्टीसमासो* यथा 
स्यात्‌ | गद्खापारमिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । भयमपि विभाषा बष्ठीसमा - 
सोऽपि तावुभौ वचनाद्विभ्यतः || भत उत्तरं पठति | 


पारे मध्ये षष्ठया वावचनम्‌ ॥ ९ ॥ | 
पारे मध्ये ष्या वेति वक्तव्यम्‌ ॥ 15 


अवने हि षष्ठीसमासाभवो यथैकदेरिप्रधाने ॥ २ ॥ 
अक्रियमाणे हि बावचने षष्ठीसमासस्याभावः स्याद्ययैकदेशिप्रधाने। | तव्था | 
एकदेशिसमासेन मुक्ते षष्ठीसमासो न भवति । कि पुनः कारणमेकदेशिखमासेन मुक्ते 
षष्ठीसमासो न भवति । समासतद्धितानां वृत्तिर्धिभाषा वृत्तिविषये नित्यो ऽपवादः | 
इह पुनवौवचने क्रियमाण एकया वृत्ति्िभाषापरया वृत्तिविषये विभाषापवादः || 20 





कै २०२. ८१ 4 २०२०.९.. 


३८२ ` ॥ व्याकरणमहामाष्यम्‌ +  [म० २.९.२८ 


एकारान्तनिपातनं च ॥ २॥ 


एकारान्तनिपातनं च कतेव्यंम्‌ 1 पारे गङ्धमिति | न कर्वैव्यम्‌ । सप्तम्या अलुका 
सिद्धम्‌" । भवेस्सिडध यदा सप्तमी यदा त्वन्या विभक्तयस्तदा न तिध्यति | 


नदीभिश्च ॥ २।१।२०॥ 


5 नदीभिः संख्यासमासे ज्यपदार्थै प्रसिषेधः ॥ ९ ॥ 


नदीभिः संख्यासमासे ऽन्यपदार्थे प्रतिषेधो वन्कव्यः | द्वीरावतीको देशः | त्रीरा- 
वतीको देदाः । नदीभिः संख्येति प्राभोति ॥ न वक्तव्यः | इह कथित्समासः पूरव॑प- 
दाथप्रधानः कथिदुत्तरपदा्थप्रधानः कञिदन्यपदाथंप्रधानः कथिदुभयपदाथप्रधानः । 
पु्वैपदा्प्रधानो ऽव्ययीभावः | उत्तरपदाथंप्रधानस्तत्पुरुषः | भन्यपदायेप्रधानो बहू- 
10 व्रीहिः | उभयपदाथप्रधानो हन्हः | न चात्र पूवेपदाथप्राधान्यं गम्यते || नन्‌ च 
यथेनोच्यते स॒ तस्यार्थो भवति । भत्र च वयमेताभ्यां पदाभ्यामेतमथ मुच्यमानं 
पयामः || एतदेव न जानीमो यद्यनोच्यते स तस्यार्थं हति | अपि चान्यपदार्थता 
न प्रकल्पेत | चित्रगुः शबलगुरिति । किं कारणम्‌ | भत्रापि हि वयमेताभ्यां शाब्दा- 
भ्यामेतमथं मच्यमानं प्रयामः || य्यप्यक्ैताभ्यां शब्दाभ्यामेषोऽथं उच्यतेऽन्यपदा- 
15 योऽपि तु गम्यते । तत्रान्यपदार्थाश्रयो बह व्रीहिर्भविष्यति | इहापि तर यद्यप्य- 
न्यपदार्थो गम्यते स्वपदार्थोऽपि तु गम्यते तत्र स्वपराथाभ्रयोऽन्ययीभावः प्राभोति ॥ 
एवं तर्हीदमिह संप्रधायेम्‌ । अव्ययीभावः क्रियतां बहुक्रीहिरिति | बहुव्रीहिभविष्यति 
विप्रतिषेधेन । भवेदेक संज्ञाधिकारे सिद्धं परकायेत्वे तु न सिध्यति । आरम्भसाम- 
थ्यौदव्ययीभावः प्रामोति परकार्येत्वा्च बहुव्रीहिः! | परंकार्यत्व च न दोषः | 
20 नदीभिः संख्यायाः समाहारे ऽउ्ययीभावो वक्तव्यः । प्न चावरयं वक्तव्यः | 


सर्वैमेकनदीतरे; || 


द्विगुश्च ॥ ९ । १।९२. ॥ 


हिगोस्तस्पुरुषस्वे कानि प्रयोजनानि. द्िगोस्तस्पुरुषत्वे समासान्ताः प्रयोजनम्‌ ॥ 
पञ्चगवम्‌ दशगवम्‌  पन्चराजम्‌ ददहाराजम्‌* ॥ 


# ६.३.९४, † २.२.२४. ‡ (५.४. ९९०; १.४.१८.) ९ ५९.४९२; ९६, 





वा० २.९.२०-२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ 1 ३५३ 


द्वितीया श्ितातीतपतितगताव्यस्तप्राप्रापचरेः ॥ २।९ । २४ ॥ 


त्रितादिषु गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥ 


भ्नितादिषु गमिगाम्यादीनामुपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । भामं गमी मामगमी | मामं 
गामी मामगामी ॥ 


श्रितादिभिरहीने द्वितीयासमासवचनानथक्यं बहुव्रीहिकृतत्ात्‌ ॥ २।।5 


भ्नितादिभिरदहीनवाचिन्या दितीयायाः समासवचनमनर्थकम्‌ | किं कारणम्‌ । 
बह व्रीहिकृ तत्वात्‌ | इह यः कष्टं भरितः कष्टमनेन नितं भवति | तत्र बहुव्रीहिणा 
सिद्धम्‌ || | 


अहीने द्वितीयास्वरवचनानथक्यं च ॥ ३ ॥ 


अहीने दितीया [६.२.४७] पवेषदं प्रकृतिस्वरं भवतीस्येतस्स्वर वचनमनर्थकम्‌ | 10 
किं कारणम्‌ ] बहुत्रीहिकृतस्वादेव* || 


जातिस्वरप्रसद्गस्तु । ४॥ 


जातिस्वरस्तु प्रामोति । चामगतः अरण्यगत इति | जातिकारङखादिभ्योऽना- 
ख्डादनात्कतो ऽकृतमितम्रतिपत्ताः [६,२.१९७०| इति || 


ततर जातादिषु वावचनास्सिद्धम्‌ ॥ ५॥ ` ` 15 


यदेतद्वा जाति [९७९] हप्येतद्वा जातादिष्वित्ति वश्यामि | इमे जातादयो 
भविष्यन्ति || ननु च भेदो भवति । बहुत्रीहौ सति समासान्तोदात्तत्वेनापि भवि- 
सव्यं पूर्वैपदप्रकृतिस्वरत्वेनापि त्पुरषत्वे सति पूवैपदभकृतिस्वरस्वेनैव | नास्ति 
भेदः । योऽपि हि तदपुरुषमारभते न तस्य दण्डवारितो बहुत्रीहिः । तश्र तत्परुषे 
सति है समासौ है स्वरी बहृन्रीही सत्येकः समासो दविस्वरस्वरम्‌ | एवं तर्हि 0 
सिदे सति यत्ततपुरुषं शासि तज्जापयत्याचायेः समानेऽ्थ केवलं विमरहमेदा्त्र 
तरपुरुषः प्रामोति बहत्रीहिथ तत्र तस्युरुषो भवतीति | किमेतस्य क्नापने प्रयोजनम्‌। 
राज्ञः सला राजसखः । राजा सखास्येति बहृव्रीहिने भवति | तेतञ्ज्ञापकताध्य- 
मपवदररत्सगौ घाभ्यन्त इति -। बाधकेनानेन भवितव्यं सामान्यविहितस्य विरोष- 


कक "~~ --~---------~--~---~----~----------~-----~--~--~------ 














३८४. ॥ व्यार्करणमहामभाष्वमे |  . [मं० २.९२ 


विहितेन । अथ न सामान्यविषितो यदुच्यते बहू व्रीहिकृकत्वादित्थेतद युक्तम्‌ || असि 
वेपि विशेषो बहु ब्रीहेस्तस्पुरषस्थ चः | किं राग्दक्ृतो ऽथाथेकृतः । राब्दकृतथा- 
थेकृत |. शाभ्यकृतस्तावत्‌ । बहुत्रीहौ सति कणा भवितव्यं* तस्पुरूषे सति न भवि 
तव्यम्‌ । अथेक्ृतः । तत्पुरुषे सति रुहादीनां क्तः करतेरि भवति धास्वर्थस्वानः 
5 पवर्गे | आरूढो वृक्षं देवदत्त हति । बहुव्रीहौ व्यपवृक्ते कर्मणि भव्रति | आस्म 
वृक्षो देवदत्तेनेति || अन्यथाजातीयकः खल्वपि प्रस्यक्षेणाथंसं परत्ययोऽन्यथाजाती बकः 
संबन्धात्‌ । राज्ञः सखा राजसखः | संबम्धादेतद्रन्तव्यं नूनं राजाप्यस्य सखेति ॥ 
उभयं ` खस्वषीष्यते | स्वस्ति सोमसखा पुनरेहि । गवांसख इति ॥ 


खटा क्षेपे ॥ २।१। २६. ॥ | 
10 किमुदाहरणम्‌ । खट्रारूढो जाल्मः । क्षेप इत्युच्यते कः क्षेपो नाम | अषीत्य 
ज्ञात्वा गुरमिरनुक्घातेन खटरारोहव्या | य इदानी मतो ऽन्यथा करोति स उच्यते खटरा- 
रूडोऽवं जाल्मः । नातित्रतानिति ॥ - 


अत्यन्तसंयोगे च ॥ २ । १. । २९. ॥ 


अत्यन्तसंयोगे समासस्याविरोपव वनात्केन समास्ववनान्थक्यम्‌ ॥ १९ ॥ 
15 अत्वन्तसंयोगे समासस्याविशेषव चनाल्क्तान्तेन चाक्तान्तेन च कालाः क्तान्ते- 
नेस्थेतत्समासबचनमनथेकम्‌† | अत्यन्तसंयोग इत्येव सिदम्‌ ॥ 
 अनव्यन्तसंयोगार्थं तु | २॥ 
अनस्यन्सं योमाथे तर्हीदं वक्तघ्यम्‌ | षण्मुहुता्चराचराः | ते कदाचिदहगेच्छन्ति 
कदाचिद्रात्रिम्‌ । तदुच्यते | अहगेताः रात्रिगता हति ॥ नैतदस्ति । गतप्रहणादप्ये- 
90 तत्सिद्धम्‌‡ ।| इदं ताहे । भहरतिसृताः रात्रयतिसृताः । मासप्राभितशन्द्रमाः ॥ 


तृतीया तक्कृतार्थेन गुणवचनेन ॥ २ । १. । ३.० ॥ 
` तत्कृतार्धनेति क्िमथेम्‌ । दधा पटुः | धृतेन पटुः | नैवदल्ति | असामथ्यादत्र न 
भविष्यति | कथमसामर््यम्‌ । सये्षमतमथे भवतीति| न हि दधः षदुना साम्यम्‌ 
+ ५.४.१९४, † २.६.२८. ‡ २,६.२४. 





1 


का०.२.६.२६।२९. ] :॥ ब्वाकटशयहाभाष्यय॥ ई. 


केन तर्हि | भुजिना । दधा भृदधुः ` षष्टुरितिः । इहापि तर्हि न प्रामोति | शङ्कला- 
खण्डः किरिकाण - जति | -अक्रापि न रशाङ्लाकाः खण्डेन सानण्केन्‌ |`केन, 
तारे | करोतिना | शङ्कया कृतः खण्ड इति | अचनाद्बिष्यति । श्टपि. र्द 
वचनासखाभोति । दधा पटुः । धृतेन पटुरिति | तस्मात्तत्कृतये मरहणं कतेव्यम्‌ ॥ 
गृणवच॑नेनेति किम्थम्‌। गोमिवेपावीन्‌ ] ` न्येन धनेधान्‌)| किं पुनरिहोदाहरणम्‌ | 
शङ्लाखण्डो देवदत्त इति । कथं पुनगणवचनेन समास उच्यमानो इव्यधचनेन . 
स्यात्‌ † इह तृतीया तत्कृतार्थेन गुणेभेकीयता सिद्धम्‌ । सोऽयमेवं सिदे सति यदह च- 

नमहणंः करोति तस्थैतखयोजनंमेवं यथा ` विज्ञायेत गुणमुष्कवता `गुणवचनेनेति ॥ 

कथं पुनरयं मुणवचनः सन्द्रव्यवचनः संपद्यते | आरभ्यते `तत्र ' मतुब्लोपो 

गुणवचनेभ्यो मतुपो लुगिति ` । तद्यथा | शयङ्धगुणः युः 1 कृष्णगुणः ` क्ष्णः 1 10 
एवं खण्डगृणः खण्डः || य्येवं नाथेस्तत्कृताथं पह्णेन | भवति हि शङ्लाया 
खण्डेन साम्यम्‌ | .असामथ्यौचक्र न . भविष्यति | दधां पटुः । धृतेन पट्रिति । 
तस्मान्नर्थस्तत्कृतार्थप्रहणेन ॥ | 


तृतीयासमासे. ऽयैग्रहणमनथकमर्थगतिदह्यंवचनात्‌ ॥ ९ ॥ | 


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धि तृतीयासमासे ऽथे ग्रहणमनर्थकम्‌ । किं कारणम्‌ । "भये गतिद्यैवचनात्‌ 1 15 


अन्तरेणापि वचनमर्थगतिभोविष्यति || 
` - िर्देद्यभिति चेन्तृतीयार्थीनिदेशोऽपि ॥-९-॥ 

भचेवमपि निर्ैश्षः कतेव्यः इति, चेसुतीधायेनिदेशोऽपि कतेष्यः स्यात्‌ । पृतीया -! 
तदथेकृतार्थनेति वक्तव्यम्‌ || तन्तर्दि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ |` नावमर्थनिर्दशाः ] 
किं तर्हि । योगाज्गमिंदं निर्दिरयते।। - सवि; च. योगाद्के योगविभागः करिष्यते | तृती- 20 
या पतत वु नेन .समृस्यते । ततोऽ्यन । अथेदम्देन ऋ तृतीया समस्यते । 
धान्याथः । पूर्वसदृशसभोनाथः[२.९. ३ ९| हंत्य्थ॑महणे न कतेव्यं भवति || 


पवेसदृरासमेोनंथैकरहनिपुणमिश्र श्वेः ॥ २।१.।२१ ॥ 


पूादिष्ववंरस्योपसख्यानम्‌ ।। ९ ॥ 
चृ्यरिष्ववरत्योपरसंस्परानं . कतेव्यम्‌ । मासावरोऽयम्‌ ,| संवत्सरावरोऽवम्‌ 1| 25 


+ ऋ = => = ~~~ 





49 छ 


दद ॥ व्याकरणबहाभावष्यम्‌ ॥ [म २.९१ 


सदृ राग्रहण उक्तम्‌ ॥ २॥ 
किमुक्तम्‌ । सदृशम्रहणमनर्थकं तृतीयासमासवंचनात्‌ । ष्धर्थमिति चेकती- 
यासमासवचनानथे क्यमिति! || 


कतकरणे कृता बहुलम्‌ ॥ २ । १।३२ ॥ 


. . कतृकरणे कृता क्तेन ॥ ९ ॥ 
ककरणे कृता क्तनेति वक्तव्यम्‌ । अशिषहतः नलनिरिन्नः दात्रहूनः, प्र 
च्छिन्नः । कृता क्तेनेति किमथम्‌ । इह मा भूत्‌ । रात्रेण लूनवान्‌ | पर शुना छिन्त- 
वान्‌ || तत्त वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ } बहूलवचनास्तिडधम्‌ ।|. 


कृत्यैरधिकायैवचने ॥ २ ।१।३३ ॥ 


10 कृत्येरधिकार्थवचने न्यत्रापि दृइयते ॥ ९ ॥ 
कृत्यैरधिकाये वचने <न्यन्रापि दृदयतं हति वक्तव्यम्‌ । बुसोपेन्ध्यम्‌ तृणोपे- 
न्ध्यम्‌ धनघात्यम्‌ ॥ 
साधनं कृतेति वा पादहारकायर्थम्‌ ॥ २ ॥ 
अथवा साधनं कृता सह समस्यत इति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोजनम्‌ । पादहा- 
15 रकाद्यथम्‌ | पादाभ्यां हियते पादहारकः | गते चोप्यते गलेचोपकः || 


अन्नेन व्यञ्जनम्‌ ॥-२।२१.।२४ ॥ 
भध्येण मिश्रीकरणम्‌ ॥ २।१ ।२५९ ॥ 


अन्नेन व्यश्जनं भक्ष्येण भिश्रीकरणमित्यसमयथसमासः ॥ ९ ॥ 


अतेन व्यश््नं मश्येण भिभीकरणमित्यसमथे मासो ` ऽयं त्ष्टव्यः | कि 
20 कारणम्‌ ॥ 


कारकाणां क्रियया साम्यात्‌ ॥..९ ॥ 
कारकाणां क्रियया सम्य भवतिः न तेषामग्योऽन्येन | तथथा । नि जबण्वा 
# ६.२. ६६१५. 


प्रा * २.९.२३२-३५.| ॥व्याकरनवहाभत्थम्‌ ॥ -द<9 


दाभ्यां काषछठाभ्यां सामथ्यै न तेषामन्योऽम्येनः|| एवं तद्योहांयमत्ेन व्यञ्जनं भष्वेण 
मिभ्रीकरणमिति न चास्ति सामथ्ये तजर वचनात्स्षमासो भविष्यति .|| 


वयनप्रामाण्यादिति चेन्नानाकारकाणां प्रतिषेधः ॥ ३ ॥ 


वचनप्रामाण्यादिति चेत्चानाकारकाणां प्रतिषेधो वक्व्यः | तिष्ठतु दधा ओदनो 
भुज्यते देवदत्तेनेति ॥| ` ¢ 


सिद्धं तु समानाधिकरणाधिकारे क्तस्तृतीयापू्ैयद उशरपदल्ोपश्च | ४ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | _समानाधिकरणाधिकारे* वक्तव्यं क्तस्तृतीयापुवैषदः 
समस्येते सुपोत्तरपदस्य च लोपो भवतीति | दधोपसिक्ते दध्वुपसिक्तः दध्युपसिक्त 
ओदनो दध्योदनः । गुडेन संखृष्टा गुडसंसृष्टाः गुडसंसृष्टा धाना गुडधानाः ॥ 
घष्ठी समासश्च युक्तपूणान्तः | ९ ॥- 10 


षक्ठीसमासश्च युक्तपुणोन्तः समस्यत उत्तरपदस्य च लोपो वक्तव्यः | अश्वानां 
युक्तो ऽ्वयुक्तः अश्वयुक्तो रथो अरथः । दभः पूर्णो दधिपुणैः दधिपूर्णो घटो 
दधिषटः || ततर्ह बहु वक्तव्यम्‌ | 


न वासमासे ऽदरशनात्‌॥ ६ ॥ 


न वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ | असमासे - ऽद शनात्‌ | यद्यसमासे दृदयते 1४ 
समासे च न दुदयते तष्ठोपारम्भं प्रयोजयति | न चाखमास उपसिक्तराब्दः संद्ट- 
चब्दो युक्त शब्दः पृणैराम्दो वा दृरयते || कथं तर्हि सामथ्यै गम्यते | 


युक्तार्थस्पत्ययाच् सामध्यम्‌ ॥ ७ ॥ ` 
दभ्रा युक्ता्ैता संप्रतीयते || .कथं पुनज्ञोयते दश्रा युक्कताथेता संप्रतीयत इति | 
संप्रत्ययाच्च तदथौध्यवसानम्‌ ॥ ८ ।}; 20 
संप्रस्यवा् तदर्थो ऽध्यवसीयते ॥ अवद्यं चैतदेवं विज्ञेयम्‌ । 
संप्रतीयमानाथलोपे ह्यनवस्या ॥ ९॥ 


` यो.हि मन्ते संप्रतीयमानाथोनां शब्दानां लोपो भवतीत्यनवस्थ। तस्य लोपस्य 





# २.६. ४९. 


दद ॥ व्वाकरणंहाभान्वपः ॥:। : . {१५ र्रद 
स्नातेः | दवीयु के वंहवोऽ्थः यम्स्ते, मन्दकमुत्तरक- निलीर्नकमितिः -सहाचिगा 
शब्दानां लोपः व्॑कष्यः स्यात्‌ । तथा गुड 'श्युक्ते' भुर शाब्दस्य रा देरिति 
च कटुशब्दस्य. ||. अन्तरेण खल्वपि शब्दप्रयोगं ` बहवोऽर्था गग्यन्ते अक्षिनिकोवै 
पाणिविष्चैरेथ तद्वाचिनां शब्दानां .रोपो वक्तव्यः स्यात्‌ || 


५; चतुर्थ तदथाधेवकिहितसुखरतितेः ॥ २.।१.।३६. ॥ ` 


$ 4 
~ किं: चक्तर्थ्यन्तस्य तदर्थमात्रण -समासी भवति | एकं मवितमष््ति 1 


चतुर्थी तदर्यमात्रेण चेस्सवंप्रसङ्गो िदोषात्‌ ॥ ९॥ 
चतूर्थी तदथमात्रेण चेत्सर्वप्रसङ्कः | सर्वस्य चतथ्यैन्तस्य तदथमात्रेण सह 
समासः प्रामोति । अनेभावि प्रामोति | रन्धनाय स्थाली | भवहननायोलुखकमिति | 
10 त्रि कारणम्‌ | भविद्रोषात्‌ | न हि कशिष्टिशेष उपादीयते एवंजातीयकस्य चेतुध्व 
न्तस्य .तद््ैन स्ट समासो भवृतीति । भनुपादीयमामे विशचेमे सवैप्रसङ्गः 1 
बलिरक्षिताभ्यां चानयंकं कवनम्‌ ।। २ ॥ 
बलिरकिताभ्यां च सप्रीसवन्ननमनर्थकम्‌ । यो.हि महाराजाय बलिर्महाराजाथ 
, क भवति | तत्र तदधे इत्येव सिद्धम्‌ ।। 
1 | , यदि पुनर्धिकृतिथतु्यन्ता प्रकृत्या सह समस्यत इत्येतह्क्षणं. क्रियेत । 


विकतिः प्रकृत्येति चेदभ्वघासादीनामुपक्ख्यानम्‌ ॥ २ ॥ 
विकृतिः प्रकृत्येति, चेदश्चधासादीनामपसंसख्यानं कतेत्यम्‌ | अश्चषासः अभ्रुषु- 
रम्‌ हस्िविपेति || ` 
"`" "" अथन नित्यसमासवचनम्‌ 1 ‡ ॥ 

20 अथशब्देन नित्यसमासो ` वक्तव्यः | ब्राह्मणार्थम्‌ क्षत्रियाम्‌ ॥ किं किकृति्- 
तुथ्येन्ता भ्रकूत्या सश सभध्यत ` इत्यतो अर्थेन ` नित्यसमासो क्ष्यः । नेत्वा । 
स्वैथार्थेन निस्यस्तमासी वक्तव्यो विग्रहयो मा भदिति || 

स्वंलिङ्गत च ॥ ५ ॥ 
` स्वैलिदङ्गता.च वक्तत्या | ब्राह्मणाश्च पयः | ब्राह्मणाः सूपः ।  ्रांदमणां्था 
25 यवागुरिति || किमर्थेन नित्यसमा उच्ग्रत इृतमतः सर्वलिङ्गता वक्तम्या । नेत्याह | 





प्रण २१. ३९. ॥)ब्यरकरणहमाष्यय्‌ 44; ई८ः९ 


हवेथा. सर्वलिङ्गता वक्तव्या | किं कारणम्‌ | भर्श्म्खे ऽये.पुचिङ्ग उत्तर पदार्थपरषा- 

नअ तत्पुरषस्तेन पठि ङ्गस्यैव सम्मसस्याभिषानं स्यात्ीनपुंसकणिङ्गस्य न स्यात्‌|| 

-.. तैतर्दीदिं बहुं वक्तन्यम्‌ | विकृतिः प्रकृत्येति वक्तव्यम्‌ | अभ्रषासादीनीमुप- 

संख्यानं कतेव्वम्‌ | अर्थेन :नित्यसमासो. वक्तव्यः । सर्वणिङ्गता च वक्तव्या ॥ 

भ वक्तव्यम्‌ |. : `: ॐ 
यत्तावदुच्यते विकृतिं: धकर्येलि ` वक्तव्यमिति | न वक्तव्यम्‌ |. भाघार्यपरच्‌- 

्तिज्ञोपयति विङृतिथतुथ्यैन्तां प्रकृत्या सह समस्यते हति यदयं' बरिरलितंमरहण 

करोति | कथं कृत्वा ज्ञापकम्‌ | यथाजातीयकानां समासे वरिरत्तितग्रहणेनाथेस्त- 

थाजातीयकानां समातः | यरि च विकृतिथतुभ्येन्ती प्रकृत्या सह समस्यते" नं 

` तद्थमात्रेण ` तती बरिरलितमरहणमर्थवद्भवति || , - 16 


यदप्युच्यते .ऽघासादीनामुपसं ख्यानं कतेव्यमिति । न कतेव्यम्‌ | अश्वषासा- 
दयः षष्ठीसमासा भविष्यन्ति | यद्धि यदर्थे भवत्ययमापि तत्राभिसंबन्धो. भवस्य 
स्ेदामिति | तथथा | गुरोरिदं गुर्वर्थमिति । ननु च स्वरभेदो भवति ।. चतुर्थीसि- 
मासे सति पूर्वपदपरकृतिस्वरस्वेन भवितव्यं" ष्ठीसमासे पुनरन्तोदान्तरवेनः। | 
नास्ति मेदः । चतुर्थीसमासेऽपि सस्यन्तोदात्तस्वेनैव भवितव्यम्‌ | कथम्‌ | भाचा- 15 
येप्रवृत्तिज्ञोपयति विकृतिथतु््यन्ता प्रकृतिस्वरा भवति न ॒चतुर्थामात्रमिति. यदयं 
चतुथी तदर्थे ्येक्ते च [६.२.४३-४९] इस्यर्थब्रहणं क्तम्रहणं च करोति | कथं 
कृत्वा ज्ञापकम्‌ । यथाजातीयकानां प्रकृतिस्वर स्वे ऽथ॑प्रहणेन कत प्रणेन चाथेस्त- 
थाजातीयकानां प्रकृतिस्वरत्वम्‌ । यदि च॒ षिकृतिथतुध्वेन्तां प्रकृत्या भवति न 
चतुर्थीमात्रं ततो: ऽथद्हप्रं कमहंणं, चाथेवद्वति || . , 20 
, यदप्युच्यते्थेन नित्यसमासो वंक्तव्य इति | न॒ वक्तव्यः | सथेष्मत्ययः 
रिष्यते । फ कृतं भवति | न चैव हि कराचिसस्वयेन विधहो भबति | अबि 
च, सर्वलिङ्गता सिडा. भवतिः | यदि . सथपत्ययः क्रियत इत्संज्ञा न -प्रामोति | ` 
अथापि कथंचिदित्संशा स्यादेवमपि भ्यर्थम्‌ भ्ब्थमित्यद्गस्येतीय्डवहै स्याताम्‌ || 
यवं ताहि बहुत्रीहिभतेष्यति | कं कृतं भवति | भवति वै कथिदस्वपदतिमहो बहु- % 
स्रीहिः । तद्यथा । ` शोभनं मुखमस्याः खंमुखीति-। नैवं शक्यम्‌ ˆ | इह हि महद - 
असित्यात्त्रकपौ प्रज्येवाताम्‌ » || एवं ताहि तदथस्योत्तर पदस्माथेशाभ्ट अददा 


* ८,२.४३. 1 दर्पे. | ~ ६.४.७७०, 5 -- § ९.३.४६.५.४.६५४. 


३९० ॥ भ्याकरणम्रहाभाष्यय ॥  ([म० २.९९ 


करिष्यते | -किं कृतं भवति | न वैव हि कदाधिदारेदोन विपहो भवति | अपिच 
सवेलिङ्गतापि सिद्धा भवति || तत्ता्ह वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्वम्‌ | योगविभागः करि- 
ष्यते | चतुर्थी । चतुर्थी छवन्तेन सह समस्यते | ततस्तदथाथे | तदर्थस्यो त्तरपदस्या- 
थे शाब्द आदेशो भवति || इहापि तर्हि समासः .प्रामोति | शन्ताय रुचितम्‌ । न्लाय 
$ स्वदितमिति" । आचार्यभवृतिक्गोपयति ताद्य या चतुर्थी सा समस्यते न चतुर्था 
मात्रमिति यदयं हितद्खब्रहणं करोति । कथं .कृत्वा ज्ञापकम्‌ । यथाजातीयकानां 
समासे हितङ्धखपर्णेनार्थस्तथाजातीयकानां समासः. | यदि च तादर्थे या चतुर्थी 
सा समस्यते न .चतुर्थीमात्रं ततो हितङखम्रहणमथेवद्भवति ॥ इहापि तार्हि तदर्थ- 
स्वोत्तरपदस्यारथं शम्द आदेशाः प्रामोति । युपाय दार यूषदाङ | रथदारु | वावचनं वि- 
10 षास्यते | इहापि तर्हि विभाषा प्रामोति । ब्राह्मणार्थम्‌ क्षत्रियाथंभिति | एवं तद्यी- 
चायपरवृत्तिश्तौपयति प्रकृतिविकृरयोर्यैः समासस्तत्र तदंस्योत्तरपदस्य वार्थशम्द 
आदेशो भवत्यन्यत्र निस्य इति यदयं बरिरल्षितप्रहणं करोति | एवं तर्द उद- 
कार्थो वीवधः स्थानिवद्धावाददमावः परामोति। | तस्मातचैवं शक्यम्‌ | न चेदेवमर्थन 
नित्यसमासो वकछव्यः सवैलिङ्गता च ॥ मैष दोषः | इदं तावदयं प्रटभ्यः | भयेह 
15 ब्राह्मणेभ्य हति कैषा चतुर्थी | ताद्य इत्याह | यदि तादर्थ्ये चतुर््व्थराब्दस्य 
प्रयोगेण न भवितव्बमुक्ताथीनामप्रयोग इति । समासोऽपि तार्हि न प्रामोति | वचना- 
स्समासो भविष्यति || | 
यदप्युच्यते सवेरिङ्गता च वक्तव्येति | न वक्तव्या | लिङ्गमशिष्यं लोकाभ्र- 
यल्वादिद्धस्य ॥ 


%0 पञ्चमी भयेन ॥ २।१ 1२५७ ॥ ~: 


भस्यल्पमिदमुच्यते भयेनेति | भयमीतभीतिमीमिरिति वक्तव्यम्‌ । वृकादयं ` | 
वृकभयम्‌ | वृकाद्धीतो वृकभीतः | वृकाडीतिवृंकमीतिः । वृकाङ़ीवंकभीरिति ॥ 
` पर आह | भयनिगेतजुगुष्डभिरिति वक्तव्यम्‌ । वृकभयम्‌ मामनिर्गेतः भध- 
मंजुगुप्डरिति ॥ 


४  . -सप्तमी शोण्डेः॥२।९।४०॥ 
रीण्डादिभिरिति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । भन्धुतैः खीधुर्वः । भक्ष- 


"णि षी १० प ० 
प्रीणि मिणगणा 





. पा° २.१.२७-४.०.] ॥ व्याकरणयहमाष्यम्‌ ॥ २९६१. 


कितवः खीकितव इति || त्ति वक्तव्वम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । बहवचननिर्देशा- 
च्डीण्डादिभिरिति विज्ञास्यते || | 


प्राह्ण क्षपे ॥ १ ।२१.। ४९. ॥ 


ध्वाङेगेत्यर्थंग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥। 


ध्वाङेण सिषे ऽथग्रहणं कतेव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ । तीथेकाक इति ॥ क्षेप $ 
इत्युच्यते क इह शेपो नाम । यथा तीथे काका न चिरं स्थातारो भवन्त्येवं यो गुद- 
कुलानि गत्वा न. चिरं तिष्ठति स उच्यते तीथेकाक इति ॥ . . 


` कृलयैकऋणे ॥ १.।१। ४२ ॥ 
` कृस्यैर्भियोगे यद्रहणस््‌ ॥. ९ ॥ 


 कर्यैर्भियोग इति वक्तव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ | पर्वह्गेयं साम । परातर - 10 
ध्येयोऽनुवाक हति || तत्त वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | कण इत्येव सिदम्‌ | इह 
यद्यस्य नियोगतः कार्यमृणं तस्य तद्वति | तत्र कण हव्येव सिम्‌ || यद्कहणं 
च कतेव्यम्‌ | इह मा भृत्‌ । पृवोह्े दातव्या भिसेति ॥ 


क्षेपे ॥ १ । ९ । ४.७ ॥ 


किमुदाहरणम्‌ । भवतप्ेनकुलस्थितं तं एतत्‌ ॥ शेप हव्युश्यते क इह लेषो 15 
नाम । यथावतप्ने नकुला न चिरं स्थातारो भवन्त्येवं कायौण्यारभ्य यो न चिरं 
तिष्ठति स उच्यते ऽवतप्रेनकुटस्थितं त एतदिति ॥। क्षेपे सप्रम्यन्तं क्तान्तेन सह सम- 
स्यत इत्युच्यते तत्र सगतिकेन सनकुलेन च समासो न प्रामोति | 

क्षेपे गतिकारकपूवे उक्तम्‌ ॥ ९ ॥ 
किमुक्तम्‌ । कृद्भहणे गतिकारकपर्वस्यापीति* || ` 20 


* ९,४.९३. 


# >. ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ 1.“ -[म०२.९.२. 


पत्रेसमितादयश्च ॥ २।-१। ४८ ॥ 


किमर्थश्चकारः । एवकाराथैः | पात्रेसमितादय एव | क माभत्‌ | परमं 
पात्ेसमिता इति | । ˆ ,^ 


भ न 


४“ फ £ 


पूवकाङेकसवेजरत्पुराणनवेकेवला समानाधिकरणेन ।२।१।४९॥ 


इद कस्मादश्यवीभावो न भवति । एका नदी - एकनदी । मदीभिः संख्येति 
पामोति । इह कथित्संमासः पूर्वेपदार्थत्रथानः कथिदुल्रपदार्थप्रधानः कथिदन्यष- 
दा्थप्रधानः कथिवुभवपदा्थेपधानः । पू्यपदार्थप्रधानोऽष्ययीभावः | उत्तरपदार्थ- 
प्रपानस्तत्पुरुषः । स्मन्यपरर्प्रधानो . बहुत्रीहिः । ङमयपदायेप्रधानो इन्डः | न 
चात्र पूवैपदायप्राधान्यं गम्यते || अथवाष्ययीभावः क्रियतां तत्पुरुष इति तस्पुरुषो 
10 भविष्यति विप्रतिषेधेन :| भवेदेकसंश्चाधिकारे सि परंकायेत्वे त॒ न सिध्यति | 
भआरम्भसामथ्यो्ाष्ययीभावः प्रामोनि परंकार्यत्वाचच तत्पुरुषः भामोति | परं कार्यत्वे 
च न दोषः | कथम्‌ | नदीभिः समहारे ऽन्ययीभावो वक्तव्यः | स॒ चावर्यं 

वक्तव्यः | 

सवैमेकनदीतरे† ॥ 


15 इति ओभगवत्पतच्रकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये हिवीयस्याध्यायस्य प्रथमे 


पादे द्वितीयमाद्धिकम्‌ ॥ | 
9 २,९.२० † (५.४.९९. ०; २,०४.५८.) 


[१ ¢^ {4 . 
| ), ; 








१० २.१.४ ८५२९. ॥ धया ङरगप्रहाभाष्यप्‌ | ; ३९.४३ 


तहितार्थौन्तरपदसमाहरे च ॥ २।१।५१ ॥ 


समाहार इति कोऽयं शब्दः । समारःपवौद्धरतेः कर्मसाधनो घन्‌ । समाहि- 
थते समाहार इति || यदि कर्मसाधनः प्च कुमार्यः समाहताः पश्चकमारि दश- 
कुमारि गोजियोरुपसजेनस्व [१.२.४८] इति हस्वस्वं न प्रापोति हिगुरेक वचनम्‌ 
[२.४.९] हत्येत् वक्तव्यम्‌ || एवं ताहि भावसाधनो भविष्यति | समाहरण ¢ 
समाहारः | अथ भावसाधने सति किमभिधीयते । यत्तरौत्तराधर्यम्‌ | कः पून- 
गवां समाहारः | यत्तदजेनं क्रयणं भिक्षणमपहरणं वा । यद्येवं विक्षिपनेषु पुरेषु 
गोषु चरन्तीषु न विध्यति | एवं तर्हिं समभ्याजीकरणं समाह्नरः । एवमपि प्र्च- 
प्रामी षण्णगरी त्रिपुरीति न सिध्यति | किं कारणम्‌ । समेकत्ववाच्याडाभिमुख्ये 
वर्तते हरतिर्दे शान्तर प्रापणे | नावश्यं हरतिर्देश्ान्तरपरापण एष धर्तते | किं तर्हि | 10 
सादृदयेऽपि वतते । तद्यथा । मातुरनुहरति । पितुर नुदरति ॥ भथवा पञ्चामी 
पण्णगरी च्रिपुरीति नैवेदमिवस्येवावतिष्ठते । भवरयमसी ततः किचिदाकाङति क्रियां 
गुणं वा | यदाकाड़ति तदेकं स च समाहारः ॥ भयं र्ता भावसाधने सति 
दोषः | प्चपल्यानीयतामिति भावानयने. चोदिते दध्यानयनं न प्रामोति। तरैष रोषः | 
इदं तावदयं प्रटव्यः । भेह गैरनुबन्भ्योऽजोऽरीषोमीय इति कथमाकृती चोदि - 15 
तायां दव्य आरम्भणालम्भनपरोक्षणव्रिशासनानि क्रियन्त इति । भसंभवात्‌ | भा- 
कृतावारम्भगादीनां संमवौ नास्तीति कृत्वाङृतिसहचरिते द्रव्य भारम्भणादीनि 
क्रियन्ते | शदमप्येवंजातीयकमेव । असंमव्रादावानयनस्य द्रव्यानयनं भविष्यति || 
भयवाव्यतिरे काद्रव्याकृत्योः ॥ 


किं पुनर्िगुसंज्ञा परस्ययो सरपदयोर्भवति | एवं भवितु महति । | 29 
दिगुसंज्ञा प्रत्ययोतरपदयोश्वेदितरेतराश्रयतस्वादपरसिदिः ॥ ९ ॥ 


दिग संज्ञा प्रत्ययोत्तरपदयोशथेदितरेतराशभ्रयत्वादगप्रसिदिः | केतरेतरान्रयता । 2ि- 
गुनिमित्ते प्रत्ययोन्तरपरे प्रर्ययोत्तरपदनिमि्ला च दिगुसंक्ता तदेतदितरेतर।भवं 
भवति | इतरेतराश्रयाणि च न प्रकल्पन्ते || एवं तद्येयं इति वरह्यामि | 


50 ऋ 


१९७४ ॥ व्याकरणयहाभाष्यय्‌ः +4.  [म०र्.प्द. 


अथं चेत्तद्धिसानुत्पज्तिबंहुत्रीहिवस्‌ । २ ॥ 


अथै वेत्तद्धितोत्पत्तिम भामति | पाभ्चनापितिः हेमातुरःप्रेमातुरः*। षं कारणम्‌ । 
दिगुनोक्तस्वाद्रहु व्रीहिवत्‌ | तद्यथा | चित्रशुः दाबलगुरिति बहुव्रीदिणोक्तत्वान्म- 
त्वर्थस्य मस्वर्थयो न भवति ॥ एवं तार्हे समासतड्धितविधाविति वक्ष्यमि | 


5 संमासवशितविधाविति चेदन्यज्र समासक्तन्ञाभावः- ॥ ३ ॥ 


 समासतदिवविधाविति चेदन्यन्र समाससंश्ा न प्राभोति । कान्यत्र | स्वरे | 
पठ्च[रलिः दशारलिः | इगन्ते हिगाविस्येष स्वरो न प्राभोति ॥ 


सिद्ध तु प्रत्ययोत्तरपदथोश्चेति वचनात्‌ ॥ ४।। 


लिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । ्रस्ययोन्तर पदयोभेति वचनात्‌ | प्रथयोश्तर पदयोिगुसंश्षा 
10 मचतीति वक्तव्यम्‌ || ननु चोक्तं द्िगुंजञा प्रत्ययोत्तर पदयोभेदितरेतराभयस्वादम- 
- सिद्धिरिति । तैष दोषः । इतरेतराभ्रयमात्रभेतश्चोदितं सर्वाणि चेतरेतराभरयाण्येक- 
स्वेन परिहतानि सिद्धं तु निस्यदाष्दत्वादिति; | नेदं तुल्यमन्धैरितरेतराभ्रतैः । 
न हि-संज्ञा नित्या || एषं तर्हि भाविनी संज्ञा विज्ञास्यते | तद्यथा | कथित्क- 
चिन्तन्तुवायमाह | अस्य सत्रस्य शाटकं वयेति | स परयति यदि शाटको न 
15 वातव्यो ऽथ वातव्यो न शाटकः शाटको वातव्यश्चेति चिप्रतिषिडम्‌ | भाषिनी 
खल्वस्य संज्ञामिपरेता स मर्ये वातव्यो यसिमिच्ुते शाटक हइत्येतद्वतीति । 
एवमिहापि तस्मिन्दिगुमवति यस्याभिनिर्व्तस्य प्रत्यय उन्तरपदमिति चेते सं 
भविष्यतः | भथका. पुनरस्स्व्थं इति । मनु चोक्तमरथे चेत्तद्धितानुत्पत्तिबैहुतरीहि- 
वदिति || वैष दोषः  नावदयमथं शाब्दो अभिपेय एव -वमैते | किं ताहि | स्यादर्थे ऽपि 
80 वतेते | तद्यथा. }. दारार्थं॑घरगांमहे .। धनाथ भिक्षामहे | दारा नः स्यु्पैनानि नः 
स्युरिति । एवमिहापि तद्धितार्थे हिगुभवति तद्धितः स्यादिति ॥ 


दिगोवां लुग्वचनं ज्ञापक तद्धितीत्यत्तेः ।। ५ ॥। 


` . कथवाः यदयं विगो्दुगनपत्थे [ ४.१.८८ ] इति द्विगोरुत्तरस्य तद्धितस्य लुक 
चास्ति .तजञ्ज्ञापयत्याचार्यं उत्पद्यते दिगोस्तडित शति ॥ 





क ४,१.९९; ११९९. † ६.२ २९. { ९.६.६४, 





पा० २.९.५९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ - *९५ 


समाहारसमृह योरविरोषास्समाहारग्रहणानथेक्यं सदितार्थेन कृ तत्वात्‌ ॥६॥ 


समाहारः समृह हत्यविदिष्टावेतावर्थी | समाहारसमूहयोरविोषात्समाहारभ्र- 
हणमनथकम्‌ । किं कारणम्‌ । तद्धितार्थेन कृतत्वात्‌ । तद्धितार्थ ` द्विगुरित्येवमन्र 
दिगुभेविष्यतिˆ || यदि तद्धितार्थे दविगुरिस्येवसत्र दिगुभैवति तद्धितो स्पत्तितः प्रामोति । 
उत्पद्यतां लुगभविष्यति† । लुक्कृतानि पागुवन्ति । कानि | पत्चपली दशपूली । ४ 
अपरि माणविस्ताचितकरम्बस्येभ्योः न तद्धितलुकि [४.९.५९२] इति मतिषेधः प्रा- 
भोति । प्चगवम्‌ ददागवम्‌ । गोरतद्धितदुकि [९,४.९२] इति टज्न प्रामोति ॥ 
नैष दोषः | अविरहोषेण द्विगोडीम्भवती्युच्कापरि माणविस्ताचितकम्बल्येभ्यः स- 
महार इति वक्ष्यामि | तक्तियमाथे भविष्यति | समाहार एव नान्यत्रेति । गोर- 
कारो दिगोः समाहारे | अविरोषेण गोशटज्भवतीस्युक्का हिगोः समाहार इति व - 10 
श्यामि । तक्नियमा्थं भविष्यति | समाहार एब नान्यत्रेति || 


अभिधाने तु ।} ७॥ 


भमिधानाथे तु समाहारमहणं कतैव्यम्‌ | समाहारेणाभिधानं यथा स्यात्तदिता- 
थेन मा भूदिति । श च स्यात्‌| तद्धितोत्पत्तिः प्रसज्येत | उत्पद्यतीं लुग्भविष्यति । 
लुकृतानि प्राभुवन्ति | सर्वाणि परिहतानि | न स्रौणि परिहतानि । पञ्चकुमारि 15 
दशकुमारि । लुक्तद्धितलुकि [९.२.४९] इति ङीपो टुक्मसज्येत ।| 
दन्द्रतत्पुरुषयो रुत्तरपदे निस्यसमासवचनम्‌ ॥ ८ ॥ 
इन्द्तस्पुरषयो द्रपदे नित्यसमासो वक्तव्यः | वाग्द्षर्दभियः छलोपानह- 
प्रियः । पञचगवप्रियः दङागवमियः§ | कि प्रयोजनम्‌ । समुदायवृ लायवयवानां मा 


कदाचिदवृत्तिभूदिति || तन्ति वक्तव्यम्‌ | न वक्तभ्यम्‌ । इह दी पक्षौ वृत्तिपक्षो 0 
ऽवृत्तिपक्तथ | यदा वृत्तिप्षस्तदा सर्वेषामेव वृत्तिः । यदा स्ववृत्तिपन्षस्तदा सर्वै- 


पामवृत्तिः || 
उत्तरपदेन परिमाणिना द्विगोः समासवचनम्‌ ॥ ९ ॥। 
चन्तरपरेन परिमाणिना हिगोः समासो वक्तव्यः | द्विभात्तजातः त्रिमासजातः¶ | 
कि पुमः कारणं न ध्यति । दवण्डपोति** वतैते । एवं तर्हीदं स्यात्‌ । बौ मासौ "° 


क ४,२.३९, 1 ४.९.८८, { ४.२.२९. § ५.५.१०६; ०२. ¶ २.१.५९. +५ २.१.२०४. 


६९६ । ॥ व्याकरगटापीष्वप्‌ ॥ ` {म०२.९.९. 


हिमासम्‌ दिमासं जातस्येति । तरैवं दाक्यम्‌ । स्वरे हि दोषः स्यात्‌ | हिमासजात 
इति प्रामोति* । द्विमास्जात इति चेष्यते! | व्यद्धजातथ्च न सिध्यंति | व्यहजात इति 
भामति न चैवं भवितस्यम्‌ | भवितव्यं च यदा समाहारे द्िगुः । ब्यक्कजातस्तु न 
सिध्यति ॥ किमुच्यते परिमाणिनेति न पुनरन्यत्रापि । पञ्चगवप्रियः ददागकप्रियः | 


अन्यत्र समुदायवबहुवीरित्वादुत्तरपद प्रसिद्धिः ॥ ९० ॥ 


अन्यत्र समुदायो बहुव्रीहिसंज्ञः । * अन्यत्र समुदायबहुत्रीहित्वादु्तरपदं 
प्रसिद्धम्‌ । उत्तर पदे प्रसिद्ध उत्तरपद इति दिगुमेविष्यति || 


सर्वत्र मस्वथँ प्रतिषेधः ॥ ९९ ॥ 


| सैष पक्षेषु दिगुसंश्ञावा मत्वर्थे प्रतिषेधो वक्तव्यः | कि प्रयोजनम्‌ | पत्च- 
10 खदा दशखटटरा । द्विगोः [४.१.२१] इतीकारो मा भून्‌ । पञ्चगुः दशगुः | 
गोरतदितलुकि [५.४.९२९] इति टज्मा भूदिति ॥ _ 


` - संख्यापूर्वो द्विगुः ॥ २।१५।५२ ॥ 


` किमनन्तरे योगेऽ यः संख्यापुवैः स हिगुसंत भआशेसिविसपूत्ेमोत्रे । किं चातः | 
यद्यनन्तरे योग एकशाटी 4 हिगोः [४.९.२१] इतीकारो न प्राभोति । भथ पुवेमात्र 
15 एकभिन्षा अत्रापि प्राभोति || भंस्त्वनन्तरे । कथमेकशाटी । ` हेकारान्तेन समासो 
भविष्यति । एका शाटी एकड्ाटी 1। इह तरि एकापुषी हिगोरितीकारो न प्रामोति । 
भेत्तुं तिं पर्वमात्रे । कथमेकमि्षा | टाबन्तेन समासो भविष्यति । एका भिल्ला 
एकभिक्षा || इह॒ ति सपर्षयः** इगन्ते द्िगावित्येष स्वरः परामोति।† | धस्तु 
` तदयनन्तरे । कथमेकापुपी । समाहार इत्येव सिद्धम्‌ । कः पुनरत्र समाहारः । 
20 यत्तहानं संभमो वा || हह तर्हि पञ्चदहोतारः दराहोतारः इगन्ते दिमावित्येष स्वरो 
नं भागोति } भस्तु तंहि पुवैमातन्रे । कथं संप्रषयः | अन्तोरात्तप्रकरणे त्रिचक्रादीनां 
-छन्दसीव्येवंमेतस्तिडम्‌{{ । अथवा पुनरस्तवनन्तरे | कथं पञ्चंहोतारः दशहोतारः । 
भादयुदा्प्रकरणे दिवोदासादीसां शन्दसीत्येव सिम्‌ || 

, * ६.९.२२३३.. † ६.२.२९. { ५.१,९१; ८८८९. § २.१.५१. ¶ २.९.४६. 

@* २.९.५०. +† ६.२.२९. {{ ६.२.१९२९४., §6§ ` ६.२.९९०. | 








वां ° २.९. ५२-५५. | ॥ वकाकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ २३९७ 


| कुत्सितानि कुतस ॥२।१।५३॥ 


किमुदाहरणम्‌ | वैयाकरणखदनिः । किं ष्याकरणं कुस्सितमादोसिदैयाक- 
रणः | वैयाकरणः कुस्सितस्तस्मिन्कुस्सिते तत्स्थमपि कुस्ितं भवति ॥ 


उपमानानि सामास्यवचनैः ॥ २।१।५९५९ ॥ 


उपमानानीस्युच्यते कानि पुनरूपमानानि । किं यदेवोपमानं तदेवोपमेयमा्े- 
स्विदन्यदुपमानमन्यदुपमेयम्‌ । किं चातः |` यदि यदेवोपमानं तदेवोपमेयं क इहे- 
पमार्थो नौरिव गौरिति । अथान्यदेवोपमानमन्यदुपमेयं॑क इहोपमार्थो गौरिव 
इति | एवं तरि यत्र किंचित्सामान्यं कथि विशेषस्सन्नोपमानोपमेये भवतः । 
रिं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | मानं हि नामानिज्ञोतज्ञाना- 
थेमुपादीयते ऽनिर्ातमर् ्ञास्यामीति | तत्समीपे यन्नास्यन्ताय मिमीत तदुपमानम्‌ | 10 
गौरिव गवय इति । गौर्भिशीतो गवयोऽनिर्ञातः | काम॑ तद्यनेनैव हेतुना यस्य ग- 
वयो निर्चातः स्या द्ौरनिर्ञातस्तेन कर्तध्यं स्यादवय इव गौरिति । वादं कैव्यम्‌ | 

किं पुनरिोदाहरणम्‌ । शख्ीरयामा | क पुनरयं श्यामाशब्दो वतैते | श- 
छयामित्याह । केनेदानीं देवदन्ताभिधीयते | समासेन । यद्येवं शाजीइयामो देवदत 
इति न सिध्यति । उपसजेनस्येति हस्वत्वं भविष्यति । यदि तश्युपसजेनान्यप्येवं- 15 
जातीयकानि भवन्ति तित्तिरिकल्माषी कुम्भकपाललोहिनी अनुपसजैनलक्षण 
हकारो न प्रामोति ॥ एवं तर्हि शषयामेव शलीद्यम्दो वतैते देवदस्तायां च्या- 
माशब्दः | एवमपि गुणो अनिर्रिंष्टो भवति । बहवः श्यां गुणास्तीशणा खश्मा 
परथुरिति । आनिर्दिहयमानस्यापि गुणस्य भवति लोके संप्रत्ययः । तद्यथा । चन्त्र- 
मुखी देवदत्तेति .बहवशन्दरे गुणा या.चासौ प्रियदश्ेनता सा गम्यते || एवमपि 0 
समानाधिकरणेनेति वतेते. व्यधिकरणत्वात्समासो न प्रामोति | किं हि वचनान्न 
भवति | यद्यपि तावद चनात्समासः स्यादिह तु खलु मृगीव चपला भृगचपला 
“ समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्धायोऽ न प्राभोति || एवं तर्हिं तस्यामेवोभयं वतैते .| 
एतच्चात्र युक्तं यत्तस्यामेवोभयं तेत इति । इतरथा. हि बहपेश्य॑. .स्थात्‌ । 
यदिः तावदेवं विग्रहः क्रियते शाखीव द्यामा देवदत्तेति श्यां दयामेव्येतदपे्ष्यं 25 


* ६,१.४८. † ४,९.९४;.४०; १९. ‡ २.१.४९. $ ६.१.४२, 


॥-॥ 


३९.९ ` -4"ब्ककरणमश्छमाष्यम्‌ ॥  -- (म०.२.९.९ 


स्यात्‌ । अथाप्येवं . विप्रः क्रियते यथा शली. इमामा क्रियं देवदन्तेर्येवमपि 
देषदन्तायां रयाभेत्येतदपेश्यं स्यात्‌ । एवमपि गुणो ˆ अनिर्दिष्टो भवति | बकं 
शाठ्यां गुणास्तीकष्णा खमा पृथुरिति । अनिर्दिदयमानस्यापि गुणस्य भवति 
लोके संप्रत्ययः । तच्यथा । चन्द्रमुखी देव दत्तेति बहवशन्दरे गुणा या चासौ प्रिय- 
5 द दोनता सा गम्यते || | 


उपमानसमासे गणववनस्य विरोषभाकत्सामान्यवचनाभरसिदिः॥ ९॥ 


उपमानसमासरे गुणवचनस्य विदोषभाक्कात्सामान्यवचनस्यीपरसिद्धिः स्यात्‌ | 
शस्रीदयामा । उयामाश्ब्डोऽयं शश्रीकाब्देनाभिसंबध्यमानो विद्चेषव्रचनः संपथते | 
तत्र सामान्यवचत्रैरिति समासो न प्रपति || 


10. न वा.इयामस्वस्योभयव भावात द्वाचकत्वा्च दाब्दस्य सामान्य- 
वचनमरसिद्धिः ॥ २॥ 

`; न वैष -दोषः ।- क्रिः कारणम्‌ | रयामस्वस्योभायत्र भावात्‌ | उभयत्रैवाज्र 
दच्रामल््रमस्ति शल्या. देवदसाथां च. | तदाचक्रत्वा्च शाब्दस्य | तदाचकथात्र 
इयाम्नाद्चष्दः प्रयुञयते | किवाच्रकः | उभयवा चकः, । इयामत्वस्योभवत्र भावाद्वा - 

15 चकत्ध(च दा्डस्य सामान्यवचनं ` परसिदधम्‌ | सामान्यवचने प्रसिडे सामान्यवचनै- 

` रिति समासो -भबिष्वति | न चावरमं स एवः सामान्यवचनो यो बहूनां सामान्व- 
साह इयोरपि यः सामान्यमाह सोऽप्रि ` सामान्यबचन एव ॥ जवा सासान्य- 
वचनैरित्युच्यते सर्वश्च शाब्दो. ज्येन दाब्देनाभिसंकभ्यमानो विदोषवचनः- सप्ते 
त एवं विक्गास्यामः -प्रागभिसंबन्धा्यः सामान्यबचन इतिः || 


2 उपमितं -ग्याघादिभिः सामान्धाप्रयोगे ॥-२।१।५६ ॥ - 


सामान्यापरयोग इति कमथम्‌ -। इह मा भूत्‌ । पुरुषोऽयं व्याघ्र इब - द्रः । 
पुरुषोऽयं व्याघ्र इव बलवान्‌ ।। सामान्याप्रयोग हति -शक्यमवक्तुम्‌ | कस्मान्न 
भवति पुरुषोऽयं व्यप्र इव शरः पुरुषोऽयं ध्याघ्र हब बलवामिति | असप्थ्योत्‌ । 
कथमसामर्थ्यम्‌ । सापेक्षमसमथं भवतीति| एवं तरि सिदे सति यस्सामान्या- 
25 प्रयोग इति प्रतिषेधं शास्ति तज्जपयत्याचार्यो भषति वै प्रधानस्य सापिक्षस्व।पि 

















प° २.९, ५६.-५.७.] ।॥#व्यकरणदप्हभ्रष्यय्‌ ॥ ३९९, 


समास इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रेजनम्‌ । राजपुरषो ` अभिरूपः । र।जवुरुषो 
ददोनीयः | अक्र वृत्तिः सिद्धा भवति 1। 


विशेषणं विशेष्येण बहुलम्‌ ॥ २।१. ।५.७ ॥ 


विदोषणविोष्ययीरुभयाविरोषणत्वादुभयोश्च विरोष्यत्वादुपसजं- 
नापरसिदिः ॥ ९ ॥ 9 
विशेषणवि शेष्ययोरुभयविद्ोषणत्वादुभयो्च विदोष्यत्वादुपस ज॑नस्याप्रतिद्धिः । 
कृष्णतिला इति । कृष्णहाब्दोऽयं तिल शब्देनाभिसंबभ्यमानो विशेषुणवचनः संपद्यते | 
तथा तिलदाब्दः कृष्णशम्देनाभिसंबध्यमानो विशेषणवचनः संपद्यते | तदभयं विद्यो- 
षणं भवस्युभयं च विरोष्यम्‌ । विशहोषणविरेष्ययोरुभयविंशेषणस्वादुभयोथ 
किशेष्यस्वादुपसजेनस्याप्रसिदिः ॥ . - 10 


न -वान्यतरस्य पधानभावाचद्िरीषकत्वाचापरस्योपसर्जनपरसिद्धिः ।। २ ॥ 
नं चैष दोषः | किं कारणम्‌ । अन्यतरस्य प्रधानमावात्‌ | शन्यतरदत् 
प्रधानम्‌ । तद्िशेषकत्वाकापरस्य । तदिरेषकं चापरम्‌ | अन्यतरस्य प्रपनभा- 
वांसद्िदोषकत्वा्ापर स्योपसजेनसं ज्ञा भविष्यति | यदास्य तिलाः प्राधान्येन 
विवक्षिता भवन्ति कृष्णो विशेषणत्वेन वदा तिलाः प्रधानं कृष्णो विरहोषणम्‌ | कामं 15 
तद्येनेनैव हेतुना यस्य कृष्णाः प्राधान्येन विवक्षिता भवन्ति तिला विदोषणस्वेन तेन 
कततैवयै तिठक्ृष्णा हति | न ` कतैव्यम्‌ | न द्यं इन्दः । तिला कृष्णाधेति | न 
खल्वपि षष्ठीसमासः । तिलोनां कृष्णा हति | किं तर्हि । हाविमौ प्रधानशाष्दावे- 
कस्मिक्तर्थे युगपदवरुष्येते न च इयोः प्रधानशब्दयोरेकस्मिन्र्थैयुगप दवरुष्यमानयोः 
किंचिदपि प्रयोजनमस्ति तत्र प्रयोगादेतद्वन्तव्यौ नूनमन्रान्यतरत्मभानं तदशेषं 20 
चापरमिति | तत्र स्वेतावान्संदेहः किं प्रधानं किं विशेषणमिति | सखापि क्र 
संदेहः । यत्रोमौ. गुणशब्दौ । तदथा । कुष्जखश््ः ` खच्ञकुम्ज हति | यत्र 
दन्यतरद्रब्यमन्यतरो गुणस्तत्र यषटष्यं॑तस्पधानम्‌ | तथथा । शुङकमारुमेत कृष्ण- 
मौलमेतेति न पि्टपिण्डीमाकभ्य ` कृती भवति | भवरयं तद्ुणं द्रव्यमाकाङति ।| : 
कथे तर्हनि द प्रधानरंब्दविकसिमिन्न्थे युगपदवंरुध्येते वृक्षः दि श्चपेति वैतर्थो- 25 
रावरयकः समविहाः | न दनवृक्षः शिरापास्ति 
त + ` ~ >+... 


धिक 9 ॥ श्ककरनकहामष्पय्‌ ॥  , मि०२.९.३. 


पुवौपरप्रथमचर मजघन्धसमानमष्यमध्यमवीराश्च ॥ २।१।५८॥ 


अथ किमथेमुत्तरत्रैवमाद्यनुक्रमणं क्रियते म विशोषणं विशेष्येण बहूलम्‌ 
[२.१.९७] इस्येव सिम्‌ । . 
बहुलवचनस्याकृत्लत्वादुत्तरघ्ानुक्रमणसामर्थ्यम्‌ ॥ ९॥ 
$ अकृतकं बहल चनमिव्युत्तरत्रानुक्रमणं क्रियते । यद्यकृत्लं यदनेन कृत मक्त 
तत्‌ । एवं तिं न ब्रूमो ऽङृत्कमिति । कर्कं च कारकं च साधकं च निववतेकं 
च | यश्चानेन कृतं शकतं तत्‌ । किमथे तर्चवमाद्यनुक्रमणं क्रियते । उदाहरणभू- 
यस्त्वात्‌ | ते खल्वपि विषयः परिमृदीता भवन्ति येषु लक्षणं प्रपत्च्च | केवलं 
लक्षणं केवलः प्रपत्चो वा न. तथा कारकं भवति || भव्यं खल्वस्माभिरिदं 
10 ब्भ्य बहुलम्‌ अन्यतरस्याम्‌ उभयथा वा एकेषामिति । सवेवेदपारिषदं षीद 
शाखम्‌ । तत्र नेकः पन्थाः शक्य भास्थातुम्‌ ॥ 


श्रेण्यादयः कृतादिभिः ॥ २।९.।५९ ॥ 


अण्यादयः पद्यन्ते कृतारिराकृतिगणः|| 
श्रेण्यादिषु च्व्यर्थवचनम्‌ | ९॥ 


15 म्ेण्यादिषु च्व्यथे्हणं कतेव्यम्‌ | भभरेणयः भेणयः कृताः श्रेणिकृताः | यदा 
हि अेणय एव किंचिच्कियन्ते तदा मा भूदिति || अन्यत्रायं ख्ट्यथेमरहणेषु च्व्यन्तस्य 
परतिषेधं श्ास्ति* । तदिह न तथा | किं कारणम्‌ | अन्यत्र पूर्वै च्व्यन्तकाथे परं 
ष््यर्थकार्यम्‌ । इह पुनः पूवे च्वयथका्ै परं च्व्यन्तकायैमिति। || 


क्तेन नञ्विरि्टेनानञ्‌ ॥ २ ।९१.।६०॥ 


20 नञ्विरिष्टे समानप्रकृतिवचनम्‌ ॥ ९ ॥ 
नज्विरिष्टे समानपृकृतिप्रहणं कतेष्यम्‌ । इह मा भूत्‌ ।. सिदधं॑चागुक्तं वेति ॥ 
भनवयिति च प्रतिषेषो वक्तध्यः |. इह मा भूत्‌ । कतेष्यमकृतमिति.॥ 





# ९,४.७४, † २.२.९८. 


पां०२.९,५८-६०. | ॥ च्थाकरणपहलमव्यपर ॥ ७०९ 


नडिडधिकेन च ॥ २॥ 


नृडिदडधिकेन च समासो वक्तव्यः | इहापि यथा स्यात्‌ | अशितानशितेन 
जीवति | किष्टाङ्किरितेनः जीवतीति ॥ 
किमुच्यते समानप्रकृतिम्रहणं कतैन्यमिति यदा नज्विशिष्टेनव्युच्यते न चात्र 
नञ्कृत एव विदोषः । किं तर्हि । प्रकृतिकृतोऽपि | अयं विदिष्टञ्चब्दोऽस्स्येवाव- ४ 
धारणे वतैते | तद्यथा । देवदन्तयश्चदत्तावाद्यावमिरूपौ ददहौनीयौ पक्षवन्त देव - 
द्तस्तु यज्ञदत्तास्स्वाध्यायेन विशिष्टः । स्वाध्यायेतैवेति गम्यते न्ये गुणाः समा 
भवन्ति | अस्त्याधिक्ये वतेते । तद्यथा । देवदत्तयज्ञदत्तावाद्यावभिरूपी ददौनीयौ 
प्षव्रन्तौ देवदत्तस्तु य॒ज्गदतास्स्वाध्यायेन . विशिष्टः । स्वाध्यायेनाधिको न्ये गुणा 
अविवक्षिता भव्रन्ति || तद्यदा तावदवधारणे विशिष्टशाब्दस्तदा मैवा्थैः समान- 10 
प्रकृतिग्रहणेन । नेह भविष्यति । सिद्धं चाभुक्तं चेति । नाप्यनथिति प्रतिषेषेन । नेह 
भविष्यति | कतैव्यमकृतमिति । नुडिडधिकेनापि तु तदा समौसो न प्रामोति| 
यदापिश्ये विशिष्टदाम्दस्तदा समानप्रकृतिम्रहणं कतेष्यम्‌ | इह मा भत्‌ | सिद 
चामं ॒नेति | अनञिति च प्रतिभेषो वक्तव्यः | इह मा भत | कतैव्यमकृत- 
भिति  नुडिडधिकेनापि तु समासः सिद्धो भवति | तत्राधिक्ये विशिष्ट शब्दं मत्वा 15 
समानप्रकृतिमहणं चोद्यते || 
भवधारणं नञा चेश्रुडिडिशिष्टेन न प्रकल्पेत | 
अथ चेदधिकविवक्षा काये तुल्यप्रकृतिकेनेति ॥ 


कृ तापकृतादीनां चोपसंख्यानम्‌ | ३ ॥ 
कृतापङृतादीनां चोपखंख्धानं कतेत्यम्‌ | कृतापकृतम्‌ भुक्तविभुक्तम्‌ पीत- 2 
विषीतम्‌ || 
सिद्धतु क्तेन विस्षमापवमम्‌ ॥ ४॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । क्तान्तेन क्रियातिसमप्रप्रावनञ्क्तान्तं सम्रस्यत इति व- 
त्तव्यम्‌ || 
गतपरतव्यागतादीनां चोपसंख्यानम्‌ ॥ ५ ॥ % 
गतप्रत्यागतादीनां चोपसंख्यानं कतेष्यम्‌ । गतप्रत्यागतम्‌ यातानुयातम्‌ पुटाप- 
रिका क्रयाक्रयिका फलाफलिका मानोन्मानिका | 


# ६. २.७४. 1 ७.२. «० ° 
91 शि 


. ४०२ ॥ व्थाकरणमहाभवच्यम्‌ ॥ | | म०२.९.३. 


युवा खकतिपकितिबलिनजरतीभिः ॥ २ ।१. । ६.3 ॥ 


भयुक्तोऽयै निर्देशाः । समानाधिकरणेनेति“ यतैते कः प्रसङ्गो यश्यपिकरणानां 
समासः स्यात्‌ ॥ एवं ताहि ज्ञापयत्याचार्यो यथाजातीयकमुन्तरपदं तथाजातीयकेन 
पुवेपदेन समस्यत इति । किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ । प्रातिपदिकग्रहणे लिङ्गवि- 

5 हिष्टस्यापि महणं भवतीत्येषा परिभाषा न कतैव्या भवति ॥ 


वर्णो वर्णेन ॥ २।१ । &९.॥ 


इदं विचायैते वर्गेन तृतीयासमासो वा स्यात्‌ ] कृष्णेन सारङ्गः कृष्णसारङ्गः । 
समानाधिकरणो वा | कृष्णः सारङ्गः कृष्णसारङ्गः इति । कञथचात्र विदोषः | 


वर्णेन तृतीयासमास एतपरतिषेधे वण ग्रहणम्‌ ।॥ ९ ॥ 

10 वर्णेन तृतीयासमास एतप्रतिषेधे वणग्रहणं कतेव्यम्‌ । तृतीया पूवेपदं ्कृति- 
स्वरं भवति† | अनेते वणे इति वक्तव्यम्‌ ॥ अथ द्वितीयेन वर्ण्रहणेनैतविशेषणे- 
नायेः | वाढमर्थो यद्यवणे एतशब्दोऽस्ि । ननु चायमस्ति । आ इत एतः कृष्णेतः 
तोहितेत इति | नाथे एवमर्थन वणेम्रहणेन | यदि तावदयं कर्मणि क्तस्तृतीया 
कर्मणि [६.२.४८] इत्यनेन स्वरेण भवितव्यम्‌ | भथापि कतरि परत्वाकृत्स्व- 

15 रेण भवितन्यम्‌$ ॥ अथ समानाधिकरणः | 

समानाधिकरणे द्विवंणंग्रहणम्‌ ॥ २॥। 
समानाधिकरणे द्िवेणे्रहणं कतैव्यम्‌ । वर्णो वर्णेष्वनेत इति वक्तव्यम्‌ | एकं 
वणेग्रहर्णं कतेव्यमिह मा भूत्‌ | परमशुङ्कः परमकृष्ण॒ इति | दितीयं वणंमहषं 
कतेव्यमिह मा भूत्‌ | कृष्णतिला इति || एकं वणैम्रहणमनथेकम्‌ | अन्यतर क- 
५0 स्मान्न भवति । लक्षणप्रतिपदोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति ॥ 
एवं सति तान्येतानि त्रीणि वणेम्रहणानि भवन्ति समासविषौ दे स्वरविषी वेकम्‌। 
यस्यापि तृतीयासमासस्तस्यापि तान्येव त्रीणि व्णैमहणानि भवन्ति समासविषौ 
हे स्वरविधौ चैकम्‌ | सामान्येन मम तृतीयासमासो भविष्यति तृतीया ततकृता 


# २.१. ४५. { ६.२.२. ‡ ६.२.२३. $ ६.२.९३९. 








ॐच. 


प° २.६.६.०-६९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ७०३ 


गुणवचनेन [२.९.३० | इति || अवद य वर्णेन प्रतिपदं समासो वक्तव्यो यत्र तेन 
न सिध्यति तदथेम्‌ | क च तेन न सिध्यति | शुकवभुः हरितवबभ्रुरिति। तथा च 
सति तान्येव श्रीणि वर्णमरहणानि भवन्ति समासविधौ दे स्वरथिधौ चैकम्‌ ॥ अथे- 
दानीं समानाधिकरणः सामान्येन सिद्धः स्यात्‌ | वां सिद्धः | कथम्‌ । विरोषणं 
विशेष्येण बहुलम्‌ [२.९.५९७] इति । एवमपि हे वणेम्रहणे कतेव्ये स्वरवि- 


4 


धावेव प्रतिपदोक्तस्याभावात्‌ ॥ तस्मात्समानाधिकरण इत्येष पक्षो ज्यायान्‌ ॥ 


समानाधिकरणाधिकारि प्रधानोपसञनानां परं परं विप्रतिषेधेन ॥ ३ ॥ 


समानापिकरणाधिकारे प्रधानोपसजैनानां परं परं भवति विप्रतिषेधेन । प्रधानानां 
प्रथानमुपसजेनानामुपसजेनम्‌ || प्रधानानां तावतल्धानम्‌ | वृन्दारकनागकुश्जरेः पूज्य- 
मानम्‌ [ २.१.६२] इत्यस्यावकाशः । गोवृन्दारकः अश्ववृन्दारकः | पोटायुवती- 10 


` नामवकादाः* | इभ्ययुवतिः आद्ययु वतिः| इहोभयं प्रामोति | नागयुवतिः वृन्दारक- 


युवतिः | प्रधानानां परं प्रधानं भवति विप्रतिषेधेन || उपसजैनानां परमुपसजैनम्‌ | 
सन्महत्परमोत्तमेोत्कृशः [६९] इत्यस्यावकाशः । सद्गवः सदश्वः । कृत्यतुल्या- 
ख्या जजाव्या [६८] इस्यस्यावकाडाः । तुल्यश्वेतः तुल्यकृष्णः । इहोभयं प्रामोति । 

तुल्यसन्‌ तुल्यमहान्‌ । उपसजेनानां पर मुपसजेनं भवति विप्रतिषेपेन ॥ 15 


समानाधिकरणसमासाद्रहुत्रीहिः ॥ ४॥ 


समानाधिकरणसमासाद्रहव्रीहिमेवति विप्रतिषेधेन । समानाधिकरणसमासस्या- 
वकाश | वीरः पुरुषो वीरपुरुषः1 । बहुव्रीहेरवकाशः । कण्ठेकालः | इहोभयं 
प्रामोति । वीरपुरुषको मामः । बहुत्रीहिभेवति विप्रतिषेधेन || 


कदाचिस्कमधारयः सव॑ंधनाद्यर्थः ॥ ५॥ 20 


कदाचित्कर्मधारयो भवति बहुव्रीहेः । किं प्रयोजनम्‌ । सर्वधनाद्र्थः । सर्व- 
धनी । सवैवीजी । सवेकेश्ी नटः । गौरखरवदरण्यम्‌ | गौरमृगवदरण्यम्‌ | 
करष्णसपेवान्वल्मीकः । लोहितक्लारिमान्मामः । किं प्रयोजनम्‌ | कर्मपारयप्रक्ृति- 
भिर्मस्वर्थीयरभिधानं यथा स्यात्‌ । किं च कारणं न स्यात्‌ । बहुब्रीहिणोक्तस्वा- 
न्मस्वर्थस्य || यथुक्तस्वं हेतुः कमेधारयेणाप्यु तत्वाच्च प्रामोति । न खल्वपि संज्ञा- 25 
भयो मच्वर्थीयः | किं तर्हि । अथौभ्रयः । स यथैव बहब्रीहिणोक्तत्वान्त भवव्येवं 





# २.१.६५. { २.१.५८. { ५.४. १५५; २.२.९१. 


४०७४ ॥ व्याकरणयहाभष्यम्‌ ।॥ , मि०२.१.२. 


क मैधारयेणाप्युक्तसवान्न भविष्यति || एवं तर्हीदं स्यात्‌ । सवोणि धनानि सवरेषनानि 
सर्वैषनान्यस्य सन्ति सर्वधनीति । तरैवं शाक्यम्‌ । नित्यमेवं सति कमेधारयः स्यात्‌ 
तत्र यदुक्तं कदाचित्कर्मधारय इत्येतदयुक्तम्‌ ॥ एवं॑त्ि भवति वै किंचि 
दाचायो: कायेवदुदि कृत्वा पठन्ति कायाः शब्दा हति । तद्वदिदं पितं समानाधि- 

४ करणसमासाद्रहुव्रीहिः कतेव्यः कराचित्कमैधारयः सवेधनाश्यये इति || 
यदुच्यते समानाधिकरणसमासाद्रहब्रीहिभेवति विप्रतिषेधेनेति नैष युक्तो वि- 
प्रतिषेषः । अन्तरङ्गः कमेधारयः | कान्तरङ्गता | स्वपदार्थे कमेधारयो ऽन्यपदार्थे 
बहुत्रीहिः । अस्तु | विभाषा कमेधारयो यदा न कमेधारयस्तदा बहुव्रीहिभेषि- 
प्यति | एवमपि यद्यत्र कदाचिस्कर्मधारयो भवति कर्मधारयपकृतिभिर्मव्वर्थी- 
10 नैरभिषानं प्रामोति । स्वैधायमेवम्थौ यलः क्मधारयप्रकृतिमिमेत्वर्थधिरमिषानं 
मा भूरिति || एषं तर्हि नेदं तस्य योगस्योदाहरणं विप्रतिषेधे परमिति" । किं वार | 
इषटिरियं पठिता | समानाधिकरणसमासाद्रहु्ीदिरि्टः कदाचित्कर्मधारयः सर्वधना- 
शथे हति | यदीष्टिः पठिता नार्थोऽनेन । इह हि सर्वे मनुष्यां अल्पेन यतेन 
महतोऽथौनाकाङ्कन्ति । एकेन माषेण शतसहल्लम्‌ । एकेन कुशलकेन खारीसहक्म्‌ | 
15 तत्र क्मैधारयप्रकृतिभिमेलर्थीैरभिधानमस्तु बहुब्रीहिणेति बहुव्रीहिणा भविष्यति 
लघुत्वात्‌ ।। कथं सर्वधनी सवैवीजी सवेकेही नट हति । इनिप्रकरणे सवौदेरि्िं 
वक्ष्यामि । तश्चावरयं वक्तव्यं ठनो ‡ वाधनाथम्‌ ॥| कथं गौरखरवदरण्यम्‌ गोर- 
मृगवदरण्यम्‌ कृष्ण सपेवान्वल्मीकः लोहित शालि मान्म्रामः | अस्त्यत्र विदोषः | जा- 
त्यात्राभिसंबन्धः क्रियते. | कृष्णसर्पो नाम सपेजातिः सास्मिन्वल्मीकेऽस्ति | यदा 
20 न्तरेण जातिं तदताभिसंबन्धः क्रि यते कृष्णसपी वल्मीक इत्येवं तदा भविष्यति ॥ 


पूवेपदातिशय आतिशायिकाद्रहुतरीहिः सुल्मवखतराद्यर्थः ।। ६ ॥ 
पृवेपदातिराय आतिहायिकाद्रह्रीहिभेवति विप्रतिषेधेन । किं प्रयोजनम्‌ 
सष्मवखरतराद्यथंः । आतिश्चायिकस्यावकाडाः । पटुतरः पटुतमः । बहुगरीहिरव- 
कांदाः । चित्रगुः शबलगुः । इहोभयं प्रामोति । खक्मवलरतरः तीह्गशरूङ्गतरः । 
25 बहुव्रीहिमेवति विप्रतिषेधेन }| नैष युक्तो विप्रतिषेधः । विप्रतिषेधे ` परमिव्यु- 
च्यते” पूवश बहुत्रीहिः पर आतिदायिकःऽ | इष्टवाची पर दाब्दः | विप्रतिषेधे परं 
यदिष्टं तद्भवति || एवमप्ययुष्कः | अन्तरङ्ग आतिहायिकः | कान्तरङ्गता | उन्ा- 
प्मातिपदिकादातिहायिकः¶ छवन्तानां बहुत्रीहिः । आतिशायिकोऽपि नान्तरङ्गः । 





# १.४.२ † ५.३.१३ ५१. { ५.२.११५. & २.२. २५; ५,३.९.,५७. वा ४.१.६. 


पा० २.९.६९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्यय ।। ४०५ 


कथम्‌ । समयोत्तद्धित र्पद्यते ` सामथ्यै च छबन्तेन । एवमप्यन्तर द्गः । 
कथम्‌ | स्वपदाथे आतिश्चायिको ऽन्यपदार्थे बहुत्रीहिः | एवमपि नान्तरङ्गः .। 
कथम्‌ | स्पधीयामातिश्षायिको भवतिः न चान्तरेण प्रतियोगिनं स्पर्धा भवति ॥ 
त्रैव वान्रातिद्यायिकः भामति | किं कारणम्‌ । असामभ्योत्‌ | कथमसासथ्येम्‌ । 
सापेक्षमसमथे भवतीति । यावता वज्राणि तदन्तमपेक्षन्ते तदन्तं चपिक्ष्य वाणां 5 
वजैयगपत्स्पधौ भवति । ननु चायमातिश्वायिक एवमारमकः सत्यां व्ययेक्षायां 
विधीयते । सस्यमेवमात्मको यां च नान्तरेण ्यपेक्षामातिशायिकस्य प्रवृत्ति- 
स्तस्यां सत्यां भवितव्यम्‌ । कां च नान्तरेण व्यपेक्षामातिदायिकस्य प्रवृत्तिः | या 
हि प्रतियोगिनं प्रति व्यपेक्षा | या हि तद्वन्तं प्रति न तस्यां भवितव्यम्‌ || बहुव्री- 
हिरपि तर्हि न प्रामोति । किं कारणम्‌ | भसामथ्योदेव | कथमसामथ्यैम्‌ । सा- 10 
वेक्षमसमथं भवतीति । यावता वखाणि षलान्तराण्यपेक्न्ते तद्ता चाभितसंबन्धः ॥ 


एव तरि नेदै तस्य योगस्योदाहरणं विप्रतिषेधे परमिति" | किं तर्द । हष्टि- 
रियं पठिता । पृवैपदातिहाय आतिङायिकादटुव्रीहिरिष्टः करेमवखतराद्यथं इति । 
यदीष्टिरिवं पठिता नार्थो न । कथं चैषा युक्तिरुक्ता वलान्तराणां वलान्तैेय- 
गप्स्पथौ तदता चामिसंबन्ध इति | यदा न्तरेण वखराणां वदैयगपत्स्पधी तह्ता 15 
चाभिसंबन्धः क्रियते निष्पतिदन्हस्तदा बहुत्रीिरबहुत्रीहेरातिहायिकः || न तर्हीदा- 
नीमिदं भवति खष्मतरवल् इति | भवति । यदान्तरेण तदन्तं वलाणां वजय 
गपर्स्पथौ निष्परतिन्द स्तदातिशश्ायिकः || कथं पुनरन्यस्य प्रकर्षेणान्यस्य प्रकर्षः 
स्यात्‌ | त्रैवान्यस्य प्रकर्षेणान्यस्य प्रकर्षण भवितव्यम्‌ | यथैवायं द्रव्येषु यतते 
वज्राणि मे स्युरित्येवं गुणेष्वपि यतते सषेमतराणि मे स्युरिति । नात्रातिदायिकः 20 
भरामोति | किं कारणम्‌ । गुणवचनारित्थुच्यते न च समासो गुणवचनः | समा- 
सोऽपि गुणवचनः । कथम्‌ । भजदस्स्वाथा वृत्तिरिति । भथ जहस्स्वायौयां तु दोष 
एव | जहत्स्वाथोयां च न दोषः । भवति बहुतरी तहणसंविज्ञानमपि । तद्यथा । 
शुक्कवाससमानय लोहितोष्णीषा ऋत्विजः प्रचरन्तीति तद्गुण आनीयते तहुणाथ 


प्रचरन्ति || ~ 
उत्तरपदातिदाय आतिरायिको बहुररीहेर्बहादचयतरादयर्थः ॥ ७ ॥ 
उत्तरपदातिशाय जतिङायिको बहुत्रीहेभवति विप्रतिषेधेन | करं प्रयोननम्‌ | 





जा निक रच ~= 





[ क) 


#* ९.४.२२. 


४०६ ॥ व्याकरनमहाभाष्वय्‌ ॥  [म०२.९.२. 


बहाद्यतरायर्थः | बदमाद्यतरः बहुसुकुमारतरः | कः पुनरत्र विशेषो बह्ु्रीहेवो- 
तिशाविकः स्यादातिशायिकान्तेन वा बहुत्रीहिः । स्वरकपो्विशोषः । यदयत्राति- 
दायिकादरदुव्रीहिः स्याद्रह्वाद्यतर एवं स्वरः प्रसज्येत बहयाद्यतर इति चेष्यते" । 
बहाद्यकतर इति च प्राभोति बहाद्यतरक इति चेष्यते! ॥ 

5 समानाधिकरणाधिकारे शाकपाधथिवादीनामुपसंख्यानसुत्तरपदलोपश्च ॥ ८ ।। 


समानापिकरणाभिकारे शाकपार्थिवादीनामुपसं ख्यानं कतेव्यमुत्तरपदलोपथ्च व- 
तव्यः | शाकमभोजी पार्थिवः शाकपार्थिवः । कुतपवासाः सौग्युतः कुतपसोगुतः। 
भ जापण्यस्तील्वकलिरजातील्वलिः | यष्टिभरधानो मौडल्यो यष्टिमोद्ल्यः ॥ 


चतुष्पादो गमिण्या ॥ २। १. । ७२. ॥ 


10 | चतुष्पाज्नातिरिति वक्तव्यम्‌ । इह मा भूत्‌ | कालाक्षी गर्भिणी । स्वस्तिमती 
गर्भिणी ॥ 


मयुरव्यंसकादयश्च ॥ ९ । १. । ७२९ ॥ 


किम्थं्कारः । एवकाराथेः । मयुरव्यंसकादय एव । क्र मा भूत्‌ | परमो 
मयुरव्यंसक इति ॥ 


15 इति श्रीभगवत्पतज्ञजिविरचिते व्याकरणमहामाष्ये विवीयस्याध्यायस्य प्रथमे 
पादे तृतीयमाह्विकम्‌ ॥ पाद्च समाः || 


* ६.२. ९७९; ३.६.४ ` † ५.५.९५४. 





अषै नपुंसकम्‌ ॥ २,।२।२॥ 


हह कस्माच्च भवति | मामाधैः नगरा इति । भर्पशब्दस्य नपुंसकरिङ्गस्येदं 
ग्रहणं पंिङ्गश्चायमर्पदाब्दः | क्र पुनरयं नपुंसकलिङ्गः क पूंलिङ्गः | समप्रविभागे 
नपुंसकलिद्धो ऽवयववाची पुंलिङ्गः || इह कस्माच्च भवति | अ पिष्पलीनामिति | 
नवा भवत्यर्पपिप्पल्यं इति । भवति यदा खण्डसमुद्चयः | अर्षपिप्पली चा्षै- ¢ 
पिप्पली चापेपिप्पली चाधेपिप्पल्य इति | यदां त्वेतद्गाक्यं भवत्यै पिप्पलीनामिति 
तदा न भावितव्यम्‌ । तदा कस्मान्न भवति । एकाधिकरण इति वतैते || न तर्ही- 
 दानीभिदं भवति अर्षराश्िरिति | भवति । एकमेतदधिकरणं भवति यो ऽसौ 


राहिनाम || 


द्वितीयतृतीयचतुथैतुयाण्यन्यतरस्याम्‌ ॥ २।२।२॥ 


अन्यतरस्यांमरहणं किमथम्‌ । अन्यतरस्यां समासो यथा स्यात्समासेन मुक्ते 
वाक्यमपि यथा स्यात्‌ | हितीयं भिक्षाया इति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | प्रकृता 
महाविभाषा तया वाक्यमपि भविष्यति | हदं तर्हिं प्रयोजनमेकदेशिसमासेन मुक्ते 
प्टीसमासोऽपि यथा स्यात्‌। । भिक्षाहितीयमिति । एतदपि नासि प्रयोजनम्‌ । अ- 
यमपि विभाषा षक्षीसमासो ऽपि | तावुभौ वचनादविष्यतः || अत उत्तरं पठति | 15 
द्वितीयादीनां विभाषाप्रकरणे विभाषावचनं ज्ञापकमवयवविधाने सामान्य- 

विधानाभावस्य ॥ ९॥ 

दितीयादीनां विभाषाप्रकरणे विभाषावचनं क्रियते क्षापकार्थम्‌ | किं श्राप्यते | 
एतञ्ज्ञापयत्याचार्योऽवयवविषौ सामान्यविधिने भवतीति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयो- 
जनम्‌ | भिनत्ति छिनत्ति | मि कृतेः रान्न भवति || नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | 20 
` काबदेशाः इयनादयः करिष्यन्ते | तत्त दापो हणं कर्तव्यम्‌ | न कर्तव्यम्‌ । 


४०८ ॥ व्याकरणप्रराभाष्यप्‌ ॥ | | मं० २.२.९१. 


भरकृतमनुवतेते । क प्रकृतम्‌ | कतैरि शप्‌ [३.१.६८ | इति । तदै प्रथमानिर्दिष्टं 
षक्ठीनिर्दिटेन चेहाथः । रुषारिभ्य इत्येषा पञ्चमी राविति प्रथमायाः षर प्रकल्प- 
यिष्यति तस्मादिस्युन्तरस्य [९.९. ६७] इति | प्रत्ययविधिरयं न च प्रत्ययविधौ 
पञ्चम्यः प्रकल्पिका भवन्ति | नायं प्रत्ययविधिः । विहितः प्रत्ययः प्रकृतश्चानुव- 
८ तेते || एवं तर्हि श्ापयस्याचार्यो यत्रोस्सगीपवादं विभाषा तज्रापवादेन मुक्त उ. 
त्सरगों न भवतीति । किमेतस्य श्ञापने प्रयोजनम्‌ । दिक्पुवेपदान्डीप्‌ [४.९.६०] | 
भाङ्खी पाङ । परत्यङ्ुसी भत्यज्खा । डीपा मुक्ते डीषु भवतिः ॥ त्रैतदसि 
प्रयोजनम्‌ । वक्ष्यत्येतत्‌ | दिक्पुव॑पदान्डीषोऽनुदान्तस्वं ङीभ्विधाने यन्यत्रापि डीषि- 
षयान्डीप्मसङ्ग इति || हदं तार्ई प्रयोजनम्‌ | अर्धपिप्पली भ्धकोशातकी | एक 
10 देशि खमासेन‡ मुक्ते षष्ठीसमासो न भवति । उन्मत्तगङ्गम्‌ लोहितगङ्गम्‌ | अव्व- 
यीभावेन$ मुक्ते बहुव्रीहिनं भवति । दाः शक्षिः | इया मुक्ते ऽण्न भवर्ति¶ || 
यथेतज्ज्ाप्यत उपगोरपत्यमौपगवः तद्धितेन मुक्त उपग्वपत्यामिति न सिध्यति | 
अस्त्यत्र विशेषः | दे शत्र विभाषे | दै वयत्तिहोचिवृक्तिसात्यमुभिकाण्डेविदिभ्वो 
ऽन्यतरस्याम्‌ [४.९.८९] इति सम्थीनां प्रथमाद्वा [८२] इति च । तत्रैकवा 
15 वुत्िविमाषापरया वृत्तिविषये विभाषापवादः ॥ 


क्रियमाणेऽपि वा अन्यतंरस्यांम्रहणे षक्षीसमासो न प्राप्रोति | कि कारणम्‌ | 
पुरणेमेति प्रतिषेधात्‌“ | वरैतत्पुर णान्तम्‌ । अभैतत्पर्यवपक्तम्‌†† । एतदपि पूरणान्तमे- 
व ] कथम्‌ | परणं नामार्थस्तमाह तीयशशब्दोऽतः पूरणम्‌ | योऽसौ पुरणान्तास्स्वाबे 
भागे ऽन्सोऽपि पूरणमेव || एवं तर्न्यतरस्वां्रहणसामर्थ्यात्य्ठी समासोऽपि भवि- 


20 ष्यति | 


प्राप्तापन्ने च दवितीयया॥२।२।9॥ 


किमर्थथकारः | अनुकर्षणार्थः | अन्यतरस्यामिव्येतदनुकृष्यतेः‡ | किं प्रवोज- 

नम्‌ | अन्यत्तरस्यां समासो यथा स्यास्समासेन मुक्ते वाक्यमपि यथा स्यात्‌ | जी- 
विकां प्राप्न इति | त्रैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । प्रकृता महाविभाषा तया वाक्यमपि मवि- 
९5 ध्यति || इदं तर्हि प्रयोजनं हितीयासमासोऽपि यथा स्यात्‌§$ | जीविकाप्राप्त इति । 





# ४,९.५४. न ४.९.६०४. { २.२.२. § २.९.२१. ¶ ४.१.९५.; <स; ९२ 
+भ २,२.११ †† ९.३.४८. {‡ २.२.६. §§ २.९.२४ 





शो° २,२.४५. | ॥ भ्वाकरनमहाभाष्यत्‌ ॥ ४०९ 


एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | भयमप्युच्यते द्ितीयासमासोऽपि तदुभयं वचनाडविष्य- 
ति | एवं तर्हि नायमनुकषेणार्थधकारः । किं. तर्हिं | अत्वमनेन विधीयते | प्राप्रा- 
पते हितीयान्तेन सह समस्येते अत्वं च भव्रवि प्राप्रापल्लयोरिति । प्राप्रा. ओविकां 
पराप्रजीविका | आपच्ा जीविकामापन्रजीविका || 


कालाः परिमाणिना ॥ २।२।५॥ ` # 


किंप्रधानोऽयं समासः | उत्तरपदा्थप्रधानः } यद्युत्तरपदार्थप्रधानः सधर्मणाने- 
नान्थैरत्तरपदार्थप्रधातैर्मवितव्यम्‌ | अन्येषु चो्तरपदार्थप्रधानेषु चैवासावन्तवर्षिनी 
विभक्तिस्तस्याः समासेऽपि श्रवणं भवति । तद्यथा | राज्ञः पुरषो राजपुरुष इति| 
इह पुनर्वाक्ये षष्ठी समासे प्रथमा. | केनैषदेवं भवति । योऽसौ मासनातयोरमि- 
संबन्धः स समासे निवतेते | भमिहितः- सोऽर्थोऽन्तभूतः प्रातिपदिकार्थः सं पन्चस्तन्र 10 
प्रातिपदिकार्थे प्रथमेति* प्रथमा भवति | न तर्हीदानीमिदं भवति मासनातस्येति | 
भवति बाद्यमथेमपेशष्य षष्ठी ॥| 

काकश्य येन समासस्तस्यापरिमाणित्वादनिरदैदाः ।॥ ९ ॥ 


कालस्य येन समासः सोऽपरिमाणी तस्यापरिमाणिस्वादनिरशः । अगमको 
निर्दे रमेऽनिरदेराः । न हि . जातस्य मासः परिमाणम्‌ | कस्य तर्हि | त्रिशाद्यत्रस्य | 15 
श्या | द्रोणो बदराणां देवदत्तस्येति ।. न देवदत्तस्य द्रोणः परिमाणम्‌ | कस्य 
तर्हि | बदराणाम्‌ ॥ 
सिद्धं तु कालपरिमाणं यस्य स कालस्तेन | २॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । कालपरिमाणं यस्य स कालस्तेन सह समस्यत इति 
वक्तव्यम्‌] सिध्यति | खतं तर्हि भिद्यते ॥ यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं कास्य 20 
येन समासस्तस्यापरिमाणिस्वादनिर्देश हति । कं पुनः कारं मत्वा भवानाह कालस्य 
येन समासस्तस्यापरिमाणिस्वादनिर्देश हति } येन मूर्तीना मुपचयाश्चापचयाञ्च ठदेयन्ते 
त॑ कालमाहुः | तस्थैव हि कयाचिक्क्रियया युक्तस्याहरिति च भवति रात्रिरिति 
च | कया क्रियया | आदित्यगस्या । तचैवासङ्दावृ्तया मास हति भवति संवत्सर 
इति च | यद्येवं भवति जातस्य मासः परिमाणम्‌ ॥ ` ` ४ 


# १, ३. ४६. 
52 7 


४९७ ॥ व्वाकर्णगहाभान्यय ॥  [मम०२.२.९, 


एकव चनद्िगोश्योपसंख्यानम्‌ ॥ ३ ॥ 


एकं वचनान्तानामिति वक्तष्यम्‌ । इह मा भूत्‌ | मासौ जातस्य | मांसा जातं- 
स्येति || दिगोधेति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । ह्िमासजातः ज्रिमासजोतः | 


उक्तं वा | ४ ॥ 


४ किमुक्तम्‌। एकवचने ताबदुक्तमनमिधानादिति* || हिगोः किमुक्तम्‌ | उत्तर- 
पदेन परिमाणिना दिगोः समासववनमिति! ॥ 


नञ्‌ ॥ २।२९।६॥ 


किंप्रपानोऽवं समासः | उत्तर पदाथप्रभानः | यद्यु्तरपदार्थपधानो अब्राह्मनमा- 
नयेव्युक्ते ब्राह्मणमत्रस्यानयनं प्रामोति || अन्यपदायप्रभानस्तर्िं भविष्यति | यदन्व- 
10 पदार्थप्रधानो ऽवषो हेमन्त इति हेमन्तस्य यदि द्ग व चनं च तत्समासस्यापि भ्रामोति ॥ 
पुवपदार्थप्रभानस्त्िं भविष्यति | यदि पूर्वपरा्थम्रधानो ऽव्ययसंज्ञा परामोति । अव्ययं 
धस्य पुनैपदमिति । नैष दोषः | पाठेनाव्ययसंज्ञा क्रियते न च नञ्खमासस्तत्र 
पद्यते । यथपि नञ्समासो न पद्यते नञ्तु पद्यते । पठेनाप्यव्ययसंज्ञायां 
सत्यामभिषेयवष्धिङ्गव चनानि भवन्ति यशहार्थोऽभिषीयते न तस्य लिङ्गसंख्याभ्यां 
15 योगोऽसि ॥ नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंख्यता वा | किं तर्द | स्वाभाविकमेतत्‌ | 
तद्यथा । समानमीहमानानां चाधीयानानां च केविदर्थैरयुज्यन्ते ऽपरे न | न वेदानीं 
किदं वानिति कृत्वा सर्वैरर्थवङ्धिः रा्यं भवितुं कथिद्वानर्थक इति कृत्वा सवै- 
रनथेकषैः । तत्र किमस्माभिः दाक्यं करम्‌ | यच्तअः प्राक्समासालिङ्कसंख्याभ्यां 
योगो नास्ति समासे च भवति स्वाभाविकमेतत्‌ || भथवाश्रयतो लिङ्गषचनानि 
20 भविष्यन्ति | गुणवचनानां हि शब्दानामाभ्रयतो लिङ्कव चनानि भवन्ति | तथथा | 
शष वलम्‌ शयुज्ञा शाटी श्य॒क्ृः कम्बलः शुक्तौ कम्बलौ शुह्धाः कम्बला हति । 
यदसौ द्रव्यं भ्रितो भवति गुणस्तस्य यदचिङ्खं वचनं च तहुणस्यापि भवति | एवमि- 
हापि यदसौ द्रव्यं भ्रितो भवति समासस्तस्य यलिद्गः वचनं च तत्समासस्यापि भ- 
विभ्यति || अथवा पुनरस्तूत्तर पदाथप्रभानः | ननु चोक्तमन्राक्मणमानवे्युक्ते ब्राद्य- 
25 णमात्रस्यानयनं प्राभोतीति । नेष दोषः | इदं तावर प्रष्टव्यः | अथेह राजपुरुष- 


* ३.२.६९५, † २.९.५९५. ` ‡ ९.६. ३७. 








पा०२.२.६. |  ॥ भ्याकस्नणवेहाभाष्यय्‌ ॥ ४९१. 


मानयेव्युक्तं पुरुषमात्रस्यानयनं कस्मान्न भवति | अस्त्यत्र विशेषः | राजा विशे- 
पकः प्रयुज्यते तेन विरिष्टस्यानयनं भवति | इहापि ताह नञ्विशेषकः प्रयुज्यते 
तेन नजञ्विशिष्टस्यानयनं भविष्यति | कः पुनरसौ | निवृन्तपदाथेकः || यदा पुनरस्य 
पदार्थो निवमते कं स्तराभाविकी निवृत्तराहोसिद्वाचनिकी । किं चातः | यदि 
स्वाभाविकी किं नञ्पयुज्यमानः करोति । अथ वाचनिकी तहक्तव्यं नञ्प्रयुज्य- 5 
मानः पदार्थं निवतैयतीति | एवं तार्हि स्वाभाविकी निवृत्तिः | ननु चोक्तं किं नञ्प्र- 
युज्यमानः करोतीति । नञ्परयुज्यमानः पदाथ निवतेयति | कथम्‌ | कीठप्रति- 
 कीलवत्‌ | तद्यथा | कील हन्यमानः प्रतिकीलं निहन्ति । यथेतच्चजो मा- 
हास्म्ं स्यान्न जातुचिद्राजानो दस्व्यश्वं॑निभूयुर्स्येषे राजानो बरुयुः ॥ एवं तरि 
स्वाभाविकी निवृत्तिः | ननु चोक्तं किं नञ्पयुञ्यमानः करोतीति | नञ्निमित्ता 16 
तूपलभ्धिः । तद्यथा | समन्धकारे दव्याणां खमवस्थितानां प्रदीपनिमित्तं ददनं न च 
तेषां पदीषो निर्वतैको भवति || यदि पुनरयं निवृ ्तपदाथेकः किमर्थ ब्राह्मणश्चम्दः 
पयुज्यते | एवं यथा विक्ञायेतास्य पदार्थो निवतेत इति । नेति शुक्ते संदेहः स्या- 
स्कस्य पदार्थो निवतैत इति । तत्रासंरेहाय ब्राह्मणशम्दः प्रयुज्यते । एवं वैतत्‌ | 
अथवा सर्व एते शब्दौ गुणसमुदायेषु वतैन्ते ब्राह्मणः क्षतियो वेदयः शुद्र हति | 15 
तपः भुतं च योनिधेव्येतद्भाद्मगकारकम्‌ | | 
तपःश्रुताभ्यां यो हीनो जातिब्राह्मण एव सः || 

तथा मीरः शुच्याचारः पिङ्गलः कपिलकेहा इत्येतानप्यभ्यन्तरान्त्राहमण्ये गुणा - 
कुर्वन्ति | समुदायेषु च वृत्ताः शाब्दा अवयवेष्वपि वतेन्ते | तयथा | पूर्वे पञ्चालाः । 
उत्तरे पत्चालाः । वैकं भुक्तम्‌ । धृतं मुक्तम्‌ । शुङ्कः नीलः कपिलः कृष्ण हति | एव- 20 
मयं समुदाये ब्राह्मणशब्दः प्रवृ त्तो ऽवयवेष्वपि वतेते जातिहीने गुणदीने च || गुणकषिने 
तावत्‌ | अत्राह्मणोऽयं यस्ति्ठन्मूत्रयति । अब्राह्मणोऽयं यो गच्छन्भ्षयति || जाति- 
हीनि संदेशदरपदेशाश्च ब्राह्मणशब्दो वतैते । सदे्ा्तावत्‌ | गौरं शुच्याचारं पिङ्गलं 
कपिलकेशं दृष्टाभ्यवस्यति ब्राह्मणोऽयमिति | ततः पश्चादुपलभते नायं ब्राह्मणों 
अब्राह्मणोऽयमिति । तत्र संदेहा ब्राह्मणशब्दो वतेते जातिकृता चयस्य निवृत्तिः | ४ 
दुरुपदेशात्‌ । वुरूपदिष्टमस्य मव्रत्यमुभ्मित्तवक।दो ब्राह्मणस्तमानयेति | स तत्र 
गत्वा य॑ परयति तमध्यवस्यति तब्राह्मणोऽयमिति | ततः पथादुपलभते नायं ब्राह्म 
णो ऽत्राह्मणोऽयमिति । तत्र दुरूपदेशाच ब्राह्मण शम्दो वतेते जातिकृता चार्थस्य 
निवृत्तिः | आतश्च संदेहाहुरुपदेशाद्वा न धयं कालं माषराशिवणेमापण भासनं 


४९२ # व्वकरयद्रहाभाच्यम्‌ः॥ ` [मम २.२.९. 

बृषटाभ्यवस्यति ब्राह्मणोऽयमिति । निन्ञातं तैर्य .भवति. || इदं खल्वपि भुय उक्ररप- 

दाथेभराधान्ये सति संगृहीतं भवति | किम्‌ | अनेकमिति । किमत्र संगृहीतम्‌ । 

रकवचनम्‌ | कथं पुनरेकस्य प्रतिषेधेन बहूनां संम्रस्ययः स्यात्‌ । प्रसज्यायं क्रिवा- 

गुणी ततः पथा्निवृक्ति करोति । तद्यथा | भासय शायय भोजयानेकमिति । यद्यपि 
४ तावदन्रैतच्छक्यते वक्तु यत्र क्रियागुणौ प्रसज्येते यत्र खलु न प्रसज्येते तत्र कथम्‌। 

शनेकौस्तिष्ठतीतिः | भवति वैवंजातीयकानामप्येकस्य परतिषेभेन . बहूनां संप्रस्ययः । 

तद्यथा | न न एकं प्रियम्‌ | न न एकं लमिति ॥| 

इह भब्राद्मणसखम्‌- अब्राह्मण पर स्कात्त्वतलौ प्राप्रुतः' | तत्र को रोषः | 

स्वरे हि दोषः स्यात्‌ | ` अब्राह्मणत्वमिव्येवं स्वरः प्रसज्येत. | अब्राह्मणस्वमिवि 
10 वेष्यते || | - . 

| नञ्समासे भाववचन उक्तम्‌ ॥ ९॥ 

कि मुक्तम्‌ । स्वतल्भ्यां नञ्समासः पुवेविप्रतिषिद्धं त्वतलोः स्वरसिद्ययेमितिऽ | 


ईषदकृता ॥ २? । ९ | अ ॥ 


देषवहुणवचनेन ॥ ९ ॥ 


15 दैषहुणवचनेनेति वक्तव्यम्‌ | अकृतेति घ्युध्यमान इह च प्रसज्येत | हहा 
इति । इह च न स्यात्‌ । हेषत्कडार इति || 


पक्ी ॥ २।२।८॥ 


कृद्योगा च ॥ ९॥। 


कृ्ोगा च षी समस्यत इति वक्तध्यम्‌ | इध्ममत्रथनः प्रताशशातनः || 

26 किमर्थमिदमु्यते । प्रतिपदविधाना च षष्ठी न समस्यत इति वह्यति¶ तस्यायं 

पुर॑स्तादपकषेः } क। पुनः षश्षी प्रतिपदविधाना का कृ्योगा । सवो षष्ठी प्रतिपदषि- 

धाना शेषलक्षणं ** वजेयित्वा । करतृंकमेणोः कृति [२.३.६९ | हति या ष्ठी सां 
कृद्योगा | 


* ५.६.१९९. † ६,९२.२. { २.१९.१, § ९.९.९९२५ बु २.२.९०१. ५# २.३.५०, 








पा० २.२.७-९९१.| ॥ व्वाकरणमहाभाष्यद्र ॥ ४९ 


तस्स्थेश्च गुणैः ॥ २ ॥ 


तत्स्थैश्च गुणैः ष्ठीगुशैः ष्ठी समस्यत इति वक्तव्यम्‌ | ब्राह्मणवणेः चन्दनगन्ध 

पटहशब्दः नदीषोषः ॥ 
-न तु तद्दिोषणैः॥ २॥ | 

न तु तदिषोषणैरिति षच्तष्यम्‌ | हह मा भूत्‌ । घृतस्य तीवः । चन्दनस्य 5 

दुरिति ॥ 

किमथेमिदमुच्यते | गुणेनेति प्रतिषेधं व्यति” तस्यायं पुरस्ादपकषेः. । किं 
कारणे गुणेन नेस्युस्यते न पुनर्गुणवचनेन नेस्युध्यते |. वैवं श्यम्‌ | इह हि न 
स्यात्‌ । काकस्य काण्यम्‌ | कण्टकस्य तेेण्यम्‌ । बलाकायाः शौहृघमिति.। 
एतदेव तस्मिन्योग उदाहरणम्‌ । यदै ब्राह्मणस्य शुकाः वृषलस्य कृष्णा इत्यसा- 10 
मथ्यौदन्र न भविष्यति । कथमसाम्यैम्‌ । सापेक्षमसमर्थं भवतीति । द्रव्यमच्रा- 
पेश्यते दन्ताः । तस्माहुणेन नेति वक्तव्यम्‌ | गुणेन नेस्युष्यमाने तस्स्यैथ गुणै- 
रिति वक्तव्यम्‌ । तस्स्थैथ गुभैरित्युच्यमाने न तु तिशोषशैरिति वक्तव्वम्‌ ॥ 


न निधौरणे ॥ २।२।। १० ॥ 


प्रतिपदविधाना च ॥ ९॥ | 15 


प्रतिपदविधाना च षष्ठी न समस्यत इति वष्कष्यम्‌ । इह मा भूत्‌ । सर्पिषो 
ज्ञानम्‌ । मधुनो ज्ञानमिति || 


पूरणगुणसुहिताथंसदग्ययतव्यसमानाधिकरणेन ॥। २।२।११. ॥ 


गुणे किमुदाहरणम्‌ । ब्राह्मणस्य शुङ्गाः । वृषलस्य कृष्णा इति । नैतदस्ति 
प्रयोजनम्‌ । भसामर््यादत्र म भविष्यति | कथ्रमसामध्यम्‌ | सापिक्षमसमथै भव- 20 
तीति |. ब्रम्यमत्रापेश्यते दन्ताः ||. इदं तर्द । काकस्य काण्यम्‌ | कण्टकस्य 
तैर्ण्यम्‌ । बलाकायाः शौहृयमिति || इदं चाप्युदाहरणम्‌ । ब्राहमणस्य शुङ्गाः । 





१ इ.२,.६६. । ¶† २.१. .५९. 


४१४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥  मि०२,२.९. 


वृषलस्व कृष्णा इति । ननु चोन्कतमस्ामथ्योदत्र न भविष्यति कथमसामथ्यै सापे- 
क्षमसमर्थं भवतीति दइतयमत्रापेक्ष्यते दन्ता इति । तरैष दोषः । भवति धै कस्यचि- 
दथोत्मकरणाहपेश्यं निज्ञोतं तदा वृत्तिः प्रामोति ॥ 
सति किमुदाहरणम्‌ । ब्राह्मणस्य परक्यन्‌ | ब्राह्मणस्य पक्ष्यमाणः | तैतदस्ति | 
£ प्रतिषिध्यते ऽत्र षष्ठी प्रयोगे नेति* । या च भ्रुयत एषा बाद्यमथेमपेश्य भवति | 
तथ्ासामभ्योज्न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम्‌ । सापेक्षमसम्थै भवतीति । द्रष्यम- 
ापेश्यत ओदनः | इदं तहि | चौरस्य द्विषन्‌ । वृषलस्य द्विषन्‌ । ननु चात्रापि 
प्रतिषिध्यते | वदेयत्येतत्‌ | दषः शतुवोवचनमिति! ॥ 
भष्यये किमुदाहरणम्‌ | ब्राह्मणस्योचैः | वृषरस्य, नीन्रैरिति । चैतदस्ति | भसा- 
10 म््यादत्र न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम्‌ | सापेक्षमसमर्थं भवतीति | द्रवष्यमतरापेशष्यत 
भाखनम्‌ | हदं ताहि । ब्राह्मणस्य कृत्वा | वंषलस्य कृत्वेति | एतदपि नास्ति । 
प्रतिषिध्यते तत्र ष्यव्ययप्रयोगे नेति* । या च श्रूयत एषा बाद्यमथैमपेक्ष्य भवति| 
तत्रासामभ्योन्न भविष्यति | कथमसामथ्येम्‌ | सापेक्षमसमथै भवतीति | इव्य- 
मत्रापेश्यते कटः | इदं तर्हि । पुरा खयैस्योदेतोराभेयः । परा वत्सानामपाकर्तोः | 
15 ननु चात्रापि प्रतिषिष्यतेऽव्ययमिति कत्वा । वद्यत्येतत्‌ । अव्ययप्रतिषेभे तो - 
न्क नोर प्रतिषेध इति ॥ 
समानाधिकरणे किमुदाहरणम्‌ । राशः पाटशिपुत्रकस्य | शुकस्य माराविदस्य | 
पाणिनेः सूत्रकारस्य | तैतदस्ति । असामथ्यौदन्र न भविष्यति | कथमकामर्थ्यम्‌ | 
समानाधिकरणमसमथे वद्वतीवि ।| हदं तर्हि | सर्पिषः पीयमानस्य । यजुषः क्रिय- 
90 माणस्येति | ननु चाज्राप्यसामथ्यौदेव न भविष्यति । कथमसामर्थ्यम्‌ | समानाधि- 
करणमसमये वद्ूवतीति । अधात्वमिहितमित्येवं तत्‌ ॥ 


कमौणि च ॥२।२।१४ ॥ 


कथमिदं विज्नायते | कर्मणि या षष्ठी सान समस्यत इति । आशोस्वित्कर्मभि 
यः. क्त हति | कुतः सदेहः | उभयं प्रकृतं तत्रान्यतर च्छक्यं ^ विशेषयितुम्‌ । 
9६ कथाज्न विशेषः | . | 


+ द.६, ६९, न¶ २.३. ६९१, ` { २.९. ८.९. 











पा० २.२.९४-९.०. | ॥ ध्याकरनमहमष्यय॥ 9९५ 


कर्मणीति षष्ठीनिरदेदाेदकतरि कृता समासववनम्‌ ॥ ९ ॥ 
कमेणीति षष्ठीनिर्देशभेदकतैरि कृता समासो वन्कव्यः | हष्मपरत्रधनः पलादच्च- 
शातनः' || 
तृजकाभ्यां चानर्थकः प्रतिषेधः ॥ २ ॥ 
तृजकाभ्यां चान्थेकः प्रतिषेधः | भपां ष्टा! | कमेणीस्येव सिद्धम्‌ ॥ भस्तु ऽ 
तर्हि कमेणि यः क्त इति | किमु राहरणम्‌ । ब्राह्मणस्य मुक्तम्‌ | वृषलस्य पीतमिति | 
्तनिर्देदो ऽसमर्थस्वादम्रतिषेधः ॥ ३ ॥ | 


निरे ऽसमथेत्यादप्रतिषेधः | भनथेकः प्रतिषेधो ऽप्रतिषेधः | समासः क- 
स्मान्न भवति । भसाम्यौत्‌ | कथमसामथ्येम्‌ । सपिक्षमसमर्थं भवतीति | इष्य 
मन्रापेश्यत ओदनः || 10 


मतिषेष्यमिति चेत्कर्र्यपि प्रतिषेधः ॥ ४ ॥ 
अवं सति प्रतिषेधः कैव्य इति दृरयते क्यपि प्रतिषेधो वक्तव्यः स्यात्‌ | 
ब्राह्मणस्य गतः | ब्राह्मणस्य यात हति || | 
पूजायां च प्रतिषेधानयेक्यम्‌ ॥ ५ ॥ 
पृजायां च प्रतिषेधो ऽनर्थ॑कः | राजां पूजितः ‡ । कर्मणीस्येव सिद्धम्‌ || 15 
तस्मादुभयमप्रासी कमणि षष्ठचाः प्रतिषेधः ॥ & ॥ 


तस्मादुभयप्राप्तौ कर्मणि [२.३.६६ | इत्येवं या षष्टी तस्याः प्रतिषेषो वक्तव्यः | 
स तर्हिं वक्तव्यः | न वक्तव्यः | इत्यर्थे ऽयं चः परडितः | कर्मणि च । कर्मेणी- 
व्येव या षक्षीति ॥ 


नित्यं कौडाजीविकयोः ॥२।२।१.७॥ 


किमिह मिस्यपहणिनाभिसंवप्यते विधिराहोस्विखतिषेधः | विषिरित्याह । कुत 
एतत्‌ | विपिर्दि विभाषा नित्यः प्रतिषेषः ॥ 


# द. ३, ९९७; ३.३. ६५. † २. ६, ९६. २, २,९१. 


४९६ ॥ व्याकरगमहाभाच्यम्‌. ॥  [म०२.२.९. 


` कुगतिप्रादयः ॥ २।२।१.८ ॥ 


भादिभसद्गे कमेभवचनीयप्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
पादिमसङ्गे कर्मप्रवचनीयानां प्रतिषेधो वक्तव्यः । वृक्षं प्रति विशोतते विशत्‌ | 
सापुरदेषदन्तो मातर प्रति" ॥ 


5 व्यवेतमतिषेध्च ॥ २ ॥ | 
ध्यवेलानां चं प्रतिषेधो बक्तव्यः । आ मन्द्रैरिन्द्र इरिमि्याहि मयूररोमभिः ॥ 
सिद्धं तु काङ्स्वतिदुगतिवषनात्‌ ॥ ३ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । काङ्स्वतिदुगेतयः समस्यन्त इति वक्कव्यम्‌ | कु । 
कूुब्राह्मणः कुवुषकलः । भाङ्‌ | कडारः .भापिङ्गलः | इ | उन्राह्मणः इवु- 
10 बलः । अति | अतिब्राह्मणः भतिवृषलः | दुर्‌ । दुब्रोदह्यणः । गति | प्रकारकः 
प्रणायकः प्रसेचकः ऊरीकृत्य ऊरीकृतम्‌ ॥ 
प्रादयः क्तर्थे ॥ ४॥ 
प्रादयः क्तर्थे समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ | प्रगत आत्रार्यः प्राचायैः | प्रान्तेवासी 
परपितामहः ॥ | 
18 एतदेव च सौनानैर्विस्तरतरकेण पठितम्‌ ॥ स्वतीः पूजायाम्‌ || स्वती पृजाया- 
मिति वक्तव्यम्‌ |. राजा अतिराजा || दुर्निम्दायाम्‌ ॥ दुर्िन्दायामिति वक्तव्यम्‌| 
इुष्कूुलम्‌ दुगैवः || आङीषदर्थे || आङीषदथ इति . वक्तव्यम्‌ | भाकडारः 
आपिङ्गलः || कुः पापाय | कुः पापार्थं इति वक्तव्यम्‌ | कुतब्राह्मणः कुवृषलः ॥ 
प्रादयो गताष्यथे प्रथमया ।| प्रादयो गताद्यर्थे प्रथमया समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ । 
20 प्रगत भआवायैः प्राचार्यः । प्रान्तेवासी प्रपितामहः ॥ अत्यादयः क्रान्तां हिती- 
यया || अस्यादयः क्रान्ताश्यर्थ हितीयया समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ | अतिक्रान्तः 
खटरामतिखदटूः । अतिमालः ॥ अनादयः क्रुष्टाय्थे तृतीयया ॥ ` भवादयः क्रुष्टा- 
दर्थे तृतीयया समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ | भवक्रुष्टः कोकिलयावकोकिलो वसन्तः || 
पयोदयो ग्लानाय्थे चतुर्थ्या || पयीदयो ग्लानाथर्थे चतुर्थ्या समस्यन्त इति वक्त 
25 ध्यम्‌ । परिग्लानो ऽभ्ययनाय परयेध्ययनः || निरादयः क्रान्ताथर्थे पञ्लम्बा ॥ 


# ९.४.९०, 








पा० २.२.१९८-१९. | ॥ व्याकरणमहाभाष्वय्‌ ॥ ४९७ 


निरादयः क्रान्ताश्य्ं पत्चम्या समस्यन्त इति वक्तव्यम्‌ । निष्क्रान्तः कौशास्भ्या 
निष्कौशाम्बिः | निवाराणसिः ॥ 

अव्ययं प्रवृद्धादिभिः || भं्व्ययं प्रवृद्धादिमिः समस्यत इति वक्तव्यम्‌ | 
पुनःपरवृदधं बर्हिभेवति | पुनणैवम्‌ पुनः खम्‌ ॥ इवेन विभक्त्यलोपः पूर्वेपदप्रकृ- 
तिस्वरत्वं च ¡ वाससी इव | कन्ये हव || उदावता तिङा गतिमता चाव्ययं 5 
समस्यत इति वक्तव्यम्‌ । अनुव्य चरत्‌ अनुप्राचिश्त्‌ । यत्परियन्ति' ॥ 


उपपदमतिङ्‌ ॥ ९ । ९।१९.॥ 


भतिञ्धिति किमर्थम्‌ । कारको व्रजति | हारको वजति। || अतिङिति हाक्य- 
मकम्‌ | कस्मान्न भवति । कारको वरजति | हारकी व्रजतीति | शष्डपेति{ व- 
तेते || अत उत्तरं पडति । “10 


उपपदमतिकिति तदर्थप्रतिषेधः ॥ ९ ॥ . ` 


उपपदमतिङिति तदथैस्वायं प्रतिषेधो वक्तव्यः । कस्य | तिङ्थैस्य | कः 
पुनस्तिङ्येः | क्रिया ॥ 


क्रियाप्रतिषेधो वा |> ॥ 


अथत्रा व्यक्तमेत्रेदं पठितव्यमुपपदमक्रियेति || अथाक्रियेति किं प्रव्युदाहियते | 15 
कारको गतः | हारो गतः | नैतक्कियावाचि | कि तरि | द्रव्यवाचि || इदं 
तर्द । कारकस्य गतिः । कारकस्य व्रज्या । एतदपि द्रव्यवराचि | कथम्‌ | कृद- 
भिहतो भावो द्रत्यवद्धवतीति || एवं तर्हि सिद्धे सति यदतिडिति प्रतिषेधं शास्ति 
तज्ज्ञापयत्य चार्यो ऽनयोर्योगयोर्भिवृत्तं ° छष्डपेति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ | 
गतिकारकोपपदानां कद्धिः सह समासो भवतीत्येषा परिभाषा न कतेव्या भवति | 20 
यद्येतज्ज्ाप्यते केनेदानीं समासो भविष्यति । समर्थन ¶ || यद्येवं धातुपसर्मयोरपि 
समासः परामोति पृषै धातुदपसर्गेण युज्यते पशात्साधनेनेति | नैतदस्ति | पूर्वै धातुः 
साधनेन युज्यते पथादुपसर्भेण । साधनं हि क्रियां निवेतेयति तामुपसर्गो विरिनष्टि | 
अभिनिर्वृत्तस्य चाथेस्योपसर्भेण विहोषः श्यो वक्तुम्‌ || 


#* ८.६. १० † ३.१.९८०. .‡ २.९.२४ ऽ २.२.९८ ९००. बु २,२९.९. 
` 53 





४९८ ॥ व्यौकरणमहाधाध्यम्‌ 1 | [म० २.२.९१. 


षष्ठी समासादुषपदसमासो विप्रतिषेधेन ॥ ३ ॥ 
ष्ीसमासादुषपदसमासो भवति विप्रतिषेधेन । षीसमासस्यावकाक्ञः । राञ्जः 
धुक्षो राजपुरुषः" । उपपदसमासस्यावकाशः । स्तम्बेरमः कर्णेजपः } इदहोमवं 
भरपरोति | कुम्भकारः नयरकारः । उपपदसमासो भवति विप्रतिषेधेन || 


$ न वा षष्ठीसमासस्याभावादुपपदसमासः ॥ ४ ॥ 

न वार्थो विप्रतिषेधेन | किं काश्णम्‌ 1 षष्ठीसमासस्याभावादुपपदसमासो भ- 
विष्यति । कथम्‌ | गतिक्रारकोपपदानां द्धिः सह समासवचनं प्राक्छबुतत्त- 
रिति वचनात्‌ || भथवा विभाषा षष्ठीसमासो यदा न षष्टीसमासस्तदोपपदसमासो 
भविष्यति । भनेनैवं यथा त्यात्तेनं मा भूदिति । कथात्र विशेषस्तेन वा स्यादनेन 

10 वा । उपपदसमासो नित्यसमासः षष्ठीसमासः पुनर्विमाषा | ननु च नित्यं यः 
समासः स नित्यसमासो यस्य विरहो नास्ति | नेत्याह | निव्याधिकारे। यः स~ 
मासः स नित्यसमासः | नैवं शक्यम्‌ । अव्ययीभावस्य ्यनिस्यसमासता प्रस- 
ज्येत | तस्माचिस्यः समसो नित्यसमासो यस्य विमहो नासि | 


अभैवाग्ययेन ॥ २।२।२०॥ 


एवकारः कमथः | नियमाः । वैतदस्ति प्रयोजनम्‌, | सिद्धे विधिरारभ्यमा- 
णो ऽन्तरेणाप्येवकारं नियमार्थो भविष्यति ।| इष्टतोऽवधारणार्थस्तार्ईि भवष्यति | 
यथैवं विज्ञायेत | अभ्ैवाव्ययेनेति । चैवं विज्ञामि | अमाव्ययेनैवेति | अस्ति 
चेदानीं कथिदनव्ययमम्डाष्दो यदथौ विधिः स्यात्‌ | अस्तीत्याह | खाय! ब्राह्मण- 
कुलमिति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | अन्तरङ्गत्वादत्र समासो भविष्यति | इदं ताह 
,› मरयोजनममेव यततुल्यविधानमुपपदं तत्रैर यथा स्यादमा. चान्येन च यत्तल्यविधा- 
नमुपपदं तत्र मा भूदिति ।-अमे मोजम्‌ । भमे भुक्ता | भमादिष्वप्राप्राविभेः 
घमासप्रतिषेधं चौदाधेष्यति म स न वक्तव्यो भवति ॥ 


दोषो बहुत्रीहिः ।॥ २ ।२। २२. ॥ 


शेष हस्युष्यते कः शेषो नाम । येषां पदानामनुक्तः समासः स शेषः | 
= २.२.८ † २१.६९७. | १,२.९५ ०.९,२५. इ ३.५.२५२५ बृ २.५.२० 











पा० २,२.२३०-२३.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ ॥ ४९९, 


दोषवचनं पदतश्ेन्नाभावात्‌ ॥ ९ ॥ 

होषवचनं पदतञ्े्तच्च । किं कारणम्‌ | भभ्वात्‌ । न हि सन्ति तानि पदानि 
केषां पदानामनुक्छः समासः || भर्थतस्तर्दिं शेषग्रहणम्‌ । वेष्वर्थष्वनुक्तः समास 
स शेषः | 

अथ॑तश्चेदविशिषटम्‌ ॥ २॥ 5 

अर्थतशेदविशिष्टमेत दवति । कुतः | पदतः | न हि सन्ति ते ऽथौ येष्वनुक्तः 
समसः ।| त्रिकतस्तर्दि शेषग्रहणम्‌ । यस्य त्रिकस्यानु्तः समासः स शेषः | 
कस्य चानुक्तः | प्रथमायाः ॥ 

इति ्रीभगवत्पतश्ररिषिरचिते ष्याकरणमहाभाष्ये इितीयस्याध्यायस्य तीये 
पादे प्रथममाह्धिकम्‌ ॥ 10 


8२१ ॥ व्पाकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ . (ममर... 


अनेकमन्यपदाधं ॥ २।२।२४॥ 


` पदम्रहणं किमभरम्‌ ।. अनेकम्रन्याथं इतीयत्यु ष्व माने वाक्यार्थेअपि बहत्रीदि 
स्यात्‌ । यथा मे माता तथा मे पिता छश्ञातं मो हति । प्दम्रहणे पुनः (क्रियमाणे 
~ न दोषो भवति ॥| भथान्यग्रहणं किमयम्‌ । भनेके पदाथे इतीयत्युच्यमाने स्वप- 
5 दार्थेष्पि बहव्रीहिः स्यात्‌ | राजपुरुषः त्षपुरूष इति । नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | 
तस्पृरुषः स्वपदार्थे वाधको भविष्यति । भवेदेकसंञाधिकारे सिदध परंकार्येत्वे तुन 
सिध्यति | भारम्भसामथ्योख तस्पुरुषः परंकायेत्वा् बहव्रीहिः प्रामोति || परंका- 
यैवे .च न दोषः । रोष" इति वतेते ऽशेषस्वान्न. भविष्यति । 


दोषवथन उक्तम्‌ ॥ ९ ॥ 

0 किमुक्तम्‌ | तत्र शोषवचनाहोषः संख्यासमानाधिकरणनञ्समासेषु बह त्रीहि प्रति- 
बेष इति! ।| अथैकसंशाधिकारे नार्थोऽन्यमहणेन | एकसंज्ञाधिकारे च कतेष्यम्‌ | 
अक्रियमाणे छन्यग्रहणे यथैष तस्पुदषः स्वपदार्थे बहू व्रीहिं षाधत एवमन्यपदार्थेऽपि 
वाधेत || 

अथानेकय्रहणं किमर्थम्‌ | अन्यपदार्थ हती यत्युश्यमान एकस्यापि पदस्व बहू- 

15 व्रीहिः स्यात्‌ | सर्पिषोऽपि स्यात्‌ । मधुनोऽपि स्यात्‌ । गोमूत्रस्यापि स्यात्‌‡ । तैतदस्ति 

प्रयोजनम्‌ । दष्डपेति$ वतेते || हदं वार्ह प्रयोजनं बहनामपि समासो यथा स्यात्‌| 
सुसृशेमजटके शेन सुनताजिनवाससा ॥ 

उत्तरार्थं चानेकमहणं कतेष्यम्‌ | चार्थं न्ड: [२,२.२९ | अनेकमिति । इहापि 

` यथा स्यात्‌ । ्रक्षन्यभोधखदिरपला शया इति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | भावा- 

20 यैमवृसिज्खोपयति बहूनामपि समासो भवतीति यदयमुत्तरपदे हिगुं शास्ति¶ | 
तस्पुरषोऽपि -तर्दि बहुनां प्रारोति | भहणेन तस्पुरुष उच्यते तेन बहुनां न भविष्यति ॥ 
अत उत्तरं पठति । 


अनेकवथनमुपसर्जंनार्थम्‌ ॥ > ॥ 


अनेकब्रहणं क्रियत उपस ननाथेम्‌ । प्रथमानिर्दिष्टं समास उपसजेनम्‌ [ १.२. 
28 ४३] इत्यनेकस्य सुप उपसजनसं्ञा यथा स्यात्‌ । चिक्रगुः शवलगुरिति** || 
१२.२३. २६० ¶† ९.४.९५. { ६.४.९६. ऽ २.९.२४. ¶ २,९.५९. **९.२. ४८. 














प° २.२.२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यय ॥ 9२९ 


न वैकविभक्तित्वात्‌ ॥ ३ ॥ 


न वैवदपि प्रयोजनमस्ति । किं कारणम्‌ | एकविभक्तिस्वात्‌ | एकविभक्ति 
ापु्ैनिपाते [४४ | हस्युपसओनसंज्ञा भविष्यति | चित्रगुः शबलगुरिति । चित्रा यस्य 
गावथिज्रगुस्तिष्ठति | चित्रा यस्य गावशित्रगुं परय | चित्रा यस्य॒ गावशित्रगुणा 
कृतम्‌ । चित्रा यस्य गावश्चित्रगवे देहि । चित्रा यस्य गावधिक्रगोरानय | चित्रा यस्य ५. 
गायधित्रगोः स्वम्‌ | चित्रा यस्य गावधथिजरगौ निपेहि। चित्रा यस्य गावो हे 
 चिज्रमो इति || यदि तहि यतः कुतधिदेव किंचित्पदमभ्याहत्वैकविभकया योगः 
क्रियत एतदप्येकविभक्ति युक्तं भवतीहापि प्राभरोति | राजकुमारी तक्षकुमारी | राशो 
या कुमारी राजकुमारी तिष्ठति | राक्षो या कुमारी राजकुमारीं परय । 
राज्ञो या कुमारी राजकुमायां कृतम्‌ । राज्ञो वा कुमारी राजकुमार्थै देहि 16 
राज्ञो या कुमारी राजकुमा्यां भानय | राज्ञो या कुमारी राजकुमायोः स्वम्‌ | 
राज्ञो या कुमारी राजकुमायौ निहि | राज्ञो या कुमारी हे राजकुमारि इति || 
एकविभक्तियुक्तमेव य्ित्यं न वैतन्नित्यमेकविभक्तियुक्तमेव । राश्षः कुमारीं पदय 
राजकुमारीं परयेस्यपि भवति । किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं 
ग॑स्यते | एकबमहणसामभ्योत्‌ | यदि हि यदेकविभक्तियुक्तं चानेकविभक्तियु क्तं च 15 
तत्र स्यादेकम्रहणमन्थकं स्यात्‌ । विभक्तियुक्तं चापुवेनिपात इत्येव ब्रूयात्‌ ।| - 


पदाथाभिधाने भुप्रयोगानुपपात्तिरभिहितत्वात्‌ ॥ ४ ॥ 
पदार्थस्याभिधाने लनुप्रयोगस्यानुपप्तिः । चिश्रगु्देवद् इति । किं कारणम्‌ । 
अभिहितत्वात्‌ । चित्रगुराष्देनाभिहितः सोऽयं इति कृत्वानुप्रयोगो न प्रामोति ॥ 
न वानभिहितस्वात्‌ ॥ «९ ॥। ४0 


न वैष रोषः | किं कारणम्‌ । अनभिहितस्वात्‌ । चित्रगुश्भ्देनानभिहितः सो 
ऽथ इति कत्वानुप्रवोगो भविष्यति || कथ मनभिहितो यावतेदानीमेषोक्तं पदा्थाीभि- 
धाने नुप्रयोगानुपपत्तिरभिहित्वादिति | 


सामान्याभिधाने हि विरोषानभिधानम्‌ ॥ & ॥ 
सामान्ये शयभिधीयमाने धिदोषो ऽनभिहितो भवति । तत्रावरयं विशोषाथिना ४ 
जिरेषोभ्नुपरयोक्तष्यः । चित्रगुः | कः । देवद हति ॥ भवेस्सिद्धं॑वदा सा- 
मान्ये वृतर्यदा तु खलु विशेषे वृललिस्तदा न सिध्यति । चित्रा गावो देव- 


४२१ 1 -ब्यकरणमहदटाभाष्यय्‌॥  [म० २,२.९२. 


दत्तस्य चित्रगुर्देबदत्त इति | तदापि सिद्धम्‌ | कथम्‌ | नेदमुभयं युगपद्धवति 
वाक्यं च समास । यदा वाक्यं न तदा समसः | यदा समासो न तदा वाक्यम्‌ । 
यदा समासस्तदा सामान्ये वृत्तिः । तज्रावदयं विशेषार्थिना विशेषोशुप्रयोक्तव्यः | 
विच्रगुः | कः | देवदत इति || सामोन्यस्थैव तच्नुप्रयोगो न प्रामोति । चिश्रगु तत्‌ । 
$ चित्रगु किंचित्‌ । चित्रगु सवेमिति । सामान्यमपि यथा विदोषस्तहत्‌ | चित्रगवि- 
युक्ते संदेहः स्यात्सवै वाविश्वं॑वेति । तश्रावद्यं स्देहनिवृस्यथै विदोषार्थिना 
वि शोषोऽनुप्रयोक्तष्यः || ` ` 
थवा विभक्तयर्थोऽभिधीयते | एतचान्न युक्तै यदिभक््यर्थो अभिषीयते तत्र हि 
सवैपात्पदं यतेते ऽस्येति | 


१० विभक्तयथाभिधाने इद्ष्यस्य लिङ्ग संख्योपवारानुपपत्तिः || ७ ॥ 


विभक्त्ययोमिधनि र्यस्य लिङ्गसंख्याभ्यामुपचारोश्नुपपत्नः | बहयवम्‌ बह- 
यवा बहूयवः बहूयवौ बहुयवा इति || 
` भपर भाह | विमक्तयथोभिधाने द्रव्यस्य लिङ्गसंख्योपचारानुपपत्तिः । धिभ- 
त्यथोभिधाने ब्रष्यस्य ये लिङ्गसैख्ये ताभ्यां विभक्तय्थैस्योपचारोऽनुपपत्नः | बंहुय 
15 वम्‌ बहुयवा बहुयवः बहुयवौ बहुयवा इति | कथं ह्यन्यस्य लिङ्गसंख्याभ्यामन्य- 
स्योपचारः स्यात्‌ ॥ ` ` 


सिद्धं तु यथा गुणवचनेषु || ८ ॥ 
सिडमेतत्‌ ¡ कथम्‌ | यथा गुणवचनेषु | गुणवचनेषुक्तं गुणवचनानां शब्डा- 
नामाभ्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्तीति | तद्यथा । शङ्क वलम्‌ शुक्का शाटी शङ्क 
20 कम्बलः श्यौ कम्बलौ शुङ्काः कम्बला इति | यदसौ द्रष्यं भितो भवति गुण- 
स्तस्य यलिङ्गं वचनं च तहुणस्यापि भवति | एवमिहापि यदसौ द्रष्यं ननितो भ- 
वति विभक्तवर्थस्तस्य यलिङ्गं वचनै च तत्समासस्यापि भविष्यति || 
यदि . र्हि विभक्त्यर्थो अभिधीयते कृत्लः पदाथः कथमभिहितो भवति सद्रव्यः 
सलिङ्गः ससं स्यथ । भयेन्रहणसामभ्यीत्‌ | हहानेकमन्यपद्‌ इतीयता सिद्धम्‌ । कथं 
26 पुनः परदे नाम वृत्तिः स्यात्‌ | शब्दो देष शाब्दे ऽघंभवादर्थे कायै विश्वास्यते | 
सोऽयमेवं सिदे सति यदेथप्रहणं करोति तस्थैतत्मयोअनं कृतः पदार्थो वधाभि- 
पीयेत सद्रभ्यः सलिङ्गः ससंख्यथेति ।| यदि तर्हिं कृस्शः पदार्थो अभिषीयते 
कैङ्गाः साख्या विधयो नं क्ेभ्यन्ति | 











षार २.२.२४. ॥ व्याकरणमरहाभाष्यम्‌ ॥ ४२६ 
उक्तं वा ।९॥ 


किमुक्तम्‌ । ठेद्गेषु तावदुक्तं सिद्धं तु नियाः प्रातिपदिकविशेषणस्वासस्वार्थे 
टाबादय इति“ । सांख्येष्वप्युक्तै कर्मादीनामनुक्ता एकत्वादय इति कृत्वा सांख्या 
भविष्यन्ति† || प्रथमा तर्द न प्राति | समयाद्धाविष्यति‡ । यदि सामयिकी न 
नियोगतो न्याः कस्माच्च भवन्ति | कमोदीनामभावात्‌ ॥ षष्ठी तर्हि प्राभोति ऽ 
होषलक्षणाऽ दष्ठद्यदोषत्वाच्च भविष्यति || एवमपि व्यतिकरः प्रामोति । एक- 
स्मित्तपि हिवचनबहुवचने प्राप्तो इयोरप्येकव चन बहुव चने बहुष्वप्येकव चनादिवचने | 
अथेतो ध्यवस्था भविष्यति || भथवा संख्या नामेयं परप्रधाना | संख्येयमनया 
विशेष्यम्‌ । यदि चात्र प्रथमा न स्यात्स॑ख्येयमविदोषितं स्यात्‌ || अथवा वद्य- 
स्येतत्तत्र वचनम्रहणस्य प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा यथा स्यादिति¶ || 10 
एवमपि षष्ठी प्रामोति । किं कारणम्‌ । ध्यभिचरत्येव ह्ययं समासो लिङ्गसंस्ये 
ष्ठयथे पुनम भ्यमिचरति | अभिहितः सोऽर्यौऽन्तभतः प्राक्तिपरिकार्थः संपश्चस्तत्र 
प्रातिपदिकार्थ प्रथमेति** प्रथमा भविष्यति || न तर्हीदानीमिदं भवति चित्रगेर्दे- 
वद तस्येति | भवति वाद्यम मपेकष्य षष्ठी ॥ 

परिगणनं कतेष्यम्‌ | । 15 

बहुव्रीहिः समानाधिकरणानाम्‌ ॥ ९० ॥ 


समानाधिकरणानां बहूत्रीहिवैक्तभ्यः | कं प्रयोजनम्‌ | व्यधिकरणानां मा 
भूदिति । पञ्चभिभुक्तमस्येति | 
अव्ययानां च || ९९॥। 
अव्ययानां बहुत्रीरिवेक्तव्यः | उचचर्मुखः नीवैमुखः ॥ 20 


ससम्युपमानपृरव॑पदस्योत्तरपदलोपश्च ॥ ९२ ॥। 


सप्रमीपुतेस्योपमानपृवैस्य च बहुत्रीहिव्व्य उत्तरपदस्य च लोपो षक्तव्यः | 
कण्ठेस्थः कालोऽस्य कण्ठेकालः | उषटूमृखभिव मृखमस्योष्टमुखः | खरमुखः || 


समुदायविकारषदयाश्च | ९३ || 


समुदायषष्या विकारषष्षथा्च बहुत्रीहि तष्य उन्तरपदस्य च रोपो बक्तव्यः | २४ 


क ४.९, ३५, ॥॥ २.३.९४, ६ ३,६.२*. § २.१.९०. ष्‌ २.३.४६१. **२.२,४६. 


४२७४ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥  [म०२.२.२. 
केशानां समाषारश्रुडा भस्य केशचूडः | इवर्णस्य विकारोऽंकारोऽस्य इवणी- 
ठकारः || | 
प्रादिभ्यो धातुजस्य वा | ९४॥ 
प्रादिभ्यो धातुजस्य बहुब्रीहिवैक्तव्य उत्तरपदस्य चवा ठीषो वक्तष्यः | 
$ प्रपतितपर्णः प्रपणः | प्रपतितपलाशः प्रपलाशः || 
नञो ऽस्त्यथीनाम्‌ ॥ १५ ॥ 

नओऽस्त्यथौनां बहुत्रीहिर्वक्तव्य उत्तरपदस्य च वा लोपो वक्तव्यः | अविद्- 
मानपुरः अपुत्रः | अविद्यमानभार्यः अभायैः ॥ 

तसर्दीदं बहु वक्तव्यम्‌ | 

10 न वानभिधानादसमानाधिकरणषु संज्ञाभावः ।। १६ ॥ 

न षा वक्कव्यम्‌ । असमानाधिकरणानां बहुव्रीहिः कस्माश्च भवति । पश्चभि- 
्ु्कमस्येति । अनभिधानात्‌ || तचयात्रदयमनमिधाननाअयितव्यम्‌ | क्रियमाणे 
ऽपि शै परिगणने यत्राभिधानं नास्ति न भवति तत्र बहुत्रीहिः | तद्यथा | पन्च मु- 

' क्तवन्तोऽस्येति ॥ 
15 अथैतस्मिन्सस्यनभिधाने यदि वृत्तिपरिगणनं क्रियते वर्विपरिगणनमपि कर्त- 
व्यम्‌ । तस्कथं कतैव्यम्‌ | 
अ्थनियमे भत्वथंग्रहणम्‌ ॥ ९५७ ॥ 
अ्थनियने मत्वथंग्रहणं कर्व्यम्‌ | मस्वर्थे यः स बहुव्रीहिरिति वक्तत्यम्‌। 
शह मा भूत्‌ । कष्टं भ्नितमनेनेति ॥ 
20 तथा चोत्तरस्य वचनार्थः ।॥ ९८ ॥ 

एवं च कृस्थोश्तरस्य योगस्य वचनार्थ उपपधो भवति | केचि्ावदादुर्यदृतति- 
सत्र इति । संख्ययाध्ययातच्नादूराधिकसंख्याः संख्येये [२.२.२९] इति । अपर 
आह यद्वा्तिक इति ॥ 

कर्मवखनेनाप्रथमायाः।। ९९॥ 


 कर्मवचनेनाप्रयमाया बहुतरीहिर्वक्तव्यः । ढो रथो ेनोढरथो ऽनङ्खान्‌ । 
उपहतः पद्यु हद्रायोपहतपद्य रश्व्रः | उद्धूत अदनः स्थाल्या उद्ृषीरना 


पा० २.२.२४. ] ॥ व्याकरणमहाभाष्यय्‌ ॥ ४२५ 


स्थाली ।| यदि कभेवचनेनेत्युच्यते कतृव चनेन कथम्‌ || प्रापनमुदकं मामं प्राप्रोदको 
मामः । आगता अतिथयो माममागतातिथिमरामः | 


कतंवचनेनापि ॥ २०॥ 


कतव यनेना पीति वक्तव्यम्‌ || प्रथमाया इति किमर्थम्‌ । वृष्टे देवे गतः. || 
भथाप्रथमाया इत्युच्यमान हह कस्मान्न भवति | वृष्टे देवे गतं परयेति । बहि- ¢ 
र द्धगजप्रिथमा ॥ 


सुबधिकारे स्तिस्लीरादिवचनम्‌ ॥ २९ ॥ 


डबधिकारे ऽस्तिक्षीरादीनामुपसंख्यानं कतैव्यम्‌ । अतिक्षीरा ब्राह्मणी || तत्तर्हि 

वक्तव्यम्‌ | 
न वलव्ययववात्‌ | २५॥ 10 

न वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । भव्ययस्वात्‌ | अव्ययमेषोऽस्तिशब्दो तैषास्ते - 
ट्‌ । कथमव्ययस्वम्‌ | उपसगेविभक्तेस्वरप्रतिरूपकाथ निपातसंज्ञा भवन्तीति नि- 
पातसं्ञा निपातोऽव्ययमित्यव्ययसंज्ञा* || 

भथ किंसब्रह्मचारीति कोऽयं समासः | बहुत्रीहिरित्याह | कोऽस्य विरहः | 
के सब्रह्मचारिणोऽस्येति | यथेव कठ इति प्रति वचनं नोपपद्यते | न ह्न्यस्यटेनान्य- 15 
दाख्येयम्‌ || एवं तर्धवं निग्रहः करिष्यते केषां सब्रह्मचारी किंसब्रह्मचारीति -। 
प्रतिव चनं चैवं हि नोपपश्यते स्वरे च दोषो भवति | रिंसब्रह्मचारीस्येवं स्वरः 
प्रसज्येत। किसब्रह्मचारीति चेष्यते‡ ॥| एवं तर्धेवं विग्रहः करिष्यते कः सब्रह्म 
चारी किंसनब्रह्मचारीति | भवेसखतिवचनमुपपत्तं स्वरे तु देषो भवति ॥ एवं त्वं | 
विन्रहः करिष्यते कः सब्रह्मचारी तव किंसब्रह्मचारी त्वमिति ॥ भथवा पुनर- 20 
स्त्वयमेव विहः के सब्रह्मचारिणोऽस्येति | ननु चोक्तं कठ इति प्रतिवचनं नोप ` 
पद्यत इति ।. नैष दोषः । अपौकरवाणिन्यायेन भविष्यति । ` तद्यथा | कथित्कं- 
चिदाह । अन्नौ करवाणीति | कुर्विति कतेयेनुज्ञति कमोप्यनुज्ञातं भवति | भपर : 
काह | अतौ करिष्यत इति । क्रियतामिति कर्मण्यनुज्ञाते क्ताप्यनुज्ञातो भवति | 
यथैव खल्वपि के सब्रह्मचारिणोऽस्येति कठा इत्युक्ते संबन्धादेतदम्यते नूनं सोऽपि 25 
कट इत्येवं कठ हइद्युक्ते सं बन्धादेतद्रन्तव्यं स्याच्नुनं तेऽपि कठा इति || न खल्वपि 
ते शक्याः समासेन प्रतिनिर्देष्टुम्‌ । उपसजेनं हि ते भवन्ति ||. 


# ९.४.५७९ ग०; ९.९.३५. † ६.५.२२३ { ६.२.१६. 
54 श 


४२६ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ `  [ म०२.२.२. 


अथार्त॒तीया इति कोऽयं समासः । बहुव्रीहिरित्याह । कोऽस्य विग्रहः । 
अथे तृतीयमेषामिति । कः समासाथेः । समासाथा नोपपद्यते ऽम्यपदार्थो हि नाम 
स॒ भवति | येषां पदानां समासस्ततो ऽन्यस्य पदस्यार्थोऽन्यपदायथेः || एवं त्वं 
विब्रहः करिष्यते ऽथे तृतीयमनयोरिति । एवमपि कः षटयथः । षट्य्थ नोपप- 
5 यते | किं हि तयोर भै भवति ॥ अस्तु तद्ययमेव विग्रहो ऽपे तृतीयमेषामिति । 
ननु चोक्तं समासार्था नोपपद्यत इति । नैष दोषः । भवयवेन विग्रहः समुदायः 
समासाः | यश्यवयवेन विग्रहः समुदायः समासार्थः 


कअसिद्िती योऽनुससार पाण्डवम्‌ 
संकषेणदितीयस्य बलं कृष्णस्य त्र्ताभिति 


10 हयो्िवचनमिति" द्विवचनं प्रामोति ।। भस्तु तर््यमेव विमरहोऽपै तृतीयमनयो- 
रिति । ननु चोक्तं षश्यर्थाो नोपपद्यत इति | त्ैष दोषः | इदं तावदयं प्र्टव्यः | अथे 
दे वदसस्य भ्रातेति कः षष्ट्यथं इति । तत्रैतस्स्यादेकस्मासरादुभीव हति । एतच वातम्‌ 
तद्यथा | सार्थिकानामेकप्रतिश्रय उषितानां प्रातरूत्थाय प्रतिष्ठमानानां न कित्परस्परं 
संबन्पो भवति । एवंजातीयकं भ्रातृत्वं नाम । अश्र चेदयक्तः षक्षयर्थो दृदयत 


15 इहापि युक्त ददयताम्‌ ॥ इह॒ तद्यधेतृतीया भानीयन्ताभिस्यक्तेऽपेस्यानयनं न. 


भामति | स्तु तद्यैयमेव विभरहोऽपै तृतीयभेषामिति । ननु चोक्तमसिरितीयोन्‌- 
ससार पाण्डवम्‌ संकषेणदितीयस्य बलं कृष्णस्य व्पतामिति इयोर्िवचनमिति दि- 
वचनं प्रामोतीति । तैष दोषः | भयं तीयान्तः शब्दोऽस्त्येव पुरणमस्ति सहायवाची | 
त्यः सहायव्राची तस्येदं ब्रहणम्‌ | भसिद्वितीयः भसिसषशटाय इति गम्यते ॥ एवम- 
९0 प्यध॑त॒तीया इत्येकस्मिन्नेकव चनं प्रामोति । एकाथ हि समुदाया भवन्ति | तद्यथा । 
दातम्‌ यूथम्‌ वनमिति || अस्तु त्ययमेव विपहोऽधै तृतीयमनयोरिति । ननु चोक्तम- 
धैतृतीया आनीयन्तामिव्युक्ते ऽधैस्यानयनं न प्रातीति | तरैष दोषः । भवति वहुत्रीही 
तद्ुणसंविज्ञानमपि । तद्यथा | शङ्कवाससमानय लोहितोष्णीषा ऋषिजः प्रचरन्तीति 
तद्कुण आनीयते तद्वुणा्च प्रचरन्ति ॥ अथवा पुनरस्त्वयमेव वि्रहोऽे तृतीयभेषा- 
25 मिति | ननु चोक्तभेकवचनं प्रामोतीति | नैष दोषः । संख्या नामेयं प्रमधाना | 
संख्येयमनया विशेष्यम्‌ । यदि चात्रैकवचनं स्यात्संख्येयमविरशेषितं स्यात्‌ ॥ 
इह तद्यर्तृतीय। द्रोणा इत्ययं द्रोणदाब्दः समुदाये प्रवृत्तो ऽवयवे नोपप्यते । नैष 
दोषः | समुदायेष्वपि शाब्दाः प्रवृत्ता अवयवेष्वपि वर्तन्ते | तद्यथा | पूर्व पत्चालाः | 


५९.४.२२. 














पा० २.२.२५९. | ॥ व्याकरणमहामाष्यम्‌ ॥ ७२७ 


उत्तरे पञ्चालाः । तैं भुक्तम्‌ । शुः नीलः कृष्ण इति । एवमयं समुदाये 
्रोणराष्दः प्रवृतो ऽवयवेष्वपि वतेते | कामं तद्यनेनैव हेतुना यदा हौ द्रोणावधी- 
हकं च करतैव्यमधेतृतीया द्रोणा इति । न कतेव्यम्‌ । समुदायेष्वपि हि दाब्दाः 
परवृत्ता अवयवेष्वपि वतैन्ते । केष्ववयवेषु | योऽवयवस्तं समुदायं न व्यभिचरति | 
कं च समुदायं न व्यभिचरति । भधद्रोणो द्रोणम्‌ । भधोढकं पुनव्यभिचरति || ॐ 


संख्ययाव्ययासन्नादूराधिकसंख्याः संख्येये ॥ २।२।२५॥ 


दित्राः त्रिचतुरा इति कोऽयं समासः | बहुत्रीहिरित्याह । कोऽस्य विमहः | बौ 
वा चयो वेति | भवेद्यदा बहुनामानयनं तदा बहुवचनमुपपन्नं यदा तु खलु हावानी- 
येते तदा न ध्यति | तदापि सिद्धम्‌ ¡ कथम्‌ | केचित्तावदाहुः । अनिन्ञतेर्थे 
बहुवचनं प्रयोक्तव्यमिति | तद्यथा । कति भवतः पुत्राः | कति भवतो भाया इति | 10 
अपर आह | दौ वेस्युक्ते अयो वेति गम्यते | त्रयो वेस्युक्ते दौ वेति गम्यते | सैषा 
पतचाधिष्ठाना वाक्तत्र युक्तं बहुवचनम्‌ || 

अथ दिदशाः त्रिदशा इति कोऽयं समासः | बहुव्रीहिरित्याह | कोऽस्य विमदः | 
विदेश दिदरा इति । 


संख्यासमासे सुजन्तस्वास्संख्याप्रसिदिः ।। ९ ॥ 15 
संख्यासमासे सुजन्तत्वारसंख्येत्यप्रतिदिः" | न हि उजन्ता संख्यास्ति ॥ एवं 
तथैवं विरहः करिष्यते हौ दशातौ द्विदशा इति | एवमप्यत्कारान्तस्वास्संख्यये- 
त्यप्रसिदिः† । न ्यत्कारान्ता संख्यासि || अस्तु तर्येव विग्रहो ्िर्दंशच द्िद- 
छा इति | ननु चोक्तं संख्यासमासे इजन्तत्वात्सं ख्येव्यप्रसिदधिरिति | 
न वासुजन्तत्वात्‌ ॥ > ॥ 20 
न वैष दोषः | किं कारणम्‌ । भसुजन्तत्वात्‌ । सुजन्तेद्युच्यते न चात्र 
जन्तं परयामः || किं पुनः कारण वाक्ये खञ्दूरयते समासे तु च दृदयते। 
सुजभावो ऽभिहिता्थत्वात्समासे ॥ ३ ॥ 
समासे इवो भावः । किं कारणम्‌ । भभिहितार्थत्वात्‌ } अभिहितः सुजर्थः 


# ५.४. ९८. ¶ ९.१. ६०, 


४२८ ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌।। [मण २.२.२, 


समासेनेति कृत्वा समासे सुज्ज भविष्यति । किं च भोः जथ इति समास 
उच्यते | न खलु सुजथे ह्युच्यते गम्यते तु सुजथेः | कथम्‌ । यावता संख्येयो 
यः संख्यया संख्यायते स च क्रियाभ्यावृ्यथः । स चोक्तः समासेनेति कृत्वा 
समासे सुज्न भविष्यति || 
& अरिष्यः संख्योत्तरपदः संस्येयवाभिधायित्वात्‌ ॥ * ॥ 
अशिष्यः संख्योत्तरपदो बहृव्रीहिः । किं कारणम्‌ | संख्येयवाभिधायित्वात्‌ । 
संख्येयं वार्थधामिधीयते तश्रान्यपदार्थ* इत्येव सिद्धम्‌ ॥ भवेत्सिद्धमधिकविदाः 
अधिकरत्रिंदा इति यत्रैतहिचाथेते विंशत्यादयो दश्ादर्थे वा स्युः परिमाणिनि वेति। 
इदं तु न सिध्यति भधिकदहा इति यत्र नियोगतः संख्या संख्येय एव वतेते ॥ 
10 अथोपदशा इति कोऽयं समासः । ` बहूव्रीरिरिव्याह | कोऽस्य विमरहः | दशानां 
समीप उपदशा इति । कस्य पुनः सामीप्यम्थैः । उपस्य । यद्येव नान्यपदार्थो 
भवति | तत्र प्रथमानिर्दिष्टं संख्याप्रहणं शक्यमकर्तुम्‌ ॥ 


मत्वर्थे वा पृवंस्य विधानात्‌ ॥ ^ ॥ 
अथवा मत्वर्थे पूरो योगो ऽमत्वर्थो ऽवमारम्भः ॥ 


15 कबभावार्थं वा | ६ ॥ 
अथवा कम्मा भूरिति ॥ 


दिङ्ामान्यन्तराठे ॥ २।२।२६ ॥ 


तेन सहेति तुल्ययोगे ॥ २।२।२८॥ 


दिक्समाससहयोगयोश्चान्तरालप्रधानाभिधानात्‌ ॥ ९ ॥। 


20 दिक्समाससहयोगयो धादिष्यो बह व्रीहिः | किं कारणम्‌ । अन्तरालग्रधानाभि- 
धानात्‌ । दिक्समासे सहयोगे चान्तरालं प्रधानं चाभिधीयते तज्रान्यपदाथै* इत्येव 
सिद्धम्‌ ॥ यद्येवं दक्षिणपवो दिक्‌ समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्भावो न प्रामोति । 
अद्य पुनरियं सैव दक्षिणा तैव पूर्वेति कृत्वा समानाधिकरणलक्षणः पुंषद्धावः 


# २.२.२४. † २.२.२४४,  { ५९,४.१९५४. ऽ ६.२.१४. 








पा०२.२.२६-२८.| ॥ व्याकर्णमहाभिाष्यम्‌ ॥ ४२९ 


सिडधो भवति || न सिध्यति | भाषितपुंस्कस्य पुंवद्भावो न चैतौ भाषितपुंस्कौ | 
ननु च भो दक्षिणशभ्दः पुवेदाब्दथ पुंसि भाष्येते | समानायामाकृतौ यद्धाषित- 
पस्कमाङृत्यन्तरे चैतौ भाषितपुंस्कौ । दक्षिणा पूर्ति दिक्डाब्दौ दक्षिणः पूर्वं इति 
व्यवस्थादाब्दौ | यदि पूार्दिक्शाष्दा अपि व्यवस्थादाष्दाः स्युः | कथं यानि 
दिगपदिष्टानि कायाणि | यदा दिशो व्यवस्थां वक्ष्यन्ति | यदि तर्हियों यो दिशि 5 
वतेते स स दिक्शब्दो रमणीयादिष्वरतिप्रसङ्खो भवति | रमणीया दिक्‌ शोभना दिः 
गिति || अथ मतमेतदिशि दष्टो दिग्दष्टः दिण्द्रष्टः शाब्दो दिक्डाब्दः दिश॑योन 
व्यभिचरतीति रमणीयादिष्वतिपरसद्गो न भवति पुंवद्कावस्तु न प्रापोति || एवं तर्द 
स्वेनान्नो वृत्तिमात्रे पुंबद्धावो षक्तव्यो दक्षिणोत्तरपुवोणामित्येवमथेम्‌ । एव च 
कृत्वास्तु दिक्समास सहयोगयोश्ान्तराठप्रधानाभिधानादिव्येव | ननु चोक्तं दक्षिण - 10 
पुवौ दिक्‌ समानाधिकरणलक्षणः पुंवद्भावो न प्रामोतीति | तेष दोषः | स्वैनाप्ो 
वृत्तिमात्रे पुंवद्भावेन परिहतम्‌ ॥ 
मत्वर्थे वा पूर्वस्य विधानात्‌ ॥ २ ॥ 
अथवा मत्वर्थे पूर्वो योगो" ऽमत्वर्थो ऽयमारम्भः | 
कबभावा्थे वा || ३ ॥ 1: 
अथवा कम्मा भूदिति! | 


तत्र तेनेदमिति सरूपे ॥ २ ।२। २.७॥ 


तृतीयाससम्यन्तेषु च क्रियाभिधानात्‌ ॥ ९ ॥ 


तृतीयासपरम्यन्तेषु चाशिष्यो बहृव्रीहिः | किं कारणम्‌ । क्रियाभिधानात्‌ ॥ 
क्रियाभिधीयते तत्रान्यपदाथं; ह्येव सिद्धम्‌ ॥ ४ 


न वैकदोषप्रतिषेधार्थम्‌ ॥ २॥ 
न वाश्िष्वः | किं कारणम्‌ । एकदोषपरतिषेधाथेमिदं वक्तव्यम्‌ || 
पू्ंदीषीयै च ॥ २॥ 
पुवैदीर्षाथे चेदं वक्तव्यम्‌ । केशाकेशि ॥ स्यादेतस्रयोजनं यदि नियोगतो 


+२.२.२३४४. ¶ ५.४.९५४, { २,२.२४. 


४३० ॥ ध्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ [मण २.२.२. 


ऽस्यानेनैव दीर्ष॑वं स्यात्‌ | अथेदानीमन्येषामपि दृरयते [६.३.१३७] इति दीर्षत्वं 
न प्रयोजनं भवति ॥ 
मत्वर्थे वा पुरस्य विधानात्‌ ॥ ४॥ 
अथवा त्वरय पूर्वो योगो" ऽमत्वर्थो ऽयमारम्भः | 


४ कवबभावाथे वा ॥ ५॥ 
अथवा कम्मा भूदिति। ॥ 


चां दन्दः ॥ २।२।२९ ॥ 


चार्थं इत्युच्यते चथाव्ययं ‡ तेन समासस्याव्ययसंज्ञा प्राभोति | नैष दोषः । 
पठेनाव्यंयसंकज्ञा क्रियते न च समासस्तत्र पद्यते || पाठेनाप्यव्ययसंज्ञायां सत्या- 
10 ममिधेयवद्िङ्क वचनानि भवन्ति यशेहार्थोऽभिपीयंते न तस्य लिङ्गसंख्याभ्यां यो- 
गोऽस्ति | नेदं वाचनिकमलिङ्गतासंस्यता वा | किं तहिं | स्वाभाविकमेतत्‌ | 
तद्यथा | समानमीहमानानां चाधीयानानां च केचिदर्थेयज्यन्ते ऽपरे न । न चेदानीं 
कथिदर्थवानिति कृत्वा सर्वैरथेवद्धिः शक्यं भवितुं कथिद्वानर्थक इति सर्वैरनर्थकैः | 
तत्र किमस्माभिः हाक्यं क्तुम्‌ । यत्पाक्समासाचार्थस्य लिङ्गसंख्याभ्यां योगो 
15 नास्ति समासे च भवति स्वाभाविकमेतत्‌ || भअथवाभ्रयतो लिङ्गवचनानि भविष्यन्ति | 
गुणवचनानां हि शब्दानाभाशभ्रयतो लिङ्गवचनानि भवन्ति | तद्यथा | शङ्कं वलम्‌ शुङ्ञा 
राटी शुकः कम्बलः शङ्खौ कम्बलौ शुकाः कम्बला इति | यदसौ ब्रष्यं न्नितो 
भवति गुणस्तस्य यलिङ्गं वचनं च तद्कुणस्यापि भवति । एवमिषशपि यदसौ द्रव्यं 
रितो भवति समासस्तस्य यद्िद्धः वचनं च तत्समाषघस्यापि भविष्यति || 
% अथेह कस्माच भवति । याज्तिकथायं वैयाकरणथ । कटठथायं बहूचथ । 
ओौक्थिकथायं मीमांसकथेति । रोष ऽ इति वतेते ऽदरोषत्वान्न भविष्यति¶ृ | यदि 
शोष इति वतैते 
उपाज्ञातं स्थुरसिक्तं तूष्णीगद्धं महाहदम्‌ । 
दरोणं चेदश्यको गन्तुंमा त्वा तारां कृताकृते ॥ 


25 इत्येतच्च सिध्यति ** । त्रैष दोषः | अन्यडधि कृतमन्यदकृतम्‌ ॥ 


# २.२.२४५. † ५.४० ९५४. { ९,४.५७; ९,१.२७. ९ २,२.२९. ¶ २,६.५७. *#* २.९.६०. 








पा० २.२.२९. ॥ व्याकरणमहभष्यम्‌ ॥ ४३१९ 


चार्थे इन्द्रवचने समासेऽपि चार्थसंमत्ययादनिष्टपरसङ्गः ।। ९ ॥ 
चार्थे इन्दव चने ऽखमासेऽपि चाथसंप्रत्ययादनिष्टं प्रामोति । 
कहरहनेयमानो गामश्वं पुरुषं पुम्‌ । 
वैवस्वतो न तृप्यति छराया इव दुमेदी ॥ 
इन्द्रस्त्वष्टा वरणो वायुरादित्य इति || & 


सिद्धं तु युगपदधिकरणवचने इन्दव चनात्‌ ।। २ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । युगपदधिकरणवचने इन्डो भव्रतीति वक्तव्यम्‌ ॥ 


तत्र पुंवदावप्रतिषेधः ।। ३॥ 
तश्रैतसिम्क्षणे पुंवद्धावस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः । पदरीमृब्यौ | समानाधिकरण- 
लक्षणः पुंवद्भावः प्रामोति* || 10 


विप्रतिषिद्धेषु चानुपपत्तिः ॥ ४ | 

विप्रतिषिदधेषु युगपदधिकरणव चनताया अनुपपत्तिः | हीतोष्णे इखदुःखे जन- 
नमरणे । कं कारणम्‌ । छखप्रतिधातेन हि दुःखं दुः खप्रतिषातेन च छलम्‌ ॥ 

यत्तावदुच्यते तत्र पुंवद्धावप्रतिषेध इति । हदे तावदयं प्रष्टव्यः | अथेह कस्माच्च 
भवति | ददौनीयाया माता दद्ेनीयामातेति | अथं मतमेतसाक्समासाद्यत्र सामा- 15 
नापिकरण्यं तत्र पुंवद्भावो भवतीतीहापि न दोषो भवति || यदप्युच्यते विप्रति- 
षिद्धेषु चानुपपत्तिरिति । सवे एव हि दाब्दा विप्रतिषिद्धाः । इहापि शक्षन्य- 
भरोधाविति क्षशब्दः प्रयुज्यमानः शक्षाथै संप्रत्याययति न्यमोधाथै निवर्तयति 
न्यो पशचब्दः प्रयुज्यमानो न्यमोधाथे संप्रत्याययति शक्षाथे निवतेयति | अत्र चे- 
द्युक्ता युगपदधिकरणवचनता बृदरयत इहापि युक्ता कृरयताम्‌ ॥ 20 

एवमपि शाष्दपीर्वापर्यप्रयोगादर्थपीवौपयोभिधानम्‌ । शाब्दपौवौ पयपरयोगादर्थवी - 
वौ पयोभिधानं प्रामोति । अतः किम्‌ | युगपदधिकरणवचनताया अनुपपक्तिः | 
अक्षन्यमोपौ अक्षन्यमोधा इति । यथैव हि शब्दानां पैर्वापयै तददथौनामपि भवि- 
तव्यम्‌ । 

शब्दधोवौपयैभयोगादरथषीर्वापर्याभिधानमिति चेद्धिवचनबहुवच- 
नानुपपत्तिः ॥ «९ ॥ 
शष्दपौवौपरयप्रयोगादथषीवो पयोभिधानमिति चेद्धिवचनबहूवचनयोरनुपपत्तिः | 


> ६.३.२४. 





७३१ ॥ व्याकरनम्रहाभाष्यम्‌ ॥ ` [म०२.२.२. 


घक्षन्यमोौ शक्षन्यमोधा इति । अक्षराब्दः सार्थको निवृम्तो न्यमोधशाम्द उपस्थित 
एकार्थस्तस्थैकार्थत्वादेक वचनमेव प्रामोति ॥ 


विग्रहे च युगपद्रचनं ज्ञापकं युगपदचनस्य || ६ ॥ 
विग्रहे खल्वपि युगपद्वचनता ददथते | श्यावा ह क्षामा | दावा चिदस्तै प्रथिवी 
नमेते इति | किमेतत्‌ | युगपदधिकरणवचनताया उपोद्रलकम्‌ | विष्रहे किल 
नाम युगपदधिकरणवचनता स्या्कि पुनः खमासे || 


समुदायास्सिद्धम्‌ । समुदायास्सिद्धमेतत्‌ । किमेतत्समुदायास्सिद्धमिति | दिवच- 
नबहूवचनर्रसिद्धिरिति चोदितं तस्यायं परिहारः | 


समुदायास्सिद्धमिति चेत्नेकायैत्वात्समुदायस्य ॥ ७ ॥ 

10 समुदायास्सि द्धमिति चेत्तत | किं कारणम्‌ । एकाथेत्वात्समुदायस्य । एकायो हि 
समुदाया भवन्ति । तद्यथा । दातम्‌ यूथम्‌ वनमिति ॥| तरैकार्थ्यम्‌ | नायमेकार्थः | 
किं तर्हि ] व्यर्थो बहर्थध | प्षोऽपि द्यर्थो न्यभरोधोऽपि व्यर्थः | यदि तर्द शस्षो 
ऽपि द्यर्थो न्यभोपोऽपि व्यर्थस्तयोरनेकाथैत्वाद्रहव चनप्रसङ्गः । तयोरनेकार्थत्वाद्रहुषु 
बहवचनम्‌ [९.४.२९] इति बहवचनं प्रामोति। ` 

1; तथारनेकार्थत्वाद्रहुवचन प्रसङ्ग इति चेन्न बहुत्वाभावात्‌ ॥ ८ ॥ 

तयोरनेकार्थस्थाद्रहूष चनप्रसङ्गः इति चेत्तत्र । कं कारणम्‌ । बहुत्वाभावात्‌ । 
नात्र बहुत्वमतस्ति | किमुच्यते बहुट्वाभावादिति यावतेदानीमेवोक्तं अक्षोऽपि व्यर्थो 
न्यम्ोधोऽपि व्यथं इति | याभ्यामेवत्रैको व्यथेस्ताभ्यामेवापरोऽपि || यथेवमन्य- 
वाचकेनान्यस्य वचनानुपपत्तिः । भन्यवाचकेन श्ब्देनान्यस्य वचनं नोपपश्चते | 

20 अन्यवाचकेनन्यस्य वचनानुपपन्तिरिति चेष्पस्षस्य न्यग्रोधलान्यग्रोधस्य 

प्रक्षत्वत्स्विराब्देनाभिधानम्‌ । ९ ॥। 
अन्यवाचकेनान्यस्य वचनानुपपच्चिरिति चेदेवमुच्यते तन्न | कि कारणम्‌ | 
क्षस्य न्यमोधत्वा[न्यमोधस्य शरह्षत्वास्स्वशाब्दे नाभिधानं भविष्यति । रक्षो अपि 


न्यमोधो न्यमरोषधो ऽपि षक्षः ॥ कथं पनः अक्षोऽपि न्यमोधो न्योऽपि शकष 
25 स्याद्यावता कारणाहृष्ये शब्दनिवेशः | 


कारणा्व्ये शाब्दनिवेरा इति चचुल्यकारणत्वास्सिद्धम्‌ ॥ ९० ॥ 
कारणाहष्ये शब्दनिषेहा इति चेदेवमुच्यते तच्न । तुल्यकारणत्वास्सिद्धम्‌ । तुल्यं 








१।० २.२.२९. ॥ व्याकरणपमहाभाष्यम्‌ ॥ ४३३ 


हि कारणम्‌ | यदि तावतपक्षरतीति क्षः स्याञ्यमोधेऽप्येतद्गवति । तथा यदि 
न्यमोहतीति न्यमोधः भक्षे ऽप्येतद्भवति ॥ ददनं धै देतुनं च न्यमरोधे शक्षश्दो 
कृदयते | 


दशनं हेतुरिति चेनुल्यम्‌ ॥ ९९. ॥ 


ददनं हेतुरिति चेत्तुल्यमेतद्वति । क्षेऽपि न्यग्रोधशब्दो इदवतां तुल्यं हि 5 
कारणम्‌ || न वै लोक एष संभत्ययो भवति | न हि अक्ष आनीयतामिर्युक्ते 
न्य॒म्रोध भानीयते | 


तद्विषयं च ॥ ९० ॥ 


त्िषयं चैतदर्ट्यं क्षस्य न्यमोधत्वम्‌ । किंविषयम्‌ | इन्द्रविषयम्‌ | युक्तं 
पुनयेच्चियतविषया नाम शाब्दाः स्युः | वाढं युक्तम्‌ | 10 


अन्यत्रापि तदविषयदरनात्‌ ॥ ९३ ॥ 


अन्यत्रापि हि नियतविषयाः शब्दा ददयन्ते | तद्यथा | समाने रक्ते वर्णे गौ- 
सहित इति भवत्यश्वः शोण इति । समाने च काले वर्णे गौः कृष्ण इति भवत्यश्च 
हेम इति । समाने च शङ्क वणे गौः श्वेत इति भवत्यश्वः कर्क इति || यदि तरि 
्क्षोऽपि न्यमोधो न्यमोपोऽपि क्ष एकेनोक्तस्वादपरस्य प्रयोगो स्नुपपन्नः । एके- 15 
नो क्तस्वालस्याथेस्यापरस्य प्रयोगो नोपपद्यते । क्षेण न्यम्रोधस्य न्यग्रोधप्रयोगः । 


एकेनोक्त व्वादपरस्य भरयोगोऽनुपपन्न इति चेदनृक्तत्वात्युक्षेण न्यग्रोधस्य 
न्यग्रोधभयोगः ॥ ९४ ॥ 
एकेनोक्तत्वादपरस्य प्रयोगोश्नुपप्च हति चेत्तत | किं कारणम्‌ ] भनुक्तस्वा- 
लजक्षेण न्यग्रोधस्य न्यमोधप्रयोगः | भन्तः क्षेण न्यम्रोधाथं इति कृत्वा न्यमोध- 90 
छम्दः प्रयुज्यते | कथमनुक्तो यावतेदानीमेवोन्तं अरक्षोऽपि न्यमोधो म्यमोषोऽपि शकष 
इति । सहमभूतावेतावन्योऽन्यस्याथमाहतुने प्रथग्भूतौ । किं पुनः कारणं सहभूतावे- 
तावन्योऽन्यस्या्थमाहतुने पनः एथग्भूती | 


अभिधानं पुनः स्वाभाविकम्‌ ॥ ९५॥ 


स्वामाविकमभिधानम्‌ || भथवेह कौचिलाथमकल्पिकौ शक्षन्यमोषो वौचिक्ि- 2 


यया वा गुणेन वा रक्ष इवा अह्नो न्यमोध इवायं न्यमोध इति । तत्र॒ अक्षावि- 
99 # 


४३४ ॥ ध्याकरणमरहाभाष्यम्‌ ॥ मि०र.२.२ 


युक्ते संदेहः स्याक्किमिमौ शक्षावेवाहोस्विल्छक्षन्यभो धाविति । तत्रासैदेहाथ न्य- 
मोधराम्दः प्रयुज्यते ॥ | 


इयं युगपदधिकरणवचनता नाम दुःखा च दुरुपपादा च | यचाप्यस्या निब- 
न्धनमुक्तं धावा ह क्षामेति तदपि च्छान्दसं तत्र इषां पो भवन्तीव्येव सिद्धम्‌ । 
£ सुत्रं च भिद्यते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं चर्थे इन््वचने ऽसमासेऽपि 
चार्थसंप्रत्ययादनिष्टप्रसङ्ग इति । तरैष दोषः | इह चे हन्द इतीयता तिद्धम्‌ । कथं 
पुने नाम वृत्तिः स्यात्‌ । शब्दो ह्येष शग्रे ऽसंभवादर्थे काये विज्ञास्यते | सोऽय- 
मेवं सिद्धे सति यदथे्हणं करोति वस्थैतसखयोजनमेवं यथा विज्ञायेत चेन कृतो 
अयथा इति | कः पुनेन कृतोऽथैः | समुच्चयो =न्वाचय इतरेतरयोगः समा- 
10 हार इति | समुश्यः । क्षधेस्युक्ते गम्यत एतङ्यम्रोधशेति । अन्वाचयः | अक्ष- 
थस्युक्ते गम्यत एतर्सापेक्षोऽयं प्रयुज्यत इति | इतरेतरयोगः । क्ष न्यो धशचत्युक्ते 
गम्यत एत््क्षो ऽपि न्यमोधसहायो न्यमोधो ऽपि अरक्षसहाय इति । समाहारेऽपि 
क्रियते शक्षन्यमो पमिति । तत्रायमप्यर्थो इन्डैकवद्धावो न पठितव्यो भवति | स- 
माहारस्यैकसत्वरिव सिडम्‌ ॥ 


15 एकादश हादरेति कोऽयं समासः | एकादीनां दशासिभिरन्द्ः | एकादीनां 
ददादिभिदन्छः समासः | 


एकादीनां द शादिभिदेन्द इति चेर्िरास्यादिषु वचनप्रसङ्गः ॥ ९६ ॥ 


एकादीनां दशादिमिदेन्ड इति चेिंशत्यादिषु वचनं प्राभोति | रकर्वितिः 
दारविदातिः || । 


20 सिद्धं स्वधिकान्ता संख्या संख्यया समानापिकरणापिकारे अधिकः 
रोपश्च || ९५७ ॥ 


सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ | समानाधिकरणाधिकारे* वक्तव्यमधिकान्ता संख्या सं- 
ख्यया सह समस्यते ऽधिक शाब्दस्य च कोपो भवतीति | एकाधिका विंशतिरेक- 
विद्रातिः | व्यपिको विंश्तिद्ो्विंशतिः || यदि समानाधिकरणः स्वरो न सिध्यति 
25 यद्धि तत्संख्या पृवेपठं प्रकृतिस्वरं भवतीति! इन्द ह्येवं तत्‌ । किं पुनः कारणं इन्द 
इत्येवं तत्‌ । इह मा भूत्‌ । रातसहस्रमिति ॥| अस्तु तर्हि दइन्हः | ननु चोक्तमे- 





+ २. ६. ४९, † ६. २. ३५. 





पा० २.२.३०-३४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ४३५ 
कादीनां दशादिभिर्ईन्ह इति चेदिशाव्यादिषु -वचनप्रसङ्धः इति । नैष दोषः । सर्वो 
इन्दो विभाषैकवङ्वति | यदा तर्क चनं तदा नपुंसकणिङ्ख प्रामोति । लिङ्गम 
शिष्यं लोकाश्रयत्वा्िङ्गस्य | 


उपसजेनं पूवम्‌ ॥ २।२।२.०॥ 


किमर्थमिदमुच्यते | ` + 5 
उपसर्जनस्य पूवैवचनं परमयोगनिवृच्यर्थम्‌ ॥ ९ ॥ ` 
उपसर्जनस्य पुवैवचनं क्रियते परम्रयोगो मा भूदिति || 
नं वानिष्टादरौनात्‌ ॥ ९ ॥ 

न त्रैतस्मथोजनमस्ि | कि कारणम्‌ | अनिष्टाददोनात्‌ | न हि किंचिदनिष्टं 
करयते | न हि कथिद्राजपुरूष इति भरयोक्तव्ये पुरषराज हति प्रयुङ्के । यदि चा- 10 
निष्टं दृरयेत ततो यलाह स्यात्‌ | 
` अथ यत्र द्वे षष्ठ्यन्ते भवतः कस्मात्तत् प्रधानस्य पुत्रनिपातो न भवति | राज्ञः 
पुरुषस्य राजपुरुषस्येति' | 

घष्टचन्तयोः समासे ऽ्याभिदास्पमधानस्यापूवेनिपातः ॥ ३ ॥ 
षष्ठ्यन्तयोः समासे ऽथामेदाखधानस्य पूवेनिपातो न भविष्यति | एवं न वेदम- ]; 
कृतं भवत्युपसैनं पूरवमित्यथे्ामिन्च इति कृत्वा प्रधानस्य पूवैनिपातो न भविप्यति || 


अव्पाच्तरम्‌ ॥ ९।२९।२४॥ 


किमयं तन्लं तरनिरदेश अ!होस्विदतन्तम्‌ । किं चातः | यदि तन्त्रं इयोर्भियमो 
बह्ष्वनियमः | तत्र को देषः | शङःदुन्दुभिवीणानामिति न सिध्यति । दुन्दुमिराब्द- 
स्यापि पूर्वनिपातः प्रामोति । अथातन्ल . ५0 
मृदङुश ङतुणवाः पृथङ्ःदन्ति . संसदि 


१ 





# २,३२.८. 


४३६ ॥ व्वाकरणगरहामाष्यम्‌ ॥ | ०२.२२. 

भरासादे धनपतिरामके शवानामित्येतच सिध्यति | यथेच्छति तथास्तु || अस्तु वाव - 

लन्तम्‌ | ननु चोक्तं इयोर्मियमो वहुष्वनियम इति तत्र शाडदुन्दुभिवीणानामिति 

न सिध्यति दन्दुभिराब्दस्यापि पूर्वनिपातः प्राभोतीति । नैष दोषः | यदेतदल्पाच्तर- 

` भिति तदल्पाजिति वह्यामि || अथवा पुनरस्त्वतन्त्रम्‌। ननु चोक्तं मृदङ्ग शङ्तुणवाः 
¢ पृथङ्दन्ति संसदि प्रासादे धनपतिरामकेशवानाभित्येतचच सिध्यतीति । 

अतन्नै तर्नर्दो शङ्कतूणवयोमेदङ्गेन समासः ॥ ९ ॥ 
भतन्त्रे तरनिर्दशे शाङ्तृणवयोमदङ्गेन समासः करिष्यते । शङ तुणवथ शा- 
ङतुणवौ । मृदङ्ग शाड्धतुणवौ च मृदङ्ग शङुतणवाः । राम केशव रामके- 


९००. 


शावौ | धनपतिथ रामकेशवौ च धनपतिरामकेदावास्तेषां पनपतिरामके शवाना- 
10 मिति ॥ 
अथ यत्र बहुनां पूवैनिपातप्रसङ्गः किं तत्रैकस्य नियमो भवत्याहोस्विदविदोषेण । 
अनेकपरापरावेकस्य नियमो अनियमः शेषेषु ॥ २ ॥ 
अनेकप्राप्रविकस्य नियमो भवति शेषेष्वनियमः | पटुमदुदयुक्ाः प्टुद्यक्नमृदव 
इति* ॥ 
15 अतुनक्षत्राणामानुपूर्व्येण समानाक्षराणाम्‌ ॥ ३ ॥ 
कऋतुनक्षत्राणामानुप्व्यैण समानाक्षणां पूवंनिपातो वक्तव्यः । शिशिरवसन्ता- 
वुदगयनस्थौ । कृसिकारोहिण्यः ॥ 
अग्यर्हितम्‌ ॥ ४॥ 
अभ्यर्दितं पूर्वै निपततीति वक्तव्यम्‌ | मातापितरौ श्रद्धामेपे ॥ 
20 लष्वक्षरम्‌ ॥ ९ ॥ 
रष्वक्षरं पूरये निपततीति वक्तव्यम्‌ । कुशकादाम्‌ शरशीयम्‌ ॥। 
भपर आह | सवेत एवाभयर्हितं पूर निपततीति वक्तव्यम्‌ | लष्व्षरादपीति । 
अडधातपकी । दीक्षातपसी || 
वर्णानामानुपूर््येण ॥ & ॥ 
% वणानां चानुपर््येण पवैनिपातो भवतीति वन्कव्यम्‌ | ब्राह्मणक्त्रियविदचयद्राः | 


# २.२.३६. 











पा० २.२.६५-३९.] ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ | ४३७ 


भ्रातुश्च ज्यायसः ॥ ७ ॥ 
भ्रातु ज्यायसः पूर्वनिपातो भवतीति वक्तव्यम्‌ । युपिठिराजैनौ ॥ 
संख्याया अल्पीयसः || £ ॥ 
संख्याया अत्पीयसः पवेनिपातो वक्तव्यः | एकादश दादश ॥ 
धमोदिषूभयम्‌ ॥ ९ ॥ & 


धमौदिषूभयं पुै निपततीति वक्तव्यम्‌ । धमोर्यौ अर्थधर्मौ | कामार्थौ भर्थ- 
कामी | गुणवृद्धी वृद्धिगुणौ । आन्तौ अन्तादी ॥ 


सप्रमीविशोषणे बहुत्रीही ॥ २ । २ । ३५ ॥ 


बहुव्रीहौ सवैनामसंख्ययोरुपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
बहुव्रीही सवैनामसंख्ययोरुपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | विश्वदेवः विश्वयराः | दिपुलः 10 
दिभायैः ॥ भथ यत्र संख्यासरवैनाप्नोरेव बहुत्रीहिः कस्य तत्र पूर्वनिपातेन भवित- 
ध्यम्‌ | परत्वात्संख्यायाः | व्यन्याय भ्यन्याय ॥ 
वा प्रियस्य ॥ २॥ 
वा परियस्य पूरवैनिपातो वक्तव्यः | प्रियगुडः गुडप्रियः || 
ससम्याः पूवेनिपाते गडादिभ्यः पररवखनम्‌ ॥ ३ ॥ 15 
सपम्याः पुरवनिपाते गङड्धादिभ्यः परा सप्तमी भवतीति वक्तव्यम्‌ | गङुकण्ठः 


गडुदिराः ॥ 


निघा ॥ २।२।२६॥ 


निष्ठायाः पूर्वनिपाते जातिकालसुखादिभ्यः परवचनम्‌ ॥ \ ॥ 
निष्ठायाः पूवेनिपराते जातिकालद्चखादिभ्यः परा निष्टा भवतीति वच्छव्यम्‌ । शा- 20 
गं जग्धी पलाण्डुमलिती । मासजाता संवत्सरजाता । इखजाता दुःखजाता || 





४३८ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ | [म ०२.२.२. 


न वोत्तरपदस्यान्तोदात्तवचनं ज्ञापकं परभावस्य ॥ २ ॥ 

न वा वक्तव्यम्‌ । किं कारणम्‌ | उत्तर पदस्यान्तोदात्तवचनं ज्ञापकं प्रभावस्य | 
यदयं जातिकालद्धखादिभ्यः परस्या निष्ठाया उन्तरपदस्यान्तोदा्तस्वं शास्ति * तञक्ञा- 
पयत्याचार्यः परात्र निष्ठा भवतीति ॥ 
$ प्रतिषेधे तु पूरवंनिपातप्रसङ्गस्तस्माद्राजदन्तादिषु पाठः ॥ ३॥ 

भरतिषेषे तु पुयैनिपातः भ्रामोति | अकृतमितप्रतिपन्ना इति । तस्मा द्राजदन्तादिषु† 
पाठः कंतेव्यः | न कर्तव्यः | अत्रापि प्रतिषेषवचनं ज्ञापकं परा निष्ठा भवतीति|| 
| प्रहरणार्थभ्यश्च ॥ ४ || | 
परहरणार्थभ्यथच परे निष्ठासप्रस्यौ भवत इति वक्तव्यम्‌ । अस्युद्यतः मुसलो- 
10 शतः | असिपाणिः दण्डपाणिः ॥ 
दन्द घ्यजाद्यदन्तं विप्रतिषेधेन ॥ ९ ॥ 
इन्द्रे चि [२.२.३२] इत्यस्मादजाश्यदन्तम्‌ [३३] इत्येतद्धवति विप्रतिषेधेन | 
इन्दे वीस्यस्यावकाशः | पटुगुत्रौ । भजाग्यदन्तमित्यस्यावकाशः। उष्टखरौ | इहो- 
भयं प्रामोति । हन्द्राम्री | भजाद्यदन्तमिव्येतद् वति विप्रतिषेपेन | 
15 उभागभ्यामल्पाच्तरम्‌ ॥ & ।॥। | 
उभाभ्यामल्पाश्तरम्‌ [३४] इत्येत द वति विप्रतिषेधेन || हन्द षीत्यस्यावकाशाः | 
पटुगुपौ । भल्पाख्तरमित्यस्यावका हाः । वाग्दुषरौ । इहोभयं प्रामोति | वागत्री | 
भल्पाच्तरमिर्येतद्धवति विप्रतिषेपेन ॥ अजाश्यदन्तमित्यस्यावकाशाः | उष्टखरौ | 
अल्पाच्तरमित्यस्यावकाशः | स एव । इहोभयं प्रामोति | वाभिन्द्रौ | भल्पाच्तरमि- 
20 स्मेतद्भषति विप्रतिषेषेन ॥ 


| कडाराः कर्मधारये ॥ २ । २।२८॥। 


कड़ारादय हति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । गडुल शाण्डिल्यः शाण्डि - 
ल्यगङुलः | खण्डवास्स्यः वात्स्यखण्डः ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | 
बहुवचननिर्ेशात्कडारादय इति विशस्यते || 
25 इति ओभगवस्पवश्जिविरचिते ध्याकरणमहाभाष्ये द्विती यस्याध्यायस्य द्वितीये 
पादे दितीयमाह्किकम्‌ | पादथ समाप्तः ॥ 


# ९.२.९००. = ` † २.२. ३१. 


। क 


अनभिहिते ॥ २।२।१॥ 


अनभिहित इत्युच्यते किमिदमनभिहितं नाम | उक्तं निर्दिष्टममिहितभित्यन्था- 
न्तरम्‌ | यायद्भूयादनुक्ते अनिर्दिष्ट इति तावदनभिदित इति || 


अनभिहितवचनमनर्थंकमन्यत्रापि विहितस्याभावादभिहिते ॥ ९ ॥ 


अनमिहितव चनमनर्थकम्‌ | किं कारणम्‌ | अन्यत्रापि विहितस्याभाव्रादभिहिते | ऽ 
अन्यन्राप्यभिरिते विहितं न भवति || क्रान्यन्र | चित्रगुः दाबलगुः । बहुव्रीहिणो - 
क्तत्वान्मस्वथेस्य मल्र्थीयो न भवति. || गगः वत्साः । विदः उघौः* | यञ- 
उ्भ्यामुक्तस्वादपत्या्थस्य न्याय्योत्पत्तिन भवति || सप्रपणेः अष्टापदमिति | समा - 
सेनोक्तत्वादीत्साया द्विवैचनं‡ न भवति || यत्तावदुच्यते चित्रगुः शबलगुः बहुत्री- 
हिणोक्तत्वान्मत्व्थस्य मत्वर्थीयो न भवतीति | अस्तिना सामानाधिकरण्ये मतुभ्वि- 10 
धीयते$ न चात्रास्तिना सामानाधिकरण्यम्‌ || यदप्युच्चते गगौः वत्सा विदाः उवौः 
यमञ्म्यामुक्तत्वादपत्याथस्य न्यास्योत्पत्तिने भवतीति | समथोनां प्रथमा [४.९. 
८२] इति वतैते न शैतस्समर्थानां प्रथमम्‌ | कि तर्द | दितीयमर्थमुपतेक्रान्तम्‌ ॥ - 
यदप्युच्यते सप्रपणैः भष्टापदमिति समासेनो्षत्यादीम्ाया शिवैचनं न भवतीति | 
यदश्र वीप्सायुक्तं नादः प्रयुज्यते | किं पुनस्तत्‌ || पर्वणि पर्वाणि सपन पर्णान्यस्य | 15 
पौ प्ङाबष्टौ पदानीति || भरम्बहृजकल्षु तर्हि | शनम्‌ | भिनत्ति छनति | 
भमो्तत्वात्कतैत्वस्य कतरि शन्न भवति4 । बह च्‌ | बहृकृतम्‌ बहुभित्तमिति । 
बहुचोक्तव्वादीषदसमापेः कल्पबादयो न भवन्ति" | भकच्‌ । उश्यकैः नीचक- 
रिति | अकचोक्तत्वाल्ुत्सादीनां कादयो न भवन्ति।1† ॥ ननु च शम्बहुजकचो 
ऽपव्रादास्ते ऽपवादत्वाहाधका भविष्यन्ति | 20 


अम्बहुजकभु नानदिरास्वादुस्सगाप्रतिषेधः || ० ॥' 
` समानदेदीरपवारैरत्सर्गाणां वाधनं भवति नानादेरात्वाश्च प्रामोति ॥ कि पुन- 


+ ४,१६.९०५; ९००४.१.४.६४.  †१,९.८३;९९. { ८.९.४. §५.२०५४. 
्‌ ३.६.०८६८, ** ५.१.६८; ६७. †† ५.१.७६५७५. 


४४० ॥ व्याकरनय्रशामाच्यम्‌ ॥ | [म० २.२.९. 


रिहाकतेभ्यो ऽनभिहिताधिकारः क्रियत भाहोस्विदन्मत्र कर्वव्यो न क्रियते । 
हहाकतेव्यः क्रियते | एष एव हि न्याय्यः परमो यदभिहिते विहितं न स्यात्‌ ॥ 


अनभिहितस्तु विभक््य्थस्तस्मादनभिहितवचनम्‌ ॥ ३ ॥ . 
अनभिहितस्तु विभक्तयर्थः | कः पुनर्विमत्तयर्थः | एकत्वादयो विभक्तयथास्ते- 
£ ्वनमिितेषु कमीदयोऽभिहिता विभक्तीनामुलखत्तौ निमित्तत्वाय मा भूवन्निति 
तस्मादनभिदहितव चनम्‌ । तस्मादनमिदितापिकारः प्रियते || 
अवद्यं वैतदेवं विज्ञेयमेकस्वादयो विमक्त्यथौ इति | 


अभिहिते प्रथमाभावः ॥ ४ | 
यो हि मन्यते कमोदयो विभक्तय्ास्तेष्वमिहितेषु सामथ्यौन्मे विभक्तीनामु- 
10 स्पत्तिने भविष्यतीति प्रथमा तस्य न प्राभोति | क | वृक्षः अक्षः | कि कार- 
णम्‌ । प्रातिपदिकेनोक्ः प्रातिषरदिकाथे इति || 
` न कचित्मातिपदिकेनानुक्तः प्रातिपरिका्थं उष्यते च प्रथमा सा वचनाद्भविष्यति | 
तवैव तु खल्वेष दोषो यस्य त एकत्वादयो विमक्तयर्था भमित प्रथमाभाव इति | 
परथमाते न प्राति | क | पचस्योदनं देवदत्त इति | किं कारणम्‌ | तिङोक्ता 
15 एकस्वादय इति | अनमिहिताभिकारं च स्वं करोषि परिगणनं च ॥ 

न कचित्तिङकत्वादीनामनमिधानमुच्यते च प्रथमा सा वचनाद्भविष्यति | ननु 
चेहानभिधानं वृक्तिः ऽक्षि इति | भत्राप्यभिधानमस्ति | कथम्‌ । वश्यस्येतत्‌ | अस्ति- 
भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽयुज्यमानोऽप्यस्तीति। | वृक्षः ल्लः | अस्तीति गम्यते || 
तवैव तु खल्तरेष दोषो यस्य ते क्मीदयो विभक्त्या अभिहिते प्रथमाभाव इति । 

20 प्रथमा ते प्रामोति । क । कटं करोति भीष्ममुदारं शोमन॑ं ददीनीयमिति | कर- 
रब्दादुत्पश्यमानया दितीययाभिहितं कर्मेति कृत्वा मीष्मादिभ्यो दितीया न प्राभोति | 
का तर्हि प्राभोति | प्रथमा | तद्यथा | कृतः कटो भीष्म उदारः शोभनो दर्लनीय 
इति करोतिरुत्पद्यमानेन क्तेनाभिहितं कमेत कृत्वा भीष्मारिभ्यो द्वितीया न भवति | 
का तर्हि | प्रथमा भवति || 

2 नैष दोषः | न॒हि ममानभिहिताधिकारोऽस्ति नापि परिगणनम्‌ । साम- 
ध्यान्मे विभक्तीनामुत्पत्तिभविष्यस्यस्ति च सामर्भ्यम्‌ । किम्‌ | कमीविशेषो व- 
क्तव्यः ॥ अथवा कटो परि कमे भीष्मादयो ऽपि तत्र कर्मणीत्येव तिद्धम्‌ ॥ 


# ३.६.४६, † २.१.९४. 








पा० २.३.९.] ॥ व्याकरणर्महापाष्यय्‌ ॥ ७४९ 


अथवा कट एव कमं तरसामानापिकरण्यादधीष्मादिभ्यो दितीया भव्रिष्यति ॥ अस्ति 
खल्वपि विशेषः कटं करोति भीष्ममुदारं शोभनं दशौनीयमिति च कृतः कटो भीष्म 
उदारः शोभनो दरौनीय इति च । करोतेरुतद्यमानः क्तो ऽनवयतेन सवै कमो - 
भिधत्ते कटशब्दास्पुनरुत्पद्चमानया द्वितीयया यस्कटस्थं कमे तच्छक्यमभिधातुंनहि 
फमैविदोषः || तवैव तु खल्तेष दोषो यंस्य त एकत्वादयो विभक््यथो अभिहिते 5 
प्रथमाभाव इति | प्रथमाते न प्रामोति । करं | एकः हौ बहव हति | किं कार- 
णम्‌ | प्रातिपदिकेनोक्ता एकत्वादय इति ॥ 


कमीदिष्वपि वै विभक्तवर्थष्ववदयमेकत्वादयो निमित्वेनोपादेयाः | कमेण 
एकस्वे कर्मणो दिखे कर्म॑णो बहूत्व इति | न ॒तैकंत्वादीनामेकस्वरादयः सन्ति | 
अथ सन्ति म॑मापि सन्ति | तेष्वनमिहितेषु प्रथ॑मा भ॑विष्यति | अथवोभयवचेना 10 
दयते | द्रव्यं चाहुगणं च | यत्स्थोऽतौ गुणस्तस्यानुक्ता एकत्वादय हति कृत्वा 
प्रथमा भविष्यति || अथवा संख्या नामेयं परप्रधाना । संख्येयमनया विश्चोष्यम्‌ | यदि 
चात्र प्रथमा न स्वात्संख्येयमविदोषितं स्यात्‌ || भथवा व्यति तत्रं वचनम्रहणस्य 
प्रयोजनमुक्तेऽ्वंप्येकत्वादिषु प्रथमा यथा स्यादिति || भथवा समयाद्विष्यति। । 
थदि सामयिकी न नियोगतोऽन्याः कस्मान्न भवन्ति | कमीदीनामभावात्‌ | षष्टी 15 
तर परामोति | दोषलक्षणा? षक्यशेषस््ान्न भविष्यति || एवमपि व्यतिक्षरः प्रामरोति | 
पएकस्मिच्चपि हिव चनबहुवचने प्रापुतः | इयोरप्येकव चनबहुव चने प्रामुतः | बहुष्त्र- 
प्येकवचनद्विवं चने प्रापुवः | अतो व्यवस्था भविष्यति ॥ 

परिगणनं कतैष्यम्‌ | 


तिङ्कत्द्धितसमातेः परिसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ | 20 


तिङ्कत्तद्धितसमातिः परिसंख्यानं कतेभ्यम्‌ | तिङ्‌ । क्रियते कटः । कृन्‌ | 
कृतः कटः | तद्धित | ओपगवः कापटवः | समास । चित्रगुः हाबलगुः || 


उत्सर हि प्रातिपदिक सामानाधिकरण्ये विभक्तिवचनम्‌ ॥ & ॥ 


उत्सर्गे हि प्रातिपदिकसामानाधिकरण्ये विभक्तिवेक्तव्या | कर | कटं करोति 
ीप्ममुदारं शोभनं दद्रौनीयमिति | कट शष्दादुसद्यमानया द्वितीययाभिहितं कर्मेति 2 
कृता भीष्मादिभ्यों द्वितीया न प्राति ।| का तर्हि स्यात्‌ । षष्टी । शेषलक्षणा षषटय- 


भिनी | 


# २.३. ४६१. † ३.९.२५. { २.३.५०. 
66 श्र 
+ 
~ 
हि । 


.४४२ ॥ श्याकरणपम्रहाभार प ॥ [मण २.२.९. 


शेषत्कान्च भविष्यति ॥ अन्या अपि न प्राप्ुवन्ति | किं कारणम्‌ | कमौदीनाम- 
भावात्‌ || समयथ कृतो न केवला प्रकृतिः भ्रयोक्तम्या न केवलः प्रत्यय इति न 
चान्या उत्पद्यमाना एतमभिसंबन्धमुत्सहन्ते वक्तमिति कृत्वा हितीया भविष्यति ॥ 
अथवा कटोऽपि कर्म भीष्मादयोऽपि तत्र कमेणीत्येव सिद्धम्‌ | भथवा कट एव कमे 
& तत्सामानाभिकरण्याद्धीष्मादिभ्यो द्वितीया भविष्यति || तस्मान्नाथः परिगणनेन ॥ 


दयोः क्रिययोः कारके ऽन्यतेरेणाभिहिते विभक््यभावप्रसङ्गः ॥ ७ ॥ 


हयोः क्रिययोः कारके ऽन्यतरेणामिहिते विभक्तिनं प्रापेति | क | प्रासाद 
आस्ते | शयन आस्त हति | किं कारणम्‌ | सदिप्रत्ययेनाभिदितमधिकरणमितिः 
कृत्वा सप्रमी1† न प्राभोति | 


10 न वान्यतरेणानभिधानात्‌ | ८ ॥ 


न वैष दोषः । किं कारणम्‌ | अन्यतरेणानभिधानात्‌ | अन्यतरेणात्रानभिधा- 
नम्‌ | सदिप्रत्ययेनाभिधानमसिप्रत्ययेनानमिधानम्‌ | यतोऽनभिधानं वदाभ्रया सप्रमी 
भविष्यति ॥ कुतो नु खल्तेतत्सत्यभिधाने चानभिधाने चानभिहिताञ्नया सप्रमी 
भविष्यति न पुनरभिहिताञ्नयः प्रतिषेध हति | 


15 अनभिहिते हि विधानम्‌ | ९॥ 


अनभिहिते हि सप्रमी विधीयते नाभिहते प्रतिषेधः || यद्यपि तावदत्रैतच्छक्यते 
वक्तु यत्रान्या चान्या च क्रिया यत्रतु खलु तैव क्रिया तत्र कथम्‌ | आसन 
आस्ते | शायने शेत इति | अत्राप्यन्यत्वमस्ति | कुतः | कालभेद।स्ताधनमेराच | 
एकस्यात्रासेरासिः साधनं सवेकालथ प्रत्ययः | अपरस्य बाह्यं साधनं वर्तमानकाल 
90 प्रत्ययः || किं पुनद्रेव्यं साधनमाहोस्विद्ुणः | किं चातः | यदि इव्यं साधनं 
नैतदन्यद्ध वत्यभिहितात्‌ । भथ हि गुणः साधन भवत्येतदन्यदमिहितात्‌ । अन्यो 
हि सदिगुणो ऽन्वश्चासिगुणः || किं पुनः साधनं न्याय्यम्‌ | गुण इत्याह । कथं 
ज्ञायते । एवं हि क्चित्कंचित्पुच्छति । कछ देवदत्त इति । स तस्मा आचरे | भती 
वक्ष इति | कतरस्मिन्‌ । यस्ति्ठतीति | स ॒वृक्षोऽधिकरणं भूत्वान्येन शब्देनाभि- 
„, संबध्यमानः कता संप्यते | द्रे पुनः साधने सति यस्कमे कर्मत्र स्याद्यत्करर्ण 
करणमेव यदपिकरणमपिकरणमेव || 








* ६.१.५९. 4 २.२.३६. 





पा० २.३.२.] ॥ व्याकरणपमहाभाष्यय्‌ ॥ 2७३ 


अनभिहितवचनमन्कं प्रथमाविधानस्यानवकारात्वात्‌ । ९० ॥ 

अनमिहिततचनमन्यंकम्‌ । किं कोरणम्‌ | प्रथमाविधानस्यानषकाशत्वात्‌ | 
अनवकाहा प्रथमा सा वचनादविष्यति* || सावकाशा प्रथमा | कोऽवकाशः | 
भअकारकम्‌ । वृक्षः जक्ष इति | 

अवक।रो ऽकारकमिति चेन्नास्ति्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषो परयुज्यमा- 5 

नोऽप्यास्त ॥ १९ ॥ 

अवकाशो ऽकार कमिति चेत्तन्न | किं कारणम्‌ । अस्िभेवन्ती परः प्रथमपुरुषो 

प्रयुज्य मानोऽप्यस्तीति गम्यते । वलः अक्षः | अस्तीति गम्यते ॥ 
विप्रतिषेधाद्वा प्रथमाभावः | ९२ ॥ 

अथवा दितीयादयः क्रियन्तां प्रथमा वेति प्रथमा भविष्यति विप्रतिषेधेन | 10 
द्वित यादीनामवकाशचः } कटं करोति भीष्ममुदारं शोभनं ददौनी यमिति | प्रथमाया 
भवक।(दाः | अकारकम्‌ | वृक्षः छल्ष हति । इहोभयं प्रामोति | कृतः कटो भीष्म 
उदारः दोभनो ददयौनीय हति । प्रथमा भविष्यति विमरतितरेपेन || न सिभ्यति। प- 
रत्वात्षष्ठी प्रापोति। | रोषलक्षणा षषटदयशेषत्वान्न भविष्यति || 

कृसखयोगे तु परं विधानं षरष्टयास्तत्परतिषेधा्थम्‌ ॥ ९३ ॥ 15 

कृखयोगे तु परत्वात्पक्टी‡ प्रामोति तततिषेधाथेमनमिहिताधिकारः कतैव्यः । 
कतेष्यः कट इति ॥ स कथं कतेष्यः | यद्येकत्वादयो विभक्त्यथौः | जथ हि 
कमोदयो विभक्तयथौ नार्थोऽनमिहिताभिकारेण || 


क्मेणि द्वितीया ॥ २।२।२॥ 


समयागिकषाहायोगेषू संख्यानम्‌ ॥ १ ॥ 
समयानिकषाहायोगेषूपसंख्यानं कतेव्यम्‌ । समया भामम्‌ | निकषा मामम्‌ | 
हायोगे | हा देवदत्तम्‌ । हा यज्ञदत्तम्‌ || 
अपर आह ॥ द्वितीयाविधाने ऽभितन्परेतः समयानिकषाभ्यधिधिग्योगेषुपसं- 


20 


नानानना 


* २.२.४६. { २.२.५५. ‡ २.३.६५. 


४29 ॥ व्वाकर्नगरायाच्यम्‌ ॥ | [ग०२.२.१. 


ख्यानम्‌ || द्विनीयाविवाने भमितः परितःखमयानिकषाभ्यधिधिग्वोमेषु पसंख्वानं कनै 
व्यम्‌ | अमिनो रामम्‌ | परितो म्रामम्‌ | समया मामम्‌ | निकषा भामम्‌ | 
अध्यति यामम्‌ । भिग्जाल्मम्‌ | पिम्वुषठम्‌ || 
अपर माह | 
६ उमसर्वनसोः कारव धिनुपरवांरिपु त्रिषु | 
दवितीयाम्रेदितान्तेषु ततो ऽन्यत्रापि दुदयते ॥ 
उमय सर्वं इत्येताभ्यां तखन्ताभ्यां ईितीवा वच्छवया | उमयतो मामम्‌ । सर्वै- 
ते भ्रामम्‌ || धिग्योगे | धिग्जाल्मम्‌ | धिग्वृषलम्‌ || उपयोदिषु त्रिष्वाजोडेता ~ 
न्तेषु द्वितीया वन्तव्या | उपंपरि भामम्‌ | अध्यधि भामम्‌ | अपोऽषो भ्रामम्‌ ॥ 
10 ततो ञन्यत्रापि दुदयते । न देवदत्तं प्रतिभाति किंचित्‌ | 
बुमुक्लितं न प्रतिभाति किचित्‌ ॥ 


तृतीया च हो"छन्दसि ॥ २।३।३ ॥ 


किमर्थमिदमुच्यते | तृतीया यथा स्यात्‌ | अथ तीया सिद्धा | सिद्धा कमे- 
नीस्वेव* || तृतीयापि सिद्धा । कथम्‌ | पां पो भवन्तीव्येव | भसव्येतस्मिन्छ- 
15 पां छपो भवन्तीति तृती यार्थोऽयमारस्भः | यवाग्वाभिहोत्रं जुहोति || एवं तर्हि तृती - 
यापि तिदा | कथम्‌ | कतुंकरणयोरित्येव† | भयमभिशेत्रशब्दोऽस्स्येव ज्योतिषि 
वर्तते | तद्यथा । भमनिोत्रं प्रज्वलयतीति । अस्ति हविषि वर्तते | तद्यथा | अभिहतं 
जुहोतीति । जुहेतिशास्त्येव प्रक्षेपणे वतैते ऽस्ति ग्रीणात्यर्थे वतैते | तद्यदा तावद्यवा- 
गुराष्दासृतीया तदामिहोत्र शब्दो ज्योतिषि वतेते जुहोतिश्च श्रीणास्यर्थे | तद्यथा | 
४0 यवाग्वािहेोत्रं जुहोति | अन्नं प्रीणाति | यदा यवागुशब्दाद्धितीया वदाभनिशेत्रशम्दो 
इविषि वेते जुहोति प्रक्षेपणे | तद्यथा । यवागूमभिहोतरं जुहोति । यवागूं शवि- 
शमौ प्रकिपति ॥ 


अन्तरान्तरेणयुक्ते ॥ २।२.।०७॥ 


हह कस्मात भवति | किं ते बाभ्रवह्यार ङायनानामन्तरेण गतेनेति । लक्षणप्र- 


® २.३,२, † २.३.१८, 


पा०२.३.३-५.| ॥ व्याकर्णमहाभाष्यम्‌ ॥ ४४५ 


तिषरोक्तयोः प्रतिपदोक्तस्थैवेति || अथवा यद्यपि तावदयमन्तरेणशम्दो दृष्टापचारो 
निपातश्चानिपतधायं तु खल्वन्तराशब्दो ऽद््टापचारो निपात एव त्यास्य कोऽन्यो 
दवितीयः सहायो भवितुमहैत्यन्यदतो निपातात्‌ | तद्यथा | अस्य गोर्ितीयेनार्थं 
हृति मौरेवानीयते नाश्वो न गर्दभः || 


अन्तरान्तरेणयुक्तानामपरधानवचनम्‌ ॥ ९।। 


@र 


अन्तरान्तरेणयुक्तानामप्रधानग्रहणै क्तैव्यम्‌ । अप्रधाने हितीया भवतीति वक्त- 
ष्यम्‌ | अन्तरा त्वांच मां च कमण्डलुरिति | कमण्डलेोर्ितीया मा भूदिति । 
कः पुनरेताभ्यां कमण्डलोर्योगः । यत्तत्त्वं च मां चान्तरा तत्कमण्डलोः स्थानम्‌ | 
तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | कमण्डलोर्ितीया कस्मान्न भवति | उपपदवि- 
भक्तेः कारकविभक्ति बेटी यसीति प्रथमा भविष्यति ॥ 10 


काल]प्वनोरव्यन्तसंयोगे ॥ २।३।५॥ 


अत्यन्तसंयोगे कमवह्लाद्यर्थम्‌ ॥ ९ ।। 


भत्यन्तसंयोगे कालाध्वानौ कर्मवद्भवत इति वक्तव्यम्‌ किं प्रयोजनम्‌ लाद्य- 
थम्‌ | लादिभिरभिधानं यथा स्यात्‌* | आस्यते मासः | शय्यते क्रोहाः || अथ व- 
त्करणं किमर्थम्‌ । स्वाश्रयमपि यथा स्यात्‌ | आस्यते मासम्‌ । शय्यते क्रोशम्‌ | 15 
अकर्मकाणां भावे रो भवतीति" भावे लो यथा स्यात्‌ ॥ तरतां वक्तभ्यम्‌ | न 
वक्तव्यम्‌ । प्राकृतमेवैतत्क्म यथा कटं करोति दाकटं करोतीति ॥ एव॑ मन्यते | 
यत्र कथिक्कियाङृतो विशेष उपजायते तन्याय्यं कर्मेति | न चेह कथिक्करियाक्तो 
विष उपजायते || नैवं शक्यम्‌ । इहापि न स्यात्‌ । भादित्यं परंयति | हिमवन्तं 
दुणोति । माम॑ गच्छति | तस्मातमाकृतमेवैतत्कर्म यथा कटं करोति शकटः करोतीति || 20 
यदि तर्हि प्राक्ृतमेवैतत्कमौकर्मकाणां भावे लो भवतीति भावे लो न प्रारोति | आस्यते 
मासं देवदत्तेनेति || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ | भक्मकाणामि्युच्यते न 
च केचित्कालभावाध्वभिरकमैकाः | त एव॑ विज्ञास्यामः । कचिे ऽकर्मका इति| 
भथवा येन कर्मणा सकर्मकाथाकर्मकाथ भवन्ति तेनाकर्मकाणां न चैतेन कर्मणा 


# ३.४. ६९. 


४४६ ॥ व्याकरणप्रहाभीष्यम्‌ ॥ | [म० २.३.९. 


क्थिदप्यकर्मकः || अथवा यत्कमे भवति न च भवति तेनाकर्मकाणां न चैतत्कमे 
छ निदपि न व्रति || 
न तर्हीदानीमिदं सत्रं वक्तव्यम्‌ | वक्तव्यं च | किं प्रयोजनम्‌ | यत्राक्रियया- 
त्यन्तसं योगस्तदयेम्‌ । क्रोशं कुटिला नदी । कोशं रमणीया वनराजिः।। 


अपव तृतीया ॥ २।३।६॥ 


क्रियापवगे इति वक्तव्यम्‌ । साधनापवर्भे मा भूत्‌ | मासमधीतेसनुत्राको 
न चनेन गृहीत इति ॥ | 


सप्तमीपज्चम्यीं कारकमध्ये ।॥ २।२३।७॥ 


क्रियामध्य इति वक्तव्यम्‌ | इ्ापि यथा स्यात्‌ । द्य देवदत्तो भुक्का द्यहा- 

10 दोक्ता व्ये मोक्ता | कारकमध्य हतीयस्युच्यमान इहैव स्यात्‌ | इहस्थेऽधमिष्वासः 
क्रो शाष्ठश्यं विध्यति क्रोशे रष्टय त्रिध्यति | वं च विभ्यति यतश्च विध्यत्युभयोस्तन्म- 
ध्यं भवति ॥ तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | नान्तरेण साधनं क्रियायाः प्रवृत्ति- 
भवति | क्रियामध्यं चेस्कारकमध्यमपि भवति तत्र कारकमध्य इत्येव सिद्धम्‌ ॥ 


कमेग्रचनीययुक्ते द्वितीया ॥ २।३२।८॥ 


15 कमेप्रवचनीययुक्ते पत्यादिभिश्च लक्षणादिषुपसंसख्यानं ससमीपन्बम्योः 
परतिषेधाथंम्‌ ॥ ९ ॥ 
` कर्मप्रवचनीययुक्ते प्रस्यादिभिथ रक्षणादिषुपसंख्यानं कर्तव्यम्‌" | वृक्षं प्रति ति- 
शोतते विद्युत्‌ । वृक्षं परि । वृक्षमनु । साधुर्देवदत्तो मातरं प्रति | मातरं परि । मात- 
रमनु | किं प्रयोजनम्‌ | सप्रमीपश्चम्योः प्रतिषेधार्थम्‌ । सप्रमीपश्चम्यौ मा भृतामिति। 
2 साधुनिपुणाभ्यामचीयां सप्रमीति सप्रमी† । पचम्यपा ङ्रिभिः [२.३.९०] हति 
पन्चमी | तत्रायमप्यर्थो ऽप्रतेरिति† न वक्तव्यं भवति || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न 
वक्तञ्यम्‌ । । 


® ९,०४.९. † २.३.४१. 








पा० २,३.६-९.] ॥ व्याकरणम्रहाभाष्यय्‌ ॥ ४७७ 


उक्तं वा || ९॥ 


किमुक्तम्‌ | एकत्र तावदुक्तमप्रतेरेति" | इतरत्रापि यद्यपि तावदयं परेदू- 
छापतरारो वेने चाव्रजमे चायं खल्वपरम्दो ऽदृष्टापचारो वजैनाथे एव तस्य कोऽन्यो 
हितीयः सहायो भवितुमर्ैत्यन्यदतो वज॑नार्थात्‌ | तद्यथा | अस्य गोर्हितीयेनार्थ इति 
नौरेवानीयते नाश्चो न गदभः | $ 


यस्मादधिक यस्य चेश्वरवचनं ततर सप्तमी ॥ २।२।९॥ 


क्रथमिदं विज्ञायते | यस्य चेश्वयेमीश्वरतेश्वरभावस्तस्मास्कर्मेभवचनीययुक्तादि- 
ति । भशेखिश्यस्य स्वस्येश्वरस्तस्मास्कमेप्रव चनी ययुक्तादिति । कथात्र विदोषः | 


यस्य चेभ्वरवचनमिति कर्तृनिर्देराश्वेदव चनास्िद्धम्‌ ॥ ९ ॥ 
यस्य चेश्वरव चनमिति कर्तनिरदेशेदन्तरेण वचनं तसिद्धम्‌ | अधि ब्रह्मदत्ते 10 
पचालाः | भाधृतास्ते तस्मिन्भवन्ति† | सत्यमेवमेतत्‌ । निर्यं परि रहीतभ्वं परि- 
महीजरधीनं भवति ॥  . 
प्रथमानुपपत्तिस्तु ॥ > ॥ 


प्रथमा नोपपद्यते | कुतः | पत्चतिभ्यः | का तर्हि स्यात्‌ | षष्ठीसप्तम्यौ | 
स्वामीराधिपति [२.२.२३९] इति | न त॒त्राधिशब्दः पद्यते । यद्यपि न पश्यते 15 
ऽधिरीश्वरवाची | न तत्र परयोयव वनानां पहणम्‌ | कथं ज्ञायते | यदयं कस्य- 
चिस्पयौयवचनस्य ग्रहणं करोति । भधिपतिदायादेति || षष्ठी तर्हि प्रामोति | शेष - 
लक्षणा षष्योषत्वान्न भविष्यति ॥ द्वितीया ता प्रामोति करमपभ्रवचनीययुक्ते 
दितीया [२.३.८ | इतिऽ | सप्म्योक्तत्वत्तस्याभिसंबन्धस्य द्वितीया न भविष्यति | 
भवेद्यो ऽेत्रह्यदत्तस्य चाभिसंबन्धः स सप्नम्योक्तः स्याश्स्तु खल्वधेः पत्चालानां 20 
चामिसंबन्धस्तत्र द्वितीया प्रामोति || 


स्ववचनास्सिदम्‌ ॥ ३॥ 


अस्तु यस्य स्वस्येश्वरस्तस्मात्कमेप्रवचनी ययुक्तारिति ॥ एवमप्यन्तरेण वचनं 
सिद्धम्‌ । अपि ब्रह्मदत्तः प्चारेषु | आधृतः स तेषु भवति | सत्यमेवमेतत्‌ | 





# २,२.४२. † २.१.१६. ‡ २.१. ५०. § ९,४.९७, 


४७य्‌ ॥ व्वाकर्णवह भाष्यत ॥ 1 [ म०२.३.९. 


नित्वं परिप्रहीता परित्रहीतव्याधीनो भवति || प्रथमानुपपर्िस्तु | प्रथमा नोपष- 
द्यते | कुतः | ब्रह्मदत्तात्‌ | का तर्हि स्यात्‌ | षक्षीसप्रम्यौ | स्वामीश्वराधिपतीति | 
न तत्राधिशाष्दः पद्यते | यद्यपि न पद्यते अधिरीशरवाची | न तत्र पर्यायष- 
चनानां यंहणम्‌ | कथं ज्ञायते । यदयं कस्यचिरपयायवचनस्य म्रहणं करोति | 

5 अधिपतिदायादेति || षी तरि प्राप्रोति | शेषलक्षणा षश्च ोषत्वान्न भविष्यति || 
हितीया तर्हिं प्रामोति कर्मप्रवचनीययुक्ते द्वितीयेति । सप्नम्योक्तत्वरात्तस्यामिसंब - 
न्धस्य हितीया न भविष्यति 1 भवेश्ोऽ्येः पत्ालानां चाभिसंबन्थः स सप्रम्योक्तः 
स्या्स्तु खल्वधेत्रेयद तस्यं चाभिस॑बन्धस्तत्र दितीया प्राति | एवं तरि स्ववच - 
नास्सिद्धम्‌ । अधिः स्वरं परति कर्मप्रव चनीयसंश्ञो भवतीति वक्तव्यम्‌* || एवमि 

10 यदा ब्रह्मदत्तेजधिकरणे सप्रमी तदा पज्ालेभ्यो द्वितीया प्रामोति करमप्रवचनीययुक्ते 
दिती येति । उपपदाविभक्तेः कारकविभक्तिबेलीयसीति प्रथमा भविष्यति || 


गत्यर्थकर्मणि द्वितीयाचतर्थ्यौ चेष्टायामनध्वनि ॥ २।२.।१२॥ 


अध्वन्यर्थग्रहणम्‌ ॥ ९॥ 
अध्वन्यर्थग्रहणं कर्तव्यम्‌| इहापि मा भूत्‌ | पन्थानं गच्छति } वी वर्धं गच्छतीति | 
18 आस्थितप्रतिषेधश्च ॥ २ ॥ 
आस्थितप्रतिषेधश्ायं वक्तव्यः | यो दयुत्पथेन पन्थानं गच्छति पथे गच्छतीस्येव 
तत्रं भवितव्यम्‌ ॥ 
किमथे पनरिदमुच्यते । चतुर्थं यथा स्यात्‌ | अथ द्ितीयौ सिद्धा| सिद्धा 
कर्मेणीस्येव† | चतुथ्यैपि तिधा | कथम्‌ । संप्रदान इत्येव । न सिध्यति । क- 
2० भणां यमभित्रैति स संप्रदानम्‌ [ ९.४.३२ ] इत्युच्यते क्रियया चासौ म्राममभि- 
प्रति | कया क्रियया | गमिक्रियया | क्रियामहणमपि तत्र चोद्यते || 
चेष्टायामनध्वनि लियं गच्छत्यजां नयतीत्यतिप्रसङ्गः ॥ २ ॥ 
वे्टायामनध्वनि लियं गच्छत्यजां नयतीत्यतिप्रसङ्खो भवति ॥ 
सिद्द त्वरसपराप्वचनात्‌॥ ४ ॥ 
४5 सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ | अश्ापरे कर्मणि दितीयाचनु्यी भवत इति वक्तव्यम्‌ ॥ 




















पा० २.२.९२-९१२. ॥ ध्याकरणमहाभाच्यम्‌ ॥ ७४९, 


अध्वनश्चानपवादः | ^ ॥ 
एवं च कृत्वानध्वनीत्येतदपिं न वक्तव्ये भवति | संप्राष्वं दयेतत्कमौभ्वानं गच्छ- 
तीति || । » 


चतु संप्रदनि॥२।२ । ९२॥ 


चतुर्थीविधाने ताद्य उपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ ९. 
चतुर्थीविधाने -तादथ्ये उपसंख्यानं कत्वम्‌ | यूपाय दार | कुण्डलाय हिर- 
ण्यम्‌ || किमिदं तादभ्येमिति । तदथस्य भावस्तादभ्येम्‌ | तदथै पुनः किम्‌ | 
सर्वैनान्नोऽयं चतुध्येन्तस्वार्थशब्देन सह समासः । कथं चात्र चतुर्थी | भने- 
त्रैव | यदयेवमितरेतराच्चयं भवति | केतरेतरान्रयता । निर्ेशोत्तरकालं चतुध्यौ 
भवितव्यं चतुभ्यो च निर्दशस्तदितरेतराश्र्य भवति | इतरेतराश्रयाणि च न प्रक- 10 
स्यन्ते || तत्तर्हि वक्तव्यम्‌ | न वक्तश्यम्‌ | आवार्यपवृत्तिर्ञापयति भवत्य्थशब्देन 
योगे चतुर्योति यदयं चतुर्थी तदयोये [२.५.३६] हति चतुथ्यैन्तस्यार्थशम्देन सह 
समासं शास्ति || न खल्वप्यवरयं चतुध्यन्तस्थैवा्थ शब्देन सह समासो भवति । 
किं तर्हि । षष्टचयन्तस्यापि भवति | तदयथा । गुरोरिदं गु्वथोमिति || यदि ताद्य 
उपसंख्यानं क्रियते नाथः संपदानय्रहणेन । योऽपि ध्युपाध्यायाय गौर्दीयत उपाध्या- 15 
याथः स भवति तत्र ताद्य इत्येव सिद्धम्‌ ॥ भवदयं संप्रदानम्रहणं कतैष्यं यान्येन 
लक्षणेन संप्रदानसंश्ञा तदथेम्‌ । छक्ताय रुचितम्‌ | शन्नाय स्वदितमिति" ॥ 
तसचद्युपसंख्यानं कर्तध्यम्‌ । न करतैष्यम्‌ । आचायप्रवृिश्ञौपयति भवति तादर्थ्य 
चतुर्थीति यदयं चतुर्थी तदथौर्भति चतुर्थ्यन्तस्य तदर्थेन सह समासं शास्ति ॥| 
कुपि संपद्यमाने ॥ २॥। 20 
कुमि संपद्यमाने चतुर्थी वक्तव्या | मूत्राय कल्पते यवागूः । उश्वाराय कल्पते 
यवाच्नमिति | 
उत्पातेन ज्ञाप्यमाने ॥ ३ ॥ 
उत्पातेन श्ञाप्यमाने चतुर्थीं वक्तव्या । 
वाताय कपिला विद्युदातपायातिलोहिनी | 2४ 
षीता भवति सस्याय दुर्भिक्षाय ससिता भवेत्‌ ॥ 


* ९.४.२३. 
87 9 


, ॥ व्यकस्ममहामोष्यम्‌ ॥ |  [मर२.२३.९. 
मांसौदनाय व्याहरति मृगः || . 
हितयोगे च ॥ ४ ॥ 
हितयोगे चतुर्थी वक्तव्या | हितमरोचकिने | हितमामयाविने ॥ 


नमःस्स्तिखाहाखधाल्वषड्योगाच्च ॥ २ । २.।१६ ॥ 


$ स्वस्तियोगे चतुर्थी कुराखर्थैराशिषि वाविधानात्‌ ॥ ९॥ 
स्वस्तियोगे चतुर्थी कुशलार्थैराशिषि वाविषानाद्भवति विप्रतिषेधेन | स्वस्ति 
योगे चतुध्यौ अवकाशः । स्वस्ि जाल्माय । स्वस्ति वृषलाय | कुशकलार्थेरा- 
श्िषि बाविधानस्यावकाशः । भन्ये कुरालाथौः । कुशलं देवदत्ताय । कुशलं, 
देवदत्तस्य । इहोभयं प्रामोति | स्वस्ति गोभ्यः | प्वस्ति ब्राह्मणेभ्य इति । चतुर्थीं 
10 भवति विप्रतिषेभेन || 


अमिति पयन्यिथग्रहणम्‌ ॥ > ॥ - 
अलमिति पयौध्यर्थम्रहणं कतेव्यम्‌ । इह मा भूत्‌ | अठंकुरुते कन्यामिति ॥। 


अपर आह | अलमिति पयीघ्यथेमरहणं कतेव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ | भल 
मलो मल्लाय । प्रभुमेह्लो महछलाय । प्रभवति मल्लो मछायेति || 


1 मन्यकमेण्यनादरे विभाषाप्राणिषु ॥ २।२. ।१..७॥ 


भप्राणिष्विद्युच्यते तत्रेदं न सिध्यति । न स्वा चानं .मन्ये | न त्वा शुने मन्य 

इति ॥ एवं तरि योगविभागः करिष्यते | मन्यकर्मण्यनादरे विभाषा | ततोऽपा-. 

णिषु | अप्राणिषु च विभाषेति | हृदापि तर्हि प्रामोति | न त्वा काकं मन्ये | नत्वा 

डुक मन्य इति || यदेतदाणिष्विस्येतदनावादिष्विति वक्ष्यामि | इमे च नावा- 

80 दयो भविष्यन्ति | न त्वा नावं मन्ये यावत्तीणे न नाव्यम्‌ | न स्वाघ्नं मन्ये 
यावद्भुक्तं न श्राद्धम्‌ | अत्र येषु प्राणिषु नेष्यते ते नार्वादयो भविष्वन्ति | 


+ २.३, ७३. 





पौ» २.२.९१-९०.| ॥ व्याकरणमहाभाष्यम्‌ ॥ ४५९ 


मन्यकमणि पकृष्यकरुत्सितप्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 
मन्यकर्मणि प्रकष्यकुस्सितमदणं कर्तव्यम्‌ । इह मा भूत्‌ | स्वां तृणै मन्य 
इति ॥ 


इति श्रीभगवत्पतश्जलिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये द्वितीय स्याध्यायस्य तृतीये 
पादे प्रथममाह्निकम्‌ | 


9५५२ ॥ व्वीकरनवहमिोष्वयः ॥ ` मिं २.२.३. 


कतृकरणयोस्तृतीया ॥ २।२.।१८ ॥ 


तृतीयावेधाने प्रकृस्यादिभ्य उपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानं कतैव्वम्‌ | प्रकृत्यामिरूपः | प्रकृत्या 
ददोनीयः | प्रायेण याज्ञिकाः | प्रायेण वैयाकरणाः । माठरो ऽस्मि गोत्रेण । गारर्योऽस्सि 
¢ गोत्रेण | समेन धावति | विषमेण धावति | दिद्रोणेन धान्यं क्रीणाति | लिद्रोणेन धान्यं 
क्रीणाति । प्श्चकेन पदयन्क्रीणाति । साहजेणाश्चान्क्रीणाति || तर्त वक्तव्यम्‌ | 
न वक्तव्यम्‌ | कर्वृक्रण योस्तृतीयेस्येव सिद्धम्‌ ।| इह तावलकृत्याभिरूपः प्रकृत्या 
शशौनीय इति प्रकृतिकृतं तस्याभिरूप्यम्‌ || प्रायेण या्निकाः प्रायेण वैयाकरणा इति | 
एष तत्र प्रायो येन तेऽधीयते || माठरोऽस्मि गोत्रेण गार्ग्योऽस्मि गोक्रेणेति । एते- 
10 नाहं संज्ञाय || समेन धावति विषमेण धावतीति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच्च प्रयु - 
ज्यते समेन पथा धावति विषमेण पथा धावतीति | हिदोणेन धान्यं क्रीणाति 
द्रोणेन धान्यं क्रीणातीति । साद्या तताच्छन्धयम्‌ | दित्रोणाथै द्िद्रोणम्‌ | दिद्रोणेन 
हिरण्येन धान्यं क्रीणातीति | पञ्चकेन पभूल्करीणातीति | त्रापि तादथ्यौत्ताच्छ- 
ग्धम्‌ | परश्चपच्चर्थः पञ्चकः । पत्चकेन पभुन्क्रीणातीति || सादजेणाचान्क्रीणा- 

15 बीति | स्रपरिमाणं साहसम्‌ । साहस्रेण हिरण्येनाश्वान्क्ीणातीति ॥ 


सहयुक्ते प्रधाने ॥ २।२.। १९. ॥ ` 


किमुदाहरणम्‌ । तिङः सह माषान्वपतीति । तैतदस्ति | तिरैभिभ्रीकृत्व माषा 
उप्यन्ते तत्न करण इस्येव सिद्धम्‌ ॥ इदं तरि । पुत्रेण संशागतो देवदत्त इति| 
भप्रधाने कतैरि तृतीया यथा स्यात्‌ । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ | प्रधाने कतरि 
90 लादयो भवन्तीति प्रधानक्तौ क्ेनाभिधीयते यथाप्रधानं सिद्धा तत्र॒ कर्व॑रीव्येव 
तृतीया" || हदं तर्हि । पुत्रेण सहागमनं देवदतस्येति | षषठघत्र बाधिका भवि- 
भ्वति || हदं तर्हि । पुत्रेण सह स्थुलः । पुत्रेण सह पिङ्गल इति || इदं चाप्युगा- 
हरणं तिः सह माषान्वपतीति | ननु चीक्तं तिरैर्मिश्रीकृस्य माषा उप्यन्ते तत्र 
करण इत्येव (सिद्धमिति । भनेस्सिद्धं यदा तिकेर्भिभ्रीकृत्योप्येरन्‌ । यदा तु खलु 


# २,६.६.८. २,३.६९. 





पी २.३.१८-२९.] ॥ व्याकर प्रह्यभाष्यम्‌ ॥ | 
कस्यचिन्माषवीजावाप उपस्थितस्तद्थै च केत्रभुपाजितं तत्रान्यदपि किंचिदुप्यते 
यदि भविष्यति भविष्यतीति तदा न सिध्यति 1| ` ` ` ` 
सहयुक्ते अप्रधानवचनमन्थंक स॒पपदविभक्तेः कारकविभक्ति 
बली यस्त्वादन्यत्रापि ॥ ९॥ 


र सहयुक्ते ऽपधानवंचनमनर्थकम्‌ | किं कारणम्‌ | उपपदविभक्ते कारकबिभ- ४ 
क्तेवलीयस्त्वात्‌ | अन्यत्रापि कारकविभक्तेबेरी यतीति प्रथमा विष्यति । का- 
न्यत्र | गाः. स्वामी व्रजतीति || 


येनाङ्गविकारः ॥ २।२।२०॥ 


इह कस्मान्न भवति । भक्षि काणमस्येति | 
अङ्गादिकृतात्तद्िकारतश्वेदङ्धिनो वचनम्‌ ॥ ९॥ 10 


` अङ्कादिक्ृतासृतीया वक्तव्या तेत्रैष चेदिकारेणाङ्गी शोस्यत इति वन्तव्यम्‌ ॥ 

ततर्द वक्छव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | अङ्गशब्दोऽयं समुदायश्चब्दो येनेति च करण 
एषा तृतीया । येनावयवेन ` समुदायोऽद्गी चोत्यते तस्मिन्भवितव्यं न वैतेनावयवेन 
समुदायो थोत्यते ॥ | 


इत्थंभूतलक्षणे ॥ २।२.। २२. ॥ 15 


इत्थंभूतलक्षणे तत्स्थे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 

ह्यंभूतलक्षणे तर्स्ये प्रतिरेषो वक्तव्य; । भपि भवान्कमण्डलुपाणि शत्रम- 

द्रा्ीदिति ॥ 
` न वेत्थंभुतस्य लष्षणेनापृथग्भावास्‌ ॥ २ ॥ 

न वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । हर्त्थ॑भूतस्य लक्षेणेनापुथग्भावात्‌ | यत्रेव्थ॑भू- 20 | 
तस्य परथग्भूतं लक्षणं तत्र भवितव्यं न वत्रेत्थ॑भूतस्य एथग्भूतं लक्षणम्‌ | किं 
वक्तव्यमेतत्‌ | न हि | कथमनुच्यमानं गंस्यते | तथा ह्ययं प्राधान्येन रक्षणं प्रतिनि- 
शाति । इत्थंभूतस्य रक्षणमित्थंभूतंलक्षणम्‌ तस्मितित्यंभूतर्षेण इति || 

२.६.२; (६९) 


७५२ ॥ व्यीकरणमदभोष्यय्‌ ॥ ` ` [मिं २.२२. 


कतृकरणयोस्तृतीया ॥ २।२.।१८ ॥ 


तृतीयाविधाने भकृस्यादिभ्य उपसंख्यानम्‌ । ९ ॥ 

तृतीयाविधाने प्रकृत्यादिभ्य उपसंख्यानं कतेव्वम्‌ | प्रकृत्यामिरूपः | प्रकृत्या 
ददीनीयः | प्रायेण याञिकाः | प्रायेण वैयाकरणाः | माठरो ऽस्मि गोत्रेण । गार्योऽस्सि , 
¢ गोत्रेण | समेन धावति | विषमेण धावति | द्विद्रोणेन धान्यं क्रीणाति | लिद्रोणेन धान्यं 
क्रीणाति | पञ्चकेन पञयुन्क्रीणाति । सादसेणाश्वान्क्रीणाति || त्साह वक्तव्यम्‌ | 
न वक्तव्यम्‌ | कर्वृकरण योस्तृतीयेस्येव तिम्‌ ।| इह तावत्यकृत्यामिरूपः प्रकृत्या 
हङीनीय इति प्रकृतिकृतं तस्याभिरूप्यम्‌ || प्रायेण याश्ञिकाः प्रायेण धैयाकरणा इति | 
एष तत्र प्रायो येन तेऽषीयते || माठरोअस्मि गोत्रेण गार्ग्योऽस्मि गोत्रेणेति । एते- 
10 नाहं संज्ञाये || समेन धावति विषमेण धावतीति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच्च भयु - 
ज्यते समेन पथा धावति विषमेण पथा धावतीति || हिद्रोणेन धान्यं क्रीणाति 
द्रोणेन धान्यं क्रीणातीति । सादर्थ्या साच्छन्यम्‌ | हिद्रोणा्थ द्िद्रोणम्‌ | दिद्रोगेन 
हिरण्येन धान्यं क्रीणातीति ॥ पञ्चकेन पभूल्क्रीणातीति | अत्रापि तादथ्यौन्ताच्छ- 
न्धम्‌ । पञ्चप्धरथः प्रश्चकः । पत्चकेन पभुन्क्रीणातीति | साहसेणा्ान्क्रीणा- 

15 बीति । सश परिमाणं साहलम्‌ । सादसेण हिरण्येनाश्वान्क्रीणातीति ॥ 


सहयुक्तेऽप्रधाने ॥ २।२.। १९.॥ ` ` 


किमुदाहरणम्‌ । तिङः सङ माषान्वपतीति । त्रैतदस्ति | तिङैर्िभ्रीकृस्य माषा 
उप्यन्ते तत्र करण इत्येव सिद्धम्‌ ॥ इदं तर्हि । पुत्रेण सहागतो देवदत्त इति| 
भप्रधाने कतैरि तृतीया यथा स्यात्‌ । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । प्रधाने कतरि 
20 लादयो भवन्तीति प्रधानकूती केनाभिषीयते यथाप्रधानं सिद्धा तच्र कर्वरीत्येब 
तृतीया" ॥ हदं तरिं । पुत्रेण सहागमनं देवदतस्येति | षषठधत्र बाधिका भवि- 
ष्यति† || इदं तर्हि | पुत्रेण सह स्थूलः । पुत्रेण सह पिङ्गल इति ॥ इदं चाप्वुदा- 
रणं तिकः सह माषान्वपतीति । ननु चोक्तं तिङैर्मिश्रीकृत्य माषा उप्यन्ते तश्र 
करण इत्येव (सिद्धमिति । भवेत्सिद्धं यदा तिकेर्भिभ्रीकृत्योप्येरन्‌ । यदातु खल्‌ 


न १,३.६८. † २.३.६९. 





फी° २.३.१५ ८-२९.। ॥ व्याकर परह्यभीर्यम्‌ ॥ (| 
कस्यचिन्माषवीजावाप उपस्थितस्तद्थै च सत्रमुपाजितं तत्रान्यदपि किंचिदुप्यते 
यरि भविष्यति भविष्यतीति तदा न सिध्यति ]| ` - ` 
सहयुक्ते ऽप्रधानवचनमनथंकमुपपदविभक्तेः कारकविभक्ति- 
बलीयस्त्वादन्यत्रापि ॥ ९॥ 


` सहयुक्ते पधानवचनमन्थकम्‌ । कि कारणम्‌ | उपपदविभक्तेः कारकविभ- 5 
क्िबलीयस्त्वात्‌ | अन्यापि कारकविभक्तिबेलीयसीति प्रथमा भविष्यति | क्रा- 
न्यत्र | गाः स्वामी व्रजतीति 


येनाङ्गविकारः ॥ २।२।२०.॥ 


इह कस्मान्न भवति । भक्षि काणमस्येति | 
 अङ्गादिकृतात्तदिकारतश्वेदङ्धिनो वचनम्‌ ॥ ९॥ 10 


` अङ्गादिकृतातृतीया वक्तव्या तेत्रैव चेदिकारेणाङ्गी शोस्यत इति वक्तव्यम्‌ ॥ 

ततर्द वक्व्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | भङ्ग रब्दोऽयं समुदायराब्दो येनेति च करण 
एषा तृतीया । येनावयवेन ` समुदायोऽद्गी त्यते तस्मिन्भवितव्यं न चेतेनावयवेन 
समुदायो शोत्यते ॥ | | 


दर््यभूतलक्षणे ॥ २।२. । २२ ॥ 18 


इत्थंभूतलक्षणे तत्स्थे प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
हस्यं भूतलक्षणे तस्ये प्रतिषेधो वक्तव्यः । भपि भवान्कमण्डलुपाणि श्रम. 
द्रा्ीदिति ॥ 
` न वेत्थंभूतस्य रक्षणेनापृथग्भावात्‌ ॥ २ ॥ 

न वा वक्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । हत्थ॑भूतस्य लक्षणेनापुथग्भावात्‌ | यत्रेत्थभू- 20 | 
तस्य परथग्भूतं लक्षणं तत्र भवितव्यं न चत्रत्थ॑भूतस्य परथग्भूतं रक्षणम्‌ ॥ किं 
वक्तव्यमेतत्‌ । न हि । कथमनुच्यमानं गंस्यते | तथा हयं प्राधान्येन लक्षणं प्रतिनि- 
शाति । इत्थंभूतस्य रक्षणमित्थंभूतंलक्षणम्‌ तस्मितिष्यंभूतरक्षण इति || 

# ३,३.२; (३२). 


४५७ 1 व्याकरगमहामष्यम्‌ ॥ | [ भ०२.३.१ 


संज्ञोऽन्यतरस्यां कमणि ॥ २।२।२२॥ 


सत्तः कृत्प्रयोगे षष्ठी विभतियेधेन ॥ ९ ॥ 


संश जन्यतरस्यां कमेगीत्येतस्माक्कृसयोगे षष्ठी भवति विप्रतिषेधेन । संज्ञो 

ऽन्यतरस्यामित्वस्वावकाशः | मातरं संजानीते | मात्रा संजानीते | कृखयोगे षषटचा 

5 भवकाराः | इध्ममत्रथनः पलाश शातनः† । इहोभयं प्रामोति । मातुः संज्ञाता | 
पितुः संजातेति । षष्ठी भवति विप्रतिषेधेन | 


उपपदविभक्तेश्चोपपदविभक्तिः || २॥ 

उपपदविभक्तं थोपपदविभक्तिभेवति विप्रतिषेधेन । अन्यारादितरतैदिक्दाग्दाश्चू- 
सर पदाजाहियुक्ते [२.३.२९] हत्यस्यावकादाः | अन्यो देवदत्तात्‌ | स्वरामीश्वराधि- 
10 पतिदायादसाक्षिपरतिभूप्रदतैथ्च [३९] इत्यस्यावकाशः | गोषु स्वामी । गवां स्वा- 
.मी । इहोभयं परामोति । भन्यो गोषु स्वामी । भन्यो गवां स्वामीति । स्वामीश्वरा- 
(सिपतीत्येतद्भवति विप्रतिषेधेन || तष युक्तो विप्रतिषेधः | न शयत्र गावो ऽन्ययुक्ताः | 
कर्ता । स्वामी || एवं तरि तुल्यार्ैरतुलोपमामभ्यां तृती यान्यतरस्याम्‌ [७२] इत्य 
स्यावकाराः । तुल्यो देवदत्तस्य । तुल्यो देवदत्तेनेति | स्वामीश्वराधिपतीस्वस्याव- 
18 काङाः | स एव । हशेमयं प्राभोति । तुल्यो गोभिः स्वामी | तुल्यो गवां स्वामीति। 

तुल्यार्थैरतुलोपमाभ्यामित्येतद्ध वति विप्रतिषेधेन ॥ 


` 1 हेती ॥ २।२। २२ ॥ 
निभित्तकारणहेतुषु सर्वासां प्रायदर्शनम॥ 
निमिन्तकारणहेतुषु सवौ विभक्तयः प्रायेण दृदयन्त इति वक्तव्यम्‌ | कि 
20 निमित्तं वस्तति | केन निमित्तेन वसति | कस्मै निमित्ताय वसति । कस्मान्नि- 
मि्ताहसति । कस्य निमित्तस्य वसति -। कस्मित्निमिते षस्ति ॥| किं कार्णं 
गसति.| केन कारणेन वसति | कस्मै कारणाय वसति । कस्मात्कारणाद्न सति + 
कस्य कारणस्य वसति | कस्मिन्कारणे वसति ॥ को हैतुष॑सति । कं देतु वस- 


+ २.६.६५. † २.२.८५. 





पा० २;,२३.२२-२८. | ॥ ध्याकरगमरहभिष्वम्‌ ॥ ४५५. 


ति | केनहेतुना वसति | कस्मै हेतवे वसति । कस्माद्धेतोवेसति | कंस्य हेोर्घ- 
सति । कस्मिन्हेती बसति ॥ 


अपादाने प्वमी ॥ २.।२। २८ ॥ 


पत्चमीविधाने ल्यन्कोपे कमेण्युपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 


| पशचमीविधाने ल्यभ्लोपे कमेण्युपसंख्यानं कतैव्यम्‌ | प्रासादमारद्य प्रेक्षते प्रासा- 5 
दास्मेक्षते || 


अधिकरणे च | २॥ 
अधिकरणे चोपसं ख्यानं कतेव्यम्‌ | भासनासरक्षंते | शयनासक्षते | 
|  प्रञ्नाख्यानयोश्च ।। २॥ 
प्रश्राख्यानयोश पश्चमी वक्तव्या ॥ कुतो भवान्‌ । पाटलिपुत्रात्‌ || ` + 
| यतथाष्वकालनिर्माणम्‌ || ४॥| ` 1 
वतथाप्वकालनिरमाणं तल्ल पञ्चमी वक्तव्या | गवीधुमतः सांकाइयं चत्वारि 
योजनानि | कात्िक्या आग्रहायणी मासे | 
तद्युक्तात्काले सपमी ॥ ९ ॥ 
तशुक्तात्कले सप्रमी वक्तव्या | कात्तिक्या आम्रहायणीं मासे ॥ 15 
अध्वनः प्रथमा च ॥ &॥ 


अध्वनः प्रथमा च सप्रमी च वक्तव्या | गवीधुमतः सांकादयं चत्वारि योज- 
नानि | चतुषु योजनेषु ॥ 

तत्तद वहु वक्तव्यम्‌ | न वक्तंडयम्‌ । अपादान इत्येव सिद्धम्‌ || इह ताव - 
स्पास्ादास्परक्षते हायनास्मेक्षत इत्यपक्रामति तच्स्मादृशंनम्‌ | यद्यपक्रामति किं ना- 20 
ह्यन्तायापक्रामति | संततत्वात्‌ । भथवान्यान्यपरादुभोवात्‌ | प्रभ्ाख्यानयो् प१- 
घ्चमी वक्तव्येति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सत्च प्रयुज्यते कुतो भवानागच्छति पाटर्पु- 
लादागच्छामीति | ` यतथाध्वकालनिमोणं तत्र पश्चमी वक्तव्येति । इदमत्र प्रयो- 
व्यं सन्न प्रयुज्यते गवी ध॒मतो निः सृत्य॒सांक[दयं चस्वारि योजनानि | कार्सि- 


४९६ ॥ व्याकरगमहाभाष्वम्‌ ॥ ` [म०१.९.२ 
क्या भायहावणी मास इति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच प्रयुज्यते काक्या प्रभ 
त्बाम्रहायणी मास हति || वथुक्तात्काले सप्तमी वक्तव्येति । इदमत्र प्रयोक्तव्यं 
सच्च प्रयुज्यते काततिक्या भम्रहायणी गते मास इति || अध्वनः प्रथमा च सप्तमी 
चेति | इदमत्र प्रयोक्तव्यं सच प्रयुज्यते गवीधुमतो निःसृत्य यदा चत्वारि योज- 
5 नानि शतानि भवन्ति तत; सांकादयम्‌ । चतुषु योजनेषु गतेषु॒घांकादयमिति ॥ 


अन्यारादितरतेंदिक्डान्दाञ्चुत्तरपदानाहियुक्ते ॥ २।२।२९॥ 


भनदत्तरपदब्रहणं किमथे न दिक्दाब्यर्योग इत्येव सिद्धम्‌ । षष्ठ थतसर्थप्रत्ययेन 
[ २.३.२० ] इति वद्यति. तस्यायं पुरस्तादपकर्षः ॥ 


घ्चतसथेप्रत्ययेन ॥ २।२।२०॥ 


10 अ्थैमहणं किमयम्‌ । षटचतस्पत्ययेनेत्युष्यमान इहव स्यात्‌ | दक्षिणतो पा- 
मस्य | उत्तरतो म्रामस्येति* । इह न स्यात्‌ | उपरि भामस्य ¡ उपरिष्टाद्रामस्ये- 
ति† | अथेच्रहणे पुनः क्रियमाणे तस्मत्ययेन च सिद्धं भवति यथ्ान्यस्तेन समाना- 
थैः || भय प्रत्ययम्रहणं किमर्थम्‌ । इह मा मूत्‌ । प्राग्मामात्‌ । भस्यग्मामात्‌{ | 
अश्हृत्तरपदस्याप्येतसख्योजनमुक्तं $ तत्रान्यतरच्छक्यमकतुम्‌ | 


15 पृथग्विनानानामिस्तृतीयान्यतरस्याम्‌ ।॥ २ ।२. ।२२ ॥ 


पृथगादिषु पत्चमीविधानम्‌ ॥ ९ ॥ 
[ पृथगदिषु पश्चमी विभेया | पृथग्देवदत्तात्‌ । किमयम्‌ । न प्रकृतं प्मीब- 
इणमनुवतेते | क प्रकृतम्‌ | पादाने पश्चमी [ २.३.२८ ] इति । 
अनधिकारात्‌ ॥ २ ॥ 
20 अनधिकारः सः ॥ 
अधिकारे हि द्वितीयाषष्ठीविषये प्रतिषेधः ॥ ३ ॥ 
अधिकारे हि वितीयाब्टीविषये प्रतिषेधो वक्तव्यः स्यात्‌ । दल्तिणेन पामम्‌ | 


* ५.३. २८. † ५.३. ६९. ‡ ५.३.२०. . 6 २.६. २९५. ¶ २.६. १९; १०. 





पा०.२.३.२९-२५.] ॥ ` व्याकरणम्रहामाष्यम्‌ ॥ ७५७ 


दक्षिणतो बाभस्य || एवं तद्यन्यतरस्यांमरहणसामभ्यौखश्चमी भविष्यति | अष्त्य-' 
न्यदन्यतरस्यांपरहणस्य प्रयोजनम्‌ । किम्‌ [ यस्यां नापराप्नायां तृतीयारभ्यते सा यथा 


स्यात्‌ | कस्यां च नाप्राप्रायाम्‌ | अन्ततः ष्याम्‌" | 


तत्त वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌| पक्ृतमनुवरैते | कर प्रकृतम्‌ । भपादाने पन्च 


मीति | ननु चोक्तमनधिकारः सः अधिकारे हि द्वितीयाषष्टीविषये प्रतिषेध इति | 
एवै तर्हि संबन्धमनुवर्तिष्यते | अपादाने पष्चमी [२८] | भन्यारादितरर्तदिक्डा- 
ष्दाजुत्तरपदाजादियुक्ते [२९ | पञ्चमी | षश्यतसथेपरस्ययेन [३ ० | भन्यारादिभिर्योगे 
पञ्चमी । एनपा द्वितीया [३९ | अन्यारादिभिर्योगे पञ्चमी । पथग्विनानानाभिस्तृती- 
यान्यतरस्याम्‌ । पञ्चमीमरहणमनु वतेते ऽन्यारादिभिर्योग इति निवृत्तम्‌ || अथव। म- 
ण्डूकगत यो ऽधिकाराः । तद्यथा मण्डूका उल्ुत्योलछुत्य गच्छन्ति तद्वदधिकाराः ॥। 


॥ 1, 


10 


अथवान्यवचनाचकाराकरणालकृतस्यापवादो विज्ञायते यथोत्सर्गेण प्रसक्तस्य | अ- ` 


न्यस्या विभक्तेर्वचनाचकारस्यानुकरषैणा्थस्याकरणाद्यकृता्याः पत्चम्या हिवीया- 


षच वाधिके भविष्यतो यथोत्सर्भेण प्रसक्तस्यापवादो वाधको भवति || अथवा 


वक्ष्यत्येतत्‌ । अनुवतैन्ते च नाम विधयो न चानुषतैनादेव भवन्ति । किं ताहि । 
यलाद्वन्तीति! || 


दृरान्तिकार्थेभ्यो द्वितीया च ।॥ २।३। २८५ ॥ 


दूरान्तिकार्थेभ्यः प्चमीविधाने तद्युक्तावन्चमीपतिषेधः ॥ ९ ॥ 


दुरान्तिका्ेभ्यः पञ्चमीविधाने तद्युक्तातपत्चम्याः‡ प्रतिषेधो वक्तव्यः । वुरा- 
द्ामस्य || - 


न वा तत्रापि दर्शनादप्रतिषेधः ॥ ९॥। 
न वा | त्रापि ददोनात्य्चम्याः प्रतिषे पोऽनथेकः । तत्रापि प्र्चमी -दृदयते । 


दुरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम्‌ ॥ 
` दाच भाव्यं स्ु-चो दूराच इुपिताुरोः॥ , . 





~ + # २.३.५०. , ¶ ५.२.४१, ू १॥ २.३.३५. 
98 भ 


- 19 


20 


४९५८ ॥ श्याकरभमहाभाष्यम्‌ ॥ | [म९२.३.२. 


सप्तम्यधिकरणे च ॥ २।२३.।२६ ॥ 


सपमीविधाने क्तस्येन्विषयस्य कर्मेण्युपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
सप्रमीविधाने क्तस्येन्विषयस्य कमेण्युपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | भषीती व्याकरणे | 
परिगणिती याञ्चिक्ये । आन्नाती छन्दसि || 
5 साध्वसाधुप्रयोगे च ॥ ९॥ 
साध्वसाधुप्रयोगे च सप्तमी वक्तव्या | साधुर्देवदत्तो मातरि । असाधुः पितरि ॥ 
 कारकाहाणां ष कारकत्वे ॥ ३ ॥ 
कारकादौणां च कारकत्वे सप्तमी वक्तव्या । ऋद्धेषु भुञ्जानेषु दरिद्रा भस- 
ते । ब्राह्मणेषु तरत्सु वृषला आसते ॥ 
10 अकारकाहौणां चाकारकवे ॥ ४ ॥ 
अकारकार्हाणां चाकारकत्वे सप्तमी वक्तव्या | मूर्खष्वासीनेऽवृद्धा भुञ्जते । 
वृषलेष्वासीनेषु त्राह्मणास्तरन्ति ॥ 
तददिपयांसे च ॥ ५९ ॥ 
तद्िपयोसे च सप्तमी वक्तव्या | ऋद्धेष्वासीनेषु मूएवौ भुञ्जते | ब्राह्मणेष्वासी- 
15 नेषु वुषलास्नरन्ति | 
निभिसात्कमेसंयोगे ॥ ६ ॥ 
निमित्तात्करमसंयोगे सप्रमी वक्तव्या | 
चमेणि ीषिनं हन्ति दन्तयोहन्ति कुश्जरम्‌ । 
केदोषु चमरीं हन्ति सीन्नि पुष्करको हतः || 


90 यस्य च भवेन भावरुक्षणम्‌ ॥ २।२।२.५७ ॥ 


भावलक्षणे सप्तमीविधाने ऽभावलक्षण उपसंख्यानम्‌ ॥ १॥ 
भावलक्षणे सप्तमीविधाने भावलक्षण उपसंख्यानं करतव्यम्‌ । अभिषु हूयमानेषु 





पा० २.२.२६-४४,] ॥ व्याकरणप्रहाभाष्वम्‌ ॥ ४७५९ 


प्रस्थितो हृतेष्वागतः । गोषु दुद्चमानाद्ध प्रस्थितो दुग्धास्वागतः | किं पुनः कारणं 
न सिध्यति | रक्षणं हि नाम तद्भवति येन पुनः पुनलेशष्यते सकृथासौ कथंचिद- 
भिषु हयमानेषु प्रस्थितो हुतेष्वागतो गोषु दुद्यमानाद्ध प्रस्थितो दुग्धास्वागतः || 
सिद्धं तु भावप्रवृच्चौ यस्य भावारम्भवचनात्‌ ॥ २ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । यस्य भावप्रवृ्तौ हितीयो भाव आरभ्यते तत्र॒ सप्रमी 
वक्तव्या | विष्यति | वजरं तर भिश्ते || यथान्यासमेवास्तु । ननु चोक्तं भाव- 
लक्षणे सप्रमीविषाने ऽभावलक्षण उपसंख्यानमिति | वरैष दोषः | न खल्ववहयं 
तदेव लक्षणं भवति येन पुनः पुनरुश्यते । सकृदपि यत्धिमित्तस्वाय कल्पते तदपि 
लक्षणं भवति | तद्यथा । अपि भवान्कमण्डलुपाणि छ्लमद्राक्षीदिति । सकृदसौ 
कमण्डलुपाणिद्टग्ण त्रस्तस्य तदेव लक्षणं भवति ॥ 10 


॥ ~ 1 


पञ्चमी विभक्ते ॥ २।३।४२॥ 


इह कस्माच्च भवति । कृष्णा गवां संपतक्षीरतमेति | विभक्त इत्युच्यते न 
ैतहिभक्तम्‌ | विभक्तभेतत्‌ | गोभ्यः कृष्णा विभज्यते | विभक्तमेव यन्नित्यं तवर 
भवितव्यं न ॒चैतत्निस्यं विभक्तम्‌ | किं वक्तव्यमेतत्‌ | न हि । कथमनुच्य- 
मानं गंस्यते । विभक्त प्रहणसामथ्योत्‌ | यदि हि यदिभक्तं चाविभक्तं च तत्र स्या- 15 
हिभक्तमहणमनथेकं स्यात्‌ ॥ 


साधुनिपुणाभ्यामचायां सप्तम्यप्रतेः ।। २।२. । ४२. ॥ 


अप्रत्यादिभिरिति वक्तव्यम्‌ । इहापि यथा स्यात्‌ | सायुर्दवदन्तो मातरं परि | 
मातरमनु ॥ 


प्रसितोस्सुकराभ्यां तृतीया च ॥ २।२. । 9४ ॥ 20 


प्रसित ह्युच्यते कः प्रसितो नाम | यस्तत्र निस्य प्रतिबद्धः कुत एतत्‌ | 
सिनोतिरयं बधाव्यर्थ वतैते | बद्ध इवासौ तत्र भवति || 


# ६.४, ९०, 


४६० ॥ व्याकरनम्रहायाष्ययर ॥  [म० २.३.२. 


नक्षत्रे च ङ्पि॥ २।२। ४५॥ 


इह कस्मान्न मवति | अद्य पुष्वः| अशथ मघा इति | अधिकरण” इति वर्तते || 


इति श्रीभगवत्पतञ्जञरिविरचिते व्याकरणमहामाष्ये हितीयस्याध्यायस्य तृतीये 
पादे दितीयमादहिकम्‌ | 


* २.३. २३६. 





धा० २.२.४५-४६. ] ॥ व्याकरणप्रहाभष्यय ॥ ४६९ 


। 


परातिपदिकाथलिङ्खपरिमाणवचनमात्रे प्रथमा ॥ २।२.। ४६ ॥ 


प्रातिपदिकग्रहणं किमथेम्‌ । उचैः नीचैरित्यत्नापि यथा स्यात्‌ । करं पुनरत्र प्रथ- 
मया प्राथ्येते | पदत्वम्‌" । नैतदस्ति । षष्ठयात्र पदत्वं भविष्यति! || इदं तर्हि प्रयो- 
जनम्‌ | माम उचैस्ते स्वम्‌ | माम उचैस्तव स्वम्‌ | सपूवीयाः प्रथमाया विभषा 
| ८.१.२६ | इत्येष विधियेथा स्यात्‌ ॥ भथ लिङ्ग महणं किमथंम्‌ । खी पुमान्‌ $ 
नपुंसकमिस्यत्रापि यथा स्यात्‌ | त्ैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । एष एवात्र प्रातिपदिकार्थः || 
इदं तर्द । कमारी वृक्षः कुण्डमिति ॥ अथ परिमाणमरहणं किमर्थम्‌ । द्रोणः ` 
खारी आढकमि्यत्रापि यथा स्यात्‌ || भथ वचनमरहणं किमथम्‌ । इह समुदाये 
वाक्यपरिसमाग्निषेदयते । तद्यथा | गगौः रातं दण्डयन्तामिति | अर्थिनथ राजनि 
हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मिन्दुष्टान्ते यत्रैतानि समुदि- 10 
तानि भवन्ति तत्रैव स्यात्‌ | णः खारी भाढकमिति | इह न स्यात्‌ । कुमारी 
वृक्षः कुण्डमिति | त्ैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । प्रत्येकमपि वाक्यपरिसमामिदरयते | 
तद्यथा | वृद्धिगुणसंज्ञे परव्येकं भवतः || इदं तरि प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकस्वादिषु प्रथमा 
यथा स्यात्‌ | एकः हौ बहव इति || अथ मात्रमहणं किमथेम्‌ । एतन्मान्र एव 
प्रथमा यथा स्यात्कमारिविशिष्टे मा भूदिति । कटं करोति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । 15 
कमोदिषु हितीयाद्या विभक्तयस्ताः कमोदिविशिष्टे वाधिका भविष्यन्ति || अथ- 
वाचार्यभवृत्तिज्ापयति न कमीदिविशिष्टे प्रथमा भवतीति यदयं संबोधने प्रथमां 
शास्ति‡ । तैतदत्ति ज्ञापकम्‌ | अस्ति ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ | 
सामन्तरितम्‌ [ २.३.४८ | इति वक्ष्यामीति | यत्तर्दि योगविभागं करोति | इत- 
रथा हि संबोधन आमन्त्ितमिस्येव न्यात्‌ || इदं तदक्तेष्वप्येकस्वादिषु प्रथमा 20 
यथा स्यात्‌ | एकः दौ बहव हति | वचनग्रहणस्याप्येतसयोजनमुक्तम्‌ । भन्य- 
तरच्छक्यमकतुम्‌ || 

भरातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमतरे प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य 
उपसंख्यानमधिकत्वात्‌ ॥ ९ ॥ 

प्रातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमान्रे प्रथमालक्षणे पदसामानाधभिकरण्य उपसं- 25 

ख्यानं कर्तेव्थम्‌ | वीरः पुरुषः | किं पुनः कारणं न सिध्यति । अधिकत्वात्‌ | 


#* ९,४.९४. † २.२.५०. ‡ २,१.४०. 


४६० . ॥ व्याकरणप्रहाभाष्यय ॥ [मण २.२.२. 


नक्षत्रे च दपि ॥ २।२। ४५ ॥ 


इह कस्मान्न मवति । अद्य पुष्यः| अथ मघा इति | अधिकरण” इति वर्तते || 


इति श्रीभगवत्पतच्ञछिविरचिते व्याकरणमहामाप्ये द्वितीयस्याध्यायस्य तृतीये 
पादे द्वितीयमाह्निकम्‌ || 


+ २.३, २६. 


धा० २.२.४५-४६. ] ॥ व्याकरणपहामप्यिम्‌ ॥ ४६९ 


परातिपदिकाथलिङ्खपरिमाणवचनमातरे प्रथमा ॥ २।३.। ७६ ॥ 


प्रातिपदिकम्रहणं किमथेम्‌ । उच्चैः नीचैरित्यत्रापि यथा स्यात्‌ । किं पुनरत्र प्रथ- 
मया प्राथ्येते | पदस्वम्‌* | नैतदस्ति | षश्यात्र पदत्वं भविष्यति। || हदं तर्द प्रयो- 
जनम्‌ । भ्राम उचैस्ते स्वम्‌ | साम उचचैस्तव स्वम्‌ | सपूत्रीयाः प्रथमाया विमाषा 
[ ८.१.२६ | इव्येष विधिर्यथा स्यात्‌ ॥ भथ लिङ्ग परहणं किमर्थम्‌ । खी पुमान्‌ ४ 
नपुंसकमित्यत्र परि यथा स्यात्‌ । तैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । एष एवात्र प्रातिपदिकाथेः || 
इदं तर्दि । कुमारी वृक्षः कुण्डमिति ॥ अथ परिमाणमहणं किमर्थम्‌ | दोणः 
खारी भआढकमिस्यत्रापि यथा स्यात्‌ || भथ वचनमरहणं किमथेम्‌ | इह समुदाये 
वाक्यपरिसमाप्निदेरयते । तद्यथा | गगौः रातं दण्डयन्तामिति | अर्थिनश्च राजानो 
हिरण्येन भवन्ति न च प्रत्येकं दण्डयन्ति | सत्येतस्मिन्दुष्टान्ते यत्रैतानि समुदि- 10 
तानि भवन्ति तत्रैव स्यात्‌ | णः खारी आढकमिति । इह न स्यात्‌ | कुमारी 
वृक्षः कुण्डमिति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । प्रत्येकमपि वाक्यपरिसमापनिरदैदयते | 
तद्यथा | वृद्धिगुणसंज्ञे प्रस्येकं भवतः || इदं तर्हि प्रयोजनमुक्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा 
यथा स्यात्‌ | एकः हौ बहव इति || अथ मात्रमरहणं किमथेम्‌ | एतन्मान्न एव 
प्रथमा यथा स्यात्कमारिविरिष्टे मा भूदिति | कटं करोति ॥ नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ | 15 
कमोदिषु हितीयाद्या विभक्तयस्ताः कमोदिविरिष्टे बाधिका भविष्यन्ति || भथ- 
वाचार्यभवृत्तिर्वापयति न कमीदिविरशिष्टे प्रथमा भवतीति यदयं संबोधने प्रथमां 
शास्ति‡ । तैत्ति ज्ञापकम्‌ | असि ह्यन्यदेतस्य वचने प्रयोजनम्‌ । किम्‌ 
सामन्तम्‌ [ २.३.४८ | इति वक्ष्यामीति | यत्तर्हि योगविभागं करोति । इत- 
रथा हि संबोधन आमन्तरितमित्येव ब्रुयात्‌ || इदं तश्क्तेष्वप्येकत्वादिषु प्रथमा 20 
यथा स्यात्‌ | एकः डौ बहव इति | वचनमहणस्याप्येतखयोजनमुक्तम्‌ । अन्य- 
तरच्छक्यमकतुम्‌ || 

भरातिपदिकाथलिङ्गपरिमाणवचनमव्रे प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य 
उपसंख्यानमधिकत्वात्‌ ॥ ९ ॥ 

प्रातिपदिकाथेलिङ्गपरिमाणवचनमाने प्रथमालक्षणे पदसामानाधिकरण्य उपसं- 25 

ख्यानं कतेव्यम्‌ | वीरः पुरूषः | किं पुनः कारणं न सिध्यति । अधिकत्वात्‌ | 


#* ९,४.९४. † २,३.५०. ‡ २.२.४०, 





४६२ ॥ व्याकरनप्रहामाध्यम्‌ ॥  [म०२.३.३. 


व्यतिरिक्तः प्रातिपरिका्थ इति कृत्वा प्रथमा न प्राप्रोति । कथं व्यतिरिक्तः | 
पुरषे वीरत्वम्‌ ॥ 


न वा वाक्यथिस्वात्‌ ॥ २॥ 


न वा वक्तत्यम्‌ | किं कारणम्‌ | वाक्यार्थत्वात्‌ । यदत्राधिक्यै वाक्यायेः 
४सः || 


कथवामिहिति प्रथमेस्येत्लक्षण करिष्यते | 
अभिहितलक्षणायामनभिरिते प्रथमाविधिः ।। ३ ॥। 
अभिदहितलक्षणायामनमिहिते प्रथमा विषेया | वृत्तः अक्षि इति ॥ 
उक्वा॥ ४ ॥ 


10 किमुक्तम्‌। अस्तिभैवन्तीपरः प्रथ मपुरषोऽपयुज्यमानोऽप्यस्तीति* । वृक्षः क्षः | 
भस्तीति गम्यते | 


अभिहितानभिहिते प्रयमाभावः ॥ ९॥ 


अभिहितानभिहिते प्रथमा प्रामोति । क | प्रासाद आस्ते | शयन भास्ते | सदि- 
भस्ययेनामिहितमधिकरणमिति। कृस्ा प्रथमा प्रामोति || एवं तर्हि तिङ भानाधि- 
15 करणे प्रथमेस्येवयक्षणं करिष्यते । 


तिङ्कुमानाधिकरण इति चेत्तिढोऽपयोगे प्रथमाविधिः ॥ & ॥ 
तिङ्कमानाधिकरण इति चे्तिङोऽयोगे प्रथमा विधेया । वृत्तः क्त इति || 


उक्तै पूर्वेण ॥ ७ ॥ 
किमुक्तम्‌ । असितर्मवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽयुज्यमानोऽप्यस्तीति । वृक्षः अर्षः | 
20 अस्तीति गम्यते ॥ | 
दातृशानथोश्च निमित्भावासिक्छोऽभावस्तयोरपवादत्वात्‌ ।॥ ८ ॥ 


इातृशानचोच निमित्तभावानिजोऽभावः |. क | पचत्योदनं देवदत्त इति | किं 
कारणम्‌ । तयोरपवादस्वात्‌ । शतृशानचोः तिर्पवादौ तौ चात्र वाधकौ न काप- 


@ द.,३, ९४, † ३.३. ६९. ‡ ३.२. ९२४. 





पा० २.३.५०. ॥ व्याङरनप्रहाभाष्यय्‌ ॥ ४६३ 


वादविषय उत्सर्गोऽमिनिविशाते | पूर्वै शयपवादा अभिनिविजशान्ते पथा दुत्सगीः । 
प्रकल्प्य वापवादविषयं तत उत्सर्गोऽभिनिविरहाते | तच्च तावदत्र कशाचिसिडादेश्षो 
भवत्यपवादौ तावच्छतृशानचैौ प्रतीक्षते || पाक्षिक एष रोषः । कतरस्मिन्यकषे । 
दातृशानचेो्ैतं भवति । शप्रथमा वा विधिनाश्रीयते प्रथमा वा प्रतिषेधेनेति | 
विभक्तिनियमे चापि हैतं भवति | विभक्तिनियमो वा स्यादर्थनियमो वेति | तद्यदा 5 
तावदथेनियमो पथमा च विधिनाश्रीयते तदैष दोषो भवति | यदा हि विभक्ति- 
नियमो यथेवाप्रथमा विधिनाश्रीयते ऽथापि प्रथमा प्रतिषेधेन न तदा दोषो भवति | 


षष्ठी रेषे ॥ २।२।५०॥ 


शोष इत्युध्यते कः शोषो नाम| कमोदिभ्यो येञ््येऽथौः ख शेषः | येवं 
दोषो न प्रकल्पते | न हि कमोदिभ्यो ज््येऽथीः सन्ति | इह तावद्राञ्जः पुरुष इति 10 
राजा कती पुरुषः संप्रदानम्‌ । वृक्षस्य शाखेति वृक्षः शाखाया अधिकरणम्‌ | 
तथा यदेतर्स्वं नाम चतुर्भिरेतस्रकारैमैवति क्रयणादपहरणाद्याञ्चाया विनिमयादिति | 
भत्र च सर्वत्र कमौदयः सन्ति ॥ एवं तर्हि कर्मादीनामविवक्षा शोषः | कथं पुनः 
सतो नामाधिवक्षा स्यात्‌ । सतोऽप्यविवक्षा भवति | तयथा | भलोमिकैडका | 
भनुदरा कन्येति । भसत विवक्षा भवति | समुद्रः कुण्डिका | विन्ध्यो वर्धित- 15 
कमिति ॥ 

किमे पुनः होषग्रहणम्‌ । 


भत्ययावधारणाच्छेषवयनम्‌ ॥ ९ ॥ 


परस्ययावधारणाच्छेषम्रहणं कतैष्यम्‌ । प्रत्यया नियता भर्या अनियतास्तत्र षष्ठी 
प्रामोति | तच्र दोषम्रहणं कर्तव्यं शद्टीनिय मार्थम्‌ | शेष एव षष्टी भवति नान्य- 20 
तेति ॥ | 


अ्थावधारणाद्वा ॥ २ ॥ 


भथवाथौ नियताः प्रत्यया भनियतास्ते दोषेऽपि प्रापुवन्ति | तत्र शेषग्रहणं 
कतेव्यं शेषनियमार्थम्‌ । शेषे षष्ठधेव भवति नान्या इति || भथनियमे रोषप्रहणं 
राक्यमकतुम्‌ । कथम्‌ । भथ नियताः प्रस्यया भनियताः । ततो वष््यामि षष्ठी 25 


७६४. 1 व्याकरणवहापाष्यय्‌ ॥ ` ` [भ९.२.३.२. 


भवतीति | तन्नियमार्थे भविष्यति | यत्र षक्षी चान्या च प्रामोति षष्ठ्येव तन्न 
भवतीति || 
घष्ठी हैष इति चेदिरोष्यस्य प्रतिषेधः ।। ३ ॥ 
धश्री देष इति चेदिशोष्यस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | रो्तः पुरुष हत्यत्र राजा 
¢ विशिषणं पुरुषो विष्यः । तत्र प्रातिपदिकार्थो व्यतिरिक्तं इति कृत्वा प्रथमा" 
न प्राप्रोति | तत्र षष्ठी स्यात्तस्याः प्रतिषेधो बक्तव्यः ॥ 
तत्र प्रथमाविधिः ॥ ४ ॥ 
तत्र षष्ठीं प्रतिषिध्य प्रथमा विषेया | राज्ञः पुरुष इति ॥ 
उक्तं पूर्वेण ॥ ९॥ 

10 क्ेमुक्तम्‌ | न वा वाक्याथेत्वादिति। | यदत्राधिक्यं वाक्याथैः सः | कुतो 
नु खल्येतस्पुरुषे यदाभिक्यं स वाक्याथ इति न पुना राजनि यदापिक्य॑स 
वाक्यायेः स्यात्‌ । भन्तरेणापि पुरुषशब्दप्रयोगं राजनि सोर्थो गम्यते न पुन- 
रन्तरेण राजशाब्दप्रयोगं पुरुषे सोऽर्थ गम्यते | अस्ति कारणं येनैतदेवं भवति | 
किं कारणम्‌ । राजशष्दादधि मव्रान्पक्षीमु्ारयति । अङ्ग हि भवान्पुरुषराब्दा - 

15 दप्यु्ारयतु गंस्यते सोऽथैः |¦ ननु च तरैतेनैवं भवितव्यम्‌ | न हि शष्दङृतेन 
नामार्थेन भवितव्यम्‌ । अथेङृतेन नाम राब्देन भवितव्यम्‌ । तदेतदेवं दृदयतामर्थ - 
रूपमेवेतदेवंजातीयकं येनालान्तरेणापि पुरषशब्दप्रयोगं राजनि सोऽर्थो गम्यते | 
कि पुनस्तत्‌ | स्वामित्वम्‌ । किंकृतै पुनस्तत्‌ । स्वकृतम्‌ । तद्यथा । प्रतिपदिका- 
थानां क्रियाकृता विशेषा उपजायन्ते तत्कृताथाख्याः प्रादुर्भवन्ति क्म करण- 

20 मपादानं संप्ररानमधिकरणमिति । ताश पन्धिभक्तीनामुत्पततौ क दाचिन्निमित्तत्वेनो- 
पादी यन्ते कदाचिन्न | कदा च विभक्तीनामुखन्तौ निमित्तत्वेनोपादीयन्ते | यदा 
व्यभिचरन्ति प्रातिपदिकाथेम्‌ | यदा हिन व्यभिचरन्त्याख्याभूता-एव तदा भव- 
न्ति क्म करणमपादानं सं्रदानमधिकरणमिति || यथैव तर्द राजनि स्वकृतं 
स्वामित्वं तत्र. ष्येवं पुरुषेऽपि स्वामिकृतं स्वत्वं तत्र षष्ठी प्रामोति । राजङाब्दा- 

25 दुत्पश्चमानया षश्याभिहितः सोऽथे इति कृत्वा ` पुरुषशचब्दात्व्ठी न भविभ्यति || न 
तर्शदानीमिदं भवति, पुरुषस्य राजेति । भवति रा्रराब्दा्त तदा प्रथमा ।| न तर्ी- 
दानीमिदं भवति राज्ञः पुरुषस्येति । भवति बाद्यमथेममिसमीक्ष्य ॥। 


# २.२३. ४६ , ` † २.१. ४६१ 


पा० २.३.५३ -५४.| ॥ व्याकरगप्रहाभाष्यय्‌ ॥ ४६५ 


अधीगथदयेरां. कमणि ॥ २ ।२। ५२ ॥ 


क्मादिष्वकमंकवदइवनम्‌ ॥ ९ ॥ 

कभादिष्वकंमेकवद्धावो वक्तव्यः | किं प्रयोजनम्‌ | अकर्मकाणां भवे जो 
भवतीति* भावे लो यथा स्यात्‌ | मातुः स्मर्यते । पितुः स्मर्यते || अथ वत्करणं 
किमर्थम्‌ । स्वाभ्रयमपि यथा स्यात्‌ | माता स्मयते | विता स्मर्यत हति" || 5 

कमोभिधाने हि लिङ्गवचनानुपपत्तिः | २॥ 

कमौभिषनि हि सति लिङ्गव चनयोरनुषप्तिः स्यात्‌ । मातुः स्मृतम्‌ । मात्रोः 

स्मृतम्‌ । मातृणां स्मृतमिति । मातुयेि ङ्गं वचनं च तर्स्मृतञ्षब्दस्यावि प्रामोति ॥ 
षष्ठीप्रसङ्गश्व ॥ ३ ॥ 

षधी च प्राभरोति | कुतः । स्मृनशश्दात्‌ | मतुः सामानाधिकरण्यास्ष्षी 10 
परामोति ॥ | | 

अपर आह | षष्ठीप्रसङ्गथ । षष्ठी च प्रसङ्ष्या । कुतः | मातृ शब्दात्‌ । स्मृत- 
शब्देनाभिहितं कर्मेति कृत्वा षष्ठी न प्रापोति ॥ 

त्तरं वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ । अविवकिते कर्मणि ष्ठी भवति । कि वक्त- 
व्यभेतत्‌ । न हि । कथमनुष्यमानं गंस्यते | होष† इति वर्तते | होषध कः | 1४ 
कमोदीनामविवल्ता शोषः | यदा कमे विवक्षितं भवति तदा षी न भवति | 
वथथा । स्मराम्यहं मातरम्‌ । स्मरास्यहं पितरमिति ॥ 


रजाथानां भाववचनानामज्वरेः ॥ २।२।५४ ॥ 


भज्वरिसंताप्योरिति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । चौरं संतापयति | 
शुषे संतापयति ॥ भय किमथे भाववचनानामिस्युस्यते यावता रुजाथौ भाव- 20 
वचना एव भवन्ति | भावकर्वृकाथथा स्यात्‌ । इह मा भूत्‌ | नदी कूलानि, 
रुजतीति | 


9 ३.४.६२, † २,२०५०. 
99 ॐ 








, \ > ॥ न्काकरनकहाभाच्यय्‌ ॥ ` | [म ०३.३.३. 


. द्वितीया ब्राह्मणे ॥ २।.२३।४० ॥ 


किमुदाहरणम्‌ } गँ घ्रन्ति गां प्रदीष्यन्ति गां सभासश्य उपहरन्ति | तैतदस्ति । 
पर्वेणाप्येतस्सिद्धम्‌ ॥ .इदं तर्दि । गामस्य तदहः समायां दीव्येयुः ॥ 


। ्र््गोहिषो देवतासंप्रदाने ॥ २।२ । ६९ । । 


5 . . हविषो प्रस्थितस्य ॥ ९ ॥ 


हविषो ऽप्रस्थितस्वेति यक्व्यम्‌ । इन्द्राभिभ्यां शग हविवेषां मेदः प्रस्थितं 
प्रेष्य ॥ 


चतुथ्यंथं बहुलं छन्दसि ॥ २।२३.। ६२ ॥ 
वष्टघर्थे ` चतुर्थीवचमेम्‌ । ९ ॥ 

10 व्यथं अतुर्थी वक्कव्वा | या खर्वेण पिबति तस्थै खर्वसिखो रात्रीः । तस्या 
हति भाप । यस्ततो जायते सोऽभिशस्तो यामरण्ये तस्थै स्तेनो यां पराचीं तस्यै 
्तमुद््यपगल्भो या लाति तस्या अण्ड मारुको याभ्यङ्के तस्थै दुमा यो ` ्रलि- 
ते बस्मै खलतिरपमारी याङ्के तस्यै काणो या दतो 'धाधते तस्तै इवावदम्या 
गखानि निङृन्तते तस्थै कुनखी या कृणत्ति तस्थै क्वीवो या र्सु सृजति तस्वा 

1; उद्न्धुको या पर्णेन पिबति तस्या उन्मादुको जायते । भडल्यात्ै जार | मनाश्यै 


तन्तुः || लता वक्तव्यम्‌ | न॒ वक्तव्यम्‌ | योगविभागास्तिडम्‌ । चतुर्थी । 
ततो अय बहलं छन्दसीति ॥ 


कतृकमेणोः कृति ॥ २ ।२.। ६५९ ॥ 


कृङहणं किमर्थम्‌ । इद मा भुत्‌ | पचत्योदनं देवदत इति । 


= भ 


# २, ३, ५९ 





कौ० २,३.६०-६५| ॥ स्वाकरणमेराभाष्व्‌ ॥ ॥।॥ 


करवैकर्मणोः बष्ठीविधाने कृद्रहणानर्थक्यं परतिषेधात्‌ ॥ ९ ॥ 

करतृकमेणोः ष्ठीविधाने ईद्रहणमनथंकम्‌ । किं कारणम्‌ । प्रतिषेधात्‌ । 
प्रतिषिध्यते तत्र षष्ठी ठप्रयोगे नेति || 
तस्य कर्मकरे तर्हिं कृद्रहणं कतैव्यम्‌ | कतो ये कर्तृकर्मणी तत्र॒ यथा 
स्यादन्यस्य ये कर्तृकमेणी तत्र मा भूरिति | नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । धातोर्हिं इथे £ 
मस्यया विधीयन्ते तिङ कृतथ | तत्र कृखयोग इष्यते तिङ्योगे प्रतिषिध्यते || 
न ब्रूम हहा तस्व कर्मकैथे कद्रहणं कतैव्यमिति । कि तर्द । उत्तरार्थम्‌ | 
भष्ययप्रयोगे नेति पश्याः प्रतिषेधं वक्ष्यति स कृतो ऽव्ययस्य ये कतकमेणी तत्र 
यथा स्यादकृतो ऽ्ययस्य ये कतक्मैणी तत्र मा भूदिति | उश्चैः कटानां लेति । 

तस्य कमंकर््रै्थमिति चेत्पतिषेभेऽपि तदन्तकर्मकर्तैस्वास्सिद्धम्‌ । ९ ।| 10 

कृत एते कर्तृकमेणी नाव्ययस्य | भधिकरणमत्राव्ययम्‌ ॥ 

इदं तर्हि भरयोजनम्‌ | उभयप्राप्री कर्मणि पषठधाः प्रतिषेधं वश्यति। ख हृतौ 
ये कतृकर्मैेणी तन्न यथा स्याक्कृतोर्ये करतकर्मणी तत्र मा भूदिति । आधर्यैमिदं 
वृत्तमोदनस्य च नाम पाको ब्राह्मणानां च प्रादुभोव हति | भय क्रियमाणे अपि 
कृद्हणे कस्मादेवात्र न भवति । उभयप्राप्रातिति वैवं विजायत उभयोः प्राप्निसभय- 15 
्रात्निः उभयपराप्राविति | कथं तर्द | उभयोः . परापरिर्यस्मिन्कृति सोऽयमुभयमामिः 
कृत्‌ उमयपराप्ताविति ॥| | 

अथवा कृतो येः कतृकमेणी. तत्र यथा स्या्तदधितस्य ये . कवैकमेणी- तत्र मां 
भूदिति । कृतपूर्वी कटम्‌ । भुक्छपूर्व्योदनमिति{ ॥ ननु च वाक्येत्ैत्रानेन न भवि- 
तव्यम्‌ । हितीयवा तावच्च भवितव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । क्तेनामिहितं कर्मेति 2 
कृत्वा | हनिप्ररययेन चापि नोस्पन्तव्यम्‌ । किं कारणम्‌ | भसामथ्यौत्‌ | कथमतसाम- 
थ्येम्‌ । सापिक्षमसमथे भवतीति ।| क्ताषदुस्मते दिती यया तावच्च भवितव्यम्‌ किं 
कारणम्‌ केनाभिहितं कर्मेति कृत्वेति । योऽतौ कतकटयोरभिसंबम्धः स उत्पन्न 
भरस्थवे निवतैते । भस्ति च करोतेः कटेन सामभ्यैमिति कस्वा हितीया भरिष्यति | 
थरप्युष्वत हनिपरत्ययेन चापि नोस्पन्तव्यम्‌ किं कारणम्‌ असामर्ध्यात्‌ कथमसाम- ४ 
थ्यैम्‌ सापक्षमसमयै भवतीति | नेदमुभयं युगपञ्जवति वाक्यं च प्रस्ययथ | बदा 
जाक्वं न तदा परस्ययः | बद भस्ययः सामान्येन तंदा बुिस्तंज्रावरयं विश्ेषार्थिया 


+ वो = 


# २.३. ६९ † २.१. ६६ { ५.२. ८५ 


७६९ ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ `  -[म०२.३.३. 
विरोषोलुप्रयोक्तव्यः | कृतपूर्वी । कम्‌ । कटम्‌ । भुक्त पूर्वी । किम्‌ । भदन- 
मिति ॥ ` 


अथवेदं प्रयोजनं कर्तभूतपर्वेमात्रादपि षष्ठी यथा स्यात्‌ । भेदिका" देवदत्तस्व 
यज्ञदत्तस्य काष्ठानामिति ॥ 


५ उभयप्राप्तौ कमणि ॥ २,। २. । ६६ ॥ 


उभया कर्मणि षष्ठयाः प्रतिषेधे ऽकादि पयोगे ऽपतिषेधः ॥ ९ ॥ 
उभयप्राप्तौ कर्मणि षष्याः प्रतिषेधे ऽकादिप्रयोगे प्रतिषेषो न भवतीति वक्त 
ध्वम्‌ | भेदिका देवदत्तस्य काष्ठानाम्‌ । विकीषो विष्णुमित्रस्य कटस्य || 
कपर आष । अकाकारयोः प्रयोगे प्रतिषेधो नेति वक्तव्यं शोषे विभाषा । 
10 शोभना खलु पाणिनेः दज्रस्य कृतिः | शोभना खलु पाणिनिना त्रस्य कृतिः । 
शोभना खलु दाक्षायणस्य संग्रहस्य कृतिः | शोभना खलु राक्षायणेन संभ 
हस्य कृतिरिति ॥ 


त्तस्य च वतमाने ॥ २।२. । ६.७ ॥ 


क्तस्य च वतेभाने नपुंसके भाव उपसंख्यानम्‌ ॥ ९. ॥ 

15 क्तस्य च यतेमाने नपुंसके भाव उपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | शज्नत्य हसितम्‌ | 

. नटस्य भुक्तम्‌ । मयूरस्य नृत्तम्‌ । कोकिलस्य ध्याहतमिति ॥ 

रोषविज्ञानास्सिडम्‌ ॥ २ ॥ 

शोश्लक्षणात्र षष्ठी ‡ भषिष्यति । हेष हद्युष्यते कथ शोषः | कमीदीनामविवक्षा 
दोषः | कथं पुनः सतो नामाविवल्ता स्याद्यदा शन्नो हसति नटो भुङ्ख मुरो 
0 नृत्यति कोकिलो भ्यादरति । सतोऽप्यविवक्षा भवति | तद्यथा । अलेोमिकैडका | 
अनुदरा कन्येति । भसतच विषक्ता | समुद्रः कुण्डिका । विन्ध्यो वर्पितकमिति ॥! 
यथेवमुलरत्र चातुःशान्दं प्रामोति । इदमहेः सृप्तम्‌ । इदाहिना सृतम्‌ । इदहाहिः 
सृप्र: । इहादेः सूपं मामस्य पार्थे मामस्व मध्व इति । इष्यत एव चातुः ग्यम्‌ ॥ 


[4 


= ३.३.९९९. † ६.१.९९४. {२.१.५० §२.१.९८. ¶ृ २.५.०६. 


षा° २.६.६१ -९९.] ॥ व्याकरगपरद्यभाच्यन ॥ ४.६९, 


न कोकाव्ययनिष्ठाखल्यैतृनाम्‌ ॥ २ ।२ । 8९, ॥ 


` लादेदो सदिङ्हणं किकिनोः प्रतिषेधार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
` लादेशे सलिङ्हणे कैष्वम्‌ । सक्तिटोः प्रयोगे नेति वक्तव्यम्‌ । किं प्रयोज- . 
नम्‌ | किकिनोः प्रतिषेधार्थम्‌ | किकिनोरपि प्रयोगे प्रतिषेष यथा स्यात्‌ | पपिः 
सोम॑ दरिगौः || किं पूनः कारणं न सिध्यति । 5 
तयोरकदिशस्वात्‌ ॥ २ ॥ 

नहि तौ लादेकौ || अथ ती रादेदी स्यातां स्यात्मतिषेधः | वाढं स्यात्‌ | 
लादेक्लौ तरि भविष्यतः । तत्कथम्‌ । आ दृगमहनजनः किक्किग लिट [३.२.९७९] 
इति लिङ्कदिति वक्यामि । स वर्हि वतिनिर्देशः कर्तव्यो न शन्तरेग वतिमतिदेशो 
गम्यते | अन्तरेणापि वतिमतिदेशो गम्यते | वथथा | एष ब्रह्मरस्तः | अब्रह्म 10 
दत्तं ब्रह्मदत्त इत्याह ते मन्यामहे ब्रह्मदत्तवदयं भवतीति । एवमिशष्यकिरं लि- 
डिस्याह लि ङदिति विज्ञास्यते || 
 डकारप्रयोगे नेति वक्तव्यम्‌ । कट चिकीर्षुः । ओदनं बुमुलुः | त्ता ष- 
तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | डकारोऽप्यत्र निर्दिदयते । कथम्‌ । प्रिष्टनिर्देशोऽयम्‌ | 
ख उक ऊक ल ऊक लोकेति ॥ 15 

उकमरतिषेधे कमेभाषायामपरतिषेधः ॥ ३ ॥ 

उकमरतिवेषे कमेर्माषायां प्रतिषेधो न भवतीति वक्तव्यम्‌ । दास्याः कामुकः | 

वृषल्याः कामुकः || । 
| अबष्ययपतिषेधे तोसुन्कसुमोरमतिषेधः ॥ ४ ॥ 

अष्ययप्रतिषेषे तोद्धन्कद्धनोः प्रतिषेधो न भवतीति वक्तव्यम्‌ | पुरा वर्यस्योदे- 20 

तोराधेयः । पुरा वत्सानामपाकर्तोः | पुरा क्रूरस्य विसृपो विरण्डिन्‌ || 
` ` शानंश्वानरदातृणामुपसंस्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 

शानथानरदातृणामुपसंख्यानं कर्वेव्यम्‌ । सोमं पवमानः । नडमान्नानः ¡ भ- ` 

धीयन्पारायणम्‌ । लप्रयोगे नेति प्रतिषेधो न प्राभोति | मा भूदेवं तनिस्येवं भवि- 


# ६.२. ९१.८-९६६०. ` 





 , ॥''ध्यादरनयहाभाच्यय ॥ ` ` [१०२३३ 
भ्वति | कर्थेम्‌ | तृनिति नेदं परस्यंयपदणम्‌ । कं ताह । भरत्याहारप्रहणम्‌ | क 
संनिविष्टानां प्रस्याहारः 1 लटः शाजिस्यतः भरमृस्या वृनो नकारात्‌” 1 ` वदि भरस्था- 
हार्हणं चौरस्य द्विषन्‌ वृषस्य (हिषन्‌ अतापि प्रामोति† । | 
| | दविषः दातुवावयमम्‌ || ६ ॥ | 
5 ` हिषः हातुर्येति वक्तव्यम्‌ | तथ्चावदयै वक्ष्य प्रत्ववमहणे सति परतिकेषावेम्‌ | 
सदेव प्रस्याहार प्रहणे सति विध्यथे भविष्वति ॥ 


अकेनोभैविष्यदाधमर्ण्ययोः ॥ २।२ 1७9० ॥ 


अकस्य भविष्यति ॥ ९ ॥। 
अकस्य भविष्यतीति वच्छव्यम्‌ | यर्वाँद्यावको त्र जति । ओदनं भोजको व्रजति | 
10 सच्छून्पायको व्रजतिः | 
इन आधमर्ण्ये च ॥ २॥ 


तत हन आधमर्ण्ये च भविष्यति चेति बच्छव्यम्‌ । शातं दाची । सदलं शायीऽ। 
भामं ममी ॥ 


कृत्यानां कतरि वा ॥ २ । २३. । ७१ ॥ 


15 कतम्रहणं किमर्थम्‌ | कर्मणि मा भूरिति । त्रैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । भावकर्मणोः 
कृस्या विधीयन्ते** तत्र कृत्यैरभिहितस्वात्कर्मणि ष्ठी न भविष्वति ॥ अत उत्तर 
पठति | 


भव्यादीनां कर्मणोऽनभिधानास्कृस्यानां कतग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 
भव्यादीनां।1† कम कत्यैरनभिहितम्‌ । गेयो माणवकः सान्नाम्‌ | मध्वादीनां 
20 कसेणो नभिधानास्कृस्यानां कतम्रहणं क्रियते || किमुख्यते मन्वादीनां कमे कस्मै 
रनभिहितमिति । नेहाप्यनमिहितं भवति | आक्रषटव्या मामं दाखेति | एवं तह 


१ ३.२. ६२४-१६५. † ३.३.६३६. { ३.३.९०. § ३.३.६५०. ¶ २.३.६. 
9 ह.४. %%, + †† र. ४.८ 





पार २.६.७०-०१. |] + व्याकरनयमहममाप्वम्‌ ॥ ७,७. 


योगविभागः करिष्यते । कृस्यानां प्रयोगे बक्षी न भवकीति-। किमुदाहरणम्‌ | 
माममाक्रव्या हाला । वतः कतरि वेति ॥| इहापि तर्हि भ्रामोति | गेयो माणक्कः 
सान्नाभिति । उभवपराप्नाविति बतेते } ननु चोभयप्राप्निरेषा | गेयो माणवकः 
साघ्नामिति च गेयानि. माणवकेन सामानीति च भवति | उभयपाभिनीम खा भवति 
यन्रोभयस्व युगपत्मसङ्गोऽत्र च यदा कर्मणि नं तदा कतैरि यदा करतैरि न तदा 5 
कर्मणीति ॥ ॑ 


इति आओमगवस्यतश्जलिविरथिते ्याकरणमहामाप्ये दितीयस्याध्याथस्य तीये . 
पादे त॒तीयमाह्धिकरम्‌ ॥ पादथ चमार ॥ 





* २, ३. ६६, 





द्विगुरेकवचनम्‌ ॥ २। ७।२.॥ 


किभयेमिदमुच्यते | 
परत्याधिकरणं वचनोत्पनेः संख्यासामानाधिकरण्याथ दिगीरेकवचनवि- 
धानम्‌ | ९ ॥ | 
5 प्रत्यधिकरणं षचनोत्प्तिभेवति । किमिदं प्रस्यधिकरणामिति | भषिकरणम- 
धिकरण प्रति भस्यधिकरणम्‌ । संख्यासामानाधिकरण्या्च | संख्यया बहयथेया 
चास्य सामानाधिकरण्यम्‌ | प्रत्यधिकरणं वचनोस्पत्तेः संख्यासामानधिकरण्वा्च 
बहुषु बहुवचनम्‌ [ ९,४.२९ | इति बहुवचनं प्राभोति । इष्यते चैकवचनं स्वादिति 
तच्चान्तरेण यलं न सिध्यतीति द्िगोरेकवचनविधानम्‌ | एवमथमिदमुष्यते || अस्ति 
10 प्रयोजनमेतत्‌ । किं तर्हीति । 
तत्रानुप्रयोगस्यैकवथनाभावोऽ्िगुस्वात्‌ ॥ २॥ 
ततरानुप्रयोगस्थैकवचनं न प्राभोति | पत्चपूलीयमिति । किं कारणम्‌ । भदि- 
गुस्वात्‌ । डिगोरेकवचनाभिर्युच्यते न चात्रानुप्रयोगो हिगुसंश्ः ॥ 
सिद्धं तु दिग्वर्थस्यैकवदहथनात्‌ ।। ३ ॥ 

15 सिङमेतत्‌ । कथम्‌ | हिग्व्ं एकवद्वतीति वक्तव्यम्‌ || ततां वक्तव्यम्‌ । 
न वक्तव्यम्‌ । नेदं पारिभाषिकस्य वचनस्य गहणम्‌ । किं तर्हि । अन्वथेम्रहणम्‌ । 
उच्यते वचनम्‌ एकस्याथेस्य वचनमेकवचनमिति ॥ 

एकथेषपरतिषेधश्च ।। ४ ॥ 
एकरोषस्य च प्रतिषेधो वक्तव्यः | पपी च पञ्चपूली च पञ्पुली च 
20 पन्वपुल्यः ॥ 
न वान्यस्थानेकस्वात्‌ ॥ ५ ॥ 
न वा बक्तव्यः | कविं कारणम्‌ | अन्यस्यानेकस्वात्‌ | वरैतद्िगोरमेकत्वम्‌ । 
कस्य तरि | दिग्वयसमुदायस्व | । 


पा० २,४.९२ .| ॥ व्याकरणयहा्भाष्यम्‌ ॥ [ ४.७१ 


समाहारग्रहणं च तदधितार्थप्रतिषेधार्थम्‌ ॥ ६ ॥ 


समाहारमहणं च कर्तैष्यम्‌ | किं प्रयोजनम्‌ । तदधिताथेप्रतिषेधाथम्‌ | तदितार्थ 
यो हिगुस्तस्व मा भूदिति । पश्बकपाठी पञ्चकपाला हति" ॥ किं पुनरयं पञ्च- 
कपालशम्दः प्रस्थेकं परिसमाप्यत भमहोस्वित्छमुदाये वतेते । किं धातः |. यदि 
तावलस्थेकं परिसमाप्यते पुरस्तादेव चोदितं परिहतं च । अथ समुदाये वतेते । & 

न वा समाहारैकस्वात्‌ ॥ ७ ॥ 

न तैतत्समाहारै कस्मादपि सिध्यति | एवं तर्हिं भस्येक्ं प्रिषमाप्वते | पुरस्ता- 
देव चोदितं परितं च ॥ | 

अपर आह | न वा समाहारैकल्वात्‌ | न वा योगारम्भेभैवायेः | किं कारणम्‌ । 
समादारैकत्वात्‌ । एकोऽवमर्थः समाहारो नाम तस्मैकस्वादेकवचनं भविभ्वति | 10. 


दन्द्रश्च प्राणितूयेसेनाङ्गानाम्‌ ॥ २।४७।२॥. 


प्राणिसू्यसेनाद्भानां तव्परवैपदोलरपदग्रहणम्‌ ॥ ९ ॥ 

प्राणितूयैसेनाङ्गानां तदपूवेपदोत्तरपदहणं कतैव्यम्‌ । प्राण्यङ्गानां पराण्वद्गैरिति 
वक्तव्यम्‌ । तुवाङ्गमां तु्याद्धैः | सेनाङ्गानां सेमाङ्गैरिति । किं प्रयोजनम्‌ | ध्य- 
तिकरो मा भूरिति ॥ तत्तर्हि बक्तव्वम्‌ । न वक्तब्बम्‌ । ` 1४ 

योगविभागास्सिदडम्‌ ॥ २॥ . 

योगविभागः करिष्यते | इन्द प्राण्यङ्गानाम्‌ । ततस्तुवोङ्गानाम्‌ । ततः सेना- 
ङ्गानामिति ॥ स तर्द योगविभागः कर्तव्यः | न कर्तव्यः | परस्येकमङ्गशम्दः 
परिलमाप्यते ॥ ` 


अनुबाद चरणागम्‌ ॥ २।४७।२॥ 


इद कस्मान्न भवति | नन्दन्तु कठकालापाः । वर्षन्तं कठकौशुमाः । 





@ ४.२, ९६; ४.९. ८८, 
60 ० 


| + , 1 ॥ ष्वाकरभेबहाभाष्यमः ॥ | [भट २.४.१९. 


स्थेणोः ॥ ९ ॥ 
स्येणोरिति व्कव्यम्‌ | एवमपि तिष्ठन्तु कठकालापा इस्यत्रापि प्रामोति। 
अवतन्यां च | > ॥ 
भद्यतन्यां चेति वक्तध्वम्‌ | उदगास्कटकालापम्‌ | भत्वष्ठास्कठ कौयुमम्‌ | 
5 उदनान्मौ दवैत्पलादम्‌ ॥ | 


विशिष्टलिङखो नदी देखो ऽअामाः ॥ २ । ४ । ७ ॥ 


ग्रामप्रतिषेधे नगरप्रतिषेधः | ९ ॥ 
भच्रामा इच्यत्रानम णामिति वक्तव्यम्‌ [ इह मा भूत्‌ | मथुराफटनिपुत्रमिति॥ 
उभयतश्च ्रामाणाम्‌ ॥ २॥ 


10 उभयत भ्रामाणां प्रतिषेषो वक्तव्यः | इह मा भूत्‌ | शौय च केतवता च 
शलौयकेतवते । जाम्बवं च शालुकिनी च जीम्बवशादुकिन्यौ ॥ 


क्षुद्रजन्तवः ॥ २ ।४।८॥ 


्रजन्तव इत्युच्यते के पुनः सुद्र जन्तवः | कोत्या जन्तवः | वेवं युकाति- 

क्षम्‌ कीढपिपीलिकमिति न लिष्यति || एवं तथ्ेनस्थिकाः स्ु्रजन्तवः | भथवा 

15 येषां स्वं शोणिवं नास्ति ते शुद्रजन्तवः । अथवा येषामा सहस्रादश्ञलिने पु्ैते ते 

कषग्रजन्तवः | भथवा वेषां गोचमेमात्रं रारि हत्वा न पतितो भवति ते सषद्रजन्तवः | 
कथवा नकुलपर्यन्ताः षुद्रजन्तवः ॥ 


येषां च विरोधः शाश्वतिकः ॥ २ ।9।९॥ 


किमर्धधकारः | एवकोरा्थैथकारः | वेषां विरोधः क्ाशतिकस्तेषां शन्ड एक- 
90 वचनमेव यथा स्याद्यदन्यस्मामोति तन्मा भूदिति | किं चान्यत्मरामोति । पश्शकु- 
निन्दे धिरोधिनां पूवैविप्रतिषिद्धामिस्वु्तं * ख पुवेविप्रतिपेधो न वक्ष्यो भवेति ॥ 


क द,४. ९३२४, 





एण ३.४.७१२] ॥ स्प्राकर्गमदाभाष्यवम्‌ \. ४७५ 


शद्राणामनिरवसितानाम्‌ ॥ २, । ४ । १.० ॥ 


भनिरवसितानामिस्युच्यते कुतो अनिरवसितानाम्‌ | आयोषतौ वनिर वसितानाम्‌ । 
कः पुनरार्यावतैः | प्रागादौ सपस्यक्षालकवनाइक्षिणेन हिमवन्तमुन्तरेण पारियात्रम्‌ | 
यथेवं किष्किस्धगन्दिकम्‌ इकयवनम्‌ शसौयेक्रौज्चमिति न सिध्यति ॥ एवं तद्योयै- 
निवाच्ादनिरवसितानाम्‌ । कः पुनरायेनिवासः | मामो षोषो नगरं संवाह इति | $ 
एव्रमपि य एते महान्तः संस्त्यायास्तेष्वभ्यन्तराशण्डाला मृतपाथ धसन्ति तत्र चण्डा- 
लमवपा इति न सिध्यति || एवं तर्द याज्ञात्कमेणो अनिरवसितानाम्‌ | एवमपि त- 
क्षायस्कारम्‌ रजकतन्तुवायमिति न सिध्यति || एवं तर्हि पात्रादनिरवसितानाम्‌ । 
चेर्मुक्ते पाश्रं संस्कारेण शयुभ्यति तेऽनिरवसिताः । येभुक्ते पा्चं॑संस्कारेणापि न 
छयुध्यति ते निरवसिताः ॥ 10 


गवाश्वप्रभृतीनि च ॥ २।४।११ ॥ 


गवाश्वप्रभृतिषु यथोचारितं इन्द्रवृलम्‌ ॥ ९ ॥ 
गवाशचप्रमृतिषु यथोधारितं शन्दवृक्त दव्यम्‌ । गवाश्वम्‌ गवाविकम्‌ गवैड- 
कम्‌ ॥| 


विभाषा वृषमगतृणधान्यव्यश्ञनपरुकून्य व डवपूवीपराधरोत्त- 
राणाम्‌ ॥ २।४।१२॥ 


बहुप्रकृतिः फलतसेनावनस्यतिमृगग्राङुन्तष्चुद्रजन्तुधान्यतृणानाम्‌ ॥ ९ ॥ 
फलसेनावनस्पतिमृग्चकुन्तकषुद्रजन्तुधान्यतृणानां इन्दो विभाषैकवडषति बह- 
प्रकृतिरिति व्यम्‌ | फल | बदरामलकम्‌ बदरामलकानि । सेना । हइस्त्यश्म्‌ 
हस्त्यश्वाः | वनस्वति | अरक्षन्यम्रोधम्‌ रक्षन्य मोधाः । मृग | रुदप्रषतम्‌ ररप्रषताः | 20 
चकुन्त | शसचक्रवाकम्‌ हंसचक्रवाकाः । क्षद्रजन्तु । युकालिक्षम्‌ युकारिक्षाः | 
धान्य | त्रीहियवम्‌ व्रीहियवाः | माषतिलम्‌ माषतिक्ताः । तृण । कुशकाशम्‌ 


४७६ ॥ व्याकरणमद्ाभाष्यम्‌ ॥  [म०९४.९. ,. 


कुदाकाशाः । शारशीर्यम्‌ शरश्षीयौः| किं प्रयोजनम्‌ । बहृप्रकृतिरेव यस्तत्र यथा 

स्यात्‌ । क मा भूत्‌ | बदरामलके तिष्ठतः || किं पुनरनेन या प्राप्निः सा नियम्यत 

भाहोस्विदविशेषेण | किं चातः | यद्यनेन या प्रात्निः सा नियम्यते अक्षन्यमोततौ 

जातिरप्राणिनाम्‌ [२.४.६] इति नित्यो इन्दैकषद्धावः प्रामोति | अथाचिरोषेण 
५ न दोषो भवति | यथा न दोषस्तथास्तु || 


पशुदाकुनिदन्दे विरीभिनां पूवंविप्रतिषिदम्‌ ॥ २ ॥ 


पश्युशकुनिन्दडे येषां च विरोधः शाथतिकः [२.४.९| इत्येतद्वति पूर्वविष- 
तिषेषेन । पद्यु्यकुनिशन्दस्यावकाशः | महाजोरभम्‌ महाजौोरभाः | हंसचक्रवा- 
कम्‌ हंसचक्रश्राकाः । येषां च विरोध हस्यस्यावकाहाः । श्रमणत्राह्मणम्‌ । इदौ- 

10 भयं प्रामोति | काकोलूकम्‌ श्वशुगारंमिति । येषां च विरोध इल्येतङवति पूर्वविप्र- 
तिषेधेन || ख तर्हि पूवैविप्रतिषेधो वक्तव्यः | न वक्तव्यः । उक्तं तत्र चकारकर- 
णस्य प्रयो जनं येषां च विरोधः शोश्वतिकस्तेषां शन् एकवचनमेव यथा स्याशद- 
न्यस्माभोति तन्मा भुरिति* ॥ | 

अश्ववडवयोः पूर्वलिङ्गस्वात्पशुदन्दनपुंसकम्‌ ।। ३ ॥ 

15 शश्ववडववोः पुवैलिङ्गत्वास्पशयुन्छमपुंसकं भवति पुवैविप्रतिषेषेन1† । अश्व- 
वयोः पूवेलिङ्गस्वस्यावकाशः | विभाषा पशयुदन्दनपुंसके यदा न पयुहन्हनपुंसकं 
सोऽवकाशः । शश्चवडवौ | पशुहन्डनपंसकस्यावकाशः | भन्ये पद्युदन्डाः । म- 
हाजोरभम्‌ महाजोरनाः । पद्युदन्दनपुंसकप्रसङ्ग उभयं प्रभोति । अश्ववडवम्‌ । 
पद्युन्ड नपुंसकं भवति पुवेविप्रतिषेधेन || स तर्हिं पुवैविप्रतिषेषो वक्तव्यः | न 

20 वक्तव्यः | 

भरतिपदविधामास्सिंशम्‌ ॥ ४॥ 
परतिपदमत्र नपुंसकं विधीयते । अश्चवडवपूवापरेति॥ 


एकवचनमन्थकं समाहरिकत्वात्‌ । ५९ ॥ 
एकवद्भावो न्थकः | किं कारणम्‌ । समाहारैकस्वात्‌ । एकोऽयम्थः समा- 
95 हारो नाम तस्थैकत्वादेकव चनं भविष्यति || इदं तर्हि प्रयोजनम्‌ | रतज्जास्वामीष 
निस्यो विधिरिह विभाषेति । वैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । भाचार्यपरवृत्तिर्शापवति सर्वो 


# २.४. ९१, - † २.४, २७; ६७, 





पा० ९.४.६६-९९.] ॥ व्वाकरनयपहानाच्यय्‌ ॥। ध. 


इनो गिमावैकवदवतीति यदयं तिष्यपुनर्वस्वोर्मकषत्रहन्दे बहुवचनस्य दवचनं नि- 
स्वम्‌ [ १.२.६१ ] इस्याह | इदं तर्हिं परमोजनम्‌ । ख नपुंसकम्‌ [ २.४.१७ | इति 
वक्ष्यामीति । एतदपि नास्ति प्रयोजमम्‌ । लिङ्गमशिष्यं लोकान्नयस्वािङ्गस्य । न 
तर्हीदानीमिदं वक्तव्यम्‌ | वक्तव्यं च | किं प्रयोजनम्‌ । प्वेज्र॒निस्यार्थमुन्तरत्र 
व्यभिचारायं विभाषा वृक्षमृगेति ॥ & ` 


विभाषा समीपे ॥ २।४।१६ ॥ 


किमुराहरणम्‌ । उपदश्य पाणिपादम्‌ । उपदशाः पाणिपादाः | तैवदस्ति प्रयो- 
जनम्‌ | अयं इन्ैकवङ्भाव आरभ्यते तत्र कः प्रसङ्गो यदनुभरयोगस्य स्यात्‌ ॥ 
एवं तद्यैष्वयस्य संख्ययाव्ययीभावोऽप्यारभ्यते बहुत्रीहिरपि* | तथयदा तावदेकव- 
यनं तदाव्वयीभावोश्नुपयुज्यत एकायेस्थैकाथै इति | यदा बहुवचनं तदा बहुघ्री- 10 
दिरनुपयुञ्यते बहर्थस्य हयं इति ॥ 


तलयुरुषो ऽनठ्कमेधारयः ॥ २।४।१९. ॥ 


किमथेमिद मुख्वते । संज्ञायां कन्योीनरेषु | २.४.०० | इति वशयति वदतस्पु- 
दषस्य मञ्तमासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । त्ैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । न हि 
संश्ञावां कन्धाम्त उशीनरेष्वतस्पुरषो नञ्समासः कर्मधारयो वास्ति ॥ उन्तराथै 15 
तरि । उपञ्ञोपक्रमं तदाशाचिख्थासायाम्‌ | २९ | इति वदेयति तदतसपुरषस्य न- 
उसमासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । न हि तदा- 
दाचिख्यासायामुप्ञोपक्रमान्तो ऽतस्पुरुषो नञ्समासः कर्मधारयो वास्ति || उन्त- 
रा्थमेव तर । हाया बाहुल्ये [२९२] इति वदेयति तदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य 
कर्मधारयस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । न हि च्छायान्तो बा- ४० 
इल्ये आस्युदषो नञ्समासः कमधारयो वास्ति || उश्तरारथमेव ति | सभा राजाम- 
नुष्वपूरवा [९६] अशाला च [९४] इति वश्चति तदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य क- 
मधारवस्य वा मा भूदिति । एतदपि नास्ति प्रयोजनम्‌ । न हि सभान्तो ऽशाला- 
बामतस्युदषो नञ्समासः कमेधारयो वास्ति ॥ इदं तर्हि । विभाषा सेनासुरा [२९] 


@ २.६. ६; २.३.१५. 


धेट ॥ व्क्रौरशरनचसभाण्यभ्‌ ॥ [० २.४.९. 


हति व्यति तंदतस्पुरुषस्य नञ्समासस्य कर्मधारयस्य वा मा भूदिति ॥ तच््ु- 
र इति किमर्थम्‌ । शृढसेनो राना || अनभिति किमर्थम्‌ । असेन ॥ भक्मै- 
रथ हंति किमयम्‌ । परमसेना खक्रमसेबा ॥ 


परवलिङ्गं दृन्द्रततयुरूषयोः ॥ २ । ।२६ ॥ 





४ किमर्थमिदमुष्यते | इन्डोऽवमुमयपदार्थेपध्मनस्न् कदाचिसर्वपदस्य यलिङ्ग त- 
स्समासस्यापि स्वात्कदाचिदु्तरपदस्य | हष्यते च परस्य यदङ्ग तस्वमाखस्य 
यथा स्वादिति तथान्तरेण यलं न सिध्यतीति परवधिङ्गं इन्तसपुरुषयोरिति । ए- 
वभयेभिदमुच्यते ॥ तरपुरषथापि कः प्रयोजयति । यः पूर्वपदार्थपरधानः । एकरे- 
शिसमासः । भधपिष्पकीति* | बो हयुश्तरपदार्थप्रभानो दैवकृतं तस्य परविङ्गम्‌ ॥ 

10 परवलिङ्गं इन्द्रतस्पुरुषयोरिति चेस्भापन्नालपूैगतिसमासेषु 

प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
परवलिङ्ग इन्दरतत्पुरुषयोरिति वेत्पराप्रापच्रालंपुवेगतिसमासेषु प्रतिषेधो वक्त- 
ष्यः । प्रापो जीधिकां प्राप्रलीविकः | पन्नो जीविकामापचजीनिकः || अयव । 
अलं जीविकाया अलंजीधिकः || गतिसमास । निष्कौशाम्बिः नि्वंराणसिः† ॥ 

15 पूवंपदस्य च ॥ २॥ 

पृेपदस्य ख प्रतिषेधो षक्व्यः | मवृदीकुुरौ ॥ यदि पनर्वेषाजातीयकतं प- 
रस्य लिङ्गं वधाजातीबकं खमासादन्यदतिदिश्येत | 
समासादम्यद्धिक्रजिति चेदगश्धवडवयो्टाब्डंग्वचनम्‌ ॥ ६ ॥ 
समासादन्यद्ि मिति चेदश्ववडवयोष्टापो लुग्वक्तव्यः | अश्ववडवौ ॥ 
20 निपातनास्सिद्धम्‌ ॥ ४ ॥ 
निपावनास्सिडमेतत्‌ । किं निपातनम्‌ || भशवडङकपुबोपरेतिऽ$ ॥ 
उवस्जनहस्वस्वं वा ।। ५ ॥ 
अथवोपस्जनस्येति¶ हस्वत्वं भविष्यति || इ्ापि तर्हि प्रामोति । कुङ्टम- 
यर्यी । भस्त । 


* ३.२.२. † २.२. ४,२.२.६८१. { २.४.२५, § २.४.९२. ` ¶ ९.३.१८. 











फा० २.४.२६.२०,] | ॥ व्याकरनबहाभास्वम्‌ ॥ ऽश, 


परवलिङ्गमिति राब्दरान्दार्थौ || ६ ॥ 

परवलिङ्गमिति शाम्दहाब्दाथोवतिरिरयेते । तत्रौपदोक्तिकस्य हस्वस्वमातिरेशि- 
कस्य भ्रवणं भविष्यति || इद तर्हि | दत्ता च कारीषगन्ध्या च दत्ताकारीषगन्ध्ये | 
दत्ता च गार्ग्यायणी च दत्तागाग्योयण्यौ | हौ प्य हौ ष्फौ च प्रामुतः* | स्ताम्‌ | 
पंवङ्धावेनैकस्य निवृत्तिर्मेविष्यति। || हैदं॑तर्हि । र्ता च युवतिथ दत्तायुवती | 5 
हौ तिराब्दौ मामुतः‡ | तस्मोतैतन्छक्यं वत्तौ शाम्दकशाम्दार्थावतिदिरयेते हति । 
ननु चोक्तं संमासौदन्यदिङ्गमिति चेदश्चवडवयो्ौम्लुग्वचंनमिति | परिदतभेतति- 
पातनास्सिद्धमिति || भथवा त्ैषं विज्ञायते षरस्तैव परवदिति | कथं ति | परस्येव 
परषदिति | यथाजातीयकं परस्य लिङ्गः तथाजातीयकं समासस्थातिदिर्यते || 
कथ पूवेपदस्य न प्रतिषिध्यते प्राप्रादिषु कथम्‌ | 10 


चासादिषु लेकदेशिग्र्णास्सिदम्‌ ॥ \७ ॥ 


शन्दैकरेशिनोरिति वश्यामि ॥ तदेकदेशिमहणं कतैव्यम्‌ } न केर्वव्यभ्‌ | द- 
कदेशिसमासो$ नारप्स्वते | कथमधपिष्पीति } समानाधिकर्णसमासो भवि- 
ष्यतिर्¶ | अप च सा पिप्पली चार्धपिप्पलीति | म सिध्यति | परत्वात्य्ी समासः 
भामोति | भ्य पुनरयमेकदेशिसमास आरभ्यमांणः षष्ठीसमासं वाधते | इष्यते 15 
च पष्ठीसमासोओपि | तयथा } भषैपाै मया भक्तम्‌ । भामा मया लम्धमिति | 
एवं तपिप्पल्यपेमिति भवितव्यम्‌ । कथमधपिप्पलीति | समानाधिकरणो भविष्यति || 


 रात्राह्वाहः पुंसि ॥ २।४।२९. ॥ 


अनुवाकादयः पुंसि ॥ ९ ॥ 
भनुवाकादयः पुंसि भाष्यन्त इति वक्तव्यम्‌ । भनुकाकः शंयुवाकः सूक्त - 20 


वौकः | 
अपथं नपुंसकम्‌ ॥ २।४।२० ॥ 


पृण्यद्धदिनाभ्याभङ्ो नपुंसकत्वं बक्तष्यम्‌ | शृण्या्हेम्‌ इंदिनादम्‌ ॥ 


५ ४,६.०८ ६५. † ६.१.३५५. ‡ ५४.९७७. ई २.२,९-३. १ २,९.५७. कके २.१.८. 


धे ॥ व्याकस्नपहामाच्यय्‌ ॥ | [ म० २.४.९१. 


पथः संख्याग्ययादेः ॥ ९ ॥ 
पथः संख्याव्ययादेरेति वक्तव्यम्‌ | दिपथम्‌ ज्रिपयम्‌ घलुष्पथम्‌ । उत्थम्‌ 
विपथम्‌ ॥ 
द्विगुश्च | >॥ 
5 शगु घमासो नपुंसकलिङ्गो भवतीति वकछष्वम्‌ | पञ्चगवम्‌ दशगवम्‌ ॥ 
भकारान्तोलतरपदो हिगुः जियां भाष्यत इति व्छष्वम्‌ । पञ्पुली दद्पुली ॥ 
वाज्रन्सः ॥ ३ ॥ 
वाबन्तः लिवां माष्वत इति वन्तष्वम्‌ | पतञ्चलम्‌ पश्चखटरी | दशाखटम्‌ 
दशखटरी ॥ 
10 भनो नञोपञ्च वा च जिवां भाप्वत इति व्कव्यम्‌ । पञ्चतक्षम्‌ पञ्चत । 
दरदातन्षम्‌ ददातसी ॥ | 
पात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तव्यः | दिषाज्रम्‌ पत्चपात्रम्‌ ॥ 


अचोः पुंसि च ॥ २।५४।३९ ॥ 


भ्वादय इति षकतव्यम्‌ । अर्पयैम्‌ अर्यैः । कार्षापणम्‌ काषौपणः | गोम- 
. 15 यम्‌ गोमयः | खारम्‌ सारः || तन्तं वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | बहुवयननि- 
दशादार्था गम्यते || 


इदमो ऽन्वादेशो ऽशनुदात्तस्तृतीयादौ ॥ २। ४।२२ ॥ 


अन्वादेरो समानाधिकरणम्रहणम्‌ 
शन्वादेशे समानापिकरणमरहणं कतैव्यम्‌ । कं प्रयोजनम्‌ । 
%0 देवदनं भोजयेमे चेष्यपङ्भार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
इद मा भूत्‌ । देवदन्तं भोजयेमं च यजश्चदत्तं भोजयेति ॥ 


पा० २.४.३९-२३२. | ॥ व्याकरणपहाभाष्यम्‌ ॥ ४८१ 


अन्वदिराश्च कथितानुकयथनमात्रम्‌ ॥ ९ ॥ 
अन्वादेश कथितानुकथनमात्रं दर्व्यम्‌ । तंेष्यं विजानीयादिदमा कथित- 
मिदग्रैव यदानुकथ्यत हति | तदाचार्यः सुहदधत्वान्वाचष्टे ऽन्वादेदाश्च कथितानुक- 
यनमात्रं द्रष्टम्यमिति || 
अथ किमथेमहादेदाः त्रियते न तुतीयादिष्विव्येवोच्येत | तत्र टायामोसि चै- 5 
नेन* भवितव्यमन्याः सर्वा हृलादयो त्रिभक्तयस्तत्रेदरुपलोपे कृते केवलमिदमो ऽनु - 
दात्त्वम्रेव वक्तव्यम्‌ || भत उत्तरं पठति | 
अदिरावचनं साकच्काथम्‌ | ३॥ 
आदे शवचनं साकच्कार्थै क्रियते | साकच्कस्यापीदम आदेशो यथा स्यात्‌ । 
इमकाभ्यां शन्ाभ्यां रात्रिरधीता भयो आभ्यामहरप्यधीतम्‌ || भथ किमथे शि- 10 
त्करणम्‌ । 
शिस्करणं सर्वादेरार्थम्‌ ॥ ४ ॥ 
शिर्करणं क्रियते सव॑देशार्थम्‌ । शित्सर्वस्येति स्वदेशो यथा स्यात्‌ | इ- 
मकाभ्यां छाल्ताभ्यां रात्रिरधीता भथो अभ्यामहरप्यधीतमिति | अक्रियमाणे हि 
शित्करणे ऽलोऽन्त्यस्य विधयो भव्रन्तीत्यन्त्यस्य भ्रसज्येतऽ || 15 
न वान्त्यस्य विकारवचनानर्यक्यात्‌ ॥ ९५ ॥ | 
न वा कर्ब्यम्‌ । किं कारणम्‌ | अन्त्यस्य विकारवचनान्थस्यात्‌ | अकार- 
स्याकारषचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वान्तरेणापि शकार सवादेशो भविष्यति ॥ 
अर्यवच्वदेदाप्रतिषेधांम्‌ ॥ ६ ॥ 
अयेवस्वकारस्याकरारव चनम्‌ | कोञ्येः | भदेदाप्रतिषेधार्थम्‌ । ये ऽन्ये ऽक्रा- 20 
रस्यादेराः प्राुवन्ति तद्वाधनार्थम्‌ । तद्यथा । मो राजि समः कौ [८.३.१९] 
इति मारस्य मक्रारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वानुस्वारादयो बाध्यन्ते ॥ 
तस्माच्छिर्करणम्‌ ॥ ७ ॥ 
तस्माष्छकारः कर्वैव्यः || न कर्तव्यः । प्रशिष्टनिरेशोऽथम्‌ । भ अ इति | 
भनेकाल्शित्सवेस्य | १.१.९९ | इति सवोदेशो भविश्यति ।| अथत्रा विनरित्रास्त- 25 
डितवृत्तयः | नान्वादेदोऽकजुत्पत्स्यते ॥ 


= द.४. ३४... ¶† ७.२. ९६३. ‡ ९.९.५५. 6 ९.९.५२. 
619 


४७८० ॥ व्याकरनयहाभाच्यय्‌ ॥ - [ म० २.४.९१. 


पथः संख्याव्ययादेः ॥ ९ ॥ 
पथः संख्याव्ययादेरेति वक्तव्यम्‌ | दिपथम्‌ ज्रेपथम्‌ घलुष्पथम्‌ । उत्थम्‌ 
विपथम्‌ ॥ 
द्विगुश्च ॥ >॥ 
5 शगु षमासो नपुंखकलिङ्गो भवतीति वकछष्वम्‌ | पञ्चगवम्‌ दशगवम्‌ ॥ 
भकारान्तोत्तरपदो हिगुः जियां भाष्यत इति वक्छष्वम्‌ । पपी दश्चपुली ॥ 


वान्तः ।। ३ ॥ 
वाबन्तः जिवां भाष्वत इति वक्तव्यम्‌ । पश्चखदरम्‌ पश्खट्री | दशलखटूम्‌ 
दशखटी ॥ 
10 भनो नञोपञ्च वा च जियां भाष्वेत इति वक्तव्यम्‌ । पञ्चतक्षम्‌ पश्चतसी । 
ददातल्तम्‌ ददाती ॥ 


पाज्रादिभ्यः प्रतिषेधो वक्तष्यः | हिपात्रम्‌ पन्बंपात्रम्‌ ॥ 


अचोः पुंसि च ॥ २।७। ३१ ॥ 


भ्वादय इति वक्तव्यम्‌ । अर्यैम्‌ अपचैः । कार्षापणम्‌ काषौपणः | गोम- 
. 15 यम्‌ गोमयः । सारम्‌ सारः | त्ति वक्कव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | बहुवचननि- 
देशादार्थो गम्यते | 


इदमो ऽन्वादेशे ऽशनुदात्तस्तृतीयादौ ॥ २। ४ । २.२ ॥ 


अन्वादेरो समानाधिकरणम्रहणम्‌ 
अन्वादेशे समानाधिकरणमहणं कतैष्यम्‌ । कं प्रयोजनम्‌ | 
0 देवदले भोजयेमं वेष्यम्क्गार्थम्‌ ॥ ९ ॥ 
इद मा भूत्‌ । देवदत्तं मोजयेमं च यज्जदन्तं भोजयेति ॥| 





पा० २.४.३९-३२. |  ॥ व्याकरणपहाभाष्यय्‌ ॥ ४८१ 


अन्वदि गश्च कथितानुकयथनमात्रम्‌ ॥ ९॥ 
अन्वादेश कथितानुकथनमाज्रं द्रष्टव्यम्‌ | तंदेष्यं तरिजानीयादिदमा कथित- 
भिदत्रैव यदानुकथ्यत इति | तदाचार्यैः सुददभूस्वान्वाचष्टे ऽन्वादेशाश्च कथितानुक- 
थनमात्रं द्रशटत्यमिति ॥ 
अथ किम्थेमहादेशः क्रियते न तृतीयादिष्वित्येवोच्येत | तत्र टायामोसि चै- ऽ 
नेन* भवितव्यमन्याः सर्वा हलादयो व्रिभक्तयस्तत्रेद्रूपलोपे कृते† के वलमिदमोऽनु - 
दा्त्वमरेव वक्तव्यम्‌ || भत उत्तरं पठति | 
अदेरावचनं साकच्काथम्‌ || ३ ॥ 
आदेदावचनं साकच्कार्थं क्रियते | साकच्कस्यापीदम आदेशो वथा स्थात्‌ | 
इमकाभ्यां शन्ताभ्यां रात्रिरधीता भयो आभ्यामहरप्यधीतम्‌ || अथ किमथे श्ि- 10 
त्करणम्‌ । 
शिस्करणं सवदिदा्थम्‌ ॥ ४ ॥ 
शिरकरणं क्रियते सवं देशार्थम्‌ । दित्सर्वस्येति सर्वौदेरो यथा स्यात्‌ | इ- 
मकाभ्यां छन्ताभ्यां रात्रिरधीता अथो अभ्यामदरप्यधीतमिति | अक्रियमाणे हि 
शिक्करणे ऽलोऽन्त्यस्य त्रिधयो भवन्तीत्यन्त्यस्य प्रसज्येत9 ॥| 15 
न वान्त्यस्य विकारवचनानर्यक्यात्‌ ॥ ५ ॥ | 
न वा कर्तव्यम्‌ | किं कारणम्‌ । अन्त्यस्य विकारवचनानथस्यात्‌ | भकार- 
स्याकारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृस्वान्तरेणापि शकारं सवोदेदो भविष्यति | 
अर्यवत्वादेदाप्रतिषेधाथम्‌ ॥ ६ ॥ 
अयेवस्वकारस्याक्रारवचनम्‌ । कोऽथः । अदे शप्रतिषेधार्थम्‌ | ये ऽन्ये ऽक्रा- 20 
रस्यादेशाः प्रापुवन्ति तद्वाधनारथेम्‌ । तद्यथा | मो राजि समः की [८.३.२९ | 
इति मकारस्य मकारवचने प्रयोजनं नास्तीति कृत्वानुस्वारादयो वाध्यन्ते || 
तस्माच्छित्करणम्‌ ॥ ७ ॥ 
तस्माष्छकारः कर्तव्यः || न कर्वव्यः | प्रिष्टनिर्ेशोऽथम्‌ । भ अ इति | 
भनेकाल्शिस्सबैस्य [ ९.१.९९ | इति सवोदेशो भविभ्यति || अथत्रा विचित्रास्त- 2 
डितवृत्तयः | नान्वादेदोऽकजुत्पत्स्यते ॥ 


= द.४. ३४.-. ¶† ७.२. ९९३. { ९.९.५५. § १,१.५२. 
619 


७८२ ॥} व्थाकस्नमरहामाष्यय्‌ ॥ ` {म०२.४.९, 


एतदखरतसोखतसी चानुदात्ती ॥२।४।२२. ॥ 


किमे त्रतसोरनुदात्तत्वमुच्यते । उदात्तौ" मा भूतामिति | त्ैतदत्ति प्रयोज- 

नम्‌ | लिस्स्वरे कृते निघात एतदोनुदात्तत्वेन सिद्धम्‌ । हदमिह संप्रधायेम्‌ | अ- 

` नुदात्तत्वै क्रियतां लिस्स्वर इति किमत्र क्ष्यम्‌ | परत्वाछित्स्वरः । नित्यमनु- 

5 दा्तत्वम्‌ ] कृतेऽपि लिस्स्वरे प्रामोत्यकृतेऽपि । तत्र नित्येत्वादनुदात्तत्वे कृते लि- 

ति पूवे उदासभावी नास्तीति कृत्वा यथाप्राप्तः प्रत्ययस्वरः प्रसज्येत } तद्यथा | 

गोष्पदभं वृष्टो देव इत्यलोपे कृतेः पव उदास्तभावी नास्तीति कृत्वा यथाप्राप्रः प 
स्ययस्वरो भवति । तस्माच्रतसोरन॒दात्तत्वं वक्तव्यम्‌ | 


द्वितीयारोस्खेनः ॥ २।४।२४॥ 


10 कस्यायभेनो विधीयते । एतदःऽ प्राभोति । इद मोऽपि त्विष्यते तदिदमो मह- 
णं कतेष्यम्‌ । न कतैव्वम्‌ | प्रङृतमनुवतैते | क प्रकृतम्‌ | इदमो ञन्वारेशेऽा- 
नुरात्तस्तृतीयारौ | १.४.६२ | इति || यदि तदनुवतेत एतदलरतसोलतसौ चानुदातौ 
[ ३३] इतीदमभेतीदमोऽपि प्रायोति । वैष दोषः । संबन्धमनुवर्विष्यते | इदमो 
ऽन्वदेशेऽशानुरात्तस्तृतीयादौ । एतदखतसोखतसौ चानुदात्तौ इदमेऽन्वादेदो ऽश 

15 नुदात्तस्तृतीयादावदमवति | ततो हितीयादौस्स्वेन इदम एतदथ । तृतीयादायिति 
निवृत्तम्‌ || अथवा मण्डूकगतयो अधिकाराः | तद्यथा मण्डूका उरुतयोत्छुत्य 
गच्छन्ति तददधिक्राराः ॥ अथवैकयोगः करिष्यते } इदमो ऽन्वादे शेऽशनुरात्त- 
स्तृतीयादावेतदलरतसोलतसी चानुदात्तौ । ततो द्विती यारौस्स्वेन हदम एतदथ ॥ 
अथवोभयं निवृत्तं तदपेक्षिष्या महे ॥ 


0 एनदिति नपुंसकैकवचने ॥ ९ ॥ 


एनदिति नपुंसकैकवचने करतव्यम्‌ | कुण्डमानय प्रक्षालथेनत्परिवतेभैनत्‌ ॥ 
यद्येनक्करिवत एनो न वक्तव्यः | का सूषसिदिः अथो एनम्‌ भयो एने अयो एना- 
नीति | स्यदाद्यत्वेन सिद्धम्‌¶ ।| यथेवमेनन्नितको न सिध्यति } एनर्पितक इति 
परामोति । यथालक्षणमप्रयुक्ते ॥ 


# ३,६.६१. 1 ५.३.अ; ९०; ६.९.५९३; ९५८. {२.४.१२ 9 २,४.१३. नु ५,२.६०३. 





पा० २.४.३३-२५. | ॥ व्याकरनमहाभाष्वम्‌ ॥ ६८३. 


आधधातुके ॥ २ । ० ।३५ ॥ 


जग्ध्यादिष्कार्धधातुकाश्रयत्वस्सति तस्मिन्विधानम्‌ ॥ ९ ॥ 


जग्ध्यादिष्वा षधातुकःञ्रयत्वास्सति तस्मिचाधष्प्तुके जग्ध्यादिभिभवितव्यम्‌ ॥ 
किमतो यत्सति भवितव्यम्‌ । 


तवरोत्सगलक्षणप्रतिषेधः ॥ २ ॥। | & 


तत्रोत्सगेलक्षणं काये प्राभोति तस्य प्रतिषेधो वक्तव्यः | भव्यम्‌ प्रवेयम्‌ आख्ये- 
यमिति* | ण्यत्यवस्थिते† अनिष्टे प्रत्यय आदेशः स्यात्‌ | ण्यतः अ्वणं प्रसज्येतः || 
षष दोषः | सामान्याश्रयत्वादिरोषस्याना्रयः । सामान्ये ह्याश्रीयमाणे विशेषो 
नाभितो भवति । तत्राधेषातुकसामान्ये जग्ध्यदिषु कृतेषु यो यतः प्रत्ययः प्रामोति 
स ततो भविष्यति | ' 10 


सामान्याश्रयस्वाद्विशेषस्यानाश्रय इति चेदुव्णांकारान्तेभ्यो ण्यदिधिष्‌- 
सद्धरः ॥ ३॥ 

` सामान्याभयत्वादिरोषस्याना्रय इति चेदुवणोकरान्तेभ्यो ण्यस्परापरोति | ल- 

ध्यम्‌ पव्यमिति । आधेषातुकस्ामान्ये गुणे कृते यि प्रत्ययक्षामान्ये च वान्तादेशे 

शलन्तादिति ण्यस्मापरोति९ । हह च दित्स्यम्‌ धित्स्यम्‌ भाषेधातुक सामान्ये ऽकार- 15 

लोपे कृते हलन्तादिति ण्यतामोति्¶ ॥ 


वीवाौपयीभावाच सामान्येनानुपपत्तिः ॥ ४ ॥ 
वर्वापर्याभावा्च सामान्येन जग्ध्यादीनामनुपपत्तिः | न हि सामान्येन पौर्वाप- 
यमति ॥ 
सिद्धं तु सावधातुके प्रतिषेधात्‌ | «५॥ ९0 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । अविरेषेग जग्ध्यादीनुक्का सावैधातुङ्ञे नेति परतिषेषं 
वश्यामि । सिध्यति | सत्रं तर्हि भिद्यते ॥ 


= २.४.५२२९६.५४. † ३.६.५२४. ‡ ०.२.११९; ७,३.३३. 
$ ०,३.८४; ६.१.७५; ३,९६.५२४. षु ६,४.४८; ३.१.१२४. 





४८४ ॥ व्याकरनग्रहामाष्यय ॥ ` म° २.४९. 


यथान्या षमेवास्तु | ननु चोक्तं जग्ध्यादिष्वा्धधातुकाश्रयन्यात्खति तस्मिन्वि - 
धानमिति | परिहतमेत्तक्षामानम्याग्नयत्वादिङेषस्यानाञ्नय इति । ननु चोक्तं सामा- 
न्या्रवत्वादिरोषस्वानाभ्नय इति चेदुब्णीकारान्तेभ्यो ण्यदिधिप्रषङ्ग इति । नैष 
रोषः । वद्यति तत्राज्यहणस्य प्रयोजन मजन्तमूतपुवेमात्रादपि यथा स्यारिति॥ 
5 यदप्युच्यते पौवीपयोभावा्च सामान्येनानुपपत्तिरिति । अर्थसिद्धिरेवैषा यत्वामा- 
न्येन पौवौपयै नास्ति । असति कफीवपर्ये विषयसप्रमी विज्ञास्यते | आर्षधत्तुिक- 
विषय इति | तत्राधधातुकविषये जग्ध्यारिषु कृतेषु यो यतः प्रामोति भ्रत्ववः सक्तो 
भविष्यति || अथवाैधातुकास्विति व्याम । कास्तराषेभातुकाञ । उक्तिषु युक्तिषु 
ङ्डिषु प्रतीतिषु ज्रुतिषु संका || 


10 अदो जग्पियपि करिति ॥ २ । 9 । २६ ॥ 


ल्यग्परहणं किमथ न ति कितीत्येव सिद्धम्‌ | ल्यपि कृते† न प्रामोति । इद- 
मिह संप्रधायेम्‌ । ल्यप्करियतामादेश हति किमत्र कतेऽ्यम्‌ | परत्वाह्चमप्‌ । अन्त- 
रङ्ग आदेः | एव तरि सिदे सति यष्ठचन्पहणं करोति तज्ज्ञापयत्याचार्यो 
ऽन्तर ङ्भगनपि विधीन्बहिरङ्गो ल्यभ्वाधत इति | किमेतस्य ज्ञापने प्रयोजनम्‌ । ल्व 
15 बादर उपदेशिवद चनमनादिष्टाथै बहिरङ्गलक्षणस्वादिति वक्ष्यति; तच्च वक्तव्यं भ- 
वति | 
जग्धिविधिल्यपि यत्तदकस्मास्सिद्धमदस्ति कितीति विधानात्‌ | 
दिप्रभृतींस्तु$ सदा बहिरङ्गो ल्यन्भरतीति कृतं तदु विड ॥ 
एष एवाथः | 
20 जग्धी सिद्धेऽन्तर गल्वात्ति किषीति ल्यबु्यते । 
श्ञापयत्यन्तर ङ्गाणां स्यपा भवति वाधनम्‌ ॥ 


लुङ्नोषेसु ॥ २ । ¢ । २.७ ॥ 


पसुभवे च्युपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 
षञमावे ऽच्युपतं ख्यानं कतेष्यम्‌ । प्रातीति प्रषसः ॥। 


+ ३.९, ९७१, † ०,१.१५, { ०,१९.३७५, 6 ५.४, ४२. 





प° २.४.२३६-४९. | ॥ व्याकरमयशभाष्यय्‌।। ४८५ 


हो वध छिडि॥ र 19 । ७२ ॥ लुडि च | २। © । ७३ ॥ 
किमयं वपिव्यंश्ञनान्त आहोस्विददन्तः । किं चातः | यदि ध्यश्जननान्तो 


वधौ ग्यच्जनान्त उक्तम्‌ | ९ ॥ 
किमुक्तम्‌ । वध्य देहो वृद्धितत्वप्रतिषेष हद्िषिशेति' । भथादन्तो न दोषो भ- 


वति | यथा न दोषस्तथास्तु ॥ . 5 
इणो गा लुडि ॥ २। 9। ७५ ॥ 


इण्वदिकः ॥ ९ ॥ 
इण्वदिक इति वक्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ । अध्यगात्‌ अध्यगाताम्‌ 


अध्यगुः ॥ 
णी गमिरबोधने ॥ २ । ४। ७६ ॥ 10 


हण्वादेक ह्येव । भपिगमयति अभिगमयतः भपिगमयन्ति | 


संनि च.॥ २1 9 9.७ ॥ 
इण्वदिक इस्येव | भवधिजिगमिषति अपिजिगमिषतः भभिजिगमिषन्ति | 


गाड्टि ॥ २। 9। ४९ ॥ 
ङित्करणं किमर्थम्‌ । 15 


गाङ्चनुबन्धकरणं विरोषणायम्‌ ॥ ९ ॥ 
गाउनधनुबन्धकरणं द्वियते विरोषणा्थम्‌ | क॒ विदोषणार्थेना्थः । गाङडुटादि- 


#॥ १ ०९. ५.६६ 6 


४८६ ॥ भ्वाकरममरहापाष्यम्‌ ॥ | [म ० २.४.९.. 


भ्योऽञ्णन्डिःत्‌ [१. २.९ इति । गाकुगादिभ्यो अञ्णन्डिदितीयत्युच्यमान इणादे- 
रास्यापि प्रसज्येत || | 
जापकं वा सानुबन्धक स्यदेरावचन हस्कार्याभावस्य ॥ २ ॥ 
अथवेतज्ज्ञापयत्याचायैः सानुबन्धकस्यादेश्च हतका न भवतीति || किमेतस्य 
5 ज्ञापने प्रयोजनम्‌ | 
प्रयोजनं चस्िङः ख्याञ्‌! ॥ ३ ॥ 
डितं‡ इत्यात्मनेपदं न भवति | 
लटः रातृशानचौ ॥ ४ ॥ 
लटः शतृशानचौ $ प्रयोजनम्‌ । पचमानः यजमान इति | टित इत्येत्वं न 


10 भवति ॥ 
` युवोरन।कौ ।। ५ ॥ 
युवोरनाकौ** च प्रयोजनम्‌ । नन्दनः कारकः नन्दना कारिकेति| उगिहक्षतौ 
ङीष्नुमौ 11 न भवतः | 
मेश्वाननुबन्धकस्याम्बवचनम्‌ | ६ ॥ 
मेाननुबन्धकस्याभ्वक्तव्यः‡‡ | अचिनवम्‌ अकरवम्‌ अद्धनवम्‌ ९ ९||भत्यल्प- 
मिदमु्यते मेरिति | तिभ्िभ्भिपामिति वक्तव्यम्‌| इहापि यथा स्यात्‌| वेद वेत्थर¶¶।| 
भस्य श्ञापकस्य सन्ति दोषाः सन्ति प्रयोजनानि । दोषाः समा भूयांसो बा | 
तस्माचार्थो ऽनेन ज्ञापकेन । कथं यानि प्रयोजनामि | त्रैतानि सान्ति | इहं तावञ्च- 


क्षिङः ख्याजिति भिस्करणसामध्योदिभाषास्मनेपदं भविष्यति" ** | र्टः शतृशान- 
20 चाविति | वक्ष्यत्येतसङृतानामास्मनेपदानामेरवं भवतीति111 | य॒बोरनाकाविति | 


बष्यवस्येतस्सिधं तु युवोरनुनासिकत्वादितिःः ॥ 


15 


चक्षिङः ख्याञ्‌ ॥ २ । 9 । ५४ ॥ 
किमयं कशादिराशोस्वित्वयारिः । 


 #र.४. ४५; (६.४. ६६). † २,४.५४. { ९.१.९२. § ३.२.२२४ ¶ २.४.५९. 
9१ ०.९.६. 1 ४,६.६; ७.१.००, {३.४.९०९ 6 ५३.८५ (२.२.४५९.९.५ 
भृथु १.४. द्द्‌. +++ ६.३.७९. 11 २.४, ०९०, {1 १,९.९४ 











क[° २.४.५४.] ॥ व्याकरणमहाभाष्य ॥ ८७ 


चस्षिङः क्शाञ्ख्याजौ ॥ ९॥ 
चसिडः स्याञ्कदादिः खयादिथ || 
खडादिवां । २॥ 
भयवा खरादिमेविष्यति | केनेदानीं कञ्चादिमेविष्यति । चर्ववेन* । भथ ख- 
यादिः कथम्‌ | . ¦ 5 
. असिदे शास्य यवचनं विभाषा ॥ ३ ॥ 
असिद्धे शस्य भिभाषा यत्वं वक्तव्यम्‌ || कि प्रयोजनम्‌ | 
प्रयोजनं सोभरख्ये वुञ्विधिः ॥ ४ ॥ 
सौप्रख्य इति योपधलक्षणो‡ बुञ्विधिन भवति । सौप्रर्यीवः | बृ्ाच्छः 
४.२.९९४ इति च्छो भवति || 10 
| निष्ठानत्वमाख्याते || ९ ॥ 
आख्यात इति निष्ठानत्वं $ न भवति | 
रुविधिः पुंख्याने ॥ & ॥ 
पुंख्यानमिति रूषिधिन॑% भवति ॥ | 
णस्वं पयांख्याने ॥ ७ ॥ 15 
पयौख्यानमिति गस्वं** न भवति || 
सस्थानत्वं नमःल्यत्रे ॥ ८ ॥ 
नमःख्याज्र इति सस्थानत्वं†† न भवति || 
वर्जने प्रतिषेधः ॥ ९ ॥ 
अजैने प्रतिषेधो वक्तव्यः | भवसं चकष्याः परिसंचश्याः ॥  % 
असनयोश्च । ९० ॥ 
शभसनयोञ् प्रतिषेधो वक्तव्यः| नृचक्षा रक्षः । विषक्षण इति ॥ 


@ ८.४, ९९, ¶ <.२.१. ‡ ४.२. ९२९. $ «८.२. ४१. ब ८.३.६. 
. --+क ८,४, २९, `“ ` ग ८२.१३५, - 


छेश्ट ॥ व्खकस्गमरहाभाष्यम्‌ ॥ | [म० २.४.९१. 


बहलं तणि ॥ ९९ ॥ 
बहलं तणीति वक्तव्यम्‌ | किमिदं तणीति | संज्ञान्दसोर्महणम्‌ । कि प्रयो- 
जनम्‌ । | 
अन्नवधकगावविचक्षणाभिराययम्‌ ॥ ९९ ॥ 


$ अच । अन्नम्‌ | वधक | वधकम्‌ | यात्र | गात्रं षदय | विचक्षण । विच- 
क्षणः | अजिर | आजेरे तिष्ठति" ॥ 


।  अनेन्येषजपोः ॥ २ । ४ । ५६ ॥ 


घञपोः प्रतिषेधे क्यप उपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 


वजे: प्रतिषेषे क्यप उपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | इहापि यथा स्यात्‌ | समजनं 
10 समज्येति || ततर्द वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | अपीस्ये्र भक्ष्यति | कथम्‌ । 
कपीति नेदं प्रस्ययप्रहणम्‌ । किं तर्हि । प्रत्याहार परहणम्‌ । कर संनिविष्टानां प्रत्या- 
हारः | अपो ऽकारासभृत्या क्यपः पकारात्‌† । यदि प्रत्याहार यहणं संवीतिने 
सिभ्यतिः || एवं तर्हि नाथं उपसंख्यानेन नापि घञपोः प्रतिषेधेन । इदमस्ति चस्ति 
ख्याञ्‌ वा किटि |२.४.९४;९९] इति | ततो वक्ष्यामि । भजेर्वी भवति वा व्यव- 
1; स्थितथिभाषा चेति | तेनेह च भविष्यति प्रवेता प्रवेतुम्‌ प्रवीतो रथः संवीतिरिति। 
, इह च न भविष्यति समाजः उदाजः समजः उदजः समजनम्‌ उदजनम्‌ सम- 
ज्येति । तज्नायमप्यथे इदमपि सिद्धं भवति प्राजितेति | किं च भो इष्यत एतद्रपम्‌। 
वाढमिष्यते | एवं हि कथिदैयाकरण आह । कोऽस्य रथस्य प्रवेतेति | खत भाह । 
शायुष्मचरहं प्राजितेति | वैयाकरण भाह | भपशब्द इति । खत आह | प्राभिज्ञो 
20 देवानांप्रियो न स्थि्टिज्ञ इष्यत रएतद्रुपमिति । वैयाकरण भाह | भाहो खल्वनेन 
वुरूतेन वाध्यामह हति | इत भाह | न खलु वेनः खतः छवतेरेव खतो यदि इवतेः 
कुत्ता प्रयोक्तव्या दुःदतेनेति वक्तष्यम्‌ || न तर्हीदानीमिदं वा यै [ २.४.९७] इति 
वक्तव्यम्‌ । वक्कव्यं च । किं प्रयोजनम्‌ । नेवं विभाषा । किं तर्हि । भादेशोऽवं 
विधीयते | वा इत्ययमादेशो भवस्यनेर्यौ परतः । वायुरिति ॥ 


= ३,४.३६४२;४५; ५४५६. + ३.१३.५०-९८, ‡ ३.६.९४, 





पा० २.४.५६ -५८. | ॥ व्वाकरषपराभास्ययप. ॥ ` #टर 


ण्यप्षत्रियाषेयितो यूनि लुगणियोः ॥ २। ७।५८॥। 


अणिजदुक्षि तद्राजाद्युवप्रस्ययस्योपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥ 


अणिजोरुकरि तद्राजाद्युवप्रत्यंयस्कोपसंख्यानं कतेध्यम्‌ । बौधिः पिता बौधि 
प्रः | ओदुम्बरिः पिता ओदुम्बरिः पज ॥ | 


अपर आह | भगिजोर्ुकि क्षत्रि यगोत्रमात्राद्युवप्रस्ययस्योपसंख्यानं कतेव्यमिति | $ 
जावाकिः पिता जाबाकिः पुत्रः || 


अपर आह | अव्राह्मणगोज्रमात्राद्यवप्रत्ययस्योपसंख्यानं कर्तव्यम्‌ | कि प्रयो- 
जनम्‌ | इदमपि सिद्धं भवति । भाण्डिजङ्धिः पिता भाष्डिजद्धिः पुत्रः | काणे- 
खरकिः पिता काणखरिः पुत्रः† ॥ 


इति श्रीभगवत्पतद्चकिविरचिते व्याकरणमहाभाष्ये दितीयस्याध्यायस्य चतुर्थे 10 
पादे प्रथममाद्धिकम्‌ || 


† ४.६. ९७३; १९०९.  ¶ ४.९.९५;९०९. 


62 भ 


-४९.० ॥ व्याकरणग्रहाभाष्यम ॥ | [ मण २.४.२. 


तद्राजस्य बहुषु तेनैगस्ियाम्‌ ॥ २।४।६२॥ 


तद्राजादीनां ङुकि समासबहुत्वे प्रतिषेधः ॥ ९॥ 


तद्राजादीनां लुकि सम।(सबहुस्वे प्रतिषेधो वक्तव्यः | प्रिय आङ्गः एषांत हमे 
प्रियाङ्गा: | भियो वाद्ग एषां त हमे प्रियवाङ्गा इति || किमुच्यते समासबहुत्वे 
£ प्रतिषेध इति यावता तेनैव चेक्कृतं बहुत्वमिस्युच्यते न चात्र तेनैव कृतं बहुत्वम्‌ | 
भवति वै किंचिदाचायोः क्रियमाणमपि चोदयन्ति | तद्वा कतेव्यं तेनैव वेद्रहुत्व- 
भिति समासबहूत्वे वा प्रतिषेधो वक्तव्य इति || 


अबहुस्वे च लुग्वचनम्‌ ॥ २ ॥ 
भबहुत्वे च लुग्वक्तव्यः | अतिक्रान्तो ऽद्भा नत्यङ्ग इति | बहुवचने परतो य- 
10 स्तद्राज इत्येवं च कृत्वा चोद्यते | अथ किमथे पुनरिदं न बहवचन इत्येव सि- 
डम्‌ | न सिध्यति | बहुवचन इस्युच्यते न चात्र बहुवचनं पयामः" | प्रत्ययलक्ष- 
` णेन भविष्यति! | न लुमता तस्मि्ितिः प्रत्ययरुक्चषणस्य प्रतिषेधः | न लुमता- 
ङ्गस्य [ ९,९.६३ ] हति व्याम । त्वं शाक्यम्‌ | इह हि दोषः स्यात्‌ | पञ्च- 
मिगौर्मीभिः क्रीतः पटः पन्चगाग्यैः दशागाग्ये इतिऽ | 
15 दन्दरे ऽबहूषु दुग्वचनम्‌ || २ ॥ 
इन्दे ऽबहषु लुग्वक्तव्यः | गगेवत्सवाजा इति ॥ इह च लुग्वक्तव्यः | गर्गेभ्य 
आगतं गगैरूप्यम्‌ गगेमयमिति || इह च त्रय इव्युदात्तनिवृत्तिस्वरः प्रभोति ॥ 
सिद्धं तु प्रत्ययाथेबहुत्वे दुग्वचनात्‌ ॥ ४ || 
सिद्धमेतत्‌ | कथम्‌ । प्रत्ययायेबहुस्वे लुग्वक्तव्यः || यदि प्रत्ययाथेबहुष्वे 
90 लुगुच्यते ऽलियामिति वक्तव्यम्‌ | इह मा भृत्‌ । भङ्गयः जियः वाङ्गः जिय 
इति । यस्य पुनबेहुवचने परतो लुगुच्यते तस्येकारेण व्यवहितत्वान्न भविष्यति । 
यस्यापि बहव चने परतो लुगुच्यते तेनाप्यजलियामिति वक्तव्यम्‌ | आम्बषयाः जियः 
सौवीयौः लिय हइत्येवमथम्‌ “ | अत्रापि चापा व्यवधानम्‌ | एकादेशो कृते नासि 
व्यवधानम्‌ । एकदेशः पुैविषौ स्थानिवद्भवतीति11† स्थानिवद्धावाद्यवधानमेव ॥ 


# २.४. ५६.  1†९.२. ६२, [९.९. ६२३५. §२.४. ०१५; ५.९.२८; ९.२. ४९.२.५४. ६४), 
थ ४.९. ९२२; ६.१. १६५९; २० ४, ६५; (६.९. ६६१), #+* ४.१९. ९७१; ७४. + ९.९, ५७१, 





प° २.४.६२. ] ॥ व्याकरणमहाभोाष्यम्‌ ॥ ७९.९ 


दन्द्रे बहुषु लुग्वचनम्‌ ॥ ५॥ 
इन्दे ऽवहूषु लुग्वक्तव्यः | गगेवत्सवाजा इति | . 
गोत्रस्य बहुषु लोपिनो बहुवचनान्तस्य प्रवृत्तो धे कयोरलुक्‌ ॥ ६ ॥ 
गोरस्य बहृषु लोपिनो बहव चनान्तस्य प्रवृत्ती व्येकयोरलुग्वक्तव्यः | विदा- 
नामपत्यं माणवको वेदः | वेदौ" || किमर्थमिदं नाचीव्येवालुक्रसिडधः† | अची- $ 
त्युच्यते न चात्राजादिं परयामः | प्रत्ययलक्षणेन । वणोश्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणम्‌ ॥ 


एकव चनद्विवचनान्तस्य प्रवृत्तो बहुषु रोपो धृनि ॥ ७ ॥ 
एकव्रचनद्धिव चनान्तस्य प्रवृत्तौ बहुषु लोपो युनि वक्तव्यः | वैदस्यापर्यं बहवो 
माणवका विदाः | वैदयोर्वा विदाः | अञ्यो बहषु यञ्यो बहष्विस्युच्यमानो‡ लुम 
प्ामरोति । मा भूदेवम्‌ । अनन्तं यद्दृषु यजन्तं यद्वहुष्वित्येवं भविष्यति | नैवं 10 
रायम्‌ । हह हि दोषः स्यात्‌ | कारयपप्रतिक्ृतयः कारयपा इतिऽ || 


ततोऽयमाद यस्य प्रस्ययार्थवहृत्वे लुक्‌ । इन्द्रे ऽबहूषु लुग्वचनमित्य्य परिहारो 


- न वा सर्वषां इन्द्रे बहयेत्वात्‌ ॥ ८ ॥ 

न वैष दोषः | किं कारणम्‌ | सर्वेषां इन्दे बहर्थस्वात्‌ । सर्वाणि इन्द्रे बह- 
यानि । कथम्‌ | युगपदधिकरणविवक्षायां इन्दो मवति ॥ 

ततो ऽयमाह यस्य बहुतरचने प्रतो कुक्‌ | यरि सबीणि हन्दरे बहथोन्यहमषपीद - 
मचोद्यं चोदये इन्द्रे ऽबहुषु लुग चनमिति | ममापि ह्यत्र सव्र बहुवचनं परं भवति | 
लुकि कते न प्रामोति | प्रत्ययलक्षणेन । न लुमता तस्मिन्निति प्रत्ययलक्षणस्य प्रति- 
षेधः | न लुमता ङ्गस्येति बश्यामि । ननु चोक्तं ॑नैवं शक्यमिह हि दोषः स्यात्‌ 
प्चमिगौर्मीभिः क्रीतः पटः पचगाग्यैः ददागाग्यं हति | इष्टमेवेतत्ंगृहीतम्‌ | 20 
पञ्चगगैः दशागमे इत्येव भवितव्यम्‌ || तथेदभपरमचोदं चोद्ये गर्गरूप्यम्‌ ग्ग॑म- 
यम्‌ | अत्रापि बहुवचन ह्येव सिद्धम्‌ । कथम्‌ । समथोत्तडित उतदते सा-~ 
मध्ये च खबन्तेन || 

ततो यमाह यस्य प्रत्यया्थबहृत्वे लुक्‌ | यदि समथात्तद्धित उत्पद्यते ऽहम- 
पीदमचोधं चोथे गोत्रस्य बहुषु ठोपिनो बहुवचनान्तस्य प्रवृत्ती व्येकयोरलुगिति । ४४ 
कथम्‌ | यस्यापि बहुवचने. परतो लुक्तेनाप्यत्रालुगवक्तव्यः | तस्यापि ह्यन्न बहुव- 


15 


9 ४.६, ६०४२५२४. ९८ (४) 1 ४९.८९ २.१. ६४. 3 ४,१.१०४२५.२. १६६९९. 


४९९ ॥ व्याकरमगयरहाभाष्यत्‌ ॥ | [म०-२.४.२. 


चर्नं परं भवति ॥ न वक्तव्यः | भचीत्येवादुक्सिद्धः* । भवची्युच्यते न चात्रा- 
जादि पदयामः । प्रत्ययलक्षणेन । ननु चोक्तं वणोभ्रये नास्ति प्रत्ययलक्षणमिति । 
यदि वा कानिचिद्ृणोश्रयाण्यपि प्रत्ययलक्षणेन भवन्ति तथेदमपि भविष्यति ॥ अ- 
थवाविरोषेणालुकमुकका हलि नेति वक्ष्यामि ॥ यद्यविशेषेणालुकमुकका इलि 
5 नेद्युच्यते विदानामपस्यं बहवो माणवका विदाः अत्राप्यलुक्माभोति । नस्तु । 
पुनरस्य युवबहुत्वे वर्तमानस्य लुग्मविष्यति । पनरलुक्षस्मान्न भवति | सम - 
यनां प्रथमस्य गो्रपस्ययान्तस्या लुगुच्यते न चैतत्समथौनां परथमं गेोत्रप्रस्यया- 
न्तम्‌ | किं ति । हितीयमथेमुपसंक्रान्तम्‌ | अवदयं चैतदेवं विज्ञेयमतरिभरदा- 
जिका वसिष्टकरयपिका मृग्वङ्जिरसिका कुत्सकुरिकिकेत्येवमर्थम्‌ऽ || गगभारग- 
10 विकायह्णं¶ वा क्रियते” तन्नियमाथे भविष्यति । एतस्थैव द्वितीयमथैमुपसंक्रान्त- 
स्यादुग्भवति नान्यस्येति || यदप्युच्यत एकव चनि व चनान्तस्य प्रवृत्तौ बहुषु लोपो 
यूनि वक्तव्य इति | मा भृरेवमञ्यो बहुषु यञ्यो बहुष्विति । असन्तं यद्रहुषु 
यञन्तं यद्रहुष्वित्येवं भविष्यति | ननु चोक्तं वैवं शक्यमिह हि दोषः स्यात्का- 
दयपप्रतिकृतयः कारयपा इति । प्रेष दोषः | ऊौकिकस्य तत्र! गोत्रस्य हणं 
15 न तैतघ्लौकिकं गोत्रम्‌ ॥ 


यस्य बहुवचने परतो लुक्सछमासबहस्वे तेन प्रतिषेधो वक्तव्यस्तेनैव चेच्कृतं ब~ 
हृत्वमिति वा वक्तव्यम्‌ । यस्य ॒प्रस्ययाथेबहुस्वे नुक्तेनालियामिति वक्तव्यम्‌ । 
यस्य बहुवचने परतो लुक्तस्यायमधिको दोषो त्रय हइव्युदात्तनिवुत्तिस्वरः प्रा- 
भोति । वक््मासत्ययार्थबहुस्वे लुभिर्येष एव पक्षो ज्यायान्‌ || 
20 अथेह कथं भवितव्यम्‌ । गारी च वात्स्यश्च वाञ्यशेति | यदि तावदली वि- 
भिनाभ्रीयते स्त्यत्राश्ीति कृत्वा भवितव्यं लुका । भथ ली प्रतिषेपेनाश्रीयते 
इस्त्यत्र खति कृत्वा भवितव्यं प्रतिषेधेन । किं पुनरत्राथे सतत्त्वम्‌ | देवा एतज्जा. 
तुमहन्ति ॥ 


अथ यो लोप्यलोपिनां समासस्तत्र कथं भवितव्यम्‌ | उभयं हि दृरयते । श~ 
26 रष्च्छनकदभोद्भुगुवत्साभायणेषु |४. ९. ९०२९] नोदात्तस्वरितोदयम गाग्यैकारय- 
पगारवानाम्‌ [८.४.६७] इति ॥ 
# ४.९० ८९ † २.४. ६४. प ४.९. ८९; ८२. § ४.९. ९२२; (९९४); १०४; ९५; 


२.४. ५८; ६५; ६४; ४.२.१२५; ७.९. १; (४.१९. ८९). 4 ४.९. ९०५; ११४; ९५; 
३,४.५८; ४.६. १२.५९; ७,९.१६ २.४, ६४. (६५); ६७, ॥ २.४. ६७; प°. 





पा° २.४.६४-६.| ॥ व्याकरणमहामष्यिय्‌ ॥ ४९.३ 


यन बोश्च ॥ २,। 9 ।६५४ ॥ 


यआदीनामेकटदयोवां तच्पुरुषे षष्ठया उपसंख्यानम्‌ ॥ ९ ॥। | 
यञादीनामेकद्कयोवौ तत्पुरुषे ष्ठा उपसंख्यानं कनैव्यम्‌ | गाग्यैस्य कुलं 
गाग्यकुलं गगेक्ुलं वा । गाग्ययोः कुलं गाग्येकुलं गगेकुलं वा । वैरस्य कुल वेद 
कुलं विदकुलं वा | वैदयोः कुलं बैदकुलं बिदकुलं वा || यञादीनामिति किम 5 
थम्‌ । ङ्गस्य कुलमाङ्गक्ुलम्‌ | आङ्गयोः कुलमाङ्गकुलम्‌* || एकद्योरिति 
किमर्थम्‌ | गर्गाणां कुलं गगेकुलम्‌ ॥ तस्पुरुष इति किमर्थम्‌ | गाग्यैस्य समीप- 
मुपगाग्यम्‌। || षष्ठया इति किमर्थम्‌ || शोभनगाग्येः परमगाग्यैः || 


बह च इञः प्राच्यभरतेषु ॥ २। ४।६६॥ 


किमयं समुच्चयः । प्राज्ञ भरतेषु चेति | आहोस्विद्धरतविोषणं प्राग्महणम्‌ ।.10 
प्रश्चो ये भरता इति । कि चातः | यदि समुच्चयो भरतग्रहणमनथकं न ह्यन्यत्र 
भरताः सन्ति | अथ प्राग्महणं भरतविदोषणं पराग्ब्रहणमनथेकं न प्राञ्चो भरताः 
सन्ति | एवं तर्हि समुच्चयः । ननु चोक्तं भरतम्रहणमनर्थकं न छ्यन्यत्र मरताः 
सन्तीति | नानथैकम्‌ । ज्ञापकाथम्‌ । किं ्ञाप्यते | एतज्ज्ञापयत्याचार्यो ऽन्यत्र 

प्रार्महणे भरतग्रहणं न भवतीति | किमेतस्य श्ञापने प्रयोजनम्‌ | इयः ` प्राचाम्‌ 15 
[१.४.६० | भरतमहणं न भवति । ओहरकिः पिता नीहालकावनः पुत्र हति | 


न गोपवनादिभ्यः ॥ २।७।६.७ ॥ 


गोपवनादिप्रतिधेधः प्राण्वरितादिभ्यः ॥ ९॥ 
गोपवनादिभ्यः प्रतिषेधः प्राग्धरितादिभ्योः द्रष्टव्यः | हारितः हरितौ । बहुषु 
हरिताः ॥ | 20 


ॐ ३.४. ६२. † २.६.६. { ४.९. १०४.ग ०, 


४९४ ॥ व्याकरनप्रहाभाप्यय्‌ ॥ ॑ [भ० २.४.२. 


उपकादिभ्योऽन्यतरस्यामद्रन्दरे ॥ २ । 9 । ६९. ॥ 


किमथेमदन्ड इत्युच्यते | इन्दे मा भूदिति । नैतदस्ति प्रयोजनम्‌ । इष्यत 
एव इन्दे | भ्रष्टककपिष्ठलाः श्राष्टकिकापिष्ठलय इति || अत उत्तरं पठति | 
अद्न्द्र इति दन्दाधिकारनिवृत्ययम्‌ ॥ ९ ॥ 


5 अह्न इत्युच्यते इन्दाधिकारनिवृच्यथेम्‌ । इन्हाधिकारो * निवत्येते | तस्मि- 
चिवृत्ते अविशेषेण इन्दे चान्द्रे च भविष्यति ॥ 


आगस्त्यकोण्डिन्ययोरगस्तिकुण्डिनच्‌ ॥ २ । 9 । ७० ॥ 


आगस्व्यकौण्डिन्ययोः प्रकृतिनिपातनम्‌ ॥ ९ ॥। 
भआगस्त्यकौण्डिन्ययोः प्रकृतिनिपातनं कतैव्यम्‌ । भगस्िकुण्डिनजिव्येतो प्रज 
10 स्यादेशौी भवत इति वक्तव्यम्‌ || किं प्रयोजनम्‌ । 
लुक्प्रतिषेधे वृद्धयथम्‌ ॥ > ॥ 
लुक्मतिषेधे† वृदधिर्यथा स्यात्‌ ॥ 
प्रत्ययान्तनिपातने हि वृद्धयभावः ॥ ३ ॥ 
परत्ययान्तनिपातने हि सति वृद्धयभावः स्थात्‌ | आगस्तीयाः ‡ कौण्डिना$ इति ॥ 
15 यदि प्रकृतिनिपातनं क्रियते केनेदानीं प्रत्ययस्य लोपो भविष्यति | 
अधिकारात्मत्ययलोपः।। ४ ॥ 
अधिकारात्मत्ययलोपो भविष्यति4 || 
ततर्ह प्रकृतिनिपातनं कतेष्यम्‌ | न कतैव्यम्‌ | योगविभागः करिष्यते | अ(- 
गस्त्यकौण्डिन्ययोबेहुषु लुगभवति | ततोऽगस्तिकुण्डिनाजेव्येती च प्रकृत्यादौ भ- 
20 घत आगस्त्यकौण्डिन्ययोरिति || एवमपि प्रत्ययान्तयोरेव प्रामोति प्रत्ययान्तादधि 
भवान्ष्ठीमुञ्चारयति* | भागस्त्यङौण्डिन्ययोरिति । नैष दोषः | यथा हि परे- 


# २.४.६८.  † ४.१९, ८९, { ५,२,९१९४. इ ५.२.९९९. ¶ २.५.५८. 
कैक १.९, ४९, 








पा ० २.४.६९-७९. ॥ व्याकरणमहाभाष्य । ४९५ 


भाषितं प्रत्ययस्य ल्‌ कू थुटुपो भवन्तीति प्रत्ययस्यैव भविष्यत्यवशिषटस्यादेरौ 
भविष्यतः || 


यङोऽचि च ॥ २9 99 ॥ 


ऊतोऽचि ॥ ९ ॥ 
ऊतोऽचीति वक्तव्यम्‌ | इह मा भूत्‌ । सनीखसः दनीभ्वस इति! ॥ अथोत इ- 
तयु च्यमान इह कस्मात्त भवति | योयूयः रोरूयः‡ | विहितविरोषणमुकारान्तम्रहणम्‌। 
डकारान्ताद्यो विहित हति || तत्तर्दि वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ । इष्टमेवैतत्संगु- 
हीतम्‌ । सनीसंसः दनीध्व॑स इत्येव भवितव्यम्‌ || 


॥ >>| 


गातिस्थापुपाभूभ्यः सिचः परस्मेपदेषु ॥ २। ¢ । 9७ ॥ 


गापोग्रंहण हण्पिब्यो प्रणम्‌ ॥ ९ ॥ 10 


गापोभरहण इण्पिवस्योमेहणं कतेव्यम्‌ । इणो यो गादा्दः पिवतेयैः पाशाब्द¶ 
इति वक्तव्यम्‌ । इह मा भत्‌ | भगासीच्चटः | अपासीद्धनमिति ॥ तत्तर्हि वक्त- 
व्यम्‌ | न वक्तत्यम्‌ | इणो महणे तावद्वाततम्‌ । निर्दे शादेवेदं व्यक्तं लुग्विकरणस्य 
ग्रहणमिति । पामहणे चापि वात्तम्‌। वक्तव्यमेवैतत्सवैत्रैव पामदणे ऽलुग्विकरणस्य 
महणमिति ॥ | 165 


तनादिभ्यस्तथासोः ॥ २ । 9 | 9९ ॥ 


तथासोरास्मनेपदवचनम्‌ ॥ ९॥ 
तथासोरारमनेषदस्य हणं कतैव्यम्‌ । आत्मनेपदं यौ तथासाविति वक्तव्यम्‌ || 
एकववनग्रहणं वा| ॥ 
अथकवैकवचने ये तथासी इति वक्तव्यम्‌ ॥ तचाबदयमन्यतरत्कर्तव्यम्‌ | 20 





# ९.९. ६९. † ६.४. २४; ४८; ४९; २.९. ६२, { ७,४. २५, § ९.९. ६३, 
4 २.४. ४५; ७.३. ७८. 


७९.६ ॥ व्याकरणपरहाभावष्यप्‌ ॥ | [ म० २.४.२. 


भवचने ह्यनिष्टपरसङ्गः ॥ ३ ॥ 
भनुच्यमाने छेतस्मिन्ननिष्ट प्रसज्येत । अतनिष्ट यूयम्‌ । असनिष्ट युयमिति || 
तैत्ति वक्तव्यम्‌ । न वक्तव्यम्‌ । यपि तावदयै तशाष्ो दृ्टापचारोऽ्स्त्या- 
स्मनेपदमस्व्येव परस्मैपदमस्त्येकवचनमस्ति बहुवचनमयं खलु थास्‌शम्दो ऽदृष्टाप- 
5 चार आत्मनेपदमेकव चनमेव तस्यास्य कोऽन्यः सशायो भवितुमहैस्यन्यदत आत्म- 
नेपदादेकव चना्च | तथथा । अस्य गोर्हितीयेनार्थं इति गौरेवानीयते नाशो न 
गदेभः | 


आमः।॥ ९। 9 ८९ ॥ 


आमो केपि लुङ्लोटीरूपसंख्यानम्‌ ॥ ९॥ 

10 आमो लेलेपि लुङ्लोटोरूपसंख्यानं कलेव्यम्‌ । तां धैजवापयो विदामक्रन्‌ । 
त्र भव्रन्तो विदांकुर्वन्तु | तस्ति वक्तव्यम्‌ | न वक्तव्यम्‌ | किम्रहणं* निव- 
रिष्यते । यदि निवतेते प्रस्ययमा्रस्य लुक्परामोति । इष्यत एव प्रत्ययमात्रस्य । 
आतथेष्यत एवं द्याह कृश्चानुप्रयुज्यते किरि [२.१.४० | इति यदि च प्रत्यय- 
मात्रस्य लुग्भवति ततं एतदुपपन्नं भवति ॥ 

15 आमन्तेभ्यो गलः प्रतिषेधः ॥ ‰ ॥ 

भआमन्तेभ्यो णलः प्रतिषेधो वक्तव्यः । शशाम तताम | वृद्धौ कृतयामाम 
इति लुक्मामोति ॥ भामन्तेभ्यो ऽथे वद्रहं णाण्णलो प्रतिषेषः । आमन्तेभ्योऽ्थवद्रह- 
गाण्णलोऽप्रतिषेधः । अनथकः प्रतिषेधो अप्रतिषेधः । लुकृस्माच्न भवति । श्याम 
तततामेति । अर्थेवद्रहणात्‌ । भथेवत जाम्शब्दस्य ग्रहणं म चेषोऽथैवान्‌ ॥ 

20 आमन्तेभ्यो अथव द्रृहणाण्णलोऽपरतिषेध इति चेदमः प्रतिषेधः ॥ ३ ॥ 

आमन्तेभ्योऽथेवद्रहणाण्णलोऽप्रतिषेध इति चेदमः प्रतिषेधो वक्तव्यः । भाम ॥ 
उक्तं वा ॥ ४॥ 

किमुक्तम्‌ । संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तदिषातस्येति | 

किं पुनरैगादेश्चानामपवाद्‌ आहोस्विक्कृतेष्वदेशेषु ९ भवति । 


५ २.४. ८०. † ५,२. ६९६. ‡ ९.९. ६९४, § ३.४. #७, 











पा० २.४.८९. ॥ व्याकल्न महाभाष्यम्‌ ॥ ४९७ 


लुगादेरापवादः ॥ ९ ॥ 
दुगादेश्ानामपवादः ॥। 
,  तिङ्कुताभावस्तु ॥ & ॥ 
तिङतस्य स्वभावः । कस्य । पदत्वस्य || | 
सुब्न्तपदत्वास्सिद्धम्‌ ॥ ७ ॥ - | ४ 
छबन्तं पदमिवि पदसंश्ञा भविष्यति || कथं स्वाद्युस्पततिः । 
लकारस्य कृच्वात्प्रातिपदिकत्वे तदाश्रयं प्रत्ययविधानम्‌ ।। ८ ॥ 
लकारः कृत्कृलमातिषदि कमिति प्रातिपदिकं शा तदान्रयं प्रत्ययविधानम्‌ | प्राति- 
पदिकाश्रयत्वास्स्वा्युस्पत्तिभैविष्यति। ॥ पः वणं प्रामोति । अव्ययादिति जु- 
गभविष्यतिः | कथमव्ययत्वम्‌ । 10 
अव्ययत्वं मकारान्तस्वात्‌ ॥ ९ ॥ 
कृदन्तं मान्तमव्ययसंजञं भवतीस्वव्ययसं्ञा भविष्यति || स्वरः कथम्‌ । यख- 
क।रयांचकार | 
स्वरः कृदन्तप्रकृतिस्वरत्वात्‌ ॥ ९० ॥ 
कृदन्त मुलर पदं प्रकृतिस्वरं भवतीत्येष -स्वरो भविष्यति ॥ 15 
तथा च निषातानिषातसिद्धिः ॥ ९९ ॥ 
तथा च निषातानिषातसिद्धिभवति । चक्षुष्कामं याजयांचकार | तिङतिङः 
[८.९.२१८] इति तस्य चानिषातस्तस्माञ्च निषातः सिंदधो भवति ॥ 
नजा तु समासप्रसङ्गः | ९२ ॥ 
नमा तु समासः प्राप्रोति } न कारयाम्‌ | न हारयाम्‌ | नञ्जबन्तेन सह 20 
समस्यत इति समासः प्रामोति“ || 
उक्तं वा ॥ ९३ ॥ 


किमुक्तम्‌ ] भसामर््यादिति।† | नात्र नज भामन्तेन साम्यम | केन तर्हि | 
तिङन्तेन । न चकार कारयाम्‌ | न चकार हारयामिति ॥ 
# २,४.६४. † ३.९. ९३; १.२.४६; ४.६.३२. ‡ २,४.८२. § ९.१ &. 


॥। &,२.+ ९३९ | क २.२. ४; (६.६. ॥ 0 ॥३। २.६.९४. 
63 ग 





७९ ॥ व्याकस्न महाभाष्यम्‌ ॥ | [ म० २.४.२. 


+ 


अन्ययादाप्सुपः ॥ २९ । 9 । ८२ ॥ 


अबव्ययादापो दुग्वचनानर्थक्यं लिङ्गाभावात्‌ || ९ ॥ 

अष्ययादापो टुग्वचनमनथेकम्‌ । किं कारणम्‌ । लिङ्खाभावात्‌ । अलिङ्गमः- 
व्ययम्‌ ॥ किमिदं भवान्पो लुकं मृष्यत्यापो लुकं नः मृष्यति । यथैव लिङ्ग 
¢ मव्ययमेवमसंख्यभपि । सत्यमेतत्‌ | प्रत्यक्लक्षणंमाचायैः प्राथैयमानः इषे लुकं 
मृष्यति | आपः पुनरस्य लुकि सति न किंचिदपि प्रयोजनमसि || उच्यमानेऽप्ये- 
तस्मिन्स्वाशुत्पत्तिने परामेति | कि कारणम्‌ | एकत्वादीनामभावात्‌, | एकत्वादि- 
ववर्थेषु स्वादयो विधीयन्ते न चैषामेकत्वादयः सन्ति | भविशेषेणोसप्यन्तं उत्प- 
चरानां नियमः क्रियते ॥ भथवा प्रकृतानथोनपेष्य नियमः । के च प्रकृबाः | पक- 
10 स्वादयः । एकस्मि्ेवैकत्रचनं न इयोने बहुषु | इयोरेव हिव चनं तैकस्मिच्च बहुषु । 
बहुष्वेव बहुवचनं त्ैकस्मित्त योरिति ॥ अथवाचा्प्रवृत्तिज्ञौपयस्युत्पद्न्तेऽव्यये- 

भ्य; स्वाद्म इति यदयमभ्ययादाष्ड्फ इति खम्ुकं शास्ति ॥ 


नाव्ययीभाकदतोऽम्तयज्म्याः ॥ २ ।%। ८३ ॥ 


नाव्ययीभावादत इति योगव्यवसानम्‌ ॥ ९॥ 
15 नाव्ययीभावादत इति वोगो ्यवसेयः । नाव्ययीभावादकारान्तातित्छुपो ठुग्भवति। 
ततोऽम्त्वपञ्म्या हति || किमर्थो योगविभागः । 
पञ्चम्या अम्प्रतिषेधाथंम्‌ ॥ ‰ ॥ 
पचग्या जमः प्रतिषेधो यथा स्यात्‌ ॥ 
एकयोगे ह्युभयोः परतिभेधः ॥ ३ ॥ 


20 ेकयोगे हि सल्यूभयोः प्रतिषेषः स्यादमोश्लुकश || स ति योगविभागः क- 
तैष्यः | न कतैव्यः । 
तृनिर्योमकः 1 
तुः क्रियते स नियामको भविष्यति । भमेवापञ्चम्या इति ॥ 








पा०२.४.८२-८५. | ॥ व्याकरणयमहाभष्यय्‌ ॥ ४७९९ 


अमि.ृन्वमीमरतिषेधे भ्यादानम्रहणंम्‌ ॥ ४ ॥ 
भमि पञ्चमीप्रतिषेपे ऽपादानम्रहणं कतेभ्यम्‌ | अपादानपत्चम्या इति वक्त- 
व्यम्‌” | किं प्रयोजनम्‌ | 
कर्मप्रवचनीययुक्त प्रतिषेधार्थम्‌ || ५ ॥ 
कमेप्रवचनीययुक्ते मा भृत्‌ | आपाटकिमुत। वृष्टो देवः || - 
न वोत्तरपदस्य कर्मप्रवचनीययोगात्समासात्पञ्चम्यभावः ॥ ६ ॥ 
न वौ वक्तव्यम्‌ । किं कारणम्‌ । उंचरपदमत्र कर्मेपवचनीययुक्तम्‌ | उन्तरप- 
दस्यं कर्मप्रवचनीययोगात्समोसात्प्चमी न भविष्यतिं | यदा च समासः कर्मप्रवच- 
नीयंयुक्तो भवति तदा प्रतिषेधः | त्था | आ उपङुम्भात्‌ । आ उपमणिकादितिः || 


तंतीयासंप्योबेहुलम्‌ ॥ २ । 9 । ८० ॥ 10 
सपम्या ऋद्धिनदीसमाससंल्यावयवेभ्यो नित्यम्‌ || ९ ॥ 


सप्रम्या इदिनदीसमाससंख्याव यवेभ्यो नित्यमिति वक्तव्यम्‌ | ऋऋदि । डमं- 
दरम्‌ छमगधम्‌ | नदीसमास | उन्मत्तगङ्गम्‌ लोहितगङ्गम्‌ । संख्यावयंव | एकविं - 
हातिमारद्ाजम्‌ त्रिषत्चाशङ्गौतमम ॥ | 


हुटः प्रथमस्य डारौरसः ॥ २।४। ८५. ॥ . = 
टितं टेरेषिधेलुटो डारौरसः पूवविभतिषिदम्‌ ॥ ९॥ 
हित टेरेविषेटगे डारौरसो भवन्ति पूर्वविप्रतिषेषेन | ठेरेस्वस्यावकाशः¶ | प- 
चते पचेते पचन्ते | डासैरसामवकाशः । अः कतौ अः कतीरौ शचः कतीरः | इहोभयं 
भामोति | शो अध्येता शो ऽ्वेतारौ श्वो ऽध्येतार इति | डारौरसो भवन्ति पवैवि- 
प्रतिषेधेन || स तर्हि पुवेवि्रतिषेधो बक्तव्यः | न बक्तव्यः | 29 
आत्मनेपदानां चेति वचनास्सिदम्‌ ॥ २ ॥ 
आत्मनेपदानां च डासैरसो भवन्तीति वक्तव्यम्‌ || 


+ ३.३. २८. † २,९१.१९०. . {२.१९.६; २,३.९०. § २.६.६४ २१५१९. म ३.४. ७९, 


1 ॥ हकर्नाकककाण्दाे | | (क्र 


क्थ गगर्गखवा्वम्‌ । दे । 
कातदयन्रतनेकर तरक कर्त्वो सममङ्वार्यम्‌ | मस्याःतनुेयते" क्था स्कान | 
अत्रि तगरे अरक्ते कर्ते कर स्कानिनसक जारे का : | वरेक्कान्सख्गानतनुरे ओ न 
श्रतोनि | 
¢ ततिति आन कताय आर्मनेदटजन्तेन | इरभिर संवष्डर्वम्‌ | ल- 
गौरम क्रियतां 2रत्कमिनि किमत्र कर्मत्वम्‌ | करत्कररेत्वम्‌ | नित्का खरौरलः | 
कने त्ेन्ते श्तुकस्स्कङृते पि आतुवन्ि | 2ेरेन्वमकि नित्यम्‌ | इनेप्कवि सरौरस्ख 
शरितोरकङतेच्वपि श्पते(ति | अनिन्यमेत्वम्‌ | अन्यस्य नेतु सरौरस्य क्ेत्वन्य- 
स्कङृनेवु ऋष्डान्तरस्यव ऋ शऋतुकन्विविरनित्वो नि । सरोरसेञम्ककित्काः | 
1८ अस्वल्त त दत्ते शऋनुत्न्स्वन्यस्याकृने खब्दान्तरस्व च शआबुवन्तेजनित्का म- 
कर्ति | डमयोरनिग्ययोः ¶रत्तरारेत्वम्‌ | एत्ते ने षुनः कस द्गति ङान्््चरौरस्ते म- 
रिष्यन्ति || समनसद्वार्येन खपि नार्थं मासमनेपरग्रहनेन | स्वने ऽन्तरतमेन। व्व- 
भस्था मतिच्यति | कुत भन्तर्वम्‌ | अर्वतः | एका्थंत्वैकार्थो वयस्य यर्थो व- 
हयस्य अदयः || अथयत्रादेा भवि षडेव निरदिदवन्ने । कथम्‌ | एकरोषनिरद चात्‌ । 
1; ककदोषतिरदद्यो ध्यम्‌ || अयेतस्मिन्रेक शोषनिरद शो खति किमयं ऊत्रैकदोषानां इन्दः | 
डाचडचडा|रौषरौचरौ | रथरथ्रः | डाचरौ च र डारी- 
श्ख इनि | भागेस्िकवहम्हानाभेकशेषः | डा च रौ च रश्च डारौरसः | डारौर- 
सं डारौरसथ डारौरस इति । किं चातः | वदि कृतैकदोषाणां इन्दो अनिष्टः स- 
मसंख्यः प्राप्रोति । एकव्र्नदिवचनयो ड प्रामरोति बहुवचतैकवचनयो रौ प्रामोति 
20 दविक तरनबनरुत्चनयोथ रस्मापरोति | अथ कृतदहन्हानामेक शेषो न दोषो भवति | वथा 
न दे षस्मयास्तु || किं पुनरत्र ज्यायः | उभयमित्याह | उभयं हि दृदयते । बहु 
रक्तिकिटकम्‌ | बहूनि शक्तिकिटकानि | बहु स्थालीषिठरम्‌ | बहूनि स्थाली- 
पिडततणि ॥ 
डाहिरः हृते टेरे यथा दत्वं प्रसारणे{ | 
2 समसंख्येन नार्थोऽस्ति सिं स्थानेऽ्थतोऽन्तराः ॥ 


भम्तर्येतो व्यवस्था त्रय एवेमे भवन्तु सर्वेषाम्‌ | 
टेरे च परस्वारकृतेऽपि तस्मिन्निमे सन्तु ॥ 


[1 ष) |) 1 यि पि 


# ९,३.९०. † ९,६.५०. ‡ ६.९. ८ ९५. 








पा० २.४.८५. | 1 व्याकरंणयहीभाष्वय ॥ ९०९ 


डाविकारस्य शित्करणं सवीदेरार्थम्‌ ॥ ४ ॥ 
` डाविकारः शिस्कतेध्यः | किं प्रयोजनम्‌। सवौदेशार्थम्‌ । शित्सर्वस्येति" सर्वा- 
देशो यथा स्यात्‌ । अक्रियमाणे हि शकारे ऽलो ऽन्त्यस्य विधयो भवन्तीव्यन्त्यस्य 
प्रसज्येत ॥| , 
 निषातप्रसङ्गस्तु ॥ ५ ॥ | ° 
निधातस्तु प्रामोति | चः कतो | तसेः परं ठसावेधीतुकमनुदात्तं. भवतीयेषं 
स्वरः: प्राभोतिऽ ॥ 
` यत्तावदुच्यते डाविकारस्य दित्करणं सवोदे शाथ॑मिति | 


सिद्धमलोऽन्त्यविकरात्‌ | ६ ॥ 
सिद्धमेतत्‌ । कथम्‌ । भलोऽन्त्यविकारात्‌ | भस्त्वयमलोऽन््यस्य । का रूप-~ 10 
सिद्धिः | कतां । 
| डिति टेर्छोपाद्छोपः ॥ ७ ॥ 
डिति टेर्लौपेन¶्‌ लोपों भविष्यति । अभस्वाञ्र प्रामोति | डिर्करणसामथ्वा- 
विष्यति || 
अनिच्वाद्रा ॥ ८ ॥ | | ' ˆ # 
अथवानिन्त्वारेतस्सिद्धम्‌ । किमिद मनिचवादिति | अन्त्यस्यायं स्थाने भवन्तं भ्र- 
स्ययः स्यात्‌ । भसत्यां प्रत्ययसंज्नायामित्संज्ञा न । असत्यामिस्संज्ञायां लोपो न । 
असति लोपे काल्‌ । यदानेकाल्तदा सवादेशः । यदा सवोदेशस्तदा ' प्रत्ययः | 
यदा प्रस्ययस्तदेत्संज्ञा'* । यदेत्सं्ञा तदा कापः†1 | 
पिष्टनिदराद्रा ।। ९ ॥ ` ` 
अथवा प्रचचिष्टनिर्दे शोऽयम्‌ | डा भा डा | सोऽेकाल्स्सर्वस्य [१.१.९९ | 
हति सवोदे द्यो भविष्यति ॥| 
यदा तद्ययमन्त्यस्य स्थाने भवति तदा तिङ्हणेन अरहणं न प्राभोति । 
तिङ्कहणमेकदेशविकृतस्यानन्यत्वात्‌ । ९० ॥ 
एकदे राविकृतमनन्यवद््‌ वतीति तिङ्हणेन म्रहणं भविष्यति ॥ 28 
स्वरः कथम्‌ | ` | | 





९.९. ५५. † ९.९. ९२. {[६.९०.१८६. § २.४. ९९३. ¶ ६.४. ९५४३. 
। कक ६,०३.० ७9 ` 11 १,०९. ९ 


५०१ ॥ उ्याकरणपमहाभाष्यय ॥  [मा० २.४.३२... 


स्वे विप्रतिभधास्सिद्म्‌ ॥ ९९॥ 
डारौरसः क्रियन्तामनुदात्तत्वमिति किमत्र कतेव्यम्‌ | परत्वादनुदात्त- 
स्वम्‌ । निष्या डारौरसः | कृतेऽप्यनुदा्तववे परामुबन्तवकृतेऽपि परामुवन्ति | भनुरात्त- 
स्वमपि नित्यम्‌ । कृतेष्वपि डारौरस प्राभोस्यकृतेष्वपि प्रामोति ।. अंनित्यमनुदा- 
४ नतस्वम्‌ । अन्यस्य कृतेषु डरौरस्छ प्रामोरत्यन्यस्याकृैषुं शब्दान्तरस्य च प्ाभुव- 
न्विधिरनिस्यो भवति | डरौरसो ऽव्वनित्याः । अन्यथास्वरस्य कृते अनुदात्तत्वे 
प्राप्ुवन्त्यन्यथास्वरस्याकृते स्वरभिन्नस्य च प्राञरुवन्तो अनित्या भवन्ति | उभयो- 
रनित्ययोः परत्वादनुदाचत्म्‌ । अनुरात्तस्वे कते पुनः प्रसङ्गविन्ञानाडतैरसः । 
टिलोप उंदा्निवृतिस्वरेण सिद्धम्‌ || न क्िभ्यति । किः कारणम्‌ | अन्तर क्गत्वा- 
10 डारौरसः । त्रान्तर ङ्ग स््राड़ारौरस्डछ कृतेष्वनुदा तत्वं क्रियतां टिलोप इति कि- 
मत्र कव्यम्‌ । परत्वािलोपेन भ॑वितव्यम्‌ || एवं तर्द स्वरे विप्रतिषेधालत्सिद्धम्‌ । 
न्याय्य एवायं स्वरे विप्रतिप्रेषः । इदमिह संप्रधायेम्‌ | भनुरात्तस्वं क्रियतोमुदात्त- 
निवृत्िस्वर इति किमत्र कर्तव्यम्‌ | परत्वादनुदा्तस्वम्‌ । अनुदासस्वे ते पुनः- 
परसङ्गविज्ञानादुदात्तनिवृत्तिस्वरो भविष्यति || तदेतत्क॒सिदं भवति | यिद्रच- 
15 नम्‌।† | यदपिङ्कचनं तत्र न सिध्यति | तत्रापि सिद्धम्‌ | कथम्‌ | इदमद्य लसा्वै- 
धातुकानुदान्तस्वं ्रत्ययस्वरस्यापवादः‡ । न चापवादधिषय उस्सगोऽभिनिविदाते | 
परव ह्यपवादा अभिनिविरन्ते पथीदुत्सगौः | भंकेसप्ये वापवादेविषयं तत उत्सर्गोऽभि- 
निविश्चते | तच्नं तावंदनत्रं क दाचिसत्ययस्वरो भवंत्यंप॑वारं लसंर्वषातुकानुदात्तत्वं 
परतीक्षते | तत्रानुदाचस्वं क्रियतां लोप इति यद्यपि परस्वाछठोपः सोऽस्तावविश्मानो- 
9० दासत्वेऽ्नुदात्त उदात्तो लुप्यते ॥ 
प्रत्ययस्वरापवादो लसावैधातुकानुदात्तत्वम्‌ | 
तेन तत्र न प्रसक्तः प्रत्ययस्वरः कदाचित्‌ | 
प्रत्ययस्वर तास्ेवुंत्तिसंनियोगरिष्टः | 
तिन चप्यसावुदाततो लोयप्स्यते तथा ने दषः ॥ 
9 इति श्रीभगंव्यत््रटिविरकिते ध्याकरणमंहाभांष्ये शितीयस्याध्यायस्य चतुर्थे 
पादे दितीयमाह्धिकम्‌ ॥| पाद समाप्तः ॥ 
॥ द्वितीयोऽध्यायः समाप्रः ॥ 


# ६.९. ६६१. ¶† ३.६.४. { ३,९१.३, 








पृ 


|| अथ पठिमेदः ॥ 


प॑र 


99 


पर 


९, ९ एण अंथ, © श्रीगणेशाय नमः; | ९ ९५17) ^ ष्याकरणमाधि, 


म्‌, 


श्रीगणेशाय नमः ॥ शशिरवे नमः; 8 श्री- 
गनगेद्ाय नमः ॥ योगेन विन्तस्य पदेन 
वा्ां मलं शररिस्य हु वैद्यकेन | योऽपा- 
करोत्तं प्रवरं मुनीनां पतंजरि प्राजलि- 

` शानतोस्मि ॥ ९॥ ओं; ¢ स्वस्ति अभीगने- 
शाय नमः ॥ ओम्‌, & 71 "श. अयेस्यतः 
पूवं योगेन चित्तस्येति पद्यं कचिस्पव्यते 
तच्िछष्येः प्रक्षिप्तम्‌ । 

९ © भथ दाब्ठानुचासनं महानाष्यं लिसस्यते. 

६ 0 किं यत्तहिं सा०...बाणरूपं; °वि. 
षाणार्थ> ^ °विषाणाथंरूपं शब्दतः. 

. 4 9 7 ^ यत्तह चुहले ; 8 यस्व (० 
&ण9]7 यत्तां ) दु्धो नीलः कृल्णक- 
पिलः; 8 & ०. कुणः; 4 ¢ ण, कुष्ण 
कपिलः, 

९ ५74 7 यत्ति मिः, 

१९ © विषाणाना. 

१३ © 7 ^ कर्वचुच्यते, 

१९ ^ 01, ज्ञेय 

९९ 0 5 षडगेषु 

२०९ 4०0). च्छु 

२६९ ०तस्या 

९ 0 ऽभ्यवस्यति । यदि पृंपप्रङ्तिस्वरतो 
ऽध्यवस्यति यदि पूव॑पठ्‌र. 

७ © तस्मादवि्ताताथंमनर्थकं. 


` 2 ^ गोना गोपोतालि. 


२९ 08828 & (८ 1०09. शरणम्‌ । वि- 
षम उपन्यासः । नार्येता्याः, 

२७ © एवे हि सौ. 

२८ ^ 071. यो. 


३, २८ © ^ 0०. गुहायां .. नेङ्गयन्ति. 


्, 


र, 


१ त्था जाया £; 974 जायवः; © 
£ ठ तद्यथा जायेव 
७0174 ॐ ०पष्ण् © विङ्णुयादि 
ल्थध्येयं 
१३ © परिपवनं ति तद्रा तुनवद्ना. 


२ (निना सभ्य सूषिरामाभिरतः प्रविर्द- . 


६ © षति. 

७ 7 & ? तेभ्यस्तत्तस्स्था^. 

< -करणानुप्रदान? 2119 4110911 ; 7188. 
करणनादानुप्रहान 

९ 9 & 2 वैदिकाः शब्दाः सिद्धा 

१० £ ध्येयः सुहृडूस्वा चायं ; ¢: सुहद्भल्वा 
ए गार 

२९ 0 गाक्रीगोणीगोपोवलिकादयो; ¢ गा- 
व्यादयो. 

२७ © 7 + (स्पतिश्च वक्ते. 

२८ ० चतुर्भिः प्र . 

२८ 0 ` युक्तो, ^ श्युक्तोपयुक्तां 


६, २ ¢ पयंवपच्चं 


७, 


( 4 


९, 


१01 .4 येन येनास्पेन. 
& © विद्येषापवादंः. 
१८ (¬ सिद्धः । . 
६ © ०"). पयाति. 
२२ 9 ^ ग्योगि तक्ति ` 
८ © प्रयोक्तव्ये लौकिक 
१९ © 2 © ध्भस्य; 19 & (6 णव 
810८ ०१४ 
२९ © भर्थाब्गसौ. 
४074 2 यष्लोके अप्र. 
९ 07 4 चाहं. 
१० @ प्रयोगः खः. 
९६ © -सहसल्रकाणि. 
९६ ^+ कश्िदप्या््रतिं. 
१९ 4 £ न चैवोप०, एन वैते उपः, 
२६ © 1 ^ इस्येतावत. 


१०, २ 2 यदो रेत्रैती रेवस्यात्तमूष ; ¢ सथ्यथा । 


यद्रो रेवती रेषस्यं तमूष, & 1 गणा. 
सघरास्ये रेवती रेवदूष ; & तथ्या । यो 
रेवती रेवस्यन्तमूष ; 8 सद्यथा । रेवस्मं 
समुष. 

१२ © ०८, प्रयोगै. 

१७ 0 कृस्वयन्ना^. 


५०२ ॥ उयाकरणयमहाभाष्यम्‌ ॥ | [मा० २.४.२, ,. 


स्वरे निप्रतिंषधास्सिदम्‌ ।। ९९ ॥ 


डारौरसः क्रियन्तामनुवात्तत्वमिति किमत्र कतैव्यम्‌ | परस्वादनुदात्त- 
स्वम्‌ | निष्या डारौरसः | कृतेऽप्यनुराततसवे पराभ बन्तयकृतेऽपि प्रामुषन्ति | भनुदात्त- 
स्वमपि नित्यम्‌ । कृतेभ्वपि डारौरस्छ प्राभोस्यकृतेष्वपि प्रामोति ।. अंनित्यमनुदा- 
४ स्वम्‌ | अन्यस्य कृतेषु डारौरस्छ प्रामो्य॑न्यस्यौक्ृतैषुं राब्दान्तरस्य च प्रापरुव- 
न्विपिरनित्यो भवति । डारौरसो ऽप्यनित्याः | अन्यथास्वरस्य कृते अनुदात्तत्वे 
प्रा्रुवन्त्यन्यथास्वरस्याकृते स्वरमभिच्स्य च प्रामुवन्तो अनित्या भवन्ति । उभयो- 
रनित्ययोः परत्वादनुदा्स्यम्‌ । भनुदात्तत्वे कृते पुनःप्रसङ्गविज्ञानाडतैरसः | 
टिलोप उदात्तनिवृत्तिस्वरेण सिडम्‌ || न सिध्यति । किः कारणम्‌ | अन्तर क्गंसत्वा- 
10 डारौरसः | तश्रान्तर ङ्ग ताड रौरस्छ कृतेष्वनुरात्तत्वं त्रियतां टिलोप इति कि- 
मत्र करैव्यम्‌ | परत्थाहिलोपिन भवितव्यम्‌ || एवं तर्द स्व॑र विप्रतिषेधास्तिद्धम्‌ | 
न्याय्य एवायं स्वरे विप्रतिषेधः । इदमिह संप्रधायेम्‌ । भनुदात्तस्वं त्रि यतोमुंदात्त- 
निवृ्तिस्वर हति किमत्र कर्तव्यम्‌ | परत्वादनुदात्तस्वम्‌. । अनुदा्तस्वे कृते पुनः- 
प्रस द्कविज्ञानादुदात्तनिवृ्तिस्वरो भविष्यति || तदेतत्क सिद्धं भवति | यसिद्व- 
15 नम्‌।† | यदपिङ्कचनं तत्र न सिध्यति । तत्रापि सिद्धम्‌ । कथम्‌ । इदमद्य लसार्व- 
धातुकामुदा्त्वं रस्ययस्वरस्यापवादः‡ । न चापवादधिषय उत्सर्गो ऽभिनिविशते । 
परव ह्यपवादा अभिनिविरनते पथीदुंत्वगौः | भरंकलच्ये वापवादविषयं तंत उत्सर्गोऽभि- 
निविश्यते | तत्रं तावंदच्रं कदाचिसत्ययस्वरो भवंत्यंपवारं रसोर्वपातकानुदात्तत्वं 
प्रतीक्षते | तत्रानुदाचत्वं क्रियतां लोप इति यद्यपि परसराछ्ठोपः सोऽसाववि्यमानो- 
90 रासस्वेऽनुरात्त उदात्तो ठुप्यते || 
प्रत्ययस्वरापवादो लसातैपातुकानुदात्तत्वम्‌ | 
तेन तश्र न प्रसक्तः प्रत्ययस्वरः कदाचित्‌ | 
प्रत्ययस्वर तासेवृत्तिसंनियोगिष्टः | 
तैन चाप्यसावुरात्तो लोप्स्यते तथा ने दषः ॥ 
४ इति श्रीभंगंवत्पतञ्जलिविरचिते ध्याकरणं महाभाष्ये दवितीयस्याध्यायस्य चतुय 
पादे द्वितीयमाह्विकम्‌ || पादश समाप्तः | 
॥ द्वितीयोऽध्यायः समाप्रः | 


7 ६.९. ९.६६. ¶† ३.९.४५, { ३.९.१. 











पृ 
९, 


म्‌, 





॥ अथ पाढमेदः ॥ 


पण 


पण 


९ ए<017€ अभंथ, © श्रीगणेद्ाय नमः; ४।९; ९67 4 व्याकरणमाधेः 


श्रीगणेशाय नमः ॥ अशिरवे नमः; 2 श्री- 
गगनेशाय नमः ॥ योगेन विश्तस्यं पेन 
वाचां मलं दाररिस्य दु वैद्यकेन | योऽपा- 
करोत्तं प्रवरं मुनीनां पसजल प्राजलि- 

` शानतोस्मि ॥ ९॥ ओं; ¢ स्वस्ति अगन. 
शाय नमः ॥ ओम्‌, & 11108. अयेस्यत, 
पूवं योगेन चित्तस्येति पद्यं कचित्पव्यते 
तरिष्ये: प्रक्षिषम्‌ । . 

९ © भथ शब्दानुशासनं महानाष्यं लिख्यते. 

६ © किं यत्तं सा०...्राणरूपं ; 1१. 
षाणा्थर; ^ “विषाणा्थंरूपं शब्दः. 

. 4 9 7 ^ यत्ति शह ; 8 यस्तहि (०- 
8202115 यत्तां ) शुको नीलः कुल्णक- 
पिलः; 8 & ०01, कृष्णः; 4 ¢ ण, क्ष्ण 

कपिलः, 

९०747 य्ह मि, 

१९ © विषाणाना. 

१३ 0 1 ^ ऊ्कवघ्ुच्यते, 

१९ ^ 00). स्तेय. 

९९ 0 8 षड्गेषु- 

२९ ^ 0. च्छु, 

२६ © तस्याः. 

९ 0 ऽध्यवस्यति । यहि पए्र॑पदपरङ्तिस्वरतो 
ऽध्यवस्याति यहि पूवपद? 

१७ ¢ तस्मादवित्ताताथंमनर्थंकं. 


` 2४ ^ गोना गोपोतालि० 


३ 


्, 


र, 


२९ 088 & ¢ 1" "84. शरणम्‌ वि 
धम उपन्यासः । नास्यैतायाः 


२७ 0 एवे हि सो. 


२८ 4 ०1. यो. 
२८ © 4 ००. गुहायां .. नेद्खःयन्ति. 
१ त्था जाया ६; 07०4 जायवः; ¢ 
£ 8 तद्यथा जायेव 
७ 074 & णहट्ण्शाफ © विङ्णुयादि 
ल्दभ्येयं 
१३ 0 परिपवनं ति तद्रा तुनवदा. 


२ (निना सभ्यं सूषिरामभिरतः प्राविर्द- - 


६ © परति 

७  & ? तेभ्यस्तत्तस्त्था. 

< °करणानुप्रकान? 81४47109; ; 7188. 
करणनाशामुप्रशनः 

९9 & 2 वैदिकाः शब्दाः सिद्धा 

१० £ ऽध्येटभयः सुहृडूस्वा चायं ; ¢: सुहद्भल्वा 
17 17847. 

२९ 0 गाकीगोणीगोपोवलिकाद्यो; ¢ गा- 
व्यद्यो, 

२७ © 7 4 स्पतिश्च वक्तै?. 

२८ © चतुर्भिः प्र - 

२८ © ` युक्ती, ^ श्क्तोपयुक्तां 


६, २ © पयंवपश्चं 


१ ५914 येन येनास्थेन. 
६ © विखेषापवादः. 
१८ &। सिख | , 


७, ६ © ०). पदयाति. 


२२ © 4 भ्योगि तिर. 


८, < © प्रयोक्ष्ये लौकिक. 


१९ © £ ¢ धर्मस्य; 10 ह (6 जणे ४ 
870८ ०४५ , 

२९ © गमधौश्गतौ. 

# 0174 3 यल्लोके प्रः 

५०74 चा 

९० © प्रयोगः ख. 

९६ 0 सहनलकाणि. 

९६ ^ कञ्िदप्याहरति. 

९९ ^ & नेवोपञ, टन वैते उपः, 

२१६ © 1 ^ इव्येतावंत. 


१०, २ © यदो रेत्रैती रेवस्यात्तमूष ; ¢ तद्यथा । 


यद्रो रेवती रेषस्यं तमुष, & 10 10४४४. 
सपास्ये रेवती रेवदृष ; £ तदयथा । यदो 
रेवती रेवस्यन्तमूष ; ठ तद्यथा । रेवस्ं 
तमूष. 

१२ 0 ०८, प्रयोगे. 

१७ 0 कृस्वयन्ना^. 


९०४ 


० पण 
९०,९८ (@ 7 ^ ०१. वै, 
२६ © ०. नतु च्छ. 
९९, ९ 0 शमे एव. 
४ © तहोषाय. 
८67; स कोषो, 
९ 0 यद्यपशाब्द 

६० © ^ € भूयसागङृदयेनः 

१९ )४&8&€ 10 णक, अंन्यज्रानि 
यमः, २६6१ नियमः, 

२९ © ०), 

२६ 2 £ 8 श्याक्रियते शबल भने 0 
ध्याक्रियेते अनः, & शान्डा 7\ णाह. 

९२, ९ © आपिशलं ; ८ सालमिति, ८६९ 
10" काच क्स्स्नमिकति. 

१० 0 1 यदप्यु्यते. । 

१४ (0 0, हति 

९६ 0 पुनकंक्षणं लक्ष्यं च 

१ 7 &£ ए एवमप्ययं दोषः समुद्यये ; 0 188 
दोषः 10 081 

९८ 0 °धीयमान 

९९ ( 011. हि 

२९ © ^ श्वेष्वपि वतैते; 7 8 केष्वपि वतेते 

९३,९३ © 01. इष्टबुङषरथंश्च । | 

९९ ^ 2 ©& ? ०. आकरख्युपदेशास्सिद्धभे- 
सत्‌. 

१९ 0] पदिहलिसासं. 

२३ 0 ऽम्बुकरतो. 

२९ 0 "मम्बुकरतं. 

` २६ © संदष्ट °.. इतं ; 7 + इत. 
९४,६४ 0 1) ^ £ वाक्यानि हि. 
९९ 9 नाथं उप० ; ¢ ना्थमुष. 
९५,९६ © 0. विवृतस्य. 

६७ ? ०70. वा; 0 ख्यायते ...मानस्य विचर 
वाश्चौद्तेति; 7 संृतोपदिदियमानस्य वि- 
छतश्चोदेतेति ; 4 भानस्य विचतश्चोयखेते- 
ति ; © ख्यायते. . स्य वा ॒विष्तोपरेदा- 
चखते; £ 'ख्यायेत संङतस्य क उपदि 
इयमानस्य विदत शओेतेति 

६ 0 7 (हारे अकारमरहणे 
१६, ह 0 कोन विश्चेषः. 
३. © सव्र 
६७74०00. शच्च. 
< 09 ०1. संवतो. 
६ 0 वक्ष्यते 
९७, ९४ (> 01, 006 विषये 


॥ पाठभेदः ॥ 


ए १ 
१अ,९८ 7? (~ & ? जटिलो; ^ जरी. 
२३ 0 0 ^ भविभ्यतीति. 
२९ ० 7? 4.8 & गणधा 8 “ङत्तिकाय 
२७ 0 ^ 000. कथम्‌ 
९८, ६ 0 भव्ति 1०8४५84 ०{ संपन्नाः; ^ 2 
संपन्ना मवति 
२०74९8९8 प्राघ्ुवेति. 
३ © शव्करोतीति; 7 4 शव्करोति इति 
६० 0 1) एयक्स्वेषु ह ; ^ इग क्त्वे द” 
१२ ^+ मधुराया... 
१३३ 0 (ड्‌ इत्यन 
२० ५ ००, चव. 
२६ 0 प्रत्याख्यायते हि तम. 


६ ^+ यन्मधु. 
#. 0 भन्या्मश पः. 
९४ © भविष्यंतीति. 
२० © “चतुद 
२४ 0 ^ ॥९९९ प्रह्भृ्वाम्‌ भप्त, प्रकु 
२०, ७ © दपरिड इति । एषोपि हि श्ाफेड 
+ त्फिडश्चाति । एषो 
९ 07) ^ “चछब्डाः न संति यदृछाशब्ड इति. 
९२ ५ 1) `दिन्न च इदं . 
१९ © 2) ^ ०1. हि. 
९९ 0 नेतहोषाय. 
९८ © 0 ^ वेच. 
२२ © पिबति. 
२३ ^ यश्चैव 
२७ © 01). स्यात 
२८ © न्यो ऽपशब्दाथकः. 


२९, ९ © भविष्यंतीति 


६ ©. यवर्थमुपः 
९९ 0 न च्वापरब्डेन य; 724 न चापं 
शब्डःनदह्यः 
२५1 ^ पिष्टा शासे प्रक. 
९६ 2 0 & ? ०0. इति वक्यामि. 
२० 07.428 8 ०00. व्योष. 
२९०५४ ८ संप्रसारणे, = 
 'दराकूष्यते; 7 श्वा निकृष्बते ; ^ 
ष्टां नि कुष्यते. 
२२०९९ © 1) सिभ्यतीति 
९३ © अतःपर ; © अतपरस्वं 
९८ ? वर्णो भूरिति 
२६, ६ © 7 ^ १५०९ योतरतमो ४८०९ दीषंश्च 
¢ 088 प6 दषा€ गाहप 0 पाथ 











|| पाठभेदः ॥। 


हण पं 
२३.२३ © अथ ...७पि (जः. 
२९ © स्यात्‌ नवेति. 
र४, ३ ( 017). कीषं इति. 
१० © वङर्यतीसि, 
९० © इतरथा दीषास्पदांतारिस्येव. 
१९ 0 मि सेस्मावः, 
६२ ७ 0 रध्वदेव न. 
१८ © क्रिस्करणस्थेतस्य. 
२७ © 7 4 ०४. तस्य निभिं. 
२९ ३ £ नाव्यपवृक्तस्याव्रयतरस्य. 
४ 0 अष्यपठः.. विधिने भवति. . 
९०7 4 तैलं न विक्रेतव्यं घृतं न विक्रेत- 
ष्यमिति, | 
१३ © विदवखद्सिभ्यक्षरेषु. 
२६, ९ 0 'भयज्र..-रण्ुतिलेर 7 'भयन्. 
३ 0 ऋवण्णाचेति. 
९७ इग्येत्र त्व सि. 
६ £ यच रे०, 
९९ © 7 + °काराण्णस्व. 
१२ ७ 7 ^ ०7. स्वात्‌. 
29, २ 0 पूतश्च परश्च. 
२८.१२ © संतति हिरव चनेपि हि ने”; ? दिवं च- 
नेषि हि नेः. 
६८ 7? & ४ “रासुनालिक्रयमाः; © ०. °बु- 
नासिक्यः; ए °ऽमानीयानुनासिक्रयमाः. 
९८ ६1१११8४ 11९0६०08 (€ 7९१वाह ननुष- 
दिष्टाः श्रुयन्ते, ४1१००६८ च. 
२९ ४ उरकण उर^कण उर पेण उरपेनः; 
0 188 इरनकण उरन्पेण 11 1१1. 
२९.२३ ७ 7 ^ 8 #॥ \ उब्जः. 
३ @ 07). ततो. । 
४ 0 गवति वरिवः. 
# © °देव तस्सिः; ८ °केतह्सिर. 
९९ 0 कतैष्यं भवति. 
९ © 7 ^ संयोगंत्ता च प्र. 
९८ © 7 ^ भविष्यति, 
०२ © भवेतीस्यस्य सस्वर. 
२४ इर्कः। उरपः; 0 उर । कः) उर€््पः 
9 10 1891. उर > प्रकरः उर^पः. 
२९ 07 4 स्थानिवङ्धाव्रप्रतिषेधः, ष्टि 
"बेधश्च. 
३० ३ ¢ अर्वतो वणौः कृतः धातु...दशंनात्‌ 
धातव एकवणा. 
३ ० प्रासिपदि्षान्यवप्येकः. 
५९०५) + उ अवक्रम; © 11 81. भ- 
निशः । उ उात्तिष्ठोति पाठातर. 
64 भ 





५०५ 


¶१० पं० 

६०, ९९ "्पंअने; 0 1" ०४. "पसंञ्जने पातर, 
१२ #98. लेन मन्यामहे. 
९३ © यक्रारस्य तस्मादूर्थवंतो वणां इति ; 

7 यकारस्य. 
९८ 7 श्यते ह्यन धै गतेरिति न साधीथीन्रा- 
व्यर्थस्व ; 7 4 न साधीयो ऽज्ाध्यर्थस्व. 

२० © ०11. न कंडथगतिः. 
२९ ^ ०१. 

३९, ९६ 598. ९९९१८ -4., करनेस्सके?. 

३२ ९९ वड्यति; © 1० "87 .करिष्यति पाठातरं. 

९९ ^” 0 ^ भवतीति. 

९८ ¢ आ्वा्वाणाभुपदेशाव्‌ सथा द्याचायो- 
मामुपश्ारः तै; 1० 7978४. उपश्ाराव्‌ 
पत्तर. 

2० 0 0, 

२९ 1) ^ ०11. अप्रधानसवा्च. 

९ 1) 4 ? ह 0. हस्वदीषंघरुतः 

२०७ 7 4 & ०8£"8]र © पूतं एष. 

९० 7? ‰+ सावस्पु्रै भः. 

१८ © विभाषा कर्थं. 

२२ © ;\॥ "0". निस्थेपि हि लोपे पाठंतर. 

३४, २ 0 07. अनुवतते ; 0 ^ शग्धमाव्वायोणां 

वतेते विभाषा न वेवि. 
९५ 0 कतरस्वस्मि"; 0 कतमस्मि, ०181४ 
१11 र कसरस्मिः. 
१८ © संदेहः स्यात्‌. 
२४ 133. ९९९] ^, व्येव सः. 
२६ 9 1 ^+ भक्ति यद्‌. 
३९, ९ भविष्यति; © 7) १४8. भवतीति 
पाठांतर, 
३ ५ 7 ^ जिहीर्षति. 
< £ 7 सवयैण्म्रहणं त. 
१९ 9 0 4 य्वोरिस्य्रः 0 1०0 णडा 
रन्यज पाठः. । 
९९ © 7 ^ प्रवस्नमाः. 
२० (@ & 01&णथ$ 7 एवानुबध्यते. 
३६, ९ 0 ^ सरप्रत्ययः; 1 सरः प्रत्ययः. 
९६ @ ^ & 0;819811फ 7 योयम.. 
१७ © बेदिन्नद्यराशिः। सर्वेपुण्यः. 
२० 0 800१5 पदपदा चेवम्‌ २ परंथाप्रथ ८००; 
1० 7781. पस्पच्चा नाम प्रयो जनाहि कम. 
३8, १ 1 0०१. 88.87, 1 ४ ० | १&. 106, 25: 
५ 0 छंहसि. 
१२ एष विधिः; 0 10 पण्ड. स्थरि; 
पाठातर. 


३३, 


&०६ || पाठभेदः ॥ 


प्ण पण 
१७,१३ 0 भायां यस्य स ताः. 
२० © प्रभोति. 
२१ 0 निमितं वृखधिनिमितं कि च कः. 
६८,१६ © संप्रवृत्ते; ^ 5 संवृत्ते. 
१७ 0 ^ "चऋालमिसि. 
२० 158. ९४०९]४ 6, वेन मन्थाः. 
२२ © ००. इति. 
३९, ४ © स्येवावदयु. 
७ € & संता सं्तिनं प्रस्याप्य स्वथं निव- 
तंते; 2 8 ४€ 80९ जाप स्वयं. 
१९ ^ £ (^£ 8 प्रयत्नेन. 
१९ © ^ वृद्धि. 
२४ 7 & 07). लोके. 
२७ ^ 2 (^ @ ए ०". यद्घ. 


४०, २०4 बृद्िश्चाः. 
९ © 00. इति. 
१० £ ? संतताः क्रियंते. 
१२ ^ शङ्क्यते ततो. 
१४ 2 (^£ ए क्रतस्तत्र षूः. 
६९ © ^ ००1. वृरंराभिसंबन्धः. 
९६ 0 तस्याः कृत इति; © (16 शछा९ 07 
81678100 ; © तस्याकृतः. 
२२ £ नेतरत्राणाय. 
2३ 0 ^ 0). तद्यथा. 
२९ © तत्राप्यंगतः. 
४९, ९ 73 चेत्‌ न निः. 
०५4 म॒नः प्रसंगे. 
४२, ३ 0 स्वाख्या. 
६ °हदान्मे © 1" 191. उदान्तगुणकौ 
पाठात. 
९ 0 |. ॥ (ैतेति युः. 
९९ ¢ 4 ०011. इति. 
२० © नियमात्‌ तपरे गुणश्द्धी ननु. 
४३, ८ © पररूपे. 
४४, ९4 £ ८ 8 “ज्ञा प्रात्रोति. 
७ ७ अरैजदेङ्क ^ £ भादेऽम. 
९० ¢ ए "करणाच प्र. 
१० 0 77 17१12. प्रकरृतस्यापवादो पाठातरं. 


९९ व्धनाच०; 0171878. करणात पारंतरं. 
९९ © ^; कथ वाय; 61" ९. च्चा पाठांतर. 


९७ £ वाञ्ये ; € 5 वाक्यं तथेदं च, 
२० ५ 7 ©& ? भिदिभृजिपुगर. 
२२4 20 2 मिदिम्मनिपुग. 


२३ ^+ ४८४ 8 १० प्राप्रोति ॥, मृजवृंचिः 
इकर दति वक्तष्यम्‌ भनंस्यस्वाद्धि न प्राप्नोनि. 


४० प 


४९ ६ 0 स्थाने षष्ठी 
४ 0 <न्स्यस्य षष्ठ्र. 
६ ८8 8 ०. क्रि तर्हि. 
७ ^ 7 ¢ & 2? भिदिप्रजिपुगः. 
९ ^ £ (^ 3 अर्लोर्यस्योति. 
९३ ¢ हूस्वाहचेयो. 
४६, ९ ५ रिति भवेदिह नियमोऽन॑स्यस्य न 
स्यात. 
९ 0 ०. स्यात्‌. 
१९ © संमषो इदयीः 
२९408 7 ००. विप्रतिषैधः. 
२६ २९८४९ प्रापीति।नाप्राषे नियमेयं याग 
भारनग्यते । यावता च नपा. 
२४ ¢ (^ £ ०1. ऽतस्‌. 
२७ © ०70. शणो भवति. 
४७, ९५ 7? 0 8 2 भिदिमजिपुगः. 
५०७ ^ मिह्‌ एः; € मिद एः मिदेरिति. 
९०८4 £ 8 चटच्छति भट चतम्‌. 
९२ © प्परः; 11 187. परं इरयपि पाटः, 
२२ © किस्प्रः 
२३ © ^ 01). तद्ध. 
२९ ¢ भत्‌. 
४८.१९० ^ £ 8 7 ०10. परिमृजन्तु परिमानं न्त. 
१४ 0 23 01. वा. 
२९ © नन्वस्ति पु^. 
४९, ६ 1188. ॥€7€ 8०१ ०९०, तान्तः. 
१९ 2 ¢&€ 3 तट्रक्तष्यं न वक्तव्यं निर्ध 
२९ © स्तीति गमयति दशयति. 
२९१९०५4 8०). इपि. 
२२ @ ०. 
२४, २९ © स्थानेयोगात्‌, 10 "978. योग- 
त्वात्‌ पारतरं. 
९९, २ 0 ^ ०. पञ्‌. 
६ 0 0. इति. 
७ 0476 क्रोपयति अक्रापि. 
८ 1 4 070. यथेच्छसि तथास्तु. 
१० भ 4. 011. इह, 
९३ © 19 ज्तापकास्सिद्धे ४प्थि इति. 
९९ (अ 01). 
९६ 0 “क्यचवलोपे. 
९६ 0 & ०181०811} ^ © मरीमृ जकः. 
९७ 0 कय. 
२० © 4 नुम्लोपः।. 
२९ © ^ अनु्धलोपः. 
५२, ५ © ज्ेममणं; ८0 € ०. जिदेः...खविक्ा, 











| पटभेदः || 


१० पण 
५२, ८ 0 जीवे रदानु. 
९.८0 £ संप्रसारणं. 
९१० 082 संप्रसारणं; ८९६४ 8११ 
भवति, 
९६३ © अजादावपि दृयते. 
१७ तस्मादिग्लक्षणयोगणव्द्धधोः प्रतिषेधः 
ए 870 ^; © ४५११ तस्मादिग्लक्षणा 
बुद्धिः; € £ ४ ॥४१९ छण तस्मादि- 
ग्लक्षणा इद्धः. 
२४ 0 तज्राप्य. 
५१३, १० 0 वाभ्येत. 
९४ € ए ण". प्रस्यया... सिद्धम्‌. 
१९ ? 0 £ 8 संप्रसारणं. 
९९ ^ ¢ & ए प््यन्तं किं सं . 
२२ ¢ गुणो भाव्व; & गुगमावीगस्ति. 
२४ 0 £ ग्वषस्य चांगस्य ; ४8 अंगस्य 1" 
।, 114 
९ ^ © पुगतं च. 
४ £ 2 & णाष्टाण्मा) 2 अन्न प्राप्रोति. 
६ ¢ त्तुषधत्वाः. 
9 0न कञ्चि. 
५९, ९ ^ ए ¢? स्थानिवत्परसगः. 


। 
- ९६ 1815०८९ : केषाचित्पाठः दुपयाप्तश्चैव 
हीति. 

२२ ए छंक्सः छंठस्यदी. 

२३ ¢ गुणस्य दशं. 

२४ ए ¢ £ ए दीधीवेष्यौ छंदोविषयो दृषटानु- 
विधिश्च [£ ०. च]च्छदसि भवाति दी- 
धीविव्योदछंहोविषयववादृषटानुषिस्वाच 

च्ट्कद्सः. 

२४ 0 वृष्टानुविधिखाछंइसः. 

९६, ४ ^ 108 2 वाधेत।. 
९ ९808 दीभ्यदिति च इयः; 9: 
कचित्तु दाष्यत्ययेनेति पाठः. 

१० & दीभ्यदिति चव इयन्‌ एषः; » ¢ वीध्य- 
दिति च इदयन्व्यः; 3 01818119 दीध्य- 
दिति इयन्‌ एष ष्यः; 81८६7803 चष 
788 0६८ अ7पल 0प, 

१९ 0 ^ & 8 अंतरा एषा; ¢ ६ अंतरा 
येषा; 2 गण्डा अंतरा येषा, 
४1४९1९१ ४० एषाः, 

२९०५ ^ ए £ अंतरा एषा; ¢ ए अंतरा येषा; 
8 गहाण भंतरा एषा, ९1४6760 0 

वेषाः. 


५४, ॐ @ ^ ग. न्ध, 


। ८ @ ५9 


पं. 
९ © यदुच्यत 
९३ 0 ^ 010. च. 
९८ © & 010. चच, 
९८ 0 ०7. संयोगः. ,.इति, 
९९ ७ 0०. सोऽयं; 0 8 1४२९ ऽसौ 1- 
७१०४१ ; ^ ग्य॑स्यासौ. 
२७ © ०. कि. 
५६, ६ “ 4 0. च. 
७ ¢ ¢ & ४९ ०169५०० & संयोगसनज्ञा. 

८ 0 इयोत्रंयोः संर; ^ हलोः संर. 

१४ 0 ^ 2 ययेवं. 

१४ © संज्ताथवा दू. 

१७ 0 ^. यदा दूयोस्त. 

९ © 4 & ए भंतत एषा; ¢ £ अंतरा 
येषा०; ए 01819115 यैषा, १1४९7९0 ४० 
एषाः. 

९९ 0 निर्विशति; ;" पराष्ट. प्रतिनिर्दिशति 
पाठातरं. 

२४ 9 ^ प्राप्तोति. 

२४ © संयोगि. 

२६ © ^ संयोगं वि. 

२७ © ‰ ०". इति. 

५९, ९ 0 प्रभोति 

९३ (~ 111 791. उवोख. 

९४ © ^ तीयस्य ष्य. 

९६ © भवति ।. 

९७ © 01). इति, 

२९ ७ वाटरकपरिक्षेषे. 

२२, २३ © स्थंडिले. 

६० २ © भवति. 
९ 0 भखम्रहणं पुनः च. 

१४ @ ०. ते, वे. 

१५९ © ^ ०1. ते. 

१८ © ए ०. € गऽ च्व. 

९८ तर्हिं इतरे”; £ ए & ७१ ४1८61४०1 ४ 
तदेतदितरे.. 

९८ © ^ शख्रयाणिन च प्रकर. 

२० © व्यमुक्तम्‌ 

२९ © ग). किमुक्तम्‌. 

२९ © ००. ख दाब्देषु. 

२२ ५ श्व सन्तः. 

२४ © तत्तस्य सर्वै; ^ तत्र सर्वर, 

२९ ७ ^. ए तस्यानेन; # तस्या अनेन. 

२६ ५ ^ 8 भवति. 

६९, ९ 0 भात णाह्ाण्भोड + नुप्रहयबः, 


8 
९७, 


1 





९०८ 


¶१० १० 
६९, १९ ? 08८ सिद्धा मबाति; ^ सिद्धेति. 
९६ © 10 78. -दघोषवेता पालवर. 
२० & £ (£ ०१). कि कारणम्‌. 
२९ ॥ भेके इच्ान्ति.. 
२७ ० कथ ताहि प्रयतनं प्रयन्नः नाथं नावसा- 
धनः प्रयनः कि तहि. 
६२, ४०५९ प्रयन्न इति कि ताहि प्रयतनर. 
२७, २८ ० ब्टकारल्कारयोः सवणसं ्ाविधिः॥ 
 ऋकारल्का०; + 2 00४) ४९8 इरक्रार- 
स्कार; (` ४15 णाा# 101 1. 27. 
६३, २८०८६४8 चति कऋवा..-दति क्वा. 
४0 लकारष्ववौी ङ्‌ भ (0 क्करि परे 
ववाम; £ संकारे परतदक्रारोकषा 
भ; ठ व्प्कारिषा द्द भर. 
६ 0 बकारः त्स्करारो ; एकटक्रारः स्छकारो; 
८8 ऋकार ककारो; €ककारष्ट्करारो. 
६ 0 कट्कारस्य क्छकरारस्य अच्त्वं; एषः. 
कारस्य क क्रारतस्य खाष्टट्वं; ¢ 2 ऋकार. 
स्य करस्य वाश्स्वं; ह ऋकारस्य क्छ 
कारस्याश्स्वं. 
६ © ^ कतंष्यं ; 2 क्ष्यं. 
® 9 शोढ ऋकारः होतृकारः हो ककारः 
होतृकारः; ए होढ भकारः होतृकारः 
शोवृलकारः; ¢ होल ककारः शोरेकारः 
होटृकारः होक लक्रारः होत हकारः होतु - 
कारः; £ होढ छकारः शोतृकारः शतृ ३. 
कारः इति शोढ खकारः होतृकारः शतु ३- 
कारः ; 8=-&» ४८४ ०1. इति, & 98 8¢ 
"<€ ९०१ होररेक्रार इति. ` 
१४ 0 कतव्यमसस्यां. 
२६ © 9 ०४. इति. 
३४, ७ ? ¢ £ स्पृष्टं करणं स्पश्नां. 
< © स्वराणां विठतस्वं; ¢ 8 स्वराणां च 
विहतं ; + ? स्वराणां च विवृतस्य. 
९५ 0 गृ्धातीति. 
१.७ © 0111. कुमारीहते. 
२४ © ^ प्रापभरोषीसि. 
२६ © वां एतदः. 
६९ ९04 & गषहट्शार् एषाम भत. 
२५७८५? प्रापोति, 
६६, २ © किमथेमिहानीं वः. 
७ (~ £ 8 यदय रुतः प्रकृ व्योति शतस्य. 
९२ 0 प्रगृह्यं प्रः. 
९८ 810 २० 20 :8. ^श्यते. 
६७, ९६ 0 एतर्हीदांयः. 


|| पाठभेदः ॥ 


¶ृ० पै 


६७, २२ 0 7 भवति. 
२३78 ॥ हीदारि न हिव्वनं; पवा११४४ 
70€0001,8 © ९5६ ईदाद्यन्तं च 


श्रूयते. 

६८; ९९ ८ “विधेः प्रवि, 

६ 0 खल्वस्मिन्पक्ष ; ए खस्वच्यस्मिन्पक्ष. 
१ ०७ 98 सतोहि. । 

९० ¢ भाङ्गुणापभसिद्धिः. 

१० 0 7 (~ तस्मादन्राश्रः. 

९३ 0 अदसः पर दहा; ए 198 परे ¡ण 
षाष्ट. ; ¢ 186 परे ०0ा्टाकन्ल्पे. 

२० १६६.]1०११{४६ 9880110९3 ६७६८ ९2९४१२१1 
10० {€ ०48 1. 12 भयवा प्रगृद्यसंत्ताः. 
अथवा योगविभागः, 1.19 अ्थवाहायमः, 
15 (्णााफलाक्नह् ग ६€ भौ द्€ इव्त 
ऽ व्वनसामभ्वाडा, योगविभाग, 
माथोरीदाद्य्थानां वा, & ॥€ ४१०६: अन्य 
स्वथवा वथनसामस्यतिस्याहि भाष्ये 
भाष्यक्रत एवोक्तिरत एव साप्रतयस्तकेषु 
वारि कापा इस्याहः | अन्ये स्वम्त्य उक्त 
वेस्यस्य वात्तिकरषं स्वा कोरे वासिका - 
पाठो भष्ट इत्याहः ॥. | 

७०, ६३ 0 एक्राजित्युच्वमाने; ए एकाजिस्य॒ख्य- 
मनि हि. 

१८ 0 खदि श्यथान्य् ; £ हि योचखान्यश्च. 

७९, ® 0 व्रिद्यार, | 

१६१ प्रतिषिद्धार्था;० 1" "ह प्वेधार्यो पागंतरं. 

९२ 0 बृहती ख शरहरी ष्व; £? बृहती 
शङ्नरी. 

९६ 0 वटस्य. 

९६ ?. ^ £ » "पङो्तस्येस्येवं. 

९ (© अज्रापि प्रापोति. 

९८ © “संप्रत्यय हति सखम्‌. 

9२, ९ ५नष्वउब्रेरः एन श्व उञ्मैर, भ्व ४० 

नोभे; ^ 8 नोम एन उनभ्रैर. 
२ ०7 प्रतिषेधार. 
१२ ०ङईवायथा. 
® (0 भवति, 
२४ 0 ननु भूषि. 
२९ & प्रणिश्यते प्रणिद्यति प्रनिधः. 
१ " कर्तव्यं 07 क्रियते. 

९६ ¢ रातित्वातिराातिराशतिरासतिस्षस- 
विदशति. । 

९४ © तस्मात्‌ न कर्तष्यं नेवं सकय. 

२८ 7 ¢ "धोभंहणाद्‌ ब चैर. 


६९, 


७३, 


७४, 








|| पाठभेद ॥ 


१० प 
७९ २ £ ८ ०. प्रादबः. 
२ ४९9 °संज्ता मवति 
` ७ 0 भागने ह्ययं `. 
९९ © प्रतीतियु^. 
९६ ( उपाहस्तित्य. 
२२ © न वक्तव्यं. ` 
२९ © देषप्तिषेधो. 
७६, २ © अनेक्रातो हि अनुबंधाः; ¢ भनेकातो- 
नुबेधः; ए भनुर्बधां अनेक्राताः. 
४ ¢ “द्यं क्तंष्य. ॑ 
१२ 0 £ ष्यातिशार. 
१७ ९९५६० : कचिहाश्यन्तभावादिति पठः. 
२० ¢ °न्तोपदिष्टानि. 
२० © च तानि स्वरिति. 
9७, ६ (५ करिष्यतीति ; 7? & करिष्यति हरिष्य- 
तीति. 
१९. 0 स्थंडि लके. 
९६ © 2 स्थंडिलके. 
२० (श्येष्ठः पृली. 
७८, ९ गन्तापविष्टानि ; © 11 "१४. लोप-पाठः 
६ © आहिकंबकायनिः. 
< ०९ ण 11€ #188. (एषा £1९९ 
८06 प्रक्र 198 8--1; इदृक्ाषन्टाफृ, 0 
€ ४5. 4. 188 €श्ला फ़ ण))€ा€ €२९६०४ 
1 € ९98 9 भ, 10 & 8६0] ०८७1€ 
४१€ ७०१ प्रयो जनम 11) ५116 1106 (0110७. 
10 € एकाय, 
९७ चेत्‌ ; € 8 दष्ट ; ए 1९११8 वेष्ट, ०४८ 8- 
76978 01117811 ४० 1४९९ 16४१ दत्‌, 
२० © 'कथनातं प्र; 1) "9. अंतवस्वे 
हिव्वनातप्रगृह्यस्वे पाठः. 
७९,६९ (> (निम्रहश्च. 
२२ © प्रसञ्यते. 
८०, ४ 2 संख्यासं्ामां संख्वाप्रहणं संख्यासं- 
प्रस्ययार्थं. 
९ ¢ प्रतीयते; 11 ४8. प्रतीता इति वा पाठः. 
१०  (; 8 क तंष्यम्‌ । कि प्रयोजनम्‌ । . 
६६ ¢ £ कृञि कायंसंप्ररवयो. 
१८ © अत्रापि 1०8४४९४१ 9? एवं तर्हिं 
२२ ७००. थ, 
२४ ( ०1, च्च, 
८१, ४ © पांशुर०; 2.0 £ 8 पाद्धलः. 


९८ @ न क्वैव्यः ४6 कर्तंष्यो ; ४ ठ ४6 


9७ च्& 10 70, 


१९ ते 4; (€ ०४४९ 2083. तेन. 


९०९ 


१० प 


८२, ४ 6 ए प्रकृतमनुवत्तेनादन्यार्थ. 
६ © ४ वल्वन्य. 
७ 0 °भंवति भर, 
® @ 0. ०00€ येन. 
९९ ० कि चम 
८३.१३ 0 5 शहताद्यष्टनो नु. 
२२ © श्यस्य इति एका०; ^ द्यल्य एकास्तां 
एका इति. 
८४, ९ 0 ^ श्युल्य. | 
९४,१९ 0 ०1". निष्ठासंज्ञायां ; ^ 011. 11€ 14 
६१ निष्ठासंन्तायां 9 1716 18. 
२३ © काक उस्पताति उत्पतिते. 
८९, ३ 0 सानुबधस्येः. 
२ 0 काक उद्पतति उखत्तिते. 
९२ 0 ^ प्राक्टेः. 
<६, 9 0 ०10. इस्विज्ञः. 
९६ © विधीयो. 
९७ 0 श्यते.; 1० ०57६. येव पातर. 
९८ © निर्त्तयतिं. 
२० © ("द्थाप्रपिं च, 


२२ © ष 2नि्हसेन 
८७) ४ 0 ग्ना मूलो; ¢ नना लो; &8 
गनाह्लोी. 
९ 0 वन्तष्यः; ¢ 0ाह्ाभार कतैष्यः, 81. 
{९९ ८० बक्तव्यः. 


१} 0 ०१1, © शनिषखन सर्वादीनि. 

६७,९८ 0 £ "मदड्वः ¢ -मबद्धावे ; £ € ग. 
उतरादीनामङ्वि प्रयोजनम्‌; 
1, 17 810 प्रयोञज्जमप्र 11, 18. 

२० ‰ 070). | 


<€, २ 7१४००10) ९४५६ : प्रायेन नाम्बेऽपि भका- 
रादकारास्कारा्ैत्येव पाठः. 
९ 0 ब्राह्मणक्रुलेन. ` 
७ 0 सप्तमीनिर्दिष्टे यदुच्यते ४०८ तथापि. 
७ 0 तावदठङत ; ० ¢ तावदडुत; € ता- 
वदडत. 
< 0 स्येति स्थानषष्ठी. 
€ 0 श्क्यं विभाक्ति, . 
८९, २ 0 भवतीति. ` ` 
१० 0 ¢ 'बश्वनविषयेषु?. ` 
९३ 0 शशब्दोन्यन्न. | 
९०, २ © ढतीयापी हीष्बते; 0 ऽपि बृदयैते. 
३ 0 १९ हेतोरिति, उभस्वाप्येषा उनमा- 
भ्यां हेतु*गां उभयोेस्वोरिलि. 


8 ©फ). 





९१० || पटभेदः ॥ 


१० १० 


९९१,१९ प्रियविश्वाय ; 0 11 97. प्रियसवयिति 


पाटातरं. 
९८ ? तद्यत्र ताबृ°. 
२२ 23 ण. 
९२, ९ £ तद्य तादृ. 
९९ £ (^ £ यथा विज्ञायेत. 
९२ ०७०११.न्‌. 
१३ © 01. सवौदीनि, 
२९ © पूत्रैपागे. 
२२ © पृत्रैपाठो. 
२३ © यद्‌ पृवोदिभ्यो नवप्रर 
९३,६९ © 7 7६. ब्रहणानर्थक्यं पाठं ^. 
९७ ० प्रेक्ष्यपू^. 
६८ 0 वसंतित ; ८ £ ? श्र सति. 
९९ 2 01, 
९४, ९ ०). सा. 
५९ © प्रसश्येत भ इव ठव ।।. 
६ © एता. 
९४ ¢ सर्वां विभक्तिद्यैषां भवति. 
९६ © ०70. यतः. 
१६ © 7 विशेष एते. 
१८ © “क्तेचब्दो. 
१९ 133. "च्यते. 
२३ ¢ शख्रयानि कायांणि न क. 
९९, २ © 7. भथवा. 
९ 7 "संख्यता वा. 
६ 0 07). तज्..-मेतत्‌ . 
९० ¢ सिद्धमेतत्‌ कथं पाठात्‌ पाठः क. 
१२ © भव्ति ।. 
९४ © ¢ ये खेतेभ्यो वैर. 
१५९ 0 £ ए 07. इति. 
९७ 0 तदेवं संर. 
१८ © 07. "्वैतते?. 
१८ © भवतिः 
९६, २ © चापि मता. 
२0७ योगः. 
ह © £ "निभ्रिता; ^ “निसृता; ¢^ ४8? 
गनिश्चिता. 
७ 0 अस्यचैरसौ अय्य॒चेः स॒? भस्वुषैसो 
भस्युधेः स, 
९ 0 प्रकृतप्रतिषेध, 
२९ © 0". भथ विज्ञायत, 
९७, ९ 0 011. इति, 
९० टः & ए तहिधातस्येति. ` 
९८, ९ © दी्ंस्याः?, 


प° ¶० 
९८,१९ तीत्वं ; ? ति किश्वं; (५.171.111 
70€ा1078 ४778 एटतताणह्ु. 
१९ 0 ` सृरवमनिमित्तं कस्य कीस्विधेः तिन्च०. 
२० ज ष्णान्ता. 
२8३ उवोष; 24001101 84{{8 17€{10085 ® 
1€901£& उवौीख. 
९९, & 017. क. 
२२ © 010. कि कारणम, 
२३ } ५2०} ०४१8; यादेद्यो कर्घस्वस्येति 
.भन्थो भाष्यपुस्तकेषु ष्टः. 
९००, ९ ० नरहि मगाः; ? नापि गाः. 

६ ? भव्ययीभावस्याभ्ययस्वे कि प्रयोजनं 
भव्ययीमावस्याव्ययस्वे प्रयोजनं कहु. 
खस्वरोपचाराः । लूक ।. ~ 

९३ (¬ ^ भपि खल्वाहुः. 
९३ @¬ यदठव्ययीः. 

१९४ 0 071. इति. 

१४ ० करि च पुनर 

१९७, १९ £ 1 षेधश्चोश्यते. 
२२ 0 (त्तत्र वायं. 


१०९, ९ @ 769€ & न०र हिः सर्वैर 


२ © हेः प्रतिर. 

३ 7? € 8 शिप्रति. 

६ © शेः प्रति, 

६8 ॥ न व्यापारः. 
९४ (~ 8 वाधेत. 
२२ (* 011. ०1)€ अन्यज्. 

१०२, ४ ¢ गतभमितिना. 

७ 0 शड्दपदायंकता ; 1० 71518. पदार्थकः 
वा पाठः. 
९७ 0 तेनं लोके प्रसि. 
२३ © ¢ भुजिना सं. 

१०३, ८ 0 ~+ ०1. प्रसज्यप्रतिबषेधात्‌; 1" पष्ट. 
किधाय 91 प्रसज्य 10 ४0€ ८४; ‰. 
कथं । विधाय; ४ ० ्ण्णार्‌ कथं 
प्रसञ्यप्रतिषेधात्‌ । विधाय, ०५५ प्रसज्य - 
प्रतिषेधात॒ 8८ ०४. 

१० (+ 011. 
१९ © -सामथ्यौसप्रति०. 
२० 0 ए षित्तायते; £ स्याद्‌. 
१०४, ८ 7 £ ए अस्मिन्‌ शाखे. अस्व. 
१६ ¢ यस्यापि बु नि. 
२० ए ए कार्येषु. 
२६ ५ "चयेन यदुच्यते तस्व च बुः. 
२९ © तेष दोषः ४००1९ नापि. 





|| पाठभेदः ॥ 


१० प० 
१९०९, ४ (1 °ने तद्विषयता ; 10 711. न्ने चोते पा. 
ठांतरं & तद्विषयस्य; ए °नेन व तद्िषयत्व. 
९५ 07 19. शीलने श्व, इत्यपि; ¢ £ ए 
भायार्यद्ीलनन वेडाशीलनेन ष्च; ‰ ०11४1. 
9115 शीले व," "00 ६.न देलशीलनेन. 
< © पचाव ; £ पवावत्त. 
९१९ £ 8 ०1. श्व; 77 £ 1४ 18 870लौः 0४, 
९२ ० शप्रहणेषु च देश. 
२० 0 प्रस्यायर्यति. 
९०६, ६ © & ०1810115 & प्रत्याहारः, 1081684 
ग प्रत्याहारम्रहणम्‌. । 
९५ 0 भनुवतंते. 
९« © °मात्रापि. 
६ © प्रव्याहारभ्र 7 ? प्रस्याहारे प्रः. 
७ 7 ¢ ए ऊ्णतिर्विनाषा. 
८ 3०0). षध, 
३२ © 07. हि 
९६ © प्रोण", 
१०७, ३ & प्रस्ययांतादिति निस्ये. 
१५1) प्रस्ययातानि. 
८ & 17) ग. हि; ए 198 1८ 71 एषठ. 
१०८,२४ © ए ¢ अपिरौग्वर इतिं वा. 
१०९, ६ © 7 7 दिवस्तद्थस्योतिं हि 
१७ (3 6पशाफ)161 कारमीरः 8१ तजोदन; 


¢ £ ए €ष्छार्फ]\€ा€ तज्रक्नम्‌ ; ४ यस्क- 


इमीरान्गमिष्यामः यत्कदर्मरानगच्छान. 
९९९, ५, ६ ए 0 £ 8 वाक्यस्य सं . 
८ उवपद्यते, 7 & © 1" 78912. उपपन्नः, 
९३ & 0 ०1. करायाौणे, © £ कल्प्यते 
१९ 0 स्तापकरमुभः. 
९६ © 72 दीघां भवतीति ष्यङः. 
२३ © पिडा; 1" "४४६. पिंडी पारगः 
६.१२, ६९. (+ 07). यदि. 
१७ 1 ए ¢ € ए साधुस्वमन्वाख्यायते 


२९ £ € 3 & ८ 71 081. वृष्टातत्यापि तपु. 
२९ 9 अस्ति वेह; 8४०1०6४ 1९१8 
018 80 8४8 चपाठटस्व्वयुन्त स्तस्य प्रमे 


ऽयुन्त स्वात्‌. 

२३ 0 पुनन्नित्येषु. 
६१३, १६ © ) ककारटकारो च इता. 

३ © ण्पस्थितं भवर. 

६४८४? गमिहवबु कथं. ` 
१९० "© £ ए °्नोपेष्टं शक्रोति. 
९२ ^ 7 £ 2 बु. 
१६ ६? & ४९ 91४6९५०१) © ककटडकव्रा. 


५९९१ 
०५० 
११३,१४ 1) शाब्ठानुपदि. 
९६ ¢ प्रत्ययस्य प्रः. 
२४ 08 इहतु पु. 
९९४, ३ 0 यत्परः स्या. 

९९ © भप्रस्ययः स्यात्‌. 

१२ © ? ०. षष्ठा अभावे. 

९९ © तेन म. 

९१९ ए °त्परः स्थानपरप्रत्ययस्यापवादः. 

२४ 7 0 £ 1 यदयमचो. 

१९९, १ 8९909119; अपवादेरित्यस्यासंभव 
इदय।दिः । कचित्तथेव पाठः ।. 
ह © 010. भवाति, 
९ ५ ^ 1 °त्ूकवैः £ मस्जेरनिदनु. 
६ ^ 0 सत्पु. 
७ 9 ध्लोपा्धं च संयोगा. 

१४ (¬ ¡ 011. स्यात्‌. 

२० © ०0. स्वर. 

२९ © 'त्युडन्त., 

२२ ००. च, 

२४ 7 1 क्रियत एतज्या?. | 

९९६, ४ ( ७९ 21161910 ण्बंधाः; 0 °रः प्रतिषेषः 

९७ ¢ ०४). शीभावेन कारभतिषेधः. 

२२ 0 ०१. गुः...“ ह स्वस्वम्‌. 

२४ ¢ कते भन जंतस्वादेत. 

९१७, २ © विज्ञातुमिति. 
९8 एष्व इग्व्वनं सव. 

६४ © निवत्ते. 

९९ ७ तज्रानेनेको निवत्ते. 

९९ © 7 ए ०. इकारोकारो भविष्यती ; ^ 
188 {17€ 0108 व पाष" 

२० 7 न्तै अद्धं एकारं भोकारो ; ८ ` राव- 
दकारोकारी; 9? 8 रावं एकारोद्ध 
अकारो. 

२९ © ०. पाषेड०...नाथः. . 

९९८, ९ 1) 07). | 
६ © सेयं स्थानेयो गीतिः. 
९ 0 षष्ठीस्थाने. 
९० 1 0 ए & & >0 पाहि. यावतो वा संतिते. 
१९ (0 ०१. च. 
९१९, ६ © वतीति. 


९४ © भमान एत, 

६९ 0 तस्प्रकृतमा 

२९ © ज्लौनाश्चति, 20 "816. भोष्वाश्रैति 
पाशं; + 7 लोवा चेति. 


९१९ 


ह° पण 
९2० ६ 28; मचष्न. 
८ 080 & यत्रानेकमा. 
९० © शेक्राराभर 
९६ 2 £ ए & 01" °. प्वचनं नियमार्थम्‌ 
२४ 7 ? 0 8 उमवथा हि तुः. 
२९ © यणो ये ; 7" ',४&, णां पाट. 
२६ 08 8 मार्य. 
१२९, ९ 0 भवतीति. 
९० ‰ 011. °्तैष्यः। ण], ४० 7१. 204.19 हस्वः, 
१९ ५ 00. इति ४०८ एतन्नि . 
२९ 1१48०] 10१ ४१११ १९९०8: रा यि च्छा - 
२९ 008 ज्रियते न्वास एव 
२९ © † £ इस्यदिशतो. 
२८ ¢ £ न्तरेनापि तकाः. 
९२२, ३ ¢ मे निर्वेतेके सस्या? ; & °न्तरतमे नि? 
? णके स्वस्थाः. 
४ (£ तमेनि. 
९३ © सिद्धा न भवति. 
९७ 0 क्या. 
१२३, < ७ 7 £ तद्यथा गावो. 
९० © & 8 न्योन्बमपहय ` 
९९ 9 वहु"; ¬ बह. 
९९ (0 £ & गा 2 नावौगः. 
९९ 7 © धुप्रस्वारितं. 
१९ ¢ £ नार्वांगः. 
२९ 0 इमाय. 
२९ © ^ मानिकद्िमा. 
१२४, ६ 2 010. च्व. 
१० © टि एञ्मवि. 
९९ 0४८ एवप्रा 
१२ 0 8 एजस्ति; 8 एनतस्ति. 
९ © 07). स्वै. 
१४ ¢ ०. ऋवणे°.. -प्रसङ्खुःः. 
६९ 0 रेफर्वानकारो ऽन्तर; 1५ 791६. कार 
एवाः पां. 
२२ © सवांदेशप्रसंगस्तु. 
१२९, १ © भविष्यतीति, | 
९ ¢ 8 & & 7" "097९. "वस्सह संप्र. 
९१९ 0 7 माकैलका "9" मालपिगवः. 


१७ ४१११8 0लाप्गा8 पोत एश्व्वण् उन्‌ 


भवति रपरश्च. 
१८ (7 £ श्रपरस्वमोज्रननेन. 
२० (0 थेमिति चेदु. 
१२६ १। १२ (४ (4 8 यड स्थानेण्‌ स. 
६0८४८ कोष दति सं इह देषो 


| कादभेदः ॥ 


१० षण 
९२१, ८ 8 5 यद्यप्यणो ऽति प्रवि". 
६२ 0 8 अत एव दोषो. 
९४, ९९ ^ प्रसगेण्यपर". 
९८ © हितीयं स्थानं प्र०. 
९२७,२ ¢^ & 0) १1४८1५०॥ & ठदाखादिष रपर- 
स्वस्य. | 
९० 2 श्वेदादेदोषु राः. 
६६ ^£ 5 दह न प्रसभ्येत कतो. 
१७ 00) यो 
२२ ¢ 1) प्यते तज; ¢ दुष्यते प्र्यथविस- 
अनीयो रास. 
१२८,१९ 0 70. स्यात्‌ ; 2० फ. पृवौतः स्मात्‌ 
पाटार. | 
२ ५ निङेन्त. 
९८ © 7 भवतीस्यजा> £ भवतीति भजा?, 
२२ ~£ 5800. च. 
२४ 8 & ¢ 1 "187. प्रत्यये च व्यव. 
२४ & प्रकल्पेत. 
९१२९. ९ (^£ 2 010. रेफत्य. 
ह 0७ & ०. इति विस जंनीयः. 
९ ६91१818 10९11178 (१९ 
कल्पपदृः. | 
६ ^£ 5०. कृत्वा. 
६ © 0 तीयते. 
९ 0 ण्लोप ओस्वयु 1 £ ? “लोप ौस्वं पूर. 
१२ @ 017. € 8९५०५०१ षरतेते. 
१७ 0 यत्ति. 
३८ © 0 01. च्यु. 
६८ © भातो युर. 
२१ 0 00. इटोऽष्यवस्था. 
२३ ० 7 अभ्यासलोपश्च । भन्यसिलार, 
२४ 0 ¢ ०1. अभ्यस्तस्वर. 
२९ ० 08&8 @& ०हण्शाक् € नवतीरयजार, 
१३०, ९ 0 (£? 010. दीर्थ॑खम्‌ ; 0 ४१. दीर्घस््. 
६ 1) 01, ष्व. । 
६ 2198. शस्य॒च्यते. 
६ © 7 तन्रायमर्थो. 


१३६ © 1) ६४१८ इतरथा ह्यनिष्ट प्रसङ्गः 17१९ 
०:४९] $ ४7 संहारः, 


१६ © ऽत्यंतस्य. 


(64019 


६३९, ६ 0 वदेवं जार. 


# © 010. एव. 
१० 0 स्येर्येलद्पवा?. 
१४ 0 (इविष्याति. 
६६ 0 शस्यैतङ्धवति. 
२३ 8 2 विशेषणार्थः शकारः. 





| पाठभेदः ॥ 


प० पभ 
९१३९,२३ © क्र विशेषगथैः. 
१३३, २ ¢ श्धावि्तीर्युच्य.. 

९ 0 ¢ अदेशः. 

१३ 0 विक्तायते. 

१८ 2 -हादेदोषु. 

२३ © प्पुत्र निर्हिंदयते. 

१३४, ३ 1) £ इत्यादिश्च प्र. 
९ © 7 नव्रति अत. 
७ © स इममिति, 

१४ 0 वलादि, 

१६ 0 समान्याविरेशे हिवि. 

२३ ०७1) 8 भप्रहीत्‌. 

१३५९.१२ & & 723 171 एना. °वधक्रापिबा. 

१४ (} & 07161911 ¢ चाषुपधाल्- 

९९ ¢ 7 स्थनिषद्धावादंगसंत्ता छ्लं*च 

स्वाश्रर. 

२९ © करत्‌ कर इतिरि. 

२३ ५ ।) इव्येतदत्रः ¢ इत्येतत्‌. 

२४ ० विशिष्टत्था?; 7 ०". विषिष्टं. 

९३६, २ © भमादेरिन्याल्वि. 

९० 0 छिल्लः. 

९१९ © तु मवातं तस्मा; 0 8 ०८. तस्मादुपसं- 
ख्यानम्‌. 

२० © चेन्न ।. 

२३ आश्रय इति; © 1" ण्ट. जा (0) भ्रियत 

इति पातर. | 
९३७, ३.1 & 0 10 "51. नित्यशब्दत्वात्‌. 
९ © स्थानी नाम. 
$ © 0). यथा; ¬ 8 ०पूर््रष्वपि. 

&० (¬ 01. च. 

३८ © पुत्र स्थानि श्च. स्यानिदा. 

२४ ^ लि प्रसक्ता ; © ततः पश्चाकाह आधेधा- 
लके अस्तमं भवतीस्यस्तिबु चा ; ^ अस्ते- 
भूरिस्यनेनास्ति्ुष्या ; 7 सोस्तेभूरिव्यने- 
नस्तिब्भ्या- 

२१ ए इद्धधा अस्ति. 

२६ © मवति बुः. 

१६८,९१९,९२, © उभयै प्रतिषेधः, 

९४ © माज्रभिव्येव ; ¢ माजच इस्येव. 

६८ © तैलमाच्रा २ धृतमाज्ा २. 

२० ? वच्वनादिदो ; ~ ४९ 911618001 बहुव्रच- 
नातिदेशे. 

२९ © नास्थानिः. . 

९६९ ९ 6 पूवैगुत. 
७ € न तर्हीदानी. 
मित 010. प्रशिष्टनिर्शास्सतिद्धम्‌. 
१. 


«२६ 
० प ` 
१३९, ९ (^आ भाष, 
२० © ^ णल्‌ कितु जन्यो. 
२९ ¢ ^ रुखक्रमिति. 
२६ ६9#{९ : चित्त यदावधि षीति पाठः. 
९४०, ४ (© भापयति. 
९४ (¬ 01. करुते 
१९ (¬ 01). 
२० 0 आम्विधौ चतसः. 
२४ © ०४. विप्रतिषेधे. 
९४१ ६ 8 स्वरे च वस्वादेशे; (¢ 8११5 प्रतिषेधः 
10 पाका, 
९ 0 (स्वरेष प्रतिषेधः. 
९८; ९९ (~ £ 2 करोतिपिबरस्योः. 
९९ © पिबति; ¢ पिव इति. 
१९ ¢ वद्धावाभावाह्घः. 
२९ (~ उक्त श्, 
२२ © 1 13 तपरनि? £ सपरकरणास्सि?. 
२३६ 3 ०१. € 2880४ ०0 , 1, 57, 
२४ 0 ¢^ £ प्रमो विभः यूत्वा. 
२४ (८ 8 दत्वा स्युस्वा. 
९६०, ९ 6 णवं तरि. 
९ अभिमस्यः;  भतिगस्य ; © 1198 ध18 7 
178; ४ भार 
२९ 7? (दिवः. 
१४६, ६ © प्राभोतीति. 
€ (© ०0. पूेविधिः १ । 
९ शुद्ावस्य ; 01० 70918. “डाच पटिः, 
१२ © प्राभोतीति. 
९४ ¢ “श्रयेत. | 
९४४, ६ © 01. कुतः...“ स्थानिवडववि, 
२० © नेतर. । 
२०.२९ © धारणि पारणि. 
२९ © इत्यनेनापि सि. 
१४९, ८ © श्यौ उदात्तः. 
१७ 7 ¢ & ०". कथं श्व सिभ्यति. 
९९ © तर्हिं यत्रोदात्त.. 
२२ © ०४. ननु चेयमपि कतेव्या- 
२७ © ¢ यथेव; ¢ तथव. 
१४७, ३ © 1 £ तस्मास्स्थानिवदवनम्‌- | 
४ © असिद्धव्वं व भसिद्धस्वं च वक्तव्य. 
१९ ( मादवदस्य. 
९७ © 7 भवतीति एवमा. 
२०;२९ ५ नकरानुदात्त; 10 0६. एक्रानतु- 
शास्त पाठांतरं. 
१४८,१६ ¢ £ सिभ्यंति. 


९९४ 
० पं० 
१४८, २९ ¢ ऽन्यैवरतो च्थः. 
२२ © भ्रामे शुः. 
२२ © निमित्तं च वसाम इति. 
१४९, ४ (^ ह 0). विहयाः; 1 £ 3४ 18 श्ाप्रटौप 
०४८; तिष्टिणोग7 99: रिश्च इति तु 
प्रशिषं शतसह योरेव उस्ये्टस्वास्‌. 
९६ ( यङ वङ्‌. | 
२९ 0 गादेशेयोागैर. 
१९० ९ (0 ०0. प्रतिषेधं. 
१२ 1 ("काव्वनेषेधः. 
९३ 08 011. यलोप. 
१४ 0 उलोपः. 
९६ 0 देष्वं. 
९७ ( भननासिकरास्वं. 
२० © राया भाव्व7; 0 (८ रायात्वः. 
९५६,९४ 0 न पद्तविधि प्रति स्था. 
९९ ( ०. च्छु. 
२९ ५ कानि सति यानि को. 
२२०) चा श्रूयतेस. 
१९२, ७9 (॥ ०.न. 
< © अवणंलोपविधि प्रतीसि यलो. 
१४ क्िश्व.; 01 8. क्तन्‌ पादा. 
६६ ¢ “लोपे लो; & 'लोपविधिषु लो. 
९९ ¢ प्रसिदीत्रः प्र. | 
२३ £ प्रतिनिर्दि>. 
१९३, ९ 0 भमप्राक्षीः. 
# ¬ 07, 
६ 0 कं्ूतिरिति. 
२२ 2 शर्तेश्रः.. .शातामिः. 
९९४, ९ कशब्द 0 शाड्व ; 5 कप्रत्ययः. 
९ £ 2 ०४1. प्रयोजनं. ` 
१२; ९३ ? दध आकारलोप आदिष्व 
त्वे २५७८8४८ ०.1. 12; 4 ग0०., 


८४ 88 & 8६0} णण प्रयो जनम्‌ 


10 1. 15. 


६९;९६ © 7 हलो यमा यमि लोपे २;^ ८ &? | 


010. 1, 15, 

९८१९ 0 7 अष्टो. . -तिष २; £ ८0. 1, 
18 ; 4 ण. ४५६ 1४8 8 810} ९९ 
प्रयोजनम्‌ 10 1. 19. 

२२ © “डीनि ख प्रयोजनानि न; ? श्डीनि च 
नारब्धव्यानि भः. | 

१९५९, ९४ £ भञ्प्रहणं च ता. 
१९ ( गाङः प्रति. 


॥ पाठभेदः ॥ 


¶ 9 प॒ 
९९९, २२ © 16 € 8०१ एलमकर, कु स्वैर. 
९५६, ८ "पुसं ; 0 "8०]100914 : हवसमिति षा 
ठान्तरं ठए समिति श्व. 
९९७, ® 0 ओदो; & भौरौदा. 
९५८, ३ 1 तदितरे". 
८ 0 विभाष्यते. 
२९ ^ लोपसंत्तस्वात्‌ । 
२४ 7 भवुतीतिः षष्ठी; © भवतीस्युष्यमा 
कथभवैतारिसिभ्याति को हि शाब्दस्य प्रसंगः 
यत्र गम्यते चाथोंन च प्रञु्यते अस्तु 


तहिं प्रसक्ताददानं लोपकज्ञं नि ष 
छीनिष्किखति त मवतीनि ष 


९५९, २ © 4 7 ए श्धारणे. 
२ {६7 कथमिव ०५० 133. कथमेतैर. 
७ हं “प्रस्यये संर; & “तानिषेर. 
१० © ।॥ ०0. कंसीः.. -च्यर्थम्‌, 
२० @ ०. ऽपि रन 
९६०, २९ 00823०४. न कर्तव्यम्‌. 
२३ 0 रायस्पोषेण संगमयेति. 
१६९, २ कयं तहि; 07082 कि तहि. 
< (~ & 23 "काले. 
९६२, ९ 7 न चाद्^. 
३ 0 क्रियते. 
६ अ 0. 
१० © 0). पृथक्सन्ञाक्ररणात्‌, 
. ११ 0 नस्य सामान्या लो. 
१४ 07. नवा. 
९६ ( लोपसंत्ता ल~. 
२४ ( भनिभित्व्वं. 
९६३, ॐ ॐ 011). , कायानि. 


€ ( 010. {€ 86९0114 ष्व. 


. १६४, ९ 0 वष्वनान्न भवति. 


१२ 2 नुभामो ; ¢ ण्डली, 
९९ 0 ह अनङ्खान्‌- षड 
२९ 0 यत्र तहिं न स्था 
९६९; 4 1) (4 2 0. 
१९ © सवैस्वर. 
२० © इत्याद्युदत्तं. 
२४ © 8 ०. प्रयोजनं; ¢ जिकि. 
२९ 0 जाके प्रयोजन. 
२९ ^ 8 उष्मरीवा. 
९६६, ६ 7 ¢ & 8 श्स्थाने लक्षि. 
४ 1 0& 8 ११6 प्रयोअनम्‌, कमता षे 
प्रत्ययलक्षणं न भवतीति वृक्यं, 











॥ ररभेदः ॥ 


¶ © पं ©. 


९६६, ९९ © £ ? कतरस्मिन्‌, 
९६७, २ © 7 ०. पूत 
ह © ति वाक्‌ पर. 
९१९01) सा प्रातिः प्रतिः. 
१६ ¢ ^ ठ वित. 
९८ ५ “योरतस्येः.. 


२२९ 8.4 ण श्ट स्व्रादिषरत्वेन. 


५ ०७००.व; ८ बह्ष्पर्वस्य च्छु {ा९6€, 
००८९ 10 षाह; £ कह स्यु रंस्य बहुरपु- 
वस्य च. 
६६८, ६ 0 इमान 
२५४२ सिचि जुसोऽप. 


४. 0९ सिचि ज्ञसोऽप;£ सिचि सिङनि- | 


भमित्तस्य जसः भप. 
३ 0 7 श्रकरणस्वात्‌. 
१३ 0 आत इति वतेते त्तिः. 
९ © (लक्षणस्वेनः 
६ © श्वाय भेदाः प्राः. 
९९ © सविभक्तिकक्य म. 
९२ ¢ ए ०0. जनपषो.. नो कीयते. 
९६ © ¢ 8 ०, 
९६९, ६0 ¢ रत्युश्यते. 
९९ (` रिष्टात्‌ शिष्टः; £ शिष्ट: शिश्वानः; 
8 शिष्टः शिष्टात्‌ः 
२० 411 2188. ९४००ु४ ए { °स्युच्यते. 
९१७०, ९ ¢ £ 011.; ( ०. अन्त्यः... च्वेन्‌; 7 
788 अन्त्यः... च्ेन्‌ घ). वाट. 
२ © अलन्व्यव्रिं, 814 ०. नानथेके... 


"विकारे ; 7 095 अंन्द्यत्ििज्तानास्सिखम्‌ 


४ एषिषु, 2० ०0. इति... शविक्रारे 


¢ 188 अन्त्यविः ...कारणम्‌ 10 पाशा. 


ए ०0. अन्स्यात्रिः. . “विक्रार. 
९३ 0 रिन्त. 
२० © इद्यज्. 
९७९, ८ 7 ग. कथम्‌ ...मविष्यति. 
९७२, १९ 0 °क्कत्तद्थो. 
६६ & ००. भनन्तयायैम्‌-. 
१९ & "योगाः. 
२२ ¢ ०४. इको यण्कर्वे, 
२९ © इष्वतेवि; 7 इष्यते चात्रापि; ¢ 
इष्यते वाचि. 


२९ 9 वच्चनं नियमार्थम्‌ ; ठ ००. वखनम्‌. | 


शदेः | 0 नाउ. 
३७६; ४ ति सर्व॑जेव कः, 
९९ 0 7 तजर इत्सज्ञा. 





९९१५९ 


९० फर 


९७४, २९ 3 पंवमीसघमभ्यो. 
२२ © 0 इति १०; £ एषां पर. । 
२९ © उभयक्रार्य. त्ब; 0९ £ तन्न उभयो; 
- कायैः 
९७९ ७ 0 7 ¢ 2 भविष्यति. 
& © 0.0 भण. इति. 
<- © सस्संज्ञा दोषं प्रः. ,. 
< 7 त्रं त खलु. ,. 
९६९ ¢ भक्रापि प्रकृतौ. 
१३ ¢ £ ए तावरहिको. यणिति. 
९३ 0 यच्रष्वनाम. 
२० © न शढ्दस्या?; ए न शब्दस्य स्वमिर्येव. 
२९ ¢ ००911 स्वरूप, १६६६ ४० स्व- 
सपः; £ स्वं रूप. व; 2 स्वरूपः. 
२६ ¢ अय का्यस्यासं^. 
६७६, ९ 0 2 थं कार्वस्यासंः. 
३, © ¢ ए स्वष्टपः £ स्वं रूष वः. 
९0९ ठ ०1. शड्द्पुर्वंक्ते ह्यर्थस्य स- 
प्रस्ययः* 
६ 8 2 & १११९९ 1.6 नाम च यः, 
६.0 यदा बेन. 
< 7 & ण. ४4. @. 808 10 णश, अर्थे 
ऽसंभवः. 
१९. ८ €? शब्दसंत्ता- 
१९२ ¢ 8 शब्डसंसायां प्रतिषेधोऽनर्थकः; 
8 शब्दसंक्ायाः प्रतिषेधो अनर्थकः; 7 
9९818 ४0 १९४ श्डङ्संन्ताः. 
१६ 4 ०1. श्व, 
१९ 0 ष्णान्ता. 
२९ ए श्देषाणा व वु 
९७७, ६ 0 7 विद्यापोषं रेपो; & रे° धन विद्या" 
 अण्व° गो; ए = €, ४४ ग. अण्व © 
188 ०0०] ₹° विद्या. 
१० 0८47968 2 पुष्पः; © 4 0 ०. 
"वन्द्रगुष्सभा, ` 
१२ & 0०. करतैष्यः. 
९६ © 1 मास्विकः. 
९४ 0 दाष्छुलिकः. 
९४ 0 वन भवतीति. ` 
९९ 7 हति;.© अजिया न्हति भनिमिषान्हं- 
तीति ; & 8 ४106 88106 काधा०ण इति, 
१७ 0 अः सौ. ` ` 
२९ © °लिटि इति दी; £ "लिरि दीष इति दीः. 
| २६8४7 & (र पणावः सर्वैषामेष. 
' ६७८, & ०108115 ¢ रि वु. 








५१६ || फणटभेदः ॥ 


१० प० 
९७८; १९४ ६। दीः सह इति 
९८ ¢ & (माणहाब्दसं प्र. 
२२ 8 वर्णपाटक्रम उपः. 
2३ £ 28 & ¢ 1 फा, तवाटक्रम उर. 
९७९, ९ € °वरकाला भवरकाला सती ; 9 ०. 
“वरकाला सती; © सेषावरक्छाला उपदे- 
शोक्तरकाला वणौ. 
३ ए 01. 
९८ 0 “नन्यस्वकारः. 
१८०, ९ 0 तदद्धल्प्रः. 
र ७ ००, च्छु. 
५ & ०0. 
१० 7) 070. 
९९ 0 क्रियते इष्यः; 7 ¢ क्रियते न्या. 
९८ 0 उष््स्यमु. 
१९ (रं 1" पशन. तस्कोलः कलिऽ्य सो 
ऽयं तस्कालः तत्कालस्येति पाठं. 
२४ ? गिनज्नानाममः. | 
२६ 188. स्वरितानुनासिकानां; & 1४8 
ननासिक्षा 10 7088. १ 080]1018118 
उदत्तानुगातस्वरितानामिस्येव पाठः; ॥ 
"सातुदालानुनासिकानाम्‌, 
९८१, १० 0 सिभ्यति. 
१९३ 0 € विरोष्यंते. 
९४ ( -मध्यवि ९. 
९५ 0 £ विषेष्यते. 
२२ \ शदिशर्ति..-चिशतं कञ्िधस्वाररिंहातम 
किस्पादस्वरूपम्‌. 
२३ ८ & ? स्फोटस्तावा०. 
६८२, ४ © निर्विहयते. [पाठः. 
® 0 1 0187. तन्मध्यपतितानामिस्यपि 
९ 0 ण. संबस्धिशब्डाः. 
९९ 0 1) ‰रत इति. 
९२ 0 8£ 7 र्य प्रति य आदिः. 
९९ 7 € यदि चैव. 
९९ 0 क्षचित्‌ ्चै°. 
९९ ^€ स्यात, ८ ब्रहत्रः अरक्षोहके, 1 
पाष. ब्रह्मोदनः; 8 ब्रह ब्रह्मीदनः ; 7 
न्रह्द्ः ब्रह्मोदनः. 
२९ 1 ^ £ 5 ऊनशब्दमाभि.. 
२४ ^ चान्यस्य च विधिङ्गं भ 7 चान्यस्य 
षच विधिर्भर 


९८३, र 0 01. येन .."पाधिताप्रसङ्गः ; 7 न्ा- 
पिप्रसगः. 


१० पर 
१८३.९७, १८ © समासप्रस्ययविधौ च प्रतिषेधो 
२ कत्तस्यः. 
९८४, ९ £ भकच्म्ः.. "पसं ख्यानं २ कर्तव्यं. 
३ 8 सवैके स्वके. 
® ( 0171. & (¢ ॥98 1 प. सिद्धमेतन्‌। 
कथम्‌ । तहन्तान्संव श्नात्‌ +. 
९२ ¢ ०1. 
१८ (0 यावद्कव नति. 
२२ (~ । ०". इति. 
२६ ¢ स्य प्रयोगस्यप्र. 
९८५, २ 7 ¢ & ए ०. सर्वनामाव्ययसंत्तायां 
प्रयोजनम्‌. 
४ (8 2300.; 7 -उारिष भः. 
® ( (£ 7 ०४1. 
९ (€ ए ०10४. 
९९ (¬; £ 7 0\. 
९३ € ०. बरधायिता दिपरमाचिता ; 23 9). 
जिविस्ता.. .दिपरमाच्ताः. 
१९ ~£ 2 ण). 
१९ 0 8 ? सैहिकरोणः. 
२९ € 9 & (~) णषु, न तदन्ताष. 
२२ ¢ सिद्धं भवति के. 
१८६, ९० ~ & ४ ०.; 8 रथासीता 
९३ ^~ 3 010. 
१४ (01. घु स्वं ; © 23 ग). सव॑. 
९६ ¢ ४११ अवरपाचालकः अपरमागधकः 
१९७ ¢ 8 3 ०.; 23 ऋतोतरैद्धिमदव य. 
२० ¢ € 8 ०. 
२९ 0 द्विषाशिकवं जिषाष्ठिक. 
२२ ¢ £ 8 0). 
२३ © अधम चरति अधार्मः. 
२४ 0 न वक्तव्यं भशति (७1९6. 
१८७, १ 7 सस्य तहु. 
@ (द प्रयोजनं मह०..-१विधौ २; ¢ € 7 € 
8811९ #10 ०४ २, 
९ 0 भपः स्वा, 
९० 1) ८ ०0. स्वस, 
९२ 0 1 पद्युः.. नुम्‌ २. 
२३ ¢^ & ठ ०.; 0 "तुरतङ्चि?. 
२९ 7 "पुंसो ऽदङ् गोः. | 
२५.७ 7) >€ सुपन्थाः, परमपथाः; 1 2० 
71918. अप्रयोगः. 
२९ 7 ~€ ? ०. चुमन्थाः. 
२९ © 1 € 7 ताह, पलि गोः परम- 
गाः; 1) 1 8. अपप ऽय. 
९८८; ३ (~ £ 73 0४, 


१० १० 
१८८, ४ ¢ ०11. च. 
७ (1 (¬ 72 ०1. 
८ ? वणंमहणं च प्रयोजनं. 
९९ ¢ # ०0. 
१३ ¢ ४०११३ दाक्षायणः परमदाक्षायणः. 
२० £ 8 पअहणान्यर्थ; 7 चानथंकेन च 
२ तद. 
२९ © 0 © & ए गप. ४"€ 866०० अत्‌. 
२२ © घपयासा ई. 
२९ © & 8 ०. अल्महणेषु. 
६८९, 9 7 ?3 ०0. ेतिकायनीयाः. 
६३ 7 0 £ 7 ऽजेवादिरिति. 
| ९९ 0 सवे प्रसंगः. 
१८ ¢ अश्व आकृ. 
२० 3 “विद्यमानवस्वं. 
२३ ¢ 8 01. 
९९०, १ £ 9 0४. 
२९ ०). च्‌. 
। % 1 071, 
१० ए ला "काण्वाः, एतानि वरडसंना- 
नि स्युः. 
९३ ¢ ०1. माद्पुजाः. 
९८ 0 निष्क्रातकांतारो भवति. 
२० & ०११. एङ्‌ प्रार्थ देच; 047 सौपु° 
सौपु; ए ॥ शेषु" रेषु 
१९९, २ © (हवन त. 
१ ©7 तयोरङकारककारयोरमावान कि 
स्वङ्िस्वयोः प्रसिखिः. 
४ 0 शाक्यः क" 
९०& © 11 "४१६. स ताभ्या इाडवान्या 
0 ०प्ाप्शाए स एताभिः शाक्यते. 
< (र 010. 
९ © शश्ेप्रतिषेधो. 
९ © ग्कारदेवरिद्यावितो प्रा; 7 "वादेदा- 
विवी प्राः, 
१६ © 1) द्िद्विदिति किस्सं. 
९९ (} कसैष्यः। न कतेष्यः। न ह्य. 
२० © 7 गम्यते यथा एष. 
२२ © 7 किहडूवतीति गम्यते भकं कि- 
दिस्याह किड्ङवतीति, 


९१ 9 1) ति यथा मः. 
१९ ¢ ए मधुरायामिव मधु. 


॥ पाठभेदः | 


९९७ 


० पर. 


१९२, ९२ © 0 ४०१ कितीव किड्‌. 
१९ 0 (ङ्ढ, 
९९ © 7 ध्ूनवान्‌ एव. 
२९ 0 उषः उभगत्राः. 
२२ 072 ध्य इति अज्रापि. 
२४ © > 8 यन्न इस्यज्ा?. 
१९३, २ 0 जागृयः अत्रा. 
ह 7) 07. 
४ © कितीटप्र. 
७ 0 ~£ 5 ०). क्स्वायां ...प्रयोजनम्‌- 
९ 0 युरिस्वा. 
९० (~ £ 8 उदाहतः. 
९३ 0 शरुत्वोति भ. 
१९ ८ & ठ भपिन्किरिर्तीयः. 
२० ¢ 8 आधधातुक; £ °कीयाः. 
२६ © 1 शबेकादेदाप्र. 
१९४, ४ (~ £ ठ न पिन्डिनहिति चेर. 
1१ (&, "हेशप्रः. 
। क, ०० आदिवस्वात्‌. 
६ 7 दोष इति । 
ए दोष द सिद्धं घु स्थानिवर्वादुभ 
९३ 0 1) वाधेतं इह. 
९४ ¢ & ? वर्तिता वधिता, 
२० £ ताभ्यां लिटः कि; ठ निस्यसवाक 
ताभ्यां लिटः कि. 
९९९, ९ 0 7) तान्यां कित्ववच्ः. 
४ 0 किमुश्यते 


९ © यथाजातीया ; 7 ? °ज्ञासीयो. 
९० © 7 ए -ज्ञातीयश्च. 
९९६, २ © नानथेक्य. , 
४ 0 द्रस्वादीनाः 
ॐ ( 011. खलु, 
१० © कूतद्मश्रुः पु “ 
९२ £ ? 9०१ तह्गोणाण+ ० शिल्पवि- 
` १९ © 7) श्व यथा प 
२९ © ०11. इदे तर्हि प्रयोजनं. 
९९७, ९ ? प्रनिमिस्सति. 
७ © वाधते. 
१९८, ६ © 7 ०४. यो. 
७ (© सिञवि्ेषित इति लिङ्विक्चेषितः कर्थः 
१९ £ 2 &@ णाश 9 * 
२९ © ०. दी्ो मा भूदिति 
९९९, ९ ए ०. निष्ठायामवधारणदिः 


१८ (© “हिकस्य. 
२१ © 7 भयो नातिरेशिकस्य किय स्य भव. 
ति प्रसिबेध भौपदेशिकस्य 


९९६ ॥ पठभेदः ॥ 


“8, ७1 9 


१७८, ९४ 0 दीः सह इति. 
९८ ¢ & (माणद्चष्ठसं प्र. 
२२ 8 वर्णफाटक्रम उपः. 
२३ & ए & © 1 एवा "पाठक्रम उर. 
१९७९, ९ £ “व्रकाला भवरकाला सती ; ए ०. 
वरकाला सती; ¢ सेषावरकाला उपदे. 
शोक्तरकाला वणौ. 
३ 8 ०. 
९८ © "नन्यस्वकारः. 
१८० ९ ७ तद्र डल्प्रः. 
२५००. च, 
९ £ 00. 

६० 7 077. 

९९ 0 क्रियते इर्यः; 7 ८ क्रियते न्या. 

६८ 0 दष्त्य मु. 

९९ 0 10 179६. तत्कालः कलिऽस्य सो 
ऽयं तस्कालः सस्कालस्यति पाटांर. 

२४ 2 शमिनज्नानामम्र. 

२६ 88. शस्वरितानुनासिकानां; £ 188 
सनासिका 10 णाह; ररण्गु1णात1 
उदत्तानुगातस्वरितानामिस्येव पाठः; ॥ 
"लासुवासानुनासिकानाम्‌. 

९८१, ९० 0 सिध्यंति. 

१३ 08 विरेष्यते. 

१४ 0 'मध्यवि?. 

९९ © & विरोष्येते. 

२२ ४ दिशति. -"चिदातं कञ्ि्स्याररिंदासम 
क्िस्पादस्वरूपम्‌, 

२६१ 08 2 स्फोटस्तावार. 

१८२, ४ 0 निर्दिंहयते [पाठः. 
@ 0 10 78. तन्मभ्यपतितानामित्यपि 
९ © 071. संबन्धिरशाब्डाः. 

१९ 0 1) ^रत इति. 

९२ ~“ £ 8 अप्रति य आदिः. 

९९ 7 £ यदि चैव. 

९९ © कचि दैः. 

१९ ^€! स्यात, ¢ ब्रह्यव्रः ब्रह्मोदक्त, 10 
पाट. ब्रह्मोदनः; 8 ब्रहद्रः ब्रह्मीदनः ; 7 
न्रह्षव्रः ब्रह्मोद्नः. 

२९ ९ ^ 82 अनवमा 

२४ ^~ चान्यस्य च विधि ङ्गं >; 1) चान्यस्य 

च विधिर्न. त्य 


९८३, ५७ (नण - येन. .ाधित्ताप्रसङ्ः ; 7 व्पा- 
९. 


१० प० 


९८३,९७, १८ © समासप्रस्ययविधौ च प्रतिषेधो 
२ वन्तष्यः. 
९८४, ९ & अकच्यः..-"पसंस्यानं २ कर्तव्यं. 
३ € स्वैके स्वकरे. 
७ ( 0171. & (~ 198 10 गाध. सिद्धमेतत्‌ । 
कथम्‌ । तकन्तान्तवशच्नान्‌ +. 
९२ ¢ ०10. 
९८ ० यावङवति. 
२२ 0 ॥ 07. इति. 
२६ 0 स्य प्रयोगस्यव्र, 
९६८९, २ 7? ¢^ € ए ०. सर्वनामाव्ययसंन्तायां 
भयो ननम्‌. 
४ (8 ए3०01.;0 -इधादिष मः. 
® (¬ (^€ 7 ०४. 
९६ ए ०0. 
१९९ ~£ 30), 
९३ £ ०. दधानिता हिपरमाचिता ; ए गण. 
भिविस्ता.. .दिपरमाचता. 
९९ ~ & ए 0. 
१९ ^; € ए सैहिकरोणः, 
२९ € & 1 पष्ट, न तदन्ताच. 
२२ (~ सिद्धं भवति केर. 
९८६, ९० ¢ & ४ ०. ? रथासीता> 
९३ (^ 3 010. 
९४ (^ ०1. घु सवं ; © 7 ०. सर्व॑. 
१६ ¢ ११५७ अवरपाचालकः अपरमागधकः 
१९७ (~ & .3 ००. 8 ऋतौङ्ेद्धिमदव यः. 
२० ¢ £ 8 ०. 
२९ 0 दविषािकं जिषा्िकं. 
२२ ८ & 8 ०11). 
२३ 0 अधमे चरति अधार्मियःः. 
२४ 0 न वक्तव्यं भवति १५1९६. 
१८७, १ ए तस्य तहु. 
® 0 प्रयोजनं महर. विधो २; ¢ 8 7 ५९ 
881€ 1६00०४८ २. 
९ 0 भाषः स्वा. 
९० 0 1) (¢ 23 ०. स्वस. 
१२ 0 1) पद्युः.. नुम्‌ २. 
२३ ¢ & ए ०.; 0 "वतुरतङ्‌ चिः. 
२४ 7 ` पुसो ऽर गोः. 
२९.०७ 1 धट सुपन्थाः, परमपंथाः; 1 ४४ 
10878. अपप्रयोगः. 
२९ 7 © ए ०0. मन्थाः. 
२९ © 7 (7 पाशह. वल गो, परम- 
गाः; 1) 10 781६. अपपगे ऽय. 
१८८, ३ (^ € 7 ०. 





१० पण 
१९८८, ४ (~ ०17. च. 
७ († ( ए ग. 
८ ए वणंमहणं च प्रयोजनं. 
१९ ¢ 73 070. | 
९३ ¢ 8103 दाक्षायणः परमङाक्षायणः. 
२० £ ए शप्रहणान्यर्थ; 09 चान्थंकेन च 
२ तह. 
२९ © 7 © & ए ०, ध€ 860०१ अन. 
२२ © ुपयासा ई. 
२९ ¢ £ ए ०71. भल्प्रहणेषु. 
९८९, 9 7 8 ०9. ठेतिकायर्नायाः. 
९३ 7 0 € 7 ऽज्ञेवादिरिति. 
९९ © स्वैन प्रसंगः. 
१८ ¢ अच अकृ 
२० ए %विद्यमानवस्वं. 
२३ (~ 8 01. 
१९०, ९ & 8 ०1. 
२ @ 00. च. | 
% 7 00, 
१० ए »९ "काण्वाः, एतानि इद्धसंता- 
| नि स्यः. 
१३ ^ ०7. माद्पुजाः. 
१८ ¢ निष्क्रांतकरांतारो भवति. 
२० 6. ०१. एड प्राचां देके; 07 सौोपु० 
सौपु; ए ४ सोषु" दोषु 
१९९, २ ७ (चन त. 
१ ©7 तयोङकास्ककारयोरभावान्न कि- 
च्वङिस्वयोः प्रसिचिः. 


४ © शाक्यः क. | 
९ © & © 1" णभ. स ताभ्या शड्कान्या 


0 ण्नष्टाण्श]ए स एताभिः शक्यते 
€ (3 ग. 
९ © शश्चप्रतिषेधी. 
९ 0 °्कारहेवदेशाविती प्रा; 7 °वादेशा- 
वितो प्रा. 
९३ © 7) शह्िद्धिदिति किस्सं'. 
९९ ( कतेव्यः। न कतेष्यः। न ह्यः. 
२० © 7 गम्यते यथा एष. 
२२ © 7 दिमद्वतीति गम्यते भकितं कि- 
दिरयाह किदूड वतीति, 
९९२, ४ ¢ प्रसञ्यनिषे 
७ 2 नति) ्वुक्रु. 
७ © ]) षति इसि ङित भा. 
९९ 0 7) ति ययाम. 
९९ ¢ 2 मधुरायामिव मधु. 


॥ पाठभेदः ॥ 


९९७ 


१० प॑र ,. 


९९२, १२ © 0 ०५१ कितीव किडत्‌. 


९९ 0 "ङक. 
१९ © 7 शूनवान्‌ णव. 
२९ 0 षषः भगाः. 
२२ 07 8 य इति अजाप. 
२३ 0 7 ? यज्ञ इव्यत्राः. 
१९३, २ ¢ जागथः भ्रा. 
३ 1) 011). 
४ ¢ कितीट्प्र. 
७ 7 ¢ € 3 ०. क्ल्वायां . प्रयोजनम्‌ 
९ © युषित्वा. 
९० ~ £ 23 उदाहतः. 
१३ 0 धूत्वोति भः. 
१९ © £ 8 अपिन्डकिरदितीयः 
२० © 8 आर्पधातुकं; & °कीयाः. 
२६ ¢ 1 °बेकादेदापः. 
१९४, ४ (~ & 3 न पिन्डिनविति चेर. 
४ 0 ेशप्रः. 
९ © 7? आदिवस्वात्‌. 
६ 7 दोष दति । सिद्धं नि - 
ए दोष द सिद्धं तु स्थानिवस्वादुभ 
१३ ¢ 1 वाधेत इह. 
९४ ¢ & ? विता वधिता. 
२० £ ताभ्यां लिटः कि 8 नित्यत्वा 
ताभ्यां लिटः कि. . 
९९९, ९ त ए ताभ्यां कित्वव्व. ~ 


९ © यथाजातीया ; 7 8 °जासीयो- 
१० © 7 ठ -जातीयश्च. 
१९६, २ © नानथेक्यं. , 
४ 0 द्रस्वादीना. 
७ ( 01. खलु, 
९० © कृतद्मश्रुः बु “ । 
१२ £ ए 9१ तर्णुणिप८> शिल्पि. 
` ९९ © 7 वघ यथा ष. 
२९ © ण. इदे तहिं प्रयोअनं. 
९९७, ९ 2? प्रनिमित्सति. 
७ © वाधते. 
१९८, ६ © 7 ०४. यौ. 
७ (3 सिञ्वि्ोषित इति लिकविदयोषितः कर्थः 
१९ £ 8 & गण्डा 0 भवाप्सीत्‌ः 
२९ © 010. हीषा मा भूरिति. 
१९९, ९ ए ०. निष्ठायामवधारण 
१८ © 1, क्व. िहशिस्य कित्वस्य मब 
07व्याना थ ^ 
^^ ति प्रतिदेध भौपरेधिकस्य भवतीति. 


९९८ || पटभेदः ॥ 


१० पं9 


99 पंन 


२०० ८ © € किदतिदेशात्‌; ? वस्वर्थं ३०८, २ © शृष्पका रए्ेर्षा पष्यकाः; 1 ? 8 


तिदेशात्‌ 
१९ 0 ततुकमापित्‌ भ. 
१९ 0 (इवतीस्यषधाः; ठ -इवस्युपधा. 
९३.९४ 0 निगृहीतिः रप्र; 008 ए 
निगृहीतिः प्रयो जनं 
९९. 0 सेण्न भवसि - 
४ 0 1?) किदतिदेदाभिगहीतिः;ः ८ & ए 
° किदतीदेशादहीति शहति ¢ 8 
२०२, ३ 0००. हिः | 
९ 2 भण०.; € गर््वणडाङ्‌ ग.) बध्थिकशा१8 
ए भप्ाश्०७ रलः क्त्वासनोः कित्वा- 
रम्भः । क्स्वासनोः कित्वं वि. 
६ 0 1) नन्त 
२०३, ९०७7 सूत्यैतहेः. 
९ 1) ¢ £ 8 भविष्यतीति, 
२ 01 हिमाजिक-..जिमाजिक्ष. 
३ 01) वास्य; हिमानिक ; जिमाजिक. 
४ 0 7 (माज्चिकस्स्वंशक्य, 
६ © भयं भरिमाजिको ; 1) अयं तावाच्चिमा- 
चिकी 
® ( 08011. हि 
< 9 7 “सं्ैवन 
१९ 0 वातो 
१२ € एवमेषा. 
९८ (@ मध्यः. 
१९ 0 हविमाजिकस्तः, 
२४ 0५78 एवा. 
2६ © ०0. कि कारणम्‌, 
२०४ ९ ५ 8 विश्षेष्यः. 
६ © ००. तहि. 
९ 07 भवतीषि. 
१४ 0 7 ००, हस्वसंस्या ... स्यदिति. 
२०९५, ११९ 0 नंस्यस्य प्रः. 
९९ ¢^ 2 सृयते. 
२९ © नपुसकस्याकूः. 
२०६ ९07 श्यं चक्रियवे. 
९४ (¬ हलः स्वः. 
९८ ( (लभ्यते. 
२२ © 8 ०0. इति. 
२०७, १ ? "चकस्याभ्यवस्थिः. 
२ © भवेदिह कै 
३ ? ¢ ए यसे शनैर” 
१२ 2 2 शक्रमेव 
२४ ? ^ इणसंप्रः. 


-२०८, २ वद्मथा; ५ 0 8 था च. 


पृष्यका एषा वे पष्यकाः 
२0 कालका एतेषांते 
2 तद्यथा; 07& यथा 
९0 बिः प्रः. 

९९ (¬ ॥ & ? 1० 8४7. ज्र ते दीधः 

१२ 0 7 07). अज्र 

९९ 0 छदाः. 

२३ ^ 8& 8" ए४१४. ग्तोक्यमगार्य- 
काडदयपगालवामामिति एतदपि नास्ति 
प्रयोजन संज्ञा. 

२०९, २ ए 2 कथं अन्व्थग्रहणात्‌ भन्वर्थर. 
३ 0 ऊष्वेमनुडासर; 7 ऊ्वैमुगत्तः. 
४ 0 ततः स्वारः 
९५ 0 °हस्वोदालादशाः..मुशलानुशतस्व 

९३ 0 £ वक्तव्यम्‌ 

१९ 7 ^ कर्मिद्रामः 

६७ ^ इद्रागः. 

९९ ( ४) 00. च्छु, 

२२ ¢ 8 ०). 

२९०, १९ 0 7 ०1. ज्ञायते. 

९२ 0 7 071. वा वषठ्कार. 

२९ & 2 0, ; (19 फडशा; 7 ०, एण 
088 1) 1. 22 परादि 8. उदार. 

२२ £ ००. हरिव भागच्छ 

३ ©) & 23 ०00; ©. पाना. 

२४ & 011. 0/८ है 

२९९, ६ 0 1 ००. भवति 
0 7 भमुरष्यैतः. 

< (© 7? अ. भवसि 
९ 0 .£ स्यातोपो?. 

९० 7 (~ 8 शत्यंव्यश्च. 

९२ 2 ०0.; @ 7 एषु. 

६३ £ 188 देवदसस्य..-यज्ते ०1 ००९९ ; 
0 देवदत्तस्य पिता यज्ते वास्सस्य पिधा 
य नते हेवदत्स्य पिता यजते वारस्यतस्व 
पिता यजसे. 

६६ ( 011. 

९९ ? ०. चेश. 

२० 01 शरवे च व. 

२९२, २ 0 बहववननिः. 
ह वद्यथा; ०708 यथ. 
९ © हरलीति. 
६ 07  -हवचननिः 
९२ 0 8 & ण्ाण्भा; ए शुतिम" 
९३ 0 1) ननूक्त. 











॥ पाठभेदः ॥ | ९१९ 


१० प 
२६२, ९४ 0 शेषे स्व. 
९६ © वीनामापि प्रा. 
२३ 7 © ०. अणिः. .2हणम्‌ 
२९ © °व्येवं सिद्धम्‌ 
२९३, ७ © वैलादिषु वा षा? ¢ ए & ४९ 8167. 
४० ए पेलादिष्वेवास्व षाः 
< ७ 7 € भनंविष्यति. 
९९ 0 ०0९ अल्प अपक्त मरहणं कर्तेष्यम्‌. 
२० ( [ हट्वचान्यश्च. 
२० (0 भस्स्वन्य 
२९४, २० 1) तदयत्तादः 
१९८ ५ 1 & `पसजनं भवः. 
२९९५, ९ ? ¢ ? स्ततोऽन्यक्रौप. 
९० © 7 £ तन्न प्रधा. 
१९ 0 !) £ यरप्रति. 
९४ (¬ .जंनस्वमुक्तम्‌ 
९१६ 708 8 भव्ति उप 
१६ & 0 & प्रधानस्य उपस जनसं पूवे 
£ प्रधानस्योपसजंनसंज्ञा न; ? ०01- 
ह०४)1र पुर्वंनिपातो, 1" 71916 .^108४68 
उप सजंनसंज्ञा. 
९८ © °जंनस्य हस्वेति हस्वस्वं. 
२४ ¢ 0 श्रतिषेध इति. 
२९६, ९४ 8 ए ०५१ दश गः, > सप्तगुः" 
१४ (¬ ) 230). प्रापापन्. 
२९७, २ ८४४१९ वर्णनां मा, ७४ 16008 
८८ 1९,;०४ वणनिं खव मा. 
७ 0 1) °मेतङ्वति. 
® (3 071. इति भ€ इयेनायते. 
९० (0 & ० हाण्णाङ्‌ 0 £ भवतीति, 
९२ ? ¢ & ? भर्थत्रादिति प्राति. 
९२ 0 0 स्यात्‌ 0" प्रपोति. 
१९ 1) १११३ 1" 081. नाम ९५८ चेदवयता. 


९६ 2 £ 8 चेदवयवार्थवस्वास्समुदाया्थं- 


वत्वम्‌ अवयवैः 
९७ 0 7 नगरमिव्य॒थ्यते गोम, 


२२ 0 & ०"हण्भाङ्‌ 2 तावदहं नगः, 


८8 तावदाडधमिस्यकारो. 
२९ 0 7 डाह्ठा दंडेन. 


२९८, ३ 7 & & 1" ण. प्लस्पिस्तस्मारातिषधः. 


८ (© गामभ्याज, 

९088 गामेव...भनभ्याजेव, 
९६ ८ ¢ 8 उवः नी चकररिति. 
२९ © शघायां चान्या. 

२९ ४ & ननु चावदयं प्रा. 


१० ¶° 
२९९, ९ 808 2 भ्मुशैयस्यौपि प्राः. 
९ 67 श्े। हि कर. 
६ 0 एवं तेः; 1) ८ एतज्निः. 
७ © 1 ? भवतीति नाः. 
२० £ कथम्‌ । अन्वयव्यातिरकाभ्याम्‌ । भ- 
न्वयः. 
२२०, ९0 इ्क्र 
९ ~ 8 071. &  "" पाश. पुरूहूत 
१९० 0 1) भ्थंकल्वमक्तम्‌ 
२ © संघातस्यायथवसत्वात्छ; & पस्थैकारथंस्वा- 
स्ह” 8 पस्य वेकाध्योस्घु ¢ श्स्यै 
"वेकाथ्योरस॒° 
१४ © ग्थंवच्वा्ैत॑स्य प 
२० 0 2 कंषिदख 
२२९. ९९ 7 अथाप्ररयय इति कि पयैदासौं 
९३ ० (त्तिवेकाठेशप्रः 
१७; १८ (¢ ^ङेकदेराप्र. 
९८ ८\11€९ न्रह्मबन्धुः, 70 वीरबन्धूः, ” जीकव- 
बन्धू. 
९९ 0 ॐङ आदिवस्वात्‌. 
२२३, ९० © 0). समासम्रहण. 
१९७ ¬ ¢ 23 & ०111911 ? श््रासिषेधश्च, 
९८ & 1\ 181. ख &{1€" भव्ययाना. 
९९ © अधिकरणमाजार, 
२२३, # © त्ैतयो°. 
< (ध 011. हि; ४ ०0. ऽपि, 
१९० ? (भागभ्यामेव ; £ 'भान्यामिति. 
९० ब्रक्तव्यं ; © 70 कर्तव्यं 
९३ ङगवरत्रायः; © 1 "878. सगवरव्रान्या- 
भित्यपि पाठ 
१८; १९ 0 1 उपसजनहस्वखे व २; £ ८8 
8 0] ००८८ उपस जंनहस्वस्वे च. 
२० © उपसजेनहस्वस्वे च २ 
२२४, ९ व भतिर्तभी अतिलक्ष्मीः अतिभूः अ- 


२ ^ ? स्वरायिष्यते; & 07. त्र 
२ 8 ° भवतीति 
£ 0 .भैवति. 
९० © 7 & ०€ण्शा़ & “त्यथः. 
१९ (0 7) ०४. चख. 
१२ ००. मोक्षीर म; ¢ ? "पालकमिति, 
९३ 0 1 सेनानिद्ुः, 
९६ (^ 8 ऽन्तवदाः. 
२९ (~ ठ अप्रधानम्‌, 
२९ ध 7 01. #- 0 


९२० | पःठदमेदः ॥ 


ए० पं 9० 09 
२२४, २२ ८ ए यस्यति. २६२ १९ 0 7 पृष्यपु; £ तिष्यपुणः ए तिष्य, 
२३ 8०1. हि 10 178. पु? ¢ 2 यथा स्याष्यप. 
२९ ¢ गण. २९३३, &; ^ वितीत्युख्यः. 









९४ ( 0१. 110८ 0६ च; 7 ०. ६८ ७. 
५०११ ष्ठु. 
२० © तत्र नैक्रार. 
२९ ^ "धाने भने. 
२९ © -इस्येत दृष्टा तमवस्थाय ; 70 इस्येतदूः . 
इत्येवं वृर. 
२३४, १ (1 7 इस्येतद्ः £ इत्येवं इः. 


२२९, ९ 8 0 
७ अ 00. यावती; 2] १88. जा. 


866०4 शु, 
७ 0 प्रतिषेध इहा. 
९ ¢ 2 भविष्यतीति. 
९२ © मन्यवडवति. | 
९२ © कथं ता; 7 क्थ ताः. 


१२ £ प्रतीक्षते. ~ ४ £ करं मन्यते; । 01&;0१1], सुक्कं 
९६; ९७ ¢ प्रतिषेधो २ वक्तव्यः; 7 ४208 मते, 917९7९५ ८० सक्ररतरक्तं मन्यते; ¢ 
3 का). 1, 16. हि 7 । स॒क्ररतरक्रौ मन्यते, ५०८ ०४। ८९14} 
२२६, २ गोण्या नेतिन वक्तव्यं; ) गौण्या. € 10 8; @© 7 गफ. 
नेति वक्तव्यं. १२ 1158. उच्यते. 
९ © 010. इस्वस्वमन्र विधीयते. ९८ ( 071. श्व; 
९३ ^£ 3न ब सूच्याः २९ ¢ सश्य संयो. 
९६ (¢ गोण्या नेति च वक्तव्यं. २९ © सककारयोः. 
२३ (^ 23 & £ 1 0091. कदुकवदया. २४ 15५, उच्यते. 
२२७. ८ 0 'संख्ये ते दाक्येते अतिदेषु. अ २३९, ९ ¢ † समासांतः. 
१० £ 1) 718८, कला प्राग्बरत्तेय, यत्रा १३ ¢ भमनर्थम. 


प्राग्ठत्तर्यै लिङ्गुःसंख्ये ते भतिदेक््येते। 
षटठी कस्मान्न भवति । सामान्यातिदेशे 
विदहोषानतिदेशः; [8 $४४ 1610118 
{1018 16811. 

९२ ¢ £ 2 अन्यत्राभिभ्रेयस्य ग्यः. 

२० © °संज्ञत्वाद्‌र, 

२९ ए & & 1 0578. अन्यस्याद्रीनेन; 


१९८ 2183. उच्यते. 
२० 0 ननु चोच्येत नेव व; 71 780. चोर - 
ततवेति पादाः. 
२३ 0 ०7. क्षश्च वृक्षश्च वृक्षौ . 
९३६ ६ ? ०71. पृथक; ध] 1188. €द्९ु)( 3 
उच्यते. | 
< ९ 7 विनक्तय॑तानामेक शेषे विभक्तयताना- 


8 ००. च. मेकशेषे वि 0 ]) विभक्तयंतानामेकशेषे। 
२२८ २ ३ ? मथुरार. मधुरे. वि; ¢&€ 1 विभक्तथतानामेकशेषे विर. 
` ९७ 0 मधुरा. ९ 0 भविष्यति. 
२९ 0 ? भवति. १२ ¢ 1) ६ च देहि ब्राह्मणाभ्यां च कृतम्‌. 
२२९ ९ (^ 98०, १४ कतां;077 करणं, 
9 ~£? ०1. घ; 8 व गु. २३७, ६ @ 0१. 
१६ 0 सिध्यति जाः. ९0०7. सत्री. 
१७ © 7 तर्हि. १० 0 रोहितस्यापि. 
९८ (0 उक्तम्‌ २. ९३ ( रूपान. 
१९ 0 7 £ प्राभोति. १७ 0 £ रूपनिम्रः. 
२३०, ३ 0 ०7. २२ © यानि रूपाणि, 
४ £ ^~ £ 8...करोति। एको यवः सपत्नः २९ च 10 पाट, धधि कथम्‌, विभक्तिः सा. 
खमिक्षं करोति ।. रूण्येणाश्रीयंते. 
२० (0 तद्यथा, २६ 0 यानि रूपाणि. । 
२३९, ९९ © ०0. च. २९८ ६ 0 7 & ०गाण्9 ए त्ैष कोषः परिह- 
९९ 2 सस्थामपि यत्तिष्यः. तमेतत्‌ अनवकाश. ` 
२९ © पुनर्नैषज्रस्यैत०. < 0 £ प्रयोगसा?. `` 








|| पाठभेदः ॥। ९२९ 


3 प9 १० ध | 
२३८,१० ए क्रियां । तस्या एरकः. २४६, २० £ 00. शुह्कं वस्वम्‌. 
९० 0 ? ह्ितीयस्य पदस्य प्रयोगेण. २० © 7 पटी. 
२३९, ९ 7 यस्योत्तरषिः; 2 यस्यात्तंरः स्व, २२ @ 01. ४€ 018८ चख; © & 00. ४6 
९२ © 7) एकच्चेकञ्च एकौ 8९८०प्‌ श्च. 
९२ 0०दइोवदौ च हे," 791८. चेति पीठा. २७ £ 8 युगपदादिस्य. 
¬द्ाच्द्ोच द्रो चेति २४७, ४ £ ? भवेदिति. 
३ © श्धक्रस्वाचानेकशः; ) श्यक्रस्वाव्ा, १३ & ८5०. ष्व. 
२३ 0 € भवाति. ' ९४ (0 भिन्नार्थः. 
२४ तद्यथा ; © 7? 2 यथा; £ ००: ९६ © कषौः. 
२४० २8 ०). पिता. ९६ ^11 183; ९१८९]८ ए षोडदापलाश्च ; ६ 
९९ क्षास्तु; 01" "४. कषाः स्थुः. शोडदहफलाञ्चः; 0 संवस्थः; 7 “शंवः; 
९६ 28 प्रतिचिरेकार्थः. ए: 'संवटधः, 10 1878. दी जस्‌; 8 शं- 
२२ 0 'दाचनिकी च. वटधस्तत्र; £ 1४7. माषसंवटंघ इति, 8 
२६ © श्रोति वक्तष्यम्‌। न वृ, -शंवटयस्तज्र; 13 ६9". माषसवध इति 
२४२, ३ © तेन मन्या. स 113. ण 1.97. माषशबटथ इति ; 
५ 0 7 "तं यना, 4 20०1101191{8 111 1. 0. 28 & ११ 
0 “कृतं यना 705 ०? 5. माषश बदा माषः घो 
९९ 1 11601008 ८€ ८९११- १९ 0 वि्षेष उच्यते 
1०6 बहयेता च. २० © यतः सामानाः 
९३; १९ ? & ए 1: पनित शानैक्रेनानेः. २३ © ०. शब्दमंहणं वा. 
९९ ५ "प्रस्य चे. २४८; ९ 61 केन ष्त्‌ यः ०७ श्रुयते. 
२३ 0 7 एकरेनोक्तत्वात्तस्यापरस्य. ८.7? €£ 2 डुलिश्च. 
२७ © 071. न्यप्रोधाथं- ९ 07 शहक्षणो ह्येव वि. 
२४२, ९ 1133. यिशर. ९२ © °स्येतस्सिद्धम्‌, 
< 0 0 & ०7 पणार ४ द्ावाकमा. ९६ # इलि. 
< 0 °वी संनमेते,. २० 8 ०, श्व 
९९ ¢ एकशब्द | २४९.३;९ 2 पलिङ्गस्मावि" 
९९ @ ०". एका. ९ © वाचकम्‌ । [कै तहि । हस्वमपि । कर्थ 
९८ £ 5 कपोतेति. ४ (¬ ङ्हवतन 
२९ © 0 ०. व ९६ £ 8 & ण7€ण्भाफ £ सी सडविन, 
२४३, ९ © 1 2 “लन्यतें । भंस्वीत्याह । किम |; ¢ १६6€व ४० तङ्धावेन. 
९ © नैकत्मिः ५५०, ४ इय; © ० ६. इद्‌ हयं पाठर. 
९२ 8 ? °त्ंथेकलेषे बोषः. ९ ० ण अव्यक्तं रूपं. 
२१ ¢ नंतु यस्याप्याकृतिस्वस्यापि. < 0 0). 
२९ ५788 च समाप्यते, ९३ 0 ०1. न.. सिद्धम, 
२४४,९६ © 0 £ 2 निङ्‌. १९ 0 शब्ठाभिनिवेशोः 
६ 08४8०). श, ९१६ 0 -कारणात्सि>; £ “कारणात्वा. 
१९ 0 भारम्नपोक्षः, 11 71218. आरम्भणा- २० © शद्व्रागप्षः. 
लम्भनप्रोः पाठां २४ ५7) न वेष. 
१९ 1 मधुरा © 10 "वा. धु पाठां २४ (00. हि. 
२४९३४ © ०07. च्व २५९, १० ए भवतीति बवक्तष्यम्‌,. 
९२ © 0 £ “कृतिरिति च प्र. २९२, ९६२6 ०१. च . 
२४६, १९ 0 स्स्यायते ऽस्यां. ४ © 3 अनीरा. 
१0 सुते २९ 0 7? तरुणका इमे; ए णार तरुणा 
७ 0 00. यद्युभयं स्वन ङ्मे,11#९7९ ४० उरणक्रा इमे. 


66 9 


९२० 


० पं 


२२५, २२ ¢ 8 यस्पतिः 
२३ 0५080. हि 
२९ ¢ 0. 


२२९ ९ 8 णार 
७ © 0). यावती; ५1 488. 11. {16 


86001 शु, 
® 0 प्रतिषेध इहा. 
९ (^ 7? भविष्यतीति, 
९२ © °मन्यवङवति | 
९२ © कथं तार; 7 क्थतांः 
१२ £ प्रतीक्षते. 
९६; ९७ © प्रतिषेधो २ वक्तव्यः; 0 ४८8 
ए 70. 1. 16. 


५ 
| 


२२६, २५ गोण्या नेति न॒ वक्तव्यं; 1 गोण्या. 


नेति वक्तथ्यं. 
९ 0 00. इस्वस्वमज्र विधीयते. 
९३ ~^४८नवु सूच्याः. 
९६ ¢ गोण्या नेति च वक्तव्यं. 
२३ 0 0 & & 10) षष्ट. कडुकवदया. 
२२७, ८ © °संख्ये ते शक्येते अतिदेष्टः 
१० हि 71 गा. 8९ प्राग्र्य, अथवा 
प्राग्वत्तेवं लिङ्गःसंस्ये ते भतिदेश्येते । 
घ्री कस्मान्न भवति । सामान्यातिदेशे 
विरोषानतिदेशः; ४१ १४६६ 16110108 
11113 7९९६4108 
९२ ४ 0 & ए अन्यज्राभिभेयस्य ष्य" 
२० ¢ “सं्तत्वाब्ः. 
२९ ए & £ 1 087&- अन्यस्यादशेनेनः 
(4 000. चच 
२२८, २; ३ ® मथुरा०.--मथुरे. 
' ९७ 0 मधुरं. 
२९ © 2 भवति. 
२२९, ९ (~ 2 ००. 
७ (8०1. घ; 811 गहु. 
९६ 0 सिथ्यति जा. 
९१७ © 7) सहि, 
९८ ( उक्तम्‌ २. 
९९ 0 7 ४ € प्राभोति. 
28० ३ ¢ 01\* 


४ 208 ए...करौति। एको यवः सपन्नः 


चघुभिक्षं करोति ।* 
२० © सख्था. 
२६९, १९ © ०. च, 
९९  शस्थामपि यत्तिष्य. 
२९ © पुनर्नशजस्येत. 


|] प.ढमेदः 1 


१० 4० 


२१२, ९ 0 7 पष्य पु £ सिष्यपुर ए तिष्यपु?, 
10 1. पः ^ > यथा स्याव्वपमर. 


२११, ६; ७ ¢ पवितीस्युच्यः. 


९४ ( 010. {116 08६ चं ; [ ०0. ४€ 8९- 
९01" च, 
2० © तम्र चैक्रार. 
२९ ^ “धानं अनः. 
२९ © इस्येलदृष्टातमवस्थाय ; 7 इत्येत; £ 
इस्येव बृ. 
२३४, ९ ^ 7 इत्येत? £ इव्येवं दृ^. 
४ £ घकरं मन्यते; 1 ०1911 सुक्ररक 
मते, 8161604 ४० स करतरकर मन्यते; © 
2 ॥ सुक्ररतरक्रं मन्यते, ००४ ०४।६१्५८ 
€ 1 23; 7 0१. 
९२ 215६. उण््यते. 
९८ (¬ 00. श्वः; 
२९ © सश्य संयो. 
२९ 0 सककारयोः. 
२४ 5५. उश्यते. 
२३९, ९ 0 7? समासातः. 
९३ © मन्थम्‌. 
९८ 188. उच्यते. 
२० ¢ नतु खोच्येत नेव व; 1512. खोस्प- 
ततेवेति पार. 
२४ © "70. दक्षश्च वृक्षश्च वृक्षो. 
२३६, ६ £ ०7). पृथक; || 2138. ९९४ 
उश्यते. । 
< ९ 3 विभक्तयतनामेकशचेषे विभत्तयताना- 
मेक रोषे वि? 0 1) विभक्त्यंतनमिकशेषे | 
वि? 8 ^ £ }\‹ विनक्तथतानमिकरशेषे वि०. 
९ 0 (भंविष्यति. 
१२ 0 1? च देहि त्राह्मणान्यां च कृतम्‌. 
९४ कर्तां; © 1 £ करणं, 
२३७, ६ (अ 0४. 
९0०1. स्त्री. 
१० 0 रंहितस्यापि. 
९३ 0 रूपानिम्रः. 
९७ © £ रूपनिभ्रः 
२२ ५ यानि रूपाणि. 
२९ © 1" "7 9.. श्ल कथम, विभक्तिः सा. 
रूप्येणाभ्रीर्यसे. 
२६ © यानि रूपाणि. । 
२६८ ६ ¢ ए & णहण्णा ए नैष रोषः परिष्- 
तमेतत अनवकाश, 
< 0५ £ प्रयोगसाः?. ` 








|| पाठभेदः ॥। 


¶2 १० 


२३८, ९० ए क्रियां । तस्या एर्वे - 
१० © ¢ हितीयस्य पदस्य प्रयोगेण. 
२३९, ९ 1 यस्यो त्तरवि; £ यस्यात्र: स्व. 
९२ © 7 एकश्चैकञ्च एको. 
१२ ७दहौगष्वद्ौ च हे, 10 "9४. चेति पीठाः" 
0द्धौषदौ च दो चेति. 
१३ © ्थक्रसाचानेकशः; 7 श्यक्रस्वाबाः; 
२३ © & भवाति. 
२४ तद्थंथा ; © 7 8 यथा; & ०; 
२४०, २ 8 ०1). पिता. 
१९ क्षास्तु; © 11 91६. क्षाः स्युः. 
९१६ 7? £ ? प्रतिचिरेकार्थः. 
२२ © श्ट्रा्निकी च. 
२६ ¢ श्चोति वक्तष्यम्‌। न वृ: 
२४२, ३ (© तेन मन्या. 
४ 07 (क्रतं यना 
९ १ १20]1011॥1६8 17161108 (€ 1९9१. 
1०8 बहथता च, 
९३; १९ ए £ ए । 'मिवेशानैक्रेनानेः. 
९९ © प्रत्ययै चे. 
२३ © 7 एक्रेन्तत्वात्तस्यापरस्य. 
२७ © ०71. न्य्रोधाथं. 
२४२, ९ 153. यरि. 
< 091) & ०गटण्णार्‌ » दअवकक्िमाः 
८ © “वी संनमेते. 
९९ 0 एकशब्द 
१९ ¢ 010. एका. 
९८ & ठ कपोतेति. 
२९ © 7 णण. च. 
२४३, ९ © 7) ए °लगभ्यतिं । भस्तीस्याह । क्रिम्‌ 1; 
९ © नैकस्मिः. 
९२ £ "तथैक शेषे कोषः. 
२६ © ननु यस्याप्याकृतिस्तस्यापि. 
२९ © 7 € ए च समाप्यते. 
२४४९६ © 0 £ ठ निक. 
६088०. श्व, 
१५९ © भरम्भप्रोक्षः, 11 0191६. आरम्भणा- 
लम्मनप्रोः पाठां. 
१९ 7 मुरा; © 10 पादा. श पाठाः, 
२४९३४ (1 010. षध. 
१२ © 1 £ -क्रतिरिति "व प्र^. 
२४६, ९ 0 स्स्यायते ऽस्या. 
१ (¬ स॒तेः. | 
७ (¬ 01. यद्युभयं सवन, 
66 भ 


९२१९ 
१० व4१० 
२० £ ०). (3 वस्वम्‌. 
२० © 7 पटी. 
२२ @ ०111. \1"€ गण्डौ चः; © € ०0. € 
8९011 च. 


२७ € ? युगपदादिस्य. 
२४७, ४ & ? भवेदिति. 

९३ £ 2 0. श्व. 

९४ © भिनरार्थ. 

९६ ५ कष. 

१६ ^11 1088. ९५०९८ ह बोडशपलाश्च ; £ 
शोडकशफलाश्चः; © 'संवस्धः; 7 (शंवः; 
7; गसंवदचः, 1 "09. दी जस्‌; £ “यं 
वटथस्तच्र; £ 1६815. माषसंवटंथ इति ; 2 
°श्ंवटयस्तच; 8 7. माषसवध इति 


पार 118. ° ६9. माषशबटथ इति ; 
328०}1071४4४ 10 [. 0. 98. & 


70 ०0 3. माषशंवदटथां माषः षोः. 
९९ © विशेष उच्यते. 
२० © यतः सामाना. 
२३ © ०. शड्ठम्रहणं वा. 
२४८, ९ © केन च य°. -शरूयते. 
८ £ ? डुलिश्च. 
९ © 7 'ह्वक्षणो ह्येव वि. 
९२ 0 स्यतस्सिद्धम्‌,. 
९६ # डुलिश्च. 
२० 23 ०01. च्च. 
२४९.३;९ ? शलिङ्कस्यावि. 
९ © ग्वाचकम्‌ । कि तहि । दस्वमपि । कर्थं 
२४ (इह तन. 
९१६ & ए & गशणभ £ स्री सङत्रेन, 
? १६६९१ ८० तवङविन, 
४५०, ४ इयं; © 1० 7918. इदं हयं पाठं - 
९ पणार अव्यक्त सूपं. 
€ (ध ग). 
९३ © ०. न.. सिद्धम्‌. 
१९ © शब्दाभिनिवेशोः 
९६ © °कारणास्सि; £ ^कारणास्वा 
२० © शदव्राग्परं . 
२४ ५7 नंवेष. 
२४ & ०0. हि 
२५९, १० ए भवंतीति वक्तव्यम्‌ 
२९२, ९;२ 0 0. च 
0 ए अनीय. 
२९ © 7 तरूणका इने; £ णहार तरणा 
इमे,81४९7९ ४० उस्णक्रा दमे. 


९० || पाट़भटः ॥ 
प्ृ० 0० १० पं 
२५२, २९ © वकररका हति. २५८, ९ © क्रिमियं यत्तर. 
२३ {3 ता, गठ्ना श्ररन्तीति. ९० कास्यपाः, 
२९६, ३ (¬ पठति. ९६ ७ 1) स्क्रिसित्पूुः. 
६;७ £ "परूषक्राणि. २२ 0 € यद्यत; 1) यद्येत. 
२२४, २५1 त अचि द्चधातरिति श्रुः २७ © 7 मन्यते, 
६८8 यः प्राति. २५९, ४ 7? & 7 १९८ & एदाए -गव्यस्यार. 
१० 1) ण. ७ 1 वहति वहतीति ; £ वहति वहयति ; 7 
९२ ? & 7 भवंधहा^. वशष्यति बहयाति ; ८ 0121181 वहति 
१९ 2 -जावतीयक्रा. वल्यति तीति, 811९160 ० वदति 
९६ १६०11०1 १६६२ "वरदृष्टा. वहतीति. 
१६ 2 > अशक्या पिंडी? 1 01810811, अ- , ९ 1 ज्ञपयिष्यामीति. 


शक्या च नाम पिंडी. ९० © स्वरानुबेधा वा. 
१८ £ 23 ०1, साधने. ९४ 7 किरसि. 
९४ € दिरिः; 7 हिसि ; ए गहाण]? दि्चि. 


२९ © करिष्यते, | 
२५९ ३ निदर्शितं; © 1 ए ददीतं £ प्रदरिीतं. 

३ ५ 7 £ नि्हंदयतं; } निदर्शते,. 

९ £ पक्तिः; 1 0111"11‡ प्ता, १11९1६4 


१] {८९ (० दसि; © ^ 7 ह हिरि, 
९७ {९21९६६8 7ाल€ाप्तणाऽ (€ 1९8५198 प्रत्य 
क्षमाख्यात. 


८० पक्ति, १९ © £ -माख्यानमाह 

१२ |? £ 7? ए गा). सिद्धं त॒. २० (+ 1) 8 “ठत मम भर. 

१८ ५ ते नन्या. २९ £ ०71. किरीटी. 

२० 0 ण. तद्यथा, २९ ० स्वस्य प्र. 

२९ 0 शुक्र. २६०, ४ 2 & ०्टाप्णाङ ए लक्षणेनापि श्युपः; 


२९ 8 01. पुरंदरः, 
२३ ¢ 7 ऽयंवत्तापि न. 
२२९ £ ॥ विशेषं; ४८ 0४ # 88. विज्ञेषणं. 


२९५६, ९ £ 5 प्शब्ठों ; £ 01£121)$ पच्चतिश, 


०।६४९॥९व ६० कृद र. 
९३ 0 0 (मीहे मे मरू. 
१८ ^ 2 क्रियत; ४ 76०91] क्रियते, 91. 
६६९१ ६० तियत ; 11€ गलः 188, 
२१ ०७7 विगप्रा्तेषिद्धाथनां. [ क्रियते 
२५९ © 1 निर्हिंदयते; 7 निवृइदयते. 
२७ © 0 पक्ष्यति च भर, 


1 लक्षणेनाप्युपः. 
४ 7 72 -क्षमव्याख्याः, 
६ & 8 & १०१५५ 1 ए ° देव्रीयक्रमः. 
७ (© .मारख्यानमाह, । 
९४ 8 इह अन्न. 
९१६ ए देशने ऽ जनुना. 
९७ ? योजनुना. 
२२ © 7 न प्रायवच्वनाः. 
२६९, २ ०७न कञ्चि. 
५ 0 शटंते. 
७ 0 सर्वोपि; 1) स्वोपि हि. 


२७ @ 7 एषा वाचो. 
२५१ २ © अथाप्यरन्यः; 7 अथवास्येर. 
9 & 23 & १५१९५ 1" + -कौनामापि त प्रा 


७ £ तं तमवर्धि कृत्वात्यो ; 1 १६०}107 ११६१ 
1048 सर्वो हि हलन्स्यो भवति, 8५ 
06111015 € 1८६त11ए5 तं तमवार्धं 


९२ 1 £ 7 गवयः. प्रति ११ तं तमंवधीकुत्यै. 
१२ © -त्यादिपाठनिब्ः. ह ९ © °तांतस्वात्‌, 
१६ £ # & ४११९१ 1" 7 माविवचने धात; ९२ © °मित्संज्ञो भ. 


तदर्थ, 
२० © ] श्रयं भवाति, 
२९ © 7 & 01&1811९ ए उपपद्यते. 
२५८, २ प्राथम्यं ; 0 प्रथमं; 7) प्रथमं. 
४ 0 वस्रीयाति. | 
६५ } £ ०). कि तर्हि. 


९९ 138. तेन; 7 £ 7 ध्यवसितानेवा 
९६ ¢ ०बंधन्ञापितः. 
२० ए कथम्‌ । लक्रारनिर्देशात्‌ । लकारः 
निदेशः कर. 
२३ ५ भवति. 
२६२. ८ £ नावदिबेत्सं 





|| पाठभेदः ॥ 


१० प° 
२६२, ८ ©@ शत्स्वरित इति. 
९788 इह तरि. 
९२ © ।) इदं तरि. 
९१६ 7? £ 8 भविष्यति ६०७६५९४0 ० भवति 
भवति. 
२९ © क प्रेप्तं दीप्यसे; 70 "19९. क्षा प्रप्सं 
पाठं; 087 क्क प्रेप्सन्कीव्यसे. 
२६३, ९ पप 8०110114 118 8853 ५1 1९257 ८0 
कि. . त्पत्तिः, वस्तुतो ऽयमपाठः. 
७ © तहि अव्वं. 
१९ 11676 & एलण०्क चंश्ुर; 70 पाण्ट चः 
पाठर. 
१२ © ००. केशचणः. 
२३ £ चेदिदिध.. 
२६४, ९ 0 ? 8 विज्नायते. 
२७ श्रोवियपुत्र इ 10 70". श्रौत्िय 
इल्युख्यते पारा. 
६.1) #£ € गिस्भूः; 2 सभिव्यावेदभू. 
८ 0 भिदितः. 
८ © पठति, 
८ © उद्करिर; ) उन; ¢ उदिर्‌ निश्ामनें 
स्कान्दिर इति, 2 बद्र. 
९६ ५५९०] 11१४{१ १९७5 वैधयः (मखैः )* 
१९ 8 भ्मानेपि वै; ए वै 13 ४५५९५ ; 8 
'माणेपि, 


२९ 7 071. & 7 १143 10 18. निष्ठा 
सेण्न क्रिङडवति. 
२६९. २५ णिद्धहगेन न गू? 8 न गिद्गहणेन शृ . 
&े 0 & 011. | 
५ ए निर्दिं्टलोपाहया सि मेतत्‌ 1 "191. 
. ९१९0 गिधिप्रति. 
९३ © 1) केनाभिप्रायेण नि 


२९ ए स्त्या: शाखा व्रकषेक्राता उपलभ्यते 


0102 कांता उपलभ्यते; ६ "का- 
न्त उपलभ्यते. 

२२ 1) 0९८ & (गणम ढाप्रति `. 

२६६, २ वक्तव्यम्‌; © 1) कत्ैव्यं. 
८ ». चेप्पूर््ोत्तर. 

१९ 7 £ € व्यवसितः पाः. 

१२ (¢ व्यवसितः पाः; 8 9 071. ठयत्रसित- 
पाठः; 10 1८ 13 ऽप्ण्टोः 0, 

९४ © 0111. आक्रिय...संरेहः. 

२२ ० एकरांता एतन्नाप्यं ; 7 एकता एत. 
न्याय्यं. 


२६७, ९ © ऽन्तरतम शत्यनेनाप्येः; 7 ऽन्तरतम 


त्वव. 


५०२ 


० प | 
२६७, ९ ¢ 7 अतर्येतः. 
१२ 7 £ & 7 1\€ा९ & एल०ण 'सलातुर. 
२० © स्रैतोनुरेशः; £ & सव्रौनुदेशः. 


२६८, ४ 7) £ सषयासःम्य.--“डशः ८५१०९. 


९६ © 7 गशिलादिन्यामणओौ. 
१९ & आलमनेपदनिष्ठाषिधि". 
२० ¢ 8 ०10. विधि. 
२९ © अनुदात्तङितो दम. 
२६९ ९ ए पुत्रैरूपष्वे. 
६ © 1 आतयैतः. 
९० 0 तत्तहिं गक्रार. 
१२ 0 7 करिति गिति. 
९५ 0 धातुषु िप्रः. 
१८ © 7) & 3 ०. त्र. 
१९ 7? घमादिग्रह. 
२२ © अक्रतेरि च क्रारक्र ४५१५९. 
२१०, ४ 0 व्टृत्तौ डो. 
< 0 7 ०. तन्न. 
९३ © व्याख्यातो ; ४ व्याख्यात इति. 
१४ 13.072. 
१७ ¢ °द्मञ्खौ. 
२७९, ४ ^ 071. 
९ 0 अज्र संख्या. 
९० 14. 01. । 
१२ ¢ अथैवं. 
१४ © 0 £ स्वरितखं. [प्राता . 
२२ ¢ प्रतियोगं तस्य; 10 1118. य॑.गे योगै 
२२ © गतमियता. 
२७२, ८ ¢ वेति ; ¢ € 7 विष्गुमिजाय कंवल इति. 
८ ¢ गानि, 
९९ 0० श्यैणवे;एच्यंएवर 
९९ 1); 9१६. लौक्रि रोधि कार इति च- 
दुक्त पाठः. 
२० ¢ 1) श्यमेवं 
२९ © “्ानं चेति. 
२४ © तत्र वक्तव्य. 
२९ 23 01, | 
२६ © चनं वक्तव्यं. 
२६ तत्तर्हि; © तहि. 
२७३, ४ 7 }६ 'लक्षणमिनि इनुण; ॥1€ ०५४९ 
1188. -लक्षणमिरयुक्तम्‌ इनुण्व . 
७ 0 ए विज्ञायते. 
७,८ © अधिकं कायै अधिकः कारः ज. 
कारः; {10€ 8810९, 819 अपिकरर्गतिः 
ए? अिकारगतिरधिकः कारः अधिकारः 


९५४ 


९० पण 
अपिकं कायं , 0४ पिकारगाति 


०४; & भधिकारमातिः भंधिक्र कायं 
अधिकः कारः; ए ५८ 88116, 0४४ 
अधिकं कायै ४16९. 
२७३, ९ 0 सिया. 
९० & 8 ०). प्रस्यया ; 1) 7 इप्लीः ०ण, 
१९ 0 स्वरयिष्यते. 
२२ @ ०10. ऽखं. 
२९ © अथान्यो यो. 
२९ 7 पूतैप्रतिषेः. 
२७४, ७ 0 षष्ठीनि्दिंटेन. 
९ 01) 0. चि 11 पाट, 
१० £ द्वितीयानिरदिषट प्रथमानि च. 
१९९ © "धानाश्च वि? 70 "षाष्ट. नाहितं 
पाठ. 
९३ (1 -धानाषशारम?; 11 णभ. 'चूषा? पा. 
२६ ० ००1. परस्मैपद्‌. 
२७९, २६ © 1 तद्धधत. 
२६ ~ उच्यतनचथ. 
२७६, ९ (ˆ £ तव्यकादयस्त॒ वर्हि; 3 तम्यदाए्यस्मु. 
९ 0 न खल्वन्यः, 
१९ 0 भवतीति. 
१९ ^ 0 पर्स्मेपदमिति ना०. 
२० & 8 0101.{ 71 ए हपलूर तण, 
२३ 02 011. प्रकरवयर्थनियमे ; ए प्रकृव्यर्थ- 
नियमपक्षे. 
२७७, ९ (' चान्य न प्राः. 
२ © यत्तीहि. 
४ (1 भवतीति, 
९५ 0 कतरि कर्मभि. 
१९ ˆ रुजतीति रोग हि; 7 0111०811 ङः 
जति रोग इति. | 
£ (¬ मुवतीति. 
९०7) & णङ्ण्शार ए कर्मणीत्यपिनि? 
१९ (¬ भभाग्रास्सिर, 
१२ 0 & ०महपा 2 प्रातिः शोषाशिति 
सां यो. 


१६ @ 010. 0€ क्षरि ४०१] 17168, 
२० (" क्रियाष्यतिहरि २ इति. 
२६ ( & ०" 8ण्शा ए क्रियाया ईष्सि?; 
{~ क्रियेप्सि, 
२७८, ९ ₹{}; ८873, 
३ 0 निदृत्तिः निवृत्तौ. 
६ © ष्यतीहारे, 
१९१ 0 {¬ & ण &्धाङ़्‌ ए इतरथा ह्यक्रियः. 


|| पाठभेदः ॥ 


९०९ प 
२७८, ९२ © भावकमणोरनेनाः. 
२३ 8 ०. 
२७९; १ £ & ०7 ण्म ए हकद्योः. 
२४.701. हरि... वक्तष्यम्‌ ; ८. 
2115 इुषवर, 
९ & 5 ६ ग. 
` # 0 (नति, 
१९ ¢ स्वादिति. 
२० © 0 & गहण ए? ग्यका अनापि. 
२८७, ६ ¢ माणवकं; ए € 28 माणवक भागम, 
यस्व तावत्‌. 
८ £ ०7). धनुषि शिक्षते. 
९० ¢ 7 बृषो.. 
९९ ¢ भक्षयार्था ; 1 भिार्थी- 
६९ (~ 1 3 प्ृछणे;. 
९६ (^ 7 £? 7 छोर, [1. 15. 
१९७;१८ 5 "85 आाशेषि...नाथते र 
२४ 0 ०". विकारौ. ."छ्ते; ‰ 71 पणा, 
२८६, ५६; ® (3 & {1 11.1.11, 9 "उंगाति, 
९२ 1 देवपुजापसेगतकरणयोरुदाहतं. 
२० & ०70. 
२८२, ४ 0 1 भवतीति. 
< & 0111. 
९९ ? गम्यादिषु. 
९९; ९२ & 23 पद्ध. | 
२९ £ 0 अ्योतिषामुदढमन. 
२९ ? .तलादिति; 48९10198 तलादि- 
स्येव फाठः सांप्रशायिकः,. 
२१८३, ९ (¢ एते ह्याहुः; 10 088 एवं वा पाठः, 
९ 3 01. क्गु्कुटाः. 
९८ ( संश्रतीमं, & 2 संखरसीमं. 
१८ ( देवलः. 
९९ @ 3 010. हि 
२९ 7 ठतीयया योः श्च? ए & ? ठतोया शर, 
२८४, » 7 ब्राह्मण्यै संर. 
९ 0 यद्येवं तहिं ना. 
१० 0 स्वशाट. 
९४; १९ 0 सकमेव>, सकर्म॑परः. 
२९ (@ ०८; कथं .. -भरम्न. 
२८९, ९ & ए ०. शीयन्ते; 10 £ 8106 ०४ 
७ विज्ञायते; © 111 1097. वित्तास्यते पाठाः, 
१९ त एवं; © तेन विषयं; ए गा्टाण्मा 
तत एवं ; € णण त एषं, शृध्थघ्व 
{० ततं एवं. ˆ 
९९ 0 01. हाहेः, 








|} पाठभेदः ॥ 


१० 19 
२८२ २२ © & ०००]. 8 पर्वस्व नि, 
२८६, ९ & "वद एवाडागम, 
९ £ 3०. ऽपि, 
१९४ ‰ 010. 
९९५ ए 0). न कतेष्यम्‌. 
९८ 7 विकरणादपि स्वड़्‌ रग्येत ; £~ ०८ 
9115 विकरणास्प॒व आडति अद्‌ ल, 
४1४९1९04 ० विक्ररणादडिति अद्‌ ल; 
& विकरणास्पूत्रं भद्‌ ल 8 ०. 
[ अथापि..-कम्यम्‌, 
२९ © शङइविष्यति. 
२७ © ऋच्छिभावः प्रसभ्यत ऋच्छि; 8 
००१. ऋचख्छिनाव, 
२८७, ९ 0 प्राभोति, | 
३ 0 & ०८ष्टाण्ाङ्‌ 9 किव. -कञेर्ष्यं... 
न्तं चापि; © 10 पश. भ्य; पाग 
तश्चा पाठा. 
८ £ 2881) णाह & ए फ०६४, येत्य 
योगेभ्य आरमने. | 
९७ 7) पृपरव्रस्सन ताभ्यामारमनेपदं भवति मा 
भूषिति ; ए ०1६9] पृतैव सन इति 
शादिभनियस्य्ं वग्वनं, ४५ पूवैवस्सन इति 
8०१ वृचखुनं 8 प्८। ००६, 
२४ © £ ०0, न भवतीति. 
। २८८, ९ ६। एतदेवं, । 
। ९६ © नियते 
1 १९ 7 ०7). ९शैनाव्सनन्तादास्मनेपद, 
२३.२९ 1) ०. लिङ्ग. वं 
२६ 7 ०. पराचिकीषेति- 
२८९ २ © & गहा "भार्‌ ? कृते, 
५ © 193 कस्य ९ भवतिः 10 पाधा, 
कस्य समुदायस्येति पाठांतरं, 
© स्य ४१०८१ ६८८ प्रस्यय. 
९९.९९  प्रकूस्म" 07 आङुस्म 
१४ © आरायति. 
९१६ © करते, 
९७ © & ०"8ण्धार & लिगं कृतं. 
२६ £ "7. दहामास. 
२९०, ९ 7 उञ्जांचकार उम्भाचकार. 
९ £ 801. निय; ए ०पष्ण्शा नियुक्ते 
वियुक्ते, ४४४ नियुक्ते 807001८ ०८।. 


६९, 0 गमादिव्येवोश्यते ; 7 ? & गमादिष्वि- 


स्येवोच्येत. 
१२ ? सकमंकार्थं वश्वनम्‌, 


९५९ 


१० पं - 


०, ९९ © वाससौ हति अजति; 7 सी इति नि 
भजति. 


२० तशस्मने © 7" 7181, तदैव पाठांतरं. 


२९९, ९ 7 सर्वज्र प्रसगः. 


४ 1 7?&£ 13 ग. कस्मान्न. . -मनुष्यिनिति. 
९६ 0 ब्रुशिति. 
१४ © बरूभास्मनेपशकमेकाणामुपः. 
१९ 7 & 8 ०". उस्पुच्छयते पुच्छं स्वयमेव; 
10 1 81706 ००४. 
२२ © ०011), च, 
२३ 7 070). श्व, | 
२९ ए श्यां स्विदं ; ? शधार्थमिविह. 
२९२, ® 7 £ ए ०. दश्यते नस्ये रजा; ), 7 
8111} ०प्र४, 
१२ € ऽन्यकर्व॑र्वान्‌. 
१९ (¢ प्साति. 
२० © ०. क. 
२२ ७ 1 तथाजातीयाः. 
२४ © कर्चा क्रिया. 
२९३, ३ ० ^ भन्तकाराः; ५९ 016 188, 
भक्तकराः. | 
४ ऽप्यज्र; 0 ऽन्यज्ापि; £ 3 & 0 १८८४. 
01 7 ऽवि 
९ © कर्मकारः, 
& 0 लभसे. ,. 
< © & गषटाण्णा ४ गा. 
९४ £ 07. 
९९ 8& ०". अनुपशच्यर्थम्‌- 
२० 7) £ ८ ०1, षराक्रिथते स्वयमेव, 
२९४, ९२ 0 १विषयमास्म; £ विधावारमः. 
१३ (र भा. 
१९ © ०पदेनास्मनै  . , 
२४ वक्तभ्यम्‌ ; (0 1" एह कतत्यम्‌ पारः. 
२९९, ९२ 7 7 7 ०. 
९३ © ] धापयते. 
२९६, ९ € ०१. पुरदरः 
< © कडारात्‌ संताना. 
१९ 1) ०70. 
२९ ७ & गण्या 7 अंगसज्ताया; £ 
1.111.161 अंगसंज्ताया, 
२३ © ०". धानुष्कः; & +" एश. 
२९७, ४ © °सर्व॑स्थाने. 
< £ ०00. 
१९ © शप्रहणं कर्तव्यम. 
२९८, १० ¬ ०1). कथम्‌ । अ; 7 ०. कथम्‌ 


५५६ 


0० 4० 


२९८,९० 0 7 एकसंसेति. 

१२ ¢ ङयांदिरव०; 1 7078. ऊर्यांङन्यव- 
काह इति पाठः; £ & ऊयरिख्विरवर. 

९३ ( 1) 1 011, इति, ` 

१६ (~ सिद्धो भवति. 

९८ © कमेसंत्ता भाविष्यति परः 

२० (0 00. कथम्‌। अ; 70 ०. कथम 

२० ( क्रियत 

२० ¢ एकसंतेति. 

२७ ¢ 'स्वास्कतृ. 

२९९, ९ (+ 1 01), कथम्‌ 
१९ ( क्रियत. 
२ 0 एक्रसंतेति. 
४ 0 वाधीयाताम्‌। भनत्रकाचे नदीषिसंतते। 
गार्गी, 
< ^ 0 ०0. कथम्‌. 
९ ( क्रियेत. 

९२ ¢ (संत्तायाभव्िः. 

९७ (+ 0 07, क्रथन्‌. 

९८ © किथत. 

१९ ५६8०). सा. 

२३ € टसिवियः. 

२४ © कै संतता. 

२९ © कटैसं्ापि. 

३००, ९ © 7 3 0. इति, 

१२ £ 0111. 

९४ € तत्र च व, 

३०९; ९ £ 07. प्रयोजनम्‌, 
६ (0 बहुर्रीहिप्रतिषेधः. 
९ £ हेषम्रहणास्पराः. 

९९ ¢ 0111. इति, 

२२ © 'सं्ता. 

३०२, ९ © तिङः सा? 1" 818. तिहतसार्व॑ः पाठर. 
३ £ अपत्यश्चः. 
५7८३ि. 

९९ 11 }1589. ९० ०९}४ ९ 0 धनुषा विभ्यति 
कंसपात्र्यां शङ्के गां दोग्धि धनुर्विभ्य- 
तीति. 

९२ ( “सज्ञा उत्तः. 

९२ ¢ कांस्यपाश्या अंज; 7 ०8. कास्य. 

१५९ 03 सापरा. 

९९ ( & 01110119 1 कास्यषार, 

२० ७ 173०0). घ. 

३०३, ९ ८ £ 2 ०71. साभ्वसिमिछनत्ति. 


॥ पाठभेदः ॥ 


१० पं० 


३०३, २ †\‹ ०. धनुर्विध्यति, 9१ ॥85 साध्वसि- 

हिछिनन्ति. 
३ ^+11 1553. ९५ ०९[४ ए ०1. गेहं प्रविशति. 
४ 0 गृह. 
९ ५1 188. ९४८९ ह ०. अपिक्ररणं 
कतौ स्थाली प्ति. 
१० £ 01. 

३०४, «९0 3 ६ 0ण1.; 1) ठककदव्योषनिवेदानी 
सक्ता २ इस्येः; ^+ एकद्रव्योपनिकेद्यनी 
संतता । इत्ये. 

६ © 8 ववेदानी. 
३०९, १२ © ०. तु, 
९३ 0 हेतुभे वता व्यः. 
१४ ( स तल्यस्त.. 
९५ 0 ०". भवता. 
२० © 001, (€ १८8 च्च. 
२९ ¢ प्राभोति, 
२२ 0 तदेतदुपननं . 
२३ (~ ०100. विप्रतिषेधे 

३०६, ९ † विप्रतिषेधे परमिव्यत्का भंगाधिकारे 

पूवं (1 "६1. भिति वक्तष्यं) ४७८९ 
३ © परेति? 
६ £ 01810115 तद्यथा एण परषज् 
९७ £ 0111. घस्यूषति 
२ © वेक्षमाणि, 
२३ © 0). ज्तोदनः; 7011 71181. 
३०७,९३ 0 संप्रधारणः; 7 & गश" 9115 7: ण्णः. 
९९ 0 इदमयज ; 1" "श. भयज. 
१९ 1) & 13 भवय. 
२० & 3 ०71. श्त इन्द्रम्‌ ४१त इन्द्रम. 
२३ © °ठेतरेणापि. 
२९ @ 011. स्योनः. 
३०८, ४ © श्वोच्यते, 
८ 7 सों सानीयं, 
९९ © 071, स्वकीधै, 
९९ 0 जगगद्धाः. 
२९-२३ 8 011. 
३९ 7 वक्तव्यत्न । अनडगनङ्भ्यां तुम्मवत्यै- 
तरंगतः। सुकृत्‌, 
२१ रियति ; 0 पयतीति; 7 पयतीति; 
01118115 पियति, ०1{€ध्व्‌ ५० रियतिः; 
8 3 रियतीति. 
३०९ २ (¢ पपूत्रैखं च य; 7 प्पुवैरूपत्वं यर. 
९ 9 सोटामिनी. 
९५ _ 1 1; यनाहेगाच । यमादे शाति. 





|| पाठभेदः ॥ ५२७ 


प9 


8६८६ ०५६. 


३९०, २ कतेष्ये ; © वक्तव्ये, 
४ 0 "्य्येत. । 


९४ 1 ०. अपरैषुकामशमः. 


आ 


पं 


३०९, २४ ¢ बहिरंगमंतरंग इति; 1” ए लक्षण | ३९९ ६२ ¢ ०१. श्वः. 
९३ ( भाषा. 
९१५ † ०". अन्वीः.. श्यभ्यति. 


१७ 0 यस्माह्हणं किमर्थम्‌ । यस्माद. 
२९ 0 ए समुदितेन कि क्रियते. 


९८ 0 क्रियते ; ए °नापहियते; & 5 नपा | ३९६, ४ 0 स्यानं कर्ब्यम्‌, 


क्रियते. _ 
२० © परस्य चेति. 
२२ © गनिष्त्तो न. 


३९१, २ © निवर्त. 


३ © ०". तर्हि. 
७ 1) {£ 7 00. यवमांसियः. 
७ £ 0. यवमव्यते. 

९० परत्वा?; ? £ ए अंतरंगत्वा. 


३९२, ३ # बहयद्र. 


9 (¬ पुनर्ी; ० फण. क्रि पुनरि हीः 
पाग. 

९९ ( 0111. इह. 

१५ ( 01. करिम्‌ 

२० 0 गा. न. 

२३, २४५ 7) ततौ नेयः ..-तती वामि, 

२४ ७ 007. न. 


३९३, ८ © अत एवं; 171 1४. त एव पाठ. 


८०७एकौ चद हस्वो. 


३९४, २ ० गगौ यो. 


£ £ 3 07). प्रयोजन. 

१९ 7 ०. प्रध्ये ; 10 1 इप्प्८), ०४८; & 71 
10812. 

९४ (© 010. तस्येद... भवतः. 

९६ © हप्पुव ङस्थाने; 7 ४ °यङ्व ङस्थान . 

९७ ५ गय॒वङ्स्था? 0 » "यङ्वङ्स्था- 

९७ ०1981": कचित्तु भाष्ये पठथते भखी- 
वचन एव्र नदीसंज्ञौ भवत हति वक्त- 
व्यम्‌ | दहाकटथे अतिशकटचे ब्राह्मणाय | 
क माभूत्‌ । शकटये अतिरशकव्ये न्ना 
ह्यण्ये इत्याहि । एष स्वपपाठ इत्याहुः ।. 

२२ € ? अपर आह । हस्वेयुच्त्थानग्रव्रत्तो 
स्रीवचने । हस्व चः. 

२२ ¢^ शयुवङ्स्था. 

२२ £ प्रवर्तौ खरी. 


३१५, २ 0७ € ०्टाप्ाफ ? °यद्वंरस्था. 


९ 0 चाल 
१० ? सुभितः. 
९० 0 व्वीरे 


१० 0 शहिः; 7 घथि; . 


ला 008 ४16 (८4108 शुधितमि? 


९ 0 0 00. भभिनत्‌ अच्छिनत. 

६-१५० € ०). कि पुनः. -संचस्करः. 

® ¢ व्यते । संयो. 

८ करञयथेम्‌; © कसैव्य. 

९ 0 संयोगस्येति सिर. [ एकर र. 
२२ 0 सेति तत एके 7 € 2 सप्तोतित 
२२ © येन नं भर, 

२३ © केचिद्यावडवति, 
२४ 0६88 मवति. 
२४ © कूष्णमिति ; ? £ ? कपिल इति, 


३९७, ७ क्रियत; © किमर्थ. 


९ [) 000. 

१९ £ 9 & ०161911 ए तददेस्तह?. 
९७ (1 & 1 & 01181811, 1 क्रियते. 
२४ 9 8 दविधिः. 


३९८, ९ > स्तदेतस्यतिःप्र; 7) °स्तदंतस्य त भरः. 


९; ६ 0 तव एतत्‌. 
< © 01. 
१२ © तव एतत्‌. 
९३ © (धेः. 
९३ 1448011018{{द कदणगा§ ध्ौ€ 16817 
साकरुटिनम्‌, 
१४ © “बिधिः स्वरः, 
२० © “पदमेवो. 
२९ © पठति. 
२२ †" € 2 न्तवब्रहणमन्यत्न. 


३९९, & © ०. वा; ) कृत्तद्धिताः. 


९९ सूुच्यति 7170 (1,18.41 13 0), सच्यतिः; 
६ वच्यति, ऽप्परटोः ०प६, 
९६ © 7 वाधत. 
२० £ ठ नोदयिष्यति ; 2 116 89116, 
. २1४८६1८१ ८० चौदहायेष्यति, 
२९ © 'रतस्येवं. 
२५९ 8 धारयथः परस्ता | एतयोः; 1" 
पदसन्ता 13 ६११८१ ; & ०. एतयोः. 


३२० < & ? & 01181०11; ¬ स्थानिवड्विात्‌. 


९२ 13 “श्वयोश्च. 
९३ 1 € इषनिव्यतघ्य. 
९९ † £ 1 07. अस्वन, 


९५८ ॥ पाठभेदः ॥ 


१० १० 
२९, ३ 91995 : (कचिदुपान ग एवं सरह य्व 
स्विति । ९कवथनमिः बु मास्यं 

नास्त्येव ।. 


१९ € 01: & ए 185 10 1797. तन्न. 
९३ £ & 8 शुद्खः पट इविः 
१ 7? € वंशतरेणापिं. 
६८ £ £ कमौदीनि वि. 
६८ & स्वादीनि वि. 
९९ &£ 8 ए कल्यैकस्य. (बहनि. 
२० ०७९६ & & 0 भध्टाश्० 8 केषां 
२९ 0 एतज्ज्ाः. 
२६ © °कैर्निश्जितः. 
२७ © 7 शयुग्न्य; £ दयुच्रौ 
३२२ २ 8 (शेषेण विधानादृ्टाविप्रयोगाष. 
९५ विप्रयोगाच. 
१ & & ०181०811, £ चद्खुमारतरा. 
& ठ विप्रयोगाच. 
९४ 1.01). 
१४ रस्त नियमः. 
१८ © सथा तिढां संख्यां चैवार्थः कमौदयश्च. 
२४ 0 ४0१8 9€ "कस्मिन्निति, अथवावि- 
शोबेणोंसपद्यत उत्पन्नानां च नियमः. 
३२३, ६ 0 1 शब्ठास्ते नि. 
४ (> ङेवंदत्तेति; 8 & 8 ०1. पदयुरपट्यं 
देवतेति, 
@# 2 00. ऽपि, 
८ © निष्क. 
९८ © श््रधान्ये; 7? रधानं 
२० © 7 श्रधान्ये. 
२३ 0 प्राप्ोतीति. 
२३ ०७ 7 पततीति. भवाति 
३२४, ३ © & 9 ०१. ०४९ ~ 
९० 0 -नुस्पत्तिः. 
२९ © £ वाधिकर. 
६२९, ९ 0 00. [ एतत्‌, 
६ © 8 प्रधानस्य कः; 0 0. प्रधान... 
७ 0 इणेन प. 
९९ 7) ए? ट? पतनदिर. 
१२ ५०पि छि्येत. 
१९ ठ -काषहिद्योतते विद्युत्‌. 
२२ © ह्यैकपु^. 
३२६, ९ स्वावन्ष्यं; ए 8? कठैस्वै. 
३ ७ नन श्व परिवतेनं क; 7 00. च; . 
ए? ग्नं व परिवतंनं च क. 
४ 0 ०्यां च धारणक्रियां क. 
४ 2 £ ए 011. कवेदानीं परवन्वा- 


ए° प० 


३२६, २० ¢ कांस. 
२० (@ ०१४. इति. 
२९ © £ 3 & गहण्शाङ ४ धमाद. 
२९ 0 7 £ ए अभमाौनिः. 
३२७. ९ इति ; 0 इह. 
२0 0 8£ & ण४1811 ? इति इह ब एष. 
४ £ ठ अधर्माः भधमानि. 
९ 0€& 8 & 8११९ 1" 7 इह एटणिधस् च. 
९९ 1 ? £ ठ ण, सिद्धम्‌. 
२४ 7 ८ 28 चोरेर 
२९ 0 ०0. & 1 0 शाट इस्डन्यस्यायत 
३२८, ९ ए ्ोरि०. 
२९८४ चोराः. 
९३ 0 वि तहि. | 
९४ £ ०0. कतुरीः..-"नथेकम्‌. 
९९ £ 011. कैरी. वचनात्‌. 
२२ 8 & 0 १।८८ १४०० ? शरु 
३२९, ७ 0 श्युपयोग इस्युध्यते. 


३६० ९ 0 तास्साग्यः. 


९ © नास्यंतास्यतायाः. 
९२ © & ०"्ा०8।15 7 अथाभिर्षः. 
९३ © 1 00. सं. 
१९ £ & 0112181 8 संनद्यति. 
२९५ © ०४. प्रथंना. 
३६९, ९६ © 7 तमपम्रहणे. 
१९ 0 संज्ञा पुनः साधः; & ०४. वनः 1 
1. 16. 
२२ ए भपा्यमावायः. 
२३ ¢ ८ £ प्रामादंगच्छततीति; 7? # 8 8 
ण. नगरावागच्छतीति. 
३३२, ९ ¢ कस्लमाधाः. 
इ ७ 011. न. 
७ ५ कंस्य पुनस्ता, 
९२ © भवीति. 
२४ © ०विशद्‌, 
३६१, ३ © ००. कारकर्वै. 
१४ 001. च्व. 
२० ० 1 चामांतर ग. 
१३४, ४ ५ 7 ०. नैतदस्ति 
७ 0 पृच्छतीति. 
१९ 0 1 .मपथिनोतिः 
९२ © एते पु. 
९७ £ कथिते । कथिते लादयः। ; 8 गण. 
व्शषश्यः. 
२९ © अकारकमक ० 2 (कथिताम्‌. 
२९०७शद्ाया मः. 








१० प 
३३९ २ © (विधिरेव. । 
९ ?3 लादयो भः; © सहव्वरेण. 
१३ © नयति -.नीयतां प्रामामेति. 
९९ & & ण्णर्‌ 2 कयः । बुग्धा गोः 
पय इवि. 
९७ 1) ‰ £ 5 010. कन्तव्यम्‌. 
२० ८ ०1. बरष्टव्यामिति निश्चयः. 
२३ © सिद्धं चाच्य 1) सिद्धत्वाप्यः. 
३३६. ९ ए 8४18 : केचिदध्वगत्यन्ता इति १. 
ठन्ति 


- ४ उ देदाश्चाकर्मेणां २ कम 7 वेदाश्च. 
कर्मणां । कर्मे; 8 ए देदाश्चाकमकाणा 
कमर, 

७ 0 कल्मेति. 

७ £?2न वै तस्मिः. [रिति. 
९० ४१8१४; क्थिनल्तु पाठो धासोर्निश्त्ति- 
१९ 73 010. सवो. 

१४ © यस्मात्तस्य. 

९१९ @ 0011 ६1९8 खन्न ^. 

२३ & & ०18०९11 ए 2 ऋ्रंदवति. 

२४ & & ०1810811क ए शन्डाययते. 
३३७ ९.1 "दीनामुप. 

९९; ९९ 0 ? आदिः. 

१९ 7 ठ आदयति. 

२२ ? £ ठ वाहयति. 

२४ 23 00.; & 1 गाश. 

२६ ” £ 3 भक्षयति बर. 
३३८, ९ ५ 7 ए भकर्मेभ्र ; 3 कालकमेणामुः. 

२ © अकर्म. 

४ 7 £ ४ ०1४९६४०० (कमकाणाम. 

६ ८8 केचिश्पि काः; 1) ए केचिरकाः. 

८ © सकमंका भक. 

९ & यत्कम कचि भवि. 

९ £ क्षयिङवति कृविन्न भवति. 

९२ 0 श्वृशोरूपसं. 
१८ 7 ०1. प्रोतं तन्लम्‌. 
९९ 7 £ ? वितानमिवि ; वितानं दति. 
2० © ०10. वरते, 
३३९, ३ 0 ०1. तस्य. । 

५ £ & ०78४115 ? ववति चेः. 

< © £ कृष्टा व्यवस्यति. 

९ 8 € प्रेषितोपि न. 

९ £ £ भवति. 

९४ © 7 01. स्वतन्नस्वात्‌ ; #.स्वतंजस्वा- 
स्सिद्धमेतव्‌, 


| पाठभेदः || 


९९ 


ए० पण ` 


३४०, दे £ & ण्ाप्भा ए भृहिति. 


९ 0 7 ८ कृन्मेजंतश्चास्ति. 

९१ 7 समासेष्ययीः. 

९२ # समास एतः ; £ समासेष्वेत. 

९४ 1 48०]1107०{{8 : प्रियं प्रोधमिति क्षाचे- 
ल्पाठः; [1817808८ & 0 €080108 7018 
16४0 प्रथम्‌, 

९९ © च ततो न रजति ; ए शत्रजति; £ 

ततोनुत्रजंति ; ? च तावदनुत्रजेति, 

९६ © वाति. 

९७ 2 88 ? तत्रति. 

२२०७बा ना वाधिष्यतेलति;8प्तांमा 

२४ © -सन्ञायामेत अव. 

३४९, ४ 2828 एवं षकृत्वा 
६ © & ० 1हा"9ाई 0 "वनं नेति ; © 1" 
1818. ने नेति वा पाठः; 7 “नो मेति. 

९९ 1) € & णपा 8 0विनागो निषाव- 
सनाथः. 

२० # & उपसगांत्त हालि, 

२२ 7) 00. ;.7 1177812. ; £ “ज्दस्व चोप. 

३४२, २ 7 £ ६ “ब्दस्योपसंस्यानं. 
५ ए ४8 पुनश्चनसौ 171 187, ; £ 1081684 
1४ २; .& 01, 
६ © गनिष्क्रातो; 10 "9. रु पाडा ; 
“निकसो. 
# 0] संज्ञा. 

९० 7 & ग". प्रयोजनं ; 8 ए ०). घञ; £ 
188 1४ ०0्द्विापभाङ; ह क गाह्णशाङ 
7? 'नस्वानि, [8]], 

९११९ ए ए ०00. घञ्‌.. भूत्‌ ; £ 1981६ ग 

१३ © नायकाः तस्मा 

९८ ¢ ४४३ २ ६९ कोषो. 

१८ © 7 य उषतो. 

९९ @ 10 एधा. योसि वा पाठः. 

२९ ए सूर्यः ण" आचायः; ७ 7 & ग. 
0811 ४ ०0. प्र णो ४०९ बर्हा 

३४३, < £ & ०पहाण्भाङ © बुनंय ; 7 णण 
दुनैतमिति. 


१९ 0 "त्ाहितिपरं- 
१६ ७ द्ौवद्त्र; 7 & & ण्टाण्भार 
'्वीवदिस्यभ्रापिः 
९८; १९ ५ र न प्राति ; € & ०पशण्भा फ़ 
2 शज्रापि प्रभाः. 
२२ £ ए &‡ पधा १८०४ ए रकिः प्रतिनिः. 


९६० 


५० प 
३४४, ९ £ 8 “व्यते प्राः. 
५९ © सतीर्येव, 
९ 0 भविद्यमान भाद्रे. 
९३ (~ अङि. | 
१८ © °क्षाहेव हि कि” ; ८ शक्षादेव स्क? ; 
ए णह्ण्शार्‌ 9, एप देव स ऽप्प्लाः 
0४, 
२९ 4 ९०१९५ 10 2 तन्न च खवर & 
ख्टयंतस्य प्र. 
३४९, ३ ए & ४९ 21679४0४ ? नित्या. 
४ 0 7 तच रव्य, 
९ 0 धातोः वक्तव्याः. 
९२ ए शस्येतिपरप्रति. 
१६ 8 00. च; 1" £ 8६९१ ०६ 
९७ © 1) ०, ऽपि, 
२२ © यत्रा. 
३९६, २ © ? स्थाय व्वनमेतद. 
२8९ इषं. 
३ 0 तश्र गतेः. 
४ & ४१०९ दुष्करटंकराणि वीरणानि ; 1० 2 
{118 18 8घ्प्टौः 0पप, 
% (© 00. गतेः. 
९९ © 01. 016 स्यात्‌. 
२९ ? शाकल्यसंहि 
28 1) प्रादेोषु प्रादे ; 5 010. ००९ प्रा- 
हेश्चं ; 1" & ००९ प्रादेदौ इपर. ०५, 
३४७, ९ © °य॒स्यमानं विमानं ; ? ` युञ्यमानं 
प्रति, ०४ प्रति 8धाण्टाः ०४. 
९ प्रादेशं प्रादेशं ; 0 प्रादे २; 8? 0. 
6७06 प्रादे ; 10 ‰ 016 ऽध्एलौः 0 
३ © °युङ्यनानं निराममिति;8 निश्र्मि प्रति 
९० 7 ०11. सुर 
९१९ 0 कि च वत्त. 
९४ © कुता. 
२३ 7 आद्मयांकाभिविध्योः\भाङ्मयोदानि- 
विभ्योरिः, ०४५ जआ...ध्योः ऽध्षण्णाः 
०४६. 
२४ 7 7 € भाङ्मयोः; © “व्वनमिस्येव, 
३४८, ६ ? € विद्योतते विद्युत्‌ इक्षं परि वद्योत- 
तेविद्युत्‌ गृक्षमनु विद्योतते वि द्युत्‌. 
११ सिखा ; ० 1) 2 सिद्धे तु. 
९३ 7) £ ठ & 2११५१ "० ? तज्रापि चश्च. 
२२ 7००१. गोमृखस्यापि स्यात्‌; © 10 "४8. 
मधुनोपि स्यात्‌ वा पाठः. 
३४९, 9 0 011, किमुक्तम्‌. 


॥ पाटभेदः ॥ 


प्रण पण 


३४९, ८ 7? ठ» “वनात्तु सि. 


१९ & 07). परस्मे ; ¢ 01610811 "पठ्क्न्वने. 

१७ ७ 7 01. तु; £ & गण्श 2 
^पठ्वचनं ज्ञापकं पुरुषसंत्तावा^. 

१९८ © 7 ण. परस्मेपदेष्विति. 


३९०, २ ०७ 1 ०11. समसं ख्यार्थम्‌ ; 1 2 8धण्लुप 


०४४. 
६ ७ ०. वैषम्यात्‌, 
२० 9 1 & -किटिकम्‌, "किटिकानि. 
२९ © भमाणे आस्म; & मणेपि चात्म. 
२३ 0 रान्यासृग्भ्यासुमििरुप ०) हान्वास- 
गभ्यामच्निरूषः. 


३५९, २३ © 7 010. ऽपि 
३५२ २ © भवाति. 


३ 23 00. ॥67€ & ए५ु०्न प्रथम, 
१६ & 01. 
२२ £ € पचसि च प, - 
२४ 0 123 २ ४6 "भावस्य. 
२९ £ पचसि च पर, 
३५३, ९ © (^तरज्ापि. 
२५7 यत्तदुक्तै. 
२ © ०1. तच. 
२०७8 तज्राप्येवं. 
३ 7? प्वसि च प. 
३ 9 8 पव्चति चेति. 
३०72 पश्चामि चष. 
९ © “पुथकस्वेष्वपि. 
९ ए £ ०. भवतीति. 
१० (9 & ०1&1811 ‰ सोप्य्बोः. 
९३६ © 7 गृह्यते; £ गद्यते. 
९१३-१९ 8 0". भवेत ..-गृह्यते. 
९९ © 1) अन्यच. 
१९२२ © 1 & ०११९१ 1.४ °ततमावापि सु न. 
२४ © कनिस्यमेवमअ्. 
२८ © एवोच्यते, 1 08. इस्येवो ˆ पादः ; 
£ इत्येतावुच्येते ; € इस्येतावदेवोच्यते ; 
? इस्येवोच्येते. 
३०६, ९ 9 4 भविष्यतः. ` 
2 © 8 ००. चच. 
४ 0 1) ठ मत्रूपः प्वामि. 
७ © 7 ०1. तज; 10 2 प्ल ०ण. 
१२ 1 ए ननूनभ्यो. 
९६ & 3 ऽनुबभ्यते. 
२० [> 010. 
२९ © शुतविलेवितमप्वमाद्ध ; £ हुतमध्यावे 





|| पाठभेदः ॥ 


ए प्र 


९६ 


१० प० 


३५४, २९ 1६91१8६४ 10601018 ४7€ 1686108 बुति ३६०, ९ 8 उपादानविकलः 02016 शङ्गला ; 


विक्षेषः ; » 1088 {118 01810811. 
३९९, ३ © ०1. ४४८ ११४६ ये. 
६ ह विच्चेष्य. 
९३ (७ 001. यो. 
९९ © करिष्यति, 
९१६ 0 संयोगाऽसं° ; 7 ^ “संयो गास. 
९७ + 1 ¢ & ए "्वोषाणां च संयोगे. 
९८ & पिष्पली; ए पिप्पकः; © चित्तमिति. 
१९ © पूवापर. 
२३ ‰ ए €1€ & ४५1० "व्यवेत, 
३९६, ९ 7 पूवेपरा. 
‰ ? दकवर्ण? ; 10 £ के शधाप०)ः ०४५; £ £ 
शप्रध्वंसितत्वा 
९ © सन्वन्नीतिः; 91१8४19 7160६008 0018 
76810. 
१९ 7) & 3 & ४११९५ 1" 1 ऽभाके कावसा?. 
१६ 1 01. 
२२ © 7 8 भावस्तस्याप्य. 
२३ © लोपीऽवसाः ; 1 एष्ट. लोपस्वतोः 
वापा. 
३९७, ९. © ०. विरामग्रहणं . 
३ ५ 01. इति वसजनीय. 
१६ ए & पपूैको विराम इति. 
९७ & & 01818911 © तानि हासिमिन्जा- 
ह्मणकुले ; १६१६ लाध्०8 ५१९ 
7९8१०४६ धनानि ण त्तानि. 
९९ ए & 011०8 8 0. न. 
२९ £ & ००81 2 ऽरामेण भवितुं दीः 
लमस्येति भा. 
२९ ए तस्वरो वा वर्णविसानं. 
२६ © विरामे परो ; ०". वक्तव्यम्‌. 
३५८, ९ 8 071. वा. 





४ © £ °विहितः. 
६ 1) परसंनिर; ६९ परं संनि. 
६ ¢^ अपरश्चाह. 


३५९, ६ © ०, प्ररीपवत्‌ ; 1" ४ १११६१. 

१२ © समासश्चासंगू. 

१२ ०७ ०7. खल्वपि, च, भवन्ति. 

१४ 0०). च. 

१४ (¬ यावदूचाक्र°, 
| १९ © समास एकस्त्वसं. 
| ९९ ठ & ६०10४५५५ उस्पन्ने हि प्र . 
| २९ 8 नगरभ्िर. 

२२ © भथ समर्थः. 


पि 48०1णा09 798 ४6 इष्णा€. ~ 
९ 8 0०1, किरिकाणः; गिरिः. 
२ & 1०5८९४१ ° तिष्ठ...मसलेन, कि क- 
रिष्यसि शंकुलया खंडो धावति उपकेनः 
1) (1€ 3206, 0४ विष्णुमिज्र 7 धावति. 
३ £ गोहतं वषभहितं ; 1 ०८ 881९, ६०१ 
गोहितं अन्व हितं. 
४ 1) 23070. दस्युभयम्‌; 7 2 षधौर०. 
५ 0 देवदत्त यत्त; 7 2 & दत्ताद्यक्तवत्तस्य. 
१९ 0 सत्यमेतत्‌. 
२९ © ०11. नैष दोषः. 
२९ © भवति वे प्र^. 
२२ £ ०1. ते; 7 तन्न तेन वृ. 
२७ © गम्यते, 
२७ 0 गुरुः स तस्य ; 0& ०, यः. 
३६९, ४ 0 010. वक्तु. 
७ 7 £ अगुस्पुज्राः; 1" £ 9 कुल ६१०९१. 
९708 8 ऽगुरूपुज्ाः; 1 2.कृुल ४११९१. 
९४ भ 010. हेवदत्तस्य गुरुकरलम्‌, 
९८ & 8 अयमस्त्यसर; 1" ¢ यम 8११९५. 
२० 0 "लञ्समासस्य चासमः...“स्वं च वक्त. 
२९ 1 & ०0. अलवणभोजी ; 1० २ ४११९५; 
8 अग्राद्धभोजी ब्राह्मनः अल्वन- 
भोजी न्नाह्मणः. 
२७ © समर्थव्युश्यते. 
३६२, २९ 0 ०. राजपरुष भानीयते. 
४ 8 स्वर इस्यकार्थभिषकृता विहेषाः. 
९० (¬ भवान्‌ . 
९१४ 0 इति एकार्थीभावकृता वि्ेषाः अ- 


ऽनाहेरात्‌ ; ४7८ इक्षा€ 11 ‰, प 
8070८ ०४८; 7 इति ए करर्थानिावकरृता 
विरोषाः. 

२९ 7 वर्षांद्ुचर. 
२२ © £ ? स्तिष्ठति. 
२६ © “दत्तश्चेति. 


३६३, ८ £ 3 अथौनादेशनात्‌. 
९० 0 निकृत्त. 
९६ 7. £ ए “च्छब्देनाथंनिर्देशः. 
९७ (} केनचिर्कृतस्य केन कृत ; ? कनचि- 
स्करृतः तस्य केनेचिस्करृत. 
१७ 7 ? (वप्या स्यात; 5 वस्था च स्यात्‌, 
२९ £ विरदोषणं. 
२२ © विरेषेवतिः. 
२९ © बहवोपि श; £ 5 बहवोपि हि श. 
२९ © जर्भरी तपफं>; £ उफरीतु. 





९३१ || पटभेदः 


० पधं9 ० पण 


३६३, २८ 7  & श्तं गच्छति. ४६७, ७ ( गण. सह 
३६४, ९ 7 ०0. च. 


२ © वावष्यनमनथकं स्वभावसिङस्वाल्‌ । 
वावष्वनमः ; 7 ०1. वावन... (सिं. 
इस्वात्‌ ; £ £ “वनं चानथेर. 

९ © £ (जस्येति, 

९ © सस्वार्थयोहिवैवनमिति हिव, 

१९ © वर्तमानः. 

६६ 78828 नशुहिः 

९७ & तन्वसितकण्डु"; 1 £ तश्वासेवहाकि 
तकण्डु' 

९७ 0 7 (विरोध. 

९७ 0 तस्माज हाः; 2 तस्मात्न हा. 

९८ 0 010. तद्यथा. 

२९ © प्रसालथितुं गंस्यते ; न 70 फट 

२४ 7 & 071, (76 078४ व्रा ; 1" 8 8०१९५. 

२९ 7 ४ £ 7 राञजपुरुषमानयेस्युक्ते, 

२७ 010 0081. ष्यवलिन्नं पाठं 

२७ 1 £ 2 यदि स्वायं जहाति 


३६९, २ ¢ मानयोः स्वाः 


५ © सारथौ 
९६१० 0 ®घ्यपेक्षाया, 
१४ 0 भविष्यति. 
१९ 0 गतमियता. 
९.८ ( चेह शदः क्रियावाची प्र. 
२२ © संगतार्थः समर्थः ससृष्टा्थंः समथः 
.. समर्थं इति ; 1" "97. सवं एव षु 
दिगा 
२४ 7 एए संगतं धृतं तेलेनेस्यच्यते ; ( 1" 
"091. संमत संत तेलेनेति पागंतरं 
२९ 0 भमरुतामिति; 711 8, इति पाटः 
२७ 1 कालेन ; 0118] कीले, न 
४११९१ ; £ कीलेन वा; ? "वसा कीलकेन. 


३६६, ९ 0 भहानाह। वपि 


२ 0 ०0. तद्यथा. 

३ 0 “जातीयेषु. 

४ £ 5 ००. संयोग इस्यर्थः. 

६ 3 तज्र ख नाना. 

८ 0 01. तेषा. 

< © हरतेष्यर. 

९ ए पव्योदनं तव भविष्यति मम भविष्याति 
९७ ¢ संवरष्यते. 
९८ > & ६१०१९५१ 1" प्रचये च सर. 
२४ © आद्युतरोयं भं; 8 आश्चुसरं षर. 
२७ © पिदढध्यः प 


३६७, ७ 1) 7? & ए कथं तहिं 


< © क्रि कास्णं ४९०८ प्रधान०, ०). त्वा 
९० ( साव्ययसकारकः 
१९ 0 00. सकारकः, 
९३ ज सक्रिवाविपतेषणं च । सक्रियाविद्येषर्णं 


९७ 7 £ £ हि ब्रूहि देवदत्त, ` 

२० © 1) भूव्रनिति निघाताश्य 

२९ 0०71. ओदनं प्व; 7 पचचौद्नं तव 
भविष्यति पश्चौदनं मम भविष्यति 

२२ 1 योगेन प्रति? 


२४ 7) £ & 23 यथान्थास एव ; ए यङाद्य- 
न्यास एव 


३६८, ४ 0 (श्यानसमयः; 2 -ख्यानसमर्थ; & म 


10 शाट 


६ ५8 समानाधिकरण ॥. 
७ 7 £ 2 शाखाया. 
< 1 7? £ ०. शा्कीना.. दहाति. 
१९ 0 £ यदा घुण्घुपेति वन्ते तदा हिसमा०; 
8 (16 88106, ७०४ ११९१५ न ए्ण€ तदाः; 
7 यावता ुष्छुपेति वतते तदा... 8१ न 
४०१९१ ०८८ तक्म; 23 या यदावता घु. 
ष्पेति वतते तदा...; ए यावता सुष्डुषे 
वतंते हिस. 
९३ ? तरि ! इयोः समासयोः प्रसंगो हिसमा- 
सप्रसंग इति । विप्रकारस्य. 
१४ 0 थेवं भविष्याति ।. 
१५ (0 1 शसो गोः क्षीर 
९६ (तदा च कस्मा, 
१६ (0 1 € नवति, असामथ्यात कथमा 
सामथ्येम्‌ सापेक्षमसमर्थं भवतीति 
२० (` राज्न्यपिष्यय 
२९ 0 1) 00. कि कार.. भवतीति. 


३६९, ९ ^ -वग्वन..-भनंतय विर. 


६ 0 “करणः क्रियते ।. 
९१० 0 समानार्थाः. 
९६ (¬ एवमपि विभ. 
२४ © समर्थपव, 


३७० द © भसामथ्यौत्‌. 


५ € न भवाति वश सामभ्य भेदाभावात्‌, 
६ (^ ००1. तदा. 
६ © भमस्तीयता,. 
९ © ऽन्यञ्च पुर. 
१० © ०0. सरि. 
९९ ^ भाविष्यति. ~ 
१२ 0 कडुस्वं. 





।| पारभेदः ॥ 


प° पंण 
३७०, ९६ 0 खद्यलः कोष्ठ इति. 
९८ 0 “'्ठाः प्रयुञ्यंते 
२९ © भतं शक्यो 
२९ © ०. भूद्यो भरणीयो.; £ ००. भूस्यो 
“भरणीय ; 7 ० भृत्यं इति 
२३ © “मातेति दर 
३७९, ह © कतंष्यं नवति समानाः 
^ष्क्रियते अज 
८५8 वंच कूत्वा समानाधिकरणेषुप- 
संस्यानमसमर्थस्वात्‌ समानाधेकरणेषु; 
7 एवमसमर्थस्वात्‌ समानाधिकरणेषूपसं- 
ख्यानं । एवं च कूस्वा समाः 
१९४ [) 01 
१८ & ०7081] बृत्तिः सुशं; 7 4६गु- 
01918 11611108 {1018 २८811 
१९८ © वात्तिककारवयन^. 
३७२, ९ 7 8 ए समासो दथोश्चिः. 
२ £ समासो इयोश्चे>. 
७ 01) & णणह्ाण्भा़ 9 किच ए८ण९ 
नावदयं. 
११0० नच्वेवं भविः; 09 ८8४5 न ेतदेवं 
भविः 
१९ © करिष्यते 
९३ © ए शद्वातारस्वहिं न सिः 
९४ 1 खनासातस्य प्र 
१९९ £. <^भ्ृषव्‌ 1 
१६ 7 & 1, 10 "051 परेण परणं 
© ज, 006 परेण 
१८ ए एव तंहि 
१९ 0 सतेनाजि 1 पष्ठ. सुनी पाठा 
२२ 0 अविरोषेण 
२४ ‰ 07 
३७३, ९ 8 पंचगवभिय॑ः प॑चनावप्रिय 
२ ४ € 010. सौरवेतरदयम्यम्‌ ; 10 8 8धप्ल 


0४ 
७ © अन्तोदात्त स्वं . ..स्वर इति ४७1९९. 
१० 0 निमित्तस्व 
१४ 0071. तु; ए ज्ताषकं निमित्तस्वरानि 
मितिः 


९७ ¢ नाम संप; £ नाम तजर प. 

१९ 0 9 पारो स्येतिः. 

२० © 001. ऽज, 

२९ © एतेनाजञेर; 11 णर. दछनताजिन 
पाठार, 

२४ © यस्य यस्म बु; 8 तस्य बहुः. 


९२२ 


१० पण 


३७३, २४ ¢ ए 'षस्व लक्षण. 
३७४ ९ 0 8 भवति. 


१९ 1 य्दा तहिं...तदा; पिण्हणुौणिष 
€ ६018 "18 19010. 

९३ © “ख्येयाभि? ; 7 ख्येयवार्थाभिर, एण 
यवां शाध्टा्य्‌ ४० या; £ ण्ण 
-ख्ययवाभि> ४०१ थौ ०११९१ ; 8 “श्यै 
याथािः; 8 -ख्येबवाथभि०, ‰१ थं 
8 पल 0, 

९३ (~ संख्या. 

९४ 11480}1012418 कवयमधिकषष्टवम; ५ 
"पष्टिः; 7 2 4 || क .९ “बिव. 

१६ 0 यत्तु 

३७९, < 2 ००1. मगधानां राजन्‌. 

१२ @ 8 01. वृक्तष्यम्‌; & ४१०5 मव्राणां 
राजन्‌. 

१७ 7) ए & ०01. अन्वेष स्वामिन;४११९१ 1" ©. 

३७६, ९ & 0111, 
ह £ 0). 
५ ए ००, प्रति श्वा दारहिताहिंवः. 
< & 071, 
९ ? £ अष्ययीभावस्य नेति ; 7 अनन्य- 
यीभावस्य नेति. 

९७ 0 छब॑तेकांतस्वास्‌ तस्मा? ; 0 72. तता 
स्यात्‌ पाशा ; 7 8 -कातः स्याद्‌ 

२०;२९ 0 चनम 

३७७ ३ € प्राग्वनं समाससंत्तार. 

४ 0 ? स्यादिति 

९(त्तामा 

७ © क्रियमणेपिप्रा 
६० & 8008 व्यक्तं पटुः ष्यक्तप्दु 

९ © तेनेव समदायः काये भवाति; 7) कामं 

भवतीति ; ? भवतीति ; & भवती 

९३ 01) £? एतदपि नास्ति प्रयो अनम्‌ ४११९ 
व्पाणीयम्‌ ; 1 2 श्पलुर ०, 

९९ 0 ठ यदीदं नास्ति 

२० © ५११8 अनुवृत्तिः क्रियेत, 7 अनुवत्ति 
त्रियते, ०2 सगव 

३७८, ह © ०. तद्यथा 
३ 0 चायमस्ति. 
४ (¬ समासिः।, 
४ 0 दंडघंता |. 
< © प्रयोजनं योगविभागार्थं च यो्गांगं 
यथा च वि; 18 योगविभागा्ं च 
गह्ाणभाङ्‌ 


९३४ 


¶० पर 
३०८, ९ ¢ विभागो भविष्यति ।. 
९० ¢ सह समस्यते. 
९४ 0 “त्वं कर्ेष्यम्‌ ; 12 £ शत्वं वक्तम्यम्‌. 
६७९, ९ 0 कचिल्परपदा्यं". 
८ © 7 यथेश्यष्ययं. 
१० £  वीप्सावाचि. 
९९ ¢ वीप्तावाची. 
९९ 0 तस्येदं भहणं क. 
९७ ?8 8 अक्षादबस्दतीयांताः परिणा पूव - 
क्स्य यथा म तत्‌ भययाययोतने ; 1) 
06 87०, ४५ भलयाद्योर. 
२९088६८ 
३८०, ९४६०४. 
२ ८ भक्षेणेरं बलं शकटेन ( 07:8१७।१ 
शकटेन म ) अथा ; 5 अस्तणेवं तया. 
४९ ( ५११०५ ॥ पमा; 0 ए ए णण 


& भक्षारयस्दतीवाला परिणा पूर्वा्छस्व 


ओोधेकष्नांतयोः अततत, 
5६8 पेवम्बोति। ५) 
कचना । तजनी "1 पन्ति 
१९ 0 दजम्बलेति ; 0 & 1; 
९८ ४ अलुयङ्खः शारागसी 54७८४ ००५. 


ह 
४७५१ दाराणस्येहे ऽ4१७८४ ९.१. १८.२७ 
1) *5 कारा्यसौ . >: \. हस्तिष्यवर. 
२२ ५ अस्थ वा 
दर ए ९; एरकराथे्कार - 
द ९२1) बरस्मिहर. ८६ 0. 3, 
सर्वम सरस्ते रताद 


~ -- -~ - ५0) उज्थिचेलि. 


काले सनिः. 
धमांनान्यकये. 
गम्ता ; # प्रथमांता- 
"सनन्यन्नै; 28 


। ५ ॥ १44८१; 


॥ पाठभेदः ॥ 


ए पं 
३८२, ९ 7 ग. 
१९ 000. च. 
९२ 7 ए £ “पदाय॑प्रानता न क; 8 "दायो 
न प्रक. 
९४ 0 भेसद्र्थमु. 
९६ 08६०0. शु. 
२० 0 संख्यासमा? 7 सख्या 1० णश; ए 
ण. संख्यायाः. 
२९ 0 "नदीतीरे. 
२६ 7 ए £ ०११ ९ प्रयोजनम्‌, दहदिगोस्त- 
स्पुरुषत्वे समासात: प्रयो जयाति ; ए ९१०8 
हिगोस्तस्पुरुषो संजां समासान्ताः पयोज- 
यन्ति. 
२४ 0 8 ०. इदाराजम्‌. 
३९, २ 0 ग्ण. 
५ 0 हीन" 
॥ ६ 0 गनयेक्यं. 
१९३ 0 भ्रामं गतो प्रामगत दाति, १००४ 
अरण्यगत- 
॥ १९९ € घ वाचना. 
॥ १६ 0 वक्ष्यामीति. 
१८ 0 स्वरस्वेनापि भवितव्यम्‌. 
१९ 0 ०. हि. 
९९ 0 . 
२९ 0 ४ & समानार्थ. 
३८४. ३ ¢ तस्पुरुषत्वे. , 
५९ 0 व्वपदृक्तेः. 
६५०४६६8 अन्ययाकतीयः. 
१० ४8 £ 07. जाल्मः. 
९९ (1) इदानीमन्यया ; 0 77 णभ. इदा- 
जीभतोन्वथा पाठो वा. 
१२ 1 ६ & नतित्रसवान्‌ 1. 
९१ & ०७. क्तान्तेन चा ; 0 ्ततिनाक्ता. 
९९ ]) ६ £ ? ०7. तदुच्यते 9०१ इति. 
३८९. ९ 8 शंङ्लया खै" ; ¢ । किरिणा का~ 
1 ५ 7 ००. धान्येन धनवान्‌. 
७ (णा. इह. 
९९ (: नायंस्तद्रहणेन. 
९२ © असामथ्वांत्तत्र. 
९६ 0 सस्छृतप्रहणेन. 
१८ (५ कतेष्यश्े. 
९८ 0 दतीयार्थस्तक्कृता; 0 ठतीवा तदथ 
कृतार्थेन गुणकचनेनोति । एवं तरि. 
९९ 0 गनिरेशः विज्ञायते ।. 
२९ © अतोयैन- 








॥ पाठभेदः | 


ए० पण 
३८९, २२ 7 ४ ०1". वसनार्थः; 7 ए £ ४९१९ हिर- 
ण्यर्थः. 
३८६; ९ 8 ०. 
६ 8 ०1. अहिहतः नखनिर्भि्नः. 
१९ ( इति च वन्त 
९८ ९ 0771. 
२९ 7 £ क्रियासमर्थस्वात; 1) क्रियया साम- 
्थव्वात्‌. 
३८७, ७ © पूवप. 
८ © ण्वसिक्तः भोदनः इध्युपर. 
९८ 2 °संप्रस्ययात्‌ साम. 
३८८, ९ © तद्राचकानां. 
२ © श्ेरमिस्युक्तेकण. 
३ € क कदाब्दस्य. 
% (0 “टि २ तद्रा * 
७ ¢ (मात्रेति चे. 
< © मात्रेण समासप्रसंगो भवति समासः 
प्रापेति ; 7 ए £ 7 'माजेण सह प्रसंगो 
भवति समासः प्रापोति. 
९९१ ¢ तादर्थ्येन, ०००४८ २४ तदर्थेन. 
९३ © योपि म. 
९९ ¢ क्रियते. 
९७ (श्वसू. 
२९ © ऽथंशबष्देम, 
२३ 9 01. 
२९ £ ए 0". उच्यत ; @ 11 781. 
२९ © 8 सवेर्ङिगता च व. 
३८९, ९ 0 सर्वलिगता च व्र. 
९ © कारणम्‌ यावता अथदाब्डो. 
£ (0 1 01). क्लव्यम्‌. 


१९ (0 °ख्यानमिति कतश्यम्‌ न कः; ठ °ख्य- 


नमिति । न षक्तव्यम्‌. 
९२ 0 1 तज्रापि सं; 5 तस्यामिसं. 
१३ 1 £ स्वरे भेदो. 
१९ ¢ (समासे सस्यपि अन्तो. 
२२०7 नैवहि;ए8न चैवं. 


२९ ? £ भवति चैव क° ; ए भवाति च क. 


३९०, १९0 न येवं कच्चिदा; 2 न हि कश्िवा. 
३ ५ चतुर्थी हबन्तेन ४५1५९; 7 2 & ०४. 
चतुर्थी ।. | 
ह © व्थाथेः. 
३ © "्पद्षशस्दस्यार्थ. 
५ 0 (घ्यत इति न ववुः. 
६ © "कानां स्वसमासे, 
९ ( ०01. शहद. 


५९५ 


१० पं° 
३९०, ९ 7 £ & ०. रथक्तरु; 5 रथाय शरु 
रथदार. 
९702828 £ वावचनंवा चवि. 
९३ £ विवधः; 7 वीधः. 
९३ © ००. न चेदेवम्‌. 
९९ 0 इह तावदयं 
२९ ¢ “च्यते पमी भयेनेति. 
२३ © “गुष्नीतभीषिनीभिरिति. 
३९१, ५ £ ०1). ध्वा. ..अह्णं, 
७ © (कुल गत्वा. 
१० & 8 & फ भला९(1०0 7 व्योगे य- 
स्प्रव्ययेनेति व. 
९२ 1) ८ £ 01. षव. 
९७ 0 तव एतदिति. 
१९ £ कपे उक्तम्‌ 
३९२, २ 0 परमपा०; £ परमाप ; ६9198८9 ए76- 
{©18 € 1680708 परमाः पाः. 
९ 0 तस्पुरुषो वा इति. 
११ © (^कायेखे तनः 
९३ © वक्तर््यं. 
३९३, ३ 48६0]10108108 88.१8 {18६ 8070€ 76४१ 
पञ्चकुमारिः (दशकुमारिः). 
५ © ०0. भविष्यति. 
७ ©.मूलेषु ; 1० "8". निक्षिपे पूलेषु इति 
पाठाः ; 0 ०). पृलेषु. | 
९728 ण. जिपुरी ; © ४5 तिपुरी. 
१० ¢ श््रापणे वतेसे 1 . 
१२ 1१६8०11018448& एएला४०३ #6 1९80198 
० | 


९४ © °्नीयतामिच्छक्ते भावा. 
१९ ए गौरन्‌बं*. ` 
२२ 7 ग. डिशुः...के. 
२३ © 0). च. 
२३ © तदेवमितरे 
३९४, २ 1 07. बेमातुरः. 
७ € 071. दृश्ारलिः ; 2 10 1089६. 
९ 0 0)", प्रस्ययोः ..-वचनात्‌, 
९० © प्रस्ययोत्तरपदयोर्हिंगुसंता चेर. 
१३ (© 7 0. किचित्‌, 
१६ 0 ^तद्धवति, 
१८ © ्चोक्तमर्थैम चे. 
२० © शारार्थं घटामहे दारां भिक्ष्यामहे ध- 
नाः ; 7 कातार्थं हाराथं भिक्षामहे धनाः. 
२९ 0 वतीस्ुभबते तद्धि ५ & ए .नंवतीति 
सदि * 


५९४ 


१० पण 


३७८, ९ © “विभागो भविष्यति ।. 

९० 0 सह समस्यते. 

१४ © “श्वं कर्तव्यम्‌ ; 7 £ स्वं वक्तष्यम्‌. 
३७९, ९ © कश्िस्परपशाथं . 

८ ¢ 7 यथेव्यव्यय. 

९० £ ए वीप्सावाज्ि. 

१९ 0 वीचप्सावाच्ी. 

१९९ 0 तस्येदं प्रहणं क. 

१९७ € ए अक्षाबस्तती याताः परिणा पूवो 
त्तस्य यथा न क्व अयथाद्योतने; 7) 
४१€ 8816, ७५ अतथाद्योर. 

२९ ०९६२ 

३८०; ९ £ ©. 

२ 2 अेणेदं कृशं शकटेन ( 01181181 
हाकरटेन भ ) यथा; 2 अक्षेणेद्‌ तथा. 

४९ 0 8११७६ 7 पाह; 0 2 23 णा.; 
£ भक्षादयस्ढतीयांसा परिणा पूर्वोक्तस्य 
यथा नं सत्‌ किसवष्यवहारे वसिहालाक- 
योद्रैकवष्वनांसयोः. 

® ]) ¢ £ पं्भ्योति । भअपपरिबहिरचवः 
क्वभ्या । पन्चमी. 

१४ 0 पंचम्यतेति ; 0 £ 8 पं्वम्येति, 

९८ 7 अनुगङ्खुः वाराणसी श्रप्लौः ०५. 

१९ 7 वाणस्यप्यायता हास्तिनपरमप्याय- 
लम्‌; 1" 2 कारणस्यत्यायता 91४6769 
४० हास्तिनपुरमप्यायतं. 

२० © भविष्यति तकास्तिनपुरणेति न णु 
न्वा? 1) न हास्तिनपुरेणेति पनवां? 
न शास्तिनपरेणेति न वाराणस्येति, 
४०४ वरिणस्येति शप्पलौः ०प४ एलण्क 
ए 83 वाराणसी, ४४८,९१ ६० हास्तिनप॒र. 

२२ © यतस्य चाया. 

३८९, २ © एवकारार्थश्चकारः. 

२०५7 परमतिष्ठङ्ु; 1 & ४106 4 पञ 
0१९7 म श्पल 0, 

8 0 ०11. ; 7 विष्ेषेति. 

४ 0 .विरेषष्विति. 

४ © यस्मिन्‌; 85 कालेसति. 

५ 7 £ 8०. ; £ प्रथमांतान्यदर्यिं. 

६ 08 ००1. °नि प्रथमान्ता ; 2 प्रथमाता- 
न्यपद्थिं ; 7) ? ००. समस्यन्ते; 7 8 8 
४११ इति वन्तव्यम्‌, 

७ £ 010. लूयमानयवम्‌ ; 1४18 ४११९१ "ण &; 
8 ¶ृनयवं. 

९३ 0 भविष्यति. 


| पाठभेदः ॥ 


ए० प° 
३८२, ९ 1 ०), 
९९ (~ 00. च. 
९२ 7 8 £ ०पठाथंप्रधानता न क; ए "पदाथा 
न प्रक. 
९४ © भेतवर्थमुर. 
९६ © £ 011. सु. 
२० 0 संख्यासमाः; 2 सख्या 1० एशहट.; 7 
00. संख्यायाः. 
२९ 7 “नदीतीरे. 
२६ 7 ‰ £ 9११ ९ध्ल प्रयोजनम्‌, द्रिगोस्त- 
स्पुरुषत्वे समास ताः प्रयो जयति ; 1 ००१४ 
दिगोस्तव्युरुषो संज्ञा समासान्ताः प्रयोज- 
यन्ति. 
२४ 7 8 ०00. इदाराजम्‌. 
३८३, २ 7 ०71, 
५९ © शहीनहि?. 
६ ¢ 'नथक्यं. 
१३ 0 भ्रामं गतो प्रामगत इति, 1४116४४ 
अरण्यगत. 
१९ & ख वाचना.. 
९६ ¢ वक्ष्यामीति. 
९८ 0 प्स्वरस्वेनापि भवितव्यम्‌. 
९१९ (© ००. हि. 
१९ 0 बहुत्रीहिनंवति. 
२९ 7 £ £ समानार्थे. 
३८४, ३ 0 तस्पुरुषस्वे, ,. 
५ © ष्यपङृक्तेः. 
६ ©78& 8 अन्यथाजातीयः. 
१० 1) ¢ £ ०0. जाल्मः. 
१९ © । इदानीमन्यथा ; © 1" "58. इदा- 
नीमवोन्यथा पाठे वा 
९२ 7 £ £ नत्तित्रतवन्‌ ।. 
९९ £ 0. क्तान्तेन चा ; 0 त्ततिनाक्ता. 
९९ 7 £ 8 0. तूच्यते 8१ इवि. 
३८९ ९ ए शंकुलया खं; ¢ 0 किरिणा काः. 
«९ 1 00. धान्येन धनवान्‌. 
७ (© 01). इह. 
१९ 0 नाथंस्तद्रहणेन. 
१२ © असाम्या त्त्र. 
९३ © तस्कृतम्रहणेन. 
१८ ¢ कतव्य. 
९१८ 0 ठतीयार्थस्त्कूता?; © तीया तदथं 
कृतार्थेन गुणथचनेनोति । एवं तर्हि. 
१९ © (निदेशः विज्ञायते ।. 
२९ © अवोन. 


॥ पाठभेदः ॥ 


१० प० 
३८९, २२ 1 # 010. वसनार्थः; 7 ए £ १६९९ हिर- 
ण्यां. 
३८६, ९ & ०1. 
६ 8 01. अहिहतः नखनिर्भिन्नः. 
१९ 0 इति च वक्त. 
९८ | 4 77. 
२९ £ £ क्रियासमर्थस्वाल; 1) क्रियया साम- 
थंत्वात्‌. 
३८९७, ७ ¢ प्पूवेपदं. 
८ © - "वसिक्तः भोदनः इध्युपर. 
९८ ए °संप्रत्ययात साम. 
३८८, ९ © तद्वाचकाना. 
२ © शवेरमिस्युक्तेक. 
३ ¬ £ कदुकदाडद्स्य. 
% (1 4वदरै : तदाः. 
७ (¬ मात्रेति चेः. 
< 0 भमात्रेण समासप्रसंगो भवतिं समासः 
भ्रापोति ; 7 ? £ ? मात्रेण सह प्रसंगो 
भवति समासः व्राभोति. 
९९ (0 ताद््यैन, 80०९० 1४ तदर्थन. 
९३ 0 योपिमः. 
९९ 0 क्रियते. 
१७ 0 ग्धश्ु. 
२९ © ऽथंशबष्देम. 
२३ 8 011. 
२९ ” ए ०. उच्यत; ( 10 7. 
२९ © 8 सवरिगता च वर. 
३८९, ९ 0 स्वैर्लिगता च वर, 
९ 0 कारणम्‌ यावता अ्थराब्यो. 
४ (¬ 1 ०1. कतैव्यम्‌. 


९१ 0 .खयानमिति कव्यम्‌ नक? ; ? “ख्या 


नमिति । न ष्रक्तव्यम्‌. 
९२ 01 त्रापि सं; ¬ धस्यामिसं.. 
१३ 7 £ स्वरे भेदो. 
१५ © (समासे सत्यपि अन्तो. 
२२५० नैवहि;एन चैवं. 
२५ ? £ भवति चैव क? ; ए भवति च क. 
३९० १ 0 न चेवं कच्चिदा? ; 8 न हि कश्चि. 
३ © चतुर्थी घुबन्तेन ४५1५९ ; 7 ‰ & ०४. 
चतुर्थी ।. 
३ © थाथ. 
३ 0 "पद्शब्वस्यार्थर. 
५ © (स्यत इति न चतु. 
६ © "कानां स्वसमासे, 
९ (अ 01, शाहु. 


९६९ 


० पण 


३९० ९ 7) & ०. रथक्णरु; 9 रथाय शरु 


रथदारु 
९ 1) € 8 ए वावचनं वा चवि. 
९३ € विवधः; 7 वीधः. 
९१३ © ००. न चेदेवम्‌. 
९४ © इह तावदयं 
२९ ५ श्च्यते प॑चचमी भयेनेति. 
२३ © शगुष्डमीतभीतिनीभिरिति. 


३९१, ५ & 0)\. ध्वा. ..(प्रह्णं, 


9 © "कुलं गत्वा. 
९० £ 8 & ए 9169५०0 2 योगे य- 
स्प्रत्ययेनेति व. 
९२ 1; £ ०01. च. 
९७ 0 तव एतरिति. 
१९ &£ क्षेपे उन्तम्‌, 


३९२, २ © परमपा०; £ परमापा ; 15217848 76- 


{78 #1€ 16800 वरमाः पाः. 
९ © तत्पुरुषो वा इति. 
१९ ¢ °"कायसवे ठ न. 
९३ © वक्त्यं. 


३९३, ३ 42०]1011४18 88.१8 {118 8070€ 7६४१ 


पञ्चकुमारिः (दशक्ुमारिः) 
५ © ०0. भविष्यति. 
9 0 मूलेषु ; 1 091. निशिपेष पलु इति 
पाठर ; 0 ०0. पलेषु. त 
९] ०. जिपुरी ; © ॥४5 तिषुरी. 
१० © प्रापणे वतसे । . 
९२ 1१६&०11०10१११४ 16141078 ४€ 16९8010 
नेवेयमि.. | 
१४ © णनी यतामिस्य॒क्ते भावा. 
९९ £ गौरनुबं^. 
२२ 7 ग. दिगुः...केः. 
२३ (0 011. च. 
२३ © तदेवमितरे. 


३९४, २ 7 ०7. ब्रेमातुरः. 


७ £ ०11. दशारतिः ; £ 10 "181. 
९ (¢ 070. प्रस्ययोः ..-वग्वनात्‌. 
९० © प्रस्ययोत्तरपदयोदिंगुसं्ता चे. 
९३ © 8 ०". किचित्‌. 
९६ 0 तद्भवति, 
१८ © च्ोक्तमर्थम चे?, 
२० © शारार्थं घटामहे दारां गिक्ष्यामहे ध- 
ना? ; 7 दारार्थं हाराथं भिक्षामहे धनाः. 
२९ 0 वतीस्दुभ्वते तद्धि £ ? °नंवतीति 
सदधि. 


९५३६ || पाठभेदः ॥ 


ए० पण ए० पं० 
३९९, २ £ ०. समाहारः..-कुतस्वान्‌. ४००, ७ 0 कि कद्यीर. 
९ 2 ददा मूली. ९ 7 282 खल्वप्यस्मा. 
६ 0 प्रतिषेधः प्राप्नुवंति. ९० © ०7). शीर, 
९ 0 नान्यज्र।. ११ 0 शाक्यो ऽवस्थातुम्‌; 5 शक्यत आ०. 
१२ 7 ०. २० 0 882 प्रकुतिप्रहणम्‌.. 
१९ © स्बाणि पुनः परिः. ४०९, ९ @ 010, 
९९ & ०11. प्च गवप्रियः. २ 6०0. श्व. 
१९ ( समदायन्रत्ताययवाना. ३ 0 जीवतीति. 
२४ ६ कम्य :1 हो मासौ जातस्व यस्य सः ३ ४ £ द्धिशितेनेवि ।; 1 8 ह्किशितेन ।. 
. ९ 1 भसम््रनप्रकरतिङृतोःऽपि ; © 8२८३ 
३९६, ३ 0 7? 8 नेवं मवि. ४1018 १6४4178 1० फष्ाह्ठ, 
६ © संज्ञकः. १९९ £ 01, ; ( (कीनामुप. 
< 0 मस्वथप्र^. २६ 7 28 ००. गतर...कर्त॑ष्यम्‌. 


९ 0 मव्वर्थ हिगुसज्ताजाः. 
१३ (0 किमनतरयोभे. 
९४ 0 2 भनंतरयाग. 
९६८ © इह सप्त; 7 ‰ & इदं तहिं सप्त, 


२७ 7 क्रियाक्रियका. 


४०२, ९९ £ 8 १6 वक्तष्यम्‌ |, इह मा मूत हिमे. 


नैतो हिमेतः ; 7 ४४० 89116 1" शाट. 
एप इट 0६, । 


२० ए 01. दद्यहोतारः. 


१२ © एतः शब्दो. 
१९७, १ 0 दुष्सिानि शस्सनैः । पापाणके कु- 
४॥. 


१४ 0 अथ कतरि. 
१९ 205 भन्यतर्र, 7 अवर्णस्य वा वणँ; 
7? भवस्य वा वणँ वणेस्यावर्थे; € अव. 
६ © इ्होपामानार्थो ; 1 इहोपनार्थो. णस्य वणं वस्य चावे; 210 910. अव- 
७ © भथान्यदेवोपमेय अन्यहपमानं क इहो गैस्य वणं व्नेस्यावणें वा, 
पमानायथंः; 2 अयान्यहुपमानं अन्य ४०, २0 शुकवसु; 2 07610915 श्युह्;? 8 


३ © ०. वैयाकरणः. 


देवो पमे. शुह्खव्रुरिति. 
< 0 कचि ४ © 01. सामान्येन. 
९१ है तहतिय ४ 2 वाढं सिद्ध. 
९६ ४ © ०0. कथम्‌, 
२२ © 7 खल्वपि सूः ® 3 ०7. ००€ परं, 
२४ © ०. हि. १९ £ इभयुवतिःआस्व [1 "181८ .ढघ]युवतिः; 
३९८, 9 © "वचनस्य प्रः. 3 इन्ययुवतिः अभभ्यंयुवतिः ; ^48०†- 
७9 07). स्यात्‌. णाव, 110 00008 € (८क्ता१६ 


< 0 ए शछष्डेन संब. 
१९ 0 7 ® .वचनस्वपः; &.वषनस्वस्य प्रर. 
१९ £ °वचनत्वं प्रः. 
१९ 0 (व चने सिः; & "वचनस्वे प्र. 
१६ 0 £& 5 नावदयं, 


10 € ६९६, 888 118 8011€ २९९ 
इभयुवतिः अण्व युवतिः ; 06 16808 दभययु- 
वतिःभये [आयं?]युवाकतैः;एए भयं युवतिः. 
१४ 8 & तद्गुण ग तुल्यकृष्णः ; © 
धल्यमहान्‌;  स॒ल्यमहा्‌ ; 7 सुन्य- 


३९९, ४ £ 'दुनयविशेष्य. पृष्टन्‌; 2 ण. 
७ © 0. कुष्णतिला इति. ९८ © इहोभयं भवति. 
१९ 7 ? प्रधानस्वात्तः ; ¢ °तद्विश्ेषस्वा?. २२ © सर्वेकोशी. 


२२ € ०71. गोरभृगवदरण्यम्‌,. 
४०४, ७ (¬ कातरंगता स्यात्‌ ।, 


९९ 7 £ विशेषकस्वेन. 
१८ 7 तिलानां कृष्णास्तिलकूष्णा इति. 


२४ © भवतीस्यवदयं, < 0 °भँवति ॥. 1. वन 
४००, ४ ] °वचनकृस्ास्वा”; © कृत्त्वा. १३ † _ 8 भल्यनाल्पेन महतो महातो; € 
६ 7 ०". निर्वतक ष; © मिव्तर. अल्पेनाल्पेन यत्नेन महतो, 





[च [यम ज क क द ऋ 








|| पाठभेदः ॥ ९३५७ 


१० प9 ¶० पं० 


४०४, ९४ 7 ङुदालकेनं ; ८ कुहालपदेन ; £ कुल- | ४९१, २0 भविष्यति, 
केन, 1" "81. कदलिपहेन ; 2 कश- ९ © स्वाभाविकी निवृत्तिः कि. 


लपद्न. ६ © ०). एवं तरि. 
१९६ 0 सववैकोद्ी नद्‌. ७ © £ करोति. 
१९ © 1 & गक्ण्नाफ ए यदा तद्यतरेण. ७ 0 निवतैयतीति, 
२० 7 8 £ 8 इस्येव तदा भवति. ® © कीलकप्रतिकीलकवत्‌ यथा कीलक... 
रहै £ 00. पटुतरः. [गतमः. प्रतिकीलकं. 
२४ 1) ११०8 सूङ्मवसख्रतमः 8१ तीक्ष्णं < 0 8 निहति. 
२५९ © परम॒ ख्यते. < © यद्येवं नभो. 
२६ 0 परच्चतिधा. १९ भनसुतेषा. 
४०९, २ © अन्यपकार्यो. १२ ७ 0 £ निवतैर 
५ © भवति । . १२ 1 ? €? ब्राह्मणशब्ः किमर्थ. 
१९ © 1 -सबंधः क्रियत इति, १४ ¢ 7 € 2 एवै चैतत्‌; ८ ए एवं वैतत्‌. 
१६ 8 तदतानिसं १९ 0 समुदाये व. ` 
२२८ तु क्रत्तौ कोष. १८ 1१42०}101)8{{8 ०160005 ५०९ 76४१. 
२३ © भवति हि बहर. 108 पिङ्गलक पिल. 
२९ 7.1 £ 8 ०". ऋत्विजः. ६८ ५ 7 इस्येताननभ्येत 
२९ © प्रचरतीति. १९ 0 ०. च 
४०६, ९07९ + २० £ 017. उत्तर पञ्चालाः ति 
। ९३ 7 योनय २९ © समुदायेन प्रयुक्तो श्राह्मणश्चव्वोऽवय 


२२ © यम्डागे मक्ष; ए £ ? यस्तिष्ठन्नक्ष. 

२८ ५ 2 2 ध्लि ऽयीमति, निज्ञातं 
वस्य भवति ; 07110198 1९] €८४३ 
{018 1९६41. 


४०७, १० ( भतुरीयाण्य. 
९१६ 7 विभाषप्रिकारकरणे. 
१९ ५ ऽवयवव्िधाने. 
४०८, ५ © उव्सगौऽपि न. 


9 & ०. प्राङ्खुखा २९ © शतच. 
" , २ ४९२, ४ 0 °न्निवृ्ति. 
< © ? श्धाने ऽन्यत्राि. © आदय, 
९७ 1 £ प्रणगुणेति. ९ © शुनो वा प्रः. 
१९ ( पूरण नवति ॥. ९ ¢ भमिर्येष स्वरः. 
२५९ © ०10. ऽपि. ७ भकृतेतीर्छच्य; 7 अकृते हायर. 
४०९, ७ 0 अन्येषु वै चो. ९९ 0०११. च्छ नि 
१० 0 स्तत्रापि प्रा. ९८;९९ © कृद्योगे. 
९२ 7 7 £ ए यंमनिसमीक्ष्य षष्ठी. ९९ © दभ्मत्रश्चनः. 
१६ © देवदत्तस्येति ब्रो°. २९ © "कषः क्रियते 1. 
१५८ © कालः परि: ०१५९५ 108 ; 0 ०71. स. ४९३, २ 7 1 & ए ०. ष्ठीगुणेः. 
१९ 0 कालः पररि. ९५४ € तीत्रो गन्धः+, 
२२ © गृत्तना- ७ ए £ ए गणेन नेति. 
४९०, ९ ठ एकवचनं दि". ८ ए £ 7 नेस्यच्येत ।. 
२ £ 8 एकवचनांतमिति. ९77 ०. कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्‌. 
३ © इहापि च यथा. ९९ © भव्रीत. 
१० ¢ तस्समासस्य प्रा. ९२ ¢ पेक्षते ; £ पेक्षते. 
१९ © अव्ययस्वस्य पृत्रप. ९९ © “धाना. 
१३ © 7 पठरेनाव्यय. ९६ ( ण. च. 
१९६ © ०1. तद्यथा. २९ ¢ पेक्षते. 
१६ 0 भ्मानानामधीर. ४१९, २ © पेक्षते ; £ पेक्षते. 
९८ © कतुम्‌ नजः. ® (0 ०पेक्षते. 


68 ष 


९५८ 


१० प° 


|| पाठभेदः ॥ 


¶र ७ 9 


३२१, ३ 1००५५ कचित्तु चदु भाम एवं तर्हि यषवर्थे | ६२६, २० © कांस. 


वति । एकव 
नस्स्यिव्र |. 


१९ & ०; & £ 188 10 778. तन्न. 
९३ 2 £ 2 ध्युह्ः पट इतिः 
१७ 7, £ तंदतरेणापिं 
९८ 2 & कमौ दीनि विः. 
१८ £ °स्वादीनि विर. 
९९ € 8 एए कस्येकस्य. [बदनाम 
२० 0७8 & & 0१ ५11९9४0) © केषा 
२१९ 0 एतञ््ता. 
२६ © ०केनिर्जितः. 
२७ 0 1 द्युम्न्य; £ दुन 
३२२, २ 8 (लेषेण विधानादृष्टविप्रयोगाचखं- 
९ 8 विप्रयोगाश. 
१ £ & 0181०811, ‰ ससुमारतरा. 
§ ? विप्रयोगाथ. 
९४ 1) 011). 
१४ © रस्म नियमः. 


बु भाष्यं 


१८ © तथा तिङं संख्यां चैवार्थः कमौदयश्च. | 


२४ © ६११8 ५९ "कस्मिन्निति, अभथवाति- 
शोषेणोटप दंत उत्पन्नानां च नियमः. 
३२३, है 0 7 शब्दास्ते नि. 
४ (५ देवदत्तेति; 2 & 8 ००. पद्युरपध्यं 
देवतोति. 
® ¬ 07. स्किः 
८ © निष्क. 
१८ © ्रधान्य; 7 प्रधाने. 
२० 07 ¶प्रधान्ये, 
२३ © प्राप्नोतीति. 
२३ © 1) पततीति. वात 
३२४, ३ © £ 5 011. 016 * 
१० © °नुर्पत्तिः. 
२९ © £ वाधिकररः. ि 
४२९, ९ 0 010. [एतत 
६ ©? € प्रधनस्य क; 0 01". व्ररषानि... 
® (0 दणेन प~. 
१९ ]) ¢ ठ पतने. 
९२ उपि छिद्यत. 
१९ ए "काविद्योतते विद्युत्‌. 
२२ © ह्यैकपुः. 
३२६, ९ स्वातन्ष्यं; £ £ 5 करैस्वं. 
३ © थ्न च परिवतेनं क 1.07. च; 
ए °नं च परिवतंनं च क. 
४ 0 ०्यां च धारणक्रियां क. 
# 7? £ ए 01. केरानीं परतन्वा. 


२० 0 ०10. इति, 
२९५९ £ ए & गष्टण्णार ए क्षधर्मा्िः 
२५ © 7 & ? भधमाौनि० 
३२७, ९ इति ; ¢ इह. 
२00) & णधण्णार ८ इतिय ण्व. 
४ £ 5 भधमाोद्धिः भधमोनि?. 
९ 0 £ 9 & ६००८१ 1, 2 इहं ८ य. 
९९ 1 ? £ 8 01", सिद्धम्‌. 
२९ 7 ८ 8 चोरेर. 
२४ © ०0. & 2 1० पभ्ट- दस्बुभ्यस्वायत. 
३२८ ९ ए चोरि. 
२४ ् नि 
९३ ( कि ताहि 
१८ & ०0. कतर्री... प्नयैकम्‌,. 
१९ & 070. कतरी". ..वश्चनाव्‌. 
२२ 7 8 & 0 ६।८८ ९४०० ? शरु 
३२९, ७ (0 श्युपयोग इस्युश्यते. 
३३० ९ 0 तास्तान्यः. 
९ 0 नास्यंवात्यतायाः. 
९२ © & ०1119९15 7 भयाभि्ः. 
९३ © 1 ०0. स, 
९९ £ & 0181121) £ संनद्यति. 
२९ © ०1". प्राथंना, 
३३९, ९६ 0 1 तमप्प्रहणे. 
९९ 0 संज्ञा पूनः साध, & ०. वनः 17 
1. 16. 
२२ ८ अपा्जमा्वार्यंः. + 
२३ £ प्रामादागच्छतीति; 7 8828 
०0. नगरादागच्छतीति. 
३३२ ९ © कुस्लमाधा. 
हं ७ 011. न्‌. 
6 0 कंस्य पृनस्ताहि, 
१२ © मवनीति. 
२४ © विशद. 
३६१, ३ © ०. कारकर्प्व. 
१४ ¬ 0 0711. चच. 
२० 9 7 चामातर गं. 
६३४, ४ ७ 1) 010. नेतगास्तिं 
€ 0 पृच्छतीति. 
९९ ¢ 1 .मपशिनोति. 
१६ 0 रते पुं. 
९७ £ कथिते । कथिते लादबः। ; 8 ०, 
चाद्यः. 
२९ © अकारकमक; ? (कथितात्‌- 
२९०७श्द्ायां म 


३३४, ९. °दीनामुप. 


३३८, ९ © 0 भकमेन्र ; 8 कालकरममेनामुः. 


३३९, ३ © 01". तस्य. 


|| पाठभेदः ॥। ५५९ 


प 


३१९ २ ० विधिरेव. । 


९ ए खादयो भ; 0 सहन्वरेण. 
१३ © नयंति .. नीयतां भ्ामामिति. 
९९ £ & ०पष्टष्शाङ 8 पयः । दुग्धा गोः 
पय इति, 
९७ 17) ‰ £ 8 ०८. वक्तव्यम्‌. 
२० ए ०1. बरष्टव्यामिति निश्चयः. 
२३ © सिद्धं चाप्य 1) सिद्धस्वाप्य . 
३३६, ९ ५१४१५ : केचिदध्वगत्यन्ता इति ष 
ठन्ति 


- ४ © देशश्चाकर्मणां २ कर्मः; 1) देषाच्ा- 
कर्मणां । कमै; 7 8 2 रेशश्चाकमंकाणा 
कम. 

9 0 कल्मेसि. 

७9४४९ वे तस्मिः. [रिति. 
९० (ए५१०४: कविन्तु पाठो धातोर्निदृत्ति- 
९९ ए ०0. सवौ. 

९४ © यस्मात्तस्य. 

९९५ @ ४०४१ ४०९8 सन्न ^. 

२३ £ & ०ाप्भीक्‌ ऋंदयति. 

२९ & & णाश ०९1र 8 शअन्काययते. 


९४; ९५7) 2 भादि. 
९९ 7 ए आदयति. 

२२ € ए वाहयति. 
२४ ए 0.; & 11 7187. 
२६ 7? € ८ भक्षयति ^ 


२ © अभकम 
४ ¢ & ४ 81४68100 °कभकाणामः, 
६ 8 केचिश्पि काः; 7 ? केचिस्का. 
८ © सकमंका अक. 
९ £ यत्कमम कचि भवति, 
९ £? £ कचिदधवति चिन्न भवति. 
१२ ० “इशोऽपसं . 
१८ 1 ०0. प्रोतं तन्छम्‌, 
९९ £ ए वितानमिति ; 0 वितानं इति. 
२० © ०0. वुरैते. 


५९ 8 & गाणार्‌ ए ववति चेः. 
< © € दृष्टा व्यवस्यति, 
` ९ 2 € प्रेषितोपिन, 
९ £ € भवति. 
९४ © 7 00. स्वतन्नस्वात्‌ ; # | 
स्सिद्धमेतत्‌. 
6१ 8 





पं 


` ३४०, ३ € & गण्ड]  नृदिति. 


९ 0 7 ८ कुन्मेजंतश्चास्ति. 

१९ 1) समासेष्ययी. 

९२ ‰ समास एतः ; £ समासेष्वेतः. 

१४ 1४2०1107 9{9 : परियं प्रोथमिति काचे- 
ष्पाठः; पत ४1६१४६८७ क प्ला8९)0 118 
7९४१ प्रोथम्‌, 

९९ © ^ ततो न व्रजति ; ए व्रजंति; £ "च 

~ततोनुत्र जति ; 8 "च तावदनुत्रभति. 

९६ 9 वातिः. 

१७ })  & ए शत्रजोति, 

२२०७तां ना वाधिष्मतेसि; 8 पर्तामा 

२४ © °सन्ञायामंत अव. 


३४९, ४ )?87? श्वे चकृत्वा 


६ © & ० शः"911र ? (वनं नेति ; © 1० 
10218. ने नेति वा पाठः; 7 गनो नेति. 
९९ 1 £ & गशणभ ® विभागो निपात- 
संज्ञां. 
२० £ £ उपसगांत्त शति. 
२२ 1) ०0.3.28 10 0912 . ; £ ९ब्हस्य चोप, 


३४२, २ 7) £ & ६ -ब्दस्योपसंस्यान. 


५ ए 95 पुनश्चनसौ 1" 7187, ; £ 17081९84 
01 २; .& 010. 
६ © गनिष्क्रातो; 1० ८९18. ष्क्‌ पाः; 2 
“निकृतो. 
® © 7 संज्ञा. 
१० 0 £ ०. प्रयोजनं ; 8 ए ०7. घञ्‌; © 
188 1६ ०्ष्ाशाङ; ह & गह्ाणभाङ्‌ 
? .णस्वानि. [81], 
१९ ? ए ०"). घञ. भूत्‌ ; ए 1४5 7६ णह 
१३ ० नायकाः तस्मा. 
१८ © 48 २ धल कोषो. 
१८ © 7 ४ य उदतो. 
१९ 0 7" "81. योसि वा पाठः. 
२९ ए सूर्यः 01 आश्वार्यः; ७ 7 & ग्व 
0811 ए ०0. प्र णो एर्ण€ ब्रह: 


३४३, & 8 & गहण्शाई ४ बुनंयः ; 0 ०णाङ 


दुम तमिति . 
१०१९१. 9 उरी. 
९९ © "त्ताहितिपरं. 


. ९६ © "ट्वीवद््र ; 7 & & ०प्ण्भाङ 2 


"ष्ठीवरिस्यन्रापि. , , 

९८; १९ ७ र न प्राति ; £ & गांहण्भार 
£ शज्नापि प्रभाः. 

२२ £ ए & $ 96४00 "क्तिः प्रतिनि. 





९६० 


० पर 
३४४ ९ £ 3 “व्यते प्राः. 
९५९ © संतीदयेव, 
९ 0 भविद्यमान भाद्रे. 
९.३ (^ अदिः. | 
१८ © शक्षादेव हि कि? ; ८ शक्षादेव सकि? ; 
1 गह्टणभार 9, एप देव स ऽध्प्लः 
0४, 
२९ 3 & 8०१९५ 10 तन्न ष शिविर & 
'टर्यतस्य प्र. 
३४९, ३ » & ४ ९1८69०० ‰ नित्या. 
४ 0 70 तच ख्यः. 
९ 0 धातोः वक्तव्याः. 
९२ 2 शस्येतिपरप्रतिः. 
१६ £ 011. च्च; 10 » 8्षप्लोः ०प 
१७ © 1 ००. ऽपि. 
२२ © यब्राहैः. 
३९६, २ & ? स्थां व्वनमेवह. 
२&£ इष, 
३ 0 वज्र गतेः. 
४ £ १०१३ दुष्करटंकराणि वीरणानि ; "० ¢ 
{118 18 इप्पठीौः 0प, 
# ( 0111. गतेः. 
९९ © 071. 016 स्यात्‌. 
२९ ठ हाकल्यसंहि 7. 
२३ 1) प्रादेशेषु प्रादेशं ; £ 5 010. ०6 प्रा- 
देशं ; 19 £ ००८ प्रादिद्ं 8५ ०४४. 
३४७, ९ © °युङख्यमानं विमानं ; ४ -डुञ्यमानं 
प्रति, ००५ प्रति 8प्णटर ०प६, 
९ प्रादेशं प्रादेशं ; © प्रादे २; & 8 0. 
0०6 प्राहेदं ; 17 ‰ ०16 श्ल ०६, 
३ ¢ °युरूयनानं निहाममिति;£ नियमि प्रति. 
१० 7 ०1. पु, 
९९ 0 कि च वक्त 
९४ 0 कुता. 
२३ ए आङूमर्यादाभिविष्योःभाङ्मयाहाभि- 
विभ्योरिः, ८४५ आर..धष्योः शध्प्लौः 
०४६. 
२९ 7 £ £ भाङ्मयोः; 0 °वग्वनमिस्येव. 
३४८, ६ 7 € विश्ोतते विद्युत इक्षं परि वद्योत- 
तेविद्यु वृक्षमनु विोतते वि द्युत्‌. 
९९ सिद्धा ; ० 7 8 सिद्धं तु, 
१३ 7 £ ठ & ४००५५ 7" £ तनज्रापि चश्च. 
२२ 7०0. गोमृ्रस्यापि स्यात्‌; 0 1 097. 
मधुनोपि स्यात्‌ वा पाटः. 
३४९, 9 0 02, किमुक्तम्‌. 


॥ पाटभेदः ॥ 


छ ० 


३४९, ८ 7 ठ “वनात्तु सिर. 


१९ € 0. परस्मे ; ए ०7810211 ¶वर्व्वने. 

१७ © 70. तु; £ € ष्णा 
"पठवचनं त्तापक पुरुषसंज्ञावा. 

९८ ७ 7 ०1. परस्मैपदेष्विति,. 


६९०, २ © † ०. समसं ख्यार्थम्‌ ; 1 £ 5्षण्टार 


०0१६. 
६ ७ ०. वैषम्यात्‌, 
२० © 7 £ -किरिकम्‌, किटिकानि. 
२९ © भमाणे भास्मर £ 'मणेषि चाम. 
२३ ० दाभ्यासृग््यासुमििरुप)) दाभ्वास- 
ग्ग्यामन्निरुषः. 


३९१. २३ 0 1 ०४. ऽपि 
६९२ २ © भवति. 


३ 23 010. 166 & ध॒ण०्क प्रथम, 
१६ & 01. 
२२ 8 £ पचसि ख पर, 
२४ 0 123 २ ९ भावस्य. 
२९ £ 8 पचसि च प, 


३५३, ९ © "त्रज्रापि. 


२ © 7 यत्तदुक्तै. 
२ 000, तंक. 
२०७8 तत्राप्येवं. 
३ £ प्वसि च प. 
३ © 8 पचति चेति. 
३०७17 € पचामि चष. 
९ © श्युथकस्वेष्वपि. 
९ ४ & ०. भवतीति. 
३० @ ८& 01121911 ‰ सोप्यदे?. 
१३ © ] गृह्यंते; £ गृद्येते. 
१३-९९५ 5 011. .भवेत्‌ ...गृह्यते. 
९९ © 1 अन्यश्च. 
१९;२२ © 7 & ५११९१ 1.7 'त्तमावपि त॒ न. 
२४ © परनिस्यमेवमच्र, 
२८ © एवोच्यते, 1 ०1. इस्येवो- पाठः ; 
 इस्येतावुच्येते ; £ इस्येतावदेवोच्यते ; 
? इव्येवो ध्येते. 
३९४, ९ 7 £ भविष्यतः. - 
2 © 08०. ष्व. 
४ 01 8 मत्रुपः पचामि, 
७ ७ 7 ०. तत्र; 10 2 ण्ठ} ०. 
९२ 7 8 "नृबभ्यो. 
१६३ £ 5 ऽनूनधभ्यते. 
२० [> 01, 
२९ © इुतविलंवितमध्यमादछ ; £ दुतमभ्ववि. 





| © 


| पटभेदः ॥ 


प 


९६ 


ए०प० 


३५९४, २९ {915 ९१४ 706४018 (€ 1680108 बृ्ति- | ३६०, ९ ए उपादानविक्रलः 06016 दाङ्कला- ; 


विक्ेषः ; ? 188 {118 0761081}. 


३९९, ३ © ०71. 1 018४ ये. 


६ ए विष्य. 
९३ भ 00. यो. 
९९ © करिष्यति. 
१६ © 'संयोगाऽसं° ; 7? ^+ संयोगास - 
९७ + 7 7? € 2 श्वोषाणां च संयोगे. 
९८ € पिप्पली; ? पिप्पकः; © चित्तमिति. 
१९ © पूवापर. 
२३ £ ए ॥6€ & ४९० व्यवेत. 


३५६, ९ 1 पूवेपराः. 


४ ए एकवण? ; 10 £ कर ऽध्ाप्८]८ ०४४८; 28 
०प्रध्वंसितस्वाः. 
९ © तन्वन्नीतिः; 91१ १19 ०169001008 ५013 
7684108. 
९९ 7 £ ८ & ४११९१ 1० ४ ऽभि कवावसा?. 
९६ 1 01. 
२२ © 7 » °भावस्तस्याप्य. 
२३ © लोपोऽवसा ; 10 ए98- लोपस्ततों 
वारषाः. 


३९७, ९. © ०. विरामब्रहणं . 


३ © ०0. इति विखजेनीय, 

१६ 7 & पूवको विराम इति. 

९७ & & ०1811811 तानि हयास्मिन्त्रा- 
हमणकुले ; १४११ ाला्०ा8 ५6 
7९90108 धनानि ण व्रतानि. 

९९ 8 & ००9] 8 ०. न. 

२९ £ & ०णण्ाफ 8 रामेन भवितुं शी 
लमस्येति भा. 

२९ ए तत्परो वा व्णोवसाने. 

२६ © विरामि परो ; ०. वक्तव्यम्‌, 


३५८, ९ 9 ०1. वा. 


४ © £ विहित. 
६ 1 परसंनि°; ४८8 परं संनि. 
६ 0 अपरश्चाह. 


३५९, ६ © ०. प्रदीपवत्‌ ; 1 ४ 80060. 


१२ © समासश्चासग. 

९२ © ००. खल्वपि, च, भवन्ति. 

९४ © 0). च. 

९४ (¬ यावदूयाक. 

१९५ 0 समास एकस्त्वसंर. 

९१९ ए & 7 982०}1019\(६ उत्पन्ने हि प्र . 
२२ ठ नगरानि. 

२२ © अथ समर्थः. 


ए 8&०]1011818 1188 ध्6 89०१९. =“ 
९ ए 00). किरिकाणः; ४ गिरि. 
२ £ १०६५६४१ ० तिष्ठ ...सलेन, कि क~ 
रिष्यसि शंक्रलया खंडो धावति उपकेनः 
0 ४८ 8206, ०पविष्णुमिज्र ण धावति. 
३ £ गोहतं वरषभहितं ; 1) ४06 88716, ४०१ 
गोहितं भ्व हितं. 
४ 1 2800. दस्युभयम्‌; ? शोर. 
५ © देवदत्त यत्त; 7 £ "दत्ताद्यत्ञदत्तस्य. 
१५ © सस्यमेतत्‌, 
२२९ (ति 01. नैष कोषः, 
२९ © भवति वे प्र^. 
२२ 8 ००. ते ; 7 तज्र तेन वृ. 
२७ © गम्यते, 
२७ 0 गुरुः स तस्य; 0& 01, यः, 


३६९, ४ © 070. वक्तु. 


७ 7 £ अगुरुपुचा; 19 £ 8 कुल ६१0९१. 
९ 0& 2 ऽगुरुपुजा; 7० £.कुल ४११९१. 
९४ ५ 07. हेवद्त्तस्य गुरक्कलम्‌,. 
९८ & 23 अयमस्स्यस०; 1" ¢ यम ६१०९५. 
२० 0 जल्ञ्तमासस्य चासमः...“स्वं च वक्त. 
२९ 0 &£ ०00. अभलवणमोजी ; 1 £ 8११८५; 
5 अश्राद्धनोजी ब्राह्मणः अल्वण- 
भोजी न्राह्मणः. 
२७ © समर्थस्युच्यते. 


३६२, ९ 0 0. राजपरुष भानीयते. 


४ £ स्वर इव्यकार्थनिषकरृता विशेषाः. 

१९० 0 भवान्‌ . 

९४ © इति एकार्थभिावकृता विशेषाः अ- 
अनादेद्यात्‌ ; ध1€ 8धा0€ 11 2, 0१४ 


8 ४९। ००८; 7) इति एक्रार्थाभिावकरता 
विशेषाः. 


२९ 1 व्षांघुचर. 
२२ 0 8 8 (स्तिष्ठति. 
२६ © कत्तश्चेति. 


३६३, ८ 7 £ 3 अथोनारेश्नात्‌, 


१० 0 निठ़त्त. 

९६ 7 £ ए °च्छब्देनाथंनिर्शाः. 

९७ (^ केनचिर्कृतत्य कन करत ; ? कनचि- 
स्करृतः तस्य केनचित्कृत. 

१७ 7 7 'वत्था स्यात्‌; ? वस्था च स्यात्‌. 

२९ ८ विशोषणं. 

२२ © विहेषेवातिः. 

२९ © बहवोपि श; £ 2 बहवोपि हि शः, 

२९ © जमरी तुपफ; £ सुफरीतु. 





५३२ || पटभेदः ॥ 
ए० पं० प० प० 
३६३, २८ 7 8 & ? “स्तं गच्छति. ३६७, ७ ( 010. सह. 
३६९४, ९1०00. च. < © कि कारणं ४९०1९ प्रधान>; ०. तदा. 


२ © वावयनमनथेकं स्वभावसिखस्वात्‌ । 
वाव्चनमः ; 1 ०1. बावष्वनर... ^सि- 
स्वात्‌ ; » £ “चनं धानर्थे०, 

९ © 7 € “जस्येति, 

९ © सस्वार्थयोहिवैवनमिति हिर्वचम, 

१९ 0 वतमानः. 

६६ 228 ए८नकतुहि. 

९७ £ तन्वसितकण्डू"; 7 ? तच्ासेतहान्त- 
तकण्डूर. 

९७ 0 1 ?विरोध. 

१७ ( लस्मान्रं हा; ठ तस्मात्तन्न हाः. 

९८ ( 00. तद्यथा. 

२९ 0 प्रभालयितुं गंस्यते; न 7 09 

२४ 7 & 010, ६76 078४ त्रा ; 1४ ए 8046. 

२९ 7 8 £ ? राजपरुषमानयेस्युक्ते, 

२७ @ 10 197, व्यवकिन्नं पाठां र, 

२७ 7 £ ¬ यदि स्वार्थं जहासि. 


३६९ २ 0 “मानयोः स्वाः. 


९ 0 सारथौ. 
९;६० 0 शध्यपेक्षायां, 
९४ ¢ भविष्यति. 
९५९ © गतमियता. 
९८ (0 चेह श्वः क्रियावान्वी प्रर. 
२२ © संगतार्थः समर्थः सैसृष्टार्थः समथः 
... समर्थं इति ; 1" "४. सर्वे एव पु- 
दिगाः. 
२४ 7 ए संगतं धृतं तैलनेस्युच्यते ; & ;" 
"198. संमत संघृत तेलेनेति पाठंतर. 
२९ 0 भूतामिति; 11 पाश्ष्ु, इति पाठः. 
२७ कालिन ; 2 ०1शाण9ाङ कीले, न 
४११९१ ; £ कीलेन वा; ? ग्वसा कीलकेन. 


३६६, ९ 0 भहानाह(वपि 


2 © ०10. तद्यथा. 

३ © "जातीयेषु. 

४ 2 £ 8 0". संयोग इत्यर्थः. 

६ 8 त्र च नाना. 

८ © ०). लेषा. 

< © हरतेव्यैर. 

९ ठ पथ्ोदनं तव भविष्यति मम भविष्यालि 
९७ 0 संवध्यते. 
१९८ 7 & ६११९१ 1" ‰ प्रचये च सर, 
२४ 0 आश्युतरोयं भः ; & आश्युतरं भर. 
२७ © पदव्यः वर. 


३६७, ७ 1 2 £ 2 कथं तरि. 


९० 0 साष्ययसकारक. 
१९ 0 0. सकारकं. 
९६ जसक्िवाविधेषनं च । सक्रियाविदहो ष्णं 


९७ 7 £ £ श्रृहि ब्रूहि देवदत. 

२० 0 ]) भुवजिति निघातादयः. 

२९ 0071. षन प्व; ? पचयौदनं तव 
भविश्यति प्चोदनं मम भविष्यति. 

२२ 1 योगेन प्रति. 


२४ 0 £ £ ठ यथान्यसि एव ; ए यदद्य 
न्यास एव. 


३६८, ४ 0 'ख्यनसमथः; 7 (ख्यानसमर्थम; £ म 


10 717, 


६ (^£ £ समानाधिकरण ॥. 
७ 7 & ए चाखाया. 
< 7 8 € ०). शातीर्ना.. ददाति. 
१९ 0 ? यदा छष्डपेति वन्ते तश हिसमा?; 
8 (116 8810९, ७००६ 8११5 न ए९ण€ तका; 
0 यावता घण्डपेति वतंते तदा..., १०१न 
४१०९१ ०९०€ तक्म; 7 या यशवता चु 
णुपेति वतते तदा...; ए यावता सखुष्डुपे 
वतते हिस. 
९३ ? तहि । इयोः समासयोः प्रसंगो हिसमा- 
सप्रसंग इति । तिप्रकारस्य. 
१४ 0 चेवं भविष्याति ।. 
१९ © 1 राज्ञो गोः क्षीर. 
९६ (लदा च कस्मा. 
९६ ¢ 1» 5प्लि भवाति, असामर्ध्यात कथमा 
सामथ्येम्‌ सापेक्षमसमर्थं भवतीत. 
२० (` राजन्यपि ष यर. 
२९ 0 }) ०0. कि कारः.. भवतीति. 


३६९, ९ 0 "व्वन.. गनत विर. 


६ 0 "करणः क्रियते ।. 
१० © समानार्था. 
९६ (¬ एवमपि विभ. 
२४ © समर्थपष. 


३७०, द © भसामथ्यौत्‌. 


५ 08 न भवति तदा सामथ्यं मवाभावात्‌, 
६ 0 ००1. तदा. 
६ © भस्तीयता. 
९ 09 ऽन्यश्चं पुम. 
१० 0 ०10, तहि. 
९१ ¢ भाविष्यति. 
१२ 0 कदुस्वं, 














` छक 


।| पाठभेदः ॥ ५३३ 


पठ प9 
३७०, ९६ ¢ सुदल: कोष्ठ इति. 
१९८ © °ब्काः प्रयुज्यते. 
२९ ५ भतुँ शक्यो. | 
२९ © ०. भूद्यो भरणीयो.; & ०. सूर्यो... 
^भरणीय ; 7 ०0. भृत्यो ... इति, 
२३ © “मातेति द. 
३७९, § ¢ कतंब्यं भवति समानाः. 
< © गहिक्रियते अज्र. 
८५8 एवंच करत्वा समानाधिकरणेषुष- 
संस्यानमसमर्थस्वात्‌ समानाधिकरणेषु; 
7 रवमसमर्थस्वात्‌ समानाधिकरणेषुषसं- 
ख्यानं । एवं च कूस्वा समाः. 
१४ 1) 0111. । 
१८ & ०्ाणए कृत्तिः सुत्र; 12९९ 
0108148 11611008 {1118 ८6818. 
१८ © वातिक कारकचन?. ` 
३७२, ९ 1 £ ? समासो द्रोश्च. 
२ 8 समासो इयो च्चे. 
७ 01 & ०ह्वाण्मा$ + किच एणि€ 
नावहयं. 
९९५न चेदं भवि०; 7 ४8४8 न चैतदेवं 
भवि. 
१९ © करिष्यते. 
९३ © 7 शद्वातारत्त्हिं न सि. 
१४ 1) खनासांतस्य प्र. 
१९. °ब्दृषक्‌ । , 


१० पण 


३७३, २४५? षस्य लक्षणम. 


३७४, ९ 0 8 भवति. 

९९ 7 यक तरहिं..तशा; पिण््णुणिरष8 
11601018 {1018 1€89410, 

९३ ¢ 'ख्येयाभि० ; 1 'ख्येयवाथांभि, ४४ 
यवां श्ाध्टह्व्‌ ८ था; 8 ००911 
-ख्ययवाभिर, ४1१ यौ १११९१ ; 8 “ख्ये 
यायथांभिः; ए ^ख्येमवाथभि?, ४० र्थ 
8 पद 0, 

९३ ¢ संख्या. 

१४ 42011072418 वयमाधिकषष्टव ५ 
-षषटि्वं 7 2 8 1 ६ विवर. 

१६ 0 यत्तु. 

३७९, ८ ? ०10. मगधानां राजन्‌. 

१२ © 8 ०1. वृक्तष्यम्‌; € ००१३ मत्राणां 
राजन्‌. 

१७ 2 88 071. अन्वेष स्वामिन्‌; १११९० ©. 

३७६, ९ ०, 
है £ 010. 
५ 5 ००, प्रति स्वा दुहितादिवः. 
< {& ०). 
९ £ £ अव्ययीभावस्य नेति ; 7 अनन्य. 
यीभावस्य नेति. 

९७ ( इ्ब॑तेकांतस्वात्‌ तस्मा? ; 17 781. वता 

स्याव पाशं; 7 8 कांतः स्यात्‌. 
२०;२९ 0 मेलनम्‌. 


१६ 7 & 11० णश. परेण परेण; 0 £ | ३७७ ६ £ प्राग्वचनं समाससंज्ञा 


ए ग. ०06 परेण. 
१८ ए एव तहि. 
१९ 0 सतेनाजि; 10 प्ण इनता पाठा ` 
२२ 7? ०7, अविरेषे ण. 
२४ ‰ 0171. 
३७३, ९ 8 पंचगवभियः पंचनावप्रियः. 
२ 98 ०. रौरवेतरहाम्यम्‌ ; 1 5 8९८ 
०४, 
७ © अन्तोदात्तस्वं .. .स्वर इति ४७166. 
९० © निमित्तस्व. 
९४ 0 ०1. तु; ठ नापंकरं निमित्तस्वरानि- 
मित्तिः 


९७ 0 नामं सपर; & नाम तच प्र. 

१९ 0 2 पादो स्येति. 

२० @ 010. ऽङ्ग, 

२९ © उतेनाज०; 1) "051. छनताजिन 
पाठा, 

२४ © यस्य यस्य बहुः; 8 सस्य बहु, 


४ ¬ 2 स्याङितति, 
९०तामा, 
७ 0 क्रियमणिपि प्रा. 
१६० & 8008 व्यक्तं पडुः ब्यक्तपटुः. 
९९ 0 तेनेव समुदायः काये भवति; 7 "कायं 
भवतीति ; 1 भवतीति ; 8 भव्रती. 
९३ 01 82 एतदपि नास्ति प्रयो अनम्‌ %11€ा 
व्पाणी यम्‌ ; 10 7 ऽप्रप्लाः ०प४, 
९९ त 2 यदीदं नास्ति. 
२० ¢ ४0०8 अनुवृत्तिः क्रियेत, 7 
क्रियते, 9 संभवः. भवृति 
३७८, ह © ०0. तद्यथा. 
३ © चायमस्ति. 
४ (¬ 'समामिः।, 
४ 0 ठंडषतां |. 
< © प्रयोजनं योगविभागार्थं च योगामं 
यथाच वि; 2 08 योगविभागा्ं कव 
गह्ाण०श्ाङृ. 


९२०४ 


ए० प 


३७८, ९ 0 शत्िनागो भविष्यति ।. 

१० 0 सह समस्यते. 

९४ 0 ^ववं कर्तव्यम्‌ ; 7 £ “स्वं वक्तव्यम्‌. 
३७९, ९ © कश्िस्परपरार्थं-. 

€ © 7 ययेस्यव्यय, 

१० 8 ? वीप्सावाचि. 

१९ ( वीप्सावाथी. 

१९ 0 तस्येदं भहणं कः. 

१७ 7 £ 8 अक्षाषद्यस्टतीयाताः परिणा पूरौ 
त्तस्य यथा न तव्‌ भयथाद्योतने; 7 
€ 8816, ०४५ अतथाद्योर. 

२९ 0888 अक्षशलाक योधेकवग्वनांतयोः. 

३८०, ३, ‰ 011. 

२ 2 अक्षेनेरं वृत्तं शकटेन (07४ 
दाकटेन न ) यथा ; ए अक्षेणेब तथा. 

४.९ © 8११९१ ण शहर; 0 © 3 ०प.; 
£ भक्षादयस्टतीयांसा परिणा परोक्तस्य 
यथा नं तत्‌ कितवव्यवहारे वाक्षिदालाक- 
योश्रैकवथर्नातयोः. 

७ ]) 7? £ पंचम्येति । अपपरिभहिरववः 
प्चम्या । पंचमी 

९४ 0 पंचम्यतोति ; 0 £ 8 पचम्येति, 

१८ £ अनुगङ्खः वाराणसी ऽ्रप्नौः फण. 

१९ 7 वाणस्यप्यायतां शस्तिनपुरमप्याय- 
तम्‌; 10 2 वारणस्यप्यायता 91८6160 
४० शास्तिनपुरमषप्यायतं. 

२० © भविष्यति तशस्तिनपुरणेति न षु- 
न्वा? 1) म हास्तिनपुरेणेति पनवां र 
ए न हास्तिनपरेणेति न॒ वाराणस्येति, 
४४ वाराणस्येति 870९ ०प४, एनलेणण 
£ 3 वाराणसी, ४1८९९९१ ४0 हास्तिनपर. 

२२ © यस्य चाया. 

३८९, २ © एवकारा्थंश्चकारः. 

२० परमतिष्ठद्गु; 10 £ ४116 4 पऽक 8 
0४९1 म श्ल 0४, 

३ 0 ०10. ; 1 शविशैषेति, 

४ ¢ (विदेधष्विति. 

४ ¢ > यस्मिन्‌; £ ८ कालेसतिः. 

९ 1 ४ 8०. ; £ प्रथमांतान्यदार्थ. 

६ © £ ०0. गनि प्रथमान्ता; 2 प्रथममाता- 
न्यपदथं ; 7 1? ००१. समस्यन्ते; 7 ए 4 
४०१ इति वक्तव्यम्‌. 

७ £ ०10, दुयमानयवम्‌ ; 1४ 18 8११८ "0 £; 
& एनय. 

९६ ¢ भविष्यति. 


॥ पाठभेदः ॥ 


१० पण 
६<२, ९ 7 णा, 
९९ (¬ 010. श्व. 
९२ 7 8 £ पदाथंप्रधानता न क; ? "पार्थ 
न प्रक. 
९४ 0 "मेतद्थमु°. 
९६ (£ ०1. त. 
२० 0 संख्यासमाः; 7 सख्या 10 णश; ए 
०10. संख्यायाः. 
२९ 7 नदीतीरे. 
२३ 1 £ £ ४११ ६५८7 प्रयोजनम, दिगोस्त- 
स्पुरुषत्वै समासाताः प्रयो जयति ; 1 ०११३ 
द्विगोस्तव्युरुषो संज्ञा समासान्ताः प्रयो ज- 
यन्ति. 
२४ 1 2 ००0, ददाराजम्‌. 
३८३, २ 7 ०1. 
९ 0 (हीनदहवि>, 
६ © 'नयथेक्यं. 
१३ © भ्राम गतो मरामगत हति, 1४1) ७प४ 
अरण्यगत. 
१९ 8 ख वाचनाः. 
१६ (0 वक्ष्यामीति. 
१८ © शस्वरस्वेनापि भवितव्यम्‌, 
९९ 3 011. हि. 
९९ © बहत्रीहिभवति. 
२९ 7 ४ £ समानार्थे. 
३८४, ३ 0 तस्पुरुषस्वे. 
९ © व्यपड्क्तैः. 
६ ©7 8 8 भन्यथाजतीयः. 
१० 1) † £ 01. जाल्मः. 
१९ 0 0 इदानीमन्यथा ; © 1 1918. इवा- 
नीमतीन्यथा पाठो वा. 
९२ 7 ? £ नत्तित्रतवान्‌ ।. | 
१९ £ ०). क्तान्तेन चा ; © क्ततेनाक्ताः. 
१९ 1 7? £ ? 01. तषुच्यते 7१ इति. 
३८९, ९ ए शंकुलया खं ; © । किरिणा काः. 
«९ ] 010. धान्येन धनवान्‌, 
७ (0 071. इह. 
९९ ५ नाथस्तद्रहणेन. 
९२ © भसामभ्यां त्तन्न. 
९३ 0 तस्कृतम्रहणेन. 
१८ © कतेव्यश्चेः. 
१८ † दतीयार्थस्तस्कृता?; © हतीया तद्थं- 
कृतार्थेन गुण वचनेनेति । एवं तरि. 
१९ 0 (निदेशः विन्ञायते ।. 
२९ 0 भवो्थन, 








॥ पटभेदः: || 


९० पं 
2८९, २२ 7 & ०1. वसनार्थः; ? ए 8 18१6 हिर- 


व्यर्थः. 


2८६; ९ 8 ०. 


६ 8 01. अरितः नखनिर्भिन्नः. 
९९ 0 इति च वक्त, 
९८ £ 070. 
२९ † £ क्रियासम्थस्वावः; 1) क्रियया साम. 
थंस्वात्‌. 


३८७, ७ ( प्पूरवेपदु, 


< 0 ०्वसिन्तः भोदनः इध्युप.. 
१८ 2 °सप्रत्ययात्‌ साम. 


३८८, ९ 0 तदाचकाना. 


२ © ण्वेरमिव्युक्तेक. 
३ € (क कडाब्दस्य, 
४ (¬ विहारैः तश्रा. 
७ ( “माज्रणेति चेर. 
< ¢ (मात्रेण समासप्रसंगो मवति समासः 
प्रापोति ; 1 ? £ 7 (माच्रेण सह प्रसंगो 
भवति समासः प्राप्रोति. 
९९ 0 ताद््यैन, ४००१९ ८ बद्धेन. 
९३ © योपि म. 
९९ 0 क्रियते. 
१९७ 0 श्वल. 
२९ © ऽथंशब्देम, 
२३ 9 011. 
२९ ¢ 8 ०00. उच्यत; (1 (शाट. 
२९ © 8 सवरङिगता च वर. 


३८९, ९ 0 सवैकिगता च वर. 


९ © कारणम्‌ यावता अर्थशब्दो. 
४ (© } 070. कर्तव्यम्‌. 
१९ 0 .ख्यानमिति कतष्यम्‌न क ०; ? °ख्या- 
नमिति । न वक्तव्यम्‌. 
१२ 0 7 त्रापि संर; ठ तस्याभमिसंर. 
९३ 1 £ स्वरे भेदो. 
१९ ( समासे सस्यवपि अन्ती. 


२२0०7 नैवहि;एन चैवं. 


२५ ¢ £ भवति चैव क? ; ए भवाति च कर. 


३९०, ९ 0 न चेवं कच्िश?; 2 न हि कश्िदाः. 


३ 0 चतुर्थी चछूबन्तेन 1५९ ; 7 ‰ & 0०. 
चतुर्थीं ।. . 

३ © श्थांथः. - 

३ © 'पददाब्दस्यार्थं^. 

९ ¢ स्यत इति न चतुः. 

£ 0 "कानां स्वसमासे, 

९ ज णा. राश. 





९४९ 


० पं | 
३९०, ९ £ £ ०४. रथलर; © रथाय शरु 


रथशर. 
९1) & 8६ वावचनं वा च विर, 
१३ 8 विवधः; 7 वीधः. 
९३ 0 ००. न खेहेवम्‌. 
१४ 0 इह तावदयं; 
२९ © “च्यते पमी नयेनेति. 
२२३ 0 श्गुष्डभनीतभीतिभीभिरिति. 


३९९, ५ £ ०). ध्वा. .-भहणं , 


७ (0 (कुक गत्वा. 
१० £ 8 & ४ भ{ला४(०ण 72 ग्योगे य- 
सप्रस्ययेनेति व. 
९२ 1) £ £ ०1. च्च. 
१७ © तव एतशिति. 
१९ £ क्षेपे उक्तम्‌, 


३९२, २ © परमपा०; £ परभापा ; 141१848 ए16- 


08 ४८ 7९९0118 बरमाः पाः. 
९ © तत्पुरुषो वा इति. 
१९ ¢ (कायेखे तन, 
१३ ^ वक्तव्यं. 


३९३, ३ १4६०] 1४1)६{१8 88४१8 1118६ 8071८ 168 


पञ्चकुमारिः (कशकुमारिः). 
९५९ © ०0. भविष्यति. 
७ 0 मूलेषु ; 1 "0878. निसितेषु पूलेषु इति 
पाठाः; 0 ०00. पृलेषु. | 
९ 028०0. जरिपुरी ; © 0४8 तिपुरी. 
१९० © प्रापणे वतेते । . 
१२ 7१42०1101181{9 116€ध0०08 (€ 1९84198 
नेवेयमि.. | 
१४ © श्नीयतामिस्छक्ते भावा. 
१९ ? गौरनबं ^. 
२२ 7 ग. दिशुर..केः. 
२३ 0 0). च. 
२३ © तदेवमितरे . 


३९४, २ 7 010. त्रेमातुरः. 


७ & 071. दकारः ; ‰ 70 पादह. 
९ © ०0. प्रत्ययोः ...वष्वनात्‌. 
१० © प्रस्ययोत्तरपदयोरदिशसंज्ता च्चे ^ 
१३ © 2 00. किचित्‌, 
१६ © तद्वति. 
१८ © ोक्तमर्थन चेर. 
२० © हारार्थं घटामहे शरां भिक्ष्यामहे ध- 
नाः ; 7 दारार्थं शरां भिक्षामहे धनाः. 
२९ © .भवतीस्युख्यते तद्धि & 2 (भंवर्तीति 
तसि. 


९६ 
० पण 
३९५, २ £ ०". समाहारः. . .कृतस्वात्‌. 
९ ¢ दशमूली. 
६ ¢ प्रतिषेधः प्राघ्ुवंति. 
९ 0 नान्य |. 
९२ 1) 01. 
१९ ¢ सर्वाणि पुनः परिः. 
१९ & 010. पञ्चगवप्रियः. 
१९ 0 समुशयब्र्ताययवाना. 
२४ ह वकतम्यः। हो मासौ जातस्य यस्य सः 
मार. 
४९६, ३ 0 0? नैवं भवि. 
£ © संन्तकः. 
८ © मस्वथप्रः. 
९ 0 मस्वर्थ दिगुससायाः. 
९३ 0 किमनतरयोगे. 
१४ © 2 "नंतरयाग. 
९८ © इह सप्त; 7 ४ & इदं तहिं सप्त, 
२० ¬ 070. बृद्यहोतारः. 
३९७, \ 6 ृर्सितानि स्सनैः । पापाणके ऊ- 
‡ |. 
ह © ०. वैयाकरणः. 
६ 0 इहोपामानार्थो ; 7 इहोपनार्थौ. 
७ 0 भथान्यदेवोपमेय भन्युपमानं क इहो 
पमानार्थः; ठ अथान्यहुपमानं अन्य 
-हैवो पमेर. 
< (© कञ्िदिर. 
१९ 0 तद्यैतेनेव. 
९६ 0 “लोहिनि. 
२२ 0 7 खल्वपि शुः 
२४ © ०. हि 
३९८, ७ 0 "वच्नस्य प्र. 
७ £ 01). स्यात्‌. 
८ 0 ए शब्देन संब. 
९९ 0 7? ८ -कचनस्वप्र; £ वश्वनस्वस्य प्रर 
१९ £ "वचनत्वं प्रः. 
१९ 0 °व चने सिः; £ “वचनत्वे प्रः. 
१६ 08 2 नावदयं, 
३९९, ४ £ `दुभयविशेष्य . 
७ 0 07. कृष्णतिला इति. 
१९ 7 ए प्रधानस्वात्तः ; 0 (त्दिशोषस्वार. 
१९ 7 & विरेषकस्वेन. 
१८ 1) तिलानां कष्णास्तिल कृष्णा इति. 
२४ 0 भवतीव्यवदय. 
४००, ४ †) -वचयनक्रुस्ास्वाः; © (कस्त्वा. 
६ 7 ०71. निववे्तक व; 0 निवर्तर. 


|| पाठभेदः ॥ 


० पंण 
४००, ७ 0 कि त्यः. 
९ 1 ४ 8 खल्वघ्यस्मा?. 
९० (0 0". हीदे, 
१९ 0 शक्यो ऽवस्थातुम्‌; 8 शक्यत आ. 
२० 0४ & 8 प्रकृतिप्रहणम्‌,.. 
४०९, ९ 3 010. 
२ ०0. च्छु, 
३ © जीवतीति. 
2 ? £ (द्िदितेनेति।; 0 8 (द्धिशितेन ।. 
५ 0 भसमानप्रकृतिक्ृतोऽपि ; © १९ 
{1018 २€84108 10 फक्क. 
९९ £ ०071. ; ¢ -क्ीनामुष. 
२६ 7 £ £ ०01, गत०...कतेष्यम्‌,. 
२७ 7 क्रियाक्रियका. 
४०२, ११ £ 9 € वक्तव्यम्‌ ।।, इह मा भुत हिमे- 
नैतो हिनैतः ; ६५० 58716 10) 71878. 
एप इ्प्ला ०४४. 
२ 0 एवः शब्दो. 
१४ 0 अथ कर्तरि. 
१९ एण ८ भन्यतरज्र, 1) अवर्णस्य वा वणँ; 
7? भवणंस्य वा वर्णं वणेस्यावर्णे; € अव. 
णस्य वणं वस्य चावणें; 31" 117. अव- 
नस्य वणे वणेस्याव्णं वा. 
४०, २0 शकवशु; £ ०718ाणभाफ़ शयुङ्क;? & 
शुङ्कवञ्जरिति. 
& (0 0110. सामान्येन, 
४ ^ वाटं सिं. 
४ 0 0. कथम्‌. 
७ 9 छा). 006 पुरे, 
९९ £ इन युवतिःआष्व [1 1078. ]युवसिः; 
8 इभ्ययुवतिः अ््यंयुवातिः ; ५4&०}1- 
एष, का10 पाला्जा)8 (€ एटकवाणह 
1 #6€ ६९४, 888 ६1४६ 801€ €8 
इभयुवतिः अण्व युवतिः; ४९ ९४१8 इभ्ययु- 
वतिःभय [भायः ]युवातैः;ए भयं वसिः. 
९४ 9 & न द8०]191९4}8 तुल्यकूष्णः ; © 
शल्यमहान्‌; # तुल्यमहान्‌ ; 7 सुन्य- 
प्न; हि 01). 
९८ © इहोभयं भवति. 
२२ © सर्वकोशी. 
२२ £ ०0. गोरशगववरण्यम्‌, 
४०४, ७ 0 कातररगता स्यात्‌ ।. 
८ © °भँवति ॥. 
९६ 7 8 अन्पनाल्येन महतो महातो; & 
अस्पेनाल्पेनं यत्नेन महतो. 











| पाठभेदः 


१० प० 


४०४, १४ 1) क्रुदालकेनं ; ४ कदहालपदेन ; 2 कृल- 
केन, 10 "शह. कुहाकपहेन ; 9 ङुग- 
लपकेन. 

१६ (© सवैकोश्ी नद. 
१९ ( 0 & "प९ण्णाङ ४ यवा तद्यैवरेण 
२० 0८& ८ इव्येषं तवा भवति. 
यदे & ०1. पटुतरः. [गतमः. 
२४ 1 १००8 सूुङमवस्नतमः 81१ तीक्ष्ण 
२९ © परमुच्यते. 
२६ © परश्चति्चा., 
४०९, २ © अन्यपदार्थ. 
९८९ © भवति । . 
१९ (0 1 -सबंधः क्रियत हति, 
९६ 8 तदताभिसंर. 
२२ © त ठत्तो दोष. 
२३ 0 भवतिहि बहर. 
२४ 7. & 7? ०0. ऋटखिजः. 
२९ ¢ प्रचरतीति. 
४०६, ९ 0 7) 'तराद्यर्थम्‌, 
९३ ¢ परम, 
४०७, ९० (¬ ततुरीयाण्यः. 
९६ ? विनाषाप्रकारकरणे. 
१९ © ऽवयवविधाने. 
४०८, ९ 0 उतव्सगौऽपि न. 
७ & 00. प्राङा. 
८ © £ श्धाने ऽन्यत्रापि. 
१७ 7 £ परणगुणेति. 
१९ 0 पुरणं भवति ।॥।. 
२९ 0 011. ऽपि, 
४०९, ७ 0 अन्येषुषै चों 
१० 0 (स्तत्रापि प्रा. 
१२ 7 £ & 2 श्थंमभिसमीक्ष्य षष्ठी. 
९६ © देवदत्तस्येति त्रो. 
१८ 0 कालः परि: ४१५९१ 18 ; 7 ०. स. 
१९ ( कालः परि, 
२२ 0 मृत्ताना-. 
४९०; ९ 73 एकतव्रचनं हि. 
२ £ 723 एकवचनतमिति. 
३ © इहापि च यथा. 
१० ( तस्समासस्य प्रा 
१९ © अव्ययत्वस्य पृत्र॑प. 
१३ ^ 1) पाठेनाष्यय. 
९६ © ०11. संद्यथा. 
१६ © भमाननामधी. 
१८ © कतम्‌ नञः. 
68 ण 


९३५७ 
० पण 


४११, २ 0 भविष्यति. 
९ © स्वाभाविकी निवृत्तिः कि. 
६ © ०0). एवं तरि. 
७ 0 £ करोति. 
७ © निवतेयतीति. 
७ ¢ कीलकप्रतिकीलकवत्‌ यथा कीलक... 
प्रतिकीलकं. 
८ © ए निहति. 
< 0 यद्येवं नमी. 
१९ भन त्तेषां. 
१२ 0 7 £ निवत, 
१२ 7 282 ब्राह्मणशब्दः किमर्थं 
१४ ¢ 7 £ 2 एवं चैतत्‌; 2 1 एवं वेतत्‌ 
१९ 0 समुदये व 
९८ १0110118 {{8 17160008 € 7680. 
1 पिङ्कःलक पिल. 
१८ © 7 इ्येतानभ्यत. 
१९ © ०0). ष्व 
२० £ 0. उत्तरे पञ्चाला 
२९ © समुदायेन प्रयुक्तो ब्राह्मण हाड ऽवय 
२ © यण्छागं भक्षः; £ € 7 यस्तिष्ठन्भक्ष 
2८ ©) 2 & 9ध्लि ऽयीमति, नित्तातं 
तस्य भवति ; १५८11019 18 ६] ९५८8 
(1018 1९841112. 
२९ © अतश्च. 
४९२, ४ © भन्निवे्सि. 
४ ©? भाषाय. 
९ © श्गुणो वा प्रर. 
९ ¢ फमिस्येष स्वरः. 
९९ © भकृतेतीद्युच्य; 7 अकृते द्युथ्य. 
९९ 0 01. चच. 
९८६९९ 0 कृद्योगे. 
१९ (^ दभ्मव्रश्चनः' 
२९ © "कषः क्रियते ।. 
४९३, २.7 £ 8 ०. वष्ठीगुणेः. 
५९५४ &£ तीत्रो गन्धः।. 
७ £ गणन नेति 
८ £ 2 नेत्यच्येत। 
९7 ?£7 ०. कण्टकस्य तैक्ष्ण्यम्‌ 
९९ © भषति 
१२ ¢ °वेक्षते ; £ पेक्षते. 
१९ ( "धानाच्. 
९६ 0 011). च, 
२९ © पेक्षते. 
„४१४, २ © पक्ष॑ते ; 8 पेक्षते. 
७ ( पपेक्षते, 


८४६८ 1; कारमटः ॥ 
+ 32 ड 33 
४४, 9 0? ६६ कोरम्य. ४९६. १9 1 - ˆ=. ज सचरय्यं - (5 ०८ मासै. 
८ ^; -खिय्वते चटी ।. अर्टर्थं इनि कच्छज्वय 
*%४ 1) >. कग त्रः नाः. १८ `~ = --- ऊ: रागय इनि कन्छ्वय्‌ 
१ 2 ~ -ध्वकानि-न्‌ करत्वा : ~ :0 कमा ११ 2 ८ शाट - प्रथम्म्या 
अटत नवि वादा. > £ ८ नका.--उनातख. 
४9 (5 गागवितकस्यव : 0 कर्मवरिटम्य ; £ 2३ 2 ~>. वसन्तः - # ह 8 एरर २६ स्स्धि 
मागत्ङ्कम्व; ह 2 ऋगाक्कम्ब; कऋोक्छिरया 
ह & {1८732 मागविकम्य : = ¢ 221. पया-..-चनभ्यं. 
[1972.1:12 पड 102) [62 3:75 २ &@ ०2. निग-. पञ्चम्या. 
नागवि्म्य & ऋगातिटम्य ६९, २ £ £ ०2- निवागणासि 


0 कमान व; £ ऋम्पन वरहानि निदः 
ह कमानि बष्रीवि निति 

४ (; ॥2 कन-...-चवः ५१०1९ ०९: 7) 
1४# 1६ ०१८८ & {टा 1६ मत्रानि; ८1.33 
1४८०१८८ & 2 2.८५ गलः ८; £ 8 
कुक्न..--वथः 
कृर्मेरि प्रनिवेधो मवति. 

५7४72५1 वृगं नसा यतरानां लावकः 


। #/ 


६ 72 कः ; ६७ शापलः५० जकः... ` 
+ 


® 7) [, £ 01). 
१२ बृद्यते ; £ 9 मन्वसे 
१३ 1) ८ जातः; £ ्तात 
१४ £ ददवधोनर्थक्रः, 
१९ ( अनर्थक्रो व्रक्तष्वः।. 
१५ £ ए ०१५ रात्तामचित इति. 
१७ (‡ 07. इत्यं या ; > ००1. इत्येत. 
१८ (‡ 07). कर्मनिच्, 
४९१६, २ 7 01179 गार; 1 1. 3 प्रवरष्वनी- 
यानां 18 ४11८7९6 ८० प्रव्रश्वुनीय, ६०५ 
२ ४१५९५ १८१ वक्ष्य. 
९ 1) म्यपेवर. 
६ 1) ध्यपेवानां. 
६ € 8 07. मयुररोमनिः. 
७;८ £ 07). कङ्क. .-क्थम्‌. 
१० 7 07. भतिश्षलः. 
९० £ ५106 दृदषलः. 
१९ 1) ८ € प्रसेवकः ; 7 ४005 निषेवकः प्र 
सेषयाः, £ परेवकः ; 0 शररीकस्यः; © 
7 8 उतीकृतं; & उरीकृव्य उर्सकृस्य 
उरर।कृस्य. 
१२ 1) 0111. 
९९ (1 01). च. 
९९ ( विस्तरेण. 
१६ (1 7 ण यानित वक्तव्यम्‌ . 


१ () श्ष्कृतं 


1 कजक्राम्यां धान्यतः 


३ £ “०. जच्वकं प्रठ्टादामेः; ह ० 
०२८६८ कच्चरं पज्डा---सम 

४ ^ 00. बहिभव्रति. 

^+ 7 ६ = पुनर्यत; ह ०. 

४ ^ पुनःस्वरं ; ६ ०. 

«५ ~ च २ वक्तव्यम्‌ : 0 चर. 

९ +€ कन्ये इव, 0 £ अस्वययमष्यवेन 
समस्यत इति वक्तव्यम्‌ । प्रप्र यक्लप- 
तिम्‌ ; 8 & ६० ० बह. जव्ययमज्येत। 
अव्ययमव्ययन समस्यत इति वत्त 
स्वम । प्रप्र यत्तपतिमिति; © भण 


९9 मता निद्यन्वयं; ६ (मवा च 
समासो वक्तव्यः| 


६ अनुधाविद्त्‌ ; 0 ६ व्याकरोति ; € 
अनुव्याकरोातिः ए अनुत्याकरोत 
< 0 £ 93०0. हारक्रो व्रजति, 
९ £ 9०. हाः -.--तीति. 
९२ 1) £ £ 9 ०). वृत्तस्य, 
९६ (हारकं गतः; ८? कारको यतिः; 
ह ०. 
१७ (> एतटरव्य. 
२० 0 समासवचनं प्राकघ्ुबत्पत्तोरिःयेषा; 2 


समासो भवति प्राकदुबत्पत्तेरितव्येषा; ¢ 
18 प्राक्सुब्त्पतन्तेः 11 गा 


४९८ ५ 7 1" 98 -समासामावाः; € ०0. नवा 
-..व्रिप्रतिषपेन 
७ 2 £ & 2? ०. कथम्‌. 
< 0 £ £ ? ९रिति समासवचनात, 
९ 0 07. यथा. 
९ 0 श्रूत 
१६ ( "गोप्यते 
२० © प्ममेव तर्हि यः. 
२० £ चान्येन यः. 
२९ 0 श््राप्रनिषेधः समासः, 
२४ © कश्च डार. 
४९९, ९ 2 071. 








॥ पाठभेदः ॥ 


9० पैर 
४२९, ७ (¬ ०". स शेष. 
४२०, ३ 0. पितेति छ. 
< © -यतस्वापे न. 
९० 1) ००. किमुक्तम्‌. 
१० © 1) ग्रहेः प्रर. 
१९ 0 -धिक्रायेपि क. 


१३ 0 वाधते. 
१९ 7? 8 ००. मधुनो पि स्वात्‌; £ ०४. 


मधनो... (स्यापि स्वात्‌, 
९७ ( ०१० सम॑तरितिरंप्रेन इयोठ़ंत्तो न 
सिध्वति. 
१८ © उत्तरां च । उत्तरं चाः. 
१९ 0 7 न्वग्रोधधव्सदि. 
२९ 09 ८ & ८ ०. अनेकस्य ष. 
४२९. २ © वैतव्ययो-. 
२ © ००. एक्रविेभक्तित्वात्‌, 
४ 0 पद्यति. 
® 1) £ € 2 0. यतः. 
७) £& 9 "कविभक्तियोगः. 
८ 7 ?& 3०. भवतति. 
१९ @ 070. {16 1४७८ च. 
१६ 0 इत्यव, 
२२ ६ यवक्तकानीः; © यहि इदानी; ०४९ । 
१188. यदिदानीः. 
२७ ¢ विशेषत्रत्तिस्तदा त॒ न. 
ि तग ०, 
४९ ६ 0 णण स्ास्स् ४} ४० 7. 423, 1. 8 
संख्ये. 
६ © सदेहानिव्रस्यर्थं; & ए ०ण. 
९०७६ स्रं पर. 
९ ऽस्येति ; ५1 ण. यस्येति विन 
त्त्यथोते वा पाठः; ६ 0". 
१९ © “संख गाभ्यां विनक्तयथं्वायं उप. । 
९३ ¢ अपरश्चाह. 


१९ ( कथमजन्यस्य. 
१८ © श्वुक्तम्‌ किमुक्तम्‌ गुणवचनानां 
हि श~. 
२२ © भवति. 
२५ £ स्यात पर नाम चब्दः शब्दो ह्येषः शच्च 
ह्यसंभ-. 
२६ © यथासिधीयते. 
४२३, २ ¢ प्रातिपदिक्रत्रविः. 
३ ?€£ 8 'प्य॒क्तम्‌ किमुक्तम्‌ करमर. 
& (¬ भविष्यंति. 
१२ © षष्ठधयः. 
१२ (^ संपन्न इति तत्रापि प्रा. 


। 


॥ ) क 1 ह  । 


५९९ 


प० पं 


४२३,२९ ए 7: पपृवस्योत्तर. 
२२ 0 पदस्य लोपो. 
२३ © ऽस्वति; 9 ४ £ कण्ठेस्थाः कराला 
अस्य. 
२४ © पविक्रारस्य ष; ] & ०0. {€ 110९. 


४२४, २ 0 भरस्येति क. 


४0 लोपोका. 
६ £ थनाव. 
$ (70. वा. 
९९ ¢ “धिकरणेषु. 
१२ ¢ शश्रयणीयम्‌, 
१९ 0 2 उत्तपरिगिणनमपि. 
१६ 0 070. कतंब्यम्‌. 
९ॐ ) (@ 0170. 
२३ 0 यदात्तिकसुज्र दति. 
२४ © कर्मप्रवच. 
२९ ¢ हरिति व. 


¦ ४२९, ९ © कमप्रवच. 


| 


३ & ॥ 071. 
£ (¬ किम्‌. 
९ ¬ ०7. अथ. 
< 1) £ £ ठ ऽस्तिक्षीरित्य॒पर. 
९९ बैपोस्ते° 91] 38. ९२८९१ ह, 
१२ 0 £८& 2 निपाता भवर. 
१९ ¢ “चारी तवैतत्म?. 
१९ ¢ स्वरे च दो. 
२३ ¢ ०९ करवाणीति, स प्रत्याह: € स 
भह. 
२४ 1) £ 3 ५ ०४ 11९८५11०" ए करिष्प इति. 
२६ (^ इत्युक्तेऽपि सं०...ते कट. 


| ४२६, ३०). स. 


१३ 1) ४2 “त्रस्परमभिसं 7 व्परस्वरसं°, 
२१ ^ य॒य दात. 
, - २४ (~ परचरतीति. 
२९ ¢ प्रभाति. 
४२७, ९ 7 } ०. उत्तरे पञ्चालाः. 
१0787 नीलः कपिल इति. 
२८ प्रत्नो द्रोणशब्दो. 
< (~ 0 ०7. सु. 
९ ( तदापि सिध्यति. 
१० (¬ ०). तद्यथा. 
९७ (; द्शताविति दि. 
२३ 1) & ०1. सतास. 
४२८, २ ¢ सुजर्थ उच्यते 
९९ 0 £ 0. ; एण द 183 106 जनाण्ड. @ 
जशिष्यः ..ध.यिखान्‌ (७४16. 


९४० | पाठभेदः ॥ 


० पण १० प° 
४२८, ६ £ गवाथाभनिधायित्वात्‌. ४२२,११९ 0 ? भेकोर्थः. 
९ © ०). एषु, ९७ 0 बहूवष्वनमस्ति. 


९० 1) 88 १0६ एन ९ग]8४्६्‌ गच््णशङ 
{€ 1018 11०९, 

१९ 0 समीपे दशा 

१२४८९8० त्रच प्रर, 

१२ © कमुमशक्यम्‌. 

९१४ ? ऽमस्वथोर्थोँ. 


२९, २९०. भो. 


४ (¬ व्यव्रस्थाश्ष्दः।. 
९ ७.4 1 दिग; ०८४८ ४38. दिगुप, 
छ 0 "शाब्द इति दिर. 

९९ @ 081. लक्षेम. 

१४ © 7? °ऽमद्वथौर्थो, 

१९ © £ 8 ए कनभावा्थो ; ए ववार, 

९९ (0 01. क्रि यमिधानाव्‌. 

२४ © पृतं दी. 

२४ (01). केशाकेशि, 


४३० ९ 0 दीर्धः स्यात्‌, 


४ © पूवयो, 
९ 0 1) ए पाठेनाष्ययसंज्ाया. 
१२ 0 नाना अधी. 
९६ & ? यथा गुणवचनेषु <0"€ गुणव च- 
नना. 
९७ © कंवल इति शुष्पौ. 
९८ ( 0). च, 
१८ 0 भवर्तीति. 
१९ ¢ भितो समा. 
२९ ¢ वकृ चश्चोति £ मीमांसकश्चौति. 
२३ © उपल्नात. 
२४ 0 ता. 


४३९, ४ £ & ए १1४९8110 7 घखय्या. 


६ & € & ०1९1911} ? सरणे ह. 
७ € “करणे इर. 

१९ 0 “षिच चाः. 

९६ ¢ यदुच्यते. 

२५९;२६ (© ०११. 


४३२, ९ © साथौ; 1” 77878. साथंको पाग. 


९ 7? 7 शस्थित एक एकाथ. 
हे ०. च, 
४ (10 51. दावा क्षामेतिं पाठातर 
«९ © £ 5 सन्नमेते. ॥ 
९ © समृशथत्वात्सि; 8 7 ०". समुदा- 
यस्य. 
९९ ¢ यूथं चतं. 


९.७ ॥ यिका; ०४€ 88, यदा इहा, 

१९ 0 श्ल नोपपद्यते, दक्षेण न्यप्राधा्- 

२० 0 केन दाब्देनान्यस्य; £ 8 भश्धस्यथच 
रक्ष, 

२२ ¢ "केन दाब्केनान्यस्य, 

२२ (¢ च्वेहेतवुच्यते. 


४३१, १८ स्प्रक्षिरतीति; & तीति व्युस्पत्त्या 


श्रक्षिः. 
९ 0 "धो.ऽव्येतः, 
२ © श्रक्षोऽन्येत, 
९० 0 & ०पष्ाण्भाङ़ £ वुननिंयवम. 
९३ (~¬ हित इति अन्धः. 
९६ ¢ ०111. न्यग्रोधप्रयोगः; 0 7 ध्ण्टः 
0४६, 
२२ © भनुतावरवोन्यो. 
२२ © °नूतवेवन्यो. 


४६४, ९ © ¶त्किमेतो 


१९ षेव अिस्विस्यमोधावेव भशो- 


९ 0 प्रोधावेव.। 

३ £ 2 सेयं यर. 

४ 011 91. दतरा क्षामेति पागतर. 
४ ^ एतदपि ; ०. तक्र. 


५ © ०7. ऽपि. 
७ 0 श्ट कार्यस्यासं° 7 चब्दे कायासंर 
९० & ए समुचये । . 


९० ? £ 73 अन्वाष्वये | , 

१९ 8 ? इतरेतरयोगे । . 

९९ (3 श्॒क्षन्यम्रोधाविस्यक्ते, 

१२ £ ठ इति । क्षश्च न्यमोधश्चेव्यक्ते समा- 
हारे. , 

१३ © तजायमर्थो. 

१६ ¢ दश्च समासः. 

१९ 8 7 ०70. हुविंहतिः. 

२४ 0 "करण स्व. 

२९ 0 य दैतत्सम, 10 7810. यदिहिवा पाठः. 


४३९, ९ 7?8€ 2 सर्वाहि द" 


२ 0 (डव्रतीति. 
९९ 7 £ 2 “निष्टं प्रसभ्यैत. 
१८ © उताहीस्वि. 
१९ © “शब्दस्य पु. 
२० अथातन्वं ; © भस्त तद्यतंतम्‌. 


४३६, ९ अस्तु तावत्त; 0 भयवा पुनरस्तु त. 


३ 0 “शड्स्य पूर. 





॥ पाठभेदः ॥ 


ए० प०५ 


४३६,- ६ © वरपनि०...-ङ्कन.सह स. 
९२ ? £. 8 अनेकस्य प्राः; 
81618४० दोषे, . 
१८ & 8 & ०1181911 ‰% ०. 
२९ £ ०010. लघ्व. ... 1, 22 वक्तव्यम्‌. 
२९ © & & » #€. ° 6९८ (@०,1९६९ 
शरगिय; 2 शरवपिं; 1) सुरानीं जं (1); 
६ दरसी यम; प९80067078 हारदही- 
देम्‌ ; 8९ [०४९ 476, 1. 1. 
दे$, २ 8 23 01, न्रातुञ्च...वक्तष्यम्‌, 
३ © & ००४11 £ अल्पीयस्याः; ४६. 
78486८8 1110 8 00४0 76१0178. 
४ © ०0. संस्याया अल्पीयसः. 


£ ष 


दा ङरजमग्धी. 
२९ £ 98 ०. संवस्सरजाता; & ०". खः 
जाता. 
४३८, -३ ¢ पराया. 
९००. तु 
9&28नवा कर्त; 2 गहण्णाङ मच 
कवर, ११६६९९१ (० न वा कतै. 
९० © असिपाणिः मुहालोद्यतः. 
१९ 0 & 01181811 1 दन्तं उनाभ्याम- 
ल्पाख्तरं दि, £ 8 0. विभतिषेधेन. 
१३; १८ (© उष्ट्रं. 
४३९ ८ £ ? अष्टापद इति. 
९१४ 7? & ठ अष्टापद इति. 
६६ £ 8 प१कान्यस्य. 
९८ © भवतीति, 
२० © भविष्यतीति. 
४९०, ४ 7? £ ए 011. अंनभिहितस्तु विर्भन्तयर्थः. 
८ ए ६१०8 हि ४प्ि' अभिहिते. 
९ 0 & ए तेष्वनभिरितेषु ...^त्पात्िनेविष्य; 
ए गण्‌] तेष्वनभिरहितेषु .. -°स्पत्तिने 
भविष्य; ए तेष्वभिहितेषु.. .°स्पात्तिनं 
भविष्य>; प 8 ०1008{{8 1९४8 तेष्व - 
भिदहितेषु. 
१० 0 प्राप्रोतीसि. 
१९७ &£ स्वं च करोषि. 
२० © हदानीयं शौगनमिति. 
२९ हि ममा; 61० "0918. स ममेति पाठः. 
४४९,२;३ 00. च. 
४ £ 23 000. हि 


९ 7 010. 
` ९० 0 विनण्वरेवाः. 
९३ £ 9 071. 
2२९ © भक्षिता ; ४ शभिक्षिती ; प४००१६६८६ 


९४१ 


१० प° 
४९९, < 0 ०0. जु, 
१९ © सामयिकी विन्तिः न नि. 
२९ © दशंनीयं शोननमिति. 
४४२, ३ © एनमनि?. 
१० 8 ०071.; 6 & ग्ण £ न वान्यतेर- 
गाभिधानात्‌, 
९३ 0 श्धानेऽनभिहिताश्रया ; 10 ध. 
ऽनभिधाना पाषा; £ ०. चानभिधाने, 
२४ © यस्तिष्ठति, 
४४३, ९७ (© 011. हि 
२० < ^ 011. 
२६ © हवितीयाभिधामे. 
४४४, ९ 0 ? दितीयाभिधाने. 
७ £ £ ए उनसे. 
१० एर हा देवदत्तम्‌ ०7" न... किचिष्‌, 
९३ © कमेणीत्येवं, 
९९ © भवंत्येव दती. 
१९ ८ £ यद्यवाग्वार, 
२० © अप्नीन्‌ प्री. 
२९ © प्रक्षेपणे वर्तेते ।. 
४९ तद्यथा; 2 यथा; © णण. 
२४ ¢ “शालंकायनामर. 
४४९, २ 0 “शब्दो न दृष्टा 
२०९४ तत्य को. 
8 8 8 सहायो हितीयो. 
७8९४४ स्वामाश्व, 
९४ £ ? स्यादिति । लादिभिरभिहिते द्वितीया 
मा भूत्‌ । भास्यते. 
१६ 28 इह हि दोषः स्यात्‌. 
२० © ०. करोति शकटं, 
२४ © सकमेकरा अक. 
४४६, २ © भवतीति. 
४ © स्तवथ वचनम्‌ |. 
३ © क्रियापवग्गे २ इति. 
९ ए क्रियामभ्य इति ख क्रियामधभ्य इति च 
वक्तव्यम्‌. 
६९ 7 £ ए विध्यति तयोस्तन्म * 
९७ ? £ ? व्रक्षं परि वि? ००. विद्युत्‌ । वृक्षं 
परि । वृक्षमनु । 
१८ £ 8 0. प्रति मातरर. 
२९ © तनायम्थो. 
४४७, ६९ 288 
२० £ & 9 ०1. स. 
२ ८ £ 2 स्ववष्वनान्तु सि. 
४४८, ७ 08 801. स ; ६ 195 1४, 


च * 


हि. 


५४१ 


१० प° 
४४८, ८ 7? £ ? स्व वखनात्तु सिद्धमिति. 
१३ (¬ 001. 
६४ £ & 2 00. कवीवधं गण्छतीतिः. 
९७ (¬ 01". तज. 
२२ ८ (नध्वर्नाति सिये. 
४९, ९ £ 9 भस्वनश्चायमनपवादुः. 
६ © 2 &£ चतुभ्यां वि 
९९ © -यते सोपि श्यपाभ्याया्थां भवति 
९८ © भवति हि ताद 
९९ © तदर्थेन शब्देन सह. ¦ 
| २९ £ 2? ००1. ४116 8९८० कल्पते. 
२६ & & & ०7&्1०६]| ङ 9 ०, 
४९०, २ ‰ 070. 
९९ 3 010. 
९२ © ००. अलमिति..-क तव्यम्‌, 
१४ £ ०. मल्लाय प्रभवाति मलो. 
१९ इक; £ दागालै. 
९९ 0 गिष्विति सद”; इमेऽनाषाः. 
२० 2 ८ ्तीणे नाव्यम्‌. 
२० 0 स्वा भन. 
२९ £ + (इुक्तं श्रा ८82 श्राद्धमिति 
२९ (येप्राणिषुनेष्यतेते ऽना 
४९९, ९ 17818 1760४008 (0८1९0198 प्राति 
कुष्य ; ( प्रहणं कतैव्यम्‌ 
२तनस्वाठः; ए्टदणंस्वा मः. 
२8 8 0, 
४ (€? याज्ञिकः; वैयाकरणः. 
५९ & 5 ०. जिद्रोः...'्गाति. 
७ 0 इह तहि प्रक्र°. 
८ 89 याज्ञिकः. 
८ £ 2 वैयाकरण. 
९ © तेनाहं ज्ताये. 
१० 0 ण्व्य स्यान्न प्रयुर, 
९९. 7 £ 23 समेन पयति ॥. 
९१९ 0 क्रणातीति. 
९२ 7? £ ८ ०"). जिः. ..ननातीति, 
९३ 0 क्रीणाति, 
९४ (¬ 011. साह ०....गातीति,. 
२० © प्रधानं कतौ. 
२९ © इदे तहं प्रयो ननम्‌. 
९३, ९ 0 (वापक्राल उपस्थिते तद्‌°. 
२ £ 7 0. भविष्यति. 
३ 0 विनक्तिवंली; € भक्तबैली?; 2 
“र्थकं उपपदविभक्तिः बर्लयस्त्वात भ- 
नापि, 


४५ 


॥ पाठभेदः ॥ 


प्० ० 


४५३, ६ 0 0विभाक्तेवेलीर; ए अन्वजराप्यपपदवि- 
भक्तेः कारकिनक्िवबंलीयसी भवति । 
कान्यत्र ।; 2 ०77्०४)।5 कारकविभ- 
क्ति बंलीयसीति प्रथमा भविष्यति । 
अन्यचाप्डयपपदविभन्तेः कारक्र विभक्ति- 
बीलीयसासि प्रथमा भवति । कार 
[८९1९ ४78 । कारकविभक्तिबेलीोय 
स्स्वाद्न्यत्राप्डपपदविनन्तेः कारकविभ- 
क्िबेलीयसीति प्रथमा भवति । अन्राप्य- 
पप भविष्यति । कष; 8 कारक- 
विनक्ति बेलीयसीति प्रथमां भविष्यति । 
अन्यज्रापि उपपदविभक्तेः कारकविभ- 
क्ति बेलीयसीति प्रथमा भवाति | एवमत्रापि 
उपपद्तिनक्तेः कारक्र विमक्तिर्वलीयसी- 
ति प्रथमा भविष्यति । क्षा, 8 कारकवि- 
भक्तिबेलीयस्स्वात्‌ । अन्यत्रापि ...1;16 
€, 0 एवम भविष्यति 87ण्टु 


०४६ 
ई भविष्यति; 0 भवाति ; 10 '791.भविष्य- 
तीति इति पाठां 
९० & <€ ०1६०९117 ए अंगादिकारतश्वे 
९६ (1 07) 
९९ ? & भतलक्ष 
२१९ ¢ “ग्भूतलक्षर्णं तत्र 
२१९ (~ श्रुतस्य लक्षणं पृथग्भूतं ल 
२३ ¢ भूतस्य लक्षण इति 
४९४, २ 0 षष्ठी भवाति विप्रति 
७ & 8 शव्रिभन्तेरपप बः. 
१९ 2 £ 8 071. विभक्तयः. 
४५९, ९ 0 प्रासादाप्परक्षत प्रासादमारुह्य प्रेक्षत 
इत्यथः. 
® 09 & ०110811 ‰ ०. 
१२ तज ; £ & 8 ततः. 
१६ 0 मासे इति. 
१७ ( 01. ८९ 18! चच. 
२० © ०011, क्रि 
२९ 8 ०८" भोवात्‌, अन्या वान्या प्रातु- 
भेवति 
२४ £ 8 निद्त्य 
२४ £ 7 ००. कात्तिक्या...परदुश्यते 
४५६, ४ £? निद्धव्य 
९ £ नेषु ततः सां ८ ओष्ठ मतेषु ततः 
सां 


८ 0 (स्तादेषवादः. 
९९ 0 भ्रामस्य |. 


|] पाठभेदः ॥ 


¶9 पं9 
४९६, ९२ © श्येन सिद्धं. 
१४ © ग्योजनम्‌ तत्रा. 
९७ किमयम्‌ ; © 1" पश. क्रिमिदेन प्रक- 
तामिति पाठः. 
९९ 8 7? अनधिकारः 
४५७, ॐ (¬ 070. प्मीं. 
७ 0 £ 8 अन्यादि. 
९० £ £ ए °ग्ड्‌क्रश्चुतयो. 
९९ 8 & 07810211 8 ०४. यथौत्वशण ... 
| भविष्यतो. 
| ९२ 0 °न्यविमः. 
| ९३ © प्रष्त्तस्यापवादो. 
१८ © स्प चमीप्रः. 
२० £ ए ६ दक्ंनाइनथंकः प्रतिः. 
२९ ६००१. नवा 
४९८, ३ £ ए असावधाती. 
£ © परिगृणीता याज्ञिके. 
९ 0 भ सपमी. 
६ © ०, च. . 
६ असाधुः पितरि; ४ असाधुमातुकले कृष्णः, 
® #॥ 0 010. 
८ दरिद्रा; ए 4 & ०१6 £ मुखो. 
९९ 0 सीनेषु उद्धा बद्धा; + ०121४17 
°सीनष व्रा; 0 71 11४, दस्द्रिष्वा- 
सीनेख ऋद्धा यजते पाठः. 
९३ ^ 1, 07, 
९४ मुखौ ; 0 ;० 9६. दरिद्राः पाठगातर. 
९६ & ए 0, 
१९ £ पुष्यलको ; £ 5 युक्रलको. 
४५९, ९ प्रस्थितो; £ ? गतः 00४ ध11९8. 
५ © तस्येति वक्तव्यम्‌ ; 11 ण्ट" तज 
प्रमी वक्तव्या. , 
७ (¬ खयल्वप्यवदयं. 
९८ © मातरं परीति ; £ 2 मातरं प्रति. 
४६०, २ £ ए ०1. ४१८ 018 इति. 
४६९, २ 197४९: प्रातिपहिकायंम्रहणं किमथे. 
मिति काविस्पाठः. 
२ © मीचैरज्ाषि. 
# ¢ प्रथमाति. 
१० £ ? यज्रैतानि सवोणनि समु 
१४ © ? एवमान; 010 पटः एतन्मा 
एवेति पाठा. 
९९ 0 “विशिष्टेषु. 
२०.0७ & णपाहःण्भार £ संबोधनमामंजि. 
२६ £ ए वीरः पुरुष इति ; ८ वीरः पुरुषः वी- 
रपृरुष इति. 





९४२ 


ए० 0५० 


४६२,९० हष्िः 01181"811‡ 1: श्स्तीति गम्यते 


१२ 7 हिते हि प्र. 

१३ © 7? -हिते हि प्र. 

१९ (¬ 0). किमुक्तम्‌, 

२३ £ 2 तावच. 

२३ 08 न वाप. 

४६३, २५७४८ प्रकल्प्य चाष. 

(0०0). का, षो. 

७ £ £ 3 (निवमस्तदा य्यः. 

१२ ? £ ? -ग्याञ्वया. 

९१४ ( नाम विर. 

१५९ 2 £ + तद्यथा, ०€०1< समुब्रः. 

४६४, २ 0 भविष्यतीति, 

९१९ (¬ 70. इति. 

१२;९३;९७ 7: £ ? “शाब्दस्य प्रः. 

१८ ६९7११६५ तद्यथेति । प्रातिपरिकाथोना- 
भित्यथं : । चित्त प्रातिपरिकाथानामि- 
व्येव पाठः ॥ ; ¢ & ०1११7 प्रा 
तिपदिकानां. 

२९ ताः कडा; 09 00). च, 

२९ £ ए निमित्तस्वेन नोप. 

२४ ? € 2 षष्ठी भवति एव. 

२६ ¢ 00. त॒, 

२७ © वाह्यार्थ°; ए बाह्यमथमपेश्येति. 

४६९, ९२ © मातृशब्वासिपिटरब्ठात्‌. 

१४ †? £ 3 भवतीति. 

९१६ 8? यदा ख कर्भ. 

१९ 1 £? चोर. 

४६६, २ 8 गां निन्नाति; £ तिध्रति (कणा०ण्न्गा). 
२ 0 प्रतिरीष्यति. 
* “३ @ {‰ & 8६प९४५ न्रामर्व, 
९ & £ & 3 ‰ 0). 


१० ए राश्रीरिति; £ तस्ये ख्वौ जायते यां 
मलकवहाससमव तिलो श्रीरिति. 8 


सस्थे खर्वो जायते मलवशसं संभवति 
तिस्रो राज्ीरिति, 


१९ ५ या अरण्ये भठति तस्थै. 

१९ 6 या परशंशी तस्यै मुख्बऽगल्भो, & 
हीतः काधि ०रशः ८ 1०८; &2 
^प्रगत्मो. 

९२ © था ष्यभ्य्ते. 

९१२ © ¢ £ प्रालेखति. 

९३ © "वस्मारी. 

९३ © ¢ धावति. 

१४ 0 निकृति. 


५४४ 


१० पं9 


४६६, १४ ¢; कृताति 
१९ © ए उन्मादको 
९९ 0 मनार्यै. 
४६७, २ कि कारणम्‌ ; © खतः. 
५ © धातोर्हि ये भ्र. 
९ 0 भूत॒. 
१० £ & 0८811 ? तकृदंतकमर. - 
१९४ (© अथाक्रियः. 
९६ 0 कि तर्हि. 
१९ ¢ & 0111. न॒; 1० 13 1४ +8 ६०१८५. 
२४ & ठ निर्वैतेते. 
२६ 0 शङवतीति. 
४६८, ९ 0 कटमिति ।. 
८ देवदत्तस्य यत्तदत्तस्य काः. 
९ £ 80). प्रयोगे. 
९७ 7 011). दोष. 
१९ 0 क्रि पुनः; 20 णश. कथं पुनः वा 
पाठः. 
२९ 0 तद्यथा ए९णिर क्षमृ्रः. 
२२,२३ © छुप्तम्‌, सुप्तः; 11 "181. घुपानाति 
स्थानचतुश्ये पाठातरं. 
४६९, २ £ क्रिकिनोः प्रतिषेधार्थम्‌ 8 ०५४. 
४ 0 परिः साम. 
१२ £ दिति त्तास्यते. 
१९ 0 नल ङक न लोक इति; 1प पाशा. 
ल ऊक लोक. 
२३ & 73 & ०1&०१]फ ए नटमा. 
४७०, ३ 7 £ 8 चोरस्य. 
३ & 8 & गक्ाण्शाङ्‌ £ ०. बृषलेस्य 
द्विषन्‌. 
९ ब्रस्ययग्रहणे; © प्रव्याशारम्र., ०८ प्रत्यय 
ा1८६€ा) ०९१९ 1४, 
६ प्रस्याहारप्रहणे ; ¢ प्रस्ययप्रहणे; £ ए प्र- 
स्याहारे. 
९० £ 0 070. ^ 
९२ 0 ०7. तत ; 1" "878. तत इन इति 
पाठतरं, 
९३ © ४९ गमी, कि प्रयोजनम्‌ संख्याता- 
सुदेशो मा भूदिति. 
४७१, ९ 0 भवतीत वक्तव्यम्‌ ।, 
२ © शास्वा दति. 
२8& 8 तरिं निषेधः प्रा, 
ह ५ साघ्ना।. 
३ 8 8 & 05 शाध्टऽधग £ श्रासिरेवैषा. 
५ © यजोमयोयुगपस्प्रयोगो. 


| पाठभेदः ॥ 


१० पण 
४७१, ६ © कमेणीति भवति; ८ कर्मणीति भव. 
तीति 


3७२, ९ (ग 'भंविष्यति. 
९९ © प्रर्यधिकरणम्‌ ।* 
६ © बह्थयास्य. 
९३ © चानुप्रयोगो. 
१९ © तसर्हाति वै. 
१९ £ 8 एकदोषे च. 
२२ 0 श्क्तष्यम्‌. 
४७३, ९ 0 ताद्धेतप्राते. 
६; & ए ०. समाहर कस्वात्‌ म वैतत्‌. 
१० £ ए 01. एको. .तस्थकत्वात्‌. 
१० © भविष्यतीति. 
१७ £ £ 8 ००. दुन्दूश्च. 
४७४, ९ £ 7 01, 
३ ^ ४ £? & 0. 
५ £ उदगास्कोमोद० 8 उदगास्कीमोद. 
® ६ ०1; 0 अनगरःर | 
८ मथुरा : © 1 एष्ट मधुराः पा. 
९ £ ए णार; र 2 इ्प्ल ०ण४, 
९० © कौतवता च हौयक्रितवते. 
९९ ए शाल्किनी -.-'्टाूकिन्यो 
१६ 7? £ 3 पतति ते क्षु. 
४७९, ३ © 'क्धालवना; ^ प्रागादशंनात्‌ प्रस्यद्षाल - 
वयना., 7 प्रागदच्चोत्मस्यद्धालवचनाः. 
& (0 किल्किधिगदिकः, १००१८ € 11९ ष्‌ 
पा; ६ 8 -गंधिकरं; ^ किष्किधग- 
ब्दिकि ; ए किष्किन्वशब्दिकिम्‌. 
# ५ °क्रोभ्यमिति; + °क्रोव्यमिति; ए "कौ - 
न्त्यामिति, 
९ (© येक्तेः पाः. 
९३ (© & 01121011 ‡ गवेलकम्‌. 
९७ € ? शश्भुनिक्षुद्र. 


१९ 23 ०0. बर्रामलकानि ; १5०1४ 
168 ७0८0 1€841118. 
२९ & ? शकुनि. 
४७६, ९ © 7" पण. शारहीषे शरशीषौः पागं- 
द ~ यत्त्र 


४ © अथवाविशे. 

६ ¢ & ०&०४11$ 7 पृष्विप्रतिषेधः, 

® 78 ४ इहे विरोधिनां येषा. 
१९ © & ०781०911 7 भवति विप्रतिषेधेन. 
९६ 0 £ लिगस्याव. 
९८ © & गाषण्णा ? पच्युददे नपसक. 
१८ ¢ {6 अश्ववडवम्‌ , पशवडवं, 





कर, 





|| पाठभेदः 


० 0० 


४७६, १९ 0 वचुह्दं नपसक. 


२९ ¢ ४७1८6. 
३ 0 एकवदूचन 
२९५ £ ए एवं विज्ञास्यामि इह 


४७8, २ 0 01. स 


३ © मश्ठिगस्योते, 
< (¢ प्रयोगे स्यात्‌, 
९ © ब्य॑ष्ययानां सं. 


४७८, २ © अन मीति 


२ © कर्मधारय 

६ 0 परस्य ह्िगं 

७ £ 071. यथां ; ? स्समासस्यापि स्थाः. 
९०,१९ 13 010. 
९३ © ०१. अलपूर्वै. 
१४ 0 “समासेषु. 

९६ 1485. “हिदयते. 

२० 0 07), 
२३ ¢ "पसजेनहस्वस्वं. 


४७९, ९ ( 0111. 
२ © दियते. 
४ ५ ष्याठौ चनो. 
६ © “ननैव शक्यं. 
८ ७ परस्यैव परवदिति । कथं तर्हिं । पर. 
स्यैव. 
१३ 7? £ ८ रभ्यते. 
९६ ” £ 8 समानाधिकरणो भः. 
९९ 4 ०,.; {ए 01, {1018 ६१५ 16 01[णजा7ह 
अनु. 
२० £ £ 8 ग)". सुक्तवाक्र 
२३ © नपुंसकस्वं २व; ^ महः । नवु 
७८०, ९ ^+ & 3 £ 00.; त पर्थंस 
। ¢ ^ 01, 
६ © सखियां २भा- ^ सरिया ॥ ना 
8 (~ ए 01,; ^ वाबंतं। स्यां 
१० © नलोपश्च २ वा; ^ रलपश्च। वाच. 
१० 2 0111. दद्ातक्षम्‌ ठ रातक्षी. 
१२ 0 न पाज्ादिभ्यः पाज्राहिन्यश्च प्रतिषेधो 
२ व न पात्रादिभ्यः पाज्नाः; न 
पात्रादिभ्यः पात्रादिभ्यः प्रतिषेधो वम; ए 
00. पार्जाः . वक्तव्यः. 
९४ 0 अधशचांदय २ इति. 
९४ & & 1" 108. 2 कषायं काय 
१९ & 9 & ४९ ९1८6801 7 सारकर सारकर 
69 


९१९ 


99 प © 


४८०, १९ © वत्ति तथा निरद॑शः कर्तथ्यः । न क- 


तव्यः । बहव चनः. 
४८१, ९ 8 9 06९ & ०९1० नुकथितमाज्रम्‌,. 
ह 0 °मेव यकन; £ ए °मेवानु" , 
0 रब्रुपस्य लोपे. 
® 0 '्डात्तमेव व; 3 “दात्तस्वं वर. 
< £ 28 & ४२ ०1४61१४० ‰. 0€76 & एलन 
अचादे्ा. 
९३ © ण. शिस्करणं क्रियते स्वादेशाथंम्‌. 
१६ 2 न वास्यविः 
२० © अर्थवत्‌ अकार. 
२ © चवश्नप्रयोजनं 
४८२, ३ 8 5 011; क्ते; 10 2 5 प्ल ०८८ 
३ £ 28 & ४९ 91८० ए एतषनुडात्तः, 
६ © पूर्वं उदात्त 
७ ( कृते प्रत्ययः पूर्वै उदात्तः. 
६६ © ऽधिक्रारा भवंति ।. 
२० ‰ £ 8 00. 
२९ कर्तव्यम्‌; ? वक्तष्यं; £ 7 वक्तव्यः. 
४८३, ९ © ददिष भदेशेषु कृतेषु. 
१९ ए ग). पिस्स्यम्‌. 
२२ @ वक्ष्यामीति. 
४८४, ६ ? £ ए आर्धधाठुक्रे वि; 
ठव । तज्राः. 
१३ 0 यदयं ल्य. 
१९ © तन्न कर्तंध्यं भवति. 
२४ © प्रधस इति. 
४८९, ४ 0 वधादेशे. 
७ 88.01 
९७ 0 ननुर्ब॑ध क्रियते 
९७ ¢ क्र विरेषणायेम्‌; ? विशेषणानयथ 
४८६, ९ ए £ 2 गाकुटादिन्य इति ह्युच्य 
६ © ०10. प्रयो ननं; ख्याञ. 
७ ( भवतीति. 
८०७४४६८ ०णा.; 0६ ‰ 078१ ६10) 
९08 "€ ०14 प्रयोजनम्‌ ०{ 11९ म. 
१९९ (ण) „ `“ 
१२ 0 & ०&ःण्णा]> ४ कारकति 
१६ © मेरितीति 
९१७ 0 समा शोषा. 
२० 2 प्वहानां टेरेष्व. 


(~ (विषय 


१६५१४ 10 106 ©।०५॥81100 068॥ 0 20# 
(401४681१ 21 81101018 । 1018४ 
01 †0 {09 
0 ग1।10॥4 2६०७।0०।४॥॥ 1180007 # 41111 
8100. 400, 71600006 1810 51९४110 


(101४881४ 01 (81101018 
01670000, ©^ 94804-4698 













0 ॥ 800५5 ^. 8£ 0६00110 ^£ 7 0445 

2-70000॥ 10808 1)8# 08 1606४86 0# 0809 
(415) 642-6753 

1-/68/ 10808 70)8% 06 16008060 0# 01109100 00०68 
{0 ॥ 

0606४818 8009 16008068 708 06 0806 4 688 
0110 {0 0४५6 0816 


01६ ^6 3170760 8£। 0४४ 
^ 02 8 1५५८ 


12१९ 0? 199: 
॥ 1०. 2, 


` पपि एण्ड 
॥?९ 17 {395 
_ ८22५८ 
_ ८ 1799 


^~ -- ------~ | | (\ | 1 ९.) 1५ ४. ६... ## { 





५6 


1 





8604616 [16९0165 


॥॥॥॥॥ 


८०३१७३०५०२ 
५ तथः 
¦ ९